10.स्वामी योगानन्द और अभेदानन्द की अंतरंगता
स्वामी
योगानन्द श्रीरामकृष्ण के प्रमुख अंतरंग लीलापार्षदों में से एक थे.
श्रीरामकृष्ण ने अपने संन्यासी संतानों में से जिन लोगों को प्रथम श्रेणी
में रखा था, उनमें से एक स्वामी योगानन्द जी भी थे. श्री रामकृष्ण अपने इस प्रथम श्रेणी के सन्तानों को- ' ईश्वरकोटि ' का कहा करते थे. वे
कहते थे- ' ये सभी आजन्म सिद्ध हैं. इनलोगों को फल (आत्म-साक्षात्कार)
पहले मिला बाद में फूल (साधना) लगा. ठीक वैसा जैसे कद्दू और कोंहड़ा के
पौधों में फल पहले लगता है और फूल बाद में लगता है. ' इन ईश्वरकोटि के
पार्षदों में भी स्वामी योगानन्द कई दृष्टि से अनोखे थे.श्रीरामकृष्ण के अंतरंग लीला सहचर एवम् उनकी विशेष कृपाप्राप्त होने पर भी उनकी मन्त्र-दीक्षा श्रीश्री माँ सारदा से हुई थी.
श्रीश्रीमाँ सारदा ने पहली
बार मन्त्र-दीक्षा उन्हीं को दी थीं. स्वयम् श्रीरामकृष्ण के निर्देशन में
ही श्री श्री माँ ने उनको म्न्त्र दीक्षा दी थीं. इसीलिए ह्म कह सकते हैं
कि श्रीरामकृष्ण के लीलासहचारों के बीच स्वामी योगानन्द जी ठाकुर और माँ
दोनो के कृपाप्राप्त थे.
श्री रामकृष्ण के लीला सहचरों में स्वामी त्रिगुणातीतानन्द और
श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्रीम अर्थात महेन्द्रनाथ गुप्त को भी माँ की
कृपाप्राप्त हुई थी.
इस
दृष्टि से श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग लीला-सहचरों में स्वामी अभेदानन्द भी
सबसे निराले थे. पाश्चात्य देशों में वेदान्त-प्रचारक के कार्य में सभी
पार्षदों के बीच इन्होने विशेष भूमिका निभायी थी. श्रीरामकृष्ण से
मन्त्र-दीक्षा पाने के बाद भी पुनः माँ से कृपा-आशीष पाए थे. श्री रामकृष्ण
ने उनकी जिहवा पर अपने हाथ से मन्त्र लिख दिया था, एवं स्त्रोत्र-रचना
करके माँ की विशेष कृपा भी प्राप्त किए थे.
इसीलिए तो श्रीश्रीमाँ के, '
परमाप्रकृति -जगत्जननी ' स्वरुप का साक्षात् अनूभव करने के बाद उनके इसी
स्वरूप की विशेष वन्दना किये थे. माँ की विशेष-कृपा उन्हें प्राप्त थी, तभी
तो वे उनके इस स्वरूप की वन्दना करने में समर्थ हुए थे.
श्रीरामकृष्ण
के लीलासहचारों में इन दोनों के परस्पर विपरीत भूमिका दिखाई देती है.
स्वामी योगानन्दजी ने मन्त्र- दीक्षा माँ से प्राप्त की थी, किन्तु
श्रीरामकृष्ण देव के दर्शन और स्पर्शन का सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त था.
उधर स्वामी अभेदानन्दजी यद्द्पि श्रीरामकृष्ण से मन्त्रदीक्षा प्राप्त किये
थे, तथापि श्रीश्रीमाँ का विशेष आशीर्वाद और कृपा प्राप्त करने का सौभाग्य
उन्हें मिला था.
क्योंकि श्रीश्रीमाँ उनके द्वारा रचित स्त्रोत्र को
सुन कर मुग्ध हुई थीं, तथा उनको जप की माला देते हुए आशीर्वाद दिया था- '
তোমার কন্ঠে সরস্বতী বসুক '- ' तुम्हारे कंठ में सरस्वती का वास हो ! '
इन दोनों गुरु भाइयों में एक आन्तरिक घनिष्टता भी थी. किन्तु इन दोनों की
गहरी मित्रता का मुख्य आधार श्रीश्रीमाँ थीं. सतीर्थ-रूप से मित्रता रहने
पर भी, उन दोनों को सन्यास-जीवन में बहुत अधिक दिनों तक एकसाथ रहने का
अवसर नहीं मिला था. क्योंकि स्वामी योगानन्द का लीला-अवसान रामकृष्ण-संघ के
स्थापित होने के कुछ दिनों बाद ही हो गया था, और स्वामी अभेदानन्दजी उस
समय अमेरिका में रह रहे थे. श्री रामकृष्ण के लीला-पार्षदों में से
अभेदानन्दजी का लीला अवसान सभी के अंत में हुआ था, एवम् सबसे पहले स्वामी
योगानन्दजी का लीला अवसान हुआ था.
स्वामी योगानन्दजी ने १८९९ ई० में देहत्याग किया था, तथा स्वामी
अभेदानन्दजी ने १९३९ई० में देहत्याग किया था. अर्थात योगानन्दजी के लीला
अवसान के ४० वर्ष बाद तक इस जगत में लीला किए हैं. एक अद्भुत सामान्यता इन
दोनों में यह दिखाई देती है कि, श्रीरामकृष्ण के लीलासहचरों में स्वामी
योगानन्दजी रामकृष्ण-मठ और मिशन के प्रथम उपाध्यक्ष थे; एवम् श्रीरामकृष्ण
के लीलासहचरों में स्वामी अभेदानन्दजी अन्तिम उपाध्यक्ष बने थे.
इन
दोनों उपाध्यक्ष में एक आश्चर्य जनक सामान्यता यह भी थी, कि दोनों ने
विशेष रूप से माँ का सानिध्य प्राप्त किया था. योगानन्दजी को श्रीश्री
माँ सारदा ने केवल मन्त्र-दीक्षा देकर ही कृपा नहीं की थीं, बल्कि वे उनको
बिल्कुल अपने संतान की दृष्टि से भी देखतीं थीं. उधर अभेदानन्दजी
श्रीश्रीमाँ का प्रणाम-मन्त्र लिख कर अमरत्व प्राप्त किए हैं, और माँ की
कृपा से उनके कंठ में वाग्देवी भी सदा विराजित रहती थीं.
इन
दोनों सतीर्थ सहचरों की मानसिकता वैज्ञानिकों जैसी थी. बहुत ठोक-बजा कर
देखने के बाद ही स्वीकार करना उनका स्वाभाव था. स्वयम् श्रीरामकृष्ण को भी
उनहोंने काफी तर्क-संगत जाँच-पड़ताल के बाद ही अपने गुरु रूप में स्वीकार
किया था. श्रीश्री ठाकुर को गुरुरूप में श्रद्धा करने पर भी एक बार उनके
उपर भी शंका हुई थी -
' ঠাকুর কি নহবাতে স্ত্রীর কাচ্ছে রাত কাটায় ? '
-क्या ठाकुर नहबतखाने में अपनी स्त्री के साथ रात्रि व्यतीत करते हैं ? '
इसीलिए वे नहबत के पास खड़े हो कर जानने का प्रयास किए थे, कि,
श्रीरामकृष्ण कहाँ जाते हैं ?वे
युक्ति-तर्क पूर्ण मानसिकता के साथ वहाँ देखे थे, कि माँ साधारण मानवी
नहीं हैं, जगत्जननी, महा-शक्ति हैं. उसके बाद से माँ के प्रति उनकी
श्रद्धा-भक्ति में क्रमशः वृद्धि होने लगी. परवर्तीकाल में श्रीश्रीमाँ के
यही एकनिष्ठ सेवक माँ के भारवाही बने थे. एवम् क्रमशः योगानन्दजी
श्रीश्रीमाँ की आँखों में एकमात्र अन्तरंग-सन्तान बन गये थे.
श्रीश्रीमाँ
१२९३ बन्गब्द १५वीं तिथि को वृंदावन की यात्रा पर गयीं थीं. उनके साथ सेवक
योगेन- महाराज एवम् काली-महाराज भी थे.
यहीं पर श्रीश्रीठाकुर के निर्देश
पर श्रीश्रीमाँ ने योगेन महाराज को ईष्टमन्त्र दान किया था. वृंदावन-धाम
पहुँचने के बाद एक दिन श्रीश्रीमाँ समाधिस्ता हुई थीं, उस समय उनकी समाधि
भंग करने का साहस और हिम्मत किसी में भी नहीं था. माँ के कृपाप्राप्त
इन्हीं योगानन्दजी ने माँ को एक मन्त्र सुनाया था तब माँ की समाधी भंग हो
सकी थी.
अर्थात
श्रीश्रीमाँ ने इस अंतरंग सन्तान को विशेष शक्ति भी प्रदान की थीं. बेटा भी
जनता था कि श्रीश्रीमाँ अभी किस स्तर के किस भाव में विराज कर रहीं हैं,
एवम् किस समय उनको कौन सा मन्त्र सुनाना पड़ेगा. स्वामी अभेदानन्दजी और
योगानन्दजी के बीच ह्मलोग एक विशेष समानता देखते हैं. यही दोनों सन्तान माँ के साथ विभिन्न
तीर्थ-स्थानों ( आँटपूर, तारकेश्वर, कामारपुकूर ) में भी गये थे. एवम् वहाँ
पर माँ के परम स्नेह की छाँव में उनका समय बीता है. जब १८९९ई० में बहुत कम
उम्र में ही योगानन्दजी ने अपना शरीर त्याग दिया तब माँ शोक से विह्वल हो
गयीं थीं.
और
भीतर के शोक को प्रकट करते हुए बोलीं थीं- ' घर का एक स्तम्भ घिसक गया,
अब सब चला जाएगा. ' स्वामी विवेकानन्द भी दुख व्यक्त करते हुए कहा था- '
छ्त का बीम धँस गया. अब धीरे धीरे अन्या लकड़ियाँ भी गिर पड़ेंगी.' इस नये
संघ रूप गृह का मानो प्रथम स्तम्भ गिर गया था, योगानन्दजी के शरीर त्याग
करने से. यदि श्रीरामकृष्ण के सभी लीलासहचरों को ह्मलोग एक एक स्तम्भ के
समान सोचें, तो कहना होगा कि अभेदानन्दजी का शरीर-त्याग देने के बाद अन्तिम
स्तम्भ भी गिर गया था. इन दो गुरुभाइयों का भेंट-मुलाकात की अवधि बहुत
सीमित थी, क्योंकि मिलने का अवसर और समय ज़्यादा न्हीं था.
स्वामीजी
के आह्वान पर स्वामी अभेदानन्दजी १८९६ ई० में अमेरिका चले गये थे. ईसीबीच
१८९७ ई० में रामकृष्ण मठ की स्थापना हुई. और १८९९ ई० में योगानन्दजी का
लीला अवसान हुआ, अर्थात बहुत थोड़े ही दिनों तक इस जगत में वे उपस्थित रहे
थे. अभेदानन्द उस समय अनुपस्थित थे, और उस समय वे विदेशों में
वेदान्त-प्रचार कार्य करने में व्यस्त थे.
वे अपने प्रिय गुरु-भाई के असमय में हुए लीला-अवसान को भीतर से स्वीकार
नहीं कर सके थे; उस समय वे अमेरिका के विभिन्न प्रचार केंद्रों में भारत
के सार्वजनिक वेदान्त प्रचार करने में व्यस्त थे. इसीलिए अपने गुरुभ्राता स्वामी योगानन्दजी के लीला- अवसान का समाचार सुनने के बाद उन्होंने ' प्लानचैट ' भी किया था.
[A planchette ( plan-SHET), from the French for "little plank",
is a small, usually heart-shaped flat piece of wood that one moves
around on a board to spell out messages or answer questions. Paranormal advocates believe that the planchette is moved by some extra-normal force. The motion is allegedly due to the ideomotor effect. In occult usage, a pencil would be attached to the planchette, writing letters or other designs on paper to be later interpreted by a medium.]
उस
' संयोगस्थापन-प्रक्रिया ' के माध्यम से योगानन्दजी के ' अमर-आत्मा ' को
वहीँ पर बुलवा कर उनसे बंगला भाषा में बातचीत करना और उनकी लिखावट को लोगों
के समक्ष दिखाना; यह सिद्ध करता है कि उनके ह्रदय में अपने गुरु-भ्राता के
प्रति असीम श्रद्धा थी.
वास्तव में इस
प्रकार संयोग-स्थापन का प्रयास कर वे लोगों के समक्ष यह बताना चाहते थे कि
उनकी अन्तिम ईच्छा क्या थी. अभेदानन्दजी का यह भी एक बहुत प्रशंसनीय कार्य
है. वे किस प्रकार वह ' संयोग-स्थापन ' हुआ था उसका वर्णन स्वामी
अभेदानन्दजी इस प्रकार किए हैं -
" १८९९ ई० में न्यूयार्क शहर के लिली-डेल नामक स्थान में एक आध्यात्मिक
सम्मेलन हो रहा था उसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था, मैने वहाँ '
हिन्दू- धर्म ' और ' पुनर्जन्मवाद ' के उपर अपना व्याख्यान दिया था. सभा का
आयोजन एक विशाल ऑडोटॉयरियम में किया था, किसके चारों ओर खुला मैदान था,
तथा अधिकांश कुर्सियाँ ' प्रेत-तत्ववाद ' में विशेष आग्रहशील श्रोताओं द्वारा भरी हुई थीं.
एक
वार्षिक उत्सव के उपलक्ष्य में मुझे वक्ता बनाया गया था. टिकट बिक्री कि
गणना करने से पता चला कि, उस दिन वहाँ कुल ७००० श्रोता उपस्थित थे. उनमें
से अनेक श्रोता ' मीडियम ' भी थे. इनमें से कुछ लोगों ने मुझे बताया था, कि
जिन बातों को मैं उन लोगों से कह रहा था, उनमें से अनेक कुछ उन्होंने
अपने प्रेत-नियंत्रक प्रेतात्माओं से भी सीखा था.
उनहोंने
मुझे भी एक प्रेत-आह्वान करने वाले व्यक्ति की बैठक में शामिल होने के लिए
आमन्त्रित किया था. सन १८९९ ई० में ४ अगस्त को आयोजित बैठक में मैने एक
टाइपराइटर को स्वयं टाइपराइटिंग करते देखा था. सभी ने अपने अपने मृत आत्मीय
स्वजनों के नाम दिये. मैंने भी अपने गुरुभाई योगेन का नाम दिया. नीले
पेंसिल से योगेन का नाम लिखा देख कर मेरे ह्रदय में कौतूहल हुआ एवं किसने लिखा यह जानने की इच्छा हुई !
दुसरे दिन ५ अगस्त को प्रातः १० बजे स्वयं श्लेट-लेखन विद्या के विख्यात
मीडियम मिस्टर किलर का आमंत्रण पा कर उनसे मिलने गया. कुछ समय के बाद उनके
बैठक-कक्ष में खिड़की के पास मी० किलर के सामने बैठ गया. सूर्य की किरणें
खिड़की से होकर कमरे के भीतर आ रही थीं. हम दोनों के बीच में एक चौकोर मेज
रखी थी. जिस पर कारपेट बिछा हुआ था. मि० किलर ने दो स्लेटें बाहर
निकालीं. मैंने अपने हाथ से दोनों स्लेटों के दोनों पहलुओं को साफ कर
दिया. उनहोंने भी अपने रुमाल से एक बार और पोछ दिया. इसके पश्चात् मि०
किलर ने मुझसे कहा कि जिस प्रेतत्मा के साथ मैं संयोग करना चाहता हूँ, उसे
सम्बोधित करते हुए कुछ प्रश्न लिखूँ . मैने पूछा- क्या बंगला भाषा में
प्रश्न लिख सकता हूँ ?
उन्होंने
कहा - हाँ, लिख सकते हैं. तब एक कागज के टुकड़े पर बांग्ला में लिखा और
उसे मोड़ कर दोनों स्लेटों के बीच में रख दिया, किलर साहब ने दोनों
स्लेटों के बीच में एक पेंसिल भी रख दी. दोनों स्लेटों को रुमाल से ढक दिया
गया. स्लेटों के दो-दो कोनों को मैंने तथा उनहोंने पकड़ लिया तथा स्लेट को
मेज से कुछ उपर उठा लिया गया.
उसके बाद ह्मदोनों ने कुछ मिनटों तक गप-शप किया, उन्हों ने कहा कि
स्लेट-लेखन के समय बातचीत कि जा सकती है. मि: किलर ने कहा- ' आपके मित्र
आयेंगे या नहीं, मैं नहीं कह सकता, किन्तु यथा-साध्य मैं चेष्टा जरुर
करूँगा.' थोड़ी देर बाद मैंने उनसे पूछा, कागज पर मैं अपना नाम लिख दूँ
क्या ? उन्होंने कहा- हाँ. उनहोंने फिर पूछा कि मैंने अपने मित्र का नाम
अँग्रेज़ी में लिखा है या नहीं ? मैंने उत्तर दिया - नहीं.
उन्होने
कहा - ' आप जिनके साथ सम्पर्क करना चाहते हैं, सम्भव है मेरा गाईड
(परिचालक ) उनको बुला नही पायें, क्योंकि वे आपकी भाषा नहीं पढ़ सकते. ' यह
सुनकर मैंने एक और कागज पर अँग्रेज़ी में लिख दिया - ' योगेन, क्या तुम यहाँ पर हो ? यदि हो, तो मेरे बांग्ला में लिखे प्रश्नों का उत्तर देना. ' और
कागज के नीचे अपने हस्ताक्षर- ' स्वामी अभेदानन्द ' भी कर दिया. एवं कागज
को मोड़ कर स्लेट के उपर रख दिया. स्लेट को पकड़े हुए ही कुछ समय तक
ह्मलोग बातचीत करते रहे.
मि: किलर ने पूछा कि क्या इससे पहले भी आपके परलोक वासी मित्र मीडियम की
सहयता से आए हैं ? मैंने कहा - कल सन्ध्या समय मि० कैम्बेल के बैठक में
अपने मित्र से कई प्रश्न किये थे, किन्तु उत्तर के स्थान पर कागज पर नीली
पेन्सिल से केवल-' योगेन ' नाम लिखा हुआ ही मिला, अन्य कुछ नही. एक क्षण
बाद ही मि० किलर ने स्लेट को मेज पर रख कर स्लेट के एक कोने में पेन्सिल से
लिखा - ' योगेन यहाँ '. मुझे लिखा पढ़ने को कहा. पढ़ने के बाद मैंने
कहा- नाम तो ठीक है.
उन्होंने
पुनः स्लेट के दोनों कोनों को दोनों हाथो से पकड़ लिया तथा मुझे भी वैसा
ही करने को कहा. कुछ समय पश्चात् स्लेटें हमारे हाथों के बीच हवा में मेज
से ६ ईंच उपर झूलने लगी. कुछ क्षणों के बाद स्लेट पर पेंसिल से कुछ लिखने
की आवाज भी सुनाई देने लगी. किलर साहब ने कहा - ' पेन्सिल की आवाज सुन रहे
हैं?'
मैंने
कहा- 'हाँ'. कुछ ही देर के बाद हाथ में एलेक्ट्रिक शॉक (वैद्युतिक-स्पन्दन
) जैसा अनुभव हुआ. किलर साहब ने कहा - वे भी कुछ वैसा ही अनुभव कर रहे
हैं. तत्पश्चात दोनों स्लेटों को खोल कर देखने पर अँग्रेज़ी में यह बात
लिखी हुई दिखायी पड़ी- ' ऐसे किसी को यहाँ नहीं देख पा रहा जो इन सज्जन के
प्रश्नों का उत्तर दे सकें ' हस्ताक्षर था-' जी. सी.'
मैंने मि० किलर से पूछा -यह ' जी.सी.' कौन हैं ? वे बोले- ' यह मेरी
चतुर-प्रेतात्मा है, इनका पूरा नाम है- ' जॉर्ज क्रिस्ट '. कुछ क्षणों के
बाद किलर ने कहा- ' क्यों, तुम्हारे मित्र भी तो यहाँ हैं, वे कुछ
लिखेंगे.' स्लेटों को कर उनहोंने फिर वैसे ही रख दिया. प्रश्न लिखे कागज को
कुछ समय हाथ में रख कर मुझे भी वैसा करने को कहा. मैंने भी वैसा किया.
इसके पश्चात् हम दोनों ने स्लेटों को उसी प्रकार पकड़ लिया. कुछ क्षणों के
बाद हाथ पर एलेक्ट्रिक शॉक जैसा अनुभव हुआ, और फिर स्लेट के भीतर से
पेन्सिल से लिखे जाने जैसी ख़स-ख़स की आवाज़ सुनाई देने लगी. फिर वह आवाज़
आनी बन्द हो गयी.
स्लेट
खोल कर देखने पर चार भाषाओँ-संस्कृत, ग्रीक, अँग्रेज़ी, बांग्ला में
लिखावट दिखाई पड़ी. किलर साहब तो देख कर अवाक् हो गये. क्योंकि वे संस्कृत,
ग्रीक, और बांग्ला भाषा पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे. यहाँ मैं यह भी बता दूँ
कि उस पूरे लिलि-डेल शहर में
मुझे छोड़ कर संस्कृत या बांग्ला लिखने पढ़ने वाला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं
था. हाथ की लिखावट हूबहू मेरे मित्र योगेन की लिखावट जैसी थी.जिसे देख कर
मैं भी आश्चर्य चकित हो गया था.
इस अद्भुत
कार्य के लिए मैंने किलर को धन्यवाद दिया, किन्तु उस समय मैं इसका कोई कारण
बता नहीं सका. मैंने दोनों स्लेटें उनसे लेली जिससे अन्य मिडीयम एवं
प्रेत-तत्वविदों को दिखला कर यह जाना जा सके कि यह किस प्रकार हुआ. किलर
ने भी कहा कि ऐसा स्लेट-लेखन उन्होने इससे पहले कभी नहीं देखा. स्लेट लेकर
एवं उनको नमस्कार करके मैं चला आया, एवं इस प्रकार उस दिन की बैठक समाप्त
हो गयी.
स्वामी
योगानन्द अथवा मैं, ग्रीक भाषा नहीं जानते थे. एक और बैठक में इसी
प्रेतात्मा से मैंने सुना कि, मेरे मित्र उस दिन अपने साथ एक ग्रीक
दार्शनिक की प्रेतात्मा को अपने साथ लाये थे. उन्होने ग्रीक कविता लिखी
थी.पहले तो मुझे भी विश्वास नही हुआ, बाद में कोलम्बिया विश्वविद्यालय के
ग्रीक भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक को स्लेट दिखाने पर उन्होंने कहा- '
हाँ, यह महान दार्शनिक प्लेटो की एक सुंदर रचना है; लेख में कहीं भी कोई
त्रुटि नहीं है, बिल्कुल ठीक है.' उन्होंने उसका अनुवाद करके भी मुझे
सुनाया था.
एक अन्य बैठक
में मैंने योगेन को सशरीर देखने की इच्छा प्रकट की थी, किन्तु उसने अपनी
असम्मति प्रकट की थी. एक अन्य बैठक में मैंने योगेन की आवाज़ भी सुनी थी.एक
टीन से बने चोंगे के भीतर से उसने मुझसे बांग्ला में कहाथा - ' यह स्थान
(अमेरिका) क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? ' मैने कहा था- 'हाँ'. तब उसने कहा
था- ' আমার এ জায়গা ভালো লাগে না, শ্রীমাকে দেখবার জন্য আমি ভারত
যাচ্ছি.' -अर्थात ' मुझे यह जगह अच्छी नहीं लगती, श्रीमाँ को देखने मैं
भारत जा रहा हूँ. '
यहाँ
मैं यह कहना चाहूँगा कि, योगेन ने जीवित अवस्था में भगवान श्रीरामकृष्ण
देव की सहधर्मणी और हमारी श्रीश्री माँ की सेवा मन-प्राण से की थी. " (
মরণের পারে, পৃষ্ঠ ১৬৩-১৬৬ -
' मृत्यु के पार ', पृष्ठ १२३-२५ )
इसके अलावा
वाराहनगर और आलमबाजार मठ में एक साथ अवस्थान करते समय भी हमलोग इन दोनों
गुरुभाइयों में समानता को देख सकते है. फिर जिस समय श्री रामकृष्ण बीमार
होकर काशीपुर उद्द्यान में रह रहे थे, तब उनके सेवकों में काली-महाराज और
योगेन महाराज को शुरुआत से ही ह्मलोग निष्ठा के साथ विशेष भूमिका पालन करते
ह्मलोग देखते हैं. यहाँ पर अपने जिन एग्यारह संतानों को गेरुआ वस्त्र दिए
थे, उनमें नरेन, राखाल, निरंजन, बाबूराम, शशि, शरत, काली, योगीन, लाटू,
तारक, और बूढ़े गोपाल आदि सम्मिलित थे. अर्थात यहाँ पर भी स्वामी
अभेदानन्दजी और योगानन्द थे.
फिर इसी काशीपूर से एक दिन नरेंद्रनाथ अपने गुरु भाइयों को साथ में लेकर, बीडन-स्ट्रीट के पीरु के दुकान में, फौलकरी खा कर
कुसंस्कार तोड़ने के लिए ले गये थे. जो गुरु भाई लोग कुसंस्कार तोड़ने के
लिए गये थे उसमें कालीमहाराज और योगीन महाराज भी उपस्थित थे.
स्वामी
विवेकानन्द जब अमेरिका में रह रहे थे, उस समय कोलकाता के निवासियों ने
टॉउन हाल में हस्ताक्षर-संग्रह के लिए सभा करके उनकी सफलता के लिए अभिनंदन
ज्ञापित किए थे, तब स्वामी अभेदानन्दजी के साथ मिलकर स्वामी योगानन्दजी ने
भी समस्त सभा को आयोजित करने में विशेष भूमिका निभाए थे.वाराहनगर मठ में
रहते समय वे लोग बहुत दरिद्रता और जप-ध्यान में रत रहते हुए जीवन् बिताना
पड़ता था.
एकदिन
श्रीम दोपहर में आकर देखते हैं कि, बरामदे में गर्म ज़मीन के उपर ही
अभेदानन्दजी मरे हुए व्यक्ति के जैसा मूर्छित दशा में सोए पड़े हैं.उन्होने
योगानन्दजी से पूछा - ' क्या मठ की कठोरता को सहन कर सक्ने के कारण शरीर
त्याग दिया है ?' उसके उत्तर में योगानन्दजी ने हंसते हुए उत्तर दिया-
' ও কী মরে ! ও শালা অমনি করে ধ্যান করে '|
' - वह क्या मरने वाला है ! ये तो इसी तरीके से ध्यान करता है.'
वे दोनों एक दूसरे को हृदय से जानते थे. अनुभवी मन के साथ हृदयवत्ता के
साथ मिल कर किसी कार्य में अपना मनोनिवेश किया करते थे. उनका हार्दिक
संपर्क आमलोगों के समझ से परे है.
यदि
वे दोनों लंबे समय तक एक साथ रह सकते तो, उनके मिलन को ह्मलोग और कुछ देख
सकते थे. बहुत दूर देश में रहते हुए भी अभेदानन्दजी मानो उनको हृदय से
देखना चाहते होंगे, इसीलिए उनको प्लानचेट करके बुलाए थे.
इसिप्रकार दोनों गुरुभाइयों की हार्दिक अंतरंगता का परिचय मिलता है. ये
दोनों गुरु भाइयों ने रामकृष्ण-संघ को विशेष तौर पर समृद्ध किया था. स्वामी
योगानन्दजी अपने असीम सेवा और कर्मयोग के बल पर रामकृष्ण-संघ के एक स्तंभ
बन गये, और अंतिम स्तंभ थे स्वामी अभेदानन्दजी जिनके प्रचार-कार्य रूप सेवा
के मध्यम से भी रामकृष्ण-संघ स्मरद्ध हुआ है.
दोनों
गुरुभाइयों की मानसिकता तार्किक थी. स्वामी अभेदानन्दजी जैसे श्रीरामकृष्ण
को देखते ही अपना गुरु नहीं मान लिया था, बहुत दिनों तक उनको जाँचने परखने
के बाद ही माने थे. ठीक उसी प्रकार स्वामी अभेदानन्दजी भी वैज्ञानिक जैसी
मानसिकता से उनको थोक-ब्जा कर देख लिया था. इसीलिए श्री रामकृष्ण को भी
कहना पड़ा था- ' इन सभी लड़कों में तूँ ही बुद्धिमान है. नरेन के ठीक नीचे
ही तेरी भी बुद्धि है. नरेन जिस प्रकार एक मत चला सकता है, तुम भी वैसा
करने में सक्षम हो सकोगे.'
इन
दोनो गुरु भाइयों के बीच अंतरंता के जड़ में थीं श्री श्री माँ सारदा .
मानो श्री श्री मा ही दोनों को एक ही दिशा में संचालित कर रहीं थी. श्री
माँ ने उनमें से एक को अपना सेवक-कर्मी और भारवाही बनाया था, और दूसरे को
ज्ञानी-सेवक के रूप में गढ़ा था. एक थे कर्मयोगी तो दूसरे थे ज्ञानयोगी
संतान. दोनों ही मातृगत प्राण थे. - मानो श्री श्री मान के मध्यम से उनके
आंतरिक सबन्ध की बात प्रकाशित हुई थी.
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' सावर्ण -वार्ता ' पत्रिका में प्रकाशित लेख.
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