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Friday, March 7, 2014

चरित्र के गुण :14-16: ' अविचलता ' (Poise)

१४.
' अविचलता ' (Poise)
 " चरित्र के गुण " का तात्पर्य वैसे सद्गुणों से है जिनके रहने पर ही चरित्र को प्रत्येक दृष्टि से उन्नत कहा जा सकता है। जिसका चरित्र इन सद्गुणों से विभूषित हो गया है, वही तो ' यथार्थ मनुष्य' कहलाने के योग्य है। मनुष्य शरीर में जन्म लेकर भी यदि पशुओं जैसा जीवन व्यतीत कर ही जगत से विदा हो जाना पड़े, तो इससे अधिक दुःख की बात और क्या हो सकती है ? जब यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाती है कि, चरित्र गठन का कार्य मैं केवल दूसरों कि प्रशंसा पाने के लिए नहीं कर रहा हूँ बल्कि इसलिए कर रहा हूँ कि चरित्र गठन करने से ही वह कर्मकुशलता प्राप्त होती है जिससे जीवन के हर क्षेत्र में सफलता पाई जा सकती है। तब हमारे अन्दर अपना चरित्र गढ़ लेने के लिए एक (Burning desire) ज्वलंत इच्छा उत्पन्न हो जाती है।  इस प्रकार चरित्र गढ़ने का यथार्थ उद्देश्य जानकर अपने अन्दर चरित्र गठन की अदंम्य इच्छा उत्पन्न कर लेनी चाहिए। किन्तु, निरन्तर प्रयासरत रहने के लिए उद्यम (Initiative) भी होना चाहिये एक वाक्य में कहें तो- ' चरित्र गठन करने के लिए पौरुष चाहिए '। स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " पौरुष ही मेरा नया सुसमाचार है " (Manliness is my new Gospel!) यही बात विवेक चूड़ामणि में आचार्य शंकर भी अत्यन्त सुंदर ढंग से कहते हैं-
इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं ||
( इतः कः  नु अस्ति मूढात्मा  यः  तु स्वार्थे प्रमाद्यति,  दुर्लभं मानुषं  देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम् )
 -अर्थात दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें भी पुरुषत्वको पाकर जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है उससे अधिक और मूढ कौन होगा ....जो मनुष्य चरित्र निर्माण का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है ! क्योंकि इस देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ? 
इसी जन्म में "मनुष्यत्व" का उन्मेष कर लेना यथार्थ स्वार्थ है। मनुष्यत्व का उन्मेष कर लेने से मनुष्य अपने बनाने वाले को, अर्थात ब्रह्म को भी जान सकता है और ब्रह्म को जानकर स्वयं ब्रह्म बन सकता है।  इस  स्वार्थ को पुरा करना निन्दनीय नहीं है। क्योंकि 'मनुष्यत्व' का उन्मेष करने, अपने सच्चे स्वरुप को जान लेने से अथवा 'आत्मसाक्षात्कार' कर लेने से भेद-बुद्धि दूर हो जाती है। अपने-पराये का भेद मिट जाता है, वह व्यक्ति सभी को अपना ही समझने लगता है। अब, उसके लिए दूसरों की भलाई करना या परार्थ ही अपना अन्तिम स्वार्थ बन जाता है। ऐसा मनुष्य ही यथार्थ 'मनुष्य' है। किसी प्राचीन कवि  ने बड़े ही सुंदर ढंग से कहा है-
 क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोन्मुखाः ।
 स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः ।। 
- अर्थात ऐसे क्षुद्र मनुष्य तो हजारों हैं, जो निरन्तर अपने भरण-पोषण को लेकर ही व्यस्त रहते हैं, किन्तु जिस पुरूष के लिए दूसरों की भलाई करना; या परार्थ ही एकमात्र स्वार्थ बन जाता है, वही सैंकड़ों में 'अग्रणी मनुष्य' या मानव जाति का 'नेता' कहलाता है।  
'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वयं नहीं जानता है ? ' ऐसा विचार करके दूसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परोपकार करने (Be and Make) का कार्य करना ही चाहिए। देखो स्वामी विवेकानन्द जैसे मानव-जाति के नेता विदेशी लोगों को उपदेश देनेके लिए ही पाश्चात्य देशों में गये थे। परोपकारके कार्यमें कमर-कसना यही बड़प्पन है। कहा भी है- "जगत् में अपना कार्य करनेमें ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य तो हजारों हैं, परन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है, ऐसा सत्पुरुषोंमें अग्रणी पुरुष एकाध ही है। बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरनेके लिए समुद्रका सदा पान करता है, क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्यके समान स्वार्थी है। किन्तु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियों का संताप मिटानेके लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और बड़वानल स्वार्थी है। मुमुक्षु पुरुष अपने दुःखोंकों दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किन्तु दूसरोंके दुःखोंको देखकर अधिक दुःखी होते हैं। और इसलिए वे किसी भी प्रकारकी अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढ़ताके साथ सदा तत्पर रहते हैं।
यदि वैसा ही मनुष्य 'मानवजाति का सच्चा नेता' - हम भी बनना चाहते हों, तो सर्वदा उसी लक्ष्य पर अपनी दृष्टि  रखनी होगी, अर्थात सर्वदा उसी लक्ष्य के प्रति सजग रहना होगा। लक्ष्य के प्रति सर्वदा सतर्क दृष्टि रखने की चेष्टा करने के बावजूद हमारे जीवन में कभी कभी कोई न कोई घटना ऐसी घटित हो जाती है कि वह लक्ष्य ही हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है। उसी घटना को लेकर मन इतना व्यस्त हो जाता है कि, अपने सच्चे स्वरुप को जानकर हमें यथार्थ 'मनुष्य' बनना है- यह संकल्प ही मन से विलुप्त हो जाता है। कोई भारी समस्या, विपत्ति, दुःख या कोई सुखद घटना भी हमपर अपने लक्ष्य को भूल जाने के लिए दबाव बना सकती है। किन्तु हम यदि  परिस्थितियों के दबाव में आकर अपने लक्ष्य को ही भूल गए तो समझो सबकुछ चला गया। 
श्री रामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानन्द दोनों ही एक कहानी सुनाया करते थे। वर्णन शैली में थोड़ी भिन्नता के बावजूद भी मूल घटना में कोई अन्तर नहीं था।' इस कहानी को कहते समय ठाकुर (श्री रामकृष्ण) कहते थे कि बाघ का बच्चा भेड़ों के झुंड में मिल गया था, जबकि स्वामी विवेकानन्द बाघ के स्थान पर 'सिंह शिशु' की  कहानी कहते थे। 

खैर, जो भी हो नारद एक बहुत बड़े भक्त हैं। हमेशा नारायण ! नारायण ! का उच्चार करते रहते हैं। एक दिन नारायण के सामने जिद कर बैठे कि, " प्रभो, माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ। " नारायण नारद को लेकर एक मरुस्थल कि ओर चले। बहुत दूर जाने के बाद नारायण ने नारद से कहा, " नारद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। क्या कहीं से थोड़ा सा जल ला सकते हो ?" नारद बोले, " प्रभो, ठहरिये, मैं अभी जल लिए आया।" 
यह कह कर नारद चले गए। कुछ दूर पर एक गाँव था, नारद वहीं जल कि खोज में गये। एक मकान में जा कर उन्होंने दरवाजा खटखटाया। द्वार खुला और एक परम सुन्दरी कन्या उनके सम्मुख आकर खड़ी हुई। उसे देखते ही नारद सब कुछ भूल गए। नारायण मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वे प्यासे होंगे, हो सकता है, प्यास से उनके प्राण भी निकल जाएँ- ये सारी बातें नारद भूल गए। सब कुछ भूल कर वे उस कन्या के साथ बात-चीत करने लगे। उस दिन वे प्रभु के पास लौटे ही नहीं। दुसरे दिन वे फ़िर से उस लड़की के घर आ उपस्थित हुए और उससे बातचीत कने लगे।
धीरे धीरे बातचीत ने प्रणय का रूप धारण कर लिया। तब नारद उस कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने कि अनुमति माँगने लगे। विवाह हो गया। नव दम्पति उसी गाँव में रहने लगे। धीरे धीरे उनके संतानें भी हुईं। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। इस बीच, नारद के ससुर मर गये और वे उनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो गए। पुत्र-कलत्र, भूमि, पशु, सम्पत्ति, गृह आदि को लेकर नारद बड़े सुख-चैन से दिन बिताने लगे। कम से कम उन्हें तो यही लगने लगा कि वे बड़े सुखी हैं। इतने में उस देश में बाढ़ आई। रात के समय नदी दोनों कगारों को तोड़कर बहने लगी और सारा गाँव डूब गया। मकान गिरने लगे; मनुष्य और पशु बह बह कर डूबने लगे, नदी कि धार में सब कुछ बहने लगा। नारद को भी भागना पड़ा।
एक हाथ में उन्होंने स्त्री को पकड़ा, दुसरे हाथ से दो बच्चों को, और एक बालक को कंधे पर बिठाकर वे उस भयंकर बाढ़ से बचने का प्रयत्न करने लगे। कुछ ही दूर जाने के बाद उन्हें लहरों का वेग अत्यन्त तीव्र प्रतीत होने लगा। कंधे पर बैठे हुए शिशु कि नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिरकर तरंगों में बह गया। उसकी रक्षा करने के प्रयास में एक और बालक, जिसका हाथ वे पकड़े हुए थे, गिरकर डूब गया। निराशा और दुःख से नारद आर्तनाद करने लगे। 
अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की सारी शक्ति लगाकर पकड़े हुए थे, अन्त में तरंगों के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छुट गई; और वे स्वयं तट पर जा गिरे एवं मिट्टी में लोटपोट हो बड़े कातर स्वर से विलाप करने लगे।इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रखा और कहा, " वत्स जल कहाँ है ? तुम जल लेने गए थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। तुम्हें गए आधा घन्टा बीत चुका है। "
" आधा घन्टा !" नारद चिल्ला पड़े। उनके मन में तो बारह वर्ष बीत चुके थे, और आध घंटे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन से होकर निकल गए ! और यही माया है ! नारद समझ गए थे।" (वि० सा० ख० २: ७५-७६) 
ऐसी ही परिस्थितियां कई बार आ जातीं हैं, जब मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य, महान उद्देश्य सब कुछ भूल जाता है। चरित्र में जिस गुण के रहने पर यह नहीं होता, वह गुण है - ' अविचलता' (Poise) एक बार विवेक-विचार कर हमने जिसे अपना जीवन लक्ष्य बना लिया उस पर हर हाल में अविचल दृष्टि रखनी होगी। अपने सूचिन्तित और निर्दिष्ट मार्ग पर चलते समय चाहे कैसी भी बाधा क्यों न आए मैं अपने लक्ष्य से विच्युत नहीं होऊंगा। मन की इसी दृढ़ता (या पौरुष) को अविचलता कहते हैं।
मानव- जीवन में समस्याएँ तो आती ही रहतीं हैं, ये समस्यायें कई प्रकार की हो सकती हैं और जब कभी भी आ सकतीं हैं। एक के बाद एक, निरन्तर केवल दुःख ही मिले ऐसा भले ही न होता हो किन्तु, सुख-दुःख का घूम-फ़िर कर आना-जाना तो लगा ही रहेगा। पगडंडियों के किनारे उगी हुई कँटीली झाड़ियों के समान ही जीवन-पथ पर भी लोभ सुख-भोग के प्रलोभन रूपी कँटीली झाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। वे मानो जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे पथिकों के वस्त्रों को बड़े प्यार से खींचकर कहतीं हों, " थोड़ा रुको, मुझसे दो बातें कर लो, मेरे शरीर पर काँटे अवश्य हैं, किन्तु इसमें रंग-बिरंगे फूल भी खिलते हैं। भले ही मैं पूर्व-परिचित सुगन्धयुक्त कोई नामी फूल न भी होऊँ किन्तु फ़िर भी रुक कर थोड़ी सी तारीफ़ तो कर ही सकते हो। " परिणामस्वरूप कँटीली झाड़ियों के इस नाटकीय आकर्षण ने हमारे मन को इतना आकर्षित कर लिया कि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति के पथ पर बढ़ना छोड़ कर वहीं रुक गए, तथा काँटो से छीलकर हांथों के क्षत-विक्षत होते रहने पर भी उस सौरभहीन किन्तु रंगीन जंगली फूल के आकर्षण में ऐसे बंधे कि फिर अपने जीवन लक्ष्य तक पहुँच ही न सके । 
इसको ही कहते हैं- दृष्टि का 'विचलन', या लक्ष्य से दृष्टि का हट जाना। किन्तु अगर मेरी बुद्धि 'विवेक' के द्वारा संचालित होते हुऐ 'लुहार की नेहाई के समान- "कूटस्थ" बुद्धि बन चुकी हो  अर्थात मेरे चरित्र में अविचलता (Poise) का गुण समाहित हो चुका हो, तो अपने पूर्व निर्दिष्ट जीवन पथ अग्रसर होते रहने से कोई भी वस्तु मुझे रोक नहीं सकती। जब तक मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक रुक ही नहीं सकता। क्योंकि मेरी दृष्टि, पथ के किनारे बिखरी हुई सभी रंगीन दृश्यों की उपेक्षा कर सदैव अविचल भाव से अपने लक्ष्य पर ही टिकी रहेगी। ऐसा होने पर ही यथार्थ मनुष्य बना जा सकता है, तभी जीवन में सफलता प्राप्त होती है, तभी चरित्र भी गठित हो पाता है। लक्ष्य के प्रति अविचलता का गुण, जीवन गठन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। चाहे सुख आए या दुःख- किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य से विचलित न होना चरित्र का एक महान गुण है। यदि हम जीवन के अवश्यम्भावी घात-प्रतिघातों से विचलित हो गए तो लक्ष्य हमसे दूर ही रह जाएगा, फ़िर हम जीवन-लक्ष्य तक पहुँच भी नही पायेंगे। इसीलिए 'अविचलता' एक अति मूल्यवान गुण है। 
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१५.
' आत्मनिर्भरता' 
( Self- Reliance)
 {ब्रह्म को जान लेने के बाद या आत्मानुभूति कर लेने के बाद} मनुष्य का चरित्र जब चट्टानी-दृढ़ता प्राप्त कर लेता है, य़ा जब उसका जीवन पूर्णतया गठित हो जाता है तो वह स्व-निर्भर हो जाता है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे, " यथार्थ शिक्षा प्राप्त करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जाता है।" यहाँ अपने पैरों पर खड़े होने का क्या अर्थ है ? क्या केवल इतना ही कि पैरों के ऊपर अपने शरीर का पूरा भार डाल कर खड़े हो जाना ?  नहीं, इसका सही अर्थ है -विवेकपूर्ण निर्णय से अपने जीवन-लक्ष्य को निर्धारित कर उसी दिशा में अग्रसर रखने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना, जीवन को सार्थक बना लेने कि क्षमता प्राप्त कर लेना। 
मनुष्य जैसे-जैसे आत्म-निर्भर होता चला जाता है, उसके दुःख-भोग की सम्भावना भी उतनी ही कम होती जाती है। हम जितना ही अधिक दूसरों पर निर्भर रहेंगे, अपेक्षाएँ पूरी न होने पर दुःख पाने कि सम्भावना भी उतनी ही बनीं रहेगी। मनु महाराज ने बड़े ही सुन्दर ढंग से सुख और दुःख का लक्षण बताया है-
" सर्वम् परवशं दुःखम् सर्वम् आत्मवशं सुखम्। 
इति विद्यात् समासेन लक्षणम् सुखदुःखयोः ॥"
- अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुखों का कारण है तथा आत्मा के वश में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है। संक्षेप में सुख और दुःख के लक्ष्ण भी यही हैं। जिस व्यक्ति में, स्पष्ट-धारणा, सामान्य बुद्धि, अविचलता, धैर्य, आत्मसंयम, सहनशीलता, उद्यम, अध्यवसाय, दृढ़ संकल्प, आदि सद्-गुण हों उसको कभी भी परवश नहीं रहना पड़ता। इसीलिये उसके दुःखी होने के बजाय सुखी होने की आशा अधिक रहती है। क्योंकि यही सब गुण उसको आत्मनिर्भरता के गुण से भी अलंकृत कर देते हैं।
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१६.
" आत्म-विश्वास " 
 (Self-Confidence)
जो व्यक्ति आत्मनिर्भर हो कर जीवन-पथ पर चलना सीख लेता है उसके मन में स्वतः ही 'आत्मविश्वास' जागृत हो जाता है। (अर्थात वह स्वयं को केवल एक मरण-धर्मा शरीर नहीं बल्कि सर्वशक्ति शाली आत्मा द्वारा संचालित यंत्र समझता है।) आत्मविश्वास का अर्थ है अपनी क्षमता, अपने सामर्थ्य में विश्वास या आस्था। आत्मविश्वासी व्यक्ति यह जान रहा होता है कि " मैं अपनी स्पष्ट-धारणा शक्ति से विवेक-विचार कर यदि किसी कार्य को सम्पन्न करने का  संकल्प लूँ, तो उसे अवश्य पूरा कर सकता हूँ।" इस प्रकार आत्मविश्वास का अर्थ हुआ, अपने-आप पर विश्वास। स्वामीजी कहते थे- " पहले अपने-आप पर विश्वास, उसके बाद ईश्वर पर विश्वास। तुम यदि तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं पर तथा बीच-बीच में घुसा दिए गए विदेशी देवताओं के ऊपर भी विश्वास करो, पर यदि तुम्हे अपने-आप विश्वास नहीं हो, तो तुम्हारी मुक्ति सम्भव नहीं ।" उनकी इस उक्ति से हम यह समझ सकते हैं कि, स्वामीजी ' आत्मविश्वास ' को कितना महत्व देते थे। उनमे स्वयं अद्भुत 'आत्मविश्वास' था तभी तो उन्होंने  प्रतिकूलता के बीच रहते हुए भी पूरे विश्व को झकझोर कर रख दिया था ! 

चरित्र के गुण : ११-१३: अपने भीतर का आध्यात्मिक दीपक जलाओ !

११.
' स्वच्छता'  
(Cleanliness):  
स्वच्छता  चरित्र का एक अत्यन्त ही प्रयोजनीय गुण है। हम ऐसा सोच सकते हैं कि चरित्र तो मनुष्य की आन्तरिक वस्तु है जबकि स्वच्छता  एक वाह्य वस्तु है, फ़िर यह चरित्र का गुण कैसे हो सकता है ? स्वच्छता के समान ही अन्य अनेक वस्तुएं ऐसी हैं जो प्रथम दृष्टया वाह्य वस्तु  ही प्रतीत होती है, किन्तु उनका मनुष्य के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तथा, इन्हें अपने जीवन में धारण करने से हमारा चरित्र और भी उज्जवल हो जाता है। हो सकता है कि एक-दो व्यक्ति बाहरी स्वच्छता पर ध्यान दिये बिना भी उत्तम चरित्र के अधिकारी बन  गये हों, किन्तु उन्हें अपवाद ही माना जायेगा। किन्तु, जो व्यक्ति अपने संकल्प और प्रयत्न के सहारे ही अपना  चरित्र-गठन करने का इच्छुक हो, उसे तो अवश्य ही स्वच्छता जैसे गुणों को  आत्मसात करना पड़ेगा  तभी तो उसका  चरित्र सुंदर ढंग से गठित हो पायेगा। क्योंकि हम दिखावे के लिये चरित्र गठन करना नहीं चाहते हैं, हम ऐसा नहीं सोचते हैं कि चरित्र के गुणों से युक्त हमारे व्यव्हार को देखकर लोग हमारी प्रशंसा करने लगेंगे --इसीलिये हमें चरित्र निर्माण कर लेना चाहिये। बल्कि, हमारा विश्वास तो यह है कि केवल चरित्र ही मनुष्य को अपने जीवन में सभी प्रकार के कार्यों को सुंदर ढंग से सम्पन्न करने की कला या कौशल प्रदान करता है। 
यदि हम इस कर्मकुशलता या 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' में तो पारंगत हो जाना चाहें किन्तु, हममें यथार्थ मनुष्य कहलाने के योग्य कोई गुण ही न रहें तो हम किसी भी कार्य को सुन्दर ढंग से संपन्न नहीं कर पायेंगे; और कल्बों में जाकर सीखे गये 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' के सारे नुस्खे धरे के धरे ही रह जायेंगे। इसीलिये चरित्र गठन का उद्देश्य सभी के साथ अच्छे  व्यवहार का दिखावा करके केवल 'प्रशंसा प्रमाण-पत्र' प्राप्त कर लेना ही नहीं है। बल्कि, अपने जीवन में सफलता अर्जित करने, अपना सुन्दर भविष्य गढ़ने, सभी कार्यों को सुव्यवस्थित ढंग से कर पाने कि क्षमता अर्जित करने के लिए  हमारे चरित्र में स्वच्छता का गुण रहना अनिवार्य है। हमें अपने प्रत्येक कार्य में स्वछता को प्रश्रय देना होगा।  ध्यान पूर्वक प्रयत्न करते रहने से इसकी आदत पड़ जाती है।
इस प्रकार से धीरे धीरे स्वच्छता का भाव हमारे मन में बैठ जायगा, तब थोड़ी सी गंदगी भी असह्य अनुभव होने लगेगी एवं सभी कार्यों को स्वच्छतापूर्वक करना हमारा स्वभाव बन जायेगा। तब हमारे द्वारा जो भी कार्य सम्पन्न होगा वह अनायास ही स्वच्छ होगा। हम पायेंगे कि हमारी वेश-भूषा, भोजन करने का ढंग, भोजन की थाली, हमारा चाल-ढाल, बात-चीत करने का ढंग, हांथों कि लिखावट सब कुछ अपने-आप धीरे-धीरे स्वच्छ और सुन्दर होता जा रहा है।
पुस्तकों-कॉपियों को आलमारी में रखने का हमारा तरीका, पढने का टेबल, पुस्तकों के पन्ने पलटने के  ढंग में भी अपने-आप ही सौंदर्यबोध झलकने लगा है। फिर तो हमारे मन में केवल स्वच्छ और पवित्र विचार ही उठेंगे। इस प्रकार के स्वच्छ विचारों के द्वारा सभी समस्याओं का सटीक विश्लेष्ण कर उसके तह तक जाने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। स्वच्छ वेश-भूषा, स्वच्छ भाषा तथा सभी कार्य स्वच्छतापूर्वक करने की आदत हो जाने पर हमारा सम्पूर्ण जीवन ही स्वच्छ-शुद्ध हो जाता है। और यह वाह्य स्वच्छता हमारे अंतस् के सौन्दर्यबोध को जाग्रत कराकर पवित्रता की ओर अग्रसर करा देती है। इससे यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि स्वच्छता का गुण चरित्र के लिए कितना प्रयोजनीय है।
अपने वाह्य जीवन में स्वच्छता का अभ्यास करते रहने से जब स्वच्छ रहना हमारा स्वभाव बन जाता है, तब हमारे मन में केवल सत् विचार ही उठते हैं और बुरी इच्छाएं हमारे मन को कलुषित नहीं कर पातीं।  'ज्ञान' के आलोक से मन हमेशा उज्ज्वल बना रहता है तथा हमलोग ईमानदारी, नैतिकता और सत्य की दिशा में निरन्तर अग्रसर होते रहते हैं।
विवेकानन्द कहते हैं, " अगर तुम्हारे कमरे में अँधेरा है, तो तुम छाती पीट-पीट यह तो नहीं चिल्लाते कि हाय ! अँधेरा है, अँधेरा है बड़ा अँधेरा है ! अगर तुम उजाला चाहते हो, तो एक ही रास्ता है-तुम दिया जलाओ और अँधेरा अपने आप ख़त्म हो जायेगा। जो प्रकाश तुम्हारे परे है, उसे पाने का एक ही साधन है, तुम अपने भीतर का आध्यात्मिक दीपक जलाओ, पाप और अपवित्रता का तमिस्र स्वयं भाग जायेगा। " (२/२३६)
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१२. 
अनुशासन  
(Discipline): 
स्वच्छता के सामान ही  एक अन्य महत्वपूर्ण  गुण है-- अनुशासन या आत्मानुशासन। प्रथम दृष्टि में यह भी एक बाह्य गुण जैसा ही प्रतीत होता है किन्तु, धीरे-धीरे यही गुण हममें अपने आन्तरिक जीवन में भी नियम पालन करने की बुद्धि  को जागृत कर देता है। स्वेच्छा से नियमों का पालन करने की आदत बनाने या अनुशासित जीवन जीने का अभ्यास करने से आत्म-संयम का गुण भी स्वतः ही चला आता है। किसी भी प्रकार की शक्ति यदि अनियंत्रित हो जाय तो वह मनुष्य  के लिए क्षतिकर हो  जाती है।
इसीलिए कोई व्यक्ति यदि अपनी आंतरिक शक्तियों का अनुशासित एवं संयमित उपयोग न कर उसे यूँ ही विनष्ट  करता रहे तो अन्त में उसका जीवन भी संकट में पड़ सकता है। अपने हित अहित को समझकर संयमित रहने और दण्ड के भय से संयमित रहने में आकाश-पाताल का अन्तर है। दण्ड के भय से संयम तो गुलामी के सामान है, वहाँ अपनी इच्छा से कुछ भी करने की स्वतंत्रता नहीं रहती, जैसे दूसरों के द्वारा बन्दी बना लिए जाने के बाद कोई मनुष्य अपनी इच्छा से कोई भी कार्य करने की शक्ति को खो देता है। जबकि, अपनी इच्छा से शक्ति प्रवाह को पूर्ण नियंत्रण में रखने, या आवश्यकतानुसार उसका सदुपयोग करने की क्षमता को संयम कहते हैं। तथा इसी वाह्य अनुशासन का पालन करने से, हमें इस क्षमता को अर्जित करने में सहायता मिलती है। अतः अब से हमें जन-कल्याण की दृष्टि से बने सभी नियमों का अवश्य पालन करना चाहिए।
इन नियमों का पालन न करने से जहाँ दूसरों को कई तरह की असुविधा हो सकती है वहीं हमें भी हानि उठानी पड़ सकती है। जैसे यदि सड़क पर बायीं ओर चलने के नियम का पालन न करें तो दूसरों को तो असुविधा होगी हमारा अपना जीवन भी खतरे में पड़ सकता है। जैसे -- खेल के कुछ  सर्वमान्य  नियम होते हैं, यदि  कोई इस नियम को नहीं माने तो खेल हो पाना असंभव हो जायगा। उसी प्रकार जो कार्य संघबद्ध होकर या सामूहिक रूप से किये जाते हैं,  उसमें  संगठन का एक भी सदस्य यदि नियमों की अवहेलना करे, तो वह सामूहिक प्रयास विफल होने को बाध्य हो जायगा।  नियमों की अनदेखी करने से सब कुछ अनियंत्रित हो जाता है। अनुशासन या नियम पालन करना दुर्बलता का चिन्ह नहीं बल्कि सबलता का द्योतक है। क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बेतरतीब ढंग से जीने की होती है। विवेक-प्रयोग एवं संयम के बल पर ही मनुष्य अनुशासित हो सकता है।  अपने सभी कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पादित करने तथा अभी के कल्याण के लिए --अनुशासन अत्यन्त आवश्यक गुण है।  
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१३. 
समयनिष्ठता 
 (Punctuality): 
 समयनिष्ठता या समय की पाबंदी भी चरित्र का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत को ही समयनिष्ठता कहते हैं। वास्तव में यही गुण जीवन में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है। जो व्यक्ति समय का पाबन्द नहीं होता, वह जीवन के अन्तिम पड़ाव पर आकर देखता है कि सारा जीवन तो व्यर्थ में ही व्यतीत हो गया ! क्योंकि समय अत्यन्त ही द्रुत गति से व्यतीत हो जाता है, इसलिये यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी हो तो उसके साथ उतनी ही द्रुत गति के साथ उसके ताल से ताल मिलाना आवश्यक हो जाता है। यदि हम समय के साथ-साथ नहीं चले तो तो पीछे छूट जायेंगे तथा समय के पीछे छूट जाने वाले पुनः कभी उसे पकड़ नहीं सकते, और जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकते।
बहुत से लोग सोंचते हैं कि- ' यदि आज का दिन यूँ ही बीत भी गया तो उससे क्या बिगड़ गया ? कल यही सूर्य पुनः उदित होगा तथा मुझे फिर से एक और दिन तो मिल ही जायगा।' किन्तु, वे यह नहीं सोचते कि - जो दिन आयेगा, वह तो अभी भविष्य (काल) के गर्भ में है, किन्तु, आज का दिन जो व्यतीत हो गया उसे फ़िर दुबारा कभी नहीं पाया जा सकता ! आज ही जिस कार्य को निपटा दिया जा सकता था उसको अगले दिन के लिए टाल देने से अगले दिन जो हो सकता था, वह तो नहीं हो पायेगा। यह एक दिन जो व्यतीत हो गया उसे जीवन में दुबारा कभी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए जो कार्य अभी हो सकता है, उसे कल पर कभी नहीं टालना चाहिए क्योंकि, अभी वाला कार्य बाद में करने से, उस दिन जिस कार्य को निपटा देते सो तो नहीं ही हो पायेगा ? अतः किसी भी कार्य में टाल-मटोल करना स्वयं को धोखा देना ही कहलायेगा। किसी भी कार्य को कल पर टालते रहने की बुरी आदत, एक बहुत बड़ा दुर्गुण है - इसी को 'दीर्घसूत्रता' (Procrastination) कहते हैं। एक ही कार्य में अधिक समय बर्बाद कर देना दीर्घसूत्रता कहलाती है। जिस किसी भी व्यक्ति के चरित्र  में यदि यह दुर्गुण प्रविष्ट हो गया हो, तो उसका जीवन असफल रह जाने के लिये बाध्य है।  
इसीलिए सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत डाल लेनी चाहिए, तथा इस 'समयनिष्ठता' को अपनी प्रवृत्तियों में सबसे पहला स्थान देना चाहिए। सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत जब गहरी होकर हमारी सहज-प्रवृत्ति बन जायेगी, तो यह देखकर हम आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि समय का कितना अधिक सदुपयोग हो सकता है। कुछ भी अर्जित करने के लिये परिश्रम करना ही पड़ता है, बिना परिश्रम किये कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। 'श्रम करने' - का अर्थ ही है, किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष रूप से कार्यरत रहना। और कार्य करने में समय लगता ही है। यदि हम समय का कोई हिसाब न रखें तो साधारण से काम में ही  हमारा सारा समय व्यतीत हो जायगा तथा शेष समय में जो काम हम कर सकते थे - वह नहीं हो पायेगा। समय का ध्यान न रखने पर उस कार्य के द्वारा जितना कुछ अर्जित हो सकता था, वह तो नहीं ही हो सकेगा तथा अन्त में हम स्वयं को ही ठगा हुआ अनुभव करेंगे।
अतः मनुष्य मात्र के लिये जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करना-अर्थात समय को नष्ट न करके ऐसा कार्य में लगाना जिससे की कुछ अर्जित हो सके परम-आवश्यक है। क्योंकि यदि हमलोग समय का सदुपयोग करने की कला को सीख जायें तो पढाई-लिखाई के साथ-साथ खेल-कूद, चित्रकला, गीत-संगीत, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा (संस्कृत-उर्दू-स्पेनिश-फ्रेंच) आदि बहुत कुछ सीख सकते हैं । इस प्रकार हम जो सीख लेंगे उसका प्रयोग तो अपने जीवन में करेंगे ही, और उस अतिरिक्त ज्ञान के माध्यम से अपने बन्धु-बान्धवों के जीवन को भी सुंदर एवं सफल बनाने में सहायता कर सकेंगे ।
यदि हम समय का सदुपयोग करना चाहते हों तो हमें समयनिष्ठ-मनुष्य या समय का पाबन्द व्यक्ति बनना ही पडेगा। जिस समय जिस कार्य को करना उचित एवं आवश्यक प्रतीत होता हो, ठीक उसी समय कर डालने का अभ्यास करना अत्यन्त अनिवार्य है। यदि समय से विद्यालय नहीं पहुँचा जाये तो ठीक से पढ़ा-लिखा मनुष्य भी नहीं बना जा सकता है। समय से खेल के मैदान में न पहुँचा जाये तो हो सकता है कि प्रथम दल के साथ खेल में भाग लेने से वंचित रहना पड़े। समय से रेलवे स्टेशन न पहुँचें तो ट्रेन छूट सकती है । इस लेट-लतीफी के कारण कभी भारी संकट का सामना भी करना पड़ सकता है। ठीक समय से सब कार्य निपटा लेने की आदत डाल लेने पर अन्य कई प्रकार के कार्यों के लिए भी समय मिल जाता है। इससे विश्राम या मनोरंजन के लिए भी समय निकल आता है। तथा मन में भी हर समय आनन्द का भाव बना रहता है। सभी कार्यों में उत्साह मिलता है तथा पूरे जीवन की गति ही मानो बढ़ जाती है।
यदि हम स्वच्छतापूर्वक समय की गति के साथ कदम से कदम मिलाते हुए जगत के कल्याण के जितने भी नियम हैं उनका पालन करते हुए जीने की आदत डाल लें तब चरित्र के अन्य दूसरे गुणों को भी आत्मसात करना सहज हो जाता है। इस प्रकार हम अच्छे चरित्र का अधिकारी बन कर अपने जीवन को सार्थक बना  सकते हैं।
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Thursday, March 6, 2014

चरित्र के गुण : ९-१० : स्वभावतो अग्निः ऊर्ध्वमेव प्रयाति

९.
' धैर्य'
 (Patience):
 यदि हम पहले गुण से लेकर अध्यवसाय तक के सभी गुणों को अपने चरित्र में शामिल कर लें तो हमें एक और गुण की भी परीक्षा देनी होगी। वह है- धैर्य। धैर्य का अर्थ है- तुरन्त हताश न होना। अब जैसे मैंने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का कार्य प्रारम्भ किया, तो मुझे उसमें थोड़ा कष्ट भी सहन करना पड़ेगा। किन्तु थोड़ी ही दूर चलकर  धैर्य खो देने, तुरन्त निराश हो जाने से तो कोई भी मूल्यवान वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। 'सहनशीलता' जैसा गुण पूर्णतः चरित्रगत होने में विलंब होना स्वाभाविक है, अतः जब तक इस प्रकार के गुण (जिसका मनांक शून्य हो) में  'A' का अंक नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक निष्ठा नहीं त्यागना ही धैर्य है। आलस्य और उद्दम के विषय में आपने जिस 'राजा-कवि' की उक्ति पहले पढ़ी वे ही धैर्य के विषय (ऩीतिशतकम् -७७) में क्या कहते हैं -
कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधश्शिखा याति कदाचिदेव।।
(यथा महता प्रयत्नेनापि अग्नेर्ज्वाला न नीचैः प्रसर्पति, स्वभावतो अग्निः ऊर्ध्वमेव प्रयाति, तथैव प्रकृत्या धीरस्य पुरुषस्य दुर्दशायामपि न धैर्यच्युतिः संभवति।)- जिस प्रकार अग्नि की शिखा को चाहे जितना भी अधोमुखी करने की चेष्टा क्यों न की जाय वह उसी क्षण उर्ध्वमुखी हो जाती है और जलती रहती है। दीप-शिखा स्वभावतः केवल उर्ध्वमुखी रहती है -उसी प्रकार धैर्यसम्पन्न व्यक्ति के धैर्य को नष्ट करने की चाहे जितनी भी चेष्टा क्यों न की जाय, उसका धैर्य कभी नष्ट नहीं होता।  हमलोगों में भी इसी प्रकार का धैर्य रहना चाहिये।
यदि कोई पहले स्पष्ट धारणा बनाये फिर सद् संकल्प ले तत्पश्चात उसपर दृढ़ रहते हुए अपने संकल्प को साकार करने के लिए बिना धैर्यहीन हुए उद्दम और निष्ठांपूर्वक अथक प्रयत्न करता रहे, तो वह सबकुछ प्राप्त कर सकता है।
यदि परिवेश के बन्धनों को अस्वीकार करते हुए सत शिक्षा एवं इन सद्गुणों के विषय में जान कर इन्हें आत्मसात कर लिया जाय तो किसी भी परिवेश में जन्मे व्यक्ति का जीवन स्वप्न कभी अपूर्ण नहीं रह सकता। परिवेश तथा  परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, मनुष्य को हर स्थिति में महान जीवन का ही स्वप्न देखना चाहिये। सत् शिक्षा के माध्यम से चरित्र को महान बना देने वाले गुणों को आत्मसात कर हम सभी अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
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१०.
 साधारण बोध  
(Common-Sense): 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- " मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है।" किन्तु, बहुत से लोग उनकी इस उक्ति पर विश्वास नहीं कर पाते। उनका तर्क होता है कि यदि मनुष्य चाहने मात्र से अपना भविष्य अच्छा बनाने में समर्थ होता तो आखिर इतने सारे मनुष्यों के भाग्य में इतना दुःख क्यों दिखाई देता है ? वर्तमान युग को हम चाहे कितना भी विज्ञान का युग, युक्तिवाद का युग क्यों न कहें,विज्ञान की सहायता से मनुष्य की समस्त समस्याओं को हल कर लेने का चाहे कितना भी दावा क्यो न करें,सच तो यह है कि मनुष्य अपने मन की दुर्बलताओं पर  अभी तक पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर पाया है। यदि यह बात सत्य न होता तो आज भी लॉटरी का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार कैसे हो रहा है ? ज्योतिषियों तथा अंगूठीयों के लिये विभिन्न प्रकार के ग्रह निवारक पत्थरों, ताबीजों को बेचने वाले जौहरियों का बाजार आज भी इतना गरम क्यों है ? इन ज्योतिषियों और जौहरियों ने अपने विज्ञापन के लिये ' भाग्यम फलति सर्वत्र ' लिख कर हर दीवाल को रंग दिया गया है जिससे कि हम-आप उसे पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं।
वास्तविकता तो यह है कि यथार्थ 'वस्तु' की खोज कैसे की जाती है यह हम एकदम नहीं जानते, युक्ति-तर्क से हमारा कोई संबंध ही नहीं है और वैज्ञानिक मनोभाव का अधिकारी होना तो अभी हमारे लिये दूर की कौड़ी है। यदि हम युक्ति-तर्क को महत्व दें, वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यों का विश्लेषण करें और अपने ह्रदय में ही विद्द्यमान यथार्थ 'वस्तु' को पहचान लें, तो यह आसानी से समझ लेंगे कि वास्तव में हमलोग ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। किन्तु, सच्चाई यह है कि हमारे अन्दर तो साधारण बोध (Common-Sense) का भी घोर आभाव है। हमलोग किसी भी विषय पर अपनी बुद्धि खर्च करना नहीं चाहते। केवल दूसरे लोगों की राय सुनना चाहते हैं और लोगों की सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास कर के बैठ जाते हैं। हम युक्ति-विचार कर के यह नहीं देखते कि ज्योतिषी लोग जो कहते हैं वो क्या हमेशा सही ही होता है ?  प्रायः भविष्य बताने का दावा करने वाले बाबा लोग सीधे-साधे लोगों को ठगने के लिये तरह-तरह कि मनगढ़ंत बातें कहते रहते हैं। क्या हम इतनी सी बात नहीं समझ सकते कि परिश्रम किए बिना धनोपार्जन नहीं किया जा सकता है ? तथा उपार्जन किए बिना हमारा आभाव दूर नहीं हो सकता है। बैठे रहने से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिश्रम करने के लिये जिस प्रकार शारीरिक शक्ति लगानी पड़ती है, उसी प्रकार बुद्धि का प्रयोग भी करना आवश्यक होता है। बुद्धि के साथ यदि थोड़ी विद्या भी रहे तो केवल शारीरिक परिश्रम से किये गये उपार्जन की तुलना में अधिक उपार्जन होता है तथा भविष्य बेहतर बन सकता है। यदि हमलोग समाज के लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध न रखें, सभी के साथ क्रमशः विवाद में उलझते रहें अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यदि दूसरो को क्षति पहुँचाएं, दूसरों को संकट में घिरा देख कर भी सहायता न करें तो क्या यह समझना बहुत कठिन है कि इन्ही सब कारणों से हमें भी अनेकों कष्ट भोगना पड़ेगा और भविष्य में सुख शान्ति भी नहीं प्राप्त होगी ? इसीलिए हम यदि भविष्य में सुख और शान्ति दोनों पाना चाहते हों तो हमे कठिन परिश्रम करना पड़ेगा तथा साथ ही साथ अपनी बुद्धि एवं विद्या का भी उपयोग करना होगा। फिर अपने व्यवहार को भी शालीन और सुन्दर  रखना होगा। यह सब तभी सम्भव है जब हमारे चरित्र में उपरोक्त सभी गुण समाहित हों, और केवल चाहने मात्र से कुछ नहीं होता, चरित्र के गुणों को भी आत्मसात करने का प्रयास करना पड़ता है। 

चरित्र कोई जन्म से ही प्राप्त या आकाश से टपकी हुई वस्तु नहीं है। इसे अनवरत कठिन परिश्रम से थोड़ा-थोड़ा करके गठित करना पड़ता है। चरित्र के गुणों को जो जितना अर्जित करता है, उसकी सहायता से वह वैसा ही भविष्य गढ़ सकता है। अब, प्रश्न उठ सकता है कि क्या अच्छे चरित्र के गुणों से विभूषित व्यक्ति के जीवन में दुःख नहीं आता है ? ऐसा दावा तो कोई नहीं कर सकता। न्यूनाधिक सभी को कष्ट भोगना पड़ता है। संसार की यही रीति है। भागवत (उद्धवगीता) में कहा गया है-  
" न देहिनां सुखं किञ्चित् विद्यते विदुषाम् अपि।"
 अर्थात ज्ञानीजनों को भी हर समय केवल सुख में ही नहीं पाया जा सकता। किन्तु, बुद्धिमान व्यक्ति हमेशा यही देखेगा कि अन्तिम परिणति कैसी होगी, जीवन का अन्तिम समय कैसे अच्छे ढंग से व्यतीत होगा। बहुत से निर्बोध लोग यह सोचते हैं कि अधिक चालाकी करके शीघ्र ही अधिक से अधिक सुखों को बटोर सकते हैं। किन्तु, प्रायः यह दिखाई देता है कि चालाकी द्वारा अर्जित सुख टिकाऊ नहीं होता है, तथा इसके बदले में थोड़े ही दिनों बाद अधिक परिमाण में दुःख भोगना पड़ता है। वैसे यह भी हो सकता है कि उस व्यक्ति को अपने जीवन में अधिकांश समय सुख-भोग प्राप्त होता रहे या जीवन भर के लिये सुख तो मिल जाय किन्तु, उसको जीवन में शान्ति कभी नहीं मिल सकती।
  हमें यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि, केवल सुख-सुविधा जुटा लेने से ही मनुष्य जीवन सफल नहीं हो जाता। बल्कि, थोड़े ही दिनों बाद मनुष्य का मन शान्ति प्राप्त करने के लिये छटपटाने लगता है। जिस प्रकार मनुष्य  सुख-सुविधा पूर्ण जीवन जीने कि इच्छा किए बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार जीवन में शान्ति न रहने पर  जीवन बोझ बन जाता है। यदि अपने जीवन में मिली प्रत्येक असफलता तथा दूसरों के जीवन के सुख-दुःख का ध्यानपूर्वक विश्लेष्ण किया जाय तो उसके कारणों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। साधारण बोध, सामान्य बुद्धि या common-sense का व्यवहारिक उपयोग- यही तो है। इस विश्लेषण से हम यही पायेंगे कि इन सब के मूल में उस व्यक्ति के चरित्र के विभिन्न गुण ही हैं। इन गुणों के रहने या न रहने पर ही हमारे जीवन की सफलता-विफलता, सुख-दुःख और शान्ति-अशान्ति निर्भर है। यदि ऐसा है तब तो कहा ही जा सकता है कि मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता या अपने भाग्य का निर्माता है ? अपने  तथा दूसरों के कर्मों एवं उनके फलों को देखने से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है कि कर्म फल का नियम अटल है, उसे टाला नहीं जा सकता। कहा भी गया है- ' करम-गति टारे से नाहीं टरी'। इसीलिए, किस कर्म का कैसा फल प्राप्त होता है, इसको ठीक से समझ लेना चाहिये। लक्ष्मणजीने अध्यात्मरामायणमें निषादराज गुह से कहा है‒ 
                         सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

                                            परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।

                         अहं करोमीति वृथाभिमानः

                                           स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

                                                                          (२/६/६)

‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’ यही बात तुलसीकृत रामायणमें भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

                                                                  (मानस २/९२/२)
सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है‒यह खास सूत्र है ! अमुक व्यक्ति के कारण ही मुझे इतना दुःख उठाना पड़ा था, उसको तो मैं छोड़ूँगा नहीं ! ऐसा भ्रमयुक्त निर्णय जो देता है‒उसी को कुबुद्धि कहते हैं। यह कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःख दे दिया‒यह बात सिद्धान्तकी दृष्टि से भी गलत है । क्योकि एक बात तो यह है कि परमात्मा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं। ऐसे परमात्मा के रहते हुए, उनकी जानकारी में कोई भी किसीको दुःख दे सकता है क्या? दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख देता है तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही। कहीं जाओ, किसी भी योनि में जाओ दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।
हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं। सारी मनुष्य जाति अपने-अपने कर्मफलों से बंधी है। पातञ्जलयोगदर्शनमें लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मों के फलसे जन्म, आयु और भोग होता है । भोग नाम किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’ अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थितिका अनुभव हो जाय, उसमें अनुकूल-प्रतिकूलकी मान्यता हो जाय, इसका नाम ‘भोग’ है । अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और काम की है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मों की बात । अतः परिस्थिति को लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है। वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ? अतः इन बातों को ध्यान में रखते हुए सावधानीपूर्वक कर्म किया जाय तो अनेक कष्टों से बचा जा सकता है। 
सर्वदा सतर्क रहने वाली बुद्धि को ही सामान्य बोध (common sense) कहा जाता है। श्री रामकृष्ण देव सतर्क बुद्धि का उदाहरण देते हुए कहते हैं -'  एक हाँथ से ढेकी में चावल कूटती, दूसरे हाथ से पैला से धान डालते समय महिला का ध्यान सदा मूसल पर ही लगा रहता है।" किन्तु यह साधारण बोध सभी मनुष्यों में एक समान नहीं होता। जिस व्यक्ति में साधारण बोध कम मात्रा में रहता है, उसे अनेकों बार विफलता का मुख देखना पड़ता है या दुःख भोगना पड़ता है। "आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है " - यदि इस सामान्य ज्ञान को अपने अनुभव से या दूसरों के अनुभव से सीखकर सदा के लिए मन में न रखा जाय तो न जाने कितने लोगों को कितनी बार हाथ जलाना पड़े। अस-पास की घटनाओं को देख-सुनकर सीख लेने से जो बुद्धि प्राप्त होती है, उसी को साधारण बोध कहते हैं। इसीलिए किसी मनुष्य में जन्म के समय जितना साधारण बोध था जीवन भर उतना ही रहेगा, ऐसी बात नहीं है। आँख-कान खोलकर आस-पास घटित होने वाली घटनाओं को देखने-सुनने तथा अनुभव द्वारा कुछ-कुछ सीखते रहने की चेष्टा करते रहने से मनुष्य का साधारण बोध बढ़ जाता है।
'सामान्य-बोध ' में एक और आश्चर्यजनक क्षमता है। इसकी सहायता से हम किसी भी विषय या समस्या के तह तक भी जा सकते हैं। क्योंकि 'साधारण बोध' (प्रज्ञा) सारी जटिल वस्तुओं एवं परिस्थितियों को सहज भाव से समझने का प्रयास करता है। इसके फलस्वरूप ऐसा होता है कि किसी विषय में बहुत अधिक ज्ञान रखने वाले लोग भी जिस समस्या का हल ढूंढ पाने में असमर्थ हो जाते हैं, साधारण बोध अत्यन्त ही सहजता से उसका भी कोई न कोई हल अवश्य ढूंढ़ निकालता है।  उदहारण के लिये जब खण्डित मूर्ति की पूजा के विषय में बड़े-बड़े पंडित लोग कोई शास्त्र सम्मत निर्णय नहीं ले पा रहे थे, तब श्री रामकृष्ण ने अत्यन्त ही सरलता से उपाय सुझाते हुए एक प्रश्न किया- " यदि रानी रासमणि के दामाद का एक पैर टूट जाय तो क्या आप उन्हें भी गंगाजी में फेंकने की सलाह देंगे ?" इस तरह से तुरन्त ही समस्या का समाधान हो गया। 
इसीलिए चरित्र के अन्यान्य गुणों के साथ इसका गुणगत सादृश्य न रहने पर भी इसे चरित्र का एक गुण माना जा सकता है।  साधारण बोध का अधिकारी होने पर चरित्र के अन्य गुणों को बढाना सहज हो जाता है तथा सामान्य तौर पर जीवन में सफलता पाना भी सहजतर हो जाता है।

चरित्र के गुण : ३ से ८: जीवन-गठन के पाँच अभ्यास

 ३.
' आत्म संयम '
 (Self-Control):  
आज संयमहीनता, आधुनिकता का पर्याय बन गया है। आधुनिक मनुष्य ने प्रकृति की शक्तियों को संयमित या नियंत्रित करके उसका इच्छानुरूप प्रयोग कर सुखदायक यंत्रों का निर्माण कर लिया है। वाह्य प्रकृति के क्षेत्र 'संयम' जितना प्रयोजनीय है, उतना ही प्रयोजनीय अन्तः प्रकृति के क्षेत्र में भी है। 
मनुष्य अपनी आंतरिक शक्तियों को संयमित कर अनेक प्रकार के लाभ उठा सकता है, तथा कई प्रकार के अनावश्यक संघर्ष, क्षति और अप्रीतिकर परिस्थतियों में उलझने से भी बच सकता है। किसी मनुष्य की वाणी तथा व्यवहार संयम उसकी दुर्बलता की नहीं बल्कि उसकी आंतरिक शक्ति की ही अभिव्यक्ति है। उनपर तथा अन्य आन्तरिक शक्तियों पर अभ्यास के द्वारा 'संयम' रखा जा सकता है।
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४. 
'सहनशीलता'
 (Tolerance)
 व्यवहार या वाणी में 'संयम' का जो आभाव हमें अक्सर दिखाई देता है। उसका कारण हमारे चरित्र में एक अन्य गुण का आभाव ही है। वह गुण है- 'सहनशीलता'। बहुत सी बातें हमें क्षण भर में ही हमे असहनीय लगने लगतीं हैं, हम अधीर हो उठते हैं। उसपर धैर्यपूर्वक विवेक-विचार किए बिना हम क्षण भर में ही उत्तेजित होकर तीखी वाणी तथा अभद्र आचरण का प्रदर्शन करने लगते हैं। कभी कभी तो हम इतने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि कठोराघात करने पर भी उतारू हो जाते हैं जो कहीं से भी अच्छा नहीं दिखता। इसका परिणाम अधिकांशतः अच्छा नहीं ही होता है, इसे विस्तार से समझाने  की आवश्यकता नहीं है। मेरी पसंद या नापसंद किसी बात के सच या झूठ होने का पैमाना नहीं है। मेरी पसंद-नापसंद पर ही सभी बातों का मूल्यांकन हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मेरा विचार सही भी हो तथापि उसपर मेरी तात्क्षणिक कठोर प्रतिक्रिया दूसरों के आत्मसम्मान को चोट तो पहुँचा ही चुकी होगी।
बहुत से लोगों में यह शक्ति नहीं होती कि वे तत्क्षण प्रतिक्रिया दिखाने से स्वयं को रोक लें; यह शक्ति 'संयम' का अभ्यास करने से ही प्राप्त होती है। यदि हमारे चरित्र में सहनशीलता की शक्ति (गुण) हो तो हम दूसरों के विश्वास, मत, विचार या वक्तव्य को शांति से सुन-समझ सकते हैं। फिर धैर्यपूर्वक विवेक-विचार कर अपने मत से दूसरों के मत के न मिलने के बावजूद भी उसके मत की आंतरिक सच्चाई  को देखने का प्रयास कर सकते हैं।
यदि दुसरे के मत या वक्तव्य में सत्य का थोड़ा भी अंश न रहे तो भी जो सत्य है उसे धैर्यपूर्वक सबको समझाया जा सकता है। इसी गुण को ' सहनशीलता' कहते हैं। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। इसके समान महत्वपूर्ण गुण कम ही हैं। श्री रामकृष्ण देव कहते थे- "जो सहता है, वही रहता है; जो नहीं सहता उसका नाश हो जाता है "। (जे ना शोए तार नाश होये) वे कहा करते थे - " वर्णमाला में तीन प्रकार के 'स' हैं- श,ष,स मानो ये हमसे कह रहे हों कि सहना सीखो, सहना सीखो, सहना सीखो ! " सहनशील नहीं होने पर अन्ततोगत्वा नाश ही होता है।
एक पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक ने, सफलता के शीर्ष पर पहुँचे तथा जीवन के खेल में असफल सिद्ध हुए कुछ विख्यात व्यक्तियों के चारित्रिक गुणों का विश्लेषण किया था। इसका उद्देश्य उनकी सफलता और असफलता में चारित्रिक गुणों एवं अवगुणों की भूमिका का विश्लेषण करना था।  इसीलिये उसने उन लोगों के चरित्र में समाहित प्रत्येक गुण का मानांक निर्धारित कर उन सभी के चारित्रिक गुणों की एक तुलनात्मक तालिका बनाई थी। उसने पाया था कि इतिहास प्रसिद्द वीर योद्धा 'नेपोलियन बोनापार्ट' के चारित्रिक गुणों की तालिका में जीवन को अप्रतिम सफलता दिलाने वाले बहुत सारे मूल्यवान गुण थे। किंतु, एक अति महत्वपूर्ण गुण--सहनशीलता के आभाव के कारण उसे अपने जीवन के अन्त में घोर पराजय, अपमान और ग्लानी को झेलते हुए एक निर्वासित कैदी के रूप में ही प्राण त्यागना पड़ा था। उस मनोवैज्ञानिक ने बेचारे वीर योद्धा नेपोलियन को सहनशीलता में शुन्य अंक दिया था। 
इसीलिए महाभारत में बिल्कुल ठीक ही कहा गया है :-
      "अविजित्य यः आत्मानम् आमात्यान विजीगीषते।
         अमित्राण वाजितामात्य यःसोह्वशः परिहीयते।।"  
अर्थात, जो राजा पहले आत्मजय किए बिना ही (संयम की सहायता से अपने मन-इन्द्रियों को जीते बिना ही ) आमात्य वर्ग या मंत्रियों जीतने की अभिलाषा रखते हैं एवं आमात्य वर्ग को जीते बिना ही शत्रुओं को जीत लेने की अभिलाषा रखते हैं वे अवश्य ही शक्तिहीन और पारजित हो जाते हैं। 
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५. 
' स्पष्ट-धारणा' 
 (Clear thinking): 
 मनुष्य जन्म के समय शिशु रहता है, फिर नाना प्रकार की जानकारियों का संचय करते हुए धीरे- धीरे बड़ा बन जाता है। किसी-किसी के जीवन में बचपन से ही ढेर-सारे सपने होते हैं और कुछ लोगों का जीवन बचपन से ही इतना बोझिल होता है कि उनके लिये सुन्दर स्वप्न देखना भी एक प्रकार की विलासिता बन जाती है। किन्तु, प्रत्येक के जीवन में दो बातें समान रूप से घटित हो सकतीं हैं। एक तो यह कि वह दैवयोग से जिस परिवेश में रख दिया गया है, आजन्म उसी में पड़ा रहे; या फ़िर पुरुषार्थ कर यथार्थ शिक्षा प्राप्त कर ले। यदि यह मान भी लिया जाय कि परिवेश में परिवर्तन बहुत ही कष्टसाध्य होता है तब भी ऐसी शिक्षा की खोज तो की ही जा सकती है जो जीवन को रूपान्तरित करने में सहायक सिद्ध हो एवं उस शिक्षा से ऐसे भाव भी ग्रहण किए जा सकते हैं जो कि परिवेश के प्रभाव से हमारे जीवन की रक्षा करने वाला रक्षा-कवच बन जाय।
'जीवन-गठन' के विषय में गहराई से चिन्तन करना कितना आवश्यक है-- इस बात को हम सभी को भली-भाँति समझ लेना चाहिये। क्योंकि हमारा जीवन, नदी की धार में खर-पतवार जैसा बहते रहने की वस्तु नहीं है। जीवन की गति को इच्छानुसार मोड़ा जा सकता है, इसके प्रवाह की दिशा को निर्दिष्ट किया जा सकता है तथा जीवन को विशेष रूप में ढाला जा सकता है।
हमारे जीवन-गठन की गुणवत्ता के ऊपर ही यह निर्भर करेगा कि हमारा जीवन सार्थक होगा या यूँ ही व्यर्थ में नष्ट हो जाएगा। इसीलिए इसके विषय में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट रहनी चाहिये। क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य है --अपने जीवन को गठित कर लेना।  और किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिये यह आवश्यक है कि उस कार्य के विषय में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट हो--चाहे वह जीवन गठन का कार्य हो या अन्य कोई भी कार्य हो। चरित्र में स्पष्ट धारणा क्षमता के गुण को अर्जित करने का तात्पर्य- बुद्धि के निर्णय शक्ति को इतना तीक्ष्ण बना लेने से है या उस विचार-क्षमता से है, जिसके समक्ष ज्ञातव्य विषय का कोई भी पहलू छुपा न रह सके।
जिस प्रकार किसी सरोवर का जल अत्यन्त स्वच्छ होने से, उसकी तली तक साफ-साफ दिखलाई पड़ती है,ठीक  उसी प्रकार से किसी ज्ञातव्य विषय को साफ-साफ देखने के प्रयास में जितना कुछ सामने दिख रहा है, केवल उतना ही नहीं, जो आगे आ सकता है, जो बाद में घटित हो सकता है --यदि वह भी हमारे मनःचक्षु के समक्ष उदभासित हो उठे तो उसी को स्पष्ट धारणा की क्षमता कहेंगे। 'स्पष्ट धारणा' बनाकर चाहे कोई भी कार्य किया जाय उसमें सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है। 
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६.
दृढ संकल्प 
 (Determination)
 चाहे कोई भी कार्य सम्पन्न करना हो हमें पहले उसके प्रति दृढ़ संकल्पवान होना ही होगा। (इसलिये हमलोग सत्यनारायण की पूजा या किसी भी पूजा को करने के पहले हमलोग हाथ में जल लेकर पूजा का संकल्प करते हैं।) विशेषकर, यदि हम अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करना चाहते हों, तब तो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारे चरित्र में दृढ़ संकल्प का गुण और भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि चाहे जिस भी कारण से हो मैंने जिस कार्य को पूरा करने का संकल्प ले लिया है अर्थात इस कार्य को तो करूँगा ही-ऐसा  सोचकर कार्य में उतरा हूँ, यदि कार्य में उतरने के बाद वह इच्छा या संकल्प ही मन से निकल जाये तो अन्ततः वह कार्य कभी पूर्ण न हो सकेगा। इसीलिये किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसके प्रति मन में दृढ़ संकल्प रहना चाहिये तभी तो सिद्धि प्राप्त होगी। 
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७. 
'उद्दम '
(Initiative):  
सभी उपलब्ध विकल्पों पर 'स्पष्ट धारणा क्षमता' की सहायता से अच्छी तरह से सोच-विचार कर लेने के बाद हमने जिस कार्य को पुरा करने का संकल्प लिया, उसको प्रारम्भ करने के लिये जिस गुण की आवश्यकता होती है --वह है 'उद्दम' या पहल करने की क्षमता। सीधे-सीधे कहा जाय तो 'उद्दम' का अर्थ है- जिस कार्य को करने का संकल्प लिया है उसे पूर्ण करने में कमर कस कर जुट जाना या प्रयासरत हो जाना।
आलस्य के ठीक विपरीत है --'उद्दम'। आलस्य का अर्थ होता है कार्य करने के प्रति अनिच्छा। उद्दम का अर्थ है- कार्य के प्रति अदम्य उत्साह। जिस व्यक्ति में पहल करने की क्षमता या उद्दम ही न हो उस व्यक्ति के द्वारा कुछ भी कर पाना संभव नहीं है। संस्कृत का एक अत्यन्त ही सुन्दर नीतिश्लोक है --
" आलस्यहि मनुष्याणाम शरीरस्थो महान रिपुः । 
नास्ति उद्दमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति॥ "
-अर्थात मनुष्यों के शरीर में रहने वाला ' आलस्य' ही उसका सबसे बड़ा  शत्रु है तथा उद्दम के समान परम मित्र अन्य कोई नहीं है। उद्दमी व्यक्ति को कभी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता।
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8. 
अध्यवसाय 
 (Perseverance):  
किसी कार्य में जुट जाने को उद्दम कहा जाता है। तथा सफलता मिलने तक निष्ठापूर्वक कार्यरत रहने को अध्यवसाय कहा जाता है। यदि हमने किसी कार्य का प्रारंभ तो उद्दम के साथ किया किन्तु दृढ़तापूर्वक उस कार्य में जुटे न रहे तो इसका यही अर्थ होगा कि उस कार्य के प्रति हमारी निष्ठा में कमी थी। निष्ठा में कमी रहने से हमारा कार्य कभी सफल नहीं हो सकता। जिस कार्य को करने का बीड़ा हमने उठाया है, यदि उसके प्रति प्रेम और अनुराग बना रहे तो निष्ठा भी बनी रहेगी। किन्तु, क्या हम प्रायः  यह नहीं देखते कि जो कार्य हमें करना पड़ रहा होता है, वह हमें अच्छा नहीं लगता है ? इसका कारण है- निष्ठा का अभाव। 
यदि हम यह जान लें कि निष्ठापूर्वक कार्य करते रहने के गुण को कैसे प्राप्त किया जा सकता है तब निष्ठापूर्वक कार्य करके किसी भी कार्य में सफलता पाई जा सकती है। किसी कार्य के फल या परिणाम पर विचार करने से ही निष्ठा आती है। साधारणतया कार्य करना सुखकर नहीं ही अनुभव होता है, क्योंकि उसके लिये परिश्रम करना  पड़ता है। निश्चित ही किसी भी कार्य को करने में थोड़ा कष्ट तो होता ही है। किन्तु, स्पष्ट-धारणा क्षमता की  सहायता से यदि यह बात पहले ही ज्ञात हो जाय कि मैं जिस कार्य में लगा हुआ हूँ उस कार्य का फल निश्चित ही अत्यन्त लाभकारी होगा। तब उस कार्य के प्रति स्वाभाविक अनुराग उत्पन्न हो जाता है तथा फिर उस कार्य में निष्ठापूर्वक लगे रहना मधुर हो जाता है। इसको ही अध्यवसाय कहा जाता है।
कृषि कार्य में हमारे किसान भाइयों को अत्यन्त ही कठिन परिश्रम करना पड़ता है, किन्तु उन कठिन क्षणों में उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता छाई रहती है, उनकी स्त्रियाँ भी फसल बुआई के समय खुशी के गीत गातीं हैं,क्योंकि उन्हें यह ज्ञात होता है कि उनके इसी कठिन परिश्रम से सोने जैसी फसल पैदा होगी। उसी प्रकार यदि हमें यह ज्ञात हो कि हम जो कार्य (जीवन-गठन) कर रहे हैं, उसका परिणाम अत्यन्त लाभ दायक होगा तो  निष्ठापूर्वक कार्य करना सरल हो जाता है। " मैंने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का दृढ़ संकल्प कर लिया है, इसीलिए अब मैं प्रतिदिन प्रातः काल उठ कर सभी के मंगल की प्रार्थना करता हूँ, मनःसंयोग का अभ्यास करता हूँ, व्यायाम करता हूँ, स्वाध्याय करता हूँ, आत्मसमीक्षा या विवेक-प्रयोग करके  आत्म-मुल्यांकन तालिका में अपने चारित्रिक गुणों का मानंक बैठाता हूँ।" इन पाँच मे से एक भी काम कहीं एक दिन के लिए भी छूट न जाय- इसके प्रति सजग रहता हूँ तथा निष्ठा के साथ अपने लक्ष्य (यथार्थ मनुष्य बनना) को प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ। क्योंकि मैंने यह राज जान लिया है कि, चरित्र-निर्माण द्वारा अपना सुन्दर ढंग से जीवन -गठन कर लेने पर ही मनुष्य-जीवन सार्थक हो सकता है। यदि मेरा यह जीवन (मानव-जन्म) सार्थक न हो सका, तो बाद में बहुत संताप होगा। यदि इस बात को ठीक से समझ लिया जाय तो निष्ठा का अभाव कभी भी नहीं होगा। " अमृत प्राप्त होने तक, समुद्र-मंथन में लगे रहने को ही- ' अध्यवसाय' कहते हैं।" 
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Wednesday, March 5, 2014

चरित्र के गुण :२:शिष्टाचार (Courtesy)

'टेलर-मेड' सभ्यता --'यावत किंचित न भाषते'
हम लोग समाज में रहते हैं। समाज में रहने पर विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ सम्बन्ध भी पड़ता है। घर में - अपने माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबन्धियों, पास-पडोस या टोला-मुहल्ला के लोगों के साथ या इष्ट-मित्र, स्कूल-कॉलेज या कार्य-क्षेत्र के सहकर्मियों के साथ, हाट-बाजार,या राह चलते समय भी विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के साथ हमें मिलना-जुलना पड़ता है। हमलोगों का यह मेल-जोल प्रीतिकर या अप्रीतिकर दोनों तरह का हो सकता है। पुराने समय में यात्रा-क्रम में कहीं बाहर निकलने पर किसी अपरिचित व्यक्ति के साथ भी लोगों का व्यवहार शिष्टता पूर्ण ही होता था। किन्तु, आजकल यह इस शिष्टता का लगभग लोप ही हो गया है। आज वार्तालाप करते समय यदि कोई शिष्टता के साथ उत्तर देता है,तो हमें आश्चर्य होता है। क्योंकि, अब तो राह चलते, बस-ट्रेन से सफर करते समय प्रायः लोग एक दुसरे का स्वागत, कटु शब्दों, ओछी हरकतों या कभी-कभी तो थप्पड़-मुक्कों से करते हुए भी दिखाई पड़ जाते हैं। परस्पर व्यव्हार में ऐसा बदलाव क्यों दिख रहा है ? इसका कारण यही है कि अब हमारे संस्कार (चारित्रिक गुण) पहले जैसे नहीं रह गये हैं। यदि हमारे व्यवहार और वाणी में शिष्टता न हो तो हमें स्वयं को सुसंस्कृत मनुष्य क्यों समझना चाहिए ? फिर भी टाई-कोट पहन कर, आखों पर रंगीन चश्मा और हांथों में वी.आई.पी. बैग लेकर, हम यही दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम तो बड़े प्रगतिशील और सभ्य मनुष्य हैं। किन्तु ऐसी 'टेलर-मेड' सभ्यता (ब्राण्डेड सूट-पैन्ट) तभी तक टिकती है, जब तक कुछ बोलने के लिये हम अपना मुख नहीं खोलते- 'यावत किंचित न भाषते'। जैसे ही किसी के साथ हमें बात-चीत करना पड़ता है, वैसे ही हमारी सभ्यता और प्रगतिशीलता की सारी कलई खुल जाती है। प्राचीन कवि भर्तृहरी ने कहा है - 

केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हाराः न चंद्रोज्ज्वलाः,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृताः मूर्द्धजाः।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्

मनुष्य को स्वर्णालंकार बाजूबंद आदि सुशोभित नहीं करते, चंद्र की भांति उज्ज्वल कान्तिवाले हार भी शोभा नहीं बढ़ाते, न नहाने-धोने से,  न उबटन मलने से, न फूल टांकने या पुष्पमाला धारण करने से, न केश-विन्यास या जुल्फ़ी  संवारने-सजाने से ही उसकी मान और शोभा बढ़ती है।  अपितु जिस  वाणी को शिष्ट, सभ्य, शालीन और व्याकरण-सम्मत मानकर धारण किया जाता  है; एकमात्र वैसी वाणी ही पुरुष को सुशोभित करती है। बाहर के सब अलंकरण तो निश्चित ही घिस जाते हैं, या चमक खो बैठते हैं (किंतु) मधुरवाणी का अलंकरण हमेशा चमकने वाला आभूषण है। इसलिये मनुष्य कि वाणी ही उसका यथार्थ आभूषण है-'वाग़ भूषणम भूषणम'। अर्थात व्यवहार और वाणी में सज्जनता और शिष्टाचार ही चरित्र का वह गुण है जो उसे जीवन के हर क्षेत्र में विजय दिला सकती है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के मन में ही सारी समस्यायों का समाधान मिल सकता है। कोई भी कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता जिसे वह करना नहीं चाहता। अगर मनुष्य स्वयं अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा। सम्पूर्ण संविधान या संविधान के पण्डित भी मिलकर उसे अच्छा नहीं बना सकते। हम सब अच्छे (श्रेष्ठ) बनें, यही समस्या का हल है। " (४/१५७)
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Tuesday, March 4, 2014

चरित्र के गुण : १: 'निःस्वार्थपरता' (Unselfishness)

मनुष्य क्यों नहीं समझता कि 'चरित्र' ही हमारी जीवन रूपी नौका की पतवार है ?
[यही माया है ! ] व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में सुख-शान्ति तथा सौहार्दपूर्ण सामजिक सम्बन्ध, अथवा सम्पूर्ण समाज का अधिकांश भला-बुरा इसमें रहने वाले व्यक्तियों के चरित्र पर ही निर्भर करता है। यदि मेरे स्वयं का ही चरित्र सुन्दर ढंग से गठित न हुआ हो, तो मेरे व्यक्तिगत तथा पारिवारिक जीवन से सुख-शान्ति का छिन जाना अवश्यम्भावी है। समाज  के लोगों के साथ बात-व्यवहार करते समय यदि मेरा आचरण शिष्ट और विनम्रतापूर्ण न रहे, तो मुझे कई प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। तथा यदी समाज के अधिकांश व्यक्तियों  का चरित्र सुंदर ढंग से गठित न हुआ हो, तो निश्चित ही इसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा और नाना प्रकार की यंत्रणाओं को भुगतने के लिए बाध्य होना पड़ेगा ।
आये दिन हमारे समाज में जो अन्याय, अत्याचार, दुराचार या अनैतिक कार्य होते रहते हैं, उन सभी का एकमात्र कारण यही है कि हम में से अधिकांश (पढ़े-लिखे) मनुष्यों  का चरित्र  सुन्दर ढंग से गठित ही नहीं हुआ है। किसी भी व्यक्ति का चिन्तन  और व्यवहार उसके चरित्र के अनुरूप ही होता है। कोई  सच्चरित्र मनुष्य अनुचित या नीति विरुद्ध कार्य के विषय में सोच भी नहीं सकता ।  जब तक किसी मनुष्य के चरित्र में चट्टानी-दृढ़ता नहीं आती, तब तक  सामयिक समस्यायों का तात्कालिक हल ढूँढ़ने की चेष्टा  में या थोड़ा भी प्रलोभन मिलने से वह अक्सर सत्य के साथ समझौता कर लेता है, और अनुचित कार्य कर बैठता  है। हमलोग समाज में जितनी भी बुरी चीजें और अनैतिक कार्यों  (भ्रष्टाचार, नारी मर्यादा की अवमानना आदि) को देख रहे हैं, वे सब इसी प्रकार घटित होती  हैं। (भारतीय संस्कृति में हरिश्चन्द्र जैसे  राजा भी हुए हैं, जिन्होंने भारी से भारी विपत्तियों में पड़ने के बाद भी सत्य के साथ समझौता कभी नहीं किया था !) आज स्थिति यह है कि हमारे समाज के अधिकांश मनुष्यों का चरित्र गठित ही नहीं हुआ है। परिणामस्वरूप वे नितान्त  स्वार्थी हैं, केवल अपने निजी स्वार्थ के ही विषय में ही सोचते हैं तथा अपने लाभ के लिये दूसरों को हानी पहुँचाने, धोखा देने या प्रताड़ित करने में जरा भी संकोच का अनुभव नहीं करते हैं। ऐसा इसलिये है कि, वे लोग  जगत्, मानव जीवन का उद्देश्य, मनुष्य की मर्यादा, सच्चा सुख क्या है, आनन्द कैसे प्राप्त होता है आदि विषयों से पूरी तरह अनभीज्ञ हैं। वे अपने को केवल साढ़े तीन हाँथ का शरीर मानते हैं, और  इसको सुख पहुँचाने में सहायक लोगों  और विषयों के बारे में ही सोचते रहते हैं।
 दरअसल, उन्होंने इन बातों पर विचार करना सीखा ही नहीं होता है कि मानव जीवन को मूल्यवान  क्यों कहा जाता है, मानव जीवन सार्थक कैसे होता है, वास्तविक जीवन क्या है आदि।  वे इस पर तनिक भी विचार नहीं करते कि कहीं मेरा यह जीवन व्यर्थ ही नष्ट तो नहीं हो जायगा। और इस लापरवाही के परिणाम स्वरूप उनका अपना जीवन तो नष्ट होता ही है, वे सामाजिक जीवन को भी कलुषित करते हैं तथा दूसरों के जीवन के लिए भी दुःख के कारण बन जाते हैं। तब, प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के प्रति थोडी भी लापरवाही का ऐसा दुष्परिणाम होता है; तो फिर समाज में अधिकाँश मनुष्य अपने अमूल्य मानव जीवन को इसी तरह से व्यर्थ में क्यों नष्ट कर देते हैं ? इसको ही 'माया' कहा जाता है। यदि वीरता के साथ इस माया-जाल को काट कर, दृढ़तापूर्वक हमलोग अपना चरित्र सुंदर ढंग से गठित न करें, तो हमें भी इसी प्रकार जीवन भर असीम कष्ट भोगना होगा। यह जगत् अत्यन्त ही भयावह प्रतीत होगा और इस सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनी के प्रति हमारे मन में अश्रद्धा का भाव उदित हो जाएगा। चट्टानी-चरित्र के अभाव में जीवन विफल हो जाएगा, जीवन अर्थहीन लगने लगेगा, जिसके परिणाम स्वरूप समाज के दुःखों में वृद्धि होती ही रहेगी।
इसीलिए यदि किसी के मन में अपना तथा समाज का मंगल करने की तीब्र इच्छा हो तो उसका पहला  सर्वाधिक प्रयोजनीय कार्य है अपने चरित्र को सुंदर ढंग से गठित करने के लिए प्रयासरत रहना। क्योंकि 'चरित्र' ही हमारी जीवन रूपी नौका की पतवार है। यदि सुन्दर चरित्र रूपी पतवार जीवन-नौका के साथ जुड़ी हुई न रहे, तो अन्ततः वह जीवन-नौका लक्ष्यभ्रष्ट तथा दिशाहीन हो कर डूब जाने को बाध्य होगी। चरित्र रूपी पतवार के बिना मनुष्य-जीवन के 'लक्ष्य' को प्राप्त कर लेना कभी संभव नहीं है। यदि हम इस संसार-सागर  या जीवन-समुद्र को पार कर, दूसरे तट पर पहुँचना चाहते हों, जीवन के खेल में विजय हासिल करने की इच्छा रखते हों तो हमें जीवन का अर्थ, लक्ष्य तथा उसकी सार्थकता के विषय को अच्छी तरह से समझ लेना होगा। न केवल समझ लेना होगा बल्कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपने चरित्र को बहुत सुंदर ढंग से गठित भी कर लेना होगा। यदि हम अपना चरित्र सुन्दर ढंग से गठित कर लें, तो न केवल अपने जीवन से बल्कि समाज  से भी विभिन्न प्रकार के दोष एवं दुर्गुणों को दूर करने में समर्थ हो जायेंगे तथा हमारा समाज सुन्दर हो   जाएगा। इसीलिए समाज गठन का भी एकमात्र उपाय जीवन-गठन ही है।  
जीवन की संभावना को प्रस्फुटित कर लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसी जन्म में पूर्णता को प्राप्त कर लेना मानव-जीवन का लक्ष्य है। जीवन की सार्थकता परार्थ में है। दूसरों के कल्याण के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर देने में है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक महान सम्भावना है - 'वह अपने बनाने वाले को अर्थात ब्रह्म को भी जान सकता है।' भागवत (स्कंध ११:उद्धवगीता ९. २८) में कहा गया है-
     सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्।
              तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥
- अर्थात स्रष्टा ब्रह्मा ने पहले स्थावर, जंगम, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, जलचर-नभचर आदि कई योनियों कि रचना की, किन्तु जब वे इनमें से किसी से भी संतुष्ट नहीं हो सके, तब सबसे अंत में उन्होंने मनुष्य की रचना की। अपनी इस अत्यन्त असाधारण सृष्टि को देखकर उन्हें बहुत आनंद हुआ, क्योंकि  मनुष्य का अन्तःकरण इतने उच्च कोटि का था, कि वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने या अपने सृष्टा को भी जान लेने में समर्थ था !" जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्पकार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था। तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य की रचना की जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।

स्वमी विवेकानन्द भी इसी असाधारण सामर्थ्य के कारण ही मनुष्य को पृथ्वी का श्रेष्ठतम प्राणी कहते हैं। वे ईसाई एवं मुसलमानों के पुराणों से इसीसे मिलती-जुलती कहानी सुनाया करते थे- "अपने द्वारा सृष्ट ज्ञानलाभ के एकमात्र अधिकारी मनुष्य नामक जीव का निर्माण करने के बाद ईश्वर आनंद से पुलकित हो उठे ! उन्होंने समस्त फरिस्तों या देवदूतों को बुला कर आदेश दिया कि तुमलोग इस मनुष्य को सलाम करो, अपना सीश झुका कर इनका अभिनन्दन करो।  इब्लीस को छोड़कर बाकी सभी फरिस्तों ने वैसा किया। अतेव, ईश्वर ने इब्लीस को अभिशाप दे दिया, जिससे वह शैतान बन गया। इस रूपक में यह महान सत्य नहित है कि मनुष्य ही अन्य समस्त योनियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। " भगवान श्रीकृष्ण गीता (१५/१) में कहते हैं-  'ऊर्ध्वमूलम् अध:शाखम्' इस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष का मूल उपर ब्रह्म में है और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। इस अश्वत्थ को (मनुष्य सहित सृष्ट जगत को) जो व्यक्ति समूल--अर्थात कारण सहित जानता है, वही 'वेदवित्' अर्थात ज्ञानी है। और श्रीरामकृष्ण की भाषा में कहें तो 'विज्ञानी' है।  
मनुष्य को 'समूल' जान लेना ही मुख्य बात है। मनुष्य को या जगत को केवल उपरी तौर (M/F) पर जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि इसको 'समूल' -अर्थात कारण-सहित जानना होगा।  अर्थात यह जान लेना होगा कि 'वे' (माँ काली, ईश्वर या अल्ला) ही सबकुछ बने हुए हैं, " जीव ही शिव है !" जब तक अपने जीवन में ऐसा बोध घटित नहीं हो जाता, तब तक हमलोग मुख से भले ही कहें कि 'चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनी ही सर्वश्रेष्ठ है' किन्तु तब तक हमलोग 'मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति' ही बने रहेंगे। वैसे लोग धरती के बोझ ही बने रहेंगे, जिनकी संख्या हाल के दिनों में बढ़ती जा रही है। इसको (अपनी अनुभूति द्वारा) ठीक से समझ लेने के बाद ही मनुष्य की महिमा (जीवशिव वाद) को स्वीकार किया जा सकता है।
इसकी अनुभूति हो जाने के बाद, दुसरे मनुष्य को स्वयं से हीन या तुच्छ समझना असंभव हो जाएगा, दूसरों का अधिकार छीनने, शोषण करने या प्रताड़ित करने का विचार भी मन में नहीं उठेगा। तब घोटाला करने, घूस मांगने, अत्याचार करने या दूसरों को क्षति पहुँचाने की कल्पना के लिए भी मन में कोई स्थान नहीं रह जाएगा। सभी मनुष्यों को ईश्वर का रूप मान कर सम्मान करना, या मर्यादा देना सीख लेने के बाद  मनुष्य कभी स्वार्थी  नहीं हो सकता है। यह एक तथ्य है कि स्वार्थशून्य हुए बिना कोई भी व्यक्ति दूसरों का कल्याण नहीं कर सकता है। यदि कोई यह तर्क दे कि, सभी को अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु चेष्टा करनी चाहिये, क्योंकि इससे सभी का स्वार्थ पूरा हो जायगा, तो यह तर्क सुनने में चाहे जितना भी सच लगे, किन्तु है यह भ्रामक ही। क्योंकि किसी भी समाज या परिवार के प्रत्येक सदस्य का सामर्थ्य एक जैसा नहीं होता। सभी मनुष्य अपने साधारण स्वार्थ भी केवल अपने ही बल-बूते पर कभी सिद्ध नहीं कर सकते।
जो अधिक शक्तिशाली या चालाक हैं, वे कम शक्तिशाली भोले-भाले लोगों के हिस्से को मार कर ही अपने स्वार्थों की पूर्ति करते  हैं। इसको ही नाम 'शोषण' कहा जाता है, इसकी जड़ें स्वार्थपरता में ही निहित हैं। जबतक मनुष्य के चरित्र में निःस्वार्थपरता का गुण समाहित नहीं हो जाता तब तक समाज से शोषण को दूर नहीं किया जा सकता। स्वार्थपरता को कम करने के लिए श्रेय-प्रेय विवेक के द्वारा अपने स्वार्थ बोध पर प्रहार करना होगा साथ ही साथ अपने लालच  को भी कम करते जाना होगा। क्योंकि मनुष्यों की कामना-वासना या 'तृष्णा' एक ऐसी वस्तु है, जिसको जितना ही पूरा करने की चेष्टा की जाय, वह उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार आग में घी डालने से आग बुझने के बजाय और अधिक भड़क उठती है। राजा 'ययाति' का अनुभव इसका प्रमाण है। इसीलिए जब मन में किसी प्रकार का लालच या अतिरिक्त भोग करने की इच्छा उदित हो, तो पहले उसके परिणाम पर विवेक-विचार कर लेना चाहिए, तथा अपने लालच को क्रमशः सीमित करते जाने प्रयत्न करते रहना चाहिए। इच्छाओं के ऊपर विवेक का पहरा या संयम न रखने पर मनुष्य की सारी शक्ति या ऊर्जा उन व्यर्थ की इच्छाओं को पूर्ण करने में ही व्यय हो जाती है। और जब व्यक्ति कामनाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तथा मन में कामनाओं का वेग बना ही रहता है तो वह अपने हित-अहित के प्रति ज्ञान शून्य हो कर, उची-अनुचित का बोध भी खो देता है। अनैतिक व्यवहार तथा भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने लगता है। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि मनुष्य की  स्वार्थपरता एवं अतिरिक्त भोगाकांक्षाओं  में ही भ्रष्टाचार का बीज निहित है।
हमलोगों के मन में और एक भ्रांत धारणा यह घर कर गई है कि, शास्त्रों में केवल 'भगवान' तथा 'परलोक' की  ही चर्चा भरी हुई है, जबकि ये दिखाई नहीं देते, इसलिये इन चीजों को पढ़ने से क्या लाभ ? यह एक बिल्कुल गलत धारणा है।  सभी शास्त्रों का मुख्य उद्देश्य है 'इहलोक' या घर-परिवार और समाज के प्रति मनुष्य के  कर्तव्यबोध को जगा देना। श्रीमद् भागवत  में कहा गया है :-
 आत्म-जाया-सुतागार-पशु-द्रविण-बन्धुषु। 
निरूढ-मूल-हृदय आत्मानं बहु मन्यते।।६।। 
सन्दह्यमान-सर्वाङ्ग एषां उद्वहनाधिना
 करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः।।७।।
-अर्थात मूढ़ व्यक्ति स्वयं को तथा अपने स्त्री-पुत्र, गृह, पशु, धन-सम्पत्ति और बंधूवर्ग (मित्रों) को ही अपनी थाती समझ कर गर्व से फूला नहीं समाता। किंतु, बाद में इनका भरण-पोषण करने कि चेष्टा कि ज्वाला में स्वयं भी जल मरता है। तथा, अन्त  में वह मूर्ख हर प्रकार के दुष्कर्म करने में प्रवृत्त हो जाता है। 'महाभारत' में भी कहा गया है -
न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यतात्मन:।
संग्रहेणैष धर्म: स्यात् कामादन्य: प्रवर्तते।। 
-अर्थात स्वयं को जो अच्छा नहीं लगता हो, तुम दूसरों के साथ वैसा व्यव्हार कभी मत करना। संक्षेप में इसी को धर्म कहते हैं।" केवल कामनाओं के वेग से प्रताड़ित मनुष्य ही अन्य तरह का व्यवहार करता है, अर्थात दूसरों के प्रति प्रतिकूल आचरण करता है। इसीलिए भोगाकांक्षाओं का त्याग और निःस्वार्थपरता ही चरित्र का वह महान गुण है जो मनुष्य के जीवन को दूसरों के कल्याण के लिए न्योछावर करने के योग्य बना कर जीवन को सार्थक कर देता है। स्वामीजी कहते हैं- " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !" स्वार्थी मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं होता। और धर्म (महाभारत में कथित) वह वस्तु है, जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को ईश्वर में अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य में रूपान्तरित कर देता है।