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रविवार, 6 जनवरी 2013

' समाज सेवा का उद्देश्य एवं उपाय '(प्रोग्रेस,मैन्स डिस्टिंक्टिव मार्क अलोन) [ $$@$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [59])(9.समाज और सेवा),

मनुष्य के जीवन में उठने वाले कई प्रश्न और संदेह उसे निरंतर सताते रहते हैं। ' To be or not to be'  that is the question’ अर्थात 'क्या करूं, क्या न करूं'- या इन दोनों में अच्छा क्या होगा ? ' यही तो वह सवाल या द्विधा है जो दीमक की भांति हैमलेट को पल-प्रतिपल कुरेदती रहती है। किन्तु 'क्या करूं, क्या न करूं' यह प्रश्न केवल रंगमंच के पात्र हैमलेट के मन की ही दुविधा नहीं है, बल्कि विश्व रंगमंच पर आविर्भूत अधिकांश लोगों की होठों पर यही प्रश्न रहता है।
जो लोग सामाज-सेवा मूलक कार्यों में अपनी भूमिका निभाते हैं, ऐसे व्यक्ति भी समय समय पर रुक कर सोचने लगते हैं, कि जीवन की चरम परिपूर्णता को प्राप्त किये बिना ही सामाज-सेवा के कार्यों में  संबद्द होकर मैंने ठीक किया है या नहीं ? वे लोग बड़े कठिन कठिन प्रश्नों को सामने रखते है। एक से एक सूक्ष्म उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। किन्तु परिपूर्णता प्राप्त करने के बहाने वास्तव में वे भीतर ही भीतर समाज-सेवा के कार्य से अपने को मुक्त करना चाहते हैं। तथा, उनकी यह इच्छा कितनी न्याय संगत है, उसे प्रमाणित करने के लिये बड़े बड़े महापुरुषों की शिक्षाओं को अप्रासंगिक तौर से उद्धृत भी करते हैं।
वे लोग सोचते हैं, केवल इसी प्रकार, अर्थात पूर्णता प्राप्त करने के बाद ही मानव समाज का कल्याण करने के कार्य में वे अपने योग्य भूमिका निभा सकते हैं। इन सब बातों को जब वे कहना शुरू करते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो उनके द्वारा उठाये जाने वाले तर्क कितने आंतरिक हैं। लगता है मानो समाज-सेवा के कार्य से उनके मुक्त होने के प्रस्ताव का एकबार केवल समर्थन कर देने (महामण्डल-कार्य या सचिवपद से रिजाइन करने की अर्जी को स्वीकार करने से) से ही, वे तो बस ' सर्वकर्मणि परित्यज्य ' अपने पोथी-पतरे के साथ- सिनेमा, टी. वी., जीविकोपार्जन, सन्तान पालन, परिवार प्रतिपालन आदि सब कुछ छोड़ कर, अभी तुरंत ही साधना करने के लिये सीधे घने जंगल की ओर प्रस्थान कर जायेंगे। तथा, वहाँ पहुंचकर अन्तर्जगत की पूर्णता उपलब्ध करने के लिए ध्यान की गंभीरता में निमग्न हो जायेंगे। और घने जंगल में पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करने के फलस्वरूप घटित होगा - मानवजाति के एक नए मार्गदर्शक नेता अर्थात  'मुक्तिदूत' का आविर्भाव ! किन्तु दूसरे ही पल वह फिर सोचता है कि यदि पीपल वृक्ष के नीचे घंटों ध्यान लगाने के बाद भी यदि उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई और वो बुद्ध नहीं बन सका तो क्या होगा? संभवत: हैमलेट की इसी मन:स्थिति से संप्रेरित होकर शायर ने लिखा होगा-
                                        ''अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
                                           मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे।"


किन्तु, क्या सचमुच वे वैसा ही करेंगे ? वे ऐसा मानते हैं कि उनके पूर्णता प्राप्ति के पथ की एकमात्र बाधा बस समाज सेवा का कार्य ही है। जबकि वास्तव में समाज सेवा के कार्य से पीछा छुड़ा कर,वे सेष सबकुछ करते हुए उसीके अन्तराल में परिपूर्णता भी प्राप्त कर लेना चाहते हैं; और मानव की सेवा या समाज की सेवा उसके बाद ही करने की बात सोचते हैं। किन्तु क्या यह कभी संभव है? ऐसे व्यक्ति कितने हैं, जो सबकुछ छोड़-छाड़ कर पूर्णता-प्राप्ति की साधना में ही एकाग्र होकर ध्यानमग्न हो सकते हैं ?
 यदि कोई सचमुच ही ऐसा करने में समर्थ हों, तो वे अवश्य करें। उनकी अनुपस्थिति में समाज-सेवा का कार्य बिल्कुल ठप्प ही हो जायेगा, ऐसी बात नहीं है। किन्तु, वे लोग थोडा शान्त मन से विचर करके देखें कि कहीं वे इस ' व्यर्थ के कार्य ' से छुटकारा पाने के लिये ही ये सब बहाने तो नहीं बना रहे हैं ? जो सेवा-कार्य वास्तव में मनुष्य को उसकी पूर्णता प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं, उसी को ' व्यर्थ का काम ' समझकर उसकी उपेक्षा कर देना तो मूर्खता है। वे भी यही मुखता करने जा रहे हैं या नहीं, थोडा इस पर भी विचार करके अवश्य देख लें, तब कोई निर्णय लें।
फिर ऐसे 'बुद्धिमान' लोग भी बहुत से हैं, जो ' बिना पैसा ' के या मुफ्त में कोई कार्य करने को राजी नहीं होते। फिर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो यदि संभव हो सके तो कोई भी कार्य न करें, वे सिर्फ आलसी जीवन जीने में विश्वास करते हैं। किन्तु शायद वे यह नहीं जानते कि, बिना कोई कार्य किये यूँ ही बैठे रहना  भी बहुत कठिन है। हम गीता में कथित केवल दार्शनिक तथ्य के आधार पर यह बात कह एहे हों, वैसा नहीं है, आधुनिक विज्ञान भी यही कहता है। जापान के वैज्ञानिकों ने मानव-जीवन में आराम के क्षणों की गणना करते समय उसकी निद्रा को भी एक कार्य के रूप गिना है।
जीवित रहने के लिये, अर्थात जब तक हम जीवित हैं, तब तक कर्मों का त्याग नहीं कर सकते। चाहे जैसा भी लक्ष्य या आदर्श हम अपने समक्ष क्यों न रखते हों, उसे प्राप्त करने के लिये कर्म तो करना ही पड़ता है। यहाँ तक कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिये भी कुछ न कुछ करना पड़ता है, अतः कर्म तो चाहिये ही।
 कोई भी व्यक्ति बिना कार्य किये एक क्षण भी आलसी होकर बैठा नहीं रह सकता - यदि यह बात समझ में आ चुकी हो, तो हमें अब यह भी निर्णय लेना होगा कि हमारे लिये कैसा कार्य करना उचित होगा ? थोड़ी गंभीरतापूर्वक विचार करने से दो बातें अत्यन्त महत्वपूर्ण जान पड़ती है। पहली बात तो यह कि - मैं क्या प्राप्त करना चाहता हूँ, मेरा लक्ष्य क्या है, मैं क्या बनना चाहता हूँ ? यही वह वस्तु है, जो मुझे सामने से अपनी ओर खींच रही है। तथा दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु है मेरा चरित्र, जो मुझे पीछे से धक्का  रही है। यही खिंचाव और धक्का - यह आकर्षण एवं उत्प्रेरण ही हमारे जीवन पथ की परिक्रमा को या लक्ष्य की दिशा में आगे बढने की जीवन-गति को नियन्त्रित करते हैं। यदि इन दोनों में से कोई एक भी मेरे पास न रहे, तो मैं बिल्कुल आलसी बन जाऊंगा। तथा किसी के जीवन में यदि इन दोनों (आदर्श और चरित्र ) का ही आभाव रहे, तो उसके जीवन की गति बिल्कुल निस्पन्द (motionless) हो जाती है। एक और महत्वपूर्ण बात- ये दोनों रहें, किन्तु विपरीत गुण-धर्म वाले हों, तो सामने का (आदर्श का ) आकर्षण और पीछे का धक्का (चरित्र) परस्पर विरोधी दिशा में कियाशील होंगे, जिसका परिणाम होगा- असफलता या दुर्भाग्य।
इसीलिये हमलोगों के पास - एक निश्चित जीवन लक्ष्य या 'आदर्श और चरित्र ' दोनों रहने चाहिये, तथा दोनों के बीच सामंजस्य बनाये रखने में हमें सदैव तत्पर भी रहना चाहिये। किसी मनुष्य का जीवन जिन कारणों से असफल हो जाता है, उसके कारणों की खोज करने पर अनेक क्षेत्रों में यही देखा जायेगा कि हमलोगों में से कई व्यक्तियों के जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य या आदर्श होता ही नहीं है। ओय किसी के पास कोई लक्ष्य हो भी तो उसे प्राप्त करने के लिये जितना चरित्र-बल होना चाहिये, वह बिल्कुल नहीं है। आज के अधिकांश तरुणों की यही दशा है। इसीलिये उनका जीवन हताशापूर्ण हो गया है। अंग्रेजी के कवि रोबर्ट ब्राउनिंग ने एक बहुत सच्ची बात कही थी, " The aim, if reached or not, makes great the life." - अर्थात किसी व्यक्ति के जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य है, तो भले वह उसे प्राप्त कर सके या नहीं, किन्तु वह लक्ष्य उसके जीवन को महान अवश्य बना देता है। " रोबर्ट ब्राउनिंग ( Robert Browning) की कविता है - 
Finds progress, man's distinctive mark alone, 
Not God's, and not the beast's; 
God is, they are, Man partly is,
 and wholly hopes to be.

आज  हमारे देश में चरित्र का जैसा घोर आभाव देखा जा रहा है, वैसा आभाव अन्य किसी वस्तु का नहीं है। हमारे जीवन में न तो किसी आदर्श के प्रति आकर्षण है, न ही चरित्र की उत्प्रेरणा है, जिसके फलस्वरूप हमलोग केवल तृण-भक्षी पशुओं की श्रेणी में उतर आये हैं। इसीलिये आज का यक्ष प्रश्न है- क्या करने से हमलोग एक आदर्श एवं प्रखर चरित्र के अधिकारी बन सकते हैं ? या इन दोनों - 'जीवन-लक्ष्य तथा चरित्र-बल ' के गति को एक ही दिशा में रखने में जो व्यावहारिक कठिनाई हो रही है उसका समाधान क्या है ? ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ हम इंजीयरिंग के किसी शाखा विशेष के उपर चर्चा कर रहे हों ! हाँ, सचमुच यह एक विशेष प्रकार की इन्जियानिरिंग ही तो है। जिसे आध्यात्मिक इन्जियानिरिंग कहते हैं, यह उसी की एक शाखा है। लक्ष्य एवं चरित्र की गति को एक दिशा में अग्रसर रखने के दो उपाय हैं। यदि संभव हो तो अपने चरित्र के अनुसार किसी आदर्श का चयन कर लिया जाय, या फिर किसी योग्य आदर्श को अपनी इच्छा के अनुसार चयन करके अपने चरित्र को ही इस प्रकार गठित किया जाय जो हमें उस आदर्श के निकट पहुंचा सके।
आम तौर से जिनके पास कोई जीवन-लक्ष्य पहले से ही निर्धारित रहता है, वे अपने चरित्र के अनुरूप ही अपने जीवन लक्ष्य का चयन भी कर लेते हैं। उदाहरण के लिये जिस व्यक्ति का चरित्र उसको सभी प्रकार के संभाव्य शारीरिक सुखों को भोगने की दिशा में धक्का दे रहा हो, तो वह प्रचुर मात्र में 'अर्थ-संचय' करने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना सकता है। उस अवस्था में ' लक्ष्य एवं चरित्र ' एक ही दिशा में सामंजस्य बनाकर कार्य करते हैं। तथा वह व्यक्ति यदि असाधारण उद्यमशील भी हो, तो वह अपने निर्दिष्ट आदर्श के अनुरूप उसी जीवन में सफलता भी प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार यदि किसी युवा की सुन्दर शारीरिक संरचना हो, सुन्दर चाल-ढाल हो, एवं उसके बोलने की शैली और आवाज आदि बहुत आकर्षक हो, और वह यदि फिल्म-स्टार बनना चाहे तो वह अपने अग्रवर्ती लक्ष्य तथा स्वाभाविक प्रेरणा को एकमुखी दिशा में गतिशील रखने की इंजिनयरिंग का व्यवहार करके सफलता प्राप्त कर सकता है।
किन्तु, दूसरा रास्ता अधिक कठोर तथा दृढ़तम पौरुष की मांग करता है। जो लोग इस मार्ग को चुनते हैं, वे लोग जन्मजात प्रेरणा या सहज प्रवृति के द्वारा अनुप्रेरित होकर अपने जीवन के लक्ष्य को निर्धारित नहीं करना चाहते। बल्कि वे तो समाज की वास्तविक अवस्था तथा मनुष्य जीवन के उद्देश्य के उपर समग्र रूप से विचार-विमर्श करने के बाद , अपने हृदय की गहराई में दुर्लभ मानव-जीवन की एक महिमा का अनुभव करते हैं; एवं उसी के आधार पर अपने जीवन लक्ष्य को निर्धारित कर लेते हैं। जो ऐसे मेधावी तरुण होते हैं, वे किसी विवेकी मनुष्य के योग्य, वैसे किसी महान लक्ष्य को अपने सामने स्थापित करते हैं। क्योंकि अपने चरित्र को सुधारने के लिये जिस साहस की आवश्यकता होती है, वैसा साहस इनमे भरा होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जैसा चरित्र किसी व्यक्ति में होना चाहिये, ठीक वैसा ही चरित्र वे गठित कर लेते हैं। वे अपने ' चरित्र का मोड़ ' घुमा देते हैं; अर्थात अपने चरित्र में आमूल परिवर्तन या यू टर्न ले आते हैं, ताकि दूर-देश में (देश-काल-निमित्त के परे) स्थापित उनके अतिप्रिय आदर्श की दिशा में वे किसी निडर अन्वेषक के समान आगे बढ़ते रहें। इसी का नाम है-पौरुष। ये निर्भीक युवा भूतपूर्व जीवन के प्रलोभनों के फन्दों को काट कर सभी प्रकार के लोभ-लालच को जीत लेते हैं, तथा आन्तरिक और वाह्य प्रकृति के दासत्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं। ये लोग बाह्य और आंतरिक परिवेश के दबाव को विदीर्ण करके बाहर निकल आते हैं, तथा अपने जीवन और परिस्थितियों के स्वामी बन जाते हैं।
अपनी ज्ञान चक्षुओं को खुला रखकर, समाज की वास्तविकता पर चिन्तन-मनन करने से हमारे विचार-जगत में एक हलचल मच जाती है। और उसके फलस्वरूप हमलोग यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं कि हमारा जीवन लक्ष्य क्या है, तथा उसे किस विशिष्ट प्रकार का होना उचित है ? उसके बाद हमलोग केवल उसी प्रकार के कार्य करना चाहेंगे, जो हमें अपने हृदय द्वारा प्रायोजित उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयता करेगा। इसीका नाम -चरित्र-गठन, चारित्रिक-सुधार, या लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा में किये जाने वाले कर्मों (सेवा-कार्यों) के माध्यम से चरित्र के मोड़ को घुमा देना या अपने चरित्र में आमूल परिवर्तन ले आना भी है। इसीलिये कर्मों को नियन्त्रित करके हम अपने चरित्र को पुर्णतः स्पष्ट रूप में प्रस्फुटित कर सकते हैं। और ऐसा सुगठित चरित्र ही व्यक्ति को उसके जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने के दिशा में अग्रसर कराता रहता है। यदि हमारे जीवन का लक्ष्य मानव-समाज में अन्तर्निहित एकात्मता की उपलब्धी करनी हो, तो हमलोग स्वयं को समाज से अलग बिल्कुल नहीं रख सकते। इतना ही नहीं, जिन सेवा-कार्यों के द्वारा हमारे भीतर सम्पूर्ण मानव-समाज के प्रीति सहानुभूति जाग्रत करने में सहायता मिलती हो, उन्ही कार्यों को हमें बार बार करते रहना होगा।
भूखे-नंगे, अशिक्षित, शोषित लोगों के समूह अनेकों प्रकार के दुःख एवं आभाव में अपना जीवन बिता रहे हैं,उनको देखने मात्र से हमलोगों का हृदय संवेदना से भर उठता है। हमारे जो भाई इनकी सेवा में अपने को नियोजित कर देते हैं, वास्तव में वे ही चरित्र-गठन की साधना में लगे हुए हैं। उनका चरित्र धीरे धीरे गठित होकर उन्हें सभी मनुष्यों में एकात्मता का अनुभव करने के वांछित (desired) आदर्श या लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करता है। इस दृष्टिकोण के साथ समाज-सेवा के मूल उद्देश्य के उपर विचार करने से हम पाएंगे कि ' लक्ष्य-अन्वेषक समाज-सेवा ' वास्तव में एक सच्ची आध्यात्मिक साधना ही तो है। दुनिदारी निभाने के लिये की जाने वाली समाज-सेवा की अपेक्षा (महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर के विभिन्न विभागों- विशेष रूप से " किचेन- डिस्ट्रीब्युसन दल और सफाई व्यवस्था दल " का सदस्य बनकर मानव-समाज की एकात्मता की अनुभूति प्रदान करने वाला प्रशिक्षण के दौरान किया जाने वाले) यह सेवा-कार्य कितना अलग प्रकार का है !
किन्तु जो लोग सामान्य रूप से समाज-सेवी क्लबों के माध्यम से सेवा करते हैं, अधिकांश क्षेत्र में उनके सेवा का उद्देश्य इस सेवा से पृथक होता है। किसी महान आदर्श को अपने जीवन में कार्यान्वित करने के लिये जिस प्रकार के चरित्र की आवश्यकता होती है, वैसा चरित्र गढ़ना या उसका अभ्यास करना उनकी समाज-सेवा का उद्देश्य नहीं होता। जबकी दूसरी ओर आध्यात्मिकता के आधार पर की जाने वाली समाज सेवा का उद्देश्य ही अपना चरित्र गठन करना होता है। समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का अन्तिम परिणाम होता है -सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव, या एकत्व-बोध ! ( " I am one with all " - अनुभव ) " सम्पूर्ण मानव जाति एक है " - इस सत्य की अनुभूति करने के लिये, एकात्मता की अनुभूति के आदर्श को जीवन में कार्यान्वित करने के लिये जिस चरित्र-बल की आवश्यकता होती है, उस चरित्रबल को संचित कर लेना, वैसा चरित्र गठित कर लेना ही (महामण्डल प्रशिक्षण शिविर में की जाने वाली) इस " अध्यात्मिक समाजसेवा " का उद्देश्य है।
इस प्रकार (16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली पुलिस के अमानवीय व्यवहार में सुधार लाना चाहते हों, तो )  जीवन में एक सुयोग्य मॉडल (आदर्श) का चयन करने तथा उसके अनुरूप चरित्र गठन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, हमलोगों को भी प्रकट रूप से दूसरों को लाभ के लिये की जाने वाली निःस्वार्थ समाजसेवा के कार्यों में आत्मनियोग करना ही पड़ेगा। किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी स्मरण रखना होगा कि ये सभी सेवा-कार्य बिल्कुल ही निःस्वार्थ नहीं होंगे। प्रशिक्षण शिविर में विभिन्न विभागों में दी जाने वाली सेवाओं के माध्यम से जो कार्यकर्ता जितने परिमाण में अपना चरित्र गठित कर लेता है, उसी परिमाण में उसको स्वार्थ-सम्बद्ध कहा जा सकता है। किन्तु इस विषय में सतर्क रहना ही इस ' आध्यात्मिक समाज-सेवा ' का कौशल है कि इन कार्यों को करते समय कहीं व्यक्तिगत नाम-यश की आकांक्षा, पद-लोलुपता या अन्य कोई सांसारिक स्वार्थ या अहंकार -तुष्टि या वैसी ही क्षुद्र स्वार्थपर कोई विचार सिर न उठा सके।
इस प्रकार के कौशल के साथ सम्पन्न होने वाले समाजसेवा मूलक कार्यों के द्वारा जो चरित्र विकसित होता है, वही इन कार्यों का अध्यात्मिक लाभ है। इसी रहस्य को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण, ऐसा प्रतीत होता है कि हम कहीं समाजसेवा के चक्कर में जीवन की अध्यात्मिक दिशा दूर हट कर, किसी व्यर्थ के काम में तो लिप्त नहीं हो गये हैं ? जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। कुशल सामाजिक कार्यकर्ता समाज-सेवा को ' आध्यात्मिक समाजसेवा ' में रूपांतरित करके, वस्तुतः यथोचित मात्रा में आध्यात्मिक-दृष्टि (हर जीव में शिव को दखने की शक्ति ) प्राप्त करने का अभ्यास ही कर रहा होता है। जबकि इसके विपरीत मानसिकता (देने वाले का स्थान ऊँचा सोचना ) के साथ सेवाकार्य करने से चरित्र में सद्गुण के बजाये दुर्गुण आने की सम्भावना बढ़ जाती है। वास्तव में कार्यकर्ता के अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण या अनुभूति के उपर ही सबकुछ निर्भर करता है। सेवा-कार्यों के प्रति निष्ठां ही उसके कर्मफल का नियामक होता है।
सेवा-कार्यों को पूर्ण निष्ठा के साथ करने का परिणाम यह दिख पड़ता है कि उसी कार्य के भीतर फिर से एक विशेष प्रकार की गति सक्रीय हो जाती है। सामाजिक-कल्याण के लिये कोई साधारण सा कार्य करने पर भी,उसके अनिवार्य परिणाम-स्वरूप हमलोगों का जो आध्यात्मिक विकास होता है, वह भले ही कितना भी साधारण सा क्यों न प्रतीत होता हो, उसके ही फलस्वरूप हमलोगों के हृदय में -'सिंह का सा बल उत्पन्न हो जाता है ' और हमलोग पहले की अपेक्षा थोड़ी और अधिक शक्ति,प्रेरणा और इच्छा अर्जित करते हैं। इस अतिरिक्त उर्जा को यदि हमलोग पुनः समाजसेवामूलक कार्यों में नियोजित कर दें, तो वह शक्ति एक स्थायी सामाजिक और नैतिक प्रज्ञा (समझ) की उपलब्धी के रूप में ब्याज-समेत हमलोगों के ही भीतर लौट आती है। इसके फलस्वरूप हमलोग आध्यात्मिक प्रेरणा के उच्चतर स्तर में उठ जाते हैं। यही प्रेरणा, ' भद्र-विनम्र मानवता ' का प्रवाह बन कर पुनः समाज-कल्याण की दिशा में प्रवाहित होने लगती है।
अथवा यूँ भी कह सकते हैं कि दैवी करुणा, सेवा एवं विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति के रूप में वह शक्ति आध्यात्मिकता का उत्तुंग ज्वार बनकर पुनः हमारे भीतर लौट आती है। और यही प्रेम-प्रवाह अनन्त काल तक चलता रहता है। 'समाजसेवा और विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति ' क्रमशः कार्य-कारण रूप से एक दुसरे को विकास के उच्चतर स्तर पर उठाता रहता है। इसी प्रकार 'सेवाव्रती' के आध्यात्मिक जीवन में विकास होता रहता है, तथा जितना समय बीतता जाता है, उसी अनुपात में वह कर्मउद्दीपना से भरपूर हो उठता है। प्रचलित अन्धविश्वास - " आध्यात्मिकता कर्मयोगी के हाथ-पैर को अपंग बना देती है " के विपरीत उस ' सेवाव्रती ' का घोर पराक्रमी जीवन एक दृष्टान्त के रूप में विकसित हो उठता है।
'समाजसेवा और विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति ' के लक्ष्य तक पहुँचने की प्रतिस्पर्धा में मानो प्रतिद्वंद्विता की भंगिमा में गतिशील दो समानान्तर सरल रेखाओं की तरह एक-दूसरे से होड़ लगाती हुई, एक-दुसरे को पीछे छोड़ कर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते हों। जिसके फलस्वरूप अधिक हो या कम दोनों एक साथी बढती रहती है, तथा एक की अग्रगति दूसरे के वृद्धि का कारण बन जाती है। कर्म के इस कौशल को समझ लेने के बाद कोई यह नहीं कह सकता कि समाजसेवा आध्यात्मिक विकास के प्रतिकूल है।
किन्तु, कर्म के इस गुप्त रहस्य को हमारी बुद्धि समझ क्यों नहीं पाती है ? इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि समाजसेवा करते समय हमलोग यह सोचने लगते हैं कि सामाजिक कार्यों के माध्यम से मैं दूसरों को कुछ दे रहा हूँ, अर्थात दूसरा कोई व्यक्ति प्राप्त कर रहा है, वह लाभ उठाने वाला है, मैं देने वाला हूँ, मैं दाता हूँ। इस धारणा ने ही हमलोगों की सेवा-परायणता की भावना को अपहृत कर लिया है। जैसे ही यह अहंबोध तथा नाम-यश पाने की दुर्दान्त वासना जाग उठती है, हमारी आध्यात्मिकता भी वहीं दम तोड़ देती है। और समाजसेवा करने में खतरा भी यही है। समाजसेवा करते समय हो सकता है, हमलोग थोड़ा-बहुत शारीरिक श्रमदान करते हैं, या दूसरों से चन्दा मांगकर उसी धन से कुछ सस्ते मूल्य की वस्तुएं खरीद कर दान करते हैं। और उसके बदले में, न्याय-नैतिकता की अनुभूति, विकसित चरित्र-गठन के बहुमूल्य उपादान तथा सम्पूर्ण मानवता के साथ एक अखण्ड एकात्मता की अनुभूति प्राप्त करते हैं। तथा इन सब वस्तुओं को ही आध्यात्मिक जीवन का घटक कहा जाता है। इसीलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक कार्यों में हमलोग जितना देते हैं, उससे कई गुना अधिक लाभ हमें ही प्राप्त होता है, एवं गुणवत्ता की दृष्टि से देखने पर भी हम जो स्वयं प्राप्त करते हैं, उसका मूल्य बहुत अधिक है। इस प्रकार वास्तविक लाभ तो हमलोग ही उठाते हैं, और वैसे सस्ते मूल्य की सामग्रियों को ग्रहण करके वे ही लोग हमारा उपकार करते हैं, वे लोग ही सच्चे हितकारी हैं।
इसके बाद एक दूसरी उलझन भी है, जो  व्यर्थ तर्क-कुतर्क करते रहने की आदत के कारण  समाज-सेवकों के मन में प्रविष्ट हो जाती है। वे इस बात पर बहस करने लगते हैं कि आध्यात्मिक विकास होने के पहले ही समाज-सेवा के कार्य में जुट जाना क्या उनके लिये उचित है ? 'लोक-सेवकों'  को भी लोकगुरु या लोकशिक्षक की भूमिका में को स्थापित करने के जिद से ऐसा भ्रम दिखाई देने लगता है। चूँकि वह सचमुच में अकृत्रिम विनय का अधिकारी होता है, इसीलिये जो सद्गुरु मनुष्य की हृदय-गुहा में संचित अज्ञान के अंधकार को समाप्त करने में समर्थ हैं, उनके साथ स्वयं को एक ही आसन पर बिठा कर देखने के विचार से ही वह काँप उठता है। वह स्वयं बहुत अच्छी तरह से जानता है कि उसका आध्यात्मिक जीवन अभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हुआ है, फिर भी भ्रम में पड़ कर सोचने लगता है कि पूर्णता प्राप्त किये बिना उसको समाज-सेवा करने का कोई अधिकार नहीं है।
समाज-सेवा के क्षेत्र में शिक्षक और छात्र की भूमिका को वह इस प्रकार मिला देने से भ्रम में पड़ जाता है, क्योंकि वह इस बात पर गहराई से कभी चिन्तन नहीं करता, वह इस रहस्य को नहीं समझता है कि - कोई समाजसेवक समाज को जितना देता है, अंततोगत्वा उसको उससे बहुत अधिक प्राप्त हो जाता है। हाँ, यह बात और है कि पूर्णता प्राप्त आध्यात्मिक जीवन गठित होने के पहले ही यदि वह आध्यात्मिकता के भाव-विलास का प्रदर्शन करने लग जाये तो उसके वैसे आचरण की निन्दा ही करनी होगी। किन्तु वास्तव में जो कुछ समाजसेवा वह कर रहा है, उसको अनुसन्धान कहा जा सकता है, वह कर्मक्षेत्र में उतर कर छूरे की धार जैसी तीक्ष्ण पथ पर चलते हुए अन्तर्निहित पूर्णता की खोज में अग्रसर हो रहा है।
समाज सेवा का एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष और भी है। वह यह है कि व्यावहारिक जगत की परिधि के बाहर, अन्यत्र जिन महान आदर्शों की शिक्षा हमलोग प्राप्त करते हैं, समाज सेवा का कार्य उस शिक्षा को वास्तविकता की कसौटी पर परखने का अवसर प्राप्त करा देता है। सेवा करते समय दिन-दरिद्र मनुष्यों के दुःख-कष्टों को अनुभव करने से, अपने प्राणों में उनकी वेदना को अनुभव करने का आह्वान हमारे कानों में ध्वनित होने लगता है। सचमुच, यदि जीवन भर केवल इसी बात को रटते रहें कि- दिन-दुःखियों के प्रति हमलोगों में सहानुभूति रहनी चाहिये, किन्तु किसी दीन -दुःखी की सेवा करने के लिये कभी पहुंचे ही नहीं, तो उस सहानुभूति का सच्चा अर्थ क्या है, इस रहस्य को हमलोग कभी हृदयंगम ही नहीं कर पाएंगे। इसका रहस्य तभी समझ में आता है, जब वास्तव में वह (सब के साथ एकात्मता की ) अनुभूति जाग्रत हो उठती है।
यदि पूरे जीवन हम इसी बात को दुहराते रहें कि निःस्वार्थ निष्काम कर्म हमारे हृदय और मन को विकसित करता है, किन्तु उस तत्व को कार्य में प्रयोग करके नहीं देखें, या कभी जांच नहीं करें, तो निष्काम कर्म क्यों करना चाहिये, इसका मर्म हमारे लिये कभी बोधगम्य नहीं होगा। सामाजिक कार्य करते समय जब इन आदर्शों की सत्यता को परख कर देखते हैं, केवल तभी यह समझ में आता है कि आदर्श को जीवन में उतारना कितना कठिन है !
श्रीरामकृष्ण इस बात को बहुत बलपूर्वक कहते थे कि " करके देखे बिना शास्त्रों के मर्म को ठीक से नहीं समझा जा सकता है।" वे यह भी कहते थे- " यदि ऐसा सोचोगे कि समुद्र की लहरें पहले बिलकुल शान्त हो जाये, तभी डुबकी लगाऊंगा, तो ध्यान रखना कि वैसा अवसर तुमको कभी प्राप्त नहीं होगा। "
यदि हमलोग भी यह तय कर लें, कि जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेने के बाद, या मन की समस्त चंचलता शांत हो जाने के बाद ही सेवा कार्य में उतरूंगा, तो पूर्णता की प्राप्ति तो कभी होगी ही नहीं, दूसरों के लिये कार्य करने अवसर भी हाथ से निकल जायेगा। क्योंकि पहले ही इस बात को स्पष्ट किया जा चूका है कि चरित्र-गठन के लिये एवं आदर्श को जीवन में उतारने के लिये ही कर्म करने की आवश्यकता होती है।
जो लोग कर्म के इस रहस्य को जानते हैं, वे आध्यात्मिकता की दुहाई देकर कभी कर्म का त्याग नहीं करते।तथा कर्म के भीतर ही जो आध्यात्मिकता अनुस्यूत है, उसका परिचय खोज कर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनकी दशा, उसी बोझ ढोने वाले गर्दभ के समान होती है, जो चन्दन की लकड़ी के बोझ को ढोते समय उसके बोझ को तो समझता है, किन्तु उसके मूल्य का उसको कुछ पता नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में कहते हैं-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
भावार्थ :   इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥2/49॥ 
-कर्म के गुप्त रहस्य को समझे बिना कर्म करने से वह कर्म निम्न श्रेणी का या अधम कर्म हो जाता है। इसीलिये भगवान सेवाव्रती को कर्म के साथ बुद्धियोग करने का परामर्श देते हैं। क्योंकि बुद्धि के साथ किया गया कर्म ही अन्तर्निहित सुप्त गोपनीय शक्ति को विकसित करने का श्रेष्ठ उपाय है। दूसरे भी कई उपाय हैं, किन्तु तुलनात्मक रूप से यही सहजतर उपाय है। तथा उन तरुणों के लिये तो यही मार्ग विशेष रूप से उपयोगी है, जिन्हें हर प्रकार के दुःख-कष्ट से पीड़ित समाज के बीच ही रहना पड़ता है। इस प्रकार के आध्यात्मिक समाजसेवा का कार्य करने से ही समाज के दुखों में कुछ कमी हो सकती है, एवं उनके हृदय का विस्तार भी हो सकता है। तथा इस प्रकार के अध्यात्मिक समाजसेवा में दक्ष युवाओं की संख्या बढ़ने से समाज में विराट परिवर्तन होना निश्चित है।
दि हमारे तरुण मित्र सचमुच समाज में परिवर्तन लाने के इच्छुक हों, तो देह-मन-प्राण लगते हुए इस मनुष्य निर्माणकारी ' आध्यात्मिक समाजसेवा ' के कार्य में कूद पड़ीये, क्योंकि केवल इसी उपाय से चरित्र गठित हो सकता है, और देश की समस्त समस्यायों को दूर किया जा सकता है। कर्मफल का अनुसन्धान करने तथा उसका छिद्रान्वेष्ण करने के बाद का नैराश्य तरुणों को बिल्कुल सोभा नहीं देता है। स्वामी विवेकानन्द को जिन्होंने बिल्कुल नजदीक से देखा और समझा था, वही भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती हैं- " केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से होने वाले सभी कर्म, जीवन संग्राम की समस्त प्रणालियाँ, सर्जन की समस्त धारायें भी, सत्य साक्षात्कार के ही मार्ग हैं। " 
जो लोग कर्म के गुप्त रहस्य को नहीं जानते तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सेवा कार्य किये बिना ही नैष्कर्म्य की स्थिति में पहुँच जाने का स्वप्न देखते हैं, उन्हीं की ओर संकेत करके ऋषि अष्टावक्र एक चेतावनी प्रद श्लोक में कहते हैं- " मूढ़मती के लोगों के लिये अर्थात जिनकी बुद्धि मोहनिद्रा में सोयी हुई है, जो स्वयं को केवल शरीर समझते हैं, के लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति बन जाती है, तथा धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म ही निवृत्ति का फल प्रदान करता है। " 
उद्यमी तरुणों के जीवन में स्वतः प्राप्त होने वाले कर्म ही वह आसानी से पार करा देने वाली नौका है, जो अज्ञान के मोड़ से बाहर निकाल कर लक्ष्य रूपी घाट तक पहुंचा देती है। सम्पूर्ण विश्व की शांति तथा मानवजाति के प्रगति के लिये जो चारित्रिक शक्ति अपरिहार्य है, उस शक्ति को संग्रहित करने के लिये कौशल के साथ किया जाने वाला कर्म ( या आध्यात्मिक समाजसेवा ) ही सर्वोत्तम उपाय है।
  

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

"समाज सेवा में प्राप्तकर्ता कौन ?"(दान करना भी सेवा या पूजा है ) $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [58] (9.समाज और सेवा),

परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं
स्वामीजी ने कहा है, संसार में हमेशा दाता का आसन ग्रहण करो। आज जो लोग समाज-सेवा के कार्य से जुड़े हुए हैं, उनको पहले यह समझना होगा कि वास्तव में सहायता को प्राप्त करने वाले 'recipient' या प्राप्तकर्ता वास्तव में कौन है ?  किन्तु वास्तविक परिक्षण करने से यह ज्ञात होगा कि जो लोग सहायता प्राप्त कर रहे हैं, वे वास्तविक प्राप्तकर्ता नहीं हैं, वे सहायता करने वाले हैं। वास्तव में वे ही दाता हैं। और जो लोग दे रहे हैं, वे ही यथार्थ प्राप्तकर्ता हैं, वे सहायता करने वाले नहीं हैं। उस सेवा से जो वास्तविक लाभ मिलता है, उसका अधिकांश भाग वे लोग ही प्राप्त करते हैं, जो लोग दे रहे हैं। हमलोग यदि मनुष्यों की सहायता कर पा रहे हैं, तो हमलोगों के लिये यह एक विशेष अवसर है। क्योंकि केवल इसी प्रकार हमलोग विकसित (पशु-मानव से मनुष्य में उन्नत) हो सकते हैं।
किन्तु किसी की सहायता करने या कुछ देने से हम कैसे विकसित होते हैं ? तथा दूसरों की सहायता करना हमारे लिये अवसर कैसे बन सकता है ? इसके अतिरिक्त हमलोग विकसित होंगे, इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्यों के प्रति हमारी सहानुभूति जितनी अधिक बढ़ेगी, अर्थात हमलोगों के भीतर एकात्मबोध जितना अधिक बढ़ेगा, हमलोग उतने ही अधिक विकसित होंगे, हमारे हृदय के प्रसारता की परिधि उतनी ही विस्तृत होती जाएगी। एकात्म होने का अर्थ क्या है ? अलग होने का अर्थ क्या है ? हमलोगों ने अपने चारों ओर एक घेरा डाल रखा है, और यह घेरा जितना अधिक टूटता जायेगा, हमलोग एक-दूसरे के साथ उतना अधिक घुल-मिल जायेंगे। हमलोग निरन्तर यह सुनते-कहते आ रहे हैं, कि समाज-सेवा करना आवश्यक है। किन्तु  सच्ची सेवा की मानसिकता लेकर ही समाज-सेवा करना आवश्यक है। वैसा नहीं होने से, यह समाज-सेवा कितनी हानिकारक हो सकती है, इस बात को भी समझ लेना आवश्यक है।
कोई दवा आमतौर से लाभ पहुंचती है, यदि उसका उपयोग सही ढंग से किया जाय, किन्तु गलत डोज लेने का परिणाम कितना अधिक जानलेवा हो सकता है, इसको भी हमने बहुत देखा है। उसी प्रकार समाज-सेवा में जिसकी सेवा की जा रही है, हमलोग केवल उनकी ओर ही देखते हैं। किन्तु सेवा का उद्देश्य या भाव ठीक नहीं रहे, तो उससे हमारी कितनी अधिक हानी हो सकती है, उसकी ओर हम देख नहीं पाते हैं। इसीलिये बहुत सतर्क होकर समाज-सेवा करने की आवश्यकता है। नाम,यश, लोक-प्रसिद्धि, स्वयं को दाता समझने का दम्भ-यह सोचना कि मैं तो (ज्ञानी-गुनी या धनी-मानी व्यक्ति हूँ इसीलिये) दाता हूँ, और वे लोग लेने वाले हैं, वे लोग उपकृत हो रहे हैं, और हम उनपर उपकार कर रहे हैं। इस प्रकार के विचार आ सकते हैं, नहीं बल्कि आ ही जाते हैं। इस विषय में बहुत अधिक सावधान रहना आवश्यक है। स्वामीजी कहते हैं, संन्यासियों में भी नाम-यश पाने की इच्छा आ जाती है। इसीलिये समाज-सेवा के कार्य में कूदने के पहले भले-बुरे का विचार करके ही कूदना अच्छा होता है। केवल समाज-सेवा के क्षेत्र में ही नहीं, समस्त विषयों में इसी प्रकार अच्छे-बुरे का निर्णय लेकर ही कार्य में उतरना चाहिये।
जिन कार्यों को अच्छा समझ कर कार्य में उतर रहा हूँ,वे हानिकारक भी हो सकते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा है, जो मूढ़चेता हैं (- अर्थात जिनकी चेतना सोयी रहती है या जो शरीर को ही ' मैं ' समझते हैं ), उनके लिये प्रवृत्ति तो प्रवृत्ति है ही, निवृत्ति भी प्रवृत्ति जैसी हो जाती है। किन्तु जो व्यक्ति धीमान हैं, (जिनकी बुद्धि जाग्रत है, विवेक-सम्पन्न है, जो देहाध्यास के भ्रम से उठ चुके हैं ) उनके लिये तो प्रवृत्ति भी निवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती है।
[शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है। धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ धर्म के ठीकेदारों (व्यवसाइयों) के लिए भोले-भले  लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य]
धीमान व्यक्ति को देखने से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वे भी शरीर के साथ घनिष्ट रूप से सम्बद्ध हैं, बड़े कर्मठ हैं, घर-बाहर हर प्रकार के कार्य करते रहते है, किन्तु वास्तविकता यह है कि वे किसी कार्य, व्यक्ति या वस्तु में वे थोड़े भी आसक्त नहीं होते। ऐसा बन जाना ही निवृत्ति है। केवल दृष्टिकोण को परिवर्तित करने का प्रश्न है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में कितने ही कार्य फैले हुए हैं, हम किस कार्य को किस दृष्टिकोण से ग्रहण करेंगे, कर्म करने के उसी मनोभाव के उपर यह निर्भर करेगा कि हमें उस कर्म का कैसा फल प्राप्त होगा। मन ही सब कुछ है-यही हमको कर्मों के बन्धन में डाल देता है, फिर यही हमको बन्धन से मुक्त भी कर देता है। जगत में जितने भी प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं, वे सभी अच्छे कर्म में रूपान्तरित किये जा सकते हैं, यदि उस प्रकार के मन (मनोभाव) को लेकर कर्म किया जाय। जो विवेकी मनुष्य होते हैं, उनके लिये कोई भी कार्य बुरा नहीं हो सकता। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति या धीमान मनुष्य को कोई भी कार्य प्रवृत्ति के फन्दे में नहीं जकड़ सकता है,क्योंकि वे कभी किसी कर्म में आसक्त नहीं होते, वे जीवन के हर क्षेत्र में अनासक्त होकर कर्म करने में समर्थ बन जाते  है। 
एक स्थान पर स्वामीजी बहुत सुन्दर ढंग से कहते हैं, कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में कोई अन्तर नहीं है, दोनों कर्म ही है। निवृत्ति का अर्थ यह नहीं होता कि निवृत्ति-मार्गी व्यक्ति को कर्म से दूर रहना चाहिए। जिस प्रकार प्रवृत्ति एक प्रकार का कर्म है, उसी प्रकार निवृत्ति भी कर्म ही है। दोनों में केवल दृष्टिकोण का अन्तर है। जिस कर्म को केवल निजी-स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से किया जाता है उसे प्रवृत्ति कहते हैं, और जिस कर्म को दूसरों को सुख पहुँचाने के लिये किया जाता है या परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं। कोई व्यक्ति यदि अपने स्वार्थ का सम्पूर्ण रूप से त्याग करके कर्म करने में समर्थ हो, तो किसी व्यक्ति को जो फल निवृत्ति से प्राप्त होता है, वही फल उस व्यक्ति को भी प्राप्त होता है। इन बातों को समझ-बूझ कर कर्म करने से ही दाता की भूमिका (अभिनय) ग्रहण करना सौभाग्य-जनक हो सकता है।
 इसीलिये दाता का उत्तरदायित्व ग्रहण करने अवसर प्राप्त होना एक विशेष सौभाग्य मान कर ग्रहण करूँगा। कोई समाज-सेवा का कार्य इसलिये नहीं करूँगा कि संगमरमर की शिला-पट्टी पर मेरा नाम खुद जायेगा। जो लोग इस प्रकार नाम-यश पाने की इच्छा से कर्म करते हैं, वे भी कह सकते हैं कि दाता का आसन ग्रहण करना मेरा विशेष सौभाग्य है। इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं, " मेरे संदेशों को सुनने के बाद उसमें निहित संकेतों को ठीक ठीक समझने की चेष्टा करो, तथा उसी शुद्ध भावना के साथ, उसी के आलोक में स्वयं को कर्म में समर्पित कर दो। " 
हमलोगों को भी इसी प्रकार कर्म करने की चेष्टा करनी चाहिये। ताकि विद्या-दान करने या किसी भी प्रकार की समाज-सेवा का कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हो तो हमलोग भी अपने को विकसित कर सकें।इस विकास को ही आत्मिक विकास या आन्तरिक विकास कहते है। इसके फलस्वरूप मेरी पहले की संकुचित परिधि का विस्तार होने लगता है।दूसरों को दुःख में पड़ा देखने से, उसकी पीड़ा का अनुभव मुझे अपने हृदय में होने लगता है। इसीको आत्मिक विकास या अध्यात्मिक उन्नति कहते हैं। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन में इस विशेषता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। गीता 6/32 में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है- 
    आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
      सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
-अर्थात कोई व्यक्ति यदि अभी दुःख भोग रहा है, तो जो व्यक्ति मन ही मन उस व्यक्ति के साथ अपने को इस प्रकार तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं या जोड़ लेते हैं, कि वह जिस दुःख को भोग रहा है, उसका दुःख उन्हें  बिल्कुल अपना दुःख प्रतीत होने लगता है। उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति सुख पा रहा हो, तो उसका सुख देखकर भी उन्हें ऐसा प्रतीत होता है,मानो वे स्वयं ही सुखी हैं। सभी स्थानों के सभी मनुष्यों के सुख या दुःख को जो मनुष्य बिल्कुल अपने ही सुख-दुःख के जैसा देखने में सक्षम है, वही परम योगी है।
[ विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव होना दुर्लभ अवस्था है। दूसरे के पैर में कांटा गड़ गया हो तो योगी अपने अन्तर में उसका क्लेश अनुभव करते हैं। यही विश्व-प्रेम अर्थात अपने अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व का सभी मनुष्यों में दर्शन करना ब्रह्मज्ञान है- 'अहं ब्रह्मास्मि ' व्यावहारिक जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी या सच्चे नेता को विश्व-प्रेमिक या विश्व-भ्रातृत्व में उन्नत कर देती है। उस योगी के ब्रह्म रूपी अहं की सीमा उस समय विश्वमय हो जाती है; संसार के समस्त दुखों का स्पंदन वह योगी अपने हृदय में अनुभव करते है। तथा उनके समस्त दुखों की निवृत्ति के लिये अपने जीवन को न्योछावर कर देते है। ' काशी के मार्ग में जाते हुए वैद्यनाथ धाम में दुर्भिक्ष-पीड़ित सैकड़ों नर-नारियों के कंकाल के समान चेहरे और प्रायः नंगे शरीर को देखकर वे रो पड़े थे।' ' दक्षिणेश्वर के कालीबाड़ी के बाग की नयी दूब के उपर एक व्यक्ति पैदल चला जा रहा था ....' 'कालीबाड़ी के गंगा-किनारे दो माझी झगड़ा कर रहे थे, उनमें जो बलवान था उसने दुर्बल माझी की पीठ पर जोर से थप्पड़ मारा  .....' ]   
'दान ' करना बहुत आसन काम नहीं है। क्योंकि उसमें विपरीत मानसिकता उत्पन्न होने का खतरा छुपा रहता है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के लिये दान करने का अर्थ ' सेवा ' या ' पूजा ' बन जाता है।यदि इस भाव से अन्नदान या ज्ञानदान का अवसर प्राप्त हो तो उसे सौभाग्य कहा जा सकता है। गरीब लोग इसीलिये दुःख भोग रहे हैं, ताकि हमलोगों का उपकार हो सके। हो सकता है मैं इस रहस्य को नहीं जनता हूँ कि हमलोगों की सहायता करने के लिये ही वे दुःख भोग रहे हैं, किन्तु हम उन्हें या उनके दुःख को इसी दृष्टिकोण से देख तो सकते ही हैं। क्योंकि उनके दुःख का भोग किये बिना उनके दुःख को दूर करने की चेष्टा करने का कोई अवसर हमें प्राप्त नहीं हो सकेगा। तथा मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिये हमलोग यदि आगे नहीं बढ़ सके, तो हमलोग भी अपने अन्तर्निहित दिव्यता को उद्घाटित नहीं कर पाएंगे। हम अपने हृदय का अनुसन्धान नहीं कर सकेंगे।
 जो दान देगा, वह घुटने के बल बैठ कर अर्ध्य देगा, और जो लेने वाला है, उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करेगा कि -आपने मेरे दान को ग्रहण करके मुझे धन्य कर दिया है। क्योंकि आपको देने से हम कृतार्थ हो जाते हैं। जो लेने वाला है, वह खड़ा होकर अनुमति देगा और सेवा को ग्रहण करेगा। स्वामीजी कहते है- प्रत्येक मनुष्य के भीतर ईश्वर हैं, भगवान श्रीरामकृष्ण विराजमान हैं, इस सत्य का अनुभव करो और उसको दो। यह अभ्यास बहुत कठिन है। किन्तु प्रयत्न करने से मनुष्य-मात्र में ईश्वर को देखना संभव हो सकता है। फिर दान करते समय विवेक-विचार करके ही देना चाहिये। कोई जैसे ही माँगने आये तो तत्क्षण उसे नहीं देना चाहिये। पहले यह निर्णय कर लेना चाहिये कि वह उपयुक्त पात्र है या नहीं ? किन्तु जब यह तय कर लूँगा कि इनको देना है, तो यही देखूंगा कि इसके भीतर ईश्वर हैं, तथा वे ही इस प्रकार का रूप धर कर मेरे सामने आये हैं, और मैं उनको दे रहा हूँ। इस प्रकार नम्रता के साथ, श्रद्धा के साथ मन ही मन कहूँगा -' तुम इसे ग्रहण करके मुझे धन्य कर दो।' 
इस प्रकार के मनोभाव को रखकर दे सकने से,जिसको दिया जा रहा है, उसका हृदय अन्य तरह का हो जायेगा, जिसकी अभिव्यक्ति चेहरे के भावों में आने को बाध्य है। इसी प्रकार यदि सभी मिलजुल कर कर सकें, तो बहुत लोगों को लाभ होगा। इसीलिये कहा जाता है कि सामान्य बुद्धि से समाज-सेवा करने से बहुत लाभ नहीं होता है। वास्तव में सेवा एक आध्यात्मिक साधना है। स्वामीजी की इस शिक्षा को सदा याद रखना हमारा कर्तव्य है।              






गुरुवार, 3 जनवरी 2013

" सामाजिक आदर्श एवं स्वामी विवेकानन्द " [ $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [57] (9.समाज और सेवा),

मनुष्य को ब्राह्मणत्व में उन्नत करना सबसे बड़ी समाज-सेवा !
[समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है। यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है। ‘उद्विकास’ (Evolution) शब्द का प्रयोग सबसे पहले जीवविज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स डार्विन ने किया था। विकास की एक निश्चित दिशा होती है, पर उद्विकास की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है। परिवर्तन जब अच्छाई की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की एक निश्चित दिशा को दर्शाता है। प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। ]
सामाजिक परिवर्तन करने से क्या होता है ? तथा समाज में वांछित आधारभूत परिवर्तन (Fundamental changes) कैसे लाया जा सकता है ? समाज में आधारभूत परिवर्तन लाने के लिये जो लोग एक आदर्श समाज का निर्माण करना चाहते हों या 'समाज -निर्माता' बनना चाहते हों; सर्वप्रथम तो उनके जीवन में ही परिवर्तन लाना होगा। हमलोगों को पहले अपनी मानसिकता में विकास लाना होगा, उन्नत मानसिकता अर्जित करनी होगी। हमलोगों का जो वास्तविक स्वरूप है उसका परिचय प्राप्त करना होगा। अर्थात मनुष्य-मात्र के भीतर जो देवत्व (Divinity) पहले से ही विद्यमान है, उसको विकसित करना होगा तथा उस ब्रह्मत्व (Perfection या पूर्णता) को अपने व्यवहार में, अपने दैनंदिन  विचार-आचार के द्वारा प्रकाशित (अभिव्यक्त) करना होगा।
किन्तु हमलोग यदि मोहनिद्रा (देहाध्यास) में सोये रहेंगे, तो हमारी वास्तविक सत्ता भी सोयी रहेगी। अतः हमलोगों को इस प्रकार आलस्य में न पड़े रहकर निःस्वार्थ कर्म (BE AND MAKE ) के माध्यम से अपने अन्तर्निहित देवत्व को विकसित करने के प्रयत्न में जुट जाना चाहिये। क्योंकि कर्म या विचार-आचार के माध्यम से ही, मनुष्य की वास्तविक सत्ता अभिव्यक्त होती है, और मनुष्य होने का गौरव प्रकट होता है। किन्तु हम यदि केवल धन-उपार्जन करने की चेष्टा में ही लगे रहें, और केवल आर्थिक-उन्नति के हवाई किले बनाते रहने में ही खोये रहें, तो हमलोगों की सत्ता (अस्तित्व) में अन्तर्निहित समस्त सद्गुण सुप्तावस्था में पड़े रह जायेंगे, जिसके फलस्वरूप हमलोगों (के 3H ) का संतुलित विकास (Well-Proportioned) नहीं हो सकेगा।
इसके लिये मनुष्यों को उसकी अन्तर्निहित पूर्णता का सन्देश (Gospel, सुसमाचार या धर्म-शिक्षा) सुनाना होगा, तथा उस पूर्णता को विकसित करने के लिये प्रत्येक कार्य का उचित तरीका निर्धारित करना होगा। धर्म-शिक्षा का मुख्य लक्ष्य यही है। इसीलिये हमें अपने महान शास्त्रों में सन्निहित शास्वत सत्य के सिद्धान्तों को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचा देना होगा। किन्तु यह कार्य संस्कृत कुछ कड़े-कड़े श्लोकों को उद्धृत करने या तात्विक सिद्धान्तों की दुरूह व्याख्या करने से नहीं हो सकता है। हमें अपने दैनन्दिन सामाजिक जीवन की त्रुटियों तथा झूठ-कपट के बीच उन शास्वत सिद्धान्तों को स्थापित करके ही इस कार्य को चलते रहना होगा। ब्राह्मण एवं ब्राह्मणेत्तर समस्त मनुष्य इस सत्य-प्राप्ति के प्रभावी मार्गों का अनुसरण करने के अधिकारी हैं। इस कार्यक्रम में भाग लेने का एक-समान अधिकार सभी मनुष्यों का है। "Be and Make " के मूल मन्त्र में दीक्षित होने का अधिकार हर जाति-धर्म-भाषा या रंग-रूप के मनुष्यों का समान रूप से है।
  मन्त्र का अर्थ है, जिसका मनन करने से त्राण या मुक्ति प्राप्त होती है। अतः मन्त्र को मुक्ति का उत्स (आदि कारण) या आदर्श वाक्य (motto) भी कह सकते हैं। फिर मुक्ति चाहे आर्थिक हो या सामाजिक हो या बुद्धि की हो, और वह चाहे जिस उपाय से हो, जो मुख्य बात है वह है- आत्मिक मुक्ति। उस आत्मिक मुक्ति को प्राप्त करने का जो मन्त्र है, उसे समस्त मनुष्यों के भीतर प्रविष्ट करा देना होगा, ताकि मनुष्य मात्र के भीतर जो निश्चल अव्यक्त शक्ति है, वह दावानल की तरह प्रज्ज्वलित होकर सांसारिक कल्याण के निष्पादन में समर्पित हो सके। आज जितने भी तथाकथित नीच, उपेक्षित मनुष्य हैं, या जितने भी बहिष्कृत और जातिच्युत (outcast) मनुष्य हैं, सबों को इस मन्त्र में दीक्षित करके ब्रह्मणत्व में प्रतिष्ठित करना होगा। धर्म को केवल बौद्धिक क्षेत्र में आबद्ध न रखकर, उसको व्यक्तिगत जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहार करना होगा। धर्म को देशव्यापी करना होगा, उसे सर्वत्र फैला देना होगा।
स्वामी विवेकानन्द यह चाहते थे कि मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक कर्म को धार्मिकता के साथ ही निष्पादित करना सीखे। तथा उसे यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कर्म,भक्ति, ज्ञान आदि साधना के जितने भी मार्ग हैं, वे परस्पर भिन्न नहीं हैं, जीवन की निरन्तरता के साथ साथ ये मार्ग भी अभिन्न हैं, परस्पर जुड़े हुए हैं। ब्यापार, खेती-बाड़ी आदि जीवन की सामान्य आवश्यकताओं के सभी क्षेत्र के लिये स्वामीजी के विचार बिल्कुल स्पष्ट थे। वे कहते हैं, मनुष्य को निरन्तर अपनी वास्तविक सत्ता के प्रति सचेत रहते हुए तथा अपने स्वरुप को बनाये रखते हुए अपने समस्त दैनन्दिन कर्मों को निष्पादित करने का कौशल सीखना होगा। अपने प्रत्येक कार्य के लक्ष्य के विषय में वह पहले से सचेत रहेगा। इस कौशल को सीखने के लिये अपरा-विद्या के साथ ही साथ परा-विद्या का अभ्यास भी करना होगा। केवल धन उपार्जन एवं सांसारिक सुख-भोग अर्जित कराने वाली परा-विद्या का अभ्यास मनुष्य को अहं-केन्द्रित (या मगरूर) बना देती है। और वैसे संकुचित हृदय वाला मनुष्य देशव्यापी कल्याण की चिंता नहीं कर पाता है।
धर्म की मुख्य बात आत्मा की अनुभूति करना है- Religion is Realization. जो धर्म अनुभव-निरपेक्ष हैं,वे मनुष्य को मोक्ष के मार्ग पर संचालित न करके उन्हें और अधिक दिग्भ्रमित कर देते हैं। इसीलिये जाति और धर्म के आधार पर कोई भेद-भाव किये बिना आम-जनता में शिक्षा का प्रचार=प्रसार करना होगा। किन्तु वह शिक्षा हर समय विद्यालयों में या पुस्तकों की सहायता से देनी संभव नहीं है, उस शिक्षा को मौखिक रूप से भी देनी होगी। तथा शिक्षा की ज्योति से जब हृदय आलोकित हो जायेगी , मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता के विकसित होने से ही  मनुष्य आत्मसंयम करने के लिये अनुप्रेरित हो सकेगा।
समस्त मनुष्यों को ब्राह्मणत्व में विकसित करना ही भारतवर्ष का सामाजिक आदर्श है। ब्राह्मण का यह मॉडल विकास का सबसे अच्छा आदर्श या सर्वश्रेष्ठ सांचा है। ब्राह्मण रूपी वह सर्वश्रेष्ठ पैमाना क्या है? ब्राह्मण होने का अर्थ है, पूर्णतया लालच रहित तथा स्वार्थ-रहित मनुष्य बन जाना। वे अपने लिये कुछ नहीं चाहते, लेकिन  सत्ता का अनुसन्धान करते हुए ज्ञान का अभ्यास करके बुद्धि तथा हृदय की उत्कृष्टता को प्राप्त कर स्वयं को विकसित करते हैं। वे स्वयं सत्ता की अनुभूति के भीतर महान आनन्द में प्रतिष्ठित रहते हैं। उनको कुछ पाने की इच्छा नहीं होती, उनके जीवन में अपने लिये कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह जाता। फिर भी उस अनुभूत सत्य एवं शक्ति प्राप्त करके किसी जड़ वस्तु की तरह चुप होकर बैठे नहीं रहते। वे धैर्य के साथ समस्त मनुष्यों का कल्याण करने में लगे रहते हैं। वे समस्त मनुष्यों को विकसित करने में अपने को नियोजित कर देते हैं, तथा स्वयं के द्वारा अर्जित सत्ता-ज्ञान को सबों के भीतर संचारित कर देते हैं। यही है सच्चे ब्राह्मण का आदर्श तथा यही है सर्वोत्कृष्ट सामाजिक मनुष्य का रोल-मॉडल या सांचा।
यदि हमलोग केवल आर्थिक विकास के लिये प्रयासरत रहें, तो हमारे समाज के समस्त मनुष्यों को उस सर्वोत्कृष्ट आदर्श में विकसित करना संभव नहीं होगा। एक स्तर पर आमजनता को सांसारिक दुःख है, इसीलिये हम यदि केवल उनके सुख, सम्पत्ति, भोग, इन्द्रिय आदि के तुष्टिकरण में सहायता करते रहें, तो उनके भीतर की सत्ता क्रमशः विनष्ट हो जाएगी तथा हमलोगों के महान आदर्श की बली चढ़ जाएगी। इसीलिये प्रारंभ से ही लोक-विद्या के साथ साथ आध्यात्मिकता का सन्देश, अग्निम्न्त्र, देशव्यापी विकास एवं उद्धार के लिये प्रचार करना भी जरुरी है।
वेद-उपनिषद के जिन तात्विक सिद्धान्तों और विचारों में उस मुक्ति की प्रेरणा छुपी है, उसे समाज में सबसे अछूत माने जाने वाले मनुष्यों को भी सुनाना पड़ेगा। सभी मनुष्यों को उस अग्निम्न्त्र की परिधि के भीतर प्रविष्ट करा देना होगा, ताकि उनकी विचारधारा एवं क्रियाकालाप उसके द्वारा प्रभावित हो सके। यदि यह करना संभव हो सका तो,  जीवन के एक नये मार्ग का द्वार उद्घाटित हो जायेगा। वही मार्ग जो सभी मनुष्यों में कर्म-क्षेत्र में संग्राम करने के लिये एक उत्साह और उमंग भर देगा। कर्म के द्वारा ही जीवन-मुक्त हुआ जा सकता है। सभी प्रकार के कर्म करने से आत्म-ग्लानि-मुक्त हुआ जा सकता है। हमलोगों में जो कापुरुषता, दुर्बलता, निष्क्रियता का भाव घर कर चूका है, वह सब दूर हो जायेगा। क्योंकि उस समय हमलोग जो कुछ भी करेंगे, उन समस्त कार्यों की प्रेरणा होगी केवल दूसरों का कल्याण। दूसरों के कल्याण के लिये कर्म करते हुए ही मनुष्य परस्पर में अन्तरंग हो सकते हैं। स्वामीजी इसी प्रकार देश को विकसित करना चाहते थे।
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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

' नारी जाति की उन्नति के विषय में स्वामीजी के विचार'( मनःसंयोग का प्रशिक्षण ही शिक्षा की आन्तरिक वस्तु है)$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [56] (9.समाज और सेवा),

 मनःसंयोग का प्रशिक्षण ही शिक्षा की आन्तरिक वस्तु है 
समग्र मानव-जाती की यथार्थ उन्नति करना ही स्वामी विवेकानन्द के जीवन-कर्म का लक्ष्य  था। उनके इस जीवन-कर्म का निर्धारण श्रीरामकृष्ण के आदेश से हुआ था। सच्चाई तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्धारित कार्यों को पूरा करने के लिए ही शरीर धारण किया था। इसीलिये पहले से अगोचर किसी नामालूम महान कार्य को अंजाम तक पहुँचाने के लिए, नरेन्द्रनाथ के सांसारिक जीवन में अप्रत्याशित ढंग से तीव्र परिवर्तन घटित होने लगे थे। यह देखा गया कि नित्यसिद्ध नरेन्द्रनाथ श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में आने के बाद ब्रह्मज्ञान के अधिकारी बन गये। जबकि उनको अपने लिये मुक्ति प्राप्त करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता था। फिरभी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों की यथार्थ मुक्ति के लिये श्रीरामकृष्ण द्वारा दिशानिर्देश प्राप्त होने के बाद ही, वे समस्त सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो सके थे, और अपने कर्म-जीवन का प्रारंभ किया था।
श्री रामकृष्ण के शरीर त्याग देने के बाद परिव्राजक विवेकानन्द के  नेत्रों के समक्ष -भारतवर्ष की शरीर और आत्मा का समस्त ज्ञान प्रकट हो गया था। उनको यह अनुभूति प्राप्त हुई कि सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों के कल्याण के लिये सर्वप्रथम भारतवर्ष की उन्नति करना सबसे आवश्यक है। उन्होंने यह भी समझ लिया कि विश्व का कल्याण करने के लिये भारत को हर क्षेत्र में प्रगति करनी होगी, और एक उन्नत राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होना होगा।
उन्होंने देखा कि भारत की प्रमुख समस्या दरिद्रता है; और उनको यह भी अनुभूति हुई कि केवल सच्ची शिक्षा ही इस समस्या के समाधान की कुँजी है। उन्होंने घोषणा किया- भारतवर्ष का अर्थ है, भारत के चाण्डाल से लेकर समस्त सामान्य दरिद्र-मूर्ख भारतवासी ! सबसे पहले उनको शिक्षित करना होगा। उनको भूख की समस्या से मुक्त करना होगा, तथा उन्नत अवस्था को स्थायी बनाने के लिये,शिक्षा साथ ही साथ उनको संस्कृति भी देनी होगी।
भारत को उन्नत बनाने के लिये स्वामीजी ने दो प्रमुख आवश्यकताओं की ओर हमारे ध्यान को आकृष्ट किया था- जनसाधारण की उन्नति और नारीजाति की उन्नति। क्योंकि कुछ शिक्षित और दौलतमन्द व्यक्तियों से देश नहीं बनता,बल्कि राष्ट्र तो गाँव की झोपड़ियों में ही बसता है। उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की यथार्थ उन्नति स्त्रीजाति की उन्नति के बिना संभव नहीं हो सकती है। स्वामीजी की इस धारणा की बुनियाद बहुत गहरी है, उन्होंने स्त्रीजाति के प्रति सहानुभूति-सूचक कुछ शब्द इसलिये नहीं कहे थे, कि उनके उदार विचारों के लिये लोगो की प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी।
स्वामीजी की कार्य-पद्धति का वैशिष्ट, जो  विश्व के अन्य किसी समाज-सुधारक में खोजने से भी प्राप्त नहीं होती, वह है -" मनुष्य के समस्त विकास और उन्नति का प्रावधान उसके अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (सत्ता) को जाग्रत कराने के माध्यम से कराना। " वे कहते हैं- " प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता अन्तर्निहित है। कोई स्त्री या परुष चाहे जितना भी नीच से नीच चरित्र वाला भी क्यों न हो, उनका अन्तर्निहित देवत्व कभी विनष्ट नहीं होता है। वह केवल यह नहीं जनता कि इस देवत्व को अभिव्यक्त को अभिव्यक्त कैसे किया जासकता है ? अभी वह केवल अपने सत्य-स्वरूप को उद्घाटित करने की प्रतीक्षा में है।" प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित उस सत्ता को, सुप्त देवत्व (divinity) को जाग्रत करना होगा, एवं दिव्यता को अभिव्यक्त करने की पद्धति का नाम है- मनः संयोग या मन की एकाग्रता का अभ्यास करना।
इसीलिये कहते हैं, " पहले स्त्रियों को उपर उठाना होगा, तथा mass-को (जनसाधारण को ) जाग्रत करना होगा, केवल तभी देश का कल्याण हो सकता है।" वे अपना संक्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं- " सैंकड़ो शताब्दियों के पाशविक अत्याचार के परिणाम स्वरूप उनके शोक,ताप, गरीबी और पाप की जिस करुण ध्वनी से भारत आकाश व्याकुल हो गया है, उसके बाद भी उनके जीवन के बारे में हवाई किले गढने में कमी नहीं हुई। उसी सैंकड़ो युग से मानसिक, नैतिक और शारीरिक अत्याचार को सहते हुए भगवान की प्रतिमास्वरूप स्त्रियों को हमने बच्चा पैदा करने की मशीन बना दिया है, उनके जीवन को विषपूर्ण बना डाला है। यह बात उनको सपने भी याद नहीं आती है। " अपने हृदय में उस पीड़ा का अनुभव करते हुए कहते हैं, " जो देश, जो जाति स्त्रियों की पूजा नहीं करती, वह देश वह जाति कभी बड़ी नहीं बन सकी है, और कभी बन भी नहीं सकती है। तुम्हारी जाति का जो ऐसा अधोपतन हुआ है, उसका मुख्य कारण है, इन शक्तिमुर्तियों की अवमानना करना। जिस घर में स्त्रियों का सम्मान नहीं है, जहाँ स्त्रियाँ खुश नहीं रहतीं, उस परिवार और देश की उन्नति कभी संभव नहीं है। इसीलिए इनलोगों को ही पहले उपर उठाना होगा। " केवल इतना जान लेने से नहीं होगा, कि स्वामीजी ने स्त्रियों के विषय क्या कहा है? मन को एकाग्र करके उनके प्रत्येक शब्द को सुनना होगा, और उसके मर्म को हृदय की धड़कनों में मिलाकर समझना होगा। स्वामीजी कहते हैं, " क्या तुम अपनी स्त्रियों की उन्नति कर सकते हो? तभी उन्नति की आशा है, नहीं तो पशु-जन्म नहीं मिटेगा। "
स्वामीजी ने स्त्रीजाति के प्रति केवल सहानुभूति या श्रद्धा ही प्रकट नहीं किया है,  बल्कि उनको उन्नत करने के लिये हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिये, उसका दिशानिर्देश भी दिया है- " स्त्रीजाति की उन्नति के सम्बन्ध में हमारा अधिकार केवल उनको शिक्षा देने तक है। स्त्रियों को ऐसी योग्यता अर्जित करनी होगी कि वे अपनी समस्याओं का निदान स्वयं खोज सके। उनके लिये इससे अधिक कोई कुछ नहीं कर सकता, और उनके मामलों में हस्तक्षेप करने की चेष्टा भी नहीं करनी चाहिये। तथा अन्यान्य देशो की स्त्रियों के समान हमारे देश की स्त्रियाँ भी योग्यता प्राप्त करने में समर्थ हैं। " आगे कहते हैं, " समस्याएं तो अनेक हैं, और वे बड़ी गम्भीर समस्याएं हैं। किन्तु ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसे 'शिक्षा ' - मन्त्र के बल पर हल नहीं किया जा सकता हो। " स्त्रीजाति की सर्वंगीन विकास के लिये स्वामीजी ने स्त्रियों को उपयुक्त शिक्षा देने पर ही जोर दिया है। कहते हैं,
 " किन्तु यथार्थ शिक्षा क्या है, इसकी समझ अभी तक हमलोगों को नहीं हुई है। " शिक्षा के सम्बन्ध स्वामीजी का सन्देश है- " शिक्षा का अर्थ कुछ शब्दों को सीख लेना ही नहीं है, हमारी कुछ वृत्तियों -शक्ति समूह के विकास को ही शिक्षा कहा जा सकता है, अथवा कहा जा सकता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य को इस प्रकार गठित करना, उसकी इच्छा स्द्विषयों में धावित हो, एवं सफल हो। इसीप्रकार से शिक्षिता होने पर भारत का कल्याण करने में समर्थ निर्भीक महीयसी स्त्रियों का उदय होगा। वे लोग संघमित्रा, लीलावती, अहल्या बाई, और मीराबाई के चरणों का अनुसरण करने में समर्थ होंगी। वे लोग पवित्र, स्वार्थ शून्य, धीर होंगी। भगवान के श्रीचरणों के स्पर्श से जो वीर्य प्राप्त होता है, वे उसी वीर्य को प्राप्त करेंगी, इसीलिए वीर सन्तानों को जन्म देने योग्य माताएं बनेगी। "
व्यवहारिक शिक्षा की शिक्षा धारणा के बिना ही शिक्षा का विस्तार करने विषय में स्वामीजी कहते हैं, " हमलोगों के देश में नारियों को आधुनिका नारियों के सांचे में ढालने चेष्टा चल रही है, उसमें यदि स्त्री-चरित्र के आदर्श से भ्रष्ट करने की चेष्टा की गयी तो वैसी चेष्टा विफल सिद्ध होगी। और प्रतिदिन हम उसका दृष्टान्त देख रहे हैं। भारतीय महिलाओं को सीता के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने विकास की चेष्टा करनी होगी। भारतीय नारी की उन्नति का यही एकमात्र पथ है। " इसी प्रसंग में स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं, " स्त्रियों को आधुनिक विज्ञान की शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए, किन्तु प्राचीन आध्यात्मिकता और धर्म को तिलांजली देकर नहीं। जो शिक्षा भविष्य में प्रत्येक स्त्री को एकही साथ भारत के अतीत युग के नारीवर्ग के श्रेष्ठ गुणों या महत्व को विकसित करने में सहायता करने में समर्थ होगी, वही आदर्श शिक्षा होगी। "
स्वामीजी कहते हैं, शिक्षा की धारणा का उदय हमलोगों में अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ है। यह बात शायद आज भी सत्य है। जीवन,धर्म, शिक्षा, सभ्यता, उन्नति, प्रगति -इन शब्दों का व्यवहार आजकल हमलोग निरन्तर करते रहते हैं, किन्तु इन शब्दों का मर्म हमलोग अच्छी तरह समझते हों ऐसी बात नहीं है। हमलोगों के समाज की वर्तमान अवस्था को देखकर ही समझा जा सकता है। स्वामीजी कहते हैं, " मैं सभी क्षेत्र में धर्म को शिक्षा की  सार वस्तु के रूप में ग्रहण करता हूँ, किन्तु इतना स्मरण रखियेगा कि मैं अपने या किसी दुसरे के धर्म सम्बन्धी समझ को ही 'धर्म' नहीं कहता हूँ। " इसका क्या कारण है ? इसका कारण है कि भारत में प्राचीन समय से ही नारी जीवन के गठन में धर्म का प्रभाव महत्वपूर्ण रहा है।
 जिस मार्ग पर चलने से समस्त अति उत्कृष्ट गुण जीवन में आ जाते हों, उसी का नाम है-धर्म।  इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, कि धर्म के सम्बन्ध में किसी की समझ क्या है, उसकी बात वे नहीं कर रहे हैं। जो वास्तव में धर्म है, उसकी शिक्षा का मूल उपादान बनाना होगा। धर्म ही जीवन का आधार है, वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को धारण, वृद्धि और रक्षा करता है। धर्म को नष्ट करने से जीवन नष्ट हो जाता है, और धर्म को प्रयोग करने से जीवन पूष्ट होता है। जिस वस्तु में यह गुण है, उसी को धर्म कहते हैं। धर्म का अर्थ किसी का अपना ख़याल/समझ या कुछ विशेष आचार-अनुष्ठान मात्र नहीं है। धर्म वह वस्तु है, जो मन की अनियंत्रित कामना-वासना को, शरीर में केवल इन्द्रिय-सुख भोग करने की प्रवृत्ति, प्रकृति के प्रलोभन को जीत लेने का सामर्थ्य प्रदान करता हैं। मनुष्य को उसकी अन्तर्निहित सत्ता को अभिव्यक्त करने में सहायता करता है, स्वार्थपर बुद्धि को सीमित बनाता है, परोपकार की प्रवृत्ति को प्रधानता देने की सदिच्छा प्रदान करती है, जीवन का पूर्ण विकास, पूर्ण उपयोग, और पवित्रता की आकांक्षा प्रदान करती है। जो चेष्टा , जो प्रणाली (मनःसंयोग) इस प्राप्ति को संभव बनाती है, उसीका नाम है धर्म। इसीलिये स्वामीजी धर्म (मनःसंयोग) को " शिक्षा की आन्तरिक वस्तु " समझते हैं। इसीलिये स्वामीजी की धारणा है, " जनसाधारण में तथा नारियों में शिक्षा का विस्तार नहीं होने से कुछ भी भला नहीं होने वाला है। " इससे ही हमलोगों को यह समझ लेना चाहिये कि यथार्थ शिक्षा - जिसका मूल उपादान है वह धर्म जिसकी संक्षेप में विवेचना उपर की गयी है, उस शिक्षा का विस्तार नहीं होने से , " देश का कोई भला नहीं होने वाला है। " विद्यालयों की संख्या में वृद्धि करने से, शिक्षकों की संख्या में वृद्धि करने से, छात्रों की संख्या, पास होने वालों का प्रतिशत, शिक्षा के उपर बजट में कितना धन आवंटित किया गया है, उसके परिमाण मात्र पर यथार्थ शिक्षा का विस्तार नहीं है। 
धर्म की जो मुख्य  विशिष्टता है- देह और मन का नियंत्रण, उसके बिना कोई भी शिक्षा सार्थक नहीं हो सकती है। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, " जिस प्रकार लडकों को 30 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करनी होगी, उसी प्रकार लड़कियों को भी विद्या अर्जित करनी होगी। " किन्तु हमलोग क्या कर रहे हैं ? 
" हमारे देश की महिलाएं विद्या-बुद्धि अर्जित करें, यह मैं जरुर चाहता हूँ। किन्तु पवित्रता को खोकर यदि उस विद्या को अर्जित करने की बात हो, तो वैसी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिये। तुमलोग यह जानते हो, उसके लिये मैं तुमलोगों की प्रशंसा करता हूँ।  किन्तु जिस प्रकार तुमलोग बुराई को फूलों से ढँक कर, उसको अच्छा कहते हो, उसे मैं पसन्द नहीं करता हूँ। "  
स्वामीजी की विचारधारा में स्त्रीशिक्षा का वैशिष्ट क्या है ? प्रारंभ से ही उनके भीतर उन भावों को प्रविष्ट कराकर उनका चरित्र इस प्रकार से गढ़ना होगा कि -चाहे शिक्षा पूर्ण करने के बाद वे विवाह करें, या कुमारी रहें, सभी अवस्थाओं में सतीत्व की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर करने में उनको थोडा भी दुःख या डर नहीं हो।  किसी एक आदर्श की रक्षा के के लिये प्राणों को उत्सर्ग कर देना क्या कम बड़ी वीरता है ? " धर्म, शिल्प विज्ञान, गृह विज्ञान, रसोई बनाना, सिलाई-कढ़ाई, शरीर-विज्ञान, इन सब का स्थूल मर्म ही लड़कियों को सिखाना उचित है। " आगे कहते हैं, " किन्तु केवल पूजा-पद्धति सिखाने से ही नहीं होगा। सभी विषयों के प्रति उनकी नजरें खोल देनी चाहिये। छात्राओं के समक्ष सर्वदा आदर्श नारीचरित्रों को रखकर उच्च त्याग के व्रत में उनके भीतर प्रेम उत्पन्न कराना होगा। सीता, सावित्री, दमयंती, लीलावती, खना, मीरा- इनकी जीवन-चरित्र को लड़कियों को समझाकर उनको अपना जीवन उन्हीं के सांचे में ढाल कर गठित करना होगा।" 
जैसी शिक्षा दी जा रही है, उससे कुछ नहीं होगा। स्वामीजी स्पष्ट रूप में कहते हैं, " किन्तु जैसी शिक्षा दी जा रही है, उस प्रकार की नहीं। सकारात्मक शिक्षा देनी होगी। केवल पुस्तक रटने वाली शिक्षा से बात नहीं बनेगी। जिससे चरित्र निर्मित हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, मनुष्य स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे , इस प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिए। " " ऐसी शिक्षा प्राप्त करके महिलायें स्वयं अपनी समस्या का समाधान कर सकेंग। ' 
राष्ट्रीय उन्नति और नारी उन्नति के विषय में केवल कुछ बातें करना नहीं, जिससे यथार्थ कार्य हो सके, इसके लिये  उनकी योजना थी- " इसीलिये मैं चाहता हूँ कि कुछ ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारणी का निर्माण करूँगा। ब्रह्मचारियों को बाद में संन्यास लेकर देश-देशान्तर के गाँव गाँव में घूमकर जनसाधारण के बीच शिक्षा का विस्तार करने की चेष्टा करनी होगी। और ब्रह्मचारणीयाँ नारियों के बीच शिक्षा का विस्तार करेंगी। तभी तो देश का कल्याण होगा, भारत का कल्याण होगा। " 
पहले उद्देश्य के लिये उन्होंने इसीबीच गंगा के पश्चमी किनारे पर नारियों क एक मठ स्थापित किया था। सीता, सावित्री, दमयन्ती, गार्गी के आदर्श के उदाहरण को बहुत प्रशंसा पूर्वक करने के बाद भी, वे जानते थे कि वर्तमान युग की भारतीय नारियों को श्री श्री माँ सारदा देवी को आदर्श स्वीकार करके ही, अपनी उन्नति करनी होगी। इसीलिये उन्होंने कहा था, " माँ को केन्द्र में रखकर गंगा के पूर्वी किनारे पर स्त्रियों के लिये एक मठ को स्थापित करना होगा। जिस प्रकार यह मठ (बेलूड़ में ) ब्रह्मचारी साधू (सन्त) बनेंगे, गंगा के उसपार भी उसी प्रकार ब्रह्मचारीणी साध्वीयाँ निर्मित होंगी।" भविष्य के भारत के निर्माता युगाचर्य के मुख से निसृत वाणी आज श्री सारदा मठ में साकार हो रही है। 
उन्होंने और भी कहा था, " जो लडकियाँ सदा कौमार्य-व्रत ग्रहण करेंगी, वे ही समय आने पर मठ की अध्यापिका और सन्देश-वाहिका बनकर गाँव गाँव, नगर नगर में केन्द्र स्थापित करके, नारियों में शिक्षा का प्रसारण  करेंगी। चरित्रवती, धर्म-भावापन्न इस प्रकार की धर्म (मनः संयोग) सिखाने वाली अध्यापिकाओं के द्वारा देश में यथार्थ स्त्री-शिक्षा का संचरण होगा। धर्म-परायणता , त्याग और आत्मसंयम यहाँ पढ़ने वाली छात्राओं का आभूषण होगा; और सेवाधर्म उनके जीवन का व्रत होगा। इस प्रकार का आदर्श जीवन देखकर कौन उनका सम्मान नहीं करेगा ? कौन उनके उपर अविश्वास कर सकेगा ? तुम्हारे देश में सीता, सावित्री, गार्गी का फिर से आविर्भाव होगा। "  
स्वामीजी का यह सपना धीरे धीरे साकार हो रहा है। बहुत से स्थानों में इस मठ के केन्द्र स्थापित हो रहे हैं। इनकी सहायता से श्री श्री माँ सारदा देवी को नारी-शक्ति का आदर्श मान कर यथार्थ शिक्षा को अपने अपने जीवन में अर्जित करने और सर्वत्र संचारित करने से समाज में नये प्राणों का संचार होगा। भारत फिर से उठ खड़ा होगा। मनुष्य समाज का यथार्थ कल्याण होगा। 

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

'जन-साधारण की उन्नति और स्वामी विवेकानन्द' (भारत गाँवों में बसता है ) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [55] (9.समाज और सेवा),

भारतवर्ष का कल्याण ही विश्व का कल्याण है !  
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का एक विशेष पहलु है। वे जितना भी जगत की विकास की बातें क्यों न करते हों, समस्त बातों को कहते समय उनकी दृष्टि उस गरीब मनुष्य पर ही टिकी रहती थी। उनको उपर उठाना होगा, उनको सुखी करना होगा। स्वामीजी यह मानते थे कि जनसाधारण को उपर उठाने का अर्थ है, भारतवर्ष को उपर उठाना; और भारतवर्ष के उत्कर्ष का अर्थ है, सम्पूर्ण विश्व का कल्याण। स्वामीजी ने जो भी चिन्तन किया, कहा और किया सबकुछ इसीके लिये था।
उनका समग्र उच्च चिन्तन-उनका राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, वेदान्त, मायातत्व - सम्पूर्ण भावाभिव्यक्ति के केन्द्र-बिंदु में थी भारत की आम-जनता। वे जानते थे कि समष्टि की मुक्ति हुए बिना व्यक्ति की मुक्ति भी नहीं हो सकती है। जो लोग नीचे गिरे हुए हैं, उनको उपर उठाना होगा; उनके लिये सभी प्रकार की मुक्ति, स्वाधीनता का अवसर प्रदान करना होगा। जो प्रजा झोपड़ियों में निवास कर रही है, जो लोग गांवों में रहते हैं, वही है यथार्थ भारतवर्ष ! वे कहते थे-" भारत तो गांवों में ही बसता है। " जब उनकी उन्नति संभव होगी, तभी विश्व सभ्यता का अभ्युदय संभव होगा।
समग्र विवेकानन्द -साहित्य का, उनके विचार-विश्लेषण का मुख्य स्वर है- व्यक्ति मनुष्य द्वारा अपना मूल्य  आविष्कृत कर लेने, स्वयं अपने रहस्य का उद्भेदन करने के माध्यम से समष्टि के साथ उसके (व्यष्टि के)   सम्पर्क-सूत्र को ढूँढ़ निकालने, या व्यष्टि और समष्टि के बीच संबन्ध की कड़ी को ढूँढ़ निकालने में ही, सम्पूर्ण मानवता के यथार्थ कल्याण का बीज छुपा हुआ है ! मनुष्य जब अपने स्वरुप का अन्वेषण कर लेता है, अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेता है, तब उसको यह अनुभूति होती है कि -समष्टि के बिना तो व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है ! उस एकात्मबोध या अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति-सम्पन्न होकर, उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख का अनुभव करते हुए धीरे धीरे आगे बढना- जीवन की सच्ची उन्नति, दिव्यता की सच्ची अभिव्यक्ति इसी प्रकार होती है, इसीको मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना कहते हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते है- " अपने यथार्थ स्वरुप का अनुसन्धान करना ही मनुष्य का भाग्य है। " स्वयं देख लेने के बाद हो, या दूसरों की सहायता से हो- मनुष्य को आत्मसुखी, आत्म-सन्तुष्ट (Self-satisfied) बनना ही होगा। उपर उपर में निरर्थक वस्तु या कचरा चाहे जितना भी क्यों न जम गया हो, उसके नीचे प्रेम-स्वरूप का निःस्वार्थ समाजिक-जीवन का प्राण-स्पन्दन (Life pulse) चलता ही रहता है। इस सत्य (विविधता में एकता ) को अस्वीकार करके, यदि मनुष्य केवल अपने निजी स्वार्थ को पूर्ण करना ही जीवन का उद्देश्य समझ ले, और उसी के पीछे दौड़ता रहे, तो उसके फलस्वरूप मृत्यु अवश्यम्भावी है। 
इस प्रकार विकास का तात्पर्य है जीवनबोध में- प्रगति, प्रेम का विस्तार, शान्ति का अभ्युदय। एक व्यक्ति दूसरे से प्रेम करना चाहेगा। अपनी जरूरतों और निधियों को दूसरों के साथ मिलाना चाहेगा। इसीलिये मूल सत्य (अद्वैत) में विश्वासी होकर, भारतवर्ष के उत्कर्ष की कामना करने वाले सभी भारतवासी भोग के नहीं, संन्यास के आदर्श का ही वरण करेंगे। वे सांसारिक ऐश्वर्य का संग्रह करने के बदले महात्याग के आदर्श को सामने रखकर नये भारत के उत्कर्ष को साकार कर दिखायेंगे। संन्यासी के प्राण-धारण का उद्देश्य परम सत्य की अनुभूति की वासना को पूर्ण करना होता है, इसीलिये संन्यासी की एकमात्र इच्छा -अर्थप्राप्ति की नहीं, परमार्थ की होती है। और वह परमार्थ है अपने आचरण के द्वारा प्रेम और निःस्वार्थपरता को अभिव्यक्त करना। व्यवहारिक जीवन में अन्य अभावों के बीच रहकर भी मनुष्यत्व प्राप्त करने के लिये जितने भी गुण होने चाहिये, उनको अपने आचरण में प्रस्फुटित कर लेना ही सम्पूर्ण भारतवर्ष का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार किसी देश का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश के मनुष्य क्या करते हैं, और कितना करते हैं-इसके उपर। मनुष्य जिस प्रकार अपने व्यक्तिगत कार्यों/कर्म के द्वारा अपने व्यक्तिगत भाग्य का निर्माण करता है, उसी प्रकार समस्त देशवासियों के सामूहिक कार्यों के (Collective work) के द्वारा उस देश की सम्पूर्ण जाती या राष्ट्र का भग्य भी निर्मित होता है। फिर जिस प्रकार इच्छा के द्वारा ही कर्म साधित होता है; इसीलिये इच्छाशक्ति की फुर्ती (alacrity) और उसकी गति को अपने नियंत्रण में रखने के ज्ञान का महत्व की भी सीमा नहीं है।
 भारतवर्ष के जो ग्रामीण मनुष्य हैं, जो आम गरीब लोग हैं, उनकी इच्छाशक्ति के प्रवाह की गति किस दिशा में है ? त्याग के आदर्श को ही सच्चे अर्थ में अभिव्यक्त करने की दिशा में है। भारत की विशाल ग्रामीण जनसंख्या के भीतर जो राष्ट्र जीवित है, उसके भीतर भी उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त स्वाभाविक विचारधारा में आज भी त्याग का भाव ही जीवित है। किन्तु विजातीय विरोधी भावों के कुछ स्वार्थान्ध भोगी मनुष्यों  के आसुरी प्रवृत्ति के अवास्तविक प्राबल्य (Apparent dominance) के प्रभाव में आकर त्याग के आदर्श में श्रद्धावान मनुष्य भी अपने भीतर आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के आभाव का अनुभव कर रहे हैं। और जो त्याग के भाव के साथ प्रगति करना चाहते हैं, उनके लिये बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं।स्वामीजी कहते हैं, केवल इनको पेटभर सत्तू खाने को भी मिल जाये तो वे, अपनी आन्तरिक महाशक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। इनके लिये दो शाम के भोजन की व्यवस्था करनी होगी। इनके विश्वास को, इनके त्याग के आदर्श को प्रतिष्ठा देनी होगी, उनसे प्रेम करना होगा, सबसे पहले इनको इनका अधिकार लौटा देना होगा। अपने स्वार्थ के लिये उनको अशिक्षित और आत्मश्रद्धा रहित बनाने के समस्त कूचेष्टाओं को विसर्जित कर देना होगा। सुविधाभोगी, मतलबी, स्वार्थी मनुष्यों का जो समूह केवल संचय की मनोवृत्ति लेकर जीते हैं, जो केवल दैहिक भोग को ही जीवन का आदर्श समझते हैं, और उसीके साथ साथ जनसधारण की उन्नति के लिये कानून बनाने की बातें भी करते रहते हैं, उनके विषय में सावधान कराते हुए स्वामीजी कहते हैं- " वे गलतफहमी में जी रहे हैं, वे नहीं जानते हैं कि पहले से ही हमारे देश के सामाजिक जीवन का आदर्श त्याग रहा है, वर्तमान में भी वही है, और भविष्य में भी चाहे कोई आशा करे या नहीं, त्याग ही भारत का आदर्श बना रहगा। क्योंकि मनुष्य के व्यष्टि और समष्टि जीवन में त्याग ही एकमात्र ऐसी नीति है, जिसका पालन करने से हम मनुष्य बने रहते हैं, और हमारा राष्ट्र आजतक जीवित है। 
श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ इस नीति की वास्तविकता पुनर्प्रतिष्ठित हुई है। स्वामीजी ने कहा है कि गरीबों को उपर उठाने के लिये ही श्रीरामकृष्ण ने शरीर धारण किया था। श्रीरामकृष्ण को देखने, उनके जीवन का परिचय प्राप्त करने से यह जाना जा सकता है कि त्यागी-चरित्र की शक्ति सामने अन्य सभी प्रकार की शक्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। सच्चा मनुष्यत्व क्या चीज है, चरित्र-गठन किसे कहते हैं, जीवन को सुन्दर, सम्मानजनक बनाने वाले अवश्य पालनीय निर्णयात्मक गुणों की आवश्यकता कहाँ होती है- इत्यादि बातों को सामान्य मनुष्य समझना सीख जायेगा, और उसके फलस्वरूप उसका अपना जीवन भी उन्नत हो जायेगा। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में उत्कर्ष लाने के लिये इसके सिवा अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है।  
आज जिस बात की आवश्यकता है, एक ओर तो जैसे सामान्य मनुष्यों को भी आत्मबोध की अदम्य उर्जा का श्रोत का पता देना, और दूसरी ओर व्यवहारिक जीवन की जरूरतों को स्वीकार करके उनकी समस्त इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति का एकीकरण करना। संघबद्ध जीवन की अनुभूति के मूल में जो एकत्व विश्वास और आध्यात्मिकता में आस्था की जरूरत होती है, उसी को अर्जित करने के लिये स्वामीजी चरित्र-गठन की पद्धति आत्म-मूल्यांकन तालिका के उपर इतना जोर देते थे। 
बड़ी बड़ी योजनाओं की आवश्यकता नहीं है, अभी जिस कार्य को करना आवश्यक है वह है- अपने जीवन को (त्याग के साँचे में ढाल कर ) आदर्शरूप में गढ़ कर, इन गरीब मनुष्यों के पास एकात्मता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना। कोई किसी से छोटा नहीं है, जीवन की संभावना के विषय में सभी मनुष्यों की मौलिक महिमा एक ही स्थान पर है, वह यही है कि अवसर मिलने और बाधा हट जाने (प्रतिबन्धक कर्म समाप्त हो जाने ) के बाद प्रत्येक व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त कर सकता है। मनुष्य के रूप में जीने और बड़ा बनने के लिये जो जीवन-संघर्ष चल रहा है, वह अपने अपने क्षेत्र में सबों के लिये महान है। व्यवहारिक जीवन में आजीविका पाने के लिये संघर्ष, मानसिक,आध्यात्मिक अपूर्णता को दूर करने के लिये संघर्ष - इसी प्रकार का भाग्य (प्रारब्ध) लेकर सभी मनुष्य को जीवनयात्रा पूर्ण करनी होती है। जीवन का यही नियम है। इस कुदरती कानून के प्रति श्रद्धा रखनी ही पड़ती है, और इसीलिये हमलोगों के जीवन की सफलता या सार्थकता आपसी फूट, पारिवारिक अलगाव में नहीं है, ऐक्यब्द्ध शक्ति के आविष्कार करने और उसके कुशल प्रयोग में है। श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द के जीवन और सन्देश की गहरी-विवेचना (अनुध्यान) करने से यही सत्य प्रकट होता है।
       

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

' विवेकानन्द और समाज' " एकमात्र भारत माता को ही अपनी आराध्या मानो ! [$@$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [54] (9.समाज और सेवा),

विवेकानन्द 'काल-वैशाखी' के तूफान थे ! 
ऐसा तकाज़ा बहुत थोड़े से लोगों के मन जगता है, कि समाज की अवस्था के विषय में या देश की अवस्था के विषय में, हमलोगों को भी कुछ  सोचना चाहिये, और उस विषय में कुछ करने की क्षमता भी रहनी चाहिये।  समाज में जो कुछ हो रहा है, उसके विषय में आमतौर से हमलोगों की मानसिकता रहती है-
' गाँव-समाज का अच्छा-बुरा सोचने के लिये मेरे पास समय नहीं है। '  किन्तु ' अच्छा-बुरा सोचने का समय मेरे पास नहीं है ' की मानसिकता के साथ समय बिता देने से वर्तमान अवस्था और अधिक नहीं बिगड़ेगी, ऐसी कोई निश्चितता नहीं है। 
जब कभी कोई बेहद दुःखद घटना घट जाती है, तब जरुर हमलोग हल्ला मचाते हैं कि हमलोग को अब कुछ न कुछ करना ही होगा, एक आन्दोलन, कोई बलवा, कुछ श्लोगन आदि सामूहिक रूप में करना होगा। किन्तु इस बात के उपर हमलोग कोई विचार नहीं करते हैं कि हमलोगों का नैतिक रूप से जो अधोपतन हो रहा है, इस नैतिक अधोपतन को बन्द करना अनिवार्य है। इस दिशा में कोई प्रयास नहीं करने से, समाज इतना अधोपतित हो जायेगा कि राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होने का कोई उपाय ही नहीं बचेगा।
वर्तमान समाज की जो भी दुरावस्था है, उन सबका मूल कारण है-नैतिक अधोपतन। इस बात पर चिन्तन करने तथा समझने वाले लोग, बिल्कुल नहीं है, ऐसी बात नहीं है, किन्तु वैसे लोगों की संख्या बहुत कम है। हमलोग केवल इतना ही समझते हैं, कि मुझे अपने प्राणों की रक्षा हर हाल में करनी चाहिये। यदि किसी डूबते हुए व्यक्ति को कोई आम आदमी भी यह परामर्श दे, कि तुमको अपने प्राण बचाने के लिये इस सुखी घास के छोटे से तिनके को पकड़ लेना चाहिये, तो वह डूबता हुआ व्यक्ति बिना अधिक सोचे-विचारे किये ही उस तिनके को पकड़ लेता है। यह बिल्कुल स्वभाविक बात है, इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। किन्तु हमलोगों को उससे थोड़ा अधिक विचार करना चाहिये। क्योंकि देश की वर्तमान अवस्था जैसी है, उससे क्या परिणाम भविष्य में देश को भुगतना पड़ेगा, किसी राजनैतिक महात्मा का अनुसरण करते करते देश जिस रास्ते पर चल निकला है, उसका क्या परिणाम होगा ?  उसको किस दिशा में परिवर्तित करने से भविष्य अच्छा बन सकता है, या नहीं बन सकता है ? इन सब बातों पर चिन्तन करने की आवश्यकता है।
जिस प्रकार कृत्रिम उपग्रह ऐपल को अन्तरिक्ष में भेजने के पहले बहुत दिनों तक उसके उपर कार्य किया गया था। उसके बाद भी उसमें कुछ कमी रह ही गयी थी, जिसके कारण उसको अपनी जिस पूर्व-निर्धारित कक्षा में घूमना चाहिये था, बिल्कुल उसी रूप में नहीं पाया गया। एक दूसरा अन्तरिक्ष-यान भेजकर उसको दुरुस्त करने की चेष्टा करनी पड़ी थी। हमलोगों के समाज में भी ठीक वैसा ही हो रहा है। समाज को जिस दिशा में ले जाने से  या जिस परिक्रमा-पथ में चलने पर कल्याण होगा, वैसे पथ से चलाने में बिल्कुल अक्षम हो रहे हैं। जिस पथ पर वह मनमाने तरीके से चल रहा है, उसी प्रकार चलते रहने का फल अच्छा ही होगा, इस बात को निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता है। जब यह दिखाई दे रहा हो कि समाज बुराई की दिशा में आगे बढ़ रहा है और उसका परिणाम बुरा ही हो सकता है, तब सोच-विचार कर समाज के परिक्रमा-पथ को निर्धारित करना चाहिये और उसको उसी पथ पर चालित रखने के उपर चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है।
देश की वर्तमान परिस्थिति के कारणों के उपर विचार करना ,तथा उन विचारों को प्रबुद्ध लोगों, विशेष तौर से युवाओं के मन में संचारित करा देना हमलोगों का कर्तव्य है। ताकि युवा लोग देश का भविष्य अच्छी तरह से निर्माण करने के लिये जो करना आवश्यक हो, उसके लिये प्रयासरत हो जाएँ। किन्तु अधिकांश लोग इस विषय में सोचने के लिये भी किसी उत्साह का अनुभव नहीं करते हैं। हमारे देश-वासियों में जितनी भी कमियाँ हैं, स्वामी विवेकानन्द ने उनमें से जिस कमी को विशेष रूप से लक्ष्य किया था, वह यही है कि हमलोगों में आत्मविश्वास नहीं है। हमारे बहुत से देशवासियों ने निजी रूप से अभी अपना आत्मविश्वास खोया है, किन्तु राष्ट्र के रूप में तो हजारों वर्ष पूर्व ही हमने अपना आत्मविश्वास खो दिया था। केवल आत्मविश्वास ही नहीं खोया था, बल्कि इसी कारण दूसरों से घृणा करना भी सीख गये थे ! तथा (आत्मविश्वास खो देने के कारण ) अपने प्रति भी एक प्रकार की घृणा का भाव का पोषण भी करते आ रहे हैं-मानो हम कुछ भी नहीं हैं। जिस समय से हमने दूसरों को म्लेक्ष कहकर उनसे घृणा करना शुरू कर दिया था, उसी समय से हमारे देश का पतन होना शुरू हो गया था। अब वह इतना गिर चुका है कि वहाँ से उठने का कोई उपाय भी नजर नहीं आ रहा है।
 इसीलिये हमलोग कहते हैं, युवाओं को देश की वर्तमान अवस्था के उपर विचार करना चाहिये, तथा उसका सुन्दर भविष्य का निर्माण कैसे हो सकता है, उसका कोई उपाय ढूंढ़ निकालना चाहिये। फिर उस उपाय को व्यवहारिक रूप देने के लिये श्रम करना भी आवश्यक है, इसलिये इसी कार्य में अध्यवसाय के साथ लगे रहना भी उचित होगा। हमलोग अभी 'Be and Make ' को लेकर जितनी बातें कहते हैं, उसे सुनकर बहुत से बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है, मानो हमलोग कोई खयाली पुलाव पका रहे हैं, जो कभी संभव नहीं है। किन्तु अन्य प्रकार की जितनी धारणायें, परियोजनाएं, पद्धति, उपाय जो लोग कहते या सुनते रहते हैं, उन सबको बिना कुछ सोचे-विचारे ही ग्रहण कर लेने की एक प्रवृत्ति हममें रहती है। मानो यह सब कर देने (केजरीवाल-आन्ना हजारे, लोकपाल ला देने, कांग्रेस हटा देने आदि आदि) से रातों-रात समस्त समस्याओं का समाधान हो जाने वाला है।
ऐसी प्रवृत्ति क्यों हो जाती हैं ? इस बात को थोडा विचार करने से ही समझा जा सकता है, किन्तु हमलोग उस पर विचार नहीं करते हैं। हमलोगों में यथा-स्थिति बनाये रखने या उदासीन बने रहने के प्रति एक स्वाभाविक आसक्ति रहती है। हमलोग अक्सर कहते रहते हैं कि यथा पूर्व स्थिति में रहना या ' status quo ' बनाये रखना ठीक नहीं है, किन्तु सच्चाई यह है कि हमलोग इतने जड़-भावापन्न हो गये हैं, ' status quo ' के साथ इतने अधिक जड़ित हो गये हैं, कि अब हम इस विषय पर विचार भी करने को तैयार नहीं हैं।
आत्म-विश्लेषण तो हम बिल्कुल नहीं करते हैं ! (अर्थात हम आत्मा हैं या शरीर हैं ? इस बात पर कोई विचार नहीं करते हैं) किन्तु हम अपने को घोर विश्वासी कहते हैं, कोई भी व्यक्ति अविश्वासी नहीं है। परन्तु हममें से हर व्यक्ति का विश्वास अलग अलग है, और किसी का भी विश्वास तर्क के उपर आधारित नहीं है। तर्क की कसौटी पर कसने के बाद कोई विश्वास नहीं करता है, अकस्मात मैं किसी के उपर विश्वास करने लगता हूँ, वे अन्य किसी पर विश्वास करते हैं, इसी प्रकार बहुत से लोग अचानक अलग अलग विश्वास करने लगते हैं। कोई भी व्यक्ति तुलनात्मक विश्लेषण करने के बाद विश्वास नहीं करता है। और इसीकारण हमलोग जिस पर विश्वास करते हैं, या कर रहे हैं, अंधों के समान समझ लेते हैं कि उसी प्रकार चलते रहने से देश का कल्याण हो जायेगा।
उदाहरण के लिये-स्वाधीनता प्राप्त होने के पूर्व लगभग सभीलोग इस बात परएकमत हो गये थे कि, " जब हमारा देश राजनैतिक रूप से स्वाधीन हो जायेगा, तो देश का कल्याण होगा।" इसके साथ ही साथ यह भी मान लिया गया था कि जब हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र हो जायेंगे तो तभी हम अपने अपने दलों को भी अच्छी तरह से गठित कर सकेंगे। (अर्थात अच्छे अच्छे कार्यकर्ताओं को जमा करेंगे करेंगे ) फिर  उसके बाद यदि देश में यदि देश में प्रजातंत्र (democracy) भी स्थापित कर सकेंगे, तो देश का हर प्रकार से मंगल करना संभव हो जायेगा।  हम सभी करोड़ो भारतियों ने आँखें मूंद कर,स्वयंसिद्ध रूप से इन बातों को ग्रहण कर लिया था। किन्तु हमने इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं किया कि क्या केवल प्रजातान्त्रिक व्यवस्था अपना लेने से ही सचमुच देश का कल्याण  होना संभव है ? उस समय शायद किसी भारतीय के मन में भी यह विचार नहीं उठा था कि केवल सरकार को बदल कर कोई देशी सरकार आ जाने, तथा प्रजातंत्र की स्थापना हो जाने, मात्र से ही देश का कल्याण नहीं हो सकता है ! स्वाधीनता प्राप्त हो जाने के बाद कुछ वैसे लोग जिनके पास सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने का मौका था, उनलोगों ने सोचा-' बहुत दिनों से कष्ट झेल रहा था, अभी तो अवसर मिला है। ' अब आराम किया जायेगा, सुख भोगा जायेगा और सत्ता का लाभ उठाकर जमीन-जायदाद का अम्बार खड़ा किया जायेगा। हममें से अधिकांश लोगों ने बिना सोचे-विचारे इसी ढर्रे को स्वीकार कर लिया है-और इसीको अँधविश्वास कहते हैं। तर्क पूर्वक विचार करना हमने सीखा ही नहीं है।
 मैं जितनी भी कोशिश करता हूँ कि स्वामी विवेकानन्द के नाम को उद्दृत नहीं करूँगा, उतनी अधिक उनकी बातें आँखों के सामने कौंध उठती हैं। उनकी बातें इसी कारण सामने आ जाती हैं कि, इस व्यक्ति ने देश के हर क्षेत्र की समस्याओं के उपर गहराई से विचार किया है, तथा बहुत सोच-विचार करने के बाद कहा है- " एकमात्र भारत माता को ही अपनी आराध्या मानो ! केवल उनकी ही पूजा करो। उनको जाग्रत करो, केवल तभी स्वाधीनता प्राप्त हो सकेगी। " फिर इसके साथ ही साथ कहते हैं, " स्वाधीनता यदि प्राप्त प्राप्त हो भी जाएगी, तो उससे तुमको क्या लाभ होगा? तुम क्या स्वाधीनता को सुरक्षित रख सकोगे ? तुम क्या देश की सच्ची उन्नति कर सकोगे ? नहीं कर सकोगे; क्यों ? इसीलिये कि तुम्हारे देश में मनुष्य नहीं हैं। " हालाँकि उनकी ये बातें सुनने में बहुत कड़वी लगती हैं। किन्तु इस बात को उन्होंने कितने दिनों पहले ही कहा है। ' तुमलोग मनुष्य निर्माण करने की चेष्टा करो ! मनुष्य ही यदि नहीं होंगे, तो स्वाधीन हो जाने के बाद भी तुम कुछ कर नहीं पाओगे।' -किन्तु स्वामी विवेकानन्द के आह्वान को कौन सुनने वाला है ?
देश में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द के नाम को सुना हो ? हो सकता है, इस समय बहुत से लोग उनके नाम को जान गये हों, किन्तु हमलोगों की दृष्टि में उनका चेहरा (परिचय) कैसा है ? हम उनका केवल इतना ही परिचय जानते हैं कि -दक्षिणेश्वर में (गदाई नामक ) एक पुजारी ब्राह्मण थे, वहाँ कोई तांत्रिक स्त्री आई और उनको दीक्षा दी, उसके बाद उनका नाम बदल कर 'रामकृष्ण' हो गया और -'परमहँस' की पदवी प्राप्त हो गयी। और एक युवक नरेन् था, जो ब्रह्म-समाज में जाया करता था, और भी कितनी जगहों पर जाता रहता था। उसके बाद एक बार उसका परिवार घोर गरीबी में घिर गया था। उसके बाद अकस्मात एक दिन वह युवक उस पगले ब्राह्मण पुजारी के पल्ले पड़ गया था। वे शायद कुछ जादू-टोना भी जानते थे। पता नहीं किस प्रकार उस युवक को अमेरिका भेज दिये। और अमेरिका जाकर वहाँ की धर्म महासभा में वे सिर पर एक बहुत बड़ी पगड़ी बांधे हुए थे और 'हिन्दू-धर्म ' के उपर बहुत लम्बा भाषण दिए थे,और उनके भाषण के बाद, वहाँ के लोगों ने बहुत देर तक तालियाँ बजाई थीं। आमतौर से स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग इतना ही जानते हैं।
बहुत पढ़े-लिखे, कॉलेज के अधिकांश प्रोफेसर लोग भी, स्वामीजी के बारे में बहुत कम ही जानते हैं। फिर जो तथाकथित अशिक्षित लोग हैं, उनमें से भी अधिकांश लोग उनको एक मानव-प्रेमी व्यक्ति समझकर उनके प्रति विशेष श्रद्धा रखते हैं। वे यह भी जानते हैं कि स्वामीजी से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु हमारे देश के जो तथाकथित शिक्षित (केजरीवाल-अन्ना ह्जारे टाइप लोग या सीधे-साधे संघी ) लोग हैं, वे स्वामीजी के जीवन और उनकी विचार-धारा के बारे बहुत कम ज्ञान रखते हैं। वैसे लोग कभी कभी पूछते हैं, (रानाडे द्वारा  लिखित पुस्तक 'उत्तिष्ठत-जाग्रत' में जो लिखा है, उससे अधिक) उनकी जानकारी किस पुस्तक को पढ़ने से होगी, जरा आप ही बताइए तो ?
 एक बार किसी I.A.S. (प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ) ने किसी से सुनकर, हिन्दी में प्रकाशित विवेकानन्द साहित्य 10 खण्डों में से 5 वें खण्ड में वर्णित स्वामीजी द्वारा  ' कोलम्बो से अल्मोड़ा ' तक दिये गये भाषणों को पढ़ना शुरू किया। पढ़ते पढ़ते उनकी आँखें एक स्थान पर पड़ी -जहाँ स्वामीजी ने कहा है, " ...बहुत हुआ तो कलर्की (किरानीगिरी) का ही दूसरा नाम डेपुटीगिरी करना-यही तुमलोगों के जीवन का उद्देश्य है ? " इतना पढ़ते ही उनकी (सिविल सेवा में प्रशासनिक अधिकारी - जो लालू जैसे नेताओं के बच्चे का जूता बाँधते  हैं ) सारी भक्ति धुआँ हो गयी। किसी विधान-सभा के सदस्य ने एकबार स्वामीजी की जीवनी और उपदेशों की संकलित एक छोटी सी पुस्तिका " स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान " को पढ़ने के बाद आश्चर्यचकित होकर कहा था, " ये सब बातों को स्वामीजी ने कहा है ! मुझे तो यह पता भी नहीं था। "
हमलोगों ने यदि स्वामीजी की बातों पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता, तो हमारे देश की प्रगति बहुत सुगम हो जाती। हमलोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, वह सही रास्ता नहीं है, इसका कितना प्रमाण (कॉमन वेल्थ,2G, कोल गेट के बाद भी ) और चाहिये ? विगत 65 वर्षों से हमलोग राजनैतिक रूप में स्वतंत्र हैं। हमलोगों ने देश को उन्नत राष्ट्र बनाने के जितने भी बड़े बड़े दावे किये थे, वे सभी बहुत ठीक नहीं साबित हुए- क्या इसे सिद्ध  के लिये अभी और अधिक प्रमाण की जरुरत है ?
हाँ, बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो कहते हैं- ' जो हो रहा है, सब अच्छा हो रहा है। ' क्योंकि वे लोग अपने दलगत स्वार्थ या व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने के उद्देश्य से यथार्थ सत्य के प्रति अपनी आँखे मुन्दे रखना चाहते हैं। सरकारी योजनाओं की वास्तविक सच्चाई क्या है, उसको जानते हुए भी वे अनजान बने रहते हैं, क्योंकि इसीसे उनका अपना उल्लू सीधा होता है। वे दावा करते हैं कि भारतवर्ष  काफी उन्नति हुई है। किन्तु कैसी उन्नति हुई है, उसका अनुभव हमें हड्डी-हड्डी तक में हो रहा है। जिस देश में करोड़ो मनुष्यों को दो जून की रोटी भी नहीं नसीब होती, वहाँ उन्नति के लिये पहले घर-घर में रंगीन टी.वी. पहुंचाए बिना देश की प्रगति नहीं हो रही है। जैसा स्वामीजी कहते थे, भाषण बहुत दे चूका, अब और भाषण नहीं चाहिये-क्या कोई ऐसे महापुरुष हैं, जो देश की साधारण जनता के कल्याण की चिन्ता करते हैं ? क्या कोई युवा वैसा है ? यदि कुछ लोग भी हों, तो कृपा करके आगे आइये। हमलोग इतने निर्दयी बन चुके हैं कि अब हमलोगों में से किसी में भी मनुष्यों का कल्याण कैसे होगा, इस बात पर विचार करने का भी साहस नहीं है। हम केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के बारे में सोचते हैं, या बहुत हुआ तो उसको पूर्ण करने के लिये दलगत स्वार्थ की बात सोचते हैं। यही तो आज हमारे देश की अवस्था है।
और हम जैसे कुछ लोग, जो स्वयं को एक विचारक की श्रेणी में रखते हैं, हमलोग न जाने कितने ही बेकार के तत्वों के उपर बहस करने में उलझे रहते हैं। जैसा ठाकुर कहानी कहते थे, ' एक आदमी आम के बगीचे में पहुंचकर गिनती करने लगा, कितने पेड़ है; उसमें भी कितने किस्म के आम के पेड़ हैं, कहाँ से उस आम की कलम को लाया गया था ? यही सब जानते जानते धुप में अपना सिर गर्म कर लेते हैं। और एक दूसरा व्यक्ति आता है, वह सीधा माली के पास जाकर यह जान लेता है, कि अच्छी जाति के आम का पेड़ कौन सा है ? और उस पेड़ के कुछ आम को खाकर तृप्त हो जाता है।'
उसी प्रकार हमलोगों के लिये भी यह जान लेना आवश्यक है कि सम्पूर्ण देश का कल्याण करने के लिये सबसे पहले क्या करना  अच्छा होगा ? फिर उसे समझ लेने के बाद उसे कार्य में उतारने के प्रयास में लग जाना चाहिए। सबसे पहले हमें अपने भीतर, यह जानने की उत्कंठा, ललक या जोश (ardor) को जगाना आवश्यक है- कि देश का कल्याण क्या करने से हो सकता है ?  हमलोग स्वयं इस बात पर गहराई से विचार करेंगे, और स्वयं हमलोग ही उसका उपाय भी खोज निकालेंगे। दूसरे लोग इस बारे में क्या सोचते, नहीं सोचते हैं,उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है। हमलोगों का आत्मविश्वास इतना घट चूका है, कि हमलोगों में स्वयं इस विषय में विचार करने की क्षमता भी नहीं है; हमारा कल्याण कैसे होगा, इसके लिये विदेशों से विचार भी उधार लेने पड़ते हैं। और यही सब करते करते देश का सर्वनाश हो गया है। यद्दपि हमलोग खाद्यान्न उत्पादन में स्वनिर्भर हो गये है, किन्तु अब भी खाद्यान्न का आयात होता है, दूसरी ओर विडम्बना यह है कि हमलोग खाद्यान्न का निर्यात भी कर रहे हैं। इसके बावजूद लाखो टन अनाज खुले में रखे होने के कारण हर साल सड़ जाते हैं। यही तो है हमारे देश की अवस्था। (क्या हो गया है हमलोगों के नीतिनिर्धारक लोगों को ? क्या हम मनुष्य हैं ?) 
ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका कारण यही कि स्वामीजी के परामर्श पर हमलोगों ने थोडा भी ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने देश की भलाई के लिये जो भी उपाय सुझाये थे, हमने उनको सुना ही नहीं है। क्योंकि हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द के उपर ' हिन्दुधर्म के प्रवक्ता ' का लेबल लगाकर उनको अलग कर दिया है, और एक ' धर्मनिरपेक्ष -राष्ट्र ' का निर्माण करने का झांसा देकर भारत के नागरिकों को अपना वोट-बैंक बना लिया है।  स्वामीजी भले ही हिन्दू-धर्म के एक महान प्रवक्ता रहे हों, किन्तु (इस धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में उन जैसे भगवा-धारी सन्त की  क्या आवश्यकता है ? ) हमलोगों को उनकी आवश्यकता नहीं है।
 हमलोगों को (किसी भगवा-धारी सन्त की नहीं बल्कि किसी नकली ) धर्म निरपेक्ष राजनैतिक महात्माओं  (कंग्रेसिया साधू सन्त बिनोबा .... आदि ) की आवश्यकता है। और उनके बताये सिद्धान्तों पर चलते चलते आज हम कहाँ पहुँच चुके हैं, (यहाँ से किधर जाना है, 2014 में किसके युवराज के या अर्थशास्त्रीजी के या 2G के- नेतृत्व में चुनाव होगा ?) यह अभी कुछ तय नहीं है।
हमलोग स्वामीजी को तो बिलकुल नहीं जानते हैं, किन्तु जो उनको जानते थे, उनके मुख से सुना जाता है कि उन्होंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था। किन्तु वे निर्विकल्प समाधि में ही डूबे नहीं रहना चाहते थे। अपनी अधिकांश यात्रा उन्होंने देश भर में पैदल घूम कर पूरी की थी। इस दौरान हर श्रेणी के मनुष्यों के साथ रहकर उनके दुःख-कष्टों को समझा था, किसी भी मनुष्य को दुःख क्यों होता है ? किस प्रकार उनके दुःख को दूर किया जा सकता है ? यह सब उन्होंने खोज निकाला था। हमलोग जब बुद्धदेव के बारे में सुनते हैं कि मनुष्य के दुःख को देखकर वे उसको दूर करने का उपाय खोजने के लिये उन्होंने गया में बोधिवृक्ष ने नीचे बैठकर कठोर तपस्या किया था, तो हमलोगों को यह सब मनगढ़ंत कहानी भी प्रतीत हो सकती है। किन्तु स्वामीजी ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, किन्तु उस समाधि के आनन्द का भी उन्होने त्याग कर दिया था-इस बात को जब हमलोग उनके मुख से सुनते हैं, जिन्होंने स्वामीजी को देखा था और स्वयं भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, तो हमलोग इस बात पर अवश्य विश्वास कर सकते हैं।
 क्यों विश्वास कर सकते हैं-इसको भी देखा जाय। जिन बड़े बड़े वैज्ञानिकों के आविष्कारों के विषय में हमलोग जानते हैं, और विश्वास करते हैं, उनके प्रत्येक खोज को हमलोगों ने स्वयं प्रयोगशाला में सिद्ध करके नहीं देखा है, किन्तु विश्वास करते हैं। उसी प्रकार जो लोग उस सर्वोच्च ज्ञान के अधिकारी हैं, उनकी बातों पर भी हमलोग विश्वास कर सकते हैं। हमलोग इस बात को भी जानते हैं कि वही ब्रह्मज्ञानी विवेकानन्द अपने देश भारतवर्ष से इतना प्यार करते थे कि यहाँ के वासियों की दुर्दशा के बारे में सोच-सोच कर अकेले में अश्रु वर्षित करके रोते थे। किन्तु क्या आज भारतवर्ष में एक भी ऐसे नेता हैं, जो मनुष्य के दुःख से कातर होकर अकेले में (भाषण के मंच पर खड़े होकर नहीं ) अश्रुवर्षा करते हैं ? केवल मंच पर चढ़ कर भाषण देते समय नेताओं को घड़ियाली आंसू बहाते हमलोग देख सकते हैं।
वही ब्रह्मज्ञानी विवेकानन्द कितने दिनों पहले कहे थे- " विदेशों में जाकर मैं तुम्हारे वोट, बैलेट, पार्लियामेन्ट आदि समस्त व्यवस्थाओं को नजदीक से देख आया हूँ, हे रामचन्दर ! इसमें आँख में धूल झोंकने के सिवा और कुछ नहीं रखा है। सभी देशों का एक ही हाल है, दस-पाँच चालाक लोग जिस दिशा में देश को चलाना चाहते हैं, उसी दिशा में भेड़ों की झुण्ड के समान (भेंडिया धसान ) सभी लोग बह जाते हैं। " उन्होंने कहा था, " तुमलोग यदि देश को सचमुच प्यार करते हो, देश का यदि निर्माण करना चाहते हो, तो उसके लिये जो मूल कार्य है-' जन-शिक्षा ' (आमजनता को मनः संयोग सिखाने वाली शिक्षा का प्रचार प्रसार करने वाले शिक्षा-क्रांति के अग्रदूतों का निर्माण करने ) पर ध्यान दो। " 
आजकल हमलोग कई रटे-रटाये शब्दों को दुहराते रहते हैं, किन्तु उसके उपर गहराई से सोच-विचार नहीं करते है । वेदान्त का अर्थ ही होता है-साम्यवाद ! भारतवर्ष ने जिस सर्वोत्कृष्ट महान अध्यात्मिक सत्य का आविष्कार किया है, वह है साम्य ! अपने जिस अध्यात्मिक ज्ञान के उपर भारतवर्ष प्राचीन काल से ही गर्व करता आ रहा है, उसपर गर्व करना भारतवर्ष के लिये सर्वथा उचित है। किन्तु बीच में जब (हजार वर्षों की गुलामी के कारण) भारत-वासियों ने अपने पुरखों ऋषि-मुनियों के उपर गर्व करना छोड़ दिया था, उसीके कारण भारतवर्ष का ऐसा अधोपतन दिखाई दे रहा है। ऋषि-मुनियों की सन्तानें पशु की अवस्था में डूबती जा रही हैं (यहाँ भी लिविंग रिलेशन और ...को कुछ मूर्ख अपना रहे हैं !)
स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशों को चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमलोग यदि अपने जीवन में आध्यात्मिकता को नहीं अपनाओगे, तो मात्र अगले पचास वर्षों के भीतर ही तुमलोगों का सामूहिक विनाश की कागार तक पहुँच जाओगे। " उनकी इस भविष्यवाणी को स्वामीजी के देहावसान के केवल 12 वर्ष बाद प्रथम विश्व-युद्ध, और द्वित्य विश्व युद्ध के रूप में, हमलोगों ने सत्य होते देखा जिससे धरती पर कितना विध्वंश हुआ था। आज भी पचास हजार के लगभग परमाणु बम जमा हैं, जिसका 90 % भाग केवल रूस और अमेरिका के हाथों में है। I. C. B. M. (इन्टर कॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल) की मारक क्षमता के बारे में हम लोग जानते हैं। इसके अलावा भी रूस और अमेरिका के पास जितने घातक हथियार हैं, उससे अमेरिका, रूस को कितनी ही बार विनष्ट किया जा सकता है। क्योंकि अमेरिका या रूस में से किसी ने भी अभी तक आध्यात्मिकता को ग्रहण नहीं किया है। और स्वामीजी ने उसी समय कह दिया था कि अभी उनको आध्यात्मिकता ग्रहण करने में बहुत देर लगने वाला है।
 उन्होंने उन्हीं की धरती पर खड़े होकर कहा था, कि तुम्हारे यहाँ एक भी सच्चा क्रिश्चियन नहीं है। एक मात्र प्रभु ईसा मसीह ही क्रिश्चियन थे, तुम लोगों में दूसरा कोई व्यक्ति क्रिश्चियन नहीं है। तुम्हारे देश में धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह आध्यात्मिकता नहीं है। केवल कुछ आचार अनुष्ठान को पालन करना ही आध्यात्मिकता नहीं है। आध्यात्मिकता इससे उच्चतर वस्तु है। कार्ल मार्क्स ने कहा था, धर्म सामान्य मनुष्य के लिये विशेष प्रकार के अफीम जैसा है। और हमलोग भी स्वयं को आधुनिक सिद्ध करने के लिये मार्क्स की बात का समर्थन करने लगते हैं। किन्तु धर्म का अर्थ कुछ और ही है। धर्म का अर्थ है-चरित्र ! मनुष्य को धार्मिक होना चाहिये-इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्य को हर हाल में चरित्रवान होना चाहिये-तभी उसको मनुष्य कहा जा सकता है। चरित्रवान होने का अर्थ क्या है ? उसकी स्वार्थपरता कम हो जाएगी, और आदर्श होगा क्रमशः पूर्ण निःस्वार्थी बन जाना। 
सम्पूर्ण रूप से निःस्वार्थ हो जाने की बात पर चिन्तन करने से हमलोगों का शरीर सिहर उठता है। किन्तु पूर्ण रूप से निःस्वार्थ हुए बिना मनुष्य का सर्वांगीन मंगल कभी नहीं हो सकता है। और यह शिक्षा आध्यात्मिकता के सिवा और कोई दे ही नहीं सकता है। किन्तु अपने देश में हम इसका ठीक उल्टा हाल देख रहे हैं। कोई भी आवश्यकता होते ही हमलोग उसका उपाय खोजने विदेश चले जाते हैं। किन्तु हर समस्या का समाधान हमलोगों के भीतर ही है, पर हमलोग उसे खोज कर नहीं देखते या खोजना ही नहीं चाहते। हमलोग क्या कर रहे हैं ? हमलोग कुछ अरबी भाषा की कहनियों को पढ़ रहे हैं, और अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि हमतो बड़े यथार्थवादी हैं।
जबकि हमलोग बिल्कुल यथार्थवादी नहीं हैं, यदि हम सचमुच यथार्थवादी होते-तो ब्रह्मज्ञान को आँचल में बांध कर मनुष्य का कल्याण करने के लिये निकल पड़ते। स्वामीजी ने यही उपदेश दिया था कि अपना सबकुछ न्योछावर करके भी कैसे मनुष्य का कल्याण हो सकता है, क्या उपाय करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है, यही उपाय बताना मेरे जीवन का उद्देश्य है। स्वामीजी केवल पगड़ी बांध कर भाषण देने के लिये ही नहीं आये थे।
 किसी पाश्चात्य साहित्यकार ने कहा था कि स्वामी विवेकानन्द 'काल-वैशाखी ' (Northwester ) के तूफान थे; जिन्होंने मात्र कुछ ही वर्षों के प्रवास में पाश्चात्य देशों की भ्रांत-धारणा को तोड़-मरोड़ कर  तहस-नहस कर दिया था। और उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द दीर्घ 25 वर्षों तक श्रावण मास की झड़ी बनकर हमारे देश की आध्यात्मिकता का प्रचार उनके देश में करके उनको शिक्षा दे आये थे। इसका परिणाम है स्वामी अभेदानन्द की पुस्तक- India and Her People. जो उनके भाषणों का संकलन है। एक बार उस देश में एकदम नाईनटी के स्पीड में झड़ाझड़ भाषण देते हुए उन्होंने भारतवर्ष के लोगों का जीवन-मूल्य, उनकी आर्थिक अवस्था की बात, उनके दुःख-दुर्दशा आदि की बातों को उनके सामने रखा था। वह सब सुनकर वहाँ के लोग आगबगुला हो गये थे, क्योंकि वे लोग स्वतंत्रता के पुजारी होते हैं।
स्वामीजी ने भी कई बार उनके स्वतंत्रता-प्रेमी होने की बात का उल्लेख किया है। विशेष रूप से 4 जुलाई के प्रति अपनी कविता में स्वाधीनता का उल्लेख करके उन्होंने चाह था कि इसीके माध्यम से वे समग्र भारतवर्ष की आँखों को खोल देंगे। इस कार्य को करने जिम्मेदारी उनको श्रीरामकृष्ण ने सौंपी थी। वे केवल ' पगले ठाकुर ' नहीं थे। उन्होंने तो सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों के समस्त प्रकार के कल्याण के मार्ग खोज निकाला था। जो लोग समाज की नजरों में पतित हैं, जो लोग भूख से मर रहे हैं, जिनके पास समाज के सामने खड़े होकर अपना परिचय देने लायक कुछ भी नहीं है, वैसे समस्त मनुष्यों को उन्होंने अपने कलेजे से लगा लिया था। सबों के कल्याण का मार्ग बतला देते हैं, और उसे प्राप्त करने की व्यवस्था कर गये हैं। जो लोग अध्यात्मिक पथ से जाना चाह रहे हों, उनकी सहायता जितनी तत्परता से करते हैं, उसी तत्परता के साथ जो भूखे-नंगे हैं, उनको भी  सहायता का दान कर रहे हैं। इसीलिये तो श्रीरामकृष्ण अवतार है, समस्त मानवता के रक्षक और परित्राता हैं। 
भारतवर्ष की उन्नति हमलोगों के द्वारा ही होगी, हमारे देश के अध्यात्मिक सिद्धान्तों के द्वारा होगी, हमारे ही उद्द्य्म से होगी, हमलोगों के कर्मकुशलता से, हमलोगों के प्रेम और निःस्वार्थपरता के द्वारा ही होगी। और इसे करने के लिये हमलोगों को श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द के चरणों में बैठना ही पड़ेगा, और उनको इस विषय के गुरु के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। यह किये बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है। विगत 65 वर्षों में हमने बहुत अधिक गलतियाँ की हैं। तथा वर्तमान में जैसी राजनीती चल रही है, वैसे ही चलती रहें, तो आगे भी भूलें होती रहेंगी। (तथाकथित राजनैतिक महात्मा के बताये गये मार्ग पर चलते हुए देश की आज जो दुर्दशा हो रही है, उसमें कोई सुधार होने की सम्भावना नहीं है।)
किन्तु उनके बताये रास्ते पर चलने से भारतवर्ष की उन्नति संभव है। क्योंकि केवल राजनैतिक और आर्थिक मुक्ति के द्वारा देश को उन्नत नहीं किया जा सकता है, देश को महान बनाने के लिये आध्यात्मिकता चाहिये।  हमलोग देख सकते हैं कि पाश्चात्य देश राजनैतिक और आर्थिक रूप से बेहद उन्नत हो चुके हैं, किन्तु उनके हृदय में कितनी कुण्ठा और हताशा भरी हुई है। केवल आध्यात्मिकता के द्वारा ही उनको शान्ति प्राप्त हो सकती है, और यह आध्यात्मिकता उनको प्राच्य से ही प्राप्त करनी होगी। मनुष्य के जीवन और समाज के लिये धर्म की कोई आवश्यकता है या नहीं? धर्म का कोई प्रभाव मनुष्य के जीवन के उपर पड़ता है कि नहीं ? इन दिनों चीन में धर्म के इन्हीं पहलुओं के उपर अनुसंधान चल रहा है। वहाँ के एक नेता ने कहा है कि नैतिक उन्नति हुए बिना आर्थिक उन्नति संभव नहीं है।
आज विश्व के मानवता की रक्षा और कल्याण करना चाहते हों, तो भारतवर्ष और सम्पूर्ण विश्व को साम्य (आत्मा की एकता)  की दिशा में अग्रसर कराना होगा। और यह करने के लिये राजनैतिक साम्यवाद
 (Communism) के सहारे बन्दुक की नोक पर, धन-रंग-जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता है, इसके लिये ' वेदान्त के सत्य '- एकम् सत् विप्रा: बहुदा वदन्ति("Truth is One, though the Sages know it as Many.") को सुनना पड़ेगा, मनन करना होगा, और निदिध्यासन का तरीका भी सीखना होगा। ऋगवेद और अथर्ववेद में इसी साम्य के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है- " देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते "- समस्त हवि, जो भी अर्पन किया जाय, उन समस्त चढ़ावे को एकत्र करके, समस्त देवताओं के बीच समान रूप से वितरित किया जाये, ताकि आपस में कोई मतभेद नहीं हो। गीता, उपनिषद, भागवत तथा अन्य समस्त शास्त्रों में साम्य के इसी उपदेश को विभिन्न शब्दों में दिया गया है।
(संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि॥
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनोः यथा वः सुसहासति॥)
 वर्तमान युग में स्वामी विवेकानन्द ने ही पहली बार उपनिषदों में छुपे साम्य के इस उपदेश को ढूँढ़ कर, विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया था। उनके पहले किसी भारतीय विद्वान् के मुख से साम्य की महत्ता के उपर प्रकाश नहीं डाला गया था। उनहोंने कहा था, " मैं एक समाजवादी हूँ।" ऐसा इसलिये नहीं कहते थे कि समाजवाद कोई सर्वांग-सुन्दर मतवाद है, बल्कि ' काना मामा का रहना, मामा नहीं होने से अच्छा है! ' इसी आधार पर अपने को वे एक समाजवादी मानते थे। क्योंकि सभी मनुष्यों के जीवन में परिवर्तन होना अच्छा होता है। जो लोग हमेशा से सुखी जीवन बिताते आ रहे हैं, उनको कुछ दिनों तक दुःख का स्वाद मिलना उचित है; और जो लोग हमेशा से केवल दुःख ही भोगते आ रहे हैं, उनको थोड़े दिनों तक सुख का स्वाद मिलना आवश्यक है। और चुकि समाजवाद ऐसा परिवर्तन लाने का दावा करता है, इसीलिये वे इस प्रयास को अच्छा मानते थे। उन्होंने कहा था कि गली के कुत्तों को भी एक दिन अवसर मिलना चाहिये।
 किन्तु हमलोग विगत 65 वर्षों तक राजनैतिक समाजवाद को ढोते रहने से भी इसे संभव नहीं कर सके हैं। और हमलोग कभी इसे कर भी नहीं सकेंगे, क्योंकि हमलोग ऐसा (सच्चे समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करना )चाहते ही नहीं हैं। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में अनुशासन हीनता (और भ्रष्टाचार ) को हमने ही बढ़ावा दिया है। देश का सच्चा हित क्या करने से होगा, इस विषय पर हमलोग कभी गहराई से विचार ही नहीं करते हैं। हमलोग केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की चिन्ता करते हैं, या बहुत हुआ तो (मेरा स्वार्थ हमेशा पूर्ण होता रहे, इसके लिए सत्ता पाने के उद्देश्य से) दलगत स्वार्थ की चिंता भी करते हैं। और इसका जैसा फल हमें मिलना चाहिए था, वैसा ही मिल भी रहा है।
देश को उन्नत करने के लिये हमें क्या करना होगा ? हमलोगों में अनुशासन की भावना को संस्कार-बद्ध करना होगा, सत्य को प्यार करना होगा। अपने देशवासियों को प्यार करना होगा, स्वयं को निःस्वार्थी बनाना होगा, अपने चरित्र में सेवापरायणता के गुण को धारण करना होगा। किन्तु इसके विपरीत यदि हमलोग केवल अपने व्यक्तिगत कल्याण की चिन्ता करें, तो जो होना चाहिए वही हो रहा है, और आगे भी होता रहेगा। स्वामीजीने समाजवाद को अच्छा केवल इसीलिये बताया था, कि अभीतक कार्लमार्क्स के अतिरिक्त अन्य और किसी तथाकथित राजनैतिक महात्मा ने जाती-धर्म-रंगरूप-अर्थ के आधार पर भेदभाव को मिटाने की चेष्टा नहीं की थी। किन्तु इस समाजवाद की बुनियाद वेदान्त के उपर प्रतिष्ठित करना आवश्यक होगा। वेदान्तिक बुनियाद को छोड़ कर हमलोग भारतवर्ष की उन्नति करने में कभी सफल नहीं होंगे।
भारतवर्ष में सम्पूर्ण परिवर्तन हमलोग नहीं ला सके हैं, इसका क्या कारण है ? इसका एकमात्र कारण यही है कि हमलोगों में वेदान्तिक दृष्टि नहीं है, जिसके आधार पर सभी प्रकार के विशेषाधिकार को समाप्त करके, सभी नागरिकों को समानरूप में देखने की बात कही गयी है। जब तक हमलोगों में वेदान्तिक-दृष्टि नहीं आ जाती, तबतक देश में साम्य स्थापित नहीं हो जाता (उंच-नीच,जाती-धर्म का भेदभाव समाप्त नहीं हो जाता) तब तक देश में समग्र सुधार (Overall improvement) की आशा नहीं करनी चाहिये। स्वामीजी ने अन्य किसी सिद्धान्त का प्रचार नहीं किया था। उन्होंने अपने जीवन का होम करके दिखा दिया था,तथा उनके गुरु श्रीरामकृष्ण के जीवन में भी यही साम्य देखा जा सकता है; कि साम्य के सिवा उन्नति और प्रगति अन्य कोई रास्ता नहीं है। हमलोगों के देश में हजारो-हजार वर्ष की जो आध्यात्मिकता रही है, उसके सर्वोच्च शिखर पर जिस महासाम्य को रखा गया है, विशेष रूप से श्रीरामकृष्ण के जीवन में उस साम्य की अभिव्यक्ति देखि जा सकती है। ठाकुर के जीवन में तो कई उदहारण हैं, यहाँ एक-दो उदहारण के द्वारा इस विषय को और स्पष्ट किया जा सकता है। 
एक बार श्रीरामकृष्ण मथुरबाबु के साथ तीर्थ भ्रमण के लिये गये थे।देवघर के पास भूख से मरनासन्न दरिद्र लोगों को देखकर श्रीरामकृष्ण (पहली बार भारत में सत्याग्रह का प्रारंभ ? ) ने उनको छोड़ कर वहाँ से जाने को मना कर दिया था- और मथुर बाबु उनलोगों को भरपेट भोजन कराने, एक माथा तेल देने और एक जोड़ी कपड़ा देने के लिये विवश हो गये थे। श्रीरामकृष्ण देव के साम्यभाव में स्थित होने का प्रमाण एक दूसरे उदहारण में भी देखा जा सकता है, जब  एकबार दक्षिणेश्वर में नाव के उपर किसी बलवान मांझी ने एक दुर्बल मांझी के पीठ पर बहुत जोर का थप्पड़ मारा था। उसका पाँच उँगलियों के दाग श्रीरामकृष्ण की पीठ पर उग आये थे, और वे पीड़ा से चिल्ला उठे थे। और एकबार दक्षिणेश्वर में ही एक व्यक्ति घास के उपर से चला जा रहा था। ठाकुर अपनी छाती पर हाथ रखकर चीख पड़े थे। उनको ऐसा प्रतीत हो रहा था,  मानो कोई उनके सीने को कुचल कर चला गया हो। इसको कहते हैं जीवन में साम्य को प्रतिष्ठित कर लेना। (टाका -माटी, गिरीश-नटी बिनोदनी को शरण देना .....आदि अदि।)
हमलोगों को भी अपने भीतर ऐसा ही साम्य लाना होगा, ऐसी ही उदार दृष्टि रखनी होगी, जहाँ अपने-पराये का बोध तक मिट जायेगा। मन में ऐसी भावना रखनी होगी कि यदि अपना सबकुछ भी चला जाता हो, तो भी कोई हानी नहीं होगी, किन्तु देश का कल्याण अवश्य होना चाहिये। इसी प्रकार की साम्य भावना से भरपूर युवको के एक दल का निर्माण किया जा सके, तभी देश का कल्याण संभव हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित-'स्वदेश-मन्त्र ' का हमलोगों को सही अर्थ समझना होगा। समस्त देश-वासियों को हमें अपने भाई के रूप देखना होगा, तथा उस प्रेम को अपने आचरण और व्यवहार में अभिव्यक्त करना होगा। तभी देश की वास्तविक उन्नति संभव है। अन्य कोई भी योजना बना लेने से नहीं होगा। स्वामीजी का युवाओं के प्रति यही आह्वान है कि सहानुभूतिशील, देश-प्रेमी, निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करो, जो लोग दूसरों के कल्याण के लिये अपना सबकुछ न्योछावर कर देने को प्रस्तुत रहेंगे। केवल इसी प्रकार देश को महान बनाया जा सकता है, और सम्पूर्ण देश का कल्याण हो सकता है। 
गीता में कहा गया है- जिसका मन साम्य में प्रतिष्ठित हो चूका है, वह जगत को भी जीत सकता है। 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
भावार्थ :  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं॥19॥ 
जिस साम्य को हम श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन में देखते हैं, उसी साम्य को हमें उनसे अपने मूलधन के रूप में प्राप्त कर लेना चाहिये। इसके लिए हमें उनके चरणों में बैठना होगा, उनको गुरु मान कर उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करना होगा। वे कहते है- निःस्वार्थपर, देश-प्रेमी, निर्भीक मनुष्यों का निर्माण करो, जो अपना जीवन देकर भी विश्वास (आत्मविश्वास) कर सकता हो, तथा इस विश्वास को अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त करने में सक्षम हो; -तो वैसे युवाओं के लिए सभी देशवासी भाई बन जाते हैं, देश की मिटटी उनका स्वर्ग बन जाता है, देश का कल्याण ही उनको अपना कल्याण प्रतीत होता है। इसी प्रकार के जीवन-मुक्त युवाओं का दल जब देश में सर्वत्र फ़ैल जायेंगे, तभी देश का सच्चा कल्याण संभव होगा। वे लोग जो कुछ भी कार्य करेंगे उसी से देश का कल्याण होगा। नान्यः पन्थाः।  
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