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मंगलवार, 22 मई 2012

शिक्षा का मुख्य विषय: चरित्र-निर्माण ! [***2] परिप्रश्नेन

२. प्रश्न : मनुष्य को अच्छा क्यों बनना चाहिए ? इसके पीछे तर्क क्या है ? जब सभी लोग एन केन 
प्रकारेन धन कमाने की होड़ में दौड़ रहे हों, तब मुझी को अच्छा  क्यों बनना चाहिए ?
उत्तर :  अच्छा प्रश्न है. क्योंकि वर्तमान समाज ने हमलोगों को हर तरीके से यह समझा दिया है कि अच्छा लड़का बनने से कोई लाभ नहीं है, अच्छा बनना तो मुर्खता है, इसीलिए अब हमलोगों ने सदाचार के विचार को ही अपने जीवन से बाहर कर दिया है.पाश्चात्य सभ्यता की नकल करते हुए हमलोग भी अधिक से अधिक भोगवादी बनने के लिए आपस में स्पर्धा कर रहे हैं. तथा स्वयं को आधुनिक होने का दावा करते हैं, इसीलिए बिना युक्ति-तर्क किये किसी भी नये विचार को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। अतः यह बहुत स्वाभाविक है कि हमलोग यह जानना चाहें कि अच्छा बनने के पीछे तर्क क्या है ?  
तर्क अत्यन्त सरल है. यदि अच्छा मनुष्य नहीं बनेंगे तो यह जीवन (यह सुनहरा मौका ?) नष्ट हो जायेगा, व्यर्थ चला जायेगा, मनुष्य-जन्म सार्थक नहीं हो सकेगा. जीवन का मूल्य नहीं मिलेगा. बुरे कार्यों
का समर्थन करते करते, बुद्धि कुत्सित हो जाएगी, मन संकीर्ण हो जायेगा, स्वार्थपरता एवं प्रतियोगिता के विचारों से ग्रस्त होकर हम अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों का अमंगल करने में करेंगे. मेरे द्वारा दूसरों का कल्याण होने के बजाय हानी होगी, और मेरा जीवन भी क्रमशः पूरी तरह से बर्बाद हो जायेगा. समाज में बुरे लोगों की संख्या में क्रमशः बढ़ोत्तरी होते रहने के कारण ही समाज में इतना दुःख-कष्ट है. जैसे जैसे अच्छे (चरित्रवान) मनुष्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी, वैसे वैसे जनसाधारण के दुःख-कष्ट में भी कमी  होती जाएगी. इसीलिए सबसे पहले मुझे अच्छा (चरित्रवान ) मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए. यदि हमलोग दूसरों का कल्याण करना चाहते हों तो स्वयं अच्छा मनुष्य बनने के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं है. यदि मनुष्य अच्छा (चरित्रवान ) नहीं बन सका तो प्रजातंत्र, समाजवाद, कानून, सरकार, पुलिस  कुछ नहीं कर पायेगी. इसीलिए प्रत्येक को अच्छा बनने का प्रयास करने के आलावा अपना या समाज के कल्याण का दूसरा कोई उपाय नहीं है. जो लोग देश को चलाते हैं, या सामान्य नागरिक उनके मार्गदर्शन में चलते हैं, किसी की बुद्धि में यह साधारण सी युक्ति नहीं घुसती है. वे इस सरल युक्ति को समझने की चेष्टा करने भी कतराते हैं. क्योंकि राजनीती, राजनीती से प्रभावग्रस्त वर्तमान शिक्षा प्रणाली तथा जनसम्पर्क के समस्त माध्यम (मिडिया) इसके उलट विषयों को ही युवाओं के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. चरित्रवान मनुष्य बनने की अनिवार्यता तथा उपायको, सम्पूर्ण विश्व की मानवता के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए ही १७५ वर्ष पूर्व (१८३६ ई० ) में श्रीरामकृष्ण आविर्भूत हुए थे. उनके साथ श्रीश्री माँ सारदा देवी तथा स्वामी विवेकानन्द भी आये थे. 
जिसके फलस्वरूप  केवल भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अच्छा मनुष्य बनने की अनिवार्यता के पीछे क्या तर्क है, उसमें क्रमशः शक्ति संचारित हो रही है. जिसके कारण सर्व-मानव कल्याण की सम्भावना का अरुणोदय हो रहा है.यह सरल युक्ति भी जिसकी बुद्धि में प्रविष्ट नहीं होती, वे कैसे मनुष्य हैं- यह चिन्तनीय विषय है।

[***1]परिप्रश्नेन


प्रकाशक का कथन 
' तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
                     उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः॥' (गीता :४: ३४)
भगवान श्री कृष्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं - ' वह ज्ञान श्रीगुरु के चरणों में प्रणाम करके (प्रणिपातेन ), आत्मविषयक प्रश्नों के द्वारा - अर्थात आत्मा और अनात्मा के विषय में, मैं कौन हूँ, संसार-बन्धन क्या है, उससे मुक्ति का उपाय क्या है, इस प्रकार विविध प्रश्नों के द्वारा (परिप्रश्नेन ); तथा गुरुसेवा के द्वारा प्राप्त होता है। तत्वदर्शी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश देंगे। ' 

श्री रामकृष्ण ने कहा है - " विज्ञानी सदा ब्रह्म दर्शन करते हैं, आँखें खोल कर भी सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं। वे कभी नित्य से लीला में रहते हैं और कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी के आठों बन्धन खुल जाते हैं, काम क्रोधादि भस्म हो जाते हैं, केवल आकार मात्र रहते हैं। ' नेति नेति ' विचार कर उस नित्य अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाते हैं। वे विचार करते हैं - वह जीव नहीं, जगत नहीं, २४ तत्त्व भी नहीं हैं। नित्य में पहुँच कर वे फ़िर देखते हैं, वही सब कुछ हुए हैं- जीव, जगत २४ तत्व सभी। " 
महामण्डल के प्रत्येक केन्द्रों में अक्सर परिचर्चा-समूह की बैठकें (पाठ-चक्र)  हुआ करती हैं। इन समस्त पाठ-चक्रों, विभिन्न युवा प्रशिक्षण शिविरों में, तथा पत्रों के माध्यम से श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा के साथ साथ अन्य विषयों के संबन्ध में असंख्य प्रश्न लगातार आते रहते है। इसीलिए महामंडल में अनेकों आवश्यक प्रश्नों के उपर अनवरत चर्चाएँ होती रहती हैं। कई व्यक्तियों के प्रश्न ऐसे होते हैं, जो स्वाभाविक रूप से अनेकों व्यक्तियों के मन में अनुत्तरित ही रह जाया करते हैं। इसीलिए बहुत से लोग इस प्रश्नोत्तरी को प्रकाशित करने का अनुरोध कर रहे थे।

सभी स्थानों में होने वाली  परिचर्चाओं को संग्रहित करना संभव नहीं होता, फिर भी जितनी संग्रहित है, उन्हीं  सबको प्रकाशित करने में कई हजार पृष्ठ लग जायेंगे, इसीलिए १९८३ के जनवरी अंक से महामण्डल के मासिक मुखपत्र  ' विवेक-जीवन ' के प्रत्येक अंक में इसके कुछ कुछ अंशों को प्रकाशित किया जा रहा है. किन्तु महामण्डल के मुखपत्र 'VIVEK- JIVAN ' में पूर्वप्रकाशित बंगला प्रश्नोत्तरी को परिप्रश्नेन शीर्षक से बंगला भाषा में  ' प्रथम-खण्ड ' एवं ' द्वितीय-खण्ड ' का प्रकाशन हो चूका है.
 
इसके बावजूद बहुत से लोग इसको हिन्दी में प्रकाशित करने का अनुरोध कर रहे थे. किन्तु प्रकाशन खर्च में लगातार  वृद्धि होते रहने के कारण हिन्दी भाषा में प्रकाशित करना संभव नहीं हो पा रहा था.
प्रथम-खण्ड का हिन्दी अनुवाद ' जिज्ञाषा और समाधान ' नाम से प्रकाशित हुई है. ' विवेक-जीवन ' के अंग्रेजी भाग में जो प्रश्नोत्तरी प्रकाशित हुए थे उन्हें भी पुस्तक के रूप में ' By Questioning ' के नाम से प्रकाशित किया जा चूका है.बंगला में ' परिप्रश्नेन-द्वितीय खण्ड ' का प्रकाशन १९९० ई० में ही हो गया था;  किन्तु कतिपय कारणों से उसका हिन्दी अनुवाद ' परिप्रश्नेन अद्भुत प्रश्नों के 
अद्भुत उत्तर '  के नाम से अभी (२०१२ में ) प्रकाशित किया जा रहा है.

यदि हमलोग सचमुच अपने देश का पुनर्निर्माण करना चाहते हों, भारतवर्ष को एक महान देश के रूप में गढ़ना चाहते हों तो स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को कार्य में उतार कर दिखाना ही होगा. केवल अपने देश के लिए ही नहीं, सम्पूर्ण मनुष्य-समाज की उन्नति के लिए उनके उपदेश कितने मूल्यवान हैं, यह अब देश-विदेश के अनेकों विचारशील व्यक्तियों के समक्ष क्रमशः स्पष्ट से स्पष्टतर होता जा रहा है. किन्तु वर्तमान परिवेश में उनके किस उपदेश को सबसे पहले कार्य में रूपायित करना अनिवार्य है, इस बात को पहले भली-भांति समझ लेना आवश्यक है.

जो लोग स्वामी विवेकानन्द के भावधारा के अनुरूप देश का निर्माण करने के आग्रही हैं, या जो महामण्डल केंद्र यह कर रहे हैं, वे यदि इस पुस्तक से भारत पुनर्निर्माण के लिए अनिवार्य प्राथमिक कार्य की प्रयोजनीयता को थोडा भी समझ सकें; तो हमलोग समझेंगे कि इस पुस्तक को प्रकाशित करना सार्थक हुआ है।
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 १. प्रश्न : महामण्डल का मुख्य कार्य क्या है ?
उत्तर : इसके उपर पहले भी कई बार चर्चा हो चुकी है. युवाओं को " जीवन-गठन " में सहायता करना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है. जीवन-गठन से तात्पर्य है- ' चरित्र-गठन ', अर्थात 'धर्म की प्राप्ति ', 
या ' आध्यात्मिकता की प्राप्ति '. क्योंकि धर्म-प्राप्ति, आध्यात्मिकता-प्राप्ति,चरित्र निर्माण या जीवन गठन - ये सभी अलग अलग वस्तुएं नहीं है.

 किसी चरित्र-हीन मनुष्य को धार्मिक या आध्यात्मिक मनुष्य कैसे कहा जा सकता है ? अपना ' जीवन-गठन ' करने में समर्थ व्यक्ति को ही ' धार्मिक, आध्यात्मिक या चरित्रवान मनुष्य ' इत्यादि भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जा सकता है, किन्तु ये सब एक ही बात है। 

स्वामीजी की शिक्षाओं एवं विचारों का अध्यन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि देश के जनसाधारण  के व्यक्ति-जीवन को एक चरित्रवान मनुष्य के रूप में गठित नहीं किया गया, तो अन्य किसी कल्याणकारी योजना (मनरेगा इत्यादि ) को लागु करने से भी देश का यथार्थ कल्याण कभी सम्भव न हो सकेगा.

 क्योंकि यदि किसी व्यक्ति का जीवन सुंदर ढंग से निर्मित नहीं हुआ हो तो वह अपने व्यक्तिगत जीवन में तो सफल नहीं ही हो पाता, बल्कि उसके अनगढ़े चरित्र के कारण ही देश में भी भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है. इसीलिए यदि हमलोग सचमुच अपने देश को महान बनाना चाहते हों, तो  देश के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सुंदर ढंग से गठित करना ही शिक्षा-प्रणाली की प्राथमिक अनिवार्यता होनी चाहिए.

जनसाधारण के जीवन को उन्नत करने का तात्पर्य केवल उन्हें आर्थिक दृष्टि से उन्नत करना ही नहीं है, बल्कि उनके चरित्र को इस प्रकार उन्नत करना है कि वह न्यायोचित-पथ से कभी विचलित नहीं होगा, उसकी आर्थिक परिस्थिति चाहे जैसी भी क्यों न हो, वह धर्म-मार्ग से कभी नहीं डिगेगा. यहाँ तक कि मृत्यु के मुख में जा कर भी वे लोग सत्य के मार्ग का त्याग नहीं करेंगे, ईमानदारी से जीवन यापन करना नहीं छोड़ेंगे. उनके सामने चाहे जैसा भी प्रलोभन या दबाव क्यों न लाया जाये, वे किसी भी हाल में अपने चरित्र का परित्याग नहीं करेंगे, चरित्र-भ्रष्ट नहीं किये जा सकेंगे. ऐसा मनुष्य गढ़ना बहुत कठिन कार्य है, किन्तु सभी देश-भक्त नेताओं का यही एकमात्र आवश्यक कर्तव्य है.

इस सर्वाधिक आवश्यक कार्य पर किसी की दृष्टि नहीं है, इसीलिए आज के समाज में इतनी गन्दगी, इतना भ्रष्टाचार, अधर्म,  एवं मनुष्य की इतनी उपेक्षा, मनुष्य होकर भी दूसरे मनुष्य के प्रति इतनी घृणा का भाव, उनके ' मनुष्यत्व ' प्रति कोई श्रद्धा न दिखा कर उनके प्रति घोर उपेक्षा का भाव देखा जा रहा है. समाज के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाने से यही दृश्य दिखाई दे रहा है.प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों हो रहा है?
 इसका कारण यही है कि हमलोग अभी तक चरित्रवान मनुष्य नहीं बन सके हैं, हमलोगों के जीवन में सच्ची आध्यात्मिकता नहीं आ सकी है. हमलोग स्वयं सच्चे मनुष्य नहीं बन सके हैं, इसीलिए दूसरों
 के ' मनुष्यत्व ' को हृदय से सम्मान नहीं देते हैं.

 केवल अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए जितना आवश्यक प्रतीत होता है, उसीके अनुपात में दूसरों को खुश करने की चेष्टा करते हैं, या झूठी विनयशीलता और मधुर स्वाभाव व्यक्ति होने का दिखावा करते हैं, किन्तु स्वयं को (अपने यथार्थ स्वरुप को ) जान लेने के बाद ही दूसरों को जाना जा सकता है.

और
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यह कार्य केवल आध्यामिकता के द्वारा ही संभव है, अन्य किसी उपाय से अपने या दूसरों के सच्चे स्वरुप को नहीं जाना जा सकता. आध्यात्मिकता के बिना जीवन की सच्चाई को जानने 
 (Temporary and Eternal के बीच अंतर को समझने ) का अन्य कोई उपाय नहीं है. क्योंकि पुस्तक को पढना एक बात है, और अपने सच्चे स्वरुप को अनुभव से जान लेना बिल्कुल अलग बात है. इन दिनों सारी परियोजनाएँ पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर ही बनाई जा रही हैं. बैठे बैठे पुस्तकों को पढ़ने या लिखने से ही सत्य ( जो कभी नहीं बदलता, जो शाश्वत और सनातन है ) को पकड़ा नहीं जा सकता.

 उसके लिए पहले चरित्र गठन करना होगा, या सच्ची आध्यात्मिकता अर्जित करनी होगी. भारतवर्ष में प्राचीन काल में सच्ची आध्यात्मिकता थी तथा उसे समाज के कल्याण में प्रयोग भी किया जाता था. किन्तु अभी हमलोग यह सब भूल गए हैं, तथा ऐसा मानते हैं कि हमारे पूर्वजों का ज्ञान सही नहीं था.  सोचते हैं, हम बड़े बुद्धिमान बन गए है, किन्तु जब अपनी बुद्धि से किसी समस्या को हल नहीं कर पाते तो बुद्धि लाने के लिए विदेशों में जाते हैं. किन्तु जो लोग इस समय सम्पूर्ण विश्व की जानकारी रखते हैं, वे जानते हैं कि विश्व के अन्यान्य देशों ने - जिस प्रकार यथार्थ बुद्धि (ज्ञान)का अन्वेषण पहले इसी भारतवर्ष में आकर किया था, ठीक उसी प्रकार अब भी उन्हें यदि जीवन के उद्देश्य
को समझना है, तो पुनः यहीं आना होगा. 

महामण्डल के विविध कार्यक्रमों में उसी जीवन-गठन की शिक्षा को बचपने से या तरुण अवस्था से ही देने, की चेष्टा की जाती है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति (अपने यथार्थ स्वरुप को पहचान कर) 
यथार्थ ' मनुष्य ' बन सके. जिस प्रकार मिट्टी सूख कर कड़ी हो जाये तो उसको इच्छानुसार रूप नहीं दिया जा सकता, उसी प्रकार उम्र बढ़ जाने के बाद, समय निकल जाने के बाद, नए सीरे से जीवन-गठन करना भी उतना आसान नहीं रह जाता है.

 इसीलिए महामण्डल में कम उम्र में ही अपना चरित्र-निर्माण करने की चेष्टा की जाती है. कम उम्र से ही इसका प्रयास करने से जीवन गठन सहज होता है, इसीलिए ' विवेक-वाहिनी ' के नाम से महामण्डल का बाल-विभाग भी कार्य करता है, जहाँ बचपन से ही उनके जीवन को सुंदर रूप से गढ़ने की चेष्टा की जाती है. नियमित प्रयास के द्वारा अपना चरित्र गढ़ने में बालकों-तरुणों-युवाओं की सहायता करना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है.                              

 इसके अतिरिक्त महामण्डल के द्वारा अन्य जितने भी समाज-सेवा के कार्यक्रम चलाए जाते हैं, वे महामण्डल के वास्तविक कार्य या उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि सभी प्रकार के समाज-सेवा मूलक कार्यों को हमलोग अपने चरित्र-गठन के मुख्य कार्य में सहायक मान कर ही करते हैं. जिनकी सेवा की जा रही है, उनको धन्य करना महामण्डल द्वारा की जाने वाली समाज-सेवा का उद्देश्य नहीं है, बल्कि इन समाजसेवा-मूलक कार्यों के माध्यम से महामंडल के कार्यकर्ता स्वयं अपना चरित्र गठन करने के उपादानों को संग्रहित करते है. 

क्योंकि कोई भी सिद्धान्त या ज्ञान तब तक व्यक्तिगत चरित्र में प्रविष्ट नहीं हो सकता जब तक उसे कार्य में परिणत करने, या बार बार उसको अनुष्ठानिक रूप में दुहरा कर अभ्यास न किया जाय. इसीलिए महामण्डल में विविध कार्यक्रमों के माध्यम से अच्छे सिद्धान्तों पर आधारित जीवन-गठन की व्यावहारिक पद्धति का प्रशिक्षण दिया जाता है. महामण्डल की समाज-सेवा का लक्ष्य और उद्देश्य है अपने सच्चे
 स्वरुप को जान लेना।
अतः किसी भी समाज-सेवा मूलक कार्य में कूद पड़ने के पहले समाज-सेवा का लक्ष्य तथा उद्देश्य को भली-भाँति समझ लेना आवश्यक है.इसके लिए महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में नियमित रूप से पाठचक्र, सामूहिक परिचर्चा, स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढ़ने तथा अन्य सेवामूलक कार्यों का अनुष्ठान किया जाता है.
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13.स्वामी अभेदानन्द के प्रिय नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

13.स्वामी अभेदानन्द के प्रिय नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
 श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग लीला पार्षदों में स्वामी अभेदानन्दजी एक प्रमुख स्थान रखते हैं. भारतीय शाश्वत-सनातन ' सार्वभौमिक-धर्मादर्श ' के जिस विजय-विजयन्ती को उनके गुरु-भाई विवेकानन्द ने पाश्चात्य भूमि पर लहराया था, उस प्रवाह को अक्षुण्ण बनाये रखने का उत्तरदायित्व उन्होंने अपने अनुज अभेदानन्द को सौंपा था. स्वामी अभेदानन्दजी ने पूरी निष्ठा के साथ इस भारी उत्तरदायित्व का पालन सुदीर्घ २५ वर्षों (१८९६-१९२१) तक किया एवं पाशचतय भूमि पर, इसकी एक सूदृढ़ बुनियाद खड़ी कर दी थी.
उनहोंने भारत के ' सर्वजनीन- वेदान्त ' के उदार और सर्वलौकिक सनातन धर्म-दर्शन के सूतीक्ष्ण यूक्ति-तर्क पूर्ण व्याख्या के आलोक में ही इस पाश्चात्य-विजय अभियान में सफलता प्राप्त की थी.


पाश्चात्यवासी उनकी उस प्रबल तर्कपूर्ण शाशत्रार्थ  को सुन कर मुग्ध हो गये थे, तथा उनको स्वामीजी के योग्य उत्तराधिकारी के रूप में पहचाना  था. कहना न होगा कि उन्हीं की प्रबल प्रचेष्टा से पाश्चात्य में वेदांत-प्रचार के कार्य में सफलता मिली थी. तत्पश्चात वे १९२१ ई० में भारतवर्ष लौट आए थे, एवम् यहाँ भी विभिन्न प्रदेशों में श्रीरामकृष्ण भावप्रचार कार्य में आजीवन रत रहे थे. 
प्रचारक स्वामी अभेदानन्दजी महाराज इधर आध्यात्म-साम्राज्य के अधिपति थे. श्रीरामकृष्ण के लीलासहचारों में से प्रायः सभी एक एक कर इस धरा-धाम को छोड़ कर लीला-संवरण कर लिए थे. उनमें से केवल अभेदानन्दजी ही कोलकाता में रह रहे थे. यह २५ अगस्त १९३८ की बात है. उस समय अभेदानन्दजी रामकृष्ण वेदान्त मठ के संस्थापक अध्यक्ष थे. और देशनायक सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्रीय कांग्रेस के सभापति थे. दोनों अपने अपने क्षेत्रों में मुख्य-भूमिका को निभा रहे थे. उन दोनों का कार्य-क्षेत्र अलग होने पर भी,  निर्माणकारी सार्वभौमिक कल्याण-कारी कार्यों, - ' बहुजनहिताय बहुजनसूखाय ' व्रत में दोनों का मन-प्राण समर्पित था. उनलोगों की हृदय-वीणा मानो एक ही लय के समस्वर में मुक्ति-आन्दोलन का अनुकंपन बन कर गूँज रहे हैं. दोनों एक दूसरे के आत्मा के आत्मीय थे. 
एक की आत्मा दूसरे से जुड़ी हुई थी. एक का दूसरे पर जब स्नेह बिल्कुल सच्चा था, तो उन दोनों में भेंट होना भी अनिवार्य रूप से आवश्यम् भावी था. स्वामी अभेदानन्दजी तब थोड़ा अस्वस्थ थे. कोलकाता के रामकृष्ण वेदान्त मठ के दूसरे तल्ले पर रह रहे थे, डाक्टर ने उनको नीचे चढ़ने-उतरने को मना कर दिया था. एक दिन अपने सेवक संन्यासी को बुला कर महाराज ने कहा- ' देखो, राष्ट्र-गौरव सुभाषचन्द्र को देखने की बहुत इच्छा हो रही है, क्या उनको इसकी सूचना दे सकते हो?' महाराज की इच्छा और निर्देश को सुभाषचन्द्र के पास पहुँचा दिया गया.
 
सूचना मिलते ही, सुभाषबाबू ने संदेश भिजवाया कि वे यथा शीघ्र महाराज को देखने और श्रद्धा प्रकट करने के लिये आएँगे. यह खबर मिलते ही, अभेदानन्दजी आनन्द से भर उठे, और सुभाषचन्द्र से मिलने के लिये हर क्षण अधीर हो कर प्रतीक्षा करने लगे. २५ अगस्त १९३८ को रात ८ बजे धोती-कुर्ता धारण किये एक सज्जन व्यक्ति को मठ में देखते ही, महाराज बोल पड़े- ' सुभाष, आओ मैं तुम्हें अपने सीने से लगा लूँ.' वे उनको पहले कभी देखे नहीं थे, किन्तु कैसे उन्हें पहचान लिये, कोई नहीं जानता. 
उन दोनों के आपस में मिलने का दृश्य बड़ा विलक्षण और असाधारण था. वैसे आश्चर्य-पूर्ण मिलन दृश्य को देखने मात्र से दोनों आखें जुड़ा जातीं हैं. वह दिव्य आलिंगन-दृश्य केवल हृदय से हृदय से अनुभव करने की वस्तु है. दोनों की आँखों से स्नेह, प्रेम और श्रद्धा की अमृत धारा झर-झर कर बहती जा रही थी. वह मानो जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध रहा हो. प्रत्यक्ष दर्शी के मानस-पटल पर अंकित उस मिलन-दृश्य की जो छवि अंकित हुई थी उसका वर्णन करते हैं- ' आज भी वह दृश्य ह्मलोगों के हृदय पर स्वर्णक्षरों में खुदी हुई है.वे सब बातें याद आने पर सारा शरीर रोमांचित हो उठता है. ...उनका (सुभाषचन्द्र का ) कैसा रूप था, उनकी कैसी भक्ति थी !...वीर- महावीर थे. 
भारतमाता के सच्चे  सपूत ' नेताजी सुभाष ' के उपर महाराज के हृदय में बहुत आशाएँ थीं, तथा वे विश्वास करते थे कि भारतवर्ष को यदि स्वाधीनता प्राप्त होगी, तो वह सुभाषचन्द्र के माध्यम से ही प्राप्त होगी. इसीलिये सुभाषचन्द्र में भारतमाता के प्रति आत्म-त्याग की भावना और सेवा-निष्ठा ( जीवन के भोगों के प्रति मोह का त्याग और सेवाव्रत ) में परम अनुराग से संतुष्ट होकर अभेदानन्द जी ने पूछा था- ' सुभाष, भारत की स्वाधीनता कबतक वापस आएगी?
( संपूर्ण भारतवर्ष चरित्र-निर्माण कारी आन्दोलन की अनिवार्यता को कब तक समझ सकेगा ?) इसके उत्तर में भारत-सेवक (देशभक्त) सुभाषचन्द्र ने आवेगपूर्ण हृदय से कहा था- ' महाराज, जगद्डल पत्थर को खिसकाना क्या कोई आसान काम है ?....फिर भी आशा है महाराज. आशा नहीं होती तो मैं इतनी मिहनत क्यों कर रहा हूँ? भारत स्वाधीन होकर ही रहेगा ! '
जब भारतमाता के वीर-सपूत सुभाषचन्द्र, ने भारत-प्रेमी अभेदानन्द महाराज को आश्वासन दे दिया था, तो क्या वह बात कभी मिथ्या हो सकती थी! क्योंकि, सुभाषचन्द्र के मन की धधकति हुई इच्छा के साथ महाराज की प्रचंड इच्छा भी जुड़ी हुई थी. इसीलये वैसी सम्मिलित इच्छा (एक मन-प्राण होकर लिया गया संकल्प) एकदिन फलदायी होने को बाध्य है.
नेताजी सुभाष की इच्छा और आशापूर्ण वचनों को सुन कर अभेदानन्दजी आनन्द से भर उठे, और गदगद होकर आशीर्वाद दिये- ' विजयी-भव !, तुम्हारा स्वास्थ्य सदैव अक्षुण्ण बना रहे. जब तुमको समय मिले तो तुम फिर आना.'  मधुर-भाषी सुभाषचन्द्र ने झुक कर पूरी विनम्रता के साथ महाराज की पवित्र चरण-धूल और आशिर्वचनों को सिर-माथे धारण किया, एवम् उसीके साथ देश और देश की विभिन्न समस्याओं के उपर लंबे समय तक सलाह-मशविरा भी किया. 
उनकी देशभक्ति और देशप्रीति से अत्यन्त प्रसन्न हो कर आनन्द के साथ जयकारा लगाये- ' जय राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस की जय ! तुम राष्ट्रपति बन गये हो, तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा थी, इसीलिए आज मैं अत्यन्त आनन्दित हूँ. ..तुम बांगलादेश  और बंगाली जाति के सिरमौर तो हो ही, किन्तु तुमने समग्र भारत के मुख को भी उज्ज्वल कर दिया है !' 
उसदिन अभेदानन्द महाराज सुभाषचन्द्र की स्वदेशप्रेम की आकुलता को देख कर विस्मित और मुग्ध हो गये थे, और नहीं नहीं करके भी उस समय के भारतवर्ष की वर्तमान परिस्थितियों पर लगभग घंटा भर से अधिक देर तक बातचीत किए थे. सुभाषचन्द्र इस बात को जानना चाहते थे कि भारत की समस्याओं का निदान कैसे किया जा सकता है? उसके उत्तर में महाराज ने कहा था- ' देखो, इस जगाद्दल पत्थर को हटाने का एक उपाय है, - एकता के द्वारा, भारत का नागरिक-समाज संगठित हो कर कार्य करना सीख सके इसकी चेष्टा में जुट जाओ!
   उसके बाद महाराज के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करके तथा उनके आशीर्वाद को ग्रहण कर, अपने घर वापस लौट गये थे. किन्तु इधर महाराज हर समय सुभाष की ही यादों में खोये रहे, एवं रात्रि के समय अपने सेवक सन्यासी (पी. ए) से हंसते हुए बोले- ' तुमने सुभाष बाबू के प्रसन्न-चित्त मुख पर ध्यान दिया? बहुत ही प्रसन्न-वदन फिर भी कितना गंभीर शान्त हृदय पुरुष. भीतर में त्याग का भाव है न, यह अपना जीवन किसी सन्यासी की तरह व्यतीत करता है- माहत्यागी है.

12.' स्वामी अभेदानन्द एवं महात्मा गाँधी '

12.' स्वामी अभेदानन्द एवं महात्मा गाँधी '
२ अक्टूबर को ही मोहनदास करमचन्द गाँधी एवं स्वामी अभेदानन्द दोनों का जन्मदिन है. साल-तारीख की दृष्टि से गाँधीजी, स्वामी अभेदानांदजी से ३ वर्ष छोटे थे. स्वामी अभेदानन्दजी का जन्म, २अक्तूबर, सन १८६६ ई० को हुआ था, एवम् गाँधीजी १८६९ ई० को उसी दिन जन्म ग्रहण किए थे.
स्वामी अभेदानन्दजी के समान गाँधीजी में भी बचपन से ही, एक आध्यात्मिक मानसिकता दिखाई देती है. गाँधीजी को बचपन से ही रामायण की कथा-कहानियों को सुनने का मौका मिला था. पढ़ने लिखने में अच्छे छात्र थे. किन्तु बचपन से ही 'सत्य-निष्ठा' के प्रति उनमें विशेष अभिरुचि दिखाई देती थी. इसीलिए बिलायत से लॉ (बैरिस्टरी की परीक्षा) पास करने पर भी, आध्यात्मिक चेतना के माध्यम से सत्य को प्रतिष्ठित करना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया था.
इसीलिए परवर्तिकाल में उन्होंने 'सत्याग्रह' को एक नीति के रूप में परिणत कर दिया था . उनकी यही नीति देश के स्वतंत्रता संग्रामियों को अनुप्रेरित करती थी. उन्होंने अहिंसा के मार्ग से लड़े जाने वाले संग्राम के इतिहास में 'नमक-सत्याग्रह', 'असहयोग आन्दोलन', ' विदेशी सामग्री-वर्जन' अभियान एवम् सबसे अंत में ' भारत छोड़ो' आन्दोलन आदि के मध्यम से विश्व के समक्ष नये विचार प्रस्तुत किए थे. स्वदेशी मनोभावापन्न भारत वासियों को इस संग्रामी देशसेवक गाँधीजी ने आन्दोलित किया था.
 उसि प्रकार स्वामी अभेदानन्द भारतमाता के एक विशिष्ठ आध्यात्मवादी सन्तान थे. उन्होंने ' India and her people ' - नामक पुस्तक की रचना की थी. इस पुस्तक को पढ़ने से भारत के स्वतंत्रता सेनानियों में  स्वदेश-प्रेम की वृद्धि होती थी. इसीलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक को निसिद्ध (Band) घोषित कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी एवम् महात्मा गाँधी दोनों का हृदय आध्यात्मिकता से परिपूर्ण था. एवम् सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिये दोनों में एक विशेष निष्ठा थी.
स्वामी अभेदानन्दजी का जन्म कोलकाता में हुआ था, किन्तु परवर्तिकाल में वे श्रीरामकृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करके अपने गुरुभाई स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर, पाश्चात्य देशों में भारत के वेदान्तिक धर्म-दर्शन एवं संस्कृति का प्रचार करने में १८९६ से १९२१ ई० तक व्यस्त रहे थे.
उधर धार्मिक-गाँधीजी का जन्म गुजरात राज्य के पोरबंदर में होने के कारण, आध्यात्मवादी अभेदानन्दजी के साथ उतना घनिष्ट परिचय होने का अवसर नहीं मिला था. अमेरिका में दीर्घकाल तक प्रचार-कार्य करने के बाद १९२१ ई० में स्वामी अभेदानन्दजी भारत लौट आये थे. तत्पश्चात १९२५ ई० में उन्होंने दार्जलींग में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना की थी.
दार्जलींग में रहते समय ही वे देशबन्धु चितरंजन दास को उनके दार्जलींग वाले निवास पर देखने के लिए गये थे. क्योंकि ' स्वराज्य पार्टी ' के प्रमुख सदस्य चितरंजन दास उस समय बहुत बीमार थे.
किन्तु महात्मा गाँधी के साथ भी चितरंजन दास का बहुत घनिष्ट सम्बंध था. इसीलिए वे भी देशबन्धु चितरंजन दास को देखने के लिए उनके दार्जलींग स्थित निवास पर गये थे. इसी समय चितरंजन दास के आवास पर उन दोनों का परिचय हुआ था. यहाँ के एकांत वातावरण में उन दोनों के बीच जो बातें हुई थीं, नको अभेदानन्दजी ने अपने डायरी में लिख लिया था. गाँधीजी के साथ उनकी बातचीत अँग्रेज़ी में हुई थी, किन्तु वे स्वयम् ही उस पूरे वार्तालाप को बांग्ला में अनुवाद करके लिख लिए थे.      

{Gandhiji at the Hill Cart Road near Kak Jhora }
with Anne Beasant and Deshbandhu Chitranjan Das in 1924. One can see the Toy Train track running alongside the road as well as a hand-driven rickshaw behind. Fallen Cicada - Unwritten History of Darjeeling Hills by Barun Roy}
 [ In the Swami’s Bengali Biography by Swami Sankrananda, the following conversation between Swami Avedananda and Mahatma Gandhi which took place in Darjeeling has been recorded.] Swami Abhedadananda -  “I have come from America to become personally acquainted with you and your movement.”
१९२४ ई० में जब देशबंधु चितरंजन दास के निवास पर अभेदानन्दजी के साथ जब गाँधीजी की पहली मुलाकात हुई थी, अभेदानन्दजी ने उनसे कहा था- " मैं आपसे तथा आपके आन्दोलन से, प्रत्यक्ष रूप से परिचित होने के लिए अमेरिका से आया हूँ . " Gandhiji - “Why have you come from America to see me?” 
इस बात को सुन कर गाँधीजी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था- " केवल मेरे साथ परिचित होने के लिए आप, इतनी दूर - अमेरिका से यहाँ क्यों आये हैं ? "
 अभेदानन्दजी १८९६ से लेकर १९२१ ई० तक, कुल २५ वर्षों तक अमेरिका में थे. किन्तु इसी दौरान भारतवासियों में स्वदेशप्रेम जाग्रत कराने के उद्देश्य से सन् १९०६ ई० में ६ महीने के लिये भारतवर्ष आये थे.
Swami Avedananda, “To learn the truth of the Non-cooperation movement which you have started in India. My friends in America asked me about it but I could not muster much information from the scanty reports which were published in American newspapers. I came just before you were put in the jail, but the things have changed since?” 
.इसीलिये उन्होंने गाँधी को कहा- " आपने भारत में जो असहयोग-आन्दोलन आरम्भ किया है, मैं उसका यथार्थ तथ्य जानने के लिये आया हूँ. अमेरिका में रहने वाले मेरे मित्रगण जब इस सम्बन्ध में मुझसे प्रश्न करते थे, तो मैं उनको ठीक से कुछ बता नहीं पाता था. क्योंकि अमेरिका से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में इस आन्दोलन के बारे में जो जानकारी दी जाती थी, वह बहुत संक्षिप्त होती थी. आपके जेल जाने से कुछ दिनों पहले ही मैं भारत आया था. 
किन्तु आने के बाद देखा क़ि आन्दोलन में महापरिवर्तन हो चुका है. " 
 Gandhiji, “How have the things changed !? ” 
 स्वामी अभेदानन्दजी की बातों को सुन कर गाँधीजी आश्चर्य से बोले- ' आपने क्या परिवर्तन देखा ? '
Swami Avedananda, “At first you were a non-cooperator, but now you are only a social reformer. Is it not a big fall?” 
अभेदानन्दजी ने कहा- " आप पहले एक ' असहयोगी ' थे, किन्तु इस समय तो आप केवल एक समाज-सुधारक की भूमिका निभा रहे हैं.  क्या इसे अपने आदर्श से पीछे हटना नहीं कहा जायेगा ? " 
Gandhiji, “My principles are still the same but as the country is not ready some portions of my work had to be changed.” 
 तब गाँधीजी थोडा संकुचित हो कर बोले- ' मेरा आदर्श तो अब भी वही है, किन्तु देश अभी उसे ग्रहण के लिए तैयार नहीं हो सका है, यही देख कर मैं अपनी शक्ति के कुछ अंश को अभी समाज-सुधार में नियोजित कर रहा हूँ.'
Swami Abhedananda, “In America you have many friends who admire you because you have started the Non-Cooperation movement among the mass which nobody had done before you.”  
 तब अभेदानन्दजी ने कहा- " जिस काम को आज तक किसी ने भी भी अपने हाथों में नहीं लिया था, उसी काम को- अर्थात  साधारण जनता के भीतर राजनैतिक-चेतना का संचार कराने के लिये आपने जो 'असहयोग-आन्दोलन' आरम्भ किया है, इसके लिये अमेरिका में आपके बहुत से प्रसंशक आपकी तारीफ किया  करते हैं. किन्तु वही लोग अब आपके इस समाज-सुधार के कार्य के लिये भी आपकी तारीफ ही करेंगे, इसमें थोड़ा संशय है.  (The subject changes suddenly!)
 Swami Abhedananda, “You are doing the work started by Sri Ramakrishna and Vivekananda in the lines of removing untouchability and in encouraging cottage industries, therefore, I bring to you blessings. किन्तु छुआछूत-वाद या अस्पृश्यता को दूर करने के लिये तथा कुटीर-उद्द्योग को स्थापित करने के लिये आप ने श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द के द्वारा प्रवर्तित धर्म-मार्ग का ही अनुसरण किये हैं, इसीलिए मैं आपको विशेष रूप से आशीर्वाद देता हूँ."  You know that though a high caste Brahmin by birth, RamaKr.s.na once prayed to the Divine Mother to take away Ahankara from his mind had such lies as Brahmins are superior to a sweeper on account of their birth He also wanted the Divine mother to enable him to realize that the Âtman  of a sweeper is just as divine as  that of a high cast Brahmin.(The subject changes suddenly!)
तत्पश्चात बातचीत के क्रम में हठात विषयान्तर करते हुए अभेदानन्दजी ने कहा-  " आप जानते हैं कि श्रीरामकृष्ण ने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था, इसीलिए एक बार वे अपने मन से इस मिथ्या अहंकार कि- ' ब्राह्मण  वंश में जन्म लेने मात्र से ही कोई मेहतर से श्रेष्ठ होता है ', को मिटा देने के लिए माँ जगदंबा से प्रार्थना किए थे.
 उनहोंने माँ भवतारिणी - ' दक्षिणेश्वर की काली मईया ' से यह वरदान भी माँगा था, कि माँ मुझमें इतनी शक्ति दो, यह विश्वास मुझमे सदा बना रहे- कि मेहतर की आत्मा भी ठीक उतनी ही पवित्र है, जितनी किसी उंच्च कुल में जन्में ब्राह्मण की होती है !
 It is said that such a realization dawned upon him that he practically went to the door of lowly sweeper and wiped the dirt of the door with his flowing long hair. Thus setting an example for the removal of untouchability which is higher religion of this age…”
            ऐसा कहा जाता है माँ जगदम्बा ने उनकी यह प्रार्थना सुन ली थी, एवं उनको ' ब्राह्मण एवं मेहतर ' की आत्मा के अभेदत्व (पवित्रता) का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था, इसीलिए अपने इस ब्राह्मणत्व के श्रेष्टत्व के झूठे अहंकार को मिटा देने के लिए एक दिन श्रीरामकृष्ण ने अपने सिर के लम्बे बालों से एक मेहतर के घर के दरवाज़ों और खिड़कियों की साफ किया था.इस प्रकार उन्होंने  अपने आचरण से
 ' अस्पृश्यता और छुआछूतवाद ' को मिटाने का उदहारण - प्रस्तुत करते हुए एक नवीन युग-धर्म का प्रचार किया था. "
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/6/6d/Gandhi-Tagore.jpg
स्वामी अभेदानन्दजी की इन बातों को महात्मा गाँधी ने बहुत ध्यान से सुना था, एवं उनके साथ परिचय एवं   वार्तालाप से वे बहुत खुश हुए थे. स्वामी अभेदानन्दजी आध्यात्मिक मार्ग के पथिक थे, तथा महात्मा गाँधी राजनैतिक व्यक्तित्व रखते थे. किन्तु नीतिगतरूप से दोनों दो धुरियों पर निवास करते हुए भी आदर्शगत भाव से एकही पथ के पथिक थे, एवम् दोनों ही भारत और भारतवासियों के कल्याण के लिए निवेदित-प्राण मनीषी थे.
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' दृष्टि-भंगी ' नामक पत्रिका में प्रकाशित निबन्ध .  
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11.स्वामी अभेदानन्द और ' देशबन्धु ' चित्तरंजन दास

11.स्वामी अभेदानन्द और ' देशबन्धु ' चित्तरंजन दास
   भारतवर्ष के राष्ट्रीय जीवन मे जिनका तन-मन-प्राण समर्पित थे, उनमें से एक उज्ज्वल व्यक्तित्व का नाम है - देशबन्धु चित्तरंजन दास ! वे स्वभावतः इस देश के मित्र थे.  उनके स्वाधीनचेता और मुक्त मन से की गयी  सेवा से देशवासी तो भाव-विभोर थे ही, विशेष रूप से स्वामी अभेदानन्दजी भी उनके स्वदेशप्रेम को देख कर मुग्ध हुए थे.
 सन् १९२४ में जब अभेदानन्दजी दार्जलींग गये थे, उस समय देशबन्धु  चितरंजन दास भी दार्जलींग स्थित अपने Step Aside नामक आवास में थे. उस समय चितरंजन बहुत बीमार थे, इसीलिए अभेदानन्दजी स्वयम् ही उनको देखने के लिए गये थे, और अस्वस्थ देशबन्धु के शीघ्र निरोग हो जाने की शुभकामना भी दिए थे.   
        सन् १९२४ ई० में कोलकाता के किसी अन्य सामाजिक सम्मेलन में भी उन दोनों की मुलाकात हुई थी. उस वर्ष  कोलकाता विवेकानन्द सोसायटि का वार्षिक सम्मेलन- ' मनोमोहन नाट्यमन्दिर ' में आयोजित हुआ था. उस सभा में देशबंधु अध्यक्ष के आसन पर विराजमान थे, और स्वामी अभेदानन्दजी उस सभा में एक वक्ता थे.  जब अभेदानन्दजी द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि के बारे में अपनी बात कह रहे थे, उस समय वे उनके भाषण को  बड़े ध्यान से सुन रहे थे.
   बाद में अध्यक्ष का भाषण देते हुए, चितरंजन ने कहा- ' स्वामीजी ! आपका द्वैत-अद्वैत वेदान्त तो सुना, किन्तु मैं चाहता हूँ -  ' बंगाल का वेदान्त '.   अब आप लोग  जरा यह तो समझाइये कि - ' बंगाल का वेदान्त ' क्या है ? - यही न, विश्वप्रेम- आचण्डाल के लिए निःस्वार्थ प्रेम, जिसे पहले महाप्रभु गौरांगदेव ने, एवम् हाल के दिनों में भगवान श्रीरामकृष्णदेव ने दिखलाया है.
  इस प्रेम में जगत् विचार (अपने-पराये का बोध ) नहीं है, - स्वार्थपरता नहीं है, स्वर्गीय उत्स है, अनवरत बहने वाला आनंद है, मधुर भ्रातृत्व का बंधन है, एवं सभी जीवों के प्रति नारायण दृष्टि रखने की शिक्षा है. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
' বহুরূপে সণমুখে তোমার, ছাডি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ?
জিবে ' প্রেম ' করে যেইজন, সেইজন সেবিছে ঈশ্বর.  
" -अनेक रूपों में ईश्वर तुम्हारे सामने मारे मारे फिर रहे हैं,इनको छोड़ कर ईश्वर को ढूँढने और कहाँ जाते हो ?
जो मनुष्य- ' जीव ' को ही ' शिव ' मान कर, ' प्रेम ' करता है, वही ईश्वर की सेवा करता है ! "
 चितरंजन की इन बातों को सुन कर, और उनको सामाजिक जीवन में भी वेदान्त का व्यावहारिक प्रयोग करते  देख कर अभेदानन्दजी भी अवाक हो  गये थे. अपने दैनन्दिन जीवन में दोनों ने अलग अलग तरीके से वेदान्त को व्यावहारिक रूप दिया था. 
अभेदानन्दजी देशबंधु चितरंजन के विश्व-प्रेम को देख कर मुग्ध थे. इसीलिए बातचीत करते हुए वे कहते
थे- " यह जो जीव मात्र में आत्मदर्शन करने, या विश्व-प्रेम का भाव है यही - बंगाल का अपना वेदान्त है. प्रेमावतार गौरांगदेव ने मुस्लिम हरिदास को अपने गोद में स्थान दिया था, रूप-सनातन को बिना माँगे ही कृपा-दान देकर धन्य किया था, यहाँ तक कि जब हरिदास ने अपना शरीर त्याग किया था, तो सभी को उनका चरणोदक पान करने के लिए कहा था, प्रेम ऐसा ही होता है.    ऐसे ही प्रेम को विश्व-प्रेम (Universal Love ) कहते हैं. तथा  सि.आर. दास ने इसी प्रेम को- ' बंगाल का वेदान्त ' का वेदान्त कहा था. "
 बंगाल के इस वेदान्त - ऐसे  ' सर्वजनीन-प्रेम ' की शिक्षा केवल ' वेदान्त ' में ही निहित है,  एवं ' बहुजन-हिताय ' व्रत- का पालन करते हुए अपने जीवन तक को उत्सर्ग कर देने की प्रेरणा भी केवल
 ' वेदान्त-वाद ' ( आत्मा का एकत्व या Unity in Diversity का ज्ञान ) ही प्रदान कर सकता है. स्वामी अभेदानन्दजी ने अपनी ऋषि-दृष्टि से यह देख लिया था कि चितरंजन के ह्रदय में यही - ' अद्वैत-बोध ' विद्यमान है, जिसके द्वारा वे देश की सेवा कर पा रहे हैं.
इसीलिये वे कहते थे-https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnrlx7hMExblg9uVSZZnor5_CHSiM1yM7jbeh90Rl6JWVzrKKQOz2H1kkgfK70pvA0nd0sByr2DebacwhJIuLzrc8T3MR9zbtaulUf68V9cKk4MCvLOuFsbCQMah2KO5Dnk1C1RlUlCnRR/s1600/Portrait+of+Deshbandhu+Chittaranjan+Das.JPG
 " यह जो सभी जीवों  में ' नारायण- दर्शन ' करने वाली ज्ञानमयी दृष्टि है, यह अद्वैत भाव ही ' विश्व-प्रेम '  है, यही  वेदान्त का सार है,  जिसको देशबन्धु ' बंगाल का वेदान्त ' कहते थे.   किसी भी तरह के भेद-भाव को अपने मन से पूरी तरह मिटा देना होगा. 
 यह छोटा है, वह नीच है, यह अछूत है, इस प्रकार का संकीर्ण विचार मन में रखने से ह्मलोग मनुष्य नहीं बन सकते, सभी को मन-प्राण से अपने आत्मीय-स्वजन जैसा प्रेम करना होगा, - सभी के साथ अपने प्राणों को ऐसे सुर में बाँध लेना होगा, मानो एक के उपर चोट मारने से सभी एक साथ बज उठेंगे. "
' देशबन्धु ' समस्त देशवासियों के मन को एकमुखी बना कर एकस्वर में बाँधने की इच्छा रखते . विशेष तौर पर वे युवा-वर्ग के मन को एक सुर में बांधना चाहते थेचितरंजन के ही समान अभेदानन्दजी भी देशप्रेमी थे और युवावर्ग को देशभक्ति की प्रेरणा दिया करते थे. 
 एकबार, उन्होंने कोलकाता में युवाओं को संबोघित करते हुए कहा था- " तुम लोग केवल ' गाँधी ' ' गाँधी ' क्यों चिल्लाते हो ? स्वार्थत्यागी आदर्श-चरित्र ; केवल एक ही गाँधी से देश का उद्धार नहीं हो सकता, प्रत्येक ग्राम में एक एक गाँधी ( नरेन्द्र रूपी Ideal ) का निर्माण कर सको तब जानूँ- तभी देश का कल्याण हो सकता है. " वे दोनों चाहते थे कि ' आदर्श ' के नाम का केवल जयकारा लगाना ही काफी नहीं है; हमें अपने व्यावहारिक जीवन में, और कार्यों में भी उनकी( विवेकानन्द की ) शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए, अपने चरित्र को भी गढ़ना चाहिए.
देशबंधु चितरंजन के महाप्रायण करने का समाचार सुन कर अभेदानन्दजी बहुत मर्माहत हुए थे. उस समय वे दार्जलींग में थे, तथा एक श्रद्धांजलि समारोह में अभेदानन्दजी ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था-
  " हमारे बंगाल के नायक  ने इसी दार्जलींग शहर में अपना शरीर त्याग किया है. जिस दिन उनका देहावसान हुआ, मैं यहीं पर उपस्थित था, - सूचना मिली, देशबंधु अब इस दुनिया में नहीं रहे, अचानक मानो एक बज्रपात सा हुआ, ऐसा प्रतीत हुआ मानो हृदय पर किसी ने ज़ोर एक मुक्का जड़  दिया हो, मन में विचार उठा, आज देश की आशाओं का सूर्य मानों अस्त हो गया है.
 देशबंधु एक महान त्यागी व्यक्ति थे...यदि ह्मलोग इस बात का विश्लेषण करके देखें कि भारत के नर-नारी, बच्चे-बूढ़े सभी के बीच वे-' देशबन्धु-चितरंजन '  के नाम से क्यों जाने जाते थे, तब ह्म पाएँगे कि; देश और देशवासियों के कल्याण के लिए उनका  सर्वस्व त्याग,  सर्वजनीन- प्रेम, एवं कर्तव्य- परायणता  ही इसके मूल कारण थे.
   केवल इतना ही नहीं, अभेदानन्दजी ने देशबंधु चितरंजन के चरित्र में - धार्मिकता और धर्मप्राणता  को भी लक्ष्य किया था. इसीलिए वे कहते थे, ' धर्म ही उनके कर्म-समुद्र का मार्गदर्शी प्रकाश-स्तंभ था. वे परम वैष्णव थे, - जीव जीव में नारायण-मूर्ति का दर्शन करके जगत के समक्ष इतने बड़े देश-भक्त बन सके थे.
इस तथ्य का संकेत - ' नारायण ' नामक उनकी पहली मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. उनके हृदय में कौन छोटा कौन बड़ा ऐसा भेद नहीं था, उनकी ज्ञानमयी दृष्टि सभी को नारायण की प्रतिमूर्ति रूप से देखती थी, इसीलिए उनके प्रेम-दृष्टि में सभी मनुष्य एक समान बन गये थे. 
   उनमें ऐसी धर्म-प्राणता थी इसीलिए वे संपूर्ण भारत वासियों को अपना आत्मीय स्वजन जैसा अपना बना लेने में सक्षम हुए थे. यदि वास्तव में देखें तो धर्म ही वह बुनियाद है, जिस पर सारी मानवता एकत्व के सुर में बँध जाती है. मनुष्य के जीवन से यदि धर्म को हटा दिया जाय तो जगत के किसी भी कार्य में सफलता नहीं पाई जा सकती है.
किन्तु इनदिनों बहुत से तथाकथित बुद्धि-ज़ीवी कहने लगें हैं कि- ' यदि देशसेवा करनी है, तो धर्म को बिल्कुल अलग रख देना होगा.' आजकल युवाओं के मन में भी ऐसे कुविचार भरे जा रहे हैं कि ' देशसेवा और धर्म ' का आपस में कुछ लेना-देना नहीं है. दोनों बिल्कुल भिन्न हैं. बल्कि धर्म ही स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग का बाधक है. यदि भारतमाता की सेवा करनी हो तो, अब कुछ वर्षों के लिए धर्म को बिल्कुल ही त्याग देना चाहिए, जब की ऐसी धारणा बिल्कुल ही ग़लत है. 
 Religion
 क्योंकि धर्म के बिना थोड़ा भी त्याग करना असंभव है ! देश-सेवकों का जीवन ' त्याग ' के बिना निष्कलंक कैसे बन सकता  है? देश के कल्याण में जो लोग अपने को समर्पित करना चाहते हैं उनमें थोड़ी भी त्याग की भावना अवश्य रहनी चाहिए.
यह त्याग किस उद्देश्य को सामने रख कर करना है? भारतमाता के लिए ! क्यों ? .... इसीलिए कि हम अपने देश को बहुत प्यार करते हैं, महाप्राण लोग अपने दुख की परवाह नहीं करते, वे तो देश के दुख से कातर होते हैं. क्योंकि उनकी दृष्टि में सभी मानव एक समान प्रिय हो जाते हैं, चाहे कोई निर्धन हो या धनी, छोटा हो या बड़ा सभी से उसको प्रेम होता है. इसीलिए ऐसी समदर्शिता, ऐसा विश्वप्रेम क्या धर्म को जीवन में धारण किए बिना क्या कभी प्रतिफलित हो सकता है ? "  
   स्वामी अभेदानन्द जी देशबंधु के देश के कल्याण के लिए आत्म-त्याग की भावना से भी पुर्णतः परिचित थे.  उनको याद करके वे सभी के समक्ष कहा करते थे,- " यदि कोई व्यक्ति दूसरे किसी व्यक्ति के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर देता हो, तो इसका अर्थ ही है कि वह उसको भगवान (अल्ला,वाहेगुरु,गॉड, महामाया जो भी नाम दो) का अंश या प्रतिमूर्ति समझ कर ही, उसको अपने प्रेम-चक्षुओं से दर्शन करने में समर्थ है ! मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि, यदि चितरंजन समग्र भारत के आन्तरिक प्रेम को प्राप्त करके, भारतमाता की सेवा में आत्मबलिदान करने मे समर्थ हुए थे, तो उसका एकमात्र कारण यही था कि वे एक धर्म-प्राण व्यक्ति थे.
आइए थोड़ा विचार कर के देखें कि उनके जीवन में धर्म का महत्व और सर्वजन के प्रति उनका प्रेम किस सीमा तक था. जब एक बार चाँदपूर में कुली-मजदूरों ने आन्दोलन कर दिया था तो उनको उनका हक दिलाने के लिए वे एक सामान्य सी नौका ' जेलेडोंगी' के सहारे पद्मा-नदी पर किए थे. जब Steamer नहीं मिल सका तो, उस उफनती हुई विशाल पद्मानदी के तूफान में अपने प्राणों की ममता का त्याग कर,  केवल एक मांझी के उपर विश्वास करके तथा अपनी आत्म-विश्वास जन्य इच्छाशक्ति के बल पर उस नदी को पार क्यों किए थे ?
इसीलिए कि असहाय भूखे कुली-मजदूरों के दुख को देख कर उनका हृदय व्यथीत हो रहा था ! कोई साधारण व्यक्ति दूसरों के दुख को देख कर इतना कातर भी हो सकता है ! क्या आप इसकी कल्पना भी कर सकते हैं ? उनका देशप्रेम केवल स्वतंत्रता आन्दोलन तक ही सीमाबद्ध नहीं था, उनका हृदय और मन दीन-दुखी और कुली-मजदूरों के लिए भी समान रूप से व्यथा का अनुभव करता था. "
अभेदानन्दजी उनके देशप्रेम और मानवप्रेम को देख कर मुग्ध थे, तथा कहते थे- " इसमसीह का उपदेश है- Love thy neighbor as thyself. तुम अपने पड़ोसी को बिल्कुल अपने जैसा प्यार करो. किन्तु कितने लोग वैसा कर पाते हैं ? ऐसे मनुष्य कितने हैं, जो दूसरों की सेवा निःस्वार्थ भाव से करने के लिए स्वयम् को मिटा
सकते हैं ? देशबंधु आज जगत के समक्ष पूज्य क्यों हैं?  - इसीलये कि वे दूसरों के कल्याण के लिए, स्वयम् को ( अपने मिथ्या अहं को) सम्पूर्ण रूप से मिटा देने में समर्थ हुए थे ( तथा देशवासियों के सम्मान की रक्षा के लिए खुद का अपमान सहने में सक्षम थे.)
वस्तुतः - ' Love and Universal brotherhood ' ( प्रेम और सार्वलौकिक भ्रातृत्व ) की भावना से वे ओतप्रोत थे, इसीलिए आज वे स्वनामध्न्य हुए हैं. " 
हृदयवत्ता के बल से ही चित्तरंजन देशबंधु में रूपांतरित हुए थे. भारतवासी और भारतवर्ष उनके निःस्वार्थ प्रेम से समृद्ध हुआ है. वे स्वाभाविक रूप से ही देश के ' बन्धु ' मित्र थे. स्वामी अभेदानन्दजी ने चित्तरंजन के चरित्र को देख कर इस निश्चय पर पहुँचे थे, कि वैसा कोई भी व्यक्ति देश की सेवा में अपने प्राणों को समर्पित नहीं कर सकता जिसके जीवन में कुछ भी त्याग नहीं हो. उन्होंने आत्मत्याग के व्रत से उद्दीप्त चित्तरंजन को भली-भाँति समझा था.
                इसीलिए वे कहा करते थे, " धार्मिक हुए बिना कोई भी व्यक्ति अपने स्वार्थ का त्याग कर ही नहीं सकता-  और स्वार्थत्याग किए बिना देश-सेवा या कोई भी जनकल्याणकारी कार्य किया नहीं किया जा सकता है. देश के लिए स्वयं को मिटा देना होगा, अर्थात अपने क्षूद्र  अहम् को पूरी तरह से मिटा देना होगा, - थोड़ा सा भी व्यक्तिगत स्वार्थ या मान-अपमान का ध्यान रहने से इस अहम् को मिटाया नहीं जा सकता है. अपने कर्तव्य के दायित्व पूर्ण आसान को खाली छोड़ कर, जब देशबंधु चले गये तो उस आसान पर बैठने योग्य व्यक्ति का निर्माण आज तक क्यों नहीं किया जा सका है ?
     पाश्चात्य देशों में जब कोई सेनापति तोप के गोले से वीरगति को प्राप्त होता है, तब उसके अभाव को उसका प्रतिनिधि उसी क्षण पूर्ण कर देता है, वह उसी क्षण उस पद को ग्रहण कर के दुगने उत्साह के साथ युद्ध का संचालन करता है. किन्तु हमारे देश में यह अभाव बहुत दीर्घ दिनों तक बना ही रहता है, क्योंकि यहाँ स्वाभाविक रूप से त्याग और साहस है ही नहीं. त्यागी होना क्या मुँह से कहने भर की बात है ? इसका मूल ही धर्म-शिक्षा है; बच्चों को बचपन से ही ऐसी शिक्षा देनी होगी. किन्तु  क्या आपलोग वैसी शिक्षा देते हैं ?
देशवासियों और देश के लिए अपने प्राणों को भी न्योचछवर करने के लिए कर्तव्य की रणभूमि में दौड़ पड़ना चाहिए, आप में से कितने लोग अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देते हैं ? परन्तु पाश्चात्य देशों में ऐसी अवस्था नहीं है. माता-पिता बचपन से ही अपने बचों को निर्भीक और स्वावलंबी होने की शिक्षा देते हैं. 
पिछले यूरोपीय महायुद्ध के समय मैं अमेरिका में था, उस समय की एक घटना मुझे याद है- वह  अपने माँ-बाप का एक एकलौता बेटा था, उसकी उम्र २०-२२ के आसपास रही होगी, बि.ए. का परीक्षार्थी था, युद्ध में जाने के लिए अपना नाम दिया था, सूचना मिली - तुम्हें भी युद्ध में जाना है. उसके  माँ-बाप ने अपने एकलौते लड़के को विदा करते हुए कहा - ' Go sacrifice your life for the sake of your country, Don't turn  back ' जाओ, अपने देश के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दो, रुणभूमि में कभी अपना पीठ मत दिखना ' उन वीरहृदय माँ-बाप की कर्तव्य बोध देखिए. 
  और ह्मारे देश के माँ-बाप क्या करते हैं? बचपन से ही ' भकउआँ '  का डर बच्चों के दिल में पैदा कर के कहते हैं- ' बबुआ, दो मुट्ठी बासी-भात खा कर भी मेरे घर के  किसी कोने में दुबके रहो ' ( तुमको  मिलिट्री में भर्ती होने की कोई ज़रूरत नहीं है.) इसीलिए ऐसे सपूतों  के द्वारा देश-सेवा कैसे संभव हो सकती है ? 
   -किन्तु किसी समय में ह्मारे देश में भी ऐसी ही वीरप्रेरणा थी, जब  राजपूत वीरांगनाएँ अपने पति-पुत्र को रणभूमि में अपने प्राणों को न्योछावर कर देने केर देने के लिए प्रेरणा दिया करतीं थीं. और वे लोग तलवार को मयान से बाहर निकाल कर शत्रु-समुद्र में कूद कर लड़ते लड़ते मातृभूमि के बलिवेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देते थे.(' ये है अपना राजपूताना नाज़ जिसे तलवारों पे, इसने अपना जीवन काटा बरछी ढाल कृपाणों  पे;  कूद पड़ी थीं यहा हजारों  पद्‍मिनियाँ अंगरों पे!)  उसके दृष्टान्त हैं- रानी पद्मिनी, हाड़ा रानी, मीराबाई आदि जो आज भी भारत के इतिहास में अमर हैं.
     इस विक्रमपुर का नाम भी इसी ' विक्रम ' के लिए प्रसिद्द है. - बंगाली वीरों ने भी मुसलमानों को जल-युद्ध में पराजित कर देश की रक्षा की थी. किन्तु आजकल अधिकांश लोग अन्य प्रकार के (भोगी ) बनते जा रहे हैं. इसीलिए एक बार फिर उसी वीर भाव को जाग्रत करना होगा.
 देश की सेवा के लिए वैसी ही निः स्वार्थपरता और त्याग की भावना से ओतप्रोत अपना चरित्र गढ़ना होगा, केवल मुख से केवल सी.आर. दास कह कर, डींगें हांकने के बजाये, उनके (देशबन्धु के) सांचे में ढाल कर, अपने चरित्र का निर्माण तो करो, उनके आदर्श को सामने रख कर, अपने जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ कर - देश की सेवा तो करो, फिर मैं देखता हूँ- कि तुम लोग अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में कैसे सफल नहीं होते ?
     देशबन्धु की देशभक्ति के भीतर यथार्थ धार्मिकता थी, उसे अभेदानन्दजी ने प्रत्यक्ष किया था. इसीलिए वे कहते थे- " देशसेवा करना चाहते हों तो धर्म का त्याग बिल्कुल नहीं करना होगा, प्रत्येक कार्य में धर्म को आदर्श मान कर सदैव उसी रास्ते पर चलना होगा. अमेरिका और फ्रांस जैसे लोकतांत्रिक देश जैसे समस्त लोकतांत्रिक देशों में धर्म को शासन से स्वतंत्र नहीं माना जाता. उनका मानना है कि- The king is the defender of Faith. - अर्थात राजा ही धर्म के रक्षक हैं, राजा का जो धर्म है, सभी को उसी के अनुसार चलना

भारत माता के सपूत, देशप्रेमी-' देशबन्धु '  चित्तरंजन दास के प्रति अभेदानन्दजी में असीम श्रद्धा थी. वे भारतीय युवकों को देशबंधु के आदर्श का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करते थे. तथा उनका वह आह्वान उनके भाषणों में इस प्रकार व्यक्त हुआ है- " आपलोग देशबंधु का वही स्वदेश प्रेम-समदर्शिता एवं सर्वोपरि उनका ज्वलंत त्याग के निर्देशन को सामने रख कर अपने अपने व्यक्ति चरित्र का निर्माण करो. धर्म के सार्वभौमिक उदार भावों के मध्यम से युवाओं को जीवन को सुंदर ढंग से गठित करने वाला आंदोलन खड़ा करो. क्योंकि आत्मा में प्रतिष्ठित जीवन - ' Self-realization ' या ' आत्मबोध ' को ही स्वराज कहते हैं. 

जिस दिन आपलोग स्वाभाविक रूप से त्यागी और आदर्श कर्मी बन सकेंगे, उसी  दिन देशबंधु की स्वर्गवासी पवित्र आत्मा का अमोघ आशीर्वाद ग्रहण कर के स्वराज या शांति प्राप्त करने में सक्षम होंगे ".
         इस प्रकार देशबंधु की धर्मनीति और कार्य पद्धति को लेकर अभेदानन्दजी के मन में असीम श्रद्धा थी. उनकी देशसेवा और देशवासियों के प्रति प्रेम त्यागवाद - अर्थात भारत के कल्याण के लिए स्वयं को मिटा देने की भावना पर आधारित था. इसीलिए वे एक स्वार्थ त्यागी देश सेवक थे. जीवन में थोड़ा भी त्याग स्वीकार किए बिना निःस्वार्थ-सेवा कर पाना संभव ही नहीं है. उनके जैसे महात्यागी सेवा-व्रत को धारण करके देश सेवा करने वाले की देशसेवा ही सार्थक है. इन दोनों राष्ट्र-भक्तों का परिचित होना सार्थक हुआ है. अभेदानन्दजी आध्यात्म वाद के मध्यम से मानवकल्याण के व्रती थे, एवं देशबंधु राष्ट्रप्रेम के मध्यम से समाजसेवा किए थे. दोनों सफल कर्मयोगी थे एवं दोनों का उद्देश्य भी एक ही था- दोनों अपने देश और देशवासियों की सेवा में समर्पित-प्राण थे.
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 ' সময় অসময় ' পত্রিকায় প্রকাশিত ' समय असमय ' पत्रिका  में प्रकशित.
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बुधवार, 16 मई 2012

10.स्वामी योगानन्द और अभेदानन्द की अंतरंगता /pracharak Abhedananda

10.स्वामी योगानन्द और अभेदानन्द की अंतरंगता
स्वामी योगानन्द श्रीरामकृष्ण के प्रमुख अंतरंग लीलापार्षदों में से एक थे. श्रीरामकृष्ण ने अपने संन्यासी संतानों में से जिन लोगों को प्रथम श्रेणी में रखा था, उनमें से एक स्वामी योगानन्द जी भी थे. श्री रामकृष्ण अपने इस प्रथम श्रेणी के सन्तानों को- ' ईश्वरकोटि ' का  कहा करते थे. वे कहते थे- ' ये सभी आजन्म सिद्ध हैं. इनलोगों को फल (आत्म-साक्षात्कार) पहले मिला बाद में फूल (साधना) लगा. ठीक वैसा जैसे कद्दू और कोंहड़ा के पौधों में फल पहले लगता है और फूल बाद में लगता है. ' इन ईश्वरकोटि के पार्षदों में भी स्वामी योगानन्द कई दृष्टि से अनोखे थे.श्रीरामकृष्ण के अंतरंग लीला सहचर एवम् उनकी विशेष कृपाप्राप्त होने पर भी उनकी मन्त्र-दीक्षा श्रीश्री माँ सारदा से हुई थी.
श्रीश्रीमाँ सारदा ने पहली बार मन्त्र-दीक्षा उन्हीं को दी थीं. स्वयम् श्रीरामकृष्ण के निर्देशन में ही श्री श्री माँ ने उनको म्न्त्र दीक्षा दी थीं. इसीलिए ह्म कह सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण के लीलासहचारों के बीच स्वामी योगानन्द जी ठाकुर और माँ दोनो के कृपाप्राप्त थे. श्री रामकृष्ण के लीला सहचरों में स्वामी त्रिगुणातीतानन्द और श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्रीम अर्थात महेन्द्रनाथ गुप्त को भी माँ की कृपाप्राप्त हुई थी. 
   इस दृष्टि से श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग लीला-सहचरों में स्वामी अभेदानन्द भी  सबसे निराले थे. पाश्चात्य देशों में वेदान्त-प्रचारक के कार्य में सभी पार्षदों के बीच इन्होने विशेष भूमिका निभायी थी. श्रीरामकृष्ण से मन्त्र-दीक्षा पाने के बाद भी पुनः माँ से कृपा-आशीष पाए थे. श्री रामकृष्ण ने उनकी जिहवा पर अपने हाथ से मन्त्र लिख दिया था, एवं स्त्रोत्र-रचना करके माँ की विशेष कृपा भी प्राप्त किए थे.
  इसीलिए तो श्रीश्रीमाँ के, ' परमाप्रकृति -जगत्जननी ' स्वरुप का साक्षात् अनूभव करने के बाद उनके इसी स्वरूप की विशेष वन्दना किये थे. माँ की विशेष-कृपा उन्हें प्राप्त थी, तभी तो वे उनके इस स्वरूप की वन्दना करने में समर्थ हुए थे.
 श्रीरामकृष्ण के लीलासहचारों में इन दोनों के परस्पर विपरीत भूमिका दिखाई देती है. स्वामी योगानन्दजी ने मन्त्र- दीक्षा माँ से प्राप्त की थी, किन्तु श्रीरामकृष्ण देव के दर्शन और स्पर्शन का सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त था. उधर स्वामी अभेदानन्दजी यद्द्पि श्रीरामकृष्ण से मन्त्रदीक्षा प्राप्त किये थे, तथापि श्रीश्रीमाँ का विशेष आशीर्वाद और कृपा प्राप्त करने का सौभाग्य उन्हें मिला था. 
क्योंकि श्रीश्रीमाँ उनके द्वारा रचित स्त्रोत्र को सुन कर मुग्ध हुई थीं, तथा उनको जप की माला देते हुए आशीर्वाद दिया था- ' তোমার কন্ঠে সরস্বতী বসুক '- ' तुम्हारे कंठ में सरस्वती का वास हो ! ' 
   इन दोनों गुरु भाइयों में एक आन्तरिक घनिष्टता भी थी. किन्तु इन दोनों की गहरी मित्रता का मुख्य आधार श्रीश्रीमाँ थीं. सतीर्थ-रूप से मित्रता रहने पर भी, उन दोनों को सन्यास-जीवन में  बहुत अधिक दिनों तक एकसाथ रहने का अवसर नहीं मिला था. क्योंकि स्वामी योगानन्द का लीला-अवसान रामकृष्ण-संघ के स्थापित होने के कुछ दिनों बाद ही हो गया था,  और स्वामी अभेदानन्दजी उस समय अमेरिका में रह रहे थे. श्री रामकृष्ण के लीला-पार्षदों में से अभेदानन्दजी का लीला अवसान सभी के अंत में हुआ था, एवम् सबसे पहले स्वामी योगानन्दजी का लीला अवसान हुआ था.
  स्वामी योगानन्दजी ने १८९९ ई० में देहत्याग किया था, तथा स्वामी अभेदानन्दजी ने १९३९ई० में देहत्याग किया था. अर्थात योगानन्दजी के लीला अवसान के ४० वर्ष बाद तक इस जगत में लीला किए हैं. एक अद्भुत सामान्यता इन दोनों में यह दिखाई देती है कि, श्रीरामकृष्ण के लीलासहचरों में स्वामी योगानन्दजी  रामकृष्ण-मठ और मिशन के प्रथम उपाध्यक्ष थे; एवम् श्रीरामकृष्ण के लीलासहचरों में स्वामी अभेदानन्दजी अन्तिम उपाध्यक्ष बने थे.
 इन दोनों उपाध्यक्ष में एक आश्चर्य जनक सामान्यता यह भी थी, कि दोनों ने विशेष रूप से माँ का सानिध्य  प्राप्त किया था.  योगानन्दजी को श्रीश्री माँ सारदा ने  केवल मन्त्र-दीक्षा देकर ही कृपा नहीं की थीं, बल्कि वे उनको बिल्कुल अपने संतान की दृष्टि से भी देखतीं थीं. उधर अभेदानन्दजी श्रीश्रीमाँ का प्रणाम-मन्त्र लिख कर अमरत्व प्राप्त किए हैं, और माँ की कृपा से उनके कंठ में वाग्देवी भी सदा विराजित रहती थीं.
 इन दोनों सतीर्थ सहचरों की मानसिकता वैज्ञानिकों जैसी थी. बहुत ठोक-बजा कर देखने के बाद ही स्वीकार करना उनका स्वाभाव था. स्वयम् श्रीरामकृष्ण को भी उनहोंने काफी तर्क-संगत जाँच-पड़ताल के बाद ही अपने गुरु रूप में स्वीकार किया था. श्रीश्री ठाकुर को गुरुरूप में श्रद्धा करने पर भी एक बार उनके उपर भी शंका हुई थी -
' ঠাকুর কি নহবাতে স্ত্রীর কাচ্ছে রাত কাটায় ? '
-क्या ठाकुर नहबतखाने में अपनी स्त्री के साथ रात्रि व्यतीत करते हैं ? ' इसीलिए वे नहबत के पास खड़े हो कर जानने का प्रयास किए थे, कि, श्रीरामकृष्ण कहाँ जाते हैं ?वे युक्ति-तर्क पूर्ण मानसिकता के साथ वहाँ देखे थे, कि माँ साधारण मानवी नहीं हैं, जगत्जननी, महा-शक्ति हैं. उसके बाद से माँ के प्रति उनकी श्रद्धा-भक्ति में क्रमशः वृद्धि होने लगी. परवर्तीकाल में श्रीश्रीमाँ के यही एकनिष्ठ सेवक माँ के भारवाही बने थे. एवम् क्रमशः योगानन्दजी श्रीश्रीमाँ की आँखों में एकमात्र अन्तरंग-सन्तान बन गये थे.
श्रीश्रीमाँ १२९३ बन्गब्द १५वीं तिथि को वृंदावन की यात्रा पर गयीं थीं. उनके साथ सेवक योगेन- महाराज एवम् काली-महाराज भी थे.
http://belurmath.org/D_image/yogananda.jpg
 यहीं पर श्रीश्रीठाकुर के निर्देश पर श्रीश्रीमाँ ने योगेन महाराज को ईष्टमन्त्र दान किया था. वृंदावन-धाम पहुँचने के बाद एक दिन श्रीश्रीमाँ समाधिस्ता हुई थीं, उस समय उनकी समाधि भंग करने का साहस और हिम्मत किसी में भी नहीं था. माँ के कृपाप्राप्त इन्हीं योगानन्दजी ने माँ को एक मन्त्र सुनाया था तब माँ की समाधी भंग हो सकी थी. 
 अर्थात श्रीश्रीमाँ ने इस अंतरंग सन्तान को विशेष शक्ति भी प्रदान की थीं. बेटा भी जनता था कि श्रीश्रीमाँ अभी किस स्तर के किस भाव में विराज कर रहीं हैं, एवम् किस समय उनको कौन सा मन्त्र सुनाना पड़ेगा.  स्वामी अभेदानन्दजी और योगानन्दजी के बीच ह्मलोग एक विशेष समानता देखते हैं. यही दोनों सन्तान माँ के साथ विभिन्न तीर्थ-स्थानों ( आँटपूर, तारकेश्वर, कामारपुकूर ) में भी गये थे. एवम् वहाँ पर माँ के परम स्नेह की छाँव में उनका समय बीता है. जब १८९९ई० में बहुत कम उम्र में ही योगानन्दजी ने अपना शरीर त्याग दिया तब माँ शोक से विह्वल हो गयीं थीं.
   और भीतर के शोक को प्रकट करते हुए बोलीं थीं- ' घर का एक स्तम्भ  घिसक गया, अब सब चला जाएगा. ' स्वामी विवेकानन्द भी दुख व्यक्त करते हुए कहा था- ' छ्त का बीम धँस गया. अब धीरे धीरे अन्या लकड़ियाँ भी गिर पड़ेंगी.' इस नये संघ रूप गृह का मानो प्रथम स्तम्भ गिर गया था, योगानन्दजी के शरीर त्याग करने से. यदि श्रीरामकृष्ण के सभी लीलासहचरों को ह्मलोग एक एक स्तम्भ के समान सोचें, तो कहना होगा कि अभेदानन्दजी का शरीर-त्याग देने के बाद अन्तिम स्तम्भ भी गिर गया था. इन दो गुरुभाइयों का भेंट-मुलाकात की अवधि बहुत सीमित थी, क्योंकि मिलने का अवसर और समय ज़्यादा न्हीं था.
 स्वामीजी के आह्वान पर स्वामी अभेदानन्दजी १८९६ ई० में अमेरिका चले गये थे. ईसीबीच १८९७ ई० में रामकृष्ण मठ की स्थापना हुई. और १८९९ ई० में योगानन्दजी का लीला अवसान हुआ, अर्थात बहुत थोड़े ही दिनों तक इस जगत में वे उपस्थित रहे थे. अभेदानन्द उस समय अनुपस्थित थे, और उस समय वे विदेशों में वेदान्त-प्रचार कार्य करने में व्यस्त थे.

            वे अपने प्रिय गुरु-भाई के असमय में हुए लीला-अवसान को भीतर से स्वीकार नहीं कर सके थे;  उस समय वे अमेरिका के विभिन्न प्रचार केंद्रों में भारत के सार्वजनिक वेदान्त प्रचार करने में व्यस्त थे. इसीलिए अपने गुरुभ्राता स्वामी योगानन्दजी के लीला- अवसान का समाचार सुनने के बाद उन्होंने ' प्लानचैट ' भी किया था. 

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[A planchette ( plan-SHET), from the French for "little plank", is a small, usually heart-shaped flat piece of wood that one moves around on a board to spell out messages or answer questions. Paranormal advocates believe that the planchette is moved by some extra-normal force. The motion is allegedly due to the ideomotor effect. In occult usage, a pencil would be attached to the planchette, writing letters or other designs on paper to be later interpreted by a medium.]

 उस ' संयोगस्थापन-प्रक्रिया ' के माध्यम से योगानन्दजी के ' अमर-आत्मा ' को वहीँ पर बुलवा कर उनसे बंगला भाषा में बातचीत करना और उनकी लिखावट को लोगों के समक्ष दिखाना; यह सिद्ध करता है कि उनके ह्रदय में अपने गुरु-भ्राता के प्रति असीम श्रद्धा थी.

वास्तव में  इस प्रकार संयोग-स्थापन का प्रयास कर वे लोगों के समक्ष यह बताना चाहते थे कि उनकी अन्तिम ईच्छा क्या थी. अभेदानन्दजी का यह भी एक बहुत प्रशंसनीय कार्य है. वे किस प्रकार वह ' संयोग-स्थापन ' हुआ था उसका वर्णन स्वामी अभेदानन्दजी इस प्रकार किए हैं -
  "   १८९९ ई० में न्यूयार्क शहर के लिली-डेल नामक स्थान में एक आध्यात्मिक सम्मेलन हो रहा था उसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था, मैने वहाँ ' हिन्दू- धर्म ' और ' पुनर्जन्मवाद ' के उपर अपना व्याख्यान दिया था. सभा का आयोजन एक विशाल ऑडोटॉयरियम में किया था, किसके चारों ओर खुला मैदान था, तथा अधिकांश कुर्सियाँ ' प्रेत-तत्ववाद ' में विशेष आग्रहशील  श्रोताओं द्वारा  भरी हुई थीं. 
       एक वार्षिक उत्सव के उपलक्ष्य में मुझे वक्ता बनाया गया था. टिकट बिक्री कि गणना करने से पता चला कि, उस दिन वहाँ कुल  ७००० श्रोता उपस्थित थे. उनमें से अनेक श्रोता ' मीडियम ' भी थे. इनमें से कुछ लोगों ने मुझे बताया था, कि जिन बातों को मैं  उन लोगों से कह रहा था, उनमें से अनेक कुछ उन्होंने अपने प्रेत-नियंत्रक प्रेतात्माओं से भी सीखा था. 
            उनहोंने मुझे भी एक प्रेत-आह्वान करने वाले व्यक्ति की बैठक में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया था. सन १८९९ ई० में ४ अगस्त को आयोजित बैठक में मैने एक टाइपराइटर को स्वयं टाइपराइटिंग करते देखा था. सभी ने अपने अपने मृत आत्मीय स्वजनों के नाम दिये. मैंने भी अपने गुरुभाई योगेन का नाम दिया. नीले पेंसिल से योगेन का नाम लिखा देख कर  मेरे ह्रदय में कौतूहल हुआ एवं किसने लिखा यह जानने की इच्छा हुई ! 
                दुसरे दिन ५ अगस्त को प्रातः १० बजे स्वयं श्लेट-लेखन विद्या के विख्यात मीडियम मिस्टर किलर का आमंत्रण पा कर उनसे मिलने गया. कुछ समय के बाद उनके बैठक-कक्ष में खिड़की के पास मी० किलर के सामने बैठ गया. सूर्य की किरणें खिड़की से होकर कमरे के भीतर आ रही थीं. हम दोनों के बीच में एक चौकोर मेज रखी थी. जिस पर  कारपेट बिछा हुआ था. मि० किलर ने दो स्लेटें  बाहर निकालीं. मैंने अपने हाथ से दोनों स्लेटों  के दोनों पहलुओं को साफ कर दिया. उनहोंने भी अपने रुमाल से एक बार और पोछ दिया. इसके पश्चात्  मि० किलर ने मुझसे कहा कि जिस प्रेतत्मा के साथ मैं संयोग करना चाहता हूँ,  उसे सम्बोधित करते हुए कुछ प्रश्न लिखूँ . मैने पूछा- क्या बंगला भाषा में प्रश्न लिख सकता हूँ ? 
 उन्होंने कहा - हाँ, लिख सकते हैं. तब एक कागज के टुकड़े पर बांग्ला में लिखा और उसे मोड़ कर दोनों स्लेटों के बीच में रख दिया,  किलर साहब ने दोनों स्लेटों के बीच में एक पेंसिल भी रख दी. दोनों स्लेटों को रुमाल से ढक दिया गया. स्लेटों के दो-दो  कोनों को मैंने तथा उनहोंने पकड़ लिया तथा स्लेट को मेज से कुछ  उपर उठा लिया गया.  
            उसके बाद ह्मदोनों ने कुछ मिनटों तक गप-शप किया, उन्हों ने कहा कि स्लेट-लेखन के समय बातचीत कि जा सकती है.  मि: किलर ने कहा-  ' आपके मित्र आयेंगे या नहीं, मैं नहीं कह सकता, किन्तु यथा-साध्य मैं चेष्टा जरुर करूँगा.' थोड़ी देर बाद मैंने उनसे पूछा, कागज पर मैं अपना नाम लिख दूँ  क्या ? उन्होंने कहा- हाँ. उनहोंने फिर पूछा कि मैंने अपने मित्र का नाम अँग्रेज़ी में लिखा है या नहीं ? मैंने उत्तर दिया - नहीं.
 उन्होने कहा - ' आप जिनके साथ सम्पर्क करना चाहते हैं, सम्भव है मेरा गाईड (परिचालक ) उनको बुला नही पायें, क्योंकि वे आपकी भाषा नहीं पढ़ सकते. ' यह सुनकर मैंने एक और कागज पर अँग्रेज़ी में लिख दिया - ' योगेन, क्या तुम यहाँ पर हो ? यदि हो, तो मेरे बांग्ला में लिखे प्रश्नों का उत्तर देना. ' और कागज के नीचे अपने हस्ताक्षर-  ' स्वामी अभेदानन्द ' भी कर दिया. एवं कागज को मोड़ कर स्लेट के उपर रख दिया. स्लेट को पकड़े हुए ही कुछ समय तक ह्मलोग बातचीत करते रहे.
  मि: किलर ने पूछा कि क्या इससे पहले भी आपके परलोक वासी मित्र मीडियम की सहयता से आए हैं ? मैंने कहा -  कल सन्ध्या समय मि० कैम्बेल के बैठक में अपने मित्र से कई प्रश्न किये थे, किन्तु उत्तर के स्थान पर कागज पर नीली पेन्सिल से केवल-' योगेन ' नाम लिखा हुआ ही मिला, अन्य कुछ नही. एक क्षण बाद ही मि० किलर ने स्लेट को मेज पर रख कर स्लेट के एक कोने में पेन्सिल से लिखा - ' योगेन यहाँ  '. मुझे लिखा पढ़ने को कहा.  पढ़ने के बाद मैंने कहा- नाम तो ठीक है.
  उन्होंने पुनः स्लेट के दोनों कोनों को दोनों हाथो से पकड़ लिया तथा मुझे भी वैसा ही करने को कहा. कुछ  समय पश्चात् स्लेटें हमारे हाथों के बीच हवा में मेज से ६ ईंच उपर झूलने लगी. कुछ क्षणों  के बाद स्लेट पर पेंसिल से कुछ लिखने की आवाज भी सुनाई  देने लगी. किलर साहब ने कहा - ' पेन्सिल की आवाज सुन रहे हैं?'

 
  मैंने कहा- 'हाँ'. कुछ ही देर के बाद हाथ में एलेक्ट्रिक शॉक (वैद्युतिक-स्पन्दन ) जैसा अनुभव हुआ. किलर साहब ने कहा - वे भी कुछ वैसा ही अनुभव कर रहे हैं. तत्पश्चात दोनों स्लेटों को खोल कर देखने पर अँग्रेज़ी में यह बात लिखी हुई दिखायी पड़ी-  ' ऐसे किसी को यहाँ नहीं देख पा रहा जो इन सज्जन के प्रश्नों का उत्तर दे सकें '  हस्ताक्षर था-' जी. सी.' 
  मैंने मि० किलर से पूछा -यह ' जी.सी.' कौन हैं ? वे बोले- ' यह मेरी  चतुर-प्रेतात्मा है, इनका पूरा नाम है- ' जॉर्ज क्रिस्ट '. कुछ क्षणों के बाद किलर ने कहा- ' क्यों, तुम्हारे  मित्र भी तो यहाँ हैं, वे कुछ लिखेंगे.' स्लेटों को कर उनहोंने फिर वैसे ही रख दिया. प्रश्न लिखे कागज को कुछ समय हाथ में रख कर मुझे भी वैसा करने को कहा. मैंने भी वैसा किया. इसके पश्चात्  हम दोनों ने स्लेटों को उसी प्रकार पकड़ लिया. कुछ क्षणों के बाद हाथ पर एलेक्ट्रिक शॉक जैसा अनुभव हुआ, और फिर स्लेट के भीतर से पेन्सिल से लिखे जाने जैसी ख़स-ख़स की आवाज़ सुनाई देने लगी. फिर वह आवाज़ आनी बन्द हो गयी.
        स्लेट खोल कर देखने पर चार भाषाओँ-संस्कृत, ग्रीक, अँग्रेज़ी, बांग्ला में लिखावट दिखाई पड़ी. किलर साहब तो देख कर अवाक् हो गये. क्योंकि वे संस्कृत, ग्रीक, और बांग्ला भाषा पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे. यहाँ मैं यह भी बता दूँ कि उस पूरे लिलि-डेल शहर में मुझे छोड़ कर संस्कृत या बांग्ला लिखने पढ़ने वाला कोई दूसरा  व्यक्ति नहीं था. हाथ की लिखावट हूबहू मेरे मित्र योगेन की लिखावट जैसी थी.जिसे देख कर मैं भी आश्चर्य चकित हो गया था.

 इस अद्भुत कार्य के लिए मैंने किलर को धन्यवाद दिया, किन्तु उस समय मैं इसका कोई कारण बता नहीं सका. मैंने दोनों स्लेटें उनसे लेली  जिससे अन्य मिडीयम एवं प्रेत-तत्वविदों  को दिखला कर यह जाना जा सके कि यह किस प्रकार हुआ. किलर ने भी कहा कि ऐसा स्लेट-लेखन  उन्होने इससे पहले कभी नहीं देखा. स्लेट लेकर एवं उनको नमस्कार करके मैं  चला आया, एवं इस प्रकार उस दिन की बैठक समाप्त हो गयी. 
  स्वामी योगानन्द अथवा  मैं, ग्रीक भाषा नहीं जानते थे. एक और बैठक में इसी प्रेतात्मा से मैंने सुना कि, मेरे  मित्र उस दिन अपने साथ एक ग्रीक दार्शनिक की प्रेतात्मा को अपने साथ लाये थे. उन्होने ग्रीक कविता लिखी थी.पहले तो मुझे भी विश्वास नही हुआ, बाद में कोलम्बिया विश्वविद्यालय के ग्रीक भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक को स्लेट दिखाने पर उन्होंने कहा- ' हाँ, यह महान दार्शनिक प्लेटो की एक सुंदर रचना है; लेख  में कहीं भी कोई त्रुटि नहीं है, बिल्कुल ठीक है.' उन्होंने उसका अनुवाद करके भी मुझे सुनाया था. 
    एक अन्य बैठक में मैंने योगेन को सशरीर देखने की इच्छा प्रकट की थी, किन्तु उसने अपनी असम्मति प्रकट की थी. एक अन्य बैठक में मैंने योगेन की आवाज़ भी सुनी थी.एक टीन से बने चोंगे के भीतर से उसने मुझसे बांग्ला में कहाथा - ' यह स्थान (अमेरिका) क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? ' मैने कहा था- 'हाँ'. तब उसने कहा था- ' আমার এ জায়গা ভালো লাগে না, শ্রীমাকে দেখবার জন্য আমি ভারত যাচ্ছি.' -अर्थात ' मुझे यह जगह  अच्छी नहीं लगती, श्रीमाँ को देखने मैं भारत जा रहा हूँ. '  
      यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि, योगेन ने जीवित अवस्था में भगवान श्रीरामकृष्ण देव की सहधर्मणी और हमारी श्रीश्री माँ की सेवा मन-प्राण से की थी. " ( মরণের পারে, পৃষ্ঠ ১৬৩-১৬৬ -
' मृत्यु के पार ', पृष्ठ १२३-२५  ) 
 इसके अलावा वाराहनगर और आलमबाजार मठ में एक साथ अवस्थान करते समय भी हमलोग इन दोनों गुरुभाइयों में समानता को देख सकते है. फिर जिस समय श्री रामकृष्ण बीमार होकर काशीपुर उद्द्यान में रह रहे थे, तब उनके सेवकों में काली-महाराज और योगेन महाराज को शुरुआत से ही ह्मलोग निष्ठा के साथ विशेष भूमिका पालन करते ह्मलोग देखते हैं. यहाँ पर अपने जिन एग्यारह संतानों को गेरुआ वस्त्र दिए थे, उनमें नरेन, राखाल, निरंजन, बाबूराम, शशि, शरत, काली, योगीन, लाटू, तारक, और बूढ़े गोपाल आदि सम्मिलित थे. अर्थात यहाँ पर भी स्वामी अभेदानन्दजी और योगानन्द  थे.
फिर इसी काशीपूर से एक दिन नरेंद्रनाथ अपने गुरु भाइयों को साथ में लेकर, बीडन-स्ट्रीट के पीरु के दुकान में, फौलकरी खा कर कुसंस्कार तोड़ने के लिए ले गये थे. जो गुरु भाई लोग कुसंस्कार तोड़ने के लिए गये थे उसमें कालीमहाराज और योगीन महाराज भी उपस्थित थे.
 स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में रह रहे थे, उस समय कोलकाता के निवासियों ने टॉउन हाल में हस्ताक्षर-संग्रह के लिए सभा करके उनकी सफलता के लिए अभिनंदन ज्ञापित  किए थे, तब स्वामी अभेदानन्दजी के साथ मिलकर स्वामी योगानन्दजी ने भी समस्त सभा को आयोजित करने में विशेष भूमिका निभाए थे.वाराहनगर मठ में रहते समय वे लोग बहुत दरिद्रता और जप-ध्यान में रत रहते हुए जीवन् बिताना पड़ता था.
 एकदिन श्रीम दोपहर में आकर देखते हैं कि, बरामदे में गर्म ज़मीन के उपर ही अभेदानन्दजी मरे हुए व्यक्ति के जैसा मूर्छित दशा में सोए पड़े हैं.उन्होने योगानन्दजी से पूछा - ' क्या मठ की कठोरता को सहन कर सक्ने के कारण शरीर त्याग दिया है ?' उसके उत्तर में योगानन्दजी ने हंसते हुए उत्तर दिया-
' ও কী মরে ! ও শালা অমনি করে ধ্যান করে '|
' - वह क्या मरने वाला है ! ये तो इसी तरीके से ध्यान करता है.'
वे दोनों एक दूसरे को हृदय से जानते थे. अनुभवी मन के साथ हृदयवत्ता के साथ मिल कर किसी कार्य में अपना मनोनिवेश किया करते थे. उनका हार्दिक संपर्क आमलोगों के समझ से परे है. 
यदि वे दोनों लंबे समय तक एक साथ रह सकते तो, उनके मिलन को ह्मलोग और कुछ देख सकते थे. बहुत दूर देश में रहते हुए भी अभेदानन्दजी मानो उनको हृदय से देखना चाहते  होंगे, इसीलिए उनको प्लानचेट करके बुलाए थे.
इसिप्रकार दोनों गुरुभाइयों की हार्दिक अंतरंगता का परिचय मिलता है. ये दोनों गुरु भाइयों ने रामकृष्ण-संघ को विशेष तौर पर समृद्ध किया था. स्वामी योगानन्दजी अपने असीम सेवा और कर्मयोग के बल पर रामकृष्ण-संघ के एक स्तंभ बन गये, और अंतिम स्तंभ थे स्वामी अभेदानन्दजी जिनके प्रचार-कार्य रूप सेवा के मध्यम से भी रामकृष्ण-संघ स्मरद्ध हुआ है.
दोनों गुरुभाइयों की मानसिकता तार्किक थी. स्वामी अभेदानन्दजी जैसे श्रीरामकृष्ण को देखते ही अपना गुरु नहीं मान लिया था, बहुत दिनों तक उनको जाँचने परखने के बाद ही माने थे. ठीक उसी प्रकार स्वामी अभेदानन्दजी भी वैज्ञानिक जैसी मानसिकता से उनको थोक-ब्जा कर देख लिया था. इसीलिए श्री रामकृष्ण को भी कहना पड़ा था- ' इन सभी लड़कों में तूँ ही बुद्धिमान है. नरेन के ठीक नीचे ही तेरी भी बुद्धि है. नरेन जिस प्रकार एक मत चला सकता है, तुम भी वैसा करने में सक्षम हो सकोगे.'
इन दोनो गुरु भाइयों के बीच अंतरंता के जड़ में थीं श्री श्री माँ सारदा . मानो श्री श्री मा ही दोनों को एक ही दिशा में संचालित कर रहीं थी. श्री माँ ने उनमें से एक को अपना सेवक-कर्मी और भारवाही बनाया था, और दूसरे को ज्ञानी-सेवक के रूप में गढ़ा था. एक थे कर्मयोगी तो दूसरे थे ज्ञानयोगी संतान. दोनों ही मातृगत प्राण थे. - मानो श्री श्री मान के मध्यम से उनके आंतरिक सबन्ध की बात प्रकाशित हुई थी.
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' सावर्ण -वार्ता ' पत्रिका में प्रकाशित लेख.
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