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रविवार, 21 जुलाई 2013

अमृतवाणी

: श्रीरामकृष्ण वचनामृत : 
१ सिद्ध पुरुष का अहंकार
1.१२७ . अपनी निम्न-प्रकृति के साथ बहुत संग्राम करने के पश्चात आत्मज्ञान के लिये तीव्र-साधना करने के बाद ही समाधि-अवस्था प्राप्त होती है। समाधी होने पर 'मैं' 'मेरा ' कुछ नहीं रह जाता। किन्तु ऐसी समाधी बहुत मुश्किल है। 'मैं' बड़ा बलवान होता है-किसी तरह जाना ही नहीं चाहता। तभी तो हमें फिर-फिरकर संसार में जन्म लेना पड़ता है।
2.१३१ . कुछ महापुरुष सप्तम भूमि या समाधी की सर्वोच्च अवस्था में पहुँचकर भगवद-बोध में विलीन हो जाने के बाद भी लोककल्याण के लिये उस भूमि से उतर आते हैं। समाधी के बाद भी वे इच्छापूर्वक ' विद्या का अहं ' रख लेते हैं। समाधी के बाद भी कोई-कोई 'मैं' को रख छोड़ते है- 'दास मैं या भक्त का मैं। ' शंकराचार्य ने लोकशिक्षा के लिये ' विद्या का मैं ' रख छोड़ा था।
3. १३२ . यह अहं का आभास-मात्र है, यह पानी पर खिंची गयी लकीर के समान होता है। रस्सी जल जाने पर भी उसका आकार बना रहता है, पर उसके द्वारा किसी को बांधा नहीं जा सकता। इसी प्रकार ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाने के बाद अहं का भी केवल आकार भर रह जाता है।
4.१३६ ." लेकिन इस 'मैं' को बनाये रखने वाला मैं नहीं, जगदम्बा हैं ! प्रार्थना को स्वीकार करना  ( फिर से शरीर में लौटा देना, जबरन भेज देना ? समाधी को  कौन त्यागना चाहेगा ? ) जगदम्बा के ही हाथ में है।
  २ किताबी ज्ञान का खोखलापन 
5.१४४ .ईश्वर के राज्य में विद्या, बुद्धि, युक्ति आदि का विशेष मूल्य नहीं है। वहाँ तो गूँगा बोलता है, अन्धा देखता है और बहरा सुनता है।
6.१५८ . वृथा तर्क मत करो। तर्क करके तुम किसी को उसकी भूल नहीं समझा सकते। जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कृपा होती है तभी मनुष्य अपनी गलतियों को समझ पाता है।
7.१६० . जिसके द्वारा ईश्वरप्राप्ति हो वही ' परा-विद्या ' है ! दर्शन, न्याय, व्याकरण आदि सारे शास्त्र केवल भार-स्वरुप हैं, वे चित्त में भ्रम ही पैदा करते हैं। ग्रन्थ मानो ग्रंथि (गाँठ) ही हैं ! यदि वे ईश्वर का ज्ञान करा दें तभी उनसे लाभ होता है।
३ प्रचारक के दोष
8.१६८ . हे प्रचारक, क्या तुम्हें बिल्ला (चपरास या प्रचार करने का अधिकार) मिला है ? राजा का बिल्ला जिसे मिलता है-भले ही वह एक सामान्य प्यादा हो- उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना बिल्ला दिखाकर बड़ा दंगा तक रोक सकता है। हे प्रचारक, तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा और आदेश प्राप्त कर लो, बिल्ला पा लो। बिना बिल्ला मिले यदि तुम सारा जीवन भी प्रचार करते रहो तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा सारा श्रम व्यर्थ होगा।
9.१७० . प्रश्न- जो व्यक्ति भाषण देने और प्रचार करने में तो कुशल हो परन्तु जिसका जीवन उन्नत न हो, उसके विषय में आपका क्या मत है?
ऊतर  -ऐसा मनुष्य तो दूसरों की धरोहर रखी हुई सम्पति को उड़ाने वाले की तरह होता है। वह लोगों को बड़ी आसानी से उपदेश देता है, पर सच पूछो तो उसमें उसके स्वयं के भाव या विचार नहीं होते-सभी दूसरों से उधार लिये होते हैं।
10.१७२ . प्रश्न- आजकल जिस तरह का धर्मप्रचार हो रहा है, उसके बारे में आपकी क्या राय है ?
उत्तर - यह तो बिल्कुल वैसा है, जैसे किसी व्यक्ति के पास केवल एक ही जन के लायक भोजन तैयार हो, और वह सौ जनों को न्योता देने चले। कुछ लोग थोड़ी सी साधना करते ही गुरु-गिरी करने लग जाते हैं।
11. १८१ . फूल के पूरी तरह खिल जाने पर उसकी सुगन्ध से मधुमक्खियाँ अपने आप खिंची चली आती हैं। इसके लिये उन्हें आमन्त्रण नहीं देना पड़ता। इसी प्रकार जब साधक पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तो उसके पवित्र-जीवन और चरित्र की मधुर सुगन्ध चारों ओर फ़ैल जाती है, और सत्य-प्राप्ति की स्पृहा रखने वाले व्यक्ति अपने आप उसकी ओर आकर्षित होते हैं। उसे उपदेश सुनाने के लिये श्रोता की तलाश नहीं करनी पड़ती।
12.१८३ . जब दीपक जल जाता है, तो न जाने कहाँ से पतिंगे आकर उसमें गिरते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने लगते हैं; दिए की लौ कभी पतिंगों को बुलाने नहीं जाती। सिद्ध पुरुषों का प्रचार भी इसी तरह का होता है। वे किसी को बुलाने नहीं जाते, फिर भी न जाने कहाँ से सैकड़ों, हजारों लोग उनके निकट उपदेश ग्रहण करने अपने आप आने लगते हैं।
13.१८७ . जब बारिश का पानी छत से बहता हुआ शेर या अन्य किसी प्राणी के मुँह के आकारवाले परनाले से नीचे गिरता है, तब ऐसा दिखाई देता है कि मानो पानी उस शेर के मुँह से ही आ रहा हो, परन्तु वास्तव में पानी तो आसमान से आता है। इसी तरह साधू-सन्तों के मुख से जो सत्य या ईश्वरीय तत्व प्रचारित होते हैं, वे वास्तव में उनके स्वयं के नहीं होते, वे ईश्वर के ही निकट से आते हैं।
 ४ संसारासक्त लोगों का जीवन  
14.२०७ . बद्ध-जीवों या संसारी जीवों को किसी तरह होश नहीं आता। वे इतना दुःख भोगते हैं, इतना धोखा खाते हैं, इतनी विपदायें झेलते हैं, फिर भी वे नहीं चेतते -उन्हें चैतन्य नहीं होता।
15.२२३ . प्रश्न - संसारी जीव सब कुछ त्यागकर भगवान को क्यों नहीं भज सकता है ?
उत्तर - क्या कोई नट रंगमंच पर उतरते ही अपना मुखौटा हटा देता है ? संसारियों को पहले नाटक में अपना काम पूरा कर लेने दो, उसके बाद ठीक समय पर वे अपना बनावटी साज उतारेंगे।
 ५ भिन्न भिन्न प्रकार के साधक 
16.२३० . पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं, बाद में फल, परन्तु लौकी, कुम्हड़े आदि की बेल में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वर लाभ किन्तु जो नित्यसिद्ध होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है, साधना पीछे से होती है।
17.२५३ . जो सबकी दृष्टि से दूर एकान्त में भी ' भगवान देख रहे हैं ' इस भय से कोई अधर्म-आचरण नहीं करता, वही यथार्थ धार्मिक है। निर्जन वन सुन्दर नवयुवती को अकेली देखकर भी जो धर्म के भय से भीत होकर उस पर कुदृष्टि नहीं डालता, वही यथार्थ धार्मिक है। जो वीराने में,किसी उजड़े घर में मुहरों से भरी थैली देखकर भी उसे उठाने के मोह को रोक सकता है, वही ठीक ठीक धार्मिक है। जो केवल दिखावे भर के लिये या ' लोग क्या कहेंगे ' इस भय से सिर्फ लोगों के सामने धर्म का अनुष्ठान करता है, उसे ठीक ठीक धार्मिक नहीं कहा जा सकता। निर्जन, नीरव में अनुष्ठित होने वाला धर्म ही यथार्थ धर्म है, भीड़-भाड़ और सड़क पर कोलाहल में अनुष्ठित होने वाला धर्म धर्म नहीं है।
18.२६२ . प्रश्न- हमें तो हमेशा दाल-रोटी की फ़िक्र करनी पड़ती है, हम साधना कैसे करें ?
उत्तर- तुम जिसके लिये श्रम करोगे, जिसका काम करोगे, वही तुम्हें भोजन देगा। जिसने तुम्हें संसार में भेजा  है उसने पहले से ही तुम्हारे खुराक का प्रबन्ध कर रखा है।
19.२६३ . घर, संसार, लड़के-बच्चे, परिवार सब दो दिन के लिये है। नारियल का पेड़ ही सत्य है, फल अनित्य हैं-
लगते और झड़ जाते हैं।
20.२६७ . तुम संसार में रहकर गृहस्थी चला रहे हो इसमें हानि नहीं; परन्तु तुम्हें अपना मन ईश्वर की ओर रखना चाहिये। एक हाथ से कर्म करो, और दूसरे हाथ से ईश्वर के चरणों को पकड़े रहो। जब संसार के कर्मों का अन्त हो जायेगा तब दोनों हाथों से ईश्वर के चरणों को पकड़ना।
21.२८३ . जिस प्रकार बालक एक हाथ से खम्भा पकड़कर जोरों से गोल-गोल घूमता है - उसे गिर पड़ने का डर नहीं होता- उसी प्रकार ईश्वर को पक्का पकड़कर संसार के सभी काम करो, इससे तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।
22.२८९ . मन में सदा यह भाव रखना कि घर-द्वार, परिवार, इनमें से कुछ तुम्हारा नहीं है, सब भगवान के हैं; तुम भगवान के दास हो, उन्हीं की आज्ञा का पालन करने संसार में आये हो। यह भाव दृढ हो जाने पर वास्तव में किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व-बुद्धि नहीं रह जाती।
23.२९३ . वह मनुष्य धन्य है जिसका मस्तिष्क और ह्रदय दोनों ही समान रूप से विकसित हुए हैं। सभी परिस्थितियों में वह सरलता के साथ उत्तीर्ण हो जाता है। .....
24.२९६ . संन्यास-ग्रहण का योग्य अधिकारी कौन है ? जो संसार को पूर्णरूपेण त्याग देता है, ' कल क्या खाऊंगा, क्या पहनूँगा ' इसकी बिलकुल फ़िक्र नहीं करता, वही ठीक-ठीक संन्यासी बनने लायक है। जो ताड़ के पेड़ पर से निर्भय होकर नीचे कूद सकता है वही संन्यास ग्रहण करने का योग्य अधिकारी है।
25.२९९ . सफ़ेद स्वच्छ कपड़े पर अगर थोड़ा सा भी कालिख लग जाये तो वह बहुत भद्दा दिखाई देता है। साधुओं का छोटा सा दोष भी बड़ा भारी मालूम होता है।
साधक जीवन के लिये कुछ सहायक बातें 
६ मूर्ति पूजा
26.329. श्रीरामकृष्ण ने एक बार केशवचन्द्र सेन से, जो कि उन दिनों मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे, कहा था,
" मूर्तियों को देखने पर तुम्हारे मन में भला मिट्टी, पत्थर या लकड़ी की बात क्यों उठती है ? तुम इनमें सच्चिदानन्दमयी माँ (या अल्ला) का आविर्भाव क्यों नही अनुभव करते ? "
27.३३० . यदि मूर्तियों के बारे में चिन्मय-बोध रखकर पूजा की जाये, तो उनकी पूजा करते हुए पूजक को ईश्वरदर्शन तक हो जाता है, परन्तु जो मिट्टी या पत्थर समझकर मूर्ति की पूजा करता है उसकी पूजा का कोई फल नहीं होता।
28.३३१ . यदि मूर्तिपूजा में कोई भूल भी हो तो क्या भगवान नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है ? वे उस पूजा से अवश्य ही प्रसन्न होंगे। तुम उनकी भक्ति करो, उनसे प्रेम करो, बस!
७  तीर्थ यात्रा 
29.३३६ . दुनिया में चारों कोने घूम आओ, कहीं कुछ नहीं मिलेगा। जो यहाँ ( अपने ह्रदय में ) है, वही वहाँ भी है।
 30.३५७ . जैसे रुई के पहाड़ में एक छोटी सी चिनगारी पड़ जाने पर वह देखते ही देखते जलकर खाक हो जाता है, वैसे ही भक्ति के साथ भगवान का नामगान करने पर पर्वत समान पाप भी नष्ट हो जाता है।
 ८ सरलता 
31.४१७ . यथार्थ मनुष्य तो वही है, जो ' मान-होश ' हो- अर्थात जिसको अपने स्वरुप का होश हो। दूसरे लोग तो नीरे 'मानुष' हैं।
32.४१८ . जो अहंकार आत्मा की महिमा को प्रकट करता है वह अहंकार नहीं। जो विनय आत्मा के गौरव को नीचे लाती है  वह विनय नहीं।
33.४२१ . तुम भक्त बनो पर इसका अर्थ यह नहीं कि तुम बुद्धू बनो। मन में सदा विवेक-विचार करना चाहिये सत क्या, असत क्या, और मिथ्या क्या है ? नित्य क्या और अनित्य क्या है? फिर जो अनित्य या मिथ्या है, उसे छोड़कर नित्य वस्तु -ईश्वर में मन को लगाना चाहिये।
34.४३१ . पेड़ में जब फल आ जाता है तो फूल अपने आप झड़ जाता है। इसी तरह मनुष्य में दैवी भाव का विकास होने पर दोष-दुर्बलता आदि मानवीय भाव अपने आप दूर हो जाते हैं।
 ९ स्त्रियों के प्रति मनोभाव 
35.४३५ . नारी मात्र ही भगवती जगज्जननी का अंश है। अतः सभी स्त्रियों को की ओर मातृदृष्टि से देखना चाहिये।
36.४४१ . स्त्रियाँ शक्ति की एक-एक मूर्ति हैं। पश्चिम की ओर विवाह के समय दुल्हे के हाथ में तलवार रहती है जिसके नोक पर सुपाड़ी खोंसा रहता है; और बंगाल में सरौता। इसका अर्थ है कि उस शक्ति-स्वरूपिणी कन्या की सहायता से वर-वधु अविद्या की गाँठ या मायापाश को काट सकेगा। यह वीर भाव है। मैंने वीरभाव की साधना नहीं की। मेरा सन्तान भाव है।
१० सभी धर्मों का ईश्वर एक ही है।
37.४५७ . जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारी ' कहता है, और कोई 'पानी', कोई 'वाटर' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देशभेद के अनुसार कोई 'हरि ' कहता है तो कोई ' अल्लाह ', कोई ' गॉड ' कहता है तो कोई ' ब्रह्म।'
38.४७० . अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने स्वयं के धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए व्यर्थ का शोर मचाता है। जब चित्त में यथार्थ ज्ञान का प्रकाश आ जाता है तो सब साम्प्रदायिक कलह शान्त हो जाते हैं। ...वह देखता है कि सभी धर्म-मतों के पीछे एक अखण्ड सच्चिदानन्द विराजमान है।
 ११विश्वास 
39.४९६ . भगवान पर विश्वास न होने के कारण ही मनुष्य को इतना कष्ट भोगना पड़ता है।
40.५११ . जो जैसा चिन्तन करता है वह वैसा ही बन जाता है। भ्रमर का चिन्तन करते करते झींगुर भी भ्रमर बन जाता है। इसी प्रकार सदा सच्चिदानन्द का चिन्तन करते रहने से मनुष्य सच्चिदानन्द-स्वरुप ही हो जाता है।
41.५१४ . जो सोचता है ' मैं जीव हूँ ' वह जीव ही रह जाता है; जो सोचता है ' मैं शिव हूँ ' वह शिव ही बन जाता है। मनुष्य जैसी भावना करता है, वैसा ही बन जाता है।
42.५२३ . ईश्वर-निर्भरता कैसी होती है ? जैसे कड़ी मेहनत करने के बाद तकिये से टेककर बैठे हुए आराम से हुक्का पीना। अर्थात किसी तरह की फ़िक्र नहीं है, जो करना हो ईश्वर ही करेंगे-यह भाव।
 १२ विवेक-प्रयोग 
43.५४३ . प्रश्न- क्या संसार मिथ्या है ?
उत्तर- जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्या है। तब तक मनुष्य उन्हें भूलकर ' मैं-मेरा ' करते हुए माया में बद्ध होकर, कामिनी-कांचन के मोह के मुग्ध होकर संसार में और भी डूबता जाता है। माया के कारण मनुष्य इतना अँधा हो जाता है कि जाल में से भागने का रास्ता रहने पर भी भाग नहीं पाता। तुम लोग तो स्वयं देखते हो कि संसार कैसा अनित्य है। देखो न, यहाँ कितने लोग आये और चले गये। कितने पैदा हुए और कितने मर मिट गये। संसार इस क्षण है तो दूसरे ही क्षण नहीं ! यह अनित्य है ! (अर्थात मिथ्या है।) जिन्हें तुम इतना
 ' मेरा मेरा ' कह रहे हो, तुम्हारे आँखें बन्द करते ही वे कोई न रहेंगे। संसार में कोई नहीं है, फिर भी इतनी आसक्ति कि नाती के लिये काशी-यात्रा नहीं हो पाती। कहते हैं, मेरे बेटे हरि का क्या होगा ? जाल में से निकलने की राह खुली है, फिर भी मछली भाग नहीं पाती। रेशम का कीड़ा अपनी ही लार से कोश बनाकर उसमें फंस कर जान गँवा देता है। संसार इस प्रकार मिथ्या है, अनित्य है।
44.५४४ . अहंकार को कैसे दूर करना चाहिये, जानते हो ? धान कूटते समय बीच-बीच में रुककर देखना पड़ता है, यदि मूसल की चोट ठीक से नहीं पड़ी हो, तो फिर से कूटना पड़ता है। तराजू पर कोई वस्तु तौलते समय, जब तक  काँटा ठीक न हो तब तक ठहर कर देखना पड़ता है।
मैं समय-समय पर स्वयं को गालियाँ देकर देखता था कि मुझमें अहंकार उठता है या नहीं; और विचार करता था - " भला यह शरीर क्या है ? सिर्फ़ हाड़-मांस का ढाँचा ! इसके अन्दर क्या है ? खून, पीब आदि गन्दी चीजें ! जिस शरीर के भीतर सदा मल भरा हुआ है, उस पर भला इतना अहंकार क्यों किया जाय ?
 १३ वैराग्य 
45.५५५ . भगवान के घर की चाभी उलटी दिशा (अन्तर्मुखी) में घूमने-वाली होती है। भगवान के समीप पहुँचने के लिये तुम्हें संसार का सब कुछ त्याग करना होगा।
46.५५८ . जिसे तीव्र वैराग्य (अपरिवर्तन शील सत्य को जानने की तीव्र अभिलाषा) होता है, वह भगवान (सत्य) के सिवा और कुछ नहीं चाहता। संसार उसे कुएँ जैसा प्रतीत होता है, उसे डर लगता है कि कहीं मैं डूब न जाऊं। आत्मीयों को वह काले नाग की तरह देखता है, उनसे दूर भागने को मन होता है, और भागता भी है।  'घर-गृहस्थी का बन्दोबस्त कर लूँ, फिर ईश्वर-चिन्तन करूँगा ' ऐसा विचार वह नहीं करता। उसके भीतर बड़ी ज़िद होती है।
47.५६० . जो परमहंस होता है, पूर्ण ज्ञानी होता है, वह मोची-मेहतर की अवस्था से लेकर राजा -महाराजा की अवस्था तक सब कुछ स्वयं भोगकर देख आता है। इसके सिवा ठीक-ठीक वैराग्य कैसे आएगा !
48.५६४ . वैराग्य कई प्रकार का होता है। संसार में दुःख-कष्ट पाकर एक प्रकार का -'मर्कट- वैराग्य' आता है। परन्तु, संसार के सभी भोगसुख असार, अनित्य हैं इस बोध के कारण जो वैराग्य आता है, वही यथार्थ वैराग्य है। किसी में यदि यह, ' बुद्ध-वैराग्य ' आ जाये तो सब कुछ रहते हुए भी उसके लिये कुछ नहीं है।
 १४ उद्द्यम-शीलता 
49.५६८ . किसान लोग बैल खरीदते समय अच्छे बैल कैसे पहचानते हैं जानते हो ? इस बारे में वे बड़े जानकर होते है। वे बैल की पूँछ पर हाथ लगाकर देखते हैं, जिस बैल में दम नहीं होता वह पूंछ पर हाथ लगाने से अंग ढीला कर जमीन पर लेट जाता है। परन्तु जो बैल फुर्तीला,तेज होता है वह पूँछ को छूते ही, चिढ़ कर उछलने लगता है। किसान लोग ऐसे ही बैल को खरीदा करते हैं।
जीवन में सफलता पानी हो तो अपने भीतर पुरुषार्थ, साहसिकता या मर्द्पना रखना चाहिये। कई लोग ऐसे होते हैं, जिनमें कोई दम ही नहीं होता -मानो दूध में भिगोया हुआ चिउड़ा हो, नरम और ठण्डा ! भीतर कोई जोर नहीं, कोई उत्साह नहीं, उद्दम करने का कोई सामर्थ्य नहीं ! इच्छा-शक्ति का नामो निशान नहीं, ऐसे लोग जीवन में कभी सफल नहीं होते।
  १५ एकाग्रता-ध्यान 
50.६०५ .मन के स्थिर होने पर श्वास स्थिर होता है-कुम्भक हो जाता है। यह कुम्भक भक्तियोग के द्वारा भी होता है, तीव्र भक्ति से भी श्वास स्थिर हो जाता है। 
 51.६०६ .गहरे ध्यान में ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरुप प्रकट होकर ध्याता के अंतःकरण को प्रकाशित कर देता है।
52.५९९ . मन को एकाग्र करने का सबसे सरल उपाय है, उसे दीप की शिखा पर स्थिर करना। शिखा के सबसे भीतर का नीला भाग मानो कारणशरीर है। उस पर मन को स्थिर करने से मन शीघ्र ही एकाग्र हो जाता है। इस नीली ज्योति के बाहर का भाग मानो सूक्ष्मशरीर है और उसके भी बाहर का भाग स्थूल-शरीर।
 53.८८९ . "जिस शरीर के द्वारा ईश्वरीय आनन्द का अनुभव और उपभोग होता है, वह कारण-शरीर है। तन्त्र-शास्त्र में इसे कहते हैं, ' भागवती तनु। '[ईश्वर की कृपा से प्रेम की देह उत्पन्न होती है, उसमें प्रेम के नेत्र, प्रेम के कर्ण होते हैं। उन्हीं प्रेमनेत्रों से उनके दर्शन होते हैं, उन्हीं प्रेम-कर्णों से उनकी वाणी सुनाई देती है। "] इन सब से अतीत है ' महाकारण ' (तुरीय)। " स्थूल-शरीर अर्थात अन्नमय और प्राणमय कोश। सूक्ष्म शरीर अर्थात मनोमय और विज्ञानमय कोश। महाकारण पंचकोशों के अतीत है। जिस समय चैतन्य देव का मन महाकारण में लीन हो जाता, उस समय वे समाधिमग्न हो जाते। इसी का नाम निर्विकल्प या जड़ समाधि है।
[सभी मनुष्यों का अस्तित्व तीन स्तंभों (3H) पर आधारित है - [Hand]शरीर, [Head] मन और [Heart] आत्मा। मन, शरीर और आत्मा के बीच सेतु का काम करता है ! मनुष्य के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण तत्व आत्मा होती है जो कि शरीर और मन दोनों को शक्ति प्रदान करती है और नियंत्रित करती है ! बहुत अद्भुत और आश्चर्यजनक है हमारे शरीर की रचना। दिखाई देने वाला भौतिक शरीर सिर्फ खून, हड्डी और मांस का जोड़ ही नहीं है इसे चलायमान रखने वाले शरीर अलग हैं। कारण शरीर (Causal Body) स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का कारण है, इसलिए उसे कारण शरीर कहते हैं। इसके कारण हमें चेतना का अनुभव होता है। 
इसे बीज शरीर भी कहते हैं। इसमें शरीर और मन की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। यह हमारे विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। कारण शरीर कभी नहीं मरता।
आनन्दमय रहने की प्रवृति के कारण ही वह निर्गुण निराकार ब्रह्म माया प्रकृति के साथ सयुंक्त होकर इस सृष्टि की रचना करता है। एकोहं बहुस्यामि के संकल्प में बधकर इस विचित्र संसार के रूप में स्वंय को प्रकट करता है। अपनी इसी प्रवृति से वशीभूत ही योगी मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लेकर ब्रह्मनंद में  निमग्न होकर पुन: उसी तत्व में विलिन हो जाता है। कैसी अद्भूत लीला है उस परमप्रभु की जो कि बुद्धि की समझ से पूर्णत: बाहर है। प्रत्येक प्राणी वहीं से प्रकट होता है और चाहे चाहे अंत में उसी में विलीन हो जाता है। सैदव उत्साहित, उल्लासित, प्रसन्न रहना ही आत्मा का मूल स्वभाव है। उसकी लीला उसी को समर्पित कर सदैव आनंदमय रहना चाहिए। 

सृष्टि के अधिकाँश रहस्य विज्ञान मानव मन की समझ से बाहर है। इनमें न उलझकर यही मन बनाना चाहिए कि जो कुछ उसने रचा है वह उत्तम है उसी के अनुसार हमें अपना जीवनक्रम बनाना है जीवनोउदे्श्य बनाना है। जो भी उस तक पहुँचता है वही उसकी लीला को ठीक से समझ पाता है अत: व्यर्थ की माथा पच्ची में पड़कर एक  जीवन का उदे्दश्य बनाकर व्यस्त रहे मस्त रहे वाले सिद्धांत पर चलना चाहिए।
ब्रह्म (आत्मा) सत्य है और उसके अतिरिक्त सब कुछ मिथ्या है।अज्ञान के कारण हमलोग ब्रह्म (आत्मा) का अनुभव नहीं कर पाते हैं। इसे अविद्या कहते है। यह अविद्या कारण शरीर है, क्योंकि यह नित्य, आध्यात्मिक पूर्ण सत्ता का अज्ञान ही है जिसने हमारी बुद्धि की कोलाहलपूर्ण इच्छाओं, मन के विचारों और शरीर के कर्मों को जन्म दिया है।]

१६ ईश्वरीय रूप-दर्शन तथा ध्वनि-श्रवण
54.९१० . शुद्ध-ह्रदय भक्त ईश्वरीय रूपों को देख सकता है, ईश्वर की कृपा से भीतर दिव्य ' भागवती तनु ' निर्मित होता है, जिसमें दिव्य इन्द्रियाँ होती हैं; उन्हीं के द्वारा इन रूपों के दर्शन होते हैं। केवल सिद्ध पुरुष ही इन्हें देख सकते हैं। साधना करते करते साधक के भीतर एक प्रेम की देह उत्पन्न होती है, उसमें प्रेम के नेत्र, प्रेम के कर्ण होते हैं। उन्हीं प्रेमनेत्रों से उनके दर्शन होते हैं, उन्हीं प्रेम-कर्णों से उनकी वाणी सुनाई देती है। "
 55.६१४ . तुम चाहे जिस मार्ग से जाओ, मन के स्थिर हुए बिना योग नहीं होता। मन योगी के वश में होता है, योगी कभी मन के वश में नहीं होता।
 56.९०८ . ईश्वर का साक्षात्कार दो प्रकार का होता है-एक में जीवात्मा तथा परमात्मा का योग होता है, दूसरे में ईश्वरीय रूपों के दर्शन होते हैं। पहला ज्ञान है और दूसरी भक्ति। मैं सच कहता हूँ, शपथ-पूर्वक कहता हूँ-सचमुच ईश्वर को देखा जा सकता है; जैसे इस समय हम-तुम बैठकर बातचीत कर रहे हैं, इसी तरह उनके दर्शन तथा उनसे सम्भाषण हो सकते हैं। 
57.९१२ . अनाहत ध्वनी सदा अपने आप उठ रही है। यह प्रणव ध्वनी है। यह परब्रह्म से आ रही है। योगी इसे सुन पाते हैं। विषयासक्त जीव इसे नहीं सुन पाते। योगी समझ सकते हैं कि यह ध्वनी एक ओर नाभि में से उठती है तथा दूसरी ओर उस क्षीरोद-शायी परब्रह्म से।  
१७ कुण्डलिनी तथा आध्यात्मिक जागृति
58. ९०२ . बिना कुण्डलिनी के जागे चैतन्य प्राप्त नहीं होता। मूलाधार में कुण्डलिनी सुप्त रहती है। जाग जाने पर वह स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि चक्रों को भेदती हुई अन्त में मस्तक में जा पहुँचती है, तभी समाधि होती है। 
59.९०६ . सप्त-भूमि : मन स्वभावतः गुदा, लिंग और नाभि, इन तीन निम्न स्तर की भूमियों में ही चढ़ता-उतरता रहता है, उसकी दृष्टि इन्हीं में -आहार,निद्रा, भय, मैथुन आदि में ही निबद्ध रहती है। 
इन तीन भूमियों को पार कर यदि मन चौथी भूमि ह्रदय तक जा पहुंचे तो साधक को प्रभा-ज्योति के दर्शन होते हैं। किन्तु ह्रदय तक उठने के बाद भी, मन पुनः नीचे की तीन भूमियों में -गुदा,लिंग नाभि में उतर आता है। 
ह्रदय का अतिक्रमण कर यदि किसी का मन पाँचवी भूमि कण्ठ तक जा पहुँचे तो फिर वह ईश्वरीय चर्चा छोड़कर अन्य किसी प्रकार की बातें-विषय-सम्बन्धी बातें इत्यादि -नहीं कर सकता। कण्ठ में पहुँचने के बाद भी मन पुनः गुदा, लिंग, नाभि में उतर असक्त है, इसीलिये तब भी सावधान रहना चाहिये। 
फिर कण्ठ का अतिक्रमण कर यदि किसी का मन भौंहों के मध्यस्थल तक जा पहुंचे तो फिर उसके पतन की आशंका नहीं रहती। उस समय वह परमात्मा के दर्शन प्राप्त कर निरन्तर समाधि-मग्न रहता है। 
इसके तथा सहस्रार के बीच केवल एक काँच की तरह स्वच्छ परदे भर की आड़ है। 
इस समय परमात्मा इतने निकट होते हैं कि साधक को ऐसा प्रतीत होता है, मानो मैं उनमें मिल गया हूँ, उनके साथ एक हो गया हूँ; परन्तु तब भी वह एक नहीं हुआ है। 
यहाँ से मन यदि कभी नीचे उतरे तो अधिक से अधिक कण्ठ या ह्रदय तक ही उतरता है-उसके नीचे नहीं उतर सकता। 
जीव-कोटि के साधक यहाँ से फिर नहीं उतरते -उनके इक्कीस दिन तक निरन्तर समाधि में लीन रहने बाद वह व्यवधान या परदा छिन्न हो जाता है तथा वे परमात्मा के साथ पूर्णतया मिलकर एक हो जाते हैं। सहस्रार में परमात्मा के साथ सम्पूर्ण एक हो जाना ही सप्तम भूमि में चढ़ना है।
 १८ भगवान तथा भक्त
60.६४५ . बच्चे का स्वभाव ही है अपने को कीचड़-मिट्टी में सान लेना, पर माँ उसे गन्दा नहीं रहने देती, नहला-धुलाकर साफ़ कर देती है। इसी तरह मनुष्य का स्वाभाव ही है पाप करना, परन्तु वह कितना भी पाप क्यों न करे, भगवान उसके उद्धार का उपाय कर ही देते हैं। 
61.६५२ . यथार्थ-प्रेमी भक्त ईश्वर को किस दृष्टि से देखता है ? वह ईश्वर को अत्यन्त निकट के की तरह देखता है। जैसे व्रज की गोपियाँ श्रीकृष्ण को ' जगन्नाथ ' के रूप में नहीं देखती थीं, वे तो उन्हें 
' गोपीनाथ ' के रूप में देखा करती थीं। 
62.६५३ . ईश्वर को माँ कहकर पुकारते हुए भक्त इतना आनन्दमग्न क्यों हो जाता है ? क्योंकि बालक माँ के निकट ही सबसे अधिक स्वछन्द रहता है, माँ के ही उपर उसका सब से अधिक जोर चलता है। 
63.६५९ . जिस प्रकार सरल बालक रुपया-पैसा सब छोड़ गुड़िया को उठा लेता है उसी प्रकार विश्वासी भक्त भी संसार के सब धन-मान आदि छोड़कर ईश्वर को ही ग्रहण करता है। दूसरा कोई ऐसा नहीं कर पाता। 
64.६६३ . भक्तों की सांसारिक परिस्थिति: देवकी को कारागार में चतुर्भुज शंखचक्रगदाधारी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए, परन्तु उसका कारावास कटा नहीं।    
65.६७२ . यह नहीं कि भगवान हमें भोजन (मोटर-बंगला-दौलत) देते हैं, इसलिये वे दयामय हैं, पिता अपनी सन्तान को भोजन तो देगा ही। वास्तव में वे इसलिये दयामय हैं, कि वे हमें कुपथ में जाने से बचाते हैं, मोह या प्रलोभन से हमारी रक्षा करते हैं।
१९ मार्गदर्शक नेता या गुरु की आवश्यकता 
66.६८७-९० . गुरु कौन है ? एकमात्र ईश्वर ही सारे जगत के गुरु हैं। जो गुरु के बारे में मनुष्य-बुद्धि रखता है उसके साधन-भजन का क्या फल होगा ? गुरु के बारे में मनुष्य-बोध नहीं रखना चाहिये। गुरु मानो मध्यस्थ हैं। जैसे मध्यस्थ प्रेमी को प्रेमिका से मिला देते हैं, वैसे ही गुरु भी साधक को इष्ट के साथ मिला देते हैं।
67.६९३ . गुरु (या नेता) का प्रयोजन : जिस जिस के के पास से कोई शिक्षा या लौकिक ज्ञान प्राप्त होता हो, उन सभी को गुरु न कहकर एक निर्दिष्ट व्यक्ति को ही गुरु (या मानवजाति का नेता ) कहने की क्या आवश्यकता है? किसी अनजान जगह में जाना हो, तो जो रास्ता जानता है ऐसे किसी एक व्यक्ति के निर्देशानुसार ही जाना चाहिये। अनेक लोगों से रास्ता पूछते रहने पर गड़बड़ हो जाती है। वैसे ही ईश्वर के निकट (अनन्त आकाश के अज्ञात राज्य में ) जाना हो तो एक अनुभवी गुरु के निर्देशनुसार चलना चाहिये। इसीलिये एक गुरु (नेता) का प्रयोजन है।
68.६९४ . जो खुद शतरंज खेलते हैं वे बहुत समय नहीं समझ पाते कि कौनसी चाल ठीक रहेगी ? परन्तु जो तटस्थ रहकर खेल देखते रहते हैं वे खेलने वालों की चाल से अच्छी चाल बता सकते हैं। संसारी लोग सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हैं ! परन्तु वे धन-मान, विषय-सुख (या सत्ता-सुख) आदि में आसक्त रहते हैं। वे स्वयं खेल में डूबे रहते हैं, ठीक चाल नहीं समझ पाते। 
परन्तु जो आत्म-साक्षात्कारी गुरु महात्मा  (नेता ) होते हैं, वे संसार में रहते हुए भी, विषयों से पुर्णतः अनासक्त हो जाते हैं। इसीलिये वे संसारियों से अधिक बुद्दिमान (विवेक-सम्पन्न ) होते हैं। वे खुद नही खेलते (माँ-बाप,स्त्री-पुरुष, दोस्त-दुश्मन का खेल नहीं खेलते) इसीलिये अच्छी चाल बता सकते हैं। इसीलिये सत्य को जानकर धर्मजीवन यापन करना हो, तो जो साधू-महात्मा ईश्वर का ध्यान-चिन्तन  करते हैं, जिन्होंने उन्हें प्राप्त कर लिया है, उन्हीं की बातों पर विश्वास रखकर चलना चाहिये। यदि तुम्हें मामले-मुकदमे की सलाह चाहिये हो तो तुम नामी वकील की ही सलाह लोगे, न कि किसी ऐरे-गैरे की ! 
69.६९८ . ऐसे (साक्षात्कारी-नेता) गुरु यदि पण्डित या शास्त्रज्ञ न भी हों, तो घबराने का कारण नहीं। उन्होंने पुस्तकी विद्या भले न सीखी हो, पर उनमें यथार्थ ज्ञान की कभी कमी नहीं होती। पुस्तक पढ़कर भला क्या ज्ञान होगा ? ऐसे व्यक्ति के निकट ईश्वरीय ज्ञान का अनन्त भण्डार होता है। 
70.७०२ . जिसमें गुरु (नेता ) के प्रति सच्ची भक्ति होती है उसे गुरु के सगे-सम्बन्धियों को देखकर गुरु का ही उद्दीपन होता है। वह उन्हें प्रणाम कर उनकी चरण-धूलि ग्रहण करता है, उन्हें खिलाता-पिलाता है, उनकी सेवा-शुश्रूषा करता है। ऐसी अवस्था होने पर फिर अपने गुरु (या नेता) के दोष नहीं दिखाई देते। अन्यथा, ' यथार्थ -मनुष्य ' या नेता में भी कुछ न कुछ दोष तो रहेंगे ही - केवल गुण ही गुण नहीं रह सकते। परन्तु अपनी भक्ति के कारण वह शिष्य (अनुयायी ) अपने गुरु (नेता) को मनुष्य की दृष्टि से नहीं देखता, वह उन्हें भगवान -के ही रूप में देखता है। जिस प्रकार पीलिया हो जाने पर सब कुछ पीला ही पीला दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार इस शिष्य को भी सब कुछ ईश्वरमय (सबकुछ शाश्वत-चैतन्य का घनीभूत रूप ) ही दिखाई देता है। उसकी भक्ति ही उसे दिखा देती है कि ईश्वर ही सब कुछ हैं, वे ही गुरु, पिता, माता, मनुष्य, पशु, जड़, चेतन -सब कुछ बने हैं ! 
71.७२१ . जब लकड़ी का बड़ा भारी (गरु) कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जब  अवतार-महापुरुष (नेता) आते हैं, उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं, किन्तु सिद्ध पुरुष काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। 
 २० ज्ञानयोग की प्रणाली 
72.७३७ . जब तक भगवान ' वहाँ वहाँ ' (अर्थात दूर या बाहर ) हैं, तब तक अज्ञान है; जब वे ' यहाँ ' (अर्थात ह्रदय) में हैं , तभी ज्ञान है। " जिसके लिये भगवान यहाँ (अर्थात ह्रदय में ) हैं, उसके लिये वहाँ (अर्थात बाहर ) भी हैं। जिसके लिये वे यहाँ नहीं हैं, उसके लिये वहाँ भी नहीं है। जो उन्हें अपने ह्रदय-मन्दिर में देखता है वह उन्हें जगत-मन्दिर में भी देखता है। 
73.७४० . विचार दो प्रकार का होता है -अनुलोम और विलोम। अनुलोम मार्ग से विचार करते हुए मनुष्य सृष्टि से सृष्टिकर्ता में, कार्य से कारण में जा पहुँचता है। फिर विलोम मार्ग से विचार शुरू होता है, ईश्वर को प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य देखता है कि सृष्टि के सभी क्रिया-कलापों में सर्वत्र वे ही प्रकाशित हैं। एक है विश्लेषणात्मक और दूसरा है संश्लेषणात्मक - 'नेति-नेति' और ' इति इति।' 
74.७४१ . ज्ञान एकत्व की ओर ले जाता है, अज्ञान नानात्व की ओर। 
75.७४२ . " श्रवण, मनन, निदिध्यासन " यही वेदान्त साधना का क्रम है। ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' इस सत्य को पहले सुना; फिर मनन यानी विचार करते हुए उसे मन में दृढ़ किया; इसके बाद निदिध्यासन -अर्थात मिथ्या वस्तु, जगत (नाम-रूप ) का त्याग कर सत्य वस्तु  ब्रह्म (अस्ति-भाति-प्रिय) के ध्यान में मन को निमग्न किया। परन्तु इसके विपरीत यदि इस सत्य ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' को सुना, समझा, पर मिथ्या वस्तु को त्यागने का प्रयत्न नहीं किया, तो इससे क्या फायदा ?
 इस प्रकार का ज्ञान तो संसार में आसक्त लोगों के ज्ञान की तरह है, ऐसे ज्ञान से वस्तु लाभ नहीं होता। पक्की धारणा चाहिये , त्याग चाहिये -तभी तो होगा। ( विवेक-प्रयोग से यह धारणा पक्की हो जाये कि, नाम-रूप शरीर आदि मिथ्या है, तो उसमें आसक्ति को त्याग देना चाहिये।) मुँह से तो कह रहे हो, ' जगत तीन काल में नहीं है, जगत है ही नहीं, असत है,-एकमात्र ब्रह्म ही हैं ' आदि, परन्तु जैसे ही जगत के रूप-रस-स्पर्श आदि भोग्य विषय सामने आते हैं, कि उन्हें सत्य मानकर बन्धन में पड़ जाते हो। संसारी, विषयासक्त लोगों का ज्ञान ऐसा ही होता है, इसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। 
76.७४३-४५ . ज्ञानयोग की कठिनाईयाँ : इस कलियुग में ( जब तक मोह-निद्रा में सोये हो) ज्ञानयोग बहुत कठिन है। एक तो मनुष्य का जीवन पूरी तरह से अन्न पर ही निर्भर है, दूसरे -आयु भी बहुत कम है। फिर देहात्म-बुद्धि किसी भी हालत में नहीं जाना चाहती। अगर रोग-शोक, सुख-दुःख आदि धर्मों का बोध रहे तो फिर वह ज्ञानी कैसा ? पहले देहात्मबोध का कांटा ज्ञानाग्नि में जलकर खाक हो जाना चाहिये। संसार के प्रति आसक्ति जितनी कम होगी, ज्ञान उतना ही बढ़ेगा। जब तक देहात्मबुद्धि है, तब तक 'सोsहं ' भाव हानिकारक है। इससे प्रगति नहीं होती, पतन ही होता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तथा औरों को धोखा देता है।
 २१ भक्ति-मार्ग 
77.७४९ . विषयासक्ति जितनी कम होगी, ईश्वर के प्रति भक्ति उतनी ही बढ़ेगी। 
78.७५६ . यदि अपने प्रेमास्पद को इष्टदेवता के रूप में देखा जाये, तो मन बड़ी सरलता से भगवान की और चला जाता है। 
79.७६४ . ठाकुरजी में अनुराग हो, तो विवेक, वैराग्य, जीवों के प्रति दया, साधुसेवा, सत्संग, ईश्वर की महिमा का गुणगान, सत्यवचन इत्यादि सद्गुणों का उदय होता है। यदि किसी में अनुराग-जनित सद्गुणों को प्रकाशित होते देखो तो निश्चय जानना कि उसे ईश्वरदर्शन होने में देर नहीं। 
80.७७३ . समाधि के बाद जीव वापस नहीं लौटता। पर यह बात जीव कोटि के सम्बन्ध में है। अवतार या ईश्वर कोटि की बात अलग है। ईश्वर कोटि भक्तों में अनुलोम-विलोम दोनों भाव पाये जाते हैं। वे समाधि में भी जा सकते हैं, और फिर उतर कर (मनुष्य रूपी ) ईश्वर के साथ दास्य, वात्सल्य या अन्य कोई भाव-सम्बन्ध स्थापित कर भक्ति का आस्वादन भी कर सकते हैं। समाधि में अहं या जगत (क + मन) का अत्यन्त अभाव होने पर ब्रह्म-दर्शन होता है; तब (माँ की कृपा से यदि फिर से शरीर में लौटने का मौका मिला तो) दिखाई देता है कि ब्रह्म ही जीव-जगत सब कुछ हुआ है। 
 २२ प्रेम 
81.७७५ . पारसी किताबों में है-चमड़ी के भीतर मांस है, मांस के भीतर हड्डी, हड्डी के भीतर मज्जा, फिर और भी बहुत कुछ है ! इन सबके भीतर प्रेम है ! 
82.७९९ . यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना, माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता, और तब तक दुःख-कष्टों अन्त नहीं होता। ज्योंही महामाया की कृपा होती है, त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं और वह  दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ भी नहीं होता। 
83.८०० . साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुण-साकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं, भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भाव-समाधी में रुपदर्शन भी होते हैं, और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी।
84.८०३ . मेरी माँ (जगन्माता) ने कह दिया है कि वही वेदान्त की ब्रह्म है। जीव के कच्चे मैं को नष्टकर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। भक्तिमार्ग का सार है- ज्ञान-भक्ति के लिये व्याकुल होकर निरन्तर प्रार्थना करना, माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले मेरी माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो, कि यदि तुम ह्रदय से माँ को पुकारोगे तो माँ अवश्य ही तुम्हारी पुकार सुनेगी-तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर, यदि तुम उसके निर्गुण निराकार स्वरुप का दर्शन करना चाहो, तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्ति स्वरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधी में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो। 
 85.८१० . नारदादि आचार्य ज्ञानलाभ करने के बाद भी लोक-कल्याण के लिये भक्ति लेकर रहते हैं। 
 86.८१८ . ईश्वर पर प्रेम-भक्ति बढ़ने से कर्म कम हो जाता है और जो कर्म रहता है, उसे उनकी कृपा से अनासक्त होकर किया जा सकता है। भक्तिलाभ होने पर विषय-कर्म, धन, मान, यश आदि अच्छे नहीं लगते। मिश्री का शरबत पीने के बाद गुड़ का शरबत पीना किसे अच्छा लगेगा ? 
 87.८२३ . ह्रदयकमल में इष्टदेवता को प्रतिष्ठित करने के बाद, उनके स्मरण-चिन्तन रूपी दीपक को सदा प्रज्वलित रखना चाहिये। संसार के काम-काज करते हुए बीच-बीच में भीतर की ओर दृष्टि डालकर देखते रहना चाहिये। 
 २३ सेवाभाव से किया गया कर्म पूजा के समान है।
88.८२४ . " जो नाम है, वही ईश्वर है, नाम और नामी अभिन्न हैं - यह जानकर सदा अनुरागसहित नाम लेते रहना चाहिये। कृष्ण और वैष्णव, भक्त और भगवान अभिन्न हैं यह जानकर सदा साधू-भक्तजनों की श्रद्धापूर्वक सेवा-वन्दना करनी चाहिये तथा यह जगत-संसार श्रीकृष्ण का ही है इस बात की ह्रदय में धारणा कर सब जीवों पर दया ....। ' सब जीवों पर दया ' इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण एकाएक समाधी-मग्न हो गए। कुछ देर बाद अर्ध-बाह्य अवस्था में आकर कहने लगे, " जीवों पर दया ? धत मूर्ख ! तू स्वयं कीटाणु-कीट होकर जीवों पर दया करेगा ? दया करने वाला तू कौन है ? नहीं, नहीं, ' जीवों पर दया ' नहीं-'शिव-ज्ञान से जीव की सेवा ! ' 
89.८२५ . समाज सेवा चरित्र-निर्माण का उपाय है, जीवन का उद्देश्य नहीं: पहले साधन-भजन के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लो, उनका लाभ कर लो। वे शक्ति दें तभी तुम लोगों का हित कर सकते हो, अन्यथा नहीं। (समाज सेवा करने की योग्यता केवल खादी का कुरता-पैजामा पहनने से ही प्राप्त नहीं होता-पहले मनुष्य बनना पड़ता है। )
90.८२७ . निष्काम कर्म (कैम्प आदि) एक उपाय है - उद्देश्य नहीं; जीवन का उद्देश्य है ईश्वरलाभ। कर्म तो आदिकाण्ड है -वह जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता। कर्म को जीवन का सर्वस्व मत समझो। ईश्वर से भक्ति के लिये प्रार्थना करो। यदि सौभाग्यवश भगवान तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएँ, तो क्या तुम उनसे अस्पताल-दवाखाने, कुँए-तालाब, रास्ते, धर्मशालाएं  इन्हीं सब के लिये प्रार्थना करोगे ? नहीं, ये सब चीजें तभी तक सत्य प्रतीत होती हैं,जब तक भगवान के दर्शन नहीं होते। एक बार उनके दर्शन हो जाएँ, तो ये सब स्वप्नवत, अनित्य, असार लगने लगते हैं। तब साधक उनसे केवल ज्ञान और भक्ति की ही प्रार्थना करता है। 
91.८२८ . शम्भु मल्लिक ने लोकहित के लिये अस्पताल, दवाखाने, स्कूल, रास्ते,तालाब (कैम्प ?) आदि बनवाने की बात कही थी। मैंने कहा -सामने जो काम (कैम्प आदि) आ पड़े, जिसे किये बिना चल नहीं सकता हो, ऐसे काम को निष्काम भाव से करना चाहिये। जान -बूझकर स्वयं को बहुत अधिक कामों में उलझाना ठीक नहीं, इससे मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है। 
२४ कर्म तथा नैष्कर्म्य
92.८३१ . ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होने पर कर्म-त्याग अपने आप हो जाता है। ईश्वर जिन लोगों से कर्म करवा रहे हैं, उन्हें करने दो। जिनका समय आ गया है, वे सब छोड़कर कहें, - ' मन, ह्रदय में विराजमान (ठाकुर देव) माँ को तू देख और मैं देखूँ, और कोई न देखे। 
93.८३३ . जब तक सच्चिदानन्द में मन लीन न हो जाये, तब तक उन्हें पुकारना और संसार के काम-काज करना, दोनों बातें चल सकती हैं। उनमें मन तल्लीन हो जाने पर कोई काम करने की आवश्यकता नहीं रहती।
94.८३४ . इसीलिये कहता हूँ, शुरू-शुरू में कर्म की बड़ी चहल-पहल रहती है। परन्तु तुम ईश्वर की ओर जितना ही अग्रसर होओगे, उतना ही तुम्हारा कर्म कम होता जायेगा। अन्त में सर्व कर्म-त्याग होकर समाधी होगी। समाधी होने के बाद प्रायः देह नहीं टिका करती। किसी-किसी की देह लोकशिक्षा के लिये रह जाती है -जैसे नारदादि ऋषि और चैतन्यदेवादि अवतारों का हुआ। 
कुआँ खोद चुकने के बाद कोई कोई कुदाल, कड़ाही आदि की बिदाई कर देते हैं, पर कोई-कोई उन्हें रख देते हैं- सोचते हैं, रहने दो, मुहल्लेवालों में से किसी के काम आएगा। ऐसे महापुरुष लोग जीवों का दुःख देखकर कातर होते हैं। वे ऐसे स्वार्थी नहीं होते कि सोचें, हमें ज्ञान-लाभ हुआ कि सब हो गया। 
 २५ ब्रह्म [ ईश्वर]
95.८३८ . साँप के दातों में विष होता है, उसके काटने से दूसरे लोग मर जाते हैं, पर स्वयं साँप को कुछ नहीं होता। इसी तरह, जगत में दुःख, पाप, अशान्ति आदि जो कुछ है, वह सब जीव के लिये है। ब्रह्म इस सब से निर्लिप्त है। भला,बुरा,सत -असत सब जीव के लिये है, ब्रह्म के लिये यह सब कुछ नहीं है, वह इस सब से परे है। 
96.८४१ . ब्रह्म वायु की तरह है, जो सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों को ले जाती है, पर स्वयं दोनों से निर्लिप्त रहती है। [किन्तु ब्रह्म को हमारी तरह Anosmia का रोग नहीं होता है। वे तो दुर्गन्ध-सुगन्ध में अनासक्त रहते हैं।
 Anosmia, or the loss of the sense of smell, is not often regarded as a major treatment priority. inability to perceive odor chronic sinusitis, which is treatable, will affect 11 percent of people at some point in their lives.many have been suffering in silence for years.there is a perception that nothing can be done.More than 90 percent of patients in this category can regain their sense of smell after steroid treatment to reduce inflammation.treatment depends on the cause it is necessary to know how anosmia is caused.]
 २६ ब्रह्म ही द्वैत-प्रपंच की सत्ता है 
97.८४४ . 'जगत मिथ्या है ' कहना आसान है। पर वास्तव में इसका क्या अर्थ है, जानते हो ? जैसे कपूर के जलने पर कुछ भी नहीं बचता। लकड़ी के जलने पर कम से कम रख तो बच रहती है। विचार के अन्त में समाधी होती है, तब मैं, तुम, जगत इस सब का पता ही नहीं रहता। उस अवस्था में ....विश्व-ब्रह्माण्ड लूप्त होकर सब शान्त चैतन्य स्पन्दन ..केवल अस्ति मात्र रह जाता है। जब ' व्यक्तित्व-बोध ' या 'मैं ' -पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब समाधी में ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त होता है। तब सत-असत, वास्तव-भ्रम आदि सम्बन्धी सब प्रश्नों का सदा के लिये विराम हो जाता है। 
२७ समाधि तथा ब्रह्मज्ञान
98.९१७ . यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता। समाधि हुए बिना ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता। भरे दोपहर के समय सूरज ठीक माथे के उपर रहता है। उस समय मनुष्य अपने चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती। वैसे ही यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधि होने पर अहंकार रूपी छाया नहीं रहती। यदि ठीक-ठीक ज्ञान होने के पश्चात भी किसी में 'अहं' दिखाई पड़े तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, 'अविद्या का अहं नहीं। 
99.९१८ . बुद्धदेव नास्तिक थे या नहीं ? " वे नास्तिक नहीं थे; वे अपनी उपलब्धियों के विषय में मुँह से कुछ कह नहीं सके। ' बुद्ध ' माने क्या है जानते हो ? -' बोध ' स्वरूप का चिन्तन करते हुए वही बन जाना-ज्ञानस्वरूप बन जाना। जिस अवस्था में ' स्वरूप का ज्ञान ' - होता है, वह 'अस्ति' तथा 'नास्ति ' के बीच की अवस्था है। [ जो क्षण बीत  गया, और जो क्षण आने वाला है -उसके क्रम के बीच की अवस्था। ] अस्ति तथा नास्ति प्रकृति (देश-काल-निमित्त) के गुण-धर्म हैं। यथार्थ सत्य 'अस्ति' 'नास्ति ' के परे है। "
100.८४९-५०-५२ . समाधि अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार (ठाकुर)-निराकार (सच्चिदानन्द) ईश्वर मानो माखन हैं ! और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ (मट्ठा) है। जब तक तुम माया के राज्य में हो, (जब तक 'मैं '-बोध बना हुआ है) तब तक तुम्हें माखन (ठाकुर-सच्चिदान्द) और छाछ - ईश्वर और जगत, नित्य और लीला -दोनों को स्वीकार करना ही होगा। ईश्वर का साकार रूप (ठाकुर देव) भी कम सत्य नहीं, देह, मन या बाह्य जगत की अपेक्षा वे अनन्त-गुना अधिक सत्य हैं ! कारण, जब तक समाधि न प्राप्त हो, तब तक तुम्हारी अद्वैत की धारणा भी द्वैतामत्क ही रहती है। तुम उसका निरपेक्ष वर्णन नहीं कर सकते, उसमें तुम्हारे स्वयं के व्यक्तित्व का रंग चढ़ ही जाता है। जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर (ठाकुर) भी सत्य हैं, और जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है।
२८ ईश्वर- माया- शक्ति
102.८५८ . जहाँ कहीं कार्य है - सृष्टि, स्थिति, प्रलय है - वहीँ शक्ति है। परन्तु जल स्थिर रहने पर भी जल है, और तरंग-पूर्ण होने पर भी जल ही है। वह सच्चिदानन्द ही आद्द्या-शक्ति हैं-जो सृष्टि, स्थिति, प्रलय किया करती हैं। 
103.८६१ . मेरी ब्रह्ममयी माँ ही सब कुछ बनी है। वह आद्या-शक्ति ही जीव-जगत बनी है। मेरी माँ ही वेदान्त का ब्रह्म है। वह तो ब्रह्म का व्यक्त रूप है। 
104.८६५ . अनुलोम और विलोम। 'नेति नेति ' करते हुए समाधि में पहुंचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है। फिर जब तुम समाधि से उतर कर नीचे आते हो, तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे 'अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है। 
105.८६६ . जिसका नित्य (स्वरुप) है, उसी की लीला भी है। फिर जो नित्य (अवस्था) में है, वही लीला में भी है। साधक लीला में से होते हुए नित्य में पहुँचता है; फिर नित्य में से उतर कर लीला में आता है। तब उसे लीला मिथ्या नहीं प्रतीत होती, वह नित्य की ही अभिव्यति प्रतीत होती है। 
106.८६८ . मैं सभी को स्वीकार करता हूँ। तुरीय और जाग्रत, स्वप्न-सुषुप्ति सभी अवस्थाओं को ग्रहण करता हूँ। फिर ब्रह्म और माया, जीव -जगत, सब कुछ ग्रहण करता हूँ। जिस प्रकार एक ही फल से छिलका, गूदा और बीज आते हैं, उसी प्रकार जीव, जगत, जड़, चेतन सभी पदार्थ एक ही ईश्वर से आते हैं। सब का ग्रहण न करने से वजन में कुछ कमी रह जाती है। इसीलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ। 
107.८६९ . प्रश्न- यदि ईश्वर ही सबकुछ बनें हैं, तो फिर जगत में इतनी विविधता, 'अहं' का इतना तारतम्य क्यों है ? 
उत्तर - यह उनका खेल है-उनकी लीला है ! एक राजा के चार बेटे हैं; हैं तो वे राजा के बेटे, पर खेल में कोई मन्त्री बना है, तो कोई कोतवाल, कोई और कुछ बना है। राजा का बेटा होकर ' कोतवाल कोतवाल UBS ' खेल रहा है।
 २९ साकार और निराकार 
 108.८७६ . साकार रूप में ईश्वर के दर्शन किये जा सकते हैं, उनका स्पर्श किया जा सकता है; जैसे मित्र के साथ बातचीत की जाती है वैसे ही उनके साथ प्रत्यक्ष सम्भाषण किया जा सकता है। 
109.८७८ . ईश्वर नित्य भी है और लीलामय विश्वपिता भी। अखण्ड सच्चिदानन्द ब्रह्म की धारणा नहीं की जा सकती है। वह मानो अनन्त, असीम समुद्र की तरह है, उसमें पड़ कर मनुष्य मानो  किनारा न डूबने लगता है।( ' जैसे उड़ी जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै')- परन्तु साकार लीलामय ईश्वर (ठाकुर देव) को पाकर उसे मानो किनारा मिल जाता है। 
110.८८० . भक्त के सम्मुख ईश्वर नाना रूपों में प्रकट होता है। परन्तु ज्ञानी को समाधि में निर्गुण, निराकार, निरुपाधिक ब्रह्म का ज्ञान होता है। ज्ञान और भक्ति में यही अन्तर है। 
111.८८१ . जिस प्रकार पानी ही जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार निराकार, अखण्ड, सच्चिदानन्द ब्रह्म ही भक्त की भक्ति से साकार रूप धारण करता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है, और पानी में ही मिल जाती है, वैसे ही ईश्वर का साकार रूप भी निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, उसी में अवस्थित रहता है तथा उसी में विलीन हो जाता है। 
112.८८४ . सच्चिदानन्द कैसे हैं ? कोई नहीं बता सकता।  इसीलिये पहले वे अर्धनारीश्वर बने। जानते हो, उन्होंने ऐसा क्यों किया ? - यह दिखलाने के लिये कि वे स्वयं ही प्रकृति, पुरुष दोनों हैं। फिर एक सीढ़ी नीचे उतर आकर वे अलग-अलग पुरुष (M) और प्रकृति (F) बने। 
113.८८७ . कालीमाता को योगमाया क्यों कहते हैं ? योगमाया= पुरुष और प्रकृति का योग। तुम जो कुछ देख रहे हो, वह सभी कुछ पुरुष-प्रकृति का योग है। देखा नहीं, शिव-काली की मूर्ति में शिव के उपर काली खड़ी हुई है। शिव शव जैसे पड़े हैं; काली शिव की ओर देख रही है। पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिये शिव शव जैसे पड़े हैं। पुरुष के साथ युक्त होकर प्रकृति सृष्टि-स्थिति-प्रलय आदि सभी कार्य कर रही है। राधा-कृष्ण की युगल-मूर्ति का भी यही अर्थ है। 
114.८८८ . ईश्वर की ओर तुम जितना ही अधिक अग्रसर होओगे, उतना ही उनके ऐश्वर्य का भान कम होता जायेगा। साधक को पहले दशभुजा-धारिणी दुर्गा के रूप के दर्शन होते हैं। उस रूप में ऐश्वर्य का अधिक प्रकाश है। फिर दर्शन होते हैं, द्विभुज रूप के -तब दस भुजाएँ नहीं रहतीं, उतने अस्त्र-शस्त्र नहीं रहते। फिर गोपाल रूप के दर्शन होते हैं - कोई ऐश्वर्य नहीं, केवल एक बालक का रूप है। इसके बाद भी दर्शन होते हैं -केवल ज्योति के दर्शन!
३० ईश्वर की सर्वव्यापकता
115.८९१ . ईश्वर कहते हैं, " मैं साँप बन कर काटता हूँ, और मैं ही ओझा बनकर झाड़ता हूँ, मैं हाकिम बन कर हुक्म देता हूँ, और मैं ही प्यादा बनकर मरता हूँ। " 
116.८९४ . ईश्वर इस देह में किस प्रकार रहते हैं ? जिस प्रकार पिचकारी की छड़ पिचकारी में अछूती रहती है, उसी प्रकार ईश्वर (या आत्मा) भी देह में निर्लिप्त होकर रहते हैं। 
117.८९६ . जिसमें यथार्थ विश्वास है कि ' ईश्वर ही कर्ता हैं, मैं अकर्ता, यन्त्र-स्वरुप हूँ ' उसके द्वारा कभी पाप कर्म नहीं हो सकता। जो ठीक नाचना जानता है, उसके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते। चित्त शुद्ध हुए बिना तो ' ईश्वर है ' इसी पर विश्वास नहीं होता। 
118.८९७ . क्या स्व-विवेक की सहायता से चाहें तो अच्छे काम कर सकते हैं, और चाहें तो बुरे काम भी- क्या यह free will की बात सच है ? श्रीरामकृष्ण - सब कुछ ईश्वराधीन है ! सब उन्हीं की लीला है। देखो न, बगीचे में सभी पेड़ समान नहीं होते। सज्जन, दुर्जन -सब उनकी माया है, उनका खेल है। " जब तक ईश्वर का लाभ नहीं होता, तब तक लगता है कि हम स्वाधीन हैं। "
119.९१९ . ज्ञान अज्ञान दोनों के पार हो जाओ, तभी उन्हें जान पाओगे। नानात्व का ज्ञान ही अज्ञान है। पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञान-जन्य ही है। एक ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं -इस निश्चयात्मक बुद्धि का नाम ज्ञान है। उन्हें विशेष रूप से जानना विज्ञान है। 
 ३१ समाधि के पश्चात होने वाला विज्ञान 
120.९२६ . ' नेति नेति ' विचार करते हुए समाधि-अवस्था प्राप्त होने पर आत्म-स्वरुप की उपलब्धि होती है। विज्ञान यानी विशेष रूप से (direct perception) जानना। किसी ने दूध के बारे में सुना भर है, किसी ने दूध देखा है, और किसी ने दूध पीया है। जिसने केवल सुना ही है वह अज्ञानी है, जिसने देखा है वह ज्ञानी है, जिसने पीया है, उसे विज्ञान अर्थात विशेष रूप से ज्ञान हुआ है। ईश्वर के दर्शन प्राप्त करने के पश्चात उनके साथ परम आत्मीय की तरह वार्तालाप आदि होना -इसी का नाम विज्ञान है।...विज्ञानलाभ होने बाद संसार में भी रहा जा सकता है। उस समय स्पष्ट अनुभव होता है कि ईश्वर ही जीव-जगत बने हैं, वे संसार से अलग नहीं हैं। ज्ञानलाभ करने के पश्चात जब रामचन्द्र ने कहा कि वे संसार में नहीं रहेंगे, तब दशरथ ने उन्हें समझाने के लिये वशिष्ठ को उनके पास भेज दिया। वशिष्ठ ने कहा, ' राम ! यदि संसार ईश्वर से रहित हो, तो तुम उसका त्याग कर सकते हो। ' रामचन्द्र चुप्पी साधे रहे, क्योंकि वे भली-भाँति जानते थे कि ईश्वर को छोड़कर कुछ भी नहीं है।
121.९३० . एक बार श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ से पूछा - ' तेरे जीवन का ध्येय क्या है ? " नरेन्द्रनाथ ने कहा-
" सदा समाधि में मग्न रहना। " सुनकर श्रीरामकृष्ण  बोले, " छी, छी ! तेरा इतना उच्च आधार है और तेरे मुंह से ऐसी बात ! मैंने तो सोचा था कि तू एक विशाल वटवृक्ष के समान होगा, तेरी छाया में हजारों लोगों को आश्रय मिलेगा; परन्तु वैसा न होकर तू केवल अपनी मुक्ति चाहता है ! यह तो बहुत ही तुच्छ बात है ! मुझे तो सभी भाव अच्छे लगते हैं। मैं एक ही सब्जी को कभी उबालकर, कभी तल कर, कभी उसकी चटनी बनाकर तो कभी रसेदार तरकारी बनाकर खाना पसन्द करता हूँ। मैं समाधि में निर्गुण भाव से ईश्वर का अनुभव ग्रहण करता हूँ, फिर उनके विभिन्न रूपों के साथ विभिन्न भाव-सम्बन्ध स्थापित कर आनन्द का उपभोग करता हूँ। तू भी ऐसा ही करना। [सर्वोच्च कृपा ] तू एक ही आधार में ज्ञानी और भक्त दोनों बन। " 
122.९३१ . लोग नहीं समझते कि विज्ञान केवल इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं के ही बारे में ज्ञान प्रदान करता है, इन्द्रियातीत राज्य की कोई खबर वह नहीं देता। प्राचीन ऋषियों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। 
123.९२१ . जीव के मरे बिना शिव प्रकट नहीं होता, अर्थात जीवत्व के नष्ट हुए बिना शिवत्व प्राप्त नहीं होता। फिर, शिव के भी शव बने बिना - माँ आनन्दमयी उसके ' वक्षःस्थल ' पर नृत्य नहीं करती। अर्थात इस ' शिवत्व-अभिमान ' का भी अतिक्रमण करने के बाद ही सर्वोच्च आनन्द की अवस्था प्राप्त होती है।
124.९२३ . अहंकार के दूर होते ही, जीवत्व का नाश हो जाता है। इस समाधि की अवस्था में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। जीव नहीं, ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। [' आत्म-बोध तुमको नहीं आत्मा को हुआ था।? ]
३२ सिद्धि-प्राप्ति के कुछ लक्षण
125.९५० . ईश्वर के दर्शन होने पर देहात्मबुद्धि चली जाती है, तब देह और आत्मा अलग-अलग है, यह अनुभव हो जाता है। 
126.९५४ . साँप को पकड़ने जाओ तो तुरन्त काट खाता है, पर कोई अगर उसका मन्त्र जान ले तो कई साँपों को अपने गले में लपेट कर खेल दिखा सकता है। उसी प्रकार, ज्ञानलाभ कर लेने के पश्चात मनुष्य पर कामिनी-कांचन का परिणाम नहीं होता। 
127.९५८ . दूध को पानी में छोड़ दो तो वह पानी के साथ मिलकर एक हो जाता है, परन्तु उसका मक्खन बना लिया जाये तो फिर वह पानी में नहीं मिलता, तब वह पानी पर तैरने लगता है। इसी तरह, ईश्वर लाभ कर लेने के पश्चात मनुष्य हजारों संसारासक्त बद्ध जीवों के बीच रहकर भी स्वयं बद्ध नहीं होता। फिर भी संसार के सामने आदर्श रखने के लिये उसे कामिनी से सावधानी बरतनी चाहिये। 
128.९७१ . ईश्वर को जानकर संसार में रहने से अपनी ब्याहता पत्नी के साथ प्रायः सांसारिक सम्बन्ध नहीं रहता। दोनों भक्त बन जाते हैं, और सदा ईश्वर-सम्बन्धी वार्तालाप करते हैं, ईश्वरीय प्रसंग में ही मग्न रहते हैं। वे दोनों भक्तों की सेवा करते हैं। सर्वभूतों में ईश्वर विद्यमान हैं, वे उन्हीं के सेवा करते हैं। 
३३ यथार्थ शिक्षा और धर्म
129.९७२ . मैं दाल-रोटी प्राप्त करने वाली विद्या नहीं सीखना  चाहता; मैं ऐसी विद्या सीखना चाहता हूँ, जिसे ज्ञान का उदय होकर मनुष्य वास्तव में कृतार्थ हो जाता है। 
130.९८२ . मैंने हिन्दू, इस्लाम, ईसाई आदि विभिन्न धर्मों की साधना की है, मैंने देख लिया है कि विभिन्न मार्गों से होते हुए सभी उस एक ही ईश्वर की ओर अग्रसर हो रहे हैं। 
३४ श्रीरामकृष्ण का अखण्ड भगवदभाव
131.९८७ . ' ॐ तत् सत् ' मन्त्र में से केवल 'तत् ' का उच्चारण करते ही श्रीरामकृष्ण उच्च निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुँच जाते थे। 'सत् ' कहने पर उसके सापेक्ष 'असत् ' की भी सुप्त चेतना कहीं रह सकती है, तथा परम पवित्र ' ॐ ' में भी कुछ न्यूनता रह सकती है; किन्तु 'तत्  ' का उच्चारण करते ही उनकी चेतना से सापेक्षता की सभी कल्पनाएँ सम्पूर्ण रूप से विलुप्त हो जातीं, सत् और असत् के बीच के सभी भेद विलीन हो जाते, तथा वे उस सर्वातीत, निरपेक्ष एकत्व की अनुभूति में निमग्न हो जाया करते। 
132.९९७ .एक बार मुझे दर्शन हुआ था -देखा सारा ब्रह्माण्ड और सभी जीव -जन्तु आदि एक ही पदार्थ से बने हुए हैं; मानो मोम का बना घर हो, उसमें बगीचा, रास्ते, आदमी, जानवर सब कुछ एक ही मोम से बने हों। 
३५ भला और बुरा सब में भगवान हैं
133.१००० . माँ ने मुझे समझा दिया -'वेश्या भी मैं ही हूँ; मेरे सिवा कुछ नहीं है। ' snr dns,pda 'और एक दिन गाड़ी में बैठकर मछुआ-बाजार की सडक पर से जाते देखा - माँ सज-धज कर, जूड़ा बाँधे, बिन्दी लगाये बरामदे में खड़ी-खड़ी हुक्के में तमाखू पी रही है और मोहिनी बनकर लोगों का मन मोह रही है। देखकर मैंने विस्मित होकर ' माँ, तू यहाँ इस रूप में है ' कहकर प्रणाम किया। 
134.१००१ . चैतन्य के जागृत होने पर ही चैतन्यस्वरूप को जाना जा सकता है। बहुत दिन हुए, वैष्णवचरण ने कहा था, जब मनुष्य के भीतर ईश्वर के दर्शन होंगे, तभी पूर्ण ज्ञान होगा। अब देख रहा हूँ कि वे ही भिन्न-भिन्न रूपों में घूम रहे हैं। कभी साधू के रूप में, कभी ठग के रूप में, तो कभी शठ के रूप में। इसीलिये मैं कहता हूँ,' साधू-रूपी नारायण, ठग-रूपी नारायण, शठ-रूपी नारायण, लुच्चा -रूपी नारायण '। अब चिन्ता होती है सब को खिलाया कैसे जाय ! 
 ३६ श्रीरामकृष्ण की व्याधि 
135.१००७ . देह को रोग होने पर ऐसा लगता है कि मुझी को रोग हुआ है। गरम पानी से हाथ जल जाने पर लोग कहते हैं, पानी से हाथ जल गया। किन्तु वास्तव में हाथ ताप से जला पानी से नहीं। व्याधि, पीड़ा -सब देह को हुआ है, आत्मा इन सब के अतीत है। माँ ने मुझे यह व्याधि इसलिये दी है कि लोग देखकर सीख सकें, कि देह में तीव्र पीड़ा के होते हुए भी किस प्रकार आत्मचिन्तन में, भगवद-भाव में मग्न रहा जा सकता है। ...ऐसे समय में भी माँ मुझे यही दिखा रही है कि आत्मा ही देह का स्वामी है। 
 ३७ श्रीरामकृष्ण का देवमानव भाव 
138.१०१० . अब मैं देख रहा हूँ, माँ और मैं दोनों एक बन गये हैं। ननद के डर से राधा ने कृष्ण से कहा-' तुम मेरे ह्रदय में  रहो; बाहर न आओ। ' फिर वह कृष्ण का दर्शन करने के लिये व्याकुल हो गयी, इतनी व्याकुल कि ह्रदय में तीव्र यातना होने लगी। परन्तु अब कृष्ण किसी दशा में बाहर आने का नाम ही न लेते थे। 
139.१०१२ . प्रसिद्द पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि की बातें सुन रहा था; इतने में देखा, माँ मानो उसके भीतर का सब कुछ दिखा दे रही है। - शास्त्र-वास्त्र बहुत पढ़ लेने से क्या होगा ? विवेक-वैराग्य न हो तो सब निरर्थक है ! 
140.१०१५ . एक गुप्त बात बतलाता हूँ, सुनो। मुझे एक दिव्य दर्शन हुआ। देखा - इस आवरण (देह) के भीतर से सच्चिदानन्द बाहर निकल आये और बोले - " मैं ही युग युग में अवतार लेता हूँ ! " उस समय मैंने सोचा कि शायद मैं स्वयं ही अपने ख्यालों में ये सब बातें कह रहा हूँ। फिर चुपचाप देखने लगा, तब देखा वे ही और भी कह रहे हैं, ' चैतन्य ने भी शक्ति की आराधना की थी '।



  

     

बुधवार, 17 जुलाई 2013

वेदान्ती साम्यवाद

 
जब कोई व्यक्ति बिन्दु से सिन्धु बन जाता है, या यथार्थ मनुष्य बन जाता है तो उसका ह्रदय अनन्त तक विस्तृत हो जाता है। तब उसे धर्म लाभ होता है, और वह बोल पड़ता है -
अयं निजो परेवेति गणना लघुचेतसाम, 
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।
किन्तु जब इस तरह के यथार्थ धर्म का पतन हो जाता है तब हर स्थान में कोई महापुरुष आविर्भूत हो जाते हैं, जो धर्म को पुनः स्थापित करते हैं। एक ऐसा समय भी आया था जब सभी धर्म पतित हो गये थे। उस समय सभी धर्मों को फिर से स्थापित करने के लिये श्रीरामकृष्ण देव आविर्भूत हुए थे। उन्होंने केवल हिन्दू धर्म को ही स्थापित नहीं किया था, बल्कि इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म सभी उपासना मार्गों से धर्म लाभ करने के बाद कहा था - 'जितने मत उतने पथ।' इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने ' ठाकुर देव ' को 
अवतार वरिष्ठ घोषित करते हुए प्रणाम-मन्त्र की रचना की थी - 
ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे,
 अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः।
हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि श्रीरामकृष्ण देव स्वामी विवेकानन्द के गुरु थे इसीलिये पक्षपात करके उन्हें अवतार वरिष्ठ कह दिया होगा। जब ' शिकागो भाषण ' के बाद पूरे अमेरिका में उनका नाम प्रसिद्द हो गया, जब सम्पूर्ण भारत उनको जानने लगा, तो लोगों में यह स्वाभाविक जिज्ञाषा हुई कि ऐसे विलक्षण वक्ता का गुरु कौन है ? सभी लोग उनसे अनुरोध करने लगे कि आप अपने गुरुदेव के बारे में कुछ बताइये। किन्तु वे  उनके विषय में कुछ कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे। जब उनसे बहुत अनुरोध किया गया तब उन्होंने कहा, " मेरे गुरुदेव इतने महान थे, इतने असीम थे, कि उनके बारे में कुछ भी कहने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि असीम अनन्त को शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है। कई बार पूछने से वे इतना ही कह सके कि - " श्रीरामकृष्ण प्रेमस्वरूप हैं !
 " He is LOVE personified !" वे तो प्रेम की साकार मूर्ति थे ! " उन्होंने इस प्रणाम मन्त्र को हावड़ा में जिस गृहस्थ के पूजा-गृह में ठाकुर की जिस छवि के सामने बैठकर रचा था, वह चित्र आज भी वहाँ उसी प्रकार रखी हुई है। प्रश्न हो सकता है कि प्रेम-स्वरूप भगवान (ठाकुर देव) को " अवतार-वरिष्ठ " मनुष्य देह धारण करके आविर्भूत क्यों होना पड़ा ? क्योंकि यह मानव मनोविज्ञान (human psychology ) का एक नियम है कि "श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।"
   
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
                     स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।गीता 3 /21।।

केवल धर्म-ग्रंथों से ही काम नहीं चलता है; यत्  यत्  अचरति  श्रेष्ठ: = श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है; इतरः जनः -दूसरे लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं। " स: यत्  प्रमाणम्  कुरुते लोक: तत् अनुवर्तते " -पुरुषोत्तम (भगवान) स्वयं मनुष्य शरीर धारण करके अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं। श्रेष्ठ लोग (वर्तमान सन्दर्भ में नेता ) जैसा आचरण करते हैं उसी का अनुकरण जनता भी करती है । इसीलिये महामण्डल के जो 'नेता ' केवल भाषण या प्रवचन देकर ही नहीं, बल्कि स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में उतार कर, अपने जीवन को ही ' उदहारण स्वरुप ' गठित करके लोगों के समक्ष रखने में समर्थ होंगे, दूसरे लोग उसका ही अनुसरण करेंगे। इसी कारण सर्व शक्तिमान भगवान मनुष्य शरीर धारण करके अपने जीवन में आचरण द्वारा शास्त्र को मर्यादा देते हैं, और अपने जीवन को ही प्रमाण बनाकर
' युग-धर्म ' के आदर्श को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनके जीवनादर्श से शिक्षा प्राप्त करके अन्य लोग उनके द्वारा निर्देशित धर्म-मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार श्री भगवान संसार में धर्म-संस्थापन करते हैं।     
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
           अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।4 /7।।

हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूपको रचता हूँ (अर्थात् साकार रूपसे प्रकट होता हूँ) । इसीलिये समय के प्रवाह में जब संसार में अधर्म बढ़ जाता है, तब वे मानों अपना कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानी दूर करने के लिये भगवान संसार में अवतीर्ण होते रहते हैं। जीव-जगत के कल्याण के लिये स्वयं श्रीभगवान का आविर्भूत होना जगत के अध्यात्मिक इतिहास में घटित होने वाली एक अनिवार्य घटना है। हर युग में ऐसा ही होता आया है। 
इसीलिये जब सभी धर्मों में ग्लानी आ गयी और अधर्म का उत्थान हो गया तो श्रीभगवान (श्रीरामकृष्ण) ने अपनी आत्मा को प्रकट कर दिया, यही सार बात है। " तदात्मानं सः सृजस -इमानी बभूव भारत ।"  ऐसा नहीं है कि बुद्ध देव ने तो केवल इतना ही कहा था कि " मैं जाग गया हूँ "; इसीलिये ठाकुर देव उनसे बड़े थे। बल्कि वर्तमान युग में विभिन्न नाम वाले धर्मों के लिये एक दूसरे के प्रती केवल सहिष्णुता (tolerance ) या सम-भाव रखना ही पर्याप्त नहीं हो रहा था, वर्तमान युग की आवश्यकता विश्व के समस्त धर्मों में समन्वय लाने की थी, अर्थात एक दूसरे के धर्म में निहित सार बातों को अंगीकार (acceptance ) करने की थी। इसीलिये  विभिन्न मतावलम्बियों के भिन्न भिन्न उपासना पद्धतियों द्वारा साधना (तुलनात्मक अध्यन ) करके सभी धर्मों के भीतर एक ही सत्य अन्तर्निहित है - को  उद्घाटित करना होगा, उन्हें संस्कारित करना होगा, अर्थात सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बियों के भीतर 'धर्म ' की भावना को जाग्रत करके पुनः प्रतिष्ठित करना, युग-धर्म है ! यह बोध विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में केवल श्रीरामकृष्ण ने ही स्थापित किया है, इसीलिये स्वामीजी उनको  अवतार-वरिष्ठ कहते हैं।
' तद समः कोSपी न दृश्यते '- उनके बराबर का दूसरा कोई अवतार दिखाई नहीं देता है। श्रीरामकृष्ण ने यह कभी नहीं कहा कि केवल मेरा धर्म ही ठीक है, अतः विश्व के सभी मनुष्यों को मेरा धर्म ग्रहण करना ही पड़ेगा ! उन्होंने तो यह कहा था कि विश्व के सभी धर्म सही हैं ! ' जितने मत उतने पथ ' हैं, और सभी ठीक हैं। ठाकुर देव की इसी उक्ति को प्रतिध्वनित करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "  वेदान्त सब धर्मों का बौद्धिक सार है। वेदान्त के सागर में हिन्दू, पारसी, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी एक हो जाते हैं। " आज तक के मानव इतिहास में इस तरह की घोषणा अन्य किसी महापुरुष ने नहीं की है। यह बात पुराणों में भी नहीं है। श्रीरामकृष्ण के धरती पर अवतरित होने के पहले तक धर्म के ही नाम पर एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संघर्ष, हत्या, दंगा-फसाद क्या क्या नहीं होता रहा है, क्या इसी को धर्म कहा जाता है ? एक लाख में से कोई एक आदमी ही शायद धर्म को सही रूप में समझते होंगे। जिसको हमलोग हिन्दू धर्म कहते है, वास्तव में उसका नाम सनातन धर्म है।
" तंत्र  वक्ता शिव साक्षात् " तन्त्रों के वक्ता स्वयं साक्षात् शिव हैं, और सुनने वाली स्वयं माता पार्वती हैं। जब भगवान शिव बोलते हैं, और माता पार्वती सुनती हैं, तो उसको आगम कहा जाता है, और जब माँ पार्वती बोलती हैं, और शिव श्रोता होते हैं, उसे निगम कहा जाता है। [आगम और निगम आध्यात्म के दो पंख हैं। जिनके सहारे साधक साधना जगत में उड़ान भरते हैं। उन्होंने कहा कि दोनों के संयोग से त्रिगुणातीत की अवस्था प्राप्त होती है जिससे समाधि प्राप्त होना तय है।] यही है सनातन धर्म जो शास्वत है। उसको धर्म नहीं कहते हैं, जिसका एक दिन जन्म होता है, जो कुछ वर्षों तक स्थित रहता है, फिर उसका अन्त हो जाता है। जिस सम्प्रदाय या मतवाद में ऐसी मान्यता हो उसे मतवाद (Religion) कहा जा सकता है, किन्तु उसे धर्म नहीं कह सकते हैं। भागवत में युधिष्ठिरजी देवर्षि नारद से पूछते हैं कि " सनातन धर्म क्या है ? आप मुझे समझाइये। " भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् । " (७/११/२) 
उसके उत्तर में नारदजी ने जो बताया है, वह मार्क्स के साम्यवाद से हजार गुना उत्कृष्ट सिद्धान्त है-नारदजी कहते हैं, "वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ ७/११/ ५ ॥ " युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है।" 

अन्नाद्यादेः संविभागो भुतेभ्यश्च यथार्थतः ।

             तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥७/११/ १०॥



अर्थात समाज में अन्नादि (खेतों में या फैक्ट्रियों में ) जो कुछ भी उत्पादन होगा, उस 'सकल घरेलू उत्पाद' 'GDP' को समस्त प्राणियों में यथायोग्य विभाजन, समाज के सभी वर्ग के लोगों में जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। किन्तु 'सकल घरेलू उत्पाद' का वितरण करने वाले (जो कर्मचारी या नेता) होंगे उनको वितरण करते समय विशेष करके मनुष्यों -" तेष्वात्मदेवताबुद्धिः" में अपनी आत्मा या अपने इष्टदेव को देखते हुए वितरण करना होगा। इसको कहते हैं- सनातन धर्म !! 
 (इसका पालन करने से स्कूलों में मिड डे मिल खाने वाले बच्चे कभी मर नहीं सकते हैं।)-अर्थात जिनको भी मैं अन्न या विद्या दान कर रहा हूँ, वे सभी मनुष्य हमलोगों के अपनी ही आत्मा-देवता  हैं इस बुद्धि से देना होगा। ' शिव ज्ञान से जीव सेवा करना ' -यही है सनातन धर्म ! किन्तु मार्क्स यह नहीं बता सके कि सकल घरेलू उत्पाद को क्यों सभी मनुष्यों में उसकी आवश्यकता के अनुसार वितरित करनी चाहिये ? वहीँ सनातन धर्म इस सच्चाई को स्पष्ट करता है, की सभी मनुष्य बिल्कुल मेरी आत्मा ही हैं। या सभी मानव शरीर देवालय है, जिसमें मेरे इष्टदेव रहते हैं, इस बुद्धि से वितरित करना होगा।
 किन्तु इस धर्म का नाम सनातन धर्म है, हिन्दू -धर्म नहीं है।  स्वयं को सनातन -धर्म या वैदिक धर्म का अनुयायी अथवा  "वेदान्ती " नहीं कहकर हिन्दू कहना स्वयं को छोटा करना है। यदि आज के युवा धर्म की इस परिभाषा को समझ ले, और अपना जीवन गठित करके यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने के कार्य में लग जाये तो उस नये मनुष्यों से नया और महान भारत निर्मित हो जायेगा। हमलोग जो कुछ यहाँ सुन रहे हैं, उसे अपने जीवन में उतार लें, तो हमारा जीवन बदल जायेगा, जिसके फलस्वरूप समाज भी बदल जायेगा, नई दुनिया आ जाएगी। सबकुछ चेतन है, जड़ कुछ भी नहीं है, सब कुछ एक है, दो कुछ नहीं है, भीतर से सब एक हैं, हाँ अभिव्यक्ति के तारतम्य में अन्तर अवश्य होता है। श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण जगत को इसी भाव की शिक्षा देने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तर्क दे सकते हैं, कि उनको तो व्याकरण का कुछ भी ज्ञान नहीं था, वे स्वयं अनपढ़ थे तो मूर्ख व्यक्ति हमें क्या सिखा सकता है? इसीलिये आचार्य शंकर ने कहा था -
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥ (भज गोविन्दम्)
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है। 
श्रीरामकृष्ण एक कथा सुनाते थे- " एक दिन कोई शास्त्रों के ज्ञाता पण्डितजी एक नाव में बैठकर नदी पार कर रहे थे, उसी समय वे माँझी को शास्त्र का उपदेश देने लगे। उन्होंने माँझी से प्रश्न किया, क्या तुमने रामायण या भागवत आदि कुछ नहीं पढ़ा है ? तब तो तुम्हारा आधा जीवन व्यर्थ ही बीत गया। माँझी ने कहा, बाबा मैं तो अनपढ़ हूँ, आप शास्त्रों के ज्ञाता हैं, किन्तु मैं तैरना जानता हूँ। क्या आप तैरना जानते हैं ? देखिये सामने बहुत बड़ा तूफान आ रहा है, और आप यदि तैरना नहीं जानते हैं, तब तो आपका पूरा जीवन ही चला गया - मैं तो चला, और वो नाव से कूद गया। " ' डुकृञ् ' व्याकरण का सूत्र है जो क्रिया पद में लगता है, यह बात कोई जानता हो, किन्तु तैरना नहीं सीखा हो, अर्थात सत्संग या पाठ-चक्र में नहीं जाता हो, तो उसको इस भव-सागर में संसार-समुद्र में डूबना ही होगा। 
हम युवाओं को स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिये - धर्म किसे कहते हैं ? क्या मैंने धर्म को सीखा है ? यदि स्वयं नहीं सीख सकते हो, तो किसी खेवैया के ' तरणी ' को पकड़ लो। ' वैतरणी ' कहते हैं, उस माँझी को जो स्वयं नहीं डूबे और तुम्हें भी पार करा दे। यही है धर्म का सच्चा भाव जो ठकुर,माँ स्वामीजी के जीवन से प्राप्त होता है। दक्षिणेश्वर स्थित ठाकुर के कमरे में आप आज भी बुद्ध, महाबीर, ईसा, चैतन्य सभी के चित्र देख सकते हैं।
इसीलिये स्वामीजी कहते थे,   "वेदान्त जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है। वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है, जगत को ब्रह्मरूप देखना। वेदान्त का प्रतिपाद्य है - ' विश्व का एकत्व', केवल विश्व बन्धुत्व नहीं। धर्मान्धों का कोई धर्म नहीं होता। प्रत्येक सम्प्रदाय एक एक महान सत्य को अभिव्यक्त कर रहा है। हर बून्द अपने में सम्पूर्ण सागर छिपाये हुए है। सम्प्रदाय अवश्य रहें, पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाये। विश्व में केवल एक आत्म-तत्व (अल्ला या ब्रह्म) है, सब कुछ केवल ' उसी ' की अभिव्यक्ति है। अब प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में धर्म का कोई उपयोग है ? हाँ, वह मनुष्य को अमर बना देता है, उसने मनुष्य के निकट उसके यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित किया है और वह मनुष्य को ईश्वर बनायेगा। यह है धर्म की उपयोगिता। मानवसमाज से धर्म को पृथक कर लो, तो क्या रह जायेगा ? कुछ नहीं, केवल पशुओं का समूह।"



मंगलवार, 16 जुलाई 2013

धर्म क्या है ? [एक लाख लोगों में से कोई एक व्यक्ति भी समझ ले तो बहुत है ! 1.कैम्प नोट २००५ सरीसा आश्रम ]

[PC पूज्य दादा ने कहा है कि २००५ का ऐन्युअल कैम्प का मनःसंयोग क्लास सबसे अच्छा हुआ था। उस कैम्प में आठ राज्यों से १०६६ कैम्पर्स आये थे।अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर जैसे आयोजन अगर जीवन में आगे बढ़ने और चलते रहने का पाठ पढ़ाते हैं तो कहीं यह सीख भी देते हैं कि पल भर ठहरकर हम अवोकन कर लें, अपनी दिशाएं स्पष्ट कर लें और पीछे जो भूलें हुई हैं, उन्हें ठीक करते हुए आगे बढ़ चलें। यह शिविर विचार मंथन का अवसर है। यह केवल स्वामी विवेकानन्द का गुणगान करने या उनके प्रति आस्था और  विश्वास व्यक्त करने का उत्सव नहीं है। यह एक ऐसी घड़ी है, जो विगत ४५ वर्षों से प्रति  वर्ष २५ से ३० दिसम्बर तक आयोजित होती आ रही है। और एक युवाओं को एक नए युग के द्वार पर छोड़ जाती है। यही वह घड़ी है जो सोने वालों को जगाने, जागे हुओं को उठ खड़े होने और जो उठ गए हैं, उन्हें चल पड़ने की सीख देती है।अब कोई कारण नहीं है कि भारत के एक सौ बीस करोड़ लोग निराशा के भाव में जीने को विवश हों और कोई कारण नजर नहीं आता कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत-निर्माण सूत्र - ' Be and Make ' को जीवन में उतार  लेने से भारत का उदय न हो! 
अगर महेन्द्र और संघमित्रा, तथागत की करुणा और प्रेम लेकर श्रीलंका जाते हैं तो क्या वे उदय की ही बात नहीं करते? जब स्वामी विवेकानंद सात समंदर पार जाकर भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा फैलाते हैं तो क्या वह वैभव के शिखर पर पहुंचने की उत्कंठा का असर नहीं है ?  और गुलामी के काले, अंधेरे दिनों में श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द जैसी विभूतियों का अवतरित होना क्या यह नहीं बताता कि भारत में उदय होने की प्राणशक्ति उपस्थित है? यह युवा प्रशिक्षण शिविर उदय का उत्सव है, जो यह स्मरण कराने आता है कि उठो, जागो और चल पड़ो, तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। स्वामीजी ने सिंहनाद करते हुए घोषणा की थी, " विश्व के वर्तमान मानचित्र पर आज के अनेक विकसित और विकासशील राष्ट्रों का जब नामोनिशान भी नहीं था और आज के अनेक मत-पंथों और उनके सूत्रधारों को पैदा होने में भी जब कई सदियां शेष थीं, तब भी भारत का जगमगाता हुआ अस्तित्व था।"
हमारी संस्कृति "बीती ताहि बिसारिए" में विश्वास रखती है ताकि आगे की सुध ली जा सके। हम वर्तमान में विश्वास रखते हैं ताकि भविष्य की मजबूत बुनियाद खड़ी कर सकें, अलगाव में हमारी आस्था नहीं है। हम केवल अपने हित की नहीं सोचते, दूसरों के कल्याण की कामना भी करते हैं। यही उचित अवसर है जब हम अपनी सनातन संस्कृति की अमृतधारा से टूटकर अलग हुए समुदायों को निकट लाएं और हमारे ये प्रयास तब तक जारी रहें जब तक कि हम उन्हें उसी अमृतधारा से नहीं जोड़ लेते। हमलोग पन्थ-निरपेक्ष हैं या धर्म-निरपेक्ष हैं ? अगर राष्ट्र सर्वोपरि है तो संस्कृति की धारा में हमें एक साथ चलना होगा और वही सच्चे अर्थों में एकता होगी। पंथ-निरपेक्षता का भी तभी कोई अर्थ होगा। जब तक मजहबी मान्यताएं राष्ट्र की मूल सांस्कृतिक धारा के साथ जुड़ना नहीं सिखातीं तब तक यह चुनौती शेष है। इसलिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर जैसे समागम एक प्रकार से बार-बार आते आमंत्रण हैं, जो समस्त सम्प्रदाय के युवाओं को बिना किसी भेदभाव के एक जगह एकत्र होने का अवसर देते हैं।
यह शिविर समस्त समाज, राष्ट्र और मानव जाति के लिए शुभ का निमित्त बने, यही कामना है। हम अपने आस-पास के खतरों के प्रति सजग रहें, चुनौतियों का सामना करने में सबल हों, सोये हुओं को जगाएं, जागे हुओं को खड़ा करें और जो उठकर खड़े हो सके हैं, उन्हें अपनी शुभयात्रा का साथी बनाएं। स्वयं भी गतिमान हों और दूसरों को भी गति दें, ' Be and  Make ' ! क्योंकि यही जीवन का लक्षण है, यही ऋषियों का संदेश है और प्रशिक्षण-शिविर का सार भी यही है- चरैवेति, चरैवेति। ॐ भद्रं ताक्षर्यो अरीष्ट्नेमिः हम भगवान का आराधन करते हुए अपने कानो से केवल कल्याणमय वचनों को ही सुने,गरुड़ देव हमारे कल्याण का पोषण करें।]
कल शाम को महामण्डल का आदर्श उद्देश्य एवं प्रतीक चिन्ह (Emblem ) तथा ध्वजा के बारे में सुना कि
 ' मनुष्य' बनना पड़ता है। अंग्रेजी के कवी ब्राउनिङ्ग की प्रसिद्ध कविता है  - 
  " Progress, man's distinctive mark alone,
 

Not God's, and not the beasts: God is, they are;
 

Man partly is, and wholly hopes to be. "
 
 
 " उन्नति की आशा - केवल मनुष्यों की है विशिष्ट पहचान !  
   
 यह तो पशु प्रजातियों की है, 

  और नहीं है भगवान की पहचान
।   


ब्रह्म तो हैं ही पूर्ण, रहते सदा स्व-महिमा में स्थित,

      
पशु-प्रजातियाँ भी हैं बँधी, जो थीं; रहती उम्र-भर उसी में ग्रथित।   

 
  मनुष्य - अभी तो है अपूर्ण, फिर भी उसे आशा -
 

' पूर्ण ' बन जाने की है !



 -अर्थात उन्नति,आरोहण या संसार-सागर से पार-गमन (crossing) की चेष्टा करने की आवश्यकता ईश्वर को  नहीं है, पशुओं में तो इसकी क्षमता भी नहीं है,यह केवल मनुष्यों का ही वैशिष्ट्य है। ईश्वर तो पूर्णता में ही विराजमान रहते हैं, उनके आरोहण (ascension) का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पशु की प्रजातियाँ (गाय-भैंसें,गधे आदि) ' सतयुग ' में जैसे थे, आज तक  वैसी ही हैं। किन्तु अपूर्ण होने पर भी मनुष्य पूर्णता में पहुँचने की आशा लेकर उन्नति के लिये प्रयत्न करता है। और जीवन-मृत्यु से होता हुआ मनुष्य निरन्तर अंश से पूर्णता की दिशा में ही बढ़ता  रहता है।
यह ठीक है कि मनुष्य जन्म के समय अपूर्ण रहता है, किन्तु पूर्णता या बुद्धत्व उसके भीतर जन्म के समय से ही क्रम-संकुचित रहता है। स्वामीजी कहते हैं- " Religion is the manifestation of the natural strength that is in man. A spring of infinite power is coiled up and is inside this little body, and that spring is spreading itself. ...This is the history of man, of religion, civilization, or progress. "   
" मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान ( बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित) है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति का-इतिहास !" 
यही बुद्धत्व या पूर्णत्व पशु योनियों में भी क्रम-संकुचित अवस्था में रहता है, किन्तु उनको पुरुषार्थ करने या सद्गुरु के पास जाकर अपने पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने की विद्या सीखने का अवसर नहीं है।पशुओं का अन्तःकरण मनुष्यों के जैसा उन्नत नहीं होता कि वे भी अपने गुरु के पास जाकर शाश्वत और नश्वर में विवेक-विचार करना सीख सकें। इसलिये वे जीवन भर पशु के जैसा-आहार,निद्रा, भय और मैथुन करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। 
किन्तु मनुष्य योनि सर्व-श्रेष्ठ योनि है, वह भोग योनि नहीं है, मनुष्य भी पशु के जैसा आहार,निद्रा, भय और वंश-विस्तार करते हुए एक दिन बूढ़ा होकर मर जाने के लिये बाध्य नहीं है। मनुष्य अपने गुरु से विवेक-प्रयोग करने की विद्या सीखकर आंशिक मनुष्य और आंशिक पशु की मिली-जुली अवस्था से पूर्ण-मनुष्य में उन्नत हो सकता है। गुरु स्वामी विवेकानन्द ने इसी अंश से पूर्ण मनुष्य बन जाने का आह्वान करते हुए युवाओं से कहा था-" मनुष्य तीन प्रकार के गुणों से निर्मित है,पाशविक, मानवीय और दैवी। जो तुममें दैवी गुण बढ़ाता है वह पूण्य है और जो तुममें पशुता बढ़ाता है वह पाप है।  तुमको पाशविक वृत्ति को समाप्त कर 'मनुष्य ' बनना चाहिये -अर्थात प्रेममय तथा उदार होना चाहिये। इससे भी उपर उठकर तुम्हें शुद्ध आनन्द, सच्चिदानन्द, अदाहक अग्नि के समान, अद्भुत प्रेममय किन्तु मानवीय प्रेम की दुर्बलता से रहित, दुःख की भावना से रहित बनना चाहिये।" युवाओं के प्रति उनका आह्वान था- Be and Make ! पहले Be होने अर्थात यथार्थ मनुष्य बनने को कहा फिर उसका उपाय बताते हुए कहा था- Make ! ' अपने भीतर ब्रह्म-भाव को जाग्रत रखने का सबसे सरल तरीका है, दूसरों को इस कार्य में सहायता करना। ' तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्य बनाने के प्रयत्न (पुरुषार्थ) में आगे बढ़ो! आगे बढ़ो! चरैवेति चरैवेति ! यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। 
" कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।

 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 

चरैवेति चरैवेति॥
 ऐतरेय ब्राह्मण के इस श्लोक का अर्थ है- जो सो रहा है अर्थात जो पाशविक वृत्तियों को तुष्ट करने में लगा हुआ है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है (वीरभाव या सन्तान भाव का साधक है) लेकिन जो चल पड़ता है, वह कृतयुग, सतयुग और स्वर्णयुग (देवभाव का साधक) बन जाता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो। लक्ष्य के प्राप्त होने तक बिना विश्राम लिये चलना और चलते रहना ही जीवन का लक्षण है।
 आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।  किन्तु धर्म क्या है ? यदि एक लाख लोगों में कोई एक व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता हो तो बहुत होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के अनुसार विचार करके धर्म के बारे में अपनी कोई धारणा बना लेता हैधर्म के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात – जिसे समझना हर किसी को जरूरी है, वह है-धर्म और मत (Religion या सम्प्रदाय जो किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित किया जाता है।) का अंतर। इसे न समझने के कारण मत यानी मजहब (सम्प्रदाय) को भी धर्म कह कर, ' धर्मावलम्बी ' होने को ' मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची  मान कर जीवन भर भ्रम में पड़ा रह हर मजहबी टकराव को धर्म का फंसाद कह दिया जाता है।
  मनुष्य और पशु में अन्तर क्या है ? पशु पराधीन रहता है, वह इन्द्रियों के वश में रहता है। स्वर्ग प्राप्ति की कामना, भोग वांछा की कामना, कल्प-वृक्ष पाने की कामना,कामधेनु की कामना भी पशु भाव है।  भीतर की पशुता से मुक्त हो जाने की साधना का नाम ही पुरुषार्थ है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चार पुरुषार्थ में पहला पुरुषार्थ है- " धर्म "! मनुष्य को एक विशेष वस्तु प्राप्त है, जिसको धर्म कहा जाता है। ये ' धर्म ' जिसमें नहीं है, उसका ढाँचा तो मनुष्य का है, किन्तु आचरण में वह पशु के बराबर होता है, क्योंकि वह भी इन्द्रियों के वश में रहता है।
 हमारे शास्त्र कहते हैं -
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
 आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥ 
- अर्थात धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! उसको भली-भांति धारण करो। जो कुछ तुम्हें अपने लिए हितकर प्रतीत नहीं होता, उसका व्यवहार दूसरों पर न करो। अर्थात सम्पूर्ण धर्म का सार एक ही है इसीलिये कभी किसी पर अपनी मान्यता बलपूर्वक न थोपो। कुछ नादान लोग " धर्म " का अर्थ Religion,या मतवाद या मजहब समझते हैं, इसीलिये वे इस धारणा को किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं करते। उनकी धारणा के अनुसार उनकी जो मान्यता है वही सत्य है और जो उसका स्वीकार नहीं करेंगे उन्हें तलवार की धार से वे समाप्त कर देंगे। 
 इसीलिये मात्र राजनीति के लिए ' सर्व-धर्म समभाव ' की लुभावनी बातें करना एक अलग बात है तथापि, दुर्भाग्य से विभिन्न नाम वाले  मजहबों; में सम-भाव बैठाना जिन्हें "धर्म "(या रूहानियत) कहना ही ठीक प्रतीत नहीं होता, एक टेढ़ी खीर है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण देव (स्वामी विवेकानन्द के गुरु ) " सर्व-धर्म समन्वय " अर्थात विश्व में प्रचलित समस्त उपासना पद्धतियों में सामान्य (common) सार बात में समन्वय लाना आज के विश्व की प्रमुख आवश्यकता मानते थे। अपनी विशिष्ट साम्प्रदायिक-पहचान को सबसे पृथक रखना विभिन्न मतावलम्बियों (सम्प्रदायों) की एक बड़ी समस्या है। प्रश्न यह है कि- जीवन के लिए आवश्यक क्या है ? पृथक पहचान या धर्मानुशीलन ? सच्चाई यह है कि धर्म आचरण में उतारने या धारण करने की चीज है न कि टकराव पैदा करने की। अतः किसी सम्प्रदाय विशेष की केवल पहचान ( प्रतीक-चिन्ह -त्रिपुण्ड,रामनामी चादर,चेक का तौलिया आदि ) धारण करके घूमना पाखण्ड है और धर्मानुशीलन आचरण है। 
टकराव वहां पैदा होता है जहां धर्म का लोप हो जाता है। ब्रह्माण्ड के असंख्य स्थूल पिंडों की गमन-व्यवस्था कितनी आश्चर्यजनक है ! सभी ग्रहों के आकार भिन्न हैं, सबकी दिशाएँ भिन्न हैं, गतियाँ भिन्न हैं किन्तु कहीं पारस्परिक मुठभेड़ नहीं होता। भिन्नता के बाद भी टकराव क्यों नहीं होता ? इनमें से कोई भी एक दूसरे के कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करता, कोई ग्रह यह नहीं कहता कि हमारी ही दिशा सही है, हमारी ही गति सही है, सब ग्रहों को हमारा ही अनुसरण करना होगा। क्योंकि उन भौतिक पिंडों को पता है,पता है कि सब एक दूसरे का अनुसरण करने लगेंगे तो आपस में मुठभेड़ हो जायेगी। सब का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।  इसलिए सब अपने-अपने रास्ते में अपनी-अपनी गति से गमनशील हैं, सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए, उनकी परम्पराओं का सम्मान करते हुए, उनके सिद्धांतों का आदर करते हुए गतिमान हैं। तथापि कुछ नियम हैं जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य है। जैसे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना, गति के सामान्य सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना उनका अस्तित्व संभव ही नहीं है। वस्तुतः भिन्नता के कारण ही टकराव नहीं होता है। एकरूपता होती तो सोचिये क्या होता? । दूसरी बात धर्म किसी एक व्यक्ति के द्वारा उद्धाटित और स्थापित नहीं किया जाता है जबकि मत या मजहब (Religion) एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के जरिए स्थापित या संचालित किया जाता है। भारत के आयातित पन्थ अभी तक अपने को इनके समान नहीं बना सके हैं,  विवाद का एक बड़ा कारण यही है।  
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "  धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु  मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। " हमारे शास्त्रों के अनुसार मानव , किसी भी लोक- लोकांतर में या किसी प्रकार के निर्जन स्थानों मै भी क्यों न चला जाये, वहाँ भी मानवोचित कर्तव्य (विवेक-सम्मत कर्तव्य) को पालना करने का नाम धर्म है।  क्या प्रतिमास घटने वाली नक्सली क्रान्तियां, राजनीतिक हत्याएं, गोली वर्षा अथवा राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान का प्रदर्शन कम हो गया है ? क्या इस सम्पूर्ण तकनीकी उन्नति से मानव मन को शान्ति प्राप्त हो रही है? शान्ति, सुख, निश्चिन्तता और निर्भयता तो दिखाई देती नहीं। यह क्यों ?व्यास का यह वाक्य
‘ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम,

 धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?’ 


(स्वर्गारोहण पर्व 5.62।)
 अर्थात ‘मैं अपनी बाहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूं कि धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?  अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। परन्तु उसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार अवश्यंभावी है। धर्म से विमुख हो कर अर्थोपार्जन में सलंग्न हम प्राकृतिक संपदा का विवेकहीन दोहन  करके संसार के पर्यावरण संतुलन को नष्ट करते हैं। काम को धर्म और अर्थ के बाद तीसरा स्थान दिया गया है। काम को धर्म और अर्थ दोनों पर ही आश्रित होना चाहिए।  यदि मनुष्य में कोई इच्छा ही नहीं रहेगी तो वह मृतप्राय ही हो जाएगा। त्याग भाव से उपभोग करो। पहले त्याग करें अन्य सभी का ध्यान रखे, फिर स्वयं उपभोग करें। दूसरों को खिलाकर तब स्वयं खाएं।  मोक्ष का स्थान अन्त में आता है। यह हमें तभी प्राप्त हो सकेगा जब हमारा अर्थ व, काम दोनों ही धर्म से संचालित होंगे। धर्म की जिस दुरवस्था पर वेदव्यास सरीखा क्रांतदर्शी कवि रो रहा है (‘विरौमि’ष्) वह धर्म क्या है?  धर्म कोई उपासना पद्धति नहीं है।  महाभारत में व्यास-मुनि कहते हैं,
 धारणात धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः ।
 यश्च  धारण संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।
  अर्थात्—‘जो हमारे मनुष्यत्व को धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। जिसके रहने से ही हमलोग मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं, ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को 'एकात्मबोध ' में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ विवेक-प्रयोग करके चरित्र के जिन गुणों (निःस्वार्थपरता आदि) को धारण करने से हमलोग पशुत्व से उपर उठकर मनुष्य बन सकें और, उससे उपर उठकर देवता बन सकते हों वही धर्म है। 
 हमारा मन-मष्तिस्क, ह्रदय  या आत्मा गहन चिंतन और विचार द्वारा स्वतंत्रता से, बिना किसी डर या दबाव के श्रेय-प्रेय,शाश्वत और नश्वर के बीच विवेक-प्रयोग करने के बाद, जिस तथ्य को अपना मानवोचित कर्तव्य समझकर  धारण करे वही धर्म है ! जैसे महर्षि दधिची का अस्थिदान धर्मं था, भगवान राम का पिता का आदेश पालन धर्मं था, अर्जुन का युद्ध धर्मं था।  
जब मनुष्य शरीर प्राप्त हो गया है तो पशु जैसा जीवन नहीं बिताना चाहिये हमें जो विशेष वस्तु धर्म या विवेक-शक्ति (आध्यात्मिकता या रूहानियत) प्राप्त हुई है, उसका उपयोग करके इसे बढ़ाते रहना चाहिये। त्रिपुण्ड धारण करने या रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर जाने को धर्म नहीं कहते हैं। उसी तरह मन्दिर,मस्जिद या सन्डे-सन्डे गिरजे में चले जाना किन्तु वहाँ से आकर फिर पशु जैसा जीवन जीने, अपने स्वार्थ के लिये दूसरों की क्षति करने वाला पशु-मानव बने रहने को भी धर्म नहीं कहते हैं। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था, " यदि जीवन भर उपासना पद्धति में ही अटके रहने को ही धर्म समझते हो तो यही अच्छा है कि घड़ी-घन्टे को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगाल के सागर में फेंक दो ! " आज हमलोग जो इतना अधिक मन्दिर देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था। तब मन्दिर और मूर्तियों की संख्या इतनी अधिक नहीं थी, ये सब बाद में आये हैं। पहले भारत के लोग अपने ह्रदय गुम्फा में ही भगवान को प्रतिष्ठित करने की विधि जानते थे, इसीलिये भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी। उस समय सभी जीवों के शरीर को ही देवालय समझा जाता था-
" देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ "
भारत के लोग यह जानते थे कि सभी शरीरों में ब्रह्म ही ' अन्तर्यामी ' होकर बैठे हैं। हृदय रूपी अयोध्या में ही भगवान राम निवास करते हैं। सभी मनुष्यों में ब्रह्म हैं, कण कण में श्रीराम अर्थात चैतन्य ही परिव्याप्त हैं। वे जानते थे कोई वस्तु जड़ नहीं है, सब कुछ चैतन्य है। energy is equal to mass या E = M, अर्थात उर्जा (शक्ति) द्रव्यमान (वस्तु परिमाण) के बराबर है। वैज्ञानिक भी गलत कहते हैं C square ! बिल्कुल सीधा समीकरण है, E=M अर्थात कुछ भी जड़ नहीं है, सब शक्ति है। किन्तु यह बोध विज्ञान को आइन्स्टीन के पहले नहीं हुआ था। स्वामीजी और निकोला टेस्ला के संवाद के बाद ही आइन्स्टीन ने अपना शोधपत्र तैयार किया था। पहले B.A.में डबल कोर्स था, आर्ट्स-साइंस दोनों होता था, किन्तु स्वामीजी केवल आर्ट्स पढ़े थे। दूसरे मतावलम्बियों में भी यह दृष्टिकोण - ' Unity in Diversity ' का बोध भी श्रीरामकृष्ण के द्वारा 'सर्वधर्म समन्वय ' या ' जितने मत उतने पथ ' की साधना के बाद ही दिखलाई देने लगा। 
स्वामीजी कहते हैं- बनो और बनाओ ! किन्तु क्या बनना है ? हमलोग जो यथार्थ में हैं, वही बनना है। हमलोग जब मनुष्य योनि में आ गये हैं,तो हमें पशु जैसा नहीं रहना है- 'यथार्थ मनुष्य' बन जाना है। इसी जीवन में अंश से पूर्ण मनुष्य बन जाने के बाद ही यहाँ से जाना है। [अर्थात मर जाने और शरीर त्याग देने में क्या अन्तर है- इसको अपने अनुभव से जान लेने के बाद ही जाना है।] क्योंकि मनुष्य बनने और बनाने से ही मानव जाति का मंगल हो सकता है। भय-भूख-भ्रष्टाचार-कालाधन आदि जितनी भी समस्यायें हैं, सबों का निराकरण हो सकता है। किन्तु हमलोग मनुष्य बनने और बनाने के पहले मन्दिर-मस्जिद बनाना चाहते हैं, और सोचते हैं-हम तो धर्म कर रहे हैं, बड़े धार्मिक हैं। मन्दिर-मस्जिद में जाना खराब नहीं है, यदि वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य बने रहने का प्रयत्न करते रहें, और दूसरे मतावलम्बियों से घृणा नहीं करें, उनके साथ झगड़ा-फ़साद नहीं करें। अभी इंग्लैण्ड में धर्म के नाम पर केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, शेष बचे ८४ % लोग धर्म क्या है ? यह जानने के लिये भारत की ओर उदग्रीव होकर निहार रहे हैं, या उनके पास कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति यह समझ लेगा कि धर्म क्या है ? वह विभिन्न मतवादों के नाम पर या अन्य ब्राण्ड वाले धर्म को लेकर दूसरे मतावलम्बियों से भेद-भाव नहीं करेगा। तभी उसको यह समझ में आएगा कि सभी तरह की संकीर्णता या असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण-मनुष्य हो जाना ही धर्म का मार्ग है। 
हमारे किसी भी शास्त्र में, वेदों या उपनिषदों में " हिन्दू-धर्म " कहकर किसी धर्म की चर्चा नहीं हुई है। अठारह पुराणों में नहीं है, महाभारत में नहीं है, रामायण में भी नहीं है। हमारे यहाँ किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित धर्म का पालन नहीं होता है, हमारा धर्म " सनातन-धर्म " है,या उसे वैदिक धर्म भी कह सकते हैं। यह तो विदेशी आक्रमणकारियों की भाषा में 'स' को 'ह' कहने की परम्परा थी, इसीलिये उनलोगों ने ' सिन्धु नदी ' के पूर्वी भाग में रहने वाली मानव-जाति को 'हिन्दू' के नाम से सम्बोधित किया था। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जिस हिन्दू नाम से परिचित होना आजकल हम लोगों में प्रचलित है, इस समय उसकी कुछ सार्थकता नहीं है, क्योंकि उस शब्द का केवल यह अर्थ था- सिन्धुनद पूर्वी छोर पर बसने वाले। प्राचीन फारसियों के गलत उच्चारण (स को ह कहने) से सिन्धु शब्द 'हिन्दू 'हो गया है। वे सिन्धु नदी के इस पार रहनेवाले सभी लोगों को हिन्दू कहते थे। इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें मिला है। फिर मुसलमानों के शासनकाल में हमने अपने आप यह शब्द अपने लिए स्वीकार कर लिया था। इस शब्द के व्यवहार करने में कोई हानी न भी हो, (अब हिन्दुओं से कोई जजिया टैक्स नहीं ले सकता) पर मैं पहले ही कह चूका हूँ कि अब इसकी कोई सार्थकता नहीं रही; क्योंकि तुम लोगों को इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि वर्तमान समय में सिन्धु नदी के इस पारवाले (पूर्वी हिस्से में रहने वाले) सब लोग प्राचीनकाल की तरह एक ही धर्म को नहीं मानते। इसलिये उस शब्द से केवल हिन्दू मात्र का ही बोध नहीं होता, बल्कि मुसलमान, ईसाई, जैन तथा भारत में विदेशों से आकर बस गए सभी अन्यान्य अधिवासियों का भी होता है। अतः मैं हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा। तो हम किस शब्द का प्रयोग करें ? हम वैदिक हैं (अर्थात वेद के माननेवाले हैं) अथवा वेदान्ती शब्द का प्रयोग अपने लिये कर सकते हैं, जो उससे भी अच्छा है।" (वि० सा० ख० ५ पृष्ठ १९)  
इसको ऐसे समझें कि जैसे किसी व्यक्ति का नाम ' पंचानन मुखोपाध्याय ' को बिगाड़ कर कोई उसे, अरे ' पेंचो ' कहे तो क्या उससे उस व्यक्ति का गौरव बढ़ेगा ? उसे स्वयं को ' पेंचो ' कहे जाने पर गर्व क्यों होना चाहिये ? बहुत से उपनिषद आधुनिक काल के शाशकों के द्वारा भी लिखवाये गए थे। उन्हीं में से एक " अल्लोपनिषद " पढ़ने का मौका मिला था। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में और छन्दों में लिखा गया है, किन्तु उन छन्दों को पढ़ने से कोई अर्थ ही नहीं निकलता है। अंश से पूर्ण हो जाना, बिन्दू से सिन्धु (हिन्दू नहीं) बन जाना यही धर्म का सार है।