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सोमवार, 28 मई 2012

' विवेक-प्रयोग का महत्व '[49,50]परिप्रश्नेन

49.प्रश्न: इस संगठन के प्रत्येक भाई के भीतर महामंडल की भावधारा को कैसे संचारित किया जा सकता है? 
उत्तर : जिस प्रकार कार्य करने को बताया गया है, उसी प्रकार कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। एक पद्धति 
बता दी गयी है। उस पद्धति को सही ढंग से जीवन में उतारने का प्रयास करना होगा। जो लोग इस संगठन को
 संचालित कर रहे हैं, उनको उस पद्धति के बारे में केवल दूसरों को बताना ही नहीं चाहिए, बल्कि प्रत्येक 
सदस्य को उस पद्धति का प्रयोग अपने उपर करना होगा।
वैसा न करने से उस पद्धति को आत्मसात करना संभव नहीं होगा। आत्मसातीकरण स्वयम ही करना पड़ता है, बाहर से प्रविष्ट नहीं कराया जा सकता। 
 इसीलिए कर्मियों को वैसा परिवेश बनाना होगा, ताकि सभी सदस्य इस पद्धति का प्रयोग करते रहें। सभी
 महामंडल इकाइयों को यह दायित्व है, कि सबों के लिए ऐसापरिवेश बन जाय जिससे वे अपने जीवन में
 परिवर्तन ला सकें, वैसे परिवेश में जो लोग मन लगाकर प्रयासकरेंगे, उनके भीतर महामंडल के भाव
 संचारित हो जायेंगे। विवेक-प्रयोग का महत्व 
उनको यह समझान पड़ेगा, कि इसकी आवश्यकता क्यों है ? यदि कोई महामण्डल के पांचो काम को जीवन में उतारने की अनिवार्यता को नहीं समझ पायेगा, तो कोई उसको आत्मसात भी नहीं कर पायेगा। पहले प्रत्येक सदस्य को इसकी अनिवार्यता समझनी होगी। इसको ठीक से समझ कर स्वयं चेष्टा करनी होगी। 
50.प्रश्न : महामंडल का कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत है। अपनी सीमा से बहार रहने से भी,भावुक होकर हम किसी कार्य को करने का निर्णय ले लेते हैं, किन्तु उसमें सफल नहीं हो पाते हैं। या उसको सफल करने के  लिए जितनासमय देने की आवश्यकता होती है,उतना दे नहीं पाते, या देने से जिन दुसरे कार्यों को हमारे लिए करना उचित था, वह नहीं हो पाता है, हमलोग कहाँ गलती कर रहे हैं ?
उत्तर : कार्य बहुत से पड़े हैं, भावुक होकर अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का निर्णय करता हूँ- यही तो त्रुटी है।तुमको अपनी क्षमता का निर्णय तो करना ही पड़ेगा। तुम किस कार्य को कर सकते हो, इसे 
सोच-समझ कर ही किसी कार्य को हाथ में लोगे।जिसे नहीं का सको उसमें हाथ नहीं डालोगे। जिसको निश्चित ही कर सकूँगा, यह विश्वास हो, उसी कार्य को हाथ में लोगे। तथा यह भी देखना होगा कि जिस कार्य को मैं करूँगा उससे मेरा भला तो होगा, किन्तु दूसरों की क्षति न हो इसका ध्यान भी रखना होगा। 
 इस प्रकार से विचार न कर जैसे तैसे कार्य करते रहने को गीता में  तामसिक कर्म कहा गया है। महामंडल की पुस्तक A New Youth Movement में लिखा प्रथम लेख पढना,वहां इस बात को विस्तार से 
समझाया गया है। 
जो कमी है, वह है तामसिक कर्म करने की इच्छा। जिन कार्यों को हम तामसिक इच्छा के द्वारा संचालित 
होकर करेंगे, उसमें तो गड़बड़ी होगी ही। भावावेश में आकर कुछ कहने या करने से उसका फल अच्छा नहीं
 होगा।
विचार करके देखने से जो कार्य अपनी सीमा से बाहर लगता हो, उसे हाथ में मत लेना। जो कार्य तुम्हारी
 शक्ति-सीमा के भीतर हो, उसी में हाथ डालना। वैसा ही कार्य करना जो हमलोगों का भला करेगा, किन्तु दूसरों को उससे कोई हानी नहीं होगी। 
पहले इतना सोच-विचार करना चाहिए। उसके बाद देखना होगा, कि उस कार्य से मेरा भला होने के साथ साथ दूसरों
का भी मंगल होगा। किन्तु जिस कार्य से दूसरों का भला नहीं होता हो, उस कार्य को कभी मत करना। तुम कितना कार्य किये हो, वह बड़ी बात नहीं है, कार्य को कैसे किये हो, किस मनोभाव से किये हो वही  महत्वपूर्ण बात है। कार्य के पीछे जो उद्देश्य है, जिस मानसिकता से कर रहे हो, उसीसे तुमको कार्य का 
वस्तविक लाभ प्राप्त होगा। कितना कार्य कर चुके हो, उससे कोई लाभ नहीं होगा। 
जैसे मानलो कोई व्यक्ति ' इ......तना ' भात खा सकता है, और दूसरा आदमी है जो, उ......तना नहीं खा सकता। किन्तु कितना खा सकते हो, शरीर उस पर निर्भर नहीं करता, निर्भर करता है, कितना पचा सकते हो, उसके उपर। तुम बहुत अधिक खा लो पर वह यदि पचा नहीं सको, तो उससे शरीर को पौष्टिकता नहीं मिलेगी।पेट भी खराब हो सकता है। 
कार्य में भी वैसा ही होता है। जितना कार्य तुम सुंदर ढंग से कर सकते हो, ताकि उससे दूसरों का भी भला हो, या कम से कम दूसरों की हानि तो बिलकुल न हो, उतना ही और वैसा ही कार्य करना। इसीलिए कार्य के पीछे 
तुम्हारा मनोभाव में यदि स्वार्थ न हो, उसके पीछे सभी का कल्याण का मनोभाव हो,या जिसकार्य को करने से मैं अच्छा बनूंगा, पवित्र बनूँगा, चरित्रवान बनूंगा, मेरा हृदय उदार होगा, इसी उद्देश्य से यदि कार्य करो, 
तो वह कार्य छोटा होने से भी अच्छा फल देगा। इसीलिए ज्यादा बड़े बड़े कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म का रहस्य यही है।               

' पुनर्जन्म पर विश्वास रखने से मृत्यु का भय नहीं होता '[47,48]परिप्रश्नेन

47. प्रश्न : कुछ वस्तुएं उपरी तौर से, प्रतीयमानतः आनन्दप्रद  प्रतीत होती हैं, किन्तु वैसी चीजों को भोग करने से बाद में दुःख क्यों होता है ? 
उत्तर : कुछ ही क्यों, अधिकांश सांसारिक वस्तुएं पहले आनंदप्रद ही प्रतीत होती हैं, किन्तु बाद में पता चलता है, कि वे तो दुःखदायी थीं। इसीलिए 
संसार की अधिकांश वस्तुओं को त्याग देने योग्य वस्तु कहा जाता है। जो 
वस्तुएं पहले पहल उतनी आनन्दप्रद प्रतीत नहीं होती, बाद में उन्हीं में से अनेक वस्तुएं सच्चा सुख देती हैं। किन्तु हमारा मन आमतौर पर उन्हीं 
सांसारिक वस्तुओं की ओर अधिक आकर्षित होता है, जो उपरी तौर से सुख-भोग प्रदान करने वाले साधन दिखाई पड़ते हैं। हमारा मन इन्द्रिय सुखभोग के वस्तुओं की ओर  आकर्षित होते होते हमें भोग-परायण बना देता है, इसीलिए हमलोगों को जीवन में दुःख ही अधिक भोगना पड़ता है। 
तुमने पूछा है, वैसी चीजों (जो देखने में आपातमधुर प्रतीत होती हैं ) से 
दुःख होता ही क्यों है? इस क्यों का उत्तर है- ' माया नटी ' ही यह कर रही है ! माया ने जगत में भ्रम की उपत्ति कर रखी है, मोह- निद्रा में 
हमलोगों को अचेत बना दिया है, इसीलिए हमलोग आपातमधुर वस्तुओं 
की ओर बरबस आकृष्ट हो जाते हैं, और अंत में दुःख पाते हैं।
[ श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं- "Remember that dayA, compassion, and mAyA, attachment,are two different things. Attachment means the feeling of 'my-ness' towards one's relatives.  

Compassion is the love one feels for all beings of the world.It is an attitude of equality. MAyA also comes from God.
 Through mAyA, God makes one serve one's relatives.But one thing should be remembered: 

mAyA keeps us in ignorance and entangles us in the world, whereas dayA makes our hearts pure and gradually unties our bonds." ]
  इसीलिए हमें पहले अपने चरित्र में धैर्य के गुण को अपना कर, अपने मन को विवेकी बनाने का अभ्यास करना होगा। जो धीर (बुद्धिमान या सोच-विचार कर कार्य करने वाले ) विवेकवान हैं- वे पहले अपने
विवेक प्रयोग करके अपने औचित्य-बोध से देख लेते हैं, कि किस वस्तु से परिणाम में क्या मिलने वाला 
है?अंत में आनंद मिलेगा या दुःख मिलेगा ? इसी ' विवेक-प्रयोग ' की शक्ति को प्राप्त कर लेना मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा  कर्तव्य है।
 यह प्राप्त कर लेने से उपरी तौर से मधुर लगने वाली वस्तुओं को दूर से ही पहचान कर, यदि उनको ग्रहण करने का प्रयास ही नहीं किया जाय, दूर से ही विष के समान जान कर उन्हें देखते ही त्याग दिया जाय तो बाद में दुःख पाने की सम्भावना नहीं रहेगी। 
विवेक-प्रयोग से ही ' माया-नटी ' भागती है।
48. प्रश्न: पुनर्जन्म में विश्वास करने के बाद भी, हममें से अधिकांश लोगों को  मृत्यु से भय क्यों  होता है ?         उत्तर : पुनर्जन्म में विश्वास करने - का तात्पर्य क्या है ? इस बात पर भरोसा नहीं है, इसीलिए कहते हैं, 
हम विश्वास करते हैं। बुढ़ापा आएगा, रोग आयेगा, उसके बाद मृत्यु आएगी। उससे भी छुटकारा नहीं होगा, 
फिर से जन्म लेना होगा। इसी पुनर्जन्म के भय को हर समय सिर पर लेकर घूमते रहते हैं। पुनर्जन्म में 
विश्वास करते हों, वैसी बात नहीं है।
मैं जन्म लूँगा, या मर जाऊंगा उसमे क्या रखा है ? मैं यह शरीर नहीं आत्मा हूँ - ऐसा विश्वास बहुत कम 
लोगों में रहता है। यह विश्वास जिसमें है,उसको मृत्यु का भय नहीं होता है। गीता में जिस प्रकार 
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं- कि तुम्हारे और मेरे इसके पहले भी कई जन्म हो चुके हैं, तुम्हें वह सब याद नहीं है, किन्तु मुझे वे सब जन्म याद हैं। फिर तुम भय क्यों करते हो ? यदि मरना निश्चित ही है, तो वीर की तरह मरो। और यदि जीवित रहना है, तो सम्मान से जीओ !
 यदि हमलोग सचमुच पुनर्जन्म में विश्वासी हों,तो हमलोग बिलकुल भिन्न श्रेणी के मनुष्य होंगे।हमलोग पुनर्जन्म मानते हों या नहीं, किन्तु 
यह तो सभी लोग जानते हैं कि जन्म लेने से एक दिन मरना भी होगा- यह जानते हैं, इसीलिए तो भय होता है। पुनर्जन्म की बात को छोड़ दें, और एक बार जन्म  लूँगा,  यह तो बाद की बात है।किन्तु अभी हमलोग हर
 समय इसी बात से चिंताग्रस्त हैं कि, जब जन्म लिया हूँ तो क्या सचमुच मुझे भी एक दिन यह सब धन-दौलत, स्त्री-पुत्र आदि छोड़ कर यहाँ से चला जाना पड़ेगा ?

 हाँ, यह और बात है, कि बीच बीच में इस बात को हमलोग भूल जाते हैं। मृत्यु को भूल जाने के कारण ही हमलोग यह सोचते रहते हैं कि चाहे जैसे भी हो, गलत-सही जिस उपाय से भी हो, रुपया-पैसा का ढेर खड़ा कर लिया जाये। जब धन-दौलत बहुत होगा, तभी तो छप्पन-भोग खाने को मिलेगा, खूब खाऊंगा, खूब भोग करूँगा जीवन के मजे लूट पाउँगा,यह होने से सबकुछ मिल जायेगा। ऐसा कब सोचता हूँ ?  जब यह भूल जाता हूँ  कि 
जन्म लेने से ही मरना पड़ता है।
इसी जीवन में अभयता प्राप्त की जा सकती है।  हमलोग आनन्द के साथ घोषणा कर सकते हैं, कि एक दिन यदि मर भी जाऊँगा - तो उसमें भय की
 क्या बात है !  यह कैसे हो सकता है ?जब हमलोग यह जान जायेंगे कि आखिर इस जगत में जीवन धारण करने का लक्ष्य क्या है ? समस्त जीवन-क्रम का तात्पर्य क्या है, इसका  वास्तविक उद्देश्य क्या है-
इसे समझ लेने से यह संभव हो सकता है। " मैं यह जानता हूँ कि
मैं शरीर-मन का जड़ पिंड नहीं, अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हूँ ! " यह विचार मन में दृढ़ता से बैठ जाये, तो मौत के भय को भी जीता जा सकता है।
 डार्विन के  क्रम-विकासवाद  को  यदि  भारतीय  आधयात्म के दृष्टि  से समझने  की चेष्टा करें  तो  उसमें  वर्णित जीवन-क्रम के उद्देश्य  की  व्याख्या  क्या होगी ? 
 
यही, कि मनुष्य क्रमशः उन्नत हो रहा है, उसका विकास क्रमशः होना ही संभव है, (क्योंकि सामान्य मनुष्य  भूलें करके ही सीखता है।) और इस प्रकार वह क्रमशः महान बनता जा रहा है, वह क्रमशः उत्कृष्टतर बनता जा रहा है। एवं यह क्रमविकास, या क्रमोन्नति एक ही जन्म में संभव नहीं होती  है। किन्तु इसमें डरने का कोई कारण नहीं है।{ महामंडल पुस्तिका " विवेकानन्द-दर्शनम " में कहा गया है - 


" After all, this world is a series of  pictures. this colourful conglomeration expresses one idea only. Man is marching  towards perfection ! 
That is 'the great interest running through.We are all watching the making of men, and that alone. "

-अर्थात यह जगत सतत परिवर्तनशील चित्रों की एक श्रृंखला मात्र है। इसकी सतरंगी छटा केवल एक ही उद्देश्य को अभिव्यक्त कर रही है-' भ्रम और भूलों को त्यागता हुआ  ' मनुष्य ' क्रमशः' पूर्णता ' की ओर अग्रसर हो रहा है !' इस ' जगत और जीवन ' के चित्रों में यही महान-भाव 
छिपा हुआ है, हमलोग इसके माध्यम से केवल मनुष्य निर्माण होता हुआ 
देख रहे हैं। "

गीता (2/16) : स्वयं को मात्र एक ' शरीर-मन बद्ध जीव ' - मान कर, हमलोग जिसे जाग्रत अवस्था समझते हैं, वह ' तुरीय ज्ञान ' की अपेक्षा 
एक विराट स्वप्न ही तो है ! जब हम ' सच्चिदानन्द ' से साक्षात्कार की 
अवस्था में ' ऐक्य ' की अनुभूति करते हैं, तब यह ठोस दिखने वाला संसार ' सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी ' सब कुछ असत ही प्रमाणित होता है। 
इसीलिए तो स्वामीजी कहते हैं- " हे सखे ! तुम रो क्यों रहे हो ? सब शक्ति तुम्हीं में है। हे भगवन ! अपना ऐश्वर्यमय स्वरुप विकसित करो। ये तीनो लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड़ की कोई शक्ति नहीं प्रभाव तो आत्मा का ही होता है।"" हे नर-नारियों ! उठो ! आत्मा के साथ स्वयं की 
अभिन्नता को जानकर ' सत्य ' में अविचल रहने का साहस करो ! संसार 
को कई सौ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है। "}  
  हमलोगों का पुनर्जन्म होता है, फिर एक जन्म ग्रहण करूँगा। इस जन्म 
में जहाँ तक उन्नत हुआ हूँ, वहां से और भी उत्कृष्ट जीवन गठित कर सकूँगा। इसके बाद वाले जन्म में इससे और अधिक उन्नति कर 
सकूँगा।
 
क्रमशः उन्नति करते करते पूर्णता प्राप्त कर लूँगा। यदि पुनर्जन्मवाद पर पक्का विश्वास हो, तो मृत्यु का भय नहीं रहता है। बल्कि हमारा 
हृदयअनिवार्य रूप से पूर्णता प्राप्त करने के उमंग से सदैव आल्हादित 
रहता है ! विवेक-प्रयोग से ही ' माया-नटी ' भागती है, और मनुष्य क्रमशः पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। 

" नया युग-नया धर्म, नया भगवान-नया वेद ! "[45,46]परिप्रश्नेन

45. प्रश्न : श्रीरामकृष्णजी तो स्वामी विवेकानन्द के गुरु थे, फिर भी यहाँ विवेकानन्द के उपर ही अधिक जोर क्यों दिया जाता है ? 
उत्तर :   सुनो एक सच्ची घटना कहता हूँ। कोई युवक रामकृष्ण मिशन में भर्ती होने के लिए गया था। उससे प्रश्न किया गया-' क्या तुम इस विषय में कुछ जानते भी हो ? क्या पढ़े हो ? उत्तर में युवक ने कहा, रामकृष्ण-वचनामृत पढ़ लिया हूँ। तब उससे कहा गया, ' नहीं, केवल वचनामृत पढ़ लेने से कोई संत नहीं बन सकता है। तुम स्वामीजी की पुस्तकों को पढो।'  
वह युवक सोचने लगा- 'मैंने वचनामृत पढ़ लिया है, ये कहते हैं, ' वचनामृत पढने से भी संत नहीं बना जा सकता है,स्वामीजी की पुस्तकों को पढना होगा ? ' यह सुनकर उस लड़के के मन में जब बहुत संदेह हुआ, तो प्रश्न करने से वह समझ पाया कि ' वचनामृत ' पढने से तो सीधा ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है,संत बनने की आवश्यकता ही नहीं होती।
स्वामीजी की पुस्तकों को पढने से सन्यास शब्द का सच्चा अर्थ समझ में आता है। दूसरों के कल्याण के लिए अपने जीवन को न्योछावर करने की विधि सीखी जाती है। और मुक्ति ? ' कथामृत ' पढने से, ठाकुर के उपदेश का अनुशरण करने से, मुक्ति हो जाती है। और कोई साधना करने की आवश्यकता  नहीं होती।  
किन्तु इससे बढकर प्रभु-कृपा और कुछ भी नहीं कि मेरा जीवन जगत के  मनुष्यों के कल्याण के लिए समर्पित हो जाय। यही है स्वामीजी के संदेशों का सार।
हमलोग इतना अधिक  'स्वामीजी -स्वामीजी ' इसी लिए करते  रहते हैं, कि यदि उनके एक-दो संदेशों को भी हम अपने जीवन में उतार सकें,तो हमलोग  हँसते हँसते अपनेजीवन को आसानी से
 दूसरों के कल्याण के लिए न्योछावर कर  देंगे। स्वामीजी ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है- जो अपनी 
मुक्ति की चेष्टा करेगा, वह नरक में जायेगा। दूसरों की मुक्ति की चेष्टा करके नरक में जाना अपनी मुक्ति प्राप्त करने से अधिक श्रेयस्कर है। 
तुम लोग ऐसी बातों को सुन पा रहे हो, जिन लोगों ने स्वामीजी को पढ़ा है वे भी जानते हैं, किन्तु जगत के सामान्य मनुष्यों ने यह सब सुना ही नहीं है, धर्म के इतिहास को उन्होंने सुना ही नहीं है। क्योंकि  स्वामीजी का धर्म प्रचलित या पुराने ढंग का हिन्दू-धर्म नहीं है। प्रचलित धर्मों में बहुत हुआ तो इहलोक
 का भोग या संसार की वस्तुओं को पाने की बातें होती हैं। या परलोक (स्वर्ग-नरक) के भोग की बातें हैं।
 किन्तु यह नया (सनातन) धर्म सचमुच हमारी अन्तस्थ सत्ता (पक्का मैं) को खींच कर  बहार निकाल लाता है। यह धर्म (चरित्र )पशु को मनुष्य में तथा मनुष्य को देवता में परिणत 
कर देता है। अच्छा तुम यह बताओ कि तुम देवता किसे समझते हो ? 
 
 ठाकुर का जीवन,माँ के जीवन को देखो,क्या इनके जीवन से बढ़कर अन्य किसी भी देवता का जीवन हो
 सकता है ? जो अपनी अंतिम निःश्वास तक मनुष्य के कल्याण के लिए लिए हैं। माँ सारदा देवी ठाकुर के सम्बन्ध में कहती थीं- ' वे (ठाकुर) मनुष्यों के कल्याण के लिए अंतिम समय तक मुख से रक्त निकलने पर भी उपदेश दिया करते थे। सचमुच, देवता और किसको कहा जा सकता है ? 
इसका नाम है-धर्म। पशुभाव सम्पूर्ण रूप से चला जायेगा। सभी प्रकार की संकीर्णता सम्पूर्ण रूप से 
दूर हो जाएगी। इसीलिए स्वामीजी कहते हैं-  " नया युग-नया धर्म- नया भगवान-नया वेद ! "   सब कुछ पूरी तरह से नया बना लेने की आवश्यकता है।वर्तमान समाज और देश में परिवर्तन  लाने के लिए, आज  इसी स्वामीजी के जीवन और सन्देश की आवश्यकता है। ऐसा धर्म और कहीं सुने हो ? 
आज भी जो यह नहीं समझेंगे कि " जगत कल्याण "  के लिए, भगवान श्रीरामकृष्ण का ही कार्य स्वामीजी के माध्यम से हो रहा है, जो लोग यह नहीं समझेंगे (कि आज भी स्वामीजी ही ठाकुर के कार्य को करने के लिए हजारो हजार मनुष्यों को प्रेरित करने में लगे हुए हैं;) वे अभागे  मनुष्य हैं।
किन्तु उनकी निंदा न करें,उनको अपशब्द न कहें, उनके लिए संवेदना के दो बूंद आंसू बहाना चाहिए,
उनके लिए प्रार्थना करें क्योंकि ये हतभाग्य हैं, ये नहीं जानते कि जगत का कल्याण कैसे होता है ? किस अनमोल वस्तु को पा कर के भी उससे अनजाने हैं। और जिन लोगों ने उनकी पुकार को सुना है, उस अद्भुत आह्वान को सुना और समझा है, वे अब और चुप  होकर मत बैठे रहो। कम से कम तुम लोग तो काम में लग जाओ। स्वामीजी का काम है- अपने पशुभाव को बिलकुल त्याग कर, अपने जीवन  को गढ़ने में लगजाना. तुम्हारा हृदय पूरी तरह से निर्भीक होना चाहिए,किन्तु उसमें सहानुभूति भी भरी होनी चाहिए। ' वज्र के समान कठोर और फूल जैसा कोमल ' हृदय 'होना चाहिए। यही है आदर्श।यदि तुमलोग ऐसे चरित्र, ऐसे मन के अधिकारी बन सको, तो तुमलोग ही जगत की समस्त समस्याओं का समाधान कर सकोगे, एक नए भारतवर्ष का निर्माण कर सकोगे।
इसीलिए स्वामीजी के जो भी उपदेश तुम सुनते हो, वह सब ठाकुर के ही उपदेश हैं। स्वामीजी ने ऐसा
 कोई शब्द नहीं कहा है, जो उन्हों ने स्वयम ठाकुर से न सिखा हो। 
स्वामीजी के बातों को सुन कर आत्मविकास के कार्य ( मनुष्य बनो 
और बनाओ ) में लगे रहते हुए ही, ठाकुर के उपदेशों को समझने की 
चेष्टा करनी होगी। 
46. प्रश्न : मुझे ऐसा लगता है, कि शरीर  से  कुछ दुर्बल होने से भी मैं अपनी मन की शक्ति से ही अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़
 सकता हूँ। यह क्या ठीक है? 
उत्तर : हाँ,यह बिलकुल सही है। यदि मन में साहस रखो, बल रखो,
उत्साह रखो, उद्द्य्म रखो, पर तुम्हारा शरीर यदि तुम्हारा शरीर दुर्बल
 भी रह गया हो, तो भी उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि मन का 
बल ही सबसे बड़ा बल है। मन ही देह में भी बल भर देता है। इसीलिए 
यदि तुम्हारे मन में सबलता हो, साहस हो, तो फिर शारीरिक दुर्बलता 
तुम्हारे मनुष्य बनने के पथ में बाधा नहीं होगी।

" ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । " [43,44]परिप्रश्नेन

४३. प्रश्न : श्रीरामकृष्ण के आदर्श एवं स्वामी विवेकानन्द के आदर्श के बीच  क्या कोई अन्तर था ?
उत्तर : नहीं, दोनों का एक ही आदर्श था, उनके आदर्श में थोड़ा भी अंतर नहीं था. स्वामीजी ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव् से ही शिक्षा प्राप्त की थी,तथा उन्हीं के द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर, उन्हीं की भावधारा का प्रचार-प्रसार भी किया था. 
स्वामीजी ने कहा है- ' यदि मन,वचन और कर्म से मैंने यदि कोई भी सत्कार्य किया हो, यदि मेरे मुख कोई ऐसी बात निकली हो, जिससे जगत के किसी व्यक्ति का थोड़ा भी उपकार हुआ हो, तो उसमें मेरा कोई गौरव नहीं है, वह सब उन्हीं का है। ' 
स्वामीजी जो कुछ भी किये हैं, या बोले हैं, वह सब श्रीरामकृष्ण के ही विचार थे, इसी बात को बलपूर्वक समझाने के लिए स्वामीजी को यह बात कहनी पड़ी थी।  दोनों के आदर्श में कोई अंतर नहीं था।
४४. प्रश्न : ' ध्यान ' क्या राजयोग के अन्तर्गत आने वाला कोई विषय है ? 
उत्तर : अष्टांग योग को ही राजयोग भी कहते हैं. इसी का एक अंग है ध्यान. किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि ध्यान केवल राजयोग का ही सहायक अंग है. ध्यान की क्रिया सभी योगों में सम्मिलित है, अर्थात सभी प्रकार के योग में ध्यान की आवश्यकता होती है. गीता के भक्तियोग (१२/१२ ) में भगवान कहते हैं- 
" ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । "43,44
 - अर्थात मुझ परमेश्वर (ठाकुर ) के स्वरूप को,  या आत्मतत्व को - शास्त्र और तर्क-वितर्क के द्वारा समझने की चेष्टा करने की अपेक्षा -  ध्यानम्, अर्थात ध्यान के द्वारा जानने की चेष्टा करना- विशिष्यते,  श्रेष्ठ है।ज्ञानयोग में इसीको निदिध्यासन कहा जाता है। अर्थात गहरे ध्यान में सर्वदा उसका चिन्तन करते रहना ज्ञान को (अर्थात ठाकुर के सच्चिदानन्द स्वरूप को या आत्मतत्व को ) सर्वदा जाग्रत रखना ही ध्यान है.
  भक्तियोगी देवपूजा करने के समय ध्यान करता है। अर्थात अपने हृदय में ' अष्टदल- रक्त- कमल ' के उपर अपने ' ईष्ट-देव ' को बैठाकर ध्यान-मन्त्र में बताये गये देवता के (नाम) रूप-गुण-लीला- धाम के चिन्तन में मग्न हो जाता है।
राजयोग में ध्यान के उपर कहा गया है, किसी वस्तु की धारणा या ज्ञान को कुछ समय तक,' तैल-धारवत ' अर्थात निर्विच्छिन्न भाव से मन में धारण किये रहना. 
इसीलिए ध्यान का प्रयोग हर योग में हो सकता है।
ज्ञानयोगी इसी ज्ञान को, कि सबकुछ ब्रह्म ही हैं- के निदिध्यासन को ध्यान के रूप में जानते हैं। भक्तियोगी भी अपने ईष्ट-देव का ध्यान करते करते सर्वत्र उसी देवता के दर्शन  का अभिलाषी हो जाता है। और राजयोगी परमात्मा के ध्यान से, समाधि में मग्न होकर आत्मा-परमात्मा के अभिन्नता की अनुभूति के आनन्द को प्राप्त करना चाहते हैं।
कर्मयोगी का भी ध्यान होता है। कर्मयोगी समस्त कर्मों के फल का त्याग करना चाहते हैं. इसीलिए गीता (१२/१२) में " ज्ञानात् ध्यानम् विशिष्यते । " कहने के तुरन्त बाद में कहते हैं-
"  ध्यानात् कर्मफलत्याग: त्यागात् (विशिष्यते) शान्ति: अनन्तरम् । "
 - अर्थात ध्यान की अपेक्षा कर्मफल में आसक्ति का त्याग: या सब कर्मोके फलका मेरे लिये त्याग करना; (विशिष्यते) = श्रेष्ठ है। क्योंकि कर्मफल त्यागात् = त्यागसे; अनन्तरम् = तत्काल ही; शान्ति: = परम शान्ति होती है ! कर्मयोगी  अपने समस्त कर्मों को दूसरों के लिए (अर्थात अपने इष्ट-देव के लिए) करताहै।वह दूसरों की सेवा पूजा के भाव से करता है, क्योंकि वह जान चूका है कि परमात्मा या भगवान सर्वत्र हैं, इसी ध्यान या ज्ञान से यथार्थ कर्म हो सकता है।
इसीलिए हम कह सकते हैं, ध्यान में सारे योग मिलकर एकाकार हो जाते हैं। राजयोग से ध्यान की परिभाषा को समझ कर, ज्ञानयोग में उसका प्रयोग करने से यह उपलब्धी होती है कि आत्मा (भगवान ) सर्वत्र हैं।
 

 इस समझ को भक्तियोग में प्रयोग करने से उसे सर्वत्र अपने परमप्रिय देवता (इष्ट देव ) दिखाई देते  हैं, जिस कारण वह (वैष्णव) हर किसी से स्नेह करता है, उसका हृदय प्रेम और सहानुभूति से भरा रहता है। कर्मयोग में प्रयोग करने से वह सर्वत्र पूजा के भाव से सेवा करने के लिए वह अपने हाथों को बढ़ा देता है।
यदि केवल कुछ समय के लिए कोई व्यक्ति अपने मन में ज्ञान को धारण किये रहता हो, कोई भक्त केवल समदर्शन (सर्वत्र भगवान को निहारता रहता हो) या सर्वत्र स्नेह पूर्ण दृष्टि से देखता रहता हो, या कोई केवल सेवा ही करता रहता हो, या इनमें से कोई एक ही भाव की उपलब्धी कर पाता हो, तो वैसे प्रत्येक भाव
 को ' अधुरा 'ही कहना होगा.इन समस्त भावों का संयोजन ही ध्यान का परिणाम है
 यदि ध्यान करने से ऐसा परिणाम नहीं मिला तो, ज्ञान के वृक्ष पर उगा भक्ति का फूल और ध्यान की कली - सब व्यर्थ है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने केवल चार योगों का संकलन ही नहीं किया था, उनका सम्पूर्णत: एकीकरण ( Fusion) किया है। 
ऐसा नहीं है कि थोड़ी देर तक नाक दबा कर बैठ गये तो राजयोग हो गया, थोड़ी देर पूजा कर लिए तो भक्तियोग हो गया, जगत मिथ्या -फिथ्या कहते रहने से ज्ञानयोग हो गया, बाद में कहीं जाकर थोड़ी समाजसेवा कर आये तो कर्मयोग हो गया. ध्यान का सही अर्थ समझ लेने से ध्यान, ' ज्ञान, हाथ, हृदय '
-सब कुछ एक हो जायेगा, सब कुछ एकता के सुर में बंध जायेगा। ध्यान ज्ञान को जाग्रत कर देगा, हृदय के कपाट को खोल देगा,हाथ को प्रसारित एवं सेवा में नियोजित कर देगा।योग-चतुष्टय के प्रदीप को ध्यान एकीकृत कर देता है। 

यहाँ क्या है ' मेरा ' ?[42]परिप्रश्नेन

४२.प्रश्न : दया और माया में क्या अंतर है ? 
उत्तर : ठाकुर ने इस बात को बहुत सुंदर ढंग से समझा दिया है। 
["Remember that dayA, compassion, and mAyA, attachment,are two different things. Attachment means the feeling of 'my-ness' towards one's relatives.

Compassion is the love one feelsfor all beings of the world.It is an attitude of 'same-ness '  (equality). MAyA also comes from God.Through mAyA, God makes one serve one's relatives. 

But one thing should be remembered; mAyA keeps us in ignorance and entangles us in the world, whereas dayA makes our hearts pure and gradually unties our bonds."
 " देखो, दया और माया ये दो पृथक पृथक चीजें हैं। माया का अर्थ है, आत्मीयों के प्रति ममता -जैसे बाप,माँ,भाई,बहन,स्त्री,पुत्र,आदि पर प्रेम।दया का अर्थ है सर्व भूतों के प्रति प्रेम, समदृष्टि।किसी में यदि दया देखो,जैसे विद्यासागर में,तो उसे ईश्वर की दया जानो।दया से सर्वभूतों की सेवा होती है।
माया भी ईश्वर की ही है। माया के द्वारा वे आत्मीयों की सेवा करा लेते हैं। पर इसमें एक बात ध्यान देने की है- माया अज्ञानी बनाकर रखती है और बद्ध बनाती है। परन्तु दया से चित्तशुद्धि होती है, और क्रमशः बन्धनों से मुक्त कर देती है।" ॐ तत सत ]
केवल उसी से प्रेम करना- जो मेरा है, या अपना कोई ये लगता है, या वो लगता है, इसी कारण से  उनके कल्याण के लिए कुछ करने को -माया कहते हैं। एवं सबों से प्रेम करने, अपने-पराये का भेद किये बिना सबों के कल्याण के लिए कुछ करने को दया कहते हैं। ठाकुर ने बहुत सरल उदहारण से इसे समझा दिया है।
 हमलोग कहते हैं- ' माया में आसक्त जीव '. या माया को अच्छे भाव में भी प्रयोग करते हैं। ऐसा भी कहते हैं- ' आहा, उस व्यक्ति में कितना माया(स्नेह) है '. यह अच्छे अर्थ में प्रयोग किया गया. किन्तु जिस 
समय ' माया ' और ' दया ' दोनों शब्दों का अर्थ मन में याद रखते हुए व्यवहार करते हैं, उस समय माया शब्द को बहुत अच्छे अर्थ में प्रयोग नहीं करते हैं।
हमलोग बातचीत के क्रम में कहते रहते हैं- ' यह माया बद्ध जीव है ', या माया से बंधा हुआ व्यक्ति है. इसका अर्थ क्या हुआ ? ' मेरा मेरा ' करते रहना माया है. जैसे ये मेरे पिताजी हैं, ये मेरी पत्नी है, ये मेरे पती हैं, ये मेरा पुत्र है, ये मेरी पुत्री है, यह मेरी गाड़ी है, ये मेरा मकान है- इस तरह से ' मेरा मेरा ' - करते रहने को माया कहते हैं। क्योंकि जगत की वस्तुओं को हमलोग अपना मानकर इन सबके साथ जुड़े रहते हैं, यदि इसमें से कोई एक चीज या व्यक्ति हठात चला जाये- तो बड़ा जोर का धक्का लगता है, और हम चीत्कार कर उठते हैं- ' गया रे चला गया '. इसको माया कहते हैं।
 किन्तु सचमुच ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसको ' मेरा ' कहा जा सकता हो. यहाँ क्या है ' मेरा ' ? जिसको मैं अपना समझ रहा हूँ, वह सब एक दिन मेरे हाथों से बाहर निकल जायेगा. मेरे हाथों में कुछ भी न रहेगा. यह बात ध्रुव सत्य है. यह जो सुखों के स्वप्न देख रहा हूँ, बड़े सूख से रहूँगा, कैसा घर बनाऊंगा, कैसा परिवार बसाऊंगा - यही सब सोचते रहना माया बद्ध होना है। यह बहुत बड़ी गल्ती है. इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं हो सकता है।
किसी व्यक्ति ने ठीक ही कहा था- बंगला में मेरा मेरा को ' आमार आमार ' कहा जाता है, इसीको माया कहते हैं, इसके चंगुल बचने का रास्ता बिल्कुल सीधा है- ' सब आमार ' में से ' आ ' को मिटा दो, तो क्या 
बचेगा ? ' सब मार ' - अर्थात माँ के हैं ! मेरा मकान-दुकान-गाड़ी-स्त्री- पुत्र-पुत्री ' सब मेरे नहीं; मार - माँ के हैं। जन्म-मरण के नियम से बंधे हैं।
यह समझ लेने से हमलोग इस माया के बंधन से बच सकते हैं. पर इसे नहीं समझ सके और जिन्दगी भर ' मैं और मेरा  ' सोचते रह गये, तो क्या होगा ? इसमें कुछ भी हाथों से छूट गया तो, बड़ा भारी दुःख होगा.( ' हम तुमसे जुदा होके - मर जायेंगे, रो रो के ?  ' ) मुझे ऐसा प्रतीत होगा मानो मेरे सीने को चीर कर प्राण ही बाहर निकल गए हों. जबकि वास्तविकता यह है कि उसमें से कुछ निकला नहीं होता. मेरा क्या जा सकता है ? 
मेरे भीतर जो सच्ची वस्तु है, वह इस संसार ही नहीं पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर भी समाप्त नहीं होता, उसको अतिक्रम करके भी अवस्थित रहता है।  
जगत या विश्व-ब्रह्माण्ड कहने से जो समझा जाता है, वह चाहे जितना बड़ा भी क्यों नहो, वास्तव में वह सीमित है-ससीम है। किन्तु इस सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी को ही नहीं पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड के सीमा को पार करके भी मैं हूँ । यह मैं ही - ' पक्का-मैं ' या यथार्थ ' मैं ' है !
जिसको लेकर ' मैं और मेरा ' कह रहा था, वह सब ' कच्चा- मैं ' था, वास्तव में वह सब मरण-धर्मा था.
या ' मार ' यानि - माँ का था. जो पूरे जगत की माँ हैं, जिन्होंने सबकुछ को उत्पन्न किया है, या सृष्ट किया है, उसी के भीतर उसने मुझे भी पैदा किया है, या मेरी भी सृष्टि की है। 
 और उन्होंने ही मुझेसे कई स्थानों पर मकान-फ्लैट्स, गाड़ियाँ , रूपये-पैसे, नाते-रिश्ते - बनावाये हैं और उनके बीच मुझे भी रख दिया है। उसी जगन्माता ने यहाँ मुझे कुछ कर्म भी करने को दिए हैं. यह समझ लेने से- कि सारा जगत ' मार ' यानि माँ का है, मेरा नहीं मेरी माताजी का है- तब कोई चिन्ता नहीं रहती ।
यह जगत, विश्व-ब्रह्माण्ड किन्तु एक ही जगह से निकला है, जगत-जननी ने ही इसका प्रसव किया है, एक ही सत्ता सभी में हैं; इसीलिए यहाँ कोई पराया नहीं है. इसीलिए सबों से प्यार करना चाहिए. केवल अपने भाई-बहन, माँ-पिताजी, स्त्री-पुत्र, के लिए खटते रहना, केवल धन इकट्ठा करने में ही लगे रहना क्यों चाहिए?
 ठीक है, उनकी जिम्मेवारी मेरे उपर है, इसीलिए करता हूँ, यह भी गलत नहीं है, किन्तु सबों के लिए जितना कर सकता हूँ, कम सेकम उतना भी तो कर सकता हूँ. छोटे से सीमा में बद्ध रहने को त्याग कर बड़े सीमा में चले जाने को दया कहते हैं. छोटे से सीमा में बंधे रहने को माया कहते हैं. और छोटी से दायरे ' मैं और मेरा ' के हद को तोड़ कर, बड़े सीमा में - ' तूँ और तेरा ' - में जाने को दया कहते हैं.

' मनुष्य बनने के उपाय को योग कहते हैं ' [41] परिप्रश्नेन

४१. प्रश्न : योग का क्या अर्थ होता है ?
उत्तर : योग का अर्थ है- जितना है, उसमें वृद्धि हो जाये। योग के द्वारा हमलोग दूसरे मनुष्यों के साथ जुड़ जाते हैं। रवीन्द्रनाथ ने कहा है- 
विश्व  साथे योगे  जेथाय बिहारो, 
सेईखाने योग तोमार साथे आमारो ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में योग के विषय में शिक्षा दी है. उसके १८ अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय एक एक योग ही है। उसके द्वारा हमलोग अच्छी वस्तुओं के साथ किस प्रकार युक्त हो सकते हैं, उसका उपाय एवं उस मार्ग पर चलने या अच्छाई की दिशा में आगे बढ़ने का उपदेश दिया गया है। योग का अर्थ हुआ वृद्धि या लाभ, अच्छी वस्तु का लाभ।  भगवान के साथ या उत्कृष्टता के साथ जुड़ जाने के कौशल को योग कहा जाता है। तब हमलोग सभी मनुष्यों के साथ भी स्वयं को जोड़ पाने में सक्षम हो जाते हैं. 
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, अपने साथ तुलना करके देखो, कोई दूसरा व्यक्ति किस अवस्था में पड़ा हुआ है, और मैं किस अवस्था में हूँ, सबों के साथ अपनी तुलना करके देखो। पाओगे कि कोई व्यक्ति दुःख में है, कोई आनन्द में है।  जो व्यक्ति अन्य सभी मनुष्यों के सुख या दुःख को बिल्कुल अपना सुख-दुःख जैसा देख सकता है, वही सबसे बड़ा योगी है।
 जो व्यक्ति अपने मन ही मन, अपनी आत्मा में दूसरों की आत्मा को, अपने प्राणों में दूसरों के प्राण को, भीतर ही भीतर दूसरों को और स्वयं में दूसरों को अनुभव कर पाने की योग्यता रखता है, वही सबसे बड़ा योगी है। यह केवल कहने भर की बात नहीं है, या किसी कवि की कल्पना नहीं है। सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ प्रेम किया जा सकता है। योगी के लिए - दूसरों के प्रति सहानुभूति सम्पन्न होना, करुणा का भाव रखना, दूसरों के आनन्द में आनन्द का अनुभव करना संभव है।  
इस प्रकार के योग के विषय में स्वमीजी ने चार प्रकार के योग का उल्लेख किया है। किसी मनीषी ने स्वामीजी की विचार-धारा को ही ' शक्ति-योग ' की संज्ञा दी है। अर्थात शक्ति के द्वारा सभी के साथ युक्त हो जाओ, स्वामीजी ने हमलोगों को इसी शक्ति-योग की शिक्षा दी है। शास्त्रों में इसका उल्लेख नहीं है। गीता और भागवत में चार प्रकार के योगों के उपर ही चर्चा की गयी है।  योग से तात्पर्य यहाँ उपाय या पथ है। किस उपाय या मार्ग से चल कर हमलोग अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं, सच्चा ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं, सही बुद्धि कैसे प्राप्त होती है, सही रूप से मनुष्य कैसे बन सकते है ? उसी उपाय को योग कहा गया है।
एक मार्ग है-भक्तियोग. मन्दिर में भगवान की पूजा या उपासना की जाती है, वहाँ बैठकर कीर्तन-भजन, जप-ध्यान इत्यादि करते हैं, इसीको भक्ति कहते हैं। किन्तु जो भक्ति की पराकाष्ठ है, जिसको चरम-भक्ति कहते हैं, उसको स्वामीजी भी भक्ति कहते हैं- वह भक्ति केवल कल्पना में डूबे रहने से नहीं होती, या किसी भगवान की मूर्ति पर कुछ अर्पण करना ही पर्याप्त नहीं होता। यह भक्ति-मार्ग का प्रथम सोपान है. 
मन्दिर में जाकर भगवान को कुछ चढ़ाना या पूजा करना इत्यादि कार्य अच्छे कार्य हैं, किन्तु यही भक्ति की अन्तिम बात नहीं है। अन्तिम स्थिति में सर्वगत (ubiquitous) सर्वव्यापी बन जाने की आवश्यकता होती है। अर्थात जो मन्दिर में बैठे हैं, या बद्री-केदार में बिराजमान हैं- वही भगवान प्रत्येक मनुष्य के भीतर भी विद्यमान है- ऐसी दृष्टि प्राप्त कर लेने को ही सच्ची भक्ति कहते हैं।  मूर्ति में भगवान की उपासना तभी तक करनी है, जब तक हम स्वयं यह उपलब्धी नहीं कर लेते कि -समस्त प्रतिमाओं में, सर्वभूतों में नारायण ही निवास कर रहे है। ठाकुर की ही बात को स्वामीजीने इस प्रकार कहा है- 
' बहूरुपे सम्मुखे तोमार, छाड़ी कोथा खूंजीछ ईश्वर ?
जीवे  प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर । 
भगवान केवल देवालय में ही नहीं विराजमान हैं, सभी शरीरों के भीतर भी वे ही विराज रहे हैं। सबों के भीतर जो भगवान विद्यमान हैं, उनको अस्वीकार करके, केवल देवालय के किसी कोने में भगवान को खोजना पर्याप्त नहीं है। जिसप्रकार से भक्ति करने का उपदेश स्वामीजी दे रहे हैं, उसी ढंग से यदि भक्ति की जाय, तो भक्ति योग के सच्चे पथ का अवलम्बन करने से वह एक अद्भुत आनंददायक पथ बन जायेगा। किन्तु सामान्य तौर पर यह भक्ति सबों के मन में उत्पन्न नहीं होती.
क्योंकि साधारण मनुष्यों का भीतरी भाग  (अभ्यन्तर या हृदय ) बिल्कुल सूख चूका है। जब उसका आन्तरिक प्रेम भगवान के प्रति प्रवाहित होने लगेगा, तभी वह साधारण मनुष्यों के कल्याण की दिशा में भी प्रवाहित होना सीख सकता है।  हमलोगों का शुष्क हृदय एवं कर्कश मन जबतक ऐसी भक्ति से भाव-विभोर नहीं हो जाता, तब तक स्वामीजी ने कहा है, तथा शास्त्रों में भी कहा गया है- जब तक हृदय और मन भक्ति से आप्लुत नहीं हो उठा हो, तब तक हमलोगों को कर्मयोग का आश्रय लेना चाहिये।
कर्मयोग के विषय में कुछ लोग अपने अपने ढंग से तर्क करने लगते हैं। जैसे गीता का मूख्य शिक्षा या मर्म क्या है- इस बात को लेकर कुछ लोग तर्क-वितर्क करने लगते हैं। किन्तु गीता की सहज शिक्षा है- कर्म।  इसीलिए स्वामीजी कहते हैं- कार्य करते रहो, कार्य करते जाओ- इसी प्रकार कर्म करते करते तुमलोगों में एक दिन सच्चा ज्ञान जाग उठेगा।  इसप्रकार कर्म करते हुए, पहले चित्त को शुद्ध करना पड़ता है। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने या तत्वज्ञान प्राप्त करने की पात्रता अर्जित करने के लिए पहले मन को स्वच्छ बना लेना पड़ता है। फिर मनुष्यों की सेवा करते करते एक मुक्ति का भाव मन में उत्पन्न हो जाता है, मनुष्यों के प्रति जो प्रेम उत्पन्न हो जाता है, उसी को कर्मयोग कहते हैं।
उसके बाद है-ज्ञानयोग। ज्ञानयोग के मार्ग में मन ही मन तर्क-वितर्क या विवेक-विचार करके यह निर्णय लेना पड़ता है कि कौन सी वस्तु शाश्वत है, कौन सी वस्तु क्षणभंगुर है ?  कौन सी वस्तु कल्याणकारी है, कौन सी वस्तु क्षतिकर है, कौन सी वस्तु नारकीय परिणाम में ले जाने वाली है, या किसमें सबकी भलाई छिपी हुई है ?  इस प्रकार से विवेचना करते करते यह समझ में आ ही जाता है कि जगत की समस्त वस्तुएं क्षणभंगुर हैं। कोई भी वस्तु यहाँ हमेशा नहीं रहती, इसी प्रकार से निर्णय करते करते यह समझ में आने लगता है, कि प्रत्येक के भीतर ऐसा कुछ छुपा हुआ है, जो शाश्वत है, सनातन है, अविकारी, अविनश्वर है तथा उसका मानो जन्म भी नहीं होता है।  वही है वास्तविक वस्तु , वही हैं -सर्वगत ब्रह्म ! वे सबों में अनुस्यूत हैं। सबकुछ में ओतप्रोत हैं। यह तत्वज्ञान या बोध तर्क-विचार करते करते प्राप्त हो जाता है- इस मार्ग से भी जाया जाता है। किन्तु इस मार्ग पर चलना अत्यंत कठिन है. यह ज्ञान मार्ग है, विवेक-विचार करने का पथ है. 
किन्तु किसी भी कार्य को हम किस माध्यम से करते हैं ? वह माध्यम है- हमारा मन. यदि कर्मयोग ही करना हो, तो निष्काम होकर करना होगा, निष्काम कर्म का तात्पर्य है, जो कार्य अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए नहीं किया जाता हो, परार्थ के लिए किये गये कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं। किन्तु इस प्रकार से कर्म करने की प्रेरणा कहाँ आ रही है ? मन में उठ रही है।  मन में ही मनुष्य की भलाई करूँगा- ऐसे विचार उठ रहे है. यदि दूसरों की सेवा करूँगा- यह विचार उठ रहा है, अब यह किये बिना मैं रह नहीं सकता। तो ऐसा कर्मयोग मन की सहायता से ही करना पड़ता है.
 उसी प्रकार भक्तियोग मन को प्रयोग में लाने से ही संभव है. सबों के भीतर भगवान हैं- उनके प्रति मेरे मन में भक्ति जाग्रत नहीं हो, भगवान के चरणों में आत्म-समर्पण करने की इच्छा उत्पन्न न होने से भक्ति योग कैसे होगा ? ऐसी प्रेरणा मन में उठेगी, तभी तो उनकी सेवा करूँगा.
 इसप्रकार हम देखते हैं कि कर्मयोग के लिए भी मन की आवश्यकता है, भक्तियोग के लिए भी मन की आवश्यकता है. सत-असत, शाश्वत-क्षणभंगुर, अच्छा-बुरा यह सब विवेक-विचार भी मन में ही करूँगा, तो फिर मन के बिना ज्ञानयोग भी नहीं हो सकता है. अब प्रश्न है कि मन अच्छा कार्य कैसे करेगा ?
 भक्ति का भाव मन के भीतर आएगा कैसे ? यदि विवेक-विचार करना है, तो कैसे कर पाउँगा, यदि मेरा मन ही चंचल और विक्षिप्त रहता हो, यदि मेरा मन संयमित न हो, तो यह सब नहीं हो सकेगा. इसीलिए पहले मन को अपने नियंत्रण में रखना होगा, उसको शान्त रखना होगा, एकाग्र रखना होगा. यह जो मन को एकाग्र करना, स्थिर रखना होता है, इसको राजयोग कहते हैं। इसीलिए राज का अर्थ है- श्रेष्ठ, उज्ज्वल, क्योंकि इसको नहीं करने से, कुछ भी करना संभव नहीं होता. इसीलिए यह श्रेष्ठ पथ है।
  यदि हमलोग अपने विक्षिप्त मन को शान्त कर सकें, उसको यदि अपने वश में ला सकें, एकाग्र करना सीख जाएँ, तब अन्य योग भी संभव हो जायेंगे. तथा यह बात भी कही गयी है कि यदि हम अपने मन को इसी प्रकार शान्त और स्थिर बना सकें, तो अन्य किसी योग का आश्रय लिए बिना ही हमलोग उसी एक सत्य पर उपनीत हो जायेंगे।अतः एकाग्रता का अभ्यास करना आत्मोन्नति का प्रथम सोपान है।

' चरित्र एक सामग्रिक-वस्तु है '[40] परिप्रश्नेन

४०.प्रश्न : आत्म-समीक्षा तालिका में जिन २४ गुणों का उल्लेख किया गया है, उसमें से कुछ गुणों को चुन कर केवल उन्हीं गुणों के विषय में यदि आत्म-समीक्षा करूँ तो क्या ठीक नहीं होगा ?
उत्तर : एकदम खराब नहीं होगा. सब गुणों को आत्मसात नहीं कर सके, पर जितने गुणों को कर सकोगे, उतने को ही आत्मसात करने की चेष्टा कर सकते हो। चरित्र एक सामग्रिक-वस्तु है, अनेक वस्तुओं को चरित्र नहीं कहते हैं। 
 हमलोग मन ही मन चरित्र को कई भागों में बाँटने की कोशिश करते हैं। जबकि चरित्र एक सामग्रिक वस्तु है। सामग्रिक वस्तुओं में, जैसे सत्य, या न्याय के लिए अपनी प्रतिबद्धता इत्यादि जो विभिन्न गुण हैं, उनमें से प्रत्येक गुण दूसरे गुण के साथ संयुक्त है। इसीलिए प्रारंभ में यदि केवल कुछ गुणों को ही धारण करने का अभ्यास करो, तो क्रमशः दूसरे गुण भी खींचे चले आयेंगे।
जिन जिन गुणों पर विशेष ध्यान दोगे, स्वाभाविक रूप से वे गुण अधिक विकसित होंगे. जैसे किसी व्यक्ति ने काफी हद तक, अच्छे तरीके से बहुत से गुणों को आत्मसात कर लिया है, किन्तु यह दिख रहा है कि समय निष्ठा के उपर उसका कोई ध्यान नहीं है। परन्तु जब उसका ध्यान इस कमी की ओर जायेगा, तो वह स्वयं निर्णय लेगा की - यदि वह punctuality या समय की पाबंदी पर ध्यान देता तो उसके लिए बहुत फायदेमन्द हो सकता था।
 इसीलिए यह परामर्श दिया जाता है, कि पहले जो मूख्य गुण (आत्मश्रद्धा,आत्मविश्वास आदि) हैं, उसकी ओर विशेष ध्यान दो, और धीरे धीरे स्वयं को मनुष्य कहलाने योग्य मनुष्य के रूप में विकसित करने की चेष्टा करते रहो, तथा समस्त गुणों पर ध्यान देने से वे सब भी क्रमशः बढ़ने लगेंगे। 


व्यक्तित्व है जीवन-ध्येय में पहुँच जाना [39]परिप्रश्नेन

३९. प्रश्न : Personality -या व्यक्तित्व किसे कहते हैं ?
उत्तर : अंग्रेजी भाषा के शब्द Personality और व्यक्तित्व ( Individuality.) में थोडा सा अंतर है। व्यक्तित्व के लिए सही अंग्रेजी शब्द है - Individuality. हिन्दी में दो अलग अलग शब्द नहीं हैं, इसलिए बातचीत के क्रम में या लिखते समय ' Personality Development ' को कई बार हमलोग ' व्यक्तित्व-विकास ' के अर्थ में भी प्रयोग करते हैं। क्योंकि हिंदी में  व्यक्तित्व कहने से ही  Personality -भी समझा जाता है, और Individuality.- भी समझा जाता है। किन्तु अंग्रेजी दो अलग अलग शब्द हैं-एक है Individuality. और दूसरा है  Personality.  किन्तु Personality.शब्द का सही अर्थ थोड़ा भिन्न होता है.
यह शब्द लैटिन के शब्द ' Persona ' से निकला है. जैसे कोई अभिनेता जब स्टेज पर किसी मेकप में खड़ा होता है- तो उसको देखने से ही अनुमान हो जाता है कि वह किसी ऐतिहासिक चरित्र को निभा रहा है, या अन्य किसी काल्पनिक घटना का कोई किरदार सामने खड़ा है. इसी वेश-भूषा को Persona, बनावटी चेहरा, (मुखौटा या Mask) कहा जाता था.
 जैसे अभिनेता के पूरे पोशाक और वेश-भूषा को देखने से ही उसकी भूमिका के सम्बन्ध में जो अनुमान होता है, उसको Personality. कहा जाता है. अर्थात उपर उपर से देखकर जिसके सम्बन्ध में जो धारणा होती है, उसको ही Personality. कहा जाता है. उसका आचार-आचरण, चेहरा, सौन्दर्य, कपड़ा-लत्ता, उसकी भाव-भंगिमा, चलने-फिरने का ढंग इन सबको मिला-जुला करवह जिस पात्र का अभिनय करता सा दीखता है, उसे Personality. कहते हैं, जिसको उपर से देखकर ही समझा जा सकता है।
किन्तु उसको देखने से उसके भीतर का भी संवाद मिल जाता हो, सो नहीं होता. जिस व्यक्ति या वस्तु को देखने से उसके भीतर का संवाद मिल जाता है, उसको Individuality.-कहा जाता है। वही किसी मनुष्य
 [ प्रसिद्द वैज्ञानिक हाकिंस महोदय भी कृत्रिम यंत्रों के सहारे सुनते, पढ़ते है, लेकिन आज वह भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया के सबसे श्रेष्ठ वैज्ञानिक माने जाते है.]
 का यथार्थ व्यक्तित्व होता है। Individuality. या प्रत्येक व्यक्ति जीवन-ध्येय, या किसी खास व्यक्ति का खास वैशिष्ट या पृथकत्व (जैसे सचिन तेंदुलकर-में क्रिकेट, लता मंगेशकर-संगीत, अमिताभ-अभिनय, न्यूटन में सच जानने की जिज्ञाषा, आदि अ..)  प्रत्येक मनुष्य का Individuality अलग-अलग होता है, अर्थात उनके व्यक्तित्व में कुछ विशिष्टता या पृथकत्व रहता है।

  कहने को हम सभी लोग मनुष्य हैं- काफी हद तक हमारे हाथ-पैर एक जैसे होते हैं. किन्तु प्रत्येक मनुष्य के भीतर अपना अलग अलग वैशिष्ट रहता है, जो और किसी के भीतर नहीं पा सकते.
 एक व्यक्ति का जो अपना वैशिष्ट है, वैसा अन्य दस लोगो में नहीं मिलता है, जो किसी व्यक्ति-विशेष का विशिष्ट-चरित्र होता है- उसको ही Individuality.कहा जाता है. तथा किसी व्यक्ति को उपर उपर से देखकर उसके बारे में जो सामान्य धारणा होती है, उसे उस व्यक्ति का Personality. कहते हैं. 

जो स्वयं मुक्त है,वही दूसरों के बंधन खोल सकता है' [36-38] परिप्रश्नेन

३६.प्रश्न : ' सामान्य बुद्धि ' और ' उपयोग-बुद्धि ' में क्या अतर है ?
उत्तर : ' सामान्य बुद्धि ' का अर्थ है- Common Sense या साधारण समझ। जैसे रास्ते में जा रहे हो, कहीं ईंट पड़ा हुआ है, या गड्ढा है, समझ नहीं पाने से गड्ढे में पैर चला गया तो चोट लग सकता 
है।
इसीलिए सड़क पर चलते समय अपनी आँखों को, तथा कान खुला रख कर सड़क पर चलना, या चलती 
गाड़ी से उतरते समय गाड़ी की दिशा में उसी गति से न दौड़ा जय तो गिर सकता हूँ, इस प्रकार हर समय बुद्धि को जाग्रत रखना (सतर्क रहना), सचेत रहना- यह सब सामान्य बुद्धि का उपयोग है। 
और उपयोग बुद्धि का तात्पर्य है व्यवहारिक बुद्धि, जो कुछ है, उसको काम में लगाना, व्यवहार में लाना। बहुत से छोटे छोटे लड़के, जब कुछ भी पाते हैं, जैसे बैटरी, पुराने बल्ब, लोहा के छर्रे, बेअरिंग आदि, तो सबको एक जगह एकत्र करके, उससे कुछ करने की चेष्टा करते हैं। 
 हमलोगों के पास ज्ञान है, बुद्धि है, किन्तु उसको व्यवहार में नहीं ला सके, या समय आने पर मूर्ख की तरह कार्य किये। अर्थात मुझमें उपयोग बुद्धि नहीं है. जीवन को किस प्रकार कार्य में लगाया जाय ? स्वामीजी यही बात कहते  हैं। उपयोग माने प्रयोग में लाना, जो कुछ भी जानते हैं,- उसका लाभ उठाना।
 मैं यदि निःस्वार्थ न होऊं, तो अपने स्वार्थ को पहले पूरा करने का मनोभाव लेकर चलने से, दूसरों के स्वार्थ की हानि होगी, उनको नुकसान पहुंचेगा। चूंकि मैं और दूसरा वास्तव में एक ही हैं, मैं भी मनुष्य हूँ, वह भी मनुष्य है. जो सत्ता मुझमें हैं, वही सत्ता उसके भीतर भी हैं। इस दार्शनिक आधार पर विचार किये बिना यदि मैं यह सोचूं कि केवल मेरा ही भला हो, दूसरों का भला न भी हो तो मुझे क्या फर्क पड़ेगा ?  सब चलता है- इसप्रकार से सोचना, (दार्शनिक आधार पर) बिना सोचे समझे ही कुछ कर डालना- गलती (mistake) नहीं; ' Blunder ' है; एक बहुत बड़ी भूल करने के समान है।
 यदि ' एक ही अनेक बने हैं ' इसको जानते हुए भी मेरे कार्य से दूसरों को क्षति होती हो, तो यह स्पष्ट
 हो  जायेगा कि मुझमे उपयोगी बुद्धि नहीं है, तात्विक दृष्टि से उसका आभाव है।  इस दार्शनिक आधार पर मुझे ऐसा प्रयास करना चाहिए कि मेरी भलाई होने से दूसरों का नुकसान न हो, दूसरों का भी भला हो, उसकी चेष्टा करनी चाहिए. स्वामीजी ने इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझा दिया है-  जो कार्य केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रख कर करोगे, वह अनैतिक कार्य होगा। और जिस कार्य में मेरा क्षुद्र स्वार्थ नहीं होगा, वही नैतिक कार्य होगा। 
३७.प्रश्न : श्रमशीलता का अर्थ क्या है ?
उत्तर :  श्रमशीलता का अर्थ होता है, श्रम करने की क्षमता, कार्य कर सकने की क्षमता. कार्य को सम्मान करना, उससे लगाव रखना, दक्षता पूर्वक कार्य करने की क्षमता, कार्य के प्रति आग्रह रहना. प्रत्येक कार्य को अच्छे ढंग से सम्पन्न करना, यह सब श्रमशीलता के गुण के लक्षण है।
३८. प्रश्न : सज्जनता (बंगला में सौजन्य ) का क्या अर्थ है ? 
उत्तर : सज्जनता का अर्थ होता है, गंवार-पन नहीं बल्कि, भद्रता या शिष्टता का भाव (urbanity ).
' सज्जन ' कहने से तात्पर्य निकलता है- ' सू-जन ' होने का परिचय। अर्थात  सज्जन-ता, माने जो दूर्जन नहीं है। जन का अर्थ होता है-मनुष्य।
 मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। सज्जन माने अच्छा मनुष्य, और सू-जन होने के भाव को  सज्जनता भी कहते हैं।  प्राचीन युग में प्रार्थना होती थी-


दूर्जनः सज्जनो भूयात, सज्जनः शान्तिम आप्नुयात ।
शान्तो मूच्यात बन्धेभ्यो, मूक्ताश्चान्यान विमोचयेत ।।
 ' दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा करते हैं। 
 जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द स्वयं समस्त बन्धनों से मुक्त हो गये थे, इसीलिए वे दूसरों को मुक्ति का सन्देश देकर, उन्हें भी मुक्ति के आनन्द को समझा सके थे। 
 भागवत में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है- 
 सूजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ।।
 ' आहा, देखो-इन वृक्षों का जीवन ही सार्थक है, मानो ये सभी प्राणियों के हित के लिए ही जीवन धारण करते हैं, ये अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी मनुष्यों के काम में आते हैं। जो भी इनसे कुछ पाने की अपेक्षा करता है, ये उसे कभी निराश नहीं करते।' सज्जन लोग भी ऐसे ही होते हैं. उनके पास से कोई असंतुष्ट होकर नहीं लौटता। 
दूर्जन किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी दूर्जनों से घृणा करना ठीक नहीं है। उसके बुद्धि का बन्धन खोल देना होगा, या अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देनी होगी, तब वह भी सज्जन बन जायेगा।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं. किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में अच्छा बन जाता है, सूजन बन जाता है. भर्तृहरि ने कहा है-
 ' ऐश्वर्श्य विभूषण्म सूजनता ' 
अर्थात ऐश्वर्य का आभूषण है, सुजन-ता या सज्जनता ।

चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा कैसे दी जाती है? [***35] परिप्रश्नेन

३५. प्रश्न : कोई शिक्षक या नेता को अपने सहकर्मिओं को चरित्रवान मनुष्य बनने के लिये कैसे प्रेरित कर सकता है ? अपने भाई, मित्र या किसी दूसरे व्यक्ति को चरित्रवान मनुष्य बनने की शिक्षा कैसे दी जाती है?
उत्तर : यथार्थ शिक्षा प्रदान करने का उपाय जानने के लिए पहले शिक्षक या नेता को यह जानना होगा, कि ' प्रत्येक मनुष्य के भीतर ज्ञान पहले से ही अन्तर्निहित है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब 
अन्दर ही है। कोई भी ज्ञान बाहर से किसी के भीतर, नहीं प्रविष्ट कराया जा सकता है। जो ज्ञान-स्वरूप होकर भीतर में जो पहले से ही विद्यमान हैं, उनको बाहर से केवल जाग्रत किया जा सकता है।
 किन्तु कोई शिक्षक (या नेता) यदि बाहर से (क्रोध कर के बोले- अरे, चरित्रहीन ! तू कब सुधरेगा ?) आदेश दें- ' मैं शिक्षक हूँ, तुम मेरे छात्र (अनुयायी) हो, मैं तुमको आदेश करता हूँ, तुमको निर्देश दे रहा हूँ, तुम जाग जाओ ! ' तो ऐसे उपदेश का भी कोई लाभ नहीं होता है। जो ज्ञानस्वरूप पहले से ही सबके हृदय में विद्यमान हैं, उनको पूर्ण श्रद्धा और प्रेम के बल पर ही जाग्रत किया जा सकता है, क्रोध से या अपशब्द से कभी नहीं। किन्तु शिक्षक यदि छात्र को [कोई गुरु (नेता) अपने शिष्य को नहीं भावी गुरु (नेता) को ] हृदय से प्यार करते हों, इस प्यार भरे पुकार से जो आवाज गूंजती है- वह हृदय के दरवाजे को खोल देती है। 
 किन्तु अक्सर हम शिक्षक गण अपने विद्यार्थियों या अनुयायिओं को अपने तुच्छ समझते हैं- उन्हें अज्ञ या मुर्ख समझते हैं, तथा यह सोचते हैं, कि हम तो उन्हें सिखा रहे है। तो अक्सर ऐसे मूर्ख  
शिक्षकों की आवाज विद्यर्थियों के कानों तक नहीं पहुँच पाती है, और गुरु की वह पुकार, विद्यार्थी के हृदय -कपाट को उन्मुक्त नहीं कर पाती है। 
गुरु के लिए यह आवश्यक है, कि वह अपने शिष्य को सर्वदा श्रद्धा की दृष्टि से देखे, उसको भीतर से - अपना अंतरधन समझ कर भीतर से प्रेम करे. मुझमें और उसमें कोई भिन्नता नहीं है, यही भाव ( प्रज्ञा या सच्ची-समझ या Uptake) मन के भीतर सतत जाग्रत रखनी चाहिए. (भेद-दृष्टि को दूर करके) इसी बोध के साथ जब किसी को शिक्षा दी जाती है, तब उस शिष्य के अन्तस्थ सत्ता की नींद जल्द टूट जाती है, और वह तीव्र गति से प्रगति करने लगता है।
सर्वदा ऐसा मनोभाव ( अभेद-दृष्टि की प्रज्ञा या सच्ची-समझ ) जाग्रत रखने के लिए मुझे पवित्र बनना होगा, मुझको ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा. हमलोगों के शास्त्रों ( तैत्रियोपनिषद 1/3 ) में यह सब कहा गया है-
' सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम। '
अर्थात हम (आचार्य और शिष्य ) दोनों का यश और ब्रह्मतेज एक साथ बढ़े। इस अनुवाक में 
पहले सम-भाव में स्थित - ' समदर्शी आचार्य ' के द्वारा अपने लिए और अपने शिष्य के लिए भी यश 
और ब्रह्म-तेज की वृद्धि के उद्देश्य से शुभ-कामना की जा रही है। आचार्य की अभिलाषा यह है, कि मुझे तथा मेरे श्रद्धालु और विनयी शिष्य को साथ-साथ ज्ञान और अभ्यास से उपलब्ध होने वाले यश और 
ब्रह्मतेज की प्राप्ति हो।   
इसीलिए आचार्य पहले स्वयं पवित्र जीवन जीते हुए, ब्रह्मचर्य पालन करते हुए- शिक्षार्थी में भी यश और
 ब्रह्मतेज जाग्रत होने की कामना करते हैं। सच्ची शिक्षा देने के लिए ऐसे ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है. अर्थात आचार्य को अपने मन, वचन तथा कर्मों में पवित्रता रखनी होगी. यदि मेरा जीवन स्वच्छ या उज्ज्वल नहीं है, पवित्र न हो, तो वैसे गुरु के हजार बार पुकारने से भी विद्यार्थी की नींद नहीं टूट सकेगी। 
आज की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था क्यों फलदायी नहीं हो पा रही है ? क्यों यह बात कहनी पड़ रही है, कि  स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालयों में मनुष्य तैयार नहीं हो रहे हैं, विद्यार्थियों का चरित्र निर्माण क्यों नहीं हो पा रहा है ? कारण शिक्षा नीति में परिवर्तन का अर्थ हमने 10+2 हो या 3 हो - या एक ही जगह टेस्ट होता हो - नहीं है। 
अभी हाल में ही अमेरिका के १९ प्रख्यात शिक्षाविद ने अमेरिका की शिक्षा-व्यवस्था के उपर एक रिपोर्ट 
दिया है। वह रिपोर्ट अत्यधिक सनसनी खेज है। अमेरिका में विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा का कैसा अधोपतन हो गया है, उस विषय में विशेष रूप से विश्लेष्ण करने के बाद वे कहते हैं, कि यह शिक्षा विद्यार्थियों के मन को सही रूप से गढ़ने, या अच्छा चरित्र निर्माण करने के विषय में कोई सहायता नही कर पा रही है। वैसी शिक्षा देने के लिए क्या करना होगा ? उनका मन्तव्य है, कि शिक्षकों को अपना मन ठीक तरह से गढना होगा। 
स्वामीजी कहते हैं, यथार्थ शिक्षा क्या है ?  ' मन की शक्ति तथा उसके प्रवाह को थोड़ा संयम में रखने तथा उसको लाभप्रद बना लेने की क्षमता को ही शिक्षा कहते है। ' स्वामीजी ने शिक्षा को कई प्रकार परिभाषित किया है, किन्तु एक स्थान पर जिस ढंग से परिभाषित किया है, वह बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है, वे कहते हैं- 
" शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी 
नहीं। जिस संयम (या मनः संयोग के अभ्यास) के द्वारा, ईच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है वह फलदायक होता है, - उसे शिक्षा कहते हैं।" 
ऐसी शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद- मनुष्य जो कुछ भी चाहे उसे प्राप्त कर सकता है, अथवा जब जी चाहे वह किसी वस्तु का त्याग भी कर सकता है। ऐसी ईच्छा हो रही है, कि यह कार्य करूँगा, उसे कारगर बना लेने से, वह हो सकेगा- इस प्रकार से निश्चय करके वह सब कुछ पर विजय प्राप्त कर सकता है। 
 मन की ईच्छाओं को परिष्कृत कर, उसे प्रभावी बना लेने से उसके द्वारा- अति सामान्य कार्य से लेकर बहुत बड़े बड़े कार्यों को भी बड़े सुंदर ढंग से सम्पन्न किया जा सकता है। अगर ऐसा संभव हो जाता है, तो उसका आधार क्या है? यही ईच्छाशक्ति !
किन्तु यदि शिक्षक के भीतर ही ऐसी दृढ इच्छा-शक्ति न हो, तो इसका कार्य नहीं हो सकेगा, छात्रों को भी वैसी शिक्षा नहीं दे सकेगा। यदि गुरु का जीवन स्वयं पवित्र न हो, प्रभावशाली या आकर्षक न हो, वे स्वयं यदि उत्तम चरित्र के अधिकारी न हों, तो छात्रों के जीवन में भी ये सारे भाव संचारित नहीं हो सकते हैं।अभी शिक्षा के विषय में भीतर से निकलने वाले जिस आह्वान के उपर चर्चा हो रही थी, वैसा प्रभाव केवल लेक्चर देने से नहीं पड़ता, बल्कि शिक्षक (या नेता) के जीवन का प्रभाव पड़ता है।
 शुद्ध जीवन ही किसी अन्य के जीवन में उस जीवन के सौन्दर्य को प्रस्फुटित कर सकता है।
 अतः शिक्षा प्रदान करने का उपाय है, शिक्षा के अर्थ को हृदयंगम करके अपने जीवन को उत्कृष्ट बना लेना, तथा अपने जीवन से एक अन्य जीवन के दीप को प्रज्ज्वलित कर देना। मेरे जीवन की ऊष्मा ही किसी अन्य के जीवन में ऊष्मा का संचार कर सकती है। इसीलिए पहले मेरे जीवन में उस ऊष्मा (उद्दीपन -fervor) की उत्पति होनी चाहिए, जिसे मैं दूसरों में संचारित करूँगा, वैसा नहीं होने से शिक्षा नहीं दी जा सकती है. 
हमलोग कभी कभी कहते हैं- श्रीरामकृष्ण के जैसे शिक्षक इस जगत में नहीं हैं, स्वामी विवेकानन्द जैसे शिक्षक जगत में नहीं हैं, थोड़ा विचार करके देखने से पाएंगे कि यह बिल्कुल सच्ची बात है. उन्होंने मनुष्यों को वास्तविक शिक्षा दी है. वे शिक्षा कैसे देते थे ? उनका जीवन पवित्रता की अग्नि से उष्ण हो चूका था, इसीलिए वे अपनी उष्णता को दूसरों के जीवन में संचारित कर सकते थे। इस प्रकार सच्ची शिक्षा प्रदान करने के उपाय के विषय में मूल सिद्धान्त यही है. 
(जो शिक्षा देंगे उनका अपना जीवन किसी आदर्श-गुरु के साँचे में गठित होना चाहिये। उनको अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान रहना चाहिए। उनमें इतनी समझ होनी चाहिये कि माँ अन्नपूर्णा ने इस जगत को शिक्षा देने के लिये ही बनाया है।  शिव तो शव हैं, माँ ही विभिन्न रूपों में प्रकट होकर आचार्य शंकर को शक्ति के राज्य की महिमा बतलाती रहती थीं।  यथार्थ गुरु तो माँ ही हैं, बाकी के मनुष्य-शरीर धारी गुरु उनके केवल यंत्र मात्र हैं। माँ ही एक मात्र गुरु हैं, वे यदि मेरी जिह्वा पर बैठकर दूसरों को जगा दें तभी कोई जाग सकता है।   स्वयं को (अपने नाम-रूप को ) कभी गुरु समझने के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये; सबसे बड़ा अज्ञान या बंधन यही है। इस ' तारा-माँ के पुत्र को, दूसरे तारा-माँ के पुत्रों ' का बंधन काटने का अवसर महामण्डल कर्मियों को प्रदान करके केवल अपने हृदय को विस्तृत करने का अवसर मिलना हमारा सौभाग्य है। जब तक यह शरीर है, हमलोग दोनों शिक्षा देने वाले गुरु और ग्रहण करने वाले शिष्य जगदम्बा के राज्य में हैं, इसलिये जो ग्रहण करने वाला है, वही श्रेष्ठ है, गुरु को शिक्षा देने का सौभाग्य माँ ने इसीलिये दया है कि शिक्षा दाता गुरु का आसन ग्रहण कर अपने स्वरुप में स्थित रहकर सदैव जगत को ब्रह्मरूप में दर्शन कर सके। 
क्योंकि ब्रह्म ही जगत बने हैं, वास्तव में शिष्य नहीं बने हैं, शिष्य बन कर मुझे अपना हृदय विस्तार करने का अवसर दिये हैं।  
 किसी ' अव्यक्त ब्रह्म ' को  अपना भाई या रिश्तेदार समझने वाला, तो स्वयं मोहग्रस्त है, वह दूसरे का बंधन कैसे खोल सकता है ? मेरा कौन है ? सबकुछ और सबकोई माँ का है, फिर मुझे किसी को अपना और दूसरे को पराया समझने का क्या अधिकार है ? ईश्वर ने (माँ ने) ही उस गुरु को जिन नाते रिश्तेदारों के साथ एक ही छत के नीचे रख दिया हो, उनको भी भाई,बहन या पत्नी की दृष्टि से न देखकर साक्षात् ' शिव-पार्वती ' के रूप में देखना होगा; जो उस गुरु को पूर्णता प्रदान करने के लिये स्वयं अज्ञानी या चरित्र-हीन होने का नाटक कर रहे हैं। )