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शनिवार, 5 जुलाई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (26)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
२६. 
" दुराग्रह प्रेम का विरोधी है "
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं।]

 
श्री श्री माँ सारदा और आप , मैं ...या कोई भी ... 


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्
 
' विवेकानन्द - वचनामृत '  

२६.
संसार एष शुन एव पुच्छ: 
कौटिल्यदोषो न तु याति नूनम् । 
तथापि पुंसः प्रयतः स्वभाव
 इत्थं शनैर्याति प्रसादमार्गम् ॥  
1. ' This world is like a dog's curly tail, and people have been striving to straighten it out for hundreds of years; but when they let it go, it has curled up again. How could it be otherwise?'

2. You ' can never straighten the world ' ' In helping the world we really help ourselves.'
3. ' This world will always continue to be mixture of good and evil. Our duty is to sympathies with the weak and to love even the wrong-doer. The world is a grand moral gymnasium wherein we have all to take exercise so as to become stronger spiritually.' (Volume 1, Karma-Yoga/CHAPTER V 'WE HELP OURSELVES, NOT THE WORLD)
 (कर्मयोग ३/४७) 
१. हमारा यह संसार भी बस कुत्ते की टेढ़ी पूंछ के समान है। सैकड़ों वर्षों से लोग इसे सीधा करने का प्रयत्न कर रहे हैं; परंतु ज्यों ही वे इसे छोड़ देते हैं, त्योंही यह फिर टेढ़ा का टेढ़ा हो जाता है। इसके अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है? [प्रत्येक व्यक्ति को पहले यह सीखना चाहिये कि संसार में रहते हुए भी कैसे आसक्ति-रहित होकर कर्म किया जा सकता है? जब कोई व्यक्ति यह जान लेता है कि 
" यह संसार कुत्ते की टेढ़ी पूंछ के समान है; जिसे कभी सीधा नहीं किया जा सकता!" तो वह सभी प्रकार के दुराग्रह और मतान्धता से परे हो जाता है। जब हमें भी "मनुष्य बनो और बनाओ " का कार्य करते करते यह ज्ञात हो जायेगा, " संसार कुत्ते की दुम की तरह है, जो कभी भी सीधा नहीं हो सकता"--  तब हम भी इस बात के लिये दुराग्रही नहीं होंगे कि सम्पूर्ण विश्व को हमलोग मिलकर भी आज ही क्यों नहीं चरित्रवान मनुष्य बना सके ?"  यदि संसार के विभिन्न सम्प्रदाय के प्रचारकों में यह दुराग्रह, यह कट्टरता न होती, तो धर्मान्तरण की चेष्टा और धर्म के नाम पर आतंकवाद भी न होता। और इस संसार के अधिकांश आदमी अपने अपने धर्म का पालन करते हुए ही, इस समय तक सच्चे इन्सान या चरित्रवान मनुष्य बन चुके होते।] 
२. दुराग्रही, कट्टर या धर्मान्ध व्यक्ति मूर्ख और सहानुभूति शून्य होता है। वह न तो कभी संसार रूपी कुत्ते की दुम को ही सीधा कर पाता है, न कभी उसके अपने हृदय की वक्रता ही सीधी हो पाती है। 
[यह सोचना बहुत बड़ी भूल है कि कट्टरपन (fanaticism) द्वारा मानव-जाति की उन्नति हो सकती है? उल्टे दुराग्रहता या कट्टरपन तो मनुष्य को पशु ही नहीं, राक्षस बना देने वाली शक्ति है। जिससे घृणा और क्रोध में अंधा होकर मनुष्य एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं; और बिल्कुल हिंसक पशुओं जैसे सहानुभूतिशून्य हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे पास है, अथवा जिस प्रकार का आचार-अनुष्ठान करने कि सीख हमारे धर्म-ग्रन्थों मे दी गयी है; बस वही संसार में सर्वश्रेष्ठ है। और जो लोग हमारे उपासना गृह में न जाकर दूसरे आकार के बने उपासना गृहों में जाते हैं, वे भटके हुए हैं; उन्हें धर्मान्तृत करो, क्योंकि उनके धर्म का मूल्य तो एक कौड़ी का भी नहीं है। अतएव जब कभी तुममें दुराग्रह का यह भाव आये, तो सदैव कुत्ते की टेढ़ी पूंछ का दृष्टान्त स्मरण कर लिया करो। The fanatic is foolish and has no sympathy; he can never straighten the world, nor himself become pure and perfect.
क्योंकि दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। बहुधा दुराग्रहियों को तुम यह गाल बजाते सुनोगे, " हमें  पापी से घृणा नहीं है, हमें तो घृणा पाप से है। " परन्तु यदि कोई मुझे ऐसा मनुष्य दिखा दे, जो सचमुच पाप और पापी में भेद कर सकता हो, तो ऐसे मनुष्य को देखने के लिये मैं कितनी भी दूर जाने को तैयार हूँ, ऐसा कहना सरल है। किन्तु यदि हम सचमुच वास्तविक सत्ता और उसके गुण (कोटि या quality) में भली-भाँति भेद कर सकें, तो हम पूर्ण हो जाएँ। (अर्थात मनुष्य ही भगवान है पर वह जीव-कोटि है या ईश्वर कोटि ? इसे विवेक-प्रयोग से पहचान लें तो हम पूर्ण हो जाएँ।) पर इसे व्यवहार में लाना इतना सरल नहीं। हम जीतने ही शान्तचित्त होंगे और हमारे स्नायु जीतने संतुलित रहेंगे, हम उतने ही अधिक प्रेमसंपन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही उत्तम होगा।
३.तीसरी बात यह कि हमें किसी से घृणा नहीं करनी चाहिये। यह संसार सदैव ही शुभ और अशुभ का मिश्रण-स्वरूप रहेगा। हमारा कर्तव्य है कि हम दुर्बल के प्रति सहानुभूति रखें और एक अन्यायी के प्रति भी प्रेम रखें। यह संसार तो चरित्र-गठन के लिये एक विशाल नैतिक व्यायामशाला (grand moral gymnasium)है। इसमें हम सभी को ह्रदय-विस्तार अभ्यासरूप कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक बल से अधिकाधिक बलवान बनते रहें।  
' हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं' 
(कर्म का दूसरा पहलु क्या है ?)
आजकल का बच्चा भी कहता है - 'Work is Worship' - अर्थात कर्म ही पूजा है ! किन्तु यह निर्धारित करने के पहले, कि कर्तव्य के प्रति समर्पण (पढाई-लिखाई समाप्त होने पर विवाह-संस्कार या गृहस्थ-आश्रम स्वीकार करने के बाद Devotion to DUTY) हमारी आध्यात्मिक उन्नति में किस प्रकार सहायता पहुँचाती है, हमें यह समझना पड़ेगा कि भारत में जिसे हम कर्म कहते हैं; उसका दूसरा पक्ष क्या है ? 
प्रत्येक धर्म के तीन विभाग होते हैं- दर्शन (philosophy), पुराण (mythology), और विधिशास्त्र  (ritual)। दार्शनिक भाग तो प्रत्येक धर्म का सार है। धर्म के पौराणिक भाग में, कमोबेश उस धर्मविशेष के अवतारों या पैग़म्बरों के जीवन से संबन्धित अलौकिक कथा कहानियाँ रहती हैं, जिसके माध्यम से उस धर्म के दार्शनिक भाग की व्याख्या होती है। जबकि धार्मिक-कृत्य (१६ संस्कार आदि रिचूअल) इस दर्शन को और भी स्थूल रूप देता है, ताकि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी उस दर्शन के मूल तत्व को समझ सके। वास्तव में विधिशास्त्र (एकादसी-सत्यनारायण कथा आदि की क्रिया पद्धति) 'रिचुअल', दर्शन का ही एक स्थूलतर (concertized) रूप है। वास्तव में यह संस्कार या क्रियापद्धति (रिचुअल) ही कर्म है। प्रत्येक धर्म में इसकी आवश्यकता है, क्योंकि जब तक हम आध्यात्मिक जीवन में बहुत उन्नत न हो जाएँ, तब तक हममें से अधिकांश लोग अमूर्त (abstract) आध्यात्मिक-तत्वों (महावाक्यआदि) के सूक्ष्म भावों को सुनकर भी समझ नहीं पाते हैं। 
विचार और शब्द स्वभावतः अविच्छेद्द्य हैं : मनुष्य के लिये मन ही मन ऐसा सोचना, कि किसी भी वाक्य को सुनकर - 'मैं सब कुछ समझ सकता हूँ' -बड़ा आसान है। किन्तु जब वह ' निदिध्यासन ' या कार्य में उतारने की चेष्टा करता है, तो उसे मालूम पड़ता है सूक्ष्म भावों को ठीक ठीक समझना और उसको जीवन में आत्मसात कर लेना बहुत ही कठिन है। विचार को कर्म में परिणत करने की दूरी, समाज की सबसे बड़ी विडम्बना रही है। और आज तो और भी उदग्र रूप से सामने आ रही है। इसलिये प्रतीक विशेष रूप से सहायक होते हैं, और उनके द्वारा सूक्ष्म विषयों को समझने की जो प्रणाली है, उसे हम किसी भी प्रकार त्याग नहीं सकते। (जैसे सौर मण्डल के ग्रहों की चाल को समझना हो, तो ग्रहों के 'मेक्रो-मॉडल' की सहायता से समझना आसान हो जाता है, उसी प्रकार प्रतीकों के द्वारा अमूर्त भावों को समझने में बड़ी सहायता मिलती हैइसलिये सूक्ष्म आध्यात्मिक तत्वों को समझने की जो प्रतीकात्मक (मॉडल प्रणाली) विधि है, उसका त्याग हम नहीं कर सकते।) अति प्राचीनकाल से ही प्रतीकों का प्रयोग प्रत्येक धर्म में होता रहा है। एक दृष्टि से विश्व-ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु ईश्वर के विचारों की प्रतिमूर्ति ही है, इसिलिये प्रतीक या प्रतिरूपों (symbols) के बिना हम किसी बात को सोच भी नहीं सकते; स्वयं शब्द भी हमारे विचारों के प्रतिरूप हैं।
सारा ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का प्रतिरूप है !  और उसके पीछे मूल तत्वरूप में ईश्वर विराजमान है। इस प्रकार की प्रतीक-विद्या (symbology) किसी मनुष्य द्वारा उत्पन्न नहीं हुई है। और न ऐसा ही है कि किसी धर्म के अनुयायियों ने एक जगह बैठकर कुछ प्रतीकों की कल्पना कर डाली है। धर्म के प्रतीकों की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से होती है। नहीं तो ऐसा क्यों है कि लगभग सभी मनुष्यों के मन में कुछ विशेष विचारों के साथ कुछ विशेष प्रतिक सदा से जुड़े रहे हैं? कुछ प्रतिक तो सर्वत्र प्रचलित हैं। तुममें से अनेकों की यह धारणा है कि क्रॉस का चिन्ह सर्वप्रथम ईसाई धर्म के साथ प्रचलित हुआ; परन्तु वास्तव में वह ईसाई धर्म के बहुत पहले से, मूसा के जन्म से भी पहले, वेदों के आविर्भाव के भी पहले से विद्यमान था। क्रॉस का प्रतिक-चिन्ह ऐज़्टेक [Aztecs या  प्राचीन नहुआत्ल (Nahuatl) इन्डियन प्रजाति के लोग जिन्होंने मैक्सिको में अपना साम्राज्य स्थापित किया था, जिसे स्पेन के कॉर्ट्स लोगों ने १५१९ ई० में पराजित कर दिया था] लोगों में भी प्रचलित था।  इसके साथ फोएनीसीएन (Phoenician) लोगों [प्राचीन सेमेटिक प्रजाति के यहूदी लोग जिन्होंने पहली सहस्राब्दी ई.पू. में व्यापार पर प्रभुत्व स्थापित किया] में भी क्रॉस का प्रतीक-चिन्ह प्रचलित था। इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा भी प्रतीत होता है कि क्रॉस पर लटके मुक्तिदाता का प्रतीक भी लगभग प्रत्येक जाति में प्रचलित था। सारे संसार में सर्कल (वृत्त) भी एक महान प्रतीक माना गया है 
 
 फिर सभी रिचुअलिस्टिक सिम्बल्स में सबसे अधिक प्रचलित स्वस्तिक  का भी प्रतीक है। बौद्ध धर्म के सदियों पहले, प्राचीन मिस्र तथा बेबीलोन देशों में भी यह पाया जाता था। [ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया, तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई। 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है।  स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया। जर्मनी के तानाशाह हिटलर के ध्वज में यही 'वामावर्त स्वस्तिक' अंकित था। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है।
इस सबसे क्या प्रकट होता है? यही कि ये सब ये सब प्रतीक रूढ़िजन्य मात्र नहीं हो सकते, इसके पीछे कोई कारण अवश्य रहा होगा। उन प्रतीकों और मानव मन के बीच कुछ प्राकृतिक साहचर्य अवश्य रहा होगा
भाषा भी कोई रूढ़िजन्य वस्तु नहीं है, ऐसी बात नहीं है कि कुछ लोगों ने बैठकर यह तय कर लिया कि कुछ विशेष भाव कुछ विशेष शब्द द्वारा प्रकट किये जायें -और बस भाषा की उत्पत्ति हो गयी। कोई भी विचार या भाव अपने आनुषांगिक शब्द के बिना और कोई शब्द अपने आनुषांगिक विचार के बिना अस्तित्व में रह ही नहीं सकता; क्योंकि विचार और शब्द स्वभावतः अविच्छेद्द्य हैं। अपने विचारों या भावों को प्रकट करने के लिये शब्द-प्रतीक (ॐ) अथवा रंग या वर्ण-प्रतीक की सहायता लेनी ही पड़ती है। मन में उठने वाले प्रत्येक विचार का एक अन्य प्रतिरूप (counterpart) भी होता है, और वह है आकृति। इसे संस्कृत दर्शन में ' नाम-रूप' (name and form) कहते हैं। जिस प्रकार कुछ लोग मिल-बैठकर किसी भाषा का निर्माण नहीं कर सकते, उसी प्रकार कृत्रिम उपायों से 'प्रतीक विद्या ' का निर्माण भी नहीं किया जा सकता। मूक और बधिर लोगों को ध्वनि प्रतीकों के अलावा अन्य प्रतीकों को देखकर सोचना होगा। दुनिया के कर्मकांडों के प्रतीकों (रिचुअलिस्टिक सिम्बल्स) में हमें मानव-जाति के धार्मिक विचारों की एक अभिव्यक्ति मिलती है।
 [ यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: । 
                ब्राह्म राजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।। यजुर्वेद - 26/2  
अर्थात हे मनुष्यों ! जैसे इस कल्याणी वाणी (वेदों के महावाक्यों) को मैं सभी मनुष्यों के लिए बोलता हूं, वैसे ही ब्रााह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों, स्त्रियों और अन्य जनों के लिए आप भी बोलिए। इस श्रुति में भी 'वाचं' शब्द है, भाषा शब्द नहीं। ईश्वर ने मनुष्य को वाणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुद्धि दी है, क्योंकि मनुष्य का विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है।''] 
यह कहना बहुत आसान है कि विधिशास्त्रों (रिचुअल्स), मन्दिरों तथा ऐसे अन्य आडंबरों की अब कोई आवश्यकता नहीं है, और (विवाह-संस्कार की अपेक्षा कोर्ट मैरेज ज्यादा अच्छा है) यह बात तो आजकल के बच्चे भी कहा करते हैं। परन्तु जो लोग प्रतिदिन अपने घर में बने मन्दिर में जाकर पूजा करते हैं, वे लोग कई बातों में उन कॉमरेडों से भिन्न होते हैं, जो कभी किसी मन्दिर में नहीं जाते, और न किसी किसी सगुण भगवान में कोई आस्था रखते हैं। भिन्न भिन्न धर्मों के साथ जो विशेष प्रकार के उपासना गृह, अनुष्ठान और अन्य स्थूल कर्म-काण्ड जुड़े हुए हैं, वे उन उन धर्मावलम्बियों के मन में उन सब भावों को जाग्रत कर देते हैं, जिनके ये उपासना-गृह, अनुष्ठान आदि स्थूल प्रतीक के रूप में खड़े हैं। इसलिये अनुष्ठानों और प्रतीकों को एकदम उड़ा देना उचित नहीं है। इन सब विधिशास्त्रों या संस्कारों का अध्यन एवं अभ्यास स्वभावतः कर्मयोग का ही एक अंग है। 
'शब्द-शक्ति' : इस विधिशास्त्र या कर्म-विज्ञान (science of work) के कई अन्य पहलू हैं। उनमें एक है 'विचार' तथा 'शब्द' के बीच क्या सम्बन्ध है- इसको समझना; तथा इसके साथ साथ यह ज्ञान भी प्राप्त करना कि 'शब्द-शक्ति' (या मंत्र की शक्ति) से क्या प्राप्त हो सकता ? प्रत्येक धर्म शब्द की शक्ति पर विश्वास करता है, यहाँ तक कि किसी किसी धर्म की तो यह धारणा है कि समस्त सृष्टि 'शब्द' (ॐ) से ही निकली है। ईश्वर के संकल्प का बाह्य आकार 'शब्द' है, और चूँकि ईश्वर ने सृष्टि-रचना के पूर्व संकल्प एवं इच्छा की थी, इसलिये सृष्टि 'शब्द' से ही निकली है। 
हमारे इस भौतिकवादी जीवन के तनाव और आपाधापी में, हमारी संवेदक-नाड़ियाँ अपनी संवेदनशीलता को खोकर कठोर हो गयीं हैं। ज्यों ज्यों हम बूढ़े होते जाते हैं, और संसार की ठोकरें खाते जाते हैं, त्यों त्यों हम कठोर-ह्रदय बनते जाते हैं; फलस्वरूप हम उन घटनाओं की भी उपेक्षा कर देते हैं, जो हमारे चारों ओर निरन्तर घटित होती रहती हैं। परन्तु कभी कभी मनुष्य की प्रकृति अपनी सत्ता को प्रतिष्ठापित करना चाहती है, और हम इन सामान्य घटनाओं का रहस्य जानने का प्रयत्न करने लगते हैं तथा उन पर आश्चर्य करते हैं। इस प्रकार आश्चर्यचकित होना ही ज्ञान-लाभ की पहली सीढ़ी है।
शब्द की इस शक्ति के स्वरुप को जानना : 'शब्द' के उच्च दार्शनिक तथा धार्मिक महत्व के अतिरिक्त हमारे इस जीवन नाटक में भी शब्द का विशेष स्थान है। भला सोचो तो, इससे अधिक आश्चर्यजनक बात और क्या हो सकती है ? एक मनुष्य दूसरे को बेवकूफ कह देता है, और बस- इतने से ही वह दूसरा मनुष्य उठ खड़ा होता है और अपनी मुट्ठी बाँधकर उसके नाक पर एक घूसा जमा देता है। देखो तो, शब्द में कितनी शक्ति है ! रोती हुई स्त्री सान्त्वना के कुछ शब्द सुनकर शान्त हो जाती है, उसका दुःख दूर हो जाता है और वह मुस्कुराने लगती है। शब्द की इस शक्ति के स्वरुप को जानना तथा उत्तम रूप से उपयोग करना भी कर्मयोग का एक अंग है।
[ अपरिष्कृत मन के शोधन या सुधार को संस्कार कहा गया है। जातक के रूचि, आचार-विचार, अथवा  स्वभाव (चरित्र) को उन्नत करने का कार्य विभिन्न संस्कारों के माध्यम से होते हैं । जिस प्रकार सुनार अशुद्ध सोने को अग्नि में तपाकर उसका संस्कार करता है, उसी प्रकार जातक को संस्कारों की भट्ठी में डालकर उसके दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सदगुण स्थापित करने का प्रयास करते हैं। संस्कार का अर्थ है किसी वस्तु के रूप को परिवर्तित कर उसे नया रूप देना। इस दृष्टि से संस्कार-क्रियापद्धति मानव के चरित्र-निर्माण की योजना है। 
जातक अपने साथ दो प्रकार के संस्कार लेकर आता है। एक प्रकार के संस्कार को वह जन्म-जन्मान्तरों से अपने साथ लाता है और दूसरे प्रकार के संस्कार को वह माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी और वंश परम्परा से प्राप्त करता है। वैदिक संस्कृति में मानव जीवन के लिए सोलह संस्कारों का विधान है। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन में सोलह बार मानव को सुधारने का, उसके जीवन को नव-निर्मित करने के भरसक प्रयास किया जाता है।
शब्दों में पदार्थों और प्राणियों को प्रभावित करने की अदभुत क्षमता विद्यमान है। नेपोलियन की सेना एक पुल पर चल रही थी। पदचाप के क्रमबद्ध हो जाने का कारण पुल हिला और नीचे ढह गया। विज्ञान के अनुसार इस संसार में तीन शक्तियाँ ही प्रमुख हैं – शब्द (sound,ध्वनि), प्रकाश (light) और ताप (heat)। इन्हीं की तरंगें सकल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त हैं। इन्हीं के मिलने और बिछुड़ने से अनेकानेक वस्तुएँ बनती-बिगड़ती और अनेकानेक घटनाएँ घटित होती रहती हैं। प्रत्येक घटना सर्वप्रथम शब्द रूप से ही प्रकट होती और तदुपरान्त प्रकाश में आती है। जो कुछ भी निखिल विश्व और अनन्त ब्रह्माण्ड में हुआ है, हो रहा है या फिर होने जा रहा है, उसका अदृश्य रूप सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही विनिर्मित होता है। 
शब्द शक्ति का महत्व विज्ञान अनुमोदित है। स्थूल तथा श्रव्य शब्द तो बड़े प्रभावशील होते ही हैं। सूक्ष्म कर्णातीत अश्रव्य शब्द तो और भी अधिक प्रभावशील होते हैं। अश्रव्य कर्णातीत शब्द उच्चारण का प्रचण्ड प्रवाह प्रादुर्भाव होता है। इसी के आधार पर वह अभीष्ट वातावरण बनता है, जिसके लिए उस मंत्र की साधना की गई है। मंत्र उच्चारण तो धीमा ही होता है, उससे अतीन्द्रिय शब्द शक्ति को ही प्रचण्ड परिमाण में उत्पन्न किया जाता है। मंत्र को शब्दबेध कहा गया है। जैसे – शब्दबेध बाण लक्ष्य बेध कर चलाने वाले के कमान में पुनः लौट आता है, उसी प्रकार सिद्ध किया हुआ मंत्र लक्ष्यबेध करता है और फिर सशब्द स्थिति में प्रयुक्तों के शरीर में प्रवेशकर जाता है।
शब्द शक्ति, मानसिक एकाग्रता, अपने ईष्टदेव या आदर्श की चारित्रिक श्रेष्ठता और उस लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा – यह चार आधार लेकर की जाने वाली मंत्र साधना कभी निष्फल नहीं होती। पुनरावृत्ति से मस्तिष्क एक विशेष ढाँचे में ढलता है। जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है वह अभ्यास में सम्मिलित हो जाती है। जो पढ़ा, बोला, सुना या समझा जाता है वह भी मस्तिष्क में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लेता है। हमारी मानसिक संरचना ऐसी बनी हुई है कि इसमें कोई भी बात को गहराई तक जमाने के लिए, उनकी पुनरावृत्ति का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है। सदभावना को उभारने और जीवन चक्र की दिशा को लक्ष्य की ओर अग्रसर करने के लिए शब्दों का विशेष महत्व सर्वत्र माना गया है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘नाम’ को सब प्रकार से श्रेष्ठतर सिद्ध किया है।

 नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच 'नाम' सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥

नाम और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में 'नाम' सुंदर 'साक्षी' है और दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है।  निर्गुण ब्रह्म (सच्चिदानन्द) को भक्तों पर करुणा और कृपा करके सगुण रूप में अवतरित होना पड़ता है, तब असीम ब्रह्म (ईश्वर) को ससीम (श्रीरामकृष्ण का) शरीर धारण करने के लिये  ' नाम-रूप' की उपाधि धारण करनी पड़ती है। 

'नाम- रूप' दुई ईस उपाधि ! अकथ अनादि सुसामुझि साधी !!
नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुंदर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है।

को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहीं रूप नाम अधीना। रूप ज्ञान नहीं नाम बिहीना।। 
-इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता। 

 रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥3॥
हथेली पर रखा हुआ कोई विशेश रूप वाला पदार्थ भी बिना उसका नाम जाने नहीं पहचाना जा सकता। और रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है। गाँधीजी को चंपारण जाते समय नहीं पहचानने वाला रास्ते में गाली दे रहा था, जब उतरा तब पूछने से पता चला कि जिन्हें देखने वो जा रहा था, वे यही थे ! इसीलिए रूप को नाम के अधीन कहा गया है। यदि अनेक व्यक्ति एक स्थान पर सोये हों तो जिसका नाम लेकर पुकारें वही बोल उठेगा अथवात वही जागेगा अन्य नहीं। जिस प्रकार नाम उच्चारण के द्वारा नामी वाचक के सम्मुख आ जाता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण के द्वारा सम्बन्धित अथवा नामोच्चारित ईष्टदेव ही जापक के सम्मुख आ जाते हैं, अन्य नहीं।]
हम संसार का भला क्यों करें ? दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है - दूसरों की सहायता करना, संसार का भला करना। हम संसार का भला क्यों करें ? इसलिये कि देखने से तो हम संसार का उपकार करते हैं, परन्तु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं। हमें सदैव संसार की सहायता करने की चेष्टा करनी चाहिये, हमारे कर्म करने के पीछे सर्वोच्च उद्देश्य यही होना चाहिए। किन्तु यदि गहराई से देखें तो इस संसार को हमारी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं, यह संसार इसलिये नहीं बना है कि हम और तुम आकर इसकी सहायता करें। यह कहना कि संसार को हमारी सहायता की आवश्यकता है, क्या घोर ईश-निन्दा नहीं है ? 
यह सच है कि संसार में दुःख-कष्ट बहुत हैं, इसलिये लोगों की सहायता करना सर्वश्रेष्ठ कार्य है; परन्तु आगे चलकर हम देखेंगे कि दूसरों की सहायता करने का अर्थ है, अपनी ही सहायता करना। यह संसार न तो अच्छा है, न बुरा। हमारी मानसिक स्थिति के अनुसार ही हमें यह संसार भला या बुरा प्रतीत होता है। अग्नि न अच्छी है, न बुरी। खाना बना सकते हैं, घर में आग लगा सकते हैं। जैसा हम इसका उपयोग करते हैं, उसकी अनुरूप यह बुरी या अच्छी बन जाती है। संसार स्वयं पूर्ण है। पूर्ण होने का अर्थ है, कि उसमें अपने सब प्रयोजनों को पूर्ण करने की क्षमता है।
मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की  उपासना करना क्या परम सौभाग्य नहीं है ? हमें यह निश्चित जान लेना चाहिये कि हमारे बिना भी यह संसार बड़े मजे में चलता जायेगा। परन्तु फिर भी हमें सदैव परोपकार ही करना चाहिये। परोपकार करने की इच्छा हमारी सर्वोच्च प्रेरक शक्ति है, किन्तु तब जब हमें सदा स्मरण रहे कि दूसरों की सहायता करना हमारा परम सौभाग्य है। छत की बॉलकोनी पर खड़े हाथ में दो रूपये का सिक्का लेकर यह मत कहो-" ऐ भिखारी, ले यह मैं तुझे देता हूँ!' परन्तु तुम स्वयं इस बात के लिये कृतज्ञ होओ कि तुम्हें वह निर्धन व्यक्ति मिला, जिसने तुम्हारे दान को स्वीकार कर लिया। नहीं तो तुम्हारा ह्रदय विशाल नहीं हो पाता। दान देकर तुमने अपना ही उपकार किया है। धन्य पाने वाला नहीं होता, देने वाला होता है। समस्त भले कार्य हमें शुद्ध बनने तथा पूर्ण होने में सहायता करते हैं। और देखा जाय तो हम  अधिक से अधिक क्या कर सकते हैं? या तो एक स्पताल बनवा देते हैं, सड़कें बनवा देते हैं, दातव्य औषधालय खुलवा सकते हैं; या जाड़े में कंबल बाँट देते हैं --बस यही सब तो ? हम गरीबों के लिये एक ' राहत-कोष योजना' खोल देते हैं, दस-बीस लाख डॉलर इकट्ठा कर लेते हैं, उसमें से पाँच लाख का एक स्पताल बनवा देते हैं, पाँच लाख नाच-तमाशे, शैम्पेन पीने में फूँक देते हैं, और शेष का आधा कर्मचारी-अधिकारी-नेता मिलकर लूट लेते हैं, बाकी जो १५ % बचता है, वही किसी तरह गरीबों तक पहुँचता है। फिर कोई भी दैवी आपदा तुम्हारी तमाम सड़कों, अस्पतालों, या केदार-बदरी जैसी आपदा - मन्दिर के अतिथिशाला को भी नष्ट कर सकती है। अतएव इस प्रकार की संसार की सहायता करने की खोखली बातों को हमें छोड़ देना चाहिये। 
यह संसार न तो तुम्हारी सहायता का भूखा है, और न मेरी। परन्तु फिर भी हमें निरन्तर कार्य करना चाहिए, निरन्तर परोपकार करते रहना चाहिये। क्यों ? इसलिये कि यह हमारे लिये एक वरदान जैसा है। यही एक साधन है, जिसके द्वारा हम पूर्ण (perfect) बन सकते हैं। यदि हमने किसी को थोड़ा अन्न-विद्या-ज्ञान दान दिया हो, तो वास्तव में उस दान के लिये वह हमारा ऋणी नहीं है, हमीं उसके ऋणी हैं, हम पर उसका आभार है। क्योकि उसने मुझे इस बात का अवसर दिया कि हम उसको मनुष्य बनने और बनाने के लिये प्रेरित करके, स्वयं अपने ह्रदय का विकास करें और यथार्थ मनुष्य में रूपान्तरित हो सकें। 
यह सोचना निरी भूल है कि हमने संसार का भला किया, अथवा कर सकते हैं। यह आशा रखना कि मैंने अमुक-अमुक व्यक्तियों को मनुष्य बनने में सहायता की, इसीलिये उन्हें मेरा कृतज्ञ होना चाहिये और मुझे धन्यवाद देना चाहिये; ऐसी मूर्खतापूर्ण विचारों से ही हमें दुःख होता है। हम जो कुछ करें, उसके बदले में किसी भी बात की आशा क्यों रखें ? बल्कि उल्टे हमें उसी मनुष्य के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, जिसके चरित्र-निर्माण करने या मनुष्य बनने का उपाय बता कर हमने उसकी सहायता की हो, उन्हें साक्षात् नारायण मानना चाहिये। [क्योंकि जैसे बीज में वृक्ष बनने की पूरी सम्भावना निहित रहती है, उसी प्रकार मन को वशीभूत करके प्रत्येक नर-नारी में नारायण-नरायणी बनने की सम्भावना निहित रहती है,-यह बात तो चरित्र-निर्माण की पद्धति सिखाते सिखाते मैं स्वयं सीख गया। यदि मन को वशीभूत करने का प्रयास मैं स्वयं नहीं करता, मैं भी पशु ही नहीं राक्षस भी बन सकता था। इसलिये उसको मनःसंयोग का उपाय बताने से मुझे सहायता मिलती है।] मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की  उपासना करना क्या परम सौभाग्य नहीं है ? यदि हम वास्तव में अपने को देह से भिन्न आत्मा समझते हैं, और सभी विषयों से अनासक्त समझते हैं, तो हमें संसार की ऐषणाओं को पाने की आशा में, नाम-बड़ाई न मिलने से कष्ट क्यों होना चाहिये? अनासक्त होने पर ही हम प्रसन्नतापूर्वक संसार में भलाई कर सकते हैं। अनासक्ति से किये हुए कार्य से कभी दुःख अथवा अशान्ति नहीं आयेगी। वैसे तो संसार में अनन्त काल तक तक सुख-दुःख का चक्र चलता ही रहेगा। 
एक गरीब आदमी को कुछ रूपये की जरुरत पड़ी। उसे कहीं से यह मालूम हुआ कि यदि वह किसी भूत को अपने वश में कर ले, तो वह उससे जो चाहे, मंगवा सकता है। वह भी एक भूत खोजने लगा। उसे एक साधु मिले, उनके पास बड़ी शक्तियाँ थीं, उसने उनसे सहायता की याचना की। साधु ने पूछा भूत का तुम क्या करोगे ? उसने उत्तर दिया, ' महाराज, मैं भूत इसलिये चाहता हूँ कि वह मेरा काम कर दे। कृपया मुझे उसे पकड़ने का ढंग बता दीजिये, मुझे उसकी बड़ी जरुरत है।' साधु बोले, ' देखो, तुम इस झमेले में मत पड़ो, अपने घर लौट जाओ।' दूसरे दिन वह आदमी साधु के पास फिर गया और बहुत रोने-गाने लगा। उसने कहा, ' महाराज, मुझे एक भूत तो कम से कम दे ही दीजिये, मुझे उसकी बहुत आवश्यकता है।' अंत में साधु कुछ चिढ़ से गये और उन्होंने कहा,'अच्छा लो, यह मंत्र लो, इसका जप करने से एक भूत प्रकट होगा और फिर उससे तुम जो काम कहोगे, वही करेगा; परन्तु देखो, होशियार रहना। ये बड़े भयंकर प्राणी होते हैं। उसे निरंतर काम में लगाये रखना। यदि वह कभी खाली रहा, तो तुम्हारी जान ही ले लेगा।     
तब उस मनुष्य ने कहा, ' यह कौन कठिन बात है ? मैं तो उसे इतने काम दे दूंगा कि उसे वह जीवन भर पूरा न कर सकेगा। ' इसके बाद वह आदमी एक वन मे चला गया और मंत्र का जप करने लगा। कुछ देर तक जप करने के बाद उसके सामने एक विकराल-दाँतों वाला एक बड़ा भयंकर भूत प्रकट हुआ। भूत ने कहा -' देखो, मैं भूत हूँ, तुम्हारे मंत्र ने मुझे जीत लिया है। परंतु, मेरी एक शर्त है-' तुम्हें मुझको निरन्तर काम में लगाय रखना होगा। क्योंकि ज्योही मुझे थोड़ा सा भी अवकाश मिला कि मैं तुम्हारी जान ले लूँगा।' आदमी बोला, ' ठीक है जाओ, मेरे लिये एक महल तैयार करो। ' भूत ने जवाब दिया, ' लो, हो गया, महल तैयार है।' आदमी ने कहा,' जाओ मेरे लिये धन ले आओ। ' भूत बोला, 'लो, धन भी तैयार है। ' फिर आदमी ने कहा, ' यह जंगल काट डालो और यहाँ एक नगर बसा दो। ' भूत बोला, 'लो, यह भी हो गया। अब और क्या करूँ, बतलाओ ? अब तो वह आदमी बड़ा घबड़ाने लगा, उसने मन में सोचा, ' अब तो मेरे पास कोई काम नहीं है, जो मैं इसे करने को कहूँ। यह तो प्रत्येक काम क्षण भर में ही कर डालता है।' भूत इधर गरजकर बोला, ' देखो, मुझे जल्दी कुछ काम करने को दो, नहीं तो मैं तुम्हें खा जाऊँगा।' बेचारा आदमी अब कोई काम सोच ही नहीं सका; डर के मारे थरथर काँपने लगा। अब बेतहाशा भागा और भागते भागते उन्हीं साधू के पास पहुँचा और वहाँ जाकर गिड़गिड़ाने लगा, 'महाराज, मेरी रक्षा कीजिये, मेरी जान बचाइए।' साधू ने पूछा, ' कहो, क्या हुआ ?' उस मनुष्य ने उत्तर दिया, ' अब मैं क्या करूँ?' अब तो उस भूत को देने के लिये, मेरे पास कोई काम भी शेष नहीं है। मैं उससे जो कुछ भी करने को कहता हूँ, वह क्षण भर में ही कर डालता है, और जब उसके पास कोई काम शेष नहीं रह जाता, तो मुझे खा डालने कि धमकी देता है। ' 
इतने में वह भूत भी वहाँ आ पहुँचा, और कहने लगा, " अब तो मैं तुम्हें खा जाऊँगा। " और सचमुच उसे खाने के लिये आगे बढ्ने लगा। आदमी मारे डर के काँपने लगा और साधू से अपने प्राणों की भिक्षा माँगी। साधू ने कहा, " अच्छा, मैं तुम्हें रास्ता बताता हूँ। देखो, उस कुत्ते की पूंछ टेढ़ी है, अपनी तलवार से यह पूंछ काटकर इस भूत को दे दो, और उससे कहो कि इसे सीधी कर दे। ' आदमी ने झट से कुत्ते की पूंछ काट ली और उसे भूत को देकर कहा-' लो, इसी सीधी करके मुझे दो ।' भूत ने पूंछ ले ली और उसे बड़ी सावधानी से सीधी की, पर ज्यों ही उसने उसको सीधी करके छोड़ दिया, त्यों ही वह फिर टेढ़ी हो गयी। भूत ने दुबारा कोशिश की, परन्तु ज्यों ही उसने छोड़ दी, त्यों ही वह फिर टेढ़ी हो गयी। इस प्रकार वह कई दिनों तक पूंछ को सीधी करने का प्रयत्न करता रहा, यहाँ तक कि थक कर चूर हो गया, और बोला-' मैं एक बहुत पुराना भूत हूँ; पर ऐसा कष्ट तो मुझे जीवन भर में कभी नहीं हुआ। ऐसी मुसीबत में मैं पहले कभी नहीं पड़ा। ' अब तो वह भूत ही उस आदमी से कहने लगा-" आओ भाई, हम-तुम समझौता कर लेते हैं। तुम मुझे छोड़ दो, और मैंने अब तक तुम्हें जो कुछ दिया है, वह सब अपने पास ही रखे रहो। मैं वादा करता हूँ, अब आगे तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न दूँगा।" यह सुनकर आदमी बड़ा खुश हुआ और बड़ी प्रसन्नता पूर्वक उसने इस समझौते को स्वीकार कर लिया।
This world is like a dog's curly tail,  हमारा यह संसार भी बस कुत्ते की उसी टेढ़ी पूंछ के समान है। सैकड़ों वर्षों से लोग इसे सीधा करने का प्रयत्न कर रहे हैं; परंतु ज्यों ही वे इसे छोड़ देते हैं, त्योंही यह फिर टेढ़ा का टेढ़ा हो जाता है। इसके अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है? प्रत्येक व्यक्ति को पहले यह सीखना चाहिये कि संसार में रहते हुए भी कैसे आसक्ति-रहित होकर कर्म किया जा सकता है? जब कोई व्यक्ति यह जान लेता है कि -" यह संसार कुत्ते की टेढ़ी पूंछ के समान है; जिसे कभी सीधा नहीं किया जा सकता!" तो वह सभी प्रकार के दुराग्रह और मतान्धता से परे हो जाता है। जब हमें भी 
"मनुष्य बनो और बनाओ " का कार्य करते करते यह ज्ञात हो जायेगा, " संसार कुत्ते की दुम की तरह है, जो कभी भी सीधा नहीं हो सकता," तब हम भी इस बात के लिये दुराग्रही नहीं होंगे कि सम्पूर्ण विश्व को हमलोग मिलकर भी आज ही क्यों नहीं चरित्रवान मनुष्य बना सके ?"  यदि संसार के विभिन्न सम्प्रदाय के प्रचारकों में यह दुराग्रह, यह कट्टरता न होती, तो धर्मान्तरण की चेष्टा और धर्म के नाम पर आतंकवाद भी न होता। और इस संसार के अधिकांश आदमी अपने अपने धर्म का पालन करते हुए ही, इस समय तक सच्चे इन्सान या चरित्रवान मनुष्य बन चुके होते। 
यह सोचना बहुत बड़ी भूल है कि कट्टरपन (fanaticism) द्वारा मानव-जाति की उन्नति हो सकती है? उल्टे दुराग्रहता या कट्टरपन तो मनुष्य को पशु ही नहीं, राक्षस बना देने वाली शक्ति है। जिससे घृणा और क्रोध में अंधा होकर मनुष्य एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं; और बिल्कुल हिंसक पशुओं जैसे सहानुभूतिशून्य हो जाते हैं। हम सोचते हैं कि जो कुछ हमारे पास है, अथवा जिस प्रकार का आचार-अनुष्ठान करने कि सीख हमारे धर्म-ग्रन्थों मे दी गयी है; बस वही संसार में सर्वश्रेष्ठ है। और जो लोग हमारे उपासना गृह में न जाकर दूसरे आकार के बने उपासना गृहों में जाते हैं, वे भटके हुए हैं; उन्हें धर्मान्तृत करो, क्योंकि उनके धर्म का मूल्य तो एक कौड़ी का भी नहीं है। अतएव जब कभी तुममें दुराग्रह का यह भाव आये, तो सदैव कुत्ते की टेढ़ी पूंछ का दृष्टान्त स्मरण कर लिया करो। तुम्हें अपने आपको संसार के बारे में चिन्तित बना लेने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारे सहायता के बिना भी यह चलता रहेगा। जब तुम दुराग्रह और मतान्धता से परे हो जाओगे, केवल तभी तुम अच्छी तरह कार्य (युद्ध) कर सकोगे।
जो ठंडे मस्तिष्क वाला और शान्त है, जो कुछ भी करने या कहने के पहले विवेक-प्रयोग किया करता है, जिसके स्नायु सहज ही उत्तेजित नहीं हो उठते तथा जो अत्यन्त प्रेम और सहानुभूति सम्पन्न है; केवल वही व्यक्ति संसार में सबसे महान काम- " स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो "Be and Make" आन्दोलन का नेता बनकर अपना और पूरे विश्व का कल्याण कर सकता है। जबकि दुराग्रही व्यक्ति मूर्ख और सहानुभूति शून्य होता है। वह न तो कभी संसार रूपी कुत्ते की दुम को ही सीधा कर पाता है, न कभी उसके हृदय की वक्रता ही सीधी हो पाती है। 
इस प्रकार आज के व्याख्यान का सारांश यह है कि : सर्वप्रथम हमें यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें संसार में कुछ सेवा करने का अवसर मिला है। हमीं जगत के ऋणी हैं, जगत हमारा ऋणी नहीं है (जगत तो ब्रह्म ही हैं)। संसार में मनुष्य की सेवा, करने से हम वास्तव में अपना ही कल्याण करते हैं।
दूसरी बात यह कि यह संसार अनाथ नहीं है, इस विश्व का अधिष्ठाता एक ईश्वर है। वह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का संचालन करने में पूर्ण समर्थ है। यह बात सच नहीं कि संसार पिछ्ड़ गया है, और इसे तुम्हारी या मेरी सहायता की आवश्यकता है। ईश्वर सर्वत्र विराजमान हैं। वह अविनाशी सतत क्रियाशील और जाग्रत है। जब सारा विश्व सोता है, तब भी वह जागता रहता है। वह निरंतर कार्य में लगा हुआ है। संसार के समस्त परिवर्तन और विकार उसी के कार्य हैं। 
तीसरी बात यह कि हमें किसी से घृणा नहीं करनी चाहिये। यह संसार सदैव ही शुभ और अशुभ का मिश्रण-स्वरूप रहेगा। हमारा कर्तव्य है कि हम दुर्बल के प्रति सहानुभूति रखंक और एक अन्यायी के प्रति भी प्रेम रखें। यह संसार तो चरित्र-गठन के लिये एक विशाल नैतिक व्यायामशाला (grand moral gymnasium)  है। इसमें हम सभी को सोचने-बोलने-करने के पहले विवेक-प्रयोग के बाद ही कोई कार्य करने का अभ्यास करके अपना चरित्र गठित करने का मौका प्राप्त होता है। जहाँ समाज के साथ व्यवहार करते समय विवेकी मनुष्य बन कर (दृष्टि को बदलकर) अपने ह्रदय को विशाल बनाने की कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक बल से अधिकाधिक बलवान बनते रहें।
चौथी बात यह है कि हममें किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं होना चाहिये, क्योंकि दुराग्रह प्रेम का विरोधी है। बहुधा दुराग्रहियों को तुम यह गाल बजाते सुनोगे, " हमें  पापी से घृणा नहीं है, हमें तो घृणा पाप से है। " परन्तु यदि कोई मुझे ऐसा मनुष्य दिखा दे, जो सचमुच पाप और पापी में भेद कर सकता हो, तो ऐसे मनुष्य को देखने के लिये मैं कितनी भी दूर जाने को तैयार हूँ, ऐसा कहना सरल है।
किन्तु यदि हम सचमुच वास्तविक सत्ता और उसके गुण (कोटि या quality) में भली-भाँति भेद कर सकें, तो हम पूर्ण हो जाएँ। (अर्थात मनुष्य ही भगवान है पर वह जीव-कोटि है या ईश्वर कोटि ? इसे विवेक-प्रयोग से पहचान लें तो हम पूर्ण हो जाएँ।) पर इसे व्यवहार में लाना इतना सरल नहीं। हम जीतने ही शान्तचित्त होंगे और हमारे स्नायु जीतने संतुलित रहेंगे, हम उतने ही अधिक प्रेमसंपन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही उत्तम होगा। 
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 [ महाभारत में सनत् सुजाति कथा आती है। सनत कुमार कहते हैं- विवेकी पुरुषों के लिये मृत्यु है ही नहीं -सृष्टि ऐसी ही रहती, दृष्टि बदल जाने से सृष्टि बदल जाती है। सोच को बदला जा सकता है, सोच के बदलने से सृष्टि नये रूप में दिखने लगती है। मन में जो हो उसे साफ-साफ कह देना चाहिये; फ़ैसला सुना देना चाहिये नहीं तो फासले बढ़ जाते हैं। पूर्व शरीरों की कुछ कामनायें अधूरी रह गयी थीं, इसीलिये वर्तमान शरीर मिला है। विवाह-सन्तान-धन में आसक्ति थी, उसी को पूरा करने के लिये यह शरीर मिला है। महाभारत में सनत् सुजाति कथा आती है। वे धृतराष्ट्र को उपदेश देते हैं कि विवेकी पुरुषों के लिये मृत्यु है ही नहीं। जब सत्य-मिथ्या को बिल्कुल अलग अलग जान लिया, तो वह व्यक्ति नश्वर शरीर की मृत्यु को अपनी मृत्यु क्यों मानेगा ? 
पूज्य सन्त श्री रामसुख दासजी कहते हैं, ' आज इसी समय, इसी क्षण निश्चय कर लो, भीतर से स्वीकार करलो कि - मैं केवल ठाकुर का हूँ, केवल ठाकुर ही मेरे हैं; उसी क्षण मुक्त हो जाओगे।' विवेक-प्रयोग में प्रमाद ही मृत्यु है। धर्माचरण भी अनासक्त होकर करो। निष्काम-कर्म का फल निश्चय ही अपवर्ग -अर्थात मोक्ष है। सेवा करने के लिये कपट का त्याग करो। जिसको सांसारिक भोगों से विरक्ति नहीं हुई है, इन्द्रिय-विषयों में रूचि हुई है और भोग करना तो दूर की बात यदि वह भोग की वस्तुओं को लालच से देखता भी है तो भी वह 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' नहीं कर सकता। जो व्यक्ति ठाकुर की उपासना नाम-यश या अन्य लौकिक वस्तुओं के लिये करता है, उसका अर्थ है भगवान की माया ने उसकी बुद्धि को ठग लिया है। 
ठाकुर तो कल्प तरु हैं -उसके नीचे बैठकर एक मुट्ठी चूड़ा माँगनेवाले मुर्ख है। ठाकुर तो स्वयं को देने के लिये तैयार बैठे हैं, उनसे नश्वर चीजें माँगना मूर्खता है। यह पहला जन्म तो है नहीं, कई जन्मों में ये सब इन्द्रियकामनाएं पूरी हो चुकी हैं। हमारा सबसे पहला जन्म कब हुआ ? जब से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तब से हम जन्म-मरण भोगते आ रहे हैं। अगर पूर्व-जन्म में ही तत्वज्ञान हो गया होता तो यह शरीर न मिलता। कामनाओं में उलझकर इस जन्म को नष्ट क्यों करें ? कारण शरीर, कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अगले कार्य-शरीर जायेगा।
यह विवेक भी निष्काम कर्म - ' मनुष्य बनो और बनाओ ' में लगे रहने से निःसंकल्प स्थिति प्राप्त होने पर ज्ञान होता है। कामनायुक्त भक्ति करने वाले ठाकुर के भक्त नहीं हैं। निष्काम भक्ति ही भक्ति है, नश्वर शरीर साधन बन जाता है, उस से अविनाशी साध्य प्राप्त हो जाता है। विवेकी वही है जो विनाशी साधन के माध्यम से अविनाशी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अज्ञानी अविवेकी जीव ही लौकिक भोगों के लिये कर्म करता है। माँगने वाले को देखकर जगत नाक सिकोड़ता है, ठाकुर से कुछ माँगने से प्रेम खत्म हो जायेगा। भोगों के संग्रह और लालच के कारण ही इस शरीर की प्राप्ति हुई। विवेक-वैराग्य की प्राप्ति गुरु-परम्परा ही उपाय है। किसी के अणुव्रत हो जाओ। 
सन्त का पूरा जीवन ही एक लम्बी प्रार्थना होती है। वह स्वयं के देखे को, आत्मसाक्षात्कार एवं अनुभव को ही प्रमाण मानता है। यह अनुभूति ही परम-आत्मा है। इस सूक्ष्म, ब्रह्माण्ड में अत्यन्त सूक्ष्म रूप से परिव्याप्त, जल-तत्तव की भाँति पूरित, ब्रह्मचेतना को स्वयं देखता भी है और सबको दिखाता भी है। उसका मार्ग अति कठिन है। दुर्गम ही नहीं, अगम है। सन्त दु:साहसी, विपरीत धारा के तैराक होते हैं। युगों युगों की अन्धकार-काराओं को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। सन्त मरजीवड़े हैं। मृत्यु के मुख से अमरता की मणि को जबरन निकालकर अपनी सिर-मुकुट में मणि के जैसा बना लेते हैं।  
कलि श्यानों भवति संजिहानस्तु द्वापर:।
उतिष्ठंस्त्रोता भवति कृतं संपद्यते चरन॥
चरैवेति। चरैवेति। -(ऐतरेय ब्राह्मण) 
अर्थात् कलयुग का अर्थ है सोए होना। जग जाना द्वापर है। उठकर खड़े हो जाना त्रोता है। और चल देना कृतयुग-सतयुग है। अत: व्यक्ति, देश जाति को जागृत होकर चलते रहना चाहिए। 
परमात्मा ही जगत बने हैं, कोई कहता है-परमात्मा ने माया की सहायता से सृष्टि की है - दोनों में सही क्या है ? सनत सुजात महर्षि बोले -माया भी ठाकुर से भिन्न नहीं है। नाम-रूप-लीला-धाम किसी एक को पकड़ लो। नाम ही तीर्थ है, देहाभिमानी पुरुष को पाप-पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है। ज्ञान होने पर संचित-क्रियमाण-प्रारब्ध तीनों कर्म नष्ट हो जाते हैं। संचित कर्म तो ठाकुर के सम्मुख होते ही नष्ट हो जाता है, क्योंकि अब वह ठाकुर से प्रेम करता है कर्म करने के बाद फल उन्हीं को समर्पित कर देता है। ठाकुर की प्रसन्नता के लिये कर्म करने और फल को समर्पित कर देने से क्रियमाण पवित्र हो जाता है।
दादू समूचे प्राणी जगत् को चर्म-चक्षुओं की दृष्टि से नहीं, आत्मदृष्टि से देखने का आग्रह करते हैं-
चर्मदृष्टि देखे बहुत , आतम दृष्टि एकि।
ब्रह्मदृष्टि परिचय भया , तब दादू बैठा देखि॥
इसलिए दादू पूर्ण ब्रह्म को, ब्रह्माण्ड को ध्यान में लाने की, विचारने की बात करते हैं। जब समूचे ब्रह्माण्ड को चैतन्य एक इकाई माना जाएगा, तब सभी प्रकार के-हिंसा, हत्या, अन्याय, संवेदन- हीनता के क्रम थम जाएँगे।
ब्रह्मचर्य महिमा - जब तक ठाकुर जीवन-लक्ष्य नहीं बन पाते -सभी को अपने अपने आश्रम के अनुकूल ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। साधो इन्द्री खाय गयी जग सारा कहत मलूक दास । जो गृहस्थ एक-पत्नीव्रत, ऋतुकाल गामी, या वंश को आगे बढ़ाने के लिये ही संग करे वह गृहस्थाश्रम का ब्रह्मचर्य है। जब संसार भोगों से पूर्ण विरक्ति हो गयी हो, भोग की वस्तुओं को लालच से देखने की इच्छा भी मन में न उठती हो, वैसे संन्यासी को अपने आश्रम के अनुकूल कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। भारत में यौवन-शिक्षा (सेक्स एजुकेशन) या भोग प्रधान शिक्षा, या किशोर उम्र में सह-शिक्षा भी नहीं दी जानी चाहिये। विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य, सत्य, सदाचार की शिक्षा ही दी जानी चाहिये।
" शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश.............एक बार पार्वती जी भगवान शंकर जी के साथ सत्संग कर रही थीं। उन्होंने भगवान भोलेनाथ से पूछा, गृहस्थ लोगों का कल्याण किस तरह हो सकता है? शंकर जी ने बताया, सच बोलना, सभी प्राणियों पर दया करना, मन एवं इंद्रियों पर संयम रखना तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं। जो व्यक्ति अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों की सेवा करता है, जो शील एवं सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है, ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि एवं महर्षि प्रसन्न रहते हैं।
भगवान शिव ने आगे उन्हें बताया, जो दूसरों के धन पर लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की नजर से नहीं देखता, जो झूठ नहीं बोलता, जो किसी की निंदा-चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया भाव रखता है, जो सौम्य वाणी बोलता है और स्वेच्छाचार से दूर रहता है, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है।
भगवान शिव ने माता पार्वती को आगे बताया कि मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और शुभ प्रारब्ध बनता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही प्रारब्ध बनता है। प्रारब्ध अत्यंत बलवान होता है, उसी के अनुसार जीव भोग करता है। प्राणी भले ही प्रमाद में पड़कर सो जाए, परंतु उसका प्रारब्ध सदैव जागता रहता है। इसलिए हमेशा सत्कर्म करते रहना चाहिए।" 
पूर्ण से ही पूर्ण जगत निकला है -अन्त में केवल ब्रह्म ही शेष रहता है। विनाशी-नश्वर शरीर तो पहले से ही मरा हुआ है। जिसने आत्मस्वरूप का अनुभव कर लिया उसके लिये मृत्यु कहाँ है ? वह तो अविनाशी आत्मा के साथ एकात्मबोध को प्राप्त हो जाता है। ठाकुर ही पितामह (भगवान के बाप) हैं, पिता भी हैं, पुत्र भी हैं, जिसने यह जान लिये उसके लिये -का मोहः को शोकः?
 सबहिन के हम, सबैं हमारे। तीनहुँ लोक हमारी माया।
 हम ही दुर्गा, हम ही गंगा। हम ही पण्डित हम ही मुल्ला। 
हम ही अश्व हम ही असवार। हम ही दसरथ, हम ही राम। 
दाया करै धरम मन राखै, घरमें रहे उदासी।
अपना-सा दुख सबका जानै, ताहि मिलै अबिनासी॥

सहै कुशब्द सुमरै नाम। छाँड़े, गरब गुमाना।
यही रीझ मेरे निरंकारकी, कहत मलूक दिवाना॥  
देहाभिमान नष्ट करने का उपाय है, ठाकुर का दास बन जाना। सेवा करने से देहाभिमान नष्ट हो जाता है। सकाम-भाव से सेवा या धर्मानुष्ठान करने वाले बहिर्मुखी भक्त है। जो अनासक्त होकर निष्काम भाव से सेवा करते करते, अन्तर्मुख हो गये हैं, ऐसे पुरुष को ही शिक्षक या नेता कहते हैं। भजन या विवेक-प्रयोग में प्रमाद ही मृत्यु है। हमलोग भोजन में प्रमाद नहीं करते, किन्तु विवेक-प्रयोग में प्रमाद है,सनत सुजाति ने कहा इस प्रमाद को त्याग दो, अमर हो जाओगे ! कीर्ति, नाम- यश की इच्छा नहीं है, तब भी युद्ध करो। कर्म के बीज का नाश बिना पुरुषार्थ किये नहीं होता। जो भोगों में लालची नहीं हैं, वे ठाकुर के प्रितियार्थ कर्म करके उन्हीं को फल भी समर्पित कर देता है। त्रिगुणातीत तत्व ही ब्रह्म है, योग-क्षेम दोनों ठाकुर देते हैं। आत्माराम, आत्मकाम, पूर्णकाम है, आत्मवान व्यक्ति योग-क्षेम की भावना से ही शून्य हो जाते हैं। कर्म करना -पुरुषार्थ मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। तो निष्काम कर्म करो, पारलौकिक भोगों से भी वैराग्य हो जाने पर ठाकुर मिल जायेंगे। जो नित्य-प्राप्त है -उसकी प्राप्ति का कोई साधन नहीं है। पूज्य रामसुखदास जी कहते हैं- चार योग वास्तव में ईश्वर प्राप्ति के साधन नहीं हैं, ये तो संसार-शरीर की विस्मृति के साधन हैं। जैसे ही देहाध्यास समाप्त हो जायेगा, स्वरुप दर्शन हो जायेगा। शरीर-संसार की स्मृति ही बाधक है। देहाध्यास समाप्त होते ही स्थितप्रज्ञ हो जाओगे। 
स्थितप्रज्ञ का भाषा ? बाह्य संसारी वस्तुओं में संग्रह और उपभोग में उसकी कामना नहीं होती। उद्वेग कब होता है? जब हम बाह्य वस्तुओं का संबंध स्वयं से जोड़ लेते हैं। कारण का आभाव होने पर कार्य का आभाव हो जाता है। स्थितप्रज्ञ महापुरुष दुःख आने पर अँगूठी खो जाने पर उद्विग्न नहीं होते, और न सुख पाने पर उछलते रहते हैं। उनको हर्ष-विषाद नहीं होता। अपनी सारी वृत्तियों को अंतर्मुखी रखते हैं। ये सब लक्षण स्थितप्रज्ञ के होते हैं। विषयों के प्रति आसक्ति केवल ठाकुर का साक्षात्कार करने से ही नष्ट होती है। इन्द्रियाँ मन को मथ देती हैं, ठाकुर की शरण में जाना ही उपाय है।
प्रारब्ध का सम्बन्ध मात्र इस शरीर से है, इसको ठाकुर के भक्त प्रसाद मानकर भोग लेते हैं। प्रारब्ध भोग मेरा अपना किया हुआ है, कुछ बाकी रह जायेगा तो फिर आना पड़ेगा। जगन्नाथ जी १५ दिन बीमार क्यों रहते हैं ? अपने भक्त के १५ दिन के भोग को उन्होंने अपने उपर ले लिया था। भक्ति तीनों प्रकार के कर्म से मुक्ति दिल देती है। जो भगवान के सिवा और कुछ नहीं चाहता, ठाकुर उसके प्रारब्ध के समय को फ़ास्ट-फॉरवर्ड करके कम कर देते हैं। रील पहले से लिखा हुआ चल रहा है, भवत-शरणागत है, तो ठाकुर उसके जीवन-रील को फ़ास्ट-फारवर्ड कर देते हैं।] 
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