5.रामकृष्ण-संघ में सन्यासव्रत कैसे आया ?
उन दिनों श्रीरामकृष्ण का शरीर अस्वस्थ था. उनकी सेवाशुश्रुषा करने के उद्देश्य से उन्हें ' काशीपुर उद्द्यान
बाड़ी ' में रखा जा रहा था. उनके जितने भी अन्तरंग-पार्षदगण थे वे सभी पारी बांध कर उनकी सेवा में नियुक्त थे. इन सभी सेवकों में गोपालचन्द्र सूर एक ज्ञानी अनुभवी और उम्रदराज होने के कारण सबके अभिभावक जैसे थे. इसीलिए उनको गोपालदादा भी कहते थे.
बाड़ी ' में रखा जा रहा था. उनके जितने भी अन्तरंग-पार्षदगण थे वे सभी पारी बांध कर उनकी सेवा में नियुक्त थे. इन सभी सेवकों में गोपालचन्द्र सूर एक ज्ञानी अनुभवी और उम्रदराज होने के कारण सबके अभिभावक जैसे थे. इसीलिए उनको गोपालदादा भी कहते थे.
व्यस्क गोपालदादा को साधू-सन्तों की सेवा करना बहुत पसंद था. उनकी ईच्छा हुई कि गंगासागर मेले में आये कुछ साधुओं को वस्त्र दान करना चाहिए. केवल वस्त्र ही नहीं उसके साथ रुद्राक्ष की माला भी देने की ईच्छा थी. ये वस्त्र उनको सन्यासियों को देने थे, इसीलिए एक दिन गोपालदादा उन कपड़ों को गेरुआ-मिटटी से रंग रहे थे.
यह समाचार एक कान से दुसरे कान तक होते हुए श्रीरामकृष्ण तक पहुँच गयी, श्रीरामकृष्ण ने गोपालदादा को बुलवा भेजा. उन्होंने पूछा- ' इतने सारे वस्त्रों को गेरुआ रंग में क्यों रंग रहे हो ? '
इसके उत्तर में भक्तिभाव रखने वाले गोपालदादा ने कहा- ' गंगासागर मेला में जाने के लिए जगन्नाथ घाट पर कुछ साधू लोग आये हुए हैं. उनलोगों के जीर्ण-मलिन वस्त्रों को देख कर उन्हें नए वस्त्र देने की इच्छा हुई है. इसीलिए नए कपड़े खरीद लाया था, इन्हें साधुओं को देना है, इसीलिए इनको गेरुआ रंग में रंग रहा हूँ. '
यह समाचार एक कान से दुसरे कान तक होते हुए श्रीरामकृष्ण तक पहुँच गयी, श्रीरामकृष्ण ने गोपालदादा को बुलवा भेजा. उन्होंने पूछा- ' इतने सारे वस्त्रों को गेरुआ रंग में क्यों रंग रहे हो ? '
इसके उत्तर में भक्तिभाव रखने वाले गोपालदादा ने कहा- ' गंगासागर मेला में जाने के लिए जगन्नाथ घाट पर कुछ साधू लोग आये हुए हैं. उनलोगों के जीर्ण-मलिन वस्त्रों को देख कर उन्हें नए वस्त्र देने की इच्छा हुई है. इसीलिए नए कपड़े खरीद लाया था, इन्हें साधुओं को देना है, इसीलिए इनको गेरुआ रंग में रंग रहा हूँ. '
यह बात सुन कर श्रीरामकृष्ण ने कहा- " अच्छी बात है, किन्तु तुम्हारे इस जगन्नाथ घाट पर एकत्रित
रमता ( घुमक्कड़ ) योगियों को गेरुआ वस्त्र देने से जितना फल मिलेगा, तुम इन वस्त्रों को यदि मेरे त्यागी संतानों को अर्पित कर दो तो, तो उससे हजारगुना अधिक फल प्राप्त होगा. इनके जैसा त्यागी-साधू और कहाँ खोजोगे !क्या तुम यह नहीं देख सकते कि, इनलोगों ने अपनी समस्त कामना-वासना की जलांजलि कर दी है ! इनमे से एक-एक लड़के तुम्हारे इनजैसे हजार साधुओं के बराबर है. ये सभी ' हजारी-साधू ' ( १=१०००) हैं ! समझते हो भाई ? "
गोपाल दादा श्रीश्री ठाकुर के पास बहुत दिनों से आ रहे थे. किन्तु इस बात पर तो उन्होंने कभी गौर नहीं किया था. इसीलिए ठाकुर की बात सुन कर वे आश्चर्य-चकित हो गए. वे सोचने लगे सचमुच इनलोगों को इतने दिनों से देख रहा हूँ, किन्तु पहचान नहीं सका था. ये लोग भी तो कामिनी-कांचन त्यागी हैं. वैराज्ञ की त्याग-अग्नि में इनलोगों ने अपनी समस्त कामना-वासना का होम कर दिया है. इसिलए ये भी कुछ कम साधू नहीं है. इसीलिए ये गेरुआ-वस्त्र, अपने इन गुरुभाइयों को ही अर्पित करना उचित है.
तब गोपाल दादा ने उन गेरुआ-वस्त्रों एवं रुद्राक्ष की माला आदि को त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण के हाथों में ही सौंप दिया- जो करना है, वे ही करें. वे ही इस विषय में अधिकारी व्यक्ति हैं. श्रीरामकृष्ण ने उन बारह गैरिक-वस्त्र और माला को मन्त्रपूत एवं स्पर्श करके, गोपाल दादा को इन्हें लड़कों में वितरण कर देने का आदेश दिया.
स्वामी अभेदानन्दजी ने इसके बाद की घटना को अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार लिपिबद्ध किया है- " गोपाल दादा ने हमलोगों को वे गैरिक-वस्त्र और रुद्राक्ष की मालाएं पहना दी. हमलोग गैरिक वस्त्र पहन कर ठाकुर को प्रणाम करने गए. वे हमलोगों को गैरिक-वस्त्रों में देखकर बहुत आनन्दित हुए. इसी प्रकार से उन्होंने हमलोगों को सन्यास-व्रत में दीक्षित किया था. उसी दिन से हमलोग सफ़ेद कपड़ो का त्याग कर गैरिक-वस्त्र
पहनने लगे. "
उस दिन काशीपुर में श्रीश्री ठाकुर ने वहाँ उपस्थित अपने एग्यारह त्यागी सन्तानों ( नरेन्, राखाल, काली, शशी, शरत, निरन्जन, बाबुराम, योगीन, लाटू, तारक और बूढ़े-गोपाल ) को गेरुआ वस्त्र और माला प्रदान किये थे, और बचे हुए एक गैरिक वस्त्र को गिरीश बाबु को देने के लिए निर्देश दिए थे. बाद में उस वस्त्र को प्राप्त करने पर कृतज्ञता पूर्वक अपने माथे पर रख लिया था. किन्तु उन्होंने जीवन में कभी गेरुआ वस्त्र धारण नहीं किया था. उन्होंने अपने मन (अन्तरंग-सत्ता ) को ही गेरुआ रंग में रंग लिया था, किन्तु अपने वाह्य-वस्त्रों को त्याग के रंग में रंगना नहीं चाहते थे.
यहाँ पर इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि, इसके पहले दक्षिणेश्वर में रहते समय भी श्रीरामकृष्ण ने अपनी एक लीला सहचरी को भी गेरुआ वस्त्र प्रदान किया था. केवल इतना ही नहीं, सन्यास के लिए अनुष्ठित होम-पूजा में ठाकुर स्वयं अर्घ्य प्रदान करके उस सन्यासिनी को ' गौरी-आनन्द ' का नाम प्रदान किये थे. बाद में सभी लोग उनको ' गौरीमाँ ' या ' गौरीपूरी ' के नाम से जानते थे.
किन्तु श्रीरामकृष्ण के द्वारा अपनी संतानों को गैरिक-वस्त्र प्रदान किये जाने के बाद भी अनुष्ठानिक रीति से उनलोगों की सन्यास-दीक्षा उस समय तक नहीं हो सकी थी. क्योंकि तबतक न तो बिरजाहोम हुआ था, न योग्प्त हुआ, नया नामकरण भी नहीं हुआ था. केवल उनलोगों को गैरिक वस्त्र मिल गया था. इसीबीच १६ अगस्त १८८६ ई० को श्रीरामकृष्ण महासमाधि को प्राप्त हो गए थे.
अभिभावक विहीन त्यागव्रत-धारी संतानों का ह्रदय बोझिल हो गया था. श्रीश्री ठाकुर के इहलीला समाप्ति के पश्चात् भग्न-ह्रदय त्यागी-पार्षद लोग गैरिक-वस्त्र पहन कर तीर्थों में भ्रमण करने लगे.
उस समय श्रीश्री माँ ने श्रीश्री ठाकुर के पास आन्तरिक प्रार्थना निवेदित करते हुए कहा- ' हे ठाकुर, तुम आये और केवल लीला दिखा कर चले गए...मेरे लड़के सब जो तुम्हारे नाम के सहारे सबकुछ छोड़ कर यहाँ आ गए, अब वे दो मुट्ठी अन्न के लिए इधर-उधर मारे फिरेंगे, मैं यह सब देख नहीं पाऊँगी. तुम देखना, कि तुम्हारे नाम पर जो लोग घर छोड़ कर निकलेंगे, उनको सामान्य भोजन-वस्त्र का कोई आभाव न हो. वे सभी तुमको और तुम्हारे भाव-उपदेश को ले कर संघ-बद्ध हो कर रहेंगे; और संसार के ताप-दग्ध मनुष्य उनके पास आकर तुम्हारी बातें सुन कर शान्ति पाएंगे. ' उनकी इस कातर प्रार्थना को सुनकर मानो श्रीश्री ठाकुर राजी हो गए, और उन्हीं की इच्छा से १९ अक्तूबर १८८६ ई० को वराहनगर मठ शुरू हो गया. उसके बाद एक एक कर सभी गुरुभाई लोग संघ-बद्ध होने के लिए मठ में आने लगे.
इसीबीच २४ दिसम्बर १८८६ को आटपूर में एक अद्भुत घटना घट गयी. बाबुराम महाराज की जननी मातंगनी देवी के आमंत्रण पर घूमने के लिए नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों के साथ हुगली जिले के आँटपूर ग्राम में गए थे. तरुण तपस्वी लोग ग्राम के निर्जन मनोरम परिवेश में जप-ध्यान में लगे हुए थे.शान्त परिवेश में ईश्वर-चर्चा और भजन-गान करने में सभी निमग्न हो गए थे.
उस दिन ईसामसीह के आविर्भाव का प्राक-मुहूर्त था, इसीलिए वे लोग ईसामसीह के त्याग-वैराज्ञ पूर्ण जीवन-आदर्श के ऊपर चर्चा करने लगे. खुले आसमान के नीचे धुनी जला कर उसके चारोओर बैठ कर वे सभी त्याग-मार्ग का अवलम्बन कर सभी ध्यान आदि करते थे. ईसामसीह के आत्मत्याग की महिमा का वर्णन करते करते नरेन्द्रनाथ और उनके सभी गुरुभाई लोग इतने भाव से भर उठे कि, धुनी की पवित्र अग्नि शिखा को साक्षी मान कर सदा के लिए संसार त्याग करने का दृढ संकल्प कर लिए. और उसी वैराज्ञ की अग्नि में समस्त कामना-वासना की आहुति देकर, नरेन, शरत, काली, तारक, शशी, बाबुराम, निरंजन, सारदा और गंगाधर आदि ९ गुरुभाइयों ने संघबद्ध होने का संकल्प लिया.
इसके बाद श्रीरामकृष्ण के त्यागी पार्षदों ने अपना संघबद्ध जीवन शुरू किया. उस समय वे लोग सन्यास के प्रतीक गैरिक-वस्त्रों को पहनने लगे थे, किन्तु मन में इच्छा रहने के बाद भी उससमय तक उन लोगों ने अनुष्ठानिक रीती से पूर्णरूपेण सन्यास-व्रत धारण नहीं किया था. स्वयं स्वामीजी (नरेन्द्र नाथ )ने एक दिन शास्त्र-विधि के अनुसार सन्यासी बनने की इच्छा प्रकट की. किन्तु सन्यास लेने के लिए विरजाहोम के मंत्र, मठ, मड़ी, प्रेयमन्त्र, योगपट आदि सन्यास के मंत्र में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियाँ कहाँ से आएँगी ? इस प्रसंग में उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्दजी अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है - " एक दिन नरेन्द्रनाथ ने हम सबों से कहा, ' यदि हमलोग अभी शास्त्र-विधान के अनुसार भी विधिवत सन्यास ग्रहण कर लें तो कैसा रहेगा ? इस बारे में तुमलोगों का क्या विचार है ?
' मैंने कहा, हाँ शास्त्र के अनुसार सन्यास ग्रहण करने के लिए हम सबों को विरजाहोम करना पड़ेगा. मेरे पास बिरजाहोम का मंत्र है. ' यह सुन कर नरेन्द्रनाथ ने आग्रह पूर्वक पूछा, ' तुमको विरजाहोम का मंत्र कैसे प्राप्त हुआ ? ' तब मैंने बताया कि एक बार मैं ' बराबर पहाड़ ' ( जानीबीघा विवेकानन्द युवा महामण्डल, गया से २४ कि.मी. पर स्थित ) गया था.
Lomas Rishi Caves, Exterior
( The Barabar Caves are the oldest surviving rock-cut caves in India, mostly dating from the Mauryan period (322–185 BC), and some with Ashokan inscriptions, located in Bihar, India, 24 km north of Gaya.)
These rock-cut chambers date back to the 3rd century BC, Maurya period, of Ashoka (r. 273 BC to 232 BC.) and his son, Dasaratha. Though Buddhists themselves, they allowed various Jain sects to flourish under a policy of religious tolerance.
These caves were used by ascetics from the Ajivika sect , founded by Makkhali Gosala, a contemporary of Siddhartha Gautama, the founder of Buddhism, and of Mahavira, the last and 24th Tirthankara of Jainism . Also found at the site were several rock-cut Buddhist and Hindu sculptures .)
वहाँ एक दशनामी ' पूरी ' नाम के सन्यासी से विरजाहोम का मन्त्र, मठ, मड़ी, प्रेष-मन्त्र आदि संग्रह कर के एक कापि में लिख कर रख लिया था. जब नरेन्द्रनाथ ने मेरी पूरी बात को सुना, तो आनन्द से प्रफुल्लित हो कर बोल पड़े - ' यह सब श्रीश्री ठाकुर की इच्छा और कृपा से हुआ ! फिर ठीक है, आओ एक दिन हमलोग पूजा-होम आदि करके विरजाहोम का अनुष्ठान करते हैं और शास्त्र-विधि के अनुसार सन्यास-मन्त्र में दीक्षित होते हैं. 'हम सभी लोग बड़े आनन्द से अपनी सम्मति प्रदान किये.
दिन भी तय हो गया. १२९३ बंगाब्द के माघ महीने के आरम्भ में सभी लोग एकदिन प्रातः काल गंगा में स्नान करके, वराहनगर मठ के ठाकुर-मन्दिर में श्रीश्री ठाकुर की पवित्र पादुका के सम्मुख बैठ गए. शशी ( रामकृष्णानन्द ) ने विधि के अनुसार पूजा समाप्त किया. विरजाहोम के लिए कुछ बेल की लकड़ी, बेल के बारह दण्ड, और गाय की घी आदि एकत्र किये गए. होमाग्नि प्रज्ज्वलित की गयी थी. नरेन्द्रनाथ के आदेशानुसार मैं तंत्र-धारक के रूप में अपनी कापि खोल कर सन्यास के प्रेषमन्त्रों का पाठ करने लगा.
पहले नरेन्द्रनाथ उसके बाद राखाल, निरंजन, शरत, शशी, सारदा, लाटू, आदि सभी मेरे पाठ के साथ साथ प्रेष-मन्त्र का पाठ कतरे हुए प्रज्ज्वलित अग्नि में आहुति दान किये. बाद में मैं स्वयं ही प्रेष-मन्त्र पढ़ कर अग्नि में आहुति दिया. यह बात ठीक है कि सन्यास-दीक्षा भी हमलोगों ने पहले ही श्रीश्रीठाकुर से प्राप्त कर लिया था."
वराहनगर मठ में इसप्रकार अनुष्ठानिक रूप से जो सन्यास-व्रत ग्रहण किया था, उसमें मुख्य भूमिका स्वामी अभेदानन्दजी की ही थी. श्रीरामकृष्ण के स्पर्श से पवित्र गैरिक-वस्त्र प्राप्त करने के अधिकारी होने के कारण तपोव्रती सन्यासी होने पर भी, वे स्वामी अभेदानन्द-संग्रहित और प्रदत्त प्रेष-मन्त्र का पाठ करते हुए, वैदिक रीति से विरजाहोम करके अनुष्ठानिक रूप से पहली बार सन्यासी बने थे. उन्हीं की तपोपूत प्रचेष्टा से श्रीरामकृष्ण के पार्षदगण दशनामी संन्यासी-संप्रदाय से जुड़ सके थे.आदि शंकराचार्यकृत
' दशनामी सन्यास-पद्धति ' गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित है. शाश्त्रीय मतानुसार वैदिक-सन्यास ग्रहण करने की यह भावधारा, स्वामी अभेदानन्दजी के माध्यम से ही पहली बार रामकृष्ण-संघ में आई थी.
इस पवित्र सन्यास-ग्रहण के प्रसंग में स्वामी अभेदानन्दजी ने अनुभूति-जन्य एक एक घटना को अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया है. सन्यास ग्रहण करने पर नाम परिवर्तित हो जाता है, अभेदानन्दजी अपनी जीवनकथा में इस बात का भी जिक्र किया है कि प्रत्येक गुरुभाई का नामकरण उस समय किस प्रकार हुआ था- " सबसे पहले नरेन्द्रनाथ ने अपना सन्यास नाम रखा- ' विविदिषानन्द ', उसके बाद राखाल, बाबुराम, शरत आदि के अपने अपने स्वाभाव के अनुसार अपना नामकरण किया- ' ब्रह्मानन्द ', ' प्रेमानन्द ', ' सारदानन्द ', आदि.
मैं वराहनगर मठ के एक कमरे में दरवाजों को बंद करके दिनरात ध्यान किया करता था, वेदान्त-दर्शन (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) पढ़ कर ( नेति नेति ) विचार किया किया करता था और ' अद्वैतवाद ' का समर्थन करते हुए सबों के साथ उसी विषय में चर्चा किया करता था, इसीलिए सबों ने मेरा नाम ही ' काली-वेदान्ती ' रख दिया था. तीव्र तपस्या में रत रहने के कारण कुछ लोग मुझे ' काली-तपस्वी ' कहकर भी बुलाया करते थे. मैं ' अभेद-ज्ञान ' को ही श्रेष्ठ और चरम-ज्ञान मानता था इसीलिए नरेन्द्रनाथ ने मेरा नाम रखा- ' अभेदानन्द '.शशी दिनरात श्रीश्री ठाकुर रामकृष्णदेव की पूजा और सेवा में ही लगा रहता था, इसीलिए नरेन्द्रनाथ ने उसका नाम रखा- ' रामकृष्णानन्द '. लाटू और योगीन ने बाद में सन्यास ग्रहण किया था.
लाटू दिनरात ध्यान-धारणा में अपना समय बिताता था, इसीलिए उसका नाम ' अद्भुतानन्द ' रखा गया था. तारक दादा ( शिवानन्द ) उस समय एक लंगोटी पहन कर शवासन में लेट कर ध्यान किया करता था. हमलोग जब विरजाहोम करके सन्यास ले रहे थे, उस अनुष्ठान में उसने पहले भाग नहीं लिया था; हमलोगों ने होम में भाग लेने के लिए उससे अनुरोध भी किया था, किन्तु किसी भी उपाय से उसको मनाया नहीं जा सका. बाद में गंगा में प्रवेश कर हमलोगों ने दण्ड को विसर्जित कर दिया. उसके बाद से हमलोगों के लिए पूजा-होम आदि कर्मकाण्ड करने का अधिकार समाप्त हो जाता है, क्योंकि शास्त्र के अनुसार तब
हमलोग ' परमहंस 'हो जाते हैं."
वराहनगर मठ में अनुष्ठानिक रूप विरजाहोम करके प्रथम जो ९ गुरुभाई तापस सन्यासी हुए थे, उनके नाम इस प्रकार हैं- स्वामी विविदिषानन्द ( बाद में स्वामी विवेकानन्द ), ब्रह्मानन्द, अभेदानन्द, प्रेमानन्द, रामकृष्णानन्द, सारदानन्द, अद्वैतानन्द, निरंजनानन्द और त्रिगुणातीतानन्द . इसके अतिरिक्त परवर्तीकाल में विभिन्न समय में संन्यास ग्रहण किये- स्वामी शिवानन्द, अद्भुतानन्द, योगानन्द, तुरीयानन्द, अखंडानन्द, निर्मलानन्द, सुबोधानन्द और कृपानन्द.
इसके बाद १८९२ ई० में वराहनगर से मठ स्थानान्तरित होकर आलमबाजार चला गया. वहाँ से फिर १८९८ ई० में मठ बेलूड़ चला आ गया. इस बेलूड़ मठ में केवल स्वामी विज्ञानानन्द ने सन्यास ग्रहण किया था. यद्दपि ये सभी लोग श्रीरामकृष्ण के दिव्य-सानिध्य में आये थे, एवं इनलोगों को विभिन्न समय पर श्रीश्रीठाकुर का संग भी प्राप्त हुआ था. किन्तु श्रीरामकृष्ण के सन्यासी शिष्यों में से केवल योगानन्द और त्रिगुणातीतानन्द ही श्रीश्रीमाँ सारदा से दीक्षित हुए थे. इनके अतिरिक्त भी शायद कुछ लोगों ने श्रीश्रीठाकुर या श्रीश्रीमाँ से दीक्षा ग्रहण किये थे पर उनके नाम संख्या का ठीक से पता नहीं है. किन्तु श्रीरामकृष्ण के दिव्य सानिध्य पाने और दर्शन करने के अधिकार से इनसबों को श्रीरामकृष्ण त्यागीपार्षदों के रूप में ही जाना जाता है.
किन्तु यदि श्रीरामकृष्ण-प्रदत्त गैरिकवस्त्र- प्राप्ति के अधिकार के आधार पर सन्यासी शिष्यों की गणना की जाय तो उनकी संख्या ११ ठहरती है. क्योंकि श्रीरामकृष्ण ने जिन १२ गेरुआ वस्त्रों को स्पर्श और मन्त्रपूत किया था, उनमे से एक गिरीश बाबु के लिए संरक्षित था. पुनः स्वामी अभेदानन्दजी द्वारा संग्रहित प्रेषमन्त्र आदि के आधार पर विरजाहोम करके प्रथम शास्त्रानुसार अनुष्ठानिक सन्यासी की गणना की जाय तो कुल ९ लोग उस समय सन्यासी हुए थे.
इनके अतिरिक्त बाद में वराहनगर मठ में अन्य ८ लोगों ने सन्यास ग्रहण किया था; इसके भी बहुत दिनों बाद बेलूड़ मठ में और १ व्यक्ति का सन्यास हुआ था. इसीलिए वुभिन्न समय पर सन्यास होने पर भी, श्रीरामकृष्ण के पवित्र-सानिध्य और दर्शन का अधिकारी होने से ये सभी लोग श्रीरामकृष्ण के सन्यासी शिष्य है, तथा एकमात्र प्रथम सन्यासिनी शिष्या गौरीपूरी देवी थीं या श्रीश्री माँ थीं.
किन्तु भगवान श्रीरामकृष्ण के दिव्य दर्शन या स्पर्शन के अधिकार से ये सभी वैसे अन्तरंग योगी पार्षद हैं; जिनका दिव्यजीवन- त्याग्व्रत और सेवाव्रत को अपना जीवनव्रत बनाने में उत्सर्ग हो गया है. ध्यानमग्न ऋषि तुल्य इन तरुण तपस्वियों ने ' आत्मनो मोक्षार्थं जगत-हिताय च ' व्रत को अपना ध्येय मन्त्र मानते हुए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया था.
इन समस्त व्रत-धारियों के त्याग-तितिक्षा और सेवापरायणता पर आधारित, ज्ञान-भक्ति-कर्म के समन्वय से यह अनूठा संघ गठित हुआ है.
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तथ्यसूत्र -
- ' আমার জীবনকথা ' - স্বামী অভেদানন্দ | ( ' मेरी जीवनकथा ' - स्वामी अभेदानन्द '. )
- ' গৌরিমা ' - শ্রী দূর্গাপুরি দেবী | ( ' गौरीमाँ ' - श्री दुर्गापूरी देवी' )
- ' নবযুগের মহাপুরুষ ' - স্বামী জাগ্দিশ্বারানন্দ | ( ' नवयुग के महापुरुष ' - स्वामी जगदीश्वरानन्द. )
- ' শ্রীরামকৃষ্ণ মঠের আদিকথা ' - স্বামী প্রভানন্দ | ( ' श्रीरामकृष्ण मठ की आदिकथा ' - स्वामी प्रभानन्द. )