प्रसिद्ध विधिवेत्ता (jurist) तथा सम-सामयिक समस्याओं (current problems) के विश्लेषक नानी पालखीवाला (1920 – 2002) " भारतवर्ष को, आर्थिक दृष्टि से सोया हुआ एक महाकाय दैत्य (तिमंगल) मानते थे। [तिमंगल- यानि अपनी 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनने की सम्भावना (क्षमता) के प्रति सोया हुआ देश मानते थे।], जिसने निद्रा की लंबी रात के बाद, अब फिर से अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया है ! उन्होंने कहा था -“Enlightened citizens cannot be produced in the factory – it has to come through education. Thus teachers are the torch-bearers of change, change for the whole nation, change for the whole world.”
अर्थात जो राजा जनक जैसे (प्रवृत्ति मार्गी) राजा होकर भी (निवृत्ति मार्गी) भगवान बुद्ध के जैसे ब्रह्मवेत्ता और 100 % निःस्वार्थी मनुष्य है। और ऐसे एनलाइटेंड सिटिजंस या ब्रह्मवेत्ता राजर्षियों का निर्माण कारखानों में नहीं हो सकता; यह केवल शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। इसीलिए तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा वल्ली ' में एन्लाइटेन्ड मनुष्यों का निर्माण करने में समर्थ 'आचार्य परम्परा ' (अप्रतिम प्रशिक्षण-प्रणाली-Unique Training Method, अद्वितीय गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) को -'श' में दीर्घ 'इकार' लगाकर 'शीक्षा' कहा गया है ।
क्या (Be and Make Leadership training tradition) में आमूल परिवर्तन या सम्पूर्ण क्रांति के कम से कम 100 मशाल वाहक 'नेता '/ राजर्षि (Torch -bearer of change) बनो और बनाओ आंदोलन ' के माध्यम से .....
..... क्या ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा ’‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ?
जहाँ प्रत्येक मनुष्य ’’‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) के भाव से आविष्ट हो?।
क्या धरती पर ऐसे दिव्य मानवों की संभावना है, जिनका होना ‘ब्रह्म’ का प्राकट्य हो, जिनका पारस्परिक आचरण ‘लीला’ हो एवं कर्म ‘सृजन के लिए सृजन’ हो?
ऐसे विचारों और कल्पनाओं में हजारों पंख लगाए जा सकते है, और सैकड़ों दिशाओं में इनकी उड़ानों का चित्र देखा जा सकता है। लेकिन क्या 21वीं सदी इन संभावनाओं के यथार्थ प्रकटीकरण की सदी हो सकती है?
इस प्रश्न की प्रासंगिकता जितनी आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्योंकि गत 100 वर्षों में संपन्न भौतिकी की खोजों ने, (न्यूटन से लकर हाॅकिन्स तक), विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है।
क्वाण्टम फिजिक्स की आधुनिक अवधारणाएं, हजारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित वैदिक ऋचाओं का तार्किक वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण सिद्ध हो रही हैं।
आधुनिक क्वाण्टम भौतिकी की अवधारणा, अद्वैत वेदान्त के वैज्ञानिक दर्शन शास्त्र की तरह सामने आई हैं।
दलाई लामा के शब्दों में ‘‘क्वाण्टम भौतिकी, विज्ञान और धर्म (अध्यात्म) के बीच एक ऐसा सेतु बनकर आया है जिसे हम ‘पार का विज्ञान’ (Science of transcendence) कह सकते है, जिसकी तीव्रता से प्रतीक्षा थी’’
क्वाण्टम भौतिकी, के नवीनतम सिंद्धातों ने अब साफ कर दिया है कि विश्व का कारण पदार्थ नहीं है। और आइंस्टीन ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ (Matter) और शक्ति (Energy) समतुल्य हैं (E=M), इसलिए अब क्वाण्टम फिजिक्स कहता है कि जगत का कारण पदार्थ या ऊर्जा नहीं बल्कि 'जगत साक्षिणी ' चेतना (Witness consciousness / Existence -consciousness-bliss)है ....यह उद्घोष भारतीय प्राचीन वेदों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दिया था कि...
.... 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' ~ ‘‘विश्व में चेतना ही सर्वत्र है और कुछ नहीं’’ (छान्दोग्योपनिषद्, 4.1) इस चेतना को ही वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। समूचा वैदिक साहित्य इस ‘ब्रह्म’ (सच्चिदानन्द) का ही बखान है।
विषय में उतरने से पूर्व वेदान्त दर्शन के कुछ महावाक्यों पर दृष्टिपात करें :
'सर्वं हृोतद् ब्रह्म'~ यह सब कुछ ब्रह्म है, (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
'अयं आत्मा ब्रह्म' ~ यह आत्मा ब्रह्म है (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
'ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति' ~ जो ब्रह्म को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता है। (मुण्डकोपनिषद्, 3.2.9) 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' ~ सभी में ईश्वर का वास है, (ईशावास्योपनिषद्, 1)
'एकोहं बहुस्याम्' ~ मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ, (आर्षग्रन्थों में सुविख्यात उक्ति)
'एकमेवाद्वितीयं' ~ ब्रह्म एक मात्र है, अद्वितीय है (छान्दोग्योपनिषद्, 6.2.1)
'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' ~ सभी प्राणियों में मेरा (परमात्मा) ही अंश है (भगवद्गीता, 15.7.) 'एक इवाग्निर्बुहुध समिद्ध एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः।
एकैवोषाः सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्।।'
‘एक ही अग्नि अनेक रूपों में प्रज्वलित होती है । एक सूर्य सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करता है । एक ही ऊषा से यह सम्पूर्ण जगत् आलोकित होता है। वास्तम में यह सम्पूर्ण जगत् एक ही विशेषतत्त्व से उत्पन्न हुआ है’। (ऋक्वेद, 8.58.2)
ऐसे हजारों महावाक्यों, मंत्रों, सूक्तों, ऋचाओं, सूत्रों एवं श्लोकों से वैदिक साहित्य ओतप्रोत है। आधुनिक भौतिकी के सामने उपस्थित सभी प्रश्नों के उत्तर इसमें निहित है।
इस अनिवार्यता को समझते हुए ही स्वामी विवेकानन्द ने 19 वीं सदी के अन्त में भारत की भावी पीढ़ी के युवाओं के समक्ष अखिल भारतीय स्तर पर 'आचार्य परम्परा' में 'युवा प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करने की चुनौती देते हुए कहा था -- कि ‘‘चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ या सभी मार्गों का एकसाथ अनुगमन करो, किन्तु, वज्र (थंडरबोल्ट) के समान मनुष्यों का निर्माण किये बिना चैन से नहीं बैठो ! (-शाहिद के बेटे के शब्दों में 'सुतो मत !') यदि आचार्य परम्परा में 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से संपन्न' प्रवृत्ति मार्ग के कम से कम 100 पूर्णतः निःस्वार्थपर सप्त राजर्षि (Torch -bearers of change ) का निर्माण किया जा सके, तो सम्पूर्ण विश्व में ऐसी आध्यात्मिक क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ! अतः "Be and Make" ~ let this be our motto ! " बनो और बनाओ' ~ यही हमारा आदर्श वाक्य रहे। ~ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद, 1.3.14)"
और स्वामी विवेकानन्द के द्वारा भारत के युवाओं के समक्ष 19 वीं सदी में रखे गए ' Be and Make ' ~ के द्वारा आध्यात्मिक क्रांति लाने के इस चुनौती, या ~आह्वान के मर्म को 20 वीं सदी में पश्चिम बंगाल के एक 35 वर्षीय युवक ने समझा। और उस परिवर्तन (आध्यात्मिक क्रांति) - जिसमें भारत का बच्चा बच्चा 'अहं ब्रह्मास्मि ' (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे - को साकार करने में समर्थ - 'परिवर्तन के मशाल वाहक नेताओं ( Torch -bearer of change)/ या जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में करने उद्देश्य से ' एक नया युवा आंदोलन : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' को 1967 में पूज्य नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय) के नेतृत्व में आविर्भूत होना ही पड़ा।
इस युवा संगठन द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में विगत 53 वर्षों से " प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में सामंजस्य" स्थापित करने की आचार्य परम्परा " में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं (परिवर्तन के मशाल वाहक) का निर्माण करने के उद्देश्य से " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव " 3H " हैण्ड , हेड और हार्ट् को विकसित करने के 5 अभ्यास--- 'प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग ' की अप्रतिम विधियों (unique methods) का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
21 वीं सदी में भारत के आर्थिक दृष्टी से संपन्न युवाओं ने यदि आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत करने वाले इस 'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माणकारी आंदोलन' से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया तो वैसी आर्थिक प्रगति का कोई अर्थ नहीं होगा।
अतः 21 वीं सदी के युवाओं का यह दायित्व है कि " श्री कृष्ण-अर्जुन गीता नेतृत्व -कौशल विकास या शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित " विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" अथवा " Be and Make Leadership training tradition" में प्रशिक्षित " आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा सम्पन्न " 100 % पूर्णतः निःस्वार्थपर थंडरबोल्ट अप्रतिरोध्य 'नवनीदा' जैसे प्रथम आचार्य या कमाण्डर इन चीफ ('C-in-C') मनुष्यों (राजर्षियों) का निर्माण करने के आंदोलन को भारत के गाँव गांव तक पहुँचा दें।
मनुष्य के दो अस्तित्व का विवेक
सांख्य दर्शन में, संसार (प्रकृति) के सभी गुणों की पहचान तीन मूल गुण (शक्ति) सत् , रजस् और तमस् के रूप में की गई है। जड़ता (Inertia-अक्रियता ) को तमस, सक्रियता ( Activity) को रजस, और पारगमन या त्रिगुणातीत (Transcendence) अवस्था को सत्व कहा गया है। तीन शक्तियों में से तमस -निम्नतम शक्ति है- आकर्षण-शक्ति स्वरुप। ... तथा आकर्षण और विकर्षण में संतुलन स्वरुप शक्ति का नाम सत्व-शक्ति है।
[All the qualities of the world have been identified as three basic gunas, tamas, rajas, and sattva. Inertia is called tamas. Activity is called rajas. Transcendence is called sattva.- श्रीश्री रामकृष्ण महिमा : अक्षय कुमार सेन :ब्लॉग शनिवार, 7 जुलाई 2018/ जैसे अक्रिय गैस (Inert gas) उन गैसों को कहते हैं जो केमिकल रिएक्शन में भाग नहीं लेतीं और सदा मुक्त अवस्था में प्राप्य हैं। जैसे हीलियम, निऑन, आदि। गहरे समुद्र में गोता लगाने वाले साँस लेने के लिए वायु के स्थान पर हीलियम और आक्सीजन का मिश्रण काम में लाते हैं। मेटलर्जी में जहाँ अक्रिय वायुमंडल की आवश्यकता होती है, हीलियम का प्रयोग किया जाता है।]
तीनों गुणों में से प्रत्येक की अपनी विशिष्ट विशेषताएं हैं और यह माना जाता है कि दृष्टिगोचर जगत का सब कुछ इन तीनों से बना है। प्रकृति के तीनों गुणों की वृत्तियाँ बदलने वाली हैं और इनके परिवर्तन को जानने वाले पुरुष में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। इन तीनों गुणों (शक्तियों) के कारण विभिन्न व्यक्तियों में दिव्यता की अभिव्यक्ति में भी तारतम्य होता है और ये गुण नित्य, अनन्तस्वरूप आत्मा को मानो अनित्य और परिच्छिन्न बना देते हैं। तीनों गुणों की वृत्तियाँ दृश्य हैं और पुरुष इनको देखने वाला होने से द्रष्टा है। द्रष्टा दृश्य से सर्वथा भिन्न होता है -- यह नियम है। भूल यह होती है कि दृश्य को अपने में आरोपित करके वह मैं कामी हूँ, मैं क्रोधी हूँ आदि मान लेता है।
प्रकृति और पुरुष -- दोनों विजातीय हैं। तमस् गुण के प्रधान होने पर व्यक्ति को सत्य-असत्य का कुछ पता नहीं चलता, यानि वो अज्ञान के अंधकार (तम) में रहता है। यानि कौन सी बात उसके लिए अच्छी है वा कौन सी बुरी ये यथार्थ पता नहीं चलता और इस स्वभाव के व्यक्ति को ये जानने की जिज्ञासा भी नहीं होती।
गीता 14.8 में भगवान कहते हैं - तमः तु अज्ञानजम् विद्धि मोहनम् सर्वदेहिनाम् ! --हे भरतवंशी अर्जुन, सम्पूर्ण देहधारियों को (embodied beings) मोहित करने वाले (deluding) तमो गुण (inertia) को तुम अज्ञानसे उत्पन्न (born of ignorance) होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है।
विवेक, वैराग्य और मुमुक्षा
यह शरीरी जन्मरहित नित्यनिरन्तर रहनेवाला शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है, परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगों (अहं) की ही मृत्यु होती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता।
इस शरीरी का कभी जन्म नहीं होता। इसलिये इसे अजः अर्थात् जन्मरहित कहा गया है। यह शरीरी नित्यनिरन्तर रहनेवाला है अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। जैसे आधी उम्र बीत जाने के बाद शरीर का बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियों की शक्ति कम होने लगती है। पर शरीरी का अपक्षय नहीं होता। इस नित्यतत्त्व में कभी किञ्चन्मात्र भी कमी नहीं आती। यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे' शरीर का नाश होने पर भी इस अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता।
कोई मरना नहीं चाहता, फिर भी सब-के-सब मरते हैं । बिना चाहे क्यों मरते हैं ? शरीर के साथ एकता मानी है, इसलिये मरना पड़ता है। यदि हम शरीर के साथ तादाम्य को त्याग देंगे , नश्वर, जड़ शरीर और मन (मिथ्या अहं reflected consciousness) के साथ अविनाशी चेतन तत्व या आत्मा (Infinite-existence-consciousness-bliss) की एकता नहीं मानें, तो हम मरेंगे ही नहीं, प्रत्युत अमर हो जायेंगे । वास्तव में -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, अर्थात स्वतः-स्वाभाविक रूप से अमर है। मरता शरीर है, मैं और तुम भी कभी नहीं मर सकते !
विवेक का फल क्या ? विवेक का फल है एक निश्चय पर पहुँचना । आप सोच-विचार तो करें परंतु किसी निश्चय पर न पहुँचें तो विवेक क्या हुआ ? ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यम्- ज्ञान की पराकाष्ठा को ही वैराग्य कहा गया है। ‘देह असत्, अनित्य, जड़ और दुःखरूप है और इसका साक्षी मैं सत्, नित्य, चेतन और आनंदरूप हूँ’ - यह निश्चय ही विवेक है । ‘ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है’ - यह निश्चय ही विवेक है । शाश्वत-नश्वर, नित्य-अनित्य विवेक द्वारा जगत की नश्वर वस्तुओं ( ephemeral things या क्षणभंगुर कामिनी-कांचन या नाम -यश के सुख) से मन के अनासक्त हो जाने को संस्कृत में 'वैराग्यम्'(detachment) कहा जाता है।
क्योंकि -इन्द्रियाँ अत्यन्त उपद्रवी (turbulent) हैं, वे हमारी चेतना (awareness-आध्यात्मिक जागरूकता ) को बलपूर्वक (violently) अपने विषयों में खींच लेती हैं ~ हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए ज्ञानी (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं। क्योंकि इन्द्रियाँ बलवती हैं और वे ज्ञानियों के चित्त को भी जबरन नीचे की ओर खींचती हैं।" [यततः हि अपि कौन्तेय (son of Kunti) पुरुषस्य विपश्चितः (of the wise) इन्द्रियाणि प्रमाथीनि ( turbulent) हरन्ति (carry away) प्रसभम् (violently) मनः।]
विज्ञान (अपरा विद्या -अविद्या) और अध्यात्म (परा विद्या)
मुण्डक में इस 'अप्रतिम विधा' ( Unique Method)-" गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" या " Be and Make Vedanta Leadership Training" परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों/गुरुओं/C-in-C नेताओं की आचार्य पम्परा (श्रुति परम्परा) वर्णन बड़े स्पष्ट रूप से इस प्रकार किया गया है- महृषि शौनक (महागृहस्थ ऋषि ),जो स्वयं एक बड़े विश्वविध्यालय (ऋषिकुल) के अधिष्ठाता (मैनेजिंग Director) थे, उस समय के शिष्टाचार के अनुसार हाथ में समिधा (यज्ञ के लिए पवित्र लकड़ी ) लेकर उन अङ्गिरा मुनि के निकट गए और प्रश्न किया कि - "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" -- ” भगवन ! ऐसी कौनसी वस्तु है जिस एक के जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है ?” ' Sir, what is that through which, if it is known, everything else becomes known?'
महृषि शौनक (भावी राजर्षि) का यह प्रश्न--' वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है?' --- प्राणिजगत के लिए बड़ा ही कौतूहल जनक है, क्यूंकि सभी अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहतें हैं।
तब अङ्गिरा मुनि ने उत्तर दिया कि ज्ञान दो प्रकार का होता है - जिसे अपरा विद्या (lower knowledge) और परा विद्या (higher knowledge ) कहा गया है। " द्वे विद्ये वेदितव्ये ….परा च एव अपरा च …तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्व वेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषम इति। 'अथ परा यया तत अक्षरम अधिगम्यते।"(उपरोक्त का छंद ५) अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद,अथर्ववेद, शिक्षा, व्याकरण छंद, ज्योतिष, शब्द आदि सब कुछ अपरा विद्या है जबकि वह अक्षर जिस 'एक अक्षर' से ब्रह्म को या परमात्मा को जान लिया जाता वह परा है।
वह जो समस्त कर्मेन्द्रियों से रहित है, अविनाशी है, विभु है अर्थात विविध प्रकार का हो जाता है. वह जो सर्वगत व्यापक है अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय अर्थात उसका क्षय नहीं सकता। ऐसा अक्षर जिस विद्या से जाना जाता है वही परा विद्या है।
जिस प्रका मकड़ी जाले बुनती है और उसे निगल जाती है उसी प्रकार उस अक्षर रूपी ब्रह्म से यह विश्व प्रकट होता है। जिस प्रकार मकड़ी अन्य किसी उपकरण का प्रयोग न कर स्वयं अपने शरीर से ही अभिन्न तंतुओ का निर्माण करती है उन्हें बाहर फैलाती है व फिर उन्ही को ग्रहण कर लेती है उसी प्रकार उन मकड़ी के तंतुओं के सामान ही ब्रह्म से उत्पन्न होने वाला यह जगत है। यही परमात्मा को जानने की विद्या या परा विद्या है।
मुण्डकोपनिषद (1.3) में वैराग्य के बारे में बताया गया है की भावी नेता /शिक्षक सबसे पहले निर्वेद करें अर्थात वैराग्य करें। इस संसार में कोई भी नित्य नहीं है। सम्पूर्ण कर्मों को त्यागकर जिसकी केवल अद्वितीय ब्रह्म में ही निष्ठा है वह ब्रह्मनिष्ठ कहलाता है। कर्मठ पुरुष (कामिनी कांचन में लिप्त व्यक्ति) कभी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता ! (आध्यात्मिक संस्कृति का परिचय प्राप्त किये बिना, या प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति धर्म लौटे बिना केवल धन अर्जित कर भोग करने के कर्म में आसक्त कोई गृहस्थ व्यक्ति कभी ब्रह्मनिष्ठ नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे पूर्वजों चार आश्रम की व्यवस्था की थी।) क्यूंकि कर्म (कामिनी -कांचन में आसक्ति के कारण किया जाने वाला कर्म) और आत्मज्ञान का परस्पर विरोध है।
इस प्रकार के आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित उन गुरुदेव (संन्यासी गुरु/ राजर्षि ) के पास विधिपूर्वक जाकर उन्हें प्रसन्नकर सत्य और अक्षर पुरुष के सम्बन्ध में जब कोई भावी शिक्षक (would be leader) पूछें। तब वह विद्वान – ब्रह्मवेत्ता राजर्षि अपने समीप आये हुए उस शांतचित्त, इन्द्रियों से निषिद्ध कर्म या शास्त्र विरुद्ध कर्म से विरक्त हुए शिष्य को उस परा विद्या के “पुरुष” शब्दवाच्य अक्षर ब्रह्म, जो क्षरण, क्षत और क्षय (नाश) से रहित होने के कारण अक्षर कहलाता है, उस ब्रह्मविद्या का उपदेश प्रदान करें। वह पुरुष-संज्ञकअक्षर ब्रह्म ही सत्य है, जिसका ज्ञान (के अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण का बीजाक्षर संयुक्त नाम प्राप्त) होने पर सब कुछ जान लिया जाता है।
इस अक्षर पुरुष से ही प्राण उत्पन्न होता है तःथा इससे ही मन, संपूर्ण इन्द्रियां, आकाश ,वायु, तेज, जल और सारे संसार को धारण करने वाली पृथ्वी उत्पन्न होती है।' -यह अमृत ब्रह्म ही आगे है, ब्रह्म ही पीछे है ब्रह्म ही दायीं बायीं ओर है , ऊपर नीचे है तथा अन्य सभी मिथ्या है। एकमात्र ब्रह्म ही परमार्थ सत्य – यह वेद का उपदेश है।
किन्तु सिर्फ वेदों को रटने या दोहराते रहने से हम ब्रह्म को नहीं समझ सकते है। इस अक्षर रुपी ब्रह्म को समझने के लिए हमें उपनिषद जैसे महान धनुष लेकर उपासना (विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की उपासना) द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ बाण चढा और फिर उसे खींचकर अक्षर रुपी लक्ष्य का भेदन करना होगा। हमें उपासना के द्वारा यानि की मनःसंयोग (प्रत्याहार -धारणा) के अभ्यास द्वारा उस बाण को निरंतर पैना करना होगा फिर बाण को चढ़ा कर और उसे खींचकर अर्थात अपनी चेतना (awareness) को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोककर , मन (अंतःकरण) को इन्द्रियों से हटाकर अक्षर ब्रह्म का बेधन करना होगा।
यहाँ पर प्रणव (ओम) धनुष है, आत्मा बाण है और लक्ष्य ब्रह्म है। तृतीय मुण्डक में जीव और ईश्वर की तुलना एक ही पेड़ पर रहने वाले उन दो पक्षियों से की है जो एक ही वृक्ष पर रहते पर उनमे से एक तो जीवन रुपी फलों के विभिन्न रूपों यथा अविद्या, कामना, लालसा ,दुःख, कर्म,आदि को भोगता है जबकि दूसरा उन फलों को सिर्फ देखता है वह मनुष्य है जबकि दूसरा जो नित्य शुद्ध ,सर्वज्ञ है वह ईश्वर है जो साक्षित्वरूप सत्तामात्र से भोक्ता और भोग्य दोनों का प्रेरक है अतः वह दूसरा जो फलभोग न करके सिर्फ देखता है वही ईश्वर है।
कहा गया है की आत्मा या ब्रह्म न तो प्रवचन से प्राप्त होने योग्य है और न धारण करने से और न श्रवण करने से ही मिलने वाला है। विद्वान पुरुष जिस परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा करता है उस इच्छा के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। उसके प्रति यह आत्मा अपने स्वरुप को व्यक्त कर देती है। मोक्ष के लिए (देहाध्यास के भ्रम से मुक्त होने के लिए) अप्रवर्तफल कर्म, क्योंकि जो (प्रारब्ध) कर्म फलोन्मुख हो जाते है वे उपभोग करने से ही क्षीण होते हैं व् विज्ञानमय कोष की जरुरत होती है। ऐसे वे कर्म तथा विज्ञानमय आत्मा सभी, उपाधि के निवृत हो जाने पर आकाश के सामान , अव्यय , अनंत , अक्षय ,अज , अमर, अनन्य, अनन्तर, अद्वय , अपूर्व , शिव और शान्त ब्रह्म में एकरूप हो जाते हैं।
जिस प्रकार निरंतर बहती हुई नदियां अपने -अपने विशिष्ट नाम- रूप को त्यागकर महासागर में अस्त जाती है उसी प्रकार विद्वान अविद्याकृत नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। यह आत्म या ब्रह्म सदैव सत्य से ही प्राप्त किया जा सकता है।
यहाँ अपरा विद्या से तात्पर्य ऐसे ज्ञान क्षेत्र से है जो दूसरों के अनुभव से प्राप्त हुए हैं। इसलिए वेदों तथा आधुनिक विज्ञान को भी अपर कोटि की विद्या कह दिया गया है, जो बहुतों को सुनने में अच्छा नहीं लगेगा। पर कारण स्पष्ट है कि वेदों के चार महावाक्य ऋषि की अनुभूति तो हैं, पर दूसरे की ऐसी अनुभूति परतः प्रमाण concept हुई।
इसी लिए वह आगे कहते हैं कि - 'अथ परा यया तत अक्षरम अधिगम्यते।' --परा विद्या (आध्यात्मिक विद्या) से अक्षर अविनाशी तत्व अर्थात ब्रह्म का बोध किया जाता है। दुर्भाग्य से हमारे पास जो कुछ ज्ञान है, उसका अधिकांश भाग पूर्वोक्त अपरा विद्या ही है। इसका मतलब यह हुआ कि यद्यपि हमें पूरी दुनिया का ज्ञान है, तथापि हमें अपने 'स्वयं' का या अपने यथार्थ स्वरुप का ही ज्ञान नहीं है। परा विद्या- का तात्पर्य उस आत्मा या 'शरीरी' सम्बन्धी वह अतीन्द्रिय ज्ञान (transcendental reality) से है जो- समस्त शरीरों को धारण करती है। परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या उस परम सत्य को जानने से है, जो देश, काल और निमित्त से परे है।(शरीरी the supreme reality, beyond time, space and causation )
उपनिषदों में 'अविद्या' शब्द का प्रयोग भी बार-बार हुआ है। अविद्या, विद्या का विलोम शब्द है। ब्रह्म ज्ञान से इतर ज्ञान (भौतिक विज्ञान) को भी यहाँ अविद्या कहा गया है। आजकल जिसे विज्ञान कहा जाता है, उसे भी अविद्या कहा गया है। हमारे शास्त्रों में 'अविद्या' का अर्थ है- अज्ञान, गलत धारणा। ऐसा नहीं है कि भारतीय दर्शन में सर्वत्र अपरा विद्या को परा विद्या से हीन ही बताया गया हो। बल्कि अपरा विद्या को परा विद्या का पूरक कहा गया है। उदाहरण के लिए —ईशा वास्य उपनिषद मन्त्र ११ में अपरा विद्या को ही 'अविद्या' और परा को 'विद्या' कहा गया है-
“विद्ययाऽमृतमश्नुते” इस वेद के वचनानुसार -विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है। किन्तु जो व्यक्ति 'तत्' (ब्रह्म, ईश्वर या माँ जगदम्बा) को इस रूप में जानता है कि-- वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों बनी है, वह व्यक्ति अविद्या की सहायता से मृत्यु को पार करके, विद्या से [अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = देवत्व)] अमरता का आस्वादन करता है।
ईशोपनिषद् का स्पष्ट निर्देश है कि १. विद्या (आध्यात्म) और २. अविद्या (भौतिक विज्ञान) इन दोनों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । अविद्या उसे (उस Science and Technology को ) कहा गया है, जो हमारे जीवन की नश्वर विभूतियों (शरीर, पद, प्रतिष्ठा, साधनों) आदि के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है ।
हमारा एक अस्तित्व (2H -शरीर और मन) भले ही जड़ और नश्वर है, किन्तु प्रत्यक्ष जीवन के रहते उनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता । परमार्थ आदि के लिए भी उनका सहारा तो लेना ही पड़ता है । कहा भी गया है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ‘ अर्थात् धर्म-परमार्थ साधने के लिए भी शरीर ही पहला साधन बनता है । इसलिए उक्त विषयक कुशलता को, अविद्या (आधुनिक भौतिक विज्ञान) को भी जानने-समझने, अपनाने की जरूरत है ।
विद्या (आध्यात्म विद्या) उसे कहा गया है, जो हमारे जीवन की अविनाशी विभूतियों, आध्यात्मिक क्षमताओं के विकास और उपयोग की कुशलता विकसित करती है । हमलोगों को (साधारण गृहस्थ लोगों को आर्थिक रूप से सम्पन्न होने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए) और अविद्या (अर्थात Modern Physics या विविध सांसारिक ज्ञान-विज्ञान) की सहायता से संसार की विविध बाधाओं को जीतना चाहिए और साथ ही साथ 'विद्या' (श्रुति परम्परा में प्राप्त आध्यात्मिक प्रशिक्षण) से प्राप्त अमृत पान भी करना चाहिए। लेकिन जो लोग किसी एक को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, वे जीवन के असंतुलन में भटक जाते हैं । जो संतुलित जीवन जीना चाहें, लौकिक और पारलौकिक दोनों जीवन धाराओं का लाभ उठाना चाहें, वे विद्या और अविद्या दोनों को जानें और उनका संतुलित उपयोग करें । अविद्या आश्रित विभूतियों का सदुपयोग भी इसी विद्या के द्वारा संभव होता है । विद्या की उपेक्षा होने से शरीर, साधन आदि की शक्तियाँ अनियंत्रित, उच्छृंखल होकर तमाम अनिष्ट पैदा करने लगती हैं ।
विद्या से अर्थात- यथार्थज्ञान से कोई व्यक्ति मृत्यु—दुःख-बन्धन से, छूटकर मोक्ष (भ्रम से मुक्त अवस्था -डी हिप्नोटाइज्ड अवस्था) को प्राप्त कर लेता है। किन्तु जो अविद्या-ग्रस्त होने से बालक है, अविवेकी है, विषय-भोगों को ही सब कुछ समझता है। और मरण के पश्चात् पाप-पुण्य के फलों पर भी कोई विश्वास नहीं करता, ऐसा नास्तिक पुरुष परमात्मा की न्याय-व्यवस्था के वशीभूत होकर विभिन्न योनियों में आवागमन करता रहता है । मृत्यु के देवता यम (कठोपनिषद १/२/६) में कहते हैं - धन के मोह से मोहित (कामिनी-कांचन -कीर्ति की आकांक्षा से मोहित) अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती।भोगासक्त व्यक्ति (हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति) कभी दूरदर्शी (विवेकी) नहीं होता -
दिव्यामृतः धन के मोह से मोहित अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती। संसार के प्रपंच (3K) में फँसा हुआ अविवेकी मनुष्य समझता है कि यह प्रत्यक्ष दीखने वाला लोक ही सब कुछ है तथा इससे परे कहीं कुछ नहीं है। वह प्रमाद (गंभीर चिन्तन,स्वाध्याय तथा यम-नियम आदि का पालन न करना) के कारण इस जगत्प्रपंचमें ऐसा फँसा रहता है, कि उसे इससे परे कुछ नहीं सूझता। वह सोचता है कि यह संसार ही सत्य है और इस के क्षणभंगुर सुख-भोगों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ऐसा मानने वाला मनुष्य अभिमानग्रस्त होता है तथा अपने गुरु के ज्ञानमय उपदेश को नहीं सुनता। [Such people are blinded by ignorance and come within his grip repeatedly.]
आत्मबोध प्राप्त करने की विद्या (wisdom-औचित्यबोध) विवेक-जागरण का प्रशिक्षण देने में समर्थ गुरुओं (Leaders) की महिमा इतनी अधिक है कि श्रीकृष्ण गीता (10 /32 ) में कहते हैं - अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदताम् अहम्।।10.32।। हे अर्जुन, विद्याओं में (among sciences) सभी तरह के विज्ञानों में मैं अध्यात्म-विद्या अर्थात हृदय में विद्यमान 'शरीरी' (ब्रह्म केअवतार) पर मन को एकाग्र करने की विद्या (the science of the Self-मनःसंयोग विद्या) मैं हूँ ! अध्यात्मविद्या विद्यानाम् -- जिस विद्या (मनःसंयोग का अभ्यास) से मनुष्य का कल्याण हो जाता है, वह अध्यात्म-विद्या कहलाती है । दूसरी सांसारिक कितनी ही विद्याएँ पढ़ लेने पर भी पढ़ना बाकी ही रहता है। परन्तु इस अध्यात्मविद्या के प्राप्त होने पर पढ़ना अर्थात् जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। यह मनःसंयोग की विद्या (प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास) के प्रशिक्षण द्वारा 'व्यष्टि अहं' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट अहं' में रूपान्तरित करने की विद्या इतनी उत्कृष्ट (exalted-असाधारण) है कि इस विद्या को माँ जगदम्बा का स्वरूप ही माना जाता है। और इसीलिए श्री लक्ष्मी तथा श्री ललिता (श्री श्री माँ सारदा देवी) का एक नाम तो 'विद्या' ही है। इसके भाष्य में शंकराचार्य कहते हैं - 'अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानं अस्मि'-'It is the chief among all knowledges, because it leads to mokSha' समस्त विद्याओं में मोक्ष देने वाली (de-hypnotized करने में सक्षम) होने के कारण प्रधान है, वह अध्यात्मविद्या (मनःसंयोग की प्रशिक्षण-प्रणाली) मैं हूँ। और बिना किसी पक्षपात के केवल तत्त्वनिर्णय के लिये आपस में जो शास्त्रार्थ (विचारविनिमय) किया जाता है उसको वाद कहते हैं।और तत्त्वनिर्णय के लिये किया जाने शास्त्र-सम्मत वाद 'logic' या तर्क मैं हूँ।
सम्पूर्ण भौतिक विश्व में पदार्थ से ऊर्जा , और उर्जा से पदार्थ में रूपांतरण (transformation) का कार्य (खेल) अनादि काल से चलता आ रहा है। जड़ पदार्थों का अन्वेषण करने के बाद आधुनिक विज्ञान ने भी इतना तो समझ लिया है कि वास्तव में जड़ पदार्थ (Matter-शरीर और मन?) भी ऊर्जा (Energy) का ही घनीभूत रूप है। पदार्थ (Matter) और उर्जा (Energy-आत्मा की जादुई शक्ति) दोनों से परे (इसके पीछे) जो सर्वव्यापी चेतना या शुद्ध चेतना ( pure consciousness) है, एकमात्र उसी जगतसाक्षिणी का अस्तित्व है। समस्त पदार्थों में (नाम और रूप में) वही एक परम चेतना (witness consciousness-जगतसाक्षिणी) व्याप्त है इसे ही उपनिषदों में ब्रह्म कहा गया है। इस चरम अवस्था की अनुभूति को ही आत्म-साक्षाकार या आध्यात्मिक भाव कहा जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - " इच्छाशक्ति स्वतंत्र नहीं है - यह कारण और कार्य से बंधी हुई अद्भुत घटना (phenomenon)है - लेकिन इच्छाशक्ति के पीछे कुछ है जो मुक्त है। (ब्रह्म (जादूगर) की जादुई शक्ति या वैष्णवी माया, pure consciousness, या जगतसाक्षिणी है) ।" [The will is not free—it is a phenomenon bound by cause and effect—but there is something behind the will which is free. ‘कारण’(Cause) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect), अखंडित ही रहते है। तथा वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों से अविभाजित होते हुए भी विभाजित प्रतीत होते हैं। इस ' प्रतिबिम्बित चेतना’ (reflected consciousness ) एवं ‘मूलचेतना’ (witness consciousness) की संयुक्त स्थिति मानवीय चेतना है। ]
ऐसी त्रिगुणमय सृष्टि के भेदन का अभ्यास (मनःसंयोग का अभ्यास) से ध्यान मग्न साधक की,अपने चैतन्य स्वरूप में ही स्थिति हो जाती है। किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि 'यहाँ'' पहुँचकर भी किसी सत्यार्थी ने अपने यथार्थ स्वरुप को (ब्रह्म या परम् सत्य को) जान लिया है। क्योंकि जिस आत्म तत्व की सहायता से यह सब कुछ जाना जाता है उस आत्म तत्व को किस माध्यम से जानें? अर्थात किसी से नहीं !
[ क्योंकि व्यष्टि अहं, मन-बुद्धि आदि तो स्वयं में inert अक्रिय या जड़ हैं, इसलिए केवल शुद्ध चेतना (pure consciousness) ही ब्रह्म (परमात्मा ,existence-consciousness-bliss ) की अनुभूति कर सकती है, किसी व्यक्ति -विशेष का व्यष्टि अहं वहाँ कदापि नहीं पहुँच सकता !]
इसी रहस्य को समझाते हुए याज्ञवलक्य जी (प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि) अपनी दूसरी पत्नी मैत्रेयी को पढ़ाते समय (ब्रह्म जानने की पद्धति-मनःसंयोग का प्रशिक्षण देते समय बृहदारण्यक उपनिषद. 2-4-14) में कहते हैं-
अध्यात्म विद्या (ब्रह्मविद्या) का अर्थ है - शरीर, मन, बुद्धि और जीवात्मा (जड़पदार्थ =अहं -ईगो -कच्चा मैं) से परे की अवस्था को जानने की शिक्षा (जिसे तैत्तरीय उपनिषद में शीक्षा कहा गया है ?) । अर्थात मन बुद्धि की पहुँच से बाहर की अवस्था को परा अवस्था या या आध्यात्म कहा गया है। इस इन्द्रियातीत अध्यात्म भाव या परा अवस्था में अवस्थित होने पर ही मूल तत्व का बोध होता है। इस प्रकार अध्यात्म का सम्बन्ध मूल तत्व से है। इस मूल तत्व को भारतीय वैदिक चिन्तन परम्परा (श्रुति परम्परा) में 'ब्रह्म' कहा गया है। निर्बीज समाधि के बाद जिस साधक को ब्रह्मानंद की स्थिति प्राप्त होती है, उसे तब यह ज्ञान हो जाता है कि सब कुछ परमेश्वर ही बने हैं, और वह भी उन्हीं में समाहित है। यही वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान या तत्व ज्ञान है। इसे व्यवहार में ज्ञान कहते हैं, परन्तु 'ज्ञान' इन्द्रियों के माध्यम से होता है, और 'बोध' (प्रज्ञा) आत्मा से होता है। ज्ञान और बोध में इतना सूक्षम अन्तर हम समझ सकते सकते हैं। वेदान्त कहता है कि जो साधक प्रकृति के तीनों गुणों का अतिक्रमण करके आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें कैवल्य की प्राप्ति होती है, वे मुक्त (भ्रममुक्त या de -hypnotized) हो जाते हैं, और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं।
आधुनिक विज्ञान के पास जगत को प्रतिपादित करने के तीन सिद्धांत है।
1. द्वैतवादी दृष्टिकोण (Dualistic View) जो अभौतिक आत्मा एवं भौतिक शरीर, ऐसे दो तत्वों को मान्यता देता है । किन्तु भौतिकी का ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत , माध्यम एवं मध्यस्थ की अनिवार्यता द्वारा इस सिद्धांत को अमान्य करता है।
2. मात्र पदार्थ (Only Matter) यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा अमान्य है क्योंकि पदार्थ के भीतर उतरने पर Matter समाप्त हो जाता है और हम अपदार्थ (Non-Matter) पर पहुँच जाते है ।
3. मात्रचेतना (Only Consciousness) – यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा प्रणीत है। जिसके अनुसार जगत का एकमात्र कारण है ‘चेतना’ ।
चलिए, थोड़ा फ़िज़िक्स समझें: - 1905 में आइन्सटीन ने प्रकाश को Bundles of Energy, Quantum कहा। - नील बोहर, 1913 ने इलेक्ट्रान की स्थिति (Location) के संबंध में अनिश्चितता का सिद्धांत (Uncertainty principle) प्रतिपादित किया। तब से क्वाण्टम भौतिकी (Quantum Physics) को संभावना का विज्ञान (Science of Probability) कहा जाने लगा है ।
20 वीं सदी के प्रांरभ में मैक्स प्लांक ने सर्वप्रथम इलेक्ट्रान द्वारा उत्सर्जित एवं अवशोषित की जाने वाली ऊर्जा को ‘क्वांटा’ कहा । यह क्वाण्टम भौतिकी का प्रांरभ था (Quantum = a very small quantity of electromagnetic energy that can not be divided).
[जर्मन वैज्ञानिक मैक्स प्लांक (Max Planck 1858- 1947) ने अपने अनुसंधान की शुरुआत ऊष्मा गतिकी (Thermodynamics) से की। उसी समय कुछ इलेक्ट्रिक कंपनियों ने उसके सामने एक ऐसे प्रकाश स्रोत को बनाने की समस्या रखी जो न्यूनतम ऊर्जा की खपत में अधिक से अधिक प्रकाश पैदा कर सके। इस समस्या ने प्लांक का रूख विकिरण (Radiation) के अध्ययन की ओर मोड़ा। उसने विकिरण की विद्युत् चुम्बकीय प्रकृति (Electromagnetic Nature) ज्ञात की। इस तरह ज्ञात हुआ कि प्रकाश, रेडियो तरंगें, पराबैंगनी (Ultraviolet), इन्फ्रारेड सभी विकिरण के ही रूप हैं जो दरअसल विद्युत् चुम्बकीय तरंगें हैं। ब्लैक बॉडी रेडियेशन पर कार्य करते हुए, बाद में प्लांक एक आश्चर्यजनक नई खोज पर पहुंचा, जिसे प्लांक की क्वांटम परिकल्पना कहते हैं।
इस परिकल्पना के अनुसार प्रकाश तथा अन्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण ऊर्जा का सतत प्रवाह न होकर ऊर्जा के छोटे छोटे पैकेट के रूप में चलता है। इन पैकेट्स को क़्वान्टा कहा जाता है। हर क़्वान्टा की ऊर्जा निश्चित होती है तथा केवल प्रकाश (विकिरण) की आवृत्ति (रंग) पर निर्भर करती है। (सूत्र E = hν जहाँ h प्लांक नियतांक तथा ν आवृत्ति है।)
क्वांटम भौतिकी की स्थापना के लिए प्लांक को 1918 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। धार्मिक रूप से वह ईसाई था। वह तथा आइन्स्टीन गहरे दोस्त थे। उनकी पिआनो की महफिलें साथ में जमती थीं। 4 अक्टूबर 1947 को नब्बे वर्ष की अवस्था में उसकी मृत्यु हुई।]
इसके पश्चात आया क्वाण्टम भौतिकी का ‘दृष्टा प्रभाव सिद्धांत’ (Observer Effect) जिसके अनुसार मापन करने पर क्वाण्टम तरंग, एक कण (Particle) की तरह अस्तित्व में आती है । और नहीं देखे जाने पर वह एक ही समय में एक से अधिक स्थानों पर होती है, जिसे इसकी बहुस्थिती (Super Position) कहा जाता है ।(Sub atomic Particles occupy multiple Positions at once, An electron has no visible reality until it is observed).
जाॅन वीलर के अनुसार ‘‘अगर देखने वाला नहीं हो, तो जगत सिर्फ ऊर्जा है’’। ...इसे आइन्सटीन ने इस तरह कहा है ‘‘जहाँ निश्चितता है वहाँ यथार्थ नहीं है, जहां यथार्थ है वहां निश्चितता नहीं है’’(Laws of Nature, Einstein). यह अनिश्चितता का सिद्धांत और कण-तरंग विरोधाभास (Wave- Particle Paradox) ही नवभौतिकी (Modern Physics) का आधार है।
जिसके अनुसार क्वाण्टम जगत में प्रत्येक बार देखे जाने पर एक नई घटना का प्रारंभ होता है और देखे जाने हेतु चेतना की आवश्यकता होती है। जिसमें सृजन संभावना अंतर्निहित है। (That every time we observe something there is new begining or that every event of observation which requires consciousness, is potentially creative).
क्वाण्टम भौतिकी के इस दृष्टा-प्रभाव सिद्धांत ने न सिर्फ न्यूटन के निश्चितता के दर्शन का खण्डन किया है, बल्कि ‘पदार्थवादी यथार्थवाद (Materialistic Realism)’ को भी अमान्य कर दिया है। ...यद्यपि ठोस, सघन पदार्थ पर न्यूटन एवं क्वाण्टम भौतिकी का सम्भावना सिद्धांत एक ही परिणाम देता है । यही कारण है की अति पदार्थ पर न्यूटम के नियम लगभग सटीक बैठ सके, जो अनेकों अविष्कारों का मूल बने।
किन्तु पदार्थ के सूक्ष्मतम (क्वाण्टम) स्तर पर अनिश्चितता का सिद्धांत ही काम करता है । यहां निश्चित कार्य-कारण संबंध का अभाव है। तथा मापन ‘संभावना के सिद्धांत’ पर आधारित होता है। यह क्वाण्टम क्षेत्र, दृष्टाप्रभाव द्वारा परिवर्तनीय है।
किन्तु यदि आधुनिक भौतिक विज्ञानी भी अब अध्यात्म की तरफ बढ़ रहे हैं। तो इसके पीछे कारण यही है कि पहले विज्ञान भी पदार्थ के अलावा अज्ञात अध्यात्म को मेटा फिजिक्स मानता था। फिर विज्ञान में ताप, ऊर्जा , चुम्बकत्व आदि क्षेत्र शामिल हुए। ततपश्चात आइन्सटीन ने भौतिकी में जिस द्रव्यमान-ऊर्जा समतुल्यता (mass–energy equivalence) या पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत ( E=mc square सूत्र) को आविष्कृत किया, उसके अनुसार यदि किसी वस्तु में कुछ द्रव्यमान है तो उसमें उसके तुल्य एक ऊर्जा होती है और यदि उसमें कुछ ऊर्जा है तो उसके तुल्य एक द्रव्यमान होता है। तत्पश्चात अणु-परमाणु और इनमे अन्तस्थ अनन्त ऊर्जा को मान्यता प्राप्त हुई, और उसके बाद विज्ञान का अन्वेषण पदार्थ से आगे बढ़ कर ऊर्जा तक पहुँच गया। इस प्रकार आइन्सटीन के पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत (E=mc2 समीकरण) ने जहां पदार्थ और ऊर्जा का अंतर संबंध उजागर कर दिया, वहीं क्वाण्टम क्षेत्र पर ‘दृष्टाप्रभाव’ एवं ‘सापेक्षता के सिद्धांत’ (देश काल की सापेक्ष निर्मिती) ने भौतिकी को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ जगत के उद्भव, स्थिति एवं क्रियाविधि को जानने हेतु चेतना का अध्ययन ही अब एक मात्र संभावना है। इसलिए अब विज्ञान भी उस सर्व व्यापी चेतना (pure consciousness) की बात करने लगा है, जो किसी अध्यात्म ज्ञानी को ध्यान साधना से प्राप्त होती है। इसलिए फिजिक्स (Physics) से परे की बात, अर्थात आध्यात्मिक दर्शन आदि को वैज्ञानिक लोग मेटाफिजिक्स (Metaphysics) तत्त्वमीमांसा या अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। 'मेटा' का अर्थ 'से परे की'- इन्द्रियातीत या इन्द्रियों की पहुँच से बाहर ।
सैद्धांतिक परमाणु भौतिक विज्ञानी अमित गोस्वामी, पदार्थ नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक चेतना को सारे अस्तित्व का मूलाधार मानते हैं। उन्होंने मानवीय चेतना की व्याख्या इस प्रकार की है:-" Consciousness Collapses the quantum wave, resulting in the separation between subject & object. Our mind creates ‘The Ego’ through tangled hierarchies. Tangled hierarchies appears when the lower level- ‘The Cause’ and the higher level- ‘The Effect’ are tangled, or can not be separated. The system of tangled hierarchies does not point to anything outside of itself. It speaks only of itself and therefore becomes separate from the rest."
चेतना (witness consciousness) - 'क्वांटम तरंग' को एकाएक तोड़ देती है, जिसके परिणामस्वरूप, असंख्य स्तरों पर एक साथ द्रष्टा (subject या the Seer Drig ) और दृश्य (object या the Seen Drishya) के बीच द्वन्द्व उत्पन्न होता है। [प्रत्यक्ष ज्ञान के अनुभव के बारे में, अद्वैत वेदान्त कर्ता-कर्म या दृक और दृश्य की अभिन्नता पर बल देता है।] हमारा मन (अन्तःकरण) पेचीदा पदानुक्रम (tangled hierarchies या चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) के माध्यम से ‘व्यष्टि अहं’ (Ego) बनाता है। इस पेचीदा पदानुक्रम (Tangled Hierarchies - अनुक्रम या सोपानीकी) में निम्नक्रम- ‘कारण’ (Cause-चित्त mind stuff-pure consciousness) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect -व्यष्टि अहं-reflected consciousness) अखंडित ही रहता है-अर्थात 'अहं' वह कार्य (effect) है, जिसे उसके कारण से अलग नहीं किया जा सकता। [कार्य या व्यष्टि अहं (effect) को उसके कारण 'Cause' -माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं से अलग नहीं किया जा सकता।] किन्तु वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों (मन-बुद्धि) से अविभाजित होते हुए भी विभाजित हुआ सा प्रतीत होता है।
यह ‘प्रतिबिम्बित चेतना’ (तुच्छ व्यष्टि अहं ) एवं ‘मूल चेतना’ (सर्वव्यापी विराट अहं) की संयुक्त स्थिति ही मानवीय चेतना है। उक्त पेचीदा अनुक्रम को (मुण्डक उपनिषद 3.1-3) में मन (अहं) व चेतना नामक दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। एक शाख पर बैठे यह दो पक्षी ‘अहं’ (अहं-reflected consciousness ) व ‘जगत्साक्षिणी चेतना’ (witness consciousness) हैं। ‘अहं’ संसार के अच्छे बुरे फल खाता है जबकि ‘चेतना’ मात्र दृष्टा (जगत्साक्षिणी) है। ‘अहं’ हमारी इच्छाओं और भोगेच्छाओं का समुच्चय मात्र है। यह ब्रम्ह चेतना के प्रकटीकरण ‘एकोहं बहुस्याम’ की एक इकाई अभिव्यक्ति है। यही अहं मानवीय चेतना का आधार है।
यह अहं प्रत्येक वस्तु को ‘दृष्टा-दृश्य’ (Subject-Object) की तरह देखता है। दृष्टा की यह ‘दृश्य- आबद्ध’ स्थिति ही ‘जीवात्मा’ है। दृश्य से निरंतर बद्ध रहना ही बंधन है। बंधन का कारण कर्म है । कर्म का कारण ‘कर्ता’(Ego) है।- ‘कर्ता’ का अभाव मुक्ति है। ज्ञातव्य हो कि वेद एवं उपनिषद अत्यंत सरल, काव्यात्मक भाषा में कहे गये है, जो ज्ञान एवं माधुर्य से परिपूर्ण है। अलबर्ट आइन्सटीन का कथन हैः- " If you can’t explain it simply, you don’t understand it well enough" अर्थात हम जितना अधिक जानते है उतना सरल बना सकते है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे - 'Highest truth is very simple' उच्चतम सत्य बहुत सरल है।'
वेदांत का महानतम ज्ञान सरलतम शब्दों में है। वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना एक दृष्टा चेतना है जिसे ‘आत्मा’ कहा गया है तथा परम चेतना को ‘ब्रह्म’ [या ब्रह्म की वैष्णवी शक्ति जगत्साक्षिणी या माया) कहा गया है । आत्मा वस्तुतः ‘ब्रह्म’ ही है। ‘ब्रह्मात्मैकबोधेन’ (विवेकचूणामणि - 58) यह ‘ब्रह्म चेतना’ एक निरंतर सृजनशील प्रक्रिया है, जो अनंत सामर्थ्य और अनन्त सृजन संभावना (Pure Potentiality and infinite creativity) की स्थिति है।
यह शून्य (Absolute Void) से दृष्टाप्रभाव (Observer Effect) द्वारा उत्पन्न ऊर्जा (बिग-बैंग सिद्धांत अनुसार बिग-बैंग होते ही शून्य से पदार्थ एवं ऊर्जा उत्पन्न होती है) को कण एवं तरंग में विभाजित कर, समय एवं स्थान की (Time & space) ..सापेक्षता उत्पन्न करती है। इस सापेक्षता में कण को निर्दिष्ट (Locate) किया जा सकता है। शून्य (Void=The field of Consciousness) ;वह आकाश है, जहाँ सृजन होता है।यह ‘ब्रह्म चेतना’ स्वयं कालातीत (Timeless, Non Local) होती है। जबकि हमारी स्थिति एक सापेक्ष स्थिति है। यद्यपि हम सभी एक ही स्थान (Location) में है किन्तु इन्द्रियगत उपकरण (Sensory Artifact) के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। (आइन्सटीन, थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी) यह सब विवरण उपनिषदों में मौजूद है।
अन्नमय कोष : औपनिषदिक पंचकोशीय अवधारणा केवल मानवीय चेतना से संबंधित नहीं है, बल्कि संपूर्ण जगत भी पंचकोशीय है। भौतिक पदार्थ को ‘अन्नमय’ कहा गया है । ‘प्राणमय कोष’ प्राण ऊर्जा (Energy) रूपी चेतना ( pure Consciousness) है, जो सभी मानव शरीरों, पशुओं और वनस्पति को बनाये रखती है। यह पदार्थ में निहित ज्ञानपूर्ण ऊर्जा है जो प्राणियों में श्वास द्वारा गतिशील है। यह एक तरह की जोड़ने वाली शक्ति है ;(A Kind of binding force)। जो पूरे अन्नमय जगत को जोड़कर रखती है। -पूरा परिस्थकी तंत्र (Ecosystem) जिस बुद्धिमत्ता से चलता है, वह ऊर्जा प्राण है। प्राण की आपूर्ति रूक जाने पर कोशिका (Cell) की व्यवस्था टूट जाती है। और वह अपने आधारभूत अणुओं में ;(Basic Molecules) में टूट कर समाप्त हो जाती है। तथा सभी अंगों एवं तंत्रों का समन्वय टूट जाता है, जो प्राणियों की (मनुष्य, पशु, वनस्पति) मृत्यु है। प्राण, सूक्ष्म जगत में प्रवेश कराने में सहायक होता है, यही कारण है कि चेतना को विकसित करने की विधियों में प्राणायाम का विशेष महत्व है।
‘मनोमयकोश’ सम्पूर्ण विश्व का साझा चित्त है । सामूहिक विचार एक तरह का कच्चा माल (Raw Data) है। इन्हे छान कर हम जिन विचारों को एकत्रित करते है अथवा स्वयं को जिनसे संबंधित करते है वह हमारा व्यक्तिगत चित्त (Mind-stuff, मनवस्तु) है । यह भौतिक शरीर के बाहर एक घेरा है जिसका प्रकटीकरण मस्तिष्क पर होता है। यह वह स्थान (Platform); है जिस पर विचार आते-जाते है। हम सभी विचारों को प्रक्रिया (Process-श्रवण -मनन -निदिध्यासन) करके अपना विचार भी बना सकते है। भाषा, धर्म, संस्कृति, व्यवस्था, दर्शन (Language, Religion, Culture, System, Philosophy etc.) आदि ‘मनोमयकोश’ का निमार्ण हैं। यह सामूहिक सृजन है, किसी व्यक्तिगत मस्तिष्क की उपज नहीं है। इसी तरह निश्चयात्मिका बुद्धि या विवेकप्रयोग शक्ति (Power of Discrimination) ही ‘विज्ञानमयकोश’ है। तथा ‘आनंदमयकोश’- कारण शरीर (Causal Body) है।
यहां से शुद्ध चेतना (ब्रम्ह-की शक्ति जगत्साक्षिणी-माँ जगदम्बा) सृजन में उतरती है। तथा ‘अस्मिता’ के बोध से अनंत आत्माओं (M/F) की तरह प्रकट होती है। यह मात्र अस्तित्व (Pure Being- existence-consciousness-bliss) की आधारभूत तरंग (Basic Vibrations) है। जहां समयरहितता (Timelessness) और आनंद (Bliss) की अनुभूति ही शेष है। यहां द्वन्द समाप्त होता है और सापेक्षता से परे निरपेक्षता का अनुभव होता है।
किन्तु यह भी (जीवन मुक्ति- भ्रम मुक्ति या पूर्णतः de-hypnotized हो जाने की) अंतिम अवस्था नहीं है। अस्मिता का एक महीन धागा मौजूद होता है। वह टूट जाने पर मानवीय चेतना, ब्रम्ह चेतना हो जाती है। (Anandamaya kosha- Pure being with slightesst touch of ego. Without this gossamer sheath you would disolve in to being and become bliss itself, without an experiencer – Deepak Chopra, ‘Life after death’ ).
हालांकि आज बहुत से लोग शिक्षक/अध्यापक को ही गुरु/नेता समझ लेते हैं। पर बात इतनी सीधी नहीं है। आइए इसे थोड़ा समझते हैं। गुरु/नेता [C-in-C] और शिक्षक में क्या फर्क है ? कहा गया है कि, गुरु बिना ज्ञान नही, अब ज्ञान तो बहुत सी बातों का हो सकता है, क्योंकि हर एक कार्य को करने के लिए उसका जानना समझना आवश्यक है। लेकिन यह ज्ञान अथवा शरीर और शरीरी का विवेक (समझ) कुछ अलग ही प्रकार की है। और वह विवेकज-ज्ञान जो स्वयं का बोध कराए, कहाँ से आये हैं, और कहाँ चले जाना है, और कैसे जाना है, क्या लेकर जाना ? यह है आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात आत्मा के संदर्भ में अध्ययन, वह ज्ञान जिसके लिए ही कहा गया है कि, इसका ज्ञान गुरु के बिना असंभव ही है।
श्री स्कन्द पुराणान्तर्गत शिव पार्वती संवाद में श्री गुरु या नेता की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है
गुरु (Leader) के बिना गति नहीं होती, मतलब गुरु (मार्गदर्शक नेता) के बिना जीवन की गाड़ी में ब्रेक लग जाता है। गति गुरु से ही है। और हमारे चारों तरफ मौजूद चीजें प्राकृतिक घटनायें जो हमें कुछ भी सीख देती हैं,वह हमारी गुरु (नेता) हैं। इसीलिए 'विष्णु सहस्रनाम' में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' (torch-bearer of change) भी है।
[" Therefore, my friends, my plan is to start institutions in India, to train our young men as preachers of the truths of our scriptures in India and outside India.vol/3/223
" What we want is strength, so believe in yourselves. Make your nerves strong. What we want is muscles of iron and nerves of steel. It is man-making theories that we want. It is man-making education all round that we want.3/224 "
Let them hear of the Atman — that even the lowest of the low have the Atman within, which never dies and never is born — of Him whom the sword cannot pierce, nor the fire burn, nor the air dry — immortal, without beginning or end, the all-pure, omnipotent, and omnipresent Atman!" 3/224
राजकोट रामकृष्ण आश्रम के सचिव स्वामी निखिलेश्वरानन्द (प्रबोध महाराज) ने 17 दिसम्बर 2003 को " Teacher as a torch-bearer of change" विषय पर 'अहमदाबाद मैनेजमेन्ट असोसिएशन' में दिए अपने भाषण में कहा था : "-- प्राचीन भारत के "गुरुकुल" नामक शिक्षण संस्थानों में छात्रों को ये दोनों विद्यायें- 'अपरा' (विज्ञान ) और 'परा ' (आध्यात्म) एक साथ प्रदान की जाती थीं । किन्तु हम देखते हैं किआधुनिक शिक्षण संस्थानों में इन दिनों छात्रों को यद्यपि अपरा विद्या (भौतिक रूप से समृद्ध बनने की शिक्षा) तो दी जा रही है, तथापि परा विद्या को सिखाने पर (हृदय को विकसित करने की प्रशिक्षण पद्धति-या आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत मनुष्य बनने और बनाने की प्रशिक्षण-पद्धति पर) बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में 'मनःसंयोग' या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों (राजर्षि/नेताओं के निर्माण) को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया है।
जिसके फलस्वरूप अपने 'काचा आमि' को 'पाका आमि' में रूपांतरित करने या द्विज होने की पद्धति [तुच्छ व्यष्टि अहं (M/F शरीर से तादात्म्य) का अतिक्रमण कर माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं बोध में रूपांतरित करने या द्विज होने (बनने और बनाने) की पद्धति] उपेक्षित हो रही है। (Self-actualization , self-transcendence have been completely neglected.) यहाँ तक कि गुरु शब्द का सही अर्थ (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) को भी भुला दिया गया है; और इस शब्द का उपयोग आजकल आज बहुत सस्ते अर्थों में -जैसे मैनेजमेन्ट गुरु, कराटे गुरु, या कलकी गुरु आदि का प्रतिनिधित्व करने के संदर्भ में किया जाता है। निश्चित रूप से यह इस महान शब्द (गुरु) का एक सस्ता व्यवहार है जो उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो स्वयं पैगम्बर बनकर भावी पीढ़ी के शिक्षकों /भावी नेताओं (would be leaders) में विद्यमान अज्ञानता के अंधेरे को दूर करता है और उसे उसके दिव्य स्वरूप का ज्ञान देता है।"
(In olden days both these Two Vidyas were simultaneously imparted to the disciples in educational institutions called the Gurukula . But these days what we find is that in the modern educational institutions only apra vidya is being imparted with no impetus being given to para vidya . Self-actualization , self-transcendence have been completely neglected .Even the true meaning of the word guru has been forgotten and the word is used in a much cheaper sense today .Today we use this word to represent management gurus, karate gurus , etc This is clearly is a cheap usage of the word which represents a person who removes darkness of ignorance and a person who gives the knowledge of self by bringing the light of the divine .)
आधुनिक शिक्षा नीति पाश्चात्य प्रणाली से प्रभावित है। इस शिक्षा प्रणाली में ईबुक, वीडियो व्याख्यान, वीडियो चैट, 3-डी इमेजरी आदि तकनीक शामिल हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली, शिक्षा में तकनीकी विकास को जोड़ने से विकसित हुई है। इन तकनीकों के माध्यम से छात्रों को घर बैठकर और बेहतर तरीके से ज्ञान को समझने में मदद मिलती है जिससे छात्रों की नए अविष्कारों के प्रति समझ में बढ़ोतरी होती हैं। उन्नत अनुसंधान और तकनीकी विकास के अनुसार शिक्षण विधियों को इस प्रकार से लगातार अपग्रेड किया जा रहा है, कि जब स्मरण शक्ति, समझ और अवसर की दृष्टि से परखा जाय, तो कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि आधुनिक शिक्षा अधिक प्रभावी है। अतः यह शिक्षा प्रणाली सबको उपलब्ध करायी जानी चाहिए, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार इसे इस्तेमाल कर सके। इस पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली की एकमात्र कमी यही है कि इसमें छात्रों के हृदय को विकसित करने की व्यावहारिक प्रशिक्षण के बजाय उसके सैद्धांतिक भाग पर ही जोर दिया जाता है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं हैं की दोनों शिक्षा प्रणालियों में समन्वय लाने करने की जरुरत है।
गुरुकुल शिक्षा पद्धति को ठीक से समझने की जरुरत है। हमें यह समझना होगा कि 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित गुरु -मार्गदर्शक नेताओं /पैगंबरों करने की पद्धति , या श्रुति -परम्परा कैसे काम करती है ? अतीत में यह प्रशिक्षण -पद्धति कैसे कार्य करती थी और वर्तमान में गुरुकुल प्रशिक्षण प्रणाली के उद्देश्य को कैसे पूरा किया जा सकता है ? यह सिर्फ अतीत को जानने की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि दोनों शिक्षा प्रणाली का समन्वय होना अनिवार्य है। प्राचीन काल की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से नकार देने को उचित नहीं कहा जा सकता है। जहाँ आध्यात्मिक संस्कृति, चरित्र निर्माण, शिष्टाचार और सभ्यता सिखाई जाती थी। इस प्रणाली के जरिये छात्रों को शिक्षा के साथ सुसंस्कृत मनुष्य बनने और अनुशासित जीवन जीने के लिए आवश्यक पहलुओं को भी पढ़ाया जाता था। हमें ये नहीं भूल सकते हैं कि गुरुकुल प्रणाली उस समय की एकमात्र शिक्षा प्रणाली थी, जिसमें अपरा विद्या एवं परा विद्या दोनों विद्यायें सिखलायी जाती थीं। उस सभी छात्र किसी गुरुकुल छत के नीचे मिलजुल कर एक साथ रहते थे और वहां के वातावरण में अच्छी मानवता, प्रेम और अनुशासन था। यहां पर बुजुर्गों, माता, पिता और गुरुओं /जीवनमुक्त शिक्षकों का सम्मान करने जैसी अच्छी आदतें छात्रों को सिखाई जाती थीं।
भारत की गौरवशाली नियति
महामण्डल द्वारा निर्देशित 'Be and Make- लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' अथवा " ठाकुर का सेवक बनने और बनाने की शीक्षा प्रणाली द्वारा " प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म में संतुलन स्थापित करने में समर्थ" (100 C -in-C) 'ठाकुर का सेवक राजर्षि बनना और बनना' ही - भारत की गौरवशाली नियति (glorious destiny प्रारब्ध या मुकद्दर) है।
[The trader's instinct (Leadership Qualities) is innate in Indian genes. An Indian can buy from a Jew and sell to a Scot, and yet make a profit! In the words of Sri Aurobindo, " to be the moral leader of the world.” is The glorious destiny of India.]
भारत की वर्तमान पीढ़ी एक ऐसे नेता की प्रतीक्षा कर रही है, जो इसे भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में निहित नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में पुनः धारण करने का प्रशिक्षण देगा। और जिस प्रकार गाँधीजी ने अविरत प्रयास से देश को स्वतंत्र करने की जिम्मेदारी की अटूट भावना सम्पूर्ण भारत वासियों के मन में बैठा दिया था -उसी प्रकार चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की जिम्मेदारी की भावना को भी भावी पीढ़ी के नेताओं के मन में बिठा देने या 'inculcate' करने में सक्षम होगा।
स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिकों के अधिकार तथा कर्तव्यों का गहन अवलोकन करते हुए फ्रांसीसी इतिहासकार तथा राजनीतिक लेखक, एलेक्सिस डी टोकेविले ने कहा था - " स्वतंत्रता कभी अकेले फलप्रसू नहीं हो हो सकती, स्वतंत्रता को उसके सहचर सद्गुणों जैसे ---स्वतंत्रता और नैतिकता (liberty and morality); ; स्वतंत्रता और लोकहित (liberty and the common good) ;स्वतंत्रता और न्याय (liberty and justice); स्वतंत्रता और नागरिक उत्तरदायित्व' (liberty and civic responsibility) स्वतंत्रता और कानून का भय (liberty and law) आदि के साथ संयुक्त करना भी आवश्यक है।
भारत की वर्तमान पीढ़ी एक आमूल परिवर्तन (आध्यात्मिक क्रांति) के गुरु नानकदेव जैसे मशाल वाहक नेता ('ठाकुर का सेवक राजर्षि', Heroes , 'नेता-गुरु 'C-in-C' नवनीदा जैसे वाहे गुरु Torch -bearer of total change) की प्रतीक्षा कर रही है, जो सौ भावी प्राचारक बनने और बनाने की जिम्मेदारी की भावना" को भारत के युवाओं के मन में बिठा देने में समर्थ होगा।
[ " The present generation is waiting for a leader who will make it relearn the moral values, and who will inculcate in the people as Gandhiji did, a sense of the responsibilities which fall on every citizen of a free society. 'liberty cannot stand alone but must be paired with a companion virtue: liberty and morality; liberty and law; liberty and justice; liberty and the common good; liberty and civic responsibility." The present generation is waiting for a Torch -bearer of change, who will inculcate a sense of responsibility to Be and Make Leaders /The Mother's child (100 % unselfish man-निर्विकल्प समाधि के परमानन्द का भी त्यागी) -shall be a hero , a Mahavira. In unhappiness, sorrow, death, and desolation, the Mothers child shall always remain fearless ." S.V.]
[नेता के आदेश के प्रति समझ और अनुशासन : केवल कामिनी -कांचन और नाम-यश में आसक्ति को ही नहीं त्यागना है,अपितु निर्विकल्प समाधि से प्राप्त परम् आनन्द तक को भी परहित के लिए त्याग देने और 100 % निःस्वार्थपर बनने की गुरुआज्ञा को सुनकर यदि उसका पालन न करें तो वैसे शिष्य को आज्ञाकारी और अनुशासित शिष्य नहीं कह सकते। ]
अपनी विशाल आबादी के बावजूद चीनी अपने आप को सक्षम इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनमें प्राप्त आदेश के प्रति समझ और अनुशासन की भावना है। इस तरह के नैतिक मूल्यों के बिना भारत को महान और विकसित राष्ट्र बनाना मुश्किल होगा।
अतः हमें इसी बात पर अधिक जोर देना चाहिए कि श्रुति परम्परा में आधारित भारतीय संस्कृति पुनः अपने गौरव को कैसे प्राप्त करे ? गरीब देश या विकास शील देश को विश्व का कोई देश अपना गुरु /नेता नहीं मानेगा। यह तभी सम्भव है जब भारत एक आर्थिक रूप से समृद्ध और आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत राजर्षि (राजा + ऋषि) का देश बन जायेगा। धन अर्जित करने में समर्थ गृहस्थ होने के साथ साथ आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत नेता बनने और बनाने के लिए महामण्डल आंदोलन से जुड़ें।
आपियों और कांगियों के वामपंथी सोंच से प्रभावित होकर , प्रवासी भारतियों (Indian diaspora) को कोसना ठीक नहीं। इस बार केन्द्र है भारतवर्ष ! भारत से बाहर रहकर भारत में धन भेजने वाले जिन प्रवासी भारतीय जिनको लोग अभी कोस रहे हैं, ये एक ओर जहाँ भारत को 5 ट्रिलियन (50 खरब) डॉलर की अर्थव्यवस्था (5 trillion dollar economy) बना देंगे; वहीँ दूसरी ओर अपने पूर्वज ऋषियों से विरासत में प्राप्त आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार द्वारा भारत को एक महान विकसित राष्ट्र बनाने में सहायक सिद्ध होंगे।
जिस परिवार के मुखिया आर्थिक रूप से समृद्ध होने के साथ ही साथ आध्यात्मिक दृष्टि से भी जागृत होंगे( जैसे (खड़दह के कन्नोजिया ब्राह्मण परिवार के लोग-Financially rich and Spiritually awakened) होंगे, उसी परिवार का कोई नवनीदा जैसा नेता [ 'ठाकुर के सेवक राजर्षि (राजा + ऋषि या भ्रममुक्त/ de-hypnotized/ बुद्धत्व-प्राप्त, या ब्रह्मविद) -torch -bearers of total change '] भारत की भावी पीढ़ी को चारित्रिक मूल्यों को स्थापित करके आध्यात्मिक क्रांति का नेता बनने और बनाने की प्रशिक्षण-पद्धति में प्रशिक्षित कर सकेगा।
स्वामी विवेकानन्द ने ऐसे ही कुछ क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न आध्यतमिक संस्कृति के प्रचारक /नेता-गुरु/(पूज्य नवनीदा जैसे -100 % निःस्वार्थ बज्रतुल्य) राजर्षि बनने और बनाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर कहा था --" एक अनासक्त गृहस्थ होने की आकांक्षा करना बहुत अच्छा है; लेकिन मद्रास में अभी आवश्यकता अविवाह की है ! मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूँ -वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु, जिनके भीतर एक ऐसा मन वास करता हो, जो की वज्र के उपादानों (100% Unselfishness ) से बना हो। बल, पुरुषार्थ क्षात्रवीर्य + ब्रह्म तेज =निःस्वार्थता (वज्र तुल्य मनुष्य) " ५/३९८
" It is very good to aspire 'to be a non-attached house-holder; but what we want in Madras is not that just now — but non-marriage. . . My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, Kshatra-Virya + Brahma-Teja.=Unselfish man becomes like thunderbolt ! "
समाज जीवन की कौन सी चुनौती शिक्षा क्षेत्र की नहीं है ? मनुष्यों के विचार जगत में या शिक्षा जगत में किस प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता है ? परिवर्तन की आवश्यकता, यानी संकीर्ण राष्ट्रवाद को सार्वभौमिकतावाद में बदलने, जातीयता और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह को सहिष्णुता, समझदारी और बहु-समुदायवाद में बदलने, विभिन्न प्रकार से प्रकट होने वाली निरंकुशता को लोकतांत्रिक प्रणाली में बदलने और प्रौद्योगिकी के आधार पर विभाजित विश्व, जहां उच्च प्रौद्योगिकी पर गिने चुने देशों का विशेषाधिकार है, को प्रौद्योगिकी की दृष्टि से एकजुट विश्व में बदलने के लिए शिक्षकों पर भारी जिम्मेदारी है, जो नई पीढ़ी के चरित्र और मस्तिष्क को सही दिशा देने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।
शिक्षा जीवन के विकास की यात्रा है। व्यक्तित्व के विकास का एक मात्र माध्यम शिक्षा ही है। विश्वभर के शिक्षाविद् कहते हैं कि शिक्षा के सम्मुख तीन प्रमुख काम हैं – पहला, प्राचीन ज्ञान को नवीन पीढ़ी को हस्तांतरित करना; दूसरा, नवीन ज्ञान का सृजन करना और तीसरा, अगली पीढ़ी को जीवन के संघर्ष और चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रशिक्षित कर देना।
यदि शिक्षा इन तीनों में से कोई भी एक काम न कर सके तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है, उसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगता है। दुर्योग से वर्तमान शिक्षा प्रणाली कहीं न कहीं इन तीनों मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कुछ सीमा तक विफल सिद्ध हो रही है।
किन्तु प्रचलित शिक्षा नीति में यह उद्देश्य दिखाई नहीं देता। भारतीय जीवन मूल्यों की सरासर उपेक्षा हो रही है और लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा नीति का अनुपालन हो रहा है ऐसा लगता है। इसमें शिक्षा केवल देहवाद, भोगवाद का पाठ देती है। परोपकार, कर्त्तव्य भावना, राष्ट्रीयता ऐसे भारतीय जीवन मूल्यों की सरासर उपेक्षा दिखाई देती है।
विगत कुछ समय से अपने देश में एक शब्द का बहुत प्रचार हुआ है— जगद्गुरु या विश्वगुरु। भारत एक समय विश्वगुरु था और हम उसे पुनः विश्वगुरु बनाएंगे यह विचार बड़े-बड़े लोग व्यक्त करते हैं। परन्तु भारत को विश्वगुरुत्व या जगद्गुरुत्व कैसे प्राप्त हुआ था ? इसका कोई चित्र वे विद्वान् हमारे सामने नहीं रखते। भारत को विश्वगुरु या जगद्गुरु की पदवी उसकी आचार्य-परम्परा में आधारित शिक्षा-व्यवस्था के कारण प्राप्त हुई थी।
भारतवर्ष ने दुनिया को विभिन्न विषयों के महान् विद्वान् और महान् ग्रन्थ सौंपे, वे विद्वान् किसी कॉन्वेंट स्कूल की उपज नहीं थे, वे विद्वान् गुरुकुल-प्रणाली से पले-बढ़े थे। तैत्तिरीय उपनिषद् को तो एक प्रकार से नैतिक शिक्षा का भण्डार ही कह सकते हैं। इसके एकादश अनुवाक में वेद-विद्या पढ़ा चुकने के बाद आचार्य अन्तेवासी शिष्य को दीक्षान्त-भाषण में उपदेश देता है – सत्य बोलना। धर्माचरण करना। स्वाध्याय से प्रमाद मत करना। सत्य बोलने से प्रमाद न करना, जिस बात से तुम्हारा भला हो उससे प्रमाद मत करना। अपनी विभूति बढ़ाने में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय और प्रवचन में प्रमाद मत करना। माता, पिता, आचार्य और अतिथि को देव मानने का उपदेश किया गया है। आचार्य को जो प्रिय हो वह दक्षिणा मे उसे देकर ब्रह्मचर्याश्रम के अनन्तर गृहास्थाश्रम में प्रवेश करना और प्रजा के सूत्र को मत तोड़ना।
गान्धार, तक्षशिला, राजगृह के समीप नालन्दा, भागलपुर-स्थित विक्रमशिला एवं काठियावाड़ के वल्लभी विश्वविद्यालयों ने, चाहे बौद्ध शिक्षा में ही सही, अपने समय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। पांचवीं से आठवीं शती तक वल्लभी के स्नातकों ने अकेले काठियावाड़ ही नहीं, समूचे भारत की जनचेतना को जीवन्त और सचेत रखा। यहां के आचार्यगण व्यक्तित्वों को ढालने में इतने माहिर थे कि अन्य देशों के लोग भी यहां विद्या-अर्जन के लिए तरसते थे। काशी, उज्जयिनी, काञ्चीपुरम, अमरावती, औदंतपुरी आदि जगह भी विद्या के ऐसे ही केन्द्र थे, जहां से साधारण व्यक्ति असाधारण प्रखर बनकर निकलते थे। आज के विश्वविद्यालयों की स्थिति देख लीजिए।
चाणक्य की दुर्धर्ष प्रखरता तक्षशिला से उपजी थी। यहीं के स्नातक उनके प्रथम सहयोगी थे, जिनके सम्मिलित प्रयासों से मौर्य-साम्राज्य की नींव डल सकी। चाणक्य का लोहा पूरी दुनिया मानती है।कुमारिल भट्ट उस नालन्दा में गढ़े गए, जहाँ समूचे एशिया से छात्र ज्ञानार्जन करने आते थे। भगवत्पाद शंकराचार्य के योगदान को कौन भुला सकता है, जिन्होंने न केवल चार मठों की स्थापना की, अपितु द्वादश ज्योतिर्लिंगों का व्यवस्थापन किया, प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखा, कुम्भ-मेलों को पुनः प्रारम्भ करवाया, अवैदिक मत-मतांतरों से सफलतापूर्वक टक्कर ली। चोल-सम्राट् देवपाल के समय विक्रमशिला में गढ़े गए परिव्राजकों ने भारत ही नहीं, अपितु सुदूर ब्रह्मदेश, मलाया आदि जगहों पर पहुंचकर ज्ञान का (राजयोग का) प्रसार किया।
कुछ शिक्षाविदों ने इस सन्दर्भ में निजी स्तर पर पाठशाला, गुरुकुल और स्कूल खोलने के प्रयास भी किए हैं। लेकिन कुल मिलाकर ‘स्कूल’ शब्द कहते ही हमारे दिमाग में कौन-सा चित्र उभरता है? वही बेंच-डेस्क वाला कमरा न!* बच्चे के मन में माता-पिता अपने सपने को ठूँस देते हैं। इस तरह अपने सपने को साकार करने करने के लिए माता-पिता बच्चे, विद्यालय और ट्यूशन के बीच अपना अत्यधिक समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं। इसके साथ अपने बच्चे का हंसता-मुस्कुराता बचपन भी नष्ट कर डालते हैं।
भारतीय शिक्षा प्रणाली की आचार्य परंपरा में चरक, सुश्रुत, भास्कराचार्य, चाणक्य, पतंजलि, पाणिनी, राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, चार्ल्स वुड , विलियम विल्सन हंटर, रवींद्रनाथ टैगोर, सावित्रीबाई फुले, सैयद अहमद खान, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महात्मा गांधी जैसे विद्वान हुए जिन्होंने शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित सिद्धांत एवं गूढ़ विश्लेषण प्रतिपादित किये. इसी प्रकार भारत ने दुनिया को युद्ध-नीति, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, शल्य, रसायन, भौतिकी, पराभौतिकी (खगोलविज्ञान), ब्रह्मविद्या, अणुविज्ञान, जीवविज्ञान, आदि अनेक विषयों पर सर्वप्रथम मौलिक ग्रंथ प्रदान किए थे। दुनियाभर के वैज्ञानिक वैदिक मंत्रों की महाशक्ति पर शोध-कार्य कर रहे हैं और हमलोग उन्हें पौरोहित्य वर्ग से जोड़ने में ही गौरव अनुभव कर रहे हैं।
आधुनिक शिक्षा-प्रणाली, जो स्पष्ट तौर पर यूरोपीय शिक्षा-प्रणाली है, ने देश का कौन-सा कल्याण किया है? विगत तीन शताब्दियों का इतिहास उलटकर देख लीजिए— इस प्रणाली से हमने कितने पाणिनि, पतञ्जलि, चाणक्य, कालिदास, रामानुजाचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, तुलसीदास, आदि पैदा किए हैं? इन विद्वानों ने किन शिक्षण-संस्थानों से एमए, एमबीए, बीएड, एमएड, नेट, जेआरएफ, एसआरएफ, डिप्लोमा, पीएचडी. और डीलिट् की उपाधि प्राप्त की थी?
वर्तमान भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में विदेशों से पढ़ने आनेवाले छात्रों की संख्या पता कीजिए। आपको संख्या नगण्य मिलेगी। यदि भारत में कोई विदेशी छात्र/शोधार्थी आता भी है, तो वह भारतीय संस्कृति के किसी आयाम पर खोज करने या किसी संस्कृत ग्रंथ/पाण्डुलिपि की तलाश में आता है। कोई भी विदेशी विद्यार्थी एमबीए, एमबीबीएस या पीएचडी करने भारत नहीं आता। उलटे भारतीय छात्र इन डिग्रियों के लिए विदेशों की दौड़ खूब लगाते हैं।
क्या हमने कभी इस विषय पर गम्भीरता से चिन्तन किया है कि एक समय दुनिया के कोने-कोने से यहाँ आनेवाले वि़द्यार्थी अब क्यों नहीं आते? भारत में दी जानेवाली आधुनिक शिक्षा-प्रणाली क्या तैयार कर रही है? क्या चाणक्य? क्या शंकराचार्य? क्या विवेकानन्द? क्या कालिदास? क्या भवभूति? क्या वेदव्यास? क्या पाणिनि? क्या पतञ्जलि? क्या तुलसीदास? क्या अश्वघोष? क्या राजशेखर? नहीं। क्या क्लर्क? हां यहां की शिक्षा-प्रणाली दिनोंदिन अपनी मौलिकता और रचनात्मकता खोकर नौकरी के इर्द-गिर्द घूम रही है, बच्चे मेधावी कैसे बनेंगे?
ऐपल के सह संस्थापक स्टीव वॉजनिएक ने ET को दिए इंटरव्यू में भारतीय शिक्षा व्यव्स्था और यहां के छात्रों की रचनात्मकता पर एक कटु किन्तु सत्य का बयान किया है। उन्होंने कहा है कि भारत में जॉब मिलने को सफलता कहा जाता है, लेकिन क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) कहां है? स्टीव वॉजनिएक वही शख्स हैं जिन्होंने पहला ऐपल कंप्यूटर बनाया था जिसका नाम Apple 1 है.
स्टीव वॉजनैक ने वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की ओर इशारा करके कहा कि वर्तमान भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पढ़ाई पर टिकी है, लेकिन रचनात्मकता को बढ़ावा नहीं देती है। उन्होंने कहा कि आप कितने टैलेंटेड हैं? अगर आप इंजीनियर हैं या एमबीए हैं, तो अपनी डिग्री पर इठलाइये, लेकिन खुद से पूछिये कि आपमें कितनी रचनात्मकता है।
स्टीव ने कहा कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं है कि भारत में गूगल, फेसबुक और एप्पल-जैसी दुनिया की बड़ी कम्पनियाँ तैयार हो सकती हैं; क्योंकि भारतीयों के पास रचनात्मकता की कमी है और उन्हें इस तरह के कॅरियर के लिए बढ़ावा भी नहीं दिया जाता है।
उन्होंने कहा कि भारत में सफलता का मतलब ऐकडमिक ऐक्सेलेंस, पढ़ाई, सीखना, अच्छी जॉब और भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हुए एक बेहतर जीवन जीना है। न्यूजीलैंड जैसे छोटे देश को देखिए जहाँ लेखक, सिंगर, खिलाड़ी हैं और यह एक अलग दुनिया है।
स्टीव वॉजनैक ने बिलकुल ठीक इंगित किया है कि आज के भारतीय युवा का उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी और उसके द्वारा आजीविका प्राप्त करना या कहिए भौतिक संसाधनों को जुटाना मुख्य है और वह उसी को समस्त सुख-शान्ति का मूलाधार समझ रहा है।
क्या हमने आधुनिक शिक्षा-पद्धति की पूरी पड़ताल की है जिसका उद्देश्य ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाना है, और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इसमें किसी प्रकार के साधन अपनाने की खुली छूट दी गई है। महाविद्यालय/विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी पानेवाला उस योग्य है भी अथवा नहीं, यह न देखकर उसके द्वारा लाया गया सिफ़ारशी पत्र देखा जाता है।
एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर, प्रोफेसर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य— यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं; उसमें नैतिकता-जैसे श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ या नहीं— यह उनकी कल्पना से बहुत दूर की बात है।
आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और उसके द्वारा नौकरी लेकर भोजन, वस्त्र तथा आवास जैसी सुविधाएँ प्राप्त हो जायें— यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गांव तक में सरकारी व निजी स्तर पर विद्यालय खोले गए हैं अथवा खोले जा रहे हैं।
निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारी-भरकम फ़ीस के द्वारा खूब कमाई भी कर रहे हैं। ऐसे में चाणक्य, पाणिनि, पतंजलि, तुलसीदास, आदि कहां से पैदा होंगे?
[साभार : Sanskritam@mysanskritam ]
वर्तमान शिक्षा पद्धति में हम पाठ्यक्रम तय करते हैं, उसकी विषय-वस्तु को अध्यायों में बांटते हैं, उसको विद्यालय के कालांश विभाजन चक्र में बांधते हैं और इस सबको केवल परीक्षा से जोड़ देते हैं। आज शिक्षा का अर्थ केवल अंक ज्ञान, अक्षर ज्ञान, कुछ पुस्तकों का अध्ययन, उसमें से कुछ चुने हुए प्रश्नों के उत्तर को रट लेना और उन्हें परीक्षा की उत्तर पुस्तिका में यथावत् लिख देना, और उसके आधार पर एक अंकसूची और प्रमाण-पत्र प्राप्त कर नौकरी पाने की दौड़ में शामिल हो जाना, इतने तक ही सीमित हो गया है।
पाठ्यचर्या निर्धारण करने वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति और पाठ्यक्रम की रूपरेखा तय करने वाले विद्वत्जनों, उस पाठ्यक्रम के आधार पर पाठ्यपुस्तकों का लेखन करने वाले विद्वानों, उन पाठ्य पुस्तकों के आधार पर कक्षा शिक्षण करने वाले अध्यापकों, कक्षा में पढ़ाई गई विषयवस्तु के आधार पर प्रश्नपत्र निर्माण करने वाले प्राश्निकों तथा प्रश्न-पत्र बनाने वालों और उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन करने वाले परीक्षकों के बीच कोई समन्वय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया जाता।
सी.बी.एस.ई. के पूर्व अध्यक्ष श्री अशोक गांगुली के शब्दों में उपर्युक्त कारणों से- ‘हम शिक्षक पाठ्यक्रम को तो कवर करते हैं, लेकिन स्वयं कोई नयी खोज नहीं करते--’ ‘we cover the syllabus but do not discover anything’ की स्थिति दिखाई देती है। शिक्षा जगत को इस चुनौती को भी स्वीकार करना होगा।
जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में –"जानकारी इकठ्ठा करना और तथ्यों को बटोरकर आपस में मिलाना ही शिक्षा नहीं है, शिक्षा तो जीवन के अभिप्राय को उसकी समग्रता में देखना-समझना है।--पूर्णत: समन्वित प्रज्ञाशील मनुष्य तैयार करना है। परीक्षा और डिग्री (डॉक्टरेट की उपाधि) प्रज्ञा का मानदंड नहीं है।"
अच्छी शिक्षा (मूल्यपरक शिक्षा) का उद्देश्य है, अच्छे मनुष्य (ब्रह्मविद/पैगम्बर/नेता) का निर्माण करना, किन्तु वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छा मनुष्य बनाने की शिक्षा के स्थान पर अच्छी डिग्री , अच्छी नौकरी अर्थात् अधिक कमाई वाला पोस्ट दिलाने वाली शिक्षा को मान लिया गया है। इसीलिए अच्छे शिक्षण संस्थान की परिभाषा भी अच्छे शिक्षकों, अच्छे शैक्षिक वातावरण, संस्कारक्षम परिवेश, सक्षम पुस्तकालय अथवा प्रयोगशाला या शिक्षण सहायक सामग्री आदि न होकर सुन्दर भवन, वातानुवूफलन, वाहनों की बड़ी संख्या, चमक-दमक और शुल्क की बड़ी राशि आदि हो गए हैं।
ज्ञानार्जन के करणों (3H) को विकसित कर यथार्थ मनुष्य बनने के स्थान पर प्रायोगिक उपकरणों का विचार अधिक होता है। [ आचार्य परम्परा जैसे " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" या 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make Vedanta Leadership Training tradition"में ज्ञानार्जन के करणों को विकसित करने में प्रशिक्षित भावी शिक्षकों/ नेताओं/C-in-C} का निर्माण करने के स्थान पर फुटबॉल खेलने में दक्ष रोबोट जैसे उपकरणों के टेक्नोलॉजी सीखने का विचार अधिक होता है। ]
विद्यार्थी के व्यक्तित्व (3H) का विकास करने की जिम्मेदारी जिन शिक्षकों/ (मार्गदर्शक नेताओं) पर है उन (नेताओं) की शैक्षिक गुणवत्ता (लीडरशिप क्वालिटी) को , "आचार्य परम्परा में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर" - के माध्यम से प्रबोधन और विकास की भी कोई प्रभावी योजना या कार्यक्रम शिक्षा मंत्रालय के पास मौजूद नहीं है।
यह प्रयास कुछ व्यक्ति या संगठन मात्रा नहीं कर सकते। इसके लिए समाज में शिक्षा को सही अर्थों में समाजोपयोगी तथा राष्ट्रोपयोगी बनाने का विचार रखने वाले सभी सहयात्रियों को साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा।
व्यक्तित्व (3H) का समग्र विकास होने से आज की आत्म-केन्द्रित युवा पीढ़ी को सामाजिकता के भाव के साथ जोड़ना आवश्यक है। शिक्षा क्षेत्रा में राष्ट्रीयता का भाव रखने वाले ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के समूह के ध्रुवीकरण तथा उनके सक्रिय होने की भी बड़ी आवश्यकता है। यह प्रयास कोई अकेला व्यक्ति , या कुछ व्यक्ति या कोई एक संगठन मात्र नहीं कर सकते। इसके लिए समाज में शिक्षा को सही अर्थों में समाजोपयोगी तथा राष्ट्रोपयोगी बनाने का विचार रखने वाले सभी 'ब्रह्मविद सहयात्रियों ' को साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा।
मेहसाणा की सांसद श्रीमती जयश्री बेन पटेल ने बालकों के निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार विधेयक २००८ पर बोलते हुए संसद में कहा था - " सर्वोदयी नेता विनोबा भावे भी मनुष्य निर्माणकारी और चरित्रनिर्माणकारी प्रशिक्षण का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। गांधी जी की दृष्टि में हमारी शिक्षा नीति, हमारी संस्कृति और समाज की शिक्षा के अनुरूप होनी चाहिए। महात्मा गाँधी भी स्वामी विवेकानन्द की - 'Man-making and Character-building education' 'मनुष्य निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षानीति ' से प्रभावित थे। उनका मानना था कि भारत की शिक्षा नीति में '3H' विकास- हैंड, हैड और हार्ट [तीन एच. अर्थात हैड ( मानसिक-एकाग्रता का अभ्यास द्वारा बुद्धिबल का विकास), हार्ट ( परहित भावना और प्रार्थना द्वारा -हृदय का विस्तार और आत्मबल का विकास) तथा हैण्ड (व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा कर्म क्षमता या बाहुबल) को विकसित करने के प्रशिक्षण पर आधारित होनी चाहिए।
विद्यार्थी अपने (3H) अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करना कैसे सीखे ? अर्थात विद्यार्थी ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनना और बनाना कैसे सीखे ? सीखे हुए को जीवन के व्यवहार में कैसे लाए, अपने अस्तित्व और जीवन के लक्ष्य का निर्धारण कैसे करे और सबसे बढ़कर उसमें सामाजिक सरोकार तथा संवेदनशीलता कैसे विकसित हो ?
यह ब्रह्मवेत्ता शिक्षाविदों की इस अंतर्राष्ट्रीय मंडली की चिन्ता और चिन्तन का विषय तो है परन्तु वास्तविकता के धरातल पर उसका क्रियान्वयन दिखाई नहीं देता।
केवल शैक्षिक स्तर ही चुनौती का विषय है इतना नहीं। शिक्षा आज संस्कार नहीं सिखाती, लोक-व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता भी नहीं विकसित करती। विद्यार्थी के व्यक्तित्व का विकास करने की जिम्मेदारी जिन शिक्षकों पर है उनकी शैक्षिक गुणवत्ता, उनके प्रबोधन और विकास की भी कोई योजना प्रभावी नहीं है।
अपनी रूचि से कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता। रोजगार के अन्य किसी भी क्षेत्र में सपफलता प्राप्त न होने पर अंतिम उपाय के रूप में व्यक्ति मजबूरी में शिक्षक बनना स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में उनके सामने केवल रोजगार का प्रश्न होता है, शैक्षिक गुणवत्ता अथवा विद्यार्थी-विद्यालय-समाज-देश के प्रति किसी प्रतिबद्धता का विचार नहीं होता। ऐसे में ‘‘गुरु’’ के ‘‘गौरव या गुरुत्व’’ का विचार कहाँ से उत्पन्न हो सकता है?
अपनी रूचि से कोई 'शिक्षक' [जीवनमुक्त शिक्षक (जिसको अपने लिए किसी भी समस्या का, मृत्यु की समस्या का भी सामना न करना पड़े), मानवजाति का मार्गदर्शक] नेता या पैगम्बर नहीं बनना चाहता। रोजगार के अन्य किसी भी क्षेत्र में सपफलता प्राप्त न होने पर अंतिम उपाय के रूप में व्यक्ति मजबूरी में शिक्षक बनना स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में उन नौकरी करने वाले वेतनभोगी शिक्षकों के सामने केवल रोजगार द्वारा पेट पलने का प्रश्न होता है, अतः उसके मन में आचार्य-परम्परा में भावी आचार्य (would be Leader) का निर्माण करने के प्रति अपने छात्रों की शैक्षिक गुणवत्ता अथवा विद्यार्थी-विद्यालय-समाज-देश के प्रति किसी प्रतिबद्धता या मार्गदर्शन का विचार नहीं होता। ऐसे में ‘‘आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित चपरास प्राप्त गुरु के गौरव या गुरुत्व’’ का विचार कहाँ से उत्पन्न हो सकता है?
हमारी संवेदना दिन-प्रतिदिन मरती जा रही है। हमारे पास (पाश्चात्य देशों के पास ?) या भौतिक सम्रद्धि तो अपार है पर हमारी संस्कृति ,हमारे मूल्य ,हमारे आपसी सम्बन्ध ,हमारी जड़े खोखली होती जा रही हैं। शिक्षा आज संस्कार नहीं सिखाती, लोक-व्यवहार (प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का अंश समझकर उसके साथ व्यवहार), शिष्टाचार, सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता भी नहीं विकसित करती, हृदय का विस्तार करना नहीं सिखाती। अतः आज केवल शैक्षणिक स्तर को सुधारना ही चुनौती का विषय नहीं है, बल्कि प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का अंश समझकर उसके साथ व्यवहार करते समय -'मैं लीला कर रहा हूँ, जगत ईश्वर की लीला' इस स्मृति को जाग्रत कैसे रखें - यही आज का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है। केवल शैक्षिक स्तर ही चुनौती का विषय है इतना नहीं।
[हाल ही में बेचलर ऑफ एजुकेशन यानी बी.एड.कोर्स को दो वर्ष का करने तथा गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा शिक्षक/नेता /गुरु /पैगम्बर तैयार करने की पद्धति को लागु किये बिना ही, शिक्षकों का निर्माण करने के लिए 4 वर्षीय समेकित पाठ्यक्रम कार्यान्वित करने का निर्णय क्या सही दिशा में लिया गया एक सही कदम है ??? ]
इसके ठीक विपरीत विचार करें तो यदि समाजनीति-अर्थनीति और राजनीति में परिवर्तन कर दिया जाए किन्तु शिक्षा नीति को अपरिवर्तित रखा जाए तो यह परिवर्तन कितना स्थायी और परिणामकारी होगा? सरल शब्दों में कहें तो शिक्षा नीति में होने वाला कोई भी परिवर्तन तभी प्रभावी और परिणामकारी हो सकता है जब समाज जीवन के अन्य क्षेत्रा भी उसमें सकारात्मक सहयोग करें अन्यथा स्वार्थ आधारित समाजनीति, लाभ-लोभ आधारित अर्थनीति, तथा सिद्धांतविहीन राजनीति के चलते शिक्षा नीति में किए गए परिवर्तन निष्प्रभावी रहेंगे।
दूसरा प्रश्न है, कि यदि यह परिवर्तन करना ही हो तो आखिर इसे करेगा कौन? सहज उत्तर है, ‘‘सरकार या संसद’’। लोकतंत्र में सामान्यतः सारी जिम्मेदारी सरकार या जनप्रतिनिधियों पर छोड़कर समाज निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। सामान्य रूप से सरकार की प्राथमिकता सूची में शिक्षा का विषय प्रायः नहीं होता।
समस्या केवल सरकार से ही नहीं है। प्रायः यह कहा जाता है कि शिक्षा को देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुरूप होना चाहिए।
संभवतः यहां इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि - क्या शिक्षा केवल देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए, अथवा शिक्षा का इससे बड़ा दायित्व देश के लोगों को यह सिखाने का है कि वे अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, किस बात की तत्काल आवश्यकता का अनुभव करते हैं, तथा अपनी इस अभिलाषा को व्यक्त कैसे करें?
शिक्षा में स्वायत्तता की चर्चा अनेक मंचों से होती है परन्तु न तो सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कोई कटौती किया जाना पसन्द करती है और न ही शिक्षाविदों की ओर से इसको लेकर कोई प्रभावी पहल होती है। ऐसे में यह प्रश्न करना अत्यंत स्वाभाविक है कि दो विकल्पों में से बेहतर क्या होगा – संसद शिक्षा में परिवर्तन करे या शिक्षा जगत के लोग संसद में बैठे हुए लोगों का शिक्षा को प्राथमिकता सूची में लाने योग्य मानस परिवर्तन करें?
केवल सरकार या समाज ही शिक्षा की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी हैं, इतना ही नहीं है। कोठारी आयोग (1964-66) के अध्यक्ष डॉ० दौलत सिंह कोठारी का वह कथन शिक्षाविदों के लिए भी गंभीरतापूर्वक विचार करने वाला है कि ‘‘भारत के शिक्षाविदों तथा बुद्धिजीवियों का गुरुत्वाकर्षण केन्द्र भारत के बाहर स्थित है।’’ इसी का परिणाम है कि हम अपने देश की परम्पराओं ,अपेक्षाओं, भावनाओं, आवश्यकताओं, मान्यताओं, तथा जीवन दृष्टि का विचार किए बिना ही जो भी कुछ यूरोप और अमेरिका में होता है, अपने देश के लिए भी उपयोगी मानते हुए लागू कर देते हैं। भले ही उसका परिणाम बाद में कुछ भी आए। क्या शिक्षा क्षेत्र के अंदर ही शिक्षा के सम्मुख यह एक बड़ी चुनौती नहीं है?
भारतीय आध्यात्मिक सांस्कृतिक परम्परा से विरासत में प्राप्त ज्ञान का भण्डार अथाह है। ज्ञान के अधिकांश सिद्धान्त सर्वकालिक तथा स्थायी होते हैं। परन्तु जब प्रश्न शिक्षा का आता है तो यह देखना आवश्यक है कि वह देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो और अगली पीढ़ी को उसके जीवन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाए।
सामान्यत: वैदिक काल से 18वीं शताब्दी तक भारतीय शिक्षण चिंतन का आधार धर्म तथा नैतिक जीवन मूल्यों का संरक्षण रहा। गत हजारों वर्षों से भारत के ऋषियों-मनीषियों ने अपने अध्ययन, अनुभवों, आचरण तथा अनुभूतियों से भारतीय जीवन मूल्यों के प्रतिमान स्थापित किये। शिक्षा-पाठ्यक्रम में जीवन के चार पुरुषार्थों, चार आश्रमों, धर्म के दस लक्षणों, चरित्र निर्माण संस्कारों की बृहद् योजना को जीवन मूल्यों की शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग माना गया। मूल्यपरक शिक्षा ने न केवल भारत में बल्कि विश्व में उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति का मार्गदर्शन किया।
मध्यकालीन भारत में अनेक आक्रमणों, लुटेरों तथा घुसपैठियों ने राजनीतिक प्रहारों, आर्थिक लूटमार, सांस्कृतिक ध्वंस से देश की आचार्य परम्परा को तहस-नहस कर दिया। भारत में मूल्यपरक शिक्षा पर पहला क्रूर प्रहार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारियों, ब्रिटिश प्रशासकों, ब्रिटिश इतिहासकारों तथा ईसाई पादरियों के द्वारा हुआ। भारत के ईसाईकरण तथा गुलामीकरण के प्रयास में उन्हें सर्वाधिक बाधा यहां की शिक्षा व्यवस्था लगी।
परन्तु तब भी (उस डार्क एज में भी) कुछ मन्दिरों, पाठशालाओं, तीर्थस्थलों तथा ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के घरों में नैतिक जीवन की मूल्यपरक शिक्षा ने अपना स्थान अक्षुण्ण बनाये रखा। सन्तों, भक्तों, गुरुओं/नेताओं ने अपनी वाणी तथा उपदेशों में शिक्षा में जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा को सदैव सर्वोच्च बनाये रखा।
इस रिपोर्ट में शिक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में कहा है कि -किसी भी देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति का स्वरूप तथा जड़ें - उस देश की संस्कृति में आधारित और विकास के लिए वचनबद्ध “Rooted in Culture, Committed to progress” होनी चाहिए। वस्तुत: शिक्षा लौकिक तथा पारलौकिक उन्नत जीवन को स्थापित करने वाली होनी चाहिए। शिक्षा राष्ट्रीय गौरव, आत्मविश्वास तथा आत्म गौरव बढ़ाने वाली हो। शिक्षा का स्वरूप संवैधानिक तथा अन्तरराष्ट्रीय दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए। गांधीजी ने भी बिना नैतिक मूल्यों के शरीर को आत्माविहीन कहा है।
डेलर्स कमीशन- 96' ने अपने रिपोर्ट में विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा सम्बन्धी दो प्रमुख अवधारणाओं के आधार पर विश्व के समक्ष शिक्षा का एक समग्र दृष्टि-कोण (integrated vision) प्रस्तुत किया है- पहला- " द ट्रेजर विदिन को जानने के लिए जब तक जीवन है, सीखते रहो" (learning throughout life’ /श्री रामकृष्ण के शब्दों में - 'जावत बाँची तावत सीखी।' और दूसरा जीवन भर चलने वाली शिक्षा, जो मुख्य रूप से शिक्षा के चार स्तंभों पर (four pillars of learning) टिकी होती है-
1.जानने के लिए ज्ञान Learning to Learn)
2. करने के लिए ज्ञान (Learning to do)
3. होने (अस्तित्व,ब्रह्मवेत्ता होने ) के लिए ज्ञान Learning to be Man !
4. एक साथ मिलजुल कर रहने के लिए ज्ञान (Learning to live together)
[It has given the mandate of ' Learning to be Man ' rather than 'Learning to Do' because a number of youngsters go drug addict or commit suicide besides contacting serious incurable diseases . The Delors Report was a report created by the Delors Commission in 1996. It proposed an integrated vision of education based on two key concepts, ‘learning throughout life’ and the four pillars of learning, to know, to do, to be and to live together. The Four Pillars of Education: One of the most influential concepts of the 1996 Delors Report was that of the four pillars of learning. 1. Learning to know – a broad general knowledge with the opportunity to work in depth on a small number of subjects.2. Learning to do – to acquire not only occupational skills but also the competence to deal with many situations and to work in teams. 3. Learning to be – to develop one’s personality and to be able to act with growing autonomy, judgment and personal responsibility.4. Learning to live together – by developing an understanding of other people and an appreciation of interdependence.। https://vbsamwad.co.in › life-challenges-and-the-education-system]
डेलर्स कमीशन- 1996' की यह रिपोर्ट दो प्रमुख बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। पहला पक्ष तो यह कि आखिर इस शताब्दी में विद्यार्थियों को क्या सिखाया जाना चाहिए? संयोग से यह वह कालखण्ड है जिसे 'संधि -काल' या Time Between Times कहा जाता है। विशेष रूप से यदि स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की बात की जाए तो आज के इस संधि-काल या संक्रमण काल में एक विशेष बात है कि सभी छात्रों [भावी शिक्षक,would be Leaders] ने इस शताब्दी में जन्म लिया है जबकि कम से कम आयु का शिक्षक [नवनीदा /गुरु/मार्गदर्शक नेता/C-in-C] भी पिछली शताब्दी का है। वैचारिक रूप से यह केवल पीढ़ी का अंतर नहीं बल्कि एक शताब्दी का अंतर [मनुष्य के विचार जगत में होने वाला युग परिवर्तन] है। आज विद्यार्थी ज्ञान के भण्डार का केवल उपभोक्ता ही नहीं रह गया है, बल्कि वह ज्ञान के विविध आयामों में स्वयं अपनी मौलिक रचना (राजयोग के लिए मनःसंयोग जैसी पद्धति) भी प्रस्तुत कर रहा है।
वर्तमान परिदृश्य में विद्यार्थियों को ‘क्या’ के साथ ही साथ ‘क्यों, कैसे और कौन’ सीखने में अधिक रुचि है। (In the present scenario, students are more interested in learning 'why, how and who' than 'what'.) वर्तमान पीढ़ी का विद्यार्थी - 'not interested in learning in the classroom.' क्लास रूम में बंधकर ज्ञानार्जन करने में रुचि नहीं रखता। नई पीढ़ी का विद्यार्थी केवल कक्षा-कक्ष में बेंच-डेस्क पर बैठ कर कुछ निर्धारित घंटों तक ही ज्ञानार्जन करने में रुचि नहीं रखता। वह केवल क्लास-रूम, प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय की सीमाओं में बंधकर ही शिक्षा पाना नहीं चाहता। यह एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष की संकल्पना है जिसे केवल कक्षा-कक्ष, प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय की सीमाओं से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन के विविध आयामों, खेतों, खलिहानों और कारखानों, खेल के मैदानों तक ले जाना होगा। क्योंकि दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा जोकि उसे 24×7 और यहाँ तक कि उसके घर में भी उपलब्ध हो सके, की आवश्यकता है।
विज्ञान तथा तकनीक के विकास के साथ बौद्धिक क्षमता का स्थान तेजी से Artificial intelligence ने ले लिया है। आज के विद्यार्थी का प्रश्न है - जब मेरे पास Google बाबा है, तो मुझे अपने दादा-दादी से या विद्यालय के शिक्षकों/गुरुओं /नेताओं से ज्ञान लेने की आवश्यकता क्यों है? ‘why I need a teacher/ Leader when I have Google ?’ नवनी दा जैसे शिक्षकों/नेताओं /राजर्षि (C-in-C) की आवश्यकता, 'Google-बाबा के युग में भी क्यों है?
इसे यदि वैश्विक परिदृश्य में देखें तो कम्प्यूटर अथवा सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी भारत के लिए अपेक्षाकृत नया विषय भले ही हो, परन्तु अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में यह कोई नया विषय नहीं है। वहाँ लगभग 70 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्रा में तकनीक का उपयोग हो रहा है। फिर भी ऐसा कोई समाचार सुनने या पढ़ने में नहीं आया कि इतने वर्षों में वहां का कोई विश्वविद्यालय या महाविद्यालय इस कारण बन्द कर दिया गया हो। इससे यह समझा जा सकता है कि गुरु-शिष्य संवाद की यह समयसिद्ध परम्परा [ आचार्य-परम्परा ] वहां भी विकल्पहीन है।
किन्तु इस तथ्य की ओर से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि बढ़ती हुई तकनीकी प्रगति के साथ यदि वर्तमान पीढ़ी के शिक्षकों ने स्वयं को गतिमान नहीं रखा तो प्रसिद्ध अँग्रेजी कहावत If you are not updated, you are outdated’ सत्य सिद्ध होने वाली है। समय किसी की प्रतीक्षा में नहीं रुकता।
इससे यह समझा जा सकता है कि गुरु-शिष्य संवाद की यह समयसिद्ध परम्परा [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा या 'Be and Make Leadership Training Tradition' में प्रशिक्षित मार्गदर्शक नेता का निर्माण] वहाँ के लिए भी विकल्पहीन (unavoidable) है। किन्तु इस तथ्य की ओर से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि बढ़ती हुई तकनीकी प्रगति के साथ यदि वर्तमान पीढ़ी के शिक्षकों ने स्वयं को गतिमान नहीं रखा तो, जैसा कि प्रसिद्ध अँग्रेजी कहावत में कहा गया है - 'यदि आप अपडेट (सामयिक) नहीं हैं, तो आप आउटडेटेड (कालविरुद्ध) हैं !'- If you are not updated, you are outdated’ सत्य सिद्ध होने वाली है। समय किसी की प्रतीक्षा में नहीं रुकता।
यही डेलर्स आयोग- 96' इस शताब्दी में युवा के सामने आने वाले सात प्रकार के वैचारिक विरोधाभासों (ideological contradictions) का भी उल्लेख करता है –
1.स्थानीय बनाम अथवा वैश्विक (Local versus Global)
2. सार्वभौमिक के मुकाबले व्यक्तिगत (Universal Versus Individual)
3. श्रुति परम्परा के मुकाबले आधुनिकता (Traditions Versus Modernity)
4.दीर्घकालिक लक्ष्य के मुकाबले अल्पकालीन लाभ (Long term targets versus short term benefits)
5. स्पर्धा बनाम समानता (Competition versus equality)
6.भौतिक संतुष्टि के मुकाबले आध्यात्मिकता (Physical Satisfaction versus spirituality) 7.जानकारियों का संग्रह की तुलना में विचार ग्राह्यता (knowledge versus capacity to Assiamilate)
ये सातो बिन्दु ' प्रतिद्वन्द्विता या परस्पर झगड़ने के मुकाबले परमतग्राहण की अनिवार्यता' - Conflicts versus Capacity to Assiamilate ' के रूप आज के विश्व-मानव समाज जीवन में चारों ओर दिखाई दे रहे हैं।
शिक्षा का कार्य अगली पीढ़ी को इन सभी संघर्षों में केवल दो-दो के जोड़े में से किसी एक को चुनने का नहीं बल्कि उनके बीच में समुचित संतुलन स्थापित करने की क्षमता का विकास करना भी है।
ज्ञान सार्वभौमिक होता है किन्तु शिक्षा राष्ट्रीय । राष्ट्र की आवश्यकता, उपयोगिता, जीवन पद्धति तथा जीवन दृष्टि के अनुरूप यदि देश की शिक्षा पद्धति नहीं होगी तो वह अगली पीढ़ी को वह सब हस्तांतरित नहीं कर सकेगी जो उसकी मूलभूत आवश्यकता है। ज्ञान का भण्डार अथाह है। ज्ञान के अधिकांश सिद्धान्त सर्वकालिक तथा स्थायी होते हैं। परन्तु जब प्रश्न शिक्षा का आता है तो यह देखना आवश्यक है कि वह देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो और अगली पीढ़ी को उसके जीवन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाए।
अन्य देशों की नकल पर हमने अपने देश में भी शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ कर दिया। विचार करने वाली बात यह है कि क्या इस मंत्रालय के पास आगामी 20-25 या 50 वर्ष के लिए अपेक्षित मानव संसाधन के विकास के कोई लक्ष्य या आंकड़े उपलब्ध हैं और क्या उस दिशा में उनके पास कोई कार्ययोजना है? 2050 तक इस देश को कितने परमाणु वैज्ञानिक, कितने कृषि वैज्ञानिक, कितने चिकित्सा विशेषज्ञ, कितने अन्तरिक्ष अनुसंधानकर्ता, कितने विश्वविद्यालय प्राध्यापक अथवा प्राथमिक शिक्षक तैयार करने होंगे, इसको लेकर हमारी क्या तैयारी है? प्रश्न यह भी है कि क्या इन विभिन्न क्षेत्रों में जिस प्रकार के मानव संसाधन की आवश्यकता पड़ने वाली है उसका विकास करने की जिम्मेदारी किसकी है – राष्ट्र की, सरकार की, विद्यार्थी की या अभिभावक की?
यदि अभिभावक को अपना पेट काटकर या विद्यार्थी को बैंक से ऋण लेकर महंगी पढ़ाई करनी है, तो देश उससे यह अपेक्षा कैसे कर सकता है कि पढ़ाई पूरी करने के बाद देश की सेवा के लिए, अपने जीवन को भी न्योछावर कर देगा ? या केवल देश के लिए ही जीना चाहेगा ? " जो केवल अपने लिए जीता है, वह तो मृत से अधम है" - यह रहस्य उसे किस गुरु से प्राप्त होगा ? शिक्षा को महंगा व्यापार बना देने वाले व्यापारियों का सरल सिद्धान्त है – ‘‘लगाएगा सो पाएगा’’।
बुद्धिजीवी (ब्रह्मवेत्ता) समाज को एकजुट होकर भारत की शिक्षा को भारत केन्द्रित करना होगा/ अर्थात श्रुति परम्परा में आधारित भारत की आध्यात्मिक रूप से जागृति मनुष्यों के निर्माण में केन्द्रित करना होगा। इसीलिए डा॰ कोठारी ने कहा था - " शिक्षा और संस्कृति के गुरुत्वाकर्षण केन्द्र को वापस भारत में लाना होगा।" विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के समुचित प्रबोधन की आवश्यकता है कि पढ़ाई का अर्थ केवल कैरियर या रोजगार ही नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करना, जीवन-मूल्य, आत्मगौरव तथा राष्ट्र गौरव के भाव का जागरण करना भी शिक्षा के कार्य हैं।
मानवीय मूल्यों की कमी और विवेक-प्रयोग के अभाव के कारण जापान में क्या हुआ ? आज के वैज्ञानिक परमाणु (एटम) की जानकारी के सर्वोच्च बिंदु पर पहुंच चुके हैं। वे जानते हैं कि इसे किस तरह ऊर्जा का स्रोत बनाया जा सकता है। अत: प्रत्येक भावी शिक्षक/गुरु/नेता / भावी पैगम्बर को विवेक-प्रयोग के कौशल पर नियंत्रण हासिल करना होगा।
भावी शिक्षकों (Would be Leaders) की उभरती भूमिका, जिम्मेदारी और कार्य निष्पादन के स्तरों का खुलासा करते हुए डेलर्स कमीशन-1996' ने 'लर्निंग टू डू' के बजाय 'लर्निंग टू बी (गुरु-नेता)' की शिक्षा के प्रचार -प्रसार का निर्देश दिया है।
I.C.T. या सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (Information and Communication Technology) के गरिमापूर्ण युग में मानवीय मूल्यों को धारण करना और उनका अंतर्राष्ट्रीयकरण करना तथा विवेक-प्रयोग की कला एवं कौशल को समझना महत्वपूर्ण है, जो अकेले सीखने वाले को (भावी शिक्षकों को) सही मार्ग पर पथ-प्रदर्शन कर सकता है, वैसा जीवनमुक्त शिक्षक/ मार्गदर्शक नेता 'बनना और बनाना '।
‘‘दो तरफा शिक्षण’’ : यह आज और कल के शिक्षक/गुरु/नेता पैगंबर के समक्ष एक अद्यतन चुनौती है। इस नई व्यवस्था (प्रचलित शिक्षा और गुरुकुल शिक्षा का समन्वय) से जुड़ने, उसे स्वीकारने और स्वयं को उसके अनुकूल ढालने (गुरु जीवन-गठन) की जो महती चुनौतीआज के शिक्षक-समुदाय/नेता वृन्द को है और उसके लिए ही स्वामी विवेकानन्द ने मंत्र दिया है - Be and Make !' (नेता या पैगम्बर बनने और बनाने के लिए) उन्हें व्यक्तिशः स्वयं को तैयार करना होगा, तथा दूसरों को भी गुरु-जीवन गठन करने में सहायता करनी होगी।
भविष्य में शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच विचार-विमर्श में ‘‘दो तरफा शिक्षण’’ स्वयं के लिए जगह बनाएगा। एक साथ ‘सीखने के लिए सिखाना’ की धारणा भी अपेक्षित कौशल के रूप में देखी जाएगी। सीखने वालों (प्रशिक्षणार्थी) और प्रशिक्षकों दोनों को एक साथ सीखने के बहुस्रोतों तक पहुंच कायम करनी होगी और विवेकज -ज्ञान एवं विवेकप्रयोग का कौशल अर्जित करना होगा।
[So far we thought that 'H' is directly proportional to 'M' where H is happiness and M is money i.s . more money means more happiness .But statistical data reveal that the opposite is true. ]
अभी तक हम लोग यही समझ रहे थे कि-'H' सीधा 'M' का समानुपाती है, जहाँ H' का मतलब हैप्पीनेस (प्रसन्नता) तथा M' का तात्पर्य मनी (धन) से है। अर्थात अधिक धन माने अधिक खुशियाँ! लेकिन सांख्यिकीय आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है।
अमेरिका, जापान, स्वीडन आदि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक है, लेकिन आत्महत्या के मामलों में भी वे उसी प्रकार अव्वल हैं।
इन धनाढ्य देशों में मानसिक रूप से बीमार लोगों की संख्या भी अधिक है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है, कि हमें अधिक धन अर्जित करना बंद कर देना चाहिए। बल्कि, मुझे लगता है, कि भारत में आर्थिक विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिये कि केवल धन से ही हमारी सभी समस्याओं का (मृत्यु का) समाधान नहीं निकल सकता है। कुछ और आंकड़े हमें दुनिया भर में वर्तमान स्थिति की स्पष्ट तस्वीर प्राप्त करने में मदद करेंगे।
* यूनेस्को के अनुसार अमेरिका, जापान और स्वीडन में 54% युवाओं की मौत का कारण आत्महत्या है।
* जापान स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 44 वर्ष या इससे अधिक आयु के जापानी अधिकारियों में से 42% मानसिक विकारों से पीड़ित थे।
* ब्रिटेन के एक मनोवैज्ञानिक डॉ आर. डी. लिंग का कहना है कि इंग्लैंड में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए, एक औसत युवा लड़के या लड़की के स्कुल में प्रवेश पाने की अपेक्षा मेन्टल हॉस्पिटल में प्रवेश पाने की सम्भावना दस गुना अधिक है।
यह है विश्व का वर्तमान परिदृश्य, अतः हमें वास्तव में यह सोचना होगा कि इस अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए शिक्षकों / नेताओं की क्या भूमिका होनी चाहिए तथा शिक्षा की क्या भूमिका होनी चाहिए ? वर्तमान में प्रचलित शिक्षा नीति में गुणात्मक बदलाव लाते हुए एक अलग प्रकार की शिक्षा प्रणाली को प्रयोग में लाना होगा; तथा सम्पूर्ण मानवजाति को भारत की प्राचीन आध्यात्मिक संस्कृति से (श्रुति -परम्परा से) का परिचित करवाना होगा। भारत की शिक्षा-नीति में मिसाल या उदाहरण देने योग्य बदलाव (paradigm shift- शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण या अंतर्निहित मान्यताओं में एक मौलिक परिवर्तन) लाते हुए एक ओर जहाँ "श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा"--में प्रशिक्षित निवृत्ति -मार्ग के असाधारण संन्यासी शिक्षकों (Exalted teachers) का निर्माण करना होगा।
[यह चुनौती प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक शिक्षक/गुरु/नेता के सम्मुख है कि वे मनःसंयोग , जीवन-गठन, और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया पर आयोजित कक्षा-कक्ष को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान न बनाकर उसे शिक्षक (नेता) और शिष्य (भावी नेता) के बीच संवाद का केन्द्र बनाएं।] ज्ञानार्जन के विविध आयामों, पाठचक्र, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों, और स्थानों में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा दी जाती है, जो उसमें यम और नियम का पालन 24×7 और यहाँ तक कि उसके घर में भी सुबह और शाम - आसान, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास सिर्फ दो बार उपलब्ध हो सके, इस प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता है।]
आधुनिक विद्यालय -महाविद्यालय को अस्थायी रूप से गुरुकुल परिवेश में ढालने की चुनौती (भारत के प्रत्येक राज्य में वार्षिक युवा -प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने की चुनौती) प्रत्यक्ष रूप से महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने वाले /नेताओं /पैगम्बरों (जीवन मुक्त शिक्षकों) के सम्मुख है कि वे कक्षा-कक्ष (classroom) को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान ( just a place of boring lectures) न बनाकर उसे गुरु (मार्गदर्शक नेता) और शिष्य (भावी नेता) के बीच संवाद का केन्द्र (a center of dialogue between teacher and pupil.) बनाएं।
[आज का विद्यार्थी जो स्वाभाव से सत्यार्थी भी है, वह कक्षा-कक्ष से बाहर निकलकर किसी महामण्डल जैसे संगठन में जहाँ 3H विकास के 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाता हो, वैसे युवा-प्रशिक्षण शिविर में या एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष या गुरुकुल की संकल्पना जैसे वातावरण में गुरु के सानिध्य में रहते हुए, ज्ञानार्जन के विविध आयामों,(ध्वजा रोहण, परेड, फिजिकल एक्सरसाइज), ऑर्डिनरी कैम्पर्स साधारण शिविरार्थी / लीडर्स शिविरार्थी, के विविध स्तरों, स्नान-सामूहिक डायनिंग -परिवेषण के स्थानों के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा पाना चाहता है। यह महामण्डल घराना के विशाल युवा प्रशिक्षण शिविर केन्द्र की संकल्पना का शिविर-परिवेश एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष की संकल्पना (concept of an expanded classroom) है। महामण्डल द्वारा (श्रुति परम्परा में आधारित युवा प्रशिक्षण-प्रणाली) आयोजित विविध स्तर के युवा प्रशिक्षण शिविर में शिविरार्थियों को 24×7 उसके तीन प्रमुख अवयवों (3H) के विकास का प्रशिक्षण दिया जाता है। और यहाँ तक कि उसके घर में भी, यह शिक्षा उपलब्ध हो सके, की आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम बनाया जाता है।]
सर्वप्रथम दक्षिणेश्वर काली मंदिर में स्वयं माँ भवतारिणी के मुख से, स्वामी विवेकानन्द के गुरु, आधुनिक विश्व के प्रथम मार्गदर्शक नेता - श्रीरामकृष्ण देव को निर्विकल्प समाधि का अनुभव करने के बाद- तुम 'भावमुखी' होकर रहो (भ्रममुक्त-DeHypnotized होकर रहो ) और " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी जीवनमुक्त लोक-शिक्षक ( ('Would be Leader of Mankind) का निर्माण करो"~ का 'मौखिक चपरास' प्राप्त हुआ था। और काशीपुर उद्यान बाड़ी में स्वयं श्रीरामकृष्णदेव ने उसी जीवनमुक्त लोक-शिक्षक ('Would be Leader of Mankind) बनने और बनाने की पद्धति का 'लिखित चपरास' - 'धारणा-सिद्ध योगी की आवक्ष मुखाकृति के पीछे धावित मयूर का चित्र' अंकित कर, और 'नरेन शिक्षा देगा!' -लिखकर, निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषिओं में से एक अपने प्रिय और योग्यतम शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त (भावी स्वामी विवेकानन्द) के हांथों में सौंप दिया था।
और फिर निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में एक ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने अपने प्रवृत्ति मार्ग के प्रिय शिष्य तथा अद्वैत आश्रम मायावती के संस्थापक कैप्टन सेवियर को 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'बी एंड मेक' नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा' (BE AND MAKE- Leadership training tradition) में प्रशिक्षित नेता बनने और बनाने का आचार्य परम्परा से प्राप्त वही चपरास सौंप दिया था।
महामण्डल के संस्थापक तथा मनःसंयोग पुस्तिका के लेखक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'जीवननदी के हर मोड़ पर' के पृष्ठ 42 और 80 में 'कैप्टन सेवियर और अद्वैत आश्रम मायावती' का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अपने पूर्वजन्म में वे स्वयं कैप्टन सेवियर ही थे।
महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में 'विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' वेदांत लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी नेताओं /लोकशिक्षकों का निर्माण करने वाली पुस्तिका, 'मनः संयोग' के आवरण पृष्ठ पर छपे चित्र में डेलर्स कमिटी की रिपोर्ट -1996 में कथित -लर्निंग द ट्रेजर विदिन’’ “Learning The Treasure within” आने से '114 साल पहले' ही इसकी व्याख्या, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (24 अगस्त 1882) में इस प्रकार दी गयी है:~
भगवान श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। 'मास्टर' से कह रहे हैं - " ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलने की आवश्यकता है। मूर्तिकार को जब मूर्ति गढ़नी होती है, तो वह पहले उसका एक खाका (blueprint) तैयार कर लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा गढ़ने के लिये पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ाई जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रंगी जाती है।
विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। वह कुछ अच्छे काम (शिक्षा -समाज-सेवा आदि ) तो करता है, परन्तु स्वयं अपने हृदय में क्या है, इस बात की उसे कोई खबर नहीं है। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं यह जान लेने के बाद, सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। "
.... श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं। श्रीरामकृष्ण : "अन्तरे कि आछे जानबार जन्ये एकटू साधन चाई।" -अर्थात हृदय (Heart) में [कितना अमुल्य खजाना दबा पड़ा है !) क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ साधना आवश्यक है।
मास्टर : 'साधना' क्या बराबर करते ही रहना चाहिये ?
[मास्टर के कहने का तात्पर्य था कि क्या 'विवेकदर्शन का अभ्यास और लालचत्याग ' भ्रममुक्त होने या डीहिप्नोटाइज्ड होने की औषधि के रूप में ता-उम्र (आजीवन) खानी पड़ेगी ?]
श्रीरामकृष्ण : " नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' हिलोरा (surge),चक्रवात (storm),आँधी चल रही होती है, और नौका नदी के तीखे मोड़ों से होकर गुजर रही होती है, तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है। उतने से पार हो जाने पर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बंदोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। 'कामिनी और कांचन' की आँधी (वृत्ति) से निकल जाने पर शान्ति मिलती है ! " तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग (मनःसंयोग) है।
श्रीरामकृष्ण - " योगियों का मन सदा ईश्वर में (भीतर में छिपे खजाने में) - लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है [सारा मन लर्निंग द ट्रेजर विदिन’’ “Learning The Treasure within” में ही है ?], ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र " अण्डे सेने वाली माँ पक्षी का चित्र" क्या मुझे दिखा सकते हो ?"
[The mother bird hatching her eggs/ दी मदरबर्ड (गुरु रूपी माँ जगदम्बा-नवनीदा) हैचिंग हर एग्स (would be leader) का जीवंत चित्र;क्या मुझे दिखा सकते हो ?]
मणि- जैसी आज्ञा। चेष्टा करूँगा, यदि कहीं मिल जाय।"
[समाज-सेवा द्वारा कामिनी -कांचन और 'नाम-यश' कमाने में आसक्ति को भी सम्पूर्ण रूप से त्याग देने के बाद ही (हृदय में विराजित प्रेमस्वरूपा माँ जगदम्बा) को पुकारने की इच्छा होती है। अर्थात 'मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' देने में समर्थ भावी लोक-शिक्षक (वुड बी लीडर) 'बनने और बनाने' वाले महामण्डल आंदोलन, 'BE AND MAKE' का नेतृत्व (लीडरशिप) प्रदान करने की पात्रता प्राप्त होती है। हृदय में दबा सोना को 'श्रीरामकृष्ण-ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसा गुरु-शिष्य वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा' में ड्रिलिंग करके निकाल लेने की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं।
कामिनी-कांचन ('Lust and Lucre') में घोर आसक्ति ही मन (awareness) के 'Distraction' अर्थात दूसरी ओर लगाव का मुख्य कारण है। कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति की 'वृत्ति' रूपी 'आँधी' से पार होने के लिये, 'मनः संयोग' की पद्धति स्वयं सीखना और दूसरों को भी यह पद्धति सीखने में सहायता करना ही आधुनिक युग की धार्मिक साधना है।
'वासना और धन' की तृष्णा को मिटाने के लिये, बहुत बड़ी संख्या में एकाग्रता का अभ्यास करने की शिक्षा या प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी युवा लोक-शिक्षकों, वुड बी लीडर्स का निर्माण करने से ही में पूरे विश्व में सत्य-युग की स्थापना संभव हो सकती है।
आधुनिक युग में 'मनुष्य-निर्माण' के युवा मूर्तिकार नवनीदा ने भी अपने गुरु के निर्देशानुसार,"विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर प्रशिक्षण परम्परा" में हृदय में दबे सोने को खोज निकालने का उपाय बताने वाले लोकशिक्षकों, या वुड बी लीडर्स को प्रशिक्षित करने के लिये मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव, शरीर, मन और हृदय -3 'H' निर्माण के ५ अभ्यास ' की प्रशिक्षण पद्धति 'BE AND MAKE' का एक खाका (blueprint) तैयार किया था। ]
स्वामीजी कोई ज्योतिषी तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने जो भी भविष्यवाणी की थी वे सभी सच साबित हुए हैं। वास्तव में वे एक ऋषि (visionary-Seer भविष्यद्रष्टा या पैगम्बर) थे, भविष्य में होने वाली घटनाओं को भी अपनी आँखों के समक्ष बिल्कुल घटित होते हुए देखने में समर्थ थे। उन्होंने 1897 में ही भविष्यवाणी करते हुए कहा था - आगामी 50 वर्षों के भीतर असाधारण परिस्थितियों में भारत को स्वतन्त्र हो जाना चाहिये। उस समय तक गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे और किसी ने भी असहयोग आंदोलन के बारे में सोचा तक नहीं था। किन्तु उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और ठीक 50 साल बाद 1947 में हमें स्वतंत्रता मिली। ( आश्चर्य की बात तो यह है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म भी 23 जनवरी, 1987 को ही हुआ)
उनके द्वारा कही गई कई अन्य बातें भी बाद में बिल्कुल सच निकलीं। 1893 में, हार्वर्ड विश्वविद्यालय, यूएसए के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के घर पर उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद; चीन की तरफ से भारत पर एक बड़ा हमला होगा। और 1962 में उनकी यह भविष्यवाणी भी सच साबित हुई। स्वामी विवेकानन्द ने यह भविष्यवाणी की थी कि पहला सर्वहारा-वर्ग या दरिद्रतम मजदूर वर्ग का आंदोलन (first proletariat movement) रूस या चीन से आएगा। जबकि स्वयं कार्ल मार्क्स का विचार था कि ऐसा पहला आंदोलन जर्मनी से आएगा क्योंकि तब वहाँ कुछ संगठित मजदूर यूनियन बन चुके थे, और रूस में कोई संगठित श्रमिक वर्ग नहीं था। तब भी स्वामीजी की भविष्यवाणी सच साबित हुई।
इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि स्वामी जी ने जो भी भविष्यवाणी की थी, वह सब सच साबित हुई हैं।लेकिन एक भविष्यवाणी का अभी भी सच साबित होना शेष है। स्वामी जी ने 1897 में दिए गए अपने मद्रास वक्तृता में भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " भारत अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करेगा। " उनकी यह भविष्यवाणी अभी सच सिद्ध होना शेष है। किन्तु धीरे धीरे यह भी सत्य होने लगा है।
योग के अंतरराष्ट्रीय दिवस को विश्व योग दिवस भी कहते है। 11 दिसंबर 2014 को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रुप में 21 जून को संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने घोषित किया है। भारत में योग को लगभग 5,000 हजार वर्ष पुरानी एक मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विकास प्रशिक्षण परम्परा के रुप में पालन किया जाता रहा है। योग की उत्पत्ति प्राचीन समय में भारत में हुयी थी जब लोग अपने शरीर, मन और आत्मा की शक्ति में बदलाव लाने या विकसित करने के लिये मनःसंयोग का अभ्यास ( या ध्यान) किया करते थे। आज सम्पूर्ण विश्व योग, ध्यान, के माध्यम से मानसिक परिवर्तन या समाधि की अवस्था (परमानन्द की अवस्था) को समझने के लिए भारतीय आध्यात्मिकता की ओर मुड़ने लगी है।
'टाइम' पत्रिका में छपे एक लेख से पता चलता है कि अमेरिकी लोग अब बहुत बेकरारी से मनःसंयोग के अभ्यास की पद्धति को सीखना चाह रहे हैं, तथा दवा के रूप नियमित रूप से ध्यान कर रहे हैं। जर्नल ऑफ़ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (JAMA /Journal of the American Medical Association)
के इंटरनल मेडिसिन जर्नल में पिछले सप्ताह प्रकाशित एक नए समीक्षा अध्ययन से पता चलता है कि मन की शांति के लिए कुछ दस मिलियन अमेरिकी नियमित रूप से' mindful meditation या 'मन की एकाग्रता' का अभ्यास कर रहे हैं। अखबारों की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि अमेरिकी लोग योग को लेकर बिल्कुल दीवाने हो रहे हैं।
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका के 122 मेडिकल स्कूलों में से 92 में वैकल्पिक चिकित्सा के नियमित पाठ्यक्रम में योग और ध्यान भी शामिल हैं। एक तरह से भारतीय आध्यात्मिकता, श्रुति-परम्परा में आधारित भारतीय सांस्कृतिक विरासत -'पतंजलि योग विद्या' (मनःसंयोग के प्रशिक्षण पद्धति) को अब विश्व के 177 देशों द्वारा अपनाया जा रहा है।
अब यदि भारत को उस आध्यात्मिकता को देने के लिए एक विश्व-शिक्षक/ LEADER की भूमिका निभानी है, तो एक ही कमी हमारे आड़े आती है और वह है, हमारा 'विकासशील राष्ट्र' (developing nation) होने का दर्जा। जब तक हमारा देश भारतवर्ष एक विकसित राष्ट्र नहीं बन जाता, हम उनके शिक्षक / या मार्गदर्शक नेता कैसे बन सकते हैं? इसीलिए राष्ट्र निर्माण (nation building) की नितांत आवश्यकता है।
पुरुषार्थ प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक विचारधारा की अपनी व्यवस्था है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में सर्वथा अप्राप्य है । पाश्चात्य संस्कृति जहाँ भौतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है वहाँ भारतीय संस्कृति में भौतिकता को महत्वपूर्ण मानते हुये भी आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गयी है।
पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ? दूसरे शब्दों में मनुष्य के जीवन का उद्देश्य (The Object of Human Pursuit) क्या होना चाहिए ?
पुरुषार्थ से तात्पर्य मनुष्य-जीवन का अंतिम लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरूषार्थ जीवन-शक्ति (विवेक-प्रयोग शक्ति) का वह सार्थक उपयोग है जो कि व्यक्ति को सांसारिक सुख -भोग के बीच अपने धर्म पालन के माध्यम से मोक्ष की राह दिखलाता है। पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है । भारतीय आध्यात्मिक परम्परा भौतिक सुखों को क्षणिक मानते हुये भी उन्हें पूर्णतया त्याज्य नहीं समझती, बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती है । मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है । भौतिक सुखों को (5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी को भी) आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है, बाधक नहीं । दोनों घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । दोनों का समन्वित स्वरूप पुरुषार्थों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है । मनुष्य जीवन के लक्ष्य को वेदों में पुरुषार्थ चतुष्टय कहा गया है।
भारतीय संस्कृति और दर्शन में मानव के लिए चार पुरूषार्थ निर्धारित किये गये हैं – धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष। यही चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें प्रत्येक मनुष्य को इसी जीवन में प्राप्त कर लेने की आकांक्षा करनी चाहिये। इनमें अर्थ तथा काम भौतिक सुखों के प्रतिनिधि हैं जबकि धर्म तथा मोक्ष आध्यात्मिक सुखों का प्रतिनिधित्व करते हैं । ‘मोक्ष’ मानव जीवन का चरम लक्ष्य -(Last Luxury) है जिसकी प्राप्ति में शेष पुरुषार्थ सहायक हैं ।
पुरुषार्थों में धर्म (Righteousness-औचित्य-बोध, विवेक) का सर्वप्रथम स्थान है जिसे हिन्दू जीवन-दर्शन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है । धर्म के मूल स्वरुप को समझ लिया जाए तो कोई ढोंगी बाबाओं का अंधभक्त नहीं बनेगा। इतना ही नहीं, धर्म परायण बनकर भारत सम्पूर्ण विश्व को पुनः आलोकित कर सकता है। मन्दिरों में आरती के पश्चात उद्घोष होता है – 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो!' यहाँ धर्म का अर्थ क्या है? किसी एक रेलीजन की जय हो? नहीं, सत्य की जय हो। सदाचार की जय हो, आदर्श सिद्धांतों (चार महावाक्यों) की जय हो। पापों का, बुराइयों का नाश हो।
धर्म से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थों में जो विचार व्यक्त किये गये हैं, उन्हें देखने से स्पष्ट है कि यह एक व्यापक शब्द था जिसमें भारतीय मनीषा ने सदाचार, सामाजिक कर्तव्य, व्यक्तिगत गुणों आदि सभी का समावेश कर लिया था । अंग्रेजी का “रेलीजन” शब्द इसका पर्याय नहीं हो सकता । धर्म व्यक्ति को नियन्त्रित करता है तथा समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना सर्वाड्गीण विकास करता, समाज के सदस्य के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करता तथा अन्ततोगत्वा जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करता था । धर्म आद्योपान्त मनुष्य के साथ रहने वाला तत्व है । धर्म को कहीं-कहीं कर्तव्यों का संग्रह भी माना गया है ।
वर्णाश्रम आदि धर्म के कर्तव्यों का सर्वप्रथम वर्णन ऐतेरेय ब्राह्मण में मिलता है। प्राचीन काल में ही भारतीय मनीषियों ने धर्म को वैदिक ढंग से - अर्थात वैज्ञानिक ढंग से समझने का प्रयत्न किया था। ‘धर्म’ शब्द मूलतः ‘धृ’ धातु से निष्पन्न होता है जिसका शाब्दिक अर्थ है धारण करना अथवा अस्तित्व बनाये रखना । यह वह तत्व है जो मनुष्य तथा समाज के अस्तित्व को कायम रखता है ।
यह सामाजिक व्यवस्था का नियामक है । प्राचीन शास्त्रों में इसकी विशद व्याख्या मिलती है । हमारे सनातन धर्म या वैदिक धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ में , जैसे -रामायण, गीता , महाभारत, उपनिषद आदि में हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं लिखा है। क्योंकि हमारे यहाँ धर्म का अर्थ अन्य सम्प्रदायों की तरह, हिन्दू,मुस्लिम ईसाई आदि नाम वाला 'Religion' नहीं है। भारतवासियों के लिए धर्म का अर्थ है, वेदान्त अर्थात जानने का अन्त। महाभारत में कहा गया है कि- ‘धर्म सभी प्राणियों की रक्षा करता है, सभी को सुरक्षित रखता है । यह सृष्टि का अस्तित्व बनाये रखता है ।’ आगे बताया गया है कि धर्म की व्यवस्था सभी प्राणियों के कल्याण के लिये की गयी है, जिससे सभी प्राणियों का हित होता है वही धर्म है ।
वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि-" यतो अभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।" (कणाद, वैशेषिकसूत्र, १.१.२) - अर्थात धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अभ्युदय या अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (निःश्रेयस, चतुर्थं- तुरीयं मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था, या विद्या ) दोनों की प्राप्ति होती है। ‘जिससे लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण की सिद्धि होती है वह धर्म है ।’ धर्म की इससे अधिक उदार परिभाषा और क्या हो सकती है? धर्म की इस परिभाषा के अनुसार मनुष्य जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण ऐहिक और पारलौकिकअर्थात भौतिक और आध्यात्मिक (प्रवृत्ति और निवृत्ति) दोनों पक्षों से धर्म को जोड़ा गया है।
प्राचीन शास्त्रकारों ने वेद, स्मृति आदि धर्म-ग्रन्थों में जो कर्त्तव्य विहित हैं, उनके निष्ठापूर्वक पालन करने को ही धर्म बताया है । वस्तुतः धर्म से तात्पर्य आचरण की उस संहिता से है जिसके माध्यम से मनुष्य नियमित होता हुआ विकास करता है और अन्ततोगत्वा परम पद ‘मोक्ष’ की प्राप्ति कर लेता है ।
दूसरा पुरुषार्थ है अर्थ :~ इस शब्द का अर्थ संकुचित रूप में धन अथवा सम्पत्ति लगाया जाता है किन्तु प्राचीन भारतीयों की दृष्टि से यह एक व्यापक शब्द था। अर्थ के माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य को प्राप्त करता है । यह सुख-सुविधा का साधन है ।
प्राचीन शास्त्रों में अर्थ की महत्ता को स्वीकार किया गया है । महाभारत में इसे ‘परमधर्म’ कहा गया है जिस पर सभी वस्तुएँ निर्भर करती हैं । जिनके पास अर्थ नहीं है वे मृतक तुल्य हैं जबकि धनी व्यक्ति संसार में सुखपूर्वक निवास करते हैं । अर्थ के अभाव में जीवनयापन असम्भव है ।
बृहस्पति ने अर्थ को जगत का मूल स्वीकार किया है (धनं मूलं जगत्) । अर्थशास्त्र में इसे प्रधान तत्व निरूपित किया गया है । नीतिशतक में कहा गया है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है, पंडित है, वेंदों का ज्ञाता है, गुणवान् हैं, वक्ता है तथा दर्शनीय है । सभी गुण धन में ही होते हैं ।
किन्तु अर्ध की महत्ता स्वीकार करते हुए भी हिन्दू शास्त्रकारों ने उसे धर्म के अधीन बताया है तथा धर्मपूर्वक अर्थ की प्राप्ति पर बल दिया है । जो अर्थ, धर्म की हानि करता है वह अभीष्ट नहीं है । मनुस्मृति में स्पष्टतः कहा गया है कि धर्माविरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर देना चाहिए । आपस्तम्ब ने भी कहा है कि मनुष्य को धर्मानुकूल सभी सुखों का उपभोग करना चाहिए । इस प्रकार भारतीय जीवन-दर्शन में अर्थ और काम वहीं तक अभीष्ट है जहाँ तक वह धर्मसंगत हो ।
तीसरा पुरुषार्थ काम : ~ मानव-जीवन का तृतीय पुरुषार्थ काम है, जिसका शाब्दिक अर्थ इन्द्रिय सुख अथवा वासना से है । किन्तु व्यापक अर्थ में इस शब्द से तात्पर्य मनुष्य की सहज इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों से है। इस के अन्तर्गत स्वादिष्ट खाना-पीना, संगीत, नाटक, नृत्य जैसी कलायें, वस्त्र, आभूषण, बनाव-सिंगार और रहन-सहन के साधन, तथा संतानोत्पति, खेल कूद और मनोरजंन के सभी साधन आते हैं। इन साधनों के अभाव से मानव का जीवन नीरस हो जाता है और वह सदैव अतृप्त रहता है। और उस अतृप्त काम व्यक्ति के लिए पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन और अस्वाभाविक है। जो लोग काम इच्छाओं का दमन कर के किसी अन्य कारण से संन्यास ग्रहन कर लेते हैं, अकसर वही लोग जीवन भर अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये ललायत भी रहते हैं। इस प्रकार के लोग अवसर मिलने पर पथ भृष्ट हो जाते हैं और दुष्कर्म कर के अपना सम्मान भी गँवा बैठते हैं।
काम इच्छाओं का दमन नहीं अपितु शमन कर के ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। काम तृप्ति के बिना प्रत्येक प्राणी का जीवन अधूरा रहता है। कुछ थोड़े से लोग- (स्वामी जी या नवनीदा जैसे लोग) ही ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधा संन्यास आश्रम में जाने की पात्रता रखते हैं, परन्तु उन की संख्या लाखों में एक के बराबर ही होती है। इसी सच्चाई को मान्यता देते हुये भारतीय संस्कृति में काम दमन के बजाये काम शमन को प्राथमिक्ता दी है और जीवन में गृहस्थ आश्रम - के वैवाहिक सम्बन्धों को सर्वोच्च माना है। काम शमन के साथ धर्म तथा अर्थ, तीनो का पालन करना अनिवार्य है अन्याथ्वा सभी कुछ अधर्म होगा। किसी कारण वश यदि धर्म, अर्थ तथा काम का समावेश सम्भव ना हो तो क्रमशः सर्वप्रथम काम का त्याग करना चाहिये, फिर अर्थ का त्याग करना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी स्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये।
संसार की प्रथम एवं प्रमुख प्रवृत्ति-काम है । इसी के वशीभूत ही मनुष्य सन्तानोत्पत्ति करता है, गृहस्थ जीवन के विविध आनन्दों को भोगता है तथा एक दूसरे के प्रति आकर्षण रखता है । हिन्दू शास्त्रकारों ने मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुए उस पर धर्म का अंकुश लगाया तथा यह प्रतिपादित किया कि धर्मसंगत काम का आचरण ही व्यक्ति एवं समाज की उन्नति कर सकता है ।
जबकि धर्मविरुद्ध या शास्त्रविरुद्ध निषिद्ध काम, मनुष्य के अध:पतन का मार्ग प्रशस्त करता है । काम के निरंकुश आचरण से व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है । काम की तृप्ति न होने पर क्रोध तथा क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश तथा बुद्धिनाश से मनुष्य का पूर्ण विनाश हो जाता है ।
इसी कारण भगवान श्री कृष्ण अपने को सभी प्राणियों में धर्मयुक्त काम बताते हैं- " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - अर्थात हे भरत-श्रेष्ठ प्राणियों में जो धर्म से अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे - देहधारणमात्र के लिये खानेपीने थोड़ा सुख भोगने की जो इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ। । मत्स्यपुराण में कहा गया है कि- ‘धर्मरहित काम बन्ध्या पुत्र के समान है (धर्महीनस्य कामार्थो बन्ध्यासुत समौ ध्रुवम्) । महाभारत की मान्यता है कि जो व्यक्ति धर्माविहीन काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है तथा कठिनाइयों में शत्रु द्वारा हँसी का पात्र बनाया जाता है ।’मत्स्यपुराण में कहा गया है कि- 'धर्मरहित काम बन्ध्या पुत्र के समान है (धर्महीनस्य कामार्थो बन्ध्यासुत समौ ध्रुवम्)
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिंदू शास्त्रकारों ने धर्म संवलित काम का आचरण किये जाने पर ही बल दिया है । इसी से व्यक्ति का सम्यक विकास सम्भव है । काम का उच्छृंखल आचरण व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिये हानिकारक है।
चौथा पुरुषार्थ है मोक्ष : भारतीय संस्कृति में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी मनुष्यों का परम लक्ष्य है । उपनिषदों में मोक्ष सम्बन्धी विचारधारा का सम्यक् विश्लेषण मिलता है । उपनिषद् व्यक्ति के सारभूत तत्व आत्मा तथा जगत के सारभूत तत्व ब्रह्म का तादात्म्य स्थापित करते हैं। यही मोक्ष की अवस्था है । इसके लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति में विवेकज -ज्ञान से उत्पन्न वैराग्य - इन्द्रिय तथा मन का संयम, सांसारिक भोगों से विरक्ति हो, तथा द्रष्टा-दृश्य विवेक केअनुसार संसार की अनित्यता का ज्ञान तथा मुमुक्षत्व की तड़प या मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा हो । तत्पश्चात् उसे किसी योग्य गुरु से वेदान्त का उपदेश ग्रहण करना चाहिए । गुरु शिष्य को ( विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व परम्परा- Be and Make ' में नेता भावी नेता को) ‘तुम ही वह ब्रह्म हो’ (तत् त्वम् असि) का बोध कराता है । गुरु की इस उक्ति का मनन करते हुए तथा दृढ़तापूर्वक उसका आचरण करते हुए व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तथा इस अवस्था में उसे ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ की अनुभूति होती है । यही पूर्ण ज्ञान है तथा इसी को मोक्ष कहा गया है । [मोक्ष का दो अर्थ है- जब तक प्रारब्ध भोगने के लिए जीवन-धारण है, भ्रममुक्त (जीवनमुक्त या de-hypnotized ) अवस्था में ठाकुर का सेवक बनना और बनाना, दूसरा है अंतिम साँस लेते वक्त (यदि माँ की इच्छा हो तो) पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना ।] मोक्ष प्राप्ति के बाद जीवन के दु:खों का नाश हो जाता है तथा मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति करता है । चार्वाक् के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधारायें इसे स्वीकार करती हैं । जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी अविद्या के विनाश को ही मोक्ष का उपाय माना गया है ।
गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देती है तथा मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा (माँ काली के अवतार परम्परा में जन्मे भगवान श्री रामकृष्ण की कृपा) को आवश्यक बताती है । श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ । मैं तुम्हें अभी पापों से मुक्त करूँगा ।
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ब्रह्मचर्य आश्रम में ही विद्यार्थी को इसका बोध हो जाता था तथा जीवन-पर्यन्त वह अपनी समस्त क्रियाओं को उसी ओर नियोजित करता था । जीवन के अन्तिम भाग में (75 -100 वर्ष में) संन्यास आश्रम में आने पर इस लक्ष्य की पूर्ण प्राप्ति होती थी ।
निस्संदेह यह शुभावस्था बहुत कम लोगों को ही प्राप्त होती है। अधिकतर व्यक्ति पहले तीन लक्ष्यों के पीछे भागते भागते असंतुष्ट जीवन बिता देते हैं। अज्ञानी, अधर्मी, निष्क्रय, असंतुष्ट, ईर्शालु, क्रूर, रोगी, भोगी, दारिद्र तथा अप्राकृतिक जीवन जीने वाले (शास्त्र विरुद्ध या निषिद्ध कर्मों से विरत न हुए) व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती।
प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - पुरुषार्थ और आश्रम। मोक्ष परम पुरुषार्थ, अर्थात् जीवन का अंतिम लक्ष्य था, किंतु वह अकस्मात् अथवा कल्पनामात्र से नहीं प्राप्त हो सकता है। उसके लिए साधना द्वारा क्रमश: जीवन का विकास और परिपक्वता आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय समाजशास्त्रियों ने आश्रम संस्था की व्यवस्था की। आश्रम वास्तव में जीव का शिक्षणालय अथवा विद्यालय है।
व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। आश्रम' शब्द की परिभाषा - जिसमें स्म्यक् प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा आश्रम जीवन की वह स्थिति है जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। 'आश्रमात् आश्रमं गच्छेत्' अर्थात् एक आश्रम से दूसरे आश्रम को जाना चाहिए, इस सिद्धांत को मनु ने दृढ़ कर दिया। ये चार आश्रम थे-(१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।' मनु ने मानव आयु सामान्यत: एक सौ वर्ष की मानकर उसको चार बराबर भागों में बांटा है। प्रथम तीन आश्रमों ओर उनके कर्त्तव्यों के पालन के पश्चात् ही मनु संन्यास की व्यवस्था करते हैं: एक आश्रम से दूसरे आश्रम में जाकर, जितेंद्रिय हो, भिक्षा (ब्रह्मचर्य), बलिवैश्वदेव (गार्हस्थ्य तथा वानप्रस्थ) आदि से विश्राम पाकर जो संन्यास ग्रहण करता है वह मृत्यु के उपरांत मोक्ष प्राप्त कर अपनी (पारमार्थिक) परम उन्नति करता है (मनु.६,३४)।
प्रथम चतुर्थांश ब्रह्मचर्य है। इस आश्रम में गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना कर्तव्य है। ब्रह्मचर्य उपनयन संस्कार के साथ प्रारंभ और समावर्तन के साथ समाप्त होता है। इसके पश्चात् विवाह करके मुनष्य दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में प्रवेश करता है। गार्हस्थ्य समाज का आधार स्तंभ है।आयु का दूसरा चतुर्थाश गार्हस्थ्य में बिताकर मनुष्य जब देखता है कि उसके सिर के बाल सफेद हो रहे हैं और उसके शरीर पर झुर्रियाँ पड़ रही हैं तब वह जीवन के तीसरे आश्रम-वानप्रस्थ-में प्रवेश करता है। (मनु. ५, १६९)। निवृत्ति मार्ग का यह प्रथम चरण है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का एकांत पालन होता है। ब्रह्मचारी पुष्टशरीर, बलिष्ठबुद्धि, शांतमन, शील, श्रद्धा और विनय के साथ युगों से उपार्जित ज्ञान, शास्त्र, विद्या तथा अनुभव को प्राप्त करता है। सुविनीत और पवित्रात्मा ही मोक्षमार्ग का पथिक् हो सकता है। गार्हस्थ्य में धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन तथा काम का सेवन होता है। संसार में अर्थ तथा काम के अर्जन और उपभोग के अनुभव के पश्चात् ही त्याग और संन्यास की भूमिका प्रस्तुत होती है। संयमपूर्वक ग्रहण के बिना त्याग का प्रश्न उठता ही नहीं। वानप्रस्थ तैयार होती है। संन्यास के सभी बंधनों का त्याग कर पूर्णत: मोक्षधर्म का पालन होता है।
मोक्ष की प्राप्ति ( या 100 % निःस्वार्थपर/ कामना रहित/ होजाना) सभी के लिये सम्भव नहीं है । अत: कालान्तर में तीन पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ तथा काम के पालन पर ही बल दिया गया । इन्हें ‘त्रिवर्ग’ कहा गया है जिनकी प्राप्ति सभी गृहस्थी के लिये सरल है । हिन्दू शास्त्रविदों का यह मत है कि तीनों पुरुषार्थों में कोई विरोध नहीं है तथा इनका पालन एक साथ हो सकता है । मानव-जीवन का पूर्ण विकास तभी सम्भव है जबकि सभी पुरुषार्थों का सम्यक् रूप से पालन किया जाये । अर्थ तथा काम के बीच तुलनात्मक श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि त्रिवर्ग समुदाय में 'पर' से 'पूर्व' श्रेष्ठ होता है। इस तरह 'काम' से श्रेष्ठ होता है -अर्थ, तथा अर्थ से भी श्रेष्ठ होता है धर्म। लेकिन अपनी रूचि और प्रवृत्ति के अनुसार कुछ लोग अर्थ तथा काम को धर्म से श्रेष्ठ समझते हैं।
यह जो 'धर्म,अर्थ और काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -"मोक्ष " के साथ नहीं हो सकती। इसलिये इन तीनों में -किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये या, या विवेक-विचार किये बिना किसी एक ही पुरुषार्थ के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये। जीवन में अर्थ तथा काम संतुष्टि के पीछे अति करना हानिकारक है तथा अधर्म के मार्ग से इन लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी पाप और दण्डनीय अपराध है। अन्ततः मोक्ष के स्थान पर दुख, निराशा तथा अपयश ही प्राप्त होते हैं।जो व्यक्ति किसी एक पुरुषार्थ में ही आसक्त हो जाता है या अटक जाता है, उसको 'जघन्य ' कहा गया है, उस व्यक्ति को घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं किन्तु पारलौकिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष ही एकमात्र अभीष्ट रह जाता है तथा अन्य पुरुषार्थ इसकी प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं ।
मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर (अन्नमय कोष) की यह सहज प्रवृत्ति है, किन्तु जैसा अन्न होता है वैसा ही मन बनता है। इसलिए इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि निवृत्ति ही सबसे बड़ा फल है ! मनुस्मृति का यह श्लोक सार्वकालीन है।
इसको पढ़ने पर " धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ " - अर्थात हे भरत-श्रेष्ठ प्राणियों में जो धर्म से अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे - देहधारणमात्र के लिये खानेपीने थोड़ा सुख भोगने की जो इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ। गीताचार्य का यह वचन स्मृतिपटल पर आता है।यहाँ निवृत्ति अस्तु महाफला (मोक्ष) का क्या अर्थ हुआ ? इसके सम्बन्ध में स्वामी जी कहते थे -" अद्वैत सिद्धान्त की उपमा दी जाये तो समस्त जगत अपनी माया से आप ही सम्मोहित हो रहा है। इच्छाशक्ति ही जगत की अमोघ शक्ति है, जो हिप्नोताईजेड मनुष्यों को भी डी-हिप्नोटाइज्ड कर सकती है ! इसीलिए प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी प्रभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित (भ्रममुक्त) हो जाते है। ऐसे महापुरुष या संगठन अवश्य ही आविर्भूत हुआ करते हैं। और इसके पीछे भावना क्या है ? जब कोई वैसा महापुरुष या संगठन आविर्भूत होता है, तब उसके विचार हमलोगों के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं, और हममें से कितने ही व्यक्ति उनके विचारों को अपना लेते हैं, और शक्तिशाली (भ्रममुक्त) बन जाते हैं। "
[जैसे पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता या भारत का चार्वाक दर्शन केवल दो ही पुरुषार्थ को मान्यता देता है- अर्थ और काम। वह धर्म और मोक्ष को नहीं मानता। महर्षि वात्स्यायन भी मनु के पुरुषार्थ-चतुष्टय के समर्थक हैं, किन्तु (वे सामान्य मनुष्यों को प्रवृत्ति होकर निवृत्ति में लाना चाहते थे इसीलिए) वे मोक्ष तथा परलोक की अपेक्षा धर्म, अर्थ, काम पर आधारित सांसारिक जीवन को सर्वोपरि मानते हैं। योगवासिष्ठ के अनुसार ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु और शास्त्र के उपदेश अनुसार चित्त का ब्रह्म (परमसत्य) में विचरण ही पुरुषार्थ कहलाता है। ]
भारतीय संस्कृति ने जीवन के जो लक्ष्य अपनाये हैं वही लक्ष्य विश्व भर में अन्य मानव समाज भी अपनाते रहे हैं। जहाँ भी इन लक्ष्यों की अवहेलना हुई है वहाँ पर सभ्यताओं का विध्वंस भी हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि सनातन धर्म के सभी देवी देवता सदैव धर्मपरायण, साधन सम्पन्न तथा वैवाहिक परिवार में दर्शाये जाते हैं। सभी ऋषि भी अपने अपने परिवारों के साथ वनों में सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति प्रकृतिक, सकारात्मक, कर्तव्यनिष्ट तथा सुख सम्पन्न जीवन व्यतीत करने को प्रोतसाहित करता रहा है जो विश्व कल्याण के प्रति कृतसंकल्प है। जीवन के यही लक्ष्य सभी धर्मों और जातियों के लिये ऐक समान हैं ।
चरित्र हमारे जीवन का अनमोल रतन है। यही हमें सफलता की ऊंचाइयों या पतन की गहराइयों में धकेलता है। अगर हमारा चरित्र सुंदर श्रेष्ठ होता है, तो सफलता हमारे कदम चूमती है यदि यह निकृष्ट या भ्रष्ट होता है तो (वित्तमंत्री चिदम्बरम या मुख्यमंत्री लालू जैसा) हमारे कदम तिहाड़ जेल की तरफ चले जाते हैं ,और हम अपने जीवन की बाजी हार जाते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा कि जीवन रूपी कहानी में विचारणीय बात यह नहीं कि वह कितनी लंबी है, बल्कि यह है कि कितनी अच्छी है। इसलिए जाग्रत होने की आवश्यकता है। स्वयं जागकर दूसरों की जगाने वाले महामण्डल आंदोलन से जुड़ जाने की आवश्यकता है। क्योंकि अपने भीतर सोये हुए ब्रह्मरूपी सिंह को जगा लेने में समर्थ मनुष्य ही 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न मनुष्य बन सकता है।
इसीलिए चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना किसी महान सभ्यता का प्रधान अंग है। किसी भी राष्ट्र की सच्ची उन्नति तभी होगी जब उस देश का हर एक आदमी अपने को चरित्र संपन्न और भलमनसाहत की कसौटी में कसे हुए मनुष्य के रूप में प्रगट कर सकते हों।
..... प्राचीनकाल के किसी गुरुकुल में भी इसी प्रकार की बहस चल रही थी। ...और तभी एक वैदिक युवा ऋषि प्रचंड स्वर में जयघोष करते हैं- " शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥ वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ॥३।८॥'हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !!... तुम भी सुनो! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥ हमें अमृत का पुत्र बताने वाली ये आवाज हमें किसी काली गुफा में नहीं ले जा रही है। धर्म और अध्यात्म का सही स्वरूप तो हमें प्रकाश की ऒर ले जाता है।
" नैतिक धारणाओं की उन्नति के साथ साथ ( या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की भावना के साथ साथ) मनुष्य के मन में एक संग्राम उत्पन्न हो जाता है, मानो उसके भीतर एक नयी इन्द्रिय (छठी इन्द्रिय विवेक-प्रयोग शक्ति) का आविर्भाव हो जाता है। कोई कहता है यह ईश्वर की वाणी है, कोई कहता है यह जन्मजन्मांतर से प्राप्त शिक्षा का फल है। जो भी हो, यह विवेक-शक्ति मनुष्य के स्वाभाविक संवेगों को नियंत्रित करने वाली शक्ति के रूप में कार्य करती है। हमारे मन का एक संवेग कहता है, 'करो' ; इसके पीछे एक दूसरा स्वर उठता है जो कहता है, 'मत करो !' हमारे चित्त में पूर्व जन्मों के संचित धारणाओं का एक समूह है, जो सर्वदा पंचेन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करता है, और उनके पीछे , चाहे कितना भी क्षीण क्यों न हो, एक स्वर कहता रहता है-'रे मन ! इन्द्रिय-विषयों के पीछे बाहर मत जाना।' (अर्थात एक अंतर्निहित शक्ति मन को आदेश देने के लिए उठ खड़ी होती है - मन तू बहिर्मुखी न होना !) इन दो बातों को संस्कृत में प्रवृत्ति और निवृत्ति कहा जाता है। प्रवृत्ति ही हमारे समस्त कर्मों का मूल है। और निवृत्ति से धर्म का आरम्भ है। धर्म आरम्भ होता है इसी 'मत करना' से; आध्यात्मिकता भी इसी 'मत करना ' से आरम्भ होती है। जिस मनुष्य में 'यह मत करना' (निषिद्ध कर्म मत करना) यह 'विवेक-प्रयोग' शक्ति विकसित नहीं हुई है, जान लेना कि उसमें अभी धर्मबोध या आध्यात्मिकता का आरम्भ ही नहीं हुआ। "२/६३
वास्तव में यह संसार एक बहुत बड़ी पाठशाला है । इसमें अगणित जीव शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते हैं, और यथाधिकार -- 'प्रवृत्ति मार्ग या निवृत्ति मार्ग' में निर्दिष्ट काल तक शिक्षा - लाभ कर चले जाते हैं, और फिर कुछ विश्राम के पश्चात् पुन: नये वेशभूषा के साथ इसमें आकर प्रवेश करते हैं । मनुष्य के जीवन का एक जन्म उसके लिये इस पाठशाला का एक अध्ययन दिवस है । जब तक कोई यहां की पूरी पढ़ाई समाप्त न कर ले तब तक उससे मुक्ति (भ्रममुक्त अवस्था-मन की डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) दूर ही रहती है - उसे बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ना ही पड़ता है।
डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था - "आप केवल ईंट-सीमेंट -बालू से मजबूत राष्ट्र का निर्माण या निर्माण नहीं कर सकते, आपको युवाओं के मन को प्रशिक्षित करना होगा। तब कहीं राष्ट्र का निर्माण हो सकता है।" स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था - " राष्ट्र निर्माण अथवा राष्ट्र के पुनर्निर्माण से पहले इसके नागरिकों का चरित्र निर्माण होना चाहिए। राष्ट्र के वर्तमान परिदृश्य को हम संसदीय कानूनों के द्वारा नहीं बदल सकते। संसद में हम नए -नए कानून तो बना सकते हैं, लेकिन मात्र उतने से ही राष्ट्र को पूर्णतः विकसित राष्ट्र में नहीं बदला जा सकता। यदि देश का शीर्ष नेतृत्व (Top Leadership of country) भ्रष्ट लोगों के हाथों में होगा तो, जिस दिन कोई नया कानून पारित होगा, उसी दिन उस कानून की अवज्ञा करने (defy करने) के क़ानूनी और गैर-क़ानूनी तरीके भी सामने आ जायेंगे ! इसलिए भारत को विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र में तब तक परिवर्तित नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसके आम नागरिकों का चरित्र-निर्माण नहीं होता , और देश का शीर्ष नेतृत्व पर बैठे लोगों में कैंसर की तरह व्याप्त भ्रष्टाचार को पूरी तरह से समाप्त नहीं कर लिया जाता।
[How can this be done ? Dr Radhakrishnan said beautifully - " You cannot make or build the nation by just bricks, you will have to train the mind of the young people. Then alone can the nation-building take place ."Swami Vivekananda also said that nation-building and national reconstruction must be preceded by character-building of the citizens .We cannot change the scenario of the nation by parliamentary laws. We may have new acts in the parliament but by those alone our nation will not develop fully. The day the new act passes , ways to defy them legally as well as illegally will be found out.So, national reconstruction cannot be done unless character-building of citizens take place and corruption goes away.]
एक शरारती लड़का था, और एक बार काम करने के दौरान उसके पिता ने उसे व्यस्त रखने के लिए, भारत के नक्शे को कई टुकड़ों में फाड़ दिया; और उन्हें अपने बेटे को देते हुए उससे भारत के मानचित्र के टुकड़ों को फिर से जोड़ने के लिए कहा। पिता ने सोचा कि भूगोल का सीमित ज्ञान रखने वाले लड़के को ऐसा करने में पूरा दिन लग जाएगा और इस तरह वह उसके काम में कोई बाधा नहीं दे सकेगा। लेकिन वह पिता तब आश्चर्यचकित रह गया जब उस लड़के ने कुछ मिनटों के बाद ही नक्शे के टुकड़ों को पूर्णतया यथास्थान चिपका कर उसके सामने रख दिया। जब पिता ने लड़के से पूछा कि इतनी जल्दी यह कार्य उसने कैसे किया ? तब लड़के ने पिता को बताया कि जब वह भारत के नक्शे को एक साथ जोड़ने की चेष्टा कर रहा था, उस समय अचानक उसे नक्शे के पीछे छपे एक मनुष्य का चित्र दिख गया। फिर क्या था ? वह ख़ुशी ख़ुशी उस मनुष्य के चित्र को पूर्ण करने के लिए सभी टुकड़ों को एक साथ मिलाकर जोड़ने लगा । और जैसे ही उस मनुष्य का चित्र सम्पूर्ण (perfect-दोषहीन) हो गया , उसके साथ ही साथ युगपत ढंग से (simultaneously -एक ही समय में) भारत का नक्शा भी परिपूर्ण हो गया ।[as soon as the picture of the man becomes perfect , the map of India too simultaneously got perfected formed]
और ठीक यही बात स्वामी विवेकानन्द भी कहते थे कि 'make the man perfect first ' सर्वप्रथम मनुष्य को पूर्ण (perfect) बनाना होगा, राष्ट्र तो स्वतः ही परिपूर्ण हो जायेगा। क्योंकि देश इसकी सीमा रेखाओं से नहीं बनता , देश इसमें रहने वाले मनुष्यों से बनता है। जब सभी मनुष्य महान (पूर्ण विकसित) बन जायेंगे राष्ट्र भी महान या पूर्ण विकसित हो जायेगा।अतः, राष्ट्र-निर्माण से पहले यहाँ के नागरिकों का चरित्र-निर्माण होना चाहिए। अन्यथा (दूसरी बातों पर ध्यान देने से) देश को एकजुट नहीं रखा जा सकता और राष्ट्रीय एकता भी स्थापित नहीं हो सकती। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते थे -हमें चाहिए वह है 'मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति का प्रचार -प्रसार' करने में समर्थ आदर्श शिक्षकों / या मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण। किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कई शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति या लीडरशिप ट्रेनिंग प्रणाली का निर्धारण करने के लिए गठित कई आयोगों, जैसे -कोठारी आयोग, डॉ. राधाकृष्णन आयोग, प्रकाश समिति आदि ने श्रुति परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों / मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण द्वारा ' चारित्रिक मूल्यों के आत्मसातीकरण' को महत्व देने की जो सिफारिश अपने रिपोर्टों में की थी, उनका अनुपालन नहीं हुआ और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। प्रो. कोठारी ने समाज की रचना में शिक्षा को सर्वोच्च स्थान दिया है। वे इसे राष्ट्रनिर्माण की कुंजी बतलाते हैं जिसमें वे विज्ञान-तकनीकी शिक्षा के साथ चरित्र निर्माण को प्रमुखता देते हैं। वे शिक्षा का लक्ष्य भारत को विकसित राष्ट्र के रूप में विकसित करने के लिए भी, चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा पर बल देते हैं। दुर्भाग्य से भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने शिक्षा क्षेत्र में वैज्ञानिकता तथा तकनीकी पर तो बहुत बल दिया परन्तु जीवन में धर्म तथा आध्यात्मिकता की पूर्ण उपेक्षा की। वस्तुत: मानव जीवन के विकास के लिए दोनों चाहिए। अत: शिक्षा की प्रगति के लिए पं. नेहरू नहीं, महात्मा गांधी चाहिए, प्रो. कोठारी चाहिए। आध्यात्मिक ज्ञान के बिना कोरा वैज्ञानिक ज्ञान अधूरा है। नैतिकता के अभाव में बौद्धिक विकास का केवल भौतिक महत्व होगा। चारित्रिक ह्रास, आर्थिक विकास में कदापि क्षतिपूर्ति न कर सकेगा। विदेशी विश्वविद्यालयों का मोह तथा शिक्षा का व्यावसायीकरण देश के लिए घातक तथा विनाशकारी होगा।
कुछ लोग तो अब मजाक में यह भी कहते हैं कि ऐसा लगता है कि हमारी शिक्षा प्रणाली अब मनुष्य-निर्माणकारी नहीं है, बल्कि दानव-निर्माणकारी बन चुकी है। राजा कवि (राजर्षि) भर्तृहरि अपनी प्रसिद्द पुस्तक नीतिशतकम् में कहते हैं कि समाज में चार प्रकार के मनुष्य पाये जाते हैं-
दूसरी श्रेणी में ‘सामान्य जन’ या साधारण पुरुष आते हैं, जो अपने को शरीर मानकर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पांच ज्ञानेंद्रियों के सुख को ही अंतिम लक्ष्य मानकर बार-बार जन्म लेते रहते हैं। किन्तु इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि अपनी स्वार्थसिद्धि से दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है । अर्थात् वे स्वार्थ तथा परार्थ क बीच तालमेल बिठाकर चलते हैं । अधिसंख्य जन इसी प्रकार के होते हैं ।
तीसरे प्रकार के मनुष्य ऐसे होते हैं, जो इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि उनकी स्वार्थपूर्ति कहीं अन्य लोगों के हित की कीमत पर तो नहीं हो रही है? अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का सर्वनाश करने से भी पीछे नहीं हटते। वे सोचते हैं, किसी के मरने से भी यदि हमको फायदा होता है, तो उसे अभी मर जाना चाहिए। यानी दूसरे का नुकसान हो भी रहा हो तो कोई बात नहीं अपना तो फायदा है । उदाहरण के लिए , कोई इंजीनियर बाँध या पुल का निर्माण अथवा गवर्नमेन्ट बिल्डिंग का निर्माण करते समय रिश्वत लेते हैं, और ठीकेदार को सीमेन्ट में उचित मात्रा से अधिक बालू मिलाने की अनुमति दे देते हैं। ऐसा करके वह इंजीनियर पैसे के मामले में अपने क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति तो कर लेता है, किन्तु जब वर्षा होती है, और बाँध में दरार आ जाती है, या पुल या विद्यालय भवन ढह जाते हैं, तब सैंकड़ों लोग मर जाते हैं , हजारों लोग बेघर हो जाते हैं। किन्तु वह इंजीनियर अपने बंगले में मजे लेता है। उसकी घोर स्वार्थपरता ने कई ज़िंदगी उजाड़ दी, और देश के खजाने को खाली कर दिया। उसी प्रकार कुछ डॉक्टर भी ऐसे होते हैं, जो रोगी की बीमारी को अच्छा करने में कोई रूचि नहीं रखते, उनकी रूचि केवल उसके धन को लूटने में होती है। अर्थात उनका ढाँचा तो मनुष्य का ही होता है, किन्तु उनके गुण राक्षसों के समान होते हैं। हाँलाकि ऐसे लोगों की संख्या कम ही रहती है पर वे समाज के हर स्थान में होते अवश्य हैं । कवि इनको ‘मानुषराक्षस’ की संज्ञा देता है।और आज के भौतिवादी युग में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । चौथे श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जिन्हें दूसरे को भटकाने और कष्ट देने में ही सुख मिलता है, भले ही उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो। वे भोले-भाले जिज्ञासु को उल्टा गलत रास्ता बता कर हंसते हैं, और आपस में बात करते हैं कि मैंने उसको क्या बेवकूफ बनाया, अभी वह फिर लौटकर मेरे पास आएगा और अच्छी धनराशि भी देगा। इसलिए अंत में कवि कहता है कि, मैं यह नहीं जानता कि उन लोगों को किस नाम से पुकारूँ जिनकी प्रवृत्ति परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है, भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो । दुर्भाग्य से यह धरा ऐसे लोगों से ( ढोंगी बाबाओं, हाफिज सईद जैसे जेहादिआतंक-वादियों, या ननों का शोषण करने वाले ढोंगी फादर लोगों से) मुक्त नहीं है । दूसरी श्रेणी के मनुष्य वास्तव में बहुत थोड़े है और प्रथम श्रेणी के मनुष्य तो दुर्लभ है। आचार्य शंकर कहते हैं -दुर्लभं त्रयमेवैतद् देवानुग्रहहेतुकम् । मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रयः॥ -‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों/नवनीदा जैसे नेता (C-IN-C) का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘ और यही कारण है कि स्वामी जी की मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा प्रणाली अथवा Be and Make Leadership Training आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
चरित्र का संकट ही राष्ट्र का संकट है
तब प्रबोध महाराज ने कहा था कि इसका एकमात्र उपाय है कि भारत के सभी युवा स्वामी विवेकानन्द के उस दिव्य सन्देश का क्रियान्वयन या निष्पादन (implementation or execution) करने में जुट जाएँ जिसमें उन्होंने कहा था --'उठो, जागो और स्वयं जग कर दूसरों को जगाओ ! तथा मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति - "Be and Make" को भारत के गाँव -गाँव के युवा छात्रों तक पहुँचा दो!' भारत के प्रबुद्ध युवा गाँव -गॉँव में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल से अनुमोदित 'विवेकानन्द युवा पाठचक्र' की स्थापना करें जिसके (Mahamandal Executive Committee) कार्यकारिणी समिति के कम से कम 11 सदस्य, भर्तृहरि द्वारा कथित प्रथम श्रेणी के वैसे दुर्लभ मनुष्य - "सत्पुरुषों" के निर्माण कार्य - ' Be and Make ' Leadership youth training camp' को आयोजित करें जो नरेन्द्रनाथ दत्त की तरह अपने परम् स्वार्थ- निविल्कप समाधि के महा -आनन्द को भी त्यागकर दूसरों के हित में जीवन को न्योछावर करने में समर्थ हों । फिर प्रबोध महाराज ने छात्रों को प्रेरित करने में गहरी दिलचस्पी दिखाने के लिए डॉ कलाम को बधाई दी और ABVYM द्वारा विगत 50 वर्षों से संचालित .' युवा प्रशिक्षण शिविर के विषय में बताया। वह यह सब जानकर वे वास्तव में बहुत खुश हुए और बोले - 'महाराज, आइये हमलोग मिलकर स्वामी जी के इस महान सन्देश को कार्यान्वित करने में जुट जाएँ! '
चरित्र का विकास कैसे करें?
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - "चरित्र और कुछ नहीं, बस बार-बार कृत्य कर्मों के माध्यम से गठित आदतों का एक समूह है।" [character is nothing but a bundle of habits formed through repeated acts .] एक ही काम को बार बार करने से वह हमारी आदत बन जाती है, और उस आदत के पुरानी होने से चित्त के ऊपर जब उसकी गहरी छाप/लकीर पड़ जाती है, तब वह हमारी सहज प्रवृत्ति (propensity) बन जाती है, और किसी विशेष परिस्थिति में एक विशेष प्रकार का आचरण करने को हम बाध्य हो जाते हैं। उसी आचरण को चरित्र कहते हैं। हमारा वर्तमान चरित्र हमारे पिछले जन्म के संस्कारों या चित्त पर अंकित पिछले कर्मों की लकीरों के माध्यम से आता है। ( it comes through past samskaras or past impressions) किसी व्यक्ति के संस्कार को विकसित करने या गहरा बनाने में 4 कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पहला, वे संस्कार जो व्यक्ति को पिछले जन्म से विरासत में प्राप्त हुए है। दूसरा,वे संस्कार या छाप जो किसी व्यक्ति को उसके माता-पिता के जिन के माध्यम से तथा उनके द्वारा प्रदत्त प्रशिक्षण के माध्यम से प्राप्त होते हैं। तीसरा, वैसे संस्कार जो किसी व्यक्ति को समाज से -अपने आसपास के परिवेश और वातावरण से प्राप्त होते हैं। चौथा और सबसे महत्वपूर्ण कारक है मानव जाति का मार्गदर्शक 'नेता'/ या जीवनमुक्त 'शिक्षक'; इसलिए कहा जाता है कि -The Leaders are the torchbearers of change.' ---नेता ही युगपरिवर्तन के मशाल वाहक होते हैं।' अपने देशवासियों के चरित्र-निर्माण से ही हम राष्ट्र को बदल सकते हैं। भारत को विकसित राष्ट्र (developed country) में बदलने का एक मात्र उपाय है, देश के नागरिकों का चरित्र-निर्माण। (The only way we can change the nation is by character-building of the citizens .) और इस चरित्र निर्माण के लिए हमें ठीक उसी प्रकार एक मजबूत नींव की आवश्यकता होगी, जिस प्रकार किसी मजबूत इमारत को बनाने के लिए एक मजबूत नींव की आवश्यकता होती है। अतः चरित्र निर्माण की नींव कम उम्र में ही रखी जानी चाहिए। किसी व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना तब आसान होता है जब वह एक छात्र होता /होती है। क्योंकि कम उम्र होने से बुरी आदतें परिपक्व होकर बुरे सहज-प्रवृत्ति में परिवर्तित नहीं हो पातीं। इस प्रकार के व्यक्ति के चरित्र को नेता या सत्पुरुष के रूप में गढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारक- नवनीदा के जैसा कोई " Be and Make Leadership Training Tradition" में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/या नेता (C-in-C) ही होता है।
डॉ ए.पी. जे अब्दुल कलाम अपनी पुस्तक - "India 2020 : A Vision of The New Millennium" में लिखते हैं - " यदि आप किसी भी क्षमता में एक शिक्षक/नेता हैं, तो आपकी भूमिका अत्यन्त विशिष्ट हो जाती है, क्योंकि किसी और की तुलना में आप भावी पीढ़ी को / would be leader के जीवन को अधिक सुन्दर रूप से गढ़ रहे होते हैं,या आकार दे रहे होते हैं। ' इस प्रकार यहाँ पहुँचकर किसी वेदान्त -शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक /नेता की भूमिका 'as a torchbearer of change' युगपरिवर्तन मशाल वाहक या अग्रदूत की हो जाती है। "If you want a change at the macro level , it is to be preceded by a change at the micro level . " यदि आप विराट या समष्टि स्तर पर परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो पहले आपको व्यष्टि स्तर पर (व्यक्ति अहं में) परिवर्तन लाना होगा। यदि हम अपने देश को बचाना चाहते हैं, तो हमें अपने देशवासियों के हैण्ड, हेड ऐंड हार्ट (3'H') को विकसित करने के लिए (5 अभ्यास) का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों/ नेताओं -भर्तृहरि द्वारा कथित प्रथम श्रेणी के मनुष्यों का निर्माण करना ही पड़ेगा। अन्यथा भारत एक विकसित राष्ट्र में परिवर्तित नहीं हो सकेगा।
जब ब्रिटेन और जर्मनी के बीच युद्ध चल रहा था। तब एक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपने अध्ययन-कक्ष में कुछ पढ़ने में तल्लीन थे, उसी समय एक सैनिक ने उनके कमरे में प्रवेश किया और उन पर आरोप लगाते हुए कहा कि, जहाँ सिपाही अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए युद्ध लड़ रहे हैं, वहीँ आप अपने कमरे में बैठकर पढाई कर रहे हैं, और एक प्रोफेसर होकर भी देश के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं ? तब प्रोफेसर ने सैनिक से पूछा कि तुम्हारे विचार से राष्ट्र को सुरक्षित रखने का अर्थ क्या होना चाहिए ? सैनिक ने कहा कि इसका अर्थ राष्ट्र की भौगोलिक सीमा की रक्षा करना है। प्रोफेसर ने फिर पूछा कि क्या देश की सुरक्षा के इतना काफी है ? सैनिक ने थोड़ी तक इस विषय पर चिंतन किया, फिर बोला कि राष्ट्र की रक्षा अर्थ राष्ट्र के नागरिकों की और उसकी संस्कृति की सुरक्षा करना है। प्रोफेसर बोलै कि मैं देश के संस्कृति की रक्षा करने में लगा हुआ हूँ। यह सुनकर उस सैनिक ने प्रोफेसर को एक सैल्यूट किया और वहां से चला गया।
[अधिकतर लोग यही मानते हैं कि संस्कृत हिंदुओं का विषय है और उर्दू मुस्लिम लोगों का. मुस्लिम लोगों को उर्दू भाषा में रुचि होती है और हिंदुओं को संस्कृत में, लेकिन झारखंड की अनम अली ने लोगों की इस मानसिकता को चूर-चूर कर दिया है. अनम अली ने सीबीएसई की 2018 दसवीं की परीक्षा में संस्कृत में 100 में पूरे 100 नंबर हासिल किए हैं. अनम कहती है कि संस्कृत बेहद इंट्रेस्टिंग विषय है और साथ ही अधिक नंबर स्कोर करने वाला भी है. आपको बता दें कि अनम ने 10 वीं में 90.4 फीसदी अंक हासिल किए हैं.जो लोग कहते हैं कि मुस्लिम संस्कृत नहीं पढ़ना चाहते, उन्हें अनम से प्रेरित होना चाहिए. भले ही बात संस्कृत की हो या फिर उर्दू की, शिक्षा कभी धर्म की मोहताज नहीं होती. जिसे संस्कृत अच्छी लगती है वो संस्कृत पढ़ता है और जिसे उर्दू अच्छी लगती है वह उर्दू पढ़ता है. पिछले 500 सालों में सैंकड़ों मुस्लिम विद्वानों ने संस्कृत में बहुत सारे साहित्य की रचना की है. अब्दुल रहीम खानखाना समेत अनेक विद्वानों हुए, जिन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे हैं. आज भी संस्कृत विभागों और संस्कृत विश्वविद्यालयों में न जाने कितने मुस्लिम विद्यार्थी संस्कृत पढ़-लिख रहे हैं. संस्कृत केवल एक मात्र भाषा नहीं है अपितु संस्कृत एक विचार है। संस्कृत एक संस्कृति है एक संस्कार है संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना है। हिन्दुओं, सिख, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं। संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है। डॉ. भीम राव अम्बेडकर का मानना था कि संस्कृत पूरे भारत को भाषाई एकता के सूत्र में बांध सकने वाली इकलौती भाषा हो सकती है, अतः उन्होंने इसे देश की आधिकारिक भाषा बनाने का सुझाव दिया था।]
युग परिवर्तन के मशाल-वाहक नेताओं का उदाहरण :
हां, यह सही है कि शिक्षक किन्हीं महत्वहीन, भोले-भाले विद्यार्थियों को महान निष्पादक और उपलब्धि प्राप्तकर्ता के रूप में विकसित कर सकते हैं।खेलों और क्रीड़ाओं के जगत में प्रशिक्षकों/नेताओं के कुछ प्रेरक उदाहरण मिलते हैं, जहां सफल खिलाड़ी भी उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित उपलब्धि हासिल करने वालों की ही तरह अपनी सफलताओं का श्रेय अपने प्रशिक्षकों को देते हुए देखे जा सकते हैं। प्रत्येक कामयाब व्यक्ति अपने गुरुओं के योगदान को स्वीकार करता है। हम सभी ऐसे शिक्षकों के प्रति नतमस्तक होते हैं, जो एक शिक्षक से आगे बढ़ कर उच्चतर भूमिका (मार्गदर्शक नेता या गुरु की भूमिका) अदा करता है।
विश्व के प्राचीन समुदाय भारत की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। भारत एक युवा राष्ट्र है, जिसकी 65 करोड़ आबादी 35 वर्ष से कम आयु वर्ग के लोगों की है। इसे एक महान ‘‘जन सांख्यिकीय लाभ’’ के अवसर के रूप में देखा जा रहा है। क्या भारत इसका लाभ उठा सकेगा ? हां, यदि युवा भारत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकता है और प्रशिक्षित है, तो वह देश में उपलब्ध अवसरों का लाभ उठा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय जगत भी ऐसे ही ‘सक्षम, प्रतिबद्ध और चपरास-प्राप्त निष्पादक युवाओं’ का इंतजार कर रहा है।
श्री महेंद्रनाथ गुप्ता/राजर्षि जनक एक साधारण शिक्षक/राजा थे। एक बार वे संयोग से कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर स्थित उस कमरे में पहुँच गए जहां विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव रहते थे। उस समय उनके परिवार में बहुत सारी समस्याएँ थीं और वे इतने तंग हो चुके थे कि आत्महत्या करने की बात सोच रहे थे। संयोग से (माँ की कृपा से ?) वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में चले गए।
जब वे श्री रामकृष्ण से मिले, तो उन्हें इतनी शांति का अनुभव हुआ कि उन्होंने आत्महत्या के विचार को स्थगित कर दिया। उस प्रथम दर्शन के बाद वे नियमित रूप से श्री रामकृष्ण के पास जाने लगे, और श्री रामकृष्ण अपने भक्तों के साथ जो कुछ भी वार्तालाप करते थे, उसको अक्षरसः अपनी डायरी में नोट करने लगे। बाद में जब स्वामी विवेकानन्द ने इस विषय में जाना तब वे बहुत प्रसन्न हुए, बोले कि आपकी डायरी में श्री रामकृष्ण के महत्वपूर्ण उपदेश हैं, इसको पुस्तक के रूप में छापना चाहिए। बाद में वह डायरी सबसे पहले पुस्तक के रूप में बंगला भाषा में 'श्री श्री रामकृष्ण कथामृत ' के नाम से प्रकाशित हुई। फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद ' दी गॉस्पेल ऑफ़ श्री रामकृष्ण' के नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद हिन्दी में "श्रीरामकृष्ण वचनामृत' नाम से गुजराती , तमिल, तेलुगु, मराठी, कन्नड़ , मलयालम , ओड़िया , स्पेनिश, जापानी, रूसी, डच, ग्रीक और फ्रेंच तथा दुनिया की अन्य कई भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं। इसकी हजारों प्रतियां बिक चुकी हैं, और उसके फलस्वरूप हजारों लोग पिछले सौ वर्षों से मानसिक शांति तथा आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर रहे हैं। और इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि इस पुस्तक ने कई लोगों को आत्महत्या करने से भी बचा लिया है। 24 नवम्बर 1897 को लिखे अपने पत्र में स्वामी विवेकानन्द उनको धन्यवाद देते हुए 'M' के उपनाम से सम्बोधित करते है, और लिखते हैं - " The Socratic dialogues are Plato all over; you are entirely hidden. Moreover, the dramatic part is infinitely beautiful. Everybody likes it here and in the West."
इस पुस्तक की भूमिका में महान विद्वान एल्डस हक्सले ने लिखा है -the great savant (विद्वान्) Aldous huxley in the forward of this book wrote ' making good use of his natural gifts and of the circumstances in which him self , 'M' produced a book unique so far as my knowledge goes in the litrature of hagiography (सन्त -चरित लेखन विधा) " आज यह पुस्तक समाज-सेवा के क्षेत्र में मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में कर रही है। " नेता/नेतृ का एक अन्य उदाहरण हैं दीदी निवेदिता (1867-1911)/ तीसरे उदाहरण हैं स्वामी प्रेमशानन्द जी (1884 -1967) वे भी एक साधारण शिक्षक ही थे , उन्होंने कई विद्यार्थियों को प्रेरणा दी जिनमे से कई अभी रामकृष्ण मिशन के संचालक पद पर कार्यरत हैं।
(शिक्षकों/नेताओं/राजर्षियों की तत्काल आवश्यकता)
हम जानते हैं, अगर कोई व्यक्ति सचमुच सो रहा है तो उसको जगाना आसान है, लेकिन जो सोने का नाटक कर रहा है, अंठियाये हुए है- उसको कैसे जगाया जा सकता है ? the only way is to give an electric shock.एकमात्र उपाय है- बिजली का झटका देना !
और ऐसा चौंका देने वाला बिजली का झटका हमें स्वामी विवेकानंद के जीवन और संदेश को पढ़कर प्राप्त होता है। एक नोबेल पुरस्कार विजेता तथा फ्रेंच विद्वान् - रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था।
वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"
" Vivekananda’s words are great music, phrases in the style of Beethoven, stirring rhythms like the march of Handel choruses. I cannot touch these sayings of his at thirty years distance without receiving a thrill through my body like an electric shock."
The present leaders of India : Gandhi, Aurobindo, and Tagore, have grown, flowered, and born fruit under the double constellation of the Swan (Ramakrishna) and the Eagle (Vivekananda) –– a fact publicly acknowledged by both Gandhi and Aurobindo.
कटक में नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक लड़के ने स्वामी विवेकानंद की - 'कोलम्बो टू अल्मोड़ा' तथा भारत और उसकी समस्यायें' नामक पुस्तकों का अध्यन किय और राष्ट्र की सेवा के लिए अपने जीवन का बलिदान करने का फैसला किया और बाद में वही लड़का नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से जाने गए।
इसलिए हम देख सकते हैं कि स्वामी विवेकानंद की पुस्तकों में बहुत बड़ी शक्ति निहित है। उनको पढ़ने से आज 150 वर्षों बाद भी वे एक बिजली के झटके की तरह काम करते हैं, और भावी शिक्षकों / नेता को एक बिजली के झटके की तरह जागृत कर देते हैं, और उन्हें यह स्मरण हो जाता हैं, उन्हें गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी मानवजाती का मशाल -वाहक नेता बनना और बनाना है। उन्हें तो लकीर का फकीर नहीं बनना है, अर्थात उन्हें सामान्य गृहस्थों की तरह आहार-निद्रा-भय मैथुन में जीवन नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है।
कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्त अधिकारी, व्यापारी, मंत्री आदि धन कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, और उन्हें माफ भी किया जा सकता है। लेकिन शिक्षक /महामण्डल परम्परा में प्रशिक्षित नेता को माफ नहीं किया जा सकता है। क्योंकि उनके गलत उदाहरण से सैंकड़ों भावी नेताओं का जीवन नष्ट कर सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने मंत्र दिया है - "Be and Make " अर्थात स्वयं अपना चरित्र-निर्माण करो, तथा साथ साथ दूसरों की भी चरित्र-निर्माण में सहायता करो। किसी आदर्श सत्पुरुष या जीवनमुक्त शिक्षक/नेता का प्रभाव से छात्र या तो महान हो सकते हैं या या ढोंगी बाबाओं के प्रभाव से दानव जैसे भी बन सकते है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि वे किसी प्रकार नेता द्वारा अनुप्रेरित किये जा रहे हैं ? छात्रों या भावी शिक्षकों के मामले में जो हम उन्हें उपदेश देते हैं, वह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि जो हम वास्तव में हैं, चार में से किस श्रेणी के मनुष्य हैं ? वह अधिक महत्वपूर्ण है।
values are never taught , but they are caught : नेतृत्व के गुणों को पढ़ाया नहीं जाता , उसको तो अपने मार्गदर्शक नेता के जीवन और व्यवहार में देखकर पकड़ा जाता है। आत्मसात किया जाता है। आजकल के छात्र पहले से अधिक बुद्धिमान होते हैं। वे अपने शिक्षकों को अच्छी तरह से जानते हैं; वे कक्षा आदि के बाद अमुक शिक्षक क्या करते हैं , कहाँ -कहाँ जाते हैं; वे यह सब जानते हैं। यदि आप उन्हें निषिद्ध कर्मों या शास्त्र-विरुद्ध कर्मों को त्याग देने का उपदेश देंगे और स्वयं कोई निषिद्ध कर्म करते रहेंगे , तो आपके उपदेशों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
राजर्षि नेता ही युग परिवर्तन के मशाल वाहक होते हैं, क्योंकि भौतिवाद की आंधी से सम्पूर्ण विश्व तभी बच सकता है, जब भारत को उससे बचाया जा सकेगा। क्योंकि विश्व में आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना ही भारत की विशेष भूमिका है । यदि भारत को भाटिकवादी संस्कृति की आंधी से बचाना है, तो भारत को समृद्ध परिवार के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लड़के को राजऋषि (enlightened citizen) बनने और बनाने का प्रशिक्षण देना ही पड़ेगा। और छात्रों को भावी राजर्षि (enlightened citizen) के रूप में आकार देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका - Be and Make शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे शिक्षक/नेता ही निभाते हैं। [प्रबोध महाराज की पुस्तिका-Teachers as a Torch-Bearer of Change' समाप्त]
अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने के बाद मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार होता है, और वही है धर्म। गोस्वामी तुलसीदास राम चरित मानस में लिखते हैं “परहित सरिस धरम नहिं भाई ,परपीड़ा सम नहिं अधमाई।" यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर ( अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने तुच्छ अहं को) मारता है। जो वीर होता है, वह इस वृहत जगत (भव-सागर ) के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर,सांप, बिच्छु या मच्छड़ तक को नहीं मरता है,बल्कि अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है।अनुशासन के अनुसार चलना धर्म है। हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। धर्म का सार जीवन में 'संयम' का होना है। जो वस्तु हमारे जीवन को लक्ष्याभिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, उसे नियंत्रित करती है- उसी का नाम है धर्म। फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख , या पाँच वक्त का नमाज मस्जिद में , हर संडे को चर्च जाना, इन सब अनुष्ठानों को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। श्रीमद्भागवत महापुराण (के दशम स्कन्ध के २२ वें अध्याय में श्लोक ३२-३५ ) में वर्णित एक कथा के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया गया है - एक दिन भगवान श्रीकृष्ण अन्य ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये । ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष के नीचे गौएँ विश्राम कर रही थीं। उन सबके ऊपर वृक्ष के पत्ते छाता का काम कर रहे थे। वृक्षों को छाया करते देख अपने गोप मण्डली के 'नेता'/ जीवनमुक्त शिक्षक की भूमिका निभा रहे तरुण श्रीकृष्ण के मुख से भावी शिक्षकों (Would be Leaders) के जीवन निर्माण की अनिवार्यता को एक बहुत सुन्दर श्लोक निकला है--
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। एक मनुष्य चाहे सोने के सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो, चिथड़े ही क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीनहीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे वह संसार में घोर रूप से लिप्त है। "
" अतः दोनों स्थलों पर किसी 'शिक्षक' (पूर्णतः निःस्वार्थी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट को हटा देना है। जैसा मैं सर्वदा कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है -रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान ही करते हैं ! " २/३२८ उसे कहेंगे पशु-मानव को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर दे ! 0-निःस्वार्थपरता=पशु, से 100 -निःस्वार्थपरता =ईश्वर।
स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए, मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है। अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित करना सीख लेता है। इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है।' स्वामी जी ने कहा था - निःस्वार्थपरता ही ईश्वर (जगत साक्षिणी माँ जगदम्बा ) है ! और यदि कोई व्यक्ति इसी उक्ति को धर्म समझे, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ?
स्वामी जी ने कहा है ,"संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु बन गये हैं। आज संसार जो चाहता है वह है चरित्र। आज ऐसे लोग चाहिए जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण हो। उस प्रेम से कहा गया हर शब्द वज्रवत् प्रभावी होगा।" गीता 10 /28 के भाष्य में आचार्य शंकर ने कहा है - 'आयुधानाम् अहं वज्रं दधीच्यस्थिसंभवम्।' -- शस्त्रों में मैं दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना हुआ वज्र हूँ। [आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्। प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।10.28। शस्त्रोंमें मैं दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे बना हुआ वज्र हूँ। दूध देनेवाली गौओंमें कामधेनु हूँ। प्रजा उत्पत्ति का हेतु कन्दर्प (कामदेव) मैं हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।।]
स्वामीजी कहते हैं - " भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें ।"
" और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -(Be and Make) दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, " इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है।"५/११६
[रूट कैनाल ट्रीटमेंट (RCT) : मूर्त से अमूर्त की ओर, नश्वर से अविनाशी की ओर, सत -असत-मिथ्या राह से मुझे सत राह पर पर लो - मृत्यु धर्मा शरीर (अन्नमय कोष) से साक्षी चेतना (infinite -existence-consciousness-bliss या आत्मा में प्रतिष्ठित कर दो ! रूट कैनाल उपचार आने से पहले रोगग्रस्त दांत को निकाल दिया जाता था, लेकिन अब दांत निकालने की जरूरत नहीं पड़ती। रूट कैनाल एक ऐसा इलाज है जसमें क्षतिग्रस्त या संक्रमित दांत को निकालने के जगह उसकी मरम्मत और साफ-सफाई की जाती है और फिर उन पर कैप लगाया जाता है। शब्द "रूट कैनाल" दांत की जड़ के अंदर की कैनाल्स (canals) की सफाई से आता है। दांत के 3 भाग होते हैं, बाहरी भाग इनेमल, फिर दांत का मुख्य भाग डेंटीन (dentin)और फिर दांतों का नर्म गूदा। एनेमल के भीतर एक परत और होती है जिसे डेंटीन कहते हैं। यह परत भी जब घिस जाती है तो पल्प आ जाता है। ‘दांत का वो भाग, जो मुंह के अंदर दिखाई देता है, उसे हम क्राउन भी कहते हैं और जो भाग मसूड़े के अंदर होने की वजह से दिखाई नहीं देता उसे हम रूट या जड़ कहते हैं। क्राउन में सबसे अंदर पल्प नाम का भाग होता है, जिसमें रक्त और नर्व (तंत्रिका) संचार होता है। एनेमल एवं डेंटीन दोनों परत के घिसने के बाद पल्प का नर्व किसी भी पदार्थ के संपर्क में आने पर टीस की वेदना पैदा करते हैं। इसकी बाहरी परत डेंटिन होती है, जो काफी सेंसिटिव होती है और सबसे बाहरी सुरक्षा परत को इनेमल कहते हैं, जो अंदरूनी सेंसिटिव डेंटिन की सुरक्षा करती है। अगर यह इनेमल झड़ने या कम होने लगता है, तो डेंटिन की परत ऊपर आ जाती है, जिससे झनझनाहट होने लगती है। इसी तरह मसूड़ों के ढीले पड़ने या घिसने पर मसूड़ों के जड़ की सबसे बाहरी परत भी संपर्क में आने लगती है, जिससे झनझनाहट होने लगती है। इनेमल दांतों की बाहरी परत है, जो दांतों की टूट-फूट से रक्षा करती है। इनेमल का निर्माण कैल्शियम फास्फेट से होता है। दांतों का दिखाई देने वाला मुकुट (क्राउन), के भीतर पल्प चैंबर होता है। नस एवं रक्त वाहिकाएं दांतों की जड़ (एपेक्स) के पास से अंदर जाती है और फिर जड़ के कैनाल से होते हुए पल्प चैंबर तक पहुंचती है। रूट कैनाल उपचार में दांत के सूजे या संक्रमित पल्प को हटा दिया जाता है। रोग ग्रस्त (संक्रमित) पल्प को हटाने के बाद उस खाली जगह को साफ किया जाता है, और फिर उसे सही आकार देकर भरा जाता है। वायरलेस डिजिटल एक्स-रे जैसे उन्नत उपकरणों की मदद से रूट कैनाल ट्रीटमेंट अधिक कुशलतापूर्वक कम समय में किया जा सकता है। एक्स-रे को कंप्यूटर पर दिखाया जा सकता है, जहां दांत का आकार भी बड़ा और स्पष्ट दिखाई देता है। ]
" Man -making ' is never possible only through bookish learning. The youth should 'plunge heart and soul and body' into selfless work for the good of others . That is the only way to follow the motto provided by Swamiji in his pointed and forceful expression : BE AND MAKE." " মাত্র পুঁথিগত বিদ্যায় কখনও 'মানুষ গড়া ' সম্ভব নয়। যুবকদের নিঃস্বার্থ পরোপকারব্রতে 'হৃদয়, मन ও দেহ ' নিয়ে ডুবে যেতে হবে ! নিজে মানুষ হও ও অপরকে মনুষ্যত্বলাভে সহায়তা করো ---স্বামীজীর এই মহতী বাণীকে অনুসরণ করার এই একমাত্র পথ।"महामण्डल के प्रतिष्ठाता श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (नवनी दा) कहते थे - " मात्र शास्त्रों का अध्यन करने से ही 'मनुष्य-निर्माण' करना कभी सम्भव नहीं है। युवाओं को अपना 'हृदय, मन और शरीर' लेकर ज्ञान-दान रूपी निःस्वार्थ परोपकारव्रत - 'BE AND MAKE ' में डूब जाना होगा ! 'स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो' --स्वामी विवेकानन्द के इस ध्येय-मंत्र और महावाक्य के अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है।" इसीलिए भारत में यह कहावत प्रचलित है ---"विद्या गुरु मुखी !" (केवल पुस्तकीय विद्या के बलपर ब्रह्मवेत्ता या सत्यद्रष्टा नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करना असंभव है !) [ उनके इस कथन का तात्पर्य यह है कि मात्र गीता-उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्यन करने से ही 'मनुष्य-निर्माण' करना कभी सम्भव नहीं है। युवाओं को [Would be Leaders को] अपना 'हृदय, मन और शरीर' लेकर ज्ञान-दान रूपी निःस्वार्थ परोपकार व्रत - 'स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो-- 'BE AND MAKE' - स्वामी विवेकानन्द के महान सन्देश का अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है। " --श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय। स्वयं ऋषि बनो और दूसरों को ऋषि बनने में सहायता करो' के यथार्थ मर्म की अनुभूति करने के प्रयास में डूब जाना होगा। और स्वयं ब्रह्मविद/de -hypnotized या जीवनमुक्त शिक्षक/नेता के गुणों को अपने जीवन से अभिव्यक्त करते हुए दूसरों को भी का गुणों को अर्जित करने में सहायता करो ! --स्वामी विवेकानन्द के इस ध्येय-मंत्र और महावाक्य के अनुसरण करने का यही एकमात्र पथ है।"]इसलिए, महामंडल का उद्देश्य - भारतीय सांस्कृतिक परम्परा (श्रुति परम्परा- विद्या गुरुमुखी) को " स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण के प्रशिक्षण-पद्धति को पुनर्स्थापित करना है, जो उनके 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' आदर्शों में विशेष रूप से सन्निहित है। और महामण्डल का कार्यक्रम है इस " Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition" को विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रसारित करना, तथा युवाशक्ति को अनुशासित तरीके से निःस्वार्थ देश-सेवा के माध्यम से राष्ट-निर्माण के लिए संघबद्ध करना; क्योंकि केवल यही एकमात्र उपाय है, जिसके परिणाम स्वरूप सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर (बेहतर) समाज का निर्माण किया जा सकता है।
जगत के व्यक्तियों, पदार्थों, की इच्छाओं या कामनाओं के मोह में जकड़ा जीव, भगवान के सम्मुख कैसे हो सकता है? क्या यह कभी सम्भव है, कि कोई मनुष्य अपनी परछाई को और सूर्य को एक साथ देख सके? वैराग्य अर्थात् न 'वैर' हो न 'राग' हो। वैराग्य के लिए घर-बार, पति-पत्नि किसी को भी छोड़ने की आवश्यकता नहीं है, जहाँ हैं वहीं वैराग्य ले लें। शास्त्रों में बताए गए भगवत् प्राप्ति के चार साधनों--'साधन चतुष्टय' में से एक साधन है 'वैराग्य 'जो अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है। भक्तिमार्ग पर भी जब भगवद् प्रेम की पराकाष्ठा हो जाती है तो संसार दीखता ही नहीं सिर्फ प्रभु रह जाते हैं-
कोई सच्चा सत्यान्वेषी व्यक्ति चाहे कितना धन- सम्पत्ति, ऐश्वर्य, अच्छे कुल-परिवार से युक्त हो, वह इन सब में आसक्त नहीं होता। परमसत्य भगवान (स्वामी जी) जब सत्य को जानने के प्रति उसकी अदम्य उतकंठा को देखते हैं, तो स्वयं बुलाते ( नहीं पकड़ लेते ?) हैं, और इन सब के प्रति घोर आसक्ति से भी छुड़ाकर ले जाते हैं। तन, मन, धन सब शुद्ध हो, तब ही भगवान अपनाते हैं।
गीता 4 /1 भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, इसी श्रुति परम्परा में " मनुष्य (ब्रह्मविद) बनो और बनाओ" की योग-पद्धति को, मैंने सृष्टि के आदिकाल में - सूर्य से कहा था, उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बनने वाले इक्ष्वाकु से कहा-
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? सत्ययुग का प्रारम्भ कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता मैलापन आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ! हमारे शास्त्रों (ऐतरेय ब्राह्मण) में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है --
और इस प्रकार प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करने वाले महामण्डल द्वारा संचालित मनुष्य-निर्मयकारी आंदोलन का लक्ष्य, या महामण्डल की सर्वतोकृष्ट समाज सेवा का उद्देश्य है -- 'स्वयं जग कर दूसरों को जगाना !' किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि --- पहले मैं अपने भीतर सोये हुए ब्रह्मरूपी सिंह को जगा लूँगा, तभी दूसरों से उसे जगाने का प्रयास करने के लिए अनुरोध करूँगा। यह सेवाकार्य 'Be and Make' साथ-साथ (simultaneously-एक ही समय में) चलने वाला कार्य है।
यही है महामण्डल द्वारा संचालित 'एक नया युवा आन्दोलन' की पृष्ठभूमि--- समाज की वस्तु-स्थिति के गहन चिन्तन से उपजा एक ऐसा स्पष्ट मानसिक प्रतिफलन--- जिसने समस्यायों की विशालता की तुलना में संसाधन की अपर्याप्तता रहने के बावजूद, इस कर्मयोग के प्रवर्तकों (Promoters) को, पीढ़ी -दर -पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के प्रचार-प्रसार में विगत 52 वर्षों से नियोजित किये रखा है।
"अब तुमलोगों का काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में में जाकर देश के लोगों को समझा देना होगा कि अब आलस्य के साथ बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-'भाई, अब उठो, जागो, मनुष्य बनने और बनाने के काम में लग जाओ !और कितने दिन सोओगे? और शास्त्र के महान सत्यों को सरल करके उन्हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। काल स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका, तो तुम अब जाकर उन्हें समझा दो कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र में दीक्षित करो।" यहाँ धर्म का अर्थ है-वैदिक धर्म, जिसके अनुसार सभी जीव एक के ही बहुरूप हैं ! जिसका मूल मन्त्र है- "सर्वं खल्विदं ब्रह्म", "तत्वमसि"
[ मनीषा-पंचक और दृग-दृश्य विवेक जैसे वेदान्त प्रकरण ग्रन्थ और उसके व्याख्याता -नवनीदा, स्वामी सर्वप्रियानन्द आदि] इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली। [ इतने दिनों तक साधारण गृहस्थ युवाओं के सामने " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक (C-in-C नवनीदा) की जागरण वाणी - 'ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ' परम्परा की फतेह! का प्रचार-प्रसार करने वाला कोई युवा संगठन 1967 के पहले नहीं था।] अब अबाध रूप से ब्रह्म-विद्या पर चर्चा करने के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें अर्थात " Be and Make Vedanta C-in-C Leadership Training Tradition" को उत्तराधिकारियों को दो, जितना शीघ्र दे सको, दे दो। और तुम लोग शून्य में विलीन हो जाओ, --" और फिर एक नया भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटिया को भेदकर, जाली, माली, मोची , मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से , हाट से , बाजार से। निकले झाड़खण्ड के झाड़ियों , जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। इन लोगों ने हजारों वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है, ----उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता। सनातन दुःख उठाया है, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति। ये लोग एक मुट्ठी सत्तू खाकर दुनिया को उलट सकते हैं ! (এরা এক মুঠো ছাতু খেয়ে দুনিয়া উলটে দিতে পারবে) आधी रोटी खाने को मिल जाये, तो तीनों लोकों में इनका तेज न अटेगा ! ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं। और पाया है ऐसा सदाचार- बल, जो तीनों लोकों में नहीं है। इतनी शान्ति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम !! (.... पर इनके विषय में कौन सोचता है ?) अतीत के कंकाल-समूहों ! - देखो तुम्हारा उत्तराधिकारी भविष्य का भारत, तुम्हारे समक्ष खड़ा है। तुमलोगों के पास पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं, तुम्हारी अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली. अब अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो। फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। तुम ज्यों ही विलीन होगे [ज्योंही तुम्हारा व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध या निरंतर साक्षी चेतना (Constant witness consciousness) में रूपांतरित हो जायेगा], वैसे ही सुनाई देगी, " कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पन-कारिणी भावी भारत", [would be Leaders of India], की जागरण-वाणी- "वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह !"
(👉The Idea):
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " अनेक देशों में भ्रमण करके मेरा यह विश्वास दृढ़ हो गया है कि संघ के बिना कोई बृहत कार्य नहीं हो सकता। परन्तु हमारे जैसे देश में पहले से ही साधारण तंत्र के अनुसार संघ बनाना, अथवा जनसाधारण की सम्मति (वोट) लेकर काम करना (Be and Make शिक्षा प्रणाली का प्रचार -प्रसार करना) उतना सुविधाजनक नहीं मालूम पड़ता। इस देश में जब यथार्थ शिक्षा (शीक्षा) के विस्तार के द्वारा जनसाधारण अधिक मात्रा में सहृदय बनेंगे - ('Heart Whole Man' - 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनेंगे) - जब वे मतमतान्तर की संकीर्ण सीमा के बाहर अपने विचारों को प्रसारित करना सीखेंगे , उस समय साधारण तंत्र के अनुसार संघ का कार्य चल सकेगा। इसलिए इस संघ (युवा -प्रशिक्षण शिविर का) एक डिक्टेटर अथवा 'C-in-C' (प्रधान परिचालक) रहना आवश्यक है। सभी को उनका आदेश मानकर चलना होगा। इसके बाद समय आने पर सभी की राय लेकर काम किया जायगा। " चरित-212 / स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -" यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) इसीलिये महामण्डल का लक्ष्य है भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित और महामण्डल से सम्बद्ध (affiliated) प्रत्येक युवा-पाठचक्र तथा अनुमोदित (Approved) महामण्डल -केन्द्रों को एक ही आदर्श के झण्डे तले संघबद्ध करना।
महामण्डल भारत की सर्व-समावेशी प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में समाहित 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना के प्रति श्रद्धा रखता है, तथा जाति, धर्म और भाषा के नाम पर समस्त प्रकार की संकीर्णता को, या भेदभाव को अस्वीकार करता है। क्योंकि 'अनेकता में एकता ' ही भारत की विशेषता है, जिसके आधार सच्ची राष्ट्रीय एकता (National Integrity) और विश्व-बन्धुत्व (internationalism) की भावना से उद्बुद्ध होकर युवावर्ग अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक होकर रचनात्मक कार्यक्रमों में आग्रहपूर्वक (earnestly) अपनी भागीदारी निभा सकता है। लेकिन अभी के लिए (provisionally) महामण्डल का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष है।
(i) व्यायाम : महाकवि कालिदास ने. 'कुमारसम्भव' महाकाव्य की पार्वती तपश्चर्याप्रकरण के शिव-पार्वती संवाद में एक महत्त्वपूर्ण उक्ति लिखी है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'- शरीर धर्म का प्रथम साधन है। लौकिक दृष्टि हो या आध्यात्मिक दृष्टि से अपने लक्ष्य की साधना के लिए अथवा गन्तव्य तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य तन की नितान्त आवश्यकता है।
प्रार्थना ही 'संकल्प-ग्रहण क्रिया' (ऑटोसजेशन) है : प्रेमस्वरूप श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द इन दो आश्चर्जनक शिक्षकों के हृदय में इतना असीम प्रेम था, और इतनी असीम सहानुभूति थी कि वे सम्पूर्ण मानवजाति के सुख-दुःख की संवेदनाओं को अपने हृदय में तत्काल ही महसूस कर सकते थे। [जापान में जब भयंकर भूकंप आया था तब स्वामीजी मध्य रात्रि में जग कर रो पड़े थे, ठाकुर की पीठपर माँझी को मारने पर बाम उखड़ गया था।] अपने हृदय को उदार और विशाल बनाने के लिये हमें भी उतनी ही सहृदयता के साथ सर्वमंगल की प्रार्थना करनी होगी। [तब हर्टअटैक भी नहीं होगा और बाईपास सर्जरी भी नहीं करानी होगी !] और इसीलिए, अपने हृदय में अनन्त प्रेम का उत्स रहने पर भी, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारने को संकल्प को दृढ़ता पूर्वक धारण किये नहीं रह पाते है, अपने-पराये का भेद करके; अपने लिए कोमल और दूसरों के लिए कठोर बन जाते हैं। अतः एकाग्रता का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व ही सर्वमंगल की प्रार्थना का अभ्यास करना चाहिए। यही हृदय का व्यायाम ( Exercises of Heart या Cardiotherapy) है।मानव जीवन तमस, राजस व सात्विक के आधार पर ही विकसित होता है, या आगे बढता हैl योगी तमस तथा राजस से निकलकर सात्विक जीवन अपनाकर तप से तपाते हैंl तभी उनका शरीर अनंत चेतना को धारण करने में समर्थ होते हैंl व्यक्ति को अपने जीवन में किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए संयम, संकल्प और नियमों की आवश्यकता पङती है| व्रत में संयम, संकल्प और नियम निहित होता है| व्रत का मतलब भी एक तरह से योग धारण करना ही है| जितने भी योग हैं उनमें यदि (ऑटो-सजेशन) संकल्प-ग्रहण क्रिया सक्रिय नही है तो सब व्यर्थ है| योग, ध्यान एवं मौन-साधना प्रभु भक्ति का रूप नही है ब्लकि उसके लिए शक्ति अर्जित करने का एक साधन है| योग चित्तकी वृत्तियों का निरोध है अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह योगी /नाथ/अवधूत/नेता या आध्यात्मिक शिक्षक है।[ भारत को सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक नेता, अथवा विश्वगुरु बनाने, अर्थात भारत को विश्व का योगगुरु बनाने के लिए, केवल शरीर को तोड़मड़ोड़कर, अथवा अंतड़ियों को सटकाकर पेट घुमाने वाले किसी 'योगा-टीचर ' की आवश्यकता नहीं है। बल्कि चारों योगों के वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित आध्यात्मिक-शिक्षक/ मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/ सच्चे योगीयों की है ,जो भावी योग-कुशल (yoga skilled) कारीगर/ का निर्माण करने में समर्थ हों। आज भारतवासियों को विश्व के 177 देशों में ऐसे चारों योगमार्गों के योगी-परम्परा में इन्हीं प्रशिक्षित योगी/नेता / आध्यात्मिक शिक्षकों का बहुत बड़ी संख्या में निःशुल्क निर्यात 'Indian Man Power Export' करने के लिए अपनी इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी करना होगा।]
[स्वामीजी धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड कहते थे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान का वास होता है; और शिक्षा उसको प्रकाश में लाने का कार्य करती है। सभी लोग नवयुवकों को उपदेश देते हैं कि मन लगा कर पढ़ो ! किन्तु कोई यह नहीं सिखलाता कि मन क्या है, अर्थात उसकी बनावट कैसी है ? तथा किसी इच्छित विषय में मन को लगाया कैसे जाता है ? अतः शिक्षा (युवा-प्रशिक्षण) का प्रथम कार्य यह है कि वह प्रत्येक नवयुवक को उसके मन की बनावट और मन को एकाग्र करने की पद्धति से उसका परिचय करा सके। स्वामीजी मन की एकाग्रता की प्रक्रिया को (मनःसंयोग को) शिक्षा के केन्द्र में लाना चाहते थे। उनका कहना था, ‘‘मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ, ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं। यदि एक बार मुझे फिर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले, तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता को तथा मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊँगा और तब साधन अथवा मंत्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा।’’शिक्षा की वास्तविक उपलब्धि के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। विद्यार्थी जितने अधिक एकाग्रचित्त होते जाते हैं, उनकी विद्या ग्रहण करने की शक्ति उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है।"एकाग्रता की विशिष्टता" के अनुसार ही कोई व्यक्ति किसी "विषय-विशेष" का अथवा अनेक विषयों का ज्ञाता हो जाता है। भारतवासियों के द्वारा "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" में अन्तर्जगत पर,आत्मा के अदृष्ट प्रदेश पर (हृदय में विद्यमान भगवान श्रीरामकृष्ण देव पर) अपने मन को एकाग्र किए जाने से भारतवर्ष में योग-शास्त्र का विशेष उत्थान हुआ। जबकि यूरोप के लोगों ने बाह्य जगत पर मन को एकाग्र कर भौतिक उपलब्धियों में शिखरों का स्पर्श कर लिया है। विश्व का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस के बारे में मन को एकाग्र किया जाए और उपलब्धि न प्राप्त हो। अतः मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया को सरल करते हुए स्वामी जी ने कहा - 3'H'; हैण्ड -हेड एण्ड हार्ट् का डेवलपमेन्ट करो - मनुष्य विकसित हो जायेगा, मनुष्य निकलेगा, मनुष्य प्रगट हो जायेगा। वह 'मनुष्य' जो 'ब्रह्म' को-अर्थात अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! अष्टांगयोग में पतंजलि ने इसके ८ अंगों की व्याख्या की है, ये आठ चरण निम्नांकित हैं:- 1. यम : पांच सामाजिक नैतिकता; (१) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना (२) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना। (३) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना (४) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (५) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता(१) शौच - शरीर और मन की शुद्धि(२) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना(३) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना(४) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना(५) ईश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। 3. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 4. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण 5. प्रत्याहार: चेतना (awareness ) इन्द्रियों से खींचकर सामने लाना और उसको अंतर्मुखी करना। 6. धारणा: चेतना को हृदय में विद्यमान आदर्श पर एकाग्रचित्त होना। 7. ध्यान: निरंतर एकाग्रता ध्यान है। 8. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था।
यम-नियम का 24 X 7 पालन तथा आसन,प्रत्याहार और धारणा का दिन भर में दो बार, प्रातः और सायं काल में, नियमित अभ्यास करने से मन चंचलता को त्यागकर शान्त रहने लगता है। वह विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोता, प्रलोभन में फँसने का कारण उपस्थित रहने से भी उसके मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह विषम परिस्थितियों में भी प्रशान्त-चित्त (tranquil) और स्थिरमन वाला बना रहता है ! [ " विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि ते एव धीराः"अर्थात विकार का कारण (temptation, लालच में फंस जाने का कारण) उपस्थित होने पर भी जिसके मन में कोई विकार या प्रलोभन उत्पन्न नहीं होता हो, वे ही धीर पुरुष हैं।]
हमें अपनी रूचि और रुझान के अनुसार सहज भाव से किसी मार्ग (प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग की पात्रता के अनुसार) पर चलना चाहिए। 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' को समझने और प्रशिक्षित-शिक्षक बनने के लिए, पहले हमें इन दो आश्चर्यजनक शिक्षकों ( Two - Stunning teachers या Wonderful teachers) के जीवन एवं शिक्षाओं को 'अध्यन तथा अनुध्यान' (অনুধ্যান -rumination,रूमिनैशन,) जुगाली करना जैसे गाय खाना खाने के बाद उसको पचाने के लिए जुगाली करती है, उसी प्रकार हमें भी उनके उच्च भावों को आत्मसात करने का प्रयास करना होगा।
(Dedicated Workers):
(Diffusion of the Idea):
इसके वास्तविक अंग
(activities):
Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.
6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row,
KOLKATA,
INDIA-700 009
Phone : (033) 2350-6898, 2352-4714
E.mail-abvymcityoffice@gmail.com
Website: www.abvym.org
संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
भावार्थ :
तुमलोग संघबद्ध हो जाओ, एक लय में बोलो , अपने मानस समूह (विचारों) को समान रूप से जानो ।
पुवर्ती देवता लोग [preceding- come before (something) in time] जिस प्रकार हवि को समान रूप से बाँटकर ग्रहण करते थे, उसी प्रकार परस्पर की अवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए (धन आदि) ग्रहण करो !
उन लोगों के लिए प्रशस्ति (glorification-गुणकीर्तन , महिमागान) एक समान है, उनलोगों की सिद्धि (attainment-लाभ, उपलब्धि) एक समान है, उनके अन्तःकरण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) एक समान हैं, उसी प्रकार तुम्हारे विवेकज-ज्ञान एक ही विषय मे एकीकृत हों ! हे देवगण, मैं भी तुम (सबों के) एकीकृत मन्त्र को मानो घनीभूत (consolidate) करते हुए अपना सुधार करता रहूँ; तुम सबों के सामान्य चित्र के समक्ष आहुति प्रदान करता हूँ।
जैसे आपके संकल्प एक समान हैं, आपके हृदय-समूह एक समान हैं, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण समूह भी एक समान हो जाएँ। जो करने से हम सबों में परम एकत्व-बोध स्थापित होता है, वैसा ही हो !
हिन्दी अनुवाद
एक साथ चलेंगे ,एक बात बोलेंगे ।
हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।
देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।।
याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो।
हमारे विचार में सब जीव एक हों।
एक्य विचार के मन्त्र को गा कर।
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे।।
हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान।
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे।।
एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे.......
'मतैक्य देवता' की उपासना करने के लिए पहले हमें भी साम्यभाव में प्रतिष्ठित होना होगा: साम्य भाव में स्थित होने की कल्पना करते ही, हमें इस प्रकार की समस्त क्षुद्रताओं को विसर्जित कर देना होगा, समस्त स्वार्थों की बली चढ़ा देनी होगी ; तभी हमलोग इस सर्वव्यापी विराट साम्यभाव को प्राप्त कर सकेंगे। गीता 5:19 में कहा गया है - इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। तात्पर्य यह है कि इस शरीर में रहते हुए ही अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। मृत्यु के भय पर सदा के लिए विजय प्राप्त किया जा सकता है। पर उसे केवल वे ही प्राप्त कर सकते हैं, जिनका मन साम्य में अवस्थित हो चुका है। अतः यदि मन में कभी यह प्रश्न उठे कि इस लोक में अमर कौन है ? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा कि 'ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत का (आत्मा का अहं का नहीं) अनुभव' करके जिन्होंने साम्यभाव को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने अपने समस्त स्वार्थों को विसर्जित कर दिया है। गीता में वर्णित इस साम्यभाव को हमें स्वयं प्राप्त करना होगा, और फिर इसी महान उपदेश को समस्त युवकों के समक्ष पहुँचा देना होगा। यही महामण्डल आंदोलन के वुड बी लीडर्स या भावी नेताओं/ आध्यात्मिक शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द के द्वारा सौंपा गया कार्य है। अतः हमारे सामने यही महान उद्देश्य है।
शायद इसी गलतफहमी से बचने के लिए कहना पड़ा था कि स्वामी विवेकानन्द के जीवन तथा शिक्षाओं में, जो "मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी विचार" (मैन विथ कैपिटल 'एम'-'Man making and character building ideas) सन्निहित हैं,उन्हें युवावर्ग के सम्मुख प्रस्तुत कर देना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है। ' मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी विचारों' शिक्षाओं को युवाओं के मन में प्रविष्ट करा देना ही महामण्डल का उद्देश्य है।]
[ महमामण्डल का प्रतीक-चिन्ह: (एम्ब्लेम) में जो वृत्त (गोलाई) है, वह पृथ्वी का प्रतीक है, पृथ्वी के भीतर कन्याकुमारी से प्रारम्भ होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है। भारतवर्ष के भीतर युवा महामण्डल के आदर्श परिब्राजक स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं ! उस गोलाई के नीचे हमारा आदर्श वाक्य (मोटो) लिखा है ' Be and Make ';यह महावक्य भी स्वामी जी का दिया हुआ निर्देश है। इसका साधारण अर्थ है - स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो! किन्तु स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित यह महावाक्य भी वेदों में कथित चार महावाक्यों के समान ही अत्यन्त सारगर्भित है! जैसे वेदान्त के चार महावाक्य -"अहंब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" इत्यादि के बड़े गहरे अर्थ होते हैं, ठीक वैसे ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित इस महावाक्य "बनो और बनाओ" का भी बहुत गहरा अर्थ है। "BE AND MAKE " का गहरा महत्व यह है कि हमलोग केवल साढ़े-तीन हाथ के शरीर मात्र ही नहीं हैं।विवेकानन्द के गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " जिस प्रकार पानी जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार निराकार, अखण्ड, सच्चिदानन्द 'ब्रह्म' ही साकार रूप धारण कर लेता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है, और पानी में ही मिल जाती है; वैसे ही ईश्वर का साकार रूप भी निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, उसी में अवस्थित रहता है तथा उसी में विलीन हो जाता है।" (अमृतवाणी/साकार और निराकार/२३०) उसी प्रकार हमारे तीन कम्पोनेंट्स हैं - शरीर, मन और हृदय। शरीर स्थूल होता है, इसलिये हमलोग उसको देख पाते हैं, मन अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है इसलिये उसको देख नहीं पाते, किन्तु अनुभव करते हैं कि मेरा मन है। और हृदय, हार्ट (Heart) हम लोग बोलते हैं; यह उससे भी सूक्ष्म वस्तु है- वास्तव में वो आत्मा है। लेकिन अभी हमलोग उसको समझ नहीं पायेंगे; इसीलिये स्वामी जी उसको हार्ट बोले। क्योंकि आत्मस्वरूप को अनुभव करने या फील करने की शक्ति हृदय में होती है। अतः हृदय को विकसित करने की शिक्षा प्राप्त करने से आत्मविश्वास आता है। और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जागृत हो जाता है!
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