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शनिवार, 8 सितंबर 2012

' स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग ' [ SVHS- 3.2 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ] तृतीय अध्याय : ' स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज '] परोपकार के दो रूप हैं- विनिमय और दान :" नासतो विद्यते भावः" - (गीता : 2/16 -अतएव कार्य-कारण वाद ही सही है।) धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग। इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। "केवलाघो भवति केवलादी" - मनुष्य-निर्माण की आन्तरिक इंजीनियरिंग /कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करै सो तस फल चाखा।।/"सर्वे गुणाः काञ्चनम् आश्रयन्ते " -अर्थवादी समाज पर एक कटाक्ष है)/>>> CINC नवनीदा ने जीवन्त मनुष्यों (कालजयी मनुष्यों) का इतिहास जान लिया था -


        [ SVHS- 3.2  स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ]

 [ खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ] 

2. 
 
 ' स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग            
            
        प्रचारतन्त्र में बहुत से लोग  विश्वास करते हैं, तथा जानते हैं कि प्रचार-माध्यम कितना शक्तिशाली होता है! बात चाहे सच्ची हो या झूठी बार-बार सुनते रहने से उसका प्रभाव मन के उपर पड़ता ही है। बार बार एक ही बात को सुनते रहने से, मनोवैज्ञानिक नियम के अनुसार मन के भीतर उसकी एक छाप अवश्य पड़ जाती है। हम अक्सर कहा करते हैं कि आज का युग विज्ञान का युग है, तर्कवाद (rationalism) का युग है। आज कोई भी इस कथन को अस्वीकार नहीं करता। आज के समाज में विज्ञान का कोई स्थान नहीं है- ऐसी बात हम मुँह से निकाल भी नहीं सकते।   कुछ लोग कहते हैं, प्राचीन समय की सभी बातें अच्छी थीं, फिर कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं,कि  प्राचीन युग की सारी बातें बुरी थीं। किन्तु, हम इन दोनों  में से किसी से भी सहमत नहीं हैं। ये दावे उचित प्रतीत नहीं होते। प्राचीन युग में बहुत सी ऐसी चीजें थीं जो अच्छी थीं, जिसको आधार बना कर कई नई वस्तुओं का आविष्कार हुआ है, मनुष्य ने बहुत उन्नति की है। इसीलिये प्राचीन युग में जो अच्छा था, उसको ग्रहण करके नये युग के लिये उपयोगी बनाकर हमलोगों को आगे बढ़ना होगा। यही बुद्धिमान मनुष्य की पहचान है। और आमतौर पर मनुष्य इसी प्रकार प्रगति करता है। 
       किन्तु आगे बढ़ने के क्रम में गलतियाँ भी हुआ करती हैं और यह स्वाभाविक भी है। नेताजी कहते थे- 'भूल करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' इसीलिये कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि हमलोग अपने जन्मसिद्ध अधिकार को प्रयोग में लायेंगे, और गलती पर गलती करते ही रहेंगे। कई राजनैतिक दलों को  हम ऐसा ही करते हुए देखते हैं। वे निरंतर गलती पर गलती करते जा रहे हैं, और निरंतर स्वीकार भी कर रहे हैं कि हमने ये गलतियाँ की हैं।जो लोग राजनैतिक इतिहास से परिचित हैं, वे इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। हो सकता है, वे इसे वैज्ञानिक पद्धति या अत्यन्त उदारता का परिचायक समझते हों। किन्तु ऐसी सोच को सही नहीं ठहराया जा सकता है। हमलोगों से गलती हो जाने की सम्भावना है- क्या इसी को ढाल बनाकर हमलोग लगातार गलतियाँ करते रहेंगे और लगातार कहते भी रहेंगे- ' हमसे गलती हो गयी !' ?  युक्ति तो यही कहती है, कि जो व्यक्ति लगातार गलती पर गलती ही करता चला जा रहा हो, वह भविष्य में जो कुछ करेगा या वर्तमान में जो कुछ कर रहा है वह सब गलत ही होगा। इस तर्क को स्वीकार करने से बहुत अधिक गलती  करने की संभावना नहीं होगी। यदि हम चाहें तो इस बात को जाँच कर भी देख सकते हैं।
      जिस राष्ट्र की संस्कृति या विचारधारा के लोग दो- एक गलती को छोड़ प्रायः सही कार्य किये हों -वही राष्ट्र या उसकी विचारधारा अधिक विश्वास करने योग्य है। हमारी जो सनातन विचारधारा है उसके ध्वजा वाहकों  प्रायः सब कुछ ठीक ही किये हैं, बीच बीच में उनसे एकाध गलती भी हो गयी है। और वह गलती भी किस प्रकार की थी ? उनकी सिद्धान्तों  में तो किसी प्रकार का गलती नहीं थी, हाँ  समय के प्रवाह में उसके व्यवहार में जरूर एकाध गड़बड़ी हो गयी। अपने देश की प्राचीन विचारधारा का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि वे बिलकुल आधुनिक हैं। जबकि कुछ विचारधारायें तो ऐसी प्रतीत होती हैं मानों वे गलतियों का ही संकलन  हों। इसीलिए उस प्रकार की विचारधारा की कोई विश्वसनीयता नहीं है। फिर भी उस विचारधारा के मानने वाले लोग यह दावा करते हैं कि वे लोग ही मानव-जाती के सच्चे मार्गदर्शक हैं। कोई भी चिंतनशील व्यक्ति इस झूठे दावे को निगल नहीं सकता। किन्तु, किसी बात को यदि लगातार कहते रहा जाय तो चाहे वह सच हो या  झूठ उसकी एक छाप मन के उपर पड़ ही जाती है। 
       >>>" नासतो विद्यते भावः" - (गीता : 2/16 -असत्-कार्यवाद हो ही नहीं सकता, अतएव कार्य-कारण वाद ही सही है।) :
       एक दूसरा कमजोर तर्क, यह  भी दिया जाता है कि ' मनुष्य गलतियाँ कर कर के ही सीखता है'। यह तर्क बहुत मनोरम, स्वादिष्ट प्रतीत होने पर भी किसी काम का नहीं है।   जो व्यक्ति थोड़ा भी विचारशील होगा, वह कभी यह स्वीकार नहीं कर सकता कि लगातार गलती पर गलती करते -करते किसी दिन सचमुच  सत्य (अपरिवर्तनशील, अच्छा, बृहद या ब्रह्म ) प्रकट हो ही जायेगा ! यह बात सुनने में बड़ा अच्छा लगता है, कि जो - पहले से नहीं था, वह किसी समय हठात आविर्भूत हो जायेगा। हमलोग स्वयं को वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न मनुष्य कहते हैं। एक तरफ तो हम अपने को तर्क बुद्धिपरक (rationalistic) मनुष्य होने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी वस्तु के हठात प्रकट होने में विश्वास भी करते हैं। कहते हैं-जो नहीं था,वह हठात आविर्भूत हो गया। ऐसा होना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से या वेदान्तिक दृष्टिकोण से  किसी भी प्रकार संभव नहीं है। इस विचारधारा को सांख्य-वेदान्त की परिभाषा में- ' असत्-कार्यवाद ' कहा जाता है। अर्थात जो वस्तु कार्य-कारण में किसी भी प्रकार से निहित नहीं था- वह अचानक आविर्भूत हो गया। इसके सम्बन्ध में स्वामीजी एक बहुत सुन्दर बात कहते हैं- ' हमलोग कभी असत्य से सत्य पर नहीं पहुँचते हैं, भ्रम से सत्य पर नहीं पहुँचते हैं। हमलोग सत्य से ही सत्य पर पहुँचते हैं, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य पर पहुँचते हैं।' हाँ , यह बात सही है कि सत्य का भी विकास होता है। किन्तु मिथ्या कभी सत्य में परिणत नहीं हो सकता है। फिर भी अक्सर कई लोग कहते रहते हैं कि जो पहले नहीं था-वह प्रकट हो गया या बन गया। आमतौर पर इसीको आविर्भाव (emergence) कह दिया जाता है, किन्तु ऐसा होना असत्य या अवैज्ञानिक है। क्योंकि दूसरे रूप में हम यह मान रहे हैं कि शून्य से किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है। 'अभाव (शून्य) से भाव' (अस्तित्व- existence, शाश्वत जीवन) कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। यह असंभव है। 
     गीता में भी यह बात कही गयी है- " नासतो विद्यते भावः।" शून्य से कोई वस्तु कभी उत्पन्न नहीं हो सकती है। हाँ, यह हो सकता है कि दूसरी वस्तु में रूपांतरित हो गयी हो।  यह हो सकता है कि कोई एक वस्तु पहले थी, जो बाद में कुछ और ही वस्तु में रूपान्तरित हो गयी।  किन्तु, किसी चीज का हठात आविर्भाव हो जाना असम्भव है।  ['असत-कार्यवाद' या शून्य से सब कुछ का अचानक आविर्भूत हो जाना  सम्भव ही नहीं है - एक मात्र सच्चिदानन्द ब्रह्म ही अनेक नाम-रूपों में  भास रहे हैं !]  फिर भी हमलोग अक्सर अवैज्ञानिक बातों का ही प्रचार करते रहते हैं। जैसे हाईड्रोजन और ऑक्सीजन विशेष परिमाण एवं विशेष अवस्था में एक रासायनिक प्रक्रिया के माध्यम से जल (H2O) में रूपान्तरित हो जाते हैं। किन्तु,फिर भी हममें से कई लोग इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि ' जल नहीं था, किन्तु अस्तित्व में आ गया !' यह भी एक प्रकार का आविर्भाव ही है। (चन्दन की लकड़ी में यदि पहले से अनल नहीं था तो रगड़ने से प्रकट कैसे हो गया ?)। हम सभी लोग इस प्रकार की व्याख्या से कमोवेश परिचित है। किन्तु जल का उपादान पहले से था और केवल उतना ही नहीं  एक विशेष परिमाण, अवस्था, दबाव, और ताप में उन उपादानों को मिलाया जाता है [तीन गुणों के 'पंची'-3 करण से पंचभूत] तभी जल प्राप्त होता है। 
     हमलोगों के भीतर भी ठीक वही बात है। (पंचभूतों के पंचीकरण से शरीर- मन बन जाता है ?) हमारी दृष्टि में चूँकि सत्य (परम्) का अस्तित्व था ही नहीं, इसी कारण हम  क्रमिक ढंग से गलती करते जा रहे थे। और इसी प्रकार क्रमिक ढंग से (serially) गलती करते करते, एक दिन हमलोगों की धारणा में अचानक वह सत्य प्रकट हो जायगा! [जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ?] यह बिलकुल लीकहीन या असत्य कल्पना है। किन्तु आज के हमलोग, (अपने को आधुनिक मानने वाले मनुष्य ) जिस अवस्था में हैं, वह बिल्कुल ऐसी ही अवस्था है। हमलोग कई प्रकार की अव्यवहारिक कल्पनाओं, अवैज्ञानिक बातों की वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए 'भूत' का खेल (पंचभूत ?) दिखाने की चेष्टा करते हैं। अतिप्राकृत घटनाओं के औचित्य  का प्रचार करते हैं। इधर हमलोग यह भी कहते हैं कि हमलोग जादू-टोना आदि बातों पर विश्वास नहीं करते। लेकिन वास्तव में हमलोग केवल राजनैतिक या सामाजिक ही नहीं बल्कि धार्मिक 'magic' भी दिखलाने की भी चेष्टा कर रहे हैं। हमलोगों के कुछ अपने दार्शनिक तत्व हैं, उसी के सहारे हमलोग जादुई छड़ी को घुमाते हुए कहते हैं- 'आबरा का डाबरा-छू' और ये देखो आ गया!' और आज के समाज की समस्या यह है कि हम तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी धार्मिक, सामाजिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में केवल -नेताओं के हाथ की सफाई, देखने की प्रत्याशा में ही बैठे हुए हैं।  इसीलिये (New-Middle Class से Upper-middle class में पहुँचे हुएआज के हमलोग क्या हैं ?  किसी मेट्रो सिटी के किसी उच्च स्तरीय सोसाइटी के  सबसे महँगे फ़्लैट  (Penthouse)  स्थित अपने AC ड्राइंग रूम  में टेलीविजन, लैपटॉप, इन्द्रिय सुख प्रदान करने वाले वैज्ञानिक यंत्रों, computer, gadgets, बुद्ध का मुण्ड आदि ढेरों साजो-सामान आदि से सम्पन्न , और अपने ही जैसे अन्य नव-धनाड्य मित्रों-सम्बन्धियों को खोजकर  'Gentleman'  ग्रुप बनाकर सुसज्जित मूर्खों का एक समाज बनाये हुए हैं। तथा मानव समाज को अपनी सामूहिक मूर्खता के द्वारा और भी गहरे अंधकार में धकेलते जा रहे हैं - यही तो हैं आज के (मॉडर्न) हमलोग ! इस बात पर थोड़ी  गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। हम में से जो लोग ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त करके ज्ञानी होने दम्भ भरते हैं, वे भी इसी प्रकार के मूर्ख हैं, बिल्कुल अज्ञानी हैं। स्वामी विवेकानन्द ने एक बार भाषण देते समय सामने बैठे श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा था 'मूँछ वाले बच्चों की मण्डली ' (mustache babies), अर्थात मूँछे तो निकल आई हैं, किन्तु बुद्धि का विकास थोडा भी नहीं हुआ है। 'आज के हमलोग' भी वही 'मूँछ वाले बच्चों की मण्डली' ही तो हैं। हमलोग अपने कितने ही झूठी शान की वस्तुओं से घिरे बैठे हैं। और हममें से जो थोड़े अधिक बुद्धिमान या धूर्त हैं, वे हमलोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर अपना स्वार्थ साधते रहते हैं। हमलोग आर्थिक शोषण की बात करते हैं। किन्तु अन्य एक दूसरी चौकड़ी भी है, जो अपनी बुद्धि से हमारा शोषण कर रही है।  पर या तो हम उनकी चालाकी देख नहीं पाते या  उस विषय पर बात करना नहीं चाहते हैं; या देखने के बाद भी हममें इतना साहस नहीं है कि हम उसके सामने कुछ कह सकें। क्योंकि हो सकता है, मुख खोलने से कहीं खोपड़ी ही न टूट जाये किन्तु ऐसी खोपड़ी रहे या टूट जाय, क्या फर्क पड़ता है ? क्योंकि मूर्खों के स्वर्ग में रहने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। इस प्रकार आज के हमलोग 'मूर्खों से परिपूर्ण जगत' में वास कर रहे हैं।
            हमलोग [महामण्डल आन्दोलन से जुड़े हुए लोग] साहस के साथ अपने युवा भाइयों से कहना चाहते हैं कि भाइयों! तुम थोड़े साहसी बनो, तुम लोग अज्ञानी मत बने रहो, मूर्खों के सामान जीवन मत बिताओ। तुम लोगों के पास तो अपनी बुद्धि है, नई सोच है, तुम लोग अपनी बुद्धि से थोड़ा विचार करके देखो, तुमलोग कहाँ आ गए हो,  किस अवस्था में आ पहुँचे हो, किस दिशा में जा रहे हो-- थोड़ा विचार करके देखने की चेष्टा करो। बुद्धि के लिये अपने दिमाग को किसी अन्य के पास गिरवी मत रखो। हमलोग बहुत दीर्घ काल तक सब कुछ विदेशों से ही माँगते रहे हैं। यहाँ तक कि बुद्धि भी आयात कर रहे हैं ! उधर उन यूरोपीय देशों के क्या हाल हैं? उनके अपने देश (ब्रिटेन) में क्या हो रहा है ? उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। उनकी बुद्धि में भी दरार पड़ गयी है। वे अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि उनकी बुद्धि भी मौलिक नहीं है। लेकिन, इस समय हमलोग उनसे ही बुद्धि आयात कर रहे हैं एवं भ्रष्टाचार का निर्यात [स्विसबैंक में] कर रहे हैं। 
>>>हमारे देश की नीति (Policy): परोपकार के दो रूप हैं- विनिमय और दान :
       किन्तु प्राचीन काल में हमारे देश की नीति (Policy) क्या थी ? स्वामीजी ने भारत को कैसी नीति अपनाने का सुझाव दिया था ? भारतवर्ष अपने बेशकीमती 'आध्यात्मिकता' के भण्डार से ज्ञान (वेदों के महावाक्यों) का प्रचार विदेशों में करेगा एवं उसी का निर्यात करेगा जिससे मनुष्य का विकास हो।  यह देश अपनी आध्यात्मिकता के बल पर ही वह विश्व विजय करेगा। लेकिन, हमलोग क्या कर रहे हैं? समस्त मानव प्रेम, स्वदेश प्रेम को तिलांजली देकर नकली धर्म का निर्यात करने के लिये झुण्ड का झुण्ड बनाकर विदेश जाने में होड़ में लगे हैं। हमलोग अज्ञानी, अहंकारी, बेवकूफ के जैसा सोचते हैं, हम सबकुछ ठीक ही कर रहे हैं। दूसरी तरफ अपनी हर जरूरत के लिये दूसरों के आश्रित  बने हुए हैं।
      अभी हाल में ही तीन अनुसंधानात्मक रिपोर्ट (Research report-शोधपत्र) प्रकाशित हुए हैं। एक खोजी रिपोर्ट में राष्ट्र संघ का आर्थिक विश्लेषण दिया गया है, दूसरे में यह बताया गया है कि भविष्य में विश्व किस दिशा में जाने वाला है, तथा तीसरे में विश्व की जनसंख्या के विषय में कहा गया है। प्रत्येक रिपोर्ट में दिखाया गया है कि हमलोगों का भविष्य अंधकारमय है। इन रिपोर्टों में कहा गया है कि भारत जैसे विकासशील देशों का भविष्य बहुत बदतर होने वाला है। तो फिर हमलोग किस दिशा में जा रहे हैं ? जनसंख्या-रिपोर्ट में दिखलाया गया है कि 2000 ई० आते- आते विश्व की जनसंख्या छः सौ करोड़ हो जाएगी। और आधी आबादी केवल साठ शहरों में वास करेगी। इस समय विश्व में लगभग 26 बड़े महानगर हैं। इनमें 50 करोड़ लोग वास करते हैं। अभी से मात्र उन्नीस-बीस वर्ष के बाद -[2020 तक ?] इस प्रकार के मात्र 60 महानगरों में 300 करोड़ से भी अधिक लोग वास करने लगेंगे। फिर इस समस्या का समाधान क्या है ? 
[>>>ब्रह्म ही माया के ताना -बाना से ढँका हुआ है, उस ब्रह्म को नहीं देख पाना ही समस्या है ]:         
       राष्ट्र-संघ द्वारा प्रकाशित अनुसन्धानात्मक रिपोर्ट कहता है कि इस समस्या के समाधान का केवल एक उपाय है - " मनुष्यों के भीतर 'मनुष्यत्व-बोध' का विकास करना।"  गीता में भी कहा गया है- ' जिस प्रकार मणियों की धागे में गुँथी हुई होती है, उसी प्रकार बहार से न दिखाई पड़ने पर भी समस्त सृष्ट वस्तुओं के भीतर वे ही अनुस्यूत हैं।' किन्तु, क्या इस बात की ओर सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द ने ही हमारा ध्यान आकर्षित नहीं किया था? किसी ताँत से बूने कपड़े में ' ताना और बाना ' (Warp and woof ) रहता है। [बुनाई के समय जो धागा कपड़े लम्बाई में लगता है उसे ताना कहते हैं, और कपड़े की चौड़ाई में जो धागा प्रयोग होता है, उसको बाना कहते हैं, बंगला में 'टाना और पोड़न'  (টানা ও পোড়েন) कहते हैं।] लगातार ताना -बाना कसते रहने से एक कपड़ा बुन कर तैयार हो जाता है, जिसके द्वारा हम किसी वस्तु को ढँक सकते हैं उसी प्रकार समस्त वस्तुओं के भीतर धागे के समान एक अविनाशी वस्तु (pure consciousness) अनुस्यूत है, वही परम वस्तु (ब्रह्म, existence-consciousness-bliss या सच्चिदानन्द ) है, जिसे इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता है। उस परम वस्तु (अविनाशी) को केवल अनुभूति (विवेकज-ज्ञान) के माध्यम से ही जाना जा सकता है।  हमें यह विश्वास ही नहीं है कि - 'एक' ही 'अनेक' बन गया है ! ब्रह्म ही जगत बन गया है।  इसीलिए हमलोगों की दृष्टि में दूसरों के प्रति तुच्छता या  घृणा का भाव रहता है, हम हर किसी को हिराकत की दृष्टि से देखते हैं, हम सभी भीतर यही देखना चाहते हैं कि उसमें कितनी कुटिलता, पाखण्ड, शत्रुता भरी हुई है। हम क्या हर मनुष्य को प्रेम की दृष्टि से देख पाते हैं ? क्या हमलोग इस दृष्टि से देख पाते हैं कि मानव-मात्र में वही अच्छा (अविनाशी-सच्चिदानन्द) बैठा है ? हमलोगों ने परस्पर संदेह करने की शिक्षा पायी है, इसलिये हम नहीं देख पाते कि किस मनुष्य में कौन सी  सुन्दर और अच्छी सम्भावना छुपी हुई है,तथा उस सम्भावना को कैसे विकसित और प्रस्फुटित किया जा सकता है ? और  यही हमलोगों की मूल समस्या है।
>>>"केवलाघो भवति केवलादी" - मनुष्य-निर्माण की आन्तरिक इंजीनियरिंग :     
        सांसारिक या भौतिक उन्नति के लिये जिस प्रकार इंजीनियरिंग की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनुष्य के विकास के लिये मनुष्य-निर्माण का इंजीनियरिंग सीखना भी आवश्यक है। इस इंजीनियरिंग का कार्यक्षेत्र बाह्य जगत न होकर आन्तरिक जगत है। आज हर स्तर पर वैश्विक एकता के उपर चर्चा होती है। किन्तु जिस समय  Globalization या वैश्विक एकता का विचार किसी के मन नहीं था, उसी समय वेदान्त केसरी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ' आनेवाले समय में कोई भी देश अकेला नहीं चल सकता। प्राचीन काल से ही समाज में कोई अकेला ही रह नहीं पाया है।"  वेद में कहा गया है --"केवलाघो भवति केवलादी" -अर्थात् जो अकेला भोजन करता है वह केवल पापमय होता है। जो अकेला खाता है, वह केवल पाप को ही भक्षण करता है।' कैसा अद्भुत विचार है ! 

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवित केवलादी।
 (ऋग्वेद,10/117/6) 

[अन्वय :-  मोघं अन्नं विन्दते  अप्रचेता:। स तस्य वध इत्। स आर्यमरणं न पुष्यति। न स सखायां पुष्यति। केवलादी केवलाघ: भवति। इति अहं  सत्यं ब्रवीमि। ।।]
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी (विजेता का ड्राइवर गौरी शंकर ? मोघ अन्नं) मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। (भण्डारा में जाकर खाता है।)  स तस्य वध इत् (स) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वधइत्) नाश का ही कारण है। (केवलादी) जो अकेला खाने वाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचन मात्र भी सन्देह नहीं है। अर्थात - वह व्यक्ति पापी है, जो न तो देवों को भोजन देता है एवं न अपने मित्रों को। केवल अपना ही पेट भरता है
व्याख्या :- जीवन के दो बड़े विभाग हैं। एक भोग और दूसरा कर्म। (प्रवृत्ति और निवृत्ति =निष्काम कर्म)   प्रश्न यह है कि क्या इन दोनों का महत्व समान है,  अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य ? यदि ऐसा है तो मुख्य कौन है और गौण कौन है? तुलसीदास जी का कहना है कि-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करै सो तस फल चाखा।।
 
   अर्थात् कर्म मुख्य (प्रधान) है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर विचार कीजिये। इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कही जा सकती है। प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा नहीं होती तो नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है अपितु इसलिए कि उससे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए लोगों ने 'अर्थ' (कामिनी-कांचन भोग?)  को ही सर्वोपरि माना है। लेकिन हर व्यक्ति को अपने अच्छे एवं बुरे कर्म का फल पाना ही होता है। स्वयं भगवान राम को बाली वध की सजा द्वापर युग में जरा नाम के बहेलिए ने उनके पैर पर तीर मारकर किया था। नारायण के पैर में तीर मारने के बाद बहेलिए ने अपनी गलती स्वीकार भी किया था। मगर नारायण रूपी भगवान कृष्ण ने बहेलिए से कहा था कि यह उनके पूर्व के कर्मों का फल है। द्रौपदी ने एक बार अपने आंचल से एक महात्मा की लाज को बचाई थी। जिसके फल द्रौपदी को त्रेता युग में महाभारत के चिर हरण कांड के दौरान प्राप्त हुआ। उन्हें बचाने के लिए [गज-ग्राह के अहंकार >को मारने ?] सीधे नारायण को आना पड़ा था।   वही 10 हजार हाथी के बल वाला दुशासन अपनी मंशा में सफल नहीं हो पाया था।

>>>"सर्वे गुणाः काञ्चनम् आश्रयन्ते " (अर्थवादी समाज पर एक कटाक्ष है) : अपने समय में यह उक्ति कटाक्ष था अथवा सत्य?   यह नीति श्लोक अर्थवादी समाज पर एक कटाक्ष  है , आचार्य भर्तृहरि ने  ऐसे समाज पर कटाक्ष किया है, जिसका केवल अर्थ (धन) ही सर्वस्व है। ऐसे समाज में केवल धनवान व्यक्ति का सम्मान होता है, चाहे वह बिल्कुल ही निकृष्ट क्यों न हो ?  यदि कोई निर्धन है, तो वह भले ही गुणवान क्यों न हो उसे कोई वर्गीकरण वाला नहीं होता। भर्तृहरि के नीतिशतक के एक श्लोक के अनुसार- कांचन का अर्थ ही है भोग। भी गुणों का आश्रय स्वर्ण (धन) में है, अतएव  धनी व्यक्ति में संसार के सारे गुण बसते हैं। 

यस्यास्ति वित्तं सः नरः कुलीनः , सः पंडितः सः श्रुतवान् गुणज्ञः।

सः एव वक्ता सः च दर्शनीयः , सर्वे गुणाः कांचनम् आश्रयन्ते ॥
(नीति शतक- 41)

अर्थ -
      जिस व्यक्ति के पास धन है , वह व्यक्ति उच्च कुल वाला है , ज्ञानी है , गुणवान है , और वही वक्ता है , केवल देखने योग्य है , क्योंकि सभी गुणों का आश्रय स्वर्ण (धन) में है अर्थात सभी गुणों का धन निवास में ही है है।।
व्याख्या - जिसके पास धन है, वही कुलीन, पण्डित, शास्त्रज्ञ, वक्ता और दर्शनीय है । जिसने सिद्ध हुआ कि सारे गुण धन में ही हैं । जिसके पास धन है, वही कुलीन है, पंडित है, बहुश्रुत, गुणज्ञ, सुवक्ता और वर्णन करने योग्य है। मतलब यह कि धनी व्यक्ति में संसार के सारे गुण बसते हैं।  
आज हम भी उसी समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं , ऐसे समाज को घटियापन को बढ़ावा मिलता है और समाज लगातार गिरता जा रहा है जिससे राष्ट्र भी पतित हो जाता है। धन (भोग) प्राथमिक हो सकता है पर सर्वोपरि (श्रेय) कदापि नहीं।  क्योंकि गुणवत्ता को आपके धन से प्राप्त नहीं किया जा सकता है , उसके लिए यत्न करना होगा।  असल में हमें व्यक्ति के गुण से उसका सम्मान करना चाहिए न कि उसके धन से अधिक या कम होने से। …….भर्तृहरि राजा थे। धन का भोग और तत्संबंधित सुखोपभोग ही उनके जीवन का श्रेय - प्रेय था। आचार्य चतुरसेन ने कहीं लिखा है - धन का यथार्थ मार्ग मूत्रमार्ग है। आशय आप समझें। फिर भर्तृहरि को गुरू मिलते हैं। गुरू ज्ञान देते हैं। सत्य बोध होता है। धन - सम्पत्ति अथवा जीवन की नश्वरता का ज्ञान होता है तब इस श्लोक का प्रस्फुटन होता है जिसका अर्थ है -जो मनुष्य धनवान है (DNSe)वही कुलीन है, भले ही नीच कुलोत्पन्न हो, वही पण्डित/विद्वान है, उसी की बात श्रवण योग्य है, वही गुणवान है। वही कुशल वक्ता, वही दर्शनीयहै कारण मनुष्य में जितनी भी विशेषताएं अथवा योग्यताएं हैं धन सम्पन्न होने के कारण उसमें सन्निहित मान ली जाती हैं। ध्यान दीजिए मान ली जाती हैं ,हों न हों यह दूसरी बात है। हम स्वयं ही धनी व्यक्ति के प्रभाव में हो जाते हैं। हमारी मानसिकता ही ऐसी हो जाती है कि यह तो सर्व सक्षम है, कुछ भी कर सकता है हमें दब के रहना चाहिए। नाराज हुआ तो नुकसान कर सकता है। मनीषियों ने एक श्लोक लिखा और अमर हो गए। चिंतन का सार लिख दिए जो तीनों कालों में सत्यहै । ऐसा न होता तो आप विचार कीजिए -क्या हम एक मजदूर/हॉस्पिटल का सफाई कर्मचारी और डॉक्टर से वही व्यवहार करते हैं जो एक व्यापारी अथवा अधिकारी या कि किसी धनाढ्य व्यक्ति से करते हैं ? शायद नहीं ।]
    आज हमलोग जिस दुःख-कष्टों को, अवमानना और सन्ताप को भोग रहे हैं, हमारी समस्त समस्याओं की जड़ इसी में है। और इस समस्या को हमें ही दूर करना होगा। हमलोगों के भीतर अच्छा बनने की जो सम्भावना है, जो सौहार्द, मैत्री का भाव स्वाभाविक रूप से निहित है, उसको यदि हमलोग नहीं समझ सकें, मनुष्य-मात्र में पहले से अन्तर्निहित समस्त चारित्रिक गुणों (virtues) को विकसित न कर सकें तो फिर हमारी समस्याओं के समाधान की कोई सम्भावना नहीं है। 
        आज के जो हमलोग हैं- उनकी यही मूल बीमारी या समस्या है। और समाज में जो भी भ्रष्टाचार,अत्याचार, अराजकता, दुःख, निर्धनता आदि दिख रहा है वह सब तो इस बीमारी का  लक्षण मात्र । वास्तव में हमारी मूल समस्या यही है कि हमारे अक्ल पर ही पर्दा पड़ गया है, बुद्धि में बहुत गरीबी छाई हुई है। हमारे भीतर जो सत्ता है, उसको हम जानना ही नहीं चाहते हैं, उसके बारे में हमलोग सुनना भी पसन्द नहीं करते हैं। यदि एक कान से सुनते भी हैं, तो दूसरे कान से बाहर निकाल देते हैं। कोई यदि उसके बारे में बोलना चाहता है तो उसका उपहास करते हैं, उसकी हँसी उड़ाते हैं। यही तो हैं-आज के हमलोग ! हमलोगों के बुद्धि की दौड़ बस यहीं तक है।  पर हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हमने कुछ सस्ते उपन्यास पढ़ लिए हैं, सफर के दौरान दैनिक सांध्य-समाचार पत्र के कुछ पन्नों को पढ़ा  है और यह मान बैठे हैं कि इन्हीं में समस्त ज्ञान है, और  हमने सब कुछ जान लिया है। 

        >>> द्वैत के कारण ही भय होता है (There is fear only from duality) :                   ये सब बातें हमलोग किसी चीज (काला दंतमंजन)  का प्रचार करने के लिए नहीं कर रहे हैं, उतने अहमक भी हम नहीं हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि जो अच्छे भाव हैं, वे स्वतः प्रचारित होंगे। जहाँ कहीं सम्भावना है (अर्थात जागृत-जीवन, awakened-life है), जहाँ प्राण-उर्जा है उसको कोई दबा कर नहीं रख सकता ! स्वामीजी हमारा आह्वान करते हैं-" उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " उठो, जागो, और जो सत्यद्रष्टा या ब्रह्मज्ञ महापुरुष हैं उनके सानिध्य में उपनीत होकर निर्विवाद रूप से इस सत्य की उपलब्धी करो कि तुम्हारे भीतर ही सम्पूर्ण संभावनाएँ छुपी हुई हैं, उन्हें अभिव्यक्त करो !  युवा भाइयों, जरा विचार कीजिये क्या हम इस इस दुनिया में  मित्र ढूँढ रहे हैं? जबकि वेद में प्रार्थना की गयी है-मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।" यजुर्वेद 36/18 " हे ईश्वर, हमें ऐसी शक्ति दो कि हम सभी मनुष्यों को अपने मित्र के रूप में देख सकें।"
और हमलोग अपने बच्चों को ठीक इसके ठीक विपरीत शिक्षा दे रहे हैं ।  हम किसी से प्रेम नहीं करते। सभी को पराया समझते हैं।   इसीलिये हर समय इस बात को लेकर शंकित रहते हैं, कि वे कहीं शत्रू बन कर हमें नुकसान पहुँचा दें? केवल द्वैत से ही भय होता है। हम जिनको अपना सझते हैं उनसे कोई भय नहीं होता। इसीलिये दूसरों के भय से सदा शंकित रहने की अपेक्षा 
सभी को अपना समझना, पराये को भी अपना बना लेना, निःशंक हो जाने का सबसे अच्छा उपाय है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो शत्रुओं से अपने को बचाने में ही सारी शक्ति नष्ट हो जायेगी। अपने को उन्नत बनाने और अधिक विकसित करने की शक्ति फिर शेष नहीं रहेगी। उस शक्ति के अभाव से स्वयं को उन्नत करने की पूंजी ही नहीं बचेगी। 'आज के हमलोग' - ऐसी शिक्षा कहीं से नहीं प्राप्त कर रहे हैं।  

 [जो सब से स्नेह करके और सब को प्रीति करने में समर्थ है, इस कारण उस परमेश्वर का नाम ‘मित्र’ है -  "ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा ।" क्योंकि शून्य से अचानक आविर्भूत होना, या 'असत-कार्यवाद' सम्भव ही नहीं-एक मात्र सच्चिदानन्द ब्रह्म ही अनेक नाम-रूपों में  भास रहे हैं ! भाई-बहन-समधी- डॉक्टर-नर्स, सफाई कर्मी, टैक्स-एडवाइजर] 
तैत्तिरीयोपनिषद २/७/१ में कहा गया है है - " उदरम् अन्तरम् कुरुते अथ तस्य भयम् भवति ।" अर्थात जो व्यक्ति ब्रह्म और अपने अथवा दूसरों में -' उदरम् ' थोड़ा-सा भी, अन्तरम् कुरुते - अन्तर समझता है, उसको भय होता है।']
         किन्तु, यदि हम मानव-मन को उन्नत बनाने वाले विज्ञान का प्रयोग करें तो हमलोग अपनी सत्ता के यथार्थ स्वरुप को जान सकते हैं। समस्त चीजों के भीतर एक ही सत्ता या वस्तु ओत-प्रोत है, इसीलिये प्रकट रूप से पृथक सत्ता (M/F) प्रतीत होने पर भी वास्तव में मैं उस एक सत्ता के  साथ एक और अभिन्न हूँ ! तथा अदृश्य रूप से सबों के साथ जुड़ा हुआ हूँ, क्योंकि सबों के भीतर एक ही सत्ता विद्यमान है। जब यही विचार क्रमशः दृढ़ होता जायेगा, तो मैं दूसरों को अपने से अलग न समझकर, उनको शत्रु न मानकर अपना मित्र समझूँगा और उनसे प्रेम करूँगा। तब हमारे हृदय में घृणा और भय के बदले, सबों के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जायेगा। 'शीक्षा ' के प्रारम्भ में ही हमें घृणा से मुक्ति का उपाय ढूँढ़ना पड़ेगा। हमारे भीतर ही सबकुछ विद्यमान है। उसको सही रूप से व्यवहार करना होगा , जानना होगा और उसे वास्तविकता में परिणत करके अपने जीवन से अभिव्यक्त करना होगा।  इसे कार्य में रूपायित करने के लिए हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।  
[तुच्छ व्यष्टि अहं को सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित करने प्रयत्न हमें सदैव करते रहना होगा। हमलोगों के भीतर ही अनन्त शक्ति विद्यमान है। उसको सही रूप में व्यवहार करना होगा, जानना होगा और उसे वास्तविकता में परिणत करके अपने जीवन से अभिव्यक्त करना होगा। इसे कार्य में उतारने के लिये हमलोगों को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा।नजरें बदलीं तो नज़ारे बदल गए। कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गए।]
        हमलोग मानव-कल्याण के लिये, उसकी सुख-शांति के लिये जगत के वस्तुओं का विश्लेषण करते हैं, किन्तु जिसके सुख के लिये, जिसकी भलाई के लिये प्राकृतिक शक्तियों का विश्लेषण करते हैं, उस ' मनुष्य' का विश्लेष्ण कौन करता है ? हम मनुष्य की आंतरिक प्रकृति का, उसके मनोजगत का, अंतःकरण का विश्लेषण करने की थोड़ी भी चेष्टा नहीं करते। आमतौर पर हम कहते हैं कि मनुष्य एक मननशील जीव है, कुछ लोग कहते हैं, मनुष्य एक राजनैतिक जीव है, फिर कोई कहता है मनुष्य आर्थिक जीव है। तो क्या मनुष्य केवल दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चलने वाला एक अलग ढंग का पशु है ?  यह ठीक है, कि अलग अलग पहलु से देखने पर, मनुष्य राजनैतिक या मननशील या राजनैतिक जीव प्रतीत हो सकता है, किन्तु अपनी समग्रता में मनुष्य केवल इतना ही नहीं है। 
            महाभारत में भी कहा गया  है कि मनुष्य एक आर्थिक जीव है। कुरुक्षेत्र का युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व लोगों ने देखा कि अचानक युधिष्ठिर खाली हाथ विरोधी-सेना की ओर बढ़े जा रहे हैं। कई लोगों ने सोचा, हो सकता है वे आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं। किन्तु, वे पितामह भीष्म आदि गुरुजनों के निकट पहुँचकर चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद देने का आग्रह कर रहे हैं। आशीर्वाद देने के बाद चारों गुरु-जनों ने, एक ही वचन कहे," विश्व में सभी मनुष्य अर्थ के दास हैं, किन्तु अर्थ किसी का दास नहीं है। हमलोगों ने कौरवों का अन्न खाया है, इसीलिये हमें उनके पक्ष से युद्ध करने के लिये आना पड़ा। "
            इस बात को हमारे पूर्वज अच्छी तरह से जानते थे कि बाह्य जगत का संचालन अर्थ के द्वारा ही होता है। हमारे पूर्वज इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि ' गरीब आदमी की इच्छा उसके मन में उठकर मन में ही विलीन हो जाया करती हैं।' इसीलिये सभी लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते थे, कि सामान्यतया मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। किन्तु, हमलोग इतने परमुखापेक्षी हो गए हैं कि, अब हम अपने पूर्वजों के सिद्धान्तों को भी भूलते जा रहे हैं। हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम भी सुना है तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को ही दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार कहाँ किया था ? उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है-- एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म एक है भोग का मार्ग, तो दूसरा त्याग का मार्ग है। दोनों मार्गों के समन्वय से ही यह विश्व और समाज संतुलित रहता है। इन दोनों मार्गों के कारण ही मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे एक हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भार संतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग।  ' इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष नहीं चल सकता। त्याग-विहीन समाज केवल भोग के बल पर नहीं चल सकता है, उसी प्रकार पूर्णतः भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात की गयी है।  केवल एक ही पुरुषार्थ (मोक्ष) को लेकर चलने से सामाजिक व्यवस्था नहीं चल सकता। जो समाज केवल एक ही पुरुषार्थ (मोक्ष) लेकर रहता हो, उसे 'जघन्य' भी कहा गया है। किन्तु, ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है। 
            इस बात में तो कुछ सन्देह नहीं कि मनुष्य एक मननशील प्राणी है। स्वामीजी कहते हैं, मनुष्य एक मननशील प्राणी है, तभी तो उसे 'मुनि' भी कहा जाता है। इस विशेषता के अतिरिक्त मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं है। केवल एक जगह आकर अन्तर हो जाता है, तथा वह जगह पशु के लिये बिल्कुल अलंघनीय (Inextricable) है। भूख, निद्रा, भय और वंशरक्षा की प्रवृत्तियाँ  पशुओं और मनुष्यों में एक सामान है, कोई अन्तर नहीं है। एक मात्र 'धर्म' ही  मनुष्य और पशु में अलंघनीय अन्तर उत्पन्न कर देता है। किन्तु यहाँ धर्म का अर्थ ललाट पर तिलक लगाना, फूल, बिल्वपत्र चढ़ाना,या  रामनामी चादर ओढ़ना नहीं है। धर्म का अर्थ है- विवेक, मननशीलता। यह विवेक ही मनुष्य को 'सत-असत' का निर्णय करने में सक्षम बनाता है, इसी से तो मनुष्य अच्छा-बुरा का अन्तर कर सकता है। किन्तु साधारण अर्थों में जिसे अच्छा और बुरा (आंवला-इमली का अंतर) समझा जाता है, सदसत-विवेक का अर्थ वहीँ तक सीमित नहीं है। 'सत ' का अर्थ है अविनाशी, चिरस्थायी। और 'असत' का अर्थ है क्षणभंगुर या नश्वर (मिथ्या-वस्तु)। कौन सी वस्तु सत (अविनाशी) है, और कौन सी वस्तु असत (नश्वर) है- जो प्राणी चिन्तन करके इस बात का निर्णय कर  सकता है, उसी को मननशील प्राणी कहा जाता है। वैदिक निरुक्तकार यास्क मुनि मनुष्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- " जो व्यक्ति कुछ भी सोचने-बोलने-करने के पहले 'विवेक-प्रयोग' करता है, उसको ही मनुष्य कहा जाता है।"
         मनुष्य निश्चित रूप से एक राजनैतिक प्राणी भी है। क्योंकि राजनीती का अर्थ है- 'देश-सेवा '।  एकजूट हो राष्ट्र-निर्माण एवं देशवासियों का कल्याण करने के लिए नीतियों को बनाना होगा, तथा उन्हें प्रयोग में भी लाना होगा। राष्ट्र के लिए नीति निर्धारण भी एक आवश्यक कार्य है - इस दृष्टि से देखने पर मनुष्य एक राजनैतिक प्राणी भी है। लेकिन मनुष्य केवल मननशील, राजनैतिक या आर्थिक प्राणी मात्र ही नहीं है। मनुष्य के बारे में इस प्रकार से सोचना, मनुष्य की अवधारणा को छोटा बना देता है। ऐसा सोचने से मनुष्य में जो असाधारण उदारशीलता (magnanimity), ऐश्वर्य और अतुलनीय महिमा है, वह अनदेखा ही रह जायेगा। इस दृष्टि से यदि मनुष्य को नहीं देखा जाय, तो उसका वास्तविक परिचय प्राप्त न हो सकेगा। ईसाई और इस्लामी पुराणों में यह कथा आती है कि खुदा ने जब अपनी अभूतपूर्व रचना, मनुष्य का निर्माण कर  लिया तो उन्होंने सभी फरिश्तों को बुलवा भेजा। तथा मनुष्य के सम्मान में शीश झुकाने को कहा। [क्योंकि वह अपने बनाने वाले-'ब्रह्म'को भी जान सकने में समर्थ था -यह देखकर मुदमाप देवा !] एक एक करके सभी फ़रिश्तों ने वैसा किया, किन्तु एक ने वैसा नहीं किया। जिस फ़रिश्ते ने मनुष्य के सम्मान में अपना सिर नहीं झुकाया, उसे खुदा ने कहा दूर हटो शैतान ! और वही फ़रिश्ता शैतान बन गया। कितनी अद्भुत कथा है यह ! इसीलिये जो व्यक्ति मनुष्य के सामने सिर नहीं झुकाता, उसको (इस रंगमंच से) हट जाना होगा। स्वामीजी कहते हैं, " जो मनुष्य के सम्मान में सिर नहीं झुकाता, वह शैतान है। यदि ईश्वर सचमुच कहीं रहते हैं, तो वे मनुष्य के भीतर ही रहते हैं। स्वामीजी कहते हैं, " तुमलोग भगवान को ढूंढ़ने कहाँ जाते हो ? उनकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मनुष्य के भीतर ही है। तुमलोग नदी के तट पर खड़े होकर भी, जल पाने के लिये कुआँ खोद रहे हो ! सब हाथों से वे ही कार्य कर रहे हैं, सभी पैरों से वे ही चल रहे हैं। खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, सभी स्थानों में वे ही कार्य कर रहे हैं। फिर तुमलोग भगवान की खोज कहाँ कर रहे हो ? "
        यदि हमलोग जीना चाहते हों, तो हमें अपने भीतर इसी बुद्धि को (जगत को ब्रह्ममय देखने की दृष्टि को) जाग्रत करना होगा। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को यज्ञोपवीत पहन कर ब्राह्मण बन जाने की आवश्यकता नहीं है। [या कोट के ऊपर यज्ञोपवीत पहन कर, अपने ब्राह्मण होने का प्रमाणपत्र देने की भी आवश्यकता नहीं है।] अपने देश के अतीत को समझे बिना केवल उसके आचार-अनुष्ठानों  का यंत्रवत पालन करते जाने से काम नहीं चलेगा। वेद-उपनिषद आदि गड़ेरियों के गीत हैं, तथा देवी-देवता आदि कठपुतली मात्र हैं, इनकी कोई आवश्यकता नहीं है, इन सब को बाहर फेंक दो, क्योंकि हमारे सभी पूर्वज लोग मूर्ख थे- ऐसी ही धारणा के साथ हम विदेशों से ' अर्थ दो, खाद्य दो, बुद्धि दो' की रट लगाये  भीख मांगते रहते हैं- यही तो हैं, आज के हमलोग!
परन्तु हमारे जीवित रहने का एकमात्र पथ है, अपने अतीत को जानना (गुरु-शिष्य परम्परा में आधारित प्राचीन भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को जानना) और उसी बुनियाद पर अपना जीवन गठन करना। हमारा जो आधुनिक और भौतिकवादी-समाज (Materialistic society) है, उस समाज में मनुष्य की महिमा को प्रतिष्ठित करना होगा।  और समस्त वस्तुओं का धर्म के माध्यम से (त्यागपूर्वक) भोग करना होगा। क्योंकि भोग तो रहेगा ही किन्तु साथ-साथ त्याग भी रहेगा। इसीलिये एक जगह स्वामीजी कहते हैं, " भोग पूरा किये बिना त्याग नहीं आ सकता है ।" जिसको भरपेट खाना भी नहीं मिलता हो, उससे यदि कहें, तुमलोग सब कुछ फेंक दो-तो यह ठीक नहीं होगा। स्वामीजी कहते हैं, वे लोग अन्न माँग रहे हैं, और तुम उनको पत्थर  दे रहे हो ! पहले उनके रोटी का प्रबन्ध करो, उसके बाद उनको धर्म की कथा सुनाओ। यदि हमलोग जीवित बचे रहना चाहते हों, उन्नति करना चाहते हों, तो दलगत विचारधारा की परवाह किये बिना,स्वामीजी द्वारा प्रदर्शित पथ पर चलना होगा। उनका आदर्श केवल किसी दल या मत-विशेष के लिए नहीं है। स्वामीजीने कहा था,"ठाकुर समस्त प्रकार के साम्प्रदायिक विचारों और समस्त प्रकार के विभाजनकारी बेड़ियों को  तोड़ देने के लिये ही अवतीर्ण हुए थे।" वे आगे कहते हैं, "तुमलोगों ने जिस दिन 'म्लेच्छ ' शब्द का अविष्कार किया, उसी दिन से तुम लोगों का अधः पतन शुरू हो गया है। तुमलोगों अपने चारों ओर बाड़ खड़े कर रहे हो।  ठाकुर जाती-धर्म के नाम पर खड़ी की गयी -वर्गीकरण के इन छोटे छोटे बाड़ को ध्वस्त करने के लिये ही आये थे।" एक प्रसिद्द कहावत है- "मूर्ख ठोकर खाने के बाद सीखता है, बुद्धिमान देख कर सीखता है।" पर हमलोग-न ठोकर खा कर न देखकर किसी प्रकार से नहीं सीख रहे हैं। इस प्रकार यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि हमलोग कितने बुद्धिमान हैं !
           >>> CINC नवनीदा  ने जीवन्त मनुष्यों (कालजयी मनुष्यों) का इतिहास  जान लिया था - स्वामीजी ने हमलोगों को जो भी उपदेश दिया है या विचार दिया है, उसे  उनहोंने स्वयं अपने मन से गढ़ कर नहीं दिया है। प्राचीनकाल में जो चीजें हमारे पास थीं उन्हें भली-भांति समझकर एवं अपनी अनुभूति से जान कर, उसे  नये रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया हैं। उन्होंने अति दरिद्र लोगों के बीच रहकर उनके दुःख के कारण को समझा है, उसके समाधान का मार्ग ढूँढ निकाला है तभी उन विचारों को हमारे समक्ष रखा है। उन्होंने जीवन्त मनुष्यों (इतिहास में जो दूसरों के लिये जीते हैं, केवल वे ही जीवित हैं) के इतिहास को जान लिया था। तथा उनके जीवन के साथ, अपने जीवन का योग किया था, इसी कारण  उनके उपदेश कभी विफल नहीं हुए। रोमा रोलाँ कहते हैं, उनकी वाणी सुनकर विद्युत् प्रवाह  का झटका सा अनुभव होता है। हालाँकि श्रीरामकृष्ण के चरणों माँ बैठकर उनहोंने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया था, किन्तु उसी में लीन नहीं सके थे।  उनकी ब्रह्म में लीन रहने की इच्छा को ठाकुर ने ठुकरा दिया था। तभी तो, सबों के दुःख को दूर हटाने के लिये वे अपना जीवन न्योछावर कर देने में समर्थ हो सके थे। इसीलिये, स्वामी विवेकानन्द को हमें अपना नेता या बुद्धि-दाता मानना होगा। ऐसा न करने से हमलोगों का भविष्य सचमुच अंधकारपूर्ण हो जायेगा। केवल बाहर बारूद-विस्फोट करने से कुछ हासिल न होगा, हमें स्वयं को ही 'बारूद' (मूर्तमान निःस्वार्थता) के रूप में गढ़ना होगा। निःस्वार्थपरता को अभिव्यक्त कर 'मनुष्य' बनकर भारत माता की पूजा-वेदी पर स्वयं की बली (अपने व्यष्टि अहं को विसर्जित करने) देने के लिये तैयार रहना होगा। स्वामीजी ने कहा था, " अपने भीतर निःस्वार्थपरता, त्याग, सेवा, प्रेम का बारूद भर कर युवा समुदाय के उपर फट पड़ना होगा।" केवल भाषण देने से काम नहीं चलेगा। इसी बात को स्मरण रखने के लिये कहते हैं- ' हे भारत ! मत भूलना, कि तुम माता के लिये बली प्रदत्त हो। '
              स्वामीजी नारा देने के लिये नहीं आये थे। भारत एवं विश्व में किस प्रकार का विप्लव या आमूल परिवर्तन कैसे करना है -- स्वामीजी उसी विप्लव-मार्ग का दिग्दर्शन कराने आये थे।  प्रत्येक युवा के हृदय को 'प्रेम रूपी बारूद' का कारखाना (मानव-प्रेमबम) बना देना होगा। सम्पूर्ण मानवजाति के प्रति अकृत्रिम प्रेम ही असली बारूद है, इसी प्रेम के बारूद से अपने हृदय को भर लेना होगा। जो युवा इतने साहसी और क्रन्तिकारी हैं, वे स्वामी विवेकानन्द के पास चले आयें। यदि क्रांति ही करना चाहते हो, तो स्वामीजी के मार्ग पर चलो, इस प्रेमवारी का छिड़काव करते हुए अपने प्राणों को न्योछावर करना होगा। किन्तु, लोगों की दृष्टि में शहीद कहलाने या वाह-वाही पाने के लिये नहीं। क्या तुम सबों की दृष्टि से ओझल रहकर त्याग, प्रेम, पवित्रता,  सत्यनिष्ठा, संयम और निर्भीकता के बारूद से अपने हृदय को धीरे धीरे भर सकते हो ?जिस समय तुमलोग ऐसा मनुष्य बनकर समाज के सामने खड़े हो जाओगे, उस समय समाज तुम्हारे सामने श्रद्धा के साथ सिर झुकाएगाऔर तब तुम्हें देखकर समाज से समस्त अनैतिकता और कायरता किसी चोर की भाँति भागने लगेंगे। यही करना होगा, अभी हमें इसी प्रकार का चरित्र-गठन करने की आवश्यकता है। सच्ची समाज-सेवा का यही एकमात्र पथ है।
        अपने देश-वासियों के लिये यदि तुम्हारे हृदय में प्रेम है तो मनुष्य की महिमा के सामने अपना शीश झुकाओ। मनुष्य को चलता-फिरता देवालय समझकर उन्हें प्रणाम करो। स्वामीजी कहते हैं, ' मैंने जीवन भर ईश्वर का अन्वेषण किया है, किन्तु उनको केवल मनुष्य के भीतर ही पाया है।' आगे कहते हैं, ' मनुष्य के जैसा मनुष्य बनकर सबों का दुःख दूर करो। चरित्रवान बनो। चरित्र में जिन गुणों के रहने पशु मनुष्य में और मनुष्य देवता में उन्नत हो जाता है, उसे ही धर्म कहते हैं। क्या धर्म केवल मन्दिर, मस्जिद या गीरजाघर में है? जो वस्तु (महामण्डल निर्देशित ५-अभ्यास) मनुष्य को वास्तविक मनुष्य में परिणत करके उसे देवतुल्य बना देती है, उसको ही धर्म कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म मनुष्य को पशु-स्तर से देवता में विकसित होने का मार्ग बतलाते हैं। विद्यार्थियों को यह समझना होगा कि केवल परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने से ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त हो जाता है। उच्च डिग्री हांसिल करके भी अधिकांश लोग केवल अपने लिये ही जीवित रहते हैं, दूसरों के लिये जीवित रहने से मनुष्य जीवन सार्थक होता है, यह बात समझ में नहीं आती। जो लोग दूसरों के लिये जीना चाहते हों उन्हें स्वस्थ-सबल शरीर चाहिये, सद्बुद्धि-सम्पन्न मन चाहिये, परहित करने में समर्थ प्रेमपूर्ण हृदय चाहिए।  किसी भी कार्य को दो प्रकार की बुद्धि से किया जा सकता है -स्वार्थ बुद्धि और परार्थ-बुद्धि।   स्वार्थबुद्धि से करने पर कोई भी कार्य बुरा -और परार्थबुद्धि से करने पर कोई भी कार्य अच्छा होता है। अतः कर्म के पीछे जो मनोभाव रहता है उसको बदलने की जरूरत है। इसको ही कर्म-योग कहा जाता है। कर्म में कौशल बरतना ही योग है। जो कुछ भी कर रहा हूँ उसी कार्य को करूँगा, किन्तु दृष्टिकोण बदल जायेगा। ये बातें यदि तुम्हें ठीक लगें, युक्ति-सम्मत लगें तो विवेकानन्द के पास आओ। उनके उपदेशों के अनुसार कार्य करो, उनको थोड़ी श्रद्धा दो, उनसे प्यार करो-इतना से ही काम हो जायेगा। [तुम भी अर्जुन के जैसे क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न एक योगी बन जाओगे। केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) और केंद्राभिसारी बल (centripetal force) दो प्रकार के बलों के प्रभाव से  या यथापूर्व स्थिति (status quo) बनाये रखता है। ]             
कार्ल मार्क्स ने 1853 ई० में एक पत्र में लिखा था , " भारतवर्ष के बारे में सोचने से बहुत दुःख होता है। क्योंकि, भारत ने अपना अतीत तो खो ही दिया है, किन्तु नया कुछ भी नहीं पाया है। इस शून्यता के भीतर से देखने पर भारतवर्ष का भविष्य कुछ समझ में नहीं आ रहा  है।" और माँ जगदम्बा की लीला देखें, ठीक उसी साल 1853 ई ० में ही 17 वर्ष के किशोर 'गदाधर'   अपने बड़े भैया  के साथ पहली बार भारतवर्ष की तात्कालीन राजधानी कोलकाता में पदार्पण करते हैं; और कोलकाता जैसे महानगर में सद्बुद्धि [माँ काली की भक्ति] की एक हवा बहने लगती है। उस समय अतीत लगभग अस्पष्ट जैसा था, तब भी जितना बचा हुआ था, श्रीरामकृष्ण--विवेकानन्द उसी को बचाने के लिये-उसी को ही पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिये अवतीर्ण हुए थे। इनके उपर श्रद्धा रखने का अर्थ है भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना, उससे प्यार करना, और उसी के साथ-साथ सबों के कल्याण का प्रावधान करना। इतना समझ लेने के बाद भी क्या हमलोग यह सोच सकते हैं कि अभी भारत के लिये स्वामीजी की कोई आवश्यकता नहीं है, क्या हमलोग जिस प्रकार के मनुष्य हैं, वैसे ही बने रहेंगे ? जो 'पवित्र-त्रयी' मनुष्य की व्यथा से व्यथित होकर उनके वास्तविक कल्याण का मार्ग दिखला गए हैं--मनुर्भव ! यदि उन वेदमूर्ति के उपर श्रद्धा नहीं रखेंगे तो किनके उपर रखेंगे ?
          इसीलिये तो सम्पूर्ण विश्व स्वामीजी [और उनके माध्यम से ठाकुर और माँ को पहचानकर] के प्रति श्रद्धा रखता है।1902 ई० में स्वामीजी के देहान्त के मात्र 12 वर्ष के भीतर 1906 से 1914 ई० के बीच  ही स्वामीजी का कर्मयोग,भक्तियोग, राजयोग तथा ज्ञानयोग का रुसी भाषा में अनुवाद हो गया था। उसी प्रकार हाल के दिनों में चीन में गीता, रामायण का अनुवाद हो रहा है, स्वामीजी के संदेशों पर सेमिनार हो रहे हैं। चीन की सरकार ने वहाँ के शिक्षाविदों को इस बात का उत्तरदायित्व दिया है कि सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन कर, उनका विश्लेषण कर यह पता लगायें की धर्म में कोई सार है या नहीं ? तथा मनुष्य के कल्याण में धर्म की भी कोई भूमिका हो सकती है या क्या ?  चीन के मनीषी लोग अभी दुनिया के सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करके उसका सार निकालने के लिये उनका विश्लेषण कर रहे हैं। इसको ही वैज्ञानिक विश्लेषण कहते हैं। जिस प्रकार धर्म के नाम पर दुनिया में बहुत अनर्थ हुआ है, उसी प्रकार विज्ञान के द्वारा भी कई कल्याण के कार्य होने के साथ- साथ मानवता का विनाश भी हुआ है। इस समय यह देखने की जरूरत है कि धर्म सामान्य मनुष्यों के किसी काम में आयेगा या नहीं ?
                हमलोगों के लिये भी सभी धर्मों को विज्ञान की कसौटी पर कसकर देखने का समय आ गया है।  क्या सचमुच वेदों के चार महावाक्य सम्पूर्ण विश्व को पुनरुज्जीवित करने में समर्थ हैं ? इसे जाँच करके देखने की आवश्यकता आज के विश्व में सर्वाधिक है। केवल पाश्चात्य देशों का अनुकरण करते रहने से ही नहीं होगा। जैसे कोई शिक्षित व्यक्ति श्रीरामकृष्ण के निकट आकर लगभग प्रति दिन कहता था, गीता-टीता  में कुछ भी नहीं है। उसके बाद अचानक एक दिन आकर कहने लगा, गीता तो बहुत अच्छी और मनुष्य का उपकार करने वाली पुस्तक है। उसके इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा, ' लगता है किसी गोरे साहब ने तुमसे ऐसा कह दिया है ?' हमलोग भी ठीक वैसा ही कर रहे हैं। जैसे ही अमेरिका-इंगलैंड के लोग यह कह देंगे, कि नहीं, भारत के सभी वेद-शास्त्रों में अच्छी बातें कही गयीं हैं, उनमे अच्छे उपदेश दिए गए हैं। (अब तो अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवस भी मनाया जा रहा है, यूनाइटेड नेशन में दीवाली मनाई जा रही है! ) कम से कम अब तो भारत को यह कहने में शर्म नहीं आनी चाहिए कि  हाँ, धर्म अच्छी चीज है, गीता,वेद, उपनिषद सभी सुन्दर ग्रन्थ हैं, इन सभी शास्त्रों में मनुष्य के कल्याण की बातें कही गयीं हैं। यही हमलोगों की मानसिक दरिद्रता है, इस मानसिक कंगाली को दूर करना होगा। यदि हमलोग अपनी इस आन्तरिक कंगाली को दूर हटा कर उन महान विचारों (चार महावाक्यों) को अपने जीवन में अभिव्यक्त न करें, तो हमलोगों का भविष्य बहुत अंधकारपूर्ण हो जायेगा।
               हमारा देश जिसको हमलोग 'माँ ' कहते हैं, जिसने हमलोगों का लालन-पालन किया है, उस माँ के लिये क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं है ? क्या भारतमाता का हमारे ऊपर कोई ऋण नहीं है ? हमारी भारत माँ सबसे अधिक तब प्रसन्न होंगी, जब हमलोग स्वस्थ सुन्दर मनुष्य बन जायेंगे और उनकी जो संतानें गरीब और दुखी हैं, उनके आँखों के अश्रु यदि पोंछ सकेंगे । यह कार्य राजनीती करके नहीं किया जा सकता है। यह कार्य केवल यथार्थ मनुष्य बनकर ही किया जा सकता है। ऐसा मनुष्य बनना होगा जिसमें आत्मविश्वास, निर्भयता, त्याग और सेवा का भाव रहेगा, तथा अन्य मनुष्यों के प्रति प्रेम रहेगा- तभी हमलोग मातृ-ऋण, पितृ-ऋण, जिसे कभी चुकाया नहीं जा सकता,  के लिये थोड़ा बहुत कार्य कर सकेंगे। अब प्रश्न यह है कि हमलोग इस कार्य को करेंगे या नहीं ? इसका उत्तर हमें ही देना होगा। यदि हमलोग स्वयं को उनकी सुसंतान के रूप में गढ़ सकेंगे, तो भारत माता बहुत प्रसन्न होंगी। स्वामी विवेकानन्द हमलोगों को यही संकल्प लेने का आह्वान करते हैं। आज हमलोग क्या बन गए हैं, और क्या बन सकते हैं?  हमलोग क्या कर सकते हैं, उसी का पथ  दिखलाने के लिए ही स्वामीजी ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया था। 
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"श्रम से उपार्जित खायें, अकेले न खायें !" 

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवित केवलादी।
 (ऋग्वेद,10/117/6)

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।। (ऋग्वेद १०/११७/६, तैत्तिरीय ब्राह्मण २८/८/३, निरुक्त ७/३)
अन्वय :- अप्रचेता: मोघं अन्नं विन्दते। स तस्य वध इत्। स आर्यमरणं न पुष्यति। न स सखायां पुष्यति। केवलादी केवलाघ: भवति। इति अहं सत्यं ब्रवीमि।।
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी (मोघ अन्नं) मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। (भण्डारा में जाकर खाता है(। स तस्य वध इत् (स) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वधइत्) नाश का ही कारण है(केवलादी) जो अकेला खाने वाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचन मात्र भी सन्देह नहीं है। 
व्याख्या :- जीवन के दो बड़े विभाग हैं। एक भोग और दूसरा कर्म। प्रश्न यह है कि इन दोनों का महत्व समान है अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य। यदि ऐसा है तो मुख कौन है और गौण कौन है?तुलसीदास का कहना है कि-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करै सो तस फल चाखा।।

क अर्थात् कर्म प्रधान है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर विचार कीजिये। इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कही जा सकती है। प्रायः संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा नहीं होती तो नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है अपितु इसलिए कि उससे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसलिए लोगों ने अर्थ को ही सर्वोपरि माना है। सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति। कांचन का अर्थ है भोग।
यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो (अफलातून) ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक (शासन तंत्र) में इस प्रश्न पर अच्छा प्रकाश डाला है। वह कहता है कि क्या कोई अध्यापक इसलिए अध्यापक कहलाता है कि वह अध्यापन का कार्य करता है, अथवा इसलिए कि वह अमुक वेतन पाता है ? एक डॉक्टर को आप इसलिए डॉक्टर कहते हैं कि वह डॉक्टरी करता है अथवा इसलिए कि वह इतना धन कमाता है। एक सैनिक का सैनिक नाम उसके कर्म के कारण हुआ अथवा उसकी वेतन के कारण। यह तो ठीक है कि अध्यापक, वकील सैनिक या डॉक्टर सब जीविका उपार्जन करते हैं और जीविका के लिये ही काम करते हैं। परन्तु यह बात तो सभी में सामान्य है। और यदि जीविका-उपार्जन को ही मुख्य माना जाय तो सब एक से होंगे, विशेषता न होगी। तथा हर एक का सम्मान उसकी आर्थिक मात्रा के अनुसार होना चाहिये। परन्तु समाज का ऐसा नियम तो नहीं है। एक रोगी मनुष्य- (घुटने को ट्रांसप्लांट करवाना हो ?) तो डॉक्टर की खोज करता है तो उसकी धनाढ्यता को ना देखकर उसकी डॉक्टरी की योग्यता को देखता है। ऐसे डॉक्टर को बुलाओ जो डॉक्टरी अच्छी कर सके। यह प्रवृत्ति तुलसीदास के ऊपर के कथन को पुष्ट करती है कि न केवल 'विश्व' नामक परमात्मा ने ही अपितु 'विश्व मानव समाज' ने कर्म को भोग पर प्रधानता दी है
जब इतना निश्चित हो गया तो भोग को कर्म के आधीन रखना होगा, कर्म को भोग के अधीन नहीं।  इसलिए वेदमन्त्र कहता है मोघं अन्नं विन्दते अप्रचेता: अर्थात् मुफ्त का खाने की इच्छा करने वाला मूर्ख है। वह भोग को प्रथमता देता है। यह बात सृष्टि के नियम- (त्याग और सेवा)  के विरुद्ध है।  डॉक्टर डॉक्टरी सीखता भी इसलिए है कि उसे पूर्ण विश्वास है कि जिस भोग की उसे आकांक्षा है सृष्टिक्रम उसको कर्म पर प्रधानता नहीं देता। इसलिए कर्म की प्रधानता है और  बिना कर्म के भोजन की इच्छा करना परले दर्जे की मूर्खता है। जिस पुरुष को थोड़ी सी भी बुद्धि है वह ऐसी मूर्खता कभी नहीं करेगा। संसार को काम प्यारा है चाम नहीं
वेद मन्त्र कहता है "सत्यं ब्रवीमि" इसका तात्पर्य यह है कि यह कोई छोटी बात नहीं है, जिसको सुनी-अनसुनी कर दिया जाय। मानव जीवन के विकास के लिए यह एक अत्यन्त गम्भीर बात है। मुफ्त भोजन खाने की इच्छा विश्वव्यापी और सांक्रमिक रोग है जिसने मानव जाति को सबसे अधिक पीड़ित किया है। हर नर नारी को इससे सतर्क रहने की आवश्यकता है। यह मीठा विष है जिसकी हानि को बुद्धिमान् मनुष्य ही सोच सकते हैं।
  "वध इत् स तस्य" जो इस रोग में फंस गया उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। वह किसी प्रकार बच नहीं सकता। मुफ्त खाकर अपने ऊपर परीक्षण कर लीजिए अथवा दूसरे मुफ्तखोरों के जीवन का निरीक्षण कीजिये। कुदरत/सृष्टि / प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं कि मुफ्तखोरों को रहने दे। थोड़ी देर के लिए सहन अवश्य करती है, वह भी उतना ही जितना हर पाप को। वह मनुष्य को अवसर देती है कि यदि वह स्वयं ही अपनी भूल का अनुभव करे और सुधर जाय तो अच्छा है। परन्तु इसमें दण्डविधान तो काम करता ही है।  
      माता-पिता अपनी संतान (सबसे छोटे-पुत्र) की निर्बलताओं को यथाशक्ति तथा अत्यन्त सहिष्णुता के साथ सहन करते हैं और बड़ी से बड़ी भूलों की उपेक्षा करते हैं। परन्तु निठल्ली सन्तान से वह भी तंग आ जाते हैं और उनका भी स्वभाविक प्रेम-तन्तु टूट जाता है। इसलिये मुफ्तखोरी से बड़ा कोई पाप नहीं। और सर्वथा नाश ही उस पाप का एकमात्र दण्ड या प्रायश्चित है। इसलिए वेदमन्त्र ने कहा- वधइत् स तस्य। यहां 'इत्' का विशेष अर्थ है। मनुष्य की स्वार्थ सिद्धि भी तभी होती है जब वह दूसरों के हित की बात सोचता है। 
      व्यवसाय जगत् पर दृष्टि डालिये। कोई व्यवसाय चल नहीं पाता जब तक उसका आधार परार्थ न हो। कपड़े का व्यापारी दूसरों के हित को दृष्टि में रखकर कपड़े बनाता है। हलवाई दूसरों की रुचि को देखकर मिठाईयां बनाता है। आप जितना परहित को दृष्टि में रखकर व्यापार करेंगे उसमें उतनी ही अधिक सफलता होगी हर व्यवसाय के लिए प्रश्न रहता है कि उसके साफल्य के लिए बाजार (मार्केट) चाहिए। 'बाजार' का क्या अर्थ? यही न कि जिस वस्तु को आप अपने स्वार्थ का साधन बनाना चाहते हैं उसमें दूसरे मनुष्यों का कितना हित निहित है इससे विदित होता है कि परोपकार (निःस्वार्थसेवा) ही आपका पहला कर्तव्य और ध्येय होना चाहिए।
>>>परोपकार के दो रूप हैं- विनिमय और दान : परोपकार के दो रूप हैं। एक विनिमय अर्थात् जो आपके साथ जितनी भलाई करे उसका कम से कम उतना बदला तो तुम दे ही दो। दस रुपये की चीज पाकर उसको दस अवश्य दो। अर्थात् 'मोघ अन्न' की प्राप्ति मत करो। मत समझो कि चार रुपये में दस का माल मिल गया तो तुम लाभ में हो। यह मुफ्त के छः रुपये जिसको तुम लाभ समझते हो अन्त में तुम्हारे नाश का कारण सिद्ध होंगे। व्यवसाय में जिसको चालाकी और धोखाधड़ी कहा जाता है वह व्यवसाय की अवनति का कारण होता है
 (सत्येनोतभिता भूमि: -ऋग्वेद १०/८५/१) अर्थात  सत्य के आधार पर समस्त जगत् की स्थिति है-   तो व्यवसाय जो जगत् का ही एक छोटा सा अंश है असत्य पर कैसे टिक सकता है?। कहते हैं कि व्यापार की सफलता के लिए साख चाहिए। साख का अर्थ ही यह है कि लोगों को विश्वास हो कि तुम दस रुपये में पूरे दस का माल देते हो। भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों में तथा ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक उदाहरणों में सत्य की बड़ी महिमा गाई गई है, परन्तु दुर्भाग्यवश वह महिमा धर्म ग्रन्थों और धर्म उपदेशों तक ही सीमित हैव्यावहारिक जीवन में उसका प्रयोग बहुत कम है। 
     मैं यहां एक ही उदाहरण दूंगा। डर्बन में मुझे एक सुन्दर कम्बल दिया गया। उसमें फैक्ट्री की ओर से एक चिट लगी थी, उसमें लिखा था कि इस कम्बल में साठ प्रतिशत ऊन है, शेष रुई है। यदि भारतीय फैक्टरी होती तो यह लिखा होता कि इसमें शत प्रतिशत ऊन है। प्रसिद्ध है कि लंदन का कुंजड़ा आपको स्पष्ट कह देगा कि अमुक सेव खट्टा है। क्या प्रयाग और काशी में भी ऐसे कुंजड़े मिलेंगे? सुना है कि इंग्लैंड आदि देशों में पानी में दूध मिला कर बेचते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि इतना दूध है और इतना पानी। क्योंकि पानी मिला दूध पचाने के लिए हल्का समझा जाता है। क्या भारत में कोई हलवाई ऐसा करेगा? क्या भारत के व्यवसाइयों को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि "मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता:"।
>>>दान : परोपकार का दूसरा रूप है दान। जब आप मूल्य का विनिमय करते हैं तो पूरा बदला नहीं दे पाते। पूरे दाम चुकाने पर भी कुछ न कुछ रह जाता है। मनुष्य स्थूल रूप से तो दूसरों के परोपकार पर जीवित ही रहता है। परन्तु बहुत से परोक्ष, अदृश्य और सूक्ष्म रूप है, जिनका परिगणन कठिन होता है। जैसे आप किसी अंधेरी सड़क पर जा रहे हैं। किसी पास के मकान से विद्युत-दीपक की किरणें आ रही हैं। आप इनका मूल्य तो नहीं चुकाते, न मकान वाला आपसे विनिमय मांगता है। परन्तु आपको  उससे लाभ अवश्य हुआ है।
>>>धर्म के तीन आधार -स्तम्भ : यज्ञ, तप और ब्रह्मचर्य >    
  
"त्रयो धर्मस्कन्धा: यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथम: तप: एव।"
 श्रीछान्दोग्योपनिषद
     (अध्याय-2, खण्ड-23, मन्त्र-1)

धर्म के तीन स्कन्ध अर्थात् आधार स्तम्भ हैं।  प्रथम स्कन्ध है यज्ञ (कर्तव्य कर्म का नियम, आदि अग्निहोत्र के रूप में ज्ञान और पालन करना), दूसरा अध्ययन ( स्वाध्याय वेद पुराण आदि धर्म शास्त्रों का अध्ययन श्रवण कर जीवन कर्तव्य और उत्तरदायित्व का ज्ञान प्राप्त करना) करना तथा उसके निर्वाह की क्रियाविधि की मठाधीशों और शिष्यों का परिचय, अंतर्मन से पालन और आचरण करना ) तथा दान (स्वयं के पास उपलब्ध सुख साधन, साधन और साधन के लिए आवश्यक है समाज में शिष्यों के उपयोग के लिए साझा करना या उपलब्ध करना।  अर्थात यज्ञ , अध्ययन और दान धर्म का प्रथम आधार स्तम्भ है।
यज्ञ करें, यज्ञमय बनें >सबके कल्याण के लिए जो भी कर्म हम करते हैं, वे सब के सब यज्ञ हैं। सेवा यज्ञ है, पीड़ा निवारण का कार्य यज्ञ है, रक्तदान यज्ञ है, शुद्ध हवा और जल की व्यवस्था के लिए वृक्षारोपण यज्ञ है, विद्यादान महान यज्ञ है। पतन-निवारण के उत्तम कार्य, जिनमें आपके कोई निहित स्वार्थ नहीं है, विशुद्ध रूप से यज्ञ हैं। पेड़-पौधे, वृक्ष-वनस्पतियां प्राणिमात्र को विशुद्ध प्राणवायु देकर सदैव यज्ञ ही तो करते हैं। तेजोमय सूर्य के कार्य, बादलों के कार्य, माँ के कार्य, पिता, गुरु की ओर से सतत चल रहे कार्यों में निहित यज्ञभाव कोई कैसे भुला सकता है। वास्तव में प्राणिमात्र को यह यज्ञ करने का दायित्व भगवान ने दिया है। इसलिए हम सबको सतत सेवामय ऐसे उत्तम स्तर के यज्ञ करने चाहिए। वेदों ने यज्ञ को ही सृष्टि का मूल बताया है। ‘अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः’ यही है।
भारतीय संस्कृति यज्ञ के कारण ही दैवीय संस्कृति कही गयी है। इसलिए देव पुरुष बनने के लिए तुम्हारा भी हर कर्म यज्ञमय बने, तुम एक सफल याज्ञयिक बनो, यह बहुत जरूरी है। यज्ञ का दर्शन अत्यधिक महान है, यदि आप इसे अनुभव कर सकें। कहते हैं व्यक्ति जब भी हवन करता है, तो उसकी सुगन्ध को समेट कर अपने ही घर में कैद नहीं रख सकता। आहुति देते ही वह हवन धूम्र वैश्विक हो उठता है। मनुष्य, वृक्ष-वनस्पति एवं प्राणीमात्र, निर्जीव-सजीव सबको पवित्र व पोषित करने लगता है। तभी तो कहते हैं-‘‘ अग्नेय स्वाहा’’ अर्थात् पवित्र अग्निदेव के लिए मैं आहुति देता हूं। ‘‘इदं अग्नेय इदं न मम’’ यह आहुति अग्नि के लिए समर्पित है।  इन्द्राय स्वाहा,  प्रजापतये स्वाहा आदि विभिन्न देवताओं को समर्पित आहुतियों के साथ ‘‘इदं न मम’’ अवश्य कहा जाता है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक आहुति हमारे व्यक्तिगत के लिए नहीं है, अपितु सम्बन्धित आहुति सर्वव्यापी देव शक्ति के लिए है। परोपकार के लिए है, जनकल्याण के लिए है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए है। यज्ञ की समस्त प्रक्रिया चर-अचर, जीव-जन्तु एवं प्राणिमात्र के लिए है।
      इस सब विश्लेषण व प्रयोग का एक ही आशय है कि आप देवपुरुष बनें और इसके लिए यज्ञीय जीवन का आश्रय लें। सुख-शांति-समृद्धि की सुगंधि भी यज्ञ से ही प्राप्त होती है। वेद ‘‘तुम्हारे हर कर्म को हवन बनाना चाहते हैं।’’ यह कार्य अनन्तकाल से चला आ रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति का कारण भी यज्ञ है। ‘‘सहयज्ञा प्रजाः सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः, अनेन प्रसविष्यवमेष वो{स्त्विष्टकामधुक्।’’ अर्थात् प्रजापति ने सृष्टि की रचना की तब उन्होंने यज्ञ किया और प्रजा से कहा कि यज्ञ के द्वारा ही तुम आगे बढ़ सकते हो तथा अपनी उच्च कामनाएं पूरी कर सकते हो। भगवान श्रीकृष्ण भी कहते हैं यज्ञ ही तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ कर्म है, यज्ञ ही तुम्हारा कल्याण करेगा। अर्थात अपने कर्म को ‘यज्ञ’ बना लेना, जीवन का एक महान पुरुषार्थ है। इसी में सम्पूर्ण जीवन व ब्रह्माण्ड की मौलिक सुख-शांति-समृद्धि समायी है। तो क्यों न हम सभी यज्ञ करें और यज्ञमय जीवन जियें और प्राणिमात्र को सुखमय बनायें। 
     धर्म का दूसरा स्तम्भ आधार है तप (मनुष्य का अपने कर्तव्यपालन ब्रत संकल्प आदि को पूरा करने के लिए बड़े से बड़े कष्ट कष्ट दुःख आदि को सहन करने के लिए अपनी भावनाओं और उत्तरदायित्वों के साथ) पूरा करना। 
     और तीसरा आधार स्तम्भ है ब्रह्मचर्य (अपने सत्य शौच धर्म कर्म नियम आचार विचार और साध्य तथा सामाजिक संतों से बिना निराधार रूप में उनका पालन करते हुए विरक्त ब्रह्मचारी के समान जीवन निर्वाह करना। धर्म के आधार स्तम्भों के साझी जीवन में निर्वाह करने वाले मनुष्य ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित चतुर्थाश्रमी सन्यासी के समान अमृतत्व प्राप्त होता है जिससे संपूर्ण पुण्यलोक मिलता है। 
      यहां दान का प्रश्न उठता है। यह परोक्ष लाभ ही मुफ्त खोरी होगी यदि आप दान नहीं देते इसलिए छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म के तीन काण्डों का निरूपण करते समय पहले काण्ड में दान को भी शामिल किया है (त्रयो धर्मस्कन्धा: यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथम: तप: एव।)  जो 'मोघ अन्न' के पाप से बचना चाहता है उसे दान देना चाहिए। क्योंकि आप के भोगों में दूसरों की देन है। इसका बदला दान से ही हो सकता है। आप का दान सृष्टि के सूक्ष्म नियमों द्वारा उन तक भी पहुंच जाता है  जो आपसे अपने उपकारों का मूल्य नहीं मांगते। जो दान नहीं देता उसके लिए वेद कहता है कि वह (न अर्यमणं पुष्यति न सखायं पुष्यति) अर्थात् वह अपने किसी हितेषी का पोषण नहीं करता। अर्यमा का अर्थ है कि परम स्नेही (Bosom friend देखो मोनियर विलियम्स की संस्कृत डिक्शनरी)। 'सखा' का अर्थ है 'साथी' या "हम-पेशा" एक ही काम करने वाले।
    अन्त में वेदमन्त्र ने दान न देने वाले कि घोर निंदा की है। केवलाघो भवति केवलादी जो अकेला खाता है उसके पास अन्त में 'पाप' के सिवाय कुछ शेष नहीं रहताअर्थात् उसके समस्त पुण्य क्षीण हो जाते हैं। जब पुण्य क्षीण हो गए तो सुख किसका मिले? पुण्य के क्षीण होते ही सुखों का भी क्षय हो जाता है। अंग्रेजी में एक कहावत है- दान धन का नमक है। (Charity is the salt of riches)। अंग्रेजी शब्द साल्ट का अर्थ है नमक। आप यदि अपने धन की रक्षा करना चाहते हैं तो दान देते रहिये। दान से धन घटता नहीं, बढ़ता है। दान उभयपक्षी हित है। हमसे दान पाने वाले का तो हित होता ही है, दान देने वाले का उससे कम हित नहीं होता। इसीलिए यास्काचार्य ने दान देने वाले को 'देव' संज्ञा दी है ('देवो दानाद् वा') दान दाता देव है। जो दान नहीं देता वह अदेव या असुर है। "केवलाघ" है।  अथर्ववेद में अतिथि-सत्कार के सम्बन्ध में बहुत अच्छा उपदेश है जो 'केवलादी' के दोष का निरूपण करता है-
इष्टं च वा एष पूर्तं च गृहाणामश्नाति य: पूर्वोऽतिथेरश्नाति।। -अथर्ववेद ९/९/१/ अर्थात् जो गृहस्थ अतिथि को बिना पहले खिलाये स्वयं खा लेता है वह घरों की श्री को खा जाता है अर्थात् नाश कर देता है। अर्थात् गृह की शोभा इसी में है कि हम अकेले ना खायें।
>>>Bh -दान की महिमा में एक सुन्दर उद्धरण  है-दान भी श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए।
"श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।"
अश्रद्धा और लज्जा से भी देने पर क्यों बल दिया गया? इसका तात्पर्य है कि कभी-कभी सात्विक भावनाओं की कमी होने पर यदि मनुष्य किसी पाप की प्रवृत्ति में फंसने लगता है तो समाज का भय उसे दल-दल में फिसलने से बचा लेता है। और कालान्तर में उसकी सतोगुणी प्रवृत्ति लौट आती है। डूबते को तिनके का सहारा। अश्रद्धा से देते-देते भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। अश्रद्धा और लज्जा से दिया हुआ दान भी दूसरों के उपकार में लगता ही है। 

  >>>" नासतो विद्यते भावः" - (गीता : 2/16 -असत्-कार्यवाद हो ही नहीं सकता, अतएव 
कार्य-कारण वाद ही सही है।) :

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।

[पदच्छेद (Paragraph:) न, असतः, विद्यते, भावः, न, अभावः, विद्यते, सतः । उभयोः, अपि, दृष्टः, अन्तः, तु, अनयोः, तत्त्वदर्शिभिः ॥

असत्पदार्थः कदापि न भवति, यथा - शशशृादिः । असत् वस्तु का तो  (भाव -सत्ता) प्रमाण नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व, तत्त्वदर्शन ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।
।।2.16।। वेदान्त शास्त्र में सत् असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। असत् वस्तु वह है जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीतसा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी असत् ही है हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें (देह और मन) मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है। स्वप्न के बच्चों और  राज्य के लिये राजर्षि जनक को  कोई चिन्ता नहीं होती क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है
शरीर और मन  (मिथ्या अहं- false ego ) इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न (surrounded)  है क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक (momentary) होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश (destruction) दूसरी अवस्था की उत्पत्ति (origin) है। परिभाषा के अनुसार ये सब असत् हैं। क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान आश्रय की आवश्यकता है। 
       मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें कुछ है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह कुछ अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है योग है इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है वह चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित नित्य सत्य वस्तु है
तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों सत् और असत् आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।
>>>'The best way to become doubtless': -(The only Advaita is visible in many names and forms! Make even a stranger your own! ) 
"एक मात्र अद्वैत (ठाकुरदेव) ही  अनेक नाम-रूपों में  भास रहे हैं, इस सिद्धान्त में 'संदेहरहित (doubtless) हो जाने का सबसे अच्छा उपाय' - पराये को भी अपना बना लेना !
[असत-कार्यवाद कहता है- असत, अर्थात अस्तित्वहीन (non-existent) वस्तु एक समय में सत हो गया या प्रकट हो गया-यह हो ही नहीं सकता। असत-कार्यवाद सही नहीं है। जो नहीं था, उसके भीतर से कुछ बाहर प्रकट हो गया-यह बात अतर्कसंगत है। जो था, वही नये रूप में प्रकट हो गया-यह हो सकता है।हमारे देश के दर्शन-शास्त्रों में ' सत-कार्यवाद ' एवं ' असत-कार्यवाद ' नाम से दो प्रकार की तात्विक बातों का उल्लेख है। सत-कार्यवाद कहता है, जो वस्तु पहले किसी अन्य रूप में थी, उसका रूपान्तर हो सकता है। कोई सद्वस्तु, अर्थात कोई वस्तु यदि पहले से अस्तित्व में रहे, तो उसका कार्य, अर्थात कारण का विकास होकर अन्य एक वस्तु में रूपान्तरित हो सकता है। इस रहस्य को केवल मनुष्य ही जान सकता है, इसलिए केनोपनिषद में कहा गया है -
 इह चेदवेदिदथ सत्यम् अस्ति, न चेत् इह अवेदीत महती विनष्टिः। 
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः, प्रेत्य अस्मात् लोकात् अमृताः भवन्ति ।।
(केनोपनिषद 2/2/5)
' इस जगत में कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं '- इस अद्वैत निश्चय को इसी मनुष्य शरीर में रहते समय 'अवेदित् ' जान लिया, 'अथ'-तब तो 'सत्यम अस्ति ' -बहुत कुशल है। और यदि इस शरीर के रहते रहते, इस तथ्य को अपने अनुभव से नहीं जान सके, तो ' महती विनष्टिः '- यह दुर्लभ मानव-शरीर, सभी प्राणियों में स्वयं को देखने का एक अवसर है, यदि इस बार भी यह अवसर हाथसे निकल गया फिर महान विनाश हो जायेगा-बार-बार   मृत्युरूप संसार प्रवाह में बहना पड़ेगा। यही सोचकर ' धीराः ' - विवेक-प्रयोग करने में सक्षम बुद्धिमान पुरुष, ' भूतेषु भूतेषु '- प्राणी-प्राणी में या प्राणिमात्र में ' विचित्य' - अपने (ब्रह्म-स्वरुप) को समझकर, इस लोक से ' प्रेत्य ' -प्रयाण कर जाने के बाद, 'अमृताः भवन्ति '- अमर हो जाते हैं।    
इसीलिए बचपन में कृष्ण भगवान जब गाय चराते समय दोपहर में सभी गौओं को बरगद के पेड़ की छाया में विश्राम करते देखते हैं, तो अपने ग्वाल-बाल मित्रों से कहते हैं-' पश्य एतान महाभागान ' ये वृक्ष केवल दूसरों के लिये ही जीते हैं ! इसीलिए  इस्लाम के भी ५ जरुरी अरकान (स्तम्भ) हैं, इसमें पहला अरकान 'तौहीद'- सबसे खास है उसका अर्थ है- ' दिल ओ जुबाँ से तुम यह शहादत अदा करो के "अल्लाह ता'आला" के सिवा कोई ज़ात इबादात ओ बंदगी के लायक नहीं (अल्ला, जो एक मेव अद्वितीय है,निर्गुण-निराकार है -को ही संस्कृत में ब्रह्म कहा जाता है! ); अन्य ४ हैं -नमाज-रोजा-हज और ज़कात क्यों ? क्योंकि सबों में अल्ला या ब्रह्म ही बैठे हैं ! ]
>>भर्तृहरि नीति शतक:
धन की उष्णता के अभाव में आदमी ठंडा हो जाता है- मनुष्य समुदाय इस धरतीपर सदियों से सांस ले रहा है। यह मानना गलत है कि उसके मूल स्वमभाव में कोई अधिक अंतर आया है। जिस तरत अन्य जीवों-पशु, पक्षियों तथा जलचरों का मूल स्वभाव नहीं  बदला उसी तरह मनुष्य के रहन सहन तथा खान पान की आदतें भले ही बदली हों पर उसके विचार, चिंत्तन तथा व्यवहार में कोई अंतर न आया है न आयेगा। हम अगर अपने पौराणिक ग्रथों का अध्ययन करने तो इस बात का आभास होता है कि मनुष्य समाज आज भी वैसा ही है जैसा पहले था।  इसलिये ही उनमें व्याप्त संदेश आज भी प्रासंगिक माने जाते हैं। सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का आंकलन  करता है।  इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि धन से नहीं वरन गुणों (मिथ्या अहं के त्याग)  से  ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा (नाम -यश) अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। 
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