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गुरुवार, 21 जून 2012

" रस्सी में सर्प का भ्रम " [15] कहानियों में वेदान्त

किस शक्ति के प्रभाव से मिथ्याबोध उत्पन्न होता है ?
रात्रि के नौ बज रहे थे। मदन सिनेमा देखकर घर लौट रहा था। लौटने के क्रम में सिनेमा के बारे में ही सोचता हुआ अकेले अकेले चल रहा था। उसका पूरा मन सिनेमा में देखे हुए दृश्यों में ही अटका हुआ था। अरे ! उस  समय जब हिरण के उपर बाघ ने अचानक झपट्टा मारा, तब तो वह कितना डर गया था ! हिरण जब घास चर रहा था, उसी समय पास वाले जंगल से एक बाघ अचानक निकला और छलांग मार कर ' धड़ाम ' से उसके सामने खड़ा हो गया, उस समय तो डर के मारे मदन चेयर से लगभग उछल कर खड़ा ही हो गया था।
 वह तो सिनेमा के टेकनिक को समझता था, प्रकाश और प्रकाश के निकलने के मार्ग में बाधा-जनित प्रतिबिम्ब के  खेल के आलावा सिनेमा और कुछ नहीं है।
 फिर भी उस दृश्य को इतने अच्छे तरीके से फिल्माया गया था, कि बाघ के आने पर उसने उसको जीता-जागता सचमुच का बाघ मान लिया था। और जिसके परिणाम स्वरूप उस समय वह बिल्कुल ही डर गया था। कैसा अजीब दृश्य था ! 
चलते चलते अचानक मदन कूद कर दो-डेग पीछे हो गया। उसकी छाती एकबार फिर से धड़कने लगी थी। रास्ते के बीचोबीच एक काला नाग (Cobra) साँप पड़ा हुआ है। उसने तो उसकी पूंछ पर अपने पैरों को लगभग रख ही दिया था, किन्तु अचानक नजर पड़ गयी इसीलिये बहुत बल लगाकर उसने अपने पैरों को दो डेग पीछे खींच लिया था। वरना वह तो बहुत कसकर उसे काट ही लेने वाला था ! यदि इसने सचमुच काट लिया होता, तब क्या होता ? मदन थोड़ा और पीछे हट गया; और दूर से ही साँप को देखने लगा। हाँ, सचमुच बड़ा विषधर साँप है। रंग तो उसी प्रकार एकदम काला है। अभी हाल में ही उसने एक सँपेरे के पास एक विषधर काले नाग को देखा था। यह साँप बिल्कुल वैसा ही लग रहा था। 
मदन विचार करने लगा, क्या करना चाहिए ? इससे बचकर पार हो जाना चाहिये, या दूसरे रास्ते से जाना ठीक रहेगा ? मदन यही सोच रहा था। उसी समय एक दूसरा व्यक्ति वहाँ पहुंचा, उसके हाथ में टॉर्च भी था। नजदीक आते ही मदन ने उस को रोक कर साँप की ओर ईशारा किया। वह व्यक्ति हँस कर बोला- " अरे, वह साँप नहीं, एक रस्सी है ! मैंने इसको जाते समय भी देखा था, तब भी यह वहीं पड़ा हुआ था। " यह कहकर उसने टॉर्च को  जलाया, और आगे बढ़ गया। उसके साथ साथ मदन जितना आगे बढ़ रहा था, रस्सी उतना ही साफ-साफ नजर आने लगा था। एकदम निकट जाकर जब टॉर्च की तीव्र रौशनी में देखा, तो सचमुच वह रस्सी ही था, अब मदन के मन में कोई संशय नहीं रह गया था।
 
(जनता का पैसा ! मेरा ?)
तब मदन भी हँसने लगा। मानों उसकी छाती पर से कोई बड़ा भारी बोझ उतर गया था। सोचने लगा; कितनी अजीब बात है ? इसका मतलब यह हुआ, कि इतना बड़ा भ्रम भी हो सकता है ! और इस विभ्रम में पड़कर वह कितना अधिक डर गया था ? रस्सी तो हमेशा रस्सी ही था, साँप तो कभी बना ही नहीं था ? किन्तु उसीको साँप समझ लेने के कारण उसको इतनी देर तक इतना भयभीत होना पड़ा था।
किसी एक वस्तु को कोई अन्य वस्तु मान लेने से कैसा भ्रम हो जाता है ! और वह भ्रम जबतक दूर नहीं हो जाता, तबतक उसको लेकर भय-चिन्ता सताती रहती है। और भ्रम टूटने के साथ ही साथ सारी चिन्ता, सारा भय मिट जाता है। 
वेदान्त कहता है, हमलोगों को अपने जीवन में जितने भी सुख-दुःख, जितनी भी चिंतायें आती हैं, जिस किसी बात का भी डर होता है, उन सब की जड़ में यह मिथ्याबोध या गलतफहमी ही रहती है। जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख से परे, असीम, एकरस (Undifferentiated), अभेद, चेतना को ही हमलोग विभ्रम में पड़कर विभिन्न नामों और विविध रूपों की सीमाओं में घिरे अलग अलग वस्तु के रूप में देखते हैं।
 और स्वयं को भी उन्हीं ससीम वस्तुओं में से एक मानकर जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख मिश्रित एक पृथक सत्ता के रूप में सोचते हैं।
यह भ्रम जिस समय टूट जाता है, उसी समय हमलोग उस शुद्ध-शाश्वत चैतन्य (Vibrations) के साथ एक और अभिन्न अनुभव कर पाते हैं। और अपने अनुभव से यह जान लेते हैं, कि उस चैतन्य के सिवा बाकी सारे नाम-रूप आदि मिथ्या हैं। जिस शक्ति के प्रभाव से ऐसा मिथ्याबोध या भ्रम हो जाया करता है, शास्त्रों में उस शक्ति को ही 'माया ' कहा जाता है।
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[ रामकृष्ण कौन हैं ? इष्टदेव ठाकुर का स्मरण करके गुरु ने कहा - जिनको नहीं जानने से यह झूठा जगत सच दिखाई देता है, और जिनको जान लेने से यह जगत अदृश्य हो जाता है, वे हैं भगवान श्रीरामकृष्ण परमात्मा ]
रामचरितमानस के बालकाण्ड [108-11]  में माता पार्वती भगवान शंकर से पूछती हैं- हे कामदेव के शत्रु ! आप जिस राम के नाम का आदरपूर्वक जप करते रहते हैं, ये राम क्या वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं ? या अजन्मा, निर्गुण ( समझदार के लिये बर्फ भी जल है, बच्चे उसको जल से अलग समझते हैं ) और अगोचर कोई और राम हैं ? यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे ? और यदि ब्रह्म हैं तो स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गयी ? यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ, मुझे उसे समझाकर कहिये। वह कारण विचारकर बतलाइये जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है।( वे केवल हमलोगों के अज्ञान को मिटाने के लिये ही सगुण बनते हैं। बिना पैर के चलते हैं, बिना कान के सुनते हैं।)
शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनन्द ) में डूबे रहे; फिर उन्होंने ने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्रीराम की कथा का वर्णन करते हुए कहते हैं- (जो इस घोर कलयुग में रामजी की कथा सुनाते हैं, वे धन्य हैं। शिवजी तो समाधि में जा रहे थे, माँ पार्वती धन्य हैं, जो शिवजी को राम की महिमा सुनाने पर प्रेरित कर देती हैं। 
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमी भुजंग बिनु रजु पहिचानें।।
जेहि जानें जग जाई हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई ।।
जिस एक (श्रीराम) को जाने बिना यह झूठा जगत भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है; और जिसे जान लेनेपर जगत उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है। मैं उन्हीं श्रीरामचन्द्र के बालरूप की वन्दना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती है। 
बंदऊँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ।।
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ।।
वे श्रीराम ही मंगल के धाम, अमंगल को हरने वाले और श्री दसरथ जी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्रीरामचन्द्र जी मुझपर कृपा करें। 
वही श्रीराम जो द्वापर में श्रीकृष्ण बने थे, और इस युग में मेरा अज्ञान हरने के लिये भगवान श्रीरामकृष्ण बने हैं, तथा शिवजी स्वामी विवेकानन्द बने हैं- उनकी कृपा से हमलोग भी यह समझ सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण कौन है ? और तब रस्सी में सर्प कभी नहीं दिखेगा।
 जो लाखो पापियों को तारे हैं, जो लाखो अधम उद्धारे हैं।
हम रामजी के रामजी हमारे हैं। हम रामजी के रामजी हमारे हैं।
 राम कहो आराम मिलेगा, सुबह शाम आठो याम मिलेगा।-सन्त प्रेमभूषणजी।
राम का परिचय देते हैं-
"रामो विग्रहवान धर्मः धर्मो विग्रहवान रामः " "Rama is the embodiment of dharma. Dharma,if it were to be sculpted,the statue would be a carbon copy of Rama"
-" एषः रामः विग्रहवान धर्मः "  
13 रामॊ विग्रहवान धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः
   राजा सर्वस्य लॊकस्य देवानाम इव वासवः
धर्म पालन करने वाले की रक्षा करता है। अम्बरीश राजा के शरण में जाना पड़ा था दुर्वाषा जी को।  धर्म और कर्तव्य एक है, माता-पिता की सेवा धर्म है, और वही कर्तव्य भी है। धर्म-भीरुता अलग है, धर्म-शील होना अलग है। रामचरितमानस शाश्त्र नहीं पुराण है। शास्त्र केवल 6 है। जो वेदांग को समझने के लिये पढना है। वेद भगवान भी शास्त्र नहीं है। सब आदमी खुश हो जाये यह हो नहीं सकता, भगवान को खुश रखो। खुश किया नहीं जा सकता खुश रहा जा सकता है। राम ने माँ कौशल्या को दो बार अपना स्वरूप दिखलाया है- एक बार जन्म लेने के समय दूसरी बार पालने में और मन्दिर में एक साथ दिखलाई पड़ते हैं।
 3 लोक 14 भुवन में एक हमारा यह मृत्यु लोक में धरती पर हमारा- ' घर ' इतना छोटा है, फिर भी हमारा अहंकार कम नहीं होता, भगवान मौन रहते हैं। यहाँ अहंकार करने जैसा कुछ नहीं है। भजन प्रेम से करिये डर कर नहीं, प्रेम में रहिये। लाला 5 साल के हो गये हैं, पय-पान करना चाहते हैं। रहो आंचल में मुखड़ा छुपाये नजर तोहे लग जाएगी। बाल लीला के बाद ब्रह्मचर्य लीला - जनेऊ-संस्कार के बाद गुरु से पढने गये। क्या पढ़े ? माता-पिता को प्रातः काल में सिर झुकाना सीखा। प्रेम करना -प्रातः जगना -वन्दन करना। दिनचर्या मधुर हो, बच्चों  को श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करना सिखाओ। रिश्तों में अपना मानने से, बहु को परायी मानोगे तो उसमें कमी दिखाई देगी, कमी गैर में दिखाई देती है, हम जिसको अपना मानते हैं, उसमें केवल अच्छायी ही देख पाते हैं। अ माने नहीं, असुर सुर में नहीं है। मनु भव -मनुष्य बनो, जाति पाती का भेद मत देखो। सबको कर प्रणाम श्रीराम जय जय राम, गोरे उसके काले उसके पूरब पच्छिम वाले उसको सब में उसी के नूर समाया, कौन है अपना कौन पराया। शेख-ब्राह्मण-मुल्ला- पण्डे सब हैं इक मिटटी के भांडे. बेटियाँ परिवार से प्रेम करें, आप चाहोगे, सब आपको चाहेंगे।बेटी बीड़ा होती है तो बीड़ा होती है, हम आयेंगे, आप नहीं आना। अपने परिवार के समत्व में बेटी का विवाह करो। 10% ऊँचे परिवार में करना। जो बोयेगा,पायेगा, तेरा किया सामने आयेगा। जैसी करनी वैसी भरनी। सबसे बड़ी पूजा है मात-पिता की सेवा। किस्मत वाले को ये मौका। महापुरुष किसी पार्टी का नहीं होता है। जो राम का है, वही मेरे कम का है। कोई बदलेगा नहीं हम बदल जाएँ यही अच्छा है। लड़कियां पराये घर से अपने घर आयीं है। बेटी ये नहीं समझती हैं कि अपना घर कौन सा है? दामाद वह जिसका नाम लेते दम फूलने लगे। रामजी दामाद नहीं जमाता हैं। बहु को कैसे रखना- पुतली को जैसे पलक रखती है। हमने ममता दी है, तभी लोग मेरे निकट बने रहते हैं। सबको ममत्व चाहिए। विश्वामित्र जब पुत्र माँगने आये थे तब मना कर दिया था।आज बाबा को दसरथ भेजना नहीं चाह रहे हैं। आदमी का स्टेटमेंट कितना जल्दी बदलता है, देखिये। अलभ्य लाभ होता है, वही मेरी कथा कराता है। सतना में मेरे लाडले हैं। सजधज के जिस दिन मौत की सहजादी आएगी, न सोना काम आएगा, न चाँदी आएगी।मेरे घर साधू-सन्त महापुरुष आते रहें। उनको तो तजा भोजन कराना ही पड़ेगा।जो सुधरना चाहता है, वैसी सुधरेगा, इन लडको पर भी कृपा बनाये रखियेगा। आप चारो का इतना सुंदर व्याह करा के ले आये । दान करते रहो, तेरा ही दिया मैंने खाया पिया है, तेरा शुक्रिया है, तेरा शुक्रिया है। सीता राम राम राम राम सीता राम राम राम राम।हर समय केवल प्रशंशा करने की आदत डालो। नेता की भी बुरे मत करो। हर समय रक दुसरे की वंदना करिये. सब की प्रशंशा करो। वामदेव ने विश्वामित्र की प्रशंशा किये। किसी में बुरा मत देखो।

' आचार्य शंकर और माया ' /कहानियों में वेदान्त [14]

' आचार्य शंकर और माया ' 
आचार्य शंकर ब्रह्मज्ञानी थे। केवल आठ वर्ष की आयु में ही समस्त शात्रों का अध्यन करके, सन्यास ग्रहण करने के लिए घर छोड़ दिया था।   यह बात जगत प्रसिद्ध है, कि उसके बाद तीन वर्ष तक साधना करने बाद उनको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया था।
इस जगत में शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र सत्य वस्तु है। एक शक्ति के प्रभाव में आकर ही हमलोग उस शुद्ध चैतन्य को विभिन्न रूपों में देखते हैं और उसी को जगत समझते हैं। जैसे जब हमलोग स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय सब कुछ सत्य ही प्रतीत होता है। नींद टूट जाने के बाद ही यह समझ में आता है, कि जो कुछ देख रहा था, वह सत्य नहीं था। जिस शक्ति के प्रभाव में वह सब देख रहा था, वह शक्ति या उसका प्रभाव उस समय कुछ भी नहीं रहता। इसीलिये जाग्रत अवस्था में वह शक्ति भी मिथ्या प्रतीत होती है।
आचार्य शंकर ने वेदान्त की बातों को इसी रूप में प्रचार किया है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य वस्तु है, किन्तु ज्ञान प्राप्त होने के पहले मायाशक्ति के प्रभाव में आकर उसी (ब्रह्म) को जगत के रूप में देखते हैं। जिस क्षण यह भ्रम टूट जाता है, तब दिखाई देता है, कि न तो जगत का अस्तित्व है, न माया का। एकमात्र शुद्ध शश्वत चैतन्य के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसीलिये माया की सत्यता को ' सर्वकालीन सत्य ' के रूप में स्वीकार करने की कोई बाध्यता नहीं है।  
किन्तु श्रीरामकृष्णदेव आचार्य शंकर की तरह इस सत्य की उपलब्धी करने के बाद, माया-शक्ति को इस दृष्टि से नहीं देखते थे। वे कहते थे, ' जिस प्रकार ब्रह्म सत्य है, उसी प्रकार उसकी शक्ति भी सत्य है।'
वे कहते थे, " एक अवस्था में ब्रह्म और उनकी शक्ति मिल जाते और एक बन कर रहते हैं, उस समय शक्ति का आविर्भाव नहीं रहता; एक दूसरी अवस्था में शक्ति का आविर्भाव रहता है। "
कहा करते, " साँप जब कुण्डली मार कर सोया रहता है, उस समय भी साँप है, और जिस समय वह चलता-फिरता रहता है, तब भी साँप ही होता है। साँप जिस समय चुपचाप पड़ा रहता है, उस समय हमलोग यह नहीं कह सकते कि तब उसमें चलने की शक्ति नहीं होती।"
वे कहते थे, " ब्रह्म और उनकी शक्ति अभिन्न हैं। ठीक वैसे ही जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति, या मणि और उसकी ज्योति अभिन्न हैं।" मणि का स्मरण होते ही उसकी ज्योति की बात का भी स्मरण हो आता है। ज्योति के बिना हमलोग मणि की कल्पना भी नहीं कर सकते। उसी प्रकार मणि के बिना उसकी ज्योति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे कहते थे, " जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं; वेदों में जिनको ब्रह्म कहा गया है, तंत्रों में उन्हीं को काली कहा गया है, फिर पुराणों में उन्हीं को कृष्ण कहा गया है। "
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " ज्ञान प्राप्त होने के पहले जगत को मिथ्या समझकर चलना पड़ता है, ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद वापस लौट आने पर यह जगत भी सत्य जैसा प्रतीत होता है। किन्तु साधारण अवस्था में (ज्ञान प्राप्त होने के पहले) हमलोग जगत को जिस दृष्टि से देखते हैं, ज्ञान प्राप्त होने के बाद इसी जगत को हमलोग दूसरी दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि ) से देखते हैं; तब वह पहले जैसा, उस प्रकार का (प्रलोभनीय) नहीं दिखता, सबकुछ चैतन्यमय प्रतीत होता है।"
 कहते थे, " छत पर चढ़ते समय, " यह छत नहीं है " कहते हुए एक के बाद दूसरी सीढ़ीयों को पीछे छोड़ते हुए उपर चढ़ना पड़ता है।  छत के उपर पहुँच जाने के बाद, यह दिखाई देता है, कि जिन वस्तुओं से छत बना है, उसी ईंट चूना-सुर्खी के द्वारा ही सीढ़ियाँ भी बनी हैं। ब्रह्मज्ञान होने से पहले ' नेति नेति ' विचार करना होता है। अर्थात यह पँच भौतिक शरीर-मन आदि ब्रह्म नहीं हैं, (क्योंकि ये अविनाशी नहीं हैं ), इसमें जो जीव  है वह भी ब्रह्म नहीं है, जगत ब्रह्म नहीं है-इस प्रकार से नित्य-अनित्य का विचार करते करते आगे बढ़ते जाना पड़ता है। ज्ञान होने के बाद स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है कि वे ही सब कुछ बने हैं।"
इस ' बोध ' में जब कोई ब्रह्मज्ञ पुरुष स्थित हो जाता है, तब इस जगत के लिये उसके प्राण रो पड़ते हैं, वे सबों को अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रेम करने लगते हैं। इसी बोध में स्थित हो जाने के बाद ही दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्णदेव अपने कमरे के छत पर चढ़कर, व्याकुल होकर रोते हुए पुकारते थे, " अरे, तुम सब युवक लोग, कौन-कौन कहाँ कहाँ पर हो? जल्दी से जल्दी मेरे पास आ जाओ रे !"
इसी अनुभूति के उपर खड़े होकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " यदि, मेरे लाख बार नरक में जाने से किसी एक व्यक्ति की भी मुक्ति होती हो, तो मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ। " लोकोक्ति है,कि इस अनुभूति को प्राप्त करने के बाद, आचार्य शंकर भी जनसाधारण को ज्ञान प्राप्ति में सहायता करने के उद्देश्य से वेदान्त के उपर भाष्य लिखने में प्रवृत्त हुए थे।
जिस समय की घटना का वर्णन हो रहा है, उस समय आचार्य शंकर को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो चुका था। और तब  वे जगत को अवास्तविक या मिथ्या के रूप में देखते थे। तब वे शक्ति को सत्य नहीं मानते थे, उनको भी स्वप्न में देखी गयी कोई कल्पना मानते थे। इसी समय एकदिन, काशी में वे गंगा-स्नान करने के बाद लौट रहे थे, घाट की सीढ़ीयों से जब वे उपर चढ़ रहे थे, तो देखते हैं- घाट की सीढ़ी पर ही एक स्त्री बैठी हुई है, सामने रास्ते के आरपार उसके पति का मृत शरीर लिटाया हुआ है। देख कर उस स्त्री से बोले, " रास्ते पर से मृत शरीर को किनारे हटा लो ।"
स्त्री बोली, " बाबा, उसको ही थोड़ा खिसक जाने के लिये क्यों नहीं कहते ? "
उस स्त्री के पागलपन को देखकर शंकर बोले, " माँ, उसके भीतर खिसक जाने की शक्ति कहाँ है? "
स्त्री ने पूछा, " क्यों बाबा, क्या शक्ति के बिना थोड़ा हिलना-डुलना भी संभव नहीं है ? "
शंकर थोडा चिढ़ कर बोले, " आप कैसी अव्यवहारिक और असम्भव बातें कह रही हैं ! कोई यदि उस शव को खिसका नहीं देगा तो वह वहां से हिलेगा कैसे ? "
स्त्री ने कहा, " असम्भव क्यों कहते हो, बाबा ! आदि-अन्त हीन यह प्रकृति यदि चेतना-शक्ति के नियंत्रण के बिना स्वयं ही क्रियाशील रह सकती है, तो फिर यह शव भी अपने आप क्यों नहीं खिसक सकता है? "
यह सुनकर शंकर तो भौंचक्के हो गये। और उसी समय उनको यह अनुभूति हुई, कि निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर उन्हें जिस ' शुद्ध-शाश्वत-चैतन्य ' की उपलब्धी हुई थी, वे ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित हैं, वे ही शक्ति हैं, वे ही चिन्मयी जगत-जननी हैं, जगत की नियंत्रि हैं।
शव और स्त्री अदृश्य हो गये। स्वयं माँ अन्नपूर्णा ही शंकर के भीतर इस अनुभूति को जाग्रत करने के उद्देश्य से स्त्री बन कर आई थीं, और बाबा विश्वनाथ शिव- शव बनकर आये थे ! 
श्रीरामकृष्ण के सन्यास-गुरु तोता पूरीजी के जीवन में भी इसी प्रकार की घटना घटित हुई थी। वे भी पहले-पहल शक्ति को नहीं मानते थे। उनके सामने बैठ कर जब श्रीरामकृष्ण ताली बजा बजा कर माँ माँ कहते हुये नाम संकीर्तन करते तो, तोता पूरीजी व्यंग से कहते थे, " तन्दूरी रोटी क्यों ठोक रहा है ? " किन्तु श्रीरामकृष्णदेव के संसर्ग में कई वर्षों तक रहने के बाद, उनको भी एकबार माँ के शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति हुई थी, जिसके बाद उनकी धारणा भी परिवर्तित हो गयी थी।
माया का प्रभाव कटने के साथ ही साथ इस प्रकार उसी क्षण हमलोगों को अपने सच्चे स्वरूप की अनुभूति हो जाती है, या यूँ कहें कि सत्यज्ञान के उद्भासित होने के साथ ही साथ कैसे माया का प्रभाव हट जाता है, उसे समझने में सुविधा के लिये कुछ कहानियों को आपने सुना।
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, ' हजार वर्षों से बन्द अँधेरे कमरे में दीपक जलाने के साथ ही साथ, इतने दिनों का जमा हुआ घना अंधकार एक ही बार में चला जाता है, धीरे धीरे करके नहीं जाता। "
     

बुधवार, 20 जून 2012

' सिंह-शावक का भ्रम टूटा ! ' [13] कहानियों में वेदान्त

' अज्ञान का शास्त्रीय नाम है माया '
ऊँचे ऊँचे पहाड़ो की गोद में समतल भूमि पर गड़रिया लोगों का बसेरा था। दिन के समय में उनकी भेंड़े मैदान में हरीभरी घास चरती रहती थीं। संध्या के समय उनको वापस लौटकर पहाड़ की तलहटी पर बने समीपवर्ती बाड़े में बन्द कर दिया जाता था। मैदान में चराते समय भी उनकी रखवाली करनी पडती थी। क्योंकि वहाँ बाघ-सिंह आदि अक्सर उपद्रव करते रहते थे। 
एकदिन दोपहर के समय भेड़ें मैदान में चर रही थीं। मैदान के दूसरे छोर पर एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी।और उस नदी के दूसरे किनारे पर वनों से आच्छादित एक पहाड़ था। उसी वन में रहने वाली एक सिंहनी बाहर निकल कर नदी के उस ओर खड़ी हो गयी। उसको देखते ही भेड़ों का झुण्ड जान जाने के डर से भागने लगा। चरवाहे की छाती भी धक-धक करने लगी। 
सिंहनी ने तुरन्त एक छलाँग लगायी, और नदी को पार करके इस तरफ आ गयी। सभी भयभीत हो गये, अब तुरन्त कोई दुर्घटना जरुर होगी ! किन्तु कुछ हुआ नहीं ? वास्तव में वह सिंहनी गर्भवती थी और आसन्न-प्रसवा थी। किन्तु वह बहुत भूखी थी, इसीलिये नदी को फांद तो गयी, किन्तु वहीं उसे बच्चा हो गया, और प्रसव देने के बाद वह मर गयी। इस अवस्था में छलांग लगाने में जो परिश्रम उसे करना पड़ा, उसे वह बर्दास्त न कर सकी।
उस सिंहनी का बच्चा भेड़ों के झुण्ड रह गया। जन्म से ही भेड़ों के झुण्ड में पलने-बढ़ने के कारण 
वह ' सिंह-शिशु ' भेड़ों की तरह ही घास चरना सीख लिया, और भेड़ों की ही तरह भें-भें करके बोलना भी सीख लिया। कुछ दिनों तक इसी प्रकार जीवन बिताने के बाद, फिर एक दिन किसी दूसरे सिंह ने आकर भेड़ों के झुण्ड पर आक्रमण कर दिया। सिंह इतने आकस्मिक और अनपेक्षित ढंग से झपटा था, की सारी भेड़ें भय से भागने लगीं। वह सिंह-शावक भी भेड़ों के साथ भय से काँपते काँपते दौड़ रहा था। किन्तु दौड़ने में सिंह से बच कर भाग कैसे सकता था ? बस एक ही छलांग में सिंह बिलकुल उसके निकट पहुँच गया। किन्तु वह सिंह इस सिंह-शावक का आचरण देखकर तो अवाक् हो गया !
कितने आश्चर्य की बात है ! सिंह का बच्चा होकर भी भेड़ों के जैसा घास खाता है, भें-भें कर बोलता है, और उसको देखकर भय से काँप रहा है ? फिर उस सिंह ने दूसरी भेड़ों का शिकार नहीं किया, और केवल उस सिंह-शिशु को ही पकड़ कर अपने साथ नदी के उस पार ले गया।  क्योंकि सिंह यह समझ चूका था, कि भेड़ों की संगत में रहने के कारण ही बच्चे की ऐसी दुर्दशा हो गयी है। वह यह बिल्कुल भूल चुका है, कि वह एक ' सिंह का शावक ' है। इस बच्चे के भ्रम को तोड़ना आवश्यक है।
सिंह ने पूछा, " अरे,तू मुझको देखकर डर क्यों रहा है ? तू जो है, मैं भी वही हूँ ! फिर तू अपने को भेंड़ क्यों समझ रहा है ? तू तो सिंह है ! अब तू भेड़ के जैसा भें-भें मत कर, मेरे जैसा गर्जन कर। " इतना कहने पर भी उस सिंह-शावक पर कोई असर नहीं हुआ। सिंह ने उसको कई प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किन्तु उसका सारा प्रयास विफल हो गया। क्योंकि उस बच्चे के मन में अपने स्वरुप को लेकर एक भ्रान्त धारणा ने अपना जड़ जमा लिया था। किन्तु उस सिंह ने हार नहीं मानी।
सिंह उस बच्चे को खींचते खींचते नदी के किनारे, जहाँ पानी था वहाँ तक ले गया। नदी के स्वच्छ-निर्मल जल में दोनों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था; सिंह और सिंह-शावक बिलकुल आस-पास खड़े थे। उसी प्रतिबिम्ब को दिखलाकर सिंह ने कहा," लो, अब देख लो; ' तू जो है मैं भी वही हूँ '। देखो, मेरा मुख हांड़ी की तरह है, तेरा मुख भी वैसा ही है न ? तुम्हारा चेहरा भेंड़ जैसा एकदम नहीं है। "
 
इस प्रकार प्रत्यक्ष देखने का परिणाम हुआ। बच्चा समझ गया- " अरे, यह तो बिल्कुल ठीक बात है, हमदोनों का चेहरा तो बिल्कुल एक जैसा है!"  अब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा मांस लाकर उसके मुख में भर दिया, और थोड़ा सा मांस स्वयं भी खाया। सिंह-शिशु को जैसे ही मांस का स्वाद चखा, फिर उसको कौन पकड़ सकता था ?
तब उस सिंह-शावक का भ्रम टूट गया, अब उसने अपने सच्चे सिंह-स्वरुप को बिल्कुल स्पष्ट रूप से पहचान लिया था। अब उसके मन में पूर्ण आत्मविश्वास लौट आया। अब वह सिंह शावक पूरे शान से दहाड़ कर गर्जन करने लगा।
इतने दिनों तक जिन भेड़ों के संग उसने समय बिताया था, उस भेड़ों की झुण्ड की ओर फिर एक बार सिर घुमाकर भी नहीं देखा, और सिंह का अनुकरण करते हुए उसी की तरह छलांग मारते हुए, अपने असली आवास ' निज-निकेतन ' - वन में लौट गया।
हम में से अधिकांश लोग सिंह के उस सम्मोहित [ Hypnotized] बच्चे के समान हैं, और विश्वास करते हैं कि हम दुर्बल और असहाय हैं। हमें स्वयं को विषय में अपनी धारणा को बदलने के लिये [De -Hypnotized होने के लिए ] एक महान ज्ञानी की जरूरत होती है। [अर्थात किसी जीवनमुक्त शिक्षक, या नवनीदा जैसे चपरास प्राप्त नेता (C-IN-C) की जरूरत होती है।] ज्ञानी लोग सामान्य लोगों में साहस तथा ज्ञान का संचार करते हैं। स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make ' में प्रशिक्षित इसी प्रकार के जीवनमुक्त शिक्षकों / मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/  का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करके व्यक्तियों और पूरे राष्ट्र को जाग्रत किया जाता है।      
जिन लोगों ने अपने सच्चे स्वरुप को जान लिया है, जो लोग समस्त ' गलत समझ की जाल ' अथवा भ्रम-जाल को सिंह-विक्रम से फाड़ कर मुक्त हो चुके हैं, वे ही दूसरों की गलत धारणाओँ का, या भ्रम का भंजन कर सकते हैं। वे लोग दूसरों को भी आत्मज्ञान दे सकते हैं, वे उनको उनका स्वरुप दिखा दे सकते हैं। उनके संस्पर्श में आ जाने से लोगों को चैतन्य होता है।
अज्ञान का जो आवरण हमारे स्वरुप को ढांक देता है, उसका शास्त्रीय नाम है माया। बाद वाले कहानियों में माया का स्वरुप पर चर्चा की गयी है। 
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मंगलवार, 19 जून 2012

" मदालसा "/कहानियों में वेदान्त/12/

' माता-पिता का जीवन उच्च आदर्श में गढ़ा होना चाहिये '
ज्ञानी जनों के मुख से निकली बातों में बहुत बल होता है। क्योंकि वे लोग स्वयं जो देखते हैं, उपलब्धी कर चुके होते हैं; वही बात कहते हैं। केवल अनुमान के आधार पर, या दूसरों से सुनकर, या पुस्तकों को पढ़ कर वे कुछ नहीं कहते हैं। इसीलिए उनकी बातों में इतनी शक्ति आ जाती है। उनकी बातें सीधा श्रोताओं के हृदय को स्पर्श करती हैं, और वहाँ अपनी एक छाप छोड़ जाती हैं।
प्राचीन काल में गन्धर्वलोक में विश्वा-वसु नाम के राजा राज करते थे। उनकी एक सुन्दर कन्या थीं। उसका नाम मदालसा था। उन दिनों पृथ्वी पर पाताल-केतु नाम का एक बड़ा पराक्रमी दानव रहता था। पतालकेतु दानवों का राजा था। उसने छल से मदालसा का अपहरण कर लिया, और अपने पाताललोक में बने हुए किले में कैद कर दिया।
उन्हीं दिनों गालव नाम के एक बडे भारी तेजस्वी ऋषि महाराज शत्रुजित् के राज्य में तपस्या करते थे। उनकी तपस्या में भी पातालकेतु बडा ही विघन् करता था। इससे ऋषि बड़े दुखी होते। एक दिन किसी दैवी पुरुष ने ऋषि को एक घोडा देते हुए कहा-भगवन्! आप इस घोडे को लीजिये, इसका नाम कुवलयाश्व है। यह आकाश-पाताल में सब जगह जा सकता है, इसे आप जाकर महाराज शत्रुजित् के राजकुमार ऋतुध्वज को दें। ऋतुध्वज इस पर चढकर पातालकेतु तथा अन्यान्य राक्षसों को मारेगा। इतना कहकर वह दैवी पुरुष चला गया। 

राजकुमार ऋतुध्वज घोड़े के रूप और गुणों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। और अपने पिता के आदेश अनुसार पतालकेतु के राज्य पर आक्रमण कर दिये और उसे परास्त करके, मदालसा को कैद से छुड़ा कर लौट आये। अपने राज्य में लौट कर उन्होंने मदालसा से विवाह कर लिया। विवाह के कुछ ही दिनों बाद ऋतुध्वज के उपर  दानवों ने पुनः आक्रमण कर दिया। यह युद्ध बहुत दिनों तक चलता रहा। युद्ध के समय शत्रुपक्ष जानबूझ कर तरह तरह के अफवाह फैला दिया करते हैं। उसमें से कौन खबर सही कौन झूठ इसका निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। दानवों ने षड्यंत्र करके ऐसी ही एक झूठी खबर को फैला दिया। वे लोग सब जगह यह कहते हुए घुमने लगे कि ऋतुध्वज यूद्ध में मारे गये हैं। रानी मदालसा बहुत चिन्तित होकर राजभवन में समय काट रही थीं। यह समाचार उड़ते उड़ते उनके कानों तक भी पहुँच गया। अपने पति के शोक में वे अत्यधिक उद्विग्न रहने लगीं। और अन्त में शोक नहीं सह सकने के कारण उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया।
इधर कुछ दिनों बाद दानवों को पराजित कर ऋतुध्वज राजधानी में लौट आते हैं। बड़ी आशा के साथ यह आनन्द-समाचार मदालसा को सुनाने जब वे राजभवन पहुँचे, तो मदालसा के इस प्रकार प्राण त्याग देने का समाचार सुनकर एकदम मूर्छित हो गये हैं। मदालसा को याद करके उनका हृदय शोकाकुल हो गया। यूद्ध में विजय प्राप्ति से प्राप्त होने वाले आनन्द उल्ल्हास के बदले राजधानी में विषाद की काली छाया उतर आई थी। पत्नी के शोक में आहार-निद्रा का त्याग दिये, और लगभग पागलों जैसी हालत उनकी हो गयी।
उनके पड़ोसी राज्य के राजा नागराज  ऋतुध्वज के परम मित्र थे। राजा की अवस्था को देखकर वे बड़े चिन्तित हुए। अपने मित्र का दुःख दूर करने की इच्छा से नागराज हिमालय जाकर तपस्या में लीन हो गये। इस आशा से वे तपस्या में रत हुए कि यदि उनकी तपस्या से शिवजी प्रसन्न हो गये तो शायद वे कोई उपाय निकाल देंगे।और उपाय भी निकल गया ! भगवान शिव उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर उनको दर्शन दिए और उनकी कामना को पूर्ण कर दिये। शिवजी के वरदान से मदालसा अपना पहले जैसे ही रूप और यौवन को लेकर वापस लौट आई। नागराज उनको लेकर राज्य में लौटे और उनको ऋतुध्वज के हाथों में सौंप दिया। किसी मृत व्यक्ति के इस प्रकार पुनः लौट आने की बात तो कल्पना से भी परे है। किन्तु ऋतुध्वज के आनन्द की सीमा नहीं थी। नागराज के उद्योग से मृत्युञ्जय शिवजी की कृपा से ऋतुध्वज को मदालसा पुनः मिल गयी और ऋतुध्वज सुखपूर्वक रहने लगे।
मृत्यु के बाद दुबारा उसी शरीर में वापस लौट आने के कारण मदालसा के मन का अज्ञान मिट चुका था। जीवन का सार तत्व, इसका चरम तत्व, उनको ज्ञात हो चुका था। किन्तु इस बात को वे किसी के सामने प्रकट नहीं करती थीं। जैसे साधारण लोग जीवन यापन करते हैं, उसी प्रकार वे भी अपना जीवन यापन करती थीं। किन्तु  ज्ञान की बात केवल अपने पुत्रों को ही सुनाती थीं। अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
यह कल्पित नाम ' विक्रान्त ' तो तुझे अभी मिला है।  तुम्हारा (आत्मा का)  न तो जन्म है, न मृत्यु। तुम भय, शोक, आदि दुःख से परे हो। शरीर के भीतर तुम हो, किन्तु तुम शरीर नहीं हो।  तुम हो मेरे लाल, निरंजन ! अति पावन निष्पाप ! अमित है तेरा प्रताप ! 
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि
वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।   तुम्हारा शरीर जैसे एक दिन जन्मा है, उसी प्रकार एकदिन नष्ट भी हो जायेगा। जिस प्रकार पुराने वस्त्र फट जाने पर लोग उसको त्याग देते हैं, शरीर का त्याग भी ठीक वैसा ही है। शरीर नष्ट होने से तुम्हारा कुछ नहीं नष्ट होता।  तुम तो आनन्दमय आत्मा हो; फिर किस लिये रो रहे हो ?

त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: ॥
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला (शरीर और मन) षड रिपुओं काम,क्रोध,लोभ, मद,मोह मात्सर्य आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) ।

तातेति किंचित् तनयेति किंचि-
दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई यह मेरा है कहकर अपना माना जाता है और कोई मेरा नहीं है इस भाव से पराया माना जाता है। किन्तु ये सभी भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, कंकाल के हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है। और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस स्त्री शरीर पर अनुराग करता है, उस युवती स्त्री के शरीर में आसक्त होकर पाशविक विचारों से ग्रस्त रहना  क्या नरक की अवस्था में रहने जैसा  नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे
देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
    पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।

मदालसा को कालान्तर में दो पुत्र और हुए और उन दोनों को भी महारानी ने बाल्यकाल से ही ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया ,और वे तीनों ही निवृत्ति मार्गी ( संसारत्यागी) संन्यासी बन गये।  वे तीनों भाई राज्य छोड़कर कठोर साधना करने लगे।
भारत में मनुष्य जीवन को १०० वर्षों का मानकर उसे चार आश्रमों में बाँटा गया है -१. विद्यार्थी का जीवन जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। २. विवाहित गृहस्थ का जीवन जिसे गृहस्थ आश्रम कहते हैं। ३. रिटायरमेंट के बाद समाज में चरित्रनिर्माण कारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाले लोक-शिक्षक का जीवन जिसे  वानप्रस्थ आश्रम कहते हैं। ४. प्रवृत्ति मार्ग से चलते हुए किन्तु मनुमहाराज के उपदेश 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' का श्रवण,मनन निदिध्यासन करते करते पूर्णतया त्यागी जीवन -निवृत्ति मार्ग में उन्नत हो जाना, उसे  संन्यास आश्रम कहते हैं। किन्तु महारानी मदालसा ने अपने तीनों पुत्रों को बचपन से ही (ब्रह्म) ज्ञान और वैराग्य का उपदेश देकर  निवृत्तिमार्गी संन्यासी बना दिया।मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मदालसा  महाराज ऋतुध्वज की पटरानी थी। मदालसा शब्दका अर्थ ही होता है मदः अलसः यया सा मदालसा अर्थात् जिनके कारण मद नीरस हो जाता है वे हैं मदालसा। माँ मदालसा ने यह प्रतिज्ञा की थी कि उनके गर्भ में जो बालक आ जाएगा वह दुबारा किसी दूसरी माता के गर्भ में नहीं आएगा।
       इसीलिये जब चतुर्थ बालक ने जन्म लिया तब महारानी उसे भी बचपन से ही जब निवृत्तिमार्ग की शिक्षा देने लगी। उस समय महाराज ने मदालसा से विनती की कि-देवि! पितृ-पितामह के समय से चले आये मेरे इस राज्य को चलाने के लिये तो एक बालक को राजा बनना ही चाहिये, अतः इसको विरक्त मत बनाइये। मदालसाने महाराजकी बात मान ली, लेकिन मदालसा ने कहा कि उसका नाम मैं रखूंगी। उसने इस पुत्र का नाम "अलर्क" रखा। जिसका अर्थ होता है मदोन्मत्त व्यक्ति या पागल कुत्ता। यह राज्य करेगा इसलिए यह राज के मद में उन्मत्त होगा व प्रजाजनों के कर से प्राप्त होने वाले संसाधनों को अत्यधिक भोगने लगेगा तो उसके पागल कुत्ते की तरह कहीं भोगी हो जाने की संभावना न हो। इसीलिये और अपने चौथे पुत्र को प्रवृत्तिमार्ग के कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग का उपदेश  इस प्रकार दिया:  
धन्योसि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों
धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा:
समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्धयानतोन्त:षडरीञ्जयेथा: ॥
मायां प्रबोधेन निवारयेथा
ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा
यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
 बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान के किसी अवतार का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना 
अन्ततोगत्वा  मदालसा ने उसे एक उपदेश भी लिखकर अलर्क के हाथ में विराजमान मुद्रिका के भीतर छिपाकर रख दिया, और कहा – “जब कोई बड़ी विपत्ति  पड़े,या संकटों से घिर जाओ तब तुम यह उपदेश पढ़ लेना।” अलर्क राजा हुए और उन्होंने गङ्गा-यमुना के संगम पर अपनी अलर्कपुरी नाम की राजधानी बनायी(जो आजकल अरैल के नाम से प्रसिद्ध है।) किन्तु अलर्क भी राज के मोह में आसक्त हो गया । माता के उपदेश को भूल गया । तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता  आये हैं । अलर्क ने नमस्कार किया और कहा ~ ‘‘आज्ञा ।’’ भ्राताओं ने कहा ~ ‘‘माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो ।’’ वह हँसने लगा और बोला ~ ‘‘तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो ? चलो, किले से बाहर हो जाओ ।’’ वे तीनों काशीराज मामा के पास गये । सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेऱ लिया । जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है । वह उदास हो गया। तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला । उसमें माता ने लिखा था ~ 
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि 
संसार माया परिवर्जितोऽसि।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां ! 
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् !! 
हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, संसार रूप माया से तू वर्जित अर्थात निर्लिप्त है । संसार स्वप्न के समान प्रतिभासिक सत्ता वाला है । इस मोह रूपी निद्रा से आँखें खोल । यह माता मदालसा के वचन हैं, विचार कर। 
(You are forever pure.  You are forever true.And the dream of this world can never touch you.So give up your attachment, and give up your confusion.And fly to that space that's beyond all illusion.) 

 जब अलर्क ने इस श्‍लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया; अलर्क प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग में आ गए। और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा। और ‘‘अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि’’ इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा । सेना ने रास्ता दे दिया । जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला । गुरुदेव ने अलर्क को आत्म - ज्ञान का उपदेश दे - देकर शीतल बना दिया । महाराज अलर्क उसी समय राज्य को अपने पुत्र  राजा को सुपुर्द करके वन चले गये। इस प्रकार योग्य माता मदालसा ने अपने चारों पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने भी माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया ।
मदालसा स्वयं ज्ञानी थीं, इसीलिए अपने बच्चों को भी ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बना दी थीं। उनकी बातो को सुनने से उनको चैतन्य हो गया था। मातापिता स्वयं अपने जीवन में यदि उच्च आदर्श को रूपायित कर सकें, तो उनके उपदेश को सुनने से, उनके बच्चे भी योग्य मनुष्य बन जाते हैं। खोखले उपदेशों से ज्यादा लाभ नहीं होता। 
हमारे  पूर्वज "शुद्धोसि  बुद्धोसि निरंजनोसि   मैं शुद्ध  हूं  मैं  बुद्ध  हूं  मैं  निरंजन  का  स्वरूप हूं"  मैं पवित्र  हूं  और  सारे  विश्व  को  शुद्ध  बुद्ध  और  पवित्र  करने  में  सक्षम  हूं ! ऐसे  उच्च  आचरण  और  विचारों  के  स्वामी  थे।और  आज  हम  उन्हीं  के  वंशज  "हमें  छुओ  मत  हमारे  साथ  किसी  प्रकार  का  संबंध  मत  करो।  हमारे  देवता  के  मन्दिर में मत  जाओ  नहीं  तो  मैं  और  मेरा  भगवान  दोनों  नष्ट हो  नरक  में  चले  जाएंगे।  ऐसे  हीन आचरण  और  हीन  विचारों  के  दास  हैं!  

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गुरुवार, 14 जून 2012

श्रीरामकृष्ण की कुछ अनुभूतियाँ- " माँ-काली से कैसे कहूँ ?"/ कहानियों में वेदान्त/11/

1.माँ-काली से कैसे कहूँ ?
ईश्वर की ओर बढ़ने के जितने भी मुख्य मार्ग हैं, श्रीरामकृष्ण उन समस्त मार्गों से चल कर जगत के चरम सत्य तक पहुँच गये थे। उन्होंने देखा था, कि सभी मार्ग साधक को अन्ततः वेदान्तोक्त आद्वितीय सत्य में पहुंचा देते हैं। अपने स्वयं की अनुभूति के दृढ बुनियाद के उपर खड़े होकर उन्होंने घोषणा की थी, " वे साकार भी हैं, निराकार भी हैं; एवं और भी कितना कुछ हैं ! " 
" जितने मत, उतने पथ ।" 
" एक ही जल को कोई वाटर कहता है, कोई एक्वा कहता है, या कोई पानी कहता है। कोई जल को मशक में रखा है, कोई घड़े में, या किसी ने उसको अन्य किसी पात्र में रखा है। भेद केवल पात्र के नाम और रूप को लेकर ही है। सभी पात्रों में वस्तु केवल ' जल ' ही है। "
" कोई उनको गौड कहता है, कोई अल्ला कहता है, कोई उन्हीं को राम, कृष्ण आदि कहता है, या ब्रह्म कहता है। वस्तु वही एक हैं ।" 
" समुद्र का जल थोड़ा जम जाने से बर्फ बन गया है। बर्फ का आकार है, जल का नहीं है। किन्तु वस्तु ( उपादान या Stuff ) के रूप में बर्फ और जल में कोई अन्तर नहीं है, दोनों एक हैं। उसी प्रकार साकार और निराकार में भी कोई अंतर नहीं है। "
सत्य एक और अद्वितीय है, किन्तु भक्तिभाव से देखने पर कोई उनको साकार ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) के रूप में देखता है, फिर अद्वैत तत्व में पहुँचने पर वे ही निराकार ब्रह्म हैं। श्रीरामकृष्ण के जीवन की जिस घटना का वर्णन हम यहाँ करने वाले हैं, वह घटना काशीपुर में घटित हुई थी।
उस समय श्रीरामकृष्ण के गले में कैन्सर हो गया है। बीमारी की चिकित्सा और सेवा में सुविधा को ध्यान में रख कर भक्त लोग उनको काशीपुर के एक उद्द्यान-बंगला (फ़ार्म हॉउस ) में लाकर रखे हैं। बीमारी उत्तरोत्तर बुरी खबर की ओर बढ़ती जा रही थी। नरेन्द्रनाथ समझ चुके थे कि श्रीरामकृष्ण ने इसबार शरीर त्यागने का निश्चय कर लिया है, यह बीमारी अब अच्छी नहीं होने वाली है। किन्तु उनके बिना, वे स्वयं रहेंगे कैसे ? क्या अब कुछ नहीं किया जा सकता है ?
इसी बीच एकदिन एक पण्डित श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आते हैं। वे श्रीरामकृष्ण से अनुरोध
करते हैं, " यदि आप अपने शरीर के उपर थोड़ी देर भी मन को एकाग्र करलें तो आपकी बीमारी अच्छी हो जाएगी। योगी लोग तो इच्छा मात्र से अपने शरीर के रोग को अच्छा कर सकते हैं। "
यह सुन कर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, " वह सब तो ठीक है, किन्तु जिस मन को मैंने एकबार भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है, उसको वहाँ से वापस लौटा कर इस हाड़-मांस के पिंजरे के उपर मैं कैसे निवेशित कर सकता हूँ ? इस शरीर को तो मैं सदासे तुच्छ और नगण्य मानता आया हूँ। "
पण्डित जी के अनुरोध का भी उनके उपर कुछ असर नहीं हुआ।
नरेन्द्रनाथ भी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने सबकुछ सुन लिया था। यह सुन कर उनकी बुद्धि में एक उपाय कौंध जाता है। माँ-काली तो श्रीरामकृष्ण की सब बातें सुन लेती हैं। नरेन्द्रनाथ ने स्वयं इसका प्रमाण प्राप्त किया है।  उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि माँ से कह कर ही कोई जुगाड़ (प्रबन्ध) करना होगा।
यह विचार मन में उठने के साथ ही साथ, वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में गये। और बोले-" महाशय, माँ-काली से कह कर अपनी बीमारी ठीक करवा लीजिये। आप माँ एक बार भी कह दीजियेगा, तो माँ आपकी बीमारी ठीक कर देंगी। "
श्रीरामकृष्ण बोले- " यह तो तू ठीक ही कह रहा है रे, किन्तु माँ से अपनी बीमारी की बात कहते समय वह बात  मुंह में ही अटक जाती है ! बीमारी ठीक करने का अनुरोध तो मैंने आज तक किया ही नहीं है। इस तुच्छ शरीर की रक्षा करने बात भला मैं माँ से कह भी कैसे सकता हूँ ? "
किन्तु नरेन्द्रनाथ तो छोड़ने वाले नहीं थे, बोले-" मैं वह सब नहीं जानता हूँ, महाशय। आप अपने लिए भले मत कहिये; किन्तु हमलोगों के लिये, आपको कम से कम एकबार तो माँ से यह बात कहनी ही होगी। "
श्रीरामकृष्णदेव नरेन्द्रनाथ से बहुत प्रेम करते थे। इसीलिये उनके इस स्नेहपूर्ण ज़िद को टाल नहीं सके। वे तो जानते थे, कि मेरा शरीर छूट जाने के बाद इन लड़कों को असहनीय दुःख होने वाला है!
 इसीलिए बोले, " अच्छा, कोशिश करके देखूँगा; यदि बोल पाया तो कह दूंगा। " थोड़ी देर बाद नरेन्द्रनाथ पुनः उनके कमरे में वापस आ गये और पूछा, " माँ से पूछे कि नहीं?"
ठाकुरदेव ने कहा, " हाँ कहा तो था। मैंने कहा, ' माँ मैं गले की इस बीमारी के कारण कुछ खा नहीं पा रहा हूँ, जिससे दो-चार कौर खा सकूँ, ऐसा कोई उपाय कर दो। " यह सुनकर माँ ने तुम सबों को दिखलाते हुए
कहा, ' क्यों, इतने सारे मुख से खा तो रहा है !' सुन कर मैं तो लज्जा से मानों मर ही गया। सोचा, मैं आखिर तुम्हारी बातों में आकर माँ से यह बात कहने ही क्यों गया ! "  
इस कथोप-कथन के उपर चिन्तन करने से, यह बात समझ में आ जाती है कि श्रीरामकृष्ण कितने स्पष्ट रूप से सबों के भीतर स्वयं को प्रत्यक्ष देख पाते थे ! सबों के भीतर विद्यमान रहकर वे ही तो सबों के मुख से खा रहे हैं ! और इसी अनुभूति में निरंतर लीन रहते हुए भी, केवल कुछ क्षणों के लिये स्वयं को सबसे अलग मान कर ' खा नहीं पा रहा हूँ ' कहने के लिये, मानो कोई बहुत बड़ी गल्ती कर दिए हों; कितना अधिक लज्जित महसूस किये थे !
दूसरा दृष्टान्त: हरी दूब पर चलने से कष्ट  
दूसरी घटना दक्षिणेश्वर की है। श्रीरामकृष्णदेव अपने कमरे के सामने वाले बरामदे में बैठे हैं। सामने घास से ढंका हुआ मैदान है। छोटे छोटे और हरे दूब की घास का मानो किसी ने एक कारपेट ही बिछा रखा हो। 
अचानक देखते हैं, कोई व्यक्ति उसी घास को रौंदता हुआ चला जा रहा है, देखते ही कष्ट से अधीर हो उठते हैं। उस समय वे उस कोमल दूबों के भीतर जो चैतन्य है, उसके साथ अपने एकत्व का अनुभव कर रहे थे। इस प्रसंग के उपर चर्चा करते समय बाद में उन्होंने कहा था- " उस समय ऐसा प्रतीत हुआ, मानों कोई मेरी ही छाती को रौंदता हुआ चला गया हो।"
तीसरा दृष्टान्त: " माँझी के पीठ का निशान  "
दक्षिणेश्वर की एक एन घटना भी है। एकदिन किनारे बैठकर श्रीरामकृष्णदेव गंगा-दर्शन कररहे हैं। कल कल करती नदी बहती चली जा रही है। नदी के उपर कितनी ही नावें तैर रही हैं। हठात तट के किनारे खड़ी एक नौका में दो माझियों के बीच किसी बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया।
 धीरे धीरे उनका झगड़ा बढ़ने लग गया। उसके बाद एक समय अपने को नहीं संभाल सकने के कारण एक मांझी ने दूसरे के पीठ पर इतने जोर का थप्पड़ जड़ दिया, कि उसकी पांचो उँगलियों का दाग दूसरे मांझी के पीठ पर उखड़ गया।
इधर तट पर बैठे श्रीरामकृष्णदेव पीड़ा से चीख पड़े। उनकी चीख को सुनकर ह्रदय दौड़ कर उनके पास आये। ह्रदय श्रीरामकृष्ण के भगना थे, वे दक्षिणेश्वर में रहकर ही, श्रीरामकृष्ण की सेवा करते थे। नजदीक आकर देखे कि श्रीरामकृष्ण पीड़ा से रो पड़े हैं, और उनकी पीठ पर पांच उँगलियों के काले निशान उभर आये हैं।
हृदय बहुत क्रोध से भरकर, आँखें लाल करके पूछे, ' मामा, आपको किसने मारा है; एकबार जरा उसका नाम तो बताइये ? ' उनका भाव था कि अभी उसका बदला निकाल लेंगे।
किन्तु जब उन्होंने सुना कि उनके शरीर पर किसी ने चोट नहीं पहुंचाई है, बल्कि गंगा के उपर नौका में बैठे मांझी के पीठ पर लगा थप्पड़ उनके मन और शरीर को इतना आहत कर गया है। हृदय यह सुन कर स्तब्ध होकर खड़े रह गए। दूसरे के साथ एकात्मबोध का इतना बड़ा अकाट्य प्रमाण उनहोंने आजतक कभी देखा ही नहीं था !
इस विषय पर श्रीरामकृष्ण द्वारा कथित एक कहानी सुनाने के बाद हमलोग दूसरे प्रसंग पर आयेंगे।
किसने मारा है ? 
एक छोटा सा गाँव था। छोटी छोटी झोपड़ीयों में ग्रामवासी रहते थे। उनकी खेतों में यथेष्ट धान की उपज होती थी, आलू-सब्जी आदि खाने-पीने की लगभग सभी चीजें वहाँ पर्याप्त मात्र में हो जाती थीं। गाँव के तालाब के किनारे एक बड़ा सा आम का बगीचा था, इसके साथ साथ नारियल के पेड़, बैर और अमरुद आदि के पेड़ की भी कमी नहीं थी। ग्रामीण लोग थोड़े में ही सन्तुष्ट रहना सीख गए थे, इसीलिये इन सब की सहायता से ग्रामीणों का पारिवारिक जीवन खुशहाली से बीत रहा था। 
पंछियों के कलरव और सुबह-शाम के शीतल-मंद पवन के साथ आनन्द के लहर पर उनका जीवन स्वछन्द गति से बहती हुई किसी स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई छोटी सी नदी के समान नाचते-हँसते व्यतीत होता था। गाँव में ही एक मठ (गुरुद्वारा) भी था, जिसमें एक महन्त के आधीन साधुओं की मण्डली रहा करती थी। ग्रामवासी लोग बिल्कुल सहज और सरल स्वाभाव के होते हैं, वे लोग भगवान पर अविश्वास करना सीखे ही नहीं हैं।इसीलिए मौका मिलते ही मठ में आकर इन सरल आनंदमय साधुओं के संग का जी भर कर सत्संग का आनन्द उठाते थे। कई प्रकार की कहानियां, विभिन्न विषयों पर चर्चाएँ, कई तरह की विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था।
अचानक एकदिन इस आनन्द के हाट में, विषाद पूर्ण वातावरण पसर जाता है। गाँव में एक अनहोनी घटित हो गयी है। यहाँ के मठ के एक साधू निकट के एक ग्राम में भिक्षा माँगने के लिए गए हुए थे। उस समय वहाँ के जमिन्दार साहब एक चोर को पकड़ कर, उसे पेड़ से बांध कर बेरहमी से पीट रहे थे। पिटाई हद से अधिक बढ़ती जा रही थी। चोर को असहनीय यंत्रणा से रोते-बिलबिलाते देखकर साधू जमिन्दार को रोकने गए।
किन्तु उसका फल उल्टा ही हो गया। इसपर जमीन्दार इतने क्रोधित हो गये, कि उन्होंने उस साधू पर ही कई बार प्रहार कर दिया। साधू दर्द न सह सके और वहीँ बेहोश होकर गिर पड़े। तब उनको वहाँ वैसे ही जमीन पर गिरा छोड़ कर जमिन्दार वहां से चल दिये।
जिस ग्राम में मठ था, उस गाँव के एक निवासी किसी अन्य कार्य से उसी रस्ते से होकर गुजर रहे थे। उनहोंने देख कि उनके मठ के एक साधू बेहोशी की हालत में गिरे हुए है। उनको कुछ पता नहीं था कि साधू महाराज के साथ क्या घटना घटी है। साधू महाराज की अवस्था को देखने के बाद भागते हुए मठ में खबर दिए, " आपके आश्रम के एक साधू अमुक गाँव के लालतलाब के निकट बरगद पेड़ के नीचे वाले रास्ते पर गिरे हुए है। उनको भी होश नहीं है। "
क्या हो गया था ? बेहोश कैसे हो गये ? वह व्यक्ति बोला, " सो तो मैं नहीं बता सकता। किन्तु देखकर लगता था, किसी ने उनको बहुत मारा है। उनकी पीठ, हाथ, और पूरे शरीर पर मैंने कई जगह चोट के निशान देखे हैं।"
व्याकुल होकर सभी भागते हुए वहाँ पहुंचे। साधू उठा कर मठ में ले आये। बहुत देर तक सेवा-सुश्रुषा करने के बाद साधू को होश आया। तब एक दूसरे साधू उनको थोड़ा गरम गरम दूध लाकर उनको पिलाने लगे।
दूध पिलाते पिलाते उनहोंने पूछा, " आपको किसने मारा है? " ऐसे एक निरीह स्वाभाव के एक सज्जन व्यक्ति  को किसी ने इतनी बेरहमी से मारा है, यह देख कर वहां के ग्रामवासी बहुत क्रोधित हो गये थे। एक बार जरा उस दुष्ट का नाम तो मालूम हो जाये ? फिर उसको उचित शिक्षा जरुर दी जाएगी। इसीलिए, चाहे जिस व्यक्ति ने भी ने उनको मारा हो, सभी साधू के मुख से उस व्यक्ति का नाम सुनने के लिए, बहुत उत्सुकता के साथ उनके मुख की ओर देखने लगे।
किन्तु साधू अविचलित और निर्विकार रहते हुए हँसते हँसते बोले, " जो मुझको अभी दूध पिला रहा है, उसी व्यक्ति ने मुझको मारा भी है।"
साधू को आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) हो गया था। इसीलिए वे अब सबों के भीतर अवस्थित उसी एक आत्मा को देखते थे। उनकी भेद-दृष्टि समाप्त हो चुकी थी।
इस प्रकार के जो आत्मज्ञ महापुरुष होते हैं, वे ही दूसरों की अज्ञानता को मिटा सकते हैं। उनके उपदेशों और संसर्ग से लोगों को चैतन्य हो जाता है।       
     













           

क्या आपने भगवान को देखा है? /कहानियों में वेदान्त/ 10/

चार 
क्या आपने भगवान को देखा है ?
उस समय तक नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द ) सन्यासी नहीं बने थे, एक कॉलेज स्टुडेंट थे। उनके पिता एक नामी वकील थे, और बड़े धनी व्यक्ति थे। कोलकाता में उनका बंगला था, वहीं रहते थे। 
बचपन से ही नरेन्द्रनाथ में धर्म के प्रति अत्यन्त अनुराग था। बीच रात्री में उठ कर ध्यान करते थे। बहुत तेजस्वी और मेधावी तरुण थे। लोग उनके बारे में क्या कहते हैं, और क्या सोचते हैं, उससे बिल्कुल बेफिक्र रहते थे। आजकल के बिलकुल बिन्दास लडकों जैसे ही एक नवयुवक थे। 
वे स्वयं जिस काम को अच्छा समझते, पूरी एकाग्रता के साथ उसी कार्य को करते रहते थे। इस जगत के पीछे का चरम सत्य क्या है, उसे जानने के लिए वे उसी उम्र से कटिबद्ध थे। कॉलेज में पढाये जाने वाले विषयों के आलावा, भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन का तुलनात्मक अध्यन भी कर चुके थे। शरीरविज्ञान के उपर भी कई पुस्तकों को पढ़ चुके थे। वे एक न्याय-परायण और तर्कशील युवा थे। ब्रह्मसमाज में जाया करते थे। किन्तु जिस किसी के मुख से धर्म की कोई बात सुन कर तुरन्त उस पर विश्वास नहीं कर लेते थे। स्वयं निरिक्षण-परिक्षण करके, जाँच-परख कर, सोचने-विचारने के बाद, आवश्यक हुआ तो, स्वयं किसी सत्य की तह तक पहुँचने के बाद उसको स्वीकार करते थे। 
ऐसे तेजस्वी लड़के से कोई बात मनवा लेना बहुत कठिन होता है। उस समय के महर्षि देवेन्द्रनाथ सरीखे कई विख्यात धार्मिक नेताओं के पास जाकर प्रश्न किये थे- " क्या आपने भगवान को देखा है ? " किन्तु अभी तक " हाँ देखा हूँ ! " ऐसा सीधा उत्तर किसी ने नहीं दिया था। 
एक दिन उनके कॉलेज के प्राध्यापक हेष्टि महोदय ने छात्रो को बताया कि दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण को समाधि होती है। नरेन्द्रनाथ को जब यह ज्ञात हुआ तो वे भी उनसे मिलने की इच्छा करने लगे। एक दिन कलकत्ते में श्रीरामकृष्ण से भेंट भी हो गयी। उसके बाद वे एक दिन उनसे मिलने दक्षिणेश्वर पहुँच गए। श्रीरामकृष्ण उस समय दक्षिणेश्वर के प्रसिद्द माँ भवतारिणी के मन्दिर में ही रहते थे। उनके साथ थोड़ा परिचय होते ही प्रश्न किये- " महाशय, क्या आपने भगवान को देखा है ? "
श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, " हाँ देखा है। तुमको जिस प्रकार देख रहा हूँ, उससे भी स्पष्ट रूप में देखा हूँ। और यदि तू भी देखना चाहे, तो तुम्हें भी दिखा सकता हूँ। " इससे भी सीधा और स्पष्ट उत्तर, भला और क्या हो सकता है ? जैसा उत्तर नरेन्द्र सुनना चाहते थे, ठीक वैसा ही उत्तर उन्हें मिला था। अब वे दक्षिणेश्वर आने जाने लगे। 
कई प्रकार से और कई बार श्रीरामकृष्ण को जाँच-परख कर, नरेन्द्रनाथ इस निश्चय पर पहुंचे कि श्रीरामकृष्ण वास्तव में एक सत्य-द्रष्टा हैं। विश्व के चरम सत्य की उपलब्धी उन्हें हुई है। वे जो कुछ भी कहते हैं, स्वयं की अनुभूति के आधार पर ही कहते हैं, किसी से सुना हुआ या पुस्तकों से रटा हुआ नहीं कहते हैं। नरेन्द्रनाथ ने तय कर लिया कि इन्हीं से सत्य को प्राप्त करूँगा। 
इक दिन बातों-बातों में श्रीरामकृष्ण ने कहा- " शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र ' वस्तु ' है। वही चैतन्य जगत की सभी वस्तुओं में अनुस्यूत है। उसी चैतन्य को ब्रह्म या ईश्वर कहा जाता है। जगत में उनके सिवा और कुछ भी नहीं है। " उस समय कमरे में बहुत से लोग बैठे हुए थे। नरेन्द्रनाथ भी उनमें से एक थे। उन्होंने भी ठाकुर की बातों को सुना। किन्तु उस समय तक वे अद्वैत-तत्व में विश्वास नहीं रखते थे। ब्रह्मसमाज में आते-जाते रहते थे, इसीलिए ईश्वर के सम्बन्ध में उनकी धारणा अलग प्रकार की थी।
 इसीलिये श्रीरामकृष्ण के मुख से सुनकर भी उन्होंने अपने विश्वास को नहीं बदला। चाहे स्वयं श्रीरामकृष्ण भी कोई बात क्यों न कहें, जब तक वे स्वयं उस बात को जाँच कर नहीं देख लेते, तब तक वे अपने विचारों को बदल देने वाले लडके नहीं थे। इसीलिए वे कमरे से निकल कर बरामदे में में एक अन्य व्यक्ति के पास जाकर बैठ गए; और उसके साथ श्रीरामकृष्ण द्वारा कहे गये उसी बात की हँसी उड़ाने लगे- " देखो-देखो, वे क्या कह रहे थे ? तबतो थाली भी ब्रह्म है, और लोटा भी ब्रह्म है ! सबकुछ ब्रह्म है ! " यह कहकर दोनों हँसी से लोट पोट होने लगे।

Swami Vivekananda in Green-acre, Maine in August, 1894
अपने कमरे से ही उनकी हँसी को सुनकर श्रीरामकृष्ण उनके पास चले आये। और नरेन्द्र को थोड़ा स्पर्श करते हुए पूछा, " अभी तुमलोग बड़े जोर हँस हँस कर क्या कह रहा था जी ? " इतना पूछना ही काफी था। नरेन्द्रनाथ की हँसी रुक गयी।
परवर्ती जीवन में (विवेकानन्द बनने के बाद ) इस प्रसंग के बारे में उन्होंने कहा था- " उनके द्वारा इस प्रकार स्पर्श करते ही, मैं स्तम्भित होकर सचमुच देखने लगा, कि ब्रह्म के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ भी नहीं है.....घर में लौट कर गया, तो वहां भी यही अवस्था; जो कुछ भी देखता था, सभी कुछ वे ही बने हैं, ऐसा एकदम स्पष्ट देख रहा था। भोजन करने बैठा, तो देखता हूँ- थाली, भात, परोसने वाला, मैं, सभी ब्रह्म हैं ! .....सड़क से जाते समय देखता, सामने से गाड़ी आ रही है, किन्तु चपा जाने के भय से किनारे हटने की इच्छा नहीं होती थी। मुझे सचमुच ऐसा दिखाई देता था कि गाड़ी के रूप में जो है, मैं भी वही हूँ। ...जिस समय यह आवेश थोड़ा कम होता, उस समय यह जगत स्वप्न के जैसा प्रतीत होता !....इस भाव के उतर जाने के बाद समझा, यही है अद्वैत विज्ञान की झाँकी ! "