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Wednesday, July 28, 2010

[39] " अद्वैतवाद कई बार खण्डित हुआ है.

आत्मबोधक नीतिकथा- 'भेको धावति तं च धावति फणी, सर्पं शिखी धावति ...' के अनुसार हम देखते हैं कि इस जगत में सभी प्राणी अपने अपने आहार-भोग की सामग्रियों को प्राप्त करने के पीछे  दौड़े चले जा रहे हैं। किन्तु हर प्राणी की चोटी को पकड़कर काल पीछे खड़ा है, पर उसे कोई नहीं देख रहा है! सचमुच सब कुछ कितना क्षणभंगुर है ? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ' उठो, जागो ! जीवन के प्रति तृष्णा ही माया है। जीवन को क्षण-स्थायी जानते हुए अज्ञान के इस स्वप्न से जाग उठ। मृत्यु का ग्रास बनने से पूर्व ही ज्ञान और मुक्ति पाने का प्रयास कर, और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय (अर्थात जब तक मृत्यु का भय सदा के लिये समाप्त न हो जाय) तब तक रुको मत! 
मानवजाति को पुनरुज्जीवित करने, इस मोहनिद्रा (हिप्नोटाइज्ड अवस्था) से जाग्रत करने में समर्थ वेदों-उपनिषदों आदि के जितने भी बोधवाक्य या महावाक्य हैं, उन सबको चुन-चुन कर महर्षि वेदव्यास ने हजारों वर्ष पूर्व ब्रह्म-सूत्र की रचना की है। और आचार्य शंकर ने 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर जो भाष्य लिखा है, उसे शंकर-भाष्य के नाम से जाना जाता है। और ब्रह्म-सूत्र के ऊपर आचार्य शंकर ने जो भाष्य लिखा था उसी के ऊपर अद्वैतवाद (वेदान्त-मत) प्रतिष्ठित हुआ है। ( यह आठवीं शताब्दी की बात है.)  इस अद्वैतवाद के प्रतिष्ठित होने के बाद, अष्टम शताब्दी से लेकर " श्री चैतन्य महाप्रभु *** (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) " के आविर्भूत होने तक, यह अद्वैतवाद के बाद द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि अनेक आठ-नौ प्रकार के मतवादों की सृष्टि हुई है। और इस प्रकार आठवीं शताब्दी में अद्वैतवाद प्रतिष्ठित होने से लेकर, पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री चैतन्य महाप्रभु के आविर्भूत होने तक; यह अद्वैतवाद कई बार खण्डित हुआ है। 
श्री चैतन्य महाप्रभु *** सन १४८६ में फाल्गुन पूर्णिमा (होली) के दिन बंगाल के नवद्वीप में अवतीर्ण हुए, जिसे अब मायापुर के नाम से जाना जाता है। इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। बड़े पुत्र विश्वरूप के बाद बालक विश्वंभर (चैतन्य महाप्रभु) का जन्म हुआ। प्यार से माता-पिता उसे 'निमाई' कहते। 

जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, "निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।" निमाई हंसकर कहते, "हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा भी अन्न खा लेंगे।"निमाई जितने शरारती थे, उनके बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे।विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला।
कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे। एक बार वे पूर्वबंगाल की यात्रा  में थे, इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई।  माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से दूसरा विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई।
गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वर 'पूरी' से निमाई की भेंट हुई। निमाई के बहुत जोर देने पर स्वामी ईश्वर पुरी ने उन्हें दीक्षा दे दी। वे कृष्ण-भक्ति के लिये वृन्दावन जाना चाहते थे, किन्तु  पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, "वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप (मायापुर) में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। और बुराइयों में फंसे अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।"
गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी। गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। बंगाल में उन दिनों कालीपूजा का बहुत प्रचार था। कालीपूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही अपनी कृष्ण-भक्ति का संदेश देते हुए विचरण करते थे। 
संकीर्तन में प्रायः उनकी समाधी अवस्था तथा शरीर में दिव्य और अलौकिक प्रेम के लक्षण दिखाई देने लगे. एक दिन शांतिपुर के अद्वैताचार्य ने संकीर्तन के समय भाव में निमग्न निमाई की अपने इष्ट (श्रीकृष्ण) रूप में पूजा की. उस समय के समाज में श्री अद्वैताचार्य की विशेष मान्यता थी. उसी समय से भक्त लोग निमाई को गौरांग महाप्रभु के नाम से पुकार कर अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करने लगे.   जिस प्रकार चुम्बक के आकर्षण से लोहे के टुकड़े अपने आप चले आते हैं, उसी प्रकार गौरांग महाप्रभु के दिव्य लक्षणों से आकर्षित हो विभिन्न स्थानों से भक्त वैष्णवगण आने लगे. इनके अनन्य पार्षद श्री नित्यानन्द भी आ गये. भक्त वैष्णवगण नित्यानन्द को बलराम तथा गौरांग महाप्रभु को श्री कृष्ण का अवतार मान कर उपासना करने लगे. माता शची देवी नित्यानन्द को अपने प्रथम पुत्र विश्वरूप के समान प्यार करने लगी. वे इन्हें निताई कहने लगी. भक्तगण भी इन्हें निताई अथवा नित्यानन्द के नाम से पुकारने लगे.
नित्यानंदजी और हरिदासजी ने नगर में नाम-संकीर्तन का प्रचार कार्य चालू किया. वे रास्ते में जाते हुए हर व्यक्ति के चरणों में प्रणाम कर उनसे कृष्ण नाम जप करने की भिक्षा माँगने लगे. यह कार्य सहज नहीं था. कोई व्यंग करता था तो कोई गाली-गलौज तथा उपहास करता था. कुछ इनके प्रति श्रद्धा भी प्रदर्शित करते थे.
एकदिन  वे नवद्वीप के कुख्यात दस्यु जगन्नाथ एवं माधव (जगाई-मधाई ) के पास जोर-जोर से नाम-कीर्तन करते हुए पहुँचे.  उस समय दोनों शराब के नशे में थे. क्रोध में आकार मधाई ने नित्यानंद के सिर पर प्रहार कर दिया.नित्यानन्द के सिर से खून की धारा बह निकली. चारों तरफ भीड़ जम गयी. इसी समय गौरांग महाप्रभु भी वहाँ पहुँच गये. इनको क्षमा कर दिये, और नित्यानन्दजी ने करुणावश कहा- " आज तक तुमने जो कुछ पाप किये हैं वह सब मैंने ग्रहण किया. श्री कृष्ण की कृपा से तुम्हें दुर्लभ प्रेम की प्राप्ति हो|"  तब से जगन्नाथ और माधव दोनों परम वैष्णव हो गये. इस प्रकार के ह्रदय परिवर्तन से लोगों को महाप्रभु की अलौकिक क्षमता पर विश्वास गहरा हो गया. इनके नाम पर नवद्वीप में गंगा जी का ' जगाई- माधाई घाट ' आज भी प्रसिद्ध है

किन्तु साधारण लोग निमाई के इस दिव्य भाव को उन्माद य़ा पागलपन कह कर उपहास करने लगे. निमाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात में  सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने कई मुसलमानों को भी कृष्ण-भक्त बना लिया है।
यह सुनते ही काजी आगबगूला हो गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि आज से कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा।अपने भक्तों को आश्स्वत करने के लिये निमाई पंडित मुस्काराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि- "मैं आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्त्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।"निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले।"हरिबोल! हरिबोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। 
काजी ने कहा, "मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था। मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्त्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। जब महाप्रभु ने उसे नाम कीर्तन का माहात्म्य बताया, तो वह काजी भी परम वैष्णव बन गया. उसकी समाधी आज नवद्वीप में ' काजी की समाधी ' नाम से प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों में है.
इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे नाम-यश और मानसम्मान को देखकर डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है- और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई (मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का प्रचार प्रसार) करने में में लग सकता हूं। बहुत समझाने के बाद में उनकी माँ और पत्नी के साथ सबने उनकी बात मान ली। एक दिन आधी रात के समय, विष्णुप्रिया को सोती हुई छोड़ कर अपने घर से सन्यास लेने के लिये, काटवा के प्रसिद्ध सन्त श्री केशव भारती के पास पहुँचे.  उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी। 
केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, "अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम विवाहित हो और तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।" निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, "गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम (Be and Make) नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में  नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"
[अब १४ सितंबर २०१७ के भारत की क्या अवस्था है ? " निर्भया बलात्कार -रेयान स्कूल हॉरर प्रदुम्न हत्या-आतंकवादीयों द्वारा  जेहादी हत्या, डेरा सच्चा सौदा का रामरहीम और काँची मठ के जयेन्द्र सरस्वती द्वारा व्हिसल ब्लोवर की हत्या की स्वीकारोक्ति का वीडियो टेप" ..... आदि आदि दैनन्दिन समाचारों द्वारा क्या प्रमाणित हो रहा है ? यही प्रमाणित हो रहा है कि ऋषि-मुनियों के देश में इक्का-दुक्का मठों के संन्यासियों द्वारा चरित्र-निर्माण की शिक्षा देने में समर्थ सद्गुरुओं को छोड़कर, देश के अधिकांश मठों के लोग साधु-सन्तों का वेश धारण कर के या लाल चोंगा पहनकर, टी.वी. पर या लाखों रुपया लेकर बड़े बड़े पण्डालों में आज भी 'कृष्ण-जन्म,राम-जन्म' पर ५६ प्रकार के भोगों की थाल सजाकर, ढोंगी गुरुओं की आरती करके, रासलीला कर रहे हैं, स्वयं अनैतिक कार्यों में लगे हैं। और जनता में चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार नहीं हो रहा है! क्योंकि आजादी प्राप्त करने के बाद भारत के राजनितिक नेताओं ने स्वामी विवेकानन्द के परामर्श पर कोई ध्यान नहीं दिया है। 
जबकि आज से १२१ वर्ष पूर्व   स्वामी  विवेकानन्द ने सिस्टर निवेदिता को (7th June, 1896. ) लिखे पत्र में कहा था  - "संसार के सारे धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं, आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है - चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान प्रभावकारी बना देगा। ... एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ वह यह कि अज्ञान ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल में बलिदान ही नियम था, और दुःख है कि युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों (हीरो) को और सर्वश्रष्ठों को 'बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय ' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों 'बुद्धों'  की आवश्यकता है। "]
केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, "अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।"निमाई ने कहा, "गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।"निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए।केशव भारतीजी ने गंगाजी के किनारे विरजा होम करवा कर सन्यास प्रदान किया. संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम श्री कृष्ण चैतन्य देव हो गया।
सन्यास के बाद उन्होंने जगन्नाथपूरी में रहने का निश्चय किया.राज पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित वेदान्त के अनुसार शिक्षा देने वाले प्रसिद्ध विद्वान् थे. महाप्रभु ने वेदान्त की आलोचना करते हुए भगवत-प्रेम की प्राप्ति करने को परम पुरुषार्थ एवं श्री भगवान (अवतार) को सच्चिदानंदमय प्रमाणित किया.अन्त में महाप्रभु ने सार्वभौम को अपना षट्भुज रूप दिखाया. इस घटना के बाद से सार्वभौम अपने इष्ट के रूप में महाप्रभु की पूजा करने लगे. अद्वैतवादी राज पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य की इस प्रकार की स्वीकृति से 'अद्वैतवाद' एक बार पुनः खण्डित हुआ ! श्री चैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न शास्त्रों से प्रमाणित किया कि, मनुष्य जीवन का प्रधान लक्ष्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति (ईश्वरलाभ करना है)! दो वर्ष तक विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने के बाद महाप्रभु रथ यात्रा के पहले पूरी पहुँचे. रथ के आगे संकीर्तन में महाप्रभु को मधुर प्रेमावेश में नृत्य करता देख कर  उत्कल राज प्रतापरूद्र भी सर्वदा के लिये महाप्रभु के भक्तों में सम्मिलित हो गये.
काशी सदा से शास्त्र अध्यन का केन्द्र रहा है. काशी में उस समय अद्वैतवादी सन्यासी संप्रदाय में स्वामी प्रकाशानंद सरस्वती प्रधान माने जाते थे.महाप्रभु द्वारा नाम-संकीर्तन में भावावेश में किये गये नृत्य को उन्होंने सन्यासी के आचरण के प्रतिकूल कहा. सन्यासी होते हुए भी वेदान्त का अध्यन न कर महाप्रभु केवल नाम जप और संकीर्तन करते हैं, यह कार्य उन्हें अच्छा नहीं लगा. पर श्री चैतन्य महाप्रभु ने विभिन्न शास्त्रों से प्रमाणित किया कि, मनुष्य जीवन का प्रधान लक्ष्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति ! और उसकी भगवत-प्रेम की प्राप्ति की मुख्य साधना है- " नाम जप तथा नाम-संकीर्तन " (जैसे हमलोग खण्डन भवबन्धन आदि आरात्रिक गाते हैं) ! महाप्रभु के पास से वेदान्त-सूत्र य़ा ब्रह्मसूत्र की इस प्रकार व्याख्या सुन कर प्रकाशानंद जी महाप्रभु के शिष्य बन गये. इस परिवर्तन से काशी में भी महाप्रभु का नाम स्थापित हो गया.काशी से भ्रमण करते हुए महाप्रभु नीलाचल पूरी पहुँचे. पूरी आने के बाद शेष १८ वर्ष उन्होंने वहीं बिताये.इनके अनुयायी चैतन्य को 'विष्णु का अवतार' मानते हैं। 
एक दिन नित्यानंदजी को बुलाकर चैतन्य मह्प्रभु ने कहा- " मैंने सर्वदा के लिये गृह-त्याग कर सन्यास ले लिया है.तुम भी यदि मेरी तरह अवधूत-वृत्ति से इधर-उधर भटकते रहो तो संसारी गृहस्थ लोगों का उद्धार कैसे होगा ? मेरा अनुरोध है कि तुम विवाह करो. तुम्हारे द्वारा आदर्श गृहस्थ धर्म की स्थापना हो. गृहस्थ लोग तुम्हें अपनी दो पत्नियों के साथ भी आदर्श जीवन व्यतीत करते देख कर अपना जीवन भी उसी तरह व्यतीत करेंगे. मनुष्य के कल्याण के लिये तुम्हें गृहस्थ आश्रम में रहते हुए वैष्णव धर्म का प्रचार करना पड़ेगा. "तब तक नित्यानंदजी सन्यासी के समान अवधूत रूप में रहते थे पर उन्होंने सन्यास ग्रहन नहीं किया था. महाप्रभु के निर्देश से पूरी से वापस लौट कर नित्यानंदजी ने विवाह किया. खड़दह (प.बंगाल) में उन्होंने अपना अधिक समय व्यतीत किया. ( खड़दह के प्रसिद्ध श्यामसुंदर के मन्दिर की कहानी नवनी दा पहले ही कह चुके हैं.)
पूरी में महाप्रभु गंभीरा नामक मठ में रहते थे. अपने भक्त हरिदास को प्रखर धूप में भी नाम जप मग्न देख कर छाया करने के लिये महाप्रभु ने मौलश्री (बकुल) की एक टहनी को जमीन में लगा दिया. थोड़े ही समय में उसने एक विशाल वृक्ष का आकार धारण कर लिया. आज भी पूरी में वह, ५०० वर्ष प्राचीन वृक्ष- 'सिद्ध बकुल वृक्ष ' के नाम से प्रसिद्ध है.
 उत्तर और दक्षिण भारत की धर्म और संस्कृति  की मिलनभूमि है- नीलाचल पूरी. जहाँ के दारुब्रह्म श्री जगन्नाथ जी का दर्शन एवं महाप्रसाद का सेवन करके सारे भारतवर्ष के लोग अपने को धन्य समझते हैं. इसी नीलाचल से महाप्रभु धीरे-धीरे सारे भारतवर्ष (उत्तर-दक्षिण) में प्रसिद्ध हो गये. महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। ४८ वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। 
साधारणतः वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण (लीडरशिप ट्रेनिंग) परम्परा में  दो प्रकार की गुरु-शिष्य परम्परायें प्रचलित हैं। एक है त्यागी शिष्यों के लिये त्यागी गुरु के निर्देशन में (यथा "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा") और दूसरी गृहस्थ शिष्यों के लिये गृहस्थ गुरु के निर्देशन में (गृहस्थ महात्माओं की वंश परम्परा.नित्यानन्द-जगाई-मधाई-वेदान्त परम्परा) गृहस्थ वैष्णवों की वंश परम्परा के आचार्य कुलगुरु कहलाते हैं. साधारण गृहस्थ लोग {जिनमे साधारण बोध (common sens ) कम रहता है? } इनके आदर्शों को आसानी से अनुसरण कर सकते हैं. महाप्रभु के इस प्रकार त्यागी(निमाई) और गृहस्थ (निताई) वैष्णवों  के द्वारा प्रेम-धर्म का प्रचार कार्य बहुत शीघ्रता से हुआ.

 [ठीक उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के त्यागी और गृहस्थ भक्तों के सम्मिलित प्रयास( चरित्र निर्माण कारी आन्दोलन) के माध्यम से ठाकुर के  दोनों महावाक्य -" ईश्वर ही वस्तु और सब अवस्तु है! "एवं " शिवज्ञान से जीव सेवा " -  पर आधारित नूतन प्रेमधर्म को पहले पूरे भारतवर्ष में;  फिर सम्पूर्ण पृथ्वी पर शीघ्रता से फैला देने के लिये मानव-प्रेमी स्वामी विवेकानन्द ने ठाकुर के त्यागी और गृहस्थ दोनों संतानों के लिये क्रमशः दो महावाक्य दिये| सन्यासियों के लिये-  " आत्मनोमोक्षार्थम जगत हिताय च "  एवं गृहस्थों (समाज के अभिभावकों जैसे बासूदा, उषादा, रनेनदा...आदि) के लिये -" Be and Make " " मनुष्य बनो और बनाओ! आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत में फैला देने के लिये "पूरी और काशी" में महामण्डल केन्द्र स्थापित करना होगा। विश्वरंजन सतपथी के माध्यम से पूरी में महामण्डल का केन्द्र स्थापित किया जा सकता है। उड़ीसा स्टेट ब्रांच को इंटरस्टेट कोर कमिटी से जोड़कर मजबूत करना होगा.]
वेदों में परमात्मा को सत चित आनन्द मय कहा गया है. चैतन्य महाप्रभु का अपना जीवन  ही मानो सत चित आनन्द का साकार विग्रह है. श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान के ' रसो वै सः ' स्वरुप (God is LOVE ) को अपने जीवन से प्रकाशित किया. सच्चिदानंदमय की लीला पूर्ण है. उनकी उपासना ही मनुष्य जीवन का प्रधान कर्तव्य है. ईश्वर परम करुणामय एवं मंगलमय हैं, उनका प्रेम हर जीव पर समान रूप से है, मायाबद्ध जीव का उद्धार करना ही उनका मुख्य कार्य है ! इस सहज मार्ग का प्रदर्शन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन में दर्शाया.जीव ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, आभास नहीं। चैतन्य ने जीवतत्त्व को शक्ति और कृष्ण तत्त्व को शक्तिमान कहा है। भक्ति के द्वारा जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जगत ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उसके अधीन होने के कारण अभिन्न है। जगत 'भ्रम' नहीं अपितु 'सत्य' है। ज्योंहि माया ग्रस्त जीव माया के बन्धन से छूटने का उपक्रम करता है, त्यौंहि भगवान भी उस पर अपनी कृपा न्यौछावर कर देते हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने ' रागानुगा भजन ' भजन की पद्धति का प्रचार किया. उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा और न किसी ' विशिष्ट मतवाद ' पर आधारित मन्दिर आदि की स्थापना की. अपने उपदेशों को उन्होंने आठ श्लोकों में वर्णित किया है जो " शिक्षा-अष्टक" श्लोक के नाम से प्रसिद्ध है. 

{चाहे सन्यासी हो अथवा शूद्र य़ा ब्राह्मण, जिन्होंने श्री कृष्ण प्रेम की प्राप्ति की हो- (सिया-राममय जगत में मनुष्य को ही अपना इष्ट समझता है) - वही गुरु (नेता) हो सकता है. इसी कारण मुसलमान कुल में पालित होने पर भी ' हरिदासजी ' नामजप से जगत्पूज्य हो गये. प्रभु श्रीरामकृष्ण अपने दिव्य प्रेम से वे भक्तों को १००० माइल से भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं. भगवान की लीला मधुरतम है. उनकी लीला में विरह और मिलन दोनों सत्य हैं. शब्द और मन के द्वारा इसका वर्णन और इसकी धारणा करना असम्भव है. विश्वासपूर्वक सब समय नाम स्मरण एवं संकीर्तन से भक्तगण उनकी कृपा अनुभव कर सकते हैं. इस परम तत्व को उन्होंने " अचिन्त्य- भेदाभेद " नाम से कहा है. सच्चिदानंदमय की लीला पूर्ण है. उनकी उपासना ही मनुष्य जीवन का प्रधान कर्तव्य है. इस सहज मार्ग का प्रदर्शन श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन में दर्शाया. ( श्री श्री विजयकृष्ण भक्त संघ पोस्ट -रघुनाथपुर, जिला- पुरुलिया, पश्चिम बंगाल पिन कोड- ७२३१३३ द्वारा प्रकाशित पुस्तक साधना पथ नामक पुस्तक के अंश से साभार लिया गया ) कल ही से चैतन्य महाप्रभु के " अचिन्त्य-भेदाभेद वाद " पर चर्चा हुई और आज (२५-७-२०१० को) हावड़ा स्टेसन के सर्वोदय बुकस्टाल में प्रो. रामसिंह तोमर,हिन्दी भवन, विश्भारती, शान्तिनिकेतन द्वारा लिखित पुस्तक मेरे हाथ में कैसे आ गयी ?) विश्वास पूर्वक सब समय नाम स्मरण एवं संकीर्तन की जगह केवल महामण्डल का कार्य करने से भक्तगण ठाकुर की कृपा का अनुभव कर सकते हैं.इस परम तत्व को उन्होंने " अचिन्त्य- भेदाभेद " नाम से कहा है.सच्चिदानंदमय भगवान की लीला " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " का युवा प्रशिक्षण शिविर पूर्ण -साधना पथ है.स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर  महामण्डल के युवा- शिविर में भागलेने से भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव की कृपा दृष्टि युवा शिविरार्थी भाइयों पर अवश्य पड़ती है, और वे चरित्र-निर्माण के पथ पर अग्रसर हो जाते हैं. इस सत्य को हम-आप अपने व्यक्तिगत जीवन में आये परिवर्तन को देख कर समझ सकते हैं.} 
श्री चैतन्य के अनुसार 'भगवान के साथ मनुष्य का नित्य सम्बन्ध है. जीव ईश्वर का नित्य दास है.' साधक नामस्मरण (गुरु-प्रदत्त मन्त्र का स्मरण), विग्रह सेवा (T की छवि -मानकर मनुष्य मात्र की पूजा- अर्थात 'शिवज्ञान से जीवसेवा' ) मन में ठाकुर-माँ -स्वामीजी की लीला के स्मरण-मनन से साधक ' मनुष्य ' बन कर - " ब्रह्म अवलोक धिषनम पुरुषं विधाय मुदमाप देवः " का अर्थ जान लेने के बाद वह-दिव्यप्रेम या भक्ति मार्गी धर्म का अधिकारी (नेता) बनने के बाद " giver will kneel down and pray and receiver will stand-up and permit " का मर्म वह अपने अनुभव से जान लेता है, तब वह अपने को (T-के प्रतिमूर्ति में गढ़े किन्तु मायाबद्ध मनुष्यों ) का नित्य दास मानने लगता है. और श्री ठाकुर के प्रणाम-मंत्र द्वारा चरित्र-निर्माण की शिक्षा का प्रशिक्षण देने में सक्षम एक लोक-शिक्षक बन जाता है। 
चैतन्य महाप्रभु ने 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' का प्रवर्तन किया, भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। अचिन्त्य का अर्थ है-वह शक्ति जो असम्भव को भी सम्भव बना दे अथवा अभेद में भी भेद का दर्शन करवा दे, अचिन्त्य कहलाती है। चैतन्य के अनुसार अचिन्त्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक है। भगवान की लीला मधुरतम है. उनकी लीला में विरह और मिलन दोनों सत्य हैं. शब्द और मन के द्वारा इसका वर्णन और इसकी धारणा करना असम्भव है. विश्वासपूर्वक सब समय नाम स्मरण एवं संकीर्तन से भक्तगण उनकी कृपा अनुभव कर सकते हैं. कितना अपूर्व भाव है, भेद और अभेद - ये दोनों अचिन्त्य हैं. इस परम तत्व को उनके शिष्यगण " अचिन्त्य- भेदाभेद " नाम से प्रचार करते हैं. श्रीचैतन्य महाप्रभु ने स्वयं पुस्तक लिख कर किसी वाद की रचना नहीं की है। किन्तु उनके इस अचिन्त-भेदाभेद से भी शंकर का अद्वैतवाद एक पुनः खण्डित हुआ है। फिर उसकी पुनर्प्रतिष्ठा भी हुई है। इसी प्रकार हम समझ सकते हैं कि से सप्तम शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक, यह अद्वैतवाद कई-कई बार खण्डित होकर पुनः पुनः प्रतिष्ठित होता आया है !
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