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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

[40] 'अद्वैत-सिद्धि '

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के बाद, १६ वीं शताब्दी में बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में एक अन्य महापुरुष का जन्म में हुआ था। उनका नाम श्री मधुसूदन सरस्वती (१५४०-१६४२ ) था, उन्होंने 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ की रचना की थी। फरीदपुर जिले के कूषनिया नामक एक छोटे से ग्राम में उनका जन्म हुआ था. किन्तु उनके जन्म-मृत्यु इत्यादि के सम्बन्ध में कोई बहुत निर्भरयोग्य ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त करना बहुत कठिन है. किन्तु साधारण तौर पर यह ज्ञात होता है कि इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था. एवं उनकी आयू भी असाधारण रूप से लम्बी थी. यह बहुत प्रमाणिक न होने पर भी कम से कम १०२ वर्ष की आयू तक जीवित थे. रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास आपके समसामयिक ही नहीं घनिष्ट मित्रों में थे. सरस्वतीजी का शहंशाह अकबर के वित्त मंत्री  श्री टोडरमल के साथ भी मधुर सम्बन्ध था.अकबर का राज्यकाल सन १५५६ से १६०७ तक माना जाता है. अबुल्फज्ल ने १५९८ में आईने अकबरी लिखा था. उसमें उस समय के जिन प्रसिद्द विद्वानों के नामों का उल्लेख हुआ है, उसमें श्री मधुसूदन सरस्वती का भी नाम अंकित है। 
और ये मधुसूदन सरस्वती स्वयं बड़े विद्वान् थे,किन्तु उन्हें शास्‍त्रार्थ करने की धुन थी। उन दिनों बंगाल का नदिया जिला शाश्त्र-चर्चा के लिये भारत भर में विख्यात था. सम्पूर्ण भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों से, विद्वान् लोग वहाँ शास्त्र-अध्यन के लिये आया करते थे। उनके पास भी भारत के विभिन्न प्रान्तों से कई विद्वान् लोग विद्या अर्जन करने के लिये आये थे। यही बात हम परमहंस श्रीरामकृष्ण देव के जीवन में देख सकते हैं.[ यही बात हमलोग बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे पूज्य नवनीहरन मुखोपाध्याय (१५ अगस्त १९३१- २६ सितम्बर २०१६) के जीवन (८५ वर्ष, १महीना ११ दिन के जीवन) में  भी देख सकते हैं- उनके पास भी स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत 'भारत पुनर्निर्माण विद्या' Be and Make- ग्रहण करने के लिये -सम्पूर्ण भारतवर्ष के युवा लोग आते रहे हैं।] 
उन्होंने ने नदिया जाकर, दर्शनशास्त्र के विभिन्न आयामों का गहराई से अध्यन किया था। जिसके फलस्वरूप उनके मन में यह विचार उठा कि, अब मुझे शास्त्र के आधार पर अद्वैतवाद का खण्डन करना चाहिये। और इस बार मैं इस अद्वैत ' मतवाद ' का इस प्रकार खण्डन करूँगा कि फिर वह कभी सिर उठा ही नहीं पायेगा. इसी दृढ-संकल्प को मन में रख कर वे काशी पहुँचे। वहाँ पहुँच कर, नौका से उतरते ही उन्होंने इस बात सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर ली इस समय वहाँ पर दर्शन-शास्त्र के किन-किन विषयों को पढ़ाने में पारंगत विद्वान् कौन-कौन हैं ?
खोजबीन करने के बाद एक व्यक्ति को उन्होंने चुन लिया, फिर उनके पास जाकर विद्या-अध्यन करने लगे। बहुत समय तक अध्यन करने के बाद भी, जब उनसे कोई संतोषजनक ज्ञान नहीं मिला, तब उन्होंने एकबार पुनः अपना गुरु बदल लिया। इसबार अद्वैत-वेदान्ती पण्डित विश्वनाथ सरस्वती के पास विद्या-अर्जन के लिये गये। उनके पास जाकर उन्होंने अद्वैत वेदान्त का अध्यन तो प्रारम्भ किया, किन्तु उनका वास्तविक उद्देश्य था,अद्वैत वेदान्त के सूत्रों को ठीक से जानकर, बाद में उसीके आधार पर उसका खण्डन कर दूंगा। एक दिन विश्वनाथ सरस्वती ने कहा," मैं थोड़ा तीर्थ-भ्रमण पर निकल रहा हूँ, तीर्थ से लौट कर आने के बाद तुमको पढ़ाना आरम्भ करूँगा. इसी बीच क्या तूम एक कार्य कर सकोगे ? मधुसूदन सरस्वती बोले आप आज्ञा दीजिये गुरुदेव। 
" तो मैं चाहता हूँ कि तूम तबतक गीता के ऊपर कुछ लिखो.मैं लौटकर जब आऊंगा तब तुम्हारे द्वारा की गयी गीता की व्याख्या को एक बार देखने के बाद तुमको वेदान्त -सूत्रों को पढ़ाना प्रारम्भ करूँगा! " उनके प्रस्थान के बाद मधुसूदन सरस्वती ने गीता के ऊपर अपनी प्रसिद्द ‘गूढार्थदीपिका’ नामक टीका लिख डाली.
 {कैसे लिख डाली ? मेरे पूछने पर पूज्य नवनी दा ने कहा था - 'गीता की भाषा इतनी सरल है कि, थोड़ा-बहुत संस्कृत समझने वाला व्यक्ति भी अपनी समझ के अनुसार उसकी व्याख्या कर सकता है।'  मधुसूदन सरस्वती द्वारा बंगला भाषा में रचित अद्वैत-सिद्धि मेरे अपने घर के लाइब्रेरी में है, इसके अलावा और भी कई बहुमूल्य पुस्तकें हैं जो नष्ट होने के कगार पर हैं, किसको दूँ, पढने का भूख किसको है? तुम मेरे घर नहीं गये हो? क्या मुझे अपनी पुस्तकें मुझे देंगे ? पूछ कर जाऊंगा! किन्तु उनके घर मैं उनके शरीर में रहते हुए कभी जा न सका। दादा माँ सारदा का नाम लेने से भी सेंटीमेंटल हो जाते थे - " किन्तु क्या करूँ, कोई स्वामी विवेकानन्द का एक अनपढ़ ब्राह्मण गुरु है, जो अपने मुख से स्वयं के ब्रह्म का अवतार होने की घोषणा करता है, और उनकी एक अनपढ़ पत्नी श्री माँ सारदा देवी है, जो कहती है, 'संसार में कोई पराया नहीं, सभी अपने हैं; सब को अपना बनाना सीखो',और स्वामी विवेकानन्द जैसा महाविद्वान तो उन्हें 'अवतार-वरीष्ठ' कहता है, उसी हरि ने बल पूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।"  dada said to me on 24th July 2010 , a day before guru -purnima तुम टेलीफ़ोन पर मुझसे बात करते रहना - on 25th July 2010 मैं पूज्य दादा के घर जाकर बंगला भाषा में मधुसूदन सरस्वती द्वारा लिखित 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ तो नहीं देख सका। किन्तु Bh की सहायता से कॉलेज स्ट्रीट के किसी पुस्तक भण्डार से हिन्दी भाषा में स्वामी योगीन्द्रानन्द कृत ' अद्वैत्सिद्धि ' की हिन्दी व्याख्या, चौखम्बा विद्दयाभवन, वाराणसी से प्रकाशित ग्रन्थ प्राप्त हो गया है।}
जब वे लौट कर आये और उनके द्वारा गीता पर लिखी गयी टीका को देखा तो बहुत संतुष्ट हुए, आनन्द व्यक्त करते हुए कहा-" वाह, तुम मेरे छात्र बनने के योग्य हो !" फिर वे उनको अद्वैत-वेदान्त पढ़ाने लगे. पढ़ते पढ़ते मधुसूदन सरस्वती की अवस्था ऐसी हो गयी कि, अपने शिक्षक से एक दिन अपने दिल की बात उजागर करते हुए बोले-" गुरुदेव, आमि एकटा महा अपराध करेछि !"(-गुरुदेव, मैंने एक भारी अपराध किया है.) 
" कैसा अपराध ? " 
" यही कि, मैंने आपसे झूठ कहा था, मैं यहाँ अद्वैत को स्थापित करने के लिये नहीं आया हूँ, उसका खण्डन करने के उद्देश्य से ही आया हूँ. "तो जो हो बात आयी-गयी हो गयी. खण्डन तो खैर नहीं हुआ, बल्कि मधुसूदन को ही ' अद्वैत-सिद्धि ' हो गयी! मधुसूदन द्वारा रचित ' अद्वैत-सिद्धि ' का अध्यन किये बिना ' अद्वैत ' में सिद्धि प्राप्त कर लेना कठिन है! 
मधुसूदन को बादशाह अकबर के राज-दरबार में दो बार आमन्त्रित किया गया था. उनके विद्वतापूर्ण उक्तियों को सुनकर अकबर की राजसभा के हिन्दू-मुसलमान विद्वतमण्डली मूग्ध रह गये हैं. अकबर ने अपने विद्वान् पण्डितों को आदेश दिया कि, मधुसूदन के प्रति संस्कृत भाषा में सम्मान व्यक्त किया जाय. उनलोगों ने जिस श्लोक को उनके सम्मान में रचा वह भी बड़ा अद्भुत श्लोक है - 
" मधुसूदनसरस्वत्याः पारम् वेत्ति सरस्वती |
    पारम् वेत्ति सरस्वत्याः मधुसूदनसरस्वती ||"
- अर्थात केवल विद्या की देवी सरस्वती ही मधुसूदन सरस्वती के ज्ञान की सीमा (diameter) को जानती हैं, और मधुसूदन सरस्वती ही देवी सरस्वती के ज्ञान की सीमाओं को जानते हैं। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में ठाकुर के साथ वार्तालाप करते हुए एक प्रसंग आया था- 


" अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि देवतम |
       प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शीनः || "

- ब्राह्मणों के देवता अग्नि हैं, मुनियों के देवता ह्रदय में हैं, स्वल्प बुद्धि रखने वाले जो लोग हैं उनके लिये प्रतिमा ही देवता है| समदर्शी बन जाने वालों के लिये सर्वत्र देवता हैं. किन्तु हमलोगों के पास यह बोध तो है नहीं ! इसीलिये हमलोगों के लिये धर्म का अर्थ केवल मन्दिर, मस्जिद, गिर्जा में जाना भर रह गया है !
एक बार स्वामी अभेदानन्द जी अपने भाषण में एक वृद्धा द्वारा ईश्वर से प्रार्थना करने की कहानी सुना रहे थे- " एक वृद्धा नियमित रूप से चर्च जाया करतीं थीं, वहाँ पर दिये गये प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनती थीं. एकदिन उन्होंने सुना कि, प्रार्थना करने से सब इच्छाएँ पूर्ण हो जातीं हैं. वे जिस कमरे में रहती थीं, उसकी खिड़की से एक पहाड़ दिखायी देता था. उनकी खिड़की का निचला कपाट तो अक्सर बन्द रहता था, ऊपर वाले खुले कपाट से वे सामने का दृश्य देखतीं थीं. 
कई खिडकियों में इसी प्रकार के पल्ले लगे होते हैं. वे उस खिड़की से पहाड़ की ओर देखते देखते सोचने लगीं- आज ही तो उपदेशक से सुनी हूँ. जरा उसकी परीक्षा करके देखूं तो कि, सचमुच प्रार्थना करने से वह पूरी होती है य़ा नहीं !
वे वहीं जमीन पर बैठ जातीं हैं, वहाँ से तो अब पहाड़ नहीं दिख रहा था. खिड़की का निचला कपाट बन्द था. वे आँखें बन्द करके कह रही हैं, " हे ईश्वर, हे ईश्वर, इस पहाड़ को वहाँ से हटा दो | " बहुत  प्रार्थना कर रही हैं. बहुत देर तक प्रार्थना करने के बाद जब आस्ते आस्ते खड़ी हो रही हैं, मन में सोंच रही हैं, होगा क्या? होगा क्या ? प्रार्थना तो कर दी हूँ, पूरी होगी? जब खड़ी हुयीं और आँखों को खोला तो देखा कि, पहाड़ जिस जगह था, वहीं पर है |
हमलोग भी इसी प्रकार, आधे-अधूरे मन से प्रार्थना करते हैं; हमलोग प्रार्थना करना भी नहीं जानते हैं. कहा गया है कि, सही ढंग से कि गयी प्रार्थना फलवती होती है. किन्तु प्रार्थना करते समय वह प्रार्थना भीतर से निकलनी चाहिये.उस प्रार्थना को यदि बाहर से माथा में घुसाया जाय, तो वह प्रार्थना ' प्रार्थना ' नहीं कही जाएगी. प्रार्थना भीतर से निकलेगी, ह्रदय से उत्सारित होगी ! ह्रदय से प्रार्थना किस प्रकार  उत्सारित होती है? 
हमलोग प्रार्थना करेंगे- ' अमुक ' व्यक्ति का दुःख दूर हो ! किन्तु प्रार्थना करते समय उस ' अमुक ' व्यक्ति के लिये मन में संवेदना न हो, उसका दुःख भी यदि अपने ही दुःख के जैसा अनुभव नहीं होता हो, तो वह प्रार्थना भीतर से (ह्रदय से) उत्सारित नहीं होगी. इस प्रकार से यदि परीक्षा कर के देखा जाय तो, पायेंगे कि हमारी अनेकों प्रार्थनाएँ मंजूर हुई हैं, नहीं होतीं ऐसा नहीं है. 
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 (मैं पूज्य दादा के घर जाकर बंगला भाषा में मधुसूदन सरस्वती द्वारा लिखित 'अद्वैतसिद्धि' ग्रन्थ तो नहीं देख सका। किन्तु Bh की सहायता से कॉलेज स्ट्रीट के किसी पुस्तक भण्डार से हिन्दी भाषा में स्वामी योगीन्द्रानन्द कृत ' अद्वैत्सिद्धि ' की हिन्दी व्याख्या, चौखम्बा विद्दयाभवन, वाराणसी से प्रकाशित ग्रन्थ प्राप्त हो गया है। उस ग्रन्थ का बहुत संक्षिप्त सारांश यहाँ प्रस्तुत है :  
 तत्व-जिज्ञाषु पुरुष के साथ शास्त्र-चर्चा को ' वाद ' कहते हैं, विजयाभिलाषी व्यक्ति के साथ होने वाली कथा को ' जल्प 'और अपने पक्ष की स्थापना से हिन् कथा को ' वितण्डा ' कहते हैं. वादी और प्रतिवादी को जब अपनी अपनी कोटि का निश्चय हो तब पत्येक वादी 'निश्चयवान -अस्मि' -इस प्रकार का अभिनय करता हुआ वादविवाद में प्रवृत्त होता है.
मधुसूदन सरस्‍वती को शास्‍त्रार्थ करने की धुन थी। काशी के बड़े-बड़े विद्वानों को ये अपनी प्रतिभा के बल से हरा देते थे। परंतु जिसे श्रीकृष्‍ण अपनाना चाहते हों, उसे माया का यह थोथा प्रलोभन-जाल कब तक उलझाये रख सकता है। एक दिन एक वृद्ध दिगम्‍बर परमहंस ने उनसे कहा- "मधुसूदन जी ! वेदान्त सिद्धान्‍त की बात करते समय तो आप अपने को असंग, निर्लिप्‍त ब्रह्म कहते हैं; पर सच बताइये, क्‍या विद्वानों को जीतकर आपके मन में गर्व नहीं होता? यदि आप पराजित हो जायँ, तब भी क्‍या ऐसे ही प्रसन्‍न रह सकेंगे? ग्रन्‍थों की विद्या और बुद्धि के बल से किसी ने इस माया के दुस्‍तर जाल को पार नहीं किया है। प्रतिष्‍ठा तो देह की होती है और देह नश्‍वर है। यश तथा मान-बड़ाई की इच्‍छा भी एक प्रकार का शरीर का मोह ही है। तुम श्रीकृष्‍ण की शरण लो। उपासना करके हृदय से इस गर्व के मैल को दूर कर दो। दयालु संत ने श्रीकृष्ण मंत्र देकर उपासना तथा ध्‍यान की विधि बतायी और चले गये। प्रसन्‍न होकर एक दिन श्रीश्‍यामसुन्‍दर ने इन्‍हें दर्शन दिये। 
मधुसूदन सरस्वती कहते हैं- "यह ठीक है कि अद्वैत ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले मुमुक्षु मेरी उपासना करते हैं; यह भी ठीक है कि आत्‍मतत्त्व का ज्ञान प्राप्‍त करके मैं स्‍वाराज्‍य के सिंहासन पर आरूढ़ हो चुका हूँ; किंतु क्‍या करूँ, एक कोई गोपकुमारियों का प्रेमी शठ है, उसी हरि ने बलपूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।" (साभार krishnakosh.org) 
" किन्तु क्या करूँ, कोई स्वामी विवेकानन्द का एक अनपढ़ गुरु है, जो अपने मुख से स्वयं के ब्रह्म का अवतार होने की घोषणा करता है, और स्वामी विवेकानन्द जैसा महाविद्वान तो उन्हें 'अवतार-वरीष्ठ' कहता है, उसी हरि ने बल पूर्वक मुझे अपना दास बना लिया है।   
" तस्मात वृथा रोदिषि मन्दबुद्धे- तव भ्रमादेव हि दुःखमेतत "   
हे मन्दप्रज्ञ ! द्वैतदर्शी ! तू व्यर्थ ही द्वैत के मोह में फंस कर रो रहा है, तेरी ही भूल के कारण यह दुःख दावाग्नि धधक उठी है. द्वैतवादी रूपी ' ग्राम-सिंहों ' (कुत्तों ) के भौंकने से अद्वैत रूपी सिंह कभी उनका अनुकरण नहीं किया करता.
" द्वितीयाद्वै भयं भवति ; तस्मादेकाकी बिभेति " बृह ०१.४.२/ १.४.३
द्वीतीय मात्र के दर्शन से भय होने लगता है, अतः अतत्वज्ञ व्यक्ति अकेला डरता है. 
' एको देवः सर्वभूतेषु गूढः ' श्वेता ० ६.११ / 
सभी चेतनों (जीवों ) में गूढ़ (व्याप्त ) एक अंतर्यामी हैं. अंतर्यामी को भोक्ता नहीं माना जाता, अतः उसके द्वारा अधिष्ठित शरीर भी उसका भोगायतन नहीं कहला सकता. दृष्टि-सृष्टिवाद में सभी शरीर एक ही मन से युक्त माने जाते हैं, और स्वप्न के समान सभी व्यवस्था की उपपत्ति हो जाती है. 
' मामेवाअंशो जीवलोके ' गी ० १५.७ 
 ' त्वं स्त्री त्वं पुमांसी त्वं कुमार उत वा कुमारी,
 त्वं जीर्णो दण्डेन गच्छसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः "
' त्रैकालिक निषेध ' काल में वस्तु का त्रैकालिक आभाव नहीं माना जाता. प्रपंच में ख-पुष्पआदि के समान असत्य हो जाता है. वादीगणों के निश्चय वान होने पर संशय का उत्पाद नहीं होता. 
' शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ' यो० सु० १/९ ' 
ज्ञान अपने आकार को छोड़ कर कहीं भी प्रवृत्त नहीं होता.  जैसे ज्ञान और आनन्द का अभेद होने पर भी दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व माना जाता है, किसी एक का भी परिलोप नहीं होता, वैसे ही यहाँ ' गुण और गुणी' का अभेद होने पर भी दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है. - क्योंकि सुख-दुःख आदि अन्तःकरण  के धर्म होते हैं, आत्मा के नहीं. ब्र० सू० २,१.६/ 
अन्यथा आनन्द और स्फुरण (ज्ञान) इन दोनों में से एक- स्फुरण का लोप हो जाने पर मोक्ष को पुरुषार्थ नहीं कहा जायेगा, क्योंकि अज्ञात या अस्फुरित सुख में किसी को अभिलाषा नहीं होती. ज्ञान और आनन्द दोनों अत्यंत अभिन्न होते हैं. ' दुःख-ज्ञान अनित्य वृत्ति रूप और आनन्द नित्य चिन्मात्र रूप माना जाता है.' 
यदि जगत का कोई मूल सत-वस्तु है, तब उसकी उपलब्धी क्यों नहीं होती ? उत्तर-विद्यमान वस्तु भी कभी उपलब्ध नहीं होती. जैसे उदक में विलीन लवण उपलब्ध नहीं होता, साधन-विशेष ( घोल को खौलाने) से जल को सुखा देने पर लवण की उपलब्धी होती है.
 ' आचार्यवान पुरुषो वेद ' छां ० ६.१४.२ ' 
में गांधार देश और पथिक पुरुष का दृष्टान्त में है- जैसे गांधार जैसे सुदूर देश का पथिक लोगों से पूछ पूछ कर अपना गंतव्य पा लेता है, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता से कोई आचार्यवान (आचार्य का अन्तेवासी ) अधिकारी पुरुष नहीं होगा तो, आचार्य सेवा से वंचित व्यक्ति आत्मा को ही कर्ता-भोक्ता मानता हुआ विविध दुःख भोगता है.

 किन्तु आचार्यवान पुरुष चौर्य-कर्म रहित व्यक्ति के समान परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सदा के लिए कारागार से छुटकारा पा कर मुक्त हो जाता है. जैसे समुद्र में नदियों के भेद की प्रतीति नहीं होती, वैसे ही ब्रह्म में जीवों का भरद भाव नहीं होता. वैसे ही गुरु-निर्दिष्ट पद्धति से मनःसंयोग करने पर जगत के मूल-तत्व की उपलब्धी हो जाती है. 
स्वामी विवेकानन्द के जैसे पार्श्वस्थ व्यक्ति या आत्मस्थ व्यक्ति  व्यक्ति द्वारा ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' ऐसा वाक्य सुनते ही मोहनिद्रा में सोया व्यक्ति वाक्य और वाक्यार्थ का सम्बंध जाने बिना भी जाग जाता है. यहाँ यह सभी जानते हैं कि जाग्रत के समान सुषुप्ति अवस्था में शब्द और अर्थ की समझ नहीं होती. इसीलिए 
'उत्तिष्ठत जाग्रत ' का तात्पर्य-बोध किसी किसी विरले विशिष्ठ पुरुष को ही होता है, सभी को नहीं. इस विशिष्टता का कारण है- अन्तःकरण (चित्त ) की अशुद्धि (पाप-युक्तता ) ज्ञान की प्रतिबन्धक मानी जाती है. (७५३-९११)
 अंतःकरण (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार ) एक ऐसी स्थूल उपाधि है, जिसके रहने पर जीव-भेद बना रहता है. सुषुप्ति में अंतःकरण का विलय हो जाने पर भेद की प्रतीति नहीं होती. क्योंकि जैसे स्वर्ण ही कुण्डल हो जाता है, वैसे ही समुद्र ही नदी बन जाता है. समुद्र जैसा का तैसा है, नदियाँ समुद्र से निकल कर उसमें ही स्म जाती हैं. ' जल से उत्पन्न फेन बुद-बुद आदि जल में विलीन होकर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु जीव प्रतिदिन स्वरूप में विलीन होकर भी नष्ट क्यों नहीं होता? जीव का अधिष्ठान शरीर जीवित रहता है, जीव के निकल जाने पर मर जाता है, किन्तु जीव नहीं मरता. ज्ञान न होने के कारण अविद्वान संसार में पुनः आता है, पर विद्वान् को पुनः आना नहीं पड़ता.
' तमेवैकं जानथ आत्मानम ' मु० २.२.५/ ' अहं हरिः सर्वम इदम जनार्दनः ' जब जीव ब्रह्म रूप ही है, तब वह ब्रह्मरूपता को कैसे प्राप्त करेगा ? कंठ गत स्वर्ण माला में जैसे किसी को विस्मरण के कारण अप्रप्तता का भ्रम हो जाता है- भ्रम की निवृत्ति होते ही प्राप्त मालूम होता है. ' परमं साम्य्मुपैती ' मु० ३.१.३ 
' आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासितव्यः' बृह ० २.४.६
  सभी कार्यों में मूलभूत तीन जिज्ञाषाएं होती हैं- किं कार्यम ? केन कार्यम ? कथं कार्यम ? किं कार्यम का उत्तर है- आत्मा द्रष्टव्यः (साक्षात् कर्तव्यः ). केन कार्यम ? का उत्तर है- आत्मा श्रोतव्यः (श्रवणेन साक्षात् कर्तव्यः ), कथं कार्यम ? का उत्तर है- मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः मनन और निदिध्यासन। उद्दमन-निपातन रूप क्रिया की सहायता से कुल्हाड़ी काष्ठ-छेदन कर्ता है, वहां कुठार को करण और उठाना-गिराना आदि क्रिया को सहायक व्यापर मात्र कहते है. 
वैसे ही वेदान्त वाक्यों के मनन माने विचार रूपी श्रवण में शब्द या नाम विषयक ज्ञान को करण इतिकर्तव्य कहा जाता है. जिस कार्य की सहायता से करण में कार्य निष्पादन की क्षमता आ जाती है, उसी व्यापर को इतिकर्तव्य कहा जाता है. जिस प्रक्रिया से शब्द-शक्ति रूप तात्पर्य की अवधारणा हो जाती है- उसे 
'विचार' कहते हैं. मनन और निदिध्यासन के द्वारा एकाग्र किये चित्त में ही श्रवण के द्वारा आत्मसाक्षात्कार उत्पन्न होता है. अयुक्तिपूर्ण शंका के रहने पर चित्त विविध कोटियों में बंटा विक्षिप्त-सा रहता है, उस शंका के निवृत्त हो जाने पर शास्वत सत्य-स्वरूप की युक्तिपूर्ण अवधारणा हो जाने पर चित्त समाहित-सा होता दीखता है. 
' ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ' मु० ३.१.३ 
' ततस्तु तं पश्यते ' ततः माने गुरुमुख से श्रवण करके - ' द्रष्टव्यः श्रोतव्यः '. अर्थात तत श्रवण आदि ध्यायमानः निष्कलं ब्रह्म पश्यति ' अतः श्रवण में ही साक्षात्कार की कारणता सिद्ध होती है. शुद्ध शाश्वत-चैतन्य को निर्विशेष आत्मा कहते हैं, एवं अहंकार आदि उपाधि से विशिष्ट को सविशेष-आत्मा कहते हैं. दोनों आत्माओं का तादात्म्य दूर करने के लिए गुरुमुख से नाम-श्रवण जरुरी होता है. सविशेष और निर्विशेष दो स्वथाओं में अनुस्यूत आत्मा को वेदान्त वाक्यों के श्रवण द्वारा आत्मबोध करना होता है. 
 ' श्रोतव्यः श्रुतिवाकेभ्यः ' 
ऐसा स्मृतियों में भी कहा गया है. श्रवण की विधि को ही जिज्ञाषा सूत्र- ' अथातो ब्रह्म जिज्ञाषा ' का मूल श्रोत माना जाता है. ' स्वाध्यायो अध्येतव्यः ' से प्रेरणा पाकर ही पुरुष स्वामी विवेकानन्द को पढने में प्रवृत्त होता है.   'तव्य' प्रत्यय का प्रयोग कर्तव्यता का प्रतिपादक नहीं है, बल्कि आत्मा की महिमा का वैसे ही प्रतिपादक है, जैसे- ' अहो दर्शनीयो अयं महात्मा ' ' उद्दालकः तत्त्वमसीतिवाक्येन श्वेतकेतुं बोधयति'श्वेतकेतु को अपने पिता उद्दालक के उपदेश से आत्म-साक्षात्कार हुआ था.  
तब फिर ' तत्त्वं भविष्यसि ' न कहकर आचार्य ' तत्त्वं असी ' क्यों कहते हैं ? ' यो वै भूमा, तत सुखम ' छां ७.२३.१/ ' स आत्मा तत्वमसि '-छां० ६.८.७. ' परकीय ब्रह्म का अपने में अभिमान करनेवाला व्यक्ति ही स्तेन (चोर ) कहा जा सकता है, अपने में विद्यमान ब्रह्मत्व का अज्ञानी स्तेन नहीं कहला सकता. सुषुप्ति में जीव स्वरूपभूत ब्रह्म से अभिन्न रहता है.   ' श्रुतिशिखोत्थेति ' जैसे दीप-शिखा की प्रकाशन-क्षमता में तैल-वर्ती-पात्र का पूर्ण सहयोग होता है, वैसे ही 'तत्वमसि ' इत्यादि महावाक्यों की स्वार्थ-प्रकाशन-क्षमता में कर्म, उपासना और ज्ञान योग की उपकारिता निश्चित है, क्योंकि निष्काम-कर्म के अनुष्ठान से अन्तःकरण शुद्ध होता है, शुद्ध अन्तःकरण में अहैतुकी भक्ति उत्पन्न होने से एकाग्रता आती है, और एकाग्र अन्तःकरण में " तत्वं " पदार्थ-परिशोधन पूर्वक श्रुत महावाक्यों   द्वारा वह ज्ञान ज्योति उदय होती है जो समूल द्वैत ध्वान्त को सदा के लिए समाप्त कर डालती है.
जीवन्मुक्ति काल में मुक्ति होती है या विदेह मुक्ति में ?
 समस्त द्वैत-विरोधिनी वृत्ति अंतिम होती है, उसके पश्चात् और कुछ भी नहीं होता. उस वृत्ति के लिए-
 ' पश्चात् सा कुत्र गता ? ऐसा प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जब कोई काल ही नहीं रहता, तब वहां न पश्चात् कः सकते हैं न कुत्र. तत्वज्ञान के द्वारा जिस पुरुष की अविद्या नष्ट हो जाती है, उसको भी अविद्या के कार्यभूत देहादी का प्रतिभास होता रहता है, वह पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है. 
अविद्या का नाश होने पर शरीर तुरंत नहीं छूट जाता, जैसे रज्जू-सर्प भ्रम के निवृत्त हो जाने पर भी भ्रम का कार्यभूत भय-कम्प आदि कुछ समय तक बने रहते हैं. दण्ड को चाक पर से हटा देने पर भी वेग-संज्ञक संस्कार के बल पर चाक कुछ देर तक अपने आप घूमता रहता है. वैसे ही लशुन-भाण्ड में से लशुन के निकाल लेने पर भी भाण्ड में लशुन की वास बनी रहती है. उसी तरह अज्ञान का नाश हो जाने पर जीवन्मुक्त का शरीर वर्षों तक बना रह सकता है.

' विद्वान् नामरूपाद विमुक्तः ' मु० ३.२.८ 
प्रारब्ध कर्म का उपभोग हो जाने के बाद समस्त शक्तियों से समन्वित माया की निवृत्ति हो जाती है. जीवन मुक्त तत्ववेत्ता के विदेह कैवल्य में उतना ही विलम्ब ,जब तक प्रारब्धकर्म का क्षय नहीं होता.
' यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, 
                   तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम. ' मु० ३.२.१३  
प्रारब्ध कर्म का क्षय उपभोग से ही होता है, ईश्वर कृपा से नहीं. ' एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म ' छां ० ६.२.१ 
' ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशै: ' श्वेता ० ४.१६ 
द्वैत- मिथ्यात्व का निश्चय हो जाने पर ही अद्वैत सिद्धि होती है. अद्वैत निश्चय तभी होगा जब उससे पहले ' नेह नानास्ति किञ्चन ' बृह ० ४.४.१९ का अर्थ होता है- ' इह ब्रह्म भिन्नं किञ्चित नास्ति ' महावाक्य जन्य अद्वैत सिद्धि के पहले द्वैत में मिथ्यात्व सम्पन्न हो जाता है.  अस्ति में वर्तमानार्थक ' लट ' प्रत्यय प्रयुक्त है. ' प्रपंचो मिथ्या दृश्यवत ' यह निश्चित है कि अद्वैत निश्चय द्वैत-मिथ्यात्व निश्चय पूर्वक ही होता है.  जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है छाया नहीं. मोक्ष में तो अन्तःकरण का आभाव हो जाता है अतः गति और मुक्ति में महान अंतर है. जीव के अन्तःकरण में ज्ञान शक्ति (बुद्धि ) और क्रिया शक्ति (प्राण ) है. मन उत्क्रमण कर गया अनमनस्क आत्मा इसी शरीर में खता-पिता रहा. 
' तदा विद्वान् नामरूपाद विमुक्तः ' मु० ३.२.८ 
केतकी (क्योड़ा ) का अमन्द गंध चारों ओर मिलती है. पर उसका पुष्प नष्ट नहीं होता. जो शरीर  जिसके अदृष्ट से जनित है, वह उसका भोगायतन होता है. ईश्वर के अदृष्ट से कोई शरीर नहीं बना, अतः कोई भी शरीर उसका भोगायतन नहीं हो सकता.


  ' अत्र ब्रह्म समश्नुते ' कठ० ६.१४ 
इसी लोक में ब्रह्मज्ञानी को ब्रह्म का सायुज्य प्राप्त होता है. मुक्त पुरुष का आनन्द सभी कामों (सुखों ) का भी काम (सुख) है. 
' भक्तिः सिद्धे: गरीयसी ' श्रीमद्भाग० ३.२५.३३ 
अर्थात भक्ति ज्ञान से भी श्रेष्ठ है, यह कहना वैसा ही है जैसे राम से कौशल्या को श्रेष्ठ क़ह दिया जाता है. भक्ति ज्ञान की जनक है, अतः उसका पद ज्ञान से अधिक माना गया है.गीता ० १३.२५ /९.३२ में अन्य तत्ववेत्ता पुरुषों से सुनकर जो व्यक्ति मेरी (ठाकुर की) उपासना करते हैं, ऐसे श्रवण परायण व्यक्ति भी मृत्यु को जीत लेते हैं, स्त्री-वैश्य-सूद्र आदि मन्द अधिकारी भी भक्ति के द्वारा मुक्त हो जाते हैं.
ब्रह्म तत्वतः जीव से भिन्न है या नहीं ? जैसे बाल्य और युवा अवस्था के शरीरों का भेद हो जाने पर भी अंतःकरण का भेद नहीं होता, वैसे ही जातिस्मर व्यक्तियों के शरीरों का भेद होने पर भी अंतःकरण का भेद नहीं होता, उनके सभी शरीरों का नियन्त्रण एक ही अंतःकरण द्वारा होता है. प्रत्येक दिन सुषुप्ति में मन (अंतःकरण ) विलय हो जाता है, वस्तुतः उसका न तो विनाश होता है, और न नूतन अन्तःकरण का निर्माण. चरम वृत्ति के द्वारा जो अज्ञान नष्ट होता है, उसे ही जीव-विभाजक माना जाता है. बिम्बगत कम्पन मूलतः जलरूप उपाधि का प्रतीत होता है, बिम्ब पर उसका आरोप नहीं हो सकता, ऐसे ही जीव में भोक्तृत्व उसके उपाधिभूत अंतःकरण की देन है, बिम्ब भूत ब्रह्म पर उसका आरोप संभव नहीं.
' बहु स्याम प्रजायेय ' छां ६.२.३ 
इतना संकल्प मात्र होता है, और वह ' सच्च त्यच्चाभवत ' तै० उ० २.६ क्योंकि वह अनंत शक्ति-सम्पन्न है. ' ज्ञानं नित्यं क्रिया नित्या बलं नित्यं परमात्मनः ' एवं ' एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य ' बृह ० ४.४.३३/  ' स एष नेति नेति ' बृह ० ३.९.२६ /   भेद बोधक वेदांत वाक्य -' द्वा सुपर्णा ' श्वेता ४.६ / ' तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ' गी० १५.१७/  
' शतमपि अन्धानां न पश्यति ' -सैकड़ो अन्धे मिल कर भी क्या देख लेंगे ? 
 यह वाक्य बुद्धि और जीव का बोधक माना गया है, जीव और ब्रह्म के भेद का बोधक नहीं है. नाम (शब्द या ॐ ) तत्व तो ब्रह्म का एक विकार ( विवर्त ) मात्र है, ब्रह्म के अधिष्ठानभूत नाम (ॐ ) में ' ब्रह्म ' शब्द गौण रूप से प्रयुक्त हुआ है, किन्तु ब्रह्म अविकारी है, जगत का एकमात्र कारण (अधिष्ठान ) है, तथा मुमुक्षुओं के द्वारा ज्ञेय है. 
' तद विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीराः ' मुं २.२.७ / ' सत्यस्य सत्यं ' बृह ० २.३.६/ प्रतिमा, मूर्ति आदि में भी देवता तत्व-बुद्धि से ही फल देता है, न कि देवता की तादात्म्य-बुद्धि से- इसीलिए जिस सच्चे कर्मी की शव रूपी (कफ-वात-पित्त ) त्रैधातुक शरीर में आत्मबुद्धि, स्तर-पुत्र आदि में स्वियत्व-बुद्धि (मेरा है !)   पार्थिव मृन्मय मूर्ति आदि में आराध्य-बुद्धि तथा जल में तीर्थ-बुद्धि कभी नहीं होती, अभिज्ञ पुरुषों में वही श्रेष्ठ माना जाता है. 
' देवात्मशक्तिं स्वगुणेर्निगुढाम ' श्वेता ० १/३ , ' दैवी ही एषा गुणमयी ' गी० ७.१४,  ' विज्ञानमानंदम ब्रह्म ' बृह ० ३.९२.८ - ' आनन्द ' तत्व दृश्य नहीं है, बल्कि दृक (चैतन्य) से अभिन्न है. ' यत्साक्षाद अपरोक्षाद ब्रह्म ' बृह ० ३.४.१- जगत का साक्षात् द्रष्टा ब्रह्म है, तथा साक्षी वह है जो प्रत्यक्ष का नाश न हो सकने के कारण मन को दौड़ता हुआ देख रहा है. इसीलिए अविद्या एवं अविद्या के कार्य इन दोनों में से किसी एक दर्पण में प्रतिफलित चैतन्य को साक्षी कहा जाता है. दृक रूप चैतन्य तत्व स्वतः द्रष्टा नहीं, बल्कि जिस उपाधि के माध्यम से द्रष्टा बना करता है, उसके नाश से जनित संस्कार - काल स्मरण का निर्माण किया करते हैं. शुद्ध ब्रह्म तथा जीव से भिन्न चैतन्य को साक्षी माना जाता है.
 अविद्या वृत्ति में प्रतिफलित चैतन्य को साक्षी माना जाता है, सुषुप्ति में भी अविद्यावृत्ति मानी जाती है. क्योंकि अविद्या का संग करके भी ब्रह्म परिणामी नहीं होता, किन्तु विवर्तित होता है. ' जगत का उपादान कारण माया, निमित्त कारण-ईश्वर, शुद्ध ब्रह्म अधिष्ठान होता है.' ' जन्माद्द्यस्य यतः ' ब्र.सू.१.१.३ क्योंकि भ्रान्ति का अभिज्ञ पुरुष भ्रान्त नहीं कहलाता. 
' तदेक्षत बहु स्याम ' छां ६.२.३
 एक सद ब्रह्म ही असद्रूप जगत का उपादान कारण है. ' यथा उर्णभिः सृजते गृहन्ते च ' बृह ० २.१.२० - उर्णाभि (मकड़ी ) में भी तन्तु  या जाले की उत्पत्ति और प्रलय देखे जाते हैं. किन्तु उर्णाभि पद (नाम-रूप) का वाच्य उसका शरीर नहीं होता, बल्कि शरीर से भिन्न चैतन्य होता है, जोकि तंतु के प्रति वैसे ही निमित्त कारण मात्र होता है, जैसे कि पुत्र के प्रति पिता. मकड़ी का विनाश हो जाने पर भी जाला जैसे-का तैसा बना रहता है.  
' नित्यानित्यवस्तु-विवेक: अद्वैत मत में माया को ' अघटित-घटना-पटीयसी ' कहते है. अर्थात माया के लिए कुछ असम्भव नहीं, वह परस्पर-अपेक्षी पदार्थों का भी इन्द्रजाल के समान उपपादन कर देगी. मिथ्याभूत  इन्द्रजाल के रूप में कार्य-कारण भाव की व्यवस्था का उलंघन करने वाले ऐसे चमत्कार देखे जाते हैं, जो अन्यत्र सत्य व्यव्हार में नहीं देखे जाते, फिर भी उन्हें मिथ्या मानना ही उचित है. 
' न स पुनरावर्तते ' छां.८.१५.१ 
ब्रह्मलोकस्थ जीवों के मुक्त हो जाने के बाद ही महासृष्टि प्रवृत्त होती है/ ' पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमं साम्यमपैति ' मु० ३.१.३ ' ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ' मु० ३.२.९/ शरीरोपाधिक जीव और अन्तर्यामी का जो भेद माना गया है, वह केवल अविद्या कल्पित अतात्विक मात्र है, तात्विक नहीं. जीव की अल्पज्ञता अनित्य होने के कारण भविष्य में जब कभी नष्ट होगी, तब वह इश्वर से अभिन्न होगा-अतः आचार्य को कहना चाहिए था-अथर्व ० १.४.२० प्रतिबिम्ब भी एक प्रकार की ' छाया ' ही है ? जहाँ प्रकाश का अवरोध होता है, वहां ही छाया होती है, प्रतिबिम्ब तो प्रकाश-देश में भी अनुभूत होता है, अतः उसे छायात्मक नहीं माना जा सकता.
Towards the end of his life, when he returned to Navadvip from Benares, he was given a reception for his monotheistic philosophy. He died in Mayapuri while meditating.}
' तरति शोकम आत्मवित ' छां ० १.७.३

 ज्ञान ज्योति जगाने का श्रेय जिस निराकार-निष्ठा को प्राप्त है, वह साकार(श्रीरामकृष्ण देव)-निष्ठा के उर्वरक धरातल पर ही अंकुरित हुई है.
' एको  नारायण आसीत न ब्रह्मा न च शंकरः ' 
- महाप्रलय के समय केवल नारायण (विष्णु ) थे का तात्पर्य नारायणीय शरीर नहीं, भगवान विष्णु अखण्डमायोपाधिक ' ब्रह्म ' हैं, महाप्रलय में केवल उन्हीं की सत्ता कही गयी है, शरीर की नहीं. 

सर्वान गुरून सततमेव नमामि भक्त्या । 
विद्याप्रद  एवं दीक्षाप्रद अपने समस्त गुरुजनों को सदैव भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ. चिर काल से श्री मण्डन मिश्र की ब्रह्मसिद्धि, श्री सुरेश्वराचार्य की नैष्कर्म सिद्धि, श्री विमुक्तात्मा की इष्टसिद्धि नामसे तीन सिद्धि-ग्रन्थ ही प्रचलित थे, अब यह अद्वैत-सिद्धि नाम का चौथा सिद्धि ग्रन्थ बन गया है. उनकी अन्य प्रसिद्द पुस्तक है 'भक्ति रसायन।' यह भक्ति सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ है। अद्वैतवाद के प्रमुख स्तम्भ होते हुए भी वे उच्च कोटि के कृष्णभक्त थे, यह इस रचना से सिद्ध है। 

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