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शनिवार, 7 दिसंबर 2019

" समस्त दुःखों के निवृत्ति का एकमात्र साधन योग "

" समस्त दुःखों के निवृत्ति का एकमात्र साधन: विवेक-दर्शन का अभ्यास "
स्वामी विवेकानन्द जी कोई ज्योतिषी तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने जो भी भविष्यवाणी की थी वे सभी सच साबित हुए हैं। वास्तव में वे एक ऋषि (visionary-Seer भविष्यद्रष्टा या पैगम्बर) थे, भविष्य में होने वाली घटनाओं को भी अपनी आँखों के समक्ष बिल्कुल घटित होते हुए सा देखने में समर्थ थे। उन्होंने 1897 में ही भविष्यवाणी करते हुए कहा था - आगामी 50 वर्षों के भीतर असाधारण परिस्थितियों में भारत को अवश्य स्वतन्त्र हो जाना चाहिये। ( आश्चर्य की बात तो यह है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म भी 23 जनवरी, 1987 को ही हुआ। ) उस समय तक गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे और किसी ने भी असहयोग आंदोलन के बारे में सोचा तक नहीं था।  किन्तु उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और ठीक 50 साल बाद 1947 में हमें स्वतंत्रता मिली। 
उनके द्वारा कही गई कई अन्य बातें भी बाद में बिल्कुल सच निकलीं। 1893 में,  हार्वर्ड विश्वविद्यालय, यूएसए के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट के घर पर उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद;  चीन की तरफ से भारत पर एक बड़ा हमला होगा। और 1962 में उनकी यह भविष्यवाणी भी सच साबित हुई। 
स्वामी विवेकानन्द ने यह  भविष्यवाणी भी की थी कि पहला सर्वहारा किसान -मजदूर वर्ग का आंदोलन ( proletariat movement) रूस या चीन से आएगा। जबकि स्वयं कार्ल मार्क्स का विचार था कि ऐसा पहला आंदोलन जर्मनी से आएगा क्योंकि तब वहाँ कुछ संगठित मजदूर यूनियन बन चुके थे, और रूस में कोई संगठित श्रमिक वर्ग नहीं था। तब भी स्वामीजी की भविष्यवाणी सच साबित हुई। इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि स्वामी जी ने जो भी भविष्यवाणी की थी, वह सब सच साबित हुई हैं। 
लेकिन एक भविष्यवाणी का अभी भी सच साबित होना शेष है। स्वामी जी ने 1897 में अपने मद्रास वक्तृता में भविष्यवाणी करते हुए कहा था, जिसकी सराहना करते हम नहीं थकते , वह है - " भारत अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करेगा। भारत को ईश्वर के द्वारा सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने की विशेष भूमिका प्रदत्त हुई है। और उसे विश्वगुरु की भूनिका निभानी ही होगी। भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ ब्राह्मण में रूपान्तरित हो जाएँगी। " 5/186 ] " भारत ही वह भूमि है , जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म और आध्यात्मिक संस्कृति ने सम्पूर्ण विश्व को बार -बार आप्लावित कर दिया था, और यही वह भूमि है , जहाँ से पुनः ऐसी ही तरंगे उठेंगी और विश्व के निस्तेज मनुष्यों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। " 5.179/  उनकी यह भविष्यवाणी अभी सच सिद्ध होना शेष है।
 एक बार किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से इस सम्बन्ध में पूछा भी था, कि आप तो एक संन्यासी हैं, इस नाते आपको तो राष्ट्रीयता से ऊपर उठ जाना चाहिए था, फिर आप भारत की इतनी प्रसंशा क्यों करते हैं, देशभक्ति की बातें क्यों करते हैं? इस पर स्वामी जी ने उत्तर दिया कि उनके लिए वैसे तो सभी राष्ट्र बिल्कुल एक समान प्रिय हैं, लेकिन दुनिया को भौतिकवादी संस्कृति ( materialistic culture) के जबड़े से बाहर निकालना भारत का विशेष दायित्व है। इसलिए जब तक खुद भारत को ही भौतिवादी संस्कृति के जबड़े में फँसने से नहीं बचा लिया  जाता, तब तक वह अपने महान आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार द्वारा पूरे विश्व को भौतिकवादी संस्कृति से बचाने में अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन कैसे कर सकता है ? इसलिए धीरे धीरे यह भविष्यवाणी भी सत्य होने की दिशा में आगे बढ़ रही है।  
आज दुनियां भर में चारित्रिक गुणवत्ता एवं  मानव मूल्यों का ह्रास देखा जा रहा है । तनावपूर्ण परिस्थितियां हर मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को क्षीण कर रही है। यदि इन समस्याओं का निदान नहीं किया गया तो निस्संदेह मानवता को घोर संकट से गुजरना पड़ेगा। यदि योग का सजगता और निष्ठा से पालन किया जाए तो न केवल अपनी मनोदशा, बल्कि अपने आसपास का वातावरण का भी रूपातंरित हो सकता है। 
योग के अंतरराष्ट्रीय दिवस को विश्व योग दिवस भी कहते है। संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने  योग-विद्या के प्रति सम्मान निवेदित करने के उद्देश्य से 11 दिसंबर 2014 को प्रस्ताव पारित कर 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया था। आचार्य-पम्परा में आधारित 'पतंजलि योग विद्या' (मनःसंयोग के प्रशिक्षण पद्धति को) अब विश्व के 177 देशों द्वारा अपनाया जा रहा है। बिहार के मुंगेर शहर में 19 जनवरी, 1964 को बसंत पंचमी के दिन  'बिहार योग विद्यालय' की स्थापना के समय स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने  भी कहा था- योग एक दिन परमशक्तिशाली विश्व संस्कृति के रूप में प्रकट होगा। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित होने से उनका यह कथन सच हुआ है। आज सम्पूर्ण विश्व  योग, ध्यान, के माध्यम से मानसिक परिवर्तन या समाधि की अवस्था (परमानन्द की अवस्था) को समझने के लिए भारतीय आध्यात्मिकता की ओर मुड़ने लगी है। भारतीय संस्कृति में निहित पतंजलि योग विद्या की आचार्य-परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए, 19 जनवरी, 1983 में बसंत पंचमी के दिन ही उन्होंने ' बिहार योग विद्यालय' की अध्यक्षता (चपरास) स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को सौंप दी थी ।
 विश्व भर में पतंजलि योग विद्या  का अलख जला रहे 'बिहार योग विद्यालय' मुंगेर के परमाचार्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का मानना है कि, "मनुष्य का संबध उसकी श्रद्धा, आस्था और विश्वास के माध्यम से किसी परम तत्व (आत्मा या ब्रह्म) के साथ भी जुड़ा हुआ है, जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। वर्तमान युग में अपनी श्रद्धाभक्ति को सुरक्षित रखना और उसे एक दिशा प्रदान करना, यह जीवन की आवश्यकता है। हमारी प्राचीन भरतीय संस्कृति की यही शिक्षा है। संसार में किसी को यदि आध्यात्म की शिक्षा चाहिए तो वह फ्रांस, चीन, रूस, अमेरिका या जापान नहीं जाता, वह भारत की ओर आता है।"
 परमाचार्य निरंजनानन्द सरस्वती के मुताबिक, टीवी पर योग-प्राणायाम की सीख देना खुद का विज्ञापन है। इस तरीके से योग सीखा-सिखाया नहीं जा सकता। इसके लिए माहौल, अनुशासन और निरंतर अभ्यास की जरूरत होती है।
 जिस तरह छात्र नर्सरी से क्रमश: पढ़ाई करते हुए कॉलेज स्तर तक पहुंचता है, ठीक उसी तरह योग साधना का क्रम तय है।  योग साधना का लाभ तभी मिलता है, जब इसे विधिवत किया जाए।  विद्यार्थी जब तक बेसिक ज्ञान नहीं पा लेता, वह आगे नहीं सीख सकता। योग का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों के व्यक्तित्व के तीनो आयाम (3H) शरीर, मन और हृदय (मानवीय  भावनाओं) को लाभ पहुंचाना है। इसकी अष्टांग प्रक्रियाओं को हलके ढंग से नहीं लिया जा सकता।  इस दौर में योग सीखने और सिखाने वालों की बाढ़ सी आ गई है।  कथित योग गुरुओं का कर्तव्य है कि वे यथार्थ के धरातल पर उतरकर साधकों से सीधे रू-ब-रू हों। पूरी ईमानदारी के साथ योग सिखाएं। 
प्रवृतिमार्गी (गृहस्थ या प्रवृत्ति धर्मं का पालन करने वाले) मनुष्‍य योगशास्‍त्र के सूत्रों में कथित यम-नियमादि का अनुष्‍ठान क्यों नहीं कर सकते ? 'कर्म करो' और 'कर्म छोड़ो' ये जो परस्‍पर विरुद्ध दो स्‍पष्‍ट मार्ग हैं, इनका उपदेश करने वाले वेद की प्रमाणिकता का निर्वाह कैसे हो ? जिस-जिस आश्रम में जो-जो धर्म विहित है, वहाँ-वहाँ उसी-उसी धर्म की साधना करनी चाहिये। उस-उस स्‍थान पर उसी-उसी धर्म का आचरण करने से ही सिद्धि का प्रत्‍यक्ष दर्शन होता है।
चारों वर्णों और आश्रमों की जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें लगे हुए मनुष्‍य एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसे ही प्राप्‍त करना चाहते हैं।- उसी को अपना लक्ष्‍य बनाकर चलते हैं, अत: सिद्धान्‍तत: अक्षय सुख क्‍या है, यह बताइये।  (जब एकमात्र अद्वितीय आत्‍मा अर्थात् ब्रह्म की ही सत्‍ता का सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्‍मता का ज्ञान कहते हैं)।
महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे मनोवैज्ञानिक हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है।  पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादों या भागों में विभक्त है । 
योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य- वस्तु या लक्ष्य ही अपने यथार्थ स्वरुप से योग हो जाना है। इसी कारण वह पहले समाधि-पाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है । साधनपाद में पंच-क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है । विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के 8 अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है, और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आगदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है । कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष (भेँड़त्व के भ्रम से मुक्ति-d-hypnotized अवस्थाका विवेचन किया गया है । जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य का भागी होता है । [परम सत्य को जानने वाला अमर आनन्द का भागीदार होता है।]   
समाधिपाद के तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं-  " तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्'' चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। तब उसको अपने वास्तविक स्वरूप का विशेष ज्ञान और ईश्वर (ब्रह्म) के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान होता है। और तब साधक- सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है। यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था- 'नाही सूर्य नाही ज्योति ' ... सूर्य भी नहीं है, ज्योति- सुन्दर शशांक नहीं, छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है। मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ, अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। धीरे- धीरे छायादल लय में समाया जब, धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है। बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य, ‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है। मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी में स्थित होकर साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है।
 उपरोक्त सभी कथन में दुःख से निवृत्ति पाने हेतु योग करने का ( अर्थात 5 अभ्यास करने का) ही संकेत किया है। इससे स्पष्ट है कि जब तक हम योगाभ्यास नहीं करेंगे तब तक हम समस्त दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकेंगे।  महर्षि पतञ्जलि साधनपाद 15 में लिखते हैं, "दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ॥" अर्थात् 'विवेक-दर्शन का अभ्यास करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति = विवेकिनः' की दृष्टि में चारों ओर 'कामिनी-कांचन ' में आसक्ति के कारण दुःख ही दुःख दिखाई देता है।" यदि आप इस दुःखरुपी सागर से निकलना चाहते हैं तो आज से ही नित्य योगाभ्यास करना आरम्भ कर दें एवं नित्यानन्द अर्थात् मोक्ष को अपना लक्ष्य बना लें। 
(M/F) प्रेम में एक हो जाने की चाह, विपरीत शारीरिक  निकटता से पूरी नहीं होती। हर कोई प्रेम में दूसरे व्यक्ति  (M/F) के साथ विलय हो जाना चाहता है जो शरीर में संभव नहीं है। इससे हताशा ही हाथ लगती है। अधिकतर पुरुष अगले जन्म में महिला का शरीर लेते हैं और महिला पुरुष का जन्म लेती हैं। यह उत्कट इच्छा और तृष्णा का ही प्रभाव होता है। मन में यह प्रभाव और भी अधिक होता है, इसीलिए तुम हर एक पुरुष में महिला और हर एक महिला में पुरुष खोज पाओगे। ऐसा भूतकाल में मन पर पड़ी छापों के कारण होता है। इसीलिए गीता 5 /22 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -
 ' ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।'  
हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग (सुख)  हैं वे दुख के ही हेतु हैं क्योंकि वे आदिअन्त वाले हैं।  इसीलिए विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
{ विवेकशील मनुष्य = " Be and Make Leadership training tradition" में प्रशिक्षित बुद्धिमान व्यक्ति / शिक्षक /नेता 'C-in-C'/ या विवेक-दर्शन का अभ्यास करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति जो  'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में विवेकदर्शन का अभ्यास करने की पद्धति में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक है; या जिसे विवेकानन्द ने स्वयं पकड़ लिया, जो विवेकानन्द का सैनिक है, जो योगज सत्य ज्ञान में नित्य जागृत है, वह कभी  इन्द्रिय तथा विषयों से होने वाले क्षणभंगुर भोगों में रमण नहीं करता, क्योंकि वह शिक्षक इस सबको दुःख जैसे ही देखते हैं।}   
भक्तियोग की दृष्टि से सब संसार भगवान्‌का स्वरूप है और ज्ञानयोग की दृष्टिसे संसार असत्, जड तथा दुःखरूप है ।  विवेकी पुरुष संसारको दुःखरूप मानकर उसका त्याग करता है–‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’ (योगदर्शन २/१५)। इसलिए ज्ञान की दृष्टि से (निवृत्ति मार्गी सन्यासियों को कामिनी-कांचन का पूर्ण त्याग करना है) संसार का त्याग करना है, और भक्ति की दृष्टि से प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों को अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए (कामिनी -कांचन में घोर आसक्ति)  का त्याग करना है और  सबको भगवत्स्वरूप मानकर प्रणाम करना है । भागवतमें आया है–प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्चचाण्डालगोखरम् ॥(श्रीमद्भागवत ११/२९/१६) ‘अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवाह न करे, प्रत्युत अपने शरीरको लेकर जो लज्जा आती है, उसको भी छोड़कर कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर लम्बा गिरकर साष्टांग प्रणाम करे ।’ विवेकी भक्त कुत्ते, चाण्डाल आदिको प्रणाम नहीं करता, प्रत्युत उन रूपों में आये भगवान्‌ को प्रणाम करता है। 
वैदिक सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जड़ एवं भौतिक पदार्थ की आत्मा होती है वही उसका देवता है। इसी सिद्धांत के तहत 'अहम ब्रह्मास्मि' की घोषणा की गई है।  वैज्ञानिक शोधों से स्पष्ट हो चुका है कि पूरा ब्रह्माण्ड एक ही मूल तत्व से बना है। पहले न्यूट्रान, इलेक्ट्रान और प्रोटोन और अब गॉड पार्टीकल की खोज इसी सिद्धांत को स्थापित करता है। लगातार शोधों से यह स्पष्ट हुआ है कि जड़-चेतन आदि किसी पवित्र वस्तु या व्यक्ति के प्रति भी श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव न सिर्फ उस वस्तु को हमारे प्रति सकारात्मक बनाता है, बल्कि हमारे अंदर निहित सकारात्मक ऊर्जा को और शक्तिशाली बनाकर हमें प्रकृति की ताकतों के अधिक से अधिक दोहन की क्षमता देता है। 
 ऋग्वेद के पहले पहले अनुवाक के पहले सूक्त के ऋषि- मधुच्छन्दा विश्वामित्र, देवता-अग्नि एवं छंद-गायत्री हैं—ऊं अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।। 1।। अग्नि:  पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो  नूतनैरुत। स  देवां  एह  वक्षति।।2।।  अग्रणी प्रकाशित, यज्ञकर्ता, देवदूत, सत्यमुक्त अग्नि का स्तवन करता हूं। पूर्वकाल में जिनकी उपासना पुरातन ऋषियों ने की थी तथा अब भी नूतन ऋषिगण जिनकी स्तुति करते हैं, उन अग्नि देवगण को यज्ञ में बुलाता हूं। उपरोक्त दोनों प्रार्थनाएं हमारे जीवन में अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अग्नि के लिए है। यह प्रार्थना एक तरह से अग्नि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है।
जब आप किसी पवित्र वस्तु,,व्यक्ति या प्रकृति को यदि सीधे श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करते हैं, या कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं, तो हमारी वह प्रार्थना  प्रकृति के खास फ्रीक्वेंसी के माध्यम से न सिर्फ संबंधित व्यक्ति, या श्रद्धा के पात्र ईश्वर तक पहुँचती है, बल्कि आपकी प्रार्थना पूर्ण भी होती है। उसी प्रकार जब हम किसी व्यक्ति के प्रति घृणा या द्वेष के रूप में कोई संदेश देते हैं तो वह प्रकृति के खास फ्रीक्वेंसी के माध्यम से न सिर्फ संबंधित व्यक्ति, वस्तु या प्रकृति के खास बिन्दु तक पहुंचता है, बल्कि वहां से कई गुना वृद्धि होकर पुनः आपकी ओर वापस लौटता है।
 करो योग रहो निरोग : संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं; और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है । महर्षि पतंजलि ने इन सवसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है; और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।  इस अविद्या एवं दुःख से छूटने का एकमात्र साधन वेदोपदेश एवं ऋषियों द्वारा दिया अद्वितीय ज्ञान 'योग' है। जिससे प्रत्येक व्यक्ति समस्त दुःखों से छूटकर नित्यानन्द को प्राप्त करना चाहता है, वह योग है। 
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: (यह योगदर्शन का सूत्र है) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध अर्थात् योग है।  'योग' - अर्थात मनःसंयोग  का अभ्यास  ( चित्तवृत्ति निरोध या ध्यान) की उत्पत्ति प्राचीन समय में भारत में ही हुयी थी।   चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वे इस प्रकार हैं— अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि । यह भी कहा गया है कि जो लोग योग (मनःसंयोग- प्रत्याहार और धारणा) का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें विभूति या सिद्धि कहते हैं । 
भारत में  लगभग 5,000 हजार वर्ष पुरानी 'ऋषि पतंजलि आचार्य परम्परा ' में अष्टांग योग द्वारा  मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव - शरीर, मन और आत्मा की शक्ति को विकसित करने की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी  पद्धति का पालन होता चला आ रहा है। 
जिस प्रकार माता अपने पुत्र की रक्षा करती हैं उसी प्रकार योग सुख की रक्षा करता है अर्थात् दुःख से निवृत्ति दिलाता है। वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। -यजु० ३१/१८ भावार्थः- यदि मनुष्य इस लोक-परलोक के सुखों की इच्छा करें तो सबसे अति बड़े स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश से भी पृथक् विद्यमान परमात्मा को जान कर के ही मृत्यु के भय से और अथाह दुःखसागर से पृथक् हो सकते हैं, यही सुखदायी मार्ग है, इससे भिन्न कोई भी मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग नहीं।
अष्टांग योग : योग में प्रवेश करने वालों के लिए यम और नियम ऐसे आवश्यक अंग हैं, जैसे किसी मकान के लिए उसकी नींव होती है। यम पांच होते हैं,-सत्य, अहिंसा , ब्रह्मचर्य , आस्तेय और अपरिग्रह; जिनको समाज कल्याण से संबंधित होने के कारण हमलोग ‘सामाजिक धर्म’ कह सकते हैंनियम - शौच, सन्तोष, तपः , स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधानम - भी पांच हैं। चूंकि यह व्यक्ति से संबंध रखते है, अत: इन्हें हम ‘वैयक्तिक धर्म’ कहेंगे। वास्तव में योगाभ्यास का आरम्भ ‘आसन’ से होता है, जो योग का तीसरा अंग हैं। आसन का सम्बन्ध अन्नमय-कोष से होता है। आसन करने से अन्नमय-कोश (स्थूल शरीर) सुन्दर और स्वस्थ बनता है। शरीर निरोगी और तेजस्वी बनता है।
4.'प्राणायाम' का प्राणमय-कोश (सूक्ष्म शरीर) से संबंध है। प्राणायाम करने से प्राणमय-कोष  की वृद्धि होती है और प्राण शुद्धि होती है। किन्तु स्वामी जी ने कहा है, कि प्राणायाम का अभ्यास किसी योग्य गुरु के सानिध्य और मार्गदर्शन में ही करना चाहिए, नहीं तो दिमाग बिगड़ जाने की सम्भावना रहती है। अतः विद्यार्थियों को मानसिक एकाग्रता पद्धति या मनःसंयोग का अभ्यास करते समय प्राणायाम नहीं करने की सलाह दी जाती है। केवल गहरी साँस लेना और छोड़ना ही पर्याप्त होगा। (अतः केवल कपालभाति और अनुलोम-विलोम नाड़ी शोधन प्राणायाम करना ही यथेष्ट है।
महामण्डल में शारीरिक योग-व्यायाम के प्रशिक्षक -आचार्य श्री स्वप्न दास से नाड़ी -शोधन प्राणायाम की पद्धति सीखी जा सकती है। गुरु के सान्निध्य में जब शिष्य योगाभ्यास करता है तो ध्यान के दौरान होने वाले अनुभवों के विषय में गुरु से विचार विमर्श करके वह अपनी साधना को आगे बढाता है और सफलतापूर्वक समाधि तक पहुँच जाता है। 
परन्तु जो साधक बिना गुरु के या ईश्वर को ही अपना गुरु मानकर अपनी साधना कर रहे हैं, उन्हें इन दिव्य अनुभवों के विषय में प्रमाण कम मिलता है या नहीं मिलता है। जिसके कारण वे मृत्यु भय से घबड़ाकर साधना का मार्ग छोड़ देते हैं।
 दो शरीरों का अनुभव होना :-  कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं।  ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है। उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है। एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है। सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही सूक्ष्म स्वरुप का स्वरुप है। 
तीसरा शरीर कारण शरीर (Causal Body)  है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं।  मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं।
 विज्ञान की भाषा में इसे हम 'क्वांटम सुपरपोजिशन' (quantum superposition) की घटना से तुलना करके समझ सकते हैं।  क्वांटम भौतिकी के अनुसार विशाल अणु (Giant molecules) एक साथ दो स्थानों पर हो सकते हैं। भौतिक विज्ञानी  इस घटना को  "क्वांटम सुपरपोजिशन" कहते हैं। और दशकों से, उन्होंने छोटे कणों का उपयोग करके इस घटना को प्रदर्शित भी किया है।वैज्ञानिक जिसको दीर्घकाल से सैद्धांतिक रूप में सच मान रहे थे, वे कुछ व्यावहारिक तथ्यों पर आधारित हैं। ब्रह्मांड में अवस्थित प्रत्येक कण या कणों का समूह, यहां तक कि बड़े कण, यहां तक कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म बैक्टीरिया, यहां तक कि मनुष्य, यहां तक कि ग्रह और सितारे भी भी एक तरंग ही है। और हम जानते है कि अंतरिक्ष (space) में तरंगें एक साथ कई स्थानों पर प्रवेश करती हैं। इसलिए पदार्थ का कोई भी टुकड़ा एक ही साथ दो स्थानों पर दृष्टिगोचर हो सकता है। {Giant Molecules Exist in Two Places at Once in Unprecedented Quantum Experiment . So any chunk of matter can also occupy two places at once.The new study demonstrates a bizarre quantum effect at never-before-seen scales .By Rafi Letzter, SPACE.com on October 8, 2019 } 
उसी प्रकार आचार्य-परम्परा में निर्देशित साधना के क्रम में अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता है। कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया।  मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। 
 ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु उस समय यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। किन्तु आचार्य-परम्परा में "स्थूल शरीर मैं ही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण (नाम-जप) करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है। सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या नीले -बैगनी रंग की दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है।  यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है।
{ नाड़ी शोधन प्राणायाम क्या है?  इस प्रक्रिया को अनुलोम- विलोम प्राणायाम (Anulom Vilom) के रूप में भी जाना जाता है। यह संचित तनाव और थकान को दूर करने में मदद करता है। इस प्राणायाम को हर उम्र के लोग कर सकते हैं। हर दिन बस कुछ ही मिनटों के लिए यह अभ्यास मन को स्थिर, खुश और शांत रखने में मदद करता है।
 'अनुलोम- विलोम' और कपालभाति नाड़ी शोधन प्राणायाम' करने की प्रक्रिया:अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा और कंधों को ढीला छोडकर आराम से बैठे। या अर्ध -पद्मासन में बैठें। एक कोमल मुस्कान अपने चेहरे पर रखें।साँस पर जोर न दें और साँस की गति सरल और सहज रखें। मुँह से साँस नहीं लेना है या साँस लेते समय किसी भी प्रकार की ध्वनि ना निकाले। 
नाड़ी शोधन प्राणायाम साँस लेने की एक ऐसी प्रक्रिया है जो इन ऊर्जा चैनलों को साफ करने में मदद करती है और इस प्रकार मन शांत होता है। नाड़ी = सूक्ष्म ऊर्जा चैनल; शोधन =सफाई, शुद्धि; प्राणायाम =साँस लेने की प्रक्रिया। नाड़ियाँ मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा चैनल है जो विभिन्न कारणों से बंद हो सकती है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ, मानव शरीर की सबसे महत्वपूर्ण नाड़ियाँ हैं।} 
5.'प्रत्याहार' -जो योग का पाँचवाँ अंग है, उसका सम्बन्ध मनुष्य के मनोमय-कोष (कर्मेन्द्रियों) से होता है। इससे इन्द्रियों का निग्रह होता है। मन निर्विकारी और स्वच्छ बनता है और उसका विकास होता है। 
6 .'धारणा' का सम्बन्ध मनुष्य के विज्ञानमय-कोष (ज्ञानेन्द्रियों) से होता है। इससे बुद्धि का शुद्धिकरण और विकास होता है।  शास्त्र-सम्मत विवेक-दर्शन का अभ्यास अर्थात विवेक-वैराग्यपूर्वक अभ्यास करने से साधक की बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है और उसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मतत्त्व को ग्रहण करने की (अनुभव करने की) योग्यता अनायास ही प्राप्त हो जाती है। 
प्रतिदिन दो बार प्रत्याहार और धारणा का विधिवत अभ्यास करने से  जब मन के समस्त द्वंद्व शांत हो जाते हैं विषय भोगों में आसक्ति, कामना और ममता (यह मेरा है, यह तेरा है) का अभाव हो जाने पर मन एकाग्र हो जाता है। उसके मन के सरे अवगुण नष्ट हो जाते हैं और सारे सद्गुण उत्पन्न हो जाते हैं। उसके मन में यह दृढ निश्चय हो जाता है कि संसार के सरे पदार्थ माया का कार्य होने से अनित्य हैं अर्थात वे हैं ही नहीं और एकमात्र परमात्मा ही सर्वत्र समभाव से परिपूर्ण है।   
7.'ध्यान' का अर्थ है ध्येय विषय में मन का तैलधारवत - एकतार चलना। योग के सन्दर्भ में हमारा ध्येय विषय ईश्वर (स्वामी विवेकानन्द, ठाकुर -माँ) है, अतः ईश्वर के बारे में बार-बार सोचने पर मन का ईश्वर में ही एकतार चलना, अन्य कोई भी विचार मन में उत्पन्न नहीं होना ही ध्यान है।  सब कार्य करते हुए भी उसे यह अनुभव होता रहता है कि "यह काम मैं नहीं कर रहा हूँ. मैं शारीर से पृथक कोई और हूँ। " इस प्रकार उसके मन में कर्तापन का अभाव हो जाता है। परमत्मा के स्वरुप में ही इस प्रकार जब गाढ़ स्थिति बनी रहती है, जिसके कारन कभी-कभी तो शरीर और संसार का विस्मरण हो जाता है और एक अपूर्व आनंद का सा अनुभव होता है तो इसे ही ध्यान कहते हैं।  
8.'समाधि' का सम्बन्ध मनुष्य के आनन्दमय कोश (प्रसन्नता, प्रेम, अधिक तथा कम आनन्द) से होता है। इससे आनन्द की प्राप्ति होती है। यह नियम है कि जिस-जिस वास्तु का बारम्बार स्मरण किया जाता है उसमें मन एकतार चलता ही है और उसी-उसी वस्तु का अनुभव होता ही है। इसलिए इश्वर का बारम्बार स्मरण करने पर ईश्वर में ही मन एकतार चलने लगता है जिसे ध्यान कहते हैं। आर लम्बे समय तक ध्यान करने से उस ईश्वर का अनुभव समाधि के द्वारा अवश्य ही होता है। 
योग मुख्यतः एक जीवन पद्धति है, जिसे पतंजलि ने क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया था। इसमें यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि आठ अंग है। योग के इन अंगों के अभ्यास से सामाजिक तथा व्यक्तिगत आचरण में सुधार आता है, शरीर में ऑक्सीजन युक्त रक्त के भली-भॉति संचार होने से शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है, इंद्रियां संयमित होती है तथा मन को शांति एवं पवित्रता मिलती है। योग के अभ्यास से मनोदैहिक विकारों/व्याधियों की रोकथाम, शरीर में प्रतिरोधक शक्ति की बढोतरी तथा तनावपूर्ण परिस्थितियों में सहनशक्ति की क्षमता आती है। 
शक्तिपात :-हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है  साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है। वह आनंद वर्णनातीत होता है। इसे शक्तिपात कहते है। इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं.यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे। 
जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं। अचानक साधू पुरुषों का मिलना, या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना।  व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना।  यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है।  
वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है।  परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाता।  किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा। 
साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है,  तो उस समय हम संसार (दृश्य) व शरीर को पूरी तरह भूल जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं। ) सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबड़ा जाता है। 
 क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने जो अनुभव किया वह अनुभव - व्यष्टि अहं को हुआ या आत्मा को, उसने यह क्या देखा है? वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं ! यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें।  यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है। वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है, इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है।  इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है।  और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है। 
इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, करता रहे-- और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे। साथ ही इस समय उसे सद्गुरु के मुख से 'तत्त्वज्ञान' की भी आवश्यकता होती है,  जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ। इसके लिए योग-वशिष्ठ महारामायण (या सनत् -सुजातिय संवाद) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें।  उमें बताई गई युक्तियों " जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही  मिट्टी का हाथी और मिट्टी का चूहा-मिट्टी के बर्तन है, ठीक उसी प्रकार ' ईश्वर ही यह जगत है" का परम सत्य का बारम्बार चिंतन करता रहे।  तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है, सारा संसार ईश्वर का रूप  प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है। चलते-फिरते उठते बैठते यह महसूस होना कि सब कुछ मोम की तरह रुका हुआ है, शांत है, "मैं नहीं चल रहा हूँ, यह शरीर चल रहा है", यह सब आत्मबोध के लक्षण हैं यानि परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर यह अनुभव होता है। 
 अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों (स्त्री/पुरुषों) के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्या कर रहा है  उस आभास का सही निकलना, यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त को जोड़ देने पर होता है।  यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला है इसलिए इससे बचना चाहिए।  दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें।  अपनी साधना की और ध्यान दें। इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बढ़ती है। 
ईश्वर (माँ जगदम्बा) के सगुण रूप की साधना करने वाले साधानकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है।  परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर (माँ सारदा ही दूसरे रूप में आयीं थीं ?) के दर्शन किये हैं।  वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं।  ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है। ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं।   ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है।  यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें।  इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।  साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए।  वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते हैं।[साभार http://www.yogaprinciple.com/}  
सांख्य दर्शन में योग का स्वरूप :  योग  का अर्थ परमतत्व (परमात्मा )को प्राप्त करना है।  इसलिए दर्शनो में भिन्न-भिन्न मार्गो का उल्लेख किया गया है सांख्य दर्शन में पुरूष का उद्देश्य इसी परमतत्व को प्राप्त करना कहा गया है।  तथा परमात्मा प्राप्ति की अवस्था को मोक्ष,मुक्ति,एवं कैवल्य की संज्ञा दी गयी है। जिस प्रकार योग दर्शन में पंचक्लेशो का वर्णन किया गया है तथा अविद्या,अस्मिता,राग,द्वेश व अभिनिवेष नामक इन पॉच क्लेशों को मुक्ति के मार्ग में बाधक माना गया है। ठीक उसी प्रकार अज्ञानता (अविद्या)  को सांख्य दर्शन में मुक्ति में बाधक, और ज्ञान को सांख्य दर्शन में मुक्ति का साधन माना गया है।  अज्ञानता के कारण मनुष्य इस प्रकृति के साथ इस प्रकार जुड़ जाता है कि, वह स्वयं में एवं प्रकृति में भेद ना कर पाना ही इसके बंधन का कारण है।  
सृष्टि क्रम : सांख्य दर्शन भी आस्तिक दर्शन ही है, किन्तु इसकी सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है।  कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। 
साख्य दर्शन में सृष्टि क्रम पर प्रकाश डाला गया है,सांख्य दर्शन में वर्णित सृष्टि क्रम को इस प्रकार उल्लेखित किया जा सकता है -साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं- 'महत्' तीन अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, १० इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवां गुण है पुरूष। अर्थात प्रकृति से सर्व प्रथम महत-तत्व अथवा बुद्वि की उत्पत्ति। ततपश्चात अहंकार की उत्पत्ति एवं सात्विक,राजसिक  एवं तामसिक अहंकार के रूप में अहंकारो के तीन भेद करते हुए सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति के क्रम को समझाया गया। इसी से ही ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियो की उत्पत्ति को तथा अहंकार के तामसिक भाग से पचंतन्मात्राओं एवं पचं महाभूतो की उत्पत्ति को समझाया गया है । इस प्रकार 24 तत्वों के साथ 25 वे तत्व के रूप में पुरूष तत्व को समझाया गया है।
पुरूष : सॉख्य दर्शन प्रकृति और पुरूष की स्वतन्त्र सत्ता पर प्रकाश डालता है।  प्रकृति जड़  एवं पुरूष चेतन है । यह प्रकृति सम्पूर्ण  जगत को उत्पन्न करने वाली है।  पुरूष चेतन्य है, परम तत्व, या आत्म-तत्व है।  यह पुरूष समस्त ज्ञान एव अनुभव को प्राप्त करता है।  प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थ जड होने के कारण स्वयं अपना उपभोग नही कर सकते।  इनका उपभोग करने वाला यह पुरूष प्रकृति के पदार्थ इस पुरूष में सुख दुख की उत्पत्ति करते है।  जब इस पुरूष को ये पदार्थ प्राप्त होते है तब यह सुख का अनुभव करता है परन्तु जब ये पदार्थ दूर होते है तब यह पुरूष दुख की अनुभूति करता है।
बंधन एवं मोक्ष : साख्य दर्शन के अनुसार अज्ञानता के कारण पुरूष बंधन में बध जाता है जबकि यह पुरूष ज्ञान के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करता हे बंधक में बधा हुआ पुरूष आध्यात्मिक,आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुखों से ग्रस्त्र रहता है।  मैं और मेरा  भाव से युक्त होकर पुरूष इस बंधन  में फस जाता है।  परन्तु जब पुरूष का विवेक ज्ञान जाग्रत होता है ज्ञानरूपी प्रकाश जब उसका अज्ञानतारूपी अन्धकार समाप्त हो जाता है। इस अवस्था वह विशुद्व चैतन्य (परमात्मा)का स्वरूप ग्रहण करने लगता है इसे ही मुक्ति एवं कैवल्य की संज्ञा दी गयी है साख्य दर्शन उन आध्यात्मिक स्वभाव के ज्ञानी पुरूषों पर भी प्रकाश डालता है जो सदैव इन दुखों से परे रहकर मोक्ष की इच्छा करते है। 
सांख्य दर्शन,  सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक व्याख्या करता है।  सांख्य दर्शन की मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है। सांख्य सूत्रों के प्रथम उपदेष्टा, आचार्य -परंपरा से कपिल मुनि ही माने जाते हैं।  वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं। सांख्य दर्शन में 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्थ में किया गया है, वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर वैसा ही देखने को मिलता  है। प्रकृति से लेकर स्थुल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की संख्या की गणना किये जाने से इसे सांख्य दर्शन कहते है। इसी तरह अव्यक्त, महत, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस आदि शब्द भी सांख्य दर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। षड्दर्शन में सांख्य दर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।
 योग की परिभाषा में दुःख एक प्रकार का चित्तविक्षेप या अंतराय है जिससे समाधि में विध्न पड़ता है । इस संसार में धर्म ,अर्थ, काम एवं मोक्ष नाम से चार पुरूषार्थ प्रसिद्ध हैं इनमें से मोक्ष को ही श्रेष्ठतम कहा हैं। और इसको ही परम पुरुषार्थ कहा हैं।  
सांख्य-दर्शन का मुख्य आधार सत्कार्यवाद है। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत् अहंकार, तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन सांख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास (भ्रम) होना।
इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता (माँ जगदम्बा?) से है ? कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं
प्रकृति-कारण-वाद का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्वों, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् के वैषम्य का किया गया समाधान बड़ा न्याययुक्त तथा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। सत ,रज,  तम गुण के आश्रय भूत ये प्रकृति के गुण ही दुःख हैं इस दुःख निवृत्ति ही पुरुषार्थ हैं। इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। साख्य दर्शन में प्रकृति को त्रिगुण को इन तीन गुणों को सम्मिलित रूप से त्रिगुण की संज्ञा दी गयी है।  सांख्य दर्शन में इन तीन गुणो कों सूक्ष्म तथा अतेन्द्रिय माना गया है।  सॉख्य दर्शन के अनुसार ये तीन गुण एक दूसरे के विरोधी है। सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है तो वही तमो गुण अज्ञानता एवं अंधकार का प्रतीक है रजो गुण दुख का प्रतीक है तो सत्व गुण सुख का प्रतीक है।  परन्तु आपस मे विरोधी होने के उपरान्त भी ये तीनों गुण प्रकृति में एक साथ पाये जाते है।  साख्य दर्शन में इसके लिए तेल बत्ती व दीपक तीनो विभिन्न तत्व होने के उपरान्त भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते है ठीक उसी प्रकार ये तीन गुण आपस मे मिलकर प्रकृति मे बने रहते है। 
 सत्व गुणो का कार्य सुख रजोगुण का कार्य लोभ बताया गया सत्व गुण स्वच्छता एवं ज्ञान का प्रतीक है यह गुण ऊर्ध्वगमन करने वाला है। इसकी प्रबलता से पुरूष में सरलता, प्रीति,श्रदा, सन्तोष एवं विवेक के सुखद भावो की उत्पत्ति होती है। रजोगुण दुख अथवा अशान्ति का प्रतीक है इसकी प्रबलता से पुरूष में मान,मद,द्वेश,तथा क्रोध भाव उत्पन्न होते है। तमोगुण दुख एवं अशान्ति का प्रतीक है यह गुण अधोगमन करने वाला है तथा इसकी प्रबलता से मोह (सम्मोहन) की उत्पत्ति होती है।  इस मोह से पुरूष में निद्वा तन्द्वा प्रसाद,आलस्य,मुर्छा,अकर्मण्यता अर्थवा उदासीनता के भाव उत्पन्न होते है। 
 सांख्य दर्शन का मत है कि यद्यापि पुरूष नित्य मुक्त है अर्थात स्वतन्त्र है। परन्तु वह अज्ञानता के कारण स्वयं को अचेतन प्रकृति ये युक्त समझने लगता है इस कारण वह दु:खी होता है।  तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की समस्याओं से घिरता है बन्धनों से युक्त होता है। किन्तु आगे चलकर जब यह पुरूष ज्ञान प्राप्त करता है,  तब वह अपने स्वरूप को पहचानने में सक्षम होता है।  और अनेक स्वरूप प्रकृति के स्वरूप भिन्न जानने में समर्थ होता है। तभी वह इस बंधन से मुक्त (भ्रम मुक्त या d -hypnotizes) होता है यह (M/F) शरीर में नही हू ! अर्थात में अचेतन विषय नही हू में जड नही हू,मे अन्त: करण नही हू यह मेरा नही है मै अहंकार से रहित हू मैं अहंकार (व्यष्टि अहं) भी नही हॅू ! व्यष्टि अहं के माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो जाने के बाद, जब साधक साधना के माध्यम से 'एकत्व ज्ञान ' (अद्वैत -या इक ज्ञान) की प्राप्ति करता है तब से उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्थ होता है।  तथा इसी के माध्यम सक वह कैवल्य की प्राप्ति करता है।
जड़ प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। प्रकृति की अविकसित (अव्यक्त) अवस्था में यह गुण निष्क्रिय होते है पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ होते ही प्रकृति के तीन गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता है और असाम्यावस्था आरंभ होती है - सृष्टि का प्रारम्भ होता है। रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है। इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है। मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। भूतादि अहंकार को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये(अहंकार) प्रकृति का दूसरा परिणाम है।तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस) रस,गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते है "त्रिगुणात्मिका प्रकृति नित्य परिणामिनी है। उसके तीनों गुण ही सदा कुछ न कुछ परिणाम उत्पन्न करते रहते हैं, पुरुष अकर्ता है" -सांख्य का यह सिद्धांत गीता के निष्काम कर्मयोग का आवश्यक अंग बन गया है (गीता 13/27, 29 आदि)। 
{।।13.27।। क्षेत्रज्ञ और ईश्वर की एकता-विषयक ज्ञान मोक्ष का साधन है। हे भरतश्रेष्ठ, जो कुछ भी  स्थावर-जंगम यानी चर और अचर वस्तु उत्पन्न होती है,  वह सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न होती है। यह संयोग  क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण है।  रज्जु और सीप आदि में उनके स्वरूप सम्बन्धी ज्ञान के अभाव से अध्यारोपित सर्प और चाँदी आदि के संयोग की भाँति है।  ऐसा यह अध्यासस्वरूप क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग मिथ्या ज्ञान है। जो व्यक्ति क्षेत्र (नाम-रूप या शरीर) को माया से रचे हुए हाथी,  स्वप्न में देखी हुई वस्तु या गन्धर्वनगर आदि की भाँति यह वास्तव में नहीं है,  तो भी सत्य की  भाँति प्रतीत होता है।  ऐसे जो व्यक्ति निश्चयपूर्वक जान लेता है, उसका मिथ्याज्ञान उपर्युक्त यथार्थ ज्ञान से विरुद्ध होने के कारण नष्ट हो जाता है। पुनर्जन्म के कारण रूप उस मिथ्याज्ञान का अभाव हो जाने पर 'य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह' इस श्लोकसे जो यह कहा गया है कि विद्वान् पुनः उत्पन्न नहीं होता सो युक्तियुक्त ही है। ।।13.28।।अविद्या जनित क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग को जन्म का कारण बतलाया गया। इसलिये उस अविद्या को निवृत्ति करने वाला पूर्ण ज्ञान है। जैसे कोई तिमिर रोग से दूषित हुई दृष्टि वाला व्यक्ति अनेक चन्द्रमाओं को देखता है,  उसकी अपेक्षा एक चन्द्र देखनेवालेकी यह विशेषता बतलायी जाती है कि वही ठीक देखता है। वैसे ही यहाँ भी जो आत्मा को उपर्युक्त  प्रकार से विभागरहित एक देखता है,  उसकी अलगअलग अनेक आत्मा देखनेवाले विपरीतदर्शियों की अपेक्षा यह विशेषता बतलायी जाती है कि वही ठीकठीक देखता है।।।13.29।। सभी अज्ञानी  "अविद्वान्" - जो ब्रह्मविद नहीं हुए हैं, वे आत्महत्यारे हैं। क्योंकि जो वास्तव में आत्मा है, किन्तु वह भी अविद्या द्वारा ( अविनाशी सत्य-ब्रह्म के अज्ञात होने के कारण ) सदा मारा हुआ सा ही रहता है।  उस ( परमेश्वर ) को सर्वत्र समान भावसे देखनेवाला पुरुष स्वयं -- अपने आप अपनी हिंसा नहीं करता। इसलिये अर्थात् अपनी हिंसा न करनेके कारण वह मोक्षरूप परम उत्तम गतिको प्राप्त होता है।}  
पुरुषज्ञान : योगसूत्र (3/35) में पुरुषज्ञान के लिए जिस संयम का विधान किया गया है, उसका नाम स्वार्थसंयम है (बुद्धिसत्त्व परार्थ है, चित्त-स्वरूप द्रष्टा स्वार्थ है; अतः इस संयम का नाम ‘स्वार्थ संयम’ रखा गया है)। पुरुष (तत्त्व) चूंकि कूटस्थ-अपरिणामी है, अतः वह ज्ञान का वस्तुतः विषय नहीं हो सकता। पुरुष विषयी है; किसी भी प्रमाण से पुरुष साक्षात ज्ञात नहीं होता। अतः पुरुष-ज्ञान का तात्पर्य है – पुरुष के द्वारा चित्तवृत्ति का प्रकाशन होता है – इस तथ्य का अवधारण। चित्त में पुरुष का जो प्रतिबिम्ब है, उस प्रतिबिम्ब में संयम करने पर पुरुष सत्ता का ज्ञान होता है। 
सांख्य दर्शन में ज्ञान के माध्यम से पुरूष का अपने स्वरूप को जानकर प्रकृति से पृथक हो जाना है कैवल्य कहा गया है जिसे महर्षि पतंजलि योग दर्शन में -- 'पुरुषख्याति' के नाम से वर्णित करते है। पुरुषख्याति अर्थात् पुरुषविषयक प्रज्ञा -पुरुष (तत्त्व) – विषयक ख्याति =  (योगसू. 1.16)। पुरुष अपरिणामी, कूटस्थ, शुद्ध, अनन्त है तथा त्रिगुण से अत्यन्त भिन्न है – इस प्रकार का पुरुषस्वभाव-विषयक निश्चय ही पुरुषख्याति है। पुरुष (तत्त्व) बुद्धि का साक्षात् ज्ञेय विषय (घटादि की तरह) नहीं होता, अतः उपर्युक्त निश्चय आगम और अनुमान से होता है। पुरुषख्याति से सत्वादि गुणों के प्रति विरक्ति होती है; यह विरक्ति ही परवैराग्य कहलाती है।
'पुष्टिमार्ग'(वल्ल्भ वेदान्त) [वल्लभ वेदान्त =परुषोत्तमानन्द > ब्रह्मानन्द] : मानुषानन्द से लेकर ब्रह्मानन्द तक आनन्द की अनेक श्रेणियाँ हैं। इन सभी आनन्दों का उपजीव्य अर्थात् मूल स्रोत पुरुषोत्तमानन्द है। पुष्टि मार्ग में ब्रह्म से भी ऊँचा स्थान भगवान् पुरुषोत्तम का है। इसीलिए वल्लभ वेदान्त में ब्रह्मानन्द से भी श्रेष्ठ पुरुषोत्तमानन्द माना गया है। जब सत्त्वगुणात्मक, रजोगुणात्मक या तमोगुणात्मक शरीर विशेष रूप अधिष्ठान की अपेक्षा किए बिना स्वयं अभिगुणात्मक शुद्ध साकार ब्रह्म आविर्भूत होते हैं, तब वे स्वयं पूर्णभगवान - हैं। वल्लभ वेदान्त  में (या रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा में ) पुरुषोत्तम भगवान श्री रामकृष्ण देव ही पूर्णानन्द हैं। अक्षरानन्द या ब्रह्मानन्द उसकी तुलना में न्यून हैं। इसीलिए ज्ञानियों के लिए ब्रह्मानंद भले ही अभीष्ट हों, परंतु भक्तों के लिए तो पूर्णानन्द पुरुषोत्तम ठाकुर देव ही परम अभिप्रेत हैं। 
वर्तमान युग में ऐसे शुद्ध साकार ब्रह्म के अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव  ही हैं। यद्यपि वे भी अधिष्ठान रूप में लीला शरीर से युक्त हैं, तथापि उनका वह विग्रह अभिगुणात्मक होने से सर्वथा शुद्ध है। भगवान् श्रीरामकृष्ण की नित्य लीला में अंतःप्रवेश (समावेश) पुष्टिमार्गीय मुक्ति है
{  ।।तैत्तरीय उप ० 2.9.1/में कहा गया है - यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।   जहाँ से मन के सहित वाणी उसे प्राप्त न करके लौट आती है, उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला किसी से भी (मृत्यु के भय से भी) भयभीत नहीं होता। उस विद्वान को  मैंने शुभ क्यों नहीं किया? पापकर्म क्यों कर डाला -- इस प्रकार की चिन्ता सन्तप्त नहीं करती।  अब [इस ब्रह्म के] आनन्द की मीमांसा यह है - कोई साधु स्वभाव वाला नवयुवक, वेद पढ़ा हुआ, अत्यन्त आशावान् [कभी निराश न होनेवाला] तथा अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठ हो एवं उसीकी यह धनधान्यसे पूर्ण सम्पूर्ण पृथिवी भी हो। [उसका जो आनन्द है] वह एक मानुष आनन्द है।  ऐसे जो सौ मानुष आनन्द हैं।। वही मनुष्य-गन्धर्वों-का एक आनन्द है।इस ब्रह्मानन्द के भय से वायु चलता है,  इसी के भय से सूर्य उदय होता है , तथा इसी के भय से अग्नि,  इन्द्र और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है। ये सभी अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं। महामण्डल का " श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " या " Be and Make -C-IN-C  लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन"  में प्रशिक्षित शिक्षक /नेता निर्माण के युवा प्रशिक्षण शिविर में अन्तःप्रवेश (चपरास प्राप्त प्रशिक्षक मण्डली में समावेश हो जाना)  " Be and Make -C-IN-C  लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन"  ही  महामण्डल का पुष्टिमार्ग (अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण देव ही पुष्टिमार्ग हैं अर्थात साधन और साध्य दोनों है। 
महामण्डल के कर्मियों को  निर्विकल्प समाधि में रहने से ठाकुर ने मना किया है, अतः खुली आँखों से निरंतर ध्यान बना रहे कि मैं एक्जाम हॉल में स्क्रिप्ट में लिखे को करने का अभिनय-लीला  कर रहा हूँ ! यही एकमात्र कल्याण का मार्ग है ।संपूर्ण दुखों से छूटने का मार्ग है।}    
जिसमें विषय के रूप में विषय का त्याग हो अर्थात् विषय में ममता का विरह हो और विषय को भगवदीय समझ कर ग्रहण किया जाए, वह मार्ग पुष्टिमार्ग है। जीवन की सार्थकता के लिए मानव द्वारा अर्थ्यमान (प्रार्थित) होने से पुरुषार्थ कहा जाता है। यद्यपि अन्यत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार ही पुरुषार्थ माने गए हैं, किंतु वल्लभ दर्शन (स्वामी विवेकानन्द दर्शन -का कैप्टन सेवियर अभ्यास लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन) के अनुसार "होली ट्रायो " की भक्ति भी एक स्वतंत्र पंचम पुरुषार्थ है और यह पुरुषार्थों में सर्वोत्कृष्ट है। भगवान् श्री रामकृष्णदेव, श्री माँ सारदादेवी और स्वामी विवेकानन्द के विशेषानुग्रह से उत्पन्न भक्ति पुष्टिभक्ति है तथा भगवदनुग्रह को प्राप्त भक्त पुष्टि भक्त है। 
 परवर्ती पौराणिकों ने भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति या सिद्धि के लिए प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ माना है, और इसी लिए उक्त चारों बातों की गिनती उन मुख्य पदार्थों में की जाती है, जिनकी ओर सदा मनुष्य का ध्यान या लक्ष्य रहना चाहिए। अतः छात्र जीवन से ही 'मोक्ष प्राप्ति' हेतु योग पथ (आचार्य परम्परा में मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास के पथ) पर चलकर - यम, नियम का अभ्यास 24 x 7 और आसन, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास या विवेक-दर्शन का अभ्यास दिन भर में दो बार करते हुए , ध्यान और समाधि के माध्यम से निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था तक पहुंचने का निरंतर अभ्यास करता रहे ।
इसलिए मनुष्य को अपने जीवन में धर्म के मार्ग पर चलते हुए अथक परिश्रम से धन कमाना चाहिए । भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने के लिए बिजनेस करके आर्थिक रूप पूर्ण विकसित राष्ट्र बनने में पूरा प्रयास करना चाहिए। लेकिन कामिनी-कांचन से अनासक्त रहते हुए अपने को उस धन का Custodian या अभिरक्षक ही समझना चाहिए। और राजर्षि (राजा +ऋषि) जनक की तरह जितनी भी आवश्यकताएं हैं ,शरीर चलाने के लिए उन्हें पूरा करना चाहिए। अधिक भोग करने का लालच छोड़कर जीवन भर मनःसंयोग (धारणा ,ध्यान, समाधि) का अभ्यास करते रहना चाहिए। जब इस पद्धति का अनुसरण किया जाएगा तो जीवन के अंतिम समय से पूर्व ही निश्चित रूप से एक दिन (14 अप्रैल 1992) को मन अवश्य निर्विकल्प, निर्विचार अवस्था को प्राप्त कर लेगा,  क्योंकि वह महामण्डल द्वारा  निर्देशित '3H विकास के 5 अभ्यास से शांत और निर्मल बन चुका होगा । समस्त प्रकार की भोगों में आसक्ति , उधेड़बुनों एवं प्राप्तियों के संबंध में चिंता रहित होगा । जब तक मन में कामिनी-कांचन के भोग में आसक्ति और लालच या अभिलाषाएं हैं तब तक मोक्ष नहीं
सांख्यकारिका-व्याख्या के आधार पर महामण्डल में तीन शरीरों की मान्यता ~ 3'H' को युक्तिसंगत मानता  हैं। सूक्ष्म शरीर (या अन्तःकरण-मन- बुद्धि-चित्त -अहंकार)  बिना किसी अधिष्ठान के नहीं रहा सकता, यदि सूक्ष्म शरीर का आधार स्थूल शरीर ही हो;  तो स्थूल शरीर से उत्क्रान्ति के पश्चात् सूक्ष्म शरीर का लोकान्तर गमन किस प्रकार कर सकता है? क्योंकि  सूक्ष्म शरीर बिना अधिष्ठान शरीर के नहीं रह सकता अत: स्थूल शरीर को छोड़ देने के बाद, सूक्ष्म  शरीर का अधिष्ठान आत्मा ही है,  कठोपनिषद ६/१७  में कहा है - 'अङगुष्ठमात्र:पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जना हृदये सन्निविष्ट:',  प्रमाण से अधिष्ठान शरीर (3rd'H')  की सिद्धि करते हैं।
ब्रह्म सत्य-जगत मिथ्या तो है किन्तु उस सत्य तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानकर चलना होगा। निष्काम भाव से कर्म करते हुए तभी परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु करणीय समस्त कर्मों को मनुष्य निष्काम-भाव से करे तभी वह कर्मबन्धन से मुक्त (भ्रममुक्त या d-hypnotized) हो सकता है और यही कर्म योग है, जिसका ‘गीता’ (2 /47, 48) हमें ज्ञान कराती है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
[कर्मण्येवाधिकारस्ते = कर्मणि  एव अधिकारः ते  मा फलेषु  कदाचन/ " कर्मण्येव अधिकारः  न ज्ञाननिष्ठायां ते  तव।] तेरा कर्म (पुरुषार्थ करने) में ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठा (भ्रममुक्त अवस्था) में नहीं। वहाँ ( कर्ममार्ग में ) कर्म करते हुए  किसी भी अवस्था में तुझे कर्मफल की इच्छा (मोक्ष या निर्विकल्प समाधि में ही समाधिस्त रहने की इच्छा तुम में) नहीं होनी चाहिये। कर्तव्य-कर्म (धर्म पालन) करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं। अतः तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो।
तात्पर्य यह हुआ है पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियों के लिये पुराने कर्मों का फल और नया कर्म ये दोनों ही भोगरूपमें हैं; किन्तु मनुष्य के लिये पुराने कर्मों का फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं। ' मा फलेषु कदाचन' -  फल में तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्ति में तेरी स्वतन्त्रता नहीं है क्योंकि फल (आत्मज्ञान) का विधान तो मेरे अधीन है। क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है। यदि कर्मफल की इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करने की आवश्यकता भी क्या है ?...  इस प्रकार कर्म न करने में -या अकर्मण्यता में भी तेरी आसक्ति-प्रीति नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये, तो फिर किस प्रकार करने चाहिये ? इसपर कहते हैं-हे धनंजय योग में स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म (पुरुषार्थ) कर। उनमें भी ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों। इस आशा रूप आसक्ति को भी छोड़कर कर। हे धनञ्जय तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धिअसिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है। 
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गत्यक्त्वा धनंजय। 
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

त्यागपूर्वक, निष्काम भाव से कर्म करते हुए हमें जीवन में ‘धर्म’ (=वेद) की प्रधानता को अंगीकार करना चाहिए। धर्म जीवन का सक्रिय तत्त्व है, जीवन का जितना विस्तार है उतना ही व्यापक धर्म का क्षेत्र है। धर्म लोकस्थिति का सनातन बीज है। वह गंगा के ओजस्वी प्रवाह की भांति जीवन के सुविस्तृत क्षेत्र को पवित्र तथा सिंचित करने वाला अमृत है। मनुष्य-जीवन में जय-पराजय, सम्पत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख सर्वदा एक समान नहीं रहते परन्तु धर्म ही एक वस्तु है, जो सर्वदा एक समान रहती है। धर्म का उल्लंघन मृत्यु से बढ़कर दुःखदायी होता है। अतः प्राणों का उत्सर्ग करके भी धर्म (वेद) की रक्षा तथा उसका अनुपालन करना चाहिए।  
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव है -3H' (हैंड , हेड और हार्ट्) अर्थात शरीर, मन और आत्मा।  देह को यदि मोटर गाड़ी माने तो, आत्मा ड्राइवर है, मन स्टीयरिंग है, चक्के इन्द्रियां हैं। इसके सुसमन्वित विकास या आत्मोन्नति और सेवा -Be and Make' मार्ग पर चलते हुए मनुष्य अपने परम लक्ष्य 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकता है। ड्राइवर अपने को कभी मोटरकार नहीं समझता।  किन्तु मनुष्य जन्म -जन्मांतर के अभ्यासवश इन्द्रिय भोगों में आसक्त होकर स्वयं को अविनाशी आत्मा  न समझकर नश्वर शरीर M/F समझने लगता है। जब उसको यह विवेकज-ज्ञान होता है कि हमारे दो अस्तित्व हैं, एक  नश्वर देह और दूसरा अविनाशी आत्मा है। जब उसे यह अनुभव होता है कि-- शरीर बंधन का कारण है । संसार मायाजाल है । अर्थात नश्वर शरीर के साथ तादात्म्य (देहाध्यास) ही उसके बंधन का कारण है।  मनुष्य जब इस तथ्य को जान लेता है तब उसे इन्द्रिय भोगों से वैराग्य होता है, और उसमें मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा या 'मुमुक्षा' जाग्रत होती है।  और तब वह इन्द्रिय विषय भोगों से अपना ध्यान हटाकर परमात्मा की ओर लगाता है । तत्पश्चात् उसे किसी [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित] योग्य गुरु [C-in-C ] से वेदान्त (महावाक्यों) का उपदेश ग्रहण करना चाहिए । पूज्य नवनीदा जैसे जीवनमुक्त शिक्षक/ गुरु/ नेता ही शिष्य (भावी नेता/गुरु) को ‘तुम ही ब्रह्म हो’ (तत् त्वम् असि) का बोध कराता है । गुरु की इस उक्ति का मनन करते हुए तथा दृढ़तापूर्वक उसका आचरण (मनःसंयोग का अभ्यास) करते हुए व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार कर लेता है।  तथा इस अवस्था में उसे ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ की अनुभूति होती है । यही पूर्ण ज्ञान है तथा इसी को मोक्ष (भ्रममुक्ति या d-hypnotized हो जाना) कहा गया है । मोक्ष प्राप्ति (भ्रममुक्ति या d-hypnotized हो जाने) के बाद जीवन के दु:खों का नाश हो जाता है तथा मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति करता है ।प्रायः सभी भारतीय दर्शन अविद्या  तथा अज्ञान को ही बन्धन का कारण मानते हैं । अत: मोक्ष तभी सम्भव है जब व्यक्ति अज्ञान के बन्धन को काट दे । गीता में कहा गया है कि काम-क्रोध से रहित, जीते हुए मन वाले ज्ञानी पुरुष परमात्मा की प्राप्ति करते हैं।
राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग मोक्ष प्राप्ति के साधन है । गीता में इनका समन्वय मिलता है । उपनिषदों में मोक्ष सम्बन्धी विचारधारा का सम्यक् विश्लेषण मिलता है । उपनिषद् व्यक्ति के सारभूत तत्व आत्मा तथा जगत के सारभूत तत्व ब्रह्मा का तादात्म्य स्थापित करते हैं । यही मोक्ष की अवस्था है । इसके लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति में इन्द्रिय तथा मन का संयम, सांसारिक भोगों से विरक्ति, संसार की अनित्यता का ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त करने की प्रबल उत्कण्ठा हो । 
[साभार -www.essaysinhindi.co] 
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'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' क्या है और मेरे जीवन में इसका महत्व क्या है ?: 
यह महामण्डल स्वयं भगवान श्री रामकृष्ण और माँ सारदा देवी की आशीर्वाद और गुरु  स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से आविर्भूत हुआ एक युवा संगठन है; और स्वयं भगवान (नेता/जीवनमुक्त शिक्षक)ही यहाँ पढ़ाते है-प्रशिक्षण देते हैं।  जिसका उद्देश्य जीवनमुक्त राजर्षियों का निर्माण करके भारत के कल्याण द्वारा -  - वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत नये विश्व की स्थापना करना है। भारत के कोने-कोने से लोग इधर आकर आध्यात्मिक ज्ञान का आनन्द लेते है। 
 यहाँ आत्मा और परमात्मा का सत्य पहचानने, सृष्टि चक्र, कर्मो की गुह्य गति [ कर्म फिलॉसफी- 24 नवम्बर 2019 - Omax / ब्रह्माकुमारी राजयोग]  या मनःसंयोग अर्थात परमात्मा से कनेक्शन जोड़ने की विधि आदि गहरे विषयों का स्पष्टीकरण किया जाता है, तथा आचार्य परम्परा प्रशिक्षित शिक्षकों के द्वारा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने प्रशिक्षण दिया जाता है। 
सृष्ठि-लीला चक्र : [WORLD DRAMA WHEEL (Wonderful secret)] विश्व नाट्य मंच की लीला को समझने के लिए दो लेशन -सीखने हैं : आत्मोन्नति (Be = आत्म +उन्नति) और सेवा (Make - शिवज्ञान से जीव सेवा) । तुम देह हो या आत्मा ? पूछने पर कहोगे -समझ गया मैं आत्मा हूँ।  किन्तु क्या तुम आत्माभिमानी बने हो ? दूसरा 'मैं आत्मा हूँ' - आत्माभिमान में प्रतिष्ठित होने के उपाय , मनःसंयोग की पद्धति से स्वचक्र-सहस्रार या अनाहत चक्र  में स्थित होने- चक्रवर्ती सम्राट बने ?  / आत्मस्थ रहने / हर समय मैं एक्जामिनेशन दे रहा हूँ ,क्या इस क्षण मैं स्क्रिप्ट जैसा अभिनय के लिए मिला वह अभिनय कर रहा हूँ, इसके प्रति जगा हुआ हूँ ?  दूसरा लेशन यह कि आचार्य परम्परा में आत्माभिमानी बनने और बनाने के रहस्य या पद्धति सिखाने के लिए जितने भी गुरु अवतरित हुए हैं, सबको मेरा प्रणाम है, किन्तु स्वामी विवेकानन्द ही मेरे गुरु है - और विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मुझे आत्माभिमान प्रतिष्ठित करने के लिए जो परमात्मा गुरु [C-in-C]  बनकर आये हैं , उनका अंश हूँ ! 
निर्विकल्प समाधि में या सत्ययुग में हमेशा नहीं रह सकते , त्रेता में आना पड़ता है। श्री राम त्रेता में हुए - लेकिन उस समय भी क्या कहते थे ? रघुकुल रीति सदा चली आयी , प्राण जाय पर वचन न जाई ! ' राजा दशरथ ने कैकई को दो वचन थे , और प्राण देकर भी अपने दोनों वचन निभाए।  क्या हमलोग भी अपने वचन उसी प्रकार निभाते हैं ? कहीं हम अपने आने का वादा करके भूल तो नहीं जाते ?
 महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H' विकास के 5 अभ्यासों  का निरन्तर पालन करने से  मनुष्य को अनेक प्रकार की शक्तिया प्राप्त होती है। इन शक्तियों के द्वारा ही मनुष्य सांसारिक और शारीरिक रूकावट की पार करता हुआ आध्यात्मिक मार्ग की और अग्रसर होता है।आपका मन जैसे चाहता है आप वैसे ही बनेंगे इसलिए हमेशा अपने आपको रोगी न समझो। मैं अच्छा मनुष्य -ब्रह्मवेत्ता और चरित्रवान मनुष्य बनुगा/  बनूँगी यह इच्छा कभी भी नही छोड़िये। आपकी पीड़ा जल्दी ही ठीक हो जायेगी, फिर से आपको नया जीवन जरूर मिलेगी। 
महामण्डल आंदोलन (निष्काम कर्म)  में लगे रहने से दुःख के लाख तूफान आए तो भी भगवान श्री रामकृष्ण, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द  आपके साथ हैं, इस भाग्य को देख हमें हर्षित होना चाहिए।  हर साँस में ठाकुर -माँ -स्वामी जी का याद बना रहे तो कोई भी बीमारी हो ठीक हो जाएगी। इन अभ्यासों के द्वारा  ही मनुष्य इन प्रवल शत्रुओं (5 विकार तथा काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहँकार) की जीत सकता है। 
चलो हम अभी जानते है परमात्मा के बारे मे। अनेक मत रहते हुए ,कई भाषाओँ के होते हुए भी सब मनुष्यों में एक भावना यह रहती है कि कहीं न कहीं एक ईश्वर, भगवान या अल्ला है, जो इस सृष्टि को संचालित कर रहा है।  मक्का में मुसलिम लोग भी  लिंग के आकर को संग-ए-असवद की प्रतिमा को गुरु के रूप में आराधना करते है। क्राईस्ट लोग भगवान को  प्रकाश की एक चमक कहके मोमबत्ती जलाते है। इसका मतलब सर्व धर्म आत्मा या  भगवान निराकार है,इस विषय को मान रहे है।
लेकिन रामेश्वरम में भगवान श्री राम भी शिव (गुरु) की पूजा करते दिखाई देते है। या पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर मंदिर में जगतजननी माँ काली की पूजा करते हुए दिखाई देते हैं। वास्तव में 'एक' ही अनेक बने हैं,  तात्पर्य यह कि श्री राम, श्री कृष्ण या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण भी माँ काली के ही  अवतार हैं। वे सभी अवतार देवता हैं, और शिव या परमात्मा (ब्रह्म) -गुरु हैं।  
 भगवान शिव (गुरु) का जनमोत्स्व  रात्रि में ही क्यों मनाया जाता है ? क्यों की---रात्रि वास्तब में अज्ञान ,तमोगुणी अथवा पापाचार की निशानी है। द्वापर से कलियुग के समय को रात्रि कहा जाता है। कलियुग के अन्त में जब साधू सन्यासी ,गुरु ,आचार्य सभी  मनुष्य पतित तथा दुखी होते है, और अज्ञान निद्रा में सोये पड़े होते है ,जब धर्म की ग्लानि होती है।  और जब यह विश्वगुरु भारत भी 1000 वर्षों की गुलामी के कारण , वाचिक हिंसा करता है, नारी का सम्मान करना भूल जाता है, माँ -बहनों के नाम से क्रूर गाली देना सीखकर (बदजुबान बन जाता है), तब विषय- विकारी या मानसिक व्यभिचार बढ़ने के कारण अधिकांश स्थान वेश्यालय बन जाते है,तब पतित पावन परमपिता परमात्मा इस सृष्टि में मनुष्य देह में-गुरु स्वामी विवेकानन्द के रूप में जन्म  लेते है। इसलिये अन्य सबका जन्मोत्सव जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है परंतु परमात्मा (गुरु) शिव के जन्म दिन को शिव रात्रि ही कहा जाता है।राम,कृष्ण, बुद्ध, पैगंबर मुहम्मद , या भगवान श्री रामकृष्ण देव पूज्य पुरुषत्तम अवतार/नेता है। ईसा ,इब्राहिम, गुरुनानक, स्वामी विवेकानन्द  आदि हमारे मार्गदर्शक नेता या गुरु थे, इन सब के  परमपिता परमात्मा या ब्रह्म या पुरुषोत्तम भगवान श्री रामकृष्ण देव -सच्चिदानन्द स्वरुप है। अवतार अनेक होते है, परन्तु सबके पिता अवतार वरिष्ठ - साक्षात् ब्रह्म, भगवान श्री रामकृष्ण एक ही है, और जिनको पहचानने वाले प्रथम गुरु स्वामी विवेकानन्द हैं
आत्मा से अनुप्राणित मन के 4 पार्ट है-मन+बुद्धि+चित्त (संस्कार) और अहंकार।  चित्त वह मन वस्तु है , जिसमें कर्मेंद्रयों के द्वारा जो कोई भी काम कर रहे हो, वो संस्कार के रूप में रिकॉर्ड होता रहता है।उदाहरण स्वरुप--एक काम करने का सोचा वह मन में आलोचना करते हो ,वह आलोचना आत्मा में रहना है वाला दूसरा शक्ति बुद्धि को संकल्प रूप में मन भेजता है। यह दोनों शक्तिया सूक्ष्म हैं इसलिए शरीर में बौद्धिक  दिमाग ज्ञानेन्द्रियों को संकेत भेजती है। दिमाग के आदेश अनुसार कर्मेन्द्रिया काम करते है। यह अबलोकन करने की विषय यह है , की आत्मा जब शारीर छोड़ता है तब तक शरीर में जो अच्छे बुरे कर्मों के परिणाम पाप पुण्य के रूप में संस्कार लेके जाता है । लसलिए कहा जाता है सोच समझकर कर्म करे। सच्चे सुख व सच्ची शांति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है। आत्मा को पेहचान के ही आधार से हम परमात्मा को भी पेहेचान सकते है।
किसी का परिचय जानने के लिए 5 बाते जानना बहुत जरुरी है।वह है उसका.....1. नाम,2.रूप ,3.गुण, 4.निवासस्थान और 5.कर्तव्य। इस 5 बाते क्लियर होना माना उसका परिचय सम्पूर्ण हो हुआ। कहते है न खुद को जानो गे तो खुदा को भी जान जाओगे। खुदको तो हमने जान लिया हम शरीर नहीं हम एक आत्मा है। किन्तु क्या अभी तक हमलोग आत्माभिमानी बन सके हैं ? हम तो देहाभिमानी ही हैं - खुद को M/F ही मानते है। नश्वर शरीर ही मानते हैं, अविनाशी आत्मा से साक्षात्कार कहाँ हुआ है ?  
 इस पिक्चर को देखिये। एक गाड़ी है उसके अंदर एक ड्राईवर भी है। और पीछे उसका मालिक बैठा है।  ड्राइवर को मंजिल तक पहुँचाने का आदेश दे रहा है।  उसी प्रकार हमारा शरीर एक रथ  है, इन्द्रियां घोड़े हैं , मन लगाम है और  उसके अंदर एक बुद्धि नामक ड्राईवर या सारथि  भी है। और आत्मा रथी (मालिक)  है।  अब सारथि ड्राईवर  -जो बुद्धि है,  गाड़ी में बैठके नही कहेगी कि में ही गाड़ी हूँ। हमारा शरीर भी इस गाड़ी की तरह ही है। जैसे ड्राईवर गाड़ी का नियंत्रण करता है उसी प्रकार आत्मा भी शरीर का नियंत्रण करता है। आत्मा के बिना शारीर निष्प्राण है,जैसे ड्राईवर के बिना गाड़ी। शरीर से आत्मा निकालने के बाद इसलिए इससे Dade body घोषित किया जाता है।क्यों की कुछ भी कर ले वो शरीर और चलने वाले नही है।इससे साबित होता है यह शारीर एक  *dead body ' या जड़ बस्तु मात्र है।
आत्मा का स्थान हृदय है , यह हृदय ही शरीर का 'control room' है जो  मस्तिस्क में,(hypothalamus and pituitary 'के बीच  में तथा भृकुटि की बिच में रहते है,  इसे 3rd eye ,aggya chakra भी कहते है। यह आज्ञाचक्र चैतन्य शक्ति को नियंत्रित करने का केंद्र है। आत्मा शरीर के अंग के माध्यम से हर कार्यों को करती है।खुद को पहचान लेने के बाद हम  आगे बढ़ते है। और आप भी आत्मा है ! यह पहचान होती है और इस जगत के यथार्थ स्वरूप को पहचान कर इसकी- शिव ज्ञान से जीव  सेवा करने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। जहाँ हम जात पात लिंग भेद, भाषा और धर्मों की सीमा को लांघते वसुधैव कुटुम्बकम की भावना में प्रैक्टिकली सहयोगी बनते हैं। भारत में  ३५० स्थानों से भी अधिक स्थानों  में इसकी शाखायें कार्यरत हैं ।
अपने मनुष्य जीवन को गढ़ने और श्रेष्ठ बनाने के लिए यह युवा महामण्डल संगठन एक 'लाइट हाउस' है। यहां आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों के द्वारा 3-'H' विकास के 5 अभ्यास - प्रार्थना ,मनःसंयोग व्यायाम , स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग के अभ्यास के द्वारा सतयुग की स्थापनार्थ चरित्रवान और ब्रह्मविद नागरिक बनने और बनाने का [Be and Make] प्रशिक्षण दिया जाता है।हम सभी यहाँ आकर खुद को पहचानने का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, आइये पहचाने खुदको ....हम कौन है?
 स्वामी विवेकानन्द से  मेरा परिचय tv के माध्यम से 12 जनवरी 1985 को हुआ था, [जब उन्होंने ही मुझे पकड़ लिया था ?]- क्योंकि उन्होंने वादा किया था कि शरीर त्यागने के बाद भी कार्य करता रहूँगा। फिर राँची रामकृष्ण मिशन के प्रबोध महाराज की प्रेरणा से हरिद्वार कुम्भमेला में गुरु खोजने जाना और लौटकर ब्रह्म के अवतार श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित (गुरु) 'विजय महाराज' से 'विजय सिंह ' की मंत्र-दीक्षा हो जाना। 
मुझे परम सत्य (आध्यात्मिकता) को देखने में अत्यधिक रूचि थी , और भारत भक्त होने के कारण मेरे मन मे इसके विषय में और अधिक जानने की उत्सुकता हुई। मुझे बचपन से ही श्री कृष्ण की मे रुचि थी, दुर्गा जी की भक्ति पूजा- पाठ आदि करना अच्छा लगता था। लेकिन ये सब करते मन में बहुत सारे प्रश्न उठते थे। जैसे कि ईश्वर कौन है? यदि देवी देेवता ही भगवान हैं तो मनुष्यों को इतना दुःख क्यों है ? भारत महान देश क्यों नहीं बना है ? आत्मा को अगर मोक्ष मिल जाए तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा उससे क़्या फायदा कि हम सृष्टि नाटक में भाग ही न लें इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठते रहते थे । यहाँ महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़ जाने के बाद मुझे मेरे सब प्रश्नों का हल मिला जिनसे मैं पूर्णतया सन्तुष्ट हुआ । 
और प्रमोद दा के माध्यम से 1987 में प्रथम महामण्डल कैम्प में भाग लेकर पूज्य नवनी दा का स्नेह और कृपा की प्राप्ति हुई। जब मैं पहली बार बेलघड़िया कैम्प-1987 में पूज्य नवनीदा से मिला उस समय मेरी आयु पैंतीस वर्ष थी।  मैंने अनुभव किया कि यहाँ पर स्वयं की सत्य पहचान, और परमात्मा का सत्य परिचय मिलने से, 5 अभ्यास के द्वारा से बहुत सारे सकारात्मक परिवर्तन मेरे जीवन में आये। जैसे एकाग्रता का बढना, बिजनेस में पहले की अपेक्षा अच्छी कमाई हुई।  आत्मबल बढ़ा, किसी भी नये कार्य को करने के लिए, जीवन में बहुत सकारात्मकता निश्चिंतता ,दृढता आई और जीवन में सच्ची खुशी, शान्ति, आनन्द का अनुभव हुआ। किसी भी परिस्थिति के समय भी कैसे स्थिर, शान्त रहें, यह सब मैंने अनुभव किया। विश्व भर में किये जाने वाले अनेक प्रयासों के बाबजूद भी व्यक्तिगत और दुनियावी स्तर पर पाप, अत्याचार दुख और अशांति बढती ही जा रही है, क्योंकि मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप को या आध्यात्मिकता को पूर्णतया भूल चुका है। महामण्डल  एक ऐसा प्राथमिक विद्यालय (विश्व विद्यालय ?) है जहाँ व्यक्ति स्वयं के सत्य स्वरूप को पहचान सकता है, जिसके माध्यम से वह स्वयं को सशक्त व र्निविकारी बना सकता है।
महामण्डल द्वारा निर्देशित मनःसंयोग का अभ्यास (अष्टांग का केवल ५ अंग -विवक०-दर्शन का अभ्यास ) एक बहुत ही सहज प्रक्रिया है जिसमें हम अपने मन-बुद्धि या चेतना (awareness) को बाहरी भौतिक जगत से हटा कर, हृदय में विद्यमान अपने इष्टदेव के  स्थित कर परमात्मा परब्रह्म ठाकुर देव को प्रेम से याद करते हैं। जिससे हम अपने मूल स्वभाव अर्थात पवित्रता, सुख,शान्ति, आनंद की शाश्वत अनूभूति देवत्व प्राप्त कर सकते हैं। मनःसंयोग के अभ्यास (प्रत्याहार -धारणा) द्वारा मन की नकारात्मकता दूर होती जाती है, आत्मा सशक्त बनती है ,जिससे हमारे अंदर सुषुप्त शक्तियां जाग्रत होती हैं। जिसकी सहायता से हम आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, हर प्रकार से विकास कर सकते हैं। राजर्षि (राजा + ऋषि) बन सकते हैं।  
महामण्डल में श्वेत वस्त्र : महामण्डल के आचार्य परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक   महामण्डल के सभी भाई और सारदा नारी संगठन की सभी बहनें अक्सर श्वेत वस्त्र ही पहनते हैं, इसका भी बहुत बड़ा महत्व है। संसार में मृत्युपरांत डाले जाने वाले श्वेत वस्त्र (कफ़न) जो वैराग्यवृति को दर्शाते हैं , जिसे हमें इस संसार में रहते धारण करना है।  श्वेत वस्त्र आन्तरिक स्वच्छता, मन की पवित्रता (शुद्ध विचारों) का प्रतीक हैसंसार में रहते हम बुराईयों से वैराग्य रखें तथा अच्छाईयों को धारण करें। श्वेत वस्त्र पर लगा छोटा दाग भी वस्त्र की शोभा को खत्म करता है, जीवन रुपी श्वेत वस्त्र की सदा सम्भाल रखें थोड़ा दाग (बुराई )भी शोभा को खत्म कर सकता। हमें अपने जीवन की संभाल श्वेत वस्त्र की तरह रखनी है। 
शिविर में हम सभी प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त 4 बजे उठ मनःसंयोग का अभयास करते हैं। जिसे परमात्म मिलन का समय कहा गया है, प्रातः 6 से 11 बजे तक संगठित रूप में चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया , जीवन-गठन , चरित्र के गुण आदि (परमात्म वाणी-महामण्डल बुकलेट्स) का श्रवण करते हैं, जिसमें पूरा दिन में मन का ध्यान रखने लिए(मन को श्रेष्ठ डायरेक्शन) मिलते हैं। जिससे जीवन सुखद अनुभव होता है। दोपहर में प्रश्नोत्तरी के बाद ४ से ९  तक गेम, आरती-व्याख्यान चलता है। 
हमारा शुभ संदेश : युवाओं को मेरा शुभ सन्देश यह है कि - वर्तमान समय एवं आने वाले समय में हमें आध्यात्मिकता की बहुत आवश्यकता है, और सबसे बड़ा अविनाशी सहारा है महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर।  जहाँ आचार्य परम्परा या 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा (विवेकदर्शन का अभ्यास करने की पद्धति) में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/ मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/ गुरु बनने और बनाने का या   " Be and Make  'C-in-C' Leadership training tradition" में प्रशिक्षित नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। 
वर्तमान समय हमें ईशारा कर रहा है कि हम स्वयं को (Be and Make - गुरु परम्परा) से जोडकर रखें और उसे (नेता विवेकानन्द को) हर कार्य में अपने साथ रखें, जिससे कि हम शक्तिशाली बनकर आत्म-विश्वास के साथ हर परिस्थिति का सामना कर सकें। और सभी को यही प्रेरणा दें। हमारी शुभकामना है कि आप सदा अध्यात्म द्वारा आत्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नति कर आध्यात्मिक बुलंदियों को छुएं। 
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