मेरे बारे में

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

' सांख्य दर्शन का एक अध्यन ' (अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन A study of the Sankhya Philosophy )

' शापेनहावर तथा भारतीयदर्शन में अन्तर'
 अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन तीन अवस्थायें हैं, जिनमें ज्ञान (होश ) का वास है।
सांख्य दार्शनिकों ने प्रकृति को अव्यक्त  कहा है, और उसकी परिभाषा उसके अन्तर्गत समस्त उपादानों की साम्यावस्था के रूप में की है। इससे स्वभावतः यह  निष्कर्ष निकलता है कि पूर्ण साम्यावस्था में किसी प्रकार की गति नहीं हो सकती। आद्द्य अवस्था (primal state) में, किसी अभिव्यक्ति के पूर्व जब कि कोई गति नहीं थी, अपितु पूर्ण साम्यावस्था थी, यह प्रकृति अविनाशी (indestructible) थी, क्योंकि विघटन अथवा विनाश अस्थिरता अथवा परिवर्तन से ही होता है।
सांख्य का यह मत भी है कि परमाणु आरम्भिक अवस्था के रूप नहीं हैं।  इस जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं से नहीं होती : वे दूसरी या तीसरी अवस्था हो सकते हैं। सम्भव है कि आदिकालीन पदार्थ (The primordial material) परमाणुओं का रूप धारण कर स्थूलतर होता हुआ विशालतर वस्तुओं में परिणत हो जाता है। जहाँ तक आधुनिक अनुसन्धानों का सम्बन्ध है; वे भी यथार्थतः इसी निष्कर्ष का संकेत करते हैं। उदाहरणार्थ आकाश ( ether) के सम्बन्ध में आधुनिक सिद्धान्त को लें, यदि तुम कहो कि कि आकाश या ईथर आणविक हैं, तो कोई बात हल नहीं होती। इस बात को और स्पष्ट करने के लिये मानलो कि वायु परमाणुओं से निर्मित है। हम जानते हैं कि आकाश सर्वत्र, ओतप्रोत और सर्वव्यापी है और वायु के ये परमाणु मानो आकाश (ether) में चलायमान हैं। यदि आकाश भी परमाणुओं का बना हुआ है, तो आकाश के प्रत्येक दो परमाणु के बीच देश (spaces/रिक्त स्थान) होगा। इन रिक्त स्थानों की कौन पूर्ति (क्या भर जाता है) करता है?
यदि तुम यह मानलो कि कोई अन्य सूक्ष्मतर आकाश (another ether still finer) है, जो यह कार्य करता है, तो उस सूक्ष्मतर आकाश के परमाणुओं के बीच भी रिक्त स्थान होंगे, जिनकी पूर्ति होनी चाहिये। इस प्रकार सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम आकाश की कल्पना करते करते हम किसी अन्तिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकेंगे। इसीको सांख्य दार्शनिक अनवस्था दोष "cause leading to nothing" कहते हैं। इसलिये परमाणुवाद (atomic theory) सृष्टि का अन्तिम सिद्धान्त नहीं हो सकता। सांख्य के अनुसार प्रकृति सर्वव्यापी है। वह एक सर्वव्यापी जड़-राशिस्वरूप है, जिसमें इस जगत की समस्त वस्तुओं के कारण विद्य्मान हैं।
 कारण का क्या तात्पर्य है ? कारण व्यक्त अवस्था कि सूक्ष्म दशा है --उस वस्तु की अनभिव्यक्त अवस्था (unmanifested state), जो अभिव्यक्ति प्राप्त करती है। विनाश (destruction) का तुम क्या अर्थ लगाते हो ? कारण में प्रत्यावर्तन का नाम विनाश है। यदि तुम्हारे पास मिटटी का कोई बरतन है और तुम उस पर आघात करो, तो वह विनष्ट हो जायेगा। इसका तात्पर्य यह है कि कार्य का उसके मूल स्वरुप में प्रत्यावर्तन हो जाता है, जिन उपादानों से बरतन बना था, वे अपने मूल स्वरुप में लौट जाते हैं। विनाश का इस भाव से परे यदि कोई अन्य भाव, उन्मूलन (annihilation) आदि का लिया जाता है, तो वह स्पष्टतः असंगत है। आधुनिक बहुतिक विज्ञान के अनुसार यह, जिसे कपिल ने युगों पूर्व कहा था, सिद्ध किया जा सकता है कि (नाशः कारण लयः ) समस्त विनाश कारण में प्रत्यावर्तन मात्र है। विनाश का तात्पर्य सूक्ष्मतर अवस्था में रूपान्तरण  ही है, और कुछ नहीं। तुम जानते हो कि एक प्रयोगशाला में यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि ' Matter is indestructible.(E=M) ' भौतिक पदार्थ अविनाशी हैं। हमारे ज्ञान की वर्तमान स्थिति में यदि कोई मनुष्य यह कहता है कि भौतिक पदार्थ अथवा इस आत्मा का उन्मूलन हो जाता है, तो वह अपने को मात्र हास्यास्पद बनाता है।  केवल अशिक्षित, मूर्खलोग ही ऐसी प्रस्थापना प्रस्तुत कर सकते हैं। विचित्र बात यह है कि आधुनिक विज्ञान का प्राचीन दार्शनिकों की शिक्षा से साम्य है। ऐसा होना ही चाहिये, सत्यता का यही प्रमाण है। (सभी धर्मों के धार्मिक-सिद्धान्तों के सत्यता की कसौटी यही होनी चाहिये।) मन को आधार मानकर वे अपने अनुसन्धान में अग्रसर हुए, उन्होंने इस विश्व के मानसिक अवयव (mental part) का विश्लेषण किया और कतिपय निष्कर्षों पर पहुँचे, जिन्हें अभी हम भौतिक अवयव  (physical part) का विश्लेषण (सर्न प्रयोगशाला में ) करके प्राप्त करेंगे; क्योंकि उन दोनों का एक ही केन्द्र की ओर जाना निश्चित है।
तुम्हें स्मरण रखना चाहिये कि ब्रह्माण्ड में इस प्रकृति की प्रथम अभिव्यक्ति सांख्य के शब्दों में 'महत' है। हम इसे बुद्धि कह सकते हैं। प्रकृति में जो प्रथम परिवर्त्तन हुआ, उससे तार्किक-बुद्धि की उत्पत्ति हुई। मैं इसका अनुवाद आत्मचेतना (self-consciousness) के रूप में नहीं करूँगा, क्योंकि वह गलत होगा। चेतना (Consciousness) इस बुद्धि का अंश मात्र है। 'महत' सर्वव्यापी (universal) है। मन की ये सभी अवस्थायें - 'अवचेतन' (sub-consciousness) 'चेतन' (consciousness) और 'अतिचेतन' (super-consciousness) सब इसके (महत के ) अन्तर्गत आ जाते हैं, अतः इस महत के लिये प्रयुक्त चेतना की कोई भी अवस्था पर्याप्त न होगी।  उदाहरण के लिये तुम अपनी आँखों के सामने बाह्य प्रकृति में कुछ परिवर्तन घटित होते हुए देखते हो, जिन्हें तुम देखकर समझ भी सकते हो, किन्तु कुछ परिवर्तन इतने सूक्ष्मतर होते हैं, कि कोई मानव प्रत्यक्षतः उनको पकड़ नहीं सकता ! किन्तु वे एक ही कारण से उदभूत होते हैं; वही महत इन समस्त परिवर्तनों का जनक है। महत से ही सर्वव्यापी अहं-तत्व (universal egoism) की उत्पत्ति हुई है। ये सब द्रव्य (substance) हैं। जड़-तत्व और मन (matter and mind) में परिणामगत भेद के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म एवं स्थूल स्वरूप में एक ही पदार्थ होता है, एक दूसरे में रूपांतरित हो जाता है, और इसका आधुनिक शरीरविज्ञान के निष्कर्षों से पूर्ण साम्य है। इस शिक्षा में विश्वास करने से कि 'मन' मस्तिष्क ( Brain) से पृथक नहीं है, तुम बहुत से द्वंद्व और संघर्षों से बच जाओगे। 
अहंभाव (Egoism) दो प्रजातियों में रूपान्तरित  हो जाता है। इसकी एक प्रजाति इंद्रियों में परिवर्तित हो जाती है। इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं: संवेदक इंद्रियाँ (organs of sensation) और प्रतिक्रियात्मक इंद्रियाँ (organs of reaction)। वे आँख और कान (आदि उपकरण ) नहीं हैं, बल्कि इनके पृष्ठ भाग हैं, जिन्हें मस्तिष्क-केन्द्र (brain-centers) और स्नायु-केन्द्र (nerve-centers) आदि कहा जाता है। यह अहंभाव (egoism), यह पदार्थ ही परिवर्तित हो जाता है, और इसी पदार्थ से मस्तिष्क में ये केन्द्र आदि निर्मित होते हैं। फिर इसी पदार्थ (अहंभाव) से दूसरी प्रजाति के रूप में तन्मात्राओं-पदार्थ के सूक्ष्म कणों का निर्माण होता है, जो अभिज्ञता प्रदान करने वाली हमारी संवेदक-इंद्रियों पर आघात करते हैं, और संवेदना उत्पन्न होती है। तुम उन्हें देख नहीं सकते, मात्र जानते हो कि वे हैं। तन्मात्राओं से स्थूल पदार्थ --क्षिति, जल, तथा उन सब वस्तुओं का, जिन्हें हम देखते और अनुभव करते हैं, निर्माण होता है। ये सब (अहंभाव से इन्द्रिय और तन्मात्रा आदि की उत्पत्ति भी) ब्रह्माण्ड की रचना से सम्बंधित बातें हैं। यह बात मैं तुम्हारे मन में बैठा देना चाहता हूँ।  इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि पश्चिमी देशों में मन एवं पदार्थ के विषय में विचार बहुत विचित्र हैं। उन प्रभावों को अपने मस्तिष्क से दूर करना बहुत कठिन है।  पाश्चात्य दर्शन में अपने बाल्य काल में प्रशिक्षित होने से मुझे स्वयं को बड़ी कठिनाई हुई थी। 
ब्रह्माण्ड रचना में प्रथम रूपान्तरण को- 'महत' कहा जाता है। एक अविभक्त (undifferentiated), अखण्डित द्रव्य, की कल्पना करो, जो प्रत्येक वस्तु की प्रथम अवस्था है। उसी 'महत' से यह ब्रह्माण्डीय विस्तार (universal extension), उसी प्रकार रूपान्तरित होने लगता है, जिस प्रकार दूध परिवर्तित होकर दही बन जाता है। महत पदार्थ स्थूलतर पदार्थ, जिसे अहंभाव (egoism) कहते हैं,में रूपान्तरित हो जाता है। इसका तीसरा रूपान्तरण सार्वभौम संवेदक इन्द्रियों ( universal sense-organs) तथा सार्वभौम तन्मात्राओं (universal fine particles) के रूप में अभिव्यक्त होता है, और ये अंतिम वस्तुएँ पुनः संयुक्त होकर इस स्थूल जगत में, जिसे हम अपनी आँख, नाक तथा कान से देखते, सूँघते और सुनते हैं, (यन्त्र ) में परिणत हो जाती हैं। सांख्य के अनुसार यही वह 'cosmic plan' ब्रह्माण्डीय योजना है, वह विधान है-कि  " जो ब्रह्माण्ड (cosmos) में है, वह अवश्य पिण्ड (microcosmic) में भी होगा !" 
सांख्य-दर्शन समझने की पहली सीढ़ी:  किसी एक व्यक्ति (पिण्ड) को लो, उसमें प्रथमतः अविभक्त (undifferentiated), अखण्डित पदार्थगत प्रकृति (material nature ) है, और उसके भीतर की वह पदार्थगत प्रकृति, महत में रूपान्तरित हो गयी है।  वह व्यक्तिगत महत, ब्रह्माण्डीय बुद्धि (universal intelligence) का एक अंश है। और उसमें निहित ब्रह्माण्डीय बुद्धि (universal intelligence) का यह कण 'अहंभाव' ( egoism) में, और फिर संवेदक इन्द्रियों (sense-organs) तथा सूक्ष्म तन्मात्राओं (fine particles of matter) में रूपान्तरित हो जाता है, जो (which combine and manufacture his body)उसके शरीर का संयोजन एवं निर्माण करते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम इस तथ्य को भली-भाँति समझ लो, क्योंकि  सांख्य-दर्शन समझने की पहली सीढ़ी यही है। सांख्य-दर्शन के इस प्रथम सोपान 'stepping-stone' को समझना तुम्हारे लिये अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यह समस्त विश्व के दर्शन का आधार है। विश्व में कोई ऐसा दर्शन नहीं है, जो महर्षि कपिल का ऋणी न हो। पाइथागोरस (Pythagoras) भारत आये और उन्होंने इस दर्शन का अध्यन किया और वही ग्रीक लोगों के दार्शनिक विचारों का समारम्भ था। बाद में इसे ऐलग्ज़ैन्ड्रीयन स्कूल या ' सिकन्दरियन दर्शन शाखा ' और उसके भी बाद 'Gnostic' या नास्टिक अर्थात 'रहस्यवादी दर्शन-शाखा' का जन्म हुआ। बाद में यह दो भागों में बँट गया, एक भाग यूरोप तथा सिकन्दरिया (Alexandria) चला गया और दूसरा भारत में ही रहा; इससे व्यास की दर्शन-पद्धति का विकास हुआ। कपिल का सांख्य-दर्शन ही इस विश्व का सर्वप्रथम ऐसा दर्शन है, जिसने तर्कसंगत प्रणाली (rational system) से जगत् -रचना के सम्बन्ध में विचार किया है, विश्व के प्रत्येक तत्वमीमांसाक (आध्यात्मिक वैज्ञानिकों meta-physician) को उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिये। मैं तुम्हारे मन में यह भाव उत्पन्न करना चाहता हूँ कि ' great father of philosophy ' दर्शन शास्त्र के पितामह के रूप में उनकी बातें सुनने के लिये हम बाध्य हैं। इस अद्भुत व्यक्ति, इस अत्यन्त प्राचीन दार्शनिक का श्रुति में भी उल्लेख है --" हे भगवान, आपने (सृष्टि के) प्रारम्भ में कपिल मुनि को उत्पन्न किया।"  
उनके प्रत्यक्ष-ज्ञान कितने आश्चर्यजनक थे, और यदि योगियों की प्रत्यक्ष-बोध सम्बन्धी असाधारण शक्ति का कोई प्रमाण चाहिये, तो ऐसे व्यक्ति उसके प्रमाण हैं। उनके पास कोई माइक्रस्कोप अथवा टेलीस्कोप यंत्र नहीं था। तथापि उनका प्रत्यक्ष-बोध कितना उत्कृष्ट था, उनका वस्तुओं का विश्लेषण कितना पूर्ण एवं अद्भुत है ! यहाँ मैं शापेनहावर तथा भारतीयदर्शन के अन्तर का संकेत करूँगा। शापेनहॉवर का कथन है कि इच्छा अथवा संकल्प (desire, or will) ही सब चीज का कारण है। 'होने' (अस्तित्व) की इच्छा (the will to exist) से ही हमारी अभिव्यक्ति होती है, किन्तु हम इससे इंकार करते हैं।  इच्छा और प्रेरक नाड़ी (motor nerves) एकरूप हैं।  जब हम कोई वस्तु देखते हैं, तो इसमें इच्छा की कोई बात नहीं होती; जब इसकी संवेदनाएँ मस्तिष्क के पास पहुँचती हैं, तब प्रतिक्रिया उपस्थित होती है, जो कहती है, 'यह करो', अथवा 'यह न करो' अहं-पदार्थ की इस अवस्था को ही इच्छा कहते हैं।  इच्छा का एक भी कण ऐसा नहीं है, जो प्रतिक्रिया का प्रतिफल न हो।  अतएव इच्छा से पूर्व बहुत सी बातें होती हैं।
ह इच्छा - अहंभाव से निर्मित कोई वस्तु है, और अहंभाव का सृजन कुछ और ऊँची वस्तु --'बुद्धि' से होता है और वह 'बुद्धि' भी अविभक्त प्रकृति का रूपान्तरण है। यह विचार बौद्धों का था कि हम जो कुछ भी देखते हैं, वह 'इच्छा' ही है। यह धारणा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिलकुल गलत है।  क्योंकि इच्छा केवल या प्रेरक नाड़ियों
 में ही पायी जा सकती है। यदि तुम प्रेरक या संचालक तंत्रिकाओं, ' motor nerves' को निकाल दो, तो मनुष्य में किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती। जैसा कि सम्भवतः तुम लोग जानते होगे, कि वैज्ञानिकों को यह तथ्य निम्न श्रेणी के पशुओं पर अनेक प्रयोग करने के बाद ज्ञात हुआ है।
 हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे। मनुष्य में विद्य्मान महान सिद्धान्त ' महत' या 'बुद्धि'  सम्बन्धी बात को समझना बहुत जरुरी है। यह बुद्धि भी एक वस्तु  में रूपान्तरित हो जाती है, जिसे अहंभाव कहते हैं और 'बुद्धि' शरीर की समस्त शक्तियों का कारण है। इसके अन्तर्गत अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन सब आ जाते हैं। ये तिन अवस्थाएँ-  क्या हैं ?
अवचेतन या  'sub-consciousness ' अवस्था, जिसे जन्मजात-प्रवृत्ति ( instinct) कहते हैं, उसे हम पशुओं में देख सकते हैं। इसमें प्रायः भूल नहीं होती, यह लगभग अचूक है,किन्तु यह बहुत सीमित होती है।  जन्मजात-प्रवृत्ति शायद ही कभी विफल होती है।  पशु खाद्य एवं विषाक्त वनसप्ति में सहज ही विभेद कर लेता है; परन्तु उसकी जन्मजात-प्रवृत्ति बहुत सीमित होती है, जैसे ही कोई नयी वस्तु आ जाती है, वह कुछ नहीं समझ पाता। (पशु भ्रष्टाचार इसीलिये नहीं करते कि उनके पास तर्कशील बुद्धि नहीं होती) वह यन्त्रवत कार्य करता है।  इसके बाद ज्ञान (consciousness या चेतना ) की उच्च अवस्था आती है, जिसमें भूल और बहुधा गलतियाँ होती हैं, किन्तु इसका क्षेत्र अपेक्षाकृत विस्तृत है, यद्द्पि यह सचेत (slow) है। इसे हम तर्कशील बुद्धि (reasoning) की संज्ञा देते हैं।  इसका दायरा सहज-प्रवृत्ति से बहुत विस्तृत है, किन्तु सहज-प्रवृत्ति तर्कशील बुद्धि की अपेक्षा अधिक असंदिग्ध निर्णय कर सकती है। सहज-प्रवृति से प्रेरित होकर कर्म करने की अपेक्षा तर्कशील बुद्धि (reasoning) से प्रेरित होकर कर्म करने में अधिक गलतियाँ होने की सम्भावना होती है।
 मन की इससे भी भी ऊँची एक अवस्था है--अतिचेतन (super-consciousness) जो केवल योगियों में होती है, जिन्होंने उसका विकास किया है (who have cultivated it उसकी उपलब्धि की है)। यह अमोघ है, इसके निर्णय में कोई भूल नहीं हो सकती, और तर्कशील बुद्धि की अपेक्षा इसका दायरा भी बहुत अधिक व्यापक है। यह उच्चतम अवस्था है। अतएव हमें स्मरण रखना चाहिये कि यह महत ही उन सबका वास्तविक कारण है, जो कुछ यहाँ है; यानि वह महत जो अपने को विभिन्न प्रकार से व्यक्त करता है, जिसके अन्तर्गत अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन तीन अवस्थायें हैं, जिनमें ज्ञान का वास है। अब एक सूक्ष्म प्रश्न उठता है, जो हमेशा पूछा जाया करता है। यदि एक पूर्ण ईश्वर ने इस जगत की सृष्टि की है, तो इसमें अपूर्णता क्यों है ? 
जिसे हम विश्व कहते हैं, वह वही है, जो हम देखते हैं, और वह है चेतन एवं तर्कशील बुद्धि का यह लघु स्तर, जिसके परे ( beyond that) हम बिल्कुल नहीं देखते। अब हम समझ सकते हैं कि यह प्रश्न ही एक असम्भव प्रश्न है। यदि हम किसी बृहत् राशि के एक छोटे से भाग को लें और उसकी ओर दृष्टिपात करें, तो वह असंगत (बेमेल) प्रतीत होता है। यह स्वाभाविक ही है। विश्व अपूर्ण है, क्योंकि हम उसे वैसा बना लेते हैं। कैसे ? तर्कशील-बुद्धि क्या है ? ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, 'finding the association' वस्तुओं की साहचर्य-प्राप्ति। तुम सड़क पर घूमते समय किसी मनुष्य को देखते हो, और कहते हो मैं जानता हूँ, कि यह मनुष्य है। क्योंकि तुमको अपने मन पर पड़े संस्कारों, चित्त पर अंकित चिन्हों का स्मरण हो आता है। तुमने बहुत से मनुष्यों को देखा है, और प्रत्येक ने तुम्हारे मन पर एक संस्कार डाला है और तुम जैसे ही इस मनुष्य को देखते हो, इसे अपने ज्ञान-भण्डार से सम्बद्ध करते हो, और वहाँ पर तुमको इसी प्रकार के बहुत से चित्र दिखाई पड़ते हैं; एवं जब तुम उन्हें देख लेते हो, तो संतुष्ट हो जाते हो और उनके साथ इस नये चित्र को भी रख देते हो। जब कोई नया संस्कार पड़ता है और उसका तुम्हारे मन में साहचर्य होता है, तो तुम सन्तुष्ट हो जाते हो। साहचर्य की इस अवस्था को ज्ञान कहते हैं। 
अतएव ज्ञान पहले से विद्य्मान अनुभव के कोष में किसी अनुभव को उसी प्रकार रखता है, जिस प्रकार एक ही वर्ग के खाते में डाला जाता है, और इस तथ्य का कि तुमको उस समय तक कोई ज्ञान नहीं हो सकता, जब तक कि तुम्हारे पास ज्ञान का पहले से कोई कोष न हो, यह सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि तुम्हारे पास पहले का कोई अनुभव चित्त में संचित नहीं है, जैसा कुछ यूरोपीय दार्शनिक मानते हैं कि तुम्हारा मन समारम्भ के लिये एक 'अनुत्क़ीर्ण फलक' (tabula rasa) की भाँति है, तो तुमको कोई ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि ज्ञान का वास्तविक अर्थ मन में पहले से विद्य्मान सहचार्यों द्वारा नूतन की पहचान या स्वीकृति मात्र है। अपने पास संचित अनुभव-ज्ञान का एक भण्डार होना ही चाहिए, जिससे किसी नये संस्कार को सम्बद्ध किया जा सके। मानलो कि एक शिशु बिना ऐसे कोष के इस विश्व में जन्म लेता है, तो उसके लिये कभी भी कोई ज्ञान प्राप्त करना असम्भव हो जायगा। अतएव, शिशु पहले एक ऐसी अवस्था में अवश्य रहा होगा, जब कि उसके पास कोई ज्ञान-कोष था, इस प्रकार ज्ञान की शाश्वत रूप से वृद्धि हो रही है। इस तर्क से बचने का कोई मार्ग हो, तो मुझे बताओ। यह एक गणितीय तथ्य है।
पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के भी कुछ दार्शनिकों का मत है कि बिना विगत ज्ञान-कोष के कोई ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। उन्होंने यह धारणा बनायी है कि शिशु को जन्म से ही ज्ञान होता है। इन पाश्चात्य दार्शनिकों का कहना है कि जिन संस्कारों के साथ शिशु विश्व में जन्म लेता है, उसके विगत जीवन के कारन नहीं होते, अपितु उसके पूर्वजों के अनुभव के फलस्वरूप होते हैं। यह मात्र आनुवांशिक संक्रमणवाद ' hereditary transmission ' है। शीघ्र ही उन्हें पता चल जायगा कि यह सिद्धान्त बिलकुल गलत है। कुछ जर्मन दार्शनिक आनुवांशिकता सम्बन्धी इन विचारों पर अब कठोर प्रहार कर रहे हैं। आनुवांशिकता का सिद्धान्त बहुत अच्छा है, किन्तु अपूर्ण है, यह केवल शारीरिक पहलु पर प्रकाश डालता है। परिवेश का हम पर जो प्रभाव पड़ रहा है, उसकी व्याख्या तुम कैसे करोगे ? अनेक कारण मिलकर एक कार्य का प्रादुर्भाव करते हैं। परिवेश भी रूपान्तरकारी कार्यों में एक है। जिस प्रकार का हमारा अतीत होता है,अपने लिये ठीक वैसे ही परिवेश का निर्माण हम स्वयं कर लेते हैं; और इस प्रकार हमारा वर्तमान परिवेश हमको प्राप्त होता है। इसीलिये एक शराबी शहर की गन्दी बस्तियों की ओर स्वभावतः आकृष्ट हो जाता है। 
तुम जानते हो कि ज्ञान का क्या तात्पर्य है। ज्ञान पुराने संस्कारों के साथ किसी नवीन संस्कार को वर्गीकृत करके रखने के सदृश है-नूतन संस्कार की पहचान (recognizing) मात्र है। पहचानने (recognition) का क्या अर्थ है ? किसी व्यक्ति के पास पहले से जो संस्कार हैं, उनके तुल्य संस्कारों की साहचर्य-प्राप्ति शिनाख्त या पहचान (recognition) कहलाती है। ज्ञान का और कोई दूसरा अर्थ नहीं है। यदि यह बात है कि ज्ञान का तात्पर्य साहचर्य-प्राप्ति (finding the associations) है, तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी चीज को जानने के लिये हमको उसके तुल्य वस्तुओं (similars) के सम्पूर्ण अनुक्रम को देखना पड़ेगा। Is it not so? क्या ऐसी बात नहीं? मानलो तुम एक कंकड़ लेते हो, साहचर्य ज्ञात करने के लिये उसीके सदृश कंकड़ के सम्पूर्ण अनुक्रम को तुम्हें देखना होगा।
किन्तु सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की अवधारणा बनानी हो, तो हम वैसा नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे मन के संचित खानों (pigeon-hol) में प्रत्यक्ष-बोध (अभिज्ञता या perception) का मात्र एक ही आलेख है, हमारे पास उसी प्रकृति अथवा वर्ग का कोई अन्य प्रत्यक्ष-बोध नहीं है, हम उसकी अन्य किसी प्रत्यक्ष-बोध से तुलना नहीं कर सकते। हम उसको उसके सहचार्यों से सम्बद्ध नहीं कर सकते। हमारी चेतना (consciousness) से पृथक विश्व-ब्रह्माण्ड का यह टुकड़ा हमारे लिये आश्चर्यजनक नूतन पदार्थ है, क्योंकि हम इसके साहचार्यों से सम्बद्ध नहीं कर सकते। अतएव हम इससे संघर्ष कर रहे हैं, और इसे दुष्ट, भयावह तथा बुरा समझते हैं; हम किसी समय इसे अच्छा भी समझ सकते हैं, किन्तु हमारा सदैव यह विचार रहता है कि यह अपूर्ण है। ब्रह्माण्ड तभी जाना जा सकता है, जबकि हम उसके साहचर्यों को पा सकें। इसकी पहचान हमें तभी मिलेगी जब हम इस ब्रह्माण्ड और चेतना के परे चले जायेंगे, और तब यह विश्व-ब्रह्माण्ड हमें स्वतः व्याख्यात हो जायगा। 
जब तक हम यह नहीं कर पाते, हमारी सारी माथापच्ची ब्रह्माण्ड की व्याख्या कभी नहीं कर सकती, क्योंकि ज्ञान "finding of similars" हमेशा तुल्य-वस्तु की प्राप्ति है, और हमारी चेतना का यह साधारण स्तर इसका हमें मात्र एक ही प्रत्यक्ष-बोध प्रदान करता है।  
यही बात ईश्वर के प्रति हमारी अवधारणा के सम्बन्ध में है। ईश्वर का हमको जो सब कुछ दिखायी पड़ता है, वह अंश मात्र है, उसी प्रकार जिस प्रकार हम विश्व के केवल एक अंश को देखते हैं और शेष 'beyond human cognition' मानव-बोध से परे है। " मैं अनन्तस्वरुप हूँ।  मैं इतना वृहद् हूँ कि यह ब्रह्माण्ड भी केवल मेरा एक अंश मात्र है !"

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
                           विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता १०/४२ ।।
एतेन = इस; बहुना = बहुत; ज्ञातेन = जानने से; तव = तेरा; किम् = क्या प्रयोजन है; इदम् = इस; कृत्स्त्रम् = संपूर्ण; जगत् = जगत् को (अपनी योगमाया के ); एकांशेन = एक अंशमात्र से; विष्टभ्य = धारण करके 
अथवा हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन हैं। बस इतना ही समझ ले कि मैं ही इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योग शक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ ।।10 /42।।
यही कारण है कि ईश्वर भी हमें अपूर्ण दिखायी पड़ता है, और हम 'उसे ' समझ नहीं पाते। 'उसे' (अपने अनन्त स्वरुप को) तथा ब्रह्माण्ड को समझने का एकमात्र उपाय यह है कि हम तर्कशील बुद्धि एवं चेतना के परे 'beyond consciousness' चले जायें।' भगवान कृष्ण कहते हैं, "जब श्रुत और श्रवण, विचार तथा चिन्तन, इन सबके परे जाओगे, तभी सत्य-लाभ करोगे। "

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
                        तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।। गीता २/५२ ।।
 यदा = जिस कालमें ; ते = तेरी ; बुद्धि: = बुद्धि ; तदा = तब ; (त्वम्) = तूं ; श्रोतव्यस्य = सुननेयोग्य ; च = और ; मोहकलिलम् = मोहरूप दलदलको ; व्यतितरिष्यति = बिल्कुल तर जायगी ; श्रुतस्य = सुने हुएके ; निर्वेदम् = वैराग्यको ; गन्तासि = प्राप्त होगा ;
जिस  क्षण तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल (अहं ) को भलीभाँति पार कर जायेगी, उसी क्षण तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी सच्चायी को जान  जाओगे और तुम्हें स्वतः समस्त भोगों से वैराग्य हो जायेगा ।।2 /52।।
भगवान यह भी कहते हैं कि, " हे अर्जुन, तुम  शास्त्र की सीमा के बाहर चले जाओ, क्योंकि वे केवल प्रकृति और तीन गुणों तक की ही शिक्षा देते है। " जब हम इनके परे जाते हैं, तब हमें अविरोध (समानता harmony) की प्राप्ति होती है, इसके पूर्व नहीं। 
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
                  निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।।गीता २/४५ ।।

त्रैगुण्यविषया: = तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको विषय करनेवाले अर्थात प्रकाश करने वाले हैं (इसलिये तूं) ; निस्त्रैगुण्य: = असंसारी अर्थात निष्कामी (और) ; निर्द्वन्द्व: = सुख दु:खादि द्वन्द्वोंसे रहित ; नित्यसत्वस्थ: = नित्य वस्तुमें स्थित (तथा) ; निर्योगश्रेम: = योग क्षेमको न चाहनेवाला (और) ; आत्मवान् = आत्मपरायण ; भव = हो ;
हे अर्जुन ! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं। इसलिये तू उन भोगों एवं उनके साधनों, आसक्ति हीन, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित योगक्षेम को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्त:करण वाला हो ।।45।।

सूक्ष्म ब्रह्माण्ड (microcosm)तथा बृहत ब्रह्माण्ड (macrocosm) वास्तव में एक ही योजना के अनुसार निर्मित हैं, और सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में हम केवल एक अंश --मध्य भाग --को ही जानते हैं। हम न अवचेतन (sub-conscious) को जानते हैं, न अतिचेतन (super-conscious) को। हम केवल चेतन (conscious) को ही जानते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहता है कि "I am a sinner" या  मैं पापी हूँ, तो वह मिथ्या कथन करता है; क्योंकि वह अपने को नहीं जानता। वह मनुष्यों में अत्यन्त अज्ञ है, अपने विषय में वह अंश मात्र जानता है; क्योंकि वह जिस भूमि पर है, उसका ज्ञान (उसकी तर्कशील बुद्धि) उसके केवल एक ही भाग को स्पर्श करता है। यही बात इस ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में है, तर्कशील बुद्धि (reason) के द्वारा इसके केवल एक पहलू को जानना सम्भव है, सम्पूर्ण को नहीं; क्योंकि ब्रह्माण्ड का निर्माण अवचेतन, चेतन, अतिचेतन, व्यक्तिगत महत, सार्वभौम महत तथा परवर्ती परिणामों से होता है।
प्रकृति रूपान्तरित क्यों होती है ? अब तक हमने देखा कि प्रत्येक वस्तु, समस्त प्रकृति जड़, अचेतन है। यह सब यौगिक (compound) एवं अचेतन (insentient) है। जहाँ भी नियम है, (जो भी नियम से बंधा हुआ है ) यह सिद्ध है कि उसका कार्यक्षेत्र अचेतन है।  मन, बुद्धि, इच्छा और अन्य सभी अचेतन है। किन्तु ये सब किसी चेतना का, ' the "Chit" of some being who is beyond all this ' किसी ऐसे सत् पदार्थ के चित् का प्रतिबिम्बन कर रहे हैं, जो इन सब से परे है, जिसे सांख्य दार्शनिक 'पुरुष' संज्ञा से सम्बोधित करते हैं। पुरुष ही विश्व के सम्पूर्ण परिवर्तनों का सक्षिस्वरूप कारण (बेखबर कारण : unwitting cause) है। 
इसका तात्पर्य यह हुआ कि सार्वभौमिक अर्थ में पुरुष को ग्रहण करने पर, वही ब्रह्माण्ड का प्रभु है।  यह कहा जाता है कि ईश्वर की इच्छा ने ब्रह्माण्ड की रचना की है। सामान्य भाषा में ऐसा कहना ठीक है, परन्तु हम देखते हैं कि यह बात सत्य नहीं है। इच्छा कारण कैसे बन सकती है ? प्रकृति में इच्छा तीसरी या चौथी अभिव्यक्ति है।  बहुत से तत्वों का अस्तित्व इसके पूर्व है, उनका सृजन किसने किया ? इच्छा एक यौगिक तत्व (compound) है, और प्रत्येक यौगिक पदार्थ की उत्पत्ति प्रकृति से होती है। अतएव इच्छा प्रकृति की सृष्टि नहीं कर सकती। अतः यह कहना कि ईश्वर की इच्छा से ब्रह्माण्ड की रचना हुई है, अर्थहीन है। हमारी इच्छा अहंभाव के छोटे से हिस्से को ही आच्छादित करती है, और हमारे मस्तिष्क को परिचालित करती है। इच्छा वह तत्व नहीं है, जिससे हमारा शरीर या ब्रह्माण्ड परिचालित हो रहा है। हमारा शरीर जिस शक्ति के द्वारा गतिशील होता है, इच्छा उसकी आंशिक अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में इच्छा का अस्तित्व है, किन्तु वह ब्रह्माण्ड का एक अंश मात्र है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उसी इच्छा के द्वारा संचालित नहीं हो रहा है। यही कारण है कि हम इसकी व्याख्या ' इच्छा-सिद्धान्त' (will theory) के अधर पर नहीं कर सकते। मानलो कि मैं यह सही मानता हूँ कि इच्छा-शक्ति ही शरीर का संचालन संचालन कर रही है, लेकिन जब मैं यह पाता हूँ कि यह मेरी इच्छानुसार कार्य नहीं करता, तो मुझे झुँझलाहट होती है। इसी प्रकार जब मैं यह मानता हूँ कि ब्रह्माण्ड का नियमन इच्छा-शक्ति ही कर रही है, और कुछ ऐसी वस्तुओं को पाता हूँ, जो इसका अनुसरण नहीं करती हैं, तो इसमें मेरा ही दोष है। 
अतएव पुरुष इच्छा नहीं है, और नतो वह बुद्धि ही हो सकता है, क्योंकि स्वयं बुद्धि भी एक यौगिक पदार्थ है। मस्तिष्क के समानान्तर किसी जड़ पदार्थ के अस्तित्व के बिना बुद्धि का अस्तित्व सम्भव नहीं है। जहाँ कहीं भी बुद्धि है, वहाँ मस्तिष्क के सदृश कोई पदार्थ अवश्य ही होगा, जो एक विशिष्ट रूप में गठित होकर मस्तिष्क का कार्य करता है। किन्तु स्वयं बुद्धि एक यौगिक तत्व है। तो फिर पुरुष क्या है? यह न तो बुद्धि है, और न इच्छा ही बल्कि यह इन सबका कारण है। उसके ही सानिध्य में इनमें क्रिया उत्पन्न होती है, एवं इन सबका परस्पर संयोग होता है। यह प्रकृति से अनासक्त रहता है; यह बुद्धि या महत नहीं, बल्कि आत्मा --निर्गुण पुरुष है। भगवान् (पुरुष या आत्मा) में जो कर्तापन का अभाव दिखलाया गया, अब उस को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं- भगवान कहते हैं- " मैं साक्षी हूँ, और मेरे साक्षिस्वरूप होने के कारण ही प्रकृति जड़, चेतन सबको उत्पन्न कर रही है। " 
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
                      हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।गीता ९/१०।।
कौन्तेय = हे अर्जुन ; मया = मुझ ; अध्यक्षेण = अधिष्ठाता के सकाश से (यह मेरी) ; प्रकृति: = माया ; सचराचरम् = चराचरसहित सर्व जगत् को ; सूयते = रचती है (और) ; अनेन = इस (ऊपर कहे हुए) ; हेतुना = हेतु से (ही) ; जगत् = यह संसार ; विपरिवर्तते = आवागमनरूप चक्र में घूमता है ; 
 प्रकृति में चेतनता (sentience) कहाँ से आयी ? हम पाते हैं कि यह चेतनता बुद्धि है, जिसे चित् कहा जाता है। चेतनत्व का आधार पुरुष है, पुरुष का यह स्वभाव है। यह वह तत्व है --जिसकी व्याख्या नहीं की सकती, लेकिन जिसे हम ज्ञान कहते हैं, उसका वह कारण है।  पुरुष अहंकार (consciousness) नहीं है, क्योंकि अहंकार यौगिक है, किन्तु अहंकार में जो कुछ भी शुभ या प्रकाशस्वरूप है, वह पुरुष का अंश है।  पुरुष बुद्धि (conscious) नहीं है, लेकिन बुद्धि में जितना भी प्रकाश (intelligence) है, वह उसे पुरुष से ही ग्रहण करती है। पुरुष में चेतनता तो है, किन्तु पुरुष न तो बुद्धिमान ही है, न ज्ञानवान ही। अपने चारों ओर हम जो कुछ भी देख रहे हैं, वह प्रकृति एवं पुरुष में निहित चित् का (The Chit in the Purusha plus Prakriti) मिश्रण है। 
 "एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति।" बृ.उ.४।३।३२  'जहाँ कहीं भी कोई सुख है, जहाँ भी कोई आनन्द है, वहाँ उस अमृत-तत्व की चिनगारी है, जिसे ईश्वर कहते हैं। पुरुष (कृष्ण) ही विश्व-ब्रह्माण्ड का आकर्षण-केन्द्र है; यद्दपि यह उससे अप्रभावित एवं असंयुक्त है, तथापि यह समग्र ब्रह्माण्ड को आकृष्ट करता है।' 
मनुष्य को स्वर्ण-मृग के पीछे दौड़ लगाते देखा जाता है, क्योंकि इसके पीछे पुरुष की चिनगारी है, यद्दपि अधिक मात्रा में यह मल से युक्त है। जब कोई मनुष्य अपने बच्चों से से प्यार करता है, या कोई स्त्री अपने पति से प्यार करती है, तो उनको आकृष्ट करने वाली कौन सी शक्ति होती है ? वह उनके पीछे पुरुष का स्फुलिंग ही है। यह वहाँ विद्य्मान है, केवल वह 'मल' से आवेष्टित है। उसके सिवा  कोई आकृष्ट नहीं कर सकता है। ' इस जड़ संसार में केवल पुरुष ही चैतन्य है। ' यही सांख्य का पुरुष है। इस धारणा के अनुसार, पुरुष अवश्य ही सर्वव्यापी होगा। जो सर्वव्यापी नहीं है, वह निश्चित रूप से ससीम होगा। सभी सीमायें कारणोत्पन्न हैं; जो कार्यस्वरूप हैं, उनका आदि और अन्त है। यदि पुरुष ससीम है, तो यह विनाश को प्राप्त होगा, मुक्त नहीं होगा, चरम तत्व नहीं हो पायेगा, बल्कि यह भी कारणोंत्पन्न हो जायेगा। अतएव यह सर्वव्यापी है।
कपिल के अनुसार पुरुष बहुसंख्यक हैं, एक नहीं, बल्कि अनन्त संख्यक हैं। मुझमें और तुममें एक एक पुरुष है, और इसी प्रकार सबमें अलग अलग पुरुष का निवास है; एक अनन्त वृत्तों की परम्परा, जो प्रत्येक अपने अपने में अनन्त है, विश्व में गतिमान है।  पुरुष न तो जड़ है और न तो मन ही, इसके द्वारा प्रेषित प्रतिबिम्ब को ही हम जान पाते हैं। जब यह सर्वव्यापी है, तो यह निश्चित रूप से जन्म एवं मृत्यु से परे है।  प्रकृति इस पर अपनी प्रतिच्छाया --जन्म एवं मृत्यु की प्रतिच्छाया --प्रक्षिप्त करती है; परन्तु यह पुरुष स्वभावतः शुद्ध है। यहाँ तक तो हम सांख्य दर्शन को प्रशंसनीय पाते हैं। 
अब हम इसके (सांख्य-दर्शन के) विरुद्ध दी गयी युक्तियों पर विचार करेंगे। यहाँ तक व्याख्या पूर्ण है, एवं मनोविज्ञान के आधार पर देखें तो किसी भी विवाद से ऊपर है। 'division of the senses into organs and instruments' 'अहंभाव' का संवेदक 'इन्द्रियों' एवं संवेदन-वाहक 'यन्त्रों' (आँख-कान -नाक आदि ) में विभक्त हो जाना इस बात का प्रमाण है, वे अयौगिक (परिशुद्ध या simple) नहीं बल्कि यौगिक (मिश्रित या compound) हैं। 'अहंभाव'  (egoism) को इन्द्रिय एवं जड़ (तन्मात्राओं) , इन दो भागों में विभक्त कर हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि यह (अहं) भी जड़ पदार्थ है और महत भी जड़ पदार्थ की एक अवस्था है। इस प्रकार अन्त में हम 'पुरुष' की उपलब्धि करते हैं। यहाँ तक इस सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं। 
लेकिन यदि हम सांख्यवादियों से यह प्रश्न करें कि -प्रकृति की सृष्टि किसने की ? तो उनका उत्तर होगा कि पुरुष एवं प्रकृति अनादि एवं सर्वव्यापी (uncreated and omnipresent) हैं, और पुरुषों की संख्या अनन्त है। हमें इन वाक्यों का विरोध करना है, और एक श्रेष्ठ समाधान की उपलब्धि करनी है। और इस समाधान को खोजने के क्रम में हम अद्वैत मत की उपलब्धि करेंगे। हमारा प्रथम प्रतिवाद है, कि --" how can there be these two infinities? " दो अनन्त तत्व कैसे रह सकते हैं ? और फिर यह युक्ति देंगे कि सांख्य एक सर्वांगपूर्ण सामान्यीकरण नहीं है, और इसमें हमें कोई समाधान नहीं प्राप्त होता। पुनः हम देखेंगे कि वेदान्ती किस प्रकार इन कठिनाइयों को पार करते हैं और एक सर्वांगीण समाधान को प्राप्त करते हैं। इसके बावजूद हमें इस वेदान्ती-समाधान प्राप्त करने का सारा श्रेय सांख्य को ही देना होगा । क्योंकि जब एक प्रासाद का निर्माण हो जाता है, तो उसका अन्तिम सौंदर्य-प्रसाधन (finishing touch ) देना आसान हो जाता है। ( १-८-१८९६ को न्यूयार्क में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिया गया भाषण )
=============  

( हम देखेंगे कि किन्तु अहंभाव का इन्द्रियों, यंत्रों और जड़ तन्मात्राओं में रूपान्तरित होना या दो विभिन्न प्रजातियों में विभक्त हो जाना, केवल विवर्त है, परिणाम नहीं है।)



रविवार, 2 फ़रवरी 2014

ब्रह्माण्डविज्ञान : नासदीय सूक्त (Cosmology)

हमारे सम्मुख दो प्रकार के जगत् हैं-- सूक्ष्म ब्रह्माण्ड और बृहत ब्रह्माण्ड; जिसे हम अन्तर्जगत (Microcosm) और बाह्य-जगत् (Macrocosm) कहते हैं।  हम अनभूति के द्वारा ही दोनों से सत्य प्राप्त करते हैं। जो सत्य हमें आन्तरिक अनुभव के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें मनोविज्ञान (साइकालजी Psychology) या आत्मतत्वज्ञान (Metaphysics) और धर्म कहा जाता है। बाह्य अनुभव से भौतिक विज्ञान (शरीरविज्ञान या फिजियोलॉजी) प्राप्त होते हैं। अतः किसी पूर्ण सत्य का इन दोनों जगतों के अनुभव के साथ अविरोध (harmony) होना चाहिये। सूक्ष्म ब्रह्माण्ड बृहत ब्रह्माण्ड का साक्ष्य (testimony) प्रदान करेगा, बृहत ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड का।
भौतिक सत्य का प्रतिरूप (counterpart) अन्तर्जगत में, और अन्तर्जगत के सत्य का प्रमाण भी बहिर्जगत में मिलना चाहिये। तथापि इन सब सत्यों का अधिकांश सर्वदा परस्पर विरोधी पाया जाता है। विश्व-इतिहास के एक काल में 'अन्तर्वादी' प्रधान हो उठे; और उन्होंने 'बहिर्वादियों' के साथ विवाद आरम्भ किया। वर्त्तमान काल में 'बहिर्वादी' अर्थात भौतिक वैज्ञानिकों ने प्रधानता प्राप्त की है, और उन्होंने मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकों के अनेक सिद्धांतों को उड़ा दिया है। 
जहाँ तक मेरा ज्ञान है, मुझे मनोविज्ञान (या आध्यात्मिक विज्ञान) के सच्चे सार-तत्व के साथ आधुनिक भौतिक विज्ञान के सार-तत्व का पूर्ण सामंजस्य लगता है। एक ही व्यक्ति सब विषयों में महान नहीं हो सकता; इसी प्रकार एक ही जाति, समान रूप से सभी प्रकार के ज्ञान का अनुसन्धान करने में समर्थ नहीं हो सकती। आधुनिक यूरोपीय राष्ट्र बाह्य भौतिक ज्ञान के अनुसन्धान में सुदक्ष हैं, किन्तु वे मनुष्य की अन्तःप्रकृति के अनुसन्धान में उतने पटु नहीं हैं।  दूसरी ओर प्राच्य लोग बाह्य भौतिक जगत के अनुसन्धान में उतने दक्ष नहीं थे, किन्तु अन्तस्तत्व की गवेषणा में उन्होंने विशेष दक्षता का परिचय दिया है।  इसी लिये हम देखते हैं कि प्राच्य भौतिक तथा अन्य विज्ञान पाश्चात्य विज्ञानों से नहीं मिलते, और न पाश्चात्य मनोविज्ञान प्राच्य मनोविज्ञान से। पाश्चत्य वैज्ञानिकों ने प्राच्य भौतिक वैज्ञानिकों को विध्वस्त कर दिया है। फिर भी दोनों ही सत्य की भित्ति पर प्रतिष्ठित होने का दावा करते हैं, और हम जैसा पहले ही कह चुके हैं, किसी भी क्षेत्र के सत्य-ज्ञान में कभी परस्पर विरोध नहीं हो सकता; 'the truths internal are in harmony with the truths external.' आभ्यन्तर सत्य के साथ बाह्य सत्य का सामंजस्य है।
आधुनिक खगोलविदों (astronomers) और भौतिक वैज्ञानिकों (physicists) के अनुसार ब्रह्माण्ड के सृष्टिविषयक सिद्धान्तों को हम सभी जानते हैं, और यह भी जानते हैं कि उन्होंने यूरोप के धर्मशास्त्रों (theology) को कितने बुरी तरह से खोखला कर दिया है। और यह भी जानते हैं कि नये नये वैज्ञानिक आविष्कार किस प्रकार उनके किलों को ध्वस्त करते जा रहे हैं, और हम यह भी जानते हैं कि कट्टर  धर्म-शास्त्रियों (theologians) ने किस प्रकार सदैव वैज्ञानिक अनुसंधानों को बन्द कर देने का यत्न किया है।
यहाँ मैं ब्रह्माण्डविज्ञान और उससे सम्बन्धित तथ्यों के विषय में प्राच्य मनोवैज्ञानिक धारणाओं का सिंहावलोकन करना चाहता हूँ।  तब तुम देखोगे कि आधुनिक विज्ञान की नवीनतम खोजों के साथ उनका कितना आश्चर्यप्रद सम्बन्ध है, और यदि सामंजस्य में कहीं कोई कमी रह भी जाती है, तो यह आधुनिक विज्ञान की कमी है, उनकी नहीं। हम सब अंग्रेजी के शब्द 'नेचर' (Nature) का व्यवहार करते हैं।  प्राच्य सांख्य दार्शनिक उसके लिये दो भिन्न नामों का प्रयोग करते हैं-पहला है, 'प्रकृति' जो अंग्रेजी के 'नेचर' शब्द का प्रायः समानार्थक है, और दूसरा उसकी अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम 'अव्यक्त' (undifferentiated) है। अव्यक्त का अर्थ है, जो अभी प्रकाशित या भेदात्मक नहीं है--उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, उससे अणु-परमाणु, भूत, शक्ति, मन, बुद्धि, सब प्रसूत हुए हैं। 
यह अत्यन्त विस्मयजनक है कि भारतीय दार्शनिकों और तत्वमीमांसकों (philosophers and meta-physicians) ने अनेक युग पहले ही कहा था कि मन जड़ या भौतिक है। हमारे आधुनिक जड़वादियों ने इसके अतिरिक्त और अधिक क्या दिखाने का प्रयत्न किया है कि मन भी देह की तरह प्रकृति से उत्पन्न है ? विचार के सम्बन्ध में भी यही बात है, और और क्रमशः हम देखेंगे कि बुद्धि भी उसी एक अव्यक्त नामक प्रकृति से उत्पन्न हुई है। 
सांख्यों ने इस अव्यक्त को तीन शक्तियों (गुणों) की की 'साम्यावस्था' (equilibrium of three forces) कहकर परिभाषित किया है।  उनमें से एक का नाम सत्व, दूसरी का रजस और तीसरी का तमस है। तमस निम्नतम शक्ति है-आकर्षणस्वरुप; रजस उसकी अपेक्षा किंचित उच्चतर है---विकर्षणस्वरुप; तथा जो सर्वोच्च शक्ति इन दोनों का सन्तुलनस्वरुप है, सत्व है। अतएव जब आकर्षण और विकर्षण की शक्तियाँ सत्व के द्वारा पूर्णतः संयत होती है अथवा पूर्ण साम्यावस्था में रहती है, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता, किन्तु ज्यों ही यह साम्यावस्था नष्ट होती है, त्योंही उनका सन्तुलन भंग हो जाता है और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्यों ही गति का आरम्भ होता है और सृष्टि होने लगती है।  
यह व्यापर चक्राकार (cyclically) काल के कल्पों (periodically) में चला करता है। अर्थात साम्यावस्था भंग होने का एक समय होता है, तब शक्तियों का संघात और पुनस्ंघात होने लगता है और वस्तुयें प्रक्षिप्त होती हैं। साथ ही हर वस्तुओं में उसी मौलिक साम्यावस्था में फिर से लौटने की प्रवृत्ति होती है, और ऐसा समय आता है, जब जो कुछ व्यक्त भावापन्न है, उन सबका सम्पूर्ण विनाश हो जाता है। फिर कुछ समय बाद यह अवस्था नष्ट हो जाती है, सम्पूर्ण वस्तुएँ प्रक्षिप्त होती हैं और धीरे धीरे तरंग के समान फिर तिरोभूत हो जाती हैं।  जगत् की सारी गति को, इस विश्व की प्रत्येक वस्तु को तरंग के सदृश माना जा सकता है, जिसमें क्रमशः एक बार उत्थान, फिर पतन होता रहता है।  इन दार्शनिकों में से कुछ का मत यह है कि समग्र ब्रह्माण्ड ही कुछ दिनों के लिये लयप्राप्त होता है। कुछ का मत है कि कुछ मण्डलों में ही लय का व्यापार घटित होता है। अर्थात, यदि हमारा यह सौर मण्डल लयप्राप्त होकर अव्यक्त अवस्था में चला जाय, तो भी उसी समय अन्य कोटिशः सौर-मण्डलों में उसके ठीक विपरीत व्यापार होगा, और उनमें सृष्टि चलती रहेगी 
मैं इस दूसरे मत के --अर्थात प्रलय एक साथ समस्त ब्रह्माण्ड में घटित नहीं होता, विभिन्न ब्रह्माण्डों में विभिन्न व्यापार चलते रहते हैं -- के ही पक्ष में अधिक हूँ। किन्तु मूल बात एक ही रहती है, अर्थात जो कुछ हम देख रहे हैं, यह समग्र प्रकृति ही, क्रमागत उत्थान-पतन के नियम से अग्रसर हो रही है। इस भंग होने, सन्तुलन पुनः प्राप्त करने, पूर्ण सामंजस्य की अवस्था को प्रलय, एक कल्प का अन्त कहते हैं। विश्व के प्रलय और एवं प्रक्षेप की तुलना भारत के ईश्वरवादियों ने ईश्वर के निःश्वास-प्रश्वास के साथ की है। मानो ईश्वर के प्रश्वास से यह जगत बहिर्गत होता है, और वह उनमें फिर लौट जाता है। 
जब प्रलय होता है, तब जगत की क्या अवस्था होती है ? वह उस समय भी विद्यमान रहता है, तथापि सूक्ष्म रूप में; अथवा जैसा सांख्य दर्शन कहता (नाशः कारण लयः) है, कारणावस्था में रहता है। देश-काल-निमित्त (time-space-causation) से वह मुक्त नहीं होता, किन्तु वे अत्यन्त सूक्ष्म और लघु रूप में रहते हैं। मान लो, विश्व संकुचित होने लगता है, और हम सब एक अणु के बराबर रह जाते हैं। किन्तु तो भी हम इस परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पायेंगे, क्योंकि हमसे सम्बद्ध प्रत्येक वस्तु का संकोच भी साथ ही साथ होगा। 
सारी वस्तु विलीन हो जाती है और फिर व्यक्त हो जाती है, ' the cause brings out the effect ' कारण कार्य उत्पन्न करता है, और यही क्रम चलता रहता है। आजकल हम जिसे जड़ कहते हैं, प्राचीन हिन्दू उसी को 'भूत' बाह्य तत्व (external elements अर्थात जो वस्तु चिरकाल से अतीत (भूत) है ) कहते थे। उनके मतानुसार एक तत्व ऐसा है जो शाश्वत है; शेष सभी तत्व इसी एक से उत्पन्न हुए हैं। उस मूल तत्व को तत्वमीमांसाक लोग 'आकाश' कहते हैं। आजकल 'ईथर' शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्दपि पूर्णतः नहीं। इस तत्व के साथ 'प्राण' नाम की प्रारंभिक या आद्य ऊर्जा (primal energy) रहती है। प्राण और आकाश संघटित और पुनःसंघटित होकर शेष तत्वों का निर्माण करते हैं। फिर कल्प के अन्त में सब कुछ प्रलयगत होकर बाह्य मूल तत्व आकाश (matter) और आद्य ऊर्जा (energy) में परिवर्तित हो जाता है। 
 विश्व की प्राचीनतम मानवीय रचना ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (ऋग्वेद - १० - १२९) में सृष्टि का वर्णन करते हुए एक अत्यन्त सुन्दर और परम काव्यमय पद मिलता है --" जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम ढँका हुआ था, तब क्या था ? और इसका उत्तर दिया गया है, " It then existed without vibration". ' तब वह निस्पन्द अवस्था में था।' इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति न थी; 'आनीदवातम्' का अर्थ है, 'अर्थात  जब हवा भी नहीं था, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह अस्तित्ववान था ! ' स्पन्दन का विराम हो जाने पर भी 'वह' था ! तब एक बहुत लम्बे विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब आनीदवातम् (unvibrating atom: निस्पन्द परमाणु) स्पन्दन आरम्भ कर देता है। 
और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनीभूत होते हैं, और उनके संगठन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं। (अनुवादक का कार्य बहुत दायित्वपूर्ण होता है): हम साधारणतः देखते हैं, लोग इन सब बातों का अत्यन्त अदभुत अंग्रेजी (या हिन्दी ) अनुवाद किया करते हैं। लोग अनुवाद के लिये दार्शनिकों और भाष्यकारों की सहायता नहीं लेते, 'and have not the brains to understand them themselves.'  और उनमें इतनी बुद्धि भी नहीं होती कि वे स्वयं इनके गूढ़ रहस्यों को समझ सकें। कोई मूर्ख संस्कृत के तीन अक्षर पढ़ता है, और उसीसे एक पूरी पुस्तक का अनुवाद कर डालता है ! (They translate the, elements as air, fire, and so on) वे भूत-समूह (तत्व) का वायु, अग्नि आदि के रूप में अनुवाद किया करते हैं। यदि वे भाष्यकारों के भाष्यों पर गम्भीरता से चिन्तन करते, तो वे देख पाते कि उनका मतलब वायु या अन्य किसी से नहीं है।  
{ हिन्दी पाठकों की सुविधा के लिये यहाँ नासदीय सूक्त की यह व्याख्या व् पदार्थ पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ की पुस्तक "त्रैतसिद्धान्तादर्श" - से दी जा रही है। पण्डित जी ने छठे व् सातवें मन्त्र की व्याख्या नहीं दी , केवल पदार्थ ही दिया है | त्रैतसिद्धान्त  पर अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासुजन सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ें | प्रकाशक:- रामलाल कपूर ट्रस्ट,  ग्राम रेवली , पो . शाहपुरतुर्क , जिला सोनीपत - १३१००१ , हरयाणा}
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्। 
 किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्  ।१। 
 ( तदानीम् ) तब प्रलयावस्थामें ( असत् + न + आसीत् ) 'अभाव' (किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का "अभाव" कहा जाता है, जैसे वंध्या का पुत्र तथा "अन्योन्य अभाव" परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।) नहीं था, ( नो + सत् + आसीत् ) 'भाव' भी नहीं था, अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ( रजः + न + आसीत् ) लोक-लोकान्तर भी न थे। " [(निरुक्त ४-१९) के अनुसार " लोका रजान्स्युच्यन्ते " में लोकों का नाम रज है] ( व्योम + नो ) आकाश भी नहीं था (परः + यत् ) आकाश से भी पर यदि 'कुछ' हो सकता है तो वह भी नहीं था ( कुह ) किस देश में ( कस्य + शर्मन् ) किस के कल्याण के लिये ( किम + आवरीवः ) कौन किस को आवरण करे। इस लिये आवरण  भी नहीं था (किम् ) क्या ( गहनम् ) ( गभीरम् ) गभीर ( अम्भः ) जल ( आसीत् ) था ? नहीं । 
व्याख्या -- ऋषि इस प्रथम ऋचा में व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं। प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था।  कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था। यह स्पष्ट है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ, यव, चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं।  जब आच्छाद्य नहीं था, तब आच्छादक का भी अभाव था ( आ + अवरीवः ) यह 'वृ'धातु से यड्लुगन्त में लड् लकार का रूप है।१।  

 
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास  ।२। 
( न + मृत्युः + आसीत् ) न मृत्यु थी ( न + तर्हि + अमृतम् ) न उस समय अमृत था (न + रात्र्याः + अह्नः ) न रात्रि और दिन का ( प्रकेतः + आसीत् ) कोई चिह्न था । तब उस समय कुछ था, या नहीं ? ब्रह्म भी था , या नहीं ? इस पर कहते हैं कि ( अवातम् ) वायुरहित ( तत् + एकम् ) वह एक ब्रह्म  (स्वधया) प्रकृति के साथ ( आनीत् ) चेतनस्वरूप विद्यमान था। ( तस्मात् + ह् + अन्यत् ) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त ( किञ्चन + न ) कुछ भी नहीं था। अतः  ( परः ) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था। यह सिद्ध होता है। 
व्याख्या -- आनीत् --- प्राणनार्थक 'अन' धातु का 'आनीत्' यह रूप है, ( अवातम् ) वायुरहित ।  बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था। ' जब वायु भी नहीं थी, वह ब्रह्म अकेला अपने ही दम पर सांसे ले रहा था, वह अस्तित्ववान था ! केवल वह 'एक' ही नहीं था , किन्तु 'स्वधा' भी उसके साथ थी ~!! 'स्वधया' यह तृतीय का एकवचन है। सायण 'स्वधा' शब्द का अर्थ 'माया' करते हैं। वास्तव में वेदान्ताभिमत अनिर्वाच्य 'मायावाची स्वधा' शब्द यहाँ नहीं है , किन्तु यह स्वधा 'प्रकृतिवाची शब्द'  है। यदि जगत् के मूल कारण का नाम माया अभिप्रेत हो , तो नाममात्र के लिए विवाद करना व्यर्थ है। तब उस मूल कारण का नाम 'माया' यद्वा 'प्रकृति' यद्वा 'प्रधान', 'अव्यक्त', 'अज्ञान' , 'परमाणु' इत्यादि कुछ भी नाम रख लें।  इस में विवाद व्यर्थ है । किन्तु 'माया' और 'प्रकृति' या 'अव्यक्त' इत्यादि शब्द की अपेक्षा 'स्वधा' शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता । जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं । "स्वं दधातीति स्वधा" ~ जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं । जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है ।  इसलिए उसको स्वधा कहते हैं । 'सह युक्तेsप्रधाने ( अ. २-३-१९ ) इस सूत्रानुसार सह [ सहार्थ के योग में स्वधा ] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है।२। 

तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्  | 
तुच्छ्येनाम्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्  |३| 

(अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और ( तमसा ) उसी तमोवाच्य प्रधान से ( इदम् + सर्वम् ) यह वर्तमानकालिक दृश्यमान सब कुछ (गूढ़म् ) आच्छादित था, अत एव ( अप्रकेतम् ) वह अप्रज्ञात था । पुनः ( सलिलम् + आः ) दुग्धमिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेदशून्य यह सब था। पुनः ( आभु ) सर्वत्र व्यापक ( यत् ) जो जगन्मूल कारण प्रधान था, वह भी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था ( तत् ) वही 'प्रधान ' या स्वधा ( एकम् ) एक होकर (तपसः + महिना ) परमात्मा के तप के महिमा से ( अजायत ) व्यक्तावस्था में प्राप्त हुआ। 
व्याख्या -- प्रथम ऋचा में सत् और असत् इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों नहीं ज्ञात होते थे। पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी , किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया ।
अब लोगों को यह सन्देह हो कि जड़ जगत का मूल कारण क्या " सर्वथैव शशविषाणदिवत् अविद्यमान"  था जो सर्वथा नहीं होते, जैसे शशविषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् होते हैं, (वैसे ही क्या माँ काली या स्वधा असत् है ?)। परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने सामर्थ्य से बना लिया ? इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि 'तम आसीत्' इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था और उसी मूल कारण से वर्तमानकालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। वह कारण भी 'तुच्छयेन' अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था , तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमानकालिक रूप में परिणत हुआ। सत्त्व, रज, तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान , अव्यक्त , और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं।  यहाँ वेद में उसी को 'तमः' शब्द से कहा है । वेदान्त में इसी का नाम 'अज्ञान' (अविवेक) है क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है। इस विषय का संग्रह मनु जी ने इस प्रकार किया है कि -
   आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्  |  
                 अप्रतर्क्यमनिर्देश्यम् प्रसुप्तमिव सर्वतः  ||  ( मनु - १-५ ) 
यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय , अप्रज्ञात , अलक्षण , अप्रतर्क्य , अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था | उस समय यह जगत न किसी को जानने योग्य (अप्रज्ञात) था, न तर्क में लाने योग्य (अप्रतर्क्य) था और न प्रसिद्ध चिन्हों (लक्षण) युक्त था, और न इन्द्रियों से ही जानने योग्य (अनिर्देश्य) था , और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था। किन्तु जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं, तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है | यह ईश्वरीय सिसृक्षा ( सृष्टि करने की इच्छा ) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है , तब उससे क्रमपूर्वक महदादि सृष्टि होती है।३। 

कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्  | 
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा  |४| 

( तदग्रे ) उस सृष्टि के पूर्व ( कामः + समवर्त्तत ) ईश्वरीय कामना थी ( यत् ) जो ( मनसः + अधि ) अन्तःकरण का ( प्रथमम् + रेतः ) प्रथम बीजस्वरूप 'काम' ही ( आसीत् ) था। ( कवयः ) बुद्धिमान ऋषि प्रभृति ( मनीषा ) अपनी सात्विक बुद्धि से ( असति ) विनश्वर ( हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार (सतः + बन्धुम् ) अविनश्वर सद्वाच्य प्रकृति के बाँधने वाले परमात्मा को ( निरविन्दन् ) पाते हैं। 
जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते क्योंकि 'सोsकामयत' 
(तै . उप . २-६ ) = उसने कामना की , 'तदैक्षत' ( छा . उप . ६-२-१ ) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है । यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती । इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी ।  और यही कामना मानो , जगद्रचना का बीजभूत थी। उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं | उसके अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता। सतो बन्धुम् = जड़ जगत् के 'कारण प्रकृति' का नाम है - 'सत्'! उस कारण (ह्रीं) को परमेश्वर अपने वश में रखता है । इस हेतु वह 'सतो बन्धु' कहलाते है । जो अपने साथ बाँध ले, बन्धु नाम बाँधने वाला।४।

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीउदुपरि स्विदासिउत्  | 
रेतोधा आसन् महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्  |५|
  
( एषाम् ) इन सृष्ट पदार्थों के ( रश्मिः ) सूर्यकिरण के समान विस्तार ( स्वित् ) क्या ( तिरश्चीनः ) तिर्यग्भाव टेढ़ा ( विततः ) फैला हुआ था। ( स्वित् ) अथवा क्या ( अधः + आसीत् ) नीचे था अथवा (उपरि + आसीत् ) ऊपर था , यह कुछ कहा ही नहीं जा सकता। यह सृष्ट जगत् ऊपर अथवा नीचे अथवा सीधा या टेढ़ा है , इसका निश्चय नहीं हो सकता , किन्तु ( रेतोधाः + आसन् ) जीव थे ( महिमानः + आसन् ) और उस ब्रह्म के प्रकृति के और जीवों के महत्त्व थे। (स्वधा + अवस्तात्) प्रकृति नीचे थी और ( प्रयतिः ) ईश्वरीय प्रयत्न ( परस्तात् ) ऊपर था अर्थात उस प्रकृति के ऊपर काम करने वाला था।  
व्याख्या -- यह सृष्टि किस प्रकार स्थापित है और कहाँ तक है , इसका आदि-अन्त कहीं है अथवा नहीं , इत्यादि ज्ञान कठिन है किन्तु रेतोधा = जीवात्मा इत्यादिक हैं , थे और रहेंगे , यह विस्पष्ट प्रतीत होता है। रेतोधा = यह जीवात्मा वाचक शब्द है। जीवात्मा की परम्परा , वंश चलाने के लिए आवश्यक है कि उसमे बीजस्वरूप वीर्य हो। अत एव ' रेतो वीर्यं दधातीति रेतोधा ' अर्थात [जो] वीर्य को धारण करे उसे रेतोधा कहते हैं। अनेक लक्षणों में से जीव का एक लक्षण यह है कि जो अपने समान बीज को छोड़ जाए , उसको जीवात्मा कहते हैं।
 प्रत्येक जीव की यह स्वभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने समान बीज छोड़ को छोड़ जाता है। उद्भिज्ज सृष्टि में इसकी तो बहुत ही अधिकता है किन्तु अण्डज , जरायुज और ऊष्मज जीवों में भी इसकी न्यूनता नहीं। प्रत्येक प्राणी अपने समान कम से कम एकाध अपत्य उत्पादन के लिए सचेष्ट रहता है और प्रायः सन्तान छोड़ भी जाता है। अत एव इस सृष्टि के प्रवाह का उच्छेद नहीं होता । सायण भी रेतोधा शब्द का अर्थ जीवात्मा करते हैं। उनका शब्द इस प्रकार है -- " रेतसो बीजभूतस्य कर्मणो विधातारः कर्त्तारो भोक्तारश्च जीवः" -- सायण रेत शब्द का अर्थ 'बीजभूत कर्म' करते हैं । किन्तु रेत शब्द का अर्थ वीर्य भी प्रसिद्ध है । जैसे योगीगण ऊर्ध्वरेता कहलाते हैं। (स्वधा + अवस्तात्) 'स्वधावस्तात्' = स्वधा नाम प्रकृति का है और वह अचेतन है , अत एव जीव और ईश्वर के नीचे उसे स्वभावतया ही रहना पड़ता है। इस हेतु स्वधा के नीचे रहने का वर्णन यहाँ आया है।  और 'प्रयतिः परस्तात्' = प्रयति नाम प्रयत्न का है | प्रयत्न प्रकृति के ऊपर है अर्थात उसका शासक है,यह प्रत्यक्ष है। 
 को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः  |  
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव  |६|
( इयम् + विसृष्टिः ) यह विविध सृष्टियाँ ( कुतः + आजाता ) किस उपादान कारण से अच्छे प्रकार हुईं? ( कुतः ) और किस निमित्त कारण से हुईं ? (कः) कौन विद्वान (अद्धा) परमार्थ रूप से (वेद) इन विविध सृष्टियों को जानते हैं ? (कः) कौन तत्त्ववित् (इह) इस लोक में ( प्रवोचत् ) इनकी व्याख्या हम लोगों को सुनावें ? यदि साधारण पृथिवीस्थ विद्वान इस सृष्टि की व्याख्या न कर सकें तो कदाचित सूर्यादि देव इसके तत्त्व को जानते हों तो उनसे पूछ कर निश्चय किया जाए और इस सन्देह को मिटाने के लिए देवों की भी अज्ञता आगे कहते हैं । ( अस्य ) इस जगत के ( विसर्जनेन ) त्याग से अर्थात उसके (अर्वाक्) पश्चात ( देवाः ) देवगण उत्पन्न हुये अर्थात प्रकृति अथवा परमाणु नित्य हैं और इनके संघात से जब कार्य जगत पृथिव्यादिक बन चुके , तब अन्यान्य देवों की सृष्टि हुई। इस हेतु वे भी इसके तत्त्व को जानने में सर्वथा असमर्थ हैं। (अथ) तब (कः + वेद) कौन जानता है ? ( यतः + आबभूव ) जिस निमित्तोपकारण से ये सृष्टियाँ हुई। 
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद  । ७।
 यतः=जिस निमित्तकारणीभूत परमात्मा से ( इयम् + विसृष्टिः ) ये विविध सृष्टियाँ ( आबभूव ) हुआ करती हैं , वही ( यदि + वा + दधे ) यदि इसको धारण करता है तो वही धारक है। ( यदि + वा + न) यदि वह इसका धारण नहीं करता है तो अन्य कोई इसका अध्यक्ष है ( सः ) वह ( परमे + व्योमन् ) परम उत्कृष्ट निज महिमा में विद्यमान है ( अंग ) हे मनुष्यों !  (वेद) वही जानता है ( यदि + वा + न + वेद) यदि वह नहीं जानता तो दूसरा इसको कोई नहीं जानता | इससे संसार की दुर्विज्ञेयता और दुर्द्धस्त्व इत्यादि सिद्ध किया गया है।
प्राण के बार बार आघात के द्वारा आकाश से वायु अथवा स्पन्दन (Vâyu or vibrations) उत्पन्न होता है। यह वायु स्पन्दित होती है और जब वे स्पन्दन अधिकाधिक तीव्र हो जाते हैं, तो पहले घर्षण एवं बाद में ताप या तेज की उत्पत्ति होती है। तब यह ताप तरल भाव धारण करता है, उसे अप कहते हैं। अन्त में यह तरल पदार्थ आकार प्राप्त करता है। पहले हमें आकाश और गति प्राप्त हुई, उसके पश्चात ताप उत्पन्न होता है, फिर वह तरल हो जाता है, तब घनीभूत होकर जड़ पदार्थ का आकार धारण करता है।  इसके बाद ठीक विलोम क्रम में यह प्रत्यावर्तन करता है। पदार्थ तरलीभूत होता है, और बाद में उत्तापराशि के रूप में परिणत होता है, वह फिर धीरे धीरे गति को पुनः प्राप्त करता है; उस गति का भी विराम हो जायगा और यह कल्प भी विनष्ट होगा।फिर वह प्रत्यावर्तन करेगा और फिर आकाश के रूप में विघटित हो जायगा।
आकाश की सहायता के बिना प्राण (ऊर्जा या शक्ति) स्वयं कार्य नहीं कर सकता।  गति, स्पन्दन या विचार के रूप में हम जो जानते हैं, वे प्राण के ही विकार हैं; और जड़ अथवा भूत पदार्थ के नाम से जो कुछ हम जानते हैं, ' everything that we know in the shape of matter, either as form or as resistance' जो कुछ आकृतिमान अथवा बाधात्मक है, वह इसी आकाश का विकार है।  यह प्राण स्वयं नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना कार्य नहीं कर सकता; जब यह केवल शुद्ध प्राण ही है, वह आकाश में ही रहता है; और जब वह प्रकृति की शक्ति में -गुरुत्वाकर्षण या केन्द्रापसारी शक्ति के रूप में --परिवर्तित होता है, अवश्य ही उसके लिये जड़ पदार्थ आवश्यक है।
 तुमने जड़ पदार्थ के बिना शक्ति या शक्ति के बिना जड़ पदार्थ कभी नहीं देखा है।  हम जिन्हें शक्ति और  पदार्थ कहते हैं, वे उन वस्तुओं की स्थूल अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनके सूक्ष्म स्वरुप को प्राण या आकाश कहते हैं, अंग्रेजी में तुम 'प्राण' को 'जीवन' या 'जीवन-शक्ति' कह सकते हो, लेकिन तब इसे केवल मनुष्य जीवन तक ही सीमित न करो। 'you must not identify it with Spirit, Atman.'  साथ ही इसे आत्मा के साथ भी एकीकृत न करो।  इस प्रकार यह सृष्टिक्रम चलता है। सृष्टि का न कोई आदि है न अन्त, यह एक चिरन्तन प्रवाह है।   
अब हम इन प्राचीन मनोवैज्ञानिकों के एक अन्य पक्ष का वर्णन करेंगे, जिसके अनुसार समस्त स्थूल पदार्थ सूक्ष्म तत्वों के परिणाम हैं। प्रत्येक स्थूल वस्तु सूक्ष्म उपकरणों से निर्मित हुई है, जिन्हें वे तन्मात्रा अर्थात सूक्ष्म कणिकाएँ (fine particles) कहते हैं। मैं एक फूल सूंघता हूँ। To smell, something must come in contact with my nose; सूँघने की क्रिया में किसी वस्तु का मेरी नासिका से सम्पर्क होना आवश्यक है : फूल तो है, परन्तु उससे निकल कर किसी अन्य वस्तु को अपनी ओर आते तो नहीं देखते। जो सुगन्ध फूल से आता है और जिसका हमारी नासिका से सम्पर्क होता है, उसे तन्मात्रा या उस पुष्प का अणु (Tanmatra, fine molecules of that flower) कहते हैं।  यह बात ताप, प्रकाश और प्रत्येक और प्रत्येक अन्य वस्तु के सम्बन्ध में घटित होती है। (These Tanmatras can again be subdivided into atoms) पुनः इस तन्मात्राओं को परमाणुओं की उपश्रेणी में विभाजित किया जा सकता है। 
 विभिन्न दार्शनिकों के भिन्न भिन्न सिद्धान्त हैं, और हम जानते हैं कि ये केवल सिद्धान्त हैं। हमारे लिये इतना ही जानना पर्याप्त है कि प्रत्येक स्थूल वस्तु अत्यन्त सूक्ष्म उपकरणों से बनी हुई है। हमें पहले स्थूल पदार्थों की प्रतीति होती है, जिनकी हमें बाह्य अनुभूति होती है। इसके बाद सूक्ष्म तत्वों का अनुभव होता है, जिनके साथ नासिका, चक्षु, कर्ण और तव्चा का सम्पर्क होता है। ईथर-तरंगें मेरे नेत्रों को स्पर्श करती हैं, किन्तु मैं उन्हें देख नहीं सकता। तो भी मैं जनता हूँ कि प्रकश को देखने में समर्थ होने पूर्व उनका मेरे नेत्रों के संपर्क में आना आवश्यक है। 
आँखें हैं, पर आँखें देखती नहीं हैं। यदि मस्तिष्क-केन्द्र को हटा लो, तो आँखें तो तब भी रहेंगी और नेत्र-पट के ऊपर बाह्य जगत का चित्र अंकित होगा, तथापि आँखें देख न सकेंगी। अतः नेत्र केवल बाहरी खिड़की हैं, दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं। The organ of vision is the nerve-center in the brain. दर्शन-इन्द्रिय मस्तिष्क में स्थित ऑप्टिक-नर्व या दर्शन-तन्त्रिका हैं। इसी प्रकार नासिका बाहरी यन्त्र है, और उसकी घ्राण-इन्द्रिय मस्तिष्क की घ्राण-तंत्रिका है।यह कहा जा सकता है कि यह विभिन्न केन्द्र ही जिन्हें संस्कृत में इन्द्रिय कहते हैं, प्रत्यक्ष बोध (perception) के वास्तविक स्थान हैं।     
प्रत्यक्ष बोध के लिये तीन वस्तुएँ -बाहरी यंत्र, मस्तिष्क में स्थित उसकी इन्द्रिय;  और मन का उस इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध होना आवश्यक है। यह सामान्य अनुभव है कि उस समय जब कि हम अध्यन में तल्लीन रहते हैं, घड़ी कि ध्वनि नहीं सुनते। क्यों ? कान अपनी जगह पर होते हैं, उनके द्वारा ध्वनि मस्तिष्क में अवस्थित श्रवण-इन्द्रिय तक पहुंचायी जाती है, तो भी कान सुन नहीं पाता, क्योंकि मन उस समय श्रवण-इन्द्रियों के साथ नहीं जुड़ा था। (ईश्वरचन्द्र विद्यासागर /का उदाहरण।)
There is a different organ for each different instrument.प्रत्येक संवेदक अवयव के लिये एक भिन्न इन्द्रिय होती है। कारण यह है कि यदि एक से ही सबका काम लिया जाये, तो फल यह होगा कि मन उससे जुड़ेगा, तब सभी इन्द्रियाँ समान रूप से क्रियाशील होंगी। किन्तु जैसा कि हमने घड़ी के उदाहरण में देखा कि बात ऐसी नहीं है। यदि सभी साधनों के लिये एक ही अवयव होता, तो मन एक ही साथ देखने, सुनने, और सूँघने की क्रिया करता और उसके लिये इन सारी क्रियाओं को एक साथ और एक ही समय पर करना सम्भव न होता। अतः प्रत्येक इन्द्रिय के लिये एक भिन्न अवयव का होना आवश्यक है, आधुनिक शरीरविज्ञान (physiology) ने इस बात की पुष्टि की है। निश्चय ही हमारे लिये एक साथ सुनना और देखना सम्भव है, किन्तु ऐसा होने का कारण यह है कि (Double Presence of Mind )न अपने को आंशिक रूप से दो केन्द्रों से सम्बद्ध करता है।
इंद्रियों की रचना किन तत्वों से हुई ? हम देखते हैं कि नेत्र, नासिका तथा कर्ण आदि साधन या यन्त्र स्थूल पदार्थ से निर्मित हैं।  इन्द्रियाँ भी स्थूल पदार्थ से बनी हैं। जिस प्रकार शरीर स्थूल पदार्थों से निर्मित है और वह भिन्न भिन्न स्थूल शक्तियों के रूप में प्राण का निर्माण करता है, उसी प्रकार इन्द्रियाँ आकाश, वायु, तेज आदि सूक्ष्म तत्वों से निर्मित हैं और वे प्राण को प्रत्यक्ष बोध की सूक्ष्मतर शक्तियों का रूप प्रदान करती हैं। इन्द्रियाँ, प्राण की क्रियायें, मन और बुद्धि से मिलकर मनुष्य का सूक्ष्मतर (कारण) शरीर बनता है। इसे लिंग अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं।The Linga Sharira has a real form because everything material must have a form. लिंग शरीर का भी एक वास्तविक रूप होता है, क्योंकि प्रत्येक भौतिक पदार्थ का रूप होता है। 
मन को मनस, वृत्ति में चित्त अथवा स्पन्दनशील अर्थात अस्थिर कहा जाता है। यदि तुम किसी शान्त सरोवर में पत्थर फेंको, तो प्रथम उसमें तरंगे उठेंगी, फिर प्रतिरोध। एक क्षण जल में स्पंदन होगा, और फिर वह पत्थर के ऊपर प्रतिक्रिया करेगा। So when any impression comes on the Chitta, it first vibrates a little. That is called the Manas. इसी प्रकार जब चित्त पर कोई प्रभाव पड़ता है, तब वह प्रथम किंचित स्पन्दित होता है। इसी को मनस या मन कहते हैं।  मन प्रभावों को भीतर ले जाता है, और उन्हें निर्णायक शक्ति बुद्धि के सम्मुख प्रस्तुत करता है, जो प्रतिक्रिया करती है। बुद्धि के पीछे अहंकार (अहंभाव या egoism), या आत्म-चेतना है, जो कहती है- "मैं हूँ !" अहंकार के पीछे महत अथवा ज्ञान है, जो प्रकृति की सत्ता की सर्वोच्च स्थिति है। Each one is the effect of the succeeding one. चित्त,मन, बुद्धि, अहंकार और महत में से प्रत्येक क्रमानुसार आनेवाली स्थिति का परिणाम है। झील के उदाहरण में उस पर होने वाला प्रत्येक प्रहार बाह्य जगत से होनेवाला प्रहार है, जब कि मन (चित्त सरोवर) के मामले में, प्रहार बाह्य जगत से भी आ सकता है, और अन्तर जगत से भी आ सकता है। महत के परे मनुष्य का स्वरुप, पुरुष अथवा आत्मा है, विशुद्ध और पूर्ण। केवल वही द्रष्टा है, और उसी के लिए यह सारा परिवर्तन है। 
Man (man with capital 'M' ) या 'यथार्थ मनुष्य' इन सारे परिवर्तनों का द्रष्टा है, वह स्वयं अशुद्ध कभी नहीं होता। किन्तु वेदान्ती लोग जिसे अध्यास, प्रतिबिम्ब अथवा आरोप कहते हैं, उसके कारण वह अशुद्ध प्रतीत होता है(देहाध्यास या भवरोग के कारण वह अपने ही प्रतिबिम्बों को नहीं पहचान पाता और भ्रम में पड़कर स्वयं को अपवित्र या मरण-धर्मा शरीर मात्र समझने लगता है!)जैसे श्वेत स्फटिक के समीप जब लाल या नीला फूल लाया जाता है, तो प्रत्यावर्तन के कारण वह उसी रंग का दिखाई देता है, लेकिन स्फटिक उस समय भी उतना ही शुद्ध रहता है। हम इस बात को मानकर चलेंगे कि आत्मायें अनेक हैं, और प्रत्येक आत्मा शुद्ध और पूर्ण है, तथा भिन्न भिन्न प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ उनके ऊपर अध्यस्त होते हैं, और उन्हें बहुरंगी बना देते हैं। प्रकृति यह सब क्यों करती है ? 
प्रकृति की यह सब परिवर्त्तन-क्रिया आत्मा के विकास की हेतु है। यह सारी सृष्टि आत्मा के हित के लिये है, जिससे वह मुक्ति लाभ कर सके। यह महान पुस्तक-जिसे हम विश्व कहते हैं, मनुष्य के सम्मुख इस लिए खुली हुई है कि वह उसे पढ़ सके और अन्त में यह जान जाय कि वह (मनुष्य) स्वयं (omniscient and omnipotent being) सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान सत्ता है ! मैं यहाँ पर यह बता दूँ कि हमारे कतिपय सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक ईश्वर के सत्ता में उस प्रकार विश्वास नहीं करते हैं, जिस प्रकार तुम लोग विश्वास करते हो। हमारे मनोविज्ञानशास्त्र के जन्मदाता कपिल सगुण ईश्वर (Personal God) को बिल्कुल अनावश्यक मानते थे। उनका विचार है कि प्रकृति स्वतः समस्त सृष्टि रचना करने में समर्थ है। जिसे सृष्टि-रचनावाद का सिद्धान्त (डिजाइन सिद्धान्त Design Theory) कहा जाता है, उसके ऊपर तो उन्होंने प्रत्यक्ष प्रहार किया ' knocked on the head ' और कहा कि इससे बढ़कर मूर्खतापूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन कभी नहीं हुआ।
 किन्तु वे एक अनूठा (peculiar) प्रकार के ईश्वर को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि हम सभी मुक्त होने के लिये संघर्ष कर रहे हैं और जब हम मुक्त हो जाते हैं, तब मानो हम प्रकृति में लय हो जाते हैं और फिर दूसरे चक्र के प्रारम्भ में उसके शासक के रूप में पुनः आते हैं। हम सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान व्यक्तियों के रूप में आते हैं। उस अर्थ में हम ईश्वर कहे जा सकते है। तुम, मैं तुच्छातितुच्छ प्राणी विभिन्न चक्रों में ईश्वर हो सकते हैं। उनका कथन है कि ऐसा ईश्वर अस्थायी होता है, किन्तु किसी ऐसे अविनाशी ईश्वर का, जो अनन्त काल तक सर्वशक्तिमान और विश्व का नियन्ता हो, होना सम्भव नहीं है। यदि ऐसा ईश्वर हो, तो यह समस्या उठ खड़ी होगी : अवश्य ही वह या तो बद्ध आत्मा होगा या मुक्त पुरुष। पूर्ण मुक्त ईश्वर सृष्टि नहीं रचेगा --उसे इसकी अवश्यकता न होगी। यदि वह बद्ध होगा, तो भी वह रचना नहीं करेगा, क्योंकि वह कर ही नहीं सकता--वह शक्तिविहीन होगा। दोनों परिस्थितियों में कोई सर्वज्ञ अथवा सर्वशक्तिमान अनन्त ईश्वर नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि हमारे धर्मशास्त्रों में जहाँ कहीं भी ईश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ उसका आशय उन मनुष्यों से है-जो मुक्त हो चुके हैं। कपिल समस्त आत्माओं की एकता में विश्वास नहीं करते। जहाँ तक उनके विश्लेषण की बात है, वह बड़ा अद्भुत है। वे भारतीय विचारकों के पितामह हैं। बौद्ध धर्म तथा अन्य मतवाद उन्हीं के विचारों के परिणाम हैं। 
उनके (कपिल के) मनोविज्ञान के अनुसार- ' all souls can regain their freedom and their natural rights' सभी आत्माएं अपनी मुक्ति तथा अपने नैसर्गिक अधिकार --सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता-का पुनर्लाभ कर सकती है। परन्तु एक प्रश्न उठता है: यह बंधन (bondage) कहाँ है? कपिल कहते हैं कि यह अनादि (without beginning) है। किन्तु यदि इसका आदि नहीं है, तो इसका अन्त भी नहीं होगा, और हम कभी भी मुक्त न होंगे। वे कहते हैं, कि यद्द्पि बंधन अनादि है, तथापि वह इस प्रकार का नित्य और एकरूप नहीं है, जिस प्रकार आत्मा। दूसरे शब्दों में प्रकृति (बन्धन का कारण) अनादि और अनन्त है, किन्तु उसी भाव में नहीं, जिसमें आत्मा, क्योंकि प्रकृति का कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह उस नदी के समान है, जो प्रत्येक क्षण नवीन जलराशि प्राप्त करती है। इस समस्त जलराशि का योग नदी है।  किन्तु नदी एक स्थिर राशि नहीं है।  प्रकृति की प्रत्येक वस्तु निरन्तर परिवर्तित हो रही है, किन्तु आत्मा नहीं बदलती। 'as nature is always changing, it is possible for the soul to come out of its bondage'. अतः चूँकि प्रकृति सदैव परिवर्तित हो रही है, आत्मा का उसके बन्धन से मुक्त होना सम्भव है। 
जिस योजना के अनुसार यह विश्व बना हुआ है, उसीके आधार पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निर्मित है। अतः जिस प्रकार हमारा एक मन है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का भी एक मन (cosmic mind) है।' As in the individual, so in the universal.' जो बात पिण्ड में है, वही बात ब्रह्माण्ड में भी है। ब्रह्माण्ड का स्थूल शरीर है, और उसके पीछे उसका सूक्ष्म शरीर है, उसके भी पीछे ब्रह्माण्ड का अहंकार (universal egoism or consciousness) और उसके बाद उसका महत्तत्व् (universal intelligence) । यह सब प्रकृति में ही है, प्रकृति की अभिव्यक्ति है, उसके बाहर नहीं। 
हम अपने माता-पिता से अपना स्थूल शरीर तथा चेतना प्राप्त करते हैं। कठोर अनुवांशिकता (Strict heredity) का कहना है, कि हमारा शरीर हमारे माता-पिता के शरीर का अंश है, तथा हमारी चेतना और अहंकार के उपकरण  हमारे माता-पिता के अंश हैं। हम अपने माता-पिता से प्राप्त अंश में ब्रह्माण्ड की चेतना से प्राप्त किये हुए अंश को जोड़ सकते हैं। 'infinite storehouse of intelligence' महत्तत्व (ज्ञान) का एक अनन्त भण्डार है, जिसमें से हम निरन्तर ग्रहण कर रहे हैं। ब्रह्माण्ड में मानसिक शक्ति का अक्षय भंडार है, जिसमें से हम निरन्तर ग्रहण कर हए हैं।  किन्तु माता-पिता से उस बीज का प्राप्त करना अनिवार्य है। (but the seed must come from the parents.) हमारा सिद्धान्त अनुवांशिकता और पुनर्जन्म, दोनों का योग है। आनुवंशिकता के नियम (law of heredity) के अनुसार पुनर्जन्म ग्रहण करनेवाली आत्मा माता-पिता से उन उपकरणों को प्राप्त करती है, जिनसे वह मनुष्य की रचना करती है। 
कुछ यूरोपीय विद्वानों का कथन है कि 'if I do not exist, the world will not exist'. यह संसार इसलिए है, क्योंकि मैं हूँ, और यदि मैं न होऊँ, तो यह संसार भी न हो । कभी कभी इस बात को इस प्रकार कहा जाता है : यदि संसार के सभी लोग मर जायें और मनुष्य शेष न रहे, तथा अनुभूति और बुद्धि से समन्वित कोई जीव न रहे, तो यह समस्त अभिव्यक्ति समाप्त हो जायगी। किन्तु ये यूरोपीय दार्शनिक इस (संसार) के मनोविज्ञान को नहीं जानते, यद्दपि वे इसके सिद्धान्त से परिचित हैं। आधुनिक दर्शनशास्त्र को केवल इसकी झलक भर प्राप्त है। यदि सांख्य के दृष्टिकोण से देखें, तो इसे समझना सरल हो जाता है।  
सांख्य मतानुसार किसी वस्तु की सत्ता तब तक सम्भव नहीं है, जब तक हमारे मन का एक अंश से उसके उपकरणों का निर्माण नहीं होता। I do not know this 'table' as it is. मुझे इस मेज के वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं होता। (यह मेज वस्तुतः, क्या है इसे मैं नहीं जानता।) इसकी एक झलक मेरी आँखों पर, उससे होकर इन्द्रिय पर और फिर मन पर पड़ती है और मन प्रतिक्रिया करता है, और जो कुछ प्रतिक्रिया होती है, उसे मैं मेज कहता हूँ। ठीक यही बात झील में पत्थर फेंकने में है। झील पत्थर की ओर एक लहर फेंकती है, और इस लहर को हम जानते हैं। जो कुछ बाह्य है, उसे कोई नहीं जानता। जब हम उसे जानने की चेष्टा करते हैं, तब वह वही वस्तु बन जाता है, (it has to become that material which I furnish.जैसे एक ही स्त्री को कोई माँ,बहन,बुआ,पत्नी कहता है।) जो हम उसे प्रदान करते हैं। मैंने स्वयं अपने मन द्वारा ही अपनी आँखों के लिये उपकरण जुटा लिये हैं। बाहर कुछ वस्तु है, परन्तु वह केवल सुयोग (occasion) है, गुप्त-प्रस्ताव (suggestion) मात्र है। मैं उस संकेत के प्रति अपने मन का प्रक्षेपण करता हूँ और वह मन उसी वस्तु का रूप ले लता है, जो मैं देखता हूँ। (There is something which is outside, which is only, the occasion, the suggestion, and upon that suggestion I project my mind; and it takes the form that I see.) हम सब लोग कैसे एक ही वस्तु को देखते हैं ? क्योंकि हम लोगों के पास ब्रह्माण्डीय मन के सदृश अवयव हैं। जिनके एक जैसे मन हैं, वे वस्तुओं को एक जैसी देखते हैं और जिनके मन एक जैसे नहीं हैं, वे वस्तुओं को एक जैसी नहीं देखते।