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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

[40] 'अद्वैत-सिद्धि '

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बाद, १६ वीं शताब्दी में बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में एक अन्य महापुरुष का जन्म में हुआ था। उनका नाम श्री मधुसूदन सरस्वती (१५४०-१६४२ ) था, उन्होंने 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ की रचना की थी। फरीदपुर जिले के कूषनिया नामक एक छोटे से ग्राम में उनका जन्म हुआ था. किन्तु उनके जन्म-मृत्यु इत्यादि के सम्बन्ध में कोई बहुत निर्भरयोग्य ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त करना बहुत कठिन है. किन्तु साधारण तौर पर यह ज्ञात होता है कि इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था. एवं उनकी आयू भी असाधारण रूप से लम्बी थी. यह बहुत प्रमाणिक न होने पर भी कम से कम १०२ वर्ष की आयू तक जीवित थे. रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास आपके समसामयिक ही नहीं घनिष्ट मित्रों में थे. सरस्वतीजी का शहंशाह अकबर के वित्त मंत्री  श्री टोडरमल के साथ भी मधुर सम्बन्ध था.अकबर का राज्यकाल सन १५५६ से १६०७ तक माना जाता है. अबुल्फज्ल ने १५९८ में आईने अकबरी लिखा था. उसमें उस समय के जिन प्रसिद्द विद्वानों के नामों का उल्लेख हुआ है, उसमें श्री मधुसूदन सरस्वती का भी नाम अंकित है। 
और ये मधुसूदन सरस्वती स्वयं बड़े विद्वान् थे,किन्तु उन्हें शास्‍त्रार्थ करने की धुन थी। उन दिनों बंगाल का नदिया जिला शाश्त्र-चर्चा के लिये भारत भर में विख्यात था. सम्पूर्ण भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों से, विद्वान् लोग वहाँ शास्त्र-अध्यन के लिये आया करते थे। उनके पास भी भारत के विभिन्न प्रान्तों से कई विद्वान् लोग विद्या अर्जन करने के लिये आये थे। यही बात हम परमहंस श्रीरामकृष्ण देव के जीवन में देख सकते हैं.[ यही बात हमलोग बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे पूज्य नवनीहरन मुखोपाध्याय (१५ अगस्त १९३१- २६ सितम्बर २०१६) के जीवन (८५ वर्ष, १महीना ११ दिन के जीवन) में  भी देख सकते हैं- उनके पास भी स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत 'भारत पुनर्निर्माण विद्या' Be and Make- ग्रहण करने के लिये -सम्पूर्ण भारतवर्ष के युवा लोग आते रहे हैं।] 
उन्होंने ने नदिया जाकर, दर्शनशास्त्र के विभिन्न आयामों का गहराई से अध्यन किया था। जिसके फलस्वरूप उनके मन में यह विचार उठा कि, अब मुझे शास्त्र के आधार पर अद्वैतवाद का खण्डन करना चाहिये। और इस बार मैं इस अद्वैत ' मतवाद ' का इस प्रकार खण्डन करूँगा कि फिर वह कभी सिर उठा ही नहीं पायेगा. इसी दृढ-संकल्प को मन में रख कर वे काशी पहुँचे। वहाँ पहुँच कर, नौका से उतरते ही उन्होंने इस बात सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली इस समय वहाँ पर दर्शन-शास्त्र के किन-किन विषयों को पढ़ाने में पारंगत विद्वान् कौन-कौन हैं ?
खोजबीन करने के बाद एक व्यक्ति को उन्होंने चुन लिया, फिर उनके पास जाकर विद्या-अध्यन करने लगे। बहुत समय तक अध्यन करने के बाद भी, जब उनसे कोई संतोषजनक ज्ञान नहीं मिला, तब उन्होंने एकबार पुनः अपना गुरु बदल लिया। इसबार अद्वैत-वेदान्ती पण्डित विश्वनाथ सरस्वती के पास विद्या-अर्जन के लिये गये। उनके पास जाकर उन्होंने अद्वैत वेदान्त का अध्यन तो प्रारम्भ किया, किन्तु उनका वास्तविक उद्देश्य था,अद्वैत वेदान्त के सूत्रों को ठीक से जानकर, बाद में उसीके आधार पर उसका खण्डन कर दूंगा। एक दिन विश्वनाथ सरस्वती ने कहा," मैं थोड़ा तीर्थ-भ्रमण पर निकल रहा हूँ, तीर्थ से लौट कर आने के बाद तुमको पढ़ाना आरम्भ करूँगा. इसी बीच क्या तूम एक कार्य कर सकोगे ? मधुसूदन सरस्वती बोले आप आज्ञा दीजिये गुरुदेव। 
" तो मैं चाहता हूँ कि तूम तबतक गीता के ऊपर कुछ लिखो.मैं लौटकर जब आऊंगा तब तुम्हारे द्वारा की गयी गीता की व्याख्या को एक बार देखने के बाद तुमको वेदान्त -सूत्रों को पढ़ाना प्रारम्भ करूँगा! " उनके प्रस्थान के बाद मधुसूदन सरस्वती ने गीता के ऊपर अपनी प्रसिद्द ‘गूढार्थदीपिका’ नामक टीका लिख डाली.
 {कैसे लिख डाली ? मेरे पूछने पर पूज्य नवनी दा ने कहा था - 'गीता की भाषा इतनी सरल है कि, थोड़ा-बहुत संस्कृत समझने वाला व्यक्ति भी अपनी समझ के अनुसार उसकी व्याख्या कर सकता है।'  मधुसूदन सरस्वती द्वारा बंगला भाषा में रचित अद्वैत-सिद्धि मेरे अपने घर के लाइब्रेरी में है, इसके अलावा और भी कई बहुमूल्य पुस्तकें हैं जो नष्ट होने के कगार पर हैं, किसको दूँ, पढने का भूख किसको है? तुम मेरे घर नहीं गये हो? क्या मुझे अपनी पुस्तकें मुझे देंगे ? पूछ कर जाऊंगा! किन्तु उनके घर मैं उनके शरीर में रहते हुए कभी जा न सका। दादा माँ सारदा का नाम लेने से भी सेंटीमेंटल हो जाते थे - " किन्तु क्या करूँ, कोई स्वामी विवेकानन्द का एक अनपढ़ ब्राह्मण गुरु है, जो अपने मुख से स्वयं के ब्रह्म का अवतार होने की घोषणा करता है, और उनकी एक अनपढ़ पत्नी श्री माँ सारदा देवी है, जो कहती है, 'संसार में कोई पराया नहीं, सभी अपने हैं; सब को अपना बनाना सीखो',और स्वामी विवेकानन्द जैसा महाविद्वान तो उन्हें 'अवतार-वरीष्ठ' कहता है, उसी हरि ने बल पूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।"  dada said to me on 24th July 2010 , a day before guru -purnima तुम टेलीफ़ोन पर मुझसे बात करते रहना - on 25th July 2010 मैं पूज्य दादा के घर जाकर बंगला भाषा में मधुसूदन सरस्वती द्वारा लिखित 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ तो नहीं देख सका। किन्तु Bh की सहायता से कॉलेज स्ट्रीट के किसी पुस्तक भण्डार से हिन्दी भाषा में स्वामी योगीन्द्रानन्द कृत ' अद्वैत्सिद्धि ' की हिन्दी व्याख्या, चौखम्बा विद्दयाभवन, वाराणसी से प्रकाशित ग्रन्थ प्राप्त हो गया है।}
जब वे लौट कर आये और उनके द्वारा गीता पर लिखी गयी टीका को देखा तो बहुत संतुष्ट हुए, आनन्द व्यक्त करते हुए कहा-" वाह, तुम मेरे छात्र बनने के योग्य हो !" फिर वे उनको अद्वैत-वेदान्त पढ़ाने लगे. पढ़ते पढ़ते मधुसूदन सरस्वती की अवस्था ऐसी हो गयी कि, अपने शिक्षक से एक दिन अपने दिल की बात उजागर करते हुए बोले-" गुरुदेव, आमि एकटा महा अपराध करेछि !"(-गुरुदेव, मैंने एक भारी अपराध किया है.) 
" कैसा अपराध ? " 
" यही कि, मैंने आपसे झूठ कहा था, मैं यहाँ अद्वैत को स्थापित करने के लिये नहीं आया हूँ, उसका खण्डन करने के उद्देश्य से ही आया हूँ. "तो जो हो बात आयी-गयी हो गयी. खण्डन तो खैर नहीं हुआ, बल्कि मधुसूदन को ही ' अद्वैत-सिद्धि ' हो गयी! मधुसूदन द्वारा रचित ' अद्वैत-सिद्धि ' का अध्यन किये बिना ' अद्वैत ' में सिद्धि प्राप्त कर लेना कठिन है! 
मधुसूदन को बादशाह अकबर के राज-दरबार में दो बार आमन्त्रित किया गया था. उनके विद्वतापूर्ण उक्तियों को सुनकर अकबर की राजसभा के हिन्दू-मुसलमान विद्वतमण्डली मूग्ध रह गये हैं. अकबर ने अपने विद्वान् पण्डितों को आदेश दिया कि, मधुसूदन के प्रति संस्कृत भाषा में सम्मान व्यक्त किया जाय. उनलोगों ने जिस श्लोक को उनके सम्मान में रचा वह भी बड़ा अद्भुत श्लोक है - 
" मधुसूदनसरस्वत्याः पारम् वेत्ति सरस्वती |
    पारम् वेत्ति सरस्वत्याः मधुसूदनसरस्वती ||"
- अर्थात केवल विद्या की देवी सरस्वती ही मधुसूदन सरस्वती के ज्ञान की सीमा (diameter) को जानती हैं, और मधुसूदन सरस्वती ही देवी सरस्वती के ज्ञान की सीमाओं को जानते हैं। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में ठाकुर के साथ वार्तालाप करते हुए एक प्रसंग आया था- 


" अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि देवतम |
       प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शीनः || "

- ब्राह्मणों के देवता अग्नि हैं, मुनियों के देवता ह्रदय में हैं, स्वल्प बुद्धि रखने वाले जो लोग हैं उनके लिये प्रतिमा ही देवता है| समदर्शी बन जाने वालों के लिये सर्वत्र देवता हैं. किन्तु हमलोगों के पास यह बोध तो है नहीं ! इसीलिये हमलोगों के लिये धर्म का अर्थ केवल मन्दिर, मस्जिद, गिर्जा में जाना भर रह गया है !
एक बार स्वामी अभेदानन्द जी अपने भाषण में एक वृद्धा द्वारा ईश्वर से प्रार्थना करने की कहानी सुना रहे थे- " एक वृद्धा नियमित रूप से चर्च जाया करतीं थीं, वहाँ पर दिये गये प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनती थीं. एकदिन उन्होंने सुना कि, प्रार्थना करने से सब इच्छाएँ पूर्ण हो जातीं हैं. वे जिस कमरे में रहती थीं, उसकी खिड़की से एक पहाड़ दिखायी देता था. उनकी खिड़की का निचला कपाट तो अक्सर बन्द रहता था, ऊपर वाले खुले कपाट से वे सामने का दृश्य देखतीं थीं. 
कई खिडकियों में इसी प्रकार के पल्ले लगे होते हैं. वे उस खिड़की से पहाड़ की ओर देखते देखते सोचने लगीं- आज ही तो उपदेशक से सुनी हूँ. जरा उसकी परीक्षा करके देखूं तो कि, सचमुच प्रार्थना करने से वह पूरी होती है य़ा नहीं !
वे वहीं जमीन पर बैठ जातीं हैं, वहाँ से तो अब पहाड़ नहीं दिख रहा था. खिड़की का निचला कपाट बन्द था. वे आँखें बन्द करके कह रही हैं, " हे ईश्वर, हे ईश्वर, इस पहाड़ को वहाँ से हटा दो | " बहुत  प्रार्थना कर रही हैं. बहुत देर तक प्रार्थना करने के बाद जब आस्ते आस्ते खड़ी हो रही हैं, मन में सोंच रही हैं, होगा क्या? होगा क्या ? प्रार्थना तो कर दी हूँ, पूरी होगी? जब खड़ी हुयीं और आँखों को खोला तो देखा कि, पहाड़ जिस जगह था, वहीं पर है |
हमलोग भी इसी प्रकार, आधे-अधूरे मन से प्रार्थना करते हैं; हमलोग प्रार्थना करना भी नहीं जानते हैं. कहा गया है कि, सही ढंग से कि गयी प्रार्थना फलवती होती है. किन्तु प्रार्थना करते समय वह प्रार्थना भीतर से निकलनी चाहिये.उस प्रार्थना को यदि बाहर से माथा में घुसाया जाय, तो वह प्रार्थना ' प्रार्थना ' नहीं कही जाएगी. प्रार्थना भीतर से निकलेगी, ह्रदय से उत्सारित होगी ! ह्रदय से प्रार्थना किस प्रकार  उत्सारित होती है? 
हमलोग प्रार्थना करेंगे- ' अमुक ' व्यक्ति का दुःख दूर हो ! किन्तु प्रार्थना करते समय उस ' अमुक ' व्यक्ति के लिये मन में संवेदना न हो, उसका दुःख भी यदि अपने ही दुःख के जैसा अनुभव नहीं होता हो, तो वह प्रार्थना भीतर से (ह्रदय से) उत्सारित नहीं होगी. इस प्रकार से यदि परीक्षा कर के देखा जाय तो, पायेंगे कि हमारी अनेकों प्रार्थनाएँ मंजूर हुई हैं, नहीं होतीं ऐसा नहीं है. 
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 (मैं पूज्य दादा के घर जाकर बंगला भाषा में मधुसूदन सरस्वती द्वारा लिखित 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ तो नहीं देख सका। किन्तु Bh की सहायता से कॉलेज स्ट्रीट के किसी पुस्तक भण्डार से हिन्दी भाषा में स्वामी योगीन्द्रानन्द कृत ' अद्वैत्सिद्धि ' की हिन्दी व्याख्या, चौखम्बा विद्दयाभवन, वाराणसी से प्रकाशित ग्रन्थ प्राप्त हो गया है। उस ग्रन्थ का बहुत संक्षिप्त सारांश यहाँ प्रस्तुत है :  
 तत्व-जिज्ञाषु पुरुष के साथ शास्त्र-चर्चा को ' वाद ' कहते हैं, विजयाभिलाषी व्यक्ति के साथ होने वाली कथा को ' जल्प 'और अपने पक्ष की स्थापना से हिन् कथा को ' वितण्डा ' कहते हैं. वादी और प्रतिवादी को जब अपनी अपनी कोटि का निश्चय हो तब पत्येक वादी 'निश्चयवान -अस्मि' -इस प्रकार का अभिनय करता हुआ वादविवाद में प्रवृत्त होता है.
मधुसूदन सरस्‍वती को शास्‍त्रार्थ करने की धुन थी। काशी के बड़े-बड़े विद्वानों को ये अपनी प्रतिभा के बल से हरा देते थे। परंतु जिसे श्रीकृष्‍ण अपनाना चाहते हों, उसे माया का यह थोथा प्रलोभन-जाल कब तक उलझाये रख सकता है। एक दिन एक वृद्ध दिगम्‍बर परमहंस ने उनसे कहा- "मधुसूदन जी ! वेदान्त सिद्धान्‍त की बात करते समय तो आप अपने को असंग, निर्लिप्‍त ब्रह्म कहते हैं; पर सच बताइये, क्‍या विद्वानों को जीतकर आपके मन में गर्व नहीं होता? यदि आप पराजित हो जायँ, तब भी क्‍या ऐसे ही प्रसन्‍न रह सकेंगे? ग्रन्‍थों की विद्या और बुद्धि के बल से किसी ने इस माया के दुस्‍तर जाल को पार नहीं किया है। प्रतिष्‍ठा तो देह की होती है और देह नश्‍वर है। यश तथा मान-बड़ाई की इच्‍छा भी एक प्रकार का शरीर का मोह ही है। तुम श्रीकृष्‍ण की शरण लो। उपासना करके हृदय से इस गर्व के मैल को दूर कर दो। दयालु संत ने श्रीकृष्ण मंत्र देकर उपासना तथा ध्‍यान की विधि बतायी और चले गये। प्रसन्‍न होकर एक दिन श्रीश्‍यामसुन्‍दर ने इन्‍हें दर्शन दिये। 
मधुसूदन सरस्वती कहते हैं- "यह ठीक है कि अद्वैत ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले मुमुक्षु मेरी उपासना करते हैं; यह भी ठीक है कि आत्‍मतत्त्व का ज्ञान प्राप्‍त करके मैं स्‍वाराज्‍य के सिंहासन पर आरूढ़ हो चुका हूँ; किंतु क्‍या करूँ, एक कोई गोपकुमारियों का प्रेमी शठ है, उसी हरि ने बलपूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।" (साभार krishnakosh.org) 
" किन्तु क्या करूँ, कोई स्वामी विवेकानन्द का एक अनपढ़ गुरु है, जो अपने मुख से स्वयं के ब्रह्म का अवतार होने की घोषणा करता है, और स्वामी विवेकानन्द जैसा महाविद्वान तो उन्हें 'अवतार-वरीष्ठ' कहता है, उसी हरि ने बल पूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।   
" तस्मात वृथा रोदिषि मन्दबुद्धे- तव भ्रमादेव हि दुःखमेतत "   
हे मन्दप्रज्ञ ! द्वैतदर्शी ! तू व्यर्थ ही द्वैत के मोह में फंस कर रो रहा है, तेरी ही भूल के कारण यह दुःख दावाग्नि धधक उठी है. द्वैतवादी रूपी ' ग्राम-सिंहों ' (कुत्तों ) के भौंकने से अद्वैत रूपी सिंह कभी उनका अनुकरण नहीं किया करता.
" द्वितीयाद्वै भयं भवति ; तस्मादेकाकी बिभेति " बृह ०१.४.२/ १.४.३
द्वीतीय मात्र के दर्शन से भय होने लगता है, अतः अतत्वज्ञ व्यक्ति अकेला डरता है. 
' एको देवः सर्वभूतेषु गूढः ' श्वेता ० ६.११ / 
सभी चेतनों (जीवों ) में गूढ़ (व्याप्त ) एक अंतर्यामी हैं. अंतर्यामी को भोक्ता नहीं माना जाता, अतः उसके द्वारा अधिष्ठित शरीर भी उसका भोगायतन नहीं कहला सकता. दृष्टि-सृष्टिवाद में सभी शरीर एक ही मन से युक्त माने जाते हैं, और स्वप्न के समान सभी व्यवस्था की उपपत्ति हो जाती है. 
' मामेवाअंशो जीवलोके ' गी ० १५.७ 
 ' त्वं स्त्री त्वं पुमांसी त्वं कुमार उत वा कुमारी,
 त्वं जीर्णो दण्डेन गच्छसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः "
' त्रैकालिक निषेध ' काल में वस्तु का त्रैकालिक आभाव नहीं माना जाता. प्रपंच में ख-पुष्पआदि के समान असत्य हो जाता है. वादीगणों के निश्चय वान होने पर संशय का उत्पाद नहीं होता. 
' शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ' यो० सु० १/९ ' 
ज्ञान अपने आकार को छोड़ कर कहीं भी प्रवृत्त नहीं होता.  जैसे ज्ञान और आनन्द का अभेद होने पर भी दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व माना जाता है, किसी एक का भी परिलोप नहीं होता, वैसे ही यहाँ ' गुण और गुणी' का अभेद होने पर भी दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है. - क्योंकि सुख-दुःख आदि अन्तःकरण  के धर्म होते हैं, आत्मा के नहीं. ब्र० सू० २,१.६/ 
अन्यथा आनन्द और स्फुरण (ज्ञान) इन दोनों में से एक- स्फुरण का लोप हो जाने पर मोक्ष को पुरुषार्थ नहीं कहा जायेगा, क्योंकि अज्ञात या अस्फुरित सुख में किसी को अभिलाषा नहीं होती. ज्ञान और आनन्द दोनों अत्यंत अभिन्न होते हैं. ' दुःख-ज्ञान अनित्य वृत्ति रूप और आनन्द नित्य चिन्मात्र रूप माना जाता है.' 
यदि जगत का कोई मूल सत-वस्तु है, तब उसकी उपलब्धी क्यों नहीं होती ? उत्तर-विद्यमान वस्तु भी कभी उपलब्ध नहीं होती. जैसे उदक में विलीन लवण उपलब्ध नहीं होता, साधन-विशेष ( घोल को खौलाने) से जल को सुखा देने पर लवण की उपलब्धी होती है.
 ' आचार्यवान पुरुषो वेद ' छां ० ६.१४.२ ' 
में गांधार देश और पथिक पुरुष का दृष्टान्त में है- जैसे गांधार जैसे सुदूर देश का पथिक लोगों से पूछ पूछ कर अपना गंतव्य पा लेता है, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता से कोई आचार्यवान (आचार्य का अन्तेवासी ) अधिकारी पुरुष नहीं होगा तो, आचार्य सेवा से वंचित व्यक्ति आत्मा को ही कर्ता-भोक्ता मानता हुआ विविध दुःख भोगता है.

 किन्तु आचार्यवान पुरुष चौर्य-कर्म रहित व्यक्ति के समान परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सदा के लिए कारागार से छुटकारा पा कर मुक्त हो जाता है. जैसे समुद्र में नदियों के भेद की प्रतीति नहीं होती, वैसे ही ब्रह्म में जीवों का भरद भाव नहीं होता. वैसे ही गुरु-निर्दिष्ट पद्धति से मनःसंयोग करने पर जगत के मूल-तत्व की उपलब्धी हो जाती है. 
स्वामी विवेकानन्द के जैसे पार्श्वस्थ व्यक्ति या आत्मस्थ व्यक्ति  व्यक्ति द्वारा ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' ऐसा वाक्य सुनते ही मोहनिद्रा में सोया व्यक्ति वाक्य और वाक्यार्थ का सम्बंध जाने बिना भी जाग जाता है. यहाँ यह सभी जानते हैं कि जाग्रत के समान सुषुप्ति अवस्था में शब्द और अर्थ की समझ नहीं होती. इसीलिए 
'उत्तिष्ठत जाग्रत ' का तात्पर्य-बोध किसी किसी विरले विशिष्ठ पुरुष को ही होता है, सभी को नहीं. इस विशिष्टता का कारण है- अन्तःकरण (चित्त ) की अशुद्धि (पाप-युक्तता ) ज्ञान की प्रतिबन्धक मानी जाती है. (७५३-९११)
 अंतःकरण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार ) एक ऐसी स्थूल उपाधि है, जिसके रहने पर जीव-भेद बना रहता है. सुषुप्ति में अंतःकरण का विलय हो जाने पर भेद की प्रतीति नहीं होती. क्योंकि जैसे स्वर्ण ही कुण्डल हो जाता है, वैसे ही समुद्र ही नदी बन जाता है. समुद्र जैसा का तैसा है, नदियाँ समुद्र से निकल कर उसमें ही स्म जाती हैं. ' जल से उत्पन्न फेन बुद-बुद आदि जल में विलीन होकर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु जीव प्रतिदिन स्वरूप में विलीन होकर भी नष्ट क्यों नहीं होता? जीव का अधिष्ठान शरीर जीवित रहता है, जीव के निकल जाने पर मर जाता है, किन्तु जीव नहीं मरता. ज्ञान न होने के कारण अविद्वान संसार में पुनः आता है, पर विद्वान् को पुनः आना नहीं पड़ता.
' तमेवैकं जानथ आत्मानम ' मु० २.२.५/ ' अहं हरिः सर्वम इदम जनार्दनः ' जब जीव ब्रह्म रूप ही है, तब वह ब्रह्मरूपता को कैसे प्राप्त करेगा ? कंठ गत स्वर्ण माला में जैसे किसी को विस्मरण के कारण अप्रप्तता का भ्रम हो जाता है- भ्रम की निवृत्ति होते ही प्राप्त मालूम होता है. ' परमं साम्य्मुपैती ' मु० ३.१.३ 
' आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः' बृह ० २.४.६
  सभी कार्यों में मूलभूत तीन जिज्ञाषाएं होती हैं- किं कार्यम ? केन कार्यम ? कथं कार्यम ? किं कार्यम का उत्तर है- आत्मा द्रष्टव्यः (साक्षात् कर्तव्यः ). केन कार्यम ? का उत्तर है- आत्मा श्रोतव्यः (श्रवणेन साक्षात् कर्तव्यः ), कथं कार्यम ? का उत्तर है- मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः मनन और निदिध्यासन। उद्दमन-निपातन रूप क्रिया की सहायता से कुल्हाड़ी काष्ठ-छेदन कर्ता है, वहां कुठार को करण और उठाना-गिराना आदि क्रिया को सहायक व्यापर मात्र कहते है. 
वैसे ही वेदान्त वाक्यों के मनन माने विचार रूपी श्रवण में शब्द या नाम विषयक ज्ञान को करण इतिकर्तव्य कहा जाता है. जिस कार्य की सहायता से करण में कार्य निष्पादन की क्षमता आ जाती है, उसी व्यापर को इतिकर्तव्य कहा जाता है. जिस प्रक्रिया से शब्द-शक्ति रूप तात्पर्य की अवधारणा हो जाती है- उसे 
'विचार' कहते हैं. मनन और निदिध्यासन के द्वारा एकाग्र किये चित्त में ही श्रवण के द्वारा आत्मसाक्षात्कार उत्पन्न होता है. अयुक्तिपूर्ण शंका के रहने पर चित्त विविध कोटियों में बंटा विक्षिप्त-सा रहता है, उस शंका के निवृत्त हो जाने पर शास्वत सत्य-स्वरूप की युक्तिपूर्ण अवधारणा हो जाने पर चित्त समाहित-सा होता दीखता है. 
' ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ' मु० ३.१.३ 
' ततस्तु तं पश्यते ' ततः माने गुरुमुख से श्रवण करके - ' द्रष्टव्यः श्रोतव्यः '. अर्थात तत श्रवण आदि ध्यायमानः निष्कलं ब्रह्म पश्यति ' अतः श्रवण में ही साक्षात्कार की कारणता सिद्ध होती है. शुद्ध शाश्वत-चैतन्य को निर्विशेष आत्मा कहते हैं, एवं अहंकार आदि उपाधि से विशिष्ट को सविशेष-आत्मा कहते हैं. दोनों आत्माओं का तादात्म्य दूर करने के लिए गुरुमुख से नाम-श्रवण जरुरी होता है. सविशेष और निर्विशेष दो स्वथाओं में अनुस्यूत आत्मा को वेदान्त वाक्यों के श्रवण द्वारा आत्मबोध करना होता है. 
 ' श्रोतव्यः श्रुतिवाकेभ्यः ' 
ऐसा स्मृतियों में भी कहा गया है. श्रवण की विधि को ही जिज्ञाषा सूत्र- ' अथातो ब्रह्म जिज्ञाषा ' का मूल श्रोत माना जाता है. ' स्वाध्यायो अध्येतव्यः ' से प्रेरणा पाकर ही पुरुष स्वामी विवेकानन्द को पढने में प्रवृत्त होता है.   'तव्य' प्रत्यय का प्रयोग कर्तव्यता का प्रतिपादक नहीं है, बल्कि आत्मा की महिमा का वैसे ही प्रतिपादक है, जैसे- ' अहो दर्शनीयो अयं महात्मा ' ' उद्दालकः तत्त्वमसीतिवाक्येन श्वेतकेतुं बोधयति'श्वेतकेतु को अपने पिता उद्दालक के उपदेश से आत्म-साक्षात्कार हुआ था.  
तब फिर ' तत्त्वं भविष्यसि ' न कहकर आचार्य ' तत्त्वं असी ' क्यों कहते हैं ? ' यो वै भूमा, तत सुखम ' छां ७.२३.१/ ' स आत्मा तत्वमसि '-छां० ६.८.७. ' परकीय ब्रह्म का अपने में अभिमान करनेवाला व्यक्ति ही स्तेन (चोर ) कहा जा सकता है, अपने में विद्यमान ब्रह्मत्व का अज्ञानी स्तेन नहीं कहला सकता. सुषुप्ति में जीव स्वरूपभूत ब्रह्म से अभिन्न रहता है.   ' श्रुतिशिखोत्थेति ' जैसे दीप-शिखा की प्रकाशन-क्षमता में तैल-वर्ती-पात्र का पूर्ण सहयोग होता है, वैसे ही 'तत्वमसि ' इत्यादि महावाक्यों की स्वार्थ-प्रकाशन-क्षमता में कर्म, उपासना और ज्ञान योग की उपकारिता निश्चित है, क्योंकि निष्काम-कर्म के अनुष्ठान से अन्तःकरण शुद्ध होता है, शुद्ध अन्तःकरण में अहैतुकी भक्ति उत्पन्न होने से एकाग्रता आती है, और एकाग्र अन्तःकरण में " तत्वं " पदार्थ-परिशोधन पूर्वक श्रुत महावाक्यों   द्वारा वह ज्ञान ज्योति उदय होती है जो समूल द्वैत ध्वान्त को सदा के लिए समाप्त कर डालती है.
जीवन्मुक्ति काल में मुक्ति होती है या विदेह मुक्ति में ?
 समस्त द्वैत-विरोधिनी वृत्ति अंतिम होती है, उसके पश्चात् और कुछ भी नहीं होता. उस वृत्ति के लिए-
 ' पश्चात् सा कुत्र गता ? ऐसा प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जब कोई काल ही नहीं रहता, तब वहां न पश्चात् कः सकते हैं न कुत्र. तत्वज्ञान के द्वारा जिस पुरुष की अविद्या नष्ट हो जाती है, उसको भी अविद्या के कार्यभूत देहादी का प्रतिभास होता रहता है, वह पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है. 
अविद्या का नाश होने पर शरीर तुरंत नहीं छूट जाता, जैसे रज्जू-सर्प भ्रम के निवृत्त हो जाने पर भी भ्रम का कार्यभूत भय-कम्प आदि कुछ समय तक बने रहते हैं. दण्ड को चाक पर से हटा देने पर भी वेग-संज्ञक संस्कार के बल पर चाक कुछ देर तक अपने आप घूमता रहता है. वैसे ही लशुन-भाण्ड में से लशुन के निकाल लेने पर भी भाण्ड में लशुन की वास बनी रहती है. उसी तरह अज्ञान का नाश हो जाने पर जीवन्मुक्त का शरीर वर्षों तक बना रह सकता है.

' विद्वान् नामरूपाद विमुक्तः ' मु० ३.२.८ 
प्रारब्ध कर्म का उपभोग हो जाने के बाद समस्त शक्तियों से समन्वित माया की निवृत्ति हो जाती है. जीवन मुक्त तत्ववेत्ता के विदेह कैवल्य में उतना ही विलम्ब ,जब तक प्रारब्धकर्म का क्षय नहीं होता.
' यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, 
                   तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम. ' मु० ३.२.१३  
प्रारब्ध कर्म का क्षय उपभोग से ही होता है, ईश्वर कृपा से नहीं. ' एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म ' छां ० ६.२.१ 
' ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशै: ' श्वेता ० ४.१६ 
द्वैत- मिथ्यात्व का निश्चय हो जाने पर ही अद्वैत सिद्धि होती है. अद्वैत निश्चय तभी होगा जब उससे पहले ' नेह नानास्ति किञ्चन ' बृह ० ४.४.१९ का अर्थ होता है- ' इह ब्रह्म भिन्नं किञ्चित नास्ति ' महावाक्य जन्य अद्वैत सिद्धि के पहले द्वैत में मिथ्यात्व सम्पन्न हो जाता है.  अस्ति में वर्तमानार्थक ' लट ' प्रत्यय प्रयुक्त है. ' प्रपंचो मिथ्या दृश्यवत ' यह निश्चित है कि अद्वैत निश्चय द्वैत-मिथ्यात्व निश्चय पूर्वक ही होता है.  जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है छाया नहीं. मोक्ष में तो अन्तःकरण का आभाव हो जाता है अतः गति और मुक्ति में महान अंतर है. जीव के अन्तःकरण में ज्ञान शक्ति (बुद्धि ) और क्रिया शक्ति (प्राण ) है. मन उत्क्रमण कर गया अनमनस्क आत्मा इसी शरीर में खता-पिता रहा. 
' तदा विद्वान् नामरूपाद विमुक्तः ' मु० ३.२.८ 
केतकी (क्योड़ा ) का अमन्द गंध चारों ओर मिलती है. पर उसका पुष्प नष्ट नहीं होता. जो शरीर  जिसके अदृष्ट से जनित है, वह उसका भोगायतन होता है. ईश्वर के अदृष्ट से कोई शरीर नहीं बना, अतः कोई भी शरीर उसका भोगायतन नहीं हो सकता.


  ' अत्र ब्रह्म समश्नुते ' कठ० ६.१४ 
इसी लोक में ब्रह्मज्ञानी को ब्रह्म का सायुज्य प्राप्त होता है. मुक्त पुरुष का आनन्द सभी कामों (सुखों ) का भी काम (सुख) है. 
' भक्तिः सिद्धे: गरीयसी ' श्रीमद्भाग० ३.२५.३३ 
अर्थात भक्ति ज्ञान से भी श्रेष्ठ है, यह कहना वैसा ही है जैसे राम से कौशल्या को श्रेष्ठ क़ह दिया जाता है. भक्ति ज्ञान की जनक है, अतः उसका पद ज्ञान से अधिक माना गया है.गीता ० १३.२५ /९.३२ में अन्य तत्ववेत्ता पुरुषों से सुनकर जो व्यक्ति मेरी (ठाकुर की) उपासना करते हैं, ऐसे श्रवण परायण व्यक्ति भी मृत्यु को जीत लेते हैं, स्त्री-वैश्य-सूद्र आदि मन्द अधिकारी भी भक्ति के द्वारा मुक्त हो जाते हैं.
ब्रह्म तत्वतः जीव से भिन्न है या नहीं ? जैसे बाल्य और युवा अवस्था के शरीरों का भेद हो जाने पर भी अंतःकरण का भेद नहीं होता, वैसे ही जातिस्मर व्यक्तियों के शरीरों का भेद होने पर भी अंतःकरण का भेद नहीं होता, उनके सभी शरीरों का नियन्त्रण एक ही अंतःकरण द्वारा होता है. प्रत्येक दिन सुषुप्ति में मन (अंतःकरण ) विलय हो जाता है, वस्तुतः उसका न तो विनाश होता है, और न नूतन अन्तःकरण का निर्माण. चरम वृत्ति के द्वारा जो अज्ञान नष्ट होता है, उसे ही जीव-विभाजक माना जाता है. बिम्बगत कम्पन मूलतः जलरूप उपाधि का प्रतीत होता है, बिम्ब पर उसका आरोप नहीं हो सकता, ऐसे ही जीव में भोक्तृत्व उसके उपाधिभूत अंतःकरण की देन है, बिम्ब भूत ब्रह्म पर उसका आरोप संभव नहीं.
' बहु स्याम प्रजायेय ' छां ६.२.३ 
इतना संकल्प मात्र होता है, और वह ' सच्च त्यच्चाभवत ' तै० उ० २.६ क्योंकि वह अनंत शक्ति-सम्पन्न है. ' ज्ञानं नित्यं क्रिया नित्या बलं नित्यं परमात्मनः ' एवं ' एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य ' बृह ० ४.४.३३/  ' स एष नेति नेति ' बृह ० ३.९.२६ /   भेद बोधक वेदांत वाक्य -' द्वा सुपर्णा ' श्वेता ४.६ / ' तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ' गी० १५.१७/  
' शतमपि अन्धानां न पश्यति ' -सैकड़ो अन्धे मिल कर भी क्या देख लेंगे ? 
 यह वाक्य बुद्धि और जीव का बोधक माना गया है, जीव और ब्रह्म के भेद का बोधक नहीं है. नाम (शब्द या ॐ ) तत्व तो ब्रह्म का एक विकार ( विवर्त ) मात्र है, ब्रह्म के अधिष्ठानभूत नाम (ॐ ) में ' ब्रह्म ' शब्द गौण रूप से प्रयुक्त हुआ है, किन्तु ब्रह्म अविकारी है, जगत का एकमात्र कारण (अधिष्ठान ) है, तथा मुमुक्षुओं के द्वारा ज्ञेय है. 
' तद विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीराः ' मुं २.२.७ / ' सत्यस्य सत्यं ' बृह ० २.३.६/ प्रतिमा, मूर्ति आदि में भी देवता तत्व-बुद्धि से ही फल देता है, न कि देवता की तादात्म्य-बुद्धि से- इसीलिए जिस सच्चे कर्मी की शव रूपी (कफ-वात-पित्त ) त्रैधातुक शरीर में आत्मबुद्धि, स्तर-पुत्र आदि में स्वियत्व-बुद्धि (मेरा है !)   पार्थिव मृन्मय मूर्ति आदि में आराध्य-बुद्धि तथा जल में तीर्थ-बुद्धि कभी नहीं होती, अभिज्ञ पुरुषों में वही श्रेष्ठ माना जाता है. 
' देवात्मशक्तिं स्वगुणेर्निगुढाम ' श्वेता ० १/३ , ' दैवी ही एषा गुणमयी ' गी० ७.१४,  ' विज्ञानमानंदम ब्रह्म ' बृह ० ३.९२.८ - ' आनन्द ' तत्व दृश्य नहीं है, बल्कि दृक (चैतन्य) से अभिन्न है. ' यत्साक्षाद अपरोक्षाद ब्रह्म ' बृह ० ३.४.१- जगत का साक्षात् द्रष्टा ब्रह्म है, तथा साक्षी वह है जो प्रत्यक्ष का नाश न हो सकने के कारण मन को दौड़ता हुआ देख रहा है. इसीलिए अविद्या एवं अविद्या के कार्य इन दोनों में से किसी एक दर्पण में प्रतिफलित चैतन्य को साक्षी कहा जाता है. दृक रूप चैतन्य तत्व स्वतः द्रष्टा नहीं, बल्कि जिस उपाधि के माध्यम से द्रष्टा बना करता है, उसके नाश से जनित संस्कार - काल स्मरण का निर्माण किया करते हैं. शुद्ध ब्रह्म तथा जीव से भिन्न चैतन्य को साक्षी माना जाता है.
 अविद्या वृत्ति में प्रतिफलित चैतन्य को साक्षी माना जाता है, सुषुप्ति में भी अविद्यावृत्ति मानी जाती है. क्योंकि अविद्या का संग करके भी ब्रह्म परिणामी नहीं होता, किन्तु विवर्तित होता है. ' जगत का उपादान कारण माया, निमित्त कारण-ईश्वर, शुद्ध ब्रह्म अधिष्ठान होता है.' ' जन्माद्द्यस्य यतः ' ब्र.सू.१.१.३ क्योंकि भ्रान्ति का अभिज्ञ पुरुष भ्रान्त नहीं कहलाता. 
' तदेक्षत बहु स्याम ' छां ६.२.३
 एक सद ब्रह्म ही असद्रूप जगत का उपादान कारण है. ' यथा उर्णभिः सृजते गृहन्ते च ' बृह ० २.१.२० - उर्णाभि (मकड़ी ) में भी तन्तु  या जाले की उत्पत्ति और प्रलय देखे जाते हैं. किन्तु उर्णाभि पद (नाम-रूप) का वाच्य उसका शरीर नहीं होता, बल्कि शरीर से भिन्न चैतन्य होता है, जोकि तंतु के प्रति वैसे ही निमित्त कारण मात्र होता है, जैसे कि पुत्र के प्रति पिता. मकड़ी का विनाश हो जाने पर भी जाला जैसे-का तैसा बना रहता है.  
' नित्यानित्यवस्तु-विवेक: अद्वैत मत में माया को ' अघटित-घटना-पटीयसी ' कहते है. अर्थात माया के लिए कुछ असम्भव नहीं, वह परस्पर-अपेक्षी पदार्थों का भी इन्द्रजाल के समान उपपादन कर देगी. मिथ्याभूत  इन्द्रजाल के रूप में कार्य-कारण भाव की व्यवस्था का उलंघन करने वाले ऐसे चमत्कार देखे जाते हैं, जो अन्यत्र सत्य व्यव्हार में नहीं देखे जाते, फिर भी उन्हें मिथ्या मानना ही उचित है. 
' न स पुनरावर्तते ' छां.८.१५.१ 
ब्रह्मलोकस्थ जीवों के मुक्त हो जाने के बाद ही महासृष्टि प्रवृत्त होती है/ ' पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमपैति ' मु० ३.१.३ ' ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ' मु० ३.२.९/ शरीरोपाधिक जीव और अन्तर्यामी का जो भेद माना गया है, वह केवल अविद्या कल्पित अतात्विक मात्र है, तात्विक नहीं. जीव की अल्पज्ञता अनित्य होने के कारण भविष्य में जब कभी नष्ट होगी, तब वह इश्वर से अभिन्न होगा-अतः आचार्य को कहना चाहिए था-अथर्व ० १.४.२० प्रतिबिम्ब भी एक प्रकार की ' छाया ' ही है ? जहाँ प्रकाश का अवरोध होता है, वहां ही छाया होती है, प्रतिबिम्ब तो प्रकाश-देश में भी अनुभूत होता है, अतः उसे छायात्मक नहीं माना जा सकता.
Towards the end of his life, when he returned to Navadvip from Benares, he was given a reception for his monotheistic philosophy. He died in Mayapuri while meditating.}
' तरति शोकम आत्मवित ' छां ० १.७.३

 ज्ञान ज्योति जगाने का श्रेय जिस निराकार-निष्ठा को प्राप्त है, वह साकार(श्रीरामकृष्ण देव)-निष्ठा के उर्वरक धरातल पर ही अंकुरित हुई है.
' एको  नारायण आसीत न ब्रह्मा न च शंकरः ' 
- महाप्रलय के समय केवल नारायण (विष्णु ) थे का तात्पर्य नारायणीय शरीर नहीं, भगवान विष्णु अखण्डमायोपाधिक ' ब्रह्म ' हैं, महाप्रलय में केवल उन्हीं की सत्ता कही गयी है, शरीर की नहीं. 

सर्वान गुरून सततमेव नमामि भक्त्या । 
विद्याप्रद  एवं दीक्षाप्रद अपने समस्त गुरुजनों को सदैव भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ. चिर काल से श्री मण्डन मिश्र की ब्रह्मसिद्धि, श्री सुरेश्वराचार्य की नैष्कर्म सिद्धि, श्री विमुक्तात्मा की इष्टसिद्धि नामसे तीन सिद्धि-ग्रन्थ ही प्रचलित थे, अब यह अद्वैत-सिद्धि नाम का चौथा सिद्धि ग्रन्थ बन गया है. उनकी अन्य प्रसिद्द पुस्तक है 'भक्ति रसायन।' यह भक्ति सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ है। अद्वैतवाद के प्रमुख स्तम्भ होते हुए भी वे उच्च कोटि के कृष्णभक्त थे, यह इस रचना से सिद्ध है। 

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बुधवार, 28 जुलाई 2010

[39] " अद्वैतवाद कई बार खण्डित हुआ है.

आत्मबोधक नीतिकथा- 'भेको धावति तं च धावति फणी, सर्पं शिखी धावति ...' के अनुसार हम देखते हैं कि इस जगत में सभी प्राणी अपने अपने आहार-भोग की सामग्रियों को प्राप्त करने के पीछे  दौड़े चले जा रहे हैं। किन्तु हर प्राणी की चोटी को पकड़कर काल पीछे खड़ा है, पर उसे कोई नहीं देख रहा है! सचमुच सब कुछ कितना क्षणभंगुर है ? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ' उठो, जागो ! जीवन के प्रति तृष्णा ही माया है। जीवन को क्षण-स्थायी जानते हुए अज्ञान के इस स्वप्न से जाग उठ। मृत्यु का ग्रास बनने से पूर्व ही ज्ञान और मुक्ति पाने का प्रयास कर, और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय (अर्थात जब तक मृत्यु का भय सदा के लिये समाप्त न हो जाय) तब तक रुको मत! 
मानवजाति को पुनरुज्जीवित करने, इस मोहनिद्रा (हिप्नोटाइज्ड अवस्था) से जाग्रत करने में समर्थ वेदों-उपनिषदों आदि के जितने भी बोधवाक्य या महावाक्य हैं, उन सबको चुन-चुन कर महर्षि वेदव्यास ने हजारों वर्ष पूर्व ब्रह्म-सूत्र की रचना की है। और आचार्य शंकर ने 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर जो भाष्य लिखा है, उसे शंकर-भाष्य के नाम से जाना जाता है। और ब्रह्म-सूत्र के ऊपर आचार्य शंकर ने जो भाष्य लिखा था उसी के ऊपर अद्वैतवाद (वेदान्त-मत) प्रतिष्ठित हुआ है। ( यह आठवीं शताब्दी की बात है.)  इस अद्वैतवाद के प्रतिष्ठित होने के बाद, अष्टम शताब्दी से लेकर " श्री चैतन्य महाप्रभु *** (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) " के आविर्भूत होने तक, यह अद्वैतवाद के बाद द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि अनेक आठ-नौ प्रकार के मतवादों की सृष्टि हुई है। और इस प्रकार आठवीं शताब्दी में अद्वैतवाद प्रतिष्ठित होने से लेकर, पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री चैतन्य महाप्रभु के आविर्भूत होने तक; यह अद्वैतवाद कई बार खण्डित हुआ है। 
श्री चैतन्य महाप्रभु *** सन १४८६ में फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के दिन बंगाल के नवद्वीप में अवतीर्ण हुए, जिसे अब मायापुर के नाम से जाना जाता है। इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। बड़े पुत्र विश्वरूप के बाद बालक विश्वंभर (चैतन्य महाप्रभु) का जन्म हुआ। प्यार से माता-पिता उसे 'निमाई' कहते। 

जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, "निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।" निमाई हंसकर कहते, "हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा भी अन्न खा लेंगे।"निमाई जितने शरारती थे, उनके बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे।विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला।
कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे। एक बार वे पूर्वबंगाल की यात्रा  में थे, इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई।  माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से दूसरा विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई।
गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वर 'पूरी' से निमाई की भेंट हुई। निमाई के बहुत जोर देने पर स्वामी ईश्वर पुरी ने उन्हें दीक्षा दे दी। वे कृष्ण-भक्ति के लिये वृन्दावन जाना चाहते थे, किन्तु  पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, "वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप (मायापुर) में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। और बुराइयों में फंसे अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।"
गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी। गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। बंगाल में उन दिनों कालीपूजा का बहुत प्रचार था। कालीपूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही अपनी कृष्ण-भक्ति का संदेश देते हुए विचरण करते थे। 
संकीर्तन में प्रायः उनकी समाधी अवस्था तथा शरीर में दिव्य और अलौकिक प्रेम के लक्षण दिखाई देने लगे. एक दिन शांतिपुर के अद्वैताचार्य ने संकीर्तन के समय भाव में निमग्न निमाई की अपने इष्ट (श्रीकृष्ण) रूप में पूजा की. उस समय के समाज में श्री अद्वैताचार्य की विशेष मान्यता थी. उसी समय से भक्त लोग निमाई को गौरांग महाप्रभु के नाम से पुकार कर अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करने लगे.   जिस प्रकार चुम्बक के आकर्षण से लोहे के टुकड़े अपने आप चले आते हैं, उसी प्रकार गौरांग महाप्रभु के दिव्य लक्षणों से आकर्षित हो विभिन्न स्थानों से भक्त वैष्णवगण आने लगे. इनके अनन्य पार्षद श्री नित्यानन्द भी आ गये. भक्त वैष्णवगण नित्यानन्द को बलराम तथा गौरांग महाप्रभु को श्री कृष्ण का अवतार मान कर उपासना करने लगे. माता शची देवी नित्यानन्द को अपने प्रथम पुत्र विश्वरूप के समान प्यार करने लगी. वे इन्हें निताई कहने लगी. भक्तगण भी इन्हें निताई अथवा नित्यानन्द के नाम से पुकारने लगे.
नित्यानंदजी और हरिदासजी ने नगर में नाम-संकीर्तन का प्रचार कार्य चालू किया. वे रास्ते में जाते हुए हर व्यक्ति के चरणों में प्रणाम कर उनसे कृष्ण नाम जप करने की भिक्षा माँगने लगे. यह कार्य सहज नहीं था. कोई व्यंग करता था तो कोई गाली-गलौज तथा उपहास करता था. कुछ इनके प्रति श्रद्धा भी प्रदर्शित करते थे.
एकदिन  वे नवद्वीप के कुख्यात दस्यु जगन्नाथ एवं माधव (जगाई-मधाई ) के पास जोर-जोर से नाम-कीर्तन करते हुए पहुँचे.  उस समय दोनों शराब के नशे में थे. क्रोध में आकार मधाई ने नित्यानंद के सिर पर प्रहार कर दिया.नित्यानन्द के सिर से खून की धारा बह निकली. चारों तरफ भीड़ जम गयी. इसी समय गौरांग महाप्रभु भी वहाँ पहुँच गये. इनको क्षमा कर दिये, और नित्यानन्दजी ने करुणावश कहा- " आज तक तुमने जो कुछ पाप किये हैं वह सब मैंने ग्रहण किया. श्री कृष्ण की कृपा से तुम्हें दुर्लभ प्रेम की प्राप्ति हो|"  तब से जगन्नाथ और माधव दोनों परम वैष्णव हो गये. इस प्रकार के ह्रदय परिवर्तन से लोगों को महाप्रभु की अलौकिक क्षमता पर विश्वास गहरा हो गया. इनके नाम पर नवद्वीप में गंगा जी का ' जगाई- माधाई घाट ' आज भी प्रसिद्ध है

किन्तु साधारण लोग निमाई के इस दिव्य भाव को उन्माद य़ा पागलपन कह कर उपहास करने लगे. निमाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात में  सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने कई मुसलमानों को भी कृष्ण-भक्त बना लिया है।
यह सुनते ही काजी आगबगूला हो गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि आज से कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा।अपने भक्तों को आश्स्वत करने के लिये निमाई पंडित मुस्काराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि- "मैं आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्त्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।"निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले।"हरिबोल! हरिबोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। 
काजी ने कहा, "मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था। मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्त्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। जब महाप्रभु ने उसे नाम कीर्तन का माहात्म्य बताया, तो वह काजी भी परम वैष्णव बन गया. उसकी समाधी आज नवद्वीप में ' काजी की समाधी ' नाम से प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में है.
इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे नाम-यश और मानसम्मान को देखकर डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है- और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई (मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का प्रचार प्रसार) करने में में लग सकता हूं। बहुत समझाने के बाद में उनकी माँ और पत्नी के साथ सबने उनकी बात मान ली। एक दिन आधी रात के समय, विष्णुप्रिया को सोती हुई छोड़ कर अपने घर से सन्यास लेने के लिये, काटवा के प्रसिद्ध सन्त श्री केशव भारती के पास पहुँचे.  उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी। 
केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, "अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम विवाहित हो और तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।" निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, "गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम (Be and Make) नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में  नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"
[अब १४ सितंबर २०१७ के भारत की क्या अवस्था है ? " निर्भया बलात्कार -रेयान स्कूल हॉरर प्रदुम्न हत्या-आतंकवादीयों द्वारा  जेहादी हत्या, डेरा सच्चा सौदा का रामरहीम और काँची मठ के जयेन्द्र सरस्वती द्वारा व्हिसल ब्लोवर की हत्या की स्वीकारोक्ति का वीडियो टेप" ..... आदि आदि दैनन्दिन समाचारों द्वारा क्या प्रमाणित हो रहा है ? यही प्रमाणित हो रहा है कि ऋषि-मुनियों के देश में इक्का-दुक्का मठों के संन्यासियों द्वारा चरित्र-निर्माण की शिक्षा देने में समर्थ सद्गुरुओं को छोड़कर, देश के अधिकांश मठों के लोग साधु-सन्तों का वेश धारण कर के या लाल चोंगा पहनकर, टी.वी. पर या लाखों रुपया लेकर बड़े बड़े पण्डालों में आज भी 'कृष्ण-जन्म,राम-जन्म' पर ५६ प्रकार के भोगों की थाल सजाकर, ढोंगी गुरुओं की आरती करके, रासलीला कर रहे हैं, स्वयं अनैतिक कार्यों में लगे हैं। और जनता में चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हो रहा है! क्योंकि आजादी प्राप्त करने के बाद भारत के राजनितिक नेताओं ने स्वामी विवेकानन्द के परामर्श पर कोई ध्यान नहीं दिया है। 
जबकि आज से १२१ वर्ष पूर्व   स्वामी  विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता को (7th June, 1896. ) लिखे पत्र में कहा था  - "संसार के सारे धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं, आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है - चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान प्रभावकारी बना देगा। ... एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल में बलिदान ही नियम था, और दुःख है कि युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों (हीरो) को और सर्वश्रष्ठों को 'बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय ' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों 'बुद्धों'  की आवश्यकता है। "]
केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, "अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।"निमाई ने कहा, "गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।"निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए।केशव भारतीजी ने गंगाजी के किनारे विरजा होम करवा कर सन्यास प्रदान किया. संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम श्री कृष्ण चैतन्य देव हो गया।
सन्यास के बाद उन्होंने जगन्नाथपूरी में रहने का निश्चय किया.राज पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त के अनुसार शिक्षा देने वाले प्रसिद्ध विद्वान् थे. महाप्रभु ने वेदान्त की आलोचना करते हुए भगवत-प्रेम की प्राप्ति करने को परम पुरुषार्थ एवं श्री भगवान (अवतार) को सच्चिदानंदमय प्रमाणित किया.अन्त में महाप्रभु ने सार्वभौम को अपना षट्भुज रूप दिखाया. इस घटना के बाद से सार्वभौम अपने इष्ट के रूप में महाप्रभु की पूजा करने लगे. अद्वैतवादी राज पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य की इस प्रकार की स्वीकृति से 'अद्वैतवाद' एक बार पुनः खण्डित हुआ ! श्री चैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न शास्त्रों से प्रमाणित किया कि, मनुष्य जीवन का प्रधान लक्ष्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति (ईश्वरलाभ करना है)! दो वर्ष तक विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने के बाद महाप्रभु रथ यात्रा के पहले पूरी पहुँचे. रथ के आगे संकीर्तन में महाप्रभु को मधुर प्रेमावेश में नृत्य करता देख कर  उत्कल राज प्रतापरूद्र भी सर्वदा के लिये महाप्रभु के भक्तों में सम्मिलित हो गये.
काशी सदा से शास्त्र अध्यन का केन्द्र रहा है. काशी में उस समय अद्वैतवादी सन्यासी संप्रदाय में स्वामी प्रकाशानंद सरस्वती प्रधान माने जाते थे.महाप्रभु द्वारा नाम-संकीर्तन में भावावेश में किये गये नृत्य को उन्होंने सन्यासी के आचरण के प्रतिकूल कहा. सन्यासी होते हुए भी वेदान्त का अध्यन न कर महाप्रभु केवल नाम जप और संकीर्तन करते हैं, यह कार्य उन्हें अच्छा नहीं लगा. पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न शास्त्रों से प्रमाणित किया कि, मनुष्य जीवन का प्रधान लक्ष्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति ! और उसकी भगवत-प्रेम की प्राप्ति की मुख्य साधना है- " नाम जप तथा नाम-संकीर्तन " (जैसे हमलोग खण्डन भवबन्धन आदि आरात्रिक गाते हैं) ! महाप्रभु के पास से वेदान्त-सूत्र य़ा ब्रह्मसूत्र की इस प्रकार व्याख्या सुन कर प्रकाशानंद जी महाप्रभु के शिष्य बन गये. इस परिवर्तन से काशी में भी महाप्रभु का नाम स्थापित हो गया.काशी से भ्रमण करते हुए महाप्रभु नीलाचल पूरी पहुँचे. पूरी आने के बाद शेष १८ वर्ष उन्होंने वहीं बिताये.इनके अनुयायी चैतन्य को 'विष्णु का अवतार' मानते हैं। 
एक दिन नित्यानंदजी को बुलाकर चैतन्य मह्प्रभु ने कहा- " मैंने सर्वदा के लिये गृह-त्याग कर सन्यास ले लिया है.तुम भी यदि मेरी तरह अवधूत-वृत्ति से इधर-उधर भटकते रहो तो संसारी गृहस्थ लोगों का उद्धार कैसे होगा ? मेरा अनुरोध है कि तुम विवाह करो. तुम्हारे द्वारा आदर्श गृहस्थ धर्म की स्थापना हो. गृहस्थ लोग तुम्हें अपनी दो पत्नियों के साथ भी आदर्श जीवन व्यतीत करते देख कर अपना जीवन भी उसी तरह व्यतीत करेंगे. मनुष्य के कल्याण के लिये तुम्हें गृहस्थ आश्रम में रहते हुए वैष्णव धर्म का प्रचार करना पड़ेगा. "तब तक नित्यानंदजी सन्यासी के समान अवधूत रूप में रहते थे पर उन्होंने सन्यास ग्रहन नहीं किया था. महाप्रभु के निर्देश से पूरी से वापस लौट कर नित्यानंदजी ने विवाह किया. खड़दह (प.बंगाल) में उन्होंने अपना अधिक समय व्यतीत किया. ( खड़दह के प्रसिद्ध श्यामसुंदर के मन्दिर की कहानी नवनी दा पहले ही कह चुके हैं.)
पूरी में महाप्रभु गंभीरा नामक मठ में रहते थे. अपने भक्त हरिदास को प्रखर धूप में भी नाम जप मग्न देख कर छाया करने के लिये महाप्रभु ने मौलश्री (बकुल) की एक टहनी को जमीन में लगा दिया. थोड़े ही समय में उसने एक विशाल वृक्ष का आकार धारण कर लिया. आज भी पूरी में वह, ५०० वर्ष प्राचीन वृक्ष- 'सिद्ध बकुल वृक्ष ' के नाम से प्रसिद्ध है.
 उत्तर और दक्षिण भारत की धर्म और संस्कृति  की मिलनभूमि है- नीलाचल पूरी. जहाँ के दारुब्रह्म श्री जगन्नाथ जी का दर्शन एवं महाप्रसाद का सेवन करके सारे भारतवर्ष के लोग अपने को धन्य समझते हैं. इसी नीलाचल से महाप्रभु धीरे-धीरे सारे भारतवर्ष (उत्तर-दक्षिण) में प्रसिद्ध हो गये. महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। ४८ वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। 
साधारणतः वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण (लीडरशिप ट्रेनिंग) परम्परा में  दो प्रकार की गुरु-शिष्य परम्परायें प्रचलित हैं। एक है त्यागी शिष्यों के लिये त्यागी गुरु के निर्देशन में (यथा "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा") और दूसरी गृहस्थ शिष्यों के लिये गृहस्थ गुरु के निर्देशन में (गृहस्थ महात्माओं की वंश परम्परा.नित्यानन्द-जगाई-मधाई-वेदान्त परम्परा) गृहस्थ वैष्णवों की वंश परम्परा के आचार्य कुलगुरु कहलाते हैं. साधारण गृहस्थ लोग {जिनमे साधारण बोध (common sens ) कम रहता है? } इनके आदर्शों को आसानी से अनुसरण कर सकते हैं. महाप्रभु के इस प्रकार त्यागी(निमाई) और गृहस्थ (निताई) वैष्णवों  के द्वारा प्रेम-धर्म का प्रचार कार्य बहुत शीघ्रता से हुआ.

 [ठीक उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के त्यागी और गृहस्थ भक्तों के सम्मिलित प्रयास( चरित्र निर्माण कारी आन्दोलन) के माध्यम से ठाकुर के  दोनों महावाक्य -" ईश्वर ही वस्तु और सब अवस्तु है! "एवं " शिवज्ञान से जीव सेवा " -  पर आधारित नूतन प्रेमधर्म को पहले पूरे भारतवर्ष में;  फिर सम्पूर्ण पृथ्वी पर शीघ्रता से फैला देने के लिये मानव-प्रेमी स्वामी विवेकानन्द ने ठाकुर के त्यागी और गृहस्थ दोनों संतानों के लिये क्रमशः दो महावाक्य दिये| सन्यासियों के लिये-  " आत्मनोमोक्षार्थम जगत हिताय च "  एवं गृहस्थों (समाज के अभिभावकों जैसे बासूदा, उषादा, रनेनदा...आदि) के लिये -" Be and Make " " मनुष्य बनो और बनाओ! आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत में फैला देने के लिये "पूरी और काशी" में महामण्डल केन्द्र स्थापित करना होगा। विश्वरंजन सतपथी के माध्यम से पूरी में महामण्डल का केन्द्र स्थापित किया जा सकता है। उड़ीसा स्टेट ब्रांच को इंटरस्टेट कोर कमिटी से जोड़कर मजबूत करना होगा.]
वेदों में परमात्मा को सत चित आनन्द मय कहा गया है. चैतन्य महाप्रभु का अपना जीवन  ही मानो सत चित आनन्द का साकार विग्रह है. श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान के ' रसो वै सः ' स्वरुप (God is LOVE ) को अपने जीवन से प्रकाशित किया. सच्चिदानंदमय की लीला पूर्ण है. उनकी उपासना ही मनुष्य जीवन का प्रधान कर्तव्य है. ईश्वर परम करुणामय एवं मंगलमय हैं, उनका प्रेम हर जीव पर समान रूप से है, मायाबद्ध जीव का उद्धार करना ही उनका मुख्य कार्य है ! इस सहज मार्ग का प्रदर्शन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन में दर्शाया.जीव ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, आभास नहीं। चैतन्य ने जीवतत्त्व को शक्ति और कृष्ण तत्त्व को शक्तिमान कहा है। भक्ति के द्वारा जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जगत ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उसके अधीन होने के कारण अभिन्न है। जगत 'भ्रम' नहीं अपितु 'सत्य' है। ज्योंहि माया ग्रस्त जीव माया के बन्धन से छूटने का उपक्रम करता है, त्यौंहि भगवान भी उस पर अपनी कृपा न्यौछावर कर देते हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने ' रागानुगा भजन ' भजन की पद्धति का प्रचार किया. उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा और न किसी ' विशिष्ट मतवाद ' पर आधारित मन्दिर आदि की स्थापना की. अपने उपदेशों को उन्होंने आठ श्लोकों में वर्णित किया है जो " शिक्षा-अष्टक" श्लोक के नाम से प्रसिद्ध है. 

{चाहे सन्यासी हो अथवा शूद्र य़ा ब्राह्मण, जिन्होंने श्री कृष्ण प्रेम की प्राप्ति की हो- (सिया-राममय जगत में मनुष्य को ही अपना इष्ट समझता है) - वही गुरु (नेता) हो सकता है. इसी कारण मुसलमान कुल में पालित होने पर भी ' हरिदासजी ' नामजप से जगत्पूज्य हो गये. प्रभु श्रीरामकृष्ण अपने दिव्य प्रेम से वे भक्तों को १००० माइल से भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं. भगवान की लीला मधुरतम है. उनकी लीला में विरह और मिलन दोनों सत्य हैं. शब्द और मन के द्वारा इसका वर्णन और इसकी धारणा करना असम्भव है. विश्वासपूर्वक सब समय नाम स्मरण एवं संकीर्तन से भक्तगण उनकी कृपा अनुभव कर सकते हैं. इस परम तत्व को उन्होंने " अचिन्त्य- भेदाभेद " नाम से कहा है. सच्चिदानंदमय की लीला पूर्ण है. उनकी उपासना ही मनुष्य जीवन का प्रधान कर्तव्य है. इस सहज मार्ग का प्रदर्शन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन में दर्शाया. ( श्री श्री विजयकृष्ण भक्त संघ पोस्ट -रघुनाथपुर, जिला- पुरुलिया, पश्चिम बंगाल पिन कोड- ७२३१३३ द्वारा प्रकाशित पुस्तक साधना पथ नामक पुस्तक के अंश से साभार लिया गया ) कल ही से चैतन्य महाप्रभु के " अचिन्त्य-भेदाभेद वाद " पर चर्चा हुई और आज (२५-७-२०१० को) हावड़ा स्टेसन के सर्वोदय बुकस्टाल में प्रो. रामसिंह तोमर,हिन्दी भवन, विश्भारती, शान्तिनिकेतन द्वारा लिखित पुस्तक मेरे हाथ में कैसे आ गयी ?) विश्वास पूर्वक सब समय नाम स्मरण एवं संकीर्तन की जगह केवल महामण्डल का कार्य करने से भक्तगण ठाकुर की कृपा का अनुभव कर सकते हैं.इस परम तत्व को उन्होंने " अचिन्त्य- भेदाभेद " नाम से कहा है.सच्चिदानंदमय भगवान की लीला " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " का युवा प्रशिक्षण शिविर पूर्ण -साधना पथ है.स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर  महामण्डल के युवा- शिविर में भागलेने से भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव की कृपा दृष्टि युवा शिविरार्थी भाइयों पर अवश्य पड़ती है, और वे चरित्र-निर्माण के पथ पर अग्रसर हो जाते हैं. इस सत्य को हम-आप अपने व्यक्तिगत जीवन में आये परिवर्तन को देख कर समझ सकते हैं.} 
श्री चैतन्य के अनुसार 'भगवान के साथ मनुष्य का नित्य सम्बन्ध है. जीव ईश्वर का नित्य दास है.' साधक नामस्मरण (गुरु-प्रदत्त मन्त्र का स्मरण), विग्रह सेवा (T की छवि -मानकर मनुष्य मात्र की पूजा- अर्थात 'शिवज्ञान से जीवसेवा' ) मन में ठाकुर-माँ -स्वामीजी की लीला के स्मरण-मनन से साधक ' मनुष्य ' बन कर - " ब्रह्म अवलोक धिषनम पुरुषं विधाय मुदमाप देवः " का अर्थ जान लेने के बाद वह-दिव्यप्रेम या भक्ति मार्गी धर्म का अधिकारी (नेता) बनने के बाद " giver will kneel down and pray and receiver will stand-up and permit " का मर्म वह अपने अनुभव से जान लेता है, तब वह अपने को (T-के प्रतिमूर्ति में गढ़े किन्तु मायाबद्ध मनुष्यों ) का नित्य दास मानने लगता है. और श्री ठाकुर के प्रणाम-मंत्र द्वारा चरित्र-निर्माण की शिक्षा का प्रशिक्षण देने में सक्षम एक लोक-शिक्षक बन जाता है। 
चैतन्य महाप्रभु ने 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' का प्रवर्तन किया, भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। अचिन्त्य का अर्थ है-वह शक्ति जो असम्भव को भी सम्भव बना दे अथवा अभेद में भी भेद का दर्शन करवा दे, अचिन्त्य कहलाती है। चैतन्य के अनुसार अचिन्त्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक है। भगवान की लीला मधुरतम है. उनकी लीला में विरह और मिलन दोनों सत्य हैं. शब्द और मन के द्वारा इसका वर्णन और इसकी धारणा करना असम्भव है. विश्वासपूर्वक सब समय नाम स्मरण एवं संकीर्तन से भक्तगण उनकी कृपा अनुभव कर सकते हैं. कितना अपूर्व भाव है, भेद और अभेद - ये दोनों अचिन्त्य हैं. इस परम तत्व को उनके शिष्यगण " अचिन्त्य- भेदाभेद " नाम से प्रचार करते हैं. श्रीचैतन्य महाप्रभु ने स्वयं पुस्तक लिख कर किसी वाद की रचना नहीं की है। किन्तु उनके इस अचिन्त-भेदाभेद से भी शंकर का अद्वैतवाद एक पुनः खण्डित हुआ है। फिर उसकी पुनर्प्रतिष्ठा भी हुई है। इसी प्रकार हम समझ सकते हैं कि से सप्तम शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक, यह अद्वैतवाद कई-कई बार खण्डित होकर पुनः पुनः प्रतिष्ठित होता आया है !
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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

[38] नादब्रह्म मतं यस्य तस्मै श्रीगुरुवे नमः

महाकाल सब का ग्रास करने के लिये दौड़ रहा है
विषयासक्ति रहे तो सन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता-जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना|" वीरेश्वरदा 
 कहा करते थे,देखो- सुर, ताल और शब्दों की सहायता से मन की भावनाओं को अभिव्यक्त कर देने को ही संगीत कहते हैं. इसीलिये बहुत दिनों पूर्व बाल-कौतुक (बचपना) के तरंग में आकर मन में यह विचार उठा था कि, गाना सिखाने वाले गुरु का प्रणाम-मन्त्र क्या होगा? मन (बुद्धि) ने उत्तर दिया

" रागश्रुति-लयज्ञानं यस्मिन भावाश्रेये स्थितम |
    नादब्रह्म  मतं  यस्य  तस्मै  श्रीगुरुवे   नमः   ||"

--जिस मनुष्य का मत यह है कि ' ॐ शब्द ' ही ब्रह्म ( प्रथम) है; उन सदगुरु को मेरा नमस्कार है ! इस (स्व-रचित) प्रणाम-मन्त्र को एक दिन उनको (वीरेश्वरदा को) भी सुना दिया, फिर तो उनके आनन्द के ठिकाना न था- वे बहुत खुश हुए!
नाद (शब्द य़ा ॐ ) ही तो ब्रह्म हैं !ब्रह्म तो अनन्त हैं, वे निश्चल हैं, उनका तो कोई ओर-छोर (आदि-अन्त) नहीं है| किन्तु जब वे कम्पायमान (य़ा स्पन्दित vibrate) होते हैं, उसी समय सृष्टि 
(Creation 'or better to say 'Projection ') अस्तित्व में आ जाती है!' नादब्रह्म ' " अर्थात नाद है प्रथम  " { प्रथम य़ा एक ही है- अद्वैत !}  उसी (शब्द ॐ य़ा नादब्रह्म) से प्रक्षेपित (निर्गत) होकर सृष्टि का प्रारम्भ हुआ, और यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आ गया  है !! 
आज का विज्ञान भी इसी बात को अन्य प्रकार से कहता है कि इस जगत में सबकुछ " एक " (महा-विस्फोट अथवा Big -Bang ) से आया है !! धीरे धीरे जगत में प्राणी (य़ा जीव - जिसमे जीवन स्पन्दित होता य़ा धड़कता है) का आविर्भाव हुआ | 
वह प्राणी बिल्कुल सूक्ष्म, ' कीटानुकीट ' छोटा सा कीट य़ा जीव-कोष (जीवाणु जो बढ़कर एक नया प्राणी (SPORE ) हो जाता है-  से आरम्भ करके कितने बड़े बड़े प्राणी ( डायनासोर आदि)की सृष्टि हो गयी वे सभी प्राणी समय के प्रवाह में {जीवों का क्रम- FOOD -CHAIN : जिसमें एक दूसरे को खाता है }लुप्त होते चले गये, पहले बहुत वृहद् आकार के मानो कोई छोटा सा पहाड़ हो, इतने विशाल-विशाल आदि, जीव हुआ करते थे. किन्तु इन सभी जीवों में ' मनुष्य ' नामक प्राणी एक विचित्र जीव है !!
श्रीमद भागवत (के " एकादश- स्कंध ") में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है कि,  मनुष्य क्यों एक विचित्र (सर्वश्रेष्ठ) प्राणी है, एवं स्वामीजी की रचनाओं (विवेकानन्द साहित्य खंड १: पृष्ठ ५३ ) में भी हमलोग देख सकते हैं. ईसाईधर्म के ग्रन्थ (बाइबिल) में भी, सृष्टि की रचना का उल्लेख है:तो इस प्रकार भगवान ने नाना प्रकार की सृष्टि रचना की. किन्तु कोई मनुष्य जब किसी वस्तु की रचना करता है, तो उस रचना को देखने से उसको एक प्रकार का आनन्द भी प्राप्त होता है ! स्वयं किसी वस्तु का निर्माण करने से आनन्द होता है ! जैसे किसी कथाकार को एक अच्छी कहानी लिखने से,किसी को अच्छा निबन्ध लिखने से,किसी को एक सुन्दर कविता लिखने से,किसी को अपने द्वारा बनाय गये सुन्दर चित्र को देखने से ...से आरम्भ करके जो कुछ भी मनुष्य रचता है (सुन्दर-ढंग से बनाता है) उसमे उसको उस रचना करने का सुख य़ा आनन्द तो प्राप्त होता है| एक प्रकार के  संतुष्टि का भाव मन में अवश्य आता है. किन्तु भगवान को समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड रच देने के बाद भी आनन्द नहीं आ रहा था| तब उन्होंने मनुष्य की रचना की, और अपनी इस कीर्ति को देख कर स्वयम अवाक् रह गये|
भागवत में यह प्रसंग आता है--      
      सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या |
          वृक्षान-सरीसृप-पशुन-खग- दंश- मत्स्यान ||  
    तैस्तैरतुष्टहृदयः    पुरुषं     विधाय |
           ब्रह्मावलोकधिष्णम       मुदमाप     देवः ||   
(भागवत : ११:९:२८)
 देव (सृष्टा य़ा परमहंस देव) ने पूर्व-काल में अपनी आत्मशक्ति के द्वारा भाँती-भाँति के स्थावर,जंगम सभी प्रकार के जीवों; यथा गाँछ-वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, मत्स्य आदि जलचर जीवों की सृष्टि करके भी तृप्त नहीं हो सके, तब उन्होंने 'मनुष्य' की रचना की - जो मनुष्य ब्रह्म (प्रथम) को, अपने बनाने वाले को भी जान सकता है| जब (परमहंस) देव ने यह देखा कि मनुष्य तो ब्रह्म-ज्ञान तक प्राप्त कर सकता है, तब उनको अपनी इस अदभुत रचना को देख कर महा आनन्द हुआ|  
भगवान (ठाकुर) ने मनुष्य की रचना कर के कहा - " समस्त देवदूतदेर डेके आनो ! "" -- समस्त देवदूतों (messengers of God य़ा फरिस्तों) को बुलाकर ले आओ ! " 
सभी देवदूतगण (य़ा मानवजाति के सच्चे ' नेता ' गण) जब आये, तो आनन्द से पुलकित होकर भगवान बोले - देखो, देखो, मेरी इस रचना को देखो, इस बार मैंने कैसी अदभुत रचना की है- जरा इसको तो देखो! उनलोगों ने अवाक् होकर देखा | भगवान ने देवदूतों को आदेश दिया- 
" इस मनुष्य को तूम सभी लोग प्रणाम करो ! 
यही मेरी श्रेष्ठ रचना है, यह मनुष्य ही 
सबों के लिये प्रणम्य है; तुमलोग इसे प्रणाम करो !" 
सभी फरिस्तों ने तो प्रणाम किया, पर एक फरिस्ते ने प्रणाम नहीं किया| जिस देवदूत ने मनुष्य को प्रणाम नहीं किया- उसका नाम हुआ शैतान! जो ' मनुष्य '- मनुष्य के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है, वही है शैतान ! 
हमलोग ' श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ' के जीवन में क्या देखते हैं ? हमलोगों ने देखा है कि वे सभी के सामने अपने सिर को झुका रहे हैं. बलराम बसु के घर पर गिरीश चन्द्र घोष को उनका प्रथम दर्शन हुआ था. उस दिन बलराम बसु के घर पर श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव आये हुए थे. उनके घर के बिल्कुल निकट में ही गिरीश चन्द्र घोष का मकान भी था. उनके साथ और एक विशिष्ठ व्यक्ति थे, जो पत्रकार थे. वे गिरीश घोष के बड़े करीबी मित्र थे. वे आकार गिरीश घोष को कहते हैं-
" वहाँ एक ' परमहंस ' आये हैं, आप भी देखने जायेंगे क्या ? "   
 परमहंस कहने के बाद कुछ लोग 'परमहंस'  की नकल किस प्रकार किया करते हैं- यह बात ठाकुर भी जानते थे| बगुला के आकार जैसा अपने हाथ को ऊँचा करके कहते थे "परमहंस", और पीछे से अपने मुँह को बगुला के जैसा बना कर दिखाते थे.यह बात को ' ठाकुर देव 'जानते थे - इस बात पर हँसा करते थे, तथा उसका आनन्द उठाते थे. 
जो हो, वह सज्जन मित्र अपने साथ गिरीश घोष को भी ले गये और सीढियों पर चढ़ कर बरामदे में पहुँचे. देखते हैं किनारे एक कमरा है, उसी कमरे में एक व्यक्ति बैठे हैं. कमरे के अन्दर नहीं गये हैं, खिड़की से ही झांक कर देख रहे हैं. बहुत से लोग उस कमरे के भीतर प्रवेश कर रहे हैं, एवं उनको प्रणाम कर रहे हैं. किन्तु किसी व्यक्ति के प्रणाम करने के पूर्व ही, जमीन पर सिर रख कर वे ही उसको प्रणाम कर दे रहे हैं. अच्छे-बुरे में भेद किये बिना सभी मनुष्य को प्रणाम कर रहे हैं.
सतोगुणी व्यक्ति बाहरी रूप से वैसा न कर, यदि मन ही मन समस्त मनुष्य को प्रणम्य बोध करे | (साधु और पापी में अन्तर देखे बिना) मानवमात्र को प्रणम्य बोध करते हुए, उसके समक्ष कम से कम मानसिक रूप से भी अपने सिर को झुकाने के लिये सदैव तत्पर रहता हो - तब ऐसे किसी मनुष्य को देख कर समझ लेना होगा कि वे साधारण मनुष्य नहीं हैं !
गिरीश चन्द्र के मित्र ने उनसे कहा- " परमहंस- को तो देख लिया न ? अब यहाँ से निकल लो !" 
किन्तु उसके बाद से तो गिरीश घोष के मन में उत्ताल तरंगे उठने लगीं ; कौन है यह अदभुत ' मनुष्य '? जो सभी मनुष्य को (नीच से नीच को भी) अवनत हो कर, (उसके चरणों में गिर कर) प्रणाम करने में समर्थ हुआ है?
{इसीलिये गाना के गुरु के प्रणाम मन्त्र में कहा गया है - 
Music maestro of the Mahamandal, 
" बीरेश्वर  चक्रबर्ती "

"नादब्रह्म मतं यस्य तस्मै श्रीगुरुवे नमः ||" }
इसी लिये तो, जब वृक्ष, लता, जल इत्यादि बनालिये, समुद्र इत्यादि बना लिये- तब भी उनको अपनी रचना में वह आनन्द नहीं मिला, तब -      
            "  .... पुरुषं  विधाय..ब्रह्मावलोकधिष्णम..."   
  ब्रह्म की ही प्रतिमूर्ति स्वरुप - 'मनुष्य'  की रचना करके, जो मनुष्य ब्रह्म को भी जान सकता है-- ऐसे अदभुत-मनुष्य का निर्माण करके, " मुदमापदेवः " - तब सृष्टा को महा आनन्द हुआ ! 
{२ जून १८८३ को श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर से कलकत्ता आ रहे हैं. ...श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं,..." देखो, उन पर प्रेम हो जाने पर पाप आदि सब भाग जाते हैं, 
जैसे धूप से मैदान के तालाब का जल सुख जाता है....विषय की वासना तथा कामिनी-कांचन पर मोह रखने से कुछ नहीं होता. यदि विषयासक्ति रहे तो सन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता-जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना|"
थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, " ब्रह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते| (हँसकर) नरेन्द्र कहता है, ' पुत्तलिका !' (गुड्डा-गुड्डी बनाकर उसकी पूजा करने वाले मूर्ति-पूजक) फिर कहता है, ' वे अभी तक कालीमंदिर जाते हैं|' 
श्रीरामकृष्ण बलराम के घर आये हैं, वे एकाएक भावाविष्ट हो गये हैं| सम्भव है देख रहे हैं,ईश्वर ही जीव तथा जगत बने हुए हैं, ईश्वर ही मनुष्य बनकर घूम रहे हैं|  जगन्माता से कह रहे हैं, " माँ, यह क्या दिखा रही हो ? रुक जाओ; यह सब क्या दिखा रही हो ? राखाल आदि के द्वारा क्या दिखा रही हो, माँ ! रूप आदि सब उड़ गया| अच्छा माँ, मनुष्य तो केवल ऊपर का ढाँचा ही है न ? चैतन्य (उसमे नाद य़ा vibration) तो तुम्हारा ही है! "(श्रीरामकृष्ण वचनामृत (प्रथम भाग) : पृष्ठ:२०६ )}
ये जो ब्रह्म हैं, जिनसे वह नाद (ॐ vibration) उथित हुआ था, और जिसके कारण ही प्रत्येक वस्तु ने अपनी चंचलता (य़ा चैतन्य) को प्राप्त किया है, समस्त सृष्टि बनी है, उस (नाद-ब्रह्म य़ा) ' प्रथम नाद ' से ही समस्त सृष्टि (जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, उद्भिज) निकली है ! ! - उस ' प्रथम-वस्तु ' (ब्रह्म) को कौन समझ सकता है ? - एकमात्र ' मनुष्य ' ही समझ सकता है, मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है ! 
मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ उद्देश्य (Chief Aim of Life) क्या है ? (मननशील) मनुष्य के मन में यह विचार अवश्य उठता है कि, मैं जहाँ से आया हूँ- उस उद्गम य़ा श्रोत को पहले जान लेना होगा! (जब सारे शास्त्र और गुरु कहते हैं कि नादब्रह्म य़ा) ब्रह्म से ही मैं भी आया हूँ, तो मुझे उस ब्रह्म (नाद, ॐ य़ा सत्य) को अवश्य ही जान लेना होगा| 
कुछ उपनिषदों में प्राचीन ऋषियों द्वारा उदघाटित य़ा आविष्कृत सत्यों  को " महावाक्य " कहा जाता है! महावाक्य के अन्तर्गत अनेक वाक्य कहे गये हैं| उन में से मात्र कुछ वाक्यों को लेकर, आचार्य शंकर ने (कुल ११) उपनिषदों पर भाष्य की रचना की है. महर्षि व्यासदेव ने ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, एवं उसके ऊपर भाष्य लिखा था आचार्य-शंकर ने| उनमे अनेकों सूत्र दिये गये हैं, किन्तु उसमे कहे गये तीन सूत्रों  को सदा के लिये अपने मन में बैठा लेने की आवश्यकता है| वे तीन (प्रमुख) महावाक्य हैं- 
" तत्वमसि "   
 - 'तत ' वह ब्रह्म तत, ' त्वम असि '; अर्थात वह ब्रह्म तूम ही हो !
" अहं ब्रह्मास्मि " 
    - अर्थात मैं (पाका-आमि) ही ब्रह्म हूँ !
" सर्वं खल्विदं ब्रह्म "
- यह सब कुछ ब्रह्म ही हैं !  
इसी जीवन में इन तीनों सत्यों को स्वयं आविष्कृत कर लेना, य़ा (पहले सुन कर फिर अपने अनुभव से ) जान लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है| जिस उद्गम-श्रोत (य़ा उर्ध्व-मूल) से आया हूँ, उसी मूल में लौट जाना ही मेरे जीवन का परम-लक्ष्य य़ा श्रेष्ठ-उद्देश्य है! जिसको अपने इसी जीवन में इस सत्य की अनुभूति नहीं हुई - फिर उसका और क्या हुआ ? (यह दुर्लभ मनुष्य जीवन तो व्यर्थ में ही बीत गया)
यहाँ आया, खाया-पिया और नाना प्रकार के विषयों का भोग किया, सारे जीवन भर भोगों में डूबा रहा, फिर एकदिन -भोगों के बीच ही मर गया ! किन्तु भोगों के बीच ही मर जाने के समय तो कुछ बोध नहीं होगा। और अभी- यहाँ संसार में (जीवित ) रहते समय हमलोग क्या कर रहे हैं ? स्कूल में पढ़ते समय अपने पण्डित-महाशय (संस्कृत शिक्षक) से एक बहुत ही सुन्दर ' वैराग्यसूक्ति ' इसी सम्बन्ध में हमलोगों ने सुना था -
भेको धावति तं च धावति फणी सर्पं शिखी धावति
व्याघ्रो धावति केकिनं विधिवशाद् व्याधोऽपि तं धावति ।
स्वस्वाहारविहारसाधनविधौ सर्वे जना व्याकुलाः
कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते ॥४५॥


  - एक बेंग दौड़ा जा रहा है. साप का खाद्य पदार्थ बेंग है, साप बेंग के पीछे से धोखा देकर उसको खा डालने के लिये दौड़ रहा है. मयूर साप को खाता है, साप के पीछे मयूर दौड़ता है. मयूर के पीछे बाघ, बाघ के पीछे शिकारी दौड़ता है. सभी अपने अपने आहार के पीछे दौड़े चले जाते हैं|और सबों के पीछे महाकाल सब का ग्रास करने के लिये दौड़ रहा है, पर उसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता !
 [ जरासन्ध का पहला आक्रमण बालों पर होता  है, पर डाई करके हरा देते हैं। फिर डेन्टिस्ट से दांत ठीक करा लेते हैं। घुटनों पर होता है। आँखों पर होता है। ४ बार जरा संध को हमलोग हरा लेते हैं, ६० में रिटायर हो जाने के बाद भी हमलोग अपने को बूढ़ा नहीं समझते हैं। कुछ न कुछ उपार्जन के कार्य में या नयी नौकरी खोज लेते हैं। बूढ़ा तो हमलोग मरने के बाद होते हैं। मरने के पहले कोई बूढ़ा होने को तैयार नहीं होता। श्रीकृष्ण ने जरासंध को १७ बार हर दिया था। मथुरा हमारा शरीर है, मथुरा को एक दिन सब को छोड़ना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने मथुरा छोड़ने के पहले ही द्वारका का निर्माण कर लिया था। उसी प्रकार ६० के बाद ह्रदय को द्वारिका पहले बना लो, मथुरा छोड़ कर सीधा बैकुंठ धाम में रहने का प्रबन्ध कर लो। 
यदुवंशियों के पतन का समय आ गया था। धन बहुत आ जाता है, तो धर्म कम करते हैं, अपराध ज्यादा करते हैं। धन यौवन का मद -कपूर की तरह उड़ जायेगा। नारायण गोपाल भज क्यों चाटे जगधूल? धन का सदुपयोग करो, युवावस्था में सेवा करो, ताकत ज्यादा है तो ब्राह्मणों का अपमान मत करो। नृग राजा को गिरगिट योनि क्यों मिला ? सूर्यवंश में जन्म लिया था, दान तीन है। सतो गुणि दान करने वाला बदले में कुछ चाहता नहीं है। दान देने का अहंकार ही पतन का कारण है। देन हार कोई  और है, पर अहंकारी अपने को दानी समझता है। गलती से दूसरे की गाय दान कर दिया। नृग को गिरगिट बना दिया। पर भूख से अधिक मत खाओ, एक रोटी ज्यादा खा लोगे तो कोई दूसरा भूखा रहेगा। मातायें अन्न बचाने के बहाने ज्यादा खा लेती है।
प्रथम पत्नी रुक्मिणी का हरण करके द्वारका में लायें हैं, आपने कृष्ण-काले को क्यों पसंद किया ? शिशुपाल से तुम्हारी सगाई हो गयी है, फिर करा दूँ ?वो मजाक को नहीं समझने से बेहोश हो गयी। दाम्पत्य जीवन का लाभ है कि वे हर समय प्रसन्न रहें। 
भगवान को भी कलंक लगा था। ग्रह का प्रभाव था ? जामवन्त का गुफा (गुजरात) से युद्ध करना पड़ा। जामवंती के साथ दूसरा विवाह , तीसरा विवाह सत्यभामा से हुआ। १६००० स्त्रियों को स्वीकार किया। सत्यभामा के साथ अमरावती गए, कल्प वृक्ष को द्वारका ले आये। ]  
           



   


         
       

सोमवार, 19 जुलाई 2010

[37] मनुष्य के हृदय की भाषा

" ह्रदय की भाषा को कौन सुनता है, कौन याद रखता है ?"  
उसके बाद ( ' The Philosophy of Indian Dance 'वाली घटना के बाद) एक बड़े नामचीन चित्रकार हुए हैं ' दीपेन बसू ' एक दिन मुझसे बोले- " नवनी भाई, मैंने श्रीचैतन्य देव के जीवन के ऊपर सिरिज ऑफ़ पिक्चर्स (पेंटिंग्स की एक श्रृंखला) बनाई है, उसमे ठीक ठीक कितने पेंटिंग्स होंगे अभी याद नहीं किन्तु ३०-४० तो होंगे ही| इन तस्वीरों को मैं बहुत दिनों तक परिश्रम करके चित्रित किया है.
' एकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स ' में इसीकी एक एक्सिबिसन (चित्र-प्रदर्शनी) लगने वाली है. इस कार्य में मुझे तुम्हारी भी थोड़ी सहायता चाहिये|" मैंने कहा, ' कैसी सहायता ?'" इसको inaugurate किस से करवाया जाय ? " 
मैंने कहा, " इस बारे में मेरी राय लेना चाहते हैं ! मैं भला आर्ट से सम्बन्धित कितने लोगों को जानता हूँ, अकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में एक्सिबिसन होगा आर्ट्स के ऊपर, उसका inauguration किसके द्वारा होगा, यह क्या मैं तय कर सकता हूँ ?"  
" तुम्ही तय कर दो भाई, चैतन्य के जीवन के ऊपर मैं कोई आर्टिस्ट य़ा उसी प्रकार के किसी प्रोफ़ेसर य़ा कहीं का वाईस-चांसलर जैसे लोगों को मैं नहीं चाहता, इसीलिये तुमको तय करने कह रहा हूँ. तुम्ही एक व्यक्ति को ठीक करो|"
मैं तो भारी मुश्किल में पड़ गया. तब मैंने कहा कि, " स्वामी रंगनाथानन्दजी के द्वारा कराने से कैसा रहेगा ? " 
" रंगनाथानान्दजी ! वे तैयार होंगे ? 
" मैंने कहा, " यदि रंगनाथानन्दजी  से मैं अनुरोध करूँ, तो आशा करता हूँ वे स्वीकार कर लेंगे|"
" फिर तो इससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता है| तुम इसके लिये प्रयास करो|" उसी समय मैं रंगनाथानन्दजी से मिलने गोलपार्क स्थित Institute of Culture जा पहुँचा; वैसे भी मैं वहाँ अक्सर जाया करता था|
मैंने कहा कि, " महाराज, एक इस प्रकार का कार्य है- श्री चैतन्य के जीवन पर आधारित एक सिरिज ऑफ़ पेन्टिंग्स को एक कलाकार ने बनाया है, विख्यात चित्रकार हैं, अकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में उसका एक्सिबिसन होगा, उसका उदघाटन यदि आप करें तो बहुत अच्छा होगा|" 
उनका स्वाभाव जिस प्रकार का था, उसी तरह उन्होंने कहा- ' What do I know about art ? ' पर मैं तो उनके स्वाभाव को बहुत दिनों से जानता था.

    
Revered Swami Ranganathananda at a Mahamandal camp
Monks & Brahmacharis of the Ramakrishna Order
at the public session of a youth training camp

मैंने कहा कि, " महाराज, आप आर्ट के विषय में कितना जानते हैं, य़ा नहीं जानते हैं उसका परिचय नहीं देना होगा, चूँकि यह श्री चैतन्य की जीवनी है, अतः यदि कृपा करके आप वहाँ आकार उसका उदघाटन कर देंगे, तो उतने से ही सबों को बड़ी प्रसन्नता होगी !इसका उदघाटन अन्य किसी से करवाने की अपेक्षा, आप करेंगे तो,वह कार्यक्रम बहुत सुन्दर होगा|"
" जब इतना कह रहे हो, तो हो जायेगा " कर दिये| 
फिर तो अकाडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में भी मेरा आना-जाना प्रारम्भ हो गया. कई बड़े बड़े आर्टिस्टों के साथ मेरा परिचय हुआ. उसके पहले भी कुछ-कुछ था. क्योंकि उस 'Anthology of Indian Dance '  नामक ग्रन्थ में कलकाता के बड़े बड़े आर्टिस्टों ने भारतीय- नृत्य के बहुत से स्केच इत्यादि बनाये थे. जिमरमैन के History of Arts से नटराज के एक चित्र का बहुत बड़ा सा ब्लौक बनवा कर उस स्मारक-ग्रन्थ के मुख-पृष्ठ पर लगा दिया था.Ananda natanam, the cosmic dance of Shiva at Chidambaram

 उसके पहले और किसी ने उस चित्र को नहीं चुना था. अभी तो देखता हूँ कि किसी साधारण से संगीत के पुस्तक पर भी उसी चित्र को छाप देता है. किन्तु बहुत वर्ष पहले उस चित्र को पहली बार उस डांस के पुस्तक के ऊपर ही छापा गया था.
रंगनाथानन्दजी आये, उदघाटन किये, भाषण दिये. उस समय उस भाषण को लिख देने का दायित्व भी मुझे ही मिला था, और मैंने स्वयं उसे रिकॉर्ड भी किया था. उससमय तक आज-काल जैसा कैसेट-रेकॉर्डर नहीं उपलब्ध था, टेप रेकॉर्डर ही था, उससे ही रिकॉर्ड कर लिया. फिर उस पूरे रेकॉर्डिंग को लिख कर उनलोगों को दे दिया. उनलोगों ने उसको अन्य कहीं प्रकाशित किया य़ा और कहीं छपवाया, जो हो उनलोगों को बहुत आनन्द हुआ. 
श्री चैतन्य के जीवन पर आधारित जो एक्सिबिसन हुआ था, उसके ऊपर भी मैंने चार निबन्ध लिखे थे. 'भारतवर्ष', 'कथासाहित्य ', 'विश्ववाणी ' एवं 'उज्जीवन ' में चार चित्रों के साथ वे निबन्ध प्रकाशित हुए थे. 
उनमे से एक पेन्टिंग की एक छोटी सी कॉपी अभी भी मेरे कमरे में लगी है. उसमे दिखाया गया है कि, श्रीचैतन्य जमीन पर किसी बुत के समान (पाँचिल के जैसा) बैठे हुए हैं, उनके निकट किसी वृक्ष की एक टेंढी सी डाली है. और श्रीचैतन्य वहाँ पर बैठे हुए हैं, तीन सूखे हुए पत्ते वहीं पर गिरे हुए हैं.-
पर मैं तो आर्ट के सम्बन्ध में कुछ जानता नहीं हूँ, उसको परिभाषित कैसे करूँ, उसकी व्याख्या क्या होगी? जब मैं 'भारतवर्ष' में छापने के लिये उस पेन्टिंग्स पर निबन्ध लिख रहा था, उस समय याद हो आया कि, वहाँ पर तीन पत्ते क्यों दिये गये हैं? भागवत में कहा गया है- 
वदंति तत्‌ तत्वविदस्तत्वं. यज्‌ ज्ञानमद्वयम्‌
                      ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।: (भाग. 1.2:11)
(भागवत का कथन है कि परमार्थत: एक ही अद्वय ज्ञान है। वही ज्ञानियों के द्वारा 'ब्रह्म', योगियों के द्वारा 'परमात्मा' तथा भगवद्भक्तों के द्वारा 'भगवान्‌' कहा जाता है। भेद है उपासकों की दृष्टि का तथा उपासना के केवल तारतम्य का। एक अभिन्न परम तत्व नाना उपासना की दृष्टि में भिन्न प्रतीत होता है, परंतु वह अभिन्न अद्वयज्ञान रूप शक्तियों की संपत्ति ही भगवान्‌ की भगवत्ता है। यह शक्ति एक न होकर अनेक हैं तथा अचिंतनीय है। अचिंत्यशक्ति का निवास होने के कारण वह 'लीलापुरुषोत्तम' है। इसी के कारण वह एक होते हुए भी अनेक प्रतीत होता है और भासित होने पर भी वह वस्तुत: एक है। इसीलिए वह बहुमूर्तिक होने पर भी एकमूर्तिक है।इसी शक्ति के कारण भगवान्‌ आश्रयशून्य, शरीररहित तया स्वयं अगुण होते हुए भी अपने स्वरूप के द्वारा ही इस सगुण विश्व की सृष्टि, स्थिति तथा संहार करते हैं, परंतु इन व्यापारों की सत्ता होने पर भी उनमें किसी भी प्रकार का बिकार उत्पन्न नहीं होता.)
भगवान के तीन प्रकार के रूप की चर्चा इसमें की गयी है. श्री चैतन्य चेहरे को नीचे कर के बैठे हैं, और सामने सूखे हुए तीन पत्ते गिरे हुए हैं. अर्थात ब्रह्म, परमात्मा, भगवान इत्यादि, आज हमलोगों के लिये किसी वृक्ष की डाली से टूट कर गिरे सूखे हुए पत्ते के जैसे ही हैं. किन्तु ये तीनों रूप अत्यन्त सजीव महावृक्ष से आये हैं. गीता के भाष्य में शंकराचार्य एक स्थान पर कहते हैं- 
" आजीव्यः सर्वभूतानाम ब्रह्मवृक्षः सनातनः |"
पुराणों में से मैंने कितने ही श्लोकों को लिखा है, किसी भी पुराण में ऐसा नहीं कहा गया है. किन्तु वहाँ पर एक श्लोक में यह भी लिखा है- उसी सनातन ब्रह्मवृक्ष (से सब कुछ निकला है)
दीपेनदा के भाई निताईदा सितार बजाया करते थे.' शिकागो धर्ममहासभा ' की पचहत्तर-वार्षिकी का अनुष्ठान कलकाता में केवल महामण्डल के द्वारा ही आयोजित किया गया था. एवं इसके शतवार्षिकी के अवसर पर श्रद्धानन्द पार्क में कुछ दिनों तक जो कार्यक्रम आयोजित हुआ था, उसने सबों के मन को छू लिया था.
उस दिन प्रचण्ड वर्षा हो रही थी- सामने बैठ कर बात कहने से भी अच्छी तरह से सुन पाना मुश्किल हो रहा था. और उसी के बीच निताईदा जिस तरह से सितार बजा रहे थे, उस ' सितार की  मधुरध्वनी और झंझावात की गूँज ' दोनों की जुगल-बन्दी से जो अदभुत स्वर-व्यंजना उत्पन्न हो रही थी उसका वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता.
उसी कार्यक्रम के दौरान हुई एक अन्य घटना मैं भूल नहीं पाता हूँ.एक साधारण सा दिखने वाला कोई व्यक्ति आकार पूछते हैं- " जो लोग इस कार्यक्रम के आयोजन-कर्ता हैं,उनमे से किसी व्यक्ति के साथ मैं थोड़ी बातचीत करना चाहता हूँ." वहाँ उपस्थित एक व्यक्ति ने कहा- " बोलिए, आप मुझ से कह सकते हैं." उन्होंने कहा, " मैं इस पार्क के निकट वाले सिनेमा हॉल में काम करता हूँ. अभी एक व्याख्यान चल रहा था तब मैं भी सभा-कक्ष में एक किनारे बैठ कर सुन रहा था. वक्ता कह रहे थे, किसी जगह में बहुत से लोगों की दुर्गति की बात सुनकर स्वामीजी अधीर होकर कहे थे-
'उनके त्राण कार्य में यदि पैसे का आभाव होगा तो ' बेलुड़ मठ ' बेच दूंगा|'
मैं यहीं तक सुन पाया था कि सिनेमा का बेल बज गया, उसे सुन कर मैं शो शुरू होने के पहले लोगों को उनकी सीट पर बैठाने के लिये मुझे दौड़ जाना पड़ा.अब फिर दुबारा दौड़ कर यह जानने के लिये आया हूँ कि, स्वामीजी ने उस समय कहीं मठ को बेच तो नहीं दिया था?"ऐसे मनुष्य के ह्रदय की भाषा को कौन सुनता है, कौन याद रखता है ?    
                 
Once one great sant had explained that - " Dharma " is like a vast tree, different sampradayas are like its branches, and Adhyatma is its root.

Different Acharyas that take birth from time to time are like the fruits that the tree bears when the right season comes.

Depending upon which direction a branch faces - it takes a different shape, and develops in a different size. But the essence of the tree - the seeds - remain the same and are contained inside the fruits - the Acharyas.

So, as long as we see the tree is flowering and bearing fruits, we can be assured that the tree is healthy and potent.

This thread is to collect sayings, anecdotes, life and deeds of all the great Acharyas of all the various sampradayas of all the hues and shades of Sanatan Dharma.}

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