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Saturday, September 8, 2012

' स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग ' (স্বামী বিবেকানন্দ ও আজকের আমরা )[ SVHS- 3.2 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ] तृतीय अध्याय : ' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज '] परोपकार के दो रूप हैं- विनिमय और दान :" नासतो विद्यते भावः" - (गीता : 2/16 -अतएव कार्य-कारण वाद ही सही है।) धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग। इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। "केवलाघो भवति केवलादी" - मनुष्य-निर्माण की आन्तरिक इंजीनियरिंग /कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करै सो तस फल चाखा।।/"सर्वे गुणाः काञ्चनम् आश्रयन्ते " -अर्थवादी समाज पर एक कटाक्ष है)/>>> CINC नवनीदा ने जीवन्त मनुष्यों (कालजयी मनुष्यों) का इतिहास जान लिया था -

 स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग             
            
        बहुत से लोग प्रचारतन्त्र में विश्वास करते हैं, तथा जानते हैं कि प्रचार-माध्यम कितना शक्तिशाली होता है! बात चाहे सच्ची हो या झूठी बार-बार सुनते रहने से उसका प्रभाव मन के उपर पड़ता ही है। बार बार एक ही बात को सुनते रहने से, मनोवैज्ञानिक नियम के अनुसार मन के भीतर उसकी एक छाप अवश्य पड़ जाती है।  हमारा मानना है कि कोई भी चीज किसी पर थोप देना अच्छा नहीं होता। हम अक्सर कहा करते हैं कि आज का युग विज्ञान का युग है, तर्कबुद्धिवाद (rationalism) का युग है। इस कथन को आज कोई भी व्यक्ति अस्वीकार नहीं करता। आज के समाज में विज्ञान का कोई स्थान नहीं है- ऐसी बात हम मुँह से निकाल भी नहीं सकते।
      कई लोग कहते हैं, प्राचीन समय की सभी बातें अच्छी थीं, फिर कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं,कि  प्राचीन युग की सारी बातें बुरी थीं। किन्तु, हम इन दोनों मतों में से किसी से भी सहमत नहीं हैं। ये दावे उचित प्रतीत नहीं होते। जो लोग ऐसा मानते है कि प्राचीन युग में सबकुछ बुरा था,  या सबकुछ अच्छा था-उनकी यह मान्यता सही प्रतीत नहीं होती। प्राचीन युग में भी बहुत सी ऐसी चीजें थीं जो अच्छी थीं, जिसको आधार बना कर कई नई वस्तुओं का आविष्कार हुआ है, मनुष्य ने बहुत प्रगति की है। इसीलिये प्राचीन युग में जो अच्छा था, उसको ग्रहण करके नये युग के लिये उपयोगी बनाकर हमलोगों को आगे बढ़ना होगा। यही बुद्धिमान मनुष्य की पहचान है। और आमतौर पर मनुष्य इसी प्रकार प्रगति करता है। 
       किन्तु आगे बढ़ने के क्रम में कुछ भूलें भी हुआ करती हैं, और यह स्वाभाविक भी है। नेताजी कहते थे- 'भूल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' लेकिन कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि हमलोग अपने जन्मसिद्ध अधिकार को प्रयोग में लायेंगे, और गलती पर गलती करते ही रहेंगे। कई राजनैतिक दलों को  हम ऐसा ही करते हुए देखते हैं। लगातार गलती पर गलती करते जा रहे हैं, और लगातार स्वीकार भी कर रहे हैं कि, हमसे ऐसी गलति हो गयी हैं। जो लोग राजनैतिक इतिहास से परिचित हैं, वे इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। हो सकता है, वे इस स्वीकारोक्ति को वैज्ञानिक पद्धति या अत्यन्त उदारता का परिचायक समझते हों। किन्तु ऐसी सोच को सही नहीं ठहराया जा सकता है। 
         हमलोगों से गलती हो जाने की सम्भावना है- क्या इसी बात को ढाल बनाकर हमलोग लगातार गलतियाँ करते रहेंगे और लगातार कहते भी रहेंगे- ' हमसे भूल हो गयी !' ? वैज्ञानिक विश्लेषण आधारित युक्ति तो यही कहती है, कि जो व्यक्ति लगातार गलती पर गलती ही करता चला जा रहा हो, वह भविष्य में जो कुछ करेगा या वर्तमान में जो कुछ कर रहा है वह सब गलत ही होगा। इस तर्क को स्वीकार करने से बहुत अधिक गलती  करने की संभावना नहीं होगी। यदि हम चाहें तो इस बात को जाँच कर भी देख सकते हैं।
      जिस राष्ट्र की संस्कृति या विचारधारा के लोग दो- एक गलती को छोड़ प्रायः सही कार्य किये हों -वही राष्ट्र या उसकी विचारधारा अधिक विश्वास करने योग्य है। हमारी जो सनातन विचारधारा है उसके ध्वजा वाहकों  प्रायः सब कुछ ठीक ही किये हैं, बीच बीच में उनसे एकाध गलती भी हो गयी है। और वह गलती भी किस प्रकार की थी ? उनके सिद्धान्तों  में तो किसी प्रकार का गलती नहीं थी, हाँ  समय के प्रवाह में उसके व्यवहार में जरूर एकाध गड़बड़ी हो गयी। अपने देश की प्राचीन विचारधारा का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि वे बिलकुल आधुनिक हैं। जबकि कुछ विचारधारायें तो ऐसी प्रतीत होती हैं मानों वे गलतियों का ही संकलन (summation-परिणाम)  हों। इसीलिए उस प्रकार की विचारधारा की कोई विश्वसनीयता (guarantee) नहीं है। फिर भी उस विचारधारा के मानने वाले लोग यह दावा करते हैं कि वे लोग ही मानव-जाती के सच्चे मार्गदर्शक हैं। कोई भी चिंतनशील व्यक्ति इस झूठे दावे को निगल नहीं सकता। किन्तु, किसी बात को यदि लगातार कहते रहा जाय तो चाहे वह सच हो या  झूठ उसकी एक छाप मन के उपर पड़ ही जाती है। 
       एक दूसरा कमजोर तर्क, यह  भी दिया जाता है कि ' मनुष्य गलतियाँ कर कर के ही सीखता है'। यह तर्क बहुत मनोरम, स्वादिष्ट प्रतीत होने पर भी किसी काम का नहीं है।   जो व्यक्ति थोड़ा भी विचारशील होगा, वह कभी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि लगातार गलती पर गलती करते -करते, जो असत्य है (जिसका अस्तित्व ही नहीं है) -वह अचानक प्रकट हो जायेगा। हाँ, यह बात सुनने में जरूर अच्छा लगता है। हमलोग स्वयं को वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न मनुष्य कहते नहीं अघाते। एक तरफ तो हम अपने लिए तर्कवादी (rationalist) मनुष्य होने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी वस्तु के अचान प्रकट होने में विश्वास भी करते हैं ! कहते हैं-जो नहीं था, वह हठात आविर्भूत हो गया। ऐसी मनगढ़ंत सम्भावना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से या वेदान्तिक दृष्टिकोण से  किसी भी प्रकार संभव नहीं है। इस विचारधारा को सांख्य-वेदान्त की भाषा में 'असत्-कार्यवाद ' कहा जाता है। अर्थात जो वस्तु कार्य-कारण में किसी भी प्रकार से निहित नहीं थी - वह (आत्मा) अचानक आविर्भूत हो गयी। इसके सम्बन्ध में स्वामीजी एक बहुत सुन्दर बात कहते हैं- ' हमलोग कभी असत्य से सत्य पर नहीं पहुँचते हैं, भ्रम से सत्य पर नहीं पहुँचते हैं। हमलोग सत्य से ही सत्य पर पहुँचते हैं, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य पर पहुँचते हैं।' हाँ , यह बात सही है कि सत्य का भी विकास होता है। किन्तु मिथ्या कभी सत्य में परिणत नहीं हो सकता । फिर भी अक्सर कई लोग कहते रहते हैं कि जो वस्तु पहले वहाँ नहीं थी -वह प्रकट हो गयी या आविर्भूत हो गयी। आमतौर पर इसीको आविर्भाव (emergence) कह दिया जाता है, किन्तु ऐसा होना असत्य या अवैज्ञानिक है। क्योंकि दूसरे रूप में हम यह मान रहे हैं कि शून्य से किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है। 'अभाव से भाव' (शून्य से अस्तित्व- existence, शाश्वत जीवन) कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। यह असंभव है। 
      गीता  (2/16)  में भी यह बात कही गयी है- " नासतो विद्यते भावः।शून्य से कोई वस्तु कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है। हाँ, यह हो सकता है कि पहले से कोई वस्तु थी, वह अन्य किसी  वस्तु में रूपांतरित हो गयी हो।  किन्तु, जो अस्तित्व में नहीं था, वह अचानक आविर्भूत हो गया , ऐसा हो नहीं सकता, असम्भव है। हमारे देश के दर्शन में 'सतकार्यवाद' और 'असतकार्यवाद' दो तत्वों की बात कही गयी है। सतकार्यवाद कहता है, जो पहले से था उसका रूपान्तरण हो सकता है। एक सदवस्तु (अपरिवर्तनीयआत्मा या ब्रह्म) है, अर्थात कुछ वस्तु जैसा है, उसका कार्य अर्थात कारण का विकास होकर एक अन्य वस्तु के रूप में उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है। सतकार्य-वाद कहता है असत - माने जो था ही नहीं (non-existent, जिसका कभी अस्तित्व ही नहीं था, अस्तित्व हीन, आकाशकुसुम , खरहे का सींग, बंध्यापुत्र), वह सत हो गया , प्रकट हो गया ! ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं है। असतकार्यवाद सही नहीं है। जो कभी था ही नहीं , उसके भीतर से कुछ बाहर निकल आना, बिल्कुल बेतुका (absurd-अनर्गल,हास्यास्पद) बात है। जो पहले था, वह नए नाम-रूप में प्रकट (प्रतिभासित) हुआ, ऐसा होना संभव है।['असत-कार्यवाद' या शून्य से सब कुछ का अचानक आविर्भूत हो जाना  सम्भव ही नहीं है - एक मात्र सच्चिदानन्द ब्रह्म ही अनेक नाम-रूपों में  भास रहे हैं !] फिर भी हमलोग अक्सर अवैज्ञानिक बातों का ही प्रचार करते रहते हैं। 
      जैसे जल नहीं था,  हाईड्रोजन और ऑक्सीजन था, उनको विशेष परिमाण एवं विशेष अवस्था में एक रासायनिक प्रक्रिया के माध्यम से जल (H2O) के रूप में रूपान्तरित कर लिया गया । लेकिन हममें से कई लोग इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि ' जल था नहीं, किन्तु जल आया। ' यह भी एक प्रकार का आविर्भाव ही है। हम सभी लोग इस प्रकार की व्याख्या से कमोवेश परिचित है। किन्तु कारण के बिना कार्य होना सम्भव नहीं है। किन्तु जल का उपादान कारण पहले से था और केवल उतना ही नहीं  एक विशेष परिमाण, अवस्था, दबाव, और ताप में उन उपादानों को मिलाया जाता है तभी जल की प्राप्ति होती है। (जैसे चन्दन की लकड़ी में यदि पहले से अनल नहीं था तो रगड़ने से प्रकट कैसे हो गया ?) 
     हमलोगों के भीतर भी ठीक वही बात है। हमारी दृष्टि में सत्य (अपरिवर्तनीय वस्तु -आत्मा या ब्रह्म) जैसी किसी वस्तु का अस्तित्व था ही नहीं। हमलोग उत्तरोत्तर भूलें करते जा रहे थे। और इसी प्रकार यथाक्रम (gradually) भूल करते -करते, भूल से ही हमलोगों की धारणा में सत्य अचानक प्रकट हो जायगा ! यह बिलकुल अवास्तविक (unrealistic) कल्पना है। किन्तु आज के हमलोग, (अपने को आधुनिक मानने वाले मनुष्य ) जिस अवस्था में हैं, वहाँ का हाल तो यही है।  हमलोग कई प्रकार की जंगली कल्पना (wild imagination), अवैज्ञानिक बातों की वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए भुतहा खेल (Spooky game-ভুতুড়ে খেলা) दिखाने की चेष्टा करते हैं; तर्क के आधार पर अतिप्राकृत-(Supernatural) घटनाओं की सम्भाव्यता का प्रचार करते हैं। तो दूसरीओर हम यह भी कहते हैं कि हमलोग तंत्र-मंत्र या जादू-टोना में विश्वास नहीं करते। लेकिन वास्तव में हमलोग केवल राजनैतिक या सामाजिक ही नहीं बल्कि धार्मिक 'magic' भी दिखलाने की भी चेष्टा कर रहे हैं। हमलोगों के कुछ अपने दार्शनिक तत्व हैं, उसी के सहारे हमलोग जादुई छड़ी को घुमाते हुए कहते हैं- 'आबरा का डाबरा-छू मंतर ' और ये देखो आ गया! और आज के समाज की समस्या यह है कि हम तथाकथित 'शिक्षितों' के समूह-धर्म के क्षेत्र में, समाज में, आर्थिक क्षेत्र में सर्वत्र 'जादूई' कमाल  देखने की प्रत्याशा में ही बैठे हुए हैं। इसीलिये आज के हमलोग क्या हैं ? यही नई वेशभूषा, घर-मकान, या महँगे फ़्लैट, AC ड्राइंग रूम  में टेलीविजन, स्वयं को सुख प्रदान करने वाले विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक यंत्रों से सजधज कर हमलोग मूर्खों के समूह, तथाकथित 'Gentleman' बनकर बैठे हैं,  तथा मानव समाज को अपनी सामूहिक मूर्खता के द्वारा और भी गहरे अंधकार में धकेलते जा रहे हैं - यही तो हैं आज के हम  'मॉडर्न' लोग ! इस बात पर थोड़ी  गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। हम में से जो लोग ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त करके ज्ञानी होने दम्भ भरते हैं, वे भी इसी प्रकार के मूर्ख हैं, बिल्कुल अज्ञानी हैं। स्वामी विवेकानन्द ने एक बार भाषण देते समय सामने बैठे श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए कहा था 'मूँछ वाले बालकों का समूह। ' हमलोग कितने ही झूठी शान दिखाने वाले भड़कीले रहनसहन की वस्तुओं को लेकर बैठे हैं। और हममें से जो थोड़े अधिक बुद्धिमान (धूर्त ) हैं, वे हमलोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर अपना स्वार्थ साधते रहते हैं। 
     हमलोग आर्थिक शोषण की बात करते हैं। किन्तु अन्य एक दूसरी चौकड़ी भी है, जो अपनी बुद्धि से हमारा शोषण कर रही है।  पर या तो हम उनकी चालाकी देख नहीं पाते या  उस विषय पर बात करना नहीं चाहते हैं; या देखने के बाद भी हममें इतना साहस नहीं है कि हम उसके सामने कुछ कह सकें। क्योंकि हो सकता है, मुख खोलने से कहीं अपनी खोपड़ीया ही न टूट जाये किन्तु ऐसी खोपड़ी रहे या टूट जाय, क्या फर्क पड़ता है ? क्योंकि स्वर्ग भी अगर मूर्खों का निवास स्थान हो , तो उसमें वास करने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। इस प्रकार आज के हम मॉडर्न लोग 'मूर्खों से परिपूर्ण जगत' में वास कर रहे हैं।
            हमलोग [महामण्डल लीडरशिप] अपने युवा भाइयों को साहस के साथ कहना चाहते हैं कि भाइयों! तुम थोड़े साहसी बनो। तुमलोग अज्ञानी मत बने रहो, मूर्खों के सामान जीवन मत बिताओ। तुम लोगों के पास थोड़ी अपनी बुद्धि है, नई सोच है, तुम लोग अपनी बुद्धि से थोड़ा विचार करके देखो, तुमलोग कहाँ आ पहुँचे हो? किस अवस्था में आ पहुँचे हो, और किस दिशा में जा रहे हो-- थोड़ा विचार करके देखने की चेष्टा करो। बुद्धि पाने के लिये अपने दिमाग को किसी अन्य के पास गिरवी मत रखो।
      हमलोग बहुत दीर्घ काल तक सब कुछ विदेशों से ही माँगते रहे हैं। यहाँ तक कि बुद्धि भी आयात कर रहे हैंउधर उन यूरोपीय देशों के क्या हाल हैं? उनके अपने देश (अमेरिका, यूरोप) में क्या हो रहा है ? उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। उनकी बुद्धि में भी दरार पड़ गयी है। वे अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि उनकी बुद्धि भी सुव्यवस्थित या मौलिक नहीं है। लेकिन, इस समय हमलोग उनसे ही बुद्धि आयात कर रहे हैं एवं भ्रष्टाचार का निर्यात [स्विसबैंक में] कर रहे हैं। किन्तु प्राचीन काल में हमारे देश की विदेश नीति (foreign policy) क्या थी ? स्वामीजीने भारत को किस प्रकार की विदेश -नीति अपनाने का सुझाव दिया था? वे चाहते थे कि भारतवर्ष विदेशों में अपने बहुमूल्य सम्पत्ति 'आध्यात्मिकता' का निर्यात करेगा, वेदों के महावाक्यों का प्रचार करेगा, जिससे वहाँ भी मनुष्यत्व का विकास हो।  यह देश अपनी आध्यात्मिकता के बल पर ही वह विश्व विजय करेगा। लेकिन, हमलोग क्या कर रहे हैं? समस्त मानव प्रेम, स्वदेश प्रेम को तिलांजली देकर नकली धर्म का निर्यात करने के लिये झुण्ड का झुण्ड बनाकर विदेश जाने में होड़ में लगे हैं। हमलोग अज्ञानी, अहंकारी, बेवकूफ के जैसा सोचते हैं, हम सबकुछ ठीक ही कर रहे हैं। दूसरी तरफ अपनी हर जरूरत के लिये दूसरों के आश्रित  बने हुए हैं।
      अभी हाल में ही तीन अनुसंधानात्मक रिपोर्ट (Research report-शोधपत्र) प्रकाशित हुए हैं। एक खोजी रिपोर्ट में राष्ट्रसंघ का आर्थिक विश्लेषण दिया गया है, दूसरे में यह बताया गया है कि भविष्य में विश्व किस दिशा में जाने वाला है, तथा तीसरे में विश्व की जनसंख्या के विषय में कहा गया है। प्रत्येक रिपोर्ट में दिखाया गया है कि हमलोगों का भविष्य अंधकारमय है। इन रिपोर्टों में कहा गया है कि भारत जैसे विकासशील देशों का भविष्य बहुत बदतर होने वाला है। तो फिर हमलोग किस दिशा में जा रहे हैं ? जनसंख्या-रिपोर्ट में दिखलाया गया है कि 2000 ई० आते- आते विश्व की जनसंख्या छःसौ करोड़ हो जाएगी। और आधी आबादी केवल साठ शहरों में वास करेगी। इस समय विश्व में लगभग छब्बीस बड़े महानगर हैं। इनमें 50 करोड़ लोग वास करते हैं। अभी से मात्र उन्नीस-बीस वर्ष के बाद -[2020 तक ?] इस प्रकार के मात्र साठ महानगरों में तीन सौ करोड़/ (यानि तीन अरब) से भी अधिक लोग वास करने लगेंगे। फिर इस समस्या का समाधान क्या है ? राष्ट्र-संघ द्वारा प्रकाशित अनुसन्धानात्मक रिपोर्ट कहता है कि इस समस्या के समाधान का केवल एक मात्र उपाय है -" मनुष्यों के भीतर 'मनुष्यत्व-बोध' का विकास करना।"  ये किसकी उक्ति है ? स्वामी विवेकानन्द के ही शब्द हैं। 
          आज जिस प्रकार सांसारिक या भौतिक उन्नति के लिये इंजीनियरिंग सीखने की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के विकास के लिये मनुष्य-निर्माण का इंजीनियरिंग सीखना भी आवश्यक है। इस इंजीनियरिंग का कार्यक्षेत्र बाह्य जगत न होकर आन्तरिक जगत है। आज हर स्तर पर वैश्विक एकता के उपर (वसुधैव कुटुंबकम पर)चर्चा होती है। किन्तु जिस समय  Globalization या वैश्विक एकता का विचार किसी के मन नहीं था, उसी समय वेदान्त केसरी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ' आनेवाले समय में कोई भी देश अकेला नहीं चल सकता।' प्राचीन काल से ही समाज में कोई अकेला ही रह नहीं पाया है। वेद में कहा गया है --"केवलाघो भवति केवलादी" (-ऋग्वेद,१०/११७/६) -अर्थात् जो अकेला भोजन करता है वह केवल पाप का भक्षण करता है।' कैसा अद्भुत विचार है !  गीता में भी कहा गया है- "मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।" (गीता ७/ ७) जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार बहार से न दिखाई पड़ने पर भी समस्त सृष्ट वस्तुओं के भीतर वे (अवतार वरिष्ठ) ही अनुस्यूत हैं।' किसी ताँत से बूने कपड़े में ' ताना और भरनी' (Warp and woof ) रहता है। [बुनाई के समय जो धागा कपड़े लम्बाई में लगता है उसे ताना कहते हैं, और कपड़े की चौड़ाई में जो धागा प्रयोग होता है, उसको भरनी कहते हैं, बंगला में 'टाना और पोड़न'  (টানা ও পোড়েন) कहते हैं। ] क्रमिक रूप से करघा पर ताना और भरनी कसने से एक कपड़ा (नामरूप धारी शरीर) बुन कर तैयार हो जाता है, जिसके द्वारा हम किसी अनावृत (exposed) वस्तु को आवृत (cover) कर सकते हैं। उसी प्रकार समस्त वस्तुओं के भीतर धागे के समान एक अविनाशी वस्तु (pure consciousness-अवतार वरिष्ठ) अनुस्यूत है। वही परम वस्तु है (परम सत्य ब्रह्म, सच्चिदानन्द) है, जिसे इन्द्रियज-ज्ञान के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है।उस परम वस्तु (इन्द्रियातीत अविनाशी वस्तु आत्मा या ब्रह्म) को केवल अनुभूति के माध्यम से (योग या विवेकज-ज्ञान के माध्यम से) ही जानना पड़ता है। [हमें यह विश्वास ही नहीं है कि - 'एक' ही 'अनेक' बन गया है ! ब्रह्म ही जगत बन गया है। इसीलिए]
    हमलोगों की दृष्टि में दूसरों के प्रति तुच्छता या  घृणा का भाव रहता है।  हम हर किसी के भीतर यही देखना चाहते हैं कि उसमें कितनी कुटिलता, पाखण्ड, शत्रुता भरी हुई है। हम क्या हर मनुष्य को प्रेम की दृष्टि से देखते हैं ? क्या हमलोग क्या इस दृष्टि से देख पाते हैं कि मानव-मात्र में वही अच्छा (अविनाशी-सच्चिदानन्द) बैठा है ? क्या हम यह देख पाते हैं कि किस मनुष्य में कौन सी  सुन्दर और अच्छी सम्भावना छुपी हुई है, तथा उस सम्भावना को कैसे विकसित और प्रस्फुटित किया जा सकता है ? और यही हमलोगों की मूल समस्या है। आज हमारे दुर्गति (misery) तथा दुःख (sorrow) का यही कारण है, समस्या यहीं है। और इस समस्या को दूर करना होगा। 

यदि हमलोग हमारे भीतर जो सम्भावना है , (ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने की जो सम्भावना है), अच्छा बन जाने की जो सम्भावना है , हमारे भीतर हर किसी के प्रति जो सद्भाव निहित है, उसको यदि हम समझ ही न सकें, और यदि हमलोग मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता या चारित्रिक गुणों को विकसित करने की प्रौद्योगिकी (technology) को अपने जीवन में लागु ही न करें, तो हमलोगों की समस्या का हल होने की कोई सम्भावना नहीं है। आजके  हमलोग 'जो' हैं , उनकी मूल समस्या या व्याधि यही है। और समाज में जो कुछ हिंसा , भ्रष्टाचार आदि दिख रहा है - वह सब मूल व्याधि से सम्बन्धित बाहरी लक्षण मात्र हैं। और समाज में जो भी भ्रष्टाचार,अत्याचार, अराज-कता, दुःख, निर्धनता आदि दिख रहा है वह सब तो इस बीमारी का  लक्षण मात्र । वास्तव में हमारी मूल समस्या यही है कि हमारे अक्ल पर ही पर्दा पड़ गया है, बुद्धि में बहुत गरीबी छाई हुई है। 
     हमारे भीतर जो सत्ता है (अंतर्निहित दिव्यता है - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है), उसको हम जानना ही नहीं चाहते हैं, उसके बारे में हमलोग सुनना भी पसन्द नहीं करते हैं। यदि एक कान से सुनते भी हैं, तो दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं। कोई यदि उसके बारे में सुनाना भी चाहता है, तो हम उस पर कान नहीं देते उसका उपहास करते हैं, उसकी हँसी उड़ाते हैं। यही तो हैं-आज के हमलोग ! हमलोगों के बुद्धि की दौड़ बस यहीं तक है- मजाक उड़ाने तक ? लेकिन  हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हमने कुछ सस्ते उपन्यास पढ़ लिए हैं, और सोचते हैं मानो उन उपन्यासों में ही समस्त ज्ञान भरा हुआ था , या बहुत हुआ तो बस -ट्रेन से यात्रा करते हुए सांध्य-कालीन समाचार पत्र के दो पन्नों को पढ़ते हैं, और सोचते हैं, हमने सब कुछ जान लिया है। 
        ये सब बातें हमलोग किसी वस्तु का प्रचार करने के लिए नहीं कर रहे हैं, उतने अहमक भी हम नहीं हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि जो सत भाव (महान और पवित्र विचार) हैं, वे स्वतः प्रचारित होंगे जहाँ कहीं सम्भावना है, जहाँ कहीं जीवन है, उसको कोई दबा कर नहीं रख सकता! 
स्वामीजी यही बात कह रहे हैं - " जो कुछ प्रकृति के विरूद्ध लड़ाई (ऐषणाओं आसक्ति के विरुद्ध संग्राम) करता है , वह चैतन्य है। उसमें ही चेतना का विकास है। यदि एक चींटी को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवनरक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरुष्कार है , जहाँ संग्राम है , वहीं जीवन का चिन्ह और चेतना का प्रकाश है। ....  " उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " उठो, जागो, और जो सत्यद्रष्टा (ब्रह्मवेत्ता) श्रेष्ठ महापुरुष हैं उनके निकट पहुँचकर इस 'निःश्रेयस'# की उपलब्धि करो कि तुम्हारे भीतर ही अनंत संभावना तथा  
अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की शक्ति सोई हुई है; उस अनंत शक्ति को अभिव्यक्त करो।  [निःश्रेयस ## 'मोक्ष' या परम कल्याण'-महर्षि कणाद के अनुसार धर्म की परिभाषा है -'यतोऽभ्युदय-निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः', अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। युवा भाइयों, थोड़ा शान्त मन से विचार करके देखो- हम लोग सभी प्राणियों के भीतर, क्या एक सच्चे मित्र को खोज रहे हैं ? नहीं, हम तो सभी को इस दृष्टि से देखते हैं कि यह मेरा शत्रु है या नहीं ? यह खोजते हैं कि कौन कौन हमलोगों का शत्रु है ?   जबकि वेद में प्रार्थना की गयी है-मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।" यजुर्वेद 36/18 " हे ईश्वर, हमें ऐसी शक्ति दो कि हम सभी मनुष्यों को अपने मित्र के रूप में देख सकें।" और हमलोग अपने बच्चों को ठीक इसके विपरीत शिक्षा दे रहे हैं । 
      हम किसी से प्रेम नहीं करते। सभी को पराया समझते हैं। इसीलिये हम हर समय इस बात को लेकर हमेशा शंकित बने रहते हैं, कि वे मेरा शत्रु बनकर- मुझे नुकसान पहुँचा सकते हैं। "द्वितीयाद् वै भयं भवति ।" -बृ १.४.२ केवल द्वैत से ही भय होता है। हम जिनको अपना सझते हैं उनसे कोई भय नहीं होता। इसीलिये दूसरों के भय से सदा शंकित रहने की अपेक्षा सभी को अपना समझना, और पराये को भी अपना बना लेना, निःशंक हो जाने का सबसे अच्छा उपाय है। लेकिन, ऐसा हम कर नहीं पाते , इसलिए शत्रुओं से अपने को बचाने में ही सारी शक्ति नष्ट हो जाती है। अपने को उन्नत बनाने और अधिक विकसित करने की शक्ति फिर शेष नहीं बचती है। जिसके पास आत्मविकास करने की शक्ति नहीं बची है, उसे बाहर से शक्ति का प्रावधान करने की शिक्षा 'आजके हमलोग' नहीं प्राप्त करते। 
         किन्तु, यदि हम मानव मस्तिष्क को उन्नत करने वाले विज्ञान (राजयोग या पातंजलि योगसूत्र)  का प्रयोग करें तो हमलोग अपनी सत्ता के यथार्थ स्वरुप को, अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को भी जान सकते हैं। सभी प्राणियों (नाम-रूप) के भीतर, एक सत्ता या ब्रह्मवस्तु (अवतार-वरिष्ठ) मित्रभाव से अत्यंत घनिष्ट भाव से (Intimately) जुड़ा हुआ है। इसीलिये देखने में एक पृथक सत्ता प्रतीत होने पर भी वास्तव में (तत्वतः, द्वासुपर्णा या आत्मा रूप ) मैं उस परम सत्ता (अवतार वरिष्ठ ) के साथ एक और अभिन्न हूँ ! (माला की धागे जैसा) अदृश्य रहने पर भी सबों के साथ जुड़ा हुआ हूँ, क्योंकि हम सबों के भीतर एक ही सत्ता (ब्रह्मवस्तु) विद्यमान है। जब यही विचार क्रमशः दृढ़ होता जायेगा, तो मैं दूसरों को अपने से अलग न समझकर, उनको शत्रु न मानकर अपना मित्र समझूँगा और उनसे प्रेम करूँगा। तब हमारे हृदय में घृणा और भय के बदले, सबों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जायेगा।  प्रारम्भ में ही हमें घृणा से मुक्ति का उपाय ढूँढ़ना पड़ेगाहमारे ही भीतर सबकुछ (विवेकज ज्ञान भी) विद्यमान है। उसको सही रूप से व्यवहार करना होगा, जानना होगा और अपने जीवन से -(दासोऽहं) भाव से अभिव्यक्त करना होगा। ऐसा करने के लिए जगत को देखने के प्रति हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। [दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।  देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥  ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए।  देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, बताइये आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?  जीवबुद्धि से आपका अंश ही हूँ और  आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ 
        हमलोग मानव-कल्याण के लिये, उसकी सुख-शांति के लिये जगत के वस्तुओं का विश्लेषण करते हैं। किन्तु जिसकी सुख-शांति के लिये, जिसकी भलाई के लिये जगत की प्राकृतिक शक्तियों का विश्लेषण करते हैं, उस 'मनुष्य' (3H) का विश्लेष्ण कौन करता है ? हम मनुष्य की आंतरिक प्रकृति का, उसके मनोजगत का, अंतःकरण का विश्लेषण करने की थोड़ी भी चेष्टा नहीं करते। आमतौर पर हम कहते हैं कि मनुष्य एक मननशील जीव है, कुछ लोग कहते हैं, मनुष्य एक राजनैतिक जीव है, फिर कोई कहता है मनुष्य आर्थिक जीव है। तो क्या मनुष्य केवल दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चलने वाला एक अलग ढंग का पशु है ?  यह ठीक है, कि अलग अलग पहलु से देखने पर, मनुष्य राजनैतिक या मननशील या राजनैतिक जीव प्रतीत हो सकता है, किन्तु अपनी समग्रता में मनुष्य केवल इतना ही नहीं है, (वास्तव में तो वह ब्रह्म है !)। 
            महाभारत में कहा गया  है कि मनुष्य एक आर्थिक जीव है। कुरुक्षेत्र का युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व लोगों ने देखा कि अचानक युधिष्ठिर खाली हाथ विरोधी-सेना की ओर बढ़े जा रहे हैं। कई लोगों ने सोचा, कहीं वे आत्मसमर्पण करने तो नहीं जा रहे हैं ? लोगों ने देखा, वे तो पितामह भीष्म, गुरु द्रोण आदि गुरुजनों के निकट पहुँचकर चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद देने का आग्रह कर रहे हैं। आशीर्वाद देने के बाद चारों गुरु-जनों ने, एक ही वचन कहे," विश्व में सभी मनुष्य अर्थ के दास हैं, किन्तु अर्थ किसी का दास नहीं है। हमलोगों ने कौरवों का अन्न खाया है, इसीलिये हमें उनके पक्ष से युद्ध करने के लिये आना पड़ा। "
            इस बात को हमारे पूर्वज अच्छी तरह से जानते थे कि बाह्य जगत का संचालन अर्थ के द्वारा ही होता है। हमारे पूर्वज इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि ' निर्धन व्यक्ति की इच्छा उसके मन में उठकर मन में ही विलीन हो जाया करती हैं।' इसीलिये प्रायः सभी भारतवासी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे, कि सामान्यतया मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। किन्तु, हमलोग इतने परमुखापेक्षी हो गए हैं कि, अब हम अपने पूर्वजों के सिद्धान्तों को भी भूलते जा रहे हैं। हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम भी सुना है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को ही दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार कहाँ किया था ? उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है-- एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक है भोग का मार्ग, तो दूसरा त्याग का मार्ग है। दोनों मार्गों के समन्वय से ही यह विश्व और समाज संतुलित रहता है। इन दोनों मार्गों के कारण ही मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे एक हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भार संतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग।' इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष, या समाज नहीं चल सकता। त्याग-विहीन समाज केवल भोग के बल पर नहीं चल सकता है, उसी प्रकार पूर्णतः भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात की गयी है।  केवल एक ही पुरुषार्थ (मोक्ष) को लेकर चलने से सामाजिक व्यवस्था नहीं चल सकता। जो समाज केवल एक ही पुरुषार्थ (मोक्ष) लेकर रहता हो, उसे 'जघन्य' भी कहा गया है। किन्तु, ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है। 
            इस बात में तो कुछ सन्देह नहीं कि मनुष्य एक मननशील प्राणी है। स्वामीजी कहते हैं, मनुष्य एक मननशील प्राणी है, तभी तो उसे 'मुनि' भी कहा जाता है, मननशील होने से ही तो उसको मनुष्य कहा जाता है। इस विशेषता के अतिरिक्त अन्य सभी दृष्टिकोण से मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं है। केवल एक जगह आकर अन्तर हो जाता है, तथा वह जगह पशु के लिये बिल्कुल अलंघनीय (Inextricable) है। भूख, निद्रा, भय और वंशविस्तार की प्रवृत्ति  पशुओं और मनुष्यों में एक सामान है, कोई अन्तर नहीं है। एक मात्र 'धर्म' ही  मनुष्य और पशु में अलंघनीय अन्तर उत्पन्न कर देता है।
   किन्तु यहाँ धर्म का अर्थ (Religion) नहीं है, यह एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ ललाट पर तिलक लगाना, फूल, बिल्वपत्र चढ़ाना,या रामनामी चादर ओढ़ना नहीं है। धर्म का अर्थ है, विवेक-विचार, मनीषा या मननशीलता। यह विवेक ही मनुष्य को 'सत-असत' का निर्णय करने में सक्षम बनाता है, इसी से तो मनुष्य अच्छा-बुरा का अन्तर कर सकता है।किन्तु साधारण अर्थों में जिसे अच्छा और बुरा (आंवला-इमली का अंतर) समझा जाता है, सदसत-विवेक का अर्थ वहीँ तक सीमित नहीं है। 'सत ' का अर्थ है अविनाशी, चिरस्थायी। और 'असत' का अर्थ है क्षणभंगुर या नश्वर (मिथ्या-वस्तु)। कौन सी वस्तु सत (अविनाशी) है, और कौन सी वस्तु असत (नश्वर) है- जो प्राणी चिन्तन करके इस बात का निर्णय कर  सकता है, उसी को मननशील प्राणी कहा जाता है। वैदिक निरुक्तकार यास्क मुनि मनुष्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- " जो व्यक्ति कुछ भी सोचने-बोलने-करने के पहले 'विवेक-प्रयोग' करता है, उसको ही मनुष्य कहा जाता है।"
         मनुष्य निश्चित रूप से एक राजनैतिक प्राणी भी है। क्योंकि राजनीती का अर्थ है- 'देश-सेवा'। राष्ट्र-निर्माण एवं देशवासियों का कल्याण करने के लिए, सभी दलों को एकजूट होकर देश के लिए कल्याणकारी नीतियों को बनाना होगा, तथा उन्हें प्रयोग में भी लाना होगा। राष्ट्र के लिए उचित नीति का निर्धारण करना भी एक आवश्यक कार्य है - इस दृष्टि से देखने पर मनुष्य एक राजनैतिक प्राणी भी है। लेकिन मनुष्य केवल मननशील, राजनैतिक या आर्थिक प्राणी मात्र ही नहीं है। मनुष्य के बारे में इस प्रकार से सोचना, मनुष्य की अवधारणा को छोटा बना देता है। ऐसा सोचने से मनुष्य में जो असाधारण महानुभावता (magnanimity), ऐश्वर्य और अतुलनीय महिमा है, वह अनदेखा ही रह जायेगा। यदि इस अतुलनीय महिमा की दृष्टि से मनुष्य को नहीं देखा जाय, तो उसका वास्तविक परिचय प्राप्त न हो सकेगा। ईसाई, हिन्दू और इस्लामी पुराणों में भी यह कथा आती है कि ईश्वर ने जब इस अभूतपूर्व विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की, मनुष्य का भी निर्माण कर  लिया तो उन्होंने सभी देवदूतों को (फरिश्तों को)  बुलवा भेजा। तथा मनुष्य के सम्मान में शीश झुकाने को कहा। [क्योंकि मनुष्य अपने बनाने वाले-'ब्रह्म'को भी जान सकने में समर्थ था -यह देखकर मुदमाप देवा !] एक एक करके सभी फ़रिश्तों ने वैसा किया, किन्तु एक ने वैसा नहीं किया। जिस फ़रिश्ते ने मनुष्य के सम्मान में अपना सिर नहीं झुकाया, उसे खुदा ने कहा दूर हटो शैतान ! और वही फ़रिश्ता शैतान इब्लीस बन गया। कितनी अद्भुत कथा है यह ! इसीलिये जो व्यक्ति मनुष्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाता, उसको इस जगत रूपी रंगमंच से हट जाना होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जो व्यक्ति मनुष्य के महिमा के सम्मान में सिर नहीं झुकाता, वह शैतान है। मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि यदि ईश्वर सचमुच कहीं रहते हैं, तो वे मनुष्य के भीतर ही रहते हैं। स्वामीजी आगे कहते हैं, " तुमलोग भगवान को ढूंढ़ने कहाँ जाते हो ? उनकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मनुष्य के भीतर ही है। तुमलोग नदी के तट पर खड़े होकर भी, जल पाने के लिये कुआँ क्यों खोद रहे हो?  सब हाथों से वे ही कार्य कर रहे हैं, सभी पैरों से वे ही चल रहे हैं। खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, सभी स्थानों में वे ही कार्य कर रहे हैं। फिर तुमलोग भगवान की खोज कहाँ कर रहे हो ? "
        अगर हम जीना चाहते हों, तो हमें अपने भीतर इसी बुद्धि को (जगत को ब्रह्ममय देखने की दृष्टि को) जाग्रत करना होगा। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को यज्ञोपवीत पहन कर ब्राह्मण बन जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने देश के अतीत को समझे बिना केवल उसके आचार-अनुष्ठानों  का यंत्रवत पालन करते जाने से काम नहीं चलेगावेद-उपनिषद आदि गड़ेरियों के गीत हैं, तथा देवी-देवता कठपुतली मात्र हैं, इनकी कोई आवश्यकता नहीं है, इन सब को फेंक दो, क्योंकि हमारे सारे पूर्वज मूर्ख थे। अपनी महान प्राचीन संस्कृति के बारे में ऐसी ही धारणा रखते हुए हमलोग विदेशों से 'अर्थ दो, खाद्य दो, बुद्धि दो' की रट लगा कर भीख मांगते रहते हैं- यही तो हैं, आज के हमलोग! ऐसा होने पर भी हमारे जीवित रहने का एकमात्र पथ है, अपने अतीत को (गुरु-शिष्य परम्परा को) जानना और उसी बुनियाद पर अपना जीवन-गठन करना। हमारा जो आधुनिक और भौतिकवादी-समाज (Materialistic society) है, उस समाज के ऊपर 'मनुष्य' की महिमा को प्रतिष्ठित करना होगा; तथा धर्म के माध्यम से जगत के हर चीज का भोग करना होगा या आनन्द लेना होगा। अर्थात दुनिया की हर चीज को 'धर्म' (तेन त्यक्तेन भुंजीथा) की पद्धति  से (त्यागपूर्वक) भोग करना होगा। [ इससे ज्यादा क्रांतिकारी वचन दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं है।क्योंकि जब तक तुमने भोगा ही नहीं, तुम त्यागोगे कैसे; त्याग की समझ कहाँ से आयेगी?] क्योंकि भोग तो रहेगा ही किन्तु साथ-साथ त्याग भी रहेगा। इसीलिये एक जगह स्वामीजी ने कहा था, " भोग पूरा किये बिना त्याग नहीं आ सकता है ।" जिसको भरपेट खाना भी नहीं मिलता हो, उससे यदि कहें, तुमलोग सब कुछ फेंक दो-तो यह ठीक नहीं होगा। स्वामीजी कहते हैं, वे लोग अन्न माँग रहे हैं, और तुम उनको पत्थर दे रहे हो ! पहले उनके रोटी का प्रबन्ध करो, उसके बाद उनको धर्म की कथा सुनाओ। यदि हमलोग जीवित बचे रहना चाहते हों, उन्नति करना चाहते हों, तो दलगत विचारधारा की परवाह किये बिना,स्वामीजी द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलना होगा। उनका आदर्श केवल किसी दल या मत-विशेष के लिए नहीं है। स्वामीजीने कहा था,"ठाकुर समस्त प्रकार के साम्प्रदायिक विचारों और समस्त प्रकार के विभाजनकारी बेड़ियों को  तोड़ देने के लिये ही अवतीर्ण हुए थे।" वे आगे कहते हैं, "तुमलोगों ने जिस दिन 'म्लेच्छ ' शब्द का अविष्कार किया, उसी दिन से तुम लोगों का अधः पतन शुरू हो गया है। तुमलोगों अपने चारों ओर बाड़ खड़े कर रहे हो।  ठाकुर जाती-धर्म के नाम पर खड़ी की गयी -वर्गीकरण के इन छोटे छोटे घेरे को ध्वस्त करने के लिये ही आये थे।" एक प्रसिद्द कहावत है- "मूर्ख ठोकर खाने के बाद सीखता है, बुद्धिमान देख कर सीखता है।" पर हमलोग-न ठोकर खा कर न देखकर किसी प्रकार से नहीं सीख रहे हैं। इस प्रकार यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि हमलोग कितने बुद्धिमान हैं !
        स्वामीजी ने हमलोगों को जो भी उपदेश दिया है, सिद्धांत या 'महावाक्य' दिया है, उसे उनहोंने अपने मन से गढ़ कर नहीं दिया है। प्राचीनकाल में जो चीजें हमारे पास थीं उन्हें भली-भांति समझकर एवं अपनी अनुभूति से जान कर, उसे  नये रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया हैं। उन्होंने अति दरिद्र लोगों के बीच रहकर उनके दुःख के कारण को समझा है, उसके समाधान का मार्ग ढूँढ निकाला है तभी उन विचारों को हमारे समक्ष रखा है। उन्होंने जीवन्त मनुष्यों (इतिहास में जो दूसरों के लिये जीते हैं, केवल वे ही जीवित हैं) के इतिहास को जान लिया था। तथा उनके जीवन के साथ, अपने जीवन को जोड़ लिया था, इसी कारण उनके उपदेश कभी विफल नहीं हुए। रोमा रोलाँ कहते हैं, उनकी वाणी सुनकर विद्युत् प्रवाह  का झटका सा अनुभव होता है। हालाँकि श्रीरामकृष्ण के चरणों माँ बैठकर उनहोंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु उसी में लीन नहीं सके थे।  उनकी ब्रह्म में लीन रहने की इच्छा को, ठाकुर ने ठुकरा दिया था। उनकी उस भूल को समझा दिया था। तभी तो, सबों के दुःख को दूर हटाने के लिये वे अपना जीवन न्योछावर कर देने में समर्थ हो सके थे। 
    इसीलिये, स्वामी विवेकानन्द को हमें अपना नेता या बुद्धि-दाता मानना होगा। ऐसा न करने से हमलोगों का भविष्य सचमुच अंधकारपूर्ण हो जायेगा। केवल बाहर में बारूद-विस्फोट करने से कुछ हासिल न होगा, हमें स्वयं को ही 'बारूद' (मूर्तमान निःस्वार्थता) के रूप में गढ़ना होगा। निःस्वार्थपरता को अभिव्यक्त कर 'मनुष्य' बनकर भारत माता की पूजा-वेदी पर स्वयं की बली (अपने व्यष्टि अहं को विसर्जित करने) देने के लिये तैयार रहना होगा। स्वामीजी ने कहा था, " अपने भीतर निःस्वार्थपरता, त्याग, सेवा, प्रेम का बारूद भर कर युवा समुदाय के उपर फट पड़ना होगा।" केवल भाषण देने से काम नहीं चलेगा। इसी बात को स्मरण रखने के लिये कहते हैं- ' हे भारत ! मत भूलना, कि तुम माता के लिये बली प्रदत्त हो। '
              स्वामीजी नारा लगाने के लिये नहीं आये थे। भारत एवं विश्व में किस प्रकार का विप्लव या आमूल परिवर्तन कैसे करना है -- स्वामीजी उसी विप्लव-मार्ग का दिग्दर्शन कराने आये थे। उसका पथ उन्होंने बतला दिया है।  प्रत्येक युवा का हृदय 'प्रेम रूपी बारूद' का कारखाना (मानव-बम) बन जायेगा। सम्पूर्ण मानवजाति के प्रति अकृत्रिम प्रेम ही असली बारूद है, इसी प्रेम के बारूद से अपने हृदय को भर लेना होगा। कोई यदि इतना साहसी और क्रन्तिकारी हो, तो वे स्वामी विवेकानन्द के पास चले आओ। यदि क्रांति ही करना चाहते हो, तो स्वामीजी के मार्ग पर चलो। यदि तुम उतने साहसी हो, तो तुम्हें मरना होगा ! (इस प्रेमवारी का छिड़काव करते हुए अपने प्राणों को न्योछावर करना होगा।) किन्तु, लोगों की दृष्टि में शहीद कहलाने या वाह-वाही पाने के लिये नहीं। क्या तुम सबों की दृष्टि से ओझल रहकर त्याग, प्रेम, पवित्रता,  सत्यनिष्ठा, संयम और निर्भीकता के बारूद से अपने हृदय को धीरे धीरे भर सकते हो ? ऐसा करने के बाद जब तुम समाज के सामने खड़े हो जाओगे, उस समय समाज तुम्हारे सामने श्रद्धा के साथ सिर झुकाएगाऔर तब समाज से समस्त अनैतिकता और कायरता, तुम्हें देखकर किसी चोर की भाँति भागने लगेंगे। यही करना होगा, अभी हमें इसी प्रकार का चरित्र-गठन करने की आवश्यकता है। सच्ची समाज-सेवा का यही एकमात्र पथ है।
        अपने देश-वासियों के लिये यदि तुम्हारे हृदय में प्रेम है तो मनुष्य की महिमा के सामने अपना शीश झुकाओ। मनुष्य को चलता-फिरता देवालय समझकर उन्हें प्रणाम करो। स्वामीजी कहते हैं, " सब प्रकार के शरीरों में मानव-देह ही श्रेष्ठतम है ; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के निकृष्ट प्राणियों से -यहाँ तक की देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर जीव और कोई नहीं। "' मैंने जीवन भर ईश्वर का अन्वेषण किया है, किन्तु उनको केवल मनुष्य के भीतर ही पाया है।' आगे कहते हैं, ' मनुष्य के जैसा मनुष्य बनकर सबों का दुःख दूर करो। चरित्रवान बनो। जो गुणपशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर सकता हो, उसको ही धर्म कहते हैं
(धर्म का अर्थ Religion नहीं है) क्या धर्म केवल मन्दिर, मस्जिद या गीरजाघर में है? जो वस्तु (महामण्डल निर्देशित ५-अभ्यास) मनुष्य को वास्तविक मनुष्य में परिणत करके उसे देवतुल्य बना देती है, उसको ही धर्म कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म मनुष्य को पशु-स्तर से देवता में विकसित होने का मार्ग बतलाते हैं। 
विद्यार्थियों को यह समझना होगा कि केवल परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने से ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त हो जाता है। उच्च डिग्री हांसिल करके भी अधिकांश लोग केवल अपने लिये ही जीवित रहते हैं, दूसरों के लिये जीवित रहने से मनुष्य जीवन सार्थक होता है, यह बात समझ में नहीं आती। जो लोग दूसरों के लिये जीना चाहते हों उन्हें स्वस्थ-सबल शरीर चाहिये, सद्बुद्धि-सम्पन्न मन चाहिये, परहित करने में समर्थ प्रेमपूर्ण हृदय चाहिए।  किसी भी कार्य को दो प्रकार की बुद्धि से किया जा सकता है -स्वार्थ बुद्धि और परार्थ-बुद्धि। स्वार्थबुद्धि से करने पर कोई भी कार्य बुरा -और परार्थबुद्धि से करने पर कोई भी कार्य अच्छा होता है। अतः कर्म के पीछे जो मनोभाव रहता है उसको बदलने की जरूरत है। इसको ही कर्म-योग कहा जाता है। कर्म में कौशल बरतना ही योग है। जो कुछ भी कर रहा हूँ उसी कार्य को करूँगा, किन्तु दृष्टिकोण बदल जायेगा। ये सब बातें यदि तुम्हें ठीक लगें, युक्ति-सम्मत लगें तो विवेकानन्द के पास आओ। उनके उपदेशों के अनुसार कार्य करो, उनको थोड़ी श्रद्धा दो, उनसे प्यार करो-इतना से ही काम हो जायेगा।             
       कार्ल मार्क्स ने 1853 ई० में एक पत्र में लिखा था , " भारतवर्ष के बारे में सोचने से बहुत दुःख होता है। क्योंकि, भारत ने अपना अतीत तो खो ही दिया है, किन्तु नया कुछ भी नहीं पाया है। इस शून्यता के भीतर से देखने पर भारतवर्ष का भविष्य अंधकारमय लगता है , कुछ समझ में नहीं आ रहा  है।" (किन्तु जगतजननी, माँ जगदम्बा की लीला देखें), ठीक उसी साल 1853 ई.में ही 17 वर्ष के तरुण 'गदाधरअपने बड़े भाई के साथ पहली बार भारतवर्ष की तात्कालीन राजधानी कोलकाता में पदार्पण करते हैं। और कोलकाता जैसे महानगर में सद्बुद्धि [मूर्तिपूजा -माँ काली की भक्ति] की एक हवा बहने लगती है। उस समय भारत का अतीत लगभग अस्पष्ट जैसा था, तब भी जितना बचा हुआ था,  उसी को बचाने के लिये-उसी को ही पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिये ठाकुर श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द आये थे। इनके उपर श्रद्धा रखने का अर्थ है भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना, उससे प्यार करना, और उसी के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व के कल्याण का भी प्रावधान करना। इतना सब समझ लेने के बाद भी क्या हमलोग यह कह सकते हैं कि अभी भारत के लिये स्वामीजी की कोई आवश्यकता नहीं है,  हमलोग जिस प्रकार के मनुष्य हैं, वैसे ही बने रहेंगे ? जो ठाकुर, माँ , स्वामीजी, मनुष्यों के दुःख-कष्ट से व्यथित होकर, उसके सच्चे कल्याण का मार्ग दिखा देते हैं , उनके प्रति यदि श्रद्धा नहीं रखेंगे , तो किसके प्रति रखेंगे ?(जो 'पवित्र-त्रयी' मनुष्य की व्यथा से व्यथित होकर उनके वास्तविक कल्याण का मार्ग--मनुर्भव दिखला गए हैं! यदि उन वेदमूर्ति के उपर श्रद्धा नहीं रखेंगे तो किनके उपर रखेंगे ?)
          इसीलिये तो सम्पूर्ण विश्व स्वामीजी [और उनके माध्यम से ठाकुर और माँ को पहचानकर] के प्रति श्रद्धा रखता है। 1902 ई० में स्वामीजी के देहान्त के मात्र 12 वर्ष के भीतर 1906 से 1914 ई० के बीच ही स्वामीजी का 'कर्मयोग', 'भक्तियोग', 'राजयोग' तथा 'ज्ञानयोग' का रुसी भाषा में अनुवाद हो गया था। उसी प्रकार हाल के दिनों में चीन में गीता, रामायण का अनुवाद हो रहा है, स्वामीजी के संदेशों पर सेमिनार हो रहे हैं। चीन की सरकार ने वहाँ के शिक्षाविदों को इस बात का उत्तरदायित्व दिया है कि सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन कर, उनका विश्लेषण कर यह पता लगायें की धर्म में कोई सार है या नहीं ?तथा मनुष्य के कल्याण में धर्म की भी कोई भूमिका हो सकती है या क्या ? चीन के मनीषी लोग अभी दुनिया के सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करके उसका सार निकालने के लिये उनका विश्लेषण कर रहे हैं। इसको ही वैज्ञानिक विश्लेषण कहते हैं। जिस प्रकार धर्म के नाम पर दुनिया में बहुत अनर्थ हुआ है, उसी प्रकार विज्ञान के द्वारा भी कई कल्याण के कार्य होने के साथ- साथ मानवता का विनाश भी हुआ है। 
     इस समय यह देखने की जरूरत है कि धर्म (निःश्रेयस) सामान्य मनुष्यों के किसी काम में आयेगा या नहीं? अब समय आ गया है कि हमलोग भी अपने सनातन धर्म को थोड़ा ध्यान पूर्वक देखने की चेष्टा करें। केवल पाश्चात्य देशों का अनुकरण करते रहने से ही काम नहीं चलेगा। जैसे एक शिक्षित व्यक्ति श्रीरामकृष्ण के निकट आकर लगभग प्रति दिन कहते थे, गीता-टीता आदि में कुछ भी नहीं है। उसके बाद अचानक एक दिन आकर कहने लगे, गीता तो बहुत अच्छी और मनुष्य का उपकार करने वाली पुस्तक है। इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'ओहो ,लगता है किसी अंग्रेज साहेब ने कहा है ? हमलोग भी ठीक वैसा ही कर रहे हैं। जब विदेशी लोग यह कहेंगे कि " सचमुच वेदों, उपनिषदों में तो बड़ी अच्छी- अच्छी बातें हैं, केवल चार महावाक्यों में ही सम्पूर्ण विश्व को पुनरुज्जीवित करने की शक्ति है।" हमलोग तुरंत कहेंगे, हाँ ; बेशक धर्म तो बड़ी अच्छी चीज है, गीता, वेद, उपनिषद आदि जितने भी ग्रन्थ हैं, सभी अच्छे हैं- उन सब मनुष्य जाति के लिए कल्याण की बातें लिखी हैं।  (अब तो अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवस भी मनाया जा रहा है, यूनाइटेड नेशन में दीवाली मनाई जा रही है! ) यही हमलोगों की मानसिक दरिद्रता है, इस मानसिक कंगाली को दूर करना होगा। यदि हमलोग अपनी इस आन्तरिक कंगाली को दूर हटा कर उन महान विचारों-सिद्धान्तों को (चार महावाक्यों को) अपने जीवन में अभिव्यक्त न करें, तो हमलोगों का भविष्य बहुत अंधकारपूर्ण हो जायेगा।
               हमारा देश जिसको हमलोग 'माँ ' कहते हैं, भारत माता कहते हैं- जिसने हमलोगों का लालन-पालन किया है, उस माँ के लिये क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं है ? क्या भारतमाता का हमारे ऊपर कोई ऋण नहीं है ? माँ सबसे अधिक कैसे खुश होंगी ? भारत माता सबसे अधिक तब प्रसन्न होंगी, जब हमलोग इस मिट्टी की गोद में स्वस्थ, श्रेष्ठतर मनुष्य जैसे मनुष्य बन जायेगे।  और उनकी जो संतानें गरीब और दुखी हैं, उनके आँखों के अश्रु यदि पोंछ सकेंगे । यह कार्य राजनीती करके नहीं किया जा सकता है। यह कार्य केवल यथार्थ मनुष्य बनकर ही किया जा सकता है। ऐसा मनुष्य बनना होगा जिसमें आत्मविश्वास, निर्भयता, त्याग और सेवा का भाव रहेगा, तथा अन्य मनुष्यों के प्रति प्रेम रहेगा- तभी हमलोग मातृ-ऋण, पितृ-ऋण, जिसे कभी चुकाया नहीं जा सकता, उस ऋणशोधन के लिए कुछ उपयुक्त कार्य कर सकेंगे। अब प्रश्न यह है कि हमलोग इस कार्य को करेंगे या नहीं करेंगे ? इसका उत्तर हमें ही देना होगा। हमारी भारत माता बहुत प्रसन्न होंगी, यदि उनकी सुसंतान के रूप में हमलोग स्वयं को गढ़ सकेंगे स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं से यही संकल्प लेने का आह्वान किया था। आज के हमलोग क्या हैं, क्या बन सकते हैं, और हमलोग क्या कर सकते हैं, उसी का सही मार्ग दिखलाने के लिए स्वामी विवेकानन्द  ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। 
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>>> द्वैत के कारण ही भय होता है  तैत्तिरीयोपनिषद २/७/१ में कहा गया है है - " उदरम् अन्तरम् कुरुते अथ तस्य भयम् भवति ।" अर्थात जो व्यक्ति ब्रह्म और अपने अथवा दूसरों में -' उदरम् ' थोड़ा-सा भी, अन्तरम् कुरुते - अन्तर समझता है, उसको भय होता है।'

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।8.23।।

हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन !   जिस काल में (मार्ग में) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन अपुनरावृत्ति को, और (या) पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, वह काल (मार्ग) मैं तुम्हें बताऊँगा।।

       वैशेषिक दर्शन के संस्थापक महर्षि कणाद ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है - "यतोऽभ्युदय-निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः। "  अर्थात जिससे 'अभ्युदय और निःश्रेयस'  दोनों प्राप्त होते हैं उसी को धर्म कहते हैं !  ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न (पुरुषार्थ) करते हैं। 
      अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है।
     निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। ( निःश्रेयस का अर्थ हुआ नश्वर देह-मन को मैं समझने से मुक्ति या सिंह शावक का भेंड़त्व से विसम्मोहित हो जाने का परमानन्द !) इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान (सिनेमा का पर्दा) हैइस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है। यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ भरतश्रेष्ठ अर्जुन को वचन देते हैं कि वे उन दो आवृत्ति और अनावृत्ति मार्गों का वर्णन करेंगे। 
यहाँ काल शब्द का द्वयर्थक प्रयोग किया गया है। 
काल का अर्थ है प्रयाण काल और उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ है मार्ग जिससे साधकगण देहत्याग के उपरान्त अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। प्रथम अपुनरावृत्ति का मार्ग बताते हैं।]   
>>>ब्रह्म ही माया के आवरण से  (ताना और भरनी से)  ढँका हुआ है, उस ब्रह्म को नहीं देख पाना ही मानवजीवन की मूल समस्या है।  

झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया ॥

काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥

इड़ा पिङ्गला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥


आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥

साईं को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥


सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥

दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥

इस पद्द में कबीर दास जी बड़ी कीमती बातें कही हैं, जिसका हर एक शब्द समझने योग्य है ।
झीनी-झीनी बिनी चदरिया का अर्थ है कि बनाने वाले ने बड़े जतन और बड़े होश से इस शरीर को बनाया है।
     इस लिए इसको तुम जितना जाग कर जीयोगे, उतने ही बारीक और सूक्ष्म जीवन का अनुभव कर पाओगे। जितना सूक्ष्म अनुभव करोगे, देवदुर्लभ मनुष्य शरीर के प्रति उतना ही ज्यादा जागोगे। इस जीवन की चादर बड़ी झीनी है और जितना तुम झीनापन देख पाओगे, उसकी बनावट की बारीकी उतने समझोगे।
काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया
इडा पिङ्गला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया

इस शरीर को बनाने के लिए किस ताना, भरनी और तार का इस्तेमाल किया गया है। ताना, भरनी और तार कपड़ा बुनने में इस्तेमाल किया जाता है। यह तुम्हारा दिखाई पड़ने वाला शरीर,मन न दिखाई पड़ने वाले (आत्मा) को छिपाये हुए है। यह चदरिया यानि हमारा शरीर, इंगला-पिंगला ताना भरनी, और सुषमन तार से बुना गया है। अगर इसको समझना चाहते हो तो स्वर शास्त्र की कुछ जानकारी होना जरूरी है।
स्वर शास्त्र के अनुसार इस शरीर में 7200 नाड़ी हैं। जिसमें 10  नाड़ी को प्रमुख मानते हैं। और इनमें भी तीन ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी बहुत ही महत्व पूर्ण है जो मेरुदण्ड से जुड़े हैं। ईड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिंगला को सूर्य नाड़ी कहा जाता है। सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार से आरंभ हो कर सिर के सहस्रार तक अवस्थित है और सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। अतः यहाँ पर कबीर साहेब इन 3 प्रमुख नाड़ी की बात कर रहे है जिससे ये शरीर रूपी चादर बिनी गयी है।

आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया

    हमारे संत, महात्मा, ऋषि और मुनि ने शरीर को ही ब्रम्हाण्ड का सूक्ष्म मॉडल बताया है। इसमें 8 चक्र, 5 तत्व और तीन गुण हैं। ये आठ चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, मनश्चक्र (बिन्दु या ललना चक्र), और सहस्त्रार), हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन इन्हें अपनी भैतिक इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। परंतु इनसे निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। पंचतत्व या पंच महाभूत माने आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से सम्पूर्ण सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। प्रकृति के तीन गुण (सत्, रजस् और तमस्) बताए गए हैं।  ये तीनों गुण सभी सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं। इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण ही किसी व्यक्ति का चरित्र निर्धारित होता है

कबीर दास जी कहते हैं कि आठ कंवल, जिनको हम चक्र कहते हैं, उनको अगर ठीक से समझें तो यहाँ कंवल कहने का कारण है। यह तो सिर्फ प्रतीकात्मक है। यदि आपने कभी नदी में कोई भंवर पड़ते देखा है, तो वहां चक्र में पानी घूमता प्रतीत होता है! वैसे ही ऊर्जा आपके शरीर में बने चक्र में घूमती है और उन भंवरों का जो रूप है वह कमल से काफी मिलता -जुलता है मानो जैसे कमल घूम रहा हो।
इन आठ चक्र का द्वार है दस इंद्रियां (पांच कर्म-इंद्रियां, और पांच ज्ञान इंद्रियां) का चरखा है। जब व्यक्ति अज्ञानी होता है, तो कमल नीचे की तरफ झुका मुरझाया हुआ होता है। जैसे-जैसे ऊर्जा ऊपर की तरफ बहनी शुरू होती है, कमल की डंडी सीधी होने लगती है, और कमल सीधा हो जाता है। पूरे कमल के खिल जाने में परम सत्य को पा लिया जाता है। इन्हे ही वेद ने उर्ध्वरेतस् कहा है। जब आप उर्ध्वरेतस् बनोगे तो तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की तरफ जाएगी, सब कमल ऊपर की तरफ उठ जाएंगे। जहाँ तक चक्र गिनने की बात करे तो कुछ एक लोग सात कंवल, कुछ आठ कंवल, कोई नौ कंवल और कोई ग्यारह कंवल गिनता है।

साईं को सियत मास दस लागे, ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया

सोई चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया

यह शरीर पिंड, स्थूल और सूक्ष्म शरीर से बना है जिसको बुनने (सियत का मतलब होता है सिलना या बुनना) में परमात्मा को दस महीने लग जाते हैं। और जिसको प्रकृति ने बड़े बारिकी से, ध्यान दे कर बनाया है। परमात्मा ने पूरा अस्तित्व बनाने में दस महीने तुम पर खर्च करता है लेकिन तुम इसका कोई मूल्य ही नहीं समझते
कबीर साहेब जी कहते हैं कि प्रकृति द्वारा बनाए गए इस शरीर को सुर (स्वर्ग में रहनेवाला देवता), नर (साधारण मनुष्य), और मुनि (त्यागी जन), सबने ओढ़ी, और इन तीनों ने मैली कर दी। देवता भोग के कारण मैला कर देता है, मुनि त्याग के कारण मैला कर देते हैं। और बीच में जो मनुष्य है, वह खिचड़ी जैसा है। सुबह त्यागी, दोपहर भोगी; शाम त्यागी, रात भोगी। वह चौबीस घंटे में कई दफा बदलता है। भोगी का अर्थ है, वासनाओं के साथ जिसने अपने को इतना जोड़ लिया कि कोई फासला न रहा। देवता, भोगने के शुद्ध प्रतीक हैं। वे सिर्फ भोगते हैं। भोग से चादर मैली हो जाती है। भोगी और त्यागी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनकी कामना एक ही है। एक को मिल गया है; दूसरे मिल जाए, इसकी आशा में जी तोड़ कर लेगा हुआ है। इसलिए त्यागी भी सपने तो भोग के ही देखता है। कबीर साहेब जी कहते हैं, त्यागी, भोगी दोनों नष्ट कर देते हैं चदरिया को।
दास कबीर जतन करि ओढी, ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया

इस लिए कबीर साहेब जी कहते हैं मैने जतन से ओढ़ी, बड़े सम्हाल कर ओढ़ी, और होश से ओढ़ी और ज्यों की त्यों परमात्मा को वापस कर दी। यहीं मोक्ष है, यहीं मुक्ति की अवस्था है।
अब प्रश्न उठता है कैसे इस चादर को निर्दोष रखें?

कबीर साहेब जी कहते इस चदरिया को बचा लेने की कला है: होश, विवेक और जाग्रत चेतना। करो, जो कर रहे हो, जो करना पड़ रहा है। जो नियति है, पूरा करो क्योंकि भागने से कुछ प्रयोजन नहीं। लेकिन करते समय न करता बनो न भोक्ता । सिर्फ साक्षी रहो, यहीं सम्हाल कर ओढ़ने की कुंजी है।  साभार /https://managelifesolution.co.in/(आध्यात्मिक ज्ञान चर्चा(एक कदम मुक्ति के मार्ग पर)

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>>>"केवलाघो भवति केवलादी" - मनुष्य-निर्माण की आन्तरिक इंजीनियरिंग :     

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवित केवलादी।
 (ऋग्वेद,10/117/6) 

[अन्वय :-  मोघं अन्नं विन्दते  अप्रचेता:। स तस्य वध इत्। स आर्यमरणं न पुष्यति। न स सखायां पुष्यति। केवलादी केवलाघ: भवति। इति अहं  सत्यं ब्रवीमि। ।।]
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। स तस्य वध इत् (स) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वधइत्) नाश का ही कारण है। (केवलादी) जो अकेला खाने वाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचन मात्र भी सन्देह नहीं है। अर्थात - वह व्यक्ति पापी है, जो न तो देवों को भोजन देता है एवं न अपने मित्रों को। केवल अपना ही पेट भरता है  

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व्याख्या :- जीवन के दो बड़े विभाग हैं। एक भोग और दूसरा कर्म। (प्रवृत्ति और निवृत्ति =निष्काम कर्म)   प्रश्न यह है कि क्या इन दोनों का महत्व समान है,  अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य ? यदि ऐसा है तो मुख्य कौन है और गौण कौन है? तुलसीदास जी का कहना है कि-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करै सो तस फल चाखा।।
 
   अर्थात् कर्म मुख्य (प्रधान) है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर विचार कीजिये। इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कही जा सकती है। प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा नहीं होती तो नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है अपितु इसलिए कि उससे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए लोगों ने 'अर्थ' (कामिनी-कांचन भोग?)  को ही सर्वोपरि माना है। लेकिन हर व्यक्ति को अपने अच्छे एवं बुरे कर्म का फल पाना ही होता है। स्वयं भगवान राम को बाली वध की सजा द्वापर युग में जरा नाम के बहेलिए ने उनके पैर पर तीर मारकर किया था। नारायण के पैर में तीर मारने के बाद बहेलिए ने अपनी गलती स्वीकार भी किया था। मगर नारायण रूपी भगवान कृष्ण ने बहेलिए से कहा था कि यह उनके पूर्व के कर्मों का फल है। द्रौपदी ने एक बार अपने आंचल से एक महात्मा की लाज को बचाई थी। जिसके फल द्रौपदी को त्रेता युग में महाभारत के चिर हरण कांड के दौरान प्राप्त हुआ। उन्हें बचाने के लिए [गज-ग्राह के अहंकार >को मारने ?] सीधे नारायण को आना पड़ा था।  वही 10 हजार हाथी के बल वाला दुशासन अपनी मंशा में सफल नहीं हो पाया था।
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Monday, August 13, 2012

' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ' (স্বামী বিবেকানন্দ ও যুব সমাজ) [ SVHS- 3.1 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना >[ तृतीय अध्याय : ' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ' (खण्ड -3 'स्वामी विवेकानन्द और युवा मण्डली '] [Internal Engineering for Sense-Datum Restraint Trainer: [श्री तोतापुरी- गदाधर परम्परा में सेंस-डेटम संयम प्रशिक्षण के लिए आंतरिक इंजीनियरिंग:]

1.

' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज '   
      
          श्रीरामकृष्ण का युवाओं के प्रति प्रेम देखकर बहुत से लोगों को आश्चर्य होता था। उन्हें तो किसी वस्तु की चाह या लालसा नहीं थी फिर वे क्यों चाहते थे कि युवा लोग उनके पास आयें? और कितने आश्चर्य की बात है, कि इसके लिये वे दक्षिणेश्वर की माँ भवतारिणी के निकट प्रार्थना भी करते थे ! भला उनका अपना कार्य  क्या हो सकता था? फिर भी वे माँ काली के निकट प्रार्थना करते हैं और व्याकुलता के साथ युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं।  चूँकि उनका एक उद्देश्य था , इसीलिए वह युवाओं के आने की बाट जोह रहे थे। वह उद्देश्य था जगत का कल्याण।
      किन्तु वे तो, इस जगत का कल्याण (कम से कम अपने भक्तों का कल्याण ?) वैसे भी कर सकते थे, वे अपने हाथों को आशीर्वाद की मुद्रा में उठा देते और पलक झपकते सब कुछ ठीक हो जाता। पर वैसा किया क्यों नहीं ? उन्होंने कहा हैं- " विश्व संचालन का कानून ही ऐसा है !'['आइन एरुप आचे] वे उस विधान के भीतर रहते हुए कार्य करना चाहते हैं। जगत की भलाई करने के लिए एक नियम है। वे उसी नियम को सिखा देना चाहते थे। जगत-कल्याण का जो विधान है, उस विधान को वर्तमान पीढ़ी के युवाओं को सिखा देने के लिए ही उन्होंने समस्त उद्यम किया है। और इसी कार्य का उत्तरदायित्व भावी पीढ़ी को सौंपने के लिए ही वे योग्य-युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। 
    अद्भुत शिक्षक (अवतार वरिष्ठ) श्रीरामकृष्ण के जीवन का व्रत ही मानो युवाओं को प्रशिक्षण देना ही था। किन्तु प्रशिक्षण के लिए आगन्तुक युवाओं में जिसके भीतर वे सार (विवेक) देखते थे, केवल वैसे ही युवाओं का चयन करते थे। वे कहते थे-" सार नहीं रहने से सभी प्रकार की लकड़ियाँ (जैसे बाँस) चन्दन नहीं बन पातीं।[यह कहा जाता है कि मलयाचल में स्थित “चंदन बृक्ष” की गंध अन्य सब बृक्षों को भी चन्दन के रूप में परिणत कर देती है, किन्तु यह मलय भी बाँस को चंदन के रूप में परिणत नहीं कर पाता। चेतन की दृष्टि से सब सम हैं, किन्तु जड़ को चेतन बनाना पड़ता है, भगवद्कृपा या गुरुकृपा से शिक्षादि प्राप्त कर के जड़ भी चेतन हो जाते हैं।श्रीरामकृष्ण वास्तव में जगत गुरु थे, उनका मुख्य कार्य ही शिक्षकों को (भावी लीडर्स को) शिक्षित करना था। इसीलिए वे योग्य आधार देखकर ही युवाओं का चयन करते थे। क्योंकि उनकी शिक्षा  में जो शिक्षित होंगे वे आगे चलकर जगत के कल्याण की शिक्षा का प्रशिक्षण अगली पीढ़ी के युवाओं को देंगे। [माँ काली-श्रीरामकृष्ण वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा (Be and Make) में जो माँ काली से  'तूँ भावमुखी रह!' का 'चपरास' प्राप्त शिक्षक/नेता होंगे वे ही जगत के कल्याण का नियम दूसरों को सिखला सकेंगे।इस लिये ऐसे ही कई गुणी सन्तानों में से एक युवक को अलग से चिन्हित कर के, उसको अपना लिखित चपरास देते हुए कहा था - "नरेन्द्र शिक्षा देगा!"  

   श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्मित नरेन्द्र ने जगत का कल्याण करने के विधान (त्याग या निवृत्ति अस्तु महाफला) की शिक्षा सम्पूर्ण जगत को दिया। किन्तु इस विधान को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। जबकि संसद के द्वारा पारित संविधान को संशोधित किया जा सकता है। क्योंकि जनता के द्वारा चुने गये सांसद बदलते रहते हैं और तदनुसार उनकी बुद्धि भी बदलती रहती है। किन्तु जिस ईश्वर (जगतजननी माँ जगदम्बा) ने इस जगत-ब्रह्माण्ड को संचालित करने का नियम बनाया है, न तो कभी वे बदलती हैं, और न उनकी कभी बुद्धि बदलती है।  कई लोग ऐसा सोंचते हैं जगत में सब कुछ परिवर्तनशील है, यहाँ ऐसी कोई वस्तु नहीं- जो अपरिवर्तनीय (अविनाशी) हो। फिर वे ऐसा भी सोचते हैं कि सब कुछ बदलते- बदलते अन्त में जो कुछ शेष रह जाता है, वही अच्छा (अविनाशी) हो सकता है।  किन्तु, अंत में जो शेष बचा रहेगा, वह अच्छा (अविनाशी) ही होगा- इसका क्या प्रमाण है ? ऐसा भी तो हो सकता है कि बाद में पता चले कि जो शेष (परमाणु) रह गया था वह भी अच्छा (अपरिवर्तनीय) नहीं था ? हम अभी तक जिसको अच्छा (परमाणु को अपरिवर्तनीय ) समझ रहे हैं, हो सकता है वह भी पुनः परिवर्तित होकर अन्य रूप धारण का ले?  क्योंकि कहा गया है कि (इस इन्द्रियग्राह्य जगत में) ऐसा कुछ भी नहीं है जो परिवर्तित ही न होता हो । इसका अर्थ यह हुआ कि इस अंतिम अच्छे (अपरिवर्तनीय परमाणु) के भी बदल जाने के बाद जो शेष बचेगा (ऊर्जा) उसको ही एक बार फिर से अच्छा (अपरिवर्तनीय) कहेंगे। किन्तु जो बदल गया या परिवर्तित हो गया वह निश्चय ही अच्छा (अपरिवर्तनीय , शाश्वत, आत्मा या ब्रह्म) नहीं था। तो निष्कर्ष क्या हुआ ? जिसको अच्छा (अपरिवर्तनीय) कहते हैं, वह भी अपरिवर्तनीय नहीं है - यही सिद्ध होता है। तो क्या यहाँ कुछ भी अच्छा (अपरिवर्तनीय-शाश्वत ) नहीं है ? हाँ, जरुर है ! जो 'वस्तु' कभी नहीं बदलता ( वह पर्दा जिस पर फिल्म महाभारत चल रहा है, ब्रह्म -जिस पर जगत अध्यस्त है) है वास्तव में वही अच्छा (शाश्वत आत्मा) है! और मानव जीवन का उद्देश्य ही है उस अच्छी वस्तु, उस अपरिवर्तनशील  ' वस्तु ' [अविनाशी आत्मा ] का अनुसन्धान करना ! समस्त परिवर्तनशील वस्तुओं का (देह,मन, इन्द्रिय में आसक्ति का) धीरे -धीरे त्याग करते जाने (नेति नेति) से ही वह (अविनाशी) वस्तु प्राप्त हो जाती है। निष्कर्ष यह निकला कि अच्छा, कल्याण (अपरिवर्तनीय ,शाश्वत याआत्मा) को चाहने का एकमात्र मार्ग या विधान है 'त्याग';  त्याग के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। स्वयं भोगों में (तीनो ऐषणाओं में) आसक्त  रहते हुए, जगत का कल्याण नहीं किया जा सकता। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, 
"अतीतकाल में त्याग ही नियम था; और 'हाय' ! भविष्य काल में भी त्याग ही नियम रहेगा!"-किन्तु  स्वामी जी इसके लिए 'हाय' क्यों कहते हैं? इसीलिये कहते हैं- जो ऐसा सोचते हैं, कि शायद उनके लिए यह नियम बदल जायेगा ; और वे इन्द्रिय भोगों का  त्याग किये बिना ही जगत का कल्याण कर सकेंगे, तो वे निश्चित रूप से असफल होंगे। इसीलिए स्वामीजी 'हाय' कहते है। (अर्थात जो ऐसा सोचते हैं कि प्रवृत्ति से निवृत्ति में आये बिना, वर्णाश्रम धर्म का पालन किये बिना, और मिथ्या अहं को दासोऽहं में बदले बिना ही जगत का कल्याण कर सकेंगे, तो वे निश्चित रूप से असफल होंगे। इसीलिए स्वामीजी 'हाय' कहते है।) 
    जिस प्रकार 'त्याग' के द्वारा उस अच्छा अपरिवर्तन-शील वस्तु (आत्मा , अपने अविनाशी स्वरुप या अमरत्व) को स्वयं प्राप्त किया जा सकता है, उसी प्रकार दूसरों को उसे प्राप्त करने में सहायता भी दी जा सकती है। यही तो है सच्ची सेवा ! स्वामीजी ने इसी " त्याग और सेवा " को भारतवासियों का आदर्श कहा है। [स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं 'त्याग' और 'सेवा'! आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा।"] जीवन का उद्देश्य है उस अपरिवर्तनीय अच्छा को प्राप्त कर लेना। (अविनाशी आत्मा का साक्षात्कार कर लेना।) आदर्श है " त्याग और सेवा।" और उपाय के रूप में स्वामी जी निर्दिष्ट किया है  - 'प्रयत्न'। प्रयत्न  के द्वारा ही आदर्श को अपने जीवन में रूपायित किया जा सकता है तथा उद्देश्य की दिशा में अग्रसर भी हुआ जा सकता है। 
      किसी प्रकार की चेष्टा या प्रयत्न करने का अर्थ ही हुआ कोई कार्य करना।  किन्तु, क्या किसी भी तरह के कार्य को हमलोग सच्चा प्रयत्न ( योग) कह सकते हैं ? अर्थात क्या कोई भी कार्य आदर्श (त्याग और सेवा) को अपने जीवन में रूपायित करने में उपयोगी सिद्ध हो सकता है ? नहीं , जिस कार्य के द्वारा  'त्याग और सेवा' का आदर्श जीवन में रूपायित हो सके, जो कार्य हमें उद्देश्य (आत्मावलोकन या आत्मसाक्षात्कार) की दिशा में ले जाता हो, उसी कार्य को करना सही होगा, दूसरे प्रकार के कार्य नहीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी भी कार्य को किस इच्छा से किया जा रहा है, किस कामना को पूर्ण करने के लिए प्रयत्न किया जा रहा है, वह इच्छा ही यह निर्धारित करेगी कि - कार्य सही दिशा में हो रहा है नहीं। किसी परिवर्तन-शील वस्तु (कामिनी -कांचन या नामयश) को प्राप्त करने की कामना मन में रखकर कोई काम करने से उस कार्य को सही दिशा में किया कार्य नहीं कहा जा सकता । जो अच्छा है, अपरिवर्तनीय है -केवल उसी (अविनाशी आत्मा) को प्राप्त करने की कामना से  किये कर्म को ही सही प्रयत्न कहा जा सकता है। क्योंकि अच्छा को (शाश्वत अविनाशी आत्मा को)  पाने की कामना को कामना नहीं कहा जाता है। और इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से कर्म करने को ही 'कर्मयोग' कहा जाता है। 
        सर्वप्रथम 'नेति, नेति' करते हुए जगत के समस्त परिवर्तनशील वस्तुओं से (शरीर,मन से) अच्छा को या अपरिवर्तनीय वस्तु (आत्मा या शरीरी) को पृथक कर लेना पड़ता है। जो बुद्धि असत्य में से सत्य को, अनित्य (नश्वर वस्तुओं देह-मन) में से अविनाशी 'वस्तु' (आत्मा) का अविष्कार कर सकती हो उसी को 'मनीषा' कहते हैं। 
[अर्थात पहले असत्य मार्ग पर चलकर ही सत्य वस्तु  को प्राप्त किया जा सकता है;(Apparent 'I' की सहायता से ही  Real "I" को प्राप्त किया जा सकता है।); तात्पर्य कि मिथ्या प्रतिबिम्ब के द्वारा ही सत्य बिम्ब का अनुमान सम्भव है; यह देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि अनृत या जड़ ही हैं तथापि इन्हीं के द्वारा हम अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश, विशुद्ध, परात्पर परब्रह्म को जान लेते हैं।] श्रमद्भागवत में भगवान श्री कृष्ण उद्धव को उपदेश देते हुए कहते हैं - 

एषा बुद्धिमतां बुद्धिः, मनीषा च मनीषिणाम्।

यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।। 

उद्धवजी ! विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई (मनीषा) की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्व (आत्मा) को प्राप्त कर लें। 
[मर्त्य (नश्वर देह-मन) के द्वारा अमृतत्व  को प्राप्त कर लेना (अविनाशी आत्मा को प्राप्त कर लेना) ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी एवं मनीषियों को मनीषा है। दूसरे शब्दों में जो मनुष्य अपरिवर्तनीय आत्मा (ईष्ट देव-अवतार वरिष्ठ) की प्राप्ति के लिये यत्न न कर केवल विषयभोगों  में ही लगा हुआ है वह न तो ज्ञानी हैं और न मनीषी है!] 
             विवेक-विचार करके जो अच्छा नहीं है, अर्थात जो सदा परिवर्तनशील है, नश्वर, क्षण-भंगुर और अनित्य पदार्थ है, उसमें से जो सचमुच अच्छा है, अपरिवर्तनीय, नित्य 'वस्तु' (शरीरी आत्मा) को प्राप्त करने के लिये समस्त प्रयत्न  करना आवश्यक है। स्वयं जिस अविनाशी नित्य वस्तु (आत्मा) को  प्राप्त करने के बाद, ऐसा प्रतीत हो कि दूसरों को भी उसे प्राप्त करने में सहायता करना आवश्यक है, इस सत -इच्छा के चयन करने की क्षमता को ही 'विवेक' कहते हैं। यह भी एक सही दिशा में किया गया प्रयत्न है। इस प्रयत्न (विवेक-प्रयोग) का नाम ही- ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग के धरातल पर खड़े होकर कर्म करने से वह कर्मयोग बन जाता है। 
        इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कार्य को सही मार्ग पर संचालित रखने के लिये ज्ञान -विवेक (सत्य-असत्य -मिथ्या में विवेक प्रयोग) सीखना अनिवार्य है। फिर विवेक-प्रयोग की क्षमता को निरंतर जाग्रत रखने के लिये एकनिष्ठता आवश्यक है। किसके प्रति ? जो सचमुच अच्छा है, हमारे भीतर जो अपरिवर्तनीय 'वस्तु' (अविनाशी,आत्मा या ईष्टदेव) है, उसके प्रति एकनिष्ठ रहना परम आवश्यक है। क्योंकि जो सचमुच अच्छा (अपरिवर्तनीय) है, उसको एकनिष्ठ होकर प्रेम नहीं करने से, उस प्रेम में कोई परिवर्तन होने से, जीवन का उद्देश्य- आदर्श कुछ भी प्राप्त नहीं होता है, सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाता है। 'भालोर प्रति' उस अच्छा (अपरिवर्तनीय) के प्रति ऐसा अपरिवर्तनीय प्रेम, उद्देश्य (ईश्वरलाभ) की दिशा में किये जाने वाले समस्त प्रयत्नों की एकमुखीनता, यही तो भक्तियोग का मूल तत्व है! प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने मन की भावनाओं के अनुरूप अच्छा के अमूर्त विचार (ईश्वर का निर्गुण निराकार रूप ॐ) या अच्छा के विभिन्न चित्रों (मूर्त रूप) में से किसी एक का आश्रय ग्रहण कर, अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उसके चरणों में अर्पित करता है। भक्ति का उद्देश्य समस्त प्रयत्न को अपरिवर्तनीय अच्छा को प्राप्त करने की दिशा में एक-मुखीनता, प्रयत्न की एकनिष्ठा। 
     आत्मचिंतन या आत्मावलोकन की इच्छा या संकल्प किये बिना कोई भी सही दिशा में कार्य (प्रयत्न) नहीं होता, तथा सभी संकल्प मन में ही होते हैं। महाभारत में कहा गया है-

आत्मा/ज्ञान जन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। 

कृतिजन्या भवेच्चेष्टा, चेष्टाजन्या क्रिया भवेत्॥

[ किसी प्रयोजन (Purpose या उद्देश्य) का ज्ञान होने से उसका पूर्ति के लिए इच्छा उत्पन्न होती  है। उस इच्छा के कारण साध्य-साधन ज्ञान होने पर हम उसी प्रकार चेष्टा करते हैं। उस चेष्टा का परिणाम क्रिया के रूप में प्रकट होता है।] 
-मन से ही इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा दृढ़ होकर संकल्प (
volition) बन जाती है ।  फिर उसी संकल्प पर अटल रहते हुए मनुष्य प्रयत्न करता है। प्रयत्न (उद्यम) करने से क्रिया सम्पन्न हो जाती है। इसीलिए किसी भी कार्य में मन की शक्ति को नियोजित करना पड़ता है। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि निर्णय, विवेक-प्रयोग, या ज्ञान सभी मन के ही कार्य हैं। अच्छा को प्रेम करना, या भक्ति करना सब मन के द्वारा सम्पन्न होता है। अतएव उपरोक्त तीनों प्रकार के योग या प्रयत्न करने के लिये इस मन को नियंत्रण में रखना या संयिमत रखना आवश्यक है। और चूँकि यह मनःसंयोग समस्त प्रयत्न का (योगों का) नियन्त्रक है इसीलिये इसको ' राजयोग ' कहा जाता है।        
         स्वामी विवेकानन्द ने इन्हीं चार प्रकार के प्रयत्न या योग की सहायता से भारत के राष्ट्रीय आदर्श- ' त्याग और सेवा ' को कार्यान्वित करने का परामर्श दिया है। और ये दोनों विचार मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। 'त्याग' ही दूसरी जगह 'सेवा' के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। यह त्याग ही ईश्वरीय-विधान है। अर्थात इस त्याग के नियम (दैवी नियम) का उलंघन नहीं किया जा सकता है। इस नियम का उलंघन करने से (इन्द्रियभोगसे) अकल्याण होता है।  किन्तु कल्याण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ! और जो यथार्थ में अच्छा है, वह अपरिवर्तनीय, अविनाशी, नित्य, सत्य तथा  ध्रुव है- इसीलिये कल्याण है। त्याग के इस विधान के द्वारा ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता है। उन्हीं श्रीरामकृष्ण के निर्देशानुसार जो खुद 'त्यागीश्वर' थे त्यागियों के बादशाह थे, स्वामी विवेकानन्द युवा समुदाय को इस त्याग के विधान (ऐषणाओं से अनासक्त होना -'निवृत्ति अस्तु महफला') सिखाना चाहते थे। 
[त्यागियों के बादशाह श्रीरामकृष्ण के 'त्याग और सेवा' का प्रतिक है भगिनी निवेदिता द्वारा डिजाईन किया हुआ महामण्डल का बज्राङ्कित ध्वज। उसी त्याग के कानून को सिखाने के लिए स्वामीजी (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make लीडरशिप परम्परा में) सभी युवाओं को उसी श्रीरामकृष्ण पताका के नीचे  एकत्र करना चाहते हैं।] 
           युवा समुदाय को इस त्याग के आदर्श से अनुप्रेरित करने की आवश्यकता इसीलिए है क्योंकि 'त्याग' के आलावा अन्य किसी उपाय से भारत का कल्याण नहीं हो सकता है और युवा वर्ग ही इस वृहत समाज का शक्ति-केन्द्र है। कल्याण के साधन स्वरुप इस शक्तिकेन्द्र में 'त्याग' को प्रतिष्ठित करा देना अत्यंत आवश्यक है। सभी प्रकार की अच्छाइयों के बीज युवावस्था में पैदा होते हैं, लेकिन वे सुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। उन्हीं इस सूप्त अच्छे बीज को युवा समुदाय के भीतर अंकुरित, और प्रस्फुटित करा देना ही समस्त समाज-कल्याण कार्यक्रमों (Social welfare works) का प्राथमिक कार्य होना चाहिए।  क्योंकि युवा-समुदाय में ही समस्त उर्जा, प्राण (जीवन) और संभावना है।  स्वामी जी इसी युवा शक्ति को उद्घाटित करना चाहते थे, उस जीवनदायिनी शक्ति का जागरण और उसकी अनन्त क्षमता को विकसित करना चाहते थे। उस जीवनदायिनी शक्ति और क्षमता के अभिव्यक्त होने पर ही समाज का यथार्थ कल्याण हो सकता है। अन्य किसी उपाय से वह संभव नहीं है। इसीलिए स्वामीजी ने युवा समाज को मनुष्य जीवन का उद्देश्य और आदर्श का निर्देश देने के साथ साथ उसको प्राप्त करने का प्रयत्नरूपी ' चतुर्विध उपाय' भी बता दिया था। वशीभूत मन की सहायता से, आदर्श के प्रति एकनिष्ठा और सत-असत -मिथ्या के विवेकज ज्ञान' को प्राप्त कर के अपना और अपने देश का कल्याण करने के लिए कार्य करने में सक्षम मनुष्य रूप में अपने जीवन को गढ़ लेना, या अपने चरित्र को उपयुक्त तरीके से गठित करना ही यथार्थ धर्म है। स्वामीजी चाहते थे युवा समुदाय उसी चरित्रगठन रूपी धर्म को प्राप्त करे। 
   "The Man-making and character or Life-Building education/ Religion ! आज के युवाओं या उनके अभिभावकों को इस प्रकार की बातों को सुनने का विशेष अवसर नहीं मिल पाता है, दोनों युवाओं की आम समस्या को लेकर चिन्तित रहते हैं एवं उसके समाधान के व्यर्थ के प्रयासों में प्रायः सभी प्रयत्न (योग) के प्रति उत्साह खो देते है। जबतक समाज के 'शक्तिकेंद्र' युवावर्ग के जीवन गठन की समस्या का 'उपयुक्त समाधान' नहीं निकल जाता तब तक युवा समुदाय में प्रचलित समस्यायों [नौकरी दो! आरक्षण दो!] यदि कोई समाधान हो भी गया, तो उससे समाज का यथार्थ कल्याण साधित नहीं होगा। इसीलिये "जीवन-गठन" रूपी धर्म, पद्धति या प्रयत्न की शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना नितान्त आवश्यक है। जबकि प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में उसका कोई स्थान नहीं है। इसीलिए रोजगारोन्मुखी या तकनीकी शिक्षा के प्रचार-प्रसार से आशानुरूप कोई फल प्राप्त नहीं हुआ - और होने की कोई सम्भावना भी नहीं है।
           युवा सम्प्रदाय की समस्या की जड़ कहीं और ही है। जीवन-गठन की समस्या ही मूल समस्या है।  प्रत्येक वस्तु की अपनी- अपनी शक्ति के साथ समग्र जगत का घात-प्रतिघात निरंतर चल रहा है। प्रत्येक व्यक्ति या युवाओं के जीवन में भी यही घटित हो रहा है। उसकी शक्ति और बाह्य जगत की शक्तियों के बीच घात-प्रतिघात चल रहा है। किसी विशेष क्षण में इस घात-प्रतिघात (कैरमबोर्ड स्ट्राइकर)  का अंतिम परिणाम ही उस क्षण की जीवन -अवस्था को निर्धारित करती है। यदि बाह्य-जगत की शक्ति (घोरस्वार्थपरता या ऐषणाओं में आसक्ति) उसकी आन्तरिक शक्ति (अन्तर्निहित दिव्यता) को पराजित कर देती है, तो उसके जीवन-पुष्प (दिव्यत्व) के प्रस्फुटन में बाधा पहुँचती है, और वह शक्तिहीन होकर 'परिवेश' [परिवार, जैसा भाई या दोस्त मिला] का दास तथा ऐतिहासिक खेल की कठपुतली मात्र बनकर रह जाता है। और यही सबसे बड़ी समस्या है।  
               कोई युवा यदि अपने जीवन के 'आदर्श और उद्देश्य ' से अनुप्रेरित होकर ' विवेक-प्रयोग' के साथ उद्यम करने की पद्धति से  पूर्णतया अवगत होकर (अर्थात 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति से  पूर्णतया अवगत होकर), यदि बाधक शक्तियों के साथ (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति के विरुद्ध) निरंतर संग्राम करता है, तभी उसका जीवन गठन, चरित्र-निर्माण या सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है। स्वामीजी ने कहा था - "युगों युगों तक संघर्ष करने के बाद एक चरित्र का निर्माण होता है। 'मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता है। वे कहते हैं, " कोई मनुष्य जब तक इस प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करता रहता है, तभी तक उसको मनुष्य कहा जा सकता है। जो पराजय स्वीकार कर लेता है, वह मनुष्य नहीं रह जाता। 
   यह प्रकृति लेकिन केवल बाह्य जगत में ही नहीं है। बाह्य प्रकृति की तरह हमारे भीतर भी एक प्रकृति है। उस अन्तः प्रकृति का आधार है- हमारा मन, इस मन में ही हमलोगों की समस्त शक्तियाँ निहित हैं। हमारी 'इन्द्रियाँ' बाह्य-जगत के साथ (इन्द्रियग्राह्य जगत के साथ) हमारे मन को जोड़ देती हैं। हमलोग विज्ञान की सहायता से बाह्य जगत की बड़ी- बड़ी शक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं तथा  उनपर प्रभुत्व स्थापित कर अपने दैनन्दिन जीवन में उपयोग में ला सकते हैं। किन्तु, वाह्य जगत की समस्त वस्तुओं के भीतर जो इन्द्रिय विषयों के संवेदक होते हैं , वे उन ऐन्द्रिक -संवेदनाओं (sense-datum) को नियंत्रित करने में वाह्य -विज्ञान अक्षम है। प्रत्येक दृष्टिगोचर पदार्थ में जो रूप-रस-गंध -शब्द स्पर्श आदि इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाली शक्ति (Inciting force) है उस पर नियंत्रण पाना विज्ञान की शक्ति से बाहर है। हमलोग उसका कुछ नहीं कर सकते। किन्तु  इन्द्रिय नामक जिस यंत्र के माध्यम से बाह्य वस्तु की सूचनाएं (मुलायम-कठोर) मन में आकर उसे उत्तेजित कर देतीं हैं, उन इन्द्रियों के संयम द्वारा हम अपने मन को उन इन्द्रिय संवेदी विषयों के प्रभाव में आने से रक्षा कर सकते हैं। हमलोग बाह्य जगत की शक्ति के प्रभाव से आत्मरक्षा और आत्मविकास करने में अपने मन को संयमित करके , मन में उठने वाली इच्छाओं , कामनाओं  आदि को संयमित कर सकते हैं। जब हम अपने मन को वश में रखना सीख जाते हैं, तब हमलोग वाह्य  और  आन्तरिक दोनों प्रकृति की गुलामी फिर नहीं करते हैं। ( भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त या D-hypnotized हो जाते हैं।)  फिर हमलोग परिवेश या इतिहास (जन्मजन्मांतर के अभ्यास) के कारण कामना या कांचन का दासत्व नहीं करते हैं। मन को वशीभूत करने के संग्राम में जय-पराजय की सम्भावना ही युवा-जीवन की मूल समस्या है। और युवा नेता स्वामी विवेकानन्द ने, इसी समस्या के समाधान का मार्ग दिखलाया है। 
            इस समस्या के समाधान के मार्ग पर चलने वाला प्रत्येक विजयी युवा आन्तरिक अनन्त शक्ति का अधिकारी बन सकता है। वह अपने परिवेश एवं इतिहास का रचयिता हो सकता है, स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बन सकता है। वह अपने जीवन को उदाहरण-स्वरूप गढ़कर   दूसरों को भी कल्याण या धन्यता प्राप्त करने की प्रेरणा दे सकता है। केवल ऐसा 'मनुष्य' बनने और बनाने से ही समाज का सच्चा भला हो सकता है। अब वह समय आ गया है, जब देश के शिक्षकों, अभिभावकों तथा वैसे लोग जो देश के कल्याण की बात सोचते हैं उन्हें इस विषय से अवगत करा दिया जाय। समाज में अनेकों समस्याएं हैं, निश्चित ही उसके कारण भी हैं। किन्तु उन समस्त समस्याओं के उपर उत्तेजित होकर क्षोभ व्यक्त करते हुए इसके लिये किसी व्यक्ति या दल को दोषी ठहरा कर, उनके प्रति  कटु-वाक्यों का प्रयोग करते रहने से इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। समस्या के समाधान के लिये संगठित होकर प्रयत्न करने की आवश्यकता है। और इस प्रयत्न की शुरुआत स्वयं से करनी होगी। 
        समाज में विद्यमान निराशा के बीच, बहुसंख्यक लोगों की दृष्टि से में आये बिना एक बड़ी संख्या में युवा लोग स्वामी विवेकानन्द  के 'मनुष्य -निर्माण, जीवन-गठन और चरित्र-निर्माणकारी' शिक्षा, प्रयत्न, जीवन का आदर्श और उद्देश्य के प्रति आकृष्ट होते जा रहे हैं। स्वामीजी कहते हैं- " हे मानव, हम तुम्हें मृत की पूजा छोड़ कर, जीवन्त देवता की पूजा करने का आह्वान कर रहे हैं। अतीत में जो हो गया उसको लेकर सिर पीटना छोड़ कर वर्तमान में प्रयत्न करने का आह्वान करते हैं।" " अहं ब्रह्मास्मि ' सुनकर समझ गया हूँ, या विश्वास करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ"-इतना सब केवल कह देने भर से ही , क्या दूसरे लोग हमारी योजना में विश्वास कर लेंगे ? हृदय की समस्त भावनाएं- (भावमुखी रहते हुए) हमारे  जीवन और व्यवहार में दिखनी चाहिए।  उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ है ! "
         भारत की वर्तमान भ्रष्ट अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए, जगत के कल्याण के लिये, स्वामी विवेकानन्द के कंठ से युवा समुदाय के लिए,  दीन-दुखी, बीमार, मूर्ख, भूखे, पददलित, उपेक्षित भारत की संतानों की मुक्ति के लिये, अपना जीवन अर्पण करने का आह्वान निरंतर ध्वनित होता रहता है। वर्तमान-युग में युवा समुदाय के सामने दो प्रकार के आह्वान हैं। वे इन दोनों आह्वानों में  किस आह्वान को सुनेंगे इसी के ऊपर देश का भविष्य निर्भर करता है। प्रत्येक युवा का उसके अपने अगठित, असंस्कृत मन से, तथा समाज, परिवार, यहाँ तक कि  सम्पूर्ण बाह्य जगत से भोग करने का आह्वान हो रहा है। तो दूसरा आह्वान स्वामी जी का है - " युवाओं, तुम अपने मंगल के लिये, अपनी अन्तर्निहित, अपरिवर्तनीय, अच्छा (अन्तर्निहित दिव्यता) के विकास और अभिव्यक्ति  के लिए समस्त प्रकार के भोगों के प्रलोभन को त्याग दो; और नचिकेता के जैसी श्रद्धा और आत्मविश्वास पर दृढता पूर्वक निर्भर रहते हुए सम्पूर्ण जगत के कल्याण का विधान ' त्याग और सेवा ' के व्रत को  प्रबल उत्साह के साथ वरण कर लो । और युवा समुदाय में निहित असीम शक्ति ही इन दोनों आह्वानों- 'भोग और त्याग' में से एक का चयन करने के लिए (नचिकेता के जैसा ) अपने विवेक को जाग्रत कर सकती है। स्वामी विवेकानन्द युवा समाज को उसी शक्तियोग में दीक्षित करना (विवेक-प्रयोग क्षमता के विकास में दीक्षित करना) चाहते थे।
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" इन्द्रिय द्वारा प्रदत्त सनसनी या उत्तेजना (sense-datum, Sensations)" -  जैसे रसगुल्ला देखकर मुँह में पानी आना होते हैं उन 'sense-datum ' या इन्द्रिय प्रदत्त ' संवेदनाओं (Sensations- सनसनी, खलबली या उत्तेजना)  को नियंत्रित करने में बाह्य विज्ञान अक्षम है। इस इन्द्रिय प्रदत्त भँवर (whirlpool) से मन को खींचने का विज्ञान, स्थितप्रज्ञ बनने का अन्तः विज्ञान है मनःसंयोग!
दृष्टि गोचर जगत की समस्त वस्तुओं  के भीतर जो  इन्द्रिय के विषय-संवेदक उत्पन्न करने की शक्ति रहती है,उदाहरण "रूप, रस, शब्द , गंध स्पर्श की अनुभूति।" 
इसीलिये इस बार (अवतार वरिष्ठ ठाकुर अवतार) में अपने साथ "निवृत्तिमार्गी सप्तऋषियों" में से एक स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर अवतरित हुए हैं। केवल मुख से नहीं कहा था, कागज के उपर लिख कर चपरास दिया था -
 " जय राधे प्रेममयी ! नरेन शिक्षे दिबे, जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे ! जय राधे !! " 
अर्थात-" जय राधे प्रेममयी ! नरेन्द्र शिक्षा देगा, जब घर और बाहर में हूँकार देगा। जय राधे ! " नरेन्द्रनाथ को भावी लोक-शिक्षक या अधिकारी पुरुष का केवल लिखित 'चपरास' देकर ही नहीं रुके। उसी क्षण सहज भावावेग में, उन्होंने अपने हाथों से बयान के नीचे एक गूढ़ (Esoteric) रेखा-चित्र भी अंकित कर दिया। उस रेखा-चित्र में ठाकुर ने सिर से गले तक के एक मानव-मुखड़े को उकेरा था। 
       उस आवक्ष-मुखाकृति के विशाल नेत्रों की दृष्टि प्रशान्त है, और एक 'लम्बी पूंछवाला धावमान मयूर' उस मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ उसके पीछे-पीछे चल रहा है। मानो चपरास प्रदानकर्ता त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण उस लोक-शिक्षक की पृष्ठभूमि में विदयमान हैं, और उस नव-निर्वाचित भावी लोक-शिक्षक नरेन्द्रनाथ के पीछे-पीछे स्वयं चल रहे हैं। वह रेखा-चित्र वास्तव में भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और आध्यात्मिकता' की उच्चतम अभिव्यंजनाओं से परिपूर्ण एक अत्यन्त मनोरम चित्र था।]  
ठाकुरदेव ने जैसे लिख कर कहा था-" नरेन् शिक्षा देगा" (নরেন শিক্ষা দেবে) ** अर्थात-निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में से एक नरेन् (नरेन्द्र) जगत को आंतरिक इंजीनियरिंग (Internal Engineering) की शिक्षा देगा।
 जैसे एक गुलाब के फूल मैंने अभी सूंघा तो उसके विशिष्ट गन्ध की एक छाप हमारे चित्त में संचित हो जाती है,फिर बाद में उसे दूर से देखने पर या स्मरण करने से भी उसकी विशिष्ट गन्ध मन में उभर आती है। 

अली-मृग-मीन-पतंग-गज जरै एक ही आँच !
 तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावे पाँच ?

  इन्द्रिय के विषय-संवेदक या 'sense-datum' से उत्पन्न  संवेदनाओं 'Sensations' के भँवर (whirlpool) से मन को खींच लेने में विज्ञान अक्षम है !  तीनो ऐषणाओं की 'वृत्ति ' [whirlpool- वित्तेषणा, पुत्रेष्णा, लोकेषणा या कामिनी-कांचन और नाम-यश की चाह] में से किसी 'वृत्ति ' का दासत्व करने को बाध्य नहीं किये जा सकते, क्योंकि तब हम अभीः बन जाते है।
फिर हमलोग परिवेश या इतिहास (जन्मजन्मांतर के अभ्यास) के कारण तीनो ऐषणाओं की 'वृत्ति ' [whirlpool- वित्तेषणा,पुत्रेष्णा, लोकेषणा या कामिनी-कांचन और नाम-यश की चाह] में से किसी 'वृत्ति ' का दासत्व करने को बाध्य नहीं किये जा सकते, क्योंकि तब हम अभीः बन जाते है।
अन्तः प्रकृति को जीतने का एक अलग विज्ञान है, एक भिन्न प्रकार की आंतरिक इंजीनियरिंग (Internal Engineering) है । जिन इन्द्रियों (सेन्स ऑर्गन) के माध्यम से इन्द्रियगोचर वस्तुएं हमारे मन को उत्तेजित कर देती हैं, उन इन्द्रियों को संयमित करके हम बाह्य जगत की शक्ति के प्रभाव से अपनी रक्षा कर सकते हैं तथा 'इच्छाशक्ति के विकास और प्रवाह' को अपने नियंत्रण में रखने की पद्धति -मनःसंयोग सीखकर, आत्म-विकास कर सकते हैं। मन को वशीभूत करने के संग्राम में जय-पराजय की सम्भावना ही युवा-जीवन की मूल समस्या है। और युवा नेता (युवा आदर्श) स्वामी विवेकानन्द ने, इसी समस्या के समाधान का मार्ग दिखलाया है। 
     वैसे ही आचार्य की छड़ी (सेंगोल Sengol)  राजयोग (पातंजल-योगसूत्र) के गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित 'सेन्स डेटा संयम प्रशिक्षक' (Sense Data Restraint trainer) के होने का चपरास या सेंगोल (Sengol) प्राप्त आचार्य /लोक-शिक्षक का प्रतीक है। वैसी ही दादा की छड़ी कोन्नगर महामण्डल भवन में रखी है। कैम्प शुरू होने से पहले उस छड़ी को लाकर महामण्डल ऑफिस में रखना होगा। वह छड़ी सौंदर्य-बोध, संवेदना,  इंद्रिय खलबली, इंद्रिय प्रभाव आदि पर संयम रखने में समर्थ प्रशिक्षक [C-IN-C of Sense-Datum :-सेंस डेटम में संयम का प्रतीक है]  संवेदना डेटा का   पर्यायवाची शब्द है "रूप, रस, शब्द, गंध स्पर्श की अनुभूति का संयम " या "प्रवृत्ति मार्ग के -निवृत्ति अस्तु महाफला के भावी प्रशिक्षकों को प्रशिक्षण देना "
    स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में प्रशिक्षित और स्वामीजी से  लोकशिक्षक होने का चपरास प्राप्त  CINC नवनी दा ने 2016 के जमशेदपुर इन्टरस्टेट कैप में कुर्सी के हत्थे पर पर उसी आचार्य की छड़ी या सेंगोल को रखने के बाद तुम लोगों को आंतरिक इंजीनियरिंग/ या धर्म  (Internal Engineering- Sense Data Restraint) की शिक्षा दोगे।   धर्म का सार तत्व मंदिर, तीर्थ, पूजा-पाठ आदि में नहीं है, बल्कि अपने यथार्थ स्वरुप की अनुभूति या आत्मोलब्धि ही धर्म है।"  जैसे तोतापुरीजी ने काँच के नोक ठाकुर की आज्ञाचक्र पर गड़ाते हुए कहा था - काली की मूर्ति पर से मन को हटाकर निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का चिंतन क्यों सम्भव नहीं होगा ? Are you a beast ? “মন কোরবি তুমি  এক 'জন-শিক্ষক!'  --क्या तुम पशु हो , जो अपनी पाशविक वृत्ति पर (ऐषणाओं पर) संयम नहीं रख सकते ?  "मोने कोरबी तुमि एक जन-शिक्षक ! याद रखना कि तुम एक लोक-शिक्षक हो! " 
>सेंगोल या राजदंड का महत्व : सेंगोल क्या है ? जिसे पीएम मोदी ने नए संसद भवन में स्थापित किया है?
भारतीय संस्कृति में जब भी किसी राजा का राज्याभिषेक होता था तो वह एक बहुत ही पवित्र क्षण माना जाता था और उस अवसर पर राजा को तीन राजकीय चीजें प्रदान की जाती थीं।  मुकुट, शाही तलवार और सेंगोल या राजदंड राजा को दिया जाता था।  मुकुट राजा के नेतृत्व, तलवार उसके विरोधियों को रोकने का प्रतीक,  और राजदंड विधि के शासन का प्रतीक था जिससे प्रजा के अधिकारों, नैतिकता और न्याय की रक्षा हो सके।  ये तीनों प्रतीक पीढ़ी दर पीढ़ी राजवंशों में आगे दे दिए जाते थे।  सेंगोल तमिल भाषा का शब्द है और इसका अर्थ संपदा से संपन्न और ऐतिहासिक है। सेंगोल शब्द का अर्थ नेता , राजा या लोकशिक्षक के भाव और नीति का पालन करने से है।  
जब अंग्रेजों ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को सत्ता सौंपी तो तिरुववतु तुरई अधीनम का प्रतिनिधित्व करनने वाले तम्बीरन ने एक सेंगोल उन्हें भूमिके प्रशासन में भूमिका के प्रतीक के तौर पर प्रदान की थी.  उस समय उन्होंने ऐसे मंत्र भी पढ़े थे जिसमें विधि और न्याय  के शासन को सौंपने की बात थी. उसी परंपरा को नई संसद के उद्घाटन के दौरान फिर से स्थापित करने का कार्य किया गया है जिसे इस बार भी अधीनम के संतों ने प्रतिष्ठित किया है। 
देश के गृह मंत्री अमित शाह का दावा है कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 14 अगस्त, 1947 को तमिल पुजारियों के हाथों सेंगोल स्वीकार किया था। नेहरू ने सी. राजगोपालचारी के परामर्श पर इसे अंग्रेज़ों से भारत को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के तौर पर स्वीकार किया था। सेंगोल चोल साम्राज्य से संबंध रखता है और इस पर नंदी भी बने हुए हैं। बाद में इसे नेहरू ने एक म्यूज़ियम में रख दिया था और तब से सेंगोल म्यूज़ियम में ही रखा हुआ था। 
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज 28 मई, 2023 को दिल्ली में संसद के नए भवन का उद्घाटन करने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को तमिलनाडु के अधीनम मठ से सेंगोल स्वीकार किया और इसे लोकसभा अध्यक्ष के आसन के पास स्थापित किया गया है।आखिर इस खास समारोह के अनुष्ठान के लिए तमिलनाडु के अधीनम संतों को ही क्यों बुलाया गया, उनका सेंगोल से क्या नाता है? और तमिलनाडु में उनकी क्या और किस तरह की हैसियत या प्रभाव है ? 
  तमिलनाडु में अधीनम एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ 'शैव मठ 'है। 16 वीं शताब्दी के दौरान अधीनम की स्थापना की गई थी। मदुरै अधीनम के 293वें प्रधान पुजारी हरिहरा दास स्वामीगल ने सेंगोल प्रधानमंत्री मोदी को भेंट किया। इस बीच समाजवादी पार्टी ने अधीनम संतों को कट्टरवादी ब्राह्मण बताया गया था। सोशल मीडिया पर भी अधीनम संतों को लेकर काफी बहस चली।अधीनम के बारे में एक बात जो कम लोग जानते हैं वे संत तो हैं, लेकिन ब्राह्मण नहीं होते हैं।  अधीनम को ब्राह्मण नहीं बल्कि ओबीसी और पिछड़ा वर्ग संचालित करते हैं। हर अधीनम की अलग ही जाति और क्षेत्रीय विशेषता है।   वे अपनी पारम्परिक मूल्यों  (राजयोग पतंजलि-योगसूत्र, भक्ति योग आदि ) को शिक्षा के जरिए अपने शिष्यों को प्रदान करते हैं और इस तरह से शैव संस्कृति और मत को कायम रखते हैं।  वे अपने इलाके के धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों तक ही खुद को सीमित रखते हैं।  एक समय में उनका बहुत प्रभाव था। 
 अधीनम क्या हैं?
अधीनम एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ शैव मठ है। अधीनम तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मण शैव मठवासी मठ हैं। लगभग 20 मुख्य अधीनम हैं। अधीनम से प्रत्येक के पास सैकड़ों करोड़ की संपत्ति है। एक अधिनम का अर्थ एक मठ या उसका पुजारी हो सकता है, जिसे अधीनकार्थर भी कहा जाता है। प्रत्येक अधीनम की एक विशिष्ट जाति और क्षेत्रीय विशेषता है। तिरुवदुथुराई और मदुरै में अधीनम के प्रमुख पारंपरिक रूप से इस क्षेत्र में प्रमुख शैवा पिल्लई या मुदलियार समुदायों से हैं। पेरूर और सिरूर में अधीनम का नेतृत्व गौंडरों द्वारा किया जाता है। यह पश्चिमी तमिलनाडु में संख्यात्मक रूप से प्रभावशाली हैं। चेट्टिनाड बेल्ट में कुंद्राकुडी अधीनम का नेतृत्व एक चेट्टियार करता है।
अलग अलग क्षेत्र के अलग तरह के अधीनम होते हैं।  पेरूर और सिरूर के अधीनम प्रमुख गौडार होते हैं पश्चिमी तमिलाडु में ये बड़ी संख्या में हं।  तिरुवदुथुरै और मदुरै के अधीनम शिव पैल्लई या मृदुलियार समाज के होते हैं।  वहीं चेट्टिनाड के कुंद्राकुडी अधीनम प्रमुख (पेरुमल?)
 चेट्टियार होते हैं। इस तरह से अधीनम का जातीय महत्व नही बल्कि सामाजिक महत्व ज्यादा दिखाई देता है।  फिर भी इनके हाथों में मठों के अलावा प्राचीन मंदिरों का संचालन है।  सदियों से ये शैव दर्शन और तमिल साहित्य को बढ़ावा देते रहे हैं।  इनकी मदद से दुर्लभ ताड़ की पत्तों की पांडलिपियों को खोजने और उन्हें प्रकाशित करवाने में काफी सफलता भी मिली है।  इनकी सम्पत्ति और जमीन इन्हें और भी शक्तिशाली बना देती है। 
  प्राचीन काल में चोल, चेरा और पांड्या राजाओं का इन्हें संरक्षण मिला करता था. मदुरै के अधिनम को 1300 साल पुराना माना जाता और उसके वर्तमान अधीनमकार्थर 293 वें प्रमुख माने जाते हैं. अधीनम का पुजारी कैसे चुना जाता है? एक अधीनम या अधीनाकार बनने में दशकों की कठोर गुरुकुल (पतंजलि योगसूत्र?) शिक्षा, तमिल भक्ति साहित्य पर छात्रवृत्ति और सेवा करने वाले प्रमुखों की सेवा शामिल है। भिक्षु 'पंडाराम' के रूप में शुरू करते हैं। वे सीढ़ी को 'थंबुरांस' और 'मुख्य थंबुरांस' नामित करने के लिए आगे बढ़ते हैं। राज करने वाला पुजारी आम तौर पर अपने प्रमुख शिष्यों में अपने उत्तराधिकारी का चयन करता है। मंदिरों को प्रशासन कम्युनिस्ट और 'ढोंगी सेक्युलर' सरकार के हाथों में आने से अब उनकी उस तरह की आय नहीं होती है जैसी पहले हुआ करती थी।  वे खुद को सक्रिय राजनीति से दूर रखते हैं और उनके अनुयायी भी इससे दूर रहते हैं।
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       अनेक बार कुछ अल्पज्ञानी शिक्षक या नेता  लोगों के बीच बैठकर अपने ज्ञान का बखान सार्वजनिक रूप से, यह सोचकर  करते हैं कि वे दूसरों को सुधार लेंगे और समाज में नाम-यश (बुद्धिमान का दर्जा) पायेंगे। यह उनके (नरेन्द्र के फ्रैन्डो प्रताप चन्द्र हाजरा जैसा) अपूर्ण ज्ञान का ही परिचायक है। क्योंकि वैसे लोग पीठ पीछे लोगों की हंसी का पात्र बनते हैं। अनेक बार उनको ' ज्ञानी-जी ' या 'स्वामी-जी ' कहकर मजाक भी बनाया जाता है। जबकि सामान्यजन उनको केवल बकवादी समझते हैं।       
        दरअसल इस संसार के विषय-भोग इतने व्यापक और आकर्षक हैं कि अधिकांश लोग इन्द्रिय भोगों में रचे-पचे रहते हैं, या और अधिक मात्रा में भोग करने के लिये स्वर्ग जाना चाहते हैं उनके लिये उनका मोह, लोभ और क्रोध ही सत्य है। अल्पज्ञानी लोग इस मोह या आसक्ति के त्याग के विधान को नहीं जानते। पर तत्व-ज्ञानी श्रीमद्भागत गीता में वर्णित यह तथ्य नहीं भूलते जिसमें भगवान ने कहा है कि हजारों में भी कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजारों में से कोई एक मुझे पाता है। 
     स्पष्टतः यही कहा गया है, कि सामान्य 'गृहस्थ लोगों' में (या सन्यासियों का चोंगा ओढ़ने वालों में ?) ज्ञानी उंगलियों पर गिनने लायक ही होंगे। साधारणतया गृहस्थ लोगों में काम, क्रोध, मोह और अज्ञान का ऐसा जाल छाया रहता है, इतने हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं कि वे अपने इन्द्रिय आसक्ति या निजी स्वार्थों से पृथक  नहीं हो सकते। जिनकी उम्र बहुत अधिक हो गयी है, जीवन के कई थपेड़े खा चुके हैं, फिर भी जो अपनी दुष्टता और मूर्खता नहीं छोड़ रहे हैं, ऐसे लोगों के साथ तो यह अपेक्षा कभी करना भी  नहीं चाहिए कि वह कभी सुधरेंगे, उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ देना चाहिये । उनको सुधारने का प्रयास करना केवल अपना समय और ऊर्जा को नष्ट करना ही है।
                  यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
            लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥९॥
जिसके पास अपनी कोई अकल (बुद्धि) नहीं है, उसकी वेद-शास्त्र भला क्या भलाई करेंगे ? वैसे ही जैसे अंधा व्यक्ति दर्पण का क्या करेगा ?

               दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो नहि भूतले ।

                 अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत॥१०॥

दुर्जन व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिये भूमि पर कोई भी उपाय नहीं है, जैसे आप पृष्ठ भाग को चाहे 
सौ प्रकार से साफ़ करे वो श्रेष्ठ भागो की बराबरी नहीं कर सकता। 

"নরেন শিক্ষা দেবে" -
রামকৃষ্ণদেব লিখে গেলেন, "নরেন শিক্ষা দেবে"। তিনি আর কিছু লিখেছেন বলে জানা যায় না। তবে রাণী রাসমণির মন্দিরের হিসাবের খাতায় তাঁর নাম সই পাওয়া যায়। তিনি জীবনের শেষ প্রান্তে একদিন কাশীপুরে একটি কাগজে লিখে দিলেন "নরেন শিক্ষা দেবে", অর্থাৎ নরেন্দ্র লোকগুরু, যুগগুরু।
স্বামী বিবেকানন্দ ভগিনী নিবেদিতাকে বলেছিলেন, "ওঃ ! মা কালী আর তাঁর লীলা-সকলকে আমি কি ঘৃণাই করতুম ! দু' বছর ধরে আমি ওই নিয়ে ধস্তাধস্তি করেছি, কিছুতে তাঁকে মানব না। কিন্তু শেষে আমাকে মানতেই হল। পরমহংসদেব আমায় তাঁর কাছে উৎসর্গ করেছিলেন, আর এখন আমি বিশ্বাস করি, অতি সামান্য সামান্য কাজেও সেই মা'ই আমাকে চালিয়ে নিয়ে যাচ্ছেন, আমায় নিয়ে যা ইচ্ছা তাই করছেন। আমার তখন অতি দুঃসময়। মা সুবিধা পেলেন। তিনি আমায় গোলাম করে ফেললেন। ঠাকুরের নিজ মুখের কথা, "তুই মায়ের গোলাম হবি"। তিনি আমায় মায়ের হাতে সমর্পণ করে দিলেন।"
ভগবান রামকৃষ্ণদেব নরেন্দ্রনাথের জীবনের উজ্জ্বল চিত্র প্রত্যক্ষ করে বলেছিলেন, "কেশব যেমন একটা শক্তির বিশেষ বৃদ্ধিতে জগদ্বিখ্যাত হয়েছে, নরেন এর ভিতর তেমন আঠারটি শক্তি পূর্ণ মাত্রায় বর্তমান"
সেদিনকার ভারতবর্ষের প্রধান সমস্যা ছিল দারিদ্র্য, অশিক্ষা ও অস্পৃশ্যতা। সমস্ত ভারতের অখণ্ডতা তার এই দারিদ্র্য, অশিক্ষা আর অস্পৃশ্যতা দ্বারাই সেদিন তছনছ হয়েছিল। স্বামী বিবেকানন্দ এই সমস্যাগুলির সেদিন শুধুমাত্র পুঁথিগত জ্ঞান থেকে সন্ধান লাভ করেননি বলেই, এ তাঁর সমস্ত জীবনের ধ্যানদৃষ্টি আচ্ছন্ন করেছিল। সেবাকর্মের সাথে একটি আধ্যাত্মিক দায়িত্ব যুক্ত করে দেবার ফলে এই সেবাকর্ম ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগরের সেবাকর্মের মত কেবলমাত্র একটি সামাজিক দায়িত্ব পালন মাত্র বোঝাল না, বরং তার পরিবর্তে একটি অবশ্য পালনীয় ধর্মচরণের মধ্যে তা স্থান লাভ করল। বৈদান্তিক সন্ন্যাসীর ব্রহ্মোপাসনা একদিক দিয়ে প্রত্যক্ষ 'নর নারায়ণের' সেবা আর অন্য দিক দিয়ে অপ্রত্যক্ষ ব্রহ্মচিন্তার মধ্য দিয়ে আত্মপ্রকাশ করল। নিজের জীবনে একদিন নরেন্দ্রনাথ দারিদ্র্যের জ্বালা সহ্য করেছিলেন বলেই ভারতের কোটি কোটি মানুষের দারিদ্র্যের চিন্তা তাঁর অন্তর যেভাবে অধিকার করেছিল, আর কোন বিষয় তাঁর হৃদয়ে সেভাবে স্থান লাভ করতে পারেনি। এই ভাবেই তাঁর মনে 'দরিদ্র নারায়ণের' সেবার পরিকল্পনা উদয় হয়েছিল। শ্রীরামকৃষ্ণদেব এ'কথার সারমর্ম সহজ করে বলেছিলেন, "যত জীব, তত শিব"। নরই নারায়ণ। 'নর নারায়ণ'-এর উপলব্ধিই চরম উপলব্ধি। ঈশ্বরকে খুঁজতে বনে জঙ্গলে, গিরিগুহায় বা মন্দিরে যাবার প্রয়োজন নেই। দেহালয়ের দেবালয়ে যে আত্মার অধিষ্ঠান তাই পরমাত্মা। একমাত্র বরণীয়, স্মরণীয় ও পূজনীয়। জীব যদি সত্যি সত্যিই শিব হয় তবে শিব সাধনা তো আসলে জীবের স্বরূপ উপলব্ধিরই সাধনা। তাই স্বামীজী বললেন, "জীবের অন্তর্নিহিত দেবত্বের প্রকাশই ধর্ম"। "বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ? জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর"।
তথ্যসূত্র: বিবেকানন্দ স্মারকগ্রন্থ
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धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ' : "असतो मा सद्गमय…."  वेद (बृहदारण्यक उपनिषद) :- हे प्रभो, मेरे जीवनमें वह बल और वेग भर दो कि जो कुछ असत्, अनित्य, मरणधर्मा है उससे पिंड छुड़ाकर अमृतत्वस्वरूप होकर शेष रह सकूँ जहाँ मृत्यु की छाया भी न पहुँच सके। 
अब प्रश्न है - कौन सा विश्वविद्यालय है जहाँ मौत के भय से, मौत की पहुँच से सदा के लिए मुक्ति का प्रबन्धन किया गया हो? मुख्य प्रबन्धन तो है ही नहीं। भूख लगने पर भोजन… एक विचित्र बात है- अगर विश्वमें अन्न का अस्तित्व न हो तो किसीको भूख लगेगी क्या? भूख का लगना डंकेकी चोट से इस तथ्यको सिद्ध करता है कि भोजनका अस्तित्व है या भोजन उपलब्ध हो सकता है। इसी प्रकार प्यास का लगना डंके की चोट से पानी के अस्तित्व को सिद्ध करता है। इसी प्रकार से मृत्युञ्जय पद प्राप्त करने की भावना, ऐसा जीवन जहाँ मौतकी छाया न पहुँच सके, यह भावना डंकेकी चोट से मृत्युञ्जय तत्वको सिद्ध करती है। तो प्राणियों की चाह का सचमुच में विषय क्या है? भूख, प्यास ये सब तो अवान्तर विषय हैं, मुख्य विषय है मृत्यु के चपेट से विनिर्मुक्त जीवन।
श्रीमद्भागवत के 10.87.2 में सृष्टि की संरचना के प्रयोजन (उद्देश्य) पर प्रकाश डाला गया है :- 
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानांसृजत् प्रभुः।
मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च।।
अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ हैं। इनकी उपलब्धि हो सके, इसी भावना से परमात्मा ने सृष्टि की संरचना की है और जीवों को देह, इन्द्रिय, प्राण, अंतःकरण से युक्त जीवन प्रदान किया है। 
हमको-आपको पाँच-सात घण्टे तक प्रायः नित्य ही गाढ़ी नींद सुलभ होती है। यदि गाढ़ी नींद सुलभ न हो तो सब प्रकार की व्यवस्था सुलभ होने पर भी व्यक्ति विक्षिप्त या पागल हुए बिना न रहे। गाढ़ी नींद में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास किसी द्वंद्व की पहुँच हम-आप तक नहीं होती। काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक आदि मनोविकारों की गति हम तक नहीं होती। मृत्यु का भय हमें प्राप्त नहीं होता। दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध तापों में किसी ताप की प्राप्ति या व्याप्ति हमको नहीं होती। इतना सब कुछ होने पर भी गाढ़ी नींद पुरुषार्थ भूमि नहीं है। न तो अर्थोपार्जन गाढ़ी नींदमें सम्भव है, न धर्मानुष्ठान गाढ़ी नींदमें सम्भव है, न विषयोपभोग गाढ़ी नींदमें सम्भव है और न कृतार्थता या मोक्ष ही गाढ़ी नींद में सम्भव है।
 जहाँ विषय जन्य आनन्द होता है वहाँ त्रिपुटि होती है। जैसे सामने ये फूल है -कल्पना कीजिये कि इन पुष्पों को देखकर मुझे आह्लाद होता हो, या पुष्पोंको छूकर मुझे आह्लाद होता हो, या पुष्पोंको सूंघकर मुझे आह्लाद होता हो, ये पुष्प क्या हो गये - भोग्य! इनके दर्शन, स्पर्श आदिसे जो आनन्दकी अनुभूति हो रही है उसका नाम हो गया - भोग। और मैं हो गया भोक्ता। जहाँ विषयजन्य आनन्द होता है वहाँ त्रिपुटी होती है। भोग्य, भोग और भोक्ता। 
भौतिक व्यवस्था पर पानी फेरने के लिए ये समर्थ शब्द हैं। भौतिक व्यवस्था ही पर्याप्त नहीं है, मैं यह कहना चाहता हूँ। अब लीजिये जहाँ त्रिपुटी है वहाँ क्या होता है? द्वैत। द्वैत माने दो या दो से अधिक। और जहाँ द्वैत होता है, वहाँ द्वैत के गर्भ से निकलता है श्रम। अपना ही मुखचन्द्र देखते रहिए दर्पण के माध्यम से, श्रम होगा, थक जायेंगे। जहाँ द्वैत होता है वहाँ श्रम होता है और जहाँ श्रम होता है वहाँ खालिस / pure / निरतिशय आनन्द नहीं होता
इसलिए बड़े से बड़ा भौतिकवादी भी अपनी मान्यता को ताक पर रखकर सोने के लिए विवश होते हैं। शरीर को भुलाकर ही नहीं, बहुत ऊँची बात है, बाहरके रिश्तेदार, नातेदार, भवन, पत्नी, पुत्र को ही नहीं अपने शरीर को भी भुलाकर सोने की भावना जगती है चौबीस घण्टे में एक बार। इतना ही नहीं इन्द्रियों को, मनको, अन्तः करण को, इतना ही नहीं प्राणको भी, इतना ही नहीं विषयजन्य आनन्दको भी भुलाकर सोने की भावना जगती है। इसका मतलब क्या होता है सज्जनों? इसका अर्थ ये होता है कि हमको-आपको गाढ़ी नींद प्राप्त होती है।
इसलिए बड़े से बड़ा भौतिकवादी भी अपनी मान्यता को ताक पर रखकर सोने के लिए विवश होते हैं। शरीर को भुलाकर ही नहीं, बहुत ऊँची बात है, बाहरके रिश्तेदार, नातेदार, भवन, पत्नी, पुत्र को ही नहीं अपने शरीर को भी भुलाकर सोने की भावना जगती है चौबीस घण्टे में एक बार। इतना ही नहीं इन्द्रियों को, मनको, अन्तः करण को, इतना ही नहीं प्राणको भी, इतना ही नहीं विषयजन्य आनन्द को भी भुलाकर सोने की भावना जगती है। इसका मतलब क्या होता है सज्जनों ? इसका अर्थ ये होता है कि हमको-आपको गाढ़ी नींद प्राप्त होती है।  
गाढ़ी नींद  में सुख किसी को प्राप्त नहीं होता यह आस्तिक, नास्तिक उभय सम्मत सार्वभौम सिद्धांत है। लेकिन गाढ़ी नींद में सुखोपलब्धि नहीं होती तो दुःख का अभाव कैसे होता? तो बात क्या है? गाढ़ी नींद में भगवान् जो सच्चिदानन्द हैं, उनकी कृपा से उनके हम अत्यंत सन्निकट पहुँच जाते हैं। सुषुप्ति अवस्था उसकी एक प्रक्रिया है। गाढ़ी नींद में सच्चिदानन्द के समीप, भगवत्तत्व के समीप हम और आप पहुँच जाते हैं। उसका सन्निकटता से सान्निध्य जीवों को प्राप्त होता है। इसलिये किसी द्वंद्व की, मृत्यु के भय की, यहाँ तक कि काम-क्रोध आदि विकारों की, किसी दुःख की पहुँच जीव तक नहीं होती। अब थोड़ा विचार कीजिये, लेकिन द्वंद्वों का, मृत्यु आदि का बीज गाढ़ी नींद में भी शेष रहता है। मृत्यु, जड़ता, दुःख के बीज का नाम अज्ञान है। उस अज्ञानको दग्ध करनेके लिए जो व्यवस्था है उसका नाम तत्त्वज्ञान है। सबसे ऊँची व्यवस्था यही है ― तत्त्वज्ञान। अगर तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो ये क्रम चलता ही रहेगा। 
भौतिकवादियों को उनके सिद्धांत की सीमा में, उनके मैनेजमेंट की परिभाषा की सीमा में नींद का अधिकार प्राप्त नहीं है। क्योंकि निद्रा प्राप्त करते ही 'शरीर आत्मा है' इस सिद्धांत पर पानी फिर जाएगा। निद्रा का वेग ही 'शरीर आत्मा है' इस सिद्धांत पर पानी फेर देता है। विषयजन्य आनन्द ही आनन्द है, इस व्यवस्था पर, परिभाषा पर पानी फेर देता है। 
इच्छित वस्तु के सेवन से जो मन में आह्लाद का उद्रेक होता है, उसका नाम है- मोद। इच्छित वस्तु का यथेच्छ सेवन कर लेने पर बाह्याभ्यंतर जो आनन्द की अभिव्यक्ति होती है (overflowing), उसका नाम है - प्रमोद। 
चींटी, चिड़िया इन सबकी पहली आवश्यकता क्या है? ऐसा जीवन जहाँ मौतकी छाया भी न पहुँच सके, यह सार्वभौम सिद्धांत है। इसमें कोई मतभेद नहीं है। बहुत अच्छा उदाहरण है- एक भूखा व्यक्ति भोजन क्यों करना चाहता है? भूखे व्यक्तिकी भोजनमें प्रीति-प्रवृत्ति क्यों होती है? उसका नियामक कौन है? उत्तर यही मिलेगा:- मौत का भय और अमृतत्व की भावना। कहीं भूखके चपेट में आकर मैं दम न तोड़ जाऊँ, ये मौतका भय है। और जब हृदयमें मौतका भय है तो मौतसे बचनेकी भावना भी है ही, अमृतत्वकी भावना है ही।
विश्व में  जितनी व्यवस्थाएं हैं उनके गर्भ से प्रवृत्ति निकल रही है या नहीं? कोई व्यक्ति कोई काम आरम्भ करता है उसका नाम प्रवृत्ति है। अब देखिए कैसी व्यवस्था है उसमें?  प्रवृत्तिके गर्भ से प्रवृत्ति ही निकालने की विधा का नाम भौतिकवाद है। प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में प्रतिष्ठित हो जाने का विज्ञान है राजयोग।  आजकल प्रवृत्तिका पर्यवसान निवृत्तिमें किया जा सकता है क्या? निवृत्तिस्तु महाफलः किन्होंने कहा? मनुजी ने।
 जिस प्रवृत्तिके गर्भ से प्रवृत्ति ही निकलती जाए, वह प्रवृत्ति उन्मत्तोंकी चीज है, प्रवृत्तिकी सार्थकता नहीं है। जिस गति के गर्भ से गति निकलती जाए उस गतिकी दुर्गति मानी जाती है। गतिका पर्यवसान गंतव्य तक स्थिति में हो तब गति की सार्थकता मानी जाती है। आजकल की जो व्यवस्था है अत्यंत अधूरी इसलिए है कि वेदविहीन विज्ञान के कारण आज प्रवृत्ति का पर्यवसान प्रवृत्ति में ही हो सकता है, निवृत्ति में नहीं। इसलिए ये सारी व्यवस्थाएं त्रुटिपूर्ण हैं। 
अक्षय आनन्द का नाम क्या है -  मृत्युञ्जय है, मैं ऐसा कोई तत्व हूँ जिस तक मौत की पहुँच नहीं है। मौत नाम की देवी (माँ काली) भी आएगी तो हमारा दृश्य बन जायेगी मैं ऐसा कोई तत्व हूँ जिस तक अज्ञान की भी पहुँच नहीं है। अज्ञान भी आएगा तो हम उसके प्रकाशक ही सिद्ध होंगे। मैं ऐसा कोई तत्व हूँ- जिस तक दुःख की पहुँच नहीं है। दुःख भी कोई आता है तो हम उसके ज्ञाता, उससे ऊपर सिद्ध होते हैं या नहीं? तो जब तक आत्मतत्व को सच्चिदानन्दस्वरूप नहीं जान लेते तब तक सारी व्यवस्था रहने पर भी व्यवस्था के गर्भ से अव्यवस्था निकल आती है। 
 जब शरीर और संसार असच्चिदानन्द है तब इसको चिपकाकर के, माने इसमें अहंता, ममता करके मृत्यु, मूर्खता और दुःख के चपेट से हमेशा के लिए मुक्त हो सकते हैं क्या ? नहीं हो सकते। अंत में सबसे उत्तम व्यवस्था क्या है ― गीता में भगवान् श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति वचन है:- " अनित्यं असुखं लोकं इमं प्राप्य भजस्व माम् ।" { गीता 9.33 - हे अर्जुन ! क्षणभङ्गुर और सुखरहित इस जगत को और मनुष्य शरीर प्राप्त करके तू मेरा ही भजन कर ।}और  श्रीमद्भागवत में उद्धव जी के प्रति वचन है:- 
"एषा बुद्धिमतां बुद्धिः मनीषा च मनीषिणाम् । 
यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥"
 {श्रीमद्भागवत ११.२९.२२ - इस लोक में इस विनाशी असत शरीर द्वारा मुझ अविनाशी, सत्यतत्त्व को प्राप्त करने में ही विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा है।} 
हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम सुना भी है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार उनहोंने कहाँ किया था ?  उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक किनारे पर भोग है, तो दूसरे किनारे पर त्याग है। इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष या समाज चल नहीं सकता। 
त्यागमार्ग-विहीन समाज केवल भोग के उपर निर्भर होकर चल नहीं सकता है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। इसीलिए, हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ' ये चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात कही गयी है। केवल एक ही पक्ष को लेकर चलने से नहीं होगा। जो समाज एक को ही लेकर रहता हो, उसे 'निन्दनीय' या 'जघन्य ' भी कहा गया है। ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है। 
जब शरीर और संसार असच्चिदानन्द है तब इसको चिपकाकर के, माने इसमें अहंता, ममता करके मृत्यु, मूर्खता और दुःख के चपेट से हमेशा के लिए मुक्त हो सकते हैं क्या ? नहीं हो सकते। अंत में सबसे उत्तम व्यवस्था क्या है ― गीता में भगवान् श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति वचन है:- " अनित्यं असुखं लोकं इमं प्राप्य भजस्व माम् ।"  गीता 9.33 - हे अर्जुन ! क्षणभङ्गुर और सुखरहित इस जगत को और मनुष्य शरीर प्राप्त करके तू मेरा ही भजन कर ।
अन्न जो है चावल, रोटी ये सब ये क्या है? पार्थिव है। पृथ्वी का अंश है। गंधवती पृथ्वी होती है। अन्न इत्यादि में गंध नामक गुण होता है। इसलिए हम इनको पार्थिव कहते हैं। एक व्यक्ति भोजन के बिना जितने दिनों तक जीवित रह सकता है, इतने दिनों तक क्या पानी के बिना जीवित रह सकता है? नहीं रह सकता। इसका अर्थ क्या है? अन्न का कारण जल है। अन्न में पाँच गुण हैं-  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। जल में चार गुण हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस।  सन्निकट निर्विशेष का नाम क्या होता है? पाँच की अपेक्षा चार मूल अङ्क है। इसी प्रकार पाँच गुणों वाली पृथ्वी की अपेक्षा चार गुणों वाला जो जल है वह मूल तत्व है। जल के बिना कोई व्यक्ति उतने दिनों तक जीवित नहीं रह सकता जितने दिनों तक अन्न (गंध) के बिना रह सकता है।
वृंदावनमें दो सन्तों ने अलग-अलग समयमें अन्न और जल का त्याग कर दिया। चौदहवें-चौदहवें दिन दोनों का देहांत हो गया। लेकिन हमारे गोवर्धन मठ पुरी पीठ के पूर्वाचार्य जी ने स्वनामधन्य निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज, उन्होंने 72 दिनों तक गौवंश की रक्षा के लिए अनशन किया था। 72 दिनों तक अनशन करने पर भी शरीर बचा रहा। एक व्यक्ति अन्न के बिना जितने दिनों तक जीवित रह सकता है, अन्न के कारण जल के बिना उतने दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। तो व्यवस्थापकको इसका भी ज्ञान होना चाहिए। 
और जल के बिना आज जितने दिनों तक हम और आप जीवित रह सकते हैं, जल का कारण तेज जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप ये तीन ही गुण हैं - शरीर में रहने वाली ऊष्मा उसके बिना उतने समय तक जीवित रह सकते हैं क्या ? नहीं रह सकते। आस्तिक नास्तिक उभयसम्मत सिद्धांत है। एक व्यक्ति जितने क्षणों तक शरीरमें रहने वाली ऊष्मा या गर्मीके बिना जीवित रह सकता है, क्या उतने समय तक या उतने क्षणों तक प्राण (पवन) के बिना जीवित रह सकता है? नहीं रह सकता। आस्तिक नास्तिक उभयसम्मत सिद्धांत है। 
और अधिक बुद्धिको विकसित कीजिए - एक व्यक्ति जितने क्षणों तक प्राण पवन के बिना जीवित रह सकता है, किया उतने क्षणों तक दो गुणों वाला जो वायु तत्व है, उसकी अपेक्षा निर्विशेष, उसका कारण आकाश, केवल एक गुण (शब्द) वाला आकाश उसके बिना जीवित रह सकते हैं क्या ? यदि शरीर में अवकाशप्रद आकाश न हो तो अन्न कहाँ जाए? जल कहाँ जाए? तेज कहाँ जाए? वायु का संचार कहाँ हो? इसका अर्थ है कि पृथ्वी की अपेक्षा पानी का, पानी की अपेक्षा प्रकाश (ऊष्मा) का, ऊष्मा की अपेक्षा पवन का, पवन की अपेक्षा आकाश का जीवन में अधिक महत्व है
हमने कुछ देर पहले कहा था- पृथ्वी पृथ्वी के लिए नहीं, पानी पानी के लिए नहीं, प्रकाश  प्रकाश के लिए नहीं,  पवन पवन के लिए नहीं, आकाश आकाश के लिए नहीं; ये सब चेतन के लिए हैं जीव के लिए हैं। और अंत में  जीव के बिना तो जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। वो जीव किसके लिये है?  उस जीव की चाह का विषय सचमुच में कौन है? सच्चिदानन्द।  जो उसका मौलिक स्वरूप है, वही हम आप जीवों की चाह का सचमुच में विषय है
साभार "वैदिक उपासना"  : उद्धव को श्रीकृष्ण का उपदेश
मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैपीन्द्रियै: ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा ।।

श्रीभगवान बोले - ‘मन से, वाणी से दृष्टि से तथा अन्य इंद्रियों से भी जो कुछ (वस्तु, व्यक्ति आदि संसार) ग्रहण किया जाता है अर्थात् अनुभव में आता है, वह सब मैं ही हूं । अत: मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है, यह सिद्धांत आप शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार कर लें ।’

यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते ।
तावदेवमुपासीत वाड्.मनः कायवृत्तिभिः ।।

जब तक समस्त प्राणियों में मेरा भाव अर्थात् 'सब कुछ परमात्मा ही है' ऐसा वास्तविक भाव न होने लगे, तब तक इस प्रकार से मन्, वाणी और शरीर की सभी संकल्पों और कर्मों के द्वारा मेरी उपासना करता रहे।।
सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्यया त्ममनिषया ।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वता मुक्तसंशय : ।।

उद्धवजी! पूर्वोक्त साधन करनेवाले भक्त का ‘सब कुछ परमात्मस्वरूप ही है’ - ऐसा निश्चय हो जाता है । फिर वह इस अध्यात्मविद्या (ब्रह्मविद्या) द्वारा सब प्रकार से संशयरहित होकर सब जगह परमात्मा को भली भांति देखता हुआ उपराम हो जाए अर्थात् ‘सब कुछ परमात्मा ही है’ - ये चिंतन भी न रहे, प्रत्युत साक्षात् परमात्मा ही दिखने लगें ।

जब इस प्रकार सर्वत्र ब्रह्म-बुद्धि का या आत्म-बुद्धि - अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दीनों में उसे आत्मज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्म-स्वरुप दिखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जाने पर सरे संशय -संदेह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सभी के भीतर  मेरा ही साक्षात्कार करके संसार-दृष्टि से उपराम हो जाता है।।
'त्याग और सेवा' के व्रत को जीवन में धारण करने का उपदेश सुपात्र को ही दें
अन्तःसार विहीनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसर्गात् न वेणुश्चन्दनायते।।
आचार्य चाणक्य सुपात्र की महत्ता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति अन्दर से खोखले हैं और उनके भीतर समझने की शक्ति नहीं है, ऐसे व्यक्तियों को उपदेश देने का कोई लाभ नहीं, क्योंकि वे बेचारे समझने की शक्ति के अभाव के कारण शायद चाहते हुए भी कुछ समझ नहीं पाते। 
जैसे मलयाचल पर उगने पर भी तथा चन्दन का साथ रहने पर भी बांस सुगन्धित नहीं हो जाते, ऐसे ही विवेकहीन व्यक्तियों पर भी सज्जनों के संग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वस्तुतः प्रभाव तो उन लोगों पर पड़ता है जिनमें कुछ सोचने-समझने या ग्रहण करने की शक्ति होती है। जिसके पास स्वयं सोचने-समझने की बुद्धि नहीं, वह किसी दूसरे के गुणों को क्या ग्रहण करेगा।

महाभारत में भी कहा गया है -

य आत्मनापत्रपते भृशं नर: स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत ॥ 

      अनन्त तेजाः सुमनाः समाहितः स्वतेजसा सूर्य इवावभासते ॥
 
(विदुरनीति /१०२ )

य अपत्रप् भृशं  = व्यर्थ के कार्यों पर शर्मिन्दा होने वाला,  जो मनुष्य आत्मपरीक्षण (विवेक-प्रयोग) द्वारा अपनी उन भूलों या गलतियों के लिये जो अभी तक दूसरों को अज्ञात हैं; खुद को शर्मिन्दा महसूस करता है - 'स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत !' स= वह, सर्वलोकस्य= सम्पूर्ण विश्व का, गुरुर भवत्य उत  वह व्यक्ति ही भविष्य में सम्पूर्ण विश्व का अत्यधिक सम्मानित मार्गदर्शक नेता बनता है।
 अर्थात जो  व्यक्ति  प्रत्येक काम से पूर्व यह देख लेता है कि इस काम के करने से मैं कहीं अपनी आत्मा के सम्मुख लज्जित तो नहीं होऊँगा?  वह व्यक्ति ही भविष्य में सम्पूर्ण विश्व का अत्यधिक सम्मानित लोक-शिक्षक (नेता) बनता है। ऐसा आत्मपरीक्षण में समर्थ व्यक्ति ही सारे संसार में अत्यधिक सम्मानित लोक-शिक्षक , मार्ग-दर्शक नेता या गुरु बनता है।  विदुर जी कहते हैं,  -"अनन्त तेजाः सुमनाः समाहितः स्वतेजसा सूर्य इवावभासते" --- उस व्यक्ति का तेज बहुत बढ जाता है, उसका चित्त शान्त और प्रसन्न रहता है और वह सूर्य समान चमकता है।
          स्वामी विवेकानन्द अपने भावी लोक-शिक्षकों, जन-शिक्षकों , आध्यात्मिक -शिक्षकों का आह्वान करते हुए कहते हैं, " आगे बढ़ो ! सैकड़ो युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ! सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। सत्य अविनाशी है, पुण्य अनश्वर है,पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिये । … सदाचार  सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं- ऐसे ' मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या तुम  "उस वैद्य" की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने कीकोशिश करता है ? भारत को उस नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना का संचार कर सके। 'यह काम' हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा।" (३:३४४)" 
गीता ३/२१ में भगवान कहते हैं -

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ।  इस प्रकार सज्जनो को सदैव सक्रिय रहने की आश्यकता है, क्योंकि सामान्य जन सज्जनो का ही अनुसरण करते हैं। सज्जनो के कार्य और आचरण सामान्यजनों के लिए मानक का कार्य करती है। 

          आज देश के सामने मूल समस्या यह है कि सज्जन निष्क्रिय रहते हैं और दुर्जन सदैव सक्रिय। यदि सज्जन सक्रिय हो जायें तो देश की सभी समस्याओं का निदान हो जाये। इसलिए गीता से प्रेरणा लेकर समाज को सक्रिय करने की आवश्यकता है। हमलोग दूसरों में अपने सच्चे मित्र को नहीं खोजते हैं। हमलोग केवल उन्हीं को खोजते फिर रहे हैं, कि कौन कौन लोग वास्तव में हमारे शत्रू है। जबकि वेद में प्रार्थना की गयी है- " हे ईश्वर, हमें ऐसी शक्ति दो कि हम सभी मनुष्यों को अपने मित्र के रूप में देख सकें।" और हमलोग इसके क्या ठीक इसके विपरीत शिक्षा अपने छात्रों को नहीं दे रहे हैं ? हमलोग किसी से प्रेम नहीं करते। सभी को पराया समझते हैं। इसीलिये हर समय इस बात को लेकर शंकित रहते हैं, कि वे कहीं शत्रू बन कर हमें नुकसान पहुँचा देंगे? केवल द्वैत से ही भय होता है। 
      तैत्तिरीयोपनिषद २/७/१ में कहा गया है है - " उदरम् अन्तरम् कुरुते अथ तस्य भयम् भवति।" जो व्यक्ति ब्रह्म और अपने अथवा दूसरों में -' उदरम् ' थोड़ा-सा भी, अन्तरम् कुरुते - अन्तर समझता है, उसको भय होता है।'जिनको अपना सझते हैं, उनसे कोई भय नहीं होता। इसीलिये दूसरों के भय से सदा शंकित रहने की अपेक्षा, सभी को अपना समझना, और पराये को भी अपना बना लेना -निःशंक हो जाने का सबसे अच्छा उपाय है। यदि ऐसा नहीं करते तो, शत्रुओं से अपने को बचाने की चेष्टा में ही सारी शक्ति नष्ट हो जायेगी। अपने को उन्नत बनाने, औ अधिक विकसित करने की शक्ति फिर बाकी नहीं रहेगी। और उस शक्ति का आभाव, उसको प्रदान करने की पूंजी ही नहीं बचेगी। आज के हमलोग -ऐसी शिक्षा कहीं से नहीं प्राप्त कर पाते हैं।
 केनोपनिषद २. २. ५ में कहा गया है 
इह चेदवेदिदथ सत्यम् अस्ति, न चेत् इह अवेदीत महती विनष्टिः।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः, प्रेत्य अस्मात् लोकात् अमृताः भवन्ति ।।

' इस जगत में कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं '- इस अद्वैत निश्चय को इसी मनुष्य शरीर में रहते समय 'अवेदित् ' जान लिया, 'अथ'-तब तो 'सत्यम अस्ति ' -बहुत कुशल है। और यदि इस शरीर के रहते रहते, इस तथ्य को अपने अनुभव से नहीं जान सके, तो ' महती विनष्टिः '- यह दुर्लभ मानव-शरीर, सभी प्राणियों में स्वयं को देखने का एक अवसर है, यदि इस बार भी यह अवसर हाथसे निकल गया फिर महान विनाश हो जायेगा-बार-बार   मृत्युरूप संसार प्रवाह में बहना पड़ेगा।
 यही सोचकर ' धीराः ' - विवेक-प्रयोग करने में सक्षम बुद्धिमान पुरुष, ' भूतेषु भूतेषु '- प्राणी-प्राणी में या प्राणिमात्र में ' विचित्य' - अपने (ब्रह्म-स्वरुप) को समझकर, इस लोक से ' प्रेत्य ' -प्रयाण कर जाने के बाद, 'अमृताः भवन्ति '- अमर हो जाते हैं। यदि हमलोग मानव-मन को उन्नत बनाने वाले विज्ञान (सत-असत विवेक ) का प्रयोग करें, तो हमलोग अपनी सत्ता के यथार्थ स्वरुप को जान सकते हैं। 
और यह भी समझ सकते हैं कि समस्त चीजों के भीतर एक सत्ता या वस्तु ओतप्रोत होकर समायी हुई है। इसीलिये प्रकट रूप से एक भिन्न सत्ता  (M/F) प्रतीत होने से भी, वास्तव में मैं उस सत्ता (अविनाशी) के साथ एक और अभिन्न हूँ! तथा अदृश्य रूप से होने पर भी सबों के साथ जुड़ा हुआ हूँ, क्योंकि सबों के भीतर एक ही सत्ता विद्यमान है। जब यही विचार क्रमशः दृढ़ होता जायेगा, तो मैं दुर्जनों को भी अपने से अलग न सोच कर, उनको शत्रु नहीं समझकर अपना जानूँगा, उनसे प्रेम करूँगा। तब हमारे हृदय में -घृणा के बदले, भय के बदले, सबों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जायेगा। हमलोगों के भीतर ही अनन्त शक्ति विद्यमान है। उसको सही रूप में व्यवहार करना होगा, जानना होगा और उसे वास्तविकता में परिणत करके अपने जीवन से अभिव्यक्त करना होगा। इसे कार्य में उतारने के लिये हमलोगों को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।  

नजरें बदलीं तो नज़ारे बदल गए।
कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गए।
 इसीलिये मानवजाति का मार्गदर्शक नेता वही बन सकता है, जिस शिक्षक या नेता ने पहले स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर लिया हो, वह यदि कोशिश करे तो दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सकता है। जिस प्रकार नरेन्द्रनाथ श्री रामकृष्ण के नेतृत्व में पहले नेतृत्व का प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वयं समस्त बन्धनों से मुक्त हो गये थे, इसीलिए वे स्वयं युवा-नेता स्वामी विवेकानन्द बनकर दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सके थे।
अपने पति को शत्रु माने वाली स्त्रियों के बारे में आचार्य चाणक्य लिखते हैं कि …
लुब्धाना वाचकः शत्रुर्मूर्खाणां बोधकः रिपुः।
जारस्वीणां पतिः शत्रुश्चौराणा चन्द्रमा रिपुः।।
कि लोभी व्यक्तियों के लिए  चन्दा तथा दान मांगने वाले व्यक्ति शत्रु रूप होते हैं, क्योंकि मांगने वाले को देने के लिए उन्हें अपनी गांठ के धन को छोड़ना पड़ है। इसी प्रकार मुर्खों को भी समझाने-बुझाने वाला व्यक्ति अपना दुश्मन लगता है, क्योंकि यह उनकी मूर्खता का समर्थन नहीं करता। दुराचारिणी स्त्रियों के लिए पति ही उनका शत्रु होता है कि उसके कारण उनकी आजादी और स्वच्छन्दता में बाधा पड़ती है। चोर चन्द्रमा को अपना शत्रु समझते हैं, क्योंकि उन्हें अंधेरे में छिपना सरल होता है, चांद की चांदनी में नहीं।
मतलब साफ है कि दुष्चरित्र वाली महिलाओं के लिए उनका पति उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है। क्योंकि पति के रहते हुए दुराचारिणी महिलाओं की आजादी समाप्त हो जाती है। इस तरह के चरित्र वाली महिलाओं के पति उनकी स्वतंत्रता पर पहरा लगा देते हैं, जिस कारण वह कहीं आ जा नहीं सकती हैं।
दूसरी ओर धर्मपत्नी को गृहस्थ के घर की लक्ष्मी कहा है - 
 
भार्यावन्त: क्रियावन्त: सभार्या गृहमेधिन:।
भार्यावन्त: प्रमोदन्ते भार्यावन्त: श्रियान्विता:॥ 

महाभारतम् 1/74/42॥

पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही यज्ञादिक धार्मिक-सामाजिक कार्य व्यवस्थित रूप से कर सकते हैं। पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही सच्चे गृहस्थ हैं। पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही सुखी एवं प्रसन्न रहते हैं। पत्नी से संयुक्त मनुष्य ही धन-वैभव से सम्पन्न होते हैं, क्योंकि पत्नी साक्षात् लक्ष्मी का रूप होती है।

य: सदार: स विश्वास्य: तस्मात् दारा: परा गति:॥
 महाभारतम् 1/74/44॥

लोक-व्यवहार में पत्नी से संयुक्त मनुष्य पर ही सभी लोग विश्वास करते हैं। अत: पत्नी ही पुरुष की श्रेष्ठ गति है।
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