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शनिवार, 4 जून 2011

आह्वान का प्रतिउत्तर दो !

भारत के युवाओं, स्वामी विवेकानन्द तुम्हें पुकार रहे हैं, उनके आह्वान का प्रतिउत्तर दो ! किसी अन्य व्यक्ति (क्षद्म-भेषी स्वामी) के आह्वान को सुनकर दिग्भ्रमित मत होना. किसी दूसरी दिशा से आने वाले आह्वान पर ध्यान देने से न तो तुम्हारा कुछ भला होगा और न देश का ही. केवल स्वामीजी के आह्वान को ही अपने ह्रदय में प्रविष्ट होने दो. मोहनिद्रा के व्यामोह से स्वयं को जाग्रत करो, सभी प्रकार की दुर्बलताओं (नाम-यश पाने की वासना को भी) अपने मन से बहार निकाल दो.
अपनी अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता-पवित्रता) को अभिव्यक्त करो तथा महामण्डल द्वारा संचालित " मनुष्य-निर्माणकारी एवं चरित्र-निर्माणकारी " आन्दोलन के पहियों में गति देने हेतु अपने कन्धों को भिड़ा दो. हमें अपनी प्यारी मातृभूमि के लिए अवश्य कार्य करना है. स्मरण रखो कि स्वामीजी अपने देशवासियों और अपनी मातृभूमि को  कितनी सिद्दत के साथ प्रेम करते थे.
मनुष्यों के बीच रहने वाला यह ' नरसिंह ' अपने देश के पीड़ित-वंचित मनुष्यों के लिए आँसू बहाया करते थे. उन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं चाह था- वे अपने लिए सुख और धन तो क्या नाम-यश पाना भी नहीं चाहते थे. वे मानवमात्र को प्यार करते थे तथा चाहेथे कि सभी मनुष्य " यथार्थ मनुष्य " बने, अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे, आत्मविश्वासी और साहसी बने,  निर्भय होकर अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हो जाय; ताकि आवश्यकता पड़ने पर सार्वलौकिक कल्याण के लिए अपना सबकुछ  न्योछावर कर सके. 
हमारा यह पावन कर्तव्य है कि हम इस देश के प्रत्येक व्यक्ति के उन्नति के लिए समर्पित होकर कार्य करें. वस्तुतः यही हमारा नियत कर्म है। हम अपने लिए न तो मुक्ति की कामना करते हैं, न ही हमे ईश्वर के पास पहुँचने की कोई जल्दी है। क्योंकि ईश्वर न तो स्वर्ग में निवास करते हैं, और न ही वे किसी विशेष मन्दिर-मस्जिद, चर्च या गुरूद्वारे में कैद हैं। वे न तो जंगलों में प्राप्त हो सकते हैं, और न किसी पर्वत की गुफा में ही मिल सकते हैं। वे सर्वव्यापक हैं, प्रत्येक जीव में निवास करते हैं, प्रत्येक ' मानव-शारीर ', ही ईश्वर का एक ' मन्दिर '  है। 
और यदि स्वामीजी की भाषा में कहा जाय तो प्रत्येक ' मानव-शरीर ' समस्त  " मन्दिरों का ताजमहल " है ! उन्होंने हमें आदेश दिया है कि हमलोग वहीँ( मानव-देह रूपी देवालय में ही ) उनकी उपासना करें. और जरा रुक कर हमलोग यह विचार तो करें, कि ईश्वर का यह चलता-फिरता मन्दिर, यह मनुष्य; कितने दुःख-कष्टों के बीच अपना जीवन बिता रहा है, केवल अज्ञान के कारण इस जगत के असंख्य बन्धनों में जकड़ा हुआ है.  
उन्हें कैसे मुक्त कराया जाय, उनको अपनी अन्तर्निहित अनन्तशक्ति के प्रति पुर्णतः जाग्रत कैसे कराया जाय ? स्वामीजी इसका अत्यन्त सरल किन्तु सटीक विश्लेषण करते हुए घोषणा करते हैं-" एक एक व्यक्ति को मिलाने से समाज बनता है, इसीलिए यदि आप एक एक व्यक्ति कोअपना जीवन-गठन करने में सहायता कर रहे हैं,
तो आप वस्तुतः सम्पूर्ण देश को जाग्रत कर रहे हैं.राष्ट्र-निर्माण का उपाय केवल " यथार्थ मनुष्यों " का निर्माण करना है.प्रत्येक व्यक्ति का जीवन यथार्थ रूप में विकसित करने के लिएकार्य करते रहना ही देश कि सर्वोच्च सेवा है."  " Society comprises of individuals; therefore,if you take care of the individual,you actually awaken the whole nation.the way to nation-building is only through the making of real men.The work for the proper development of each individual is the truest service to the nation."
स्वामीजी द्वारा प्रदत्त राष्ट्र-निर्माण सूत्र है -" Be and Make " अर्थात तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनो और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करो ! यह बिलकुल सरल फ़ॉर्मूला है। यदि हम समाज का कल्याण करना कहते हों तो हमें व्यक्ति-जीवन गठन के ऊपर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित रखना होगा। आप पूछ सकते हैं कि हमलोग कैसे किसी व्यक्ति का कल्याण कर सकते हैं ?
सामान्य रूप से हम लोग सोंचते हैं कि मनुष्य की सेवा उसके दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करके  ही की जाती है। उदहारण के लिए उसकी भौतिक आवश्यकताएँ में भोजन, वस्त्र, आवास, चिकत्सा-सुविधा आदि को ले सकते हैं। निश्चित रूप से सार्वभौमिक रूप से किसी भी समाज में ये ही बुनियादी मानवीय आवश्यकताएँ हैं, इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
किन्तु इन मूलभूत आवश्यकताओं की देखभाल करने के लिए व्यापक सरकारी-तन्त्र है,  तथा कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्थाएँ N.G. O आदि हैं , जो इस प्रकार के सेवा कार्य में लगी हुई हैं। किन्तु थोड़ी गहराई से विचार-विश्लेषण करने पर यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है, कि जब तक हम मनुष्य को
उसके खोये हुए व्यक्तित्व को वापस दिलाने के लिए - मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण के कार्य का देश-व्यापी प्रयत्न नहीं करते, इन भौतिक-प्रावधानों का कितना भी प्रबन्ध क्यों न करा दिया जाय, जनता की मूलभूत
आवश्यकताओं का यथार्थतः समाधान नहीं हो सकता।
इन ६३ वर्षों में भारत को यथेष्ट रूप से इन कड़वी सच्चाईयों का अनुभव हो चूका है कि - भारत की जनता को यथार्थ मनुष्य बनाये बिना या चरित्र गठित किये बिना, वे अपने कल्याण के लिए मिलने वाली इन भौतिक सेवाओं का न तो समुचित लाभ ही उठा सकेंगे, और न ही उन प्रावधानों को सुरक्षित रख पाने में ही समर्थ हो सकेंगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से लेकर विगत ६३ तक इस तरह की परियोजनाओं पर अरबों-खरबों रूपए खर्च किये जा चुके हैं, तब भी आम जनता को अब तक कोई विशेष फायदा नहीं पहुँचा है। (वर्ल्ड हंगर इंडेक्स के अनुसार अब भी भारत में प्रतिवर्ष पचहत्तर हजार मनुष्य भूख और कुपोषण के कारण मर जाते हैं.)
अतः इतने वर्षों के अनुभव से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जब तक हम यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करने में सफलता नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक किसी भी परिमाण में दी जानी वाली भौतिक प्रावधानों से मनुष्यों की सेवा करने में हम सफल नही हो सकते. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द की योजना थी कि सम्पूर्ण भारत में - ब्रह्मपुत्र से लेकर सिन्धु तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक,' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' (Man-Making Education Centers ) का जाल बिछा दिया जाय। तथापि स्वाधीन भारत में अभी तक इस दिशा में, उनके परामर्श को अमल में लाने की कोई भी चेष्टा नहीं की गयी है।
निःसन्देह इतने महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा के लिए वे लोग ही जिम्मेवार हैं, जो " सत्तापरिवर्तन की प्रक्रिया " (वोट-बैंक की राजनीती) के द्वारा बारी- बारी से सत्ता की कुर्सी को हथियाते रहते हैं। किन्तु आजादी के बाद से किसी भी नेता या दल ने ' मनुष्य-निर्माण और राष्ट्रीय-चरित्र गठन '  करने के लिए ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' का प्रारम्भ करने की दिशा में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त," व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया" की दशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ाया है। क्योंकि अधिकांश राजनीतिज्ञ स्वार्थपरायण होते हैं- और 'राजनीती' को एक हथियार जैसा अपने उपयोग में लाते हैं। अधिकांश राजनीतिज्ञ राजनीती को एक व्यवसाय मानते हैं, और स्वयं को ' जनता का सेवक ' न मानकर, अपने को ' जन-प्रतिनिधि ' मानते है, और लाल-बत्ती की गाड़ियों में बैठ कर अपना रौब गाँठने तथा केवल अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही राजनीती करते है.
किन्तु इसके लिए समान रूप से हम लोग भी जिम्मेवार हैं, क्योंकि राज्य की व्यवस्था चलाने के लिए हम लोग ही तो उनको वोट देते हैं, और जाति-धर्म के नाम पर ऐसे लोभी-स्वार्थी, अपराधी लोगों को भी सत्ता की कुर्सी - सौंप देते हैं। हमलोग ऐसा इसीलिए करते हैं, क्योंकि हमलोग सही रूप से शिक्षित नहीं हैं। हमलोगों के पास डिग्रियां तो हैं, किन्तु हम सही रूप से शिक्षित नहीं हैं क्योंकि, हमलोगों ने अभी तक अपने सच्चे पुरुषार्थ की शक्ति को अभिव्यक्त नहीं किया है। हमारे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष ! धर्म को जीवन में धारण करके त्याग पूर्वक अर्थ और काम का भोग करते हुए, कैसे चरम उपलब्धी-'मोक्ष' तक को प्राप्त किया जाता है, अपने पूर्वजों की इस विद्या को हमने भुला दिया है। मन को एकाग्र कर के हृदय की वास्तविक शक्ति - प्रेम को अभिव्यक्त करने का तरीका नहीं सीखाया गया है। क्योंकि, अपने बच्चों को हमने यह नहीं सिखाया है कि ऊँचे ओहदों पर बैठने, ऊँची डिग्रियां प्राप्त करने, और पर्याप्त धन अर्जित करना ही सबकुछ नहीं है, हमें अपने देशवासियों से भी सचमुच अपने जैसा ही प्यार करना चाहिये। उसका तरीका सीखना बाकी है, इसीलिए हमलोग इतना दुःख भोग रहे हैं, और हमें इसका दण्ड अवश्य भोगना होगा। 
अतः परिस्थिति की गम्भीरता को समझ कर, बिना और अधिक देरी किये, तत्काल, अपने जीवन और चरित्र को गढने के उद्देश्य से, स्वयं को सही रूप से शिक्षित करने के कार्य में कूद पड़ना चाहिए ! ताकि हमलोग भारत माता और उसके संतानों के प्रति अपने अन्तर्निहित प्रचण्ड प्रेम को प्रकट कर सकें. अरे, हमलोग तो स्वयं से भी सच्चे अर्थों में प्रेम नहीं कर सकते, और इसीलिए हमलोग अपने कल्याण का वास्तविक अर्थ समझ पाने में भी नाकाम हो जाते हैं. अपने अन्तर्निहित इस प्रचण्ड-प्रेम की शक्ति को प्रकट करने तरीका सीखना ही, भारत-निर्माण का प्रथम उचित-कदम होना चाहिए.
यदि हमलोग अकेले ही, इस  कार्य को करने का प्रयास करेंगे, तो वर्तमान में जैसा सामाजिक परिवेश है, वह अतिशीघ्र ही हमारे सारे उत्साह के ज्वार को भाटा में परिणत कर देगा। हमारा सम्पूर्ण प्रयास या उद्दम ही विफलता के रूप समाप्त होने के खतरे में पड़ जायेगा. अतः अनिवार्य रूप से इस कार्य का प्रारम्भ हमें संगठित रीती से, या संगठन बना कर ही करना होगा. इसीलिए स्वामीजी ने कहा था - " ईच्छा-शक्ति के संचय, आपसी तालमेल, जैसा पूर्व में था (देवता लोग एक-मन होकर सारे कार्य करते थे ), पुनः हम सभी भारत-वासियों (देव-देवियों ) को मिल-जुल कर एक ही उद्देश्य, " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-गठन " के कार्य पर अपना सारा ध्यान संकेन्द्रित करना होगा !" " संगठित- कार्यवाही की अनिवार्यता " का स्पष्ट रूप से वर्णन करने में स्वामीजी कभी थकते नहीं थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से समझया था- 
" No great work can be done without
this Centralization of Individual-forces ! "
 
" इस वैयक्तिक- शक्तियों का केन्द्रीकरण किये बिना
कोई भी महान कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सकता है !" 
स्वामी विवेकानन्द के इसी विचार को राष्ट्रव्यापी स्तर पर कार्यान्वित करने के उद्देश्य से १९६७ में ही ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की स्थापना हुई थी. विगत ४४ वर्षों से लगातार इस दिशा में प्रयासरत रहने के बावजूद अभीतक बहुत थोड़ी सी सफलता ही हाँसिल हो सकी है. सम्पूर्ण भारत वर्ष में ऐसे हजारों-हजार केंद्र अवश्य बनने चाहिए जहाँ युवाओं को जीवन का अर्थ एवं उद्देश्य को समझने, एवं जीवन-गठन करने की सम्पूर्ण-पद्धति से अवगत होने में सहायता मिल सकती हो.
स्वामीजी के विचारों को व्यावहारिक जीवन में अपनाने और सही ढंग से अपना जीवन गठित करने में युवाओं की सहायता अवश्य करनी चाहिए, ताकि वे अपना जीवन सही ढंग से गठित कर के अपनी समस्त उर्जा को राष्ट्र को सम्पूर्ण- जाग्रत करने के कार्य में नियोजित कर सकें, उन्हें स्वामीजी की योजना - " Be and Make " के कार्य को भारत के द्वार-द्वार तक पहुँचा देने में अवश्य ही सहायता करनी चाहिए.
अतः इस संगठन का प्रधान कार्य है, युवा लोग जहाँ कहीं भी एकत्र होते हों वहीँ पहुँच कर, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में 'मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' के जीवनदायी विचारों से जोड़ कर, इसे बाहर से परिपूर्ण कर देना, जिस शिक्षा को प्राप्त करने से उन्हें विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के स्तर तक महरूम ही रखा जाता है. विगत ४४ वर्षों से हमलोग इसी दिशा में प्रयासरत हैं. इन वर्षों में हमारे संगठन के ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' की संख्या बढती गयी है, हांलाकि इसकी गति धीमी है, फिर भी वर्तमान समय में इस संगठन के २८० से भी अधिक केंद्र भारत के १२ राज्यों में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं. 
कुछ युवक गण इस कार्य में योगदान करने हेतु आगे आये हैं, और उन लोगों ने पवित्रता, प्रेम तथा जनमानस की सम्मिलित शक्ति पर श्रद्धा करना सीखा है. युवा प्रशिक्षण शिविरों में लगातार युवाओं की बढती हुई संख्या ने स्वामीजी द्वारा प्रस्तावित चरित्र-निर्माण पद्धति की क्षमता के ऊपर हमारे मन में पूर्ण-विश्वास उत्पन्न कर दिया है. अब हमलोग पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते है कि यदि हम केवल उनके विचारों को निष्ठांपूर्वक प्रयोग में लायें तो हम जीवन की अपरिमित सम्भाव्यताओं को प्रकट कर सकते हैं.  
और हमारा यह दृढ विश्वास है कि भारत के पुनर्निर्माण का यही एकमात्र रास्ता है। यदि हम इस परम अनिवार्य कार्य को टाल कर देश के लिए जितनी भी परियोजनाओं को लागु करने का प्रयास करेंगे, वे समस्त योजनायें विफल होने को बाध्य होंगी. ' चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' का आभाव,भ्रष्टाचार, 
आपसी फूट, हिंसा, और दंगे-फसाद को और अधिक बढ़ावा देने वाला सिद्ध होगा.            
 नोट : (यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुखपत्र VIVEK- JIVAN के अक्टूबर २००६ अंक में अंग्रेजी में प्रकाशित, सम्पादकीय का हिन्दी अनुवाद है) 

गुरुवार, 2 जून 2011

प्रवाह का परिवर्तन

 कोई भी मनुष्य इस बात को दावे के साथ नहीं कह सकता कि इस जगत की सृष्टि किस प्रकार हुई होगी, जीवन कहाँ से आ गया, मनुष्य का आविर्भाव हुआ तो कैसे और कहाँ से ?  फिर भी वास्तविकता तो यही है कि यह जगत दृष्टिगोचर हो रहा है, हमलोगों का अस्तित्व है तथा जीवन भी है। हमलोगों को सुख-दुःख का अनुभव होता है, सुख की अनुभूति मनोहारी लगती है, पर दुःख से वितृष्णा होती है। हमलोग जीवित रहना चाहते हैं, तथा इसके विपरीत वस्तुओं को देखने के बाद भी चिरकाल तक जीवित रहने की आकांक्षा रखते हैं।
हमलोग जीवित रहने के लिए कितनी ही चेष्टाएँ करते हैं, तथा जिस वस्तु से भी हमारे जीवन पर खतरा महसूस होता है, उसके साथ युद्ध करने को प्रवृत हो जाते हैं. हमलोग सुख देने वाले पदार्थों का अन्वेषण करते हैं. दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं किन्तु लाख प्रयास के बावजूद यदि छुटकारा न मिला तो दुःख आने पर कष्ट होता ही है. यदि हमलोग दुःख के मूल कारण को एक बार जान लें तो उसे दूर करने का संकल्प भी ले सकते हैं. किन्तु बार बार ऐसी परिस्थिति उपस्थित होते रहने पर उसके समक्ष हमारी असमर्थता ही उजागर होती है, हमलोग किसी के सर पर इसका ठीकरा फोड़ने की चेष्टा करते हैं, किन्तु इसके लिए स्वयं को कभी उत्तरदायी नहीं मानते. 
कुछ दिनों के लिए तो जीवन में सबकुछ हरा-भरा दीखता है, किन्तु बाद में क्रमशः यह बात समझ में आने लगती है कि इसका सबकुछ सुखकर नहीं है. जबतक दुःख सीमा से अधिक नहीं बढ़ जाता, जीवन मधुमय ही प्रतीत होता है. किन्तु सुख-दुःख के पलड़ा जब दुःख कि ओर अधिक झुक जाता है, तब यह जीवन असहनीय प्रतीत होने लगता है. सहजात धारणा अथवा अयौक्तिक मान्यताओं के आधार पर हमलोग यही समझते रहते हैं, कि यह जगत हमारे लिए ही सृष्ट हुआ था, हमलोग इस जगत के लिए सृष्ट नहीं हुए हैं.
इसीलिए हमलोगों की युक्ति के अनुसार जगत का एकमात्र उद्देश्य तो यही हो सकता है कि यह हमें सुख में रखे तथा हमें जीवित रखने में सहायक सिद्ध हो. इसीलिए हमलोग पुरे दावे के साथ यही घोषणा करते हैं कि हम यहाँ जो भी दुःख-कष्ट पाते हैं, उसके लिए जगत की कर्तव्यहीनता या अवहेलना ही उत्तरदायी है. हमलोग जगत पर क्रुद्ध हो जाते हैं, तथा उसको दण्ड के लिए उस पर आघात करने की चेष्टा करते हैं. किन्तु उसपर एक खरोंच भी नहीं लगापाते, क्योंकि यह जगत बहुत बड़ा और कठोर भी है. 
हमलोगों के भीतर चलते रहने की या आगे की ओर बढ़ते रहने की एक स्वतः-स्फूर्त प्रेरणा रहती है. किन्तु जब चलने लगते हैं तो, यह अनुभव होता है मानो हम स्वयं से ही दूर होते जा रहे हैं, और हमें यह रुचिकर नहीं लगता. इसका कारण है कि,  जन्मजात रूप से हमलोग स्वयं को ही सबकुछ से ज्यादा प्यार करते हैं. इसीलिए हमारे चलने के मार्ग को मानो कोई अदृश्य शक्ति मोड़ देने की चेष्टा करती रहती है, और धीरे धीरे हमारा वह पथ वृत्ताकार में परिणत हो जाता है. और अन्ततः हम पाते हैं कि, वास्तव में हमतो अपने ही चारोओर चक्कर लगा रहे हैं. क्योंकि हम यही समझ लेते हैं कि, जगत का केंद्र-बिन्दु मेरे ही भीतर है, और फिर हमलोग ' अहम् - सर्वस्व मनुष्य ' अथवा एक 
' आत्मकेन्द्रित-मनुष्य ' के रूप में परिणत हो जाते हैं.
और यह अनुमान लगा कर कि, जगत के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र (या भार-केंद्र ) मेरा यह ' मैं ' -केन्द्र ही होगा, हम एक ग़लतफ़हमी पाल लेते हैं, कि लगता है मेरे हटते ही यह जगत भी जैसे टूट-फूट कर समाप्त हो जायेगा ! जगत के प्रति हमलोगों के भीतर सर्वदा ही एक क्रिया-प्रतिक्रिया का भाव उठता रहता है. मानो एक उभय-मुखी प्रवाह सदा ही प्रवाहित होता रहता है- जिसकी गति हमलोगों की ओर से जगत की ओर प्रवाहित रहती है, और जगत की ओर से हमलोगों की ओर. अपने मन की कामनाओं -वासनाओं को पूरा करने के लिए हमलोग ईच्छा-शक्ति के रूप में जगत की ओर उत्क्षेप करते रहते हैं, नाना-प्रकार के भोग-सुख पाने की फरमाइश जगत के समक्ष भेजते हैं, और जगत भी उस लालच को पूरा करने में सहयोग करता रहता है, हमलोग भी खुश होते रहते हैं.
  किन्तु कोई साधारण सी वस्तु भी यदि चाहने पर नहीं मिली, उदहारण के लिए मान लो - कोई अच्छी सी बात ही सुनने को न मिले तो हमारा मूड ही बिगड़ जाता है. सारे ' विवेकजन्य- संकोच ' को ताक पर रख कर, हमलोग उपाय ढूंढ़ते रहते हैं,  कि मन जिस वस्तु को पाना चाह रहा है, उसे कैसे भी प्राप्त कर लूँ ! कभी कभी तो चाह कर या या कभी बिना चाहे ही जगत की ओर से इतना सबकुछ मिल जाता है, कि हमलोगों के सुखानुभव की क्षमता के ऊपर ही अत्यधिक दबाव बढ़ जाता है. और तब हमारी ख़ुशी भी अब ख़ुशी नहीं रह जाती, सारा जीवन एक बोझ जैसा बन जाता है. घोर ' अभाव और प्राचूर्य ' दोनों ही अवस्थाएँ असहनीय हैं, एक रूप में नहीं और एक रूप में दोनों वेदना दायक हैं. इसीलिए दुःख का बोझ भी बढ़ता रहता है, और अन्तिम समय में यह जगत भी अभिशाप के जैसा प्रतीत होने लगता है. 
किन्तु स्वाभाविक रूप से ये आघात कहाँ से आ रहे हैं, हमलोग जान भी नहीं पाते. हमलोग ठीक से यह नहीं जानते कि हमलोगों के दुःख-कष्ट का यथार्थ उत्तरदायी कौन है. जीवन से दुःख-कष्टों को दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि हमलोग अपना दोष देखें, और यह समझने की चेष्टा करें कि जगत और हमारे बीच जो क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रवाह का गति-मुख है वह किस दिशा में है, क्योंकि हमलोगों की दुर्गति का कारण उसी पर निर्भर करता है. हमलोगों का दोष यही है,कि हम इस प्रवाह की दिशा पर अपनी नजर नहीं रखते हैं. जब हम इस कारण को जान लेंगें तब तो इसे दूर करना आवश्यक हो जायेगा, और इसका उपाय है प्रवाह की धारा का मुख ही परिवर्तित कर दिया जाय. 
हर समय ग्रहीता ( माँगने वाला ) बने न रहकर, हमलोगों को ' दाता ' (देने वाला ) बनने का कौशल सीखना होगा. हमारी कामना ऐसी हो जाये कि जगत हमसे चाहे और हमलोग उसके अभाव को दूर करते रहें. हमलोग संवेदनशील बनेंगे, जगत की ओर से आती हुई आर्तनाद के कम्पन को अपने संवेदनशील ह्रदय से सुनेंगे, और यह इतना स्वभावसिद्ध होगा कि किसी की सहायता की पुकार सुनते ही उसे ऊपर उठाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा देंगे. और केवल तभी संसार के दुःख-कष्ट हमें पीड़ित नहीं कर पाएंगे, जीवित रहने के आनन्द को ढूंढ़ कर पहचान लेंगे. तब निम्नलिखित पंक्तियों में श्रीमदभागवत में सार्थक-जीवन का जो अर्थ कहा गया है उसका मर्म हमारी समझ में भी आजायेगा - 
एतावत जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषू |
                       प्राणाः अर्थयेधिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ||                          
" - इस जगत में शरीरधारियों के जीवन की साफल्य-सीमा है : समस्त देहधारियों के लिए अपने प्राण-अर्थ- बुद्धि और वचनों से निरन्तर कल्याणकारी कर्मों को करते रहना."
अब हमलोग जगत की ओर इस दृष्टि से नहीं देखेंगे कि यह हमें अपने दुःख-कष्टों को दूर करने में सहायता करेगा. बल्कि अब हम यह जान लेंगे कि दुःख-कष्ट एवं समस्त प्रकार के अभावों को दूर करने का उपाय हमारे ही भीतर में है.  बस हमें केवल ' माँगने और देने ' के प्रवाह की धारा को पलट देना होगा, और इस कौशल में सीद्ध होते ही सदा के लिए हमारे दुखों का अवसान हो जायेगा. जगत को त्याग नहीं करना होगा. हमलोग जगत में रह सकते हैं, किन्तु जगत का दास बन कर नहीं रहना होगा. यदि हमलोग जगत के ऊपर निर्भर न रहें, तो जगत हमारे ऊपर निर्भर रहना सीख लेगा, क्योंकि तब हमलोग यह जान लेंगे कि बिना बदले में कुछ भी प्राप्त करने की प्रत्याशा रखे दिया कैसे जाता है, तब हमलोग केवल देना जानेंगे वापस पाना नहीं .
  जगत के साथ देने और लेने का जो प्रवाह है उसको विपरीत-मुखी बना देने से ही धर्म या आध्यात्मिक उन्नति का प्रारम्भ होता है. शंकराचार्य ने कहा है- ' प्रतिश्रोतप्रवर्तनमिव ' | अर्थात प्रवाह के  श्रोत को विपरीतमुखी बना लेना. महाभारत में कहा गया है- 
" आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथ्वी मम | 
यथा मम तथन्येषामिति चिन्ता न मे व्यथा || " 
" - या तो मेरा अहंकार भी मेरा नहीं है, या फिर समस्त पृथ्वी ही मेरी है. यह उक्ति जिस प्रकार मेरे लिए ठीक है, उसी प्रकार दूसरों के लिए भी ठीक है. इस उक्ति का मर्म समझ लेने पर मेरे लिए व्यथा या दुःख नाम का कुछ भी नहीं है. " 
(यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुख-पत्र " VIVEK - JIVAN "   के मार्च १९९१ में छपे बंगला संपादकीय का हिंदी अनुवाद है- संपादक ' विवेक-अंजन '.)  

गुरुवार, 24 मार्च 2011

" एक नवीन भारत निकल पड़े "उद्दम एवं नेतृत्व - २


संगठित चेष्टा का महत्व 
नेता के सामने अपने जीवन का एक सर्वोच्च निश्चित लक्ष्य (Definite Chief Aim) बिलकुल स्पष्ट रहना चाहिए. तथा इस लक्ष्य को वास्तविकता में रूपान्तरित करने का एक उत्कृष्ट नक्शा (रेखा-चित्र) भी बना लेना चाहिए. तत्पश्चात अपने नक्शे को साकार रूप देने के लिए, पर्याप्त आत्मविश्वास रखते हुए उद्दम करने में जुट जाना चाहिए. 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का निर्दिष्ट सर्वोच्च लक्ष्य (Definite Chief Aim) है- भारत का कल्याण ! स्वामीजी के शब्दों में- ' भारत माता को पुनः उसके गौरवशाली सिंघासन पर आसीन करना '. इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमारे नेता स्वामी विवेकानन्द ने जो (रेखा-चित्र ) नक्शा (उपाय) दिया है, वह है-
" Be and Make "
अर्थात तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य (श्रद्धावान मनुष्य अर्थात सत्य-द्रष्टा ऋषि) बनो और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य (श्रद्धावान मनुष्य -' नेता ') बनाने में सहायता करो.
स्वामी विवेकानन्द कहते थे, " हमें जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह श्रद्धा ही है. दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है...यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है. हमारे गुरुदेव कहा करते थे, जो अपने को दुर्बल सोचता है, वह दुर्बल ही हो जाता है, और यह बात बिलकुल ठीक भी है. इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा...उस अनन्त आत्मा, उस अनन्त शक्ति पर विश्वास करो, तुम्हारे शास्त्र और तुम्हारे ऋषि एक स्वर से उसका प्रचार कर रहे हैं. वह आत्मा अनन्त शक्ति का आधार है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता, उसकी वह अनन्त शक्ति प्रकट होने के लिए केवल  की प्रतीक्षा कर रही है.
आत्मा में सम्पूर्ण शक्ति अवस्थित है; केवल उसे व्यक्त करना होता है. इसके लिए हमें श्रद्धा की ही जरुरत है; हमें, यहाँ जितने भी मनुष्य हैं, सभी को इसकी आवश्यकता है. इसी श्रद्धा को प्राप्त करने का महान कार्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है...अब तक मैंने कुछ भी नहीं किया, यह कार्य तुम्हें करना होगा. अगर कल मैं मर जाऊं तो इस कार्य का अन्त नहीं होगा.
 मुझे दृढ विश्वास है, सर्वसाधारण जनता के भीतर से हजारों मनुष्य आकर इस व्रत को ग्रहण करेंगे और इस कार्य की इतनी उन्नति तथा विस्तार करेंगे, जिसकी आशा मैंने कभी कल्पना में भी न की होगी. मुझे अपने देश पर विश्वास है- विशेषतः अपने देश के युवकों पर. बंगाल के युवकों पर सबसे बड़ा भार है. इतना बड़ा भार किसी दूसरे प्रान्त के युवकों पर कभी नहीं आया. पिछले दस वर्षों तक मैंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया. इससे मेरी दृढ धारणा हो गयी है कि बंगाल के युवकों के भीतर से ही उस शक्ति का प्रकाश होगा, जो भारत को उसके आध्यात्मिक अधिकार पर फिर से प्रतिष्ठित करेगी. मैं निश्चय पूर्वक कहता हूँ, इन ह्रदयवान उत्साही बंगाली युवकों के भीतर से ही सैंकड़ो वीर उठेंगे, जो हमारे पूर्वजों द्वारा प्रचारित सनातन आध्यात्मिक सत्यों का प्रचार करने और शिक्षा देने के लिए संसार के एक छोर से दूसरे छोर तक भ्रमण करेंगे. "   
स्वामीजी की भविष्यवाणी को सत्य करते हुए  कोलकाता शहर के (श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय प्रमुख) कुछ तीक्ष्णबुद्धि और देशभक्त बंगाली (बंगला-भाषी) नवयुवकों ने, विवेकानन्द साहित्य रूपी सागर का मंथन करके भारत-निर्माण के इस नक्शे " Be and Make " को ढूंढ़ निकला. तथा चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक पहुंचा देने योग्य युवा-नेताओं का निर्माण करने के लिए वर्ष १९६७ में - " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " की स्थापना हुई.
  विगत ४४ वर्षों से महामण्डल इसी ' बनो और बनाओ ' आन्दोलन को कार्य रूप देने में लगा हुआ है. तथा अभी भारत के १२ राज्यों में इसके लगभग ३०० केंद्र हैं जहाँ युवा चरित्र-निर्माण का कार्य चल रहा है. किन्तु (ऋषि) यथार्थ मनुष्य ' बनने और बनाने ' का कार्य सम्पूर्ण भारत में फैला देने के लिए, और अधिक संख्या में  कुशल युवा नेतृत्व( सत्य-द्रष्टा युवा नेताओं ) की आवश्यकता है. 
४४ वर्ष पहले हमारे जो भाई (अग्रज) जीवन गठन और चरित्र-गठन के माध्यम से ऋषि-तुल्य नेता बनो और बनाओ के कार्य में अपने जीवन को समर्पित कर के आगे बढ़ा रहे थे उनमें से अधिकांश की आयु अब ६० से ऊपर की हो चुकी है. आज भी उनके मन में युवाओं का ही जोश है, किन्तु शारीरिक अवस्था आड़े आती है. अतः जिन युवा सदस्यों में  ऋषित्व-प्राप्त नेता बनने की पात्रता (भरपूर आत्मविश्वास और उद्दम ) हो उन्हें अपने अपने शहर या ग्राम में महामण्डल केंद्र खोलने के संगठित प्रयास में जुट जाना चाहिए. 
यदि किसी केंद्र के नेता के अपने ह्रदय की सम्पूर्ण वक्रता (भेद-बुद्धि) दूर हो चुकी हो, (अर्थात जिनका ह्रदय इतना उदार हो जिसमें अपनी  ऊँची जाति, ज्ञान और भाषा का कोई अहंकार न बचा हो;) तो उन्हें ऐसे युवाओं के साथ ' महामण्डल-भ्रातृत्व ' की भावना से ओतप्रोत संगठन बनाने की चेष्टा करनी चाहिए जो अपने जीवन को सार्थक करना चाहते हों. ऐसे नेताओं की संख्या बढने के अनुपात में ही हमारे देश की समस्त समस्याओं का निदान निर्भर करेगा. 
महामण्डल -भ्रातृत्व की भावना से ओतप्रोत संगठन का निर्माण भी एक ऐसे रेखा-चित्र पर आधारित होना चाहिए, जिसका लाभ (आत्मश्रद्धा)  सभी सम्बद्ध भाइयों को एक समान प्राप्त होना चाहिए. यह तभी सम्भव है जब इस संगठन का नेतृत्व किसी आध्यात्मिक शक्ति-सम्पन्न (सत्य-द्रष्टा ऋषि तुल्य) नेता के हाथों में हो, जो भारत के किसी भी दूसरे प्रान्त के भाइयों से भाषा, जाति और धर्म के नाम पर कोई भेद-भाव न करता हो.  हमारा नेता ऐसे नाविक की तरह होना चाहिए जो तूफान आने पर भी धैर्य धारण करे और पुरषार्थ के बल पर विभिन्न जाती, धर्म और भाषा बोलने वाले अपने सभी सहयोगियों को एकता के सूत्र में बान्धे रख सके. 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " पानी का जहाज (महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर के जैसा ही) हवाई जहाज ( अन्य नामी-नामी क्लबों ) की अपेक्षा बहुत बड़ा होता है...बहुत बड़े बड़े जहाजों में बीच में रहती है पहली श्रेणी, दोनों ओर कुछ खाली जगह, उसके बाद दूसरी श्रेणी, और स्टीयरेज इधर उधर जैसे तीसरी श्रेणी हो; उसमें वही लोग जाते हैं जो बहुत गरीब हैं.
तूफान उठने पर डेक के यात्रियों को बड़ी तकलीफ होती है और कुछ तकलीफ बन्दरगाह में माल उतारने के समय. पानी के जहाज के सर्वेसर्वा मालिक हैं कप्तान. जहाज पर उनका हुक्म ही कानून है. उनके नीचे चार 'अफसर ' हैं, जिन्हें देशी नाम से 'मालिम' कहते हैं. ये लोग यूरोपियन हैं, बाकी सब नौकर-चाकर खलासी, कोयला झोंकनेवाले देशी लोग ही हैं- सभी मुसलमान. नौकर खलासी कलकत्ते के, कोयला झोंकनेवाले पूर्व बंग (बंगलादेशी) बावर्ची भी पूर्व बंग के कैथोलिक क्रिश्चियन हैं और हैं चार मेहतर.
..ये सब... आजकल प्रायः उन सभी जहाजों पर रहते हैं, जो कलकत्ते से यूरोप जाते हैं. क्रमशः इनकी एक जाती तैयार हो रही है. कुछ जहाजी पारिभाषिक शब्दों की सृष्टि हो रही है. कप्तान को ये लोग कहते हैं-
' बाड़ीवाला ', अफसर को 'मालिम',  मस्तूल को - 'डोल' ..खलासियों और कोयले वालों में एक आदमी सरदार रहता है, उसे ' सारंग ' कहते हैं, उसके नीचे दो-तीन 'टंडेल', इसके बाद खलासी या कोयलेवाला. 
खानसामा लोगों (boy ) के सरदार को ' बटलर ' कहते हैं, उसके ऊपर एक आदमी गोरा, ' स्टुअर्ड ' होता है. खलासी लोग जहाज धोना-पोछना रस्सी फेंकना-उठाना, नाव उतरना-चढ़ाना, पाल गिराना-उठाना आदि काम करते हैं. सारंग और टंडेल सदा ही साथ साथ फिरते और काम करते हैं. कोयलेवाले इंजन-घर में आग ठीक रखते हैं; उनका काम दिन-रात आग से लड़ते रहना है, और इंजन को पोंछकर साफ रखना. वह विराट इंजन और उसकी शाखा -प्रशाखाएँ साफ रखना कोई साधारण काम है?
इन सब बंगाली खलासी, कोयलेवाले, खानसामे आदि का काम देखकर स्वजाति पर जो एक निराशा का भाव था, वह बहुत कुछ घट गया है. ये लोग धीरे धीरे कैसे 'मनुष्य ' बन रहे हैं, कैसे तंदरुस्त, कैसे निडर फिर भी शान्त (3 _H ). वह नेटिवी (देशज) पैरपोशी (चाटुकारिता) का भाव मेहतरों में भी नहीं, कैसा परिवर्तन !
देशी मल्लाह (महामण्डल के नेता - उत्तम ) लोग जो काम करते हैं, वह बहुत अच्छा है. जबान पर एक बात भी नहीं, पर उधर तनख्वाह गोरों की चौथाई . इन्हें देख कर, पाश्चात्य में बहुतेरे असंतुष्ट हैं, खास कर इसलिए कि बहुत से गोरों (अमेरकियों कि नौकरी जाती है) की रोटियाँ छीन जातीं हैं. वे लोग कभी कभी शोर मचाते हैं. कहने को तो और कुछ है नहीं, क्योंकि ये काम में गोरों (अमेरकियों ) से तेज और फुर्तीले होते हैं. परन्तु दोषारोपण करते हुए कहते हैं- तूफान उठने पर, जहाज के विपत्ति में पड़ने पर, इनमें हिम्मत नहीं रहती. राम कहो !
वास्तविक विपत्ति के समय यह स्पष्ट हो जाता है, कि उनके ऊपर लगाया गया लांछन सरासर झूठ है. विपत्ति के समय गोरे भय से शराब पीकर, डर के सिकुड़ जाते हैं, निकम्मे हो जाते हैं. जबकि देशी खलासियों ने एक बूंद भी शराब जिन्दगी भर नहीं पी, और अब तक किसी महा विपत्ति के अवसर पर एक आदमी ने भी कायरता नहीं दिखायी. अजी, देशी सिपाही (स्वामीजी का  सैनिक ) भी कभी कायरता दिखलाता है ?
परन्तु नेता चाहिए. जनरल स्ट्रांग नामक मेरे एक अंग्रेज मित्र सिपाही -विद्रोह (सन १८५७)  के समय इस देश (भारत) में थे. वे अक्सर ग़दर के दिनों की कहानियाँ सुनाया करते थे. एक दिन उनसे बातों ही बातों में पूछा गया कि सिपाहियों के साथ इतनी तोप, बारूद, रसद थी,  और वे शिक्षित तथा दूरदर्शी थे. फिर वे इस तरह क्यों हार कर भागे? उन्होंने उत्तर दिया, उसमें जो लोग नेता थे, वे सब बहुत पीछे से ' मारो बहादुर ', ' लड़ो बहादुर ' कह कहकर केवल चिल्लाते रहते थे ! स्वयं अफसर (नेता ) के आगे बढ़े बिना, तथा मौत का सामना किये बिना कहीं सिपाही लड़ते हैं ! सब काम में ऐसा ही हाल है. 'सिर दार तो सरदार '; सिर दे सको तो नेता हो . हम सब लोग धोखा देकर नेता होना चाहते हैं; इसीसे कुछ होता नहीं, कोई मानता भी नहीं
आर्य बाबा का दम भरते हुए चाहे प्राचीन भारत का गौरव गान दिन-रात करते रहो और कितना भी 'डमडम' कहकर गाल बजाओ, तुम ऊँची जातवाले (बिना लहसुन पियाज का मुर्गा खाने वाले) क्या जीवित हो ? तुम लोग हो दस हजार वर्ष पीछे के ममी !! जिन्हें (जिन निम्न जाती वालों को ) ' सचल श्मशान ' कहकर तुम्हारे पूर्व पुरुषों ने घृणा की है, भारत में जो कुछ वर्तमान जीवन है, वह उन्हीं में है और ' चलते-फिरते मुर्दे ' हो तुमलोग.
  तुम्हारे घर-द्वार म्यूजियम हैं, तुम्हारे आचार-व्यव्हार, चाल-चलन देखने से जान पड़ता है, बुढ़िया दादी के मुंह से कहानियाँ सुन रहा हूँ. तुम्हारे साथ  प्रत्यक्ष वार्तालाप करके भी जब घर लौट कर तुम्हारे चेहरों को याद करता हूँ तो जान पड़ता है, किसी चित्र-प्रदर्शनी में टंगे तस्वीरों को देख आया हूँ! 
इस माया के संसार के असली प्रहेलिका (?) (गड्ढे?) , असली मरू-मरीचिका तुम लोग हो भारत के उच्च वर्णवाले. तुम लोग भूत काल हो, लंग, लुंग, लिट, सब एक साथ. ..स्वप्न-राज्य के आदमी हो तुम लोग, अब देर क्यों कर रहे हो ? भूत-भारत-शरीर के रक्त-मांस-हीन कंकालकुल, तुम लोग क्यों नहीं जल्दी से जल्दी धूलि में परिणत हो वायु में मिल जाते ? 
तुमलोगों  की अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, तुम्हारे दुर्गन्धित शरीरों को आवृत किये पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं. इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली. अब पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी में, अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में, उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो. 
तुम लोग शून्य में विलीन हो जा और फिर एक नवीन भारत निकल पड़े. निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटी भेदकर, जाली, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से . निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से. निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से. 
इन लोगों ने सहस्र सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है, - उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता. सनातन दुःख उठाया, जिससे पायी है अटल जीवनी शक्ति. ये लोग मुट्ठी भर सत्तू खाकर दुनिया उलट दे सकेंगे. आधी रोटी मिली तो तीनों लोक में इतना तेज न अटेगा ! ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं. और पाया है सदाचार-बल, जो तीनों लोक में नहीं है. इतनी शान्ति, इतनी प्रीति, इतना प्यार, बेजबान रहकर दिन-रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम !! 
अतीत के कंकाल-समूह ! - यही है तुम्हारे सामने तुम्हारा उत्तराधिकारी भावी भारत. वे तुम्हारी रत्न पेटिकाएँ, तुम्हारी मणि की अंगूठियाँ - फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो.
 Skeletons of the Past, there, before you, are your successors, the India that is to be. Throw those treasure-chests of yours and those jeweled rings among them, as soon as you can; and you vanish into the air, and be seen no more- only keep your ears open. No sooner will you disappear than you will hear the inaugural shout of Renaissance India, ringing with the voice of a million thunders and reverberating throughout the universe, " Wah Guru Ki Fateh "- victory to the Guru !     
तुम ज्यों ही विलीन होगे, उसी वक्त सुनोगे, कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पनकारिणी भावी भारत की उद्बोधन ध्वनी- " वाह गुरुजी (श्रीरामकृष्ण ) का खालसा (नरेन्द्र नाथ दत्त !), वाह गुरूजी (श्रीरामकृष्ण) की फतह ! "
किसी महान दार्शनिक ने कहा है- " Initiative is the passkey that opens the door to opportunity." अर्थात 'उद्दम ' वह कुंजी जो 'अवसर ' के द्वार को खोल देता है ! जब किसी श्रद्धावान नेता (स्वामी विवेकानंद) के नेतृत्व में महामण्डल के सभी कर्मी (श्रीरामकृष्ण की संतानें) भ्रातृत्व की भावना से महामण्डल के चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के सभी प्रान्तों में फैला देने के लिए संगठित प्रयास करेंगे तो सफलता अवश्य मिलेगी.                                        

बुधवार, 23 मार्च 2011

उद्दम एवं नेतृत्व -१


(' यदि पूरा है विश्वास, तो यह भी है आसान !' ' You Can Do It if you Believe You Can! ')
जब किसी मनुष्य का चरित्र सुन्दर रूप से गठित हो जाता है तब उसमें स्वनिर्भरता या आत्मनिर्भर रहने का गुण आ ही जाता है. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते थे, यथार्थ शिक्षा प्राप्त करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीख लेता है. पैरों पर खड़े होने का अर्थ क्या केवल इतना ही है कि तब मनुष्य अपने देह के भार को पैरों पर डाल कर सीधा खड़ा हो जाता है ? नहीं, इसका सही अर्थ है, तब मनुष्य विवेक-प्रयोग करने में दक्ष हो जाता है और अपने जीवन को पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की दिशा में अग्रसर रखने का सामर्थ्य प्राप्त करके अपने जीवन को सार्थक बना सकता है. 
और, मनुष्य जितना ही आत्मनिर्भर  होता जाता है, उतना ही उसके दुःख-भोग की संभावना कम होती जाती है. दुसरों के ऊपर हम जितना अधिक निर्भर रहेंगे, उनसे जो आशा-आकांक्षा है वो पूर्ण नहीं होने से दुःख पाने की संभावना भी उतनी ही अधिक बनी रहेगी. मनु महाराज बड़े ही सुन्दर ढंग से सुख और दुःख का लक्षण बताते हुए कहते हैं-
सर्वम परवशं दु:खं सर्वं आत्मवशं सुखं |
इति विद्यात समासेन  लक्षणं सुख-दुःखयो:||
- दूसरों के ऊपर निर्भर रहना ही सारे दु:खों का कारण है तथा ' आत्मा के वश में रहना या आत्मनिर्भर रहना ही सुखों का मूल है '. संक्षेप में सुखी या दु:खी मनुष्य की यही पहचान (लक्षण) है. 
जब कोई व्यक्ति 'विवेक-प्रयोग ' के द्वारा पर-निर्भर रहना छोड़ कर आत्मनिर्भर बन जाता है तो उसके ह्रदय में स्वतः ही आत्मविश्वास जाग्रत हो जाता है. आत्मविश्वास का अर्थ है- अपनी अन्तर्निहित शक्ति और  सामर्थ्य, क्षमता में अटूट आस्था या विश्वास. वह अपने अनुभव से इस बात को समझ लेता है कि - ' मैं यदि अपने अन्तर्निहित विवेक-प्रयोग ( श्रेय-प्रेय का विवेक-विचार करने )की शक्ति की सहायता से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने का दृढ-संकल्प अपने मन में धारण कर लूँ, तो मैं उसे अवश्य प्राप्त कर सकता हूँ.'  इस प्रकार आत्मविश्वास का अर्थ है- " अपने आप पर विश्वास ". स्वामी विवेकानन्द कहते थे, ' पहले अपने आप पर विश्वास, उसके बाद ईश्वर के ऊपर विश्वास. तुम यदि अपने तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं तथा बीच-बीच में घुसा दिए गए अन्य विदेशों से आयातित देवताओं पर विश्वास करो पर यदि तुम्हें अपने आप विश्वास नहीं है तो तुम्हारी मुक्ति सम्भव नहीं है.'इससे, हम यह समझ सकते हैं, कि स्वामीजी आत्मविश्वास को कितना मूल्यवान समझते थे. उनमें स्वयं के ऊपर अद्भुत आत्मविश्वास था तभी तो उन्होंने अत्यन्त ही प्रतिकूल परिस्थितिओं के बीच रहते हुए भी पुरे संसार को झकझोर कर रख दिया था. तथा अपने भावी अनुयायियों 
(भावी नेताओं) को जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा था-
" दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- ' तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जाग्रत हो जाओ. हे शक्तिमान (विवेक-प्रयोग की शक्ति से युक्त सर्वश्रेष्ठ मनुष्य ), यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो. हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ, अपना स्वरुप प्रकाशित करो. तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है.' जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो, कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. मनुष्य जाती से यह बतलाओ (मानव-मात्र के भीतर विवेक-शक्ति अन्तर्निहित है ) और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम अपने दैनंदिन जीवन में उसका (विवेक) प्रयोग करना सिख सकेंगे." ( वि० सा० ख० ८: १५) 
जिस व्यक्ति में आत्मविश्वास नहीं है, वह किसी महान उद्देश्य (या लक्ष्य) को प्राप्त करने के लिए न तो उद्दम कर सकता है, और न ही किसी आन्दोलन को सफल बनाने में कुशल नेतृत्व ही प्रदान कर सकता है. किसी भी उपक्रम (या मनुष्य निर्माण आन्दोलन) को सफल बनाने के लिए नेतृत्व  (Leadership अगुआई करने की क्षमता) मूलभूत आवश्यकता है, एवं उद्दम (Initiative) ही वह बुनियाद है जिसके ऊपर नेतृत्व-क्षमता का निर्माण होता है.
'उद्दम'  वह अत्यन्त दुर्लभ/ असाधारण गुण है, जो किसी मनुष्य को उस उपयुक्त कार्य को करने में नियोजित करा देता है, जिसे बिना किसी के कहे ही करना आवश्यक हो. प्रसिद्द अंग्रेजी पुस्तक ' Laws Of Success ' (सफलता के नियम) के लेखक Napoleon Hill (नेपोलियन हिल ) कहते हैं- " Initiative is that exceedingly rare quality that impels a person to do that which ought to be done without being told to do it. " अर्थात किसी उपयुक्त कार्य को बिना किसी के कहे ही करने के गुण को उद्दम कहते हैं. 
दूसरी श्रेणी में वैसे लोग आते हैं जो बिना कहे कोई उपयुक्त कार्य तो नहीं करते परन्तु केवल एक बार कह देने से उसे अवश्य करते हैं. ये लोग सन्देश-वाहकों की श्रेणी में आते हैं. जो लोग किसी सन्देश को प्रसारित करने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ऊँचा सम्मान प्राप्त होता है, किन्तु उनका मेहनताना सर्वदा समानुपाती नहीं होता है. 
तीसरी श्रेणी वैसे लोगों की है जो तबतक कोई उपयुक्त कार्य नहीं करते जबतक विवशता उन्हें पीछे से लात नहीं मारती. इन्हें सम्मान के स्थान पर उपेक्षा ही प्राप्त होती है, तथा मेहनताने में कोई तुच्छ पारितोषिक ही  मिल पाता है. इस श्रेणी के जन अपना अधिकांश समय दुर्भाग्य का रोना रोते हुए बिताते हैं.
 इससे भी निचले पैमाने पर वैसे लोग हैं जो किसी के द्वारा उपयुक्त कार्य करने के ढंग को खुद करके प्रदर्शित करने तथा अपनी निगरानी में पूरा करने का अवसर देने के बाद भी नहीं करते. ऐसा व्यक्ति सर्वदा बेरोजगार ही रहता है, तथा उसके पीछे यदि कोई धनाड्य रिश्तेदार खड़ा न रहे तो उसे यथोचित अपमान झेलना पड़ता है, एवं नियति (भाग्य) अपने हाथो में मुद्गर ले कर धैर्यपूर्वक उसका इंतजार भी करती रहती है.
अब प्रश्न यह है कि आप किस श्रेणी के साथ सम्बन्धित हैं ?  
नेतृत्व के विशिष्ट लक्षणों में से एक विशिष्ट लक्षण तो यह है सच्चाई है कि, जो व्यक्ति उद्दम करने की आदत को अपनी प्रवृत्ति नहीं बना लेता उसमें कभी नेतृत्व करने की क्षमता भी नहीं आ सकती.नेतृत्व कोई ऐसी चीज है, जिसे आपके ऊपर कभी थोपा नहीं जा सकता, आपको स्वयं आगे बढ़ कर किसी उपयुक्त कार्य में अपने कन्धों को भिड़ा देना होता है.
जिन नेताओं को आप जानते हैं, यदि ध्यानपूर्वक उनका विश्लेष्ण करें तो आप पाएंगे कि उन्होंने न केवल उद्दम के गुण का भरपूर इस्तेमाल किया था, बल्कि अपने मन में एक निश्चित लक्ष्य को पाने का संकल्प ले कर ही उस विशेष कर्मक्षेत्र में अपने कन्धों को भिड़ा दिया था. आप यह भी देख पाएंगे कि उन सबों में आत्मविश्वास का गुण भी कूट-कूट कर भरा हुआ था. 
     

गुरुवार, 10 मार्च 2011

' विवेक-अंजन ' से अलौकिक दृष्टि मिलती है !

 ' विवेक-अंजन ' से अलौकिक दृष्टि मिलती है !  
ऐसा कहा जाता है, कि जैसी दृष्टि होती है वैसी ही सृष्टि होती है । जब तक हमारी अपनी (अहं की य़ा मैंपन की)  दृष्टि होती है, अपने विचार होते हैं, अपनी अपनी (मनगढ़ंत) मान्यतायें ( मैं स्त्री य़ा पुरुष शरीर मात्र हूँ ) होती हैं, तब तक हम विवेक-दृष्टि को प्राप्त नहीं कर सकते । विवेक रूपी सदगुरु की शरण में आकर हम अपनी इन चर्म-चक्षुओं से  इस सतत परिवर्तनशील जगत में व्याप्त अटल सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं.
" जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है. उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है. अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं. "(वि० सा० ख० ८:६)
" हममें ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही है. हमलोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर ' अन्धकार ' 'अन्धकार ' कहकर चीत्कार करते हैं. जान लो कि तुम्हारे चारों ओर कोई अन्धकार नहीं है...हमलोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं..जिस क्षण तुम कहते हो, ' मैं मर्त्य क्षुद्र जीव हूँ ', तुम झूठ बोलते हो; तुम मानो सम्मोहन के द्वारा अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो. वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है. और वेदान्त कहता है कि सबसे बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना. (८: ७)     " सब कुछ वही एक सत्तामात्र है; भेद केवल परिणाम का है, प्रकार का नहीं. हमारे जीवन में अन्तर प्रकारगत नहीं है. वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशु मनुष्य से पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है. " ( वि० सा० ख० ८:८)
"हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए. हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं. दुर्बलता और सबलता में केवल परिणामगत भेद है...एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिणामगत ही है, प्रकारगत नहीं; क्योंकि, वास्तव में सभी वस्तुएं वही एक अखण्ड वस्तुमात्र है. सब वही एक है, जो अपने को विचार (मन), जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है, और उनमें अन्तर केवल परिमाण का है. अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये, उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है." (८: १०)
"मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाय, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह उससे बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है और अपने में विश्वास करना सीखता है. किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है. हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतने कटु अनुभव क्यों प्राप्त करें ?
इस विश्वास का अर्थ है- सबके प्रति विश्वास, क्योंकि तुम सभी एक हो. अपने प्रति प्रेम का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु-पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम - क्योंकि तुम सब एक हो. यही महान विश्वास जगत को अधिक अच्छा बना सकेगा. "
वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य (नरेन्द्र) है, जो सच्चाई के साथ कह सकता है, ' मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जनता हूँ.' क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर (मन में) कितनी  उर्जा, कितनी शक्तियाँ, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? ..अतएव तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो ? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे क्या सम्भावना है, क्या तुम यह जानते हो?तुम्हारे अन्दर जो (मन की अनन्त शक्ति) है, उसका केवल थोडा सा तुम जानते हो. (अभी हमारे मन का  केवल एक भाग जाग्रत है, नौ हिस्सा मन सोया हुआ है)" (८: १३)  
"आत्मा वा अरे श्रोतव्यः - इस आत्मा के बारे में पहले सुनना चाहिए. (स्वामी विवेकानन्द के मुख से उनके इष्टदेव का नाम ) दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं वह आत्मा (ठाकुर) हो !(भगवान को बंगला में ठाकुर कहते हैं ) दिन-रात यही भाव अपने मन में व्याप्त किये रहो, यहाँ तक कि वह तुम्हारे के रक्त के प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस नस में समा जाय. सम्पूर्ण शरीर को इसी एक आदर्श {श्रीरामकृष्ण परमहंस (परमहंस =Most Intelligent person)} के भाव से पूर्ण कर दो- ' मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान नित्य ज्योतिर्मय (सच्चिदानन्द) आत्मा हूँ.' -- दिन-रात यही चिन्तन करते रहो, जब तक कि भाव तुम्हारे जीवन का अविच्छेद्य अंग नहीं बन जाता. इसीका ध्यान करते रहो- और इसीसे तुम कर्म करने में समर्थ हो सकोगे. '
 ' ह्रदय पूर्ण होने पर मुंह बात करता है- ह्रदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते हैं. '.. तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म वृहत, परिवर्तित और देवभावापन्न हो जायेंगे. अगर 'जड़' (शरीर) शक्तिशाली है, तो 'विचार ' ( मन ) सर्व शक्तिमान है. इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता, सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा के भाव से पुर्णतः भर लो ! ईश्वरकृपा से काश कुसंस्कारपूर्ण भाव ( मैं स्त्री-पुरुष हूँ, शरीर हूँ ..ऐसो घर हम बहुत बसायो ) तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते !...ईश्वरकृपा से काश हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव ( स्वयं को देह, स्त्री-पुरुष मानकर विपरीत लिंग के प्रति कशिश ) से परिवेष्टित न होते ! ईश्वरेच्छा से काश, मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम सत्यों ( I am He, सोSहम ! ) को प्राप्त कर सकता ! किन्तु उसे इन सबमें से ( विवाह, रोग-शोक में से ) होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ ." (८:१३)  
" यदि कर सको तो जगत का कल्याण करो, पर उसका अनिष्ट न करो. अपने अंतरतम से यह समझ लो कि तुम्हारे ये सीमित विचार एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्राथना करना केवल अन्धविश्वास है. मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ, जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो. जो भी उत्तर पाते हो, वह अपने ह्रदय से ही. तुम जानते हो कि भूत नहीं होते, किन्तु अंधकार में जाते ही शरीर कुछ काँप सा जाता है. इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह भय घुसा दिया गया है. किन्तु समाज के भय से, संसार के कहने सुनने के भय से, बन्धु-बान्धवों की घृणा के भय से, अथवा अपने प्रिय कुसंस्कार के नष्ट होने के भय से, यह सब हम दूसरों को न सिखायें. इन सबको जीत लो. धर्म के विषय में विश्व-ब्रह्माण्ड के एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? सहस्त्रों वर्षों से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है और अभी भी कर रहा है. केवल एक ही जीवन है, एक ही जगत है और वही हम लोगों को अनेकवत प्रतीत होता है.. केवल वह 'एक' (ब्रह्म =ठाकुर ) ही अपने को बहू रूप  में - जड़, चेतन, मन, विचार, अथवा अन्य विविध रूपों (चौरासी लाख योनियों ) में व्यक्त कर रहा है. अतएव हम लोगों का प्रथम कर्तव्य है- इस तत्व की अपने को तथा दूसरों को शिक्षा देना. " (८:१४-१५)
" दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो - ' तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जाग्रत होओ. हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती. जागो, उठो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल और दुखी मत समझो. हे सर्वशक्तिमान, उठो, जाग्रत होओ अपना स्वरुप प्रकाशित करो. तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता. तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है. ' 
जगत से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो इसका ( विवेक-अंजन का ) - क्या व्यावहारिक फल होता है, देखो कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएँ प्रकाशित हो उठती हैं, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है. मनुष्य जाति से यह बतलाओ और उसे उसकी शक्ति दिखा दो. तभी हम अपने दैनंदिन जीवन में उसका (विवेक-अंजन का ) प्रयोग करना सीख सकेंगे. 
' To be able to use what we call Viveka  (discrimination), to learn how in every moment of our lives, in every one of our actions, to discriminate between what is right and wrong, true and false, we shall have to know the test of truth, which is purity, oneness.'   
जिसे हम विवेक या सदसत विचार कहते हैं, उसका (विवेक-प्रयोग को ) अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसौटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान. ' Everything that makes for oneness is truth. which is purity, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false. It is a disintegrating power, it separates and destroys. '  
जिससे एकत्व की प्राप्ति हो, वही सत्य है. प्रेम सत्य है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है. घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती है- अतएव वह गलत और मिथ्या है; यह एक विघटक शक्ति है; वह पृथक करती है- नाश करती है. प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है. " (८: १५)
' तुम जो कुछ जानते हो, आत्मा के द्वारा ही जानते हो. (टॉफी-मिल्क, कुर्सी आदि ) देखने से पहले मुझे अपने स्वयं (यथार्थ स्वरुप का) का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का. इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है, ...आत्मा को हटा लेने से सम्पूर्ण जगत ही विलुप्त हो जाता है. .. यही ' वह ' (He -श्रीरामकृष्ण, ब्रह्म, अल्ला या वाहे गुरु ) ' तुम ' हो, जिसको तुम ' मैं ' ( M /F ) कहते हो. ..ससीम 'मैं' केवल भ्रम मात्र है, गल्पकथा मात्र है. उस अनन्त के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है और उसका कुछ अंश इस 'मैं' (M/F) रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त (ब्रह्म,अल्ला, वाहेगुरु, श्रीरामकृष्ण ) का अंश है. ..उसको बिना जाने हम क्षणमात्र भी जीवित नहीं रह सकते. ..वेदान्त का ईश्वर सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात हैं; वह कल्पनाप्रसूत नहीं है. ..जो ईश्वर, सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है, मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उससे भी अधिक ईश्वर और व्यावहारिक कहाँ होगा ? क्योंकि तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान ईश्वर हो, और यदि यह कहूँ कि तुम वह (ब्रह्म, अल्ला, वाहेगुरु, श्रीरामकृष्ण) नहीं हो, तो मैं झूठ बोलता हूँ. सारे समय में इसकी (सभी M /F में ठाकुर -माँ की) अनुभूति करूँ या न करूँ, सत्य यही है. " (८:१६)
ह्रदय के द्वारा ही भगवत-साक्षात्कार (आत्मसाक्षात्कार ) होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं. ..भावना ही वास्तव में कार्य करती है, ..क्या तुम्हारे पास भावना है ? यदि है तो तुम ईश्वर को देखोगे.... बुद्धि आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं और गलतियाँ करते हैं. विचार-शक्ति (विवेक-अंजन ) उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना. वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, निष्क्रिय है, वस्तविक सहायता भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है. तुम क्या किसी दूसरे के लिए ह्रदय से अनुभव करते हो ? यदि करते हो तो एकत्व के भाव में तुम विकास कर रहे हो. यदि नहीं, तो तुम केवल एक बौद्धिक दैत्य हो, शुष्क बुद्धि हो और वही बने रहोगे. (८:१७) 
क्या विश्व के इतिहास में तुम्हें पैगम्बरों की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? ..ईसा की भाँति भावना करो, तुम भी ईसा हो जाओगे; बुद्ध के समान भावना करो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे. भावना ही जीवन है, भावना ही बल है, भावना ही तेज है- भावना के बिना कितनी ही बुद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर-प्राप्ति नहीं होगी. ..हम लोगों की पैगम्बर आत्मा ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही ईश्वर का भी प्रमाण है. ..हम लोगों में से प्रत्येक को पैगम्बर बनना पड़ेगा- और तुम स्वरूपतः वही हो. बस केवल यह 'जान' लो. (८:१८) 
  " वेदान्त ( विवेक-अंजन लगाने से जगत उड़ नहीं जाता ) जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है. वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता- उसकी व्याख्या करता है. वह व्यक्तित्व को मिटाता नहीं, वरन वास्तविक व्यक्तित्व सामने रख कर उसकी व्याख्या कर देता है. वह यह नहीं कहता कि जगत वृथा है और उसका अस्तित्व नहीं है, किन्तु कहता है, ' जगत क्या है, यह समझो, जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके ' ..पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का ( प्रेम से पगे नैन विवेक-अंजन का ) आविर्भाव होता है, वह वास्तव में अन्तःस्थ सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है, वह ज्योति ही ग्रहों, सूर्य-चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है. " (८:२२)  
"यदि ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है, तो उससे कहीं श्रेष्ठ मानव-प्रतिमा मौजूद ही है. यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो, तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान मानव देह रूपी मन्दिर तो पहले से ही मौजूद है." (८: २३)   
" माया आवरण से बाहर निकलने का एकमात्र  मार्ग है- सत्य का अनुभव करना. और सब उपनिषद, यह सत्यानुभव किसे कहते हैं, यही समझाते हैं. अच्छा बुरा कुछ न देखो, सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो. आत्मा सभी में है. यही कहो कि जगत नामक कोई चीज नहीं है. बाह्य दृष्टि बन्द करो; उसी प्रभु ( श्रीरामकृष्ण, वाहेगुरु, अल्ला, ब्रह्म, ईसा..) की स्वर्ग और नरक में, मृत्यु और जीवन में सर्वत्र उसी की उपलब्धी करो.
  यह पृथ्वी उसी भगवान का एक प्रतिक है, आकाश भी भगवान का दूसरा प्रतिक है, इत्यादि इत्यादि. ये सब ब्रह्म हैं. परन्तु यह देखना पड़ेगा, स्वयं इसका अनुभव करना पड़ेगा, इस विषय पर केवल चर्चा करने अथवा चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा. मान लो, जब (आत्मसाक्षात्कार हो गया ) आत्मा ने (स्वयं को और) जगत की प्रत्येक वस्तु का स्वरुप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय (आत्मवत) है, तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में, या अन्यत्र और कहीं चली जाय, तो इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं. (अब) मैं पृथ्वी पर जन्मूँ अथवा स्वर्ग में जाऊं, इससे कोई अन्तर नहीं होता. मेरे लिए ये सब निरर्थक हैं, क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं, सभी स्थान भगवान के मन्दिर हैं, सभी स्थान पवित्र हैं, कारण स्वर्ग, नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ. भला-बुरा अथवा जीवन-मरण मुझे कुछ दिखायी नहीं देते, एकमात्र ब्रह्म का अस्तित्व है. वेदान्त-मत में (विवेक-अंजन लगा लेने से ) मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है और वेदान्त कहता है, केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है, दूसरा नहीं. ..जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक बिघ्न-बाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है, म्रत्यु देखता है (उनको सच समझता है) उसका जीवन तो दु:खमय होगा ही, परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्यस्वरूप को देखता है, (आत्मसाक्षात्कार के बाद ) वही संसार में रहने योग्य है; वही यह कह सकता है कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ, मैं इस जीवन में खूब सुखी हूँ. (एक जोक सुनो- किसी किसी के जीवन में शादी करना नहीं लिखा होता है; उसके जीवन में सदा सुखी रहना लिखा होता है!) (८: २७)                     
पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण करें, उनकी भर्त्सना सुनते रहें, और उनके द्वारा निर्दिष्ट लीक पर चलते रहें, तो मरते समय वे हमें एक मुक्ति-पत्र देंगे और तब हम ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा स्वर्गवाद इस अनर्गल पुरोहित-प्रपंच के विविध रूपों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. निर्गुणवाद (अद्वैतवाद) निस्सन्देह अनेक चीजें नष्ट कर डालता है; वह पुरोहितों, धर्मसघों (मठों) और मन्दिरों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है. भारत में इस समय दुर्भिक्ष है (अकाल पड़ा हुआ है, घोर दरिद्रता है, लोग भूखे मर रहे हैं), किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें से प्रत्येक में एक राजा को भी खरीद लेने योग्य बहुमूल्य रत्नों की राशी सुरक्षित है. ( १मार्च २०११ को पूरी के एक मठ से १०० कड़ोड़ रूपए मूल्य का चाँदी का १९ टन ईंट मिला है) यदि पुरोहित लोग इस निर्गुण ब्रह्म की शिक्षा दें, तो उनका व्यवसाय छिन जायगा.
किन्तु हमें ( VYM को)उसकी शिक्षा निःस्वार्थ भाव से, बिना पुरोहित-प्रपंच के देनी होगी. तुम (शिष्य) भी ईश्वर, मैं (गुरु विवेकानन्द) भी वही - तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे? कौन किसकी उपासना करे ? (कौन किसको प्रणाम करे?) तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो; मैं किसी मन्दिर, किसी प्रतिमा या किसी बाइबिल की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा...तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और अधिक प्रत्यक्ष ( देव-पूजन) क्या हो सकता है ?
  मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ( ही श्रीरामकृष्ण ) ईश्वर हो. मुसलमान कहते हैं, अल्लाह (ब्रह्म या वाहेगुरु ) के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है; किन्तु वेदान्त (रूपी विवेक-अंजन से प्राप्त अलौकिक दृष्टि ) कहता है, ऐसा कुछ है ही नहीं जो ईश्वर न हो. ..जीवित ईश्वर तुम लोगों के भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिरजाघर आदि बनवाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो.
मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर (श्रीरामकृष्ण ) हैं. पशु भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्व श्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा. यदि मैं उसकी उपासना न कर सका, तो अन्य किसी भी मन्दिर (में  श्रीरामकृष्ण या बुद्ध -महावीर की पूजा-अर्चना करने) से कुछ भी उपकार नहीं होगा. जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य-देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर (ठाकुर) की उपलब्धी कर सकूंगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर (ठाकुर) देख सकूंगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊंगा- बांधनेवाले पदार्थ हट जायेंगे और मैं मुक्त हो जाऊंगा. यही सबसे अधिक व्यावहारिक उपासना है. मत-मतान्तर से इसका कोई प्रयोजन नहीं. (८:२९-३०)
लोग अपने से पृथक स्वर्गस्थ किसी ईश्वर (अल्ला, वाहेगुरु, ब्रह्म ...) की उपासना करते हैं, उससे खूब डरते भी हैं. लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं. तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है? ...जहाँ एक दूसरे को देखता है, जहाँ एक दूसरे को सुनता है, वहीँ माया है. जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता, एक दूसरे को सुनता नहीं, जहाँ सर्व अत्ममय हो जाता है, वहाँ कौन किसे देखेगा, कौन किसे सुनेगा ?' तब सभी 'वह' या सभी 'मैं' हो जाता है. 
तभी - और केवल तभी हम प्रेम किसे कहते हैं, यह समझ सकते हैं. डर से क्या प्रेम हो सकता है ?..जब हम लोग वास्तव में जगत को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं, तभी विश्वबन्धुत्व का अर्थ समझते हैं- अन्यथा नहीं...बुद्धदेव के उपदेश का वह अंश तुमको स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सर्वत्र ही प्रेम की भावना प्रवाहित कर देते थे, यहाँ तक कि चारों ओर वही महान अनन्त प्रेम सम्पूर्ण विश्व में छ जाता था. इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा, तब तुम्हारा भी ' यथार्थ व्यक्तित्व ' प्रकट होगा. तभी सम्पूर्ण जगत एक व्यक्ति बन जायगा- क्षुद्र वस्तुओं (टॉफी-मिल्क) की ओर फिर मन नहीं जायगा. इस अनन्त सुख के लिए छोटी छोटी वस्तुओं ( धनसम्पत्ति और कामवासना के प्रति लालच ) का परित्याग कर दो. इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा ? (८:३०,३१) 
अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है. मनुष्य (अनंतस्वरूप निर्गुण मनुष्य या ब्रह्म) भी अपने को सगुण रूप में, व्यक्ति रूप में देख रहा है; मानो हम अनन्तस्वरुप होकर भी अपने को क्षुद्र रूपों (M/F) में सीमाबद्ध बना डालते हैं. ..असीमता ही हमारा सच्चा स्वरुप है, वह कभी लुप्त नहीं हो सकती, सदा रहेगी. किन्तु हम अपने कर्म ( विवेक-प्रयोग किये बिना या विवेक-अंजन लगाये बिना जो दूसरों के साथ हमारा लालची व्यवहार होता है) द्वारा अपने को सीमाबद्ध (M/F) कर डालते हैं ..इस बन्धन (देहाध्यास) को तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ.
  नियम (काम-कांचन के प्रति कशिश या गुरुत्वाकर्षण) को पैरों तले कुचल डालो. मनुष्य के यथार्थ (ब्रह्म) स्वरुप में कोई विधि (गुरुत्वाकर्षण का नियम = विपरीत लिंग के प्रति कशिश) नहीं, कोई दैव नहीं, कोई अदृष्ट नहीं. अनन्त में विधान या नियम (काम-कांचन के प्रति भोग दृष्टि ) कैसे रह सकते हैं? स्वाधीनता ही इसका (यथार्थ मनुष्य का) स्वरुप है- इसका जन्मसिद्ध अधिकार है.
पहले मुक्त बनो (स्वयं को M /F शरीर मानना छोड़ दो. ), तब फिर जितने व्यक्तित्व रखना चाहो, रखो. तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे, जैसे अभिनेता भिखारी का अभिनय करता है. उसकी तुलना गलियों में भटकने वाले वास्तविक भिखारी ( काम-कांचन के लोलुप विषयी लोग) से करो. यद्दपि दृश्य दोनों ओर एक है, वर्णन करने में भी एक सा है, किन्तु दोनों में कितना भेद है !!
एक व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने वाला सद-  गृहस्थ) भिक्षुक (पति-पत्नी का) अभिनय कर आनन्द ले रहा है, और दूसरा ( काम-कांचन में लोलुप संसारी मनुष्य) सचमुच दुःख -कष्ट से पीड़ित है. ऐसा भेद क्यों होता है?
कारण एक मुक्त है और दूसरा बद्ध. अभिनेता जानता है कि उसका यह भिखारीपन ओढ़ा हुआ है, सत्य नहीं है, उसने यह केवल अभिनय के लिए स्वीकार किया है, भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिरपरिचित अवस्था है, एवं उसकी इच्छा हो या न हो, उसे वह कष्ट सहना ही पड़ेगा...हम जब तक अपने स्वरुप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते, तब  तक हम लोग केवल भिक्षुक हैं, प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ( गुरुत्वाकर्षण का नियम आदि ) ने ही हमें दास बना रखा है. (८:३२) " यदि राजा पागल हो कर अपने देश में ' राजा कहाँ है, राजा कहाँ है ' कह कर खोजता फिरे, तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता, क्योंकि वह स्वयं ही राजा है...इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम ईश्वर हैं और इस अन्वेषणरूपी व्यर्थ चेष्टा को छोड़ सकें, तो बहुत ही अच्छा हो. इस प्रकार अपने को ईश्वरस्वरुप जान लेने पर ही हम संतुष्ट और सुखी हो सकते हैं. यह सब पागलों जैसी चेष्टा छोड़कर जगतरूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो. "(८:३३)
इस प्रकार कि अवस्था आने से हम लोगों की सपूर्ण दृष्टि परिवर्तित हो जाती है. अनन्त कारागारस्वरुप न होकर यह जगत खेलने का स्थान बन जाता है. प्रतियोगिता का मैदान न बनकर यह भौरों की गुंजन से परिपूर्ण वसन्त काल का रूप धारण कर लेता है. ..बद्ध जीव की दृष्टि से यह एक महायन्त्रणा का स्थान है, किन्तु मुक्त व्यक्ति की दृष्टि से यही स्वर्ग है; स्वर्ग अन्यत्र नहीं है.
एक ही प्राण सर्वत्र विराजित है. पुनर्जन्म आदि जो कुछ है, सब यहीं होता है. देवतागण सब यहीं हैं- वे मनुष्य के आदर्श के अनुसार कल्पित हैं. देवताओं ने मनुष्यों को अपने आदर्श के अनुसार नहीं बनाया, किन्तु मनुष्यों ने ही देवताओं की सृष्टि की है. इन्द्र, वरुण और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के देवता सब यहीं हैं. ..तुम्हीं प्रकृत उपास्य देवता हो. यही वेदान्त का मत है, और यही यथार्थ में व्यावहारिक है. मुक्त होने पर उन्मत्त होकर समाज त्याग करने और जंगलों अथवा गुफाओं में जाकर मर जाने की आवश्यकता नहीं है. तुम जहाँ हो वहीं रहोगे, किन्तु भेद इतना ही होगा कि तुम सम्पूर्ण जगत का रहस्य समझ जाओगे. पहले देखी हुई समस्त वस्तुएँ (कुर्सी,मिल्क, टॉफी ...) जैसी की तैसी ही रहेंगी, किन्तु उनका एक नवीन अर्थ समझने लगोगे. तुम अभी जगत का स्वरुप नहीं जानते हो; मुक्त होने पर हम देखेंगे कि यह तथाकथित विधि, दैव या अदृष्ट हमलोगों की प्रकृति का केवल एक पहलू मात्र है, दूसरी दिशा (उत्तर) में मुक्ति सदा विद्यमान रही है.(८:३३)
" एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है? ..यदि तुम ईश्वर को मनुष्य के मुख में नहीं देख सकते,  तो उसे मेघ अथवा अन्य किसी मृत जड़ पदार्थ में अथवा अपने मस्तिष्क की कल्पित कथाओं में कैसे देखोगे ? जिस दिन से तुम नर-नारियों में ईश्वर को देखने लगोगे, उसी दीन से मैं तुम्हें धार्मिक कहूँगा, और तभी तुम लोग समझोगे कि दाहिने गाल पर थप्पड़ मारने पर मारने वाले के सामने बायाँ गाल फिराने का क्या अर्थ है.
  जब तुम मनुष्य को ईश्वररूप में देखोगे, तब सभी वस्तुओं का, यहाँ तक कि यदि तुम्हारे पास बाघ तक आ जाय, तो उसका भी तुम स्वागत करोगे. जो कुछ तुम्हारे पास आता है, वह सब अनन्त आनन्दमय प्रभु का भिन्न भिन्न रूप ही है- वे ही हमारे माता, पिता, बन्धु और सन्तान हैं. वे  हमारी अपनी आत्मा ही हैं, जो हमारे साथ खेल रही हैं. (स्वामी सम्बुद्धानन्द जी से मिलने जो कोई भी आता था वे उसका नाम लिख कर रख लेते थे ? ऐसा विश्वास जब पर्वत जैसा दृढ हो जाता है तब ) ...मनुष्यों के साथ (सरस,उबस ) के साथ हम अपने सम्बन्धों को ईश्वरभावापन्न बना सकते है.  प्रेम और प्रेमास्पद में कुछ भेद न देखना ही सर्वोच्च भाव है.
प्राचीन फ़ारसी कहानी में है- एक प्रेमी ने आकर अपने प्रेमास्पद के घर का दरवाजा खटखटाया. प्रश्न हुआ, ' कौन है?' वह बोला, 'मैं '. द्वार नहीं खुला. दुबारा फिर उसने कहा, 'मैं आया हूँ,' पर द्वार फिर भी न खुला. तीसरी बार वह फिर आया, प्रश्न हुआ, ' कौन है ?' तब उसने कहा- 'I am You, My Dear !' - ' प्रेमास्पद, मैं तुम हूँ! ', तब द्वार खुल गया.
भगवान (ठाकुर) और हमारे बीच सम्बन्ध भी ठीक वैसा ही है, वे सब में हैं और वे ही सब कुछ हैं. प्रत्येक नर-नारी ही वही प्रत्यक्ष जीवन्त आनन्दमय एकमात्र ईश्वर (माँ -ठाकुर) हैं. (८:३५) 
 वेदान्त कहता है- दूसरे प्रकार की उपासनाएँ भी भ्रमात्मक नहीं हैं... क्योंकि लोग सत्य से सत्य की ओर, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर आगे बढ़ते हैं. ..बुरा कहने से समझना चाहिए, थोड़ा अच्छा;.. अतएव हमें दूसरों को प्रेम और सहानुभूति की दृष्टि से देखना चाहिए. हमलोग जिस रस्ते पर चले आये हैं, (चंचल मन ' निश्चल ' तक पहुँच कर सर्वव्यापक हो गया है.) वे भी आगे-पीछे मुक्त होंगे. और जब तुम मुक्त (निश्चल) ही हो गए हो, तो फिर जो अनित्य (देह-M/F) है, उसे तुम किस प्रकार देख पाओगे ? क्योंकि जो भीतर है, वही बाहर दिख पड़ता है. 
 हमारे अन्दर यदि अपवित्रता ( देहाध्यास) न होती तो हम उसे बाहर कभी देख ही न पाते. वेदान्त की यह भी एक साधना है. आशा है, हम सभी लोग { जो गुरु-द्वार को लाँघ कर घर(ठाकुर)-तक पहुँच गए हैं} जीवन में इसको व्यव्हार में लाने की चेष्टा करेंगे. इसका अभ्यास करने के लिए (शेष बचा) सारा जीवन पड़ा हुआ है, किन्तु (विवेक-अंजन का अर्थ समझने के लिए ) इन सब विचारों की आलोचना से हमें यह ज्ञात हुआ है कि (आगे से ) हमलोग अशान्ति और असंतोष के बदले शांति और संतोष के साथ कार्य करेंगे; क्योंकि हमने जान लिया है कि सत्य हमारे अन्दर है- और उसी में आरूढ़ रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. "(८:३६)  
 एक प्रसिद्ध हिन्दी कहावत है-
जब तक यह मन संसार से मोड़ा न जायेगा |
तब तक इसे निरंकार से जोड़ा न जायेगा ||
                                         
 महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या व्यास भाष्य के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं- 
1.12॥ चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च।
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। 
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा।
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते।
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
"- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति ' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा ! 
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

विवेक-दृष्टि मिलने से पहले, इन आँखों  छाया हुआ था जिससे न हम परमात्मा का दर्शन कर पाते थे, न संसार में यथार्थ का दर्शन करते थे । जब सभी के ह्रदय में अन्तर्यामी गुरू-रूप से स्वस्थित स्वामी विवेकानन्द की छवि पर  " मनःसंयोग " का अभ्यास करते करते विवेक-श्रोत उदघाटित हो जाता है तब वे हमारे  इन आँखों में ज्ञान का अंजन देकर अज्ञान  रूपी अंधेरे का नाश कर देते हैं।
 जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ:-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥ 
रामरूप से जीवमात्र की वंदना :
 जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
           बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥7(ग)॥
भावार्थ:-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥7 (ग)॥
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥
भावार्थ:-जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥2॥
हर वस्तु को प्राप्त करने के बाद भी क्यूँ मनुष्य में एक खालीपन का अहसास बना रहता है ? क्यूँ संतप्त है ? क्योंकि उसके पास विवेक-दृष्टि नहीं है । स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते करते एक दिन परमगुरु श्रीरामकृष्ण देव की कृपा से विवेक-श्रोत उदघाटित हो जाता है, और वह ज्ञान की दृष्टि (दिव्य-दृष्टि य़ा अलौकिक दृष्टि) प्राप्त होती है, जिसके बारे में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है- 
चौपाई :

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
वैसे ही इस चरण रज रूपि अंजन को जो भी अपने नेत्र में लगाता उसे ज्ञान दृष्टि प्राप्त हो जाने के कारण श्री सद्गुरु के व्यापक स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो जाता है। उसे कहीं कोई दूसरी वस्तु दिखाई नहीं देती। कण कण में उसे श्री सद्गुरु ही दिखाई पड़ते है । इस प्रकार उसके भीतर एकत्वभाव आ जाने के कारण वह अपने में सबको और सब में अपने को देखने लगता है। श्रीसद्गुरु में एकनिष्ठ प्रेम का यही सर्वव्यापी स्वरूप है। यही प्रेम रूपी ज्योति सदा सदा शिष्यों को प्रकाशित करती रहती है और चरण धूलि के प्रति श्रद्धा बढ़ती रहती है।
जिन्ह इन अंजन नेत्र लगायो । हर मूरति व्यापक हरि पायो ॥
दीखत ताहि न दूसर कोई । आपहिं आप सर्व में होई ॥

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

श्रीसद्गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है। जिसके स्मरण करते ही ह्रदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अंधकार को नाश करने वाला है । यह प्रकाश जिनके ह्रदय में आ जाता है वे बडे़ भाग्यशाली हैं ।

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥

दोहा :

जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

जैसे सिद्धाञ्जन को साधक नेत्रों में लगा कर  सिद्ध व सुजान बन जाता है और पर्वतों, वनों, व पृथ्वी के अन्दर की बहुत सी खानों को खेल खेल में ही देख लेते है।

चौपाई :
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
चौपाई :

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥

इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-
चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥

उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥

बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥

दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥



दोहा :

बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥

मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)

संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
  वेदान्त यह कहता है कि तू आनन्द स्वरूप है । संसार के पीछे क्यूँ पागल होता है ? केवल वे तुझे सुख देनेवाले नहीं हैं, तू तो स्वयं अपने आप को पहचानेगा, अपने आप में मगन होगा तो तू हमेशा आनन्दमग्न होगा । आनन्दमग्न होकर हम वस्तु को भी देखेंगे तो वस्तु भी आनन्द देने वाली बनेगी ।
छोटी-छोटी चीजें आनन्द देने वाली बन जाती हैं अन्यथा बडे-बडे सुख प्राणी को सुख नहीं दे पाते बल्कि चिन्ता ही देते हैं ।जो तुम्हारे चेहरे पर चमक है या संसार में कहीं भी चमक है, कोई भी वस्तु सुन्दर है, किसी भी वस्तु में आभा है तो वह आभा प्रभु की है । जिस किसी में भी तुम्हें कहीं कुछ अच्छा लगता है तो उस अच्छाई में प्रभु की दीप्ति है । किसी भी व्यक्ति के पास न धन की आभा है, न विद्या का नूर है, न सौन्दर्य का प्रकाश है । जिसके पास प्रभु की दीप्ति है उसके सौन्दर्य  में प्रभु छिपा हुआ है ।
जिसके मन में प्रभु की याद है, प्रभु का प्यार है, जिसके पास संत की दृष्टि है वो हर सुन्दर वस्तु को देखकर दीप्ति की याद करता है और यह देखता है कि हर सुन्दर वस्तु  में देवता का निवास है । फूल के सौन्दर्य को देखकर प्रभु याद आता है तो हम ये देखे उससे हमारे मन की तृप्ति होती है । नहीं तो सौन्दर्य  तो प्राणी के मन में या तो ईर्ष्या जगाता है, या दुख जगाता है, कि यह तो इतना सुन्दर मैं तो नहीं सुन्दर या वासना जगाता है कि क्यों नहीं मुझे इतना सुन्दर रूप मिल गया । हर सुन्दर वस्तु को प्राणी यह चाहता है कि मेरी बन जाये ।

कबीरदास जी का एक बड़ा ही प्रसिद्ध भजन है-  पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वर में:-
"राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...

अंजन उत्पति ॐकार
अंजन मांगे सब विस्तार
अंजन ब्रहमा शंकर इन्द्र
अंजन गोपिसंगी गोविन्द रे

अंजन वाणी अंजन वेद
अंजन किया ना ना भेद
अंजन विद्या पाठ पुराण
अंजन हो कत कत ही ज्ञान रे

अंजन पाती अंजन देव
अंजन की करे अंजन सेव
अंजन नाचे अंजन गावे
अंजन भेष अनंत दिखावे रे

अंजन कहाँ कहाँ लग केता
दान पुनी तप तीरथ जेता
कहे कबीर कोई बिरला जागे
अंजन छाडी अनंत ही दागे रे

राम निरंजन न्यारा रे
अंजन सकल पसारा रे...