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मंगलवार, 6 अगस्त 2013

$$$ प्रत्याहार -धारणा 'जड़ की रे ? सब चैतन्य !' [सरिसा कैम्प २८/१२/२००५]

" काली-महाराज (स्वामी अभेदानन्द जी)  के लिए वेदान्त एक अनुसन्धान (exploration) था। उनके प्राणों की भूख थी। उनका मन किसी सत्यान्वेषी जैसी सत्य का साक्षात्कार करने व्याकुलता के आवेग और  आर्तनाद से भरा हुआ था। वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे। उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी। उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभेद-दृष्टि प्राप्त हो सकती है ? क्या, किसी व्यक्ति को सचमुच सर्वभूतों में आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई समर्थ गुरु हैं, जो मुझे ' ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी आत्मदृष्टि (विवेकश्रोत) को भी उद्घाटित करा सकते हैं ? यदि कोई वैसे समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी गुरु  मिलेंगे कहाँ ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, वेदान्त-सिद्धान्त (doctrine of Vedanta-'एकं सत्य', 'रोपे पेड़ बबूल का अमवा कहाँ से होय ?', 'लॉ ऑफ़ एसोशिएसन -बर्ड ऑफ़ सेम फीदर फॉल्क टुगेदर', 'या मति सागतिर्भवेत', 'तत्त्वमसि' आदि) को व्यवहार में, प्रत्यक्ष-प्रमाण में रूपांतरित होते देखने का अवसर उपस्थित हो गया !  शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था। इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो।  मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो। " 
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था।  जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया। आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया। लौट कर उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं। अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों. 
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था।  विचार कर रहे हैं- क्या इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है? तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सब-कुछ के भीतर स्वयं को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है! यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से (अष्टांग के ५ अभ्यासों से) होकर गुजरना होता है। "
[आज सुबह के क्लास में मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते समय मेरी दृष्टि भी बंगला भाषा में लिखित सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण की इसी  उक्ति -" जड़ की रे ? सब चैतन्य ! तोमादेर चैतन्य होक ! " पर पड़ी थी, जो कोटेसन के रूप में वहाँ टंगा हुआ था ! ऐसा प्रतीत हुआ मानो ठाकुर (शाश्वत चैतन्य) यह दिखा रहे हों कि एक महामण्डल नेता (मानव-जाति के भावी मार्गदर्शक नेता) को अपने अनुभव से क्या जानना है ? ठाकुर के इस कृपा-कटाक्ष के बाद, प्रवेश-द्वार के दूसरी ओर श्रीश्री माँ सारदा देवी ' व्यवहारिक वेदान्त ' को जीवन में धारण करने का उपदेश दे रही थीं- " जगत के आपनार कोरे निते शिखो, केऊ पर नेई मा जगत तोमार ! " -  " यहाँ कोई पराया नहीं है माँ, सम्पूर्ण विश्व तुम्हारा अपना है ! जब सभागृह में प्रवेश किया तो देखा आज नवनीदा भी व्यासपीठ से मजाज लखनवी [Asrar ul Haq Majaz  (1911 – 5 December 1955)] की यह नज्म सुना रहे थे -
कुछ नहीं- तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था, अब तक उधर देखा तो है।
…. नवनीदा कह  रहे थे- कम से कम ' ख्वाबे- सहर '- या नये प्रभात का स्वप्न तो देख लिया ! इतना तो हमसे हुआ…ये जो इतना गहरा अँधेरा छाया हुआ है, इस गहरे अँधेरे में भी उजाला होने का स्वप्न तो देखा है।  स्वामी विवेकानन्द ही प्रभात के सूर्य हैं ! उनको जो एकबार भी देख लेता है, उसके जीवन में छाया अँधेरा दूर हो जाता है।  जिसका विवेक जाग्रत हो जाता है, उसे सबकुछ मिल जाता है। मजाज लखनवी भी स्वामी विवेकानन्द की तरह अपने को 'उस ईश्वर का उपासक मानते थे, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं' ; उन्होंने आगे लिखा है -   
'नौ-ए-इंसा का परस्तार हूँ मै। खूब पहचान लो 'असरार' हूँ मै !'
[ मायने : "चेहरा-ए-असरार"= mysterious face- रहस्यमय चेहरा/ जीन्स-ए-उल्फत=प्रेम नामक वस्तु, ख्वाबे-इशरत=ऐश्वर्य के सपने में, अरबाबे-खिरद=बुद्धिजीवी, शायरे-बेदार=जागरूक कवि, नोअ-ए-इंसा=मनुष्य मात्र का, परस्तार=उपासक हूँ मैं !
[मजाज़ की शायरी का विवेचन करते हुए उर्दू के एक बुजुर्ग शायर "असर लखनवी" ने एक बार लिखा था कि "उर्दू में एक किट्स पैदा हुआ था लेकिन इन्किलाबी भेडिये उसे उठा ले गए। "  इस बात पर बहस कि गुंजाईश नहीं है कि 'मजाज़ को इन्किलाबी भेडिये (प्रगतिशील लेखक ) उठा ले गए या वह खुद मिमियाती हुई भेड़ों  के झुंड से बहार निकल आया था ? जो 'हाफिज और खय्याम के ऐब' का (अर्थात शराब-परस्ती)
का यह बेशक गुनहगार था, लेकिन 'नौअ-ए-इंसा की उपासना' अर्थात मनुष्य मात्र का उपासक होने की यही भावना हर अवसर पर उसकी सहायता करती रही। और यह कोई साधारण बात नहीं है कि अपनी मस्ती और शराब-परस्ती के बावजूद और मौलिक रूप से रोमांटिक शायर होते हुए भी, यदि हर कदम पर नहीं तो हर मोड पर, वह अवश्य जीवन कि प्रगतिशील शक्तियों का साथ देता रहा है। ] 
योगा -योगा करते रहने से क्या होता है ? उनका नाम विवेकानन्द कैसे हो गया  था ? यह ठीक से ज्ञात नहीं है। अपने गुरुभाइयों का संन्यास नाम भी उन्होंने ही रखा था।  और अमेरिका जाने से पहले उन्होंने अपना नाम भी स्वयं ही रख लिया था और इसी नाम से जहाज का टिकट खरीदा था।  विवेक जाग्रत हो जाने से सबकुछ  जाता है। पतंजली योग सूत्र इतना प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है कि उसके उपर भाष्य स्वयं व्यासदेव को लिखना पड़ा था।  
 यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता है कि हमारा मन - ' मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो ' जैसा चंचल है। ऐसे मन को अपने वश में ले आना ही पहला पुरुषार्थ है।  जिनका मन उनके वश में आ गया, वे जगत के स्वामी हो जाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को भी जीत सकते हैं।  मन का प्रभु होने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अभी हमलोग मन के दास हैं, जो स्वयं को जीत सकते हैं, वे सबों को जीत सकते हैं।  इसीलिये कहा गया है - ' आत्मानं प्रथमं द्वेष रूपेण योजयेत ' - अर्थात मन को ही सबसे बड़ा शत्रु समझते हुये उसे जीत लेना चाहिये, तब जगत जय हो जायेगा। मन को जय करने का एक ही नुस्खा गीता में है, भागवत में है और योगसूत्र में है. और वह है - 
"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः "
इसके आलावा अन्य कोई उपाय नहीं है. सभी शास्त्रों में मन को जीतने की यही औषधि बताई गयी है- अभ्यास और वैराग्य ! इस उपाय द्वै की साधना करते रहने से मन अवश्य वशीभूत हो जाता है. परन्तु मन के वशीभूत होने के स्वाद को पुरे जीवन में दो या तीन बार बस २ या ३ सेकण्ड के लिये ही अनुभव किया जा सकता है. भगवत में कहा गया है - 
यत्र यत्र मनो देहि धार्येत सकलं धिया।  
स्नेहात द्वेषात भयात वापि याति तत तत स्वरुपताम।। 
do you fear God ? भगवान क्या डरने की चीज हैं ? उनसे तो प्यार करना चाहिये -वे तो स्वयं प्रेम-स्वरूप हैं ! फिर भी कोई व्यक्ति यदि डर कर भी उनका चिन्तन करे, या उनसे शत्रुता के कारण  भी उनका चिन्तन करे या उनसे प्रेम होने के कारण निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हो, चाहे जैसे भी उनकी छवि पर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करता हो, तो 'साहचर्य के नियमानुसार' उनकी सत्ता हममें आ ही जाती है।  इसका अभ्यास जितना ही कम उम्र से आरम्भ करेंगे, उतना ही कल्याणकारी होगा। ध्यान करना क्या है, वो तो हमें मालूम नहीं, किन्तु १४-१५ वर्ष की उम्र से एकाग्रता का अभ्यास करते रहें तो मन इतना एकाग्र हो जायेगा कि दुनिया में सबकुछ प्राप्त कर लेना आसान हो जायेगा। हमलोग जो कुछ भी आविष्कार करते हैं, निर्माण करते हैं, या कविता लिखते हैं, वो सब मन के द्वारा ही होता है। 
स्वामी विवेकानन्द के जीवन में उनके 'मन का प्रभु' होने को दो उदाहरण  यहाँ उद्धृत किये जा सकते हैं।  
वे लाइब्रेरी से सुबह में एन्साइक्लोपेडिया ब्रिटेनिका का एक वॉल्यूम लाते हैं और दूसरे दिन वापस करके दूसरा खण्ड ले आते हैं। लाइब्रेरियन को आश्चर्य हुआ आप कल सुबह में दो खण्ड ले गये थे, और शाम को दोनों वापस कर दिये थे, क्या आपने इसको पढ़ लिया था? स्वामीजी बोले हैं, मैं तो पढ़कर ही वापस किया हूँ, कुछ पूछना चाहते हों, तो पूछ कर देख लीजिये और पूछने पर ठीक ठीक उत्तर देते हैं। और दूसरा उदाहरण है - इंग्लैण्ड में नदी में बहते अण्डे के छिलकों पर एयर गन से निशाना लगते हुए बच्चों के एयर गन से एक बार में ही सभी अण्डों पर सही सही निशाना लगाकर दिखाते हैं, बच्चे आश्चर्य से पूछते हैं कि क्या आप रोज बन्दुक से निशाना लगाने का अभ्यास करते हैं ? स्वामीजी ने कहा मैंने तो आज ही पहली बार बन्दुक से निशाना लगाया है। 
स्वामी रंगनाथानन्द जी में भी ऐसी ही एकाग्रता देखनो को मिली है. एक बार हम दोनों ट्रेन से साथ में आ रहे थे। उन्होंने अपने बैग से एक मोटी पुस्तक निकाली और १५-२० मिनट में १०-१२ पन्ने पढकर वहाँ मार्कर लगा कर रख दिए।  मैंने पूछा अभी अभी जो पोर्शन अपने पढ़ा है, क्या आपको याद भी हो गया ? वे बोले -हाँ, यदि और एक बार देख लूँगा तो उसका शब्द-शब्द याद हो जायेगा। पूछने पर रंगनाथानन्दजी बोले- हम word to word नहीं पढ़ते हैं, पन्ने के बायीं तरफ उपर में लिखे एक लाइन को पढ़ता हूँ, और पन्ने के नीचे लिखे अंतिम लाइन को पढ़ लेने से पूरा पन्ना याद हो जाता है.
इसी को कनेक्शन ऑफ़ माइंड (connection of mind) या मनः संयोग अर्थात आत्मा के साथ मन का सम्बन्ध होना कहते हैं !  मानो xerox मशीन से चित्त के उपर एक ऑफिस कॉपी छप जाती है।  छात्र लोग यदि इस मनः संयोग को सीख लें तो पढाई कितना अच्छा होगा ? मन को एकाग्र रखने का उपाय है, रेगुलर प्रैक्टिस (Regular-Practice) अभ्यास ! किन्तु अभ्यास करने के साथ साथ मन में थोडा वैराग्य का भाव भी रखना होगा। वैराग्य के बिना कुछ नहीं होगा, क्योंकि सन्तत्व (आत्मस्वरूप में अवस्थान -या भ्रममुक्ति)
 केवल 'परिधान-परिवर्तन' (गरुआ-धारण करने)  का नाम नही है।  बल्कि मन का एक ऐसा रूपांतरण है, जहाँ कोई भी पराया शेष नही रहता है, वह व्यक्ति सदा-सदा के लिए अपने-पराये के भ्रम से मुक्त हो जाता है ! कबीर ने कहा है-
"मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा ! 
दढ़िया बढ़ाये जोगी बन गईले बकरा !
आसान मारि मंदिर में बईठे, 
ब्रह्म छाड़ी पूजन लागे पथरा..! 
जंगल जाय जोगी धुनिया रमवलै,
कमवा जराय जोगी होगइलै हिजड़ा !
गृहस्थ लोगों को (प्रवृत्ति मार्ग के साधकों को) बाहरी कपड़े को रंगने की जरुरत नहीं है, अपने मन को,अपने विचारों को ही त्याग के रंग में,पवित्रता के रंग में, रंग लेना चाहिये। प्रत्येक पति को अपनी स्त्री को छोड़ कर अन्य सभी स्त्रियों को अपनी सगी माता, बहन अथवा पुत्री के रूप में देखना चाहिये। विशेष रूप से जो व्यक्ति मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता बनना चाहता हो, उसके लिये यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक स्त्री को मातृवत देखे और उसके साथ तद्रूप व्यवहार करे। क्योंकि मातृपद ही संसार में सबसे श्रेष्ठ पद है, और यही एक अवस्था है जिससे निःस्वार्थपरता की महत्तम शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। स्वामीजी कहते हैं- " वास्तव में वह पुरुष धन्य है जो स्त्री को ईश्वर के मातृभाव की प्रतिमूर्ति समझता है, और वह स्त्री भी धन्य है, जो पुरुष के पितृभाव की प्रतिमूर्ति मानती है. तथा वे बच्चे भी धन्य हैं, जो अपने माता-पिता को भगवान का ही रूप मानते हैं. " (३/४२)  मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं या लोकशिक्षकों को अपने मन में किसी भी सांसारिक विषयों को भोगने की कामना नहीं रखनी चाहिये।
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जी, प्रवृत्ति मार्ग के नहीं, बल्कि  निवृत्ति मार्ग के ऋषि थे, उत्तर आकाश में ध्रुव तारे के चारों ओर जो सप्त-ऋषि परिक्रमा किया करते हैं, वे प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं। नरेन्द्र को देखते ही ठाकुर पहचान लेते हैं, तथा भीतरी बरामदे में ले जाकर देवता की तरह सम्मान देते हुए हाथ जोड़ कर कहते हैं - 
" प्रभु मैं जानता हूँ, आप वही पुरातन ' नारायण ऋषि ' हैं, जीवों का दुःख दूर करने के लिये जगत में आये हैं। " निवृत्ति मार्ग का वर्णन पुराणों में किया गया है, किन्तु ठाकुर यहाँ जो नरेन्द्र को नारायण कहते हैं, वह वैकुण्ठ के नारायण नहीं हैं, वे तो निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक हैं।  जिन्हें ठाकुर स्वयं अखण्ड के राज्य से लेकर धरती पर आये थे।  ये वही नारायण ऋषि हैं, जो बदरी पहाड़ पर बैठकर १००० वर्ष तक ॐ गायत्री मन्त्र का जाप किये थे, जिसके फलस्वरूप उनको सर्वोच्च स्थित ब्रह्लोक प्राप्त हुआ था. उस समय ध्यान ही उनका भोजन था। 
जो व्यक्ति वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हैं, उनमें से कई लोगों को बहुत अधिक मात्रा में भोजन करने की आवश्यकता नहीं रहती। वैराग्य का अर्थ किसी भी वस्तु की बहुत ज्यादा कामना नहीं रखना, लालच नहीं रखना, जीने के लिये जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण करना -परिमित मात्रा में ही सभी वस्तुओं का उपभोग करना। जो लोग मानव-जीवन प्राप्त करके भी उसको सार्थक करने का प्रयत्न नहीं करते और केवल भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं, वे भी क्या मनुष्य हैं? त्य ही कहा है....

"एषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः?
ते मर्त्यलोके भुविभारभुता....मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति!!"
रूप-आकृति या शरीर का ढाँचा तो मनुष्य की तरह है, किन्तु आचरण 'मृग ' की तरह का यदि हो, तो उसे मनुष्य कैसे कहा जा सकता है ? मृगा का अर्थ केवल हीरण नहीं होता है, उसका अर्थ है -पशु. हमलोगों ने कल जलालुद्दीन रूमी की नज्म 'आदमी की तरक़्क़ी' में सुना था -
" बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया,
 फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया। 
  हैवानों से मर गया और 'आदमी ' हो गया, 
 डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?"
 किन्तु मनुष्य बन जाने के बाद इच्छा होती है कि देवता बन जाएँ। फिर इसी प्रकार अभ्यास और वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हुए उससे भी उन्नत अवस्था ' ब्रह्म ' होने तक यात्रा जारी रहनी चाहिये, इसीलिये रूमी आगे कहते हैं - 
अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ, 
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ। 
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना,
कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना। 
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा,
फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा। 

नरेन्द्र को धरती पर आने का निमन्त्रण देने के लिये, ठाकुर स्वयं अखण्ड के राज्य में जब गये थे, उस घटना का वर्णन करते हुए कहते हैं - " एक दिन देखता हूँ कि - ' मन ' समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ से भी उपर उठता ही जा रहा है ! चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र-युक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उपर उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगी. क्रमशः वह उस राज्य की अन्तिम सीमा पर आ पहुँचा। 

वहाँ देखा कि एक ज्योतिर्मय पर्दे के द्वारा खण्ड और अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है।  उस पर्दे को लाँघ कर वह क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ।  वहाँ देखा, मूर्तरूप-धारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य-देहधारी देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना अधिकार फैलाकर अवस्थित है।  किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य-ज्योतिर्तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे हैं।  समझ लिया कि ज्ञान और पूण्य में तथा त्याग और प्रेम में ये लोग मनुष्य का तो कहना ही क्या- देवी-देवता तक के परे पहुँचे हुए हैं ! विस्मित होकर इनकी महिमा के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड, भेद-रहित, समरस ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रूप में परिणत हो गया।  फिर वह दिव्य-शिशु उन सप्त-ऋषियों में एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने की चेष्टा करने लगा.   शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जाग्रत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे।  
उनके मुख-मण्डल के प्रसन्नोज्ज्वल भाव देखकर ज्ञात हुआ कि मानो वह बालक उनका बहुत दिनों का परिचित ह्रदय-धन है. वह अद्भुत देव-शिशु अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा- ' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा !' उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अन्तर की सम्मति प्रकट हो रही थी. इसके अनन्तर वह ऋषि, बालक को प्रेम-पूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्थ हो गये. उस समय आश्चर्य से चकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम-मार्ग से धराधाम पर अवतीर्ण हो रहा है. नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था, कि यही वह ऋषि है ! " उस दर्शन में जो दिव्य-शिशु ऋषि को आने का निमंत्रण दे रहा था वह स्वयं श्रीरामकृष्ण देव थे " (श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग पेज ८०-८१ )
अखण्ड के राज्य से वह ऋषि नरेन्द्र बनकर नरेन्द्र बनकर क्यों आये थे ? सिर्फ मानव-कल्याण के लिये।.. इस धरती में बहुत कष्ट है,बहुत दुःख है; किन्तु उस दुःख-कष्ट को हमलोगों ने स्वयं बुलाने की चेष्टा की है, वह हमारे ही कर्मों का फल है, किन्तु बाद में रोना पड़ता है।  पर अब बुढ़ापे में रोने से क्या होगा ? क्यों हमने युवाकाल में ही जीवन-गठन करने का प्रयत्न नहीं किया ? जब समय रहते , जब जवानी का तेज मुझमें विद्यमान था, उस समय 3H के निर्माण का कोई प्रयत्न नहीं किया, तो बुढ़ापे में पश्चाताप करने से भी कोई उपाय नहीं सूझेगा। इसी प्रकार सही समय पर उचित जीवन-लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर पाने से लाखों युवाओं का जीवन नष्ट हो जाता है।  हमारे राजनीतिज्ञ लोग तथाकथित धर्म-रक्षक या छद्म-धर्मनिरपेक्षता का चोंगा ओढ़कर हमारे युवाओं को fodder या चारे की तरह, अपनी रोटी सेंकने के लिये हिन्दू-मुसलमानों में दंगा करवाने या भारतवासियों में घृणा फ़ैलाने के लिये उनका उपयोग करते हैं।  स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने की कोई शिक्षा-नीति पूरे भारतवर्ष में कहीं नहीं है।  
अभी (२००५ में) पश्चिम बंगाल के साम्यवादी मुख्यमन्त्री जिस रस्ते से जा रहे थे, उसमें लैण्डमाईन का कॉइल बिछा हुआ दिखाई पड़ा, तब D.G.P डर कर तुरन्त मिलिट्री से माईन डिफ्यूज करने वाला एक्सपर्ट बुलवाये और रास्ते को साफ करवा लिया गया। किन्तु इस घटना के बाद, साम्यवादी पार्टी के हेडक्वार्टर से एक आदेश निकाला गया कि आगे से C.M को जिस रास्ते पर भी पैदल जाना हो, तो उनके आगे आगे ४०० पार्टी कामरेडों को या कैडर्स को भेज कर रास्ते की 'सुरक्षा जाँच' करवा लेना अनिवार्य होगा। उन पार्टी कैडर्स को मरने दो! क्या पार्टी कैडर और मुख्यमंत्री के 'प्राण' में कोई 'साम्यवाद' नहीं है ? (क्या मुख्यमंत्री का खून, खून है; पार्टी कैडर्स का खून पानी है ?) मनुष्य का जीवन कितना सस्ता हो गया है ? ये राजनीतिज्ञ लोग अपने जीवन की रक्षा करने के लिये कितने भी लोगों को मरवाने से नहीं हिचकते हैं, क्या उनके ह्रदय थोड़ा भी feeling for others, थोड़ी भी समानुभूति या हमदर्दी Empathy नहीं है? जबकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि- ' मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है !' मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। महर्षि वेद व्यास ने इसके संबंध में कहा है, 
''गुह्य ब्रह्म तदिदिं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हिं किंचित।'' 
अर्थात् मैं बड़े भेद की बात तुम्हें बताता हॅू, मनुष्य से बढ़कर संसार में कुछ नहीं है।मनुष्य अभी क्या है, आगे उसमें क्या बन जाने की सम्भावना है ? इसका वर्णन भगवत-महापुराण के साथ साथ इस्लाम और ईसाई पुराणों में भी पाया जाता है. अल्ला,जिसको यहाँ ब्रह्माजी कहते हैं, ने जब समूची दुनिया को बना लिया,तो भी वे बहुत satisfied नहीं हुए. किन्तु जब मनुष्य को बना लिया तो अपनी इस रचना को देखकर वे बहुत खुश हो गए. उन्होंने सभी फरिस्तों या देवदूतों को बुलाकर कहा कि तुमलोग इसको सिर झुकाकर प्रणाम करो, यह हमारी श्रेष्ठतम रचना है. सभी फरिस्तों ने सिर को झुकाया, लेकिन एक इब्लीस ने सिर नहीं झुकाया तो उसीको अल्ला कहा-तुम दूर हो जाओ शैतान ! भारतीय परम्परा के अनुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति अनेक ग्रंथों में हुई है। श्रीमद्भागवत पुराण में क्रमविकास का सिद्धान्त, ' Evolution Theory ' वर्णन आता है-

सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या 
 वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय
                व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ ११-९-२८ 

भगवान ने अपनी अचिन्त्य आद्या-शक्ति के द्वारा स्थावर-जंगम कई प्रकार की सृष्टि को रचा।  इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु, पक्षी,डंक मारने वाले कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु उससे स्रष्टा के मन में संतुष्टि नहीं हुई। अत: अन्त में मनुष्य का निर्माण हुआ जो अपने स्रष्टा को भी देखने में समर्थ था। जिस मूल तत्व को प्रयोगशाला में पंचेन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना सकता, जिसको बुद्धि से भी जानना संभव ही नहीं है, मनुष्य उसका भी साक्षात्कार कर सकता है। यही क्षमता प्रत्येक मनुष्य के भीतर अभी सर्वोच्च-संभावना के रूप में छुपी हुई है। 'व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:' ऐसी अद्भुत-शक्ति से सम्पन्न मनुष्य को देखकर सृष्टा को बहुत आनन्द हुआ। 
'जन्माद्यस्य यतः' - जिससे सबकुछ निकला, जिसमें सबकुछ स्थित है और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है; उसी चैतन्य से उत्पन्न इस अति-दुर्लभ मनुष्य-जीवन को सार्थक नहीं बनाकर, अर्थात मूलतत्व का साक्षात्कार किये बिना, क्या पशुओं की तरह केवल, ' आहार-निद्रा-भय-मैथुन ' करके पशुओं की तरह मर जाना मनुष्य को शोभा देता है ? अतः युवा-काल से ही मनुष्य जीवन को गठित करने का प्रयत्न करना चाहिये। जीवन-गठन का तात्पर्य है-चरित्र को बनाना। और चरित्र-निर्माण की सबसे पहली आवश्यकता है, मन को वश में लाना। मन के वशीभूत होने का अर्थ है, विवेक सम्पन्न ' मनुष्य ' बन जाना। अर्थात ज्ञान की ज्योति का जाग्रत हो जाना। 
[' देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ' -की अवस्था का अनुभव हो जाने के बाद - यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम्॥ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥ ॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥  जब देह होते हुए भी मैंने (आत्मा ने) अपने को देह से पृथक् अनुभव किया था, जो अपनी मौत की यात्रा के साक्षी बन जाते हैं उनके लिये यात्रा केवल यात्रा भर रह जाती है, साक्षी उस यात्रा से परे हो जाता है। समस्त प्राणियों को दो भागों में बांटा गया है, योनिज तथा आयोनिज। दो के संयोग से उत्पन्न या अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होने वाले। बृहत्‌ विष्णु पुराण में संख्या के आधार पर विविध प्रकार के ८४ लाख योनियों का वर्गीकरण किया गया है।]
अर्थात मिथ्या मैं-पन के धारावाहिकत्व के भ्रम को हटाकर यह अनुभव से जान लेना कि मैं केवल मरण धर्मा शरीर मात्र नहीं हूँ, मेरी सार-वस्तु, सत्ता तो आत्मा या ब्रह्म हैं।  ब्रह्म का अर्थ है बृहत व्यापक सबसे बड़ा -सब कुछ इसी के उपर अध्यारोपित है।  हमलोगों का यथार्थ स्वरुप भी वही चैतन्य है-जिससे सबकुछ निकला है ! उसका साक्षात्कार करने या अनुभव से जानने के लिये लालच को कम करते हुए एकाग्रता का -या विवेक-प्रयोग का निरन्तर अभ्यास करते रहना होगा। संतोष से बड़ा और कोई सद्गुण नहीं है, माँ सारदा स्वयं ऐसा कहती थीं।  पूर्णत्व का अर्थ है, अपना जीवन जगत की सेवा में समर्पित कर देना- यही है वैराग्य का भाव, इसके साथ साथ मन को एकाग्र करने का अभ्यास। अर्थात यह देखते रहना कि मेरा मन अभी कहाँ है ? मन्दिर में, बाजार में, किचेन में जाता है, अभी घर में चला गया ? 
यहाँ-वहाँ कई स्थानों में जा रहा है, उसकी इस दौड़ को देखकर, पहले थोड़ा 'हँसना' और फिर उसको समझाना-बुझाना-' बाबा उधर कहाँ जाता है ? थोडा इधर आओ !' ह्रदय में एक आसन बिछाकर उस पर जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द को बैठाकर उनका ही चिन्तन करो।  या ठाकुर को बैठा सकते हो।  क्योंकि ईश्वर क्या है, यह हमलोग अभी नहीं जानते हैं। वेद कहता है- " न तस्य प्रतिमा अस्ति " -अर्थात उसकी कोई प्रतिमा नहीं है।  क्योंकि वो सर्वत्र व्यापक है उसको किसी ने भी देखा नहीं है। वो निराकार होते हुए साकार ब्रह्माण्ड का निर्माता है, संसार में जितनी भी जीती जागती प्रतिमाये हैं वो सभी उस निराकार परमात्मा का साकार स्वरुप हैं। किन्तु हमारे मन का गठन इस प्रकार हुआ है कि उसे मूर्त से अमूर्त तक पहुँचने में आसानी होती है। अमूर्त या निराकार वस्तु में मन को लगाना संभव नहीं होता। अब हमने यदि ईश्वर को देखा ही नहीं है, तो उसकी भक्ति कैसे करें ? इसलिये स्वामीजी ने योगसूत्र समाधि पाद के सूत्र
१.२३ ईश्वरप्रणिधानाद्वा ।  ईश्वरप्रणिधानात् वा =  वा – अथवा (इसके अतिरिक्त), ईश्वरप्रणिधानात् – ईश्वरप्रणिधान से (समाधि की सिद्धि शीघ्र होती है)। अपेक्षाकृत अल्पकाल में सिद्धिलाभ के लिये अन्य श्रेष्ठ उपाय ईश्वर - प्रणिधान है। प्रणिधान का तात्पर्य है - अनन्य चित्त होकर पूर्णभक्तिभाव से आत्मसमर्पणपूर्वक उपासना करना। अब हमने यदि ईश्वर को देखा ही नहीं है, तो उसकी भक्ति कैसे करें ? इसलिये इस सूत्र को और सरल करते हुए स्वामी जी कहते हैं- ' महापुरुष प्रणिधानात् वा '! तुमको जिस किसी तत्वदर्शी महापुरुष  में आस्था हो जिनके जीवन को तुमने पढ़ा या नजदीक से देखा है जैसे ठाकुर-माँ-स्वामीजी में से किसी की छवि या मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास किया जा सकता है। (या हममें से जिन लोगों ने नवनी दा जैसे महापुरुष को नजदीक से देखा है, वे उनकी छवि पर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकते हैं !)
स्वामी विवेकानन्द को तो भारत सरकार ने भी ' युवा आदर्श ' युवाओं के ' नेता ' के रूप में स्वीकार किया है. क्योंकि वे सभी जाति, और सभी धर्म के युवाओं से प्यार करते थे, यहाँ तक जी युवा किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करता हो, उससे भी प्यार करते थे। उनके चित्र के उपर मन को एकाग्र करना एक scientific process है, mechanical method है।  विवेकानन्द (या नवनीदा) के उपर मन को एकाग्र करने से कोई हिन्दू नहीं बन जाता है। उन्होंने सभी संप्रदाय के युवाओं को जीवन से सर्वाधिक लाभ उठाने का उपाय बताया है. यहाँ विवेकानन्द के चित्र या मूर्ति की कोई हिन्दू ढंग पूजा करने को भी नहीं कहा जाता है। केवल चंचल मन को वश में लेन के लिये ही, किसी महापुरुष के चित्र पर मन को एकाग्र रखने के लिये कहा गया है।  यदि कोई चाहे तो ईसामसीह की मूर्ति या छवि को अपने ह्रदय में धारण कर उनके उपर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकता है। तब पूरी दुनिया मुट्ठी में आ जायेगी। 
इसके लिये अब रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए अर्ध-पद्मासन में बैठो और यह देखने की कोशिश करो कि तुम अपने ह्रदय में स्वामीजी की छवि देख पा रहे हो या नहीं ? इसको बिल्कुल एक खेल के जैसा लो, और मन से अनुरोध करते रहो, उसको समझाते रहो कि अभी थोड़ी देर तक केवल उन्हीं का चिन्तन करना है।  यदि ऐसा होने लगा तो बहुत कल्याण हो जायेगा। पवित्र और अच्छे विचारों से मन जितना अधिक भरा रहेगा हम उतने ही अच्छे मनुष्य बन जायेंगे। 'या मति सा गतिर्भवेत' यह अभ्यास बिल्कुल logical है, सरलता से समझ में आ जाता है, गूढ़ तत्व इसमें कुछ नहीं है, मन को वश में रखने का सबसे सरल उपाय है। ॐ 
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[उत्तरप्रदेश के रुदौली में 19 अक्टूबर 1911 को जन्मे उर्दू के लोकप्रिय शायर मजाज़ की गिनती उन चंद तरक्कीपसंद शायरों में की जाती है जिसने बहुत ही कम उम्र में शोहरत की बुलंदियों को छू लिया। 46 साल की छोटी सी उम्र में इस नौजवान शायर ने शायरी के जो जलवे दिखाए उसकी चमक आज भी वैसे ही बरक़रार है। 
मजाज़ ने एक विराट स्वप्न देखा था जिसमे महज़ विदेशी हुक्मरानो से मुक्ति ही नहीं थी बल्कि हर तरह के शोषण-उत्पीड़न,धर्म की पाबंदियों और पिछड़ेपन से मुक्ति की भावना थी। 'ख्वाबे-सहर'उसी सपने की दास्ताँ है। कबीर ने कहा है -  सुखिया सब संसार है,खावै और सोवै . दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै। इंसान के 'जागरण'की अभिव्यक्ति पहले उसके रुदन होती है। ख्वाब और हक़ीक़त के बीच का फैसला मजाज़ को मायूस कर देता था। यही मायूसी उनकी शायरी की शक्ल ले लेती। थी हालाँकि मायूसी और अवसादग्रस्तता पर उनकी संकल्पशक्ति भारी पड़ती थी।'ख्वाबे-सेहर'में तो मजाज़ ने धर्म के परदे में चलने वाले फरेब,शोषण और गैरबराबरी को बेपर्द कर दिया है। 
 पूरी नज्म यूँ है -
खूब पहचान लो 'असरार' हूँ मै,
जिनसे-उल्फत का तलबगार हूँ मै।
 ख्वाबे-इशरत में है अरबाबे-खिरद,
और इक शायरे बेदार हूँ मै। 
ऐब जो हाफिज-ओ-खय्याम मै था,
हाँ कुछ उसका भी गुनाहगार हूँ मै। 
हूरो-गिलमां का यहाँ जिक्र नहीं,
नौ-ए-इंसा का परस्तार हूँ मै। 

[ मायने : हुरो -जन्नत की ७२ हूरों और, शराब की नदी और नौकरों ( जन्नत में कुंवारी और सुन्दर हूरें और साथ में सुन्दर अल्पायु के लडके भी दिए जायेंगे जिन्हें “गिलमा ” कहा जाता .गिलमा)/ जीन्स-ए-उल्फत=प्रेम नामक वस्तु, ख्वाबे-इशरत=ऐश्वर्य के सपने में, अरबाबे-खिरद=बुद्धिजीवी, शायरे-बेदार=जागरूक कवि, नोअ-ए-इंसा=मनुष्य मात्र, परस्तार=उपासक ] 

' ख्वाबे सहर:'
मेहर (कृपा)  सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर,
रात ही तारी रही इंसान की अदराक पर।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
 मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींने-शौक घिसटती ही रही, 
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
 (जबीने-शौक = प्रेम से भरा हृदय , जंगे-ज़रगरी =  धन-दौलत की जंग)
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ' ख्वाबे सहर ' - देखा तो है ! 
जिस तरफ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है।]



रविवार, 4 अगस्त 2013

$$$ मनोतीर्थ में स्नान करने से अमृतत्व लाभ होता है। (सरिसा आश्रम कैम्प )

 मन को अपनी मुट्ठी में कर लेना ही पहला पुरुषार्थ है !  
स्वामी विवेकानन्द द्वारा ' शिकागो-विश्वधर्म महासभा ' में दिये गये भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग 'अपना ढेंढ़र न देख कर दूसरे की फुल्ली निहारने' वाले किस्से को चरितार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। वे वेद-उपनिषदों को ' Shepherd song ' ( गड़रिया का गीत-चरवाहा गीत ) कहकर उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे।किन्तु अभी कुछ ही वर्ष पहले यूनेस्को (UNESCO) ने अपने घोषणा-पत्र में  वेद-उपनिषदों को 'मानवजाति की महान विरासत' (Great Human Heritage) की संज्ञा दी है। [UNESCO proclaimed the tradition of Vedic chant a Masterpiece of the Oral and Intangible Heritage of Humanity on November 7, 2003. All Dharmic religions i.e. Sanatana Dharma, Jainism, Buddhism and Sikhism build on this.]   
संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी। वैसे तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में १८११ में ही संस्कृत चेयर की स्थापना हो तो गई थी, लेकिन उस समय इसके लिए कोई मनचाहा व्यक्ति न मिल पा रहा था। बोडेन चेयर पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहला व्यक्ति एच.एच. विलसन (Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०) था। वह भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आया तथा १८३२ तक यहाँ रहा। 
संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन, जो भारत से चले गये थे, को भारत के संस्कृत विद्वानों ने अनेक पत्र लिखे। एक भारतीय विद्वान ने लिखा, "इस संस्कृत पाठगृह के सरोवर में तुम्हारे द्वारा जो विद्वान- हंस स्थापित किये गये थे, कालवश तुम्हारे दूर चले जाने पर वे पंखरहित हो गए। उनके विनाश के लिए शिकारी (मैकाले ?) बाण साधे किनारे पर निवास कर रहे हैं। यदि तुम पालक बनकर उनसे उनकी रक्षा करते हो तब तुम्हारा यश चिरस्थायी होगा।" इस पर विल्सन ने अनुष्टप छन्द में जवाब दिया था ,
 "…….  यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। "
 "ब्राह्मा संसार के बनाने वाले हैं। हंस उसकी प्रिय सवारी है। अत: प्रिय होने के कारण से वही उनकी रक्षा करेगा। अमृत बहुत मीठा होता है, संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। इसलिए यह देवभाषा कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसा मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक भारतवर्ष है, जब तक विन्ध्य तथा हिमालय है, जब तक गंगा तथा गोदावरी है, तब तक संस्कृत है।" 
किन्तु उस समय, भारत निवास के इस काल में विल्सन ने जो संस्कृत भाषा सीखी थी, वह इस आशा और उद्देश्य से सीखी थी, कि शायद यह भाषा ज्ञान उसे हिन्दू धर्म शास्त्रों को समझने और आवश्यकता होने पर विकृत अर्थ करने और भारतीयों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने में सहायक हो सकेगी। इस संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही विलसन को, १८३२ में, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की बोडेन चेयर का प्रथम अधिष्ठाता बनाया गया।
यहाँ उसने सबसे पहले ईसाई मिशनरियों के लिए 'दी रिलीजन एण्ड फिलोसोफिकल सिस्टम ऑफ दी हिन्दूज' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तके के लिखने के उद्‌देश्य के विषय में उसने कहा था - " यह लेखमाला उन व्यक्तियों की सहायता के लिए लिखी गई हैं जो कि म्यू द्वारा स्थापित दो सौं पौंड के पुरस्कार के लिए प्रत्याशी हों और जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों का सर्वोत्तम प्रकार से खंडन कर सकें। (भारती, पृ. ९)
"These lectures were written to help candidates for a prize of £ 200/= given by John Muir, a well known Haileybury (where candidates were prepared for Indian Civil Services) man and great Sanskrit scholar, for the best refutation of the Hindu Religious Systems." (Bharti, p.9)
 १८६० में प्रो. विलसन के निधन के बाद,बोडेन चेयर का दूसरा अधिष्ठाता मौनियर विलियम्स हुआ। १८१९ में बम्बई में जन्मा मौनियर एक कट्‌टर ईसाई था। यह हिन्दू धर्म को नष्ट करने को और भी अधिक वचनबद्ध था जैसाकि उसने अपनी पुस्तक 'दी स्टडी ऑफ संस्कृत इन रिलेशन टू मिशनरी वर्क इन इंडिया'  (१८६१)
इसमें उसने एक मिशनरी की तरह स्पष्ट कहा था - " जब हिन्दू धर्म (वास्तव में सनातन-धर्म है) के मजबूत किलों की दीवारों को घेरा जाएगा, उन पर सुरंगे बिछाई जाऐंगी और अंत में ईसामसीह के सैनिकों द्वारा उन पर धावा बोला जाएगा तो ईसाईयत की विजय अन्तिम और पूरी तरह होगी (वही पृ. २६२) (When the walls of the mighty fortress of Hinduism are encircled, undermined and finally stormed by the soldiers of the Cross, the victory to Christianity must be signal and complete. p.262)
किन्तु मानव-जाति के जितने भी सच्चे नेता या मार्गदर्शक आते रहे हैं, सबों ने वेदों-उपनिषदों की शिक्षा की सहायता से अपने जीवन को कमल के पुष्प के जैसा प्रस्फुटित करने मार्ग ही दिखलाया है। स्वामीजी के भाषणों से प्रभावित होकर किसी अमेरिकी महिला ने पूछा था - ' स्वामीजी आर यू अ बुडिस्ट ? ' (स्वामीजी क्या आप बौद्ध-धर्म के अनुयायी हैं ? ) स्वामीजी थोड़े विनोदी स्वाभाव के भी थे, उन्होंने तुरंत उत्तर दिया - ' नो, आइ एम नॉट अ बुडिस्ट बट आई एम अ बडीस्ट.' (नहीं, मैं कलियों को पुष्प के रूप में खिल जाने तरीका सिखाता हूँ.)
उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है. अभी हमलोग भी कली की अवस्था में हैं, जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का कार्य हमारे सामने पड़ा हुआ है. आचार्य शंकर ने कहा है - ' यहाँ मूढ़ कौन है ? " उत्तर में स्वयं कहते हैं, " सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। 
सन्त तुलसीदास ने कहा है - मनुष्यों में सुत-वित-दारा-भवन आदि को अपना मान लेने की जो आदत या ममता होती है, वही मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है, विवेक-प्रयोग किये बिना उसकी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ? शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है. वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है.
तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई ।
बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।।
तुलसीदास कहते हैं, भगवान की कृपा के बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता है.
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता, आतंकवाद को आतंक के द्वारा नहीं मिटाया जा सकता, प्रेम की बुनियाद पर ही नये विश्व का निर्माण होना चाहिये। इस कार्य को केवल भारत ही संभव कर सकता है। किन्तु हमारी राजनीति ने भारत के आदर्श को बहुत निचले स्तर तक गिरा दिया है। 
पहले सारे देशवासियों के लिये हमलोगों के ह्रदय में कितना प्रेम था ? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" Forget not -every Indian is my brother ! " किन्तु अब भारतवासियों से ऐसा प्रेम कौन करता है ? अधिकांश लोग अपनी जाति या संप्रदाय के लोगों को ही अपना भाई समझते हैं, भारत माता की सभी सन्तानों को अपना भाई समझकर कौन प्यार करता है ?
आज के भारत में तो केवल धन कमाने के लिये अंधी-दौड़ मची है, धन कमाने के इस गलाकाट प्रतियोगिता से, आतंकवाद और भ्रष्टाचार कैसे मिट सकता है ? कानून बनाकर या पुलिस-बल के द्वारा या राज्यों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देने से,या केवल सत्ता परिवर्तन से - ' मिड-डे मिल ' खाकर गरीब के बच्चों का मरना, नहीं रुक सकता।
यह कार्य केवल हमारे ' मनुष्य ' (चरित्रवान-अच्छा व्यक्ति ) बन जाने से ही हो सकता है ! आजाद भारत के किसी भी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू-धर्म का प्रचार करने के लिये अमेरिका नहीं गए थे।  हिन्दू नाम का कोई धर्म नही है ...हिन्दू फ़ारसी का शब्द है । हिन्दू शब्द न तो वेद में है न पुराण में न उपनिषद में न आरण्यक में न रामायण में न ही महाभारत में । जब फ़ारस से आये हुए लोगों को भारतवर्ष में प्रचलित सनातन-धर्म को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ तो उन्होंने सिन्धु नद के इस पार रहने वाले सभी सनातन-धर्मावलम्बियों को ' हिन्दू ' नाम दे दिया। यह शब्द ठीक उसी प्रकार से अपमान सूचक है, जैसे कोई व्यक्ति ' पंचानन  ' के प्रति असम्मान व्यक्त करने के लिये उन्हें ' पांचू ' कहकर पुकारता है। 
[ स्वयं दयानन्द सरस्वती कबूल करते हैं कि यह मुगलों द्वारा दी गई गाली है। इसीलिये स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया, और हम अंग्रेजी-स्कूलों में पढ़े-लिखे लोग अपनी राष्ट्रीयता को ' भारतीय ' कहने के बजाये 'Indian' कहकर देते हैं। इतिहास पढ़ने वाले छात्र अवश्य इन बातों को जानते होंगे। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है." (५/१९) क्योंकि प्राचीन फ़ारसी लोगों ' स ' को ' ह ' कहकर गलत ढंग से उच्चारण करते थे. ' सिन्धु ' शब्द को वे लोग हिन्दू कहते थे, सिन्धु-नद के इस पार रहने वाले सभी लोगों को वे हिन्दू कहते थे. किन्तु वर्तमान समय में सिन्धु-नद के इस पार रहने वाले सभी लोग प्राचीनकाल की तरह एक ही धर्म के अनुयायी नहीं हैं. इसलिये उस शब्द से केवल ' हिन्दू ' मात्र का ही बोध नहीं होता, बल्कि ' मुसलमान-जैन-ईसाई ' तथा विदेशों से भारतवर्ष में आकर बस गए सभी अधिवासियों का होता है. अतः मैं अपने लिये अबसे ' हिन्दू ' शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा"
इसीलिये श्रीरामकृष्ण कहते थे, जितने भी ब्रांडेड, labeled या लेबुल से चिपका हुआ धर्म हैं, वे सब जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये मानवजाति के लिये उतना अच्छा होता। ' धर्म ' तो केवल एक ही होता है, दो-चार धर्म नहीं हो सकते। विभिन्न समय और स्थानों में पैगम्बर लोग आते हैं, वे इस एक ही धर्म को अपने आचरण में उतार कर अलग-अलग मार्ग से उसका प्रचार करते हैं. - 
इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ।।
 ‘विवेक-चूड़ामणि’5।।
दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा ?
श्रीरामकृष्ण देव इस्लाम-धर्म के अन्तर्गत आने वाले सूफी-संप्रदाय में दीक्षा प्राप्त करके 'अल्ला' मन्त्र जप करते थे. ' अल्लोपनिषद ' संस्कृत में लिखा हुआ है, किन्तु उसमें कुछ अर्थ नहीं मिलता है, प्रत्येक छन्द के बाद केवल अल्लाह अल्लाह लिखा हुआ है। 
जबकि सूफ़ी दरवेश उस सर्वव्याप्त सर्वशक्तिमान प्रेम के गीत गाते हैं जो उनके समूचे अस्तित्व को अन्ततः उनके "मेहबूब" में एकाकार कर देता है। स्वयं से मुक्त हो जाने का यह वांछित लक्ष्य अपने ईगो से मुक्त होने के बाद ही आता है। पंजाब के सूफ़ी कवि हज़रत बाबा बुल्ले शाह कहते हैं कि - 'जहां-जहां तूने मन्दिर-मस्जिद देखे, तू उनमें प्रवेश कर गया, अलबत्ता अपने भीतर कभी नहीं घुसा। आसमानी चीज़ को पकड़ने की फ़िराक़ में तू अपने भीतर बसने वाले को कभी नहीं पकड़ता। ' तेरहवीं सदी में जन्मे जलालुद्दीन रूमी सिर्फ़ कवि नहीं है, वे सूफ़ी हैं, आशिक़ हैं, ज्ञानी हैं और सब से बढ़कर गुरु हैं। 
[शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उस तरह से उपलब्ध नहीं है जैसे कि रूमी के बारे में। कुछ लोग मानते हैं कि वो किसी सिलसिले के सूफ़ी नहीं थे, बस एक इधर-उधर घूमने वाले दरवेश या क़लन्दर थे। एक अन्य स्रोत से ये भी हवाला मिलता है कि शम्स के दादा हशीशिन सम्प्रदाय के नेता हसन बिन सब्बाह के नाएब थे। यह बात दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इसमायली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ा थे। और ये इस्मायली ही थे जिन्होने सबसे पहले क़ुरान के ज़ाहिरी अर्थ को नकार कर बातिनी (छिपे हुए) अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरी दुनिया को नकार कर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।
रूमी और शम्स की मुलाक़ात के बाद ही रूमी को एक असाधारण अनुभव हुआ जिसके लिए उन्होने कहा कि उनके दिमाग़ में एक खिड़की सी खुली और उसमें से धुँआ निकल कर अर्श की ओर चला गया। यह निस्सन्देह एक उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की ओर इशारा है, जिसे तंत्र की भाषा में कह सकते हैं कि उनकी कुण्डलिनी सीधे सहस्रार तक जा पहुँची और समाधि लग गई। जलालुद्दीन रूमी की एक कविता में मनुष्य के जीवन-लक्ष्य या डार्विन के विकासवाद की झलक देखि जा सकती है - 
आदमी की तरक़्क़ी 

बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया; फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया.

हैवानों से मर गया और आदमी हो गया. डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?

अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ; ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।

और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना; क्युंके सिवा 'उस' के हर शै को है फ़ना हो जाना।

एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा।
फिर जो सोच में नहीं आता, मैं ' वो ' हो जाऊँगा !!
(अभय तिवारी द्वारा रूमी के काव्यानुवादों की पुस्तक ''कलामे रूमी'' १. मसनवी मानवी, ज़िल्द तीसरी, ३९०१-०५.) 
इसका तात्पर्य यह है कि खनिज, उद्भिज, पौधा, स्थावर-जंगम, पशु आदि योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में यह मनुष्य का शरीर प्राप्त हुआ है. किन्तु यही अन्त नहीं है, क्रम-विकास अब भी चलना चाहिये। मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर देवता बनना चाहिये। देवता बनने के लिये स्वर्ग -नरक जाने की आवश्यकता नहीं है. देवता जैसा मनुष्य बनकर धरती पर ही रहा जाता है.
यदि हमारे मन में इर्ष्या-द्वेष, असुइया-वृत्ति अधिक हो, तो हमलोग मनुष्य नहीं बन सकते हैं. दूसरों के दुःख में दिखावा करने के लिये सहानुभूति दिखाना आसान काम है, किन्तु दूसरों की उन्नति देखकर ठीक उनके जैसा आनन्द का अनुभव (Empathy या समानुभूति ) करना ही, Emancipation या मोक्ष है ! ह्रदय का ऐसा विकास यदि नहीं हो सका तो ईर्ष्या का बिच्छू बहुत डंक मारेगा और हम नरक-वास करने को बाध्य हो जायेंगे। यदि दूसरों की उन्नति का समाचार सुनने से मन में सच्चा आनन्द होता है, तो हमारा स्वर्ग-वास चल रहा है. शास्त्रों में कहा गया है कि स्वर्ग का सुख भी सच्चा सुख नहीं है, पुण्य के क्षीण हो जाने पर वहाँ से भी नीचे की योनियों में जन्म लेना पड़ता है. अतः इसी जीवन में सच्चे स्वर्ग का आनन्द प्राप्त हो सकता है.यह आनन्द जिस उपाय से प्राप्त होता है, उसका नाम है - 'मनः संयोग '. मन को अपने वश में कैसे लाया जाता है, उसके लिये ' अभ्यास और वैराग्य ' की विधि सीखनी चाहिये।
मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं-शरीर, मन और आत्मा। परन्तु आत्मा का क्या अर्थ है, इस बात को हम अभी नहीं समझ सकते है. इसी बात को सरलता से समझाने के लिये, स्वामीजी तीन प्रमुख अवयव को - शरीर,मन और ह्रदय  (Hand-Head-Heart ) कहते हैं ! किन्तु हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिये कि स्वामीजी ने आत्मा को समझाने के लिये ' ह्रदय ' या Heart की संज्ञा क्यों दी है ? शिक्षण का एक प्रसिद्ध सूत्र हैं - "मूर्त से अमूर्त की ओर"। वास्तव में किसी वस्तु पर दृष्टि पड़ते ही हमें उसका सामान्य परिचय मिल जाता है। 
आज हमारे देश में जितना आभाव चरित्र का देखा जा रहा है, उतना आभाव अन्य किसी वस्तु का नहीं है. सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। आज का यक्ष-प्रश्न तो यही है कि क्या करने से हमारे देशवासी उत्तम चरित्र के अधिकारी मनुष्य बन जायेंगे ? वास्तव में हमलोग अभी मनुष्य शरीर-धारी अवश्य हैं, किन्तु यथार्थ मनुष्य नहीं बन सके हैं। क्योंकि हमें अपने ह्रदय को विकसित करके Empathy या हमदर्दी के गुण को बढ़ाने की शिक्षा नहीं दी जाती है। 
हमलोग यह जानते हैं, कि मर्माहत होने पर हमलोगों का हाथ स्वतः ह्रदय के उपर चला जाता है।  ह्रदय का विकास उसे कहते हैं, जब केवल सहानुभूति sympathy दिखाने की जरुरत महसूस नहीं हो, हमारी Empathy हमदर्दी या समानुभूति का स्वतः विकास हो जाता है, तब दूसरों के सुख में भी ठीक उसी के जैसा सुख अनुभव करने की शक्ति ह्रदय में आ जाती है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने प्रचण्ड इच्छाशक्ति और दृढ़-संकल्प के बल पर मूर्त शरीर के देहाध्यास या मिथ्या मैं के धरावाहिकत्व को समाप्त कर, अमूर्त ह्रदय का विकास करके यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करने के लिये एक सूत्र दिया है - ' 3H ' निर्माण !
इसी 3H का निर्माण करके स्वयं मनुष्य बनना और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करना महामण्डल का उद्देश्य है. अपने शरीर को निरोगी, स्वस्थ और कर्मठ बनाये रखना सबसे पहला धर्म है- शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं। शरीर को हमलोग अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाकर, नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमलोग निरोग और स्वस्थ रहना सीखते हैं।  यहाँ इसके लिये प्रशिक्षण भी दिया जाता है.
स्वस्थ शरीर के साथ साथ मन को भी स्वस्थ रखा जा सकता है. किन्तु इसके लिये आवश्यक है कि हम मन के गुलाम नहीं बनें बल्कि मन ही हमारा यंत्र बन जाये, एक इन्स्ट्रूमेंट बन जाये जिसका उपयोग हम अपनी आवश्यकता के अनुरूप करने में समर्थ हों. मन को अपनी मुट्ठी में कर लेना ही पहला पुरुषार्थ है, अर्थात धर्म है !
अभी तो हमारे मन की हालत यह है कि यह बिना मेरे चाहे, बिना मुझसे अनुमति लिये ही अभी इसी क्षण किसी ग्रह पर चला जा सकता है। या किसी बुरे स्थान में - किसी बीयरबार में, या डान्सबार में भी जासकता है, फिर यह किसी मन्दिर में भी जा सकता है। ये किसी उन्मत्त वानर या मर्कट की तरह चंचल है, हमेशा इधर-उधर उछल-कूद मचाता रहता है।  
स्वामीजी ने मन की तुलना मदिरा पीये हुए उन्मत्त वानर से की है. मन में विषय-सुखों को भोगने की इच्छा या कामना-वासना ही मदिरा है, ह्रदय का विस्तार नहीं होने से Empathy -हमदर्दी या समानुभूति करने की क्षमता प्राप्त नहीं होती। इसके परिणाम स्वरुप दूसरों की सुख-सम्पन्नता को देखकर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारता रहता है. फिर दूसरों को नीचा दिखा दूँगा -रूपी ' अहंकार का भूत ' भी जब सिर पर सवार हो जाता है, तब इस मन को शान्त रखना असंभव हो जाता है. हमारे शास्त्रों में इस प्रकार के चंचल मन को वशीभूत करने का जो उपाय बताया गया है, वह गीता, भागवत एवं योग-सूत्र तीनों में एक ही है-
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥

व्यासभाष्यम् 

चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय  वहति पापय च । या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥ 
- चित्त-नदी या हमारे मन का प्रवाह मानो दो भागो में बंटा रहता है, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। व्यासदेव कहते हैं, जो प्रवाह हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी, वह  धारा ' विवेक-विषय- निम्ना ' होगी, जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन  धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है- पापवहा धारा। इस पापवहा धारा को वैराज्ञ का फाटक लगाकर विषय-स्रोत को ही रुद्ध कर देना होगा, उसके बाद हमलोग यदि अपने मन को विवेकानन्द की छवी पर मन को एकाग्र करने का नियमित अभ्यास करते रहें
'-विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत ' 
शायद व्यासदेव यह जानते थे कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द आयेंगे जिनका मुखमंडल ऐसा होगा कि जिनके चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से चित्त का सदा तरंगायित रहना रुक जायेगा। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि ' पतंजली योग सूत्र ' पर भाष्य लिखने के बाद जगद्गुरु शंकराचार्य ने भाष्य नहीं लिखा था, उनके बाद योग-सूत्र पर भाष्य लिखने वाले प्रथम व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द ही थे. इसलिये मनः संयोग का अभ्यास हर दिन दो बार प्रातः और संध्या नियमित रूप से करते रहना चाहिये। 
जब हमलोग आसन पर बैठकर मन की बहिर्मुखी दृष्टि को अन्तर्मुखी बना कर अपने मन को देखने का प्रयत्न करते हैं, तो पता चलता है कि हमारा मन सचमुच कितना चंचल है ! कहाँ कहाँ न दौड़ता रहता है. जैसे चंचल बालक को शान्त करने के लिये समझा-बुझाकर या बहला फुसला कर शांत करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी समझा-बुझाकर शांत करना पड़ता है. उपनिषदों में मन को बन्दर के साथ तुलना नहीं किया गया है, वहाँ कहा है- 'पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम् ' (७/मुक्तिक उपनिषद्) अर्थात मन को किसी बालक के समान प्रेम के साथ समझ-बुझा कर शांत करो, जोर-जबर्दस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है. 
उसको प्रेम से समझाते हुए कहो, ' मन यहाँ आओ, मेरे सामने बैठो। देखो हर समय इतना भाग-दौड़ करना ठीक नहीं है. तुम्हारी सहायता के बिना कुछ नहीं कर पाउँगा, इसलिये तुम मेरा साथ दो. तुम्हारी सहायता से मैं जगत का कल्याण भी कर सकता हूँ, और उसका विध्वंस भी कर सकता हूँ. अणुबम का विस्फोट करके विश्व में शांति की स्थापना नहीं की जा सकती है, प्रेम के द्वारा ही विश्व को एकता के सूत्र में बांधा जा सकता है. आज हमारे देश की अवस्था इसीलिये ख़राब हो गयी है कि हम सभी लोग घोर स्वार्थी बन गए हैं, आपस में प्रेम, सद्भाव या हमदर्दी नहीं है, मन को वशीभूत कर लेने से यह इस अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है. घर के अभिवावक लोग सोचते हैं कि केवल पैसा कमा लेने से ही सबकुछ ठीक हो जायेगा, पर यह सही नहीं है, घर-परिवार में सुख-शांति और सौहार्द का वातावरण तभी रह सकेगा जब -हमारा मन हमारे वश में रहेगा। घर में किसी की प्रसंसा से सुखी और असम्मान मिलने से दुःखी होना छोड़ देगा। 
इसीलिये महाभारत में कहा गया है- 'आत्मानं प्रथमं द्वेष रूपेण योजयेत ' सबसे पहले मन रूपी शत्रु को बलपूर्वक जीत लो. आतंकवाद को खत्म करने के लिये इराक-अफगानिस्तान के उपर बम गिराना बन्द करके, पहले अपने मन को शांत करो. अमेरकी राष्ट्रपति बुश और टोनी ब्लेयर कहते थे कि इराक को खत्म करने के लिये उन्हें ईश्वर से आदेश मिला है. जो देश स्वयं दानव हैं, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? आजकल सरकार F.D.I (Foreign direct investment) को लाने के लिये तरह तरह की घोषणाएँ कर रही है, अभी सूचना का अधिकार (R.T.I) भी दिया गया है, यदि सचमुच F.D.I से विदेशों का धन भारत में आ रहा है, तो क्या कोई यह बता सकता है, कि कितना करोड़ डालर यहाँ से बाहर जा रहा है ? मैं इसकी सूचना जानने के लिये R.T.I  की मांग करता हूँ, कौन उत्तर देगा ? राजनितिक दलों पर  R.T.I कानून क्यों लागु नहीं होना चाहिये ? सभी राजनैतिक दल तो अपने अपने स्वार्थ के पीछे दौड़ रहे हैं, कौन इसका उत्तर देगा ? 
यदि हम सभी मनुष्यों का सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जाये, तो हमारा जीवन कितना महान हो जायेगा-हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। विवेक के जाग्रत होते ही हमलोग यह देख पायेंगे कि हमारे ह्रदय में जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता सारदा और स्वयं प्रेम-स्वरूप ईश्वर अभिव्यक्त होने के लिये ज्वार मार रहे हैं. उसी विश्व-ग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है. हमारा मिथ्या अहं या झूठा मैं-पन ही उस प्रेम के अभिव्यक्त होने में बाधक मेड़ का कार्य कर रहा है, उस अहं रूपी मेड़ को जैसे ही काट दिया जायेगा, सम्पूर्ण विश्व हमारा अपना ही परिवार जैसा दिखाई देने लगेगा। हमलोग केवल भाई-भाई ही नहीं हैं, वास्तव में सम्पूर्ण मानव-जाति एक और अभिन्न है. कोई अलग नहीं है - तूँ और मैं एक हैं. राजनीति की बिसात पर हिन्दू-मुस्लिम विवादों को सुलझाने का ईमानदार प्रयत्न करते हुए सूफ़ी कवि कहते हैं- 
"रामदास किते फते मोहम्मद, ऐहो कदीमी शोर. 
 मिट ग्या दोहां दा झगड़ा, निकल ग्या कोई होर"।
दर्शन शास्त्र या वेदान्त की भाषा में इसी 'One' ness of humanity को अद्वैत कहा जाता है. यही सनातन धर्म है. श्रीमद भागवत ७/११/२ में युधिष्ठिर नारद से पूछते हैं कि सनातन धर्म क्या है ? उत्तर में नारद मुनि कहते हैं- देश के खेतों से लेकर कल-कारखानों आदि में जो कुच्छ भी उत्पादन होता हो, उस 'सकल घरेलू उत्पाद' को सभी नागरिकों में उनकी जरुरत के अनुसार वितरण कर दो, किन्तु वितरण करते समय उनमे ' देवता-बुद्धि ' रखते हुए वितरण करो. 
किन्तु ऐसा ' सैद्धान्तिक साम्यवाद ' अभी तक विश्व के किसी भी देश में क्यों नहीं स्थापित हो सका है ? इसीलिये कि पाश्चात्य-प्रेरित साम्यवाद में तथाकथित धर्म-निरपेक्षता को अपनाते हुए- ' तेषु आत्मदेवता बुद्धिः ' को स्वीकार नहीं किया गया है. सभी में बाँट दो, किन्तु बाँटते समय -सभी देशवासियों को अपना देवता समझ कर बाँटना होगा। इतना ही नहीं अपने भाई-बहनों के बिच भी यदि पारिवारिक-सम्पत्ति का बँटवारा करना हो, तो सम्पत्ति का बँटवारा करते समय जरुरत के मुताबिक ही बाँटना चाहिये। ऐसा सोचना चाहिये कि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा हैं, मेरे इष्टदेव की ही प्रतिमूर्तियाँ हैं ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- 
" तुम्हारी पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते. इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है.
अपने तन-मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो. तुमने पढ़ा है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अपनी माता को ईश्वर समझो, पिता को ईश्वर समझो- परंतु मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’- गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुखी को ईश्वर मानो." 
स्वामीजी भी क्या किसी ऋषि से कम थे ? वे तो निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है. वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी कहा गया है कि वहाँ सात ऋषि बैठे हैं ! उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है. स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं. 
ब्रह्मा जी ने जब इतने सुन्दर सृष्टि की रचना की तो सोचने लगे, इतने सुन्दर जगत को देखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। उन्होंने सोचा प्रजा की रचना करने से वे इस सुन्दर सृष्टि को देखकर खुश हो जाएँगी। तब उन्होंने अपनी इच्छा से प्रवृत्ति-मार्ग के सप्त-ऋषियों की रचना की. किन्तु उन्होंने सोचा कि यदि ये लोग भी प्रवृत्ति में फँस कर अपने स्वरुप को ही भूल गए, तो उनको फिर सही मार्ग पर कौन लायेगा ? इसीलिये सभी लोगो को सही मार्ग दिखलाने के लिये उन्होंने निवृत्ति-मार्ग के सप्त ऋषियों की रचना की. इस पूरी कहानी को समझ लेना बहुत कठिन है. भगवान क्या है ? मेरे मन में जो विचार उठ रहा है, वह भी भगवान का ही विचार है. भगवान भी शरीर-धारी चैतन्य ही हैं. ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्न्म '! यहाँ कुछ भी जड़ नहीं है, सबकुछ चैतन्य ही है. इस सत्य की धारणा करने के लिये विषय-भोग की इच्छा, कामना-वासना का त्याग करना होगा, पवित्र होने के लिये गंगा-सागर तीर्थ या केदारनाथ धाम नहीं जाना होगा। 
मनुष्य का मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है. 'यस्मिन वेदश्च देवश्च '- जहाँ सब पवित्रता मिलकर एक हो गया हो, उस मन के सरोवर में स्नान करने से तुम अमृत हो जाओगे। कर्मयोग में स्वामीजी एक कहानी कहते थे, - किसी गाँव में एक साधू झोपड़ी बनाकर रहते थे. उसी गाँव में एक बहुत भयंकर डकैत भी रहता था. किन्तु साधुसंग करने से उसके मन में पाश्चाताप उत्पन्न हुआ. वह साधू के पास रहकर उनकी सेवा करने की अनुमति मांगता है, कुछ दिनों तक वह रहने के बाद एक रोज साधू से कहता है, ' आप तो सब पर कृपा करते हैं, मुझे भी तीर्थ जाने की अनुमति दीजिये। मैंने सुना है कि तीर्थों में जाने से सारे पाप चले जाते हैं. ' किन्तु मैं यह कैसे समझूंगा कि मेरे सारे पाप चले गये हैं ? 
तब उस साधू ने कहा कि तुम एक गज साफ धुल हुआ श्वेत कपड़ा ले आओ. उसे काले रंग की स्याही में डुबो दो. इस काले कपड़े को सदा अपने साथ रखना, जब तुम किसी तीर्थ से स्नान कर के लौटना तो उस काले कपड़े को देखना कि उसका काला रंग अभी गया है या नहीं ? वह डकैत कई तीर्थों में भटका किन्तु कपड़ा जस-का तस ही रहा. वह बहुत दुखी मन से अपने गाँव की तरफ लौट रहा था. तभी उसे एक जंगल के भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई देती है. कोई डकैत उस औरत को अकेली पाकर उसका गहना लूट रहा था. यह देखकर उस डकैत को बहुत गुस्सा आ गया. तुरन्त उसने एक फरसे से उस डकैत का सिर उसके धड़ से अलग करते हुए कहा- ' जैसा बावनवां वैसा तिरपनवाँ ' फिर डकैत से उस युवती को बचाकर वह डकैत उसके गाँव तक छोड़ आया. फिर साधू के आश्रम में लौट आया. 
साधू ने पूछा - क्या तुम्हारा पाप चला गया ? उस डकैत ने कहा नहीं महाराज कई तीर्थों में नहा  कर मैंने देख लिया, पर जब खोला  तो वह काला का काला ही था. तब साधू ने पूछा रस्ते में तुमने क्या किसी असहाय स्त्री को बचाया भी था ? डकैत ने जब पूरी रामकहानी सुना दी, तो साधू ने कहा तू एकबार उस कपड़े को निकाल कर देखो। देखता है- तो कपड़ा सफ़ेद हो चूका था ! 
जब उसने कहा कि मैंने तो सिर काटा था, ऐसा कैसे हुआ ? तब साधू बोले, नहीं तुमने उस औरत को बचाने के लिये वैसा किया था, उसमे तुम्हारा अपना कुछ स्वार्थ नहीं था. तुम्हारे ह्रदय में जो निःस्वार्थ प्रेम फूट गया था, उसी प्रेम में तुम्हारे सारे पाप धुल गये हैं.'
ये जो मानस-सरोवर है, हमारा मन है, इस मन को वैसा ही तीर्थ बना लेना चाहिये और उसमें स्नान करके अमृत बन जाना चाहिये। यही स्वामीजी का आह्वान है, सभी युवा उसमें स्नान करके अमृत हो सकते हैं. उस मनोतीर्थ के घाट पर हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं रहता, नास्तिक भी अलग नहीं है. सभी धर्म यही कहते हैं, कि मन को पवित्र रखना चाहिये और संसार को प्रेम से भर देना चाहिये। यही धर्म है, इसका लाभ हो जाने पर यहाँ जाते समय कहेंगे-जगत ईश्वर की सुन्दर रचना है ! यह तभी संभव होगा जब हमलोग उस आह्वान का अनुसरण करेंगे जो जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द ने दिया था -आओ मनुष्य बनें !