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बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

'श्रीरामकृष्ण परमहंस द्वारा लिखित चपरास (Insignia)'

  'चपरास': लोक-शिक्षण के अधिकारी पुरुष का बैज  
वर्तमान का ९०, काशीपुर रोड स्थित गोपाललाल शील के बंगले में ११ फरवरी ११८८६ की संध्या बेला में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना घटित हुई थी। गृहस्थ भक्तों ने चिकित्सा के लिये अपने प्राणप्रिय ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) को उस बंगले को भाड़े पर लेकर वहाँ रखा है। ठाकुर विगत ११ महीनों से चिकित्सा के द्वारा भी नहीं ठीक होने वाले असाध्य कर्कट-रोग से पीड़ित हैं। शरीर में असहनीय यंत्रणा हो रही है। उनके भावी लोक-शिक्षकों में से कई लड़के पढ़ाई-लिखाई छोड़कर, अपने प्रेम-मय ठाकुर की सेवा में प्राणपन से लगे हुए हैं। उनका सुडौल शरीर बिल्कुल क्षीण हो चुका है; उस समय उनका का दैनिक आहार -शायद मात्र चार-पाँच छटाँक बार्ली ही हैकुछ गृहस्थ भक्त मिलकर बंगले में होने वाले खर्च को  उठा रहे हैं। उनके नेता हैं डॉक्टर रामचन्द्र दत्त। जनसमान्य के दृष्टि से ओझल रहते हुए इसी पृष्ठभूमि में ईश्वर के अवतार श्रीरामकृष्ण की लीला चल रही है। शरीर के दुर्बल होने पर भी उस दिन ठाकुर किसी सेवक से कह कर एक पेन्सिल और कागज मँगवाते हैं, और भावावेश में किन्तु पूर्ण-एकाग्रता के साथ, कागज के उपर लिखते हैं-"जय राधे प्रेममयी! नरेन शिक्षे दिबे,जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे! जय राधे !!" अर्थात-
 "जय राधे प्रेममयी ! नरेन शिक्षा देगा, जब घर और बाहर में हूँकार देगा। जय राधे ! "

उनकी लिखाई जैसी सुडौल होनी चाहिये थी, वैसी लगभग बिल्कुल नहीं थी। उस लिखावट से यह बिल्कुल स्पष्ट था, कि उस समय उनका शरीर रोग के कारण बहुत कमजोर हो गया होगा। प्रश्न उठ सकता है, कि आखिर उतनी कमजोरी के हालत में श्रीरामकृष्ण के लिये चपरास लिखने की क्या आवश्यकता थी ? वे तो मुँह से भी कह सकते थे। 
किन्तु जगतपति श्रीरामकृष्ण,अपने द्वारा निर्वाचित नरेन्द्रनाथ को 'जीवशिव-वाद' का प्रचार करने में समर्थ नरेन्द्रनाथ कोभावी लोक-शिक्षक या अधिकारी पुरुष का केवल लिखित 'चपरास' देकर ही नहीं रुके। उसी क्षण सहज भावावेग में, उन्होंने अपने हाथों से बयान के नीचे एक गूढ़ (Esoteric) रेखा-चित्र भी अंकित कर दिया। वह रेखा-चित्र उच्चतम भावनाओं की अभिव्यंजनाओं से परिपूर्ण एक अत्यन्त मनोरम चित्र था। उस रेखा-चित्र में ठाकुर ने सिर से गले तक के एक मानव-मुखड़े को उकेरा था। उस आवक्ष-मुखाकृति के विशाल नेत्रों की दृष्टि प्रशान्त है, और एक 'लम्बी पूंछवाला धावमान मयूर' उस मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ उसके पीछे-पीछे चल रहा है। 



 मानो चपरास प्रदानकर्ता जगतपति श्रीरामकृष्ण परमहंस उस लोक-शिक्षक की पृष्ठभूमि में विदयमान हैं, और उस नव-निर्वाचित भावी लोक-शिक्षक नरेन्द्रनाथ के पीछे-पीछे स्वयं चल रहे हैं। 
श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को बुलवा भेजा। उन्होंने नरेन्द्र को हुकुमनामा प्रदान किया। नरेन्द्र ने विरोध करते हुए साफ-साफ कह दिया, " मुझसे यह सब नहीं होगा, इतना बड़ा दायित्व मैं  नहीं ले सकूंगा !" श्रीरामकृष्ण ने पहले तो उनको शान्त भाव से समझाने की चेष्टा की। किन्तु जब किसी प्रकार वे मानने को तैयार नहीं हुए, तब उनके गुरु ने कहा- " तेरी गर्दन को पकड़ कर करवा लिया जायेगा।" उसके बाद फिर नरेन्द्र ने कोई विरोध नहीं जताया।
लीला-प्रसंग पढ़ने से ज्ञात होता है, कि उस समय श्रीरामकृष्ण माँ काली के साथ, निरंतर युक्त रहते हुए भावमुख अवस्था में रहते थे। श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण विश्व में अपने जीवन में उद्भासित सत्य- ' जीव ही शिव है ' या 'जीवशिव-वाद' का पचार-प्रसार करना चाहते थे। यही उनके जीवन का 'मिशन' (उद्देश्य) था। इसी मिशन को कार्यरूप देने के लिये श्रीरामकृष्ण को श्रीजगन्माता से आदेश प्राप्त हुआ था, अर्थात उनको भी स्वयं साक्षात् विश्वजननी जगदम्बा से चपरास प्राप्त था ! अब इस उद्देश्य को कार्यरूप देने के लिये एक ऐसे नये उदारवादी संगठन को स्थापित करने की अवश्यकता थी, जो जगतजननी माँ काली के हाथ का यंत्र बनकर समस्त विश्व के मनुष्यों की सेवा में कार्यरत रहे। 
श्रीरामकृष्ण अपने को नरेन्द्रनाथ के साथ बिल्कुल अभिन्न समझते थे, और वास्तव में नरेन्द्रनाथ का श्रीरामकृष्ण से अलग अपना कोई अस्तित्व था भी नहीं। एक दिन ठाकुर ने नरेन्द्र से कहा भी था,"तुममें
तो भारी भेद-बुद्धि है रे, मैं और तुम क्या अलग-अलग हैं ?" और यह अभिन्नता स्वयं नरेन्द्रनाथ की रचना में भी देखि जा सकती है, एक उदाहरण देखें- ' प्रभु तुमि प्राणसखा तुमि मोर। कभु देखि आमी तुमि, तुमि आमी !'--अर्थात " प्रभु, तुम मेरे प्राण-सखा हो, कभी देखता हूँ, मैं ही तुम हूँ -फिर देखता हूँ, तुम ही मैं हूँ !" इसी प्रगाढ़ सायुज्य-बोध में आरूढ़ नरेन्द्रनाथ ने श्रीरामकृष्ण की विचारधारा (जीवशिव- वाद) की व्याख्या तथा व्यवहारिक जीवन में इसके प्रयोग करने की पद्धति का प्रचार-प्रसार करना अपने जीवन का प्रधान-व्रत ही बना लिया था। वे कहते हैं," जिन विचारों का मैं प्रचार कर रहा हूँ, वे सभी उनके विचारों की प्रतिध्वनि मात्र है।" वास्तव में इन दोनों ने अपने-अपने चपरास द्वारा प्राप्त दायित्व का पालन पूरि निष्ठा के साथ किया है, और दोनों का मिशन मूलतः एक ही लक्ष्य को पाने के लिये था। व्यापक-अर्थ में देखा जाय तो, श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द दोनों ही जगतजननी माँ काली से सर्वमान्य चपरास  प्राप्त लोक-शिक्षक हैं।
समर्थ लोक-शिक्षक में कई योग्यतायें होनी चाहिये। श्रीरामकृष्ण ने कहते थे, " हे प्रचारक, क्या तुम्हें 'चपरास' (Insignia- राज-चिन्ह अंकित पट्टा) मिला है ? जिस व्यक्ति को चपरास मिल जाता है, भले ही वह एक सामान्य अर्दली या चपरासी ही क्यों न हो, उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना राज-मोहर अंकित बैज दिखलाकर बड़ा दंगा भी रोक सकता है। हे प्रचारक, तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा से दूसरों को प्रेरित करने का आदेश प्राप्त कर लो, नेतृत्व का बैज प्राप्त कर लो। बिना बैज मिले यदि तुम सारे जीवन भी प्रचार करते रहो,तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा श्रम व्यर्थ होगा। पहले अपने ह्रदय मन्दिर से अहंकार को हटाकर, वहाँ भगवान को प्रतिष्ठित कर लो, उनके दर्शन कर लो, बाद में यदि उनका आदेश हो तो लेक्चर देना। संसार में आसक्ति के रहते और विवेक-वैराग्य के न रहते सिर्फ 'ब्रह्म ब्रह्म ' कहने से क्या होने वाला है ? अपने ह्रदय-मंदिर में देवता तो हैं नहीं, व्यर्थ शंख फूँकने से क्या होगा? ' 
लोक-शिक्षा देना बहुत कठिन है। यदि ईश्वर का दर्शन हो, और वे आदेश दें, तभी कोई यह कार्य कर सकता है। फिर मन ही मन में यह सोच लेना कि मुझे आदेश मिल गया है, केवल ऐसा मान लेने से ही  नहीं होगा। वे वास्तव मे दिखाई देते हैं, और बातचीत करते हैं। उस समय आदेश मिल सकता है। उस आदेश में कितनी शक्ति होती है। जिसको आदेश मिल जाता है, वह चाहे जितनी लोक-शिक्षा दे सकता है। माँ उसको पीछे से कितनी ज्ञान-राशि ठेलते रहती है।" फिर कहते हैं,  
" त्यागी हुए बिना, लोक-शिक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है, त्याग होगा, समग्र रूप से त्याग। मन ही मन त्याग करने से नहीं होगा। लोक-शिक्षक (नेता) बनने योग्य केवल वही मनुष्य हो सकता है, जिसने समग्र-रूप से 'कामिनी-कांचन' का त्याग कर दिया हो ! उनका जीवन आचार-व्यवहार में दूसरे सभी लोगों के लिये उदाहरण-स्वरूप होगा। तभी उनका नेतृत्व अविवादित रूप से स्वीकृत होगा।
"यदि अज्ञानी जीव (अर्थात कामिनी-कांचन में आबद्ध जीव) लोक-शिक्षक बनकर दूसरों को भवबन्धन से मुक्त करने (मन को वशीभूत करने) की शिक्षा देने जाय, तो ऐसे कच्चे 'जन-सेवक नेता' की भी दुर्दशा होती है, और प्रशिक्षु सेव्य-नारायणों की भी। न तो प्रशिक्षु का अहंकार दूर होता है, और न उसके भव-
बन्धन (अविवेक की गाँठ) ही कटते हैं। कच्चे गुरु के पल्ले पड़ने से शिष्य कभी मुक्त नहीं होता। किन्तु यदि सद्गुरु हो तो जीव का अहंकार तीन ही पुकार में दूर हो जाता है। अध्यात्मिक-अनुभव संपन्न लोक-शिक्षकों के उपदेश से ही अहंकार और आत्मा का विवेक होकर प्रशिक्षुओं चरित्र स्थायी रूप से परिवर्तित हो सकता है।
"अगर कोई ऐसा समझे कि ' मैं सम्प्रदाय का नेता हूँ, मैंने यह सम्प्रदाय बनाया है' -वह ' कच्चा मैं ' है। परन्तु यदि कोई ईश्वर का साक्षात्कार कर उन्हीं की आदेश से लोककल्याण के लिये प्रचार करता है, तो उसमें कोई हानि नहीं। परीक्षित को भागवत सुनाने के लिये शुकदेव को ऐसा आदेश हुआ था। जो स्वयं मुक्त (सिद्ध) हो जाता है, तो उसके पावन चरित्र की मधुर सुगन्ध चारों ओर फ़ैल जाती है, और उसके निकट चरित्र-निर्माण की शिक्षा ग्रहण करने के लिये, उत्सुक होकर दूर दूर से सत्य-प्राप्ति की स्पृहा रखने वाले सैकड़ो प्रशिक्षु आने लगते हैं। गुलाब के खिलने पर भौंरे अपने आप आ जुटते हैं।
"जब दीपक जल उठता है, तो न जाने कहाँ से पतिंगे आकर उसमें गिरते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने लगते है; दीपक की लौ कभी पतिंगों को बुलाने नहीं जाती। सिद्ध-मुक्त-शुद्ध-बुद्ध लोक-सेवकों का प्रचार भी इसी तरह का होता है। श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को कई प्रकार से जाँच-पड़ताल करने के बाद ही अपना उत्तराधिकारी निर्वाचित किया था। उपरोक्त चपरास में जगतगुरु श्रीरामकृष्ण ने स्वयं लिख दिया था, कि " नरेन्द्रनाथ अपने भावी जीवन में घर में और बाहर में; अर्थात देश और विदेश में लोक-शिक्षक के रूप में खड़े हो कर, अनगणित मनुष्यों को मोह निद्रा (अविवेक) से जगाने के लिये 'हूँकार' भरेंगे अर्थात उनका आह्वान करेंगे।" 
और हम देखते हैं कि  जब नरेन्द्रनाथ उस समय के विवेकानन्द ने ११ सितंबर १८९३ को शिकागो विश्वधर्म महासभा में जब सामने बैठे श्रोताओं को समग्र विश्वमानवता की प्रतिमूर्ति समझकर, ' मेरे अमेरिका वासी बहनों और भाइयो ' कह कर संबोधित किया, तो लोगों ने अतुलनीय रूप से उनका अभिनन्दन किया था। उस विश्वधर्म महासभा में अपने गुरु के संदेशों की व्याख्या और व्यवहारिक जीवन में उसकी उपयोगिता से सम्पूर्ण विश्व का परिचय करवाने के लिये, उन्होंने आह्वान किया था- " इस युगधर्म - श्रीरामकृष्ण के सन्देश-" जीव ही शिव है ! ' जितने मत उतने पथ ', और ' सभी पथ एक ही ईश्वर की  ओर ले जाते हैं '  का अनुसरण जो कोई भी करेगा, वह अपने ही धर्म में रहकर अन्य धर्मावलम्बियों के साथ विश्व-एकात्मता या विश्वबन्धुत्व का अनुभव कर सकेगा !" "  द्रष्टव्य है कि जिस सभा में विवेकानन्द ने पहली बार एक लोक-शिक्षक के रूप में 'हुंकार' भरा था, उसका नाम भी  " विश्वधर्म महासभा " ही था, और जो 'बाहर' अर्थात अमेरिका में आयोजित हुआ था। क्या इस 'घटना-संयोग' के द्वारा यह सिद्ध नहीं होता- कि सम्पूर्ण विश्व में स्वामी विवेकानन्द को एक लोक-शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित करवाने के लिये ही विश्व-जननी जगदम्बा की प्रेरणा से यह सारा आयोजन हुआ था ? और वह जगतपति उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ' लम्बी पूँछ वाला धावमान मयूर', अपने चपरास या आश्वासन के अनुरूप ' घर-बाहर ' हर जगह उनके पीछे खड़े थे ?
श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग के आधार पर, हम यह समझ सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण के दिव्यभावों की प्रेरणा के कार्यकलापों के दो विशिष्ट पहलू थे-- क. जब जो भाव उनके मन में उदित होता था, उस समय वही भाव उनके सम्पूर्ण मन को अपने अधिकार में ले लेता था। ख. 'श्रीरामकृष्ण की अन्त्यलीला ' के सूत्र को देखने से प्रतीत होता है, मानो उपरोक्त घटना के समय श्रीरामकृष्ण का मन श्रीमती राधारानी के भाव से आप्लावित हो रहा था। मधुर भाव से साधना करते समय उनको राधारानी के दर्शन भी हुए थे। श्रीकृष्ण के प्रेम में सर्वस्व त्यागी राधारानी का पवित्र-निर्मल रूप उनके श्रीअंग में समाहित हो गयी थी।
श्रीरामकृष्ण कहते थे, श्रीराधिका ही आद्याशक्ति हैं। एकमत के अनुसार श्रीकृष्ण ने ही राधा का रूप धारण किया था-वे राधा से पृथक कोई अन्य सत्ता नहीं थे। ऐसा प्रतीत होता है, उपरोक्त घटना के समय मानो श्रीरामकृष्ण की प्रेरणा से नरेन्द्रनाथ भी कुछ दिनों के लिये राधा-कृष्ण के भाव में मतवाले हो गए थे, और इसी कारण उनके आचार-व्यवहार से वे सभी लक्षण प्रकट हो रहे थे। राधारानी का दर्शन करने के लिये उनके प्राण व्याकुल होने लगे थे। रात में नींद नहीं होती थी। एकदिन किसी ने उनको कहते सुना था कि आत्महत्या करने कि इच्छा हो रही है। प्रायः अकेले या कभी मास्टर महाशय जैसे समभावापन्न भक्तों के साथ, वे राधाकृष्ण-भाव के संगीत में मतवाले हो जाते थे। उस समय की भवावस्था बहुत बाद के दिनों तक भी बनी हुई थी। परिव्राजक जीवन में जब वे राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में घूम रहे थे, उस समय भी नरेन्द्रनाथ राधा-कृष्ण के भाव में मतवाले होकर रहते थे। स्वामी गंभीरानन्द द्वारा लिखित ' युग-नायक विवेकानन्द ' पुस्तक में  देखते हैं कि " राजपूताना वैष्णव-प्रधान स्थान होने से स्वामीजी अक्सर श्रीराधा-कृष्ण विषयक गीत गाते थे। एक दिन उन्होंने गाया-
 ' आमी गेरुआ बसन अँगेते परिये शंखेर कुँडल परि। 
योगिनीर भेषे जाबो सेई देशे जेथाये निठुर हरि।' 
--अर्थात मैं गेरुआ वस्त्र धारण करके, शंखके कुण्डल पहनूँगी। योगिन के वेश में उस देश में जाऊँगी, जहां मेरे निष्ठुर हरि रहते हैं।...उस दिन गाते गाते स्वामीजी का कंठस्वर क्रमशः करुण से करुणतर होता चला गया, और अन्त में हृदय के आवेग में शरीर पत्थल जैसा कडा हो गया, तथा उत्फ़ूल्लमुखी गोपियों के जैसा प्रेम के क्रोध में रंजीत दिव्यमाधुर्य से कण्ठ-स्वर रुद्ध हो गया था एवं उनका मुखमंडल प्राण-सखा स्पर्श से भाव-विह्वल हो उठा था। इस प्रसंग में स्वामीजी रचित राधाकृष्ण विषयक एक अन्य संगीत का उल्लेख किया जा सकता है--
 ' मुझे बारि बनवारी सइयाँ जाने को दे, 
जाने को दे रे सइयाँ जाने को दे...' 
श्रीराधिका के विषय में स्वामीजी बलपूर्वक कहते थे--" श्रीराधिका रक्त-मांस की शरीर का नाम नहीं है, वे प्रेमसागर की महातरंग हैं। " कहना आवश्यक न होगा कि श्रीरामकृष्ण ने भी नरेन्द्र के उन दिनों की मानसिक भावनाओं को जरूर देखा होगा। लगता है नरेन्द्र के इसी मानसिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, उन्होंने अपने चपरास में लिखा था- " जयराधे प्रेममेहि नरेन शिक्षे दिबे, जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे, जयराधे !" ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीरामकृष्ण मानो स्वयं प्रेममयी श्रीराधिका से अपने द्वारा निर्वाचित नरेन्द्रनाथ को लोक-शिक्षक बना देने की प्रार्थना उस चपरास में कर रहे हैं ।
कानूनी दृष्टि से हुकुमनामा व्यक्तिविशेष की योग्यता की विवेचना करने के बाद ही व्यक्तिविशेष को उसका अधिकार देता है। हुकुमनामे के अंतर्गत आने वाले विषय और उसकी परिधि के विषय में मत विभिन्नता होना स्वाभाविक है। किन्तु स्वयं श्रीरामकृष्ण एवं विवेकानन्द ने जो किया था, उसके भीतर कहीं मत-विभिन्नता नहीं थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रीरामकृष्ण ने धर्म और आध्यात्मिकता का आश्रय लेकर जगत कल्याण में अपना आत्मोसर्ग किया था। और स्वामी विवेकानन्द मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के द्वारा व्यक्ति और समाज के अध्यात्मिक कल्याण के माध्यम से भारत की राजनैतिक उन्नति समेत सामाजिक परिवर्तन होने का भी दावा करते थे।
श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को उपदेश और चपरास अवश्य लिखकर दिया था, किन्तु उसके क्रियान्वन-पद्धति की कोई व्यापक रजिस्ट्री नहीं सौंप गए थे। अपने आदर्श और विचार का प्रयोग उन्हें अपने या दूसरों पर करके दिखाने का अवसर नहीं मिला था, या शायद उन्होंने इसकी कोई आवश्यकता भी महसूस नहीं की होगी। यह बात सही है की सामाजिक-विषमता और जाती-भेद के विरुद्ध ठाकुर ने भी कुछ कहा है, उनके आचरण से भी यह दिखाई देता है। श्रीरामकृष्ण परमहंस सामाजिक कल्याण के लिए व्यक्ति के चित्तशुद्धि के ऊपर अधिक ज़ोर देते थे। उधर विवेकानन्द मनुष्य की मानसिकता को परिवर्तित करके व्यष्टि मनुष्य के चरित्र और व्यवहारिक आचरण में परिवर्तन लाकर, मनुष्य-निर्माण के माध्यम से सामाजिक-उन्नति और नये भारत का निर्माण करना चाहते हैं। किन्तु इसको भी वे धर्म के मध्यम से करना चाहते हैं। उन्होंने कहा था- " धर्म का सार तत्व मंदिर, तीर्थ, पूजा-पाठ आदि में नहीं है, बल्कि अपने यथार्थ स्वरुप की अनुभूति या आत्मोलब्धि ही धर्म है।"
स्वामी विवेकानन्द अपने भावी लोक-शिक्षकों का आह्वान करते हुए कहते हैं, " आगे बढ़ो ! सैकड़ो युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ! सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। सत्य अविनाशी है, पुण्य अनश्वर है,पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिये । … सदाचार (चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन) सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं- ऐसे ' मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या तुम  "उस वैद्य" की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने कीकोशिश करता हो ? भारत को उस नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना का संचार कर सके। 'यह काम' हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा।" (३:३४४)
 
और हमारा 'राष्ट्रीय चारित्र्य' ही वह नव-विद्युत् है, जो राष्ट्र की धमनियों में नवीन चेतना का संचार कर सकता है। और देश के नागरिकों के व्यक्ति-चरित्र से मिलकर ही राष्ट्रीय-चारित्र्य निर्मित होता है। इसलिये राष्ट्रिय-चरित्र निर्माण का प्रारम्भ युवाओं के जीवन-गठन से ही करना होगा, क्योंकि उम्र अधिक हो जाने के बाद आदत पक्की हो जाती है। इसीलिये प्रौढ़ अवस्था में आदतों में सुधार लाना या 'चरित्र-निर्माण' करना असम्भव तो नहीं किन्तु बहुत कठिन हो जाता है !' अतः छात्रजीवन से ही चरित्र-निमार्ण और मनुष्य-निर्माण का प्रशिक्षण लेना आवश्यक है। विवेकानन्द कहते हैं, 'यह काम'-अर्थात चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण देने में समर्थ लोक-शिक्षकों के निर्माण का काम, हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा ! क्योंकि 'Be and Make ' अर्थात मनुष्य बनने और बनाने का कार्य एक साथ चलने वाली प्रक्रिया 'simultaneous process' है।
नये भारत का निर्माण देश के नागरिकों के चरित्र में, उनके व्यवहारिक जीवनधारा को आकांछित दिशा में परिवर्तित करने से ही सम्भव है। किन्तु स्वयं चरित्रवान मनुष्य बने बिना हम दूसरों को अपना चरित्र बनाने का उपदेश नहीं दे सकते, क्योंकि उसका कोई फल नहीं होगा। प्रशिक्षण देने वाले लोक-शिक्षकों (मार्गदर्शक नेता)  को अपना ह्रदय इतना विशाल और प्रेम से परिपूर्ण बनाना होगा कि वह -" वैसा वैद्य" बन जाय जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में भी दवाई डालने की कोशिश करता है !"
जब स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, या सन्यासियों को सामाज-सेवा के कार्यों में लिप्त रहने को कहा, तो उनके गुरूभाइयों ने भी स्वामीजी पर अभियोग लगाया था, की तुम रामकृष्ण के भाव से भटक गए हो। किन्तु विवेकानन्द ने इस अभियोग को नहीं माना उन्होने कहा, " ठाकुर जान-बूझकर मुझे यंत्र बनाकर मुझसे यह सब करवा रहे हैं, तो मैं कर सकता हूँ बोलो ? बाद में उनके सभी गुरूभाइयों ने यह स्वीकार कर लिया था कि नरेन्द्र को यंत्र बनाकर ठाकुर यह सब करवा रहे हैं। 
चिन्हित लोक-शिक्षकों  को जगदंबा ही शक्ति-सामर्थ्य जूटा देती हैं।नरेन्द्रनाथ को चपरास दिये जाने के बाद, अपनी महासमाधि के दो दिन पहले श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ के भीतर शक्ति-संचार किया था।  और उसी शक्ति से उन्होने सम्पूर्ण विश्व में सफलता प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त नरेन्द्र की सहायता करने के लिये श्रीरामकृष्ण ने स्वयं एक नये सन्यासी-दल की बुनियाद रखी थी, और संघ का नेतृत्व उनके हाथों में सौंप दिया था। 
भारतवर्ष के पुनर्जागरण के लिये 'नारी तू नारायणी ' है की दृष्टि और जनसाधारण को आत्मनिर्भर होने की शिक्षा देनी होगी। लोक-शिक्षक बनने और बनाने लिये आवश्यक प्रशिक्षण पद्धति एवं कार्यक्रमों की आध्यात्मिक मर्यादा रामकृष्ण द्वारा प्रतिपादित 'जीवशिव-वाद' (या हर शय में जलवा तेरा 'हू  ब  हू है') के सिद्धान्त की परिकल्पना पर आधारित है। इस भाव का अनुसरण करते हुए " सेवा करने और प्रेरणा भरने " से सेवक और सेव्य दोनों की आध्यात्मिक उन्नति सुनिश्चित है। इसके लिये पर्याप्त संख्या में, सभी नर-नारी को नारायण जान कर श्रद्धा पूर्वक 'सेवा करने और प्रेरणा भरने ' (To serve and to inspire) करने में समर्थ गृहस्थ और सन्यासी दोनों प्रकार के लोक-शिक्षकों का निर्माण करने की अवश्यकता है।
कुछ लोग दावा करते हैं, कि 'जीव-शिव' सिद्धान्त विवेकानन्द की अपनी खोज है। वचनामृत की गहराई में प्रवेश करने से ही यह समझा जा सकता है कि यह धारणा गलत है। १८८४ के प्रारम्भ में श्रीरामकृष्ण के हाथ की हड्डी टूट गयी थी। उस समय माँ काली ने उनको नरलीला में ध्यान देने अर्थात भावमुख रहने का, आदेश दिया था। अर्थात मानव-मात्र के भीतर जो नारायण अवस्थित हैं, उनके प्रति मन को एकाग्र रखने का आदेश दिया था। और श्रीरामकृष्ण भी माँ के इसी आदेश का पालन कर रहे थे, जिसके कारण कुछ घटनाएँ घटित हुई थी। इसी दौरान श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को उनके चिर-
आकांक्षित समाधि-सुख का थोड़ा स्वाद भी चखा दिया था। एवं शास्वत 'लोक-शिक्षक' बनाकर माँ काली के कार्य या श्रीरामकृष्ण के ' मिशन ' में नियुक्त कर दिया था। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने सन्यासियों के लिये ' रामकृष्ण मठ और मिशन' और सन्यासिनियों के लिये 'सारदा मठ ' की स्थापना की थी।वे घटनायें सिद्ध करती हैं, कि स्वामीजी ने ठाकुर की योजना को ही व्यवहारिक रूप दिया था, तथा आज भी वे सारी दुनिया में माँ जगदम्बा के चिन्हित युवाओं को इस आन्दोलन से जोड़ रहे हैं।  
किन्तु वर्तमान विश्व-मानवता की विशाल जनसँख्या में आत्मश्रद्धा के भाव को जागृत करने के लिये हजारों की संख्या में गृहस्थ लोक-शिक्षक स्त्री-पुरुषों की भी अवश्यकता है। इसीलिये गृहस्थ पुरुषों के बीच से भी 'सेवा करने और प्रेरणा भरने ' (To serve and to inspire)  में समर्थ लोक-शिक्षक बनने और बनाने (Be and Make) के लिये १९६७ में अखिलभारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना -ठाकुर-माँ- स्वामीजी की इच्छा और प्रेरणा से ही हुई थी। आज भारत में महामण्डल की ३५० से भी ऊपर शाखायें कार्यरत हैं, तथा क्रमशः इसके नये नये केन्द्र भी खुलते जा रहे हैं। उसी प्रकार  गृहस्थ स्त्रियों के बीच से भी भारी संख्या में 'लोक-शिक्षिका'  बनने और बनाने के लिये अभी युवा-महामण्डल की सहयोगी-संस्था (sister concern ) के रूप में भारत के कुछ राज्यों में ' सारदा नारी संगठन ' के १०० से अधिक केन्द्र कार्यरत  है। हमलोगों को समझना होगा कि नरेन्द्रनाथ मात्र चपरास-प्राप्त कोई अर्दली ही नहीं थे, बल्कि स्वयं भी एक अवतारी व्यक्तित्व और प्रतिभावान स्वतंत्र-पुरुष थे। इस चपरास-दान की घटना यह सिद्ध करती है कि श्रीरामकृष्ण लीला विलास में उनकी असाधारण भूमिका  छुपी हुई है। 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

क्या ईश्वर-दर्शन मस्तिष्क का भ्रम है ?

दिन वृहस्पतिवार, २४ अगस्त १८८२ : अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण का प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम : 

"  संशयात्मा विनष्यति "
मणि (श्रीम) - घर वालों के प्रति कर्तवय कब तक रहता है ?
श्रीरामकृष्ण (विवेकानन्द के गुरु)  -उन्हें भोजन-वस्त्र का अभाव न हो, सन्तान जब स्वयं समर्थ होगी, तब भार ग्रहण करने कि अवश्यकता नहीं। फल होने पर फूल नहीं रह जाता। ईश्वरलाभ हो जाने से कर्म नहीं करना पड़ता, मन भी नहीं लगता। जीवन का उद्देश्य उपार्जन नहीं, मनुष्य को ही ईश्वर जानकर उसकी सेवा करना है। धन से यदि ईश्वर की सेवा होती है, तो उस धन को कमाने में दोष नहीं है।"
मणि - अच्छा, ईश्वरलाभ ( the realization of God) के क्या माने हैं ? ईश्वरदर्शन (God-vision) किसे कहते हैं और किस तरह होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - जो भजन-पूजन, जप-ध्यान, नाम-गुणकीर्तन आदि करता है, वह साधक है। किन्तु जो अपने आंतरिक अनुभव से जानता है, कि ईश्वर का ही अस्तित्व है, (मेरा अस्तित्व तो सच्चिदानन्द सापेक्ष है, उनके रहने के कारण है !) वह सिद्ध है। इसको वेदान्त में एक उपमा- के द्वारा समझाया गया है, वह यह- कि घर के अँधेरे कमरे में जाकर घर के मालिक सो गए हैं।
कोई टटोलकर उन्हें खोज रहा है। पलंग पर हाथ जाता है, तो वह मन ही मन कह उठता है- यह नहीं है, खिड़की छू जाता है तो भी कह उठता है- यह नहीं है; दरवाजे में हाथ लगता है तो यह भी नहीं है, -नेति नेति नेति। अन्त में जब मालिक के देह पर हाथ लगा तो बोल पड़ता है - यह- मालिक यह हैं ! अर्थात ' अस्ति-इति ' का बोध हुआ है। मालिक को प्राप्त तो किया है, किन्तु भली-भाँति जान-पहचान नहीं हुई। एक दर्जे के और लोग हैं, जो सिद्धों में सिद्ध कहलाते हैं। मालिक के साथ यदि विशेष वार्तालाप हो तो वह एक और अवस्था है। यदि ईश्वर के साथ प्रेम-भक्ति द्वारा विशेष परिचय हो जाय तो दूसरी ही अवस्था हो जाती है। जो सिद्ध है उसने ईश्वर को पाया तो है, किन्तु जो सिद्धों में सिद्ध है, उसका ईश्वर के साथ विशेष परिचय हो गया है। परन्तु उनको प्राप्त करने की इच्छा हो, तो एक न एक भाव का सहारा लेना पड़ता है, जैसे -शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य या मधुर।
" शान्त भाव या 'the serene attitude': प्राचीन काल के ऋषियों के मन में ईश्वर के प्रति यही भाव था। उनके मन में सांसरिक भोगों की कोई वासना न थी; ईश्वरनिष्ठा (अपने ईष्ट-ठाकुर) में ऐसी निष्ठा थी, जैसी पति पर स्त्री की होती है- ' single-minded devotion of a wife to her husband.' वह तो यही मानती है की मेरे पति ही साक्षात मदन (cupid या कामदेव) हैं !   
" दास्य भाव- जैसे हनुमान का; रामकाज करते समय सिंहतुल्य ! स्त्रियों का भी दास्य भाव होता है, -पति की हृदय खोलकर सेवा करती है। माता में भी यह भाव कुछ कुछ रहता है,-यशोदा में था। 
" सख्य-मित्रभाव : जैसे कहते हैं, आओ, पास बैठो ! सुदामा आदि कृष्ण को कभी जूठे फल खिलते थे, कभी उनके कन्धे पर चढ़ते थे। 
" वात्सल्य- जैसे यशोदा का। स्त्रियों का भी कुछ कुछ होता है। अपने स्वामी (husband या पति) को खिलाते समय मानो, अपना सारा लाड़ उड़ेल देती हैं ! लड़का जब भरपेट भोजन कर लेता है, तभी माँ को सन्तोष होता है। यशोदा कृष्ण को खिलाने के लिये मक्खन हाथ में लिये घूमती फिरती थी।
" मधुर भाव : अपने उपपति या अवैध-प्रेमी के प्रति जैसा भाव, जैसे श्रीराधिका का; ' the attitude of a woman toward her paramour' पत्नी भी अपने पति के लिये इसी भाव का अनुभव करती है। This attitude includes all the other four - इस भाव में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य सब भाव है। "
मणि : क्या ईश्वर के दर्शन इन्हीं नेत्रों से होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण- चर्मचक्षु से उन्हें कोई नहीं देख सकता। साधना करते करते शरीर प्रेम का हो जाता है। आँखें प्रेम की कान प्रेम के। उन्हीं आँखों से वे वे दिख पड़ते हैं, उन्हीं कानों से उनकी वाणी सुन पड़ती है। और प्रेम का लिंग और योनि भी होती है।" One even gets a 'sexual organ' made of love, यह सुनकर मणि खिलखिलाकर हँस पड़े। श्रीरामकृष्ण जरा भी नाराज न होकर फिर कहने लगे.……
श्रीरामकृष्ण - इस प्रेम के शरीर में आत्मा, भगवान के साथ बातचीत करता है। With this 'love body' the soul communes with God."  मणि फिर गम्भीर हो गए। " ईश्वर को बिना खूब प्यार किए दर्शन नहीं होते। खूब प्यार करने से चारों ओर ईश्वर ही ईश्वर दिखते हैं। जिसे पीलिया हो जाता है उसे चारों ओर पीला दिखाई पड़ता है।
" तब ' मैं वही हूँ ' यह बोध भी हो जाता है। मतवाले का नशा जब खूब चढ़ जाता है तब वह कहता है, ' मैं ही काली हूँ'। गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर कहने लगीं- ' मैं ही कृष्ण हूँ'।
दिनरात उन्हीं की चिन्ता करने से चारों ओर वे ही दिख पड़ते हैं। जैसे थोड़ी दीपशिखा या मोमबत्ती की लौ की ओर ताकते रहो, तो फिर चारों ओर सब कुछ शिखामय ही दिखायी देता है। " यह सुनकर मणि सोचते हैं, कि वह शिखा तो सत्य शिखा नहीं है ?
अंतर्यामी श्रीरामकृष्ण कहने लगे- " चैतन्य की चिन्ता करने से चारों ओर कोई अचेत नहीं हो जाता। शिवनाथ ने कहा था, ' ईश्वर की बार बार चिन्ता करने से लोग पागल हो जाते हैं।' मैंने उससे कहा, ' चैतन्य की चिन्ता करने से क्या कभी कोई चैतन्यहीन होता है ? "
मणि-जी, समझा। यह तो किसी अनित्य विषय की चिन्ता है नहीं; जो नित्य और चेतन हैं उनमें मन लगाने से मनुष्य अचेतन क्यों होने लगा ?
श्रीरामकृष्ण (प्रसन्न होकर ) बोले- यह उनकी कृपा है। बिना उनकी कृपा के सन्देह भंजन नहीं होता।
" आत्मदर्शन के बिना सन्देह दूर नहीं होता।
और उनकी कृपा के बिना सन्देह  दूर नहीं होता। वे यदि कृपा करके संशय दूर कर दें, और दर्शन दें, तो फिर कोई दुख नहीं। परंतु उन्हें पाने के लिये खूब व्याकुल होकर पुकारना चाहिये-साधना करनी चाहिये। तब उनकी कृपा होती है। पुत्र को दौड़ते हाँफते देख माता को द्या आ जाती है। माँ छिपी थी, सामने प्रकट हो जाती है।"
मणि मन ही मन सोचने लगे --' ईश्वर इतनी दौड़धूप करवाते ही क्यों हैं ?
श्रीरामकृष्ण तुरन्त कहने लगे, " उनकी इच्छा कि कुछ देर तक दौड़-धूप हो,तो आनन्द मिले। लीला से उन्होने इस संसार की रचना की है। इसी का नाम महामाया है। अतएव उस शक्तिरूपिणी महामाया की शरण लेनी पड़ती है। माया के पाशों ने बाँध लिया है, फाँस काटने पर ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। "
आद्द्याशक्ति महामाया एवं शक्ति साधना 
श्रीरामकृष्ण- " कोई ईश्वर की कृपा प्राप्त करना चाहे, तो उसे पहले आद्द्याशक्तिरूपिणी महामाया को प्रसन्न करना चाहिये। वे संसार को मुग्ध करके सृष्टि, स्थिति, और प्रलय कर रही हैं। उन्होंने सबको अज्ञानी बना डाला है। वे जब द्वार से हट जायेंगी, तभी जीव भीतर जा सकता है। बाहर पड़े रहने से केवल बाहरी वस्तुएं देखने को मिलती हैं, नित्य-सच्चिदानन्द पुरुष नहीं मिलते। इसिलिये पुराणों में है--  श्री दुर्गा सप्तशती में : मधुकैटभ का वध करते समय ब्रह्मादि देवता महामाया की स्तुति कर रहे है, ब्रह्मोवाच --
' त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
 सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥२॥
"संसार की मूलाधार शक्ति ही है। उस आद्द्या शक्ति के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं- अविद्या मोहमुग्ध करती है। अविद्या वह है जिससे कामिनी और कांचन उत्पन्न हुए हैं, वह मुग्ध करती है। और विद्या वह है जिससे भक्ति, दया, ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति हुई है; वह ईश्वर के मार्ग पर ले जाती है।
"उस अविद्या को प्रसन्न करना होगा। इसिलिये शक्ति की पुजापाद्धति हुई।
" उन्हें प्रसन्न करने के लिये नाना भावों से पूजन किया जाता है।जैसे दासी भाव, वीरभाव, सन्तानभाव। वीरभाव अर्थात रमण के द्वारा उन्हें प्रसन्न करना। "
" शक्ति साधना -सबसे विकट साधनायें थीं, दिल्लगी नहीं। 
"मैं माँ के दासी भाव से और सखी भाव से दो वर्ष तक रहा। परन्तु मेरा सन्तान भाव है। स्त्रियों के स्तनों को मातृ-स्तन समझता हूँ।
" लड़कियाँ शक्ति की एक एक मूर्ति हैं। पश्चिममें विवाह के समय वर के हाथ में तलवार रहता है, (उसके ऊपर कसैली खोसकर वर माँ जगदम्बा से आशीर्वाद लेने जाता है।शरीर के साथ यह तादात्म्य ही क्लेश का कारण, इसी गाँठ को वर-वधु ज्ञान की तलवार से मिलकर काट देते है !) बंगाल में सरौता-अर्थात उस शक्ति रूपिणी कन्या की सहायता से वर मायापाश काट सकेगा। यह वीरभाव है। मैंने वीरभाव की पुजा नहीं की। मेरा सन्तान भाव था।
" कन्या शक्तिस्वरूपा है। विवाह के समय तुमने नहीं देखा- वर अहमक़ की तरह पीछे बैठता है; किन्तु कन्या निःशंक रहती है।

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