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शनिवार, 12 दिसंबर 2009

" नेतृत्व की अवधारणा तथा इसके गुण" (The Concept of Leadership and its Qualities )


लेखक
 श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय 
अध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल :
(प्रथम हिन्दी संस्करण दिसम्बर १९९१ : द्वितीय हिन्दी संस्करण सितम्बर २००९. )
प्रकाशक का मन्तव्य :-
किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिये कुशल नेतृत्व का होना अति आवश्यक है।  परन्तु सामान्यतः हमलोगों के मन में ' नेता ' या ' योग्य नेतृत्व ' के बारे में कोई स्पष्ट धारणा नहीं होती,  इस विषय पर हिन्दी में कोई पुस्तक अन्यत्र ढूंढ़ पाना लगभग मुश्किल ही है।  हाल ही में इस विषय पर एक पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई है, किन्तु उसमें केवल कुछ अमेरिकी राष्ट्रपतियों की जीवनी तथा उपलब्धियों का ही वर्णन है।  भारत में ' चुनाव कैसे जीतें ' जैसे विषयों पर पुस्तकें उपलब्ध हैं। 
किन्तु समाज को समुचित मार्ग-दर्शन देने के लिये किस प्रकार के नेताओं की आवश्यकता होती है , अथवा किसी रचनात्मक आन्दोलन को लक्ष्य तक ले जाने वाले नेताओं में कौन-कौन से गुण होने चाहिये, या देश की नयी पीढ़ी को राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने के लिये अनुप्रेरित करने में समर्थ नेताओं में कौन-कौन से चारित्रिक गुण होने चाहिये-  इन महत्वपूर्ण प्रश्नों के ऊपर हम कभी गंभीरता से विचार करने की चेष्टा भी नहीं करते। 
महामण्डल द्वारा आयोजित होने वाले युवा प्रशिक्षण शिविरों तथा इसकी मासिक संवाद पत्रिका ' vivek-jivan ' में इन्हीं प्रश्नों के ऊपर जो विवेचनाएँ होती रहती हैं, यह पुस्तक उन्हीं विवेचनाओं पर आधारित है | आशा की जाती है यह पुस्तक महामण्डल के उन कर्मियों के लिये प्रेरणा-श्रोत का कार्य करेगी जो इस
'चरित्र-निर्माण कारी आन्दोलन' को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के लिये कृत-संकल्प हैं; साथ ही साथ उन लोगों के लिये भी लाभ दायक सिद्ध होगा जो जीवन के किसी भी क्षेत्र में रचनात्मक एवं सफल नेतृत्व देने की इच्छा रखते हैं। 

1.' नेतृत्व की अवधारणा तथा उसका उदगम '
(The Concept of Leadership )
* विभिन्नता ही सृष्टि का आधार : 
वर्तमान समय में  ' नेता ' शब्द इतना बदनाम हो गया है कि इसे सुनने मात्र से ही हमारे भीतर एलर्जी उत्पन्न हो जाती है।  किन्तु हमे इस शब्द को केवल गलत अर्थों में न लेकर इसके यथार्थ मर्म को भी समझने की चेष्टा करनी चाहिये।   आइये, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि नेतृत्व किसे कहते हैं, क्यों और कहाँ हमें एक  नेता की आवश्यकता महसूस होती है ? तथा सच्चे नेता होते कैसे हैं ?
हमलोग यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक ही उपादान से निर्मित हुए हैं, परन्तु गुण और सामर्थ्य की दृष्टि से सभी मनुष्य बिल्कुल एक समान कभी नहीं हो सकते | फिर भी हम सभी के मन में हर दृष्टि से एक समान बन जाने की इच्छा अवश्य विद्यमान रहती है।  किन्तु यह भी एक सच्चाई है कि नैसर्गिक रूप से सभी मनुष्य हर दृष्टि बिल्कुल एक समान ( या एक दूसरे की बिल्कुल कार्बन कॉपी ) कभी नहीं  हो सकते |
इस सृष्टि में विविधताएँ रहती ही हैं, क्योंकि  विभिन्नता ही सृष्टि का आधार है।  सृष्ट जगत का तात्पर्य ही है विविधताओं से परिपूर्ण जगत,  विविधताओं से रहित कोई भी सृजन नहीं हो सकता | हमलोगों की पुरातन संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार, या हमारे अपने प्राचीन ऋषि-मुनियों के तत्त्व-ज्ञान के अनुसार- सृष्टि का मूल उपादान केवल एक ही है, और उसी मूल उपादान से यह सारी सृष्टि अस्तित्व में आयी है | 
 'एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति '
इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि प्रारंभ होने से पूर्व इसके उपादान तत्त्व सन्तुलन में थे तथा बिल्कुल साम्यावस्था थी | उस ' अवस्था ' में  - जब ' एकमेवाद्वितीय ' (ब्रह्म) को छोड़ कर दूसरी कोई वस्तु थी ही नहीं, तब नैसर्गिक रूप से सभी एक समान थे | किन्तु जैसे ही उस आद्य सन्तुलन ( या चित्त की साम्यावस्था ) में विक्षोभ उत्पन्न हुआ, कि सृष्टि का विस्तार होने लगा | ' चैतन्यात्  सर्वं उत्पन्नम ' 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जात-पाँत की ही बात लीजिये | संस्कृत में ' जाति ' शब्द का अर्थ है-वर्ग या श्रेणी -विशेष | यह (जाति-गत असमानताएँ ) सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है | विचित्रता अर्थात जाति का अर्थ ही  सृष्टि है | एको अहम् बहुस्याम - ' मैं एक हूँ -अनेक हो जाऊं ', विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पायी जाती है | सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि वैविध्य शुरू हुआ | अतः यदि यह विविधता समाप्त हो जाय, तो सृष्टि का ही लोप हो जायगा |...हमारा जातीय प्रासाद अभी अधुरा ही है, इसीलिये अभी सब कुछ भद्दा दिख रहा है | सदियों के अत्याचार के कारण हमें प्रासाद- निर्माण का कार्य छोड़ देना पड़ा था | अब निर्माण- कार्य पूरा कर लीजिये, बस, सब कुछ अपनी अपनी जगह पर सजा हुआ सुन्दर दिखायी देगा | यही मेरी समस्त कार्य- योजना है | " ( ३ : ३६६-६८)
इसीलिये सृष्टि विस्तार की किसी भी अवस्था या पड़ाव में, असमानता और विशिष्टता का होना अनिवार्य है; यह एक ऐसा बुनियादी आधारतत्व है, जिसको हम चाह कर भी टाल नहीं सकते |अतेव, इस बात को हमें बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा तथा स्वीकार भी करना होगा कि इस जगत में सृष्ट मनुष्यों के बीच गुणों के आधार पर असमानता और वैशिष्ट्य रहेगा ही |  किन्तु सतही तौर पर दिखाई देने वाले असमानताओं  की अवहेलना कर हमें सार्विक समानता और वैश्विक सन्तुलन के समीप पहुँचने का प्रयास करना चाहिये | (नेता के) जीवन का यही उद्देश्य है |
यही वह लक्ष्य है जिसको प्राप्त करने की दिशा में असमानता  से परिपूर्ण इस जगत को अवश्य अग्रसर रहना चाहिये | यही वह मौलिक अवधारणा है, जिसकी बुनियाद पर आत्म-विकास, सामाजिक-कल्याण या सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की दिशा में हमारे समस्त प्रयास चलने चाहिये |हमारी सारी योजनायें, सारी कार्य-प्रणालियाँ इसी तात्विक सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिये |गुण-वैशिष्ट में असमानताओं के अनिवार्य रूप से विद्यमान रहने के कारण ही समाज के मनुष्यों की अवस्था में, उनके चेहरे- मोहरे में, उनकी अभिरुचियों में, उनके सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में असंख्य विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं|
*सच्चा नेतृत्व अनिवार्य रूप से कब और कैसे स्वतः उभर कर सामने आ जाता है ? अतेव शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक सामर्थ्य  एवं  योग्यता की दृष्टि से मनुष्यों के बीच अगणित असमानताओं का रहना स्वाभाविक है |  किन्तु, हमलोग यदि यथार्थ नेतृत्व प्रदान करना चाहते हों -  तो जगत में विद्यमान  असमानताओं तथा विभेदों को स्वीकार करते हुए भी, सर्वप्रथम हमें अपनी अन्तः शक्तियों ( Potentialities) और क्षमताओं ( Capabilities ) आदि को समाज में  प्रगति, विकास, पूर्णता, समानता और साम्यावस्था, के बीच के अन्तर को कम करने की दिशा में नियोजित करना  होगा | 
इस साम्यावस्था को प्राप्त  करने के लिये हमें बहुत गहराई से चिन्तन कर के पहले उस प्रस्थान-बिन्दु को ढूँढ़ निकलना होगा कि समाज के किस स्तर पर रहने वाले मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिये हमें सर्वप्रथम अपनी अन्तः शक्तियों और क्षमताओं का व्यवहार करना चाहिये ?
इस विषय पर चिन्तन करने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि - जो लोग अभिज्ञता, सहानुभूति, और विवेक की दृष्टि से बिल्कुल न्यूनतम स्तर या सामान्य स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की अपेक्षा साधारणतः थोड़े उच्चतर स्तर पर हैं वैसे लोग ही समाज के उनलोगों को ऊपर उठा सकते हैं जो बुद्धि, समझदारी, योग्यता, प्रतिभा, गुणों आदि की दृष्टि से उनकी अपेक्षा अभी न्यूनतम सोपान पर खड़े हैं | और ठीक इसी जगह पर नेतृत्व की क्षमता स्वतः ही उभर कर सामने आ जाति है |
सृष्टि या समाज में विद्यमान असमानता को स्वीकार करने के बाद भी, समता,साम्यावस्था, प्रगति, पूर्णता की प्राप्ति के लिये कुछ न कुछ प्रयास हमलोग अवश्य कर सकते हैं | इसी कारण हमलोगों को  नेतृत्व की अनिवार्यता तथा सच्चे नेतृत्व के विषय को बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझने की चेष्टा करनी चाहिये | धैर्यपूर्वक यह समझने का प्रयास करना चाहिये कि सच्चा नेतृत्व अनिवार्य रूप से कब और कैसे स्वतः उभर कर सामने आ जाता है ?
हमलोग आसानी से यह समझ सकते हैं कि,  असमानताओं से परिपूर्ण इस जगत में वैसे कुछ व्यक्ति जो नैसर्गिक रूप से विशेष गुणवान हैं, जो प्रतिभा और योग्यता की दृष्टि से समाज में न्यूनतर स्तर पर खड़े मनुष्यों की अपेक्षा अधिक सामर्थ्यवान हैं, वे चाह लें तो अपने इन विशिष्ट गुणों का प्रयोग कर  उन्हें भी उच्चतर स्तर तक उठाने का प्रयास कर सकते हैं, जो अभी बुद्धि, समझ, क्षमता की दृष्टि से उनकी अपेक्षा निचले सोपान पर खड़े हैं | और सच्चे नेतृत्व का उदगम स्थान या आरम्भ बिन्दु यही है
कुछ लोगों में विद्यमान इस असाधारण सामर्थ्य  का उपयोग हमलोग ( नेतृत्व करने के लिये अनुप्रेरित कर के या युवा प्रशक्षण शिविर में प्रशिक्षित करके ) सदैव उनके हित के लिये कर सकते हैं, जो थोड़े से न्यूनतर स्तर पर खड़े हैं | न्यूनतर सोपानों पर खड़े मनुष्यों को, उच्चतर प्रतिभा संपन्न मनुष्य सदैव ऊपर उठने में सहायता दे कर उन्हें भी  प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करा दे सकते हैं |  नेतृत्व की अवधारणा का यही सार तत्त्व है !
*LOVE और 'नेता' (LEADER = गुरु या मार्गदर्शक) मूर्तमान प्रेम या निःस्वार्थपरता / तथा ('नेतागिरी, गुरुगिरी = मूर्तमान स्वार्थपरता,धूर्तता एवं भ्र्ष्टाचार) के बीच के अन्तर का मूल : 
यहाँ हमलोग इस तत्व ज्ञान को सिखने का प्रयास करेंगे तथा  नेतृत्व  के इस अभिनव विचार-धारा को केवल  मानव समाज के साधारण या सार्वलौकिक विकास में ही न करके, हमारे अपने समाज में, हमारे अपने देश में, भारत में - कम से कम समाज उस  प्रबुद्ध वर्ग तक - प्रसारित करने का प्रयास करेंगे, जिनको मानव जाति के सर्वश्रेष्ठ नेताओं में से एक स्वामी विवेकनद के पूर्णता प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करा देने के लिये मानव विकास, मानवीय प्रगति सम्बन्धी शिक्षाओं से अनुप्रेरित किया जा सकता हो |
 नेता कौन हैं ? कौन सा व्यक्ति नेता बन सकता है ? वर्तमान काल में यह शब्द बहुत सार्वजनिक हो चुका है | इस शब्द का प्रयोग हम बड़े ही सामान्य ढंग से, बिना कुछ सोंच-विचार किये जिस-तिस के लिये कर देते हैं फलस्वरूप यह शब्द गाली जैसा बन गया है | इसीलिये कुछ लोग इस विचार को नापसन्द भी  कर सकते हैं | वे स्वयं को नेता कहलवाने से शायद  यह सोच कर डर जाते हैं कि,  कहीं उसके चरित्र को भी लेकर कोई भ्रम में तो नहीं पड़ जाएगा | क्योंकि  इन दिनों हमारे समाज में केवल राजनीती के क्षेत्र के नेताओं को ही ' नेता ' समझा जाता हैं |
किन्तु इसी कारण वश हमलोग सच्चे मार्ग-दर्शक नेता को भी अनावश्यक मान कर, बिना किसी प्रकाश-स्तम्भ (Light -House) के ही -  अज्ञान-अविद्या के अन्धकार में सत्य को टटोलते नहीं रह सकते| मानव जाति के सच्चे नेता पहले भी थे और आज भी अवश्य रहने चाहिये |हमलोगों को अपने मन से कुछ शब्दों ( जैसे नेतागिरी, गुरुगिरी आदि) से जुड़े महान सिद्धांतों के भ्रमात्मक  लक्ष्यार्थों को निकाल बाहर करना होगा, तथा उनके  यथातथ्य लक्ष्यार्थों को सीख कर अपने जीवन में उतार लेना होगा |
युगों-युगों से, मानव जाति के सच्चे नेता रहे हैं, जिन्होंने स्वयं आगे बढ़ कर  मनुष्य समाज का पथ-प्रदर्शन करने, उन्हें प्रगति के मार्ग पर आरूढ़ करा देने के यथार्थ महान कार्य को सम्पादित किया है |  ये नेता थे- श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध देव, ईसा मसीह, मोहम्मद, चैतन्य, श्री रामकृष्ण परमहंस,' युगनायक स्वामी विवेकानन्द ' तथा उन्ही के तुल्य दूसरे लोग |
इस प्रकार, जब हमलोग ' नेतागिरी करने '  और  ' नेतृत्व प्रदान करने ' के बीच के अन्तर को समझने के लिये  नेतृत्व के ऊपर चर्चा करना चाहें तो ' leader ' या  ' leadership ' शब्द को हमें अंग्रेजी वर्णाक्षर में लिखने के लिये capital ' L' से शुरुआत करना होगा |अंग्रेजी भाषा में ' L' शब्द से प्रारंभ होने वाले जितने भी सुन्दर सब्द हैं, उन सबों में LOVE से बढ़कर सुन्दर और दूसरा कोई शब्द नहीं है |  एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार-बार यह अनुरोध किया जा रहा था की आप अपने गुरु, अपने प्रियतम, अपने  नेता, अपने सर्वस्व - श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में कुछ कहिये, जिनके चरणों में आपने अपना जीवन समर्पित कर दिया है |
  किन्तु उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी को संकोच हो रहा था, उनके सम्बन्ध में कहने के लिये वे एक भी उपयुक्त शब्द ढूंढ नहीं पा रहे थे, इसीलिये वे दुविधा में थे | उन्होंने ने कहा मैं  उनके बारे में कुछ भी नहीं कह पाउँगा | स्वामी विवेकानन्द  इस जगत के अनेक विषयों पर व्याख्यान दे सकते थे, अनेक ग्रन्थ लिख सकते थे, किन्तु अपने जीवन सर्वस्व के ऊपर एक भी शब्द उच्चारण करने से यह सोंच कर डर रहे थे कि जो कुछ ' वे ' वास्तव में थे, उनके शब्द कहीं ' उन्हें ' छोटा तो नहीं बना देंगे ?
वे तो इतने महान हैं ! इतने विशाल हैं ! भला समुद्र के तुल्य अगाध और अन्तरिक्ष के जैसा उनके  अनन्त असीम विस्तार को शब्दों में कैसे व्यक्त किया जा सकता है ? स्वामी विवेकानन्द उस सीमाहीन विस्तार को मापने में तथा उनके ह्रदय की विशालता को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे | किन्तु, जब कुछ कहने के लिये बार- बार  अनुरोध  किया जाने लगा तो, उन्होंने श्री रामकृष्ण के सम्पूर्ण अद्भुत व्यक्तित्व का निचोड़  केवल एक शब्द में देते हुए कहा-- ' LOVE ' ! ' श्री रामकृष्ण प्रेम हैं ' !   
 कोई भी नेता सच्चा नेता तभी बन सकता है जब उसके ह्रदय में भी उसी प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, एक छोटा सा टुकड़ा भी अवश्य विद्यमान हो | जिन  मनुष्यों  के हृदय में प्रेम की यह छोटी सी चिगारी भी विद्यमान नहीं है, वे ( नेतागिरी या गुरुगिरी तो कर सकते हैं किन्तु ) कभी सच्चे नेता नहीं बन सकते | वे कभी किसी व्यक्ति को उन्नति, पूर्णत्व-प्राप्ति या पशु मानव से देव मानव में रूपांतरित होने की शिक्षा देने में ' समर्थ नेता ' नहीं बन सकते | 
अतः नेतृत्व के सम्बन्ध में इस नयी समझ, इस नूतन सिद्धान्त के आलोक में  हमलोगों को अपने ह्रदय में इसी सर्वग्रासी प्रेम की अग्नि को प्रज्ज्वलित करने के लिये निरन्तर प्रयासरत रहना चाहिये | बुद्ध देव, ईसा मसीह, मोहम्मद, नानक, श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि केवल एक प्रेम की ही विविध अभिव्यक्तियाँ थे | उन विभिन नाम-रूपों के माध्यम से केवल प्रेम ही मूर्तमान हुआ था | वे सभी प्रेम-स्वरूप थे !
क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या हम उस प्रेम के एक छोटे से अंश को भी अपने ह्रदय में नहीं धारण  कर सकते ? क्या हमलोग अपने आस- पास रहने वाले लोगों से प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें  इस अनित्य दुखपूर्ण संसार के कष्ट, दारिद्र्य, और विवशता के दलदल से ऊपर नहीं उठा सकते ? हाँ, हमलोग कर सकते हैं, और यह अवश्य करना चाहिये |हमलोगों को मानव जाती का सच्चा नेता  अवश्य बनना चाहिये |

(महामण्डल के अध्यक्ष पूज्य नवनीदा ४९ वें वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर -२०१६ में )

( ऋषित्व की प्राप्ति करके- पूज्य नवनीदा के जैसा अहंकार रहित नेता बन जाने के बाद हमलोग भी कितनी विनम्रता का अनुभव करेंगे ! इसी प्रकार के ( अहंकार-रहित ) हजारों नेताओं की हमें आवशयकता है |  अभी हम कितना कंगाल, कितना अभावग्रस्त,  कितना क्षुद्र हैं ! यदि हम पहले स्वयं महान बन कर दूसरों को भी महान बनाना चाहते हों तो सर्वप्रथम हमें अपने गुणों, तथा क्षमताओं को विकसित करना होगा | तथा इस कार्य में सफल होने के लिये, अपने आस-पास रहने वाले सहकर्मियों की भी इन गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करने में इस प्रकार सहायता करनी होगी - ताकि वे भी खुद को महान बना कर, दूसरों को भी महान बनाने वाले सच्चे नेता की भूमिका निभा सकें |
नेतृत्व के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त अभिज्ञता को प्राप्त करके क्या हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि नेतृत्व का यह अभिनव सिद्धान्त अपने आप में श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण है | सचमुच वे लोग नेता थे और- अब हम भी वैसा नेता बनना चाहते हैं ! हमने यह देखा है कि इस विषयाश्रित जगत ( Objective World ) में असमानताएँ रहतीं ही हैं |
[* नेता कोटि नरेन्द्रनाथ जैसे ईश्वर श्रेणी- का नेता, जो निर्विकल्प में पहुँचकर ऋषित्व प्राप्ति के बाद प्रेम के कारण अपने नेता (ठाकुर-नवनीदा ) की आज्ञा सुन कर निर्विकल्प समाधि का भी त्याग करें और बटवृक्ष जैसा नेता बनें  तेजस्वी युवाओं का ६०० नोबल लाइट ब्रिगेड के निर्माण का संकल्प ]
 इस वस्तु-स्थिति को स्वीकार करते हुए, यदि हम वैसे कुछ श्रेष्ठ प्रतिभा संपन्न लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के  प्रशिक्षित कर सकें जो इन सिद्धांतों को सुन कर आत्मसात कर लेने में सक्षम हों, तो समाज के दूसरे लोगों कि सहायता करने में वे एक अग्रणी नेता कि भूमिका निभा सकते हैं | श्री रामकृष्ण प्रतिपादित, तथा स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रसारित - ' नेता बनो और बनाओ ' का यह अभिनव सिद्धान्त आज भी क्रियाशील है ! 
शरीर में रहते समय ही स्वामी विवेकानन्द ने  भविष्यवाणी करते हुए घोषणा की थी -" प्रभु की आज्ञा  है कि  ' भारत कि उन्नति ' अवश्य होगी और साधारण तथा गरीब लोगों को सुखी करना होगा | अपने आप को धन्य मानो कि प्रभु के हाथों में तुम निर्वाचित यन्त्र हो | आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है |
निर्बाध, निःसीम, सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर आवर्तित होता देख रहा हूँ | - साधारण व्यक्ति महान बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पंडितों के आचार्य बन जायेंगे- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत-- " उठो, जागो और जब तक लक्ष्य तक न पहुँच जाओ, न रुको | "  ... तरंगें ऊँची उठ चुकी हैं, उस प्रचण्ड जलोच्छास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा | इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढँक लिया है, अब इसे कोई रोक नहीं सकता ! कोई भी शक्ति इन तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में धकेल नहीं सकती | यह ज्वार आगे बढ़ते हुये समौर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा, ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे, सम्पूर्ण मानवता इन विचारों से प्रभावित हो जायगी |  शिक्षित युवकों को प्रभावित करो, उन्हें एकत्रित करो और संघबद्ध करो |....तेजस्वी युवकों का दल गठन करो और अपनी उत्साह की अग्नि उनमे प्रज्ज्वलित कर दो ! और क्रमशः इसकी परिधि का विस्तार करते हुये संघ का विस्तार करते रहो  | बड़े बड़े काम केवल बड़े बड़े स्वार्थ त्यागों से ही हो सकते हैं | ..जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब है, आलसी है, उसके लिये नरक में भी जगह नहीं है |

जीवों के लिये जिसमे इतनी करुणा  है कि वह खुद उनके लिये नरक में भी जाने को तैयार रहता है - उनके लिये कुछ कसर उठा नहीं रखता, वही श्री रामकृष्ण का पुत्र है, - इतरे कृपणाः - दूसरे तो हीन बुद्धि वाले हैं | जो इस आध्यात्मिक जागृति के संधिस्थल पर कमर कस कर खड़ा हो जायगा, गाँव गाँव, घर घर उनका संवाद देता फिरेगा, वही मेरा भाई है - वही ' उनका ' पुत्र है | यही कसौटी है - जो रामकृष्ण के पुत्र हैं, वे अपना भला नहीं चाहते, वे प्राण निकाल जाने पर भी दूसरों की भलाई चाहते हैं | जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपनी जिद के सामने सबका सर झुका हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे कोई नहीं |..नाम के लिये समय नहीं है, न यश के लिये, न मुक्ति के लिये, न भक्ति के लिये समय है ; इनके बारे में फिर कभी देखा जायगा | अभी इस जन्म में ' उनके ' महान चरित्र का, महान जीवन का, महान आत्मा का अनन्त प्रचार करना होगा | काम केवल इतना ही है, इसको छोड़ कर और कुछ नहीं |
जहाँ उनका नाम जायगा, कीट-पतंग तक देवता हो जायेंगे, हो भी रहे हैं; तुम्हारे आँखे हैं, क्या इसे नहीं देखते ?..काम करो, भावनाओं को, योजनाओं को कार्यान्वित करो, मेरे बालकों, मेरे वीरों, सर्वोत्तम, साधुस्वभाव मेरे प्रियजनों, पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कन्धे लगा दो |...याद रखना- बहुत से तिनकों को एकत्र  करने से जो रस्सी बनती है, उससे मतवाला हाथी भी बांध सकता है "| ( वि ० सा० ख ० २ : ३५६ ) ( ३ : ३५५)
हमलोग इन बहुमूल्य विचारों को जीवन में उतार कर सच्चे धनवान मनुष्य बन जायेंगे | अपने जीवन में उच्चतर पूर्णता को प्राप्त करने के लिये प्रयास करना चाहिये, तथा कुछ  अपने साथ कुछ दूसरे सहकर्मियों को भी इसी दिशा में अनुप्रेरित करना चाहिये | स्वयं को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्धिशाली बनाने  के लिये प्रयासरत रहने के साथ साथ अपने चारों ओर रहने वाले लोगों को असत विचारों की अग्नि में झुलसते रहने के लिये न छोड़  देना ही सच्चे नेतृत्व का सार- सुगंध है !
जैसा कि श्री रामकृष्ण कहा करते थे - " कुछ लकड़ी के कुन्दे इस प्रकार के काष्ठ के बने होते हैं कि उस के ऊपर यदि एक कौआ भी बैठ जाय तो वह डूब जाता है ; किन्तु कुछ लट्ठे ऐसी लकड़ी के बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक ढो कर ले जाते हैं | जो नेता कोटि (ईश्वर श्रेणी-ऋषित्व प्राप्ति के बाद निर्विकल्प का त्याग करने में नरेन्द्रनाथ जैसे समर्थ) के युवा  होते हैं वे बाद के उसी प्रकार के न डूबने वाले लकड़ी के कुन्दे जैसे होते हैं |  वे लोग दूसरों के उत्तरदायित्व को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं | वे उनका बोझ स्वेच्छा से  बिना किसी निजी स्वार्थ के, बिना कोई पारिश्रमिक लिये, बिना किसी तरह के लाभ उठाये ही उस पार तक ढो कर ले जाते हैं |
उनके लिये तो सार्वजनिक  उन्नति, शिक्षा, विस्तार, समानता, साम्यावस्था, पूर्णत्व प्राप्ति, संतृप्ति  कि प्राप्ति  की कामना ही प्रत्यक्ष रूप से समाज को प्रेरणा देने की हेतु होती है तथा परोक्ष रूप से एकमात्र प्रेरक -शक्ति  रहती है- LOVE !  क्योंकि,  " ईश्वर ( या नेता - नवनीदा ?) प्रेम स्वरूप हैं "  जो (मुझ जैसे) पशु-मानव को देव-मानव में रूपान्तरित करने के लिये  बार-बार पृथ्वी पर अवतरित होते रहते हैं !

2.नेतृत्व का सिद्धान्त एवं उसका स्वरूप
(The Concept and The Nature of Leadership ) 
[*नवनीदा का 'जीवन नदी के हर मोड़ पर':  एक असाधारण ज्योतिर्मय दीपक (Light house) है, जिसके प्रकाश में सनातन धर्म (नियम-आत्मसाक्षात्कार करके स्वयं सत्यद्रष्टा या ऋषि बनने और बनाने की प्रक्रिया - Be and  Make के विभिन्न अंग एवं आशय समझे जा सकते हैं । शास्त्र मतवाद मात्र है, पूज्य नवनीदा उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति।] 
नेतृत्व के सम्बन्ध में प्रचलित मान्यताओं को मन से निकाल कर, हमें तत्सम्बन्धी अपनी स्पष्ट धारणा बनाने का प्रयत्न करना चाहिये | क्योंकि जीवन के सकल क्षेत्रों में- चाहे कोई संस्था हो, संगठन हो या हमारा अपना परिवार ही क्यों न हो, उसके कुशल सञ्चालन के लिये भी सक्षम नेतृत्व की आवश्यकता होती ही है |
 यदि किसी परिवार का अभिभावक (लीडर) योग्य होता है, परिवार का सञ्चालन कुशलता के साथ करता है , तो परिवार के सदस्यों के बीच एकता रहती है, पूरा परिवार शांति और आनंद में रहता है तथा हर दृष्टि से फलता-फुलता, और समृद्ध होता रहता है | ठीक ऐसी ही स्थिति किसी समाज, कारपोरेट जगत या संगठन की भी होती है | 
राजनीती के क्षेत्र में दिखाई पड़ने वाले नेता आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व नहीं करते | किन्तु वर्तमान समय में, प्रायः सभी देशों में यही भ्रान्त धारणा प्रचलित है कि-  ' नेता ' का मतलब केवल राजनैतिक नेता होता है तथा नेता केवल राजनीती के क्षेत्र में ही पाये जा सकते हैं | 
किन्तु, यदि हम विश्व के इतिहास का गहराई से मन्थन करें, तो यह पायेंगे कि हर युग में केवल वैसे ही व्यक्तियों को मानव समाज का सच्चा नेता माना गया है जिनके भीतर लौकिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी असाधारण योग्यता भी सामान्य रूप से विद्यमान रहती थी |
और वह असाधारण योगता थी, उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति ( Spiritual Power ) | विशेष करके भारत में तो सच्चा मार्ग-दर्शी या मानव जाति का सच्चा नेता उसीको माना जाता है जिसके पास आध्यात्मिक शक्ति अनिवार्य रूप से विद्यमान रहती हो | मानव इतिहास के प्रारंभ से ही, इसी कोटि के असंख्य नेता भारत कि धरती पर अवतरित होते रहे हैं, जिन्होंने न केवल भारत का, अपितु पूरी मानव जाति का मार्गदर्शन किया है |
आज न्यूनाधिक इस तथ्य को हर जगह यह स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में, उसकी सच्ची उन्नति के लिये, मानव सभ्यता को समृद्धि प्रदान करने में भारत का अंशदान प्रचुर रहा है | तथा, यह अंशदान भारत केवल इसी कारण कर सका है कि विगत कुछ हजार वर्षों में, भारत भूमि पर ऐसे महापुरुष अवतरित होते रहे हैं जो मानवजाति के सच्चे नेता थे |
उन समस्त महापुरुषों में जो विशेषता अनिवार्तः विद्यमान थी वह यही कि - वे सभी आध्यात्मिक दिग्गज थे | किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिये कि, भारत केवल आध्यात्मिक विद्या ही आगे था |  अपितु प्राचीन भारत ने तो, विविध प्रकार के लौकिक विद्या जैसे - नक्षत्र विज्ञान,चिकित्सा विज्ञान, धातु विज्ञान, गणित शास्त्र, यन्त्र शास्त्र, शिल्प-कौशल, अभियांत्रिकी आदि के क्षेत्र में भी, ५००० वर्ष पूर्व ही समान रूप से यथेष्ट ज्ञान अर्जित कर लिया था |  किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि इन समस्त लौकिक विद्या में महारत हाँसिल करने के साथ ही साथ- भारत की रत्नगर्भा धरती अनेक आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्न सच्चे मार्ग-दर्शी नेताओं कि जन्मस्थली भी रही है |  
यही वह कारण है जिसके चलते उन महापुरुषों ने स्वयं के जीवन और शिक्षण के द्वारा सम्पूर्ण मानवजाति को न केवल लौकिक उन्नति करने के क्षेत्र में मार्गदर्शन किया अपितु, बाहरी परिवेश और परिस्थितिओं के दबाव को हटा कर जीवन-पुष्प के प्रस्फुटन में भी सच्चे पथ-प्रदर्शक बने रहे | तथा स्वामी विवेकानन्द यह विश्वास करते थे कि यह व्यवस्थाक्रम, या यह प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती, निरन्तर चलती रहती है |

 इसीलिये भारत मानव जाति का सच्चा नेता बना रहेगा |आज यदि सभी देशों के प्रबुद्ध वर्ग के मस्तिष्क- तरंगों ( Brain-Waves)से निसृत होने वाले विचार-प्रवाहों ( Thought Current ) का परिक्षण किया जाय, तो पायेंगे कि प्राचीन काल की ही तरह आज भी पूरी मानव जाति ज्योति , ज्ञान और मार्ग-दर्शन प्राप्त करने के लिये उदग्रीव हो कर, भारत की ओर ही निहार रही है |  यहाँ तक की बीसवीं सदी के वैज्ञानिकगण, इस बात पर शायद सामान्य जनों की अपेक्षा अधिक विश्वास करने लगे हैं कि- केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों ( यथा Higgs-Boson या जिसे God-Particle भी कहा जाता है ) का संयोजन करने के बाद ही पुरे विश्व में शांति लायी जा सकती है तथा उसे अक्षुण या ( स्थायी ) भी बनाया जा सकता है | यदि प्रसिद्द आधुनिक फ़्रांसिसी इतिहासकार, श्री अमौउरी दे रएंकोर्ट द्वारा लिखत पुस्तक -' The Eye of Shiva ' (- शिव के नेत्र ) का अध्यन किया जाय तो यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आ जाति कि पाश्चात्य जगत के इस बुद्धिजीवी को भारत के महान आध्यात्मिक सिद्धान्तों ने बिल्कुल मोहित सा कर लिया है |


इस पूरी पुस्तक में उन्होंने श्री रामकृष्ण के, उस अत्यंत सरल और निर्दोष किन्तु , आश्यचर्यजनक जीवन और संदेशों का बारम्बार उल्लेख किया है, जिसको स्वामी विवेकानन्द ने अपने  ' सिंहविक्रम ' द्वारा पुरे विश्व भर में प्रसारित कर दिया है |  एक अन्य आधुनिक पाश्चात्य आणविक  वैज्ञानिक डा० फ्रित्जाफ कापरा हैं, जिन्होंने पूर्व के समग्र आध्यात्मिक सिद्धान्तों, विशेषतः  उन बौद्ध- सिद्धान्तों पर शोध किया है जो निर्विवाद रूप से कई जगह पर   वेदान्त की ही प्रतिध्वनी मात्र है |उसी  आणविक वैज्ञानिक डा० कापरा ने अपनी अद्भुत पुस्तक ' The Tao of   Physics ' (- भौतिक विज्ञान के ताओ ) में स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक ' ज्ञानयोग ' की कुछ उक्तियों को यह दिखलाने के लिये कई स्थानों पर उद्धृत किया है -  कि आधुनिक विज्ञान अब बहुत स्पष्ट रूप से पूर्व के गूढ़ रहस्यवादी सिद्धान्तों के क्रमशः निकटतर होता जा रहा है |
किन्तु हममें से जिन लोगों ने ' विवेकानन्द साहित्य ' का अध्यन कर लिया है, वे तो पहले से ही जानते हैं, स्वामी विवेकानन्दजी ने तो १०० वर्ष पूर्व ही यह स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया था कि  - विज्ञान और धर्म या सच्ची आध्यात्मिक विद्या के बीच सचमुच कोई अन्तर्विरोध अथवा शत्रुता हो ही नहीं सकती है |  धर्म तथा विज्ञान के बीच का अन्तर्विरोध या शत्रुता  केवल पाश्चात्य जगत के धार्मिक इतिहास में ही दृष्टिगोचर होती हैं, क्योंकि पाश्चात्य जगत के न्यूनाधिक सारे धर्म मतान्धता, हठधर्मिता, या पौराणिक मान्यताओं के ऊपर ही आधारित हैं | वहीँ दूसरी ओर भारतीय इतिहास में पौराणिक युग से ही - भारत का धर्म ( सनातन धर्म या वैदिक धर्म ) या आध्यात्मिकता ( सत्यद्रष्टा या ऋषि बनने की प्रक्रिया ) पूरी तरह से वैज्ञानिक प्रणाली के ऊपर ही प्रतिष्ठित रही है |
वैसे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी, जो भारत के अति प्राचीन आधात्मिक विरासत से परिचित नहीं हैं, उन्हें भारत का आध्यात्म ( आत्मसाक्षात्कार करके स्वयं सत्यद्रष्टा या ऋषि बनने और बनाने की प्रक्रिया -  Be and  Make )  थोडा अनोखा या अनूठा जैसा प्रतीत हो सकता है, किन्तु वास्तव में इसमें गुप्त-विद्या या रहस्य भरे चमत्कार जैसी कोई बात नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने निर्भीकता के साथ घोषित किया था कि भारत में तो प्राचीन युग से ही, धर्म के क्षेत्र में भी वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग होता आया है |

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " At the beginning of this century it was almost feared that religion was at end. Under the tremendous sledge-hammer blows of scientific research, old superstitions were crumbling away like masses of porcelain. ....but the tide has turned and to the rescue has come- what ? The study of comparative religions. " ( C.W. Vol : 1 : 317 )

" इस शताब्दी ( उन्नीसवीं ) के प्रारंभ में ऐसा भय था कि धर्म कहीं विनष्ट न हो जाये | वैज्ञानिक अनुसंधानों के हथौड़ों के प्रबल प्रहारों से पुराने अन्धविश्वास चीनी मिटटी के ढेरों कि तरह चकनाचूर हो रहे थे |जिनके लिये धर्म केवल कुछ मतवादों और निरर्थक अनुष्ठानों का पुंज मात्र था, उनकी हालत नाजुक थी, ..मानो सब कुछ उनके हाथों से खिसकता जा रहा था | कुछ समय के लिये तो ऐसा लगा कि अज्ञेयवाद और भौतिकवाद के उमड़ते ज्वार में सब कुछ विलीन हो जायगा |...कुछ लोग ऐसा सोचने लगे थे कि धर्म में कुछ रह नहीं गया, यह सदा के लिये सो गया | 
किन्तु समय ने पलटा खाया और इसके उद्धार के लिये आया - क्या ? तुलनात्मक धर्माध्यन | विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने पर हम यह देखते हैं कि मूलतः वे एक ही हैं ! जब मैं ( छात्र जीवन में था ) लड़का था, तो इस संशयवाद से मेरा परिचय हुआ और कुछ समय के लिये ऐसा लगा, जैसे धर्म सम्बन्धी सारी आशाओं को मैं छोड़ ही दूँ | किन्तु सौभाग्य से मैंने ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, तथा अन्य धर्मों का अध्यन किया और यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि जो मौलिक सिद्धान्त हमारे धर्म में सिखाये जाते हैं ; वे ही अन्य धर्मों में भी | ..किसी एक धर्म का सत्य होना अन्य सभी धर्मों के सत्य होने के ऊपर निर्भर करता है | 
उदाहरणार्थ, अगर मेंरी छः अँगुलियाँ हैं और किसी दूसरे व्यक्ति के नहीं हैं, तो तुम कह सकते हो कि मेरे छः अँगुलियों का होना असामान्य है |...अगर कोई एक धर्म सत्य है, तो अन्य सभी धर्म भी सत्य हैं | उनके असारभूत तत्वों में अन्तर पड़ सकता है, पर तत्वतः सभी एक हैं | अगर मेरी पाँच अँगुलियाँ सत्य हैं, तो वे सिद्ध करती हैं कि तुम्हारी पाँच अँगुलियाँ भी सत्य हैं | ...जो व्यक्ति धर्म के लिये केवल किताबें पढता है, उसकी हालत तो गल्प वाले उस गदहे की है, जो पीठ पर चीनी का भारी बोझ ढोता हुआ भी उसकी मिठास नहीं जान पाता | "  ( २: २२७-३६ )  
वे अन्यत्र कहते हैं - " बाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिये और मेरा अपना विश्वास भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा | यदि किसी धर्म  इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वन्सप्राप्त हो जाय, तो वह सदा से निरर्थक धर्म था ,-कोरे अन्धविश्वास का, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाय, उतना ही अच्छा | " ( २:२७८ ) 
क्योंकि जो कोई भी सिद्धान्त विज्ञान-सम्मत पद्धति द्वारा निरिक्षण-परिक्षण किये बिना ही  समाज पर थोप दिया जाय, वह न तो अधिक दिनों तक टिक सकता है न उसके द्वारा मानव जाति का सच्चा कल्याण ही हो सकता है |वे कहते हैं - " पहले ऐसा विश्वास किया जाता था कि जब आदमी पत्थर ऊपर फेंकता है, तो एक दैत्य उसे नीचे खींच लेता है | अनेक घटनाओं को, जो यथार्ततः प्राकृतिक नियमों के अनुसार घटित होतीं हैं, लोग अज्ञानवश उन्हें अप्राकृतिक शक्तियों द्वारा घटित मानते हैं | पत्थर नीचे खींच लेने वाला कोई दैत्य था, यह एक ऐसी व्याख्या थी, जो वस्तुगत नहीं थी, यह बह्यारोपित व्याख्या है |
गुरुत्वाकर्षण की दूसरी व्याख्या पत्थर के सहज धर्म पर आधारित है, वह भीतर से प्राप्त होती है | ...विज्ञान का अभिप्राय है कि किसी वस्तु कि व्याख्या स्वयं उसकी प्रकृति में निहित है | और सृष्टि में घटित होने वाली घटनाओं कि व्याख्या किसी घटना की व्याख्या स्वयं उसकी प्रकृति में निहित है, तथा  सृष्टि में घटित होनेवाली घटनाओं की व्याख्या किसी बाह्य सत्ता या शक्तियों पर आश्रित नहीं होती है |
रसायनशास्त्री को अपने तथ्य निरूपण में किसी दैत्य, भूत, प्रेत आदि की आवश्यकता नहीं होती | भौतिकशास्त्री या अन्य वैज्ञानिक अपने तत्व-प्रतिपादन में इस प्रकार की वस्तुओं पर निर्भर नहीं हैं | और विज्ञान की इसी विशेषता को मैं धार्मिक सिद्धान्तों की जाँच-परख में भी प्रयुक्त करना चाहता हूँ | इस वैशिष्ट्य से वंचित रहने से ही धर्म ( के सिद्धान्त ) जीर्ण -शीर्ण हो रहे हैं | " ( २:२८१) 
   वे पुनः कहते हैं- भारत के धर्म ( वेदान्त ) का प्रादुर्भाव, विश्व में नैसर्गिक रूप से क्रियाशील नियमों को विज्ञान-सम्मत प्रणाली के अनुसार निरिक्षण-परिक्षण, तुलनात्मक विश्लेषण करने के बाद ही आविष्कृत हुआ है |  उनकी जाँच-पड़ताल कर उन्हें मानवोपयोगी पाये जाने के बाद ही उन नियमों को दैनन्दिन जीवन में पालन किया जाता है | 
धार्मिक सिद्धान्त भी चमत्कार नहीं हैं, इसी को व्याख्यायित करते हुए एक पत्र में श्री आलासिंगा को लिखते हैं - " श्री रामकृष्ण के चमत्कार के सम्बन्ध में क्या बकवास है ! ... चमत्कार के विषय में न कुछ जानता हूँ, न उसे समझता ही हूँ | क्या श्री रामकृष्ण के पास चमत्कार दिखाने के अलावा संसार में और कोई काम नहीं था ? ....यदि किडी उनके प्रेम, उनके ज्ञान, उनके सर्वधर्म-समन्वय, सम्बन्धी कथाओं एवं उनके अन्य उपदेशों का अनुवाद कर सकता है, तो करने दो | विषयवस्तु इस प्रकार है :- 
श्री रामकृष्ण का जीवन (नवनीदा का 'जीवन नदी के हर मोड़ पर') एक असाधारण ज्योतिर्मय दीपक ( Light house) है, जिसके प्रकाश में सनातन धर्म (नियम) के विभिन्न अंग एवं आशय समझे जा सकते हैं | श्री रामकृष्ण शास्त्रों में निहित सिद्धान्त-रूप ज्ञान के प्रत्यक्ष उदाहरण स्वरूप थे | ऋषि-तुल्य नेता ( पैगम्बर) और अवतार हमें जो वास्तविक शिक्षा देना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया है | शास्त्र मतवाद मात्र है, रामकृष्ण उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति | उन्होंने ५१ वर्ष में ५००० वर्ष का राष्ट्रीय आध्यात्मिक जीवन जिया और इस तरह वे भविष्य की सन्तानों - ' त्यागी और गृहस्थ ' दोनों के लिये अपने आप को एक शिक्षाप्रद ( यथासंभव अनुकर्णीय ) उदाहरण बना गये | " ( ३ :३३९ )  
श्री रामकृष्ण के जीवन में ही इस विज्ञान-सम्मत धर्म की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, जहाँ वे शाक्त, वैष्णव, अद्वैतवाद, इस्लाम, ईसाई सभी पन्थों से उसी एक परम-सत्य का साक्षात्कार करने के बाद घोषणा करते हैं - ' जतो मत ततो पथ ' ! इसी लिये स्वामी विवेकानन्द इसको वैज्ञानिक धर्म की संज्ञा देते हैं | 
श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के बीच पहली बार मुलाकात हुई, तब विचारों का आदान-प्रदान करते समय स्वामी विवेकानन्द ( तब के नरेन्द्र ) ने प्रश्न किया था -' महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? तथा उनके इस सीधे प्रश्न का उत्तर भी बहुत सरल था, ( Highest Truths are very simple ) - श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया था - ' हाँ, मैंने देखा है और जिस प्रकार मैं तुमको देख रहा हूँ, उससे भी स्पष्टता से मैं ईश्वर को देखता हूँ | और केवल इतना ही नहीं ; यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ | '  
यह प्रस्ताव एक विज्ञान सम्मत प्रस्ताव है, यह इसी बात कि ओर इशारा करता है कि ' ईश्वर ( परम-सत्य) को देखने की कोई न कोई विज्ञान-सम्मत प्रणाली अवश्य है, जो भी व्यक्ति उस प्रणाली का अनुसरण करेगा उसको भी वही परिणाम प्राप्त होगा, उसमे कभी अन्तर नहीं हो सकता | यदि तुम स्वयं भी उसी लक्ष्य का संधान करो तो तुम्हे भी किसी कुशल नेता से वही वैज्ञानिक प्रणाली प्राप्त होगी, यहाँ पर वह लक्ष्य सत्य का साक्षात्कार करना है, जो की ईश्वर का दर्शन करने के समान है |     
हमें अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता के महत्व को अवश्य समझ लेना चाहिये, क्योंकि मनुष्य केवल दोनों पैरों पर खड़े होकर चलने वाला एक अकलमन्द पशु ही नहीं है, अथवा मनुष्य कोई मितव्ययी आर्थिक प्राणी, या केवल एक राजनीतिक कीट भी नहीं है, वास्तव में मनुष्य तो एक आध्यात्मिक प्राणी है | इसलिए यदि मनुष्य को आगे बढना है, उन्नत होना है, अपनी अन्तः शक्ति को अभिव्यक्त करना है, अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट करना है तो उसे आध्यात्मिक -पद्धति के आश्रय में आना ही पड़ेगा | अन्य कोई रास्ता नहीं है | 
हम अभी जिसको लौकिक या सांसारिक ज्ञान कहते हैं, या दुनियावी ज्ञान (secular knowledge ) कहते हैं, उसको  भी आध्यात्मिक ज्ञान (spiritual knowledge ) का ही दूसरा पक्ष समझना चाहिये | इस विषय के मर्म को हमें भली-भाँति समझ लेने का प्रयास करना चाहिये |  सांसारिक ज्ञान ( अपरा विद्या ) और आध्यात्मिक ज्ञान ( परा विद्या ) दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं | क्योंकि एक ही आध्यात्मिक सत्ता हर वस्तु में अनुस्यूत या प्रविष्ट है, जिसे हम आत्मा या ब्रह्म कहते हैं | विज्ञान इस सत्ता का अनुसन्धान अपनी प्रयोग-शाला में कभी नहीं कर सकता, किन्तु आधुनिक विज्ञान भी क्रमशः  इस परम-सत्य के निकटतर आता जा रहा है |
किसी दिन यह उसके अत्यन्त निकट तक भी पहुँच सकता है किन्तु ; किन्तु उस परम-सत्य का साक्षात्कार करने के लिये विज्ञान को भी अन्ततोगत्वा अपनी खड़-खड़िया गाड़ी या पालकी  ( पंचेन्द्रिय-ग्राह्य माध्यम ) का त्याग करके आध्यात्मिक जहाज ( मन की एकाग्रता द्वारा उपलब्ध इन्द्रियातीत भूमि ) में कूदना ही पड़ेगा | विज्ञान और सच्चा धर्म ( आध्यात्मिकता ) क्रमशः एक-दूसरे से निकटतर होते जा रहे हैं, पहले ही ( बीसवीं सदी का अंत आते-आते ) बिल्कुल निकट आ ही चुके हैं |किन्तु इक्कीसवीं सदी में जो सर्वाधिक महत्व पूर्ण घटना घटित होने वाली है, वह यह की अब कुछ ही वर्षों में विज्ञान और सच्चा धर्म या आध्यात्मिकता के बीच कोई मतभेद न रहकर एक प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जायगा,  उसका पूर्वानुमान स्वामी विवेकानन्द ने उन्नीसवीं सदी में ही कर लिया था | 
ममें से प्रत्येक मनुष्य को अपने यथार्थ- स्वरूप के ऊपर अवश्य श्रद्धा ( आस्तिक्य-बुद्धि ) रखनी चाहिये | हमें यह विश्वास करना चाहिये कि हम कोई क्षुद्र पदार्थ नहीं हैं, स्वरूपतः हम सभी अत्यन्त महान हैं | तथा हममें से प्रत्येक  संभाव्य रूप में दिव्य है, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, हमें अपनी उस अन्तर्निहित दिव्यता को प्रकट करने के लिये हर संभव प्रयास करना चाहिये | हमारी अपनी यथार्थ सत्ता में ही असीम शक्ति, अनन्त ज्ञान और अपरिमित प्रेम निर्झर का स्रोत विद्यमान है | हमें इसी जीवन में उस स्रोत के ऊपर रखे चट्टान या बाधाओं को दूर हटा कर, उसे अवश्य उदघाटित कर लेना चाहिये |
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " लोग कहते हैं - ' इस पर ( अमुक-तमुक   बाबा पर ) विश्वास करो, उस पर ( श्री श्री .....जी ) पर विश्वास करो ' , मैं कहता हूँ - ' पहले अपने आप पर विश्वास करो | ' यही रास्ता है | Have faith in yourself, all power is in you- be conscious and bring it out.  - ' सब शक्ति तुममें है - इसे जान लो और उसे विकसित करो ! ' कहो, ' हम सब कुछ कर सकते हैं !' ' नहीं नहीं कहने से साँप का विष भी नहीं हो जाता है !'ख़बरदार, No ' नहीं नहीं ', कहो ' हाँ हाँ ', ' सो अहम् सो अहम् '  ( या कहो I and my Father are one ' ) !
किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशाक्तिः 
आमन्त्रयस्व भगवन भगदं स्वरूपम |
' - हे सखे,  तुम क्यों रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में है ! हे भगवन, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप विकसित करो ! '' हम तारों को भी अपने दांतों में पीस सकते हैं, तीनों लोकों को बलपूर्वक उखाड़ सकते हैं | ' किं भो न विजनास्य्स्मान - रामकृष्णदासा वयम ! 'हमें नहीं जानते ? हम श्री रामकृष्ण के दास हैं !'एकमात्र त्याग के द्वारा ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है | त्याग, त्याग -  के मर्म को सीख कर, अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों में इसीका अच्छी तरह से प्रचार करना होगा | त्यागी हुये बिना तेजस्विता नहीं आने की | " ( ३ :३११)
इसलिए जो नेता बनना चाहते हों उन्हें अपना जीवन इतना ओज-तेज से परिपूर्ण बनाना चाहिये कि, आस-पास रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर जादू सा कर देने या पूर्णतया प्रभावित कर देने में समर्थ हो | ऋषि-तुल्य नेताओं का जीवन ही आस-पास रहने वाले लोगों को ऋषि बनने के लिये  उत्साह और उर्जा के साथ प्रयास करने के लिये अनुप्रेरित करने में सक्षम हो सकता है |हमें नेतृत्व-क्षमता अर्जित करने के सम्बन्ध में इस अत्यावश्यक  गुण को ठीक से समझ कर आत्मसात कर लेना चाहिये |
यदि हम इसे ठीक से अपने जीवन में उतार सकें तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति  ऐसे नेतृत्व को कार्यरूप देने में देने में समर्थ नेता बन जायेंगे | ऐसा व्यक्तित्व गठित कर लेने के बाद ही हम अपने आस-पास रहने वाले भाइयों कि सेवा करने में सक्षम बन सकेंगे तथा समाज के प्रति भी यही हमारी सच्ची सेवा होगी |
 नेतृत्व-क्षमता अर्जित करने के लिये सबसे प्रमुख आवश्यकता यही है कि, स्वयं में अन्तर्निहित  सार-वस्तु के बारे में, थोड़ी अनुभूति जन्य धारणा अवश्य रखनी चाहिये | हमें अपना मूल्य, इस दुर्लभ मनुष्य जीवन का मूल्य समझते हुये, अपने श्रेष्ठ गुणों को अभिव्यक्त करते हुए ऐसा जीवन जी कर दिखाना चाहिये जो दूसरों के लिये प्रेरणा का स्रोत हो | 
ऐसा जीवन और व्यक्तित्व हम किस प्रकार विकसित कर सकते हैं ? हमें इसकी शिक्षा मानव जाति के सच्चे नेताओं के जीवन से ही मिल सकती है | अतः हमलोगों को अपने भीतर सद्-गुणों  को विकसित करने, उनका संवर्धन करने पर निरन्तर विशेष ध्यान रखना चाहिये | हमें अपने मन को अवश्य अपने नियन्त्रण में रखना पड़ेगा, अपनी इन्द्रियों को अवश्य वश में रखना होगा, इन्द्रिय विषयों का भोग करने की इच्छा को या लालच को अवश्य सीमाबद्ध कर लेना होगा, इसके साथ साथ हमारा ह्रदय भी प्रेम से परिपूर्ण हो उठाना चाहिये | हमें अपने मन से समस्त स्वार्थपूर्ण अभिलाषाओं, समस्त घृणा, सारी इर्ष्या आदि दुर्गुणों को निकाल फेंकना होगा |
हमलोग केवल तभी कुशल नेता बन सकते हैं जब अपने सदगुणों को विकसित करते हुए, उन्हें अपने विचारों में, वचन में और कर्मों में भी अभिव्यक्त करते हुये, सचमुच एक पवित्र जीवन जीने लगेंगे तब हम भी अपने आस-पास रहने वालों को प्रभावित कर देने में, ( उनके ऊपर जादू सा कर देने में ) सक्षम बन जायेंगे|
* ' गृही या त्यागी ? ३० नवम्बर १८९४ को स्वामी विवेकानन्द ने गृहस्थों में त्यागी नेतृत्व-क्षमता जाग्रत करने के उद्देश्य से तीन पत्र लिखे थे, डा० नंजुदा राव को लिखे पत्र में कहते हैं - ' मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना बड़े स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते | मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारत-माता अपनी उन्नति के लिये अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आन्तरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होगे | ...महापुरुषों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभ फल का भोग जनता ने किया | अगर तुम अपनी ही मुक्ति के लिये सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा ?
क्या तुम संसार के कल्याण के लिये अपनी मुक्ति-कामना तक छोड़ने को तैयार हो ? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, इस पर विचार करो | मेरी राय में तुम्हें कुछ दिनों के लिये ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिये | अर्थात कुछ काल के लिये स्त्री-संग छोड़ कर अपने पिता के घर में रहो ; यही ' कुटीचक ' अवस्था है |संसार की हित- कामना के लिये अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो |...कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ शिक्षक ( ऋषि-तुल्य नेता ) होना है | ..पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो | तन,मन और प्राणों का उत्सर्ग करके श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का विस्तार करने में लग जाओ, क्योंकि कर्म पहला सोपान है | 
भारत चिरकाल से दुःख सह रहा है ; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचारपीड़ित है | परन्तु ईश्वर दयामय है| वह फिर अपनी साधू-संतानों ( गृही और त्यागी दोनों ) के परित्राण के लिये श्री रामकृष्ण (नवनिदा) का रूप धर कर अवतरित हुआ है, पुनः पतित भारत को उठने का सुयोग मिला है | श्री रामकृष्ण परमहंस के पदप्रांत में बैठने (अर्थात महामण्डल का कर्मी बनने) पर ही भारत का उत्थान हो सकता है | उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, ...यह कौन करेगा ? श्री रामकृष्ण की पताका (महामण्डल-ध्वज)  हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिये अभियान करने वाला है कोई ?
नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का बलिदान करके अवनति की बाढ़ रोकने वाला है कोई ? कुछ इने-गिने ( त्यागी ) युवकों ने इसमें अपने को झोंक दिया है, ...परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है | हम चाहते हैं कि ऐसे ( ऋषि-तुल्य नेता या पैगम्बर बनने में सक्षम ) - कई हजार मनुष्य आयें और मैं जनता हूँ कि वे आयेंगे | " ( ३:३३७ )
 " स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ' युवाओं को एक दल के रूप में संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है | ' पर जीवन भर उस त्यागी युवक दल को संगठित करने का प्रयास करने के बाद भी वे मुट्ठी भर त्यागी युवाओं को ही श्री रामकृष्ण के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे |किन्तु उपरोक्त पत्र में उनकी भविष्यवाणी है - ' मैं  जनता हूँ कि वे आयेंगे ' | 
यह युवा दल तो रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित करने की चेष्टा की जा सकती थी, फिर युवा महामण्डल क्यों अवतरित हुआ ? जो युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान करेंगे, उनके जीवन का लक्ष्य या व्रत होगा - ' आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च | ' किन्तु, कितने युवा ऐसे हैं जो अभी मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होना चाहते हैं, या अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश साधू- युवा जिन्हें, हजारों की संख्या में स्वामीजी श्री रामकृष्ण के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे इस भावान्दोलन से बाहर ही छूट जायेंगे।
स्वामीजी श्री रामकृष्ण के,  ' गृही या त्यागी ? ' - दोनों संतानों में से किसी को बहिष्कृत ( Exclusion ) श्रेणी का नहीं मानते थे | वे तो नास्तिक युवाओं को भी अनुप्रेरित करना कहते थे, यही जो सभी तरह के युवाओं को ग्रहण करके, प्राथमिक रूप से ' Be and Make ' की शिक्षा से ऋषि -तुल्य नेता बनने के लिये,  अनुप्रेरित करने का काम है - उसे करेगा कौन ?
दावानल की तरह देश के  कोने कोने में सर्वत्र जा-जाकर ग्रामों, शहरों, शिक्षितों, अशिक्षितों, छात्रों, नौकरी-पेशा करने वालों तथा बेरोजगार युवाओं के पास स्वामीजी के उपदेशों को लेकर जायेगा कौन ? जिन सुदूर ग्रामों में धर्म, मन्दिर, मठ तथा सन्यासी की छाया देखने को भी नहीं मिलती उन्हें सुनायेगा कौन ? केवल सुनायेगा ही नहीं उन्हें स्वामीजी की शिक्षाओं से प्रभावित करके इस आदर्श को रूपायित करने के कार्य में उन्हें खींचेगा कौन ?
क्योंकि, ऋषि-तुल्य नेता या लोक-शिक्षक (मानव जाति का श्रेष्ठ शिक्षक)  बनने के लिये -' कर्म पहला सोपान है !' क्योंकि कार्य में उतरने से ही अपना चरित्र गठित होगा, प्रभाव डालने वाला व्यक्तितिव निर्मित होगा, जिससे देश की उन्नति होगी | इसी प्राथमिक कार्य को करने की जिम्मेदारी को महामण्डल ने उठा लिया है | " ( महामण्डल पुस्तिका - एक युवा आन्दोलन : २० -२१ )                           
हमारे अन्दर स्पष्ट विचारण-क्षमता ( clear thinking ) अवश्य होनी चाहिये | जो दूसरों का नेतृत्व करते हैं, उनके लिये यह गुण अत्यन्त आवश्यक है | उनको दूर-दृष्टि रखनी चाहिये | उन्हें मन ही मन कल्पना करके यह देखने में समर्थ होना चाहिये कि यदि अभी से (गोल्डन जुबली वर्ष -२०१६ से) हमलोग लक्ष्य प्राप्ति कि दिशा में एकजुट हो कर पूरी लगन और मिहनत से प्रयास करें तो २५ वर्ष, ५० वर्ष या १०० वर्ष बाद हमारा भविष्य कैसा हो सकता है ?
निर्धारित समय में हम जिस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं, उसका नक्शा या योजना सही ढंग से बना है या नहीं, बाद में  कोई आवश्यकता पड़ने पर उसमे फेर-बदल कर उससे निबटा जा सकता है या नहीं  | हमें केवल अपने व्यक्तिगत भविष्य को उज्जवल बनाने का प्यास न कर के अपने देश के भविष्य को भी उज्जवल बनाने का प्रयास करना चाहिये | किन्तु दुर्भाग्यवश आज ऐसा नेतृत्व, विशेष कर भारत में कहीं दिखायी नहीं दे रहा है | स्वामी विवेकानन्द मानव जाति के सच्चे नेता थे, उन्होंने भारत के भविष्य को ऋषि-दृष्टि से देखते हुए कहा था - ' भारत अतीत में बहुत महान था, किन्तु निश्चित तौर पर उसका भविष्य और भी महान होने वाला है | मेरा यह दृढ विश्वास कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा, जिसको उसने अब तक स्पर्श भी नहीं किया है | प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की उन्नति को देख कर संतुष्ट होंगे | भारत का भविष्य ऐसी अपूर्व महिमा से मंडित होगा कि उसकी तुलना में भूतकाल के सारे गौरव फीके पड़ जायेंगे तथा उसके सामने तुच्छ जान पड़ेंगे | "
विशेष तौर से भारत के युवाओं के मन में भविष्य के भारत का ऐसा ही स्वप्न रहना चाहिये | स्वामीजी ने कहा था - ' तुम जड़ ( Matter या Mind ) नहीं हो, जड़ तो तुम्हारा दास है |' जो नेता बनना चाहते हैं उन्हें इसके मर्म से अवश्य परिचित हो जाना चाहिये | हमें अपनी यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति की ओर सतत ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये | इसका तात्पर्य यह है कि हमें सर्वप्रथम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि केवल तभी हम अपनी अन्तः शक्तियों को समाज और देश कि सेवा में नियोजित करने में सक्षम हो सकेंगे | 
समाज में क्रन्तिकारी परिवर्तन, केवल ऋषि-तुल्य नेताओं या मानव जाति के श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करने के माध्यम से ही संभव हो सकता है | और ऐसे ही नेताओं की आवश्यकता हमें हजारों की संख्या में है | ऐसे नेताओं की आवश्यकता केवल देश या राज्यों की राजधानियों तक ही सिमित नहीं है, वरन इसकी आवश्यकता छोटे-बड़े शहरों, गाँवों, मुहल्लों, तथा देश के कोने कोने में है | 
इअसी प्रकार के नेताओं या मानव-जाति के श्रेष्ठ शिक्षकों का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है, तथा छोटे पैमाने पर ही सही, युवा प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से वह इसी दिशा अग्रसर भी है | दि भारत के कोने कोने तक यह विचार फ़ैल जाये कि युवाओं के चारित्रिक गुणों को विकसित कर, शुद्ध और पवित्र जीवन गठन करने के लिये अनुप्रेरित किया जा सकता है | एवं वे यदि एक मन-प्राण होकर, केवल एक ही लक्ष्य - ' भविष्य के गौरव मण्डित भारत का निर्माण ' के स्वप्न को साकार करने के लिये, न केवल अपना चरित्र गठित करने के प्रयास में जुट जाएँ बल्कि दूसरों को भी इसके लिये प्रोत्साहित करने में समर्थ हों तभी भारत की सच्ची उन्नति हो सकती है | 
किन्तु वर्तमान समय में हमने मशीनों को ही अपना भगवान बना लिया है, और स्वयं मशीनों के दास बन गये हैं | इतना ही नहीं, हमने स्वयं को भी एक ह्रदय-रहित मशीन के रूप में ढाल लिया है | हमने ऐसे मशीनी मानवों का निर्माण किया है जो केवल लेना जानते हैं, देना तो सीखा ही नहीं है | हम सभी इस प्रकार के मशीनी मानव अर्थात ' रोबोट ' बन चुके हैं, जो बड़े ही स्वार्थी हैं तथा भविष्य में घोर स्वार्थी होकर ' सर्व-भक्षी राक्षस ' बन जाने की कामना करते हैं | यही कारण है कि भारत कि सामान्य जनता आजादी के ६२ वर्ष बीत जाने के बाद भी गरीबी रेखा से नीचे, जीवन गुजर-बसर कर रही है | 
कम से कम अभी तो उस कवी का करुण- क्रंदन चारों दिशाओं में गूंजना चाहिये, - ' हे ईश्वर ! अब और अधिक राक्षसों को पैदा मत करो, बल्कि मानव जाति को उन्नत करने वाले सच्चे नेताओं, हजारों पैगम्बरों को उत्पन्न करो ! ' पर केवल प्रार्थना ही करते रहने से काम नहीं चलेगा, यह कार्य केवल तभी संभव होगा जब हम देश के कोने कोने में रहने वाले युवाओं को उसी प्रकार के त्यागी-नेताओं के रूप में गढ़ सकें, जिस पर चर्चा हो चुकी है | मोहनिद्रा में निमग्न, दुःख-दारिद्र्य में पड़े एक अरब कि जनसंख्या वाले इस देश को केवल वैसे ही नेता उठा सकते हैं जो स्वयं जाग चुके  हों |
तथा दूसरों को किसी महान लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्राणों को भी न्योछावर कर देने की सीख देने के पहले, ये नेता स्वयं अपनी प्यारी मातृभूमि ' भारत-जननी ' के चरणों में अपना शीश चढ़ा चुके हों, केवल वैसे ही नेता दूसरों को नेतृत्व-करने की क्षमता प्राप्त करने के लिये अनुप्रेरित कर सकते हैं |केवल मंच पर चढ़ कर रटे-रटाय शब्दों की चालाकी से दूसरों को ' केवल देश के लिये जीने ' या ' देश के लिये मर- मिटने ' की प्रेरणा से उदबुद्ध नहीं किया जा सकता | चालाकी से कोई भी महान कार्य सम्पन्न नहीं होता इसी लिये इसी लिये अपने को जीवन के हर क्षेत्र में उदाहरण स्वरूप बना कर ही दूसरों को भी,  अपने समान जीवन के हर क्षेत्र में सफल - नेता बनने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है | 
ऐसा नेता प्रत्येक व्यक्ति प्रसुप्त अन्तः शक्ति को अपनी इच्छा मात्र से जाग्रत करा सकता है | अपने आस-पास रहने वाले भाइयों के मन से सभी प्रकार के भय और शंका को दूर हटा कर, उन्हें पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने पैरों पर खड़े होने का सामर्थ्य प्रदान कर सकता है | ताकि हमारे जो युवा भाई स्वयं को विभिन्न समस्याओं से घिरा पाते हैं, उससे बाहर निकलने का मार्ग स्वयं ढूंढ़ सकते हैं तथा स्वयं निर्णय लेना सीख कर उस जाल को काट दें, यथार्थ मनुष्य बन कर स्वयं मुक्त हो सकते हैं और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने के लिये अनुप्रेरित कर सकते है |
" हम किसी भी दृष्टि से देंखें, हमें प्रतीत होगा कि यह सम्पूर्ण जगत एक इकाई है | अभी हमें यह समग्र विश्व प्राण तथा आकाश अर्थात शक्ति ( Energy ) एवं जड़ ( Matter) का बना हुआ प्रतीत होता है | ...यह सिद्धान्त भी स्वविरोधी है | शक्ति (Force) क्या है ? शक्ति वह है जो जड़ ( Matter) को गति देती है | और जड़ क्या है ? जड़ वह है, जो शक्ति द्वारा गतिशील होता है | यह तो मुर्गी और अण्डे जैसी गोल-मोल बात हुई ! इसी वस्तु स्थिति का नाम है 'माया'| न तो वह विद्यमान है और न अविद्यमान ही |
तुम उसे विद्यमान नहीं कह सकते, क्योंकि केवल वही वस्तु विद्यमान कहलाती है, जो देश-काल से परे हो और और जिसके अस्तित्व के लिये किसी दूसरे की आवश्यकता न हो | फिर भी यह विश्व आंशिक रूप से हमारी अस्तित्व की धारणा की पूर्ति करता है | अतएव उसका प्रतीयमान अस्तित्व है |  परन्तु इस समस्त विश्व में एक ' सत वस्तु ' प्रविष्ट है, अनुस्यूत है या ओतप्रोत है ; और वह देश, काल तथा कार्य-कारण के जाल में मानों फँसी हुई है |
मनुष्य का सच्चा स्वरूप वह है, जो अनादी, अनन्त, आनन्दमय तथा नित्य मुक्त है ; वही देश, काल और परिणाम के फेर में फंसा है | यही प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में सत्य है | प्रत्येक वस्तु का परमार्थस्वरूप वही अनन्त है | यह विज्ञान-सम्मत सिद्धान्त (प्र्त्ययवाद) नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि इस पंचेन्द्रिय-ग्राह्य जगत का अस्तित्व ही नहीं है | इसका अस्तित्व सापेक्ष है और सापेक्षता के सब लक्षण इसमें विद्यमान हैं | लेकिन इसकी स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है | यह इसलिए विद्यमान है कि इसके पीछे देश-काल-निमित्त से अतीत निरपेक्ष आद्वितीय सत्ता मौजूद है | खैर, यह विषयान्तर हो गया है | आओ, अब हम फिर अपने मुख्य विषय की ओर आयें |" ( ३:११८-११९ )          
  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " आध्यात्मिक सत्य का अनन्त समुद्र हमारे सामने पड़ा है, जिसका हमें अविष्कार करना है तथा जिसे हमें अपने जीवन में उतारना है | दुनिया ने हजारों पैगम्बरों को देखा है, पर उसे अभी और भी करोड़ों को देखना है | प्राचीन काल में हर समाज में अनेक पैगम्बर हुआ करते थे- अब ऐसा समय आयेगा कि दुनिया के हर शहर की हर गली में पैगम्बर घूमेंगे |प्राचीन काल में समाज के कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार खास-खास व्यक्ति ही पैगम्बर माने जा सकते थे | अब तो ऐसा समय आने वाला है, जब समझा जाने लगेगा कि धार्मिक व्यक्ति होने का अर्थ ही पैगम्बर बन जाना है, और तब तक कोई धार्मिक नहीं होता, जब तक वह पैगम्बर नहीं बन जाता | तब हम लोग समझेंगे कि कतिपय विचारों को समझ लेना तथा उन्हें समझा देना ही धार्मिकता का रहस्य नहीं है, वरन जैसा कि वेद कहते हैं आध्यात्मिक तत्वों की अनुभूति करनी होगी तथा और भी उच्च और अन- आविष्कृत तथ्यों का संधान करना होगा, उन्हें समाज के लिये सुलभ करना होगा |"
तुलनात्मक धर्माध्यन ऐसे श्रेष्ठ शिक्षकों, धर्माचार्यों, ऋषि-तुल्य नेताओं या पैगम्बरों के निर्माण की कुंजी है | विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को  पैगम्बर बनाने के लिये पर्शिक्षण- केंद्र होना चाहिये | सम्पूर्ण विश्व को पैगम्बरों से भर देना होगा- और जब तक कोई पैगम्बर नहीं बनता, तब तक तो धर्म उसके लिये तुच्छ और महज मजाक का विषय रहेगा | " ( २ : २४२-४३ ) 
और इसी प्रकार हम क्रमशः उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह ' मनुष्य निर्माण आन्दोलन '  आधारित है |                         
3. " तुलनात्मक धर्माध्यन नेताओं के निर्माण की कुंजी है "
  (The Study of Comparative Religions )
*विवाह व्याभिचार-त्याग के अतिरिक्त और क्या है ?
स्वामी विवेकानन्द ने मानव जाति के सार्विक कल्याण के लिये ( ३० नवंबर १८९४ को डा० नंजुन्दा  राव को लिखा पत्र में ) लगभग ७३ वर्ष पूर्व ही अपनी ' दूर-दृष्टि क्षमता ' का प्रयोग कर, १९६७ तक- अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को  पश्चमी बंगाल में आविर्भूत होता हुआ देख लिया था - जो आगे चलकर बिना ' त्यागी या गृही ' का भेद-भाव किये, या आस्तिक-नास्तिक में से किसी का भी वहिष्कार ( Exclusion ) किये बिना सभी ' साधू-युवाओं ' को प्रशिक्षित कर मानव जाति के लिये 'श्रेष्ठ-शिक्षक ' या मार्ग-दर्शक ' नेता ' के रूप में ढाल देने में समर्थ एक सशक्त  केंद्र के रूप में  भारत के कोने कोने  में प्रतिष्ठित हो जायेगा|  
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था  - " The time is coming when we shall understand that to become religious means to become a prophet, that none can become religious until he or she become a prophet...and The study of religions should be The training to make prophets. The schools and colleges should be training grounds for prophets. " ( C.W.vol:6:page 10) 

" तुलनात्मक धर्माध्यन ऐसे श्रेष्ठ शिक्षकों, धर्माचार्यों, ऋषि-तुल्य नेताओं या पैगम्बरों के निर्माण की कुंजी है | विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को  पैगम्बर बनाने के लिये पर्शिक्षण- केंद्र होना चाहिये | सम्पूर्ण विश्व को पैगम्बरों से भर देना होगा- और जब तक कोई पैगम्बर नहीं बनता, तब तक तो धर्म उसके लिये तुच्छ और महज मजाक का विषय रहेगा | " ( २ : २४२-४३ )
{ अन्यत्र कहते हैं -" जब तरंग एक स्थान पर उठती है, तो दूसरे स्थान पर गर्त पद जाता है | यदि एक राष्ट्र धनवान बनता है, तो दूसरे कंगाल हो जाते हैं | शुभ अशुभ को संतुलित करता है | जो मनुष्य इस क्षण तरंग के शिखर पर है, वह सोचता है कि सब भला है ; और गर्त के तले में स्थित व्यक्ति कहता है कि संसार में सब कुछ अशुभ ही है | किन्तु इन सब उत्थान-पतन को द्रष्टा भाव से देखने वाला व्यक्ति, अलग खड़ा व्यक्ति इस दिव्य लीला को देखता रहता है | कुछ रोते हैं और दूसरे हँसते हैं |
अपनी बारी आने पर वे रोयेंगे और दूसरे हँसेंगे |...संसार सदा वही रहेगा हममें से कितने लोग शुभ करने के उद्देश्य से काम करते हैं ? कितने कम ! वे अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं | ...एक उसे छः कहता है , दूसरा आधा दर्जन | ...जीव जितना ऊँचा होता है, इन्द्रिय-सुख का आकर्षण उतना ही कम होता है | तुम सदा ऊँचे आनन्द के लिये निम्न सुख को त्याग देते हो | यह है व्यावहारिक धर्म - मुक्ति की प्राप्ति, त्याग | त्यागी ! निम्न को त्यागो, जिससे कि तुमको  उच्च प्राप्त हो सके | समाज का आधार क्या है ? नैतिकता, सदाचार, नियम | त्यागो ! अपने पडोसी ( सगे भाई ) की सम्पत्ति हथियाने की, अपने पडोसी पर चढ़ बैठने की सारी लालसा को, दुर्बलों को यातना देने के सारे सुख को, झूठ बोलकर दूसरों को ठगने के सारे सुखों को त्यागो | क्या यह समाज अब भी केवल नैतिकता की बुनियाद पर नहीं टिका हुआ है ?क्या नैतिकता समाज का आधार नहीं है ?" 
" विवाह " , व्याभिचार- त्याग के अतिरिक्त और क्या है ? बर्बर विवाह नहीं करते | मनुष्य विवाह करता है, क्योंकि वह त्यागता है | यह क्रम इसी प्रकार चलता जाता है | त्यागो त्यागो बलि दो ! छोड़ दो ! शून्य के लिये नहीं - कुछ न पाने के लिये नहीं | वरन ऊँचा उठने के लिये | पर तुम पूर्ण त्याग तब तक नहीं कर सकते जब तक सचमुच ऊँचे नहीं उठ जाते | तुम इस पर चर्चा करते हो, संघर्ष करते हो ...पर जब तुम ऊँचे उठ जाते हो तो वैराग्य स्वयं आ जाता है | तब न्यूनतर स्वयं ही छुट जाता है | " (३:१७५-७६)         
वे  १८९४ में ही स्वामी रामकृष्णानन्द ( शशि महाराज ) को लिखे एक पत्र में कहते हैं - " मूकं करोति वाचलं पंगुम लंघयते गिरिम - मुझे उनकी कृपा पर आश्चर्य है | याद रखना, सब उनकी ही इच्छा से होता है - I am a voice without a form | ...हजारों  " गौरी माताओं " की आवश्यकता है, जिनमें उन्ही के समान महान एवं तेजोमय भाव हो |... हम सभी को चाहते हैं - हममें एक बड़ा दोष यह है कि हम अपने सन्यास धर्म के प्रति गर्व का अनुभव करते हैं | पहले-पहल उसकी उपयोगिता थी, अब तो हम लोग पक गये हैं ( निरन्तर स्वरूप में स्थित हो कर कार्य कर सकते हैं ), उसकी ( I am holier than thou कि ) अब बिल्कुल आवश्यकता नहीं | समझे ? सन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद न करना चाहिये, तभी वह यथार्थ सन्यासी हो सकेगा | ..जिसे प्रभु उठाते हैं, वही उठता है, जिसे वे गिराते हैं, वह गिरता है, ...परन्तु ' अहं ' - खोखला अहं - जिसके पास तिनके को भी भष्म करने या उड़ा देने की शक्ति नहीं, अगर किसी से कहे, ' मैं कभी तुम्हें उठने न दूंगा ', तो कितनी उपहासास्पद बात है ! 
यही jealousy और absence of conjoined action - अर्थात इर्ष्या और मिल-जुल कार्य करने की शक्ति का आभाव गुलाम जाति का nature   है ; एक हो कर कार्य करो ! हमलोग सार्वभौमिक धर्म स्थापित करने जा रहे हैं, ( गृही -त्यागी, आस्तिक-नास्तिक या भाषा के नाम पर) गुटबाजी करके ? " ( ३ :३५९-६२ )
" प्रत्येक मनुष्य का विकास उसके अपने स्वभावानुसार ही होना चाहिये |...अतः हमें चाहिये कि अच्छे धर्म-प्रचार परिषद् बनाकर  या बुरे ( मुफ्त में गेहूं या मुक्ति देने का लालच देकर ) उपायों द्वारा - दूसरों को अपने धर्म ( सन्यासी बन जाने का दबाव ) और सत्य के उच्चतम आदर्श पर लाने की चेष्टा करने के बदले,
हम उनकी वे सब बाधाएं हटा देने का प्रयत्न करें, जो उनके निजी धर्म ( सच्चा गृहस्थ धर्म ) के उच्चतम आदर्श के अनुसार विकास में रोड़े अटकाती हैं, और इस तरह उन लोगों की चेष्टाएँ विफल कर दें, जो सभी मनुष्यों के लिये एकमात्र धर्म ( सन्यास-धर्म ) की स्थापना का प्रयत्न करते हैं | ... समस्त मानव जाति का चरम लक्ष्य एक है - और वह है भगवान, या अल्ला या God से पुनर्मिलन, अथवा दूसरे शब्दों में उस ईश्वरीय स्वरूप की प्राप्ति, जो प्रत्येक मनुष्य का प्रकृत स्वभाव है | " ( ३ :१६९ )  
सांसारिक मनुष्य और सद्-गृहस्थ में अन्तर को स्पष्ट करते हुए खेतड़ी के राजा अजित सिंह को लिखते हैं - " सांसारिक भावापन्न व्यक्तियों के समक्ष वही वस्तु सत्य है, जिसके विनमय से उन्हें अर्थ की प्राप्ति होती हो ; और जिसके बदले में उन्हें धन-लाभ नहीं होता, वह उनके लिये असत्य है |  ...किन्तु जिन व्यक्तियों की जीवन-तृष्णा इन्द्रिय-जगत के परे स्थित अमृत-जल ( आबे जम-जम ) के दिव्य सलिल-पान से संपूर्णतः बुझ चुकी है, जिनकी आत्मा ने - सर्प के केंचुल-त्याग की तरह- कामिनी, कांचन और नाम-यश की स्पृहा रूपी त्रिविध बन्धनों को दूर फेंक दिया है, जिनका मन शान्ति के अत्युच्च शिखर  पर पहुँच गया है और जो वहाँ से,  इन्द्रिय-भोगों में आबाद तथा नीच जनोचित कलह, विषाद, और द्वेष, हिंसा में रत व्यक्तियों को प्रेम तथा करुणा की दृष्टि से देखते हैं, जिनके संचित पूर्व सत्कर्म के प्रभाव से आँखों के सामने से अज्ञान का आवरण लुप्त हो गया है, जिससे वे असार ' नाम-रूप ' को भेदकर प्रकृत सत्य ' अस्ति-भाति-प्रिय ' का दर्शन करने में समर्थ हुये हैं, - ..या मायावी जगत में जो एकमात्र प्रकृत सत्ता है, उसके अनुसन्धान में रत प्रत्येक व्यक्ति के लिये ( गृही हो त्यागी ) ' भारत ' आशा की एक प्रज्ज्वलित शिखा है |.
..बौद्ध धर्म का एक भाग भयानक कुसंस्कारों और कर्मकाण्डों में फंस गया, ...उसके द्वारा आर्य, मंगोल एवं आदिवासियों का जो एक विचित्र मिश्रण हुआ, उससे अज्ञात रूप से कितने ही बीभत्स वामाचार-सम्प्रदायों की सृष्टि हुई |
इसीलिये श्री शंकराचार्य और उनके मतानुयायी सन्यासियों ( दशनामी संप्रदाय- गिरी, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, सरस्वती और आश्रम आदि ) को उन महान आचार्य बुद्ध के इस विकृत रूप में परिणत उपदेशों को भारत के बाहर निकाल देना पड़ा |....ब्राह्मणत्व एवं क्षत्रियत्व पर अभिमान करने वाली केवल कुछ मिश्रित जातियाँ ही शेष रह गयीं, मनु-सूत्र पर अभिमान करने वालों को भी - कि इस ब्रह्मावर्त या ब्रह्मर्षि देश में पैदा हुए ब्राह्मणों से ही संसार के सभी मनुष्य चारित्र- निर्माण की शिक्षा प्राप्त करेंगे ',  इन लोगों को दीन वेष में दाक्षिनात्यों के पदप्रांत में बैठ कर विनयपूर्वक शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी |..फलस्वरूप वेदान्त का ऐसा पुनरुत्थान  हुआ जैसा भारत ने और कभी नहीं देखा था ; यहाँ तक कि गृहस्थाश्रमी भी आरण्यकों के अध्यन में संलग्न हो गये |" ...गीता ५:१९ में कहा है-' जिनका मन साम्य-भाव में अवस्थित है, उन्होंने जीवित दशा में ही संसार पर जय-लाभ कर लिया है | '..और जब तक मानव ( चाहे सन्यासी हो या गृहस्थ ) इस साम्य-ज्ञान को प्राप्त नहीं करता, तबतक वह कभी मुक्त नहीं हो सकता | " ( ९ : ३५१-५६ )             
वर्तमान युग का (हिन्दी-युवक ?) हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पन्थों की भूलभुलैया में भटका हुआ ....जिन राष्ट्रों ने निरी भौतिकता के सिवाय कभी भी और कुछ नहीं जाना, उनसे अपने पूर्वजों के धर्म को समझने की चेष्टा कर ...अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेयवादी बन जाता है या अपनी धार्मिक प्रकृति की प्रेरणाओं के कारण धर्मान्तरण कर लेता है |केवल वे ही बच पाते हैं जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सदगुरु के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो चुकी है | " ( ९: ३६१)' भगवान श्री रामकृष्ण को सन्यास-आश्रम ' श्री तोता पुरी ' से प्राप्त हुआ ' ...सिद्धान्त यह निकाला गया कि - ' अपरोक्षानुभूति  सम्पन्न कोई भी मनुष्य ' आप्त ' हो सकता है !..ब्रह्म की अनुभूति और मोक्ष की प्राप्ति किसी अनुष्ठान, मत, वर्ण, जाति या संप्रदाय  पर अवलम्बित नहीं है | कोई भी साधन- चतुष्टय- सम्पन्न साधक उसका अधिकारी बन सकता है | साधन-चतुष्टय सम्पूर्ण ( चरित्र - निर्माण ) या चित्तशुद्धि करने वाले कुछ अनुष्ठान मात्र हैं |१-नित्यानित्यवस्तुविवेक २- इहामुत्रफलभोगविराग  ३- शम आदि षट सम्पत्ति
४- मुमुक्षत्व -मोक्षलाभ की प्रबल इच्छा.
चाहे पूर्व प्रयत्न करे, चाहे पश्चिम, भारत कभी यूरोप नहीं बन सकता, जबतक कि वह मर-मिट न जाये | ...जिस भूमि में ऋषि-तुल्य मनुष्य अभी भी जीवित और जाग्रत हैं, क्या मर जायेगा ? ...जो यह समझते हैं कि सनातन धर्म का यह पुनरुत्थान देशभक्ति की प्रवृत्ति का विकास मात्र है, वे भ्रम में हैं | ...क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जब कि वर्तमान वैज्ञानिक खोज के प्रबल आक्रमण के सामने मतान्ध और हठधर्मी धर्मों के पुराने किले टूट टूटकर धूलि में मिल रहे हैं, जब कि आधुनिक विज्ञान के हथौड़ों की चोटें उन धार्मिक मतों को चीनी मिट्टी के बर्तनों की तरह चूर चूर कर रही हैं, जिनका आधार केवल विश्वास या चर्च-समिति की सभाओं का बहुमत है, ...इनमें से अधिकांश तो रद्दीखाने में डाल दिए गये, जबकि पश्चिम के अधिकांश विचारशील व्यक्ति चर्च के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ कर ..वेदों का धर्म ही पुनरुज्जीवित हो रहे हैं |
जिसमे कहा गया है- प्रत्येक स्त्री-पुरुष, यही नहीं उच्चतम देवों से लेकर पदतलस्थ कीट पर्यंत सभी वही आत्मा हैं, कोई ज्यादा विकसित कोई अविकसित है | अन्तर प्रकार में नहीं, केवल परिणाम में है | आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक  उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने पर ही होने से मनुष्य ही ईश्वर में रूपान्तरित हो जाता है | पहले हमें ईश्वर बन लेने दो | तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे | ' Be and Make ' - अर्थात बनो और बनाओ, यही हमारा मूल-मंत्र रहे ! "  ( ९:३७९) 
हमें इस भारत-निर्माण सूत्र -  ' Be and Make ' को अपने ह्रदय में सर्वोच्च स्थान देना होगा, इसको कार्य रूप देना ही सच्ची देश-भक्ति है | ' केवल देश के लिये मर जाना ही नहीं, केवल देश ही के कल्याण के लिये ही - जीना भी सच्ची देश-भक्ति है |  किन्तु ' ऋषि-तुल्य नेता ' बनना या ' यथार्थ मनुष्य ' बन जाना दोनों एक ही बात है, तथा इस ' मनुष्य-निर्माण आन्दोलन ' के मर्म को भली भाँति समझ लेना, सबों के लिये उतना आसन भी नहीं है |
हमारा यह आन्दोलन किस प्रकार हमें उन्नत कराता हुआ, पूर्णत्व -प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करा रहा है, इसका सारांश समझने के लिये अभी मानव इतिहास को लम्बी यात्रा करनी होगी | मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित अन्तः शक्ति या ' अनन्त सम्भावना ' ही अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती जा रही है और वह स्वतः ही पूर्णता की ओर आगे  बढ़ रही है | ' पूर्णत्व ' शब्द के मर्म को भी आत्मसात कर लेना उतना आसन नहीं है | शास्त्रों में कहा गया है -
पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णात पूर्ण मुदच्यते |
  पूर्णस्य पूर्णमादाय       पूर्णमेवावशिष्यते | |

- ' पूर्णमदः ' अर्थात वह ब्रह्म पूर्ण है, अर्थात वह इतना ' बृहद ' है की, उससे बाहर कुछ भी नहीं है ! फिर ' पूर्णं- इदं ' में इदम, अर्थात इससे ही निकला हुआ, यह दृष्टि गोचर बाह्य-जगत भी पूर्ण है | कैसे ? क्योंकि वही पूर्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड में अनुस्यूत है, प्रविष्ट है, या ओतप्रोत है, वस्तुतः ब्रह्म ही जगत हो गये हैं ! 
और ' पूर्णस्य पूर्णमादाय ' कहने से तात्पर्य यह है की यदि तुम स्वयं इस सत्य की अनुभूति कर सको कि वही ' पूर्ण ' तुम्हारे साथ साथ इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण कण में भी प्रविष्ट है तो फिर उस ' पूर्ण ' के बाहर शेष बचा क्या ? इसी को कहा गया - ' पूर्णमेवावशिष्यते ' ! 
जब अपरोक्षानुभूति हो गयी तो ह्रदय से अनुभव करो कि यहाँ जो कुछ भी जगत के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है वह भी ब्रह्म के सिवा अन्य कुछ नहीं है | 'मनुष्य जीवन का उद्देश्य इस अन्तर्निहित पूर्णता को अपने ही ह्रदय में आविष्कृत करना है | हममें से प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में कितने सारे दुःख, अपमान झेलने के साथ साथ थोड़ी खुशियाँ भी नसीब होतीं हैं, वे सभी समग्ररूप से इसी दिशा में अग्रसर रहने में सहायता करती हैं | सुख-दुःख के हिचकोले खाते हुए इस  " पूर्णता '' के लक्ष्य तक पहुँच जाना ही मनुष्य के जीवन की सच्ची कहानी है, यही मानव जीवन का सच्चा इतिहास है |
किन्तु अधिकांश मनुष्य अपनी अन्तर्निहित ' पूर्णता ' से अनभिज्ञ ही रह जाता है | इसीलिये प्रत्येक मनुष्य को सजग रहकर, पूरे मनोयोग के साथ पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर रहना चाहिये | सामान्यतः मनुष्य अज्ञान-अविद्या की स्थिति में ही रहता है, उसके ह्रदय में आत्म-ज्योति प्रज्ज्वलित नहीं हो पाती है,इसीलिये हम प्रार्थना करते हैं -  
तमसो मा ज्योतिर्गमय
असतो मा सद् -गमय   ;
       मृत्योर्मा अमृतं गमय |      
- अर्थात हे ईश्वर ! हमें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो | हमें अविद्या और अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर, इन्द्रियों से परे, देश-काल-परिणाम से परे, ' परम सत्य ' के जगत में ले चलो, हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो | हमें स्वयं उस पूर्णता को प्राप्त कर ऋषि-तुल्य नेता या ' यथार्थ मनुष्य ' बन जाना चाहिये तथा अपने आस-पास रहने वाले प्रत्येक युवाओं को वैसा ही ' नेता ' बनने के पथ पर अग्रसर होने में सहायता करनी चाहिये |
' जब जब धर्म की अवनति होती है और अधर्म बढ़ता है, तब मैं पुनः धर्म की संस्थापना के लिये अवतीर्ण होता हूँ |' (गीता ४ :७) यह वाक्य संसार में आध्यात्मिक शक्ति-प्रवाह के सनातन उत्थान और पतन के नियमों का मूल मंत्र है ! ' ( ९ :३५० ) समय समय पर धरती पर मानव जाति के मार्ग-दर्शक सच्चे नेता आते रहे हैं जिन्होंने मनुष्यों को पूर्णत्व प्राप्ति के लक्ष्य पर आरूढ़ कराने में अपनी नेतृत्व-क्षमता को नियोजित किया है | 
ऐसे नरदेवों को ही मानव जाति का सच्चा नेता कहा जाता है | 
किन्तु आज नेता शब्द गाली के जैसा बन गया है, उसका कारण यही है कि हमने मानव-जाति के सच्चे नेताओं को भगवान का नाम देकर उन्हें बना मन्दिर में बंद कर दिया है तथा, राजनीती के क्षेत्र के नेता को ही अपना नेता बनालिया है |किन्तु इस प्रकार के नेता (मधु कोड़ा टाइप ) को ' गिरोह का सरदार ' कहा जा सकता है, ' नेता ' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे एक अलग ही प्रकार के झुण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं | परन्तु जब हम महामण्डल में ' नेता ' के गुणों पर चर्चा करते हैं तो हमारे मन में ' गिरोह के सरदार ' - टाइप नर-पशुओं का चेहरा नहीं उभरता | 
किन्तु जब हम यहाँ महामंडल में ,' नेता और नेतृत्व -क्षमता ' की वास्तविक व्याख्या सुनते हैं- तो हमारे आँखों के समक्ष वैसे ही ' नरदेव ' - रूपी ' नेता ' का चित्र उभरता है जिसकी चर्चा गीता में की गयी है ! ' विष्णु सहस्त्रनाम ' में भगवान विष्णु का एक नाम ' नेता ' भी है | उसी कसौटी के अनुसार निश्चय ही श्री रामकृष्ण परमहंस एक नेता थे, बल्कि महान नेता थे !
स्वामी विवेकानन्द भी मानव जाति के युवा नेता थे, ईसा मसीह, पैगम्बर मोहम्मद , बुद्ध, श्री चैतन्य, श्री राम,  श्री कृष्ण आदि भी मानव जाति के श्रेष्ठ नेता थे | इसीलिये जब महामण्डल में नेतृत्व या नेता के ऊपर चर्चा होती है तो हमारी आँखों के सामने ऐसे ही यथार्थ नेताओं  की छवि रहती है | हम सबों के मन में इन्हीं महान नेताओं की कम से कम एक छोटी सी अनुकृति जैसा भी बन सकने का दृढ संकल्प अवश्य रहना चाहिये | यह  दृढ-संकल्प ही ' नेतृत्व-क्षमता ' का आधार है |
हममें से जिन्होंने विवेकानन्द साहित्य पढ़ा है, वे जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द यह मानते थे कि - समाज की सच्ची सेवा करने में न तो  घोर निर्धन व्यक्ति और न अत्यन्त धनवान व्यक्ति ही समर्थ हो सकता है | उसी प्रकार न तो शिक्षा के क्षेत्र कई ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ रखने वाले नामी-गिरामी पंडित लोग और न तो बिल्कुल कोई अज्ञानी मनुष्य ही मानव जाति की सच्ची सेवा कर सकता है | स्वामीजी ने तो बार बार धन और शिक्षा की दृष्टि से दोनों अतियों के मध्य रहने वाले व्यक्तियों पर विशेष जोर दिया है | क्योंकि अतियों के बीच जीने वाले लोग कभी भी पूर्णतया निःस्वार्थी नहीं बन सकते हैं | वे दूसरों के कल्याण के लिये अपने प्राणों की बाजी कभी नहीं लगा सकते हैं | क्योंकि जिनके पेट में अन्न का दाना नहीं, या जो अशिक्षा, अज्ञान के घोर अन्धकार में जीने को विवश हैं, वे कभी मनुष्य जाति या समाज के कल्याण के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर के मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के महान विचार को अपने अन्तः करण में धारण ही नहीं कर सकता है |   
  सामान्यतः यह देखा जाता है कि ' अत्यधिक धन-सम्पदा ' या ' डिग्रियों का ढेर ' किसी भी मनुष्य में अहंकार या ' मद ' उत्पन्न कर देता है | जिनको किसी महापुरुष से यथार्थ शिक्षा प्राप्त हो गयी है वे ही जानते हैं कि ' मद ' को ' दम ' में कैसे परिवर्तित कर दिया जाता है |महाभारत में कहा गया है - ' मद या भोगाकंक्षा को आत्मसंयम में रूपान्तरित करने में समर्थ मनुष्य के ह्रदय में ही सबों के कल्याण के लिये प्रेम प्रवहित होने लगता है |' यदि हमारे ह्रदय में अनन्त ज्ञान अनन्त प्रेम का एक भी स्फुलिंग प्रज्ज्वलित न हो तो दूसरों की निःस्वार्थ करने की इच्छा उत्पन्न ही नहीं हो सकती | इससे यह  स्पष्ट हो जाता है कि महामण्डल केइस चरित्र-निर्माण आन्दोलन को इसके लक्ष्य तक पहुँचाने में सक्षम नेता वही बन सकते हैं जो धन और शिक्षा के क्षेत्र में माध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हों | 
स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास के विक्टोरिया हाल में जो प्रसिद्द व्याख्यान दिया था उसका शीर्षक है - ' मेरी क्रन्तिकारी योजना ' | उनके मन में जो कार्य योजना थी, महामण्डल उसी योजना को प्रारंभिक तौर से भारत के युवाओं के बीच क्रियान्वित करने का प्रयत्न विगत ४३ वर्षों से करता चला आ रहा है | वह ' क्रन्तिकारी -योजना ' - क्या है ? वह है, समाज के प्रत्येक व्यक्ति को प्रशिक्षण देकर -  शारीरिक, मानसिक, तथा आर्थिक दृष्टि से उन्नत करने के साथ साथ उसके ह्रदय को भी इतना उदार और करुणापूर्ण बना देना कि उसमे व्यक्तिगत सुख भोग कि इच्छा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी भी जगह न बचे | त्याग और तेजस्विता में उसे इस स्तर तक प्रशिक्षण दिया जाय कि भोगाकांक्षा की थोड़ी सी गंध भी वहाँ बची न रहे | उसका शरीर और मन हृष्ट-पुष्ट होने के साथ साथ ह्रदय को भी अति विशाल और करुणापूर्ण बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ श्रेष्ठ शिक्षकों या नेताओं का निर्माण हजारों की संख्या में करना ही महामण्डल के ' नेतृत्व प्रशिक्षण ' का प्रधान उद्देश्य है |
किसी नेता के ' ह्रदय ' का विकास ऐसा होना चाहिये वह त्याग-तितिक्षा में ' वज्र ' के समान कठोर होने के साथ साथ फूलों जितना ' कोमल ' भी हो ! ऐसे ह्रदय को ही प्राप्त करना ही नेता का प्रधान कर्त्तव्य है जो -' वज्रादपि  कठोरानि मृदुनि कुसुमादपि ' एक साथ रहे ! हमारा ह्रदय अपने दोषों को दूर हटाने के समय ' वज्र '  के जैसा कठोर रहे, किन्तु दूसरों को भी ' त्याग और तितिक्षा ' में प्रतिष्ठित होने के लिये कठोर प्रयास करने पर भी बिलम्ब होते देख कर कभी कटु वचन नहीं बोलना चाहिये |उसे यह अवश्य अनुभव होना चाहिये कि ' त्याग ' में प्रतिष्ठित रहने, या लालच को बिल्कुल त्याग देने में संघर्ष करते समय बड़े बड़े ऋषि-मुनि भी डगमगा जाया करते थे |
किन्तु उसके ह्रदय ने तो ' त्रिविध सर्पकेंचुल '- कामनी,कांचन और नाम-यश को त्याग पाने में समर्थ होने में ' माँ ' की कृपा को होते देखा है, इसीलिये, वह ( उसका ह्रदय ) पुष्प के समान कोमल होकर, शान्ति के उस  शिखर पर पहुँच गया है जहाँ से, वह - इन्द्रिय-भोगों में रचे-बसे तथा नीच जनोचित कलह, विषाद, और द्वेष, हिंसा में रत व्यक्तियों को भी प्रेम तथा करुणा की दृष्टि से देखने में समर्थ बन जाता है |
महामण्डल के नेताओं का लक्ष्य - ' ह्रदय की इसी पूर्णता ' को प्राप्त करना है |  यदि हम अपने जीवन में चरित्र के सभी गुणों को धारण कर लें तो हम भी समाज में, किसी न किसी रूप में ' नेता ' या ' श्रेष्ठ शिक्षक ' का कर्त्तव्य निभा सकते हैं | 
हमारे ही शहर या गाँव में या आस-पास के गाँव में अन्य लोगों के साथ ही साथ युवाओं का एक विशाल समूह भी निवास करता है, जिन्हें इस बात से बिल्कुल अनभिज्ञ रखा गया है कि, मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है, तथा उसमे अन्तर्निहित अनन्त संभावनाएँ क्या हैं, जिन्हें ठीक ठीक समझ लेने पर उसे उसका कितना बड़ा लाभ हो सकता है !उनके पास जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, मनुष्य ' जीवन ' क्या है - उसके बारे में भी उनका अपना कोई निजी दृष्टिकोण अभी तक विकसित न हो सका है, उनके अपने जीवन का कोई विशिष्ट लक्ष्य भी नहीं है | हमलोग उनको नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं |
हमलोग उनके निकट जाकर उनसे कहेंगे - हे भाईयों, आओ यह समझने का प्रयास करें कि मनुष्य जीवन को देव-दुर्लभ या अति मूल्यवान, आखिर क्यों कहा जाता है ? शायद तुम नहीं जानते कि इस मानव तन का सर्वोत्तम लाभ कैसे लिया जा सकता है ?अभी तुम अपने जीवन को क्रमशः गठित करके  उन्नति के शिखर पर पहुँचने के प्रति तनिक भी उत्सुक नहीं हो | जीवन-गठन की पद्धति को सीखने से यह जीवन अत्यन्त सफल और सुगंधपूर्ण बन सकता है | सुगठित मनुष्य जीवन का निर्माण कर लेने से बढ़कर, मूल्यवान ' सम्पदा ' और कुछ भी नहीं है, जिसके स्वामी - तुम भी बन सकते हो |
हम उनसे कहेंगे - मेरे मित्रों, देखो तुम्हें तो पहले ही से- ' त्रय - दुर्लभं ' में से एक,  यह दुर्लभ मानव तन  प्राप्त हो चुका है, अब यदि जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने की पद्धति भी सीख लो, तो किसी महापुरुष का का आश्रय और जीवन-मुक्त नेता बनने का अवसर भी प्राप्त हो सकता है ! यही इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ है | मानव-तन प्राप्त करने का सर्वोत्तम लाभ क्या है ? यही कि हमें कुत्ते की मौत मरने के लिये विवश कोई नहीं कर सकता है |
{ स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -  महान पुरुषों की मृत्यु हुई है |  दुर्बलों की मृत्यु हुई है | देवताओं की मृत्यु हुई है | मृत्यु - सब ओर मृत्यु | यह संसार अनन्त अतीत का कब्रिस्तान है, फिर भी हम इस शरीर से चिपटे रहते हैं -और इसी भ्रम में जीते हैं कि : ' मैं कभी मरने वाला नहीं हूँ ' | हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि इस शरीर को भी मरना होगा, फिर भी इससे चिपटे हुए हैं | पर उसमे भी एक अर्थ है ; क्योंकि एक अर्थ में ' हम ' कभी नहीं मरते,( आत्म-स्वरूप की दृष्टि से - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !) 
गलती यह है कि हम शरीर से चिपटे रहते हैं, जब कि जो आत्मा है, वह वास्तव में अमर है | ...इस पहचान में होने वाली भूल को समाप्त करो ! तुम इसमें कितने आगे बढ़े हो ? तुम दो हजार अस्पताल भले ही बनवा लो, ५०,००० भले ही बनवा सको, पर उससे क्या, यदि तुमने ( तैरना नहीं सीखा ) यह अनुभूति नहीं प्राप्त की है कि तुम आत्मा हो ? तुम कुत्ते की मौत मरते हो, उसी भावना से, जिससे कुत्ता मरता है | कुत्ता चीखता है और रोता है, इसलिए कि वह समझता है कि वह जड़ तत्त्व मात्र है और विलीन होने जा रहा है | 
...स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है | ईश्वर वहाँ है | वह सब आत्माओं की आत्मा है | उसे अपनी आत्मा में देखो | यह व्यावहारिक धर्म है | यही मुक्ति है | हम ( भेष में भले सन्यासी हों या गृही हों ) एक दूसरे से पूछें कि हमने इसमें कितनी प्रगति कि है ? ( भारतीय कुशल प्रश्न है - आप अभी ' स्वस्थ ' हैं ? या काया-में स्थित हैं ?  ) हम शरीर के कितने उपासक हैं ; या ईश्वर में , आत्मा में कितने सच्चे विश्वासी हैं ; हम अपने को आत्मा कहाँ तक समझते हैं ? यही निःस्वार्थपरता है | यही मुक्ति है | यह सच्ची उपासना है | ...अस्पताल ढह पड़ेंगे | रेल के दाता सब मर जायेंगे | पृथ्वी के चीथड़े उड़ जायेंगे, सूर्यों का सफाया हो जायेगा | आत्मा का ही अस्तित्व सदा रहेगा |
अधिक ऊँचा या अधिक व्यावहारिक लक्ष्य क्या है ? उन नाशवान वस्तुओं को प्राप्त करने के पीछे दौड़ना, जीवन की सारी उर्जा नष्ट कर देना, जिनको प्राप्त करने से पहले ही मृत्यु आ जाती है, और तुमको उन सब को छोड़ ही देना होता है ? अथवा उसकी पूजा करना जिसमे कभी परिवर्तन नहीं होता ?उस महान राजा ( सिकंदर ?) की भाँति जिसने सबकुछ जीत लिया था |जब मौत आयी, तो उसने कहा , ' मेरे खजाने से भरे हुए कलसों को मेरे सामने फैला दो |' उसने कहा - ' उस बड़े हीरे को मुझे दो ' ! और उसने उसे अपनी छाती पर रखा और रो पड़ा | इस प्रकार वह रोते हुए मरा, वैसे ही, जैसे कुत्ता मरता है |
मनुष्य कहता है - ' मै जीता हूँ ' | वह यह नहीं जानता कि इस मृत्यु के भय के करण ही वह जीवन से दासवत चिपका रहता है | वह कहता है, ' मैं भोग कराता हूँ ' | उसे स्वप्न में भी यह विचार नहीं आता कि प्रकृति ने उसे अपना दास बना रखा है | ...इसलिए आत्मा की अनुभूति आत्मा के रूप में करना व्यवहारी धर्म है | यह अनुभूति प्राप्त होती है ( लालच )  त्याग से ध्यान से.. | ' मैं भौतिक जीवन नहीं चाहता, इन्द्रिय-जीवन नहीं चाहता , वरन उससे ऊँची वस्तु चाहता हूँ | ' - यह त्याग है |.. हम प्रकृति (रूपी मादाड़ी ) के इशारों पर नाचने वाले बन्दर हैं | यदि बाहर आवाज होती है तो मुझे वह सुननी पडती है | यदि कुछ हो रहा है तो मुझे वह देखना पड़ता है | बन्दरों की भाँति |बन्दर बड़े नकलची और जिज्ञासा प्रिय होते हैं | तो , जब हम अपने ऊपर वश नहीं रख पाते तो उसे  ' मजा लेना '  कहते हैं | यह अनूठी भाषा है | हम संसार का मजा ले रहे हैं ! या हम मजा लेने के लिये विवश हैं ? मनः संयोग वह बल है, जो हमें इन सब का सामना करने का सामर्थ्य देता है |  
तुम्हारे पास जो ज्ञान है - वह कैसे आया ?मन को एकाग्र करने से, ध्यान की शक्ति से | आत्मा ने ज्ञान ( I am He ) को अपनी गहराई से मथ कर निकाला है | क्या उसके बाहर भी कभी ज्ञान रहा है ?..... दीर्घ काल तक मनः संयोग का अभ्यास करने से, ध्यान की वह शक्ति हमें अपने शरीर से ( त्रिविध केंचुल से ) अलग कर देती है और आत्मा अपने असली अजन्मा, अमर और अनादी स्वरूप को पहचान लेती है | अब दुःख नहीं रहता, इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेना पड़ता, आत्मा जान लेती है कि वह सदा पूर्ण है और मुक्त रही है | "( ३ : १७८ -८० )               
अब हम समझ सकते हैं कि इस मानव तन से जो सर्वश्रेष्ठ लाभ प्राप्त हो सकता है, वह यही है कि हम इसी योनी में अपने पूरे जीवन को दूसरों के कल्याण के लिये न्योछावर कर सकते हैं | इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ इस मानव तन से नहीं उठाया जा सकता है | यही वह ' परम वस्तु ' है जिसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है |
श्रीमद भागवत में वर्णन आता है - श्री कृष्ण,  किशोरावस्था में अपने गोप मण्डली के बीच ' नेता ' की भूमिका का मंचन, या लीला  कर रहे थे |  वे लोग गौएँ चराते हुए जंगल में बहुत दूर तक चले गये थे | दोपहर के समय एक वृक्ष की छाया में विश्राम करती हुई गायों की ओर इंगित करते हुए श्री कृष्ण अपने मित्रों से कहते है -  
पश्यतैतान  महाभागन परार्थेएकान्त जिवितान |
वात-वर्षा-ताप - हिमान सहन्तो वारयन्ति नः | |
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राणी उप जीवनम,
सृजनस्येव, येषां वै विमुखा यान्तिनार्थिनः  |
मेरे प्रिय मित्रों ! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं ; इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई के लिये ही होता है | ये स्वयं तो हवाओं के थपेड़े,वर्षा, धूप, पाला सब कुछ सहते हैं, परन्तु ; हमलोगों की इन सबसे रक्षा करते हैं | 
अहो ! मैं तो कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन धन्य है, सार्थक है, क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को अपना जीवन निर्वाह करने में सहायता मिलती है | जिस प्रकार किसी सज्जन व्यक्ति के घर से कोई याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी, सबों को कुछ न कुछ अवश्य ही प्राप्त  हो ही जाता है |
पत्र -पुष्प-फल-छाया-मूल-वल्कल - दारूभिः |
गन्ध-निर्यास-भस्म-अस्थि त्वकमैमः कामान्वितनव्ते | |
एतावत जन्म साफल्यं देहिनाम इह देहिषु |
प्राणारथै धिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा | |
श्री कृष्ण कहते हैं - मित्रों, देखो ये विक्ष तो इतने महान हैं कि कामना करने वालों को अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद , राख, कोयला, तथा कोपलों तक को दान करके लोगों की कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं | 
इस प्रकार श्री कृष्ण, अपने आस-पास रहने वाले तरुण मित्रों को, वृक्ष की उपमा द्वारा अत्यन्त सरल शब्दों में , मानव-जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है को बड़े स्पष्ट और सुन्दर ढंग समझाते हैं | अंतिम श्लोक में ' तरुण नेता '- श्री कृष्ण कहते हैं, " उसी व्यक्ति का मनुष्य शरीर में आना सार्थक कहा जा सकता है, जो अपने शब्दों (उपदेशों) से, धन-सम्पत्ति से,  या रुपये-पैसे द्वारा, ही नहीं आवश्यकता रहने से अपने प्राणों की आहुति देकर भी प्रत्येक प्राणी का कल्याण करने में तत्पर रहता है | "  
यही तो है - सभी धर्मों में छुपा हुआ रहस्य, गूढ़ तत्त्व या  सभी धर्मों  का सर्वोत्तम अंश ! इसी धर्मों के सार तत्व को स्पष्ट करते हुए महाभारत में भी कहा गया है - 
वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम |
सर्वभूतहितं मैत्रयं पुराणं जना विदुह | |
" हे जाजले (ऋषि जी ) ! मुझे सनातन धर्म के सार तत्व का पाता लग गया है- वह क्या है ? वह है सब जीवों का कल्याण, सबों के प्रति ' प्रेम ' !" यही तो है सनातन धर्म ! मानव जाति के जिन नेताओं या श्रेष्ठ शक्षकों को धर्म का सच्चा ज्ञान  हो जाता है, उनके लिये  ' सनातन धर्म ' - (  जिसे अभी हिन्दू कहा जाता है ) की परिभाषा यही होती है | 
' सनातन धर्म ' के इस रहस्य को पहले स्वयं  अनुभव कर लेने के बाद , अपने आस- पास रहने वाले भाइयों के ह्रदय में भी धर्म की इस महान ज्योति को प्रकाशित करने की चेष्टा करनी चाहिये | विशेष रूप से जो युवा भाई महामण्डल आन्दोलन से जुड़ चुके हों, उनके ह्रदय में धर्म के इस गूढ़ रहस्य को प्रकाशित करने में अवश्य सहायता करनी चाहिये | 
विभिन्न कारणों से , इस कार्य को रूपायित करने में हर व्यक्ति सक्षम नहीं भी हो सकता है, किन्तु इस कार्य को रूपायित  करने की इच्छा महामण्डल से जुड़े सारे सदस्यों में रहनी चाहिये | क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का  मानसिक -गठन , आध्यात्मिक- विकास, यथार्थ शिक्षा , या परिवेश इस प्रकार का नहीं होता कि वह दूसरों को इस विषय में मार्गदर्शन देने में सक्षम हो सके | इसलिए, हर कोई  ' नायक ' - की भूमिका को या ' नेता ' के महत्वपूर्ण कार्य को,  अच्छे ढंग से सम्पादित नहीं कर सकता है | 
किन्तु वह व्यक्ति, जिसके मन में खुद को डूबने से बचाने के साथ साथ दूसरों को भी डूबने से बचाने की अदम्य इच्छा रहती है| यदि वैसे व्यक्ति, इसी लक्ष्य को पाने के लिये उद्देश्य से, अपने जीवन को  मानव जाति के किसी असाधारण नेता के साँचे में ढाल कर गठित सकने में सफल हो जाये, तो वैसे लोग दूसरों के लिये केवल अल्प सेवा ही न कर, दूसरों के मन को भी रूपान्तरित करने में समर्थ हो सकते हैं | क्योंकि नेता का कार्य मुख्यतः दूसरों के मन को प्रभावित करना ही होता है | 
साधारण ढंग की समाजसेवा - यथा चंदा मांग कर जरुरत-मंदों तक भोजन-वस्त्र वितरण करना,  या मोतियाबिंद का आपरेशन - जैसे अच्छे कार्य तो क्लब आदि के द्वारा आसानी से किये  जा सकते  हैं | ये सभी कार्य अवश्य अच्छे कार्य हैं,  किन्तु इससे भी बढ़ कर अच्छा और महत्वपूर्ण कार्य है, युवाओं के मन को उच्च विचारों और भावों से भरने का काम, लोगों के मन को ही उन्नत बनाने का कार्य | यही  स्वामी विवेकानन्द की कार्य पद्धति  है |
स्वामीजी ने कहा है - ' उपदेश तो तुझे अनेको दिए, मेरे उपदेशों को सच्चे अर्थों में समझ कर कार्य में लग जाओ,...कम से कम एक भी उपदेश को तो कार्य में परिणत करके दिखा दो, ताकि दुनिया यह देख सके कि तुम्हारा शास्त्र पढना और मेरे उपदेशों को सुनना सार्थक हुआ है ! '
महामण्डल की कामना भी यही है कि, स्वामीजी यह देख लें कि हमने उनके उपदेशों को सुना है |  उनके व्यावहारिक धर्म के उपदेशों को हमलोग व्यवहार में अपना कर अपने जीवन में परिवर्तन लायेंगे, जगत के कल्याण के लिये, भारत के उन करोड़ों पद-दलितों के लिये, जिनकी कल्याण की चिन्ता से स्वामीजी आंसू बहाया करते थे - हम अपने जीवन को न्योछावर कर देंगे | यह कोई हंसी-खेल की बात नहीं है, यह सर्वाधिक  आवश्यक मांग है, जिसे सुन कर प्रत्येक युवा ह्रदय में छट -पटाहट मचनी चाहिये, सीने में एक आग सी उठनी चाहिये |
स्वामीजी ने हमे पहले भी पुकारा था, वे आज भी युवाओं को ही पुकार रहे हैं, और वे सदा इसी प्रकार हमलोगों को पुकारते रहेंगे | क्या हम इसबार भी उनकी पुकार को अनसुना कर देंगे ? उन्हों ने हमें दूसरे ढंग से आशीर्वाद देते हुए कहा था - ' मुझे यह देख कर प्रसन्न हो लेने दो, कि तुमने मनुष्यों के कल्याण के लिये मृत्यु तक का वरण कर लिया है !'
इससे यह स्पष्ट है कि केवल साहसी व्यक्ति ही स्वामीजी के निकट पहुँच सकते हैं, उनकी पुकार सुन सकते हैं, तथा उनको आश्वस्त करने के लिये स्वयं को समर्पित करते हुए कह सकते हैं - ' हाँ, स्वामीजी हम आपके पद -चिन्हों पर चलने को तैयार हैं |
स्वामीजी का अनुसरन  करने का यह अर्थ नहीं कि, हम उनके जन्म तिथि को बड़े धूम-धाम से उत्सव के रूप में आयोजित करें, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम जगह-जगह स्वामीजी की मूर्ति या मन्दिर बनवाते रहें, या उस अवसर पर तथाकथित बड़े लोगों को बुलवाकर लेक्चर दिलवा दें | उनका अनुयायी होने से हमारा तात्पर्य है, उनके ही साँचे में अपने जीवन को ढाल दें, अपने जीवन को बिना कोई दिखावा किये सुन्दर ढंग से गठित कर लें | 
अपना जीवन गठन करने के पीछे कोई निहित स्वार्थ , कोई पुरस्कार पाने की इच्छा, या धन्यवाद का शब्द सुनने की इच्छा भी मन में नहीं उठनी चाहिये | हमारे जीवन-गठन का एकमात्र उद्देश्य होगा कि यह भारत माता कि सेवा के योग्य बन जाये | 
देश वासियों की जो सर्वोत्तम सेवा हमारे द्वारा हो सकती है, वह यही है कि हम उनके मन को  उदार भावों और उन्नत विचारों से परिपूर्ण कर दें |  स्वामीजी के उपदेशों को अभी तक ठीक से समझा नहीं गया है, यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे स्वीकार कर लेना आसन नहीं है | स्वामीजी को समझने के लिये  केवल ' Head ' या बुद्धि का रहना ही यथेष्ट नहीं है, यदि हम स्वामीजी को समझना चाहते हों तो हमें अपना ' Heart ' या ह्रदय के बन्द कपाट को भी खोल देना होगा ! स्वामीजी की हमसे यही अपेक्षा थी कि हमारे  ' ह्रदय का घट ' या ' कलश '  प्रेम की ज्योति से पूर्ण हो जाये | ' ज्योति-कलश छलके ' !                              
विज्ञान की काल्पनिक कथाओं में, भावी मनुष्य की आकृति को,  बहुधा इस प्रकार चित्रित किया जाता है कि मनुष्य के मस्तिष्क में विकास होते रहने से एक दिन, निर्बल और छोटे शरीर पर-  सिर काफी बड़े आकार का होगा | परन्तु यदि इसी कल्पना को,  स्वामीजी की ऋषि-दृष्टि से भविष्य के मनुष्यों की आकृति को देखने की चेष्टा करे तो, उसके शरीर का सिर बड़े आकार का होगा, जिसमे एक चौड़े से सीने में बड़ा सा दिल रखा होगा ! भविष्य का मानव प्रेम से परिपूर्ण ह्रदय वाला होगा, जिसके ह्रदय में सम्पूर्ण मानव जाति के लिये ,सच्ची करुणा होगी, जिसका शत्रु कोई नही होगा, उसके मित्र सभी होंगे
भविष्य का मानव अपने तथा सम्पूर्ण जगत के बीच एकात्मता का अनुभव कर लेने में समर्थ होगा ! जब हम इस प्रकार के मनुष्य बनने में समर्थ हो जायेंगे तो हम सब भी नेता बन सकेंगे | आज मानव जाति को हजारों की संख्या में ऐसे ही नेताओं की आवश्यकता है |
महामण्डल ऐसे ही नेताओं का निर्माण करने वाला आन्दोलन है | इस आन्दोलन का प्रारंभ हुए अभी सिर्फ ४३ वर्ष ही हुए है, तथा किसी राष्ट्र के जीवन में ४३ वर्ष कोई ज्यादा माने नहीं रखता है | यदि भारत को पुनरुज्जीवित होना है, तो इसे केवल सच्चे आध्यात्म की शक्ति से जगाया जा सकता है , और श्री रामकृष्ण ने उस आध्यात्मिक ज्वार के फाटक को एक बार फिर से खोल दिया है | हमलोगों को उस आधात्मिकता के ज्वार रूपी तीर्थ में डुबकी लगानी चाहिये, विश्व  मानवता के प्रति प्रेम तथा आत्म-उत्सर्ग के अतिरिक्त आध्यात्मिकता और क्या है ? ह्रदय की उदारता, निः स्वार्थपरता, इन्द्रिय भोगों के त्याग के सिवा आधात्मिता और क्या है ? 
अतः आइये हम सभी आध्यात्मिक मनुष्य बनें, पूर्ण हृदयवान मनुष्य बने , तथा आस-पास रहने वाले प्रत्येक मनुष्य को इसी प्रकार का आध्यात्मिक मनुष्य बनने के लिये अनुप्रेरित करें | महामण्डल के नेता का कर्त्तव्य है की वह नेतृत्व के इस गूढ़ रहस्य को भारत के ही नहीं विश्व के प्रत्येक मनुष्य तक पहुँचा दे | इसी कार्य को रूपायित करने में समर्थ नेता हम सब को अवश्य बनना है ! संसार के सभी धर्मों का तुनात्मक अध्यन कर ' धर्म ' के गूढ़ रहस्य को या सच्ची आध्यात्मिकता को समझने में समर्थ मनुष्य ही - मानव जाति का नेता बन सकता है ! नेता में किसी के 
4.जीवन को नैवेद्य स्वरुप गढ़ने की योग्यता भी रहनी चाहिये. 
(Dynamic Leadership and Static Leadership )  
आप  यह चाहते हैं कि, मै नेता हूँ इसलिए दूसरों को मेरी सेवा करनी चाहिये, किन्तु चूँकि आप नेता हैं इसलिए दूसरों की सर्वाधिक सेवा करने की जिम्मेदारी भी आपकी ही है, क्या आप दूसरों की सेवा कर सकते हैं ? यदि हाँ तो नेता बनने का पहला गुण आप में विद्यमान है | आप स्वयं से यह प्रश्न पूछ का कर देखिये कि क्या आप अपने से छोटे-बड़े सभी के सम्मान का ध्यान रखते हैं ? क्या आप अपने से वरिष्ठ पदाधिकारियों या ज्येष्ठ भ्राताओं  की आज्ञा का पालन करते हैं ?
यदि इन प्रश्नों का उत्तर भी हाँ है तो, दूसरे भी अवश्य तुम्हें सम्मान देंगे तथा तुम्हारी आज्ञा का पालन भी करेंगे |   इसीलिये नेता को बिल्कुल अभिमानरहित और आज्ञाकारी होना चाहिये | हमलोगों को सदैव श्री रामकृष्ण , श्री श्री माँ सारदा एवं स्वामी विवेकानन्द के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिये किन्हीं कि कृपा  से {- ' यह पंगु  लंघयते गिरिम ' -} मुझे अपने युवा भाइयों का नेता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है ! साथ ही मुझे यह भी नहीं सोचना चाहिये कि, ' उन पवित्र त्रिशक्तियों की कृपा ' - केवल मुझी को प्राप्त हो |  
बल्कि मैं अपनी प्रतिभा और कुशाग्र बुद्धि का उपयोग, अपने दूसरे सहयोगियों को  भी इसी प्रकार की निःस्वार्थ सेवा भावना  को जाग्रत कराने के उद्देश्य से उत्साहित और अनुप्रेरित करता रहूँगा ताकि वे भी उनकी कृपा प्राप्त करने के लिये आगे बढ़ें|ताकि वे भी अपने भोगाकांक्षाओं तथा इन्द्रिय सुखों को त्याग कर यथार्थ मनुष्य बन जाने की पद्धति या मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा को ग्रहण करके अपने जीवन और सुन्दर चरित्र को गठित कर सकें, तथा वे भी अपने जीवन को दूसरों की सेवा में समर्पित कर दें | आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है |
यदि महामण्डल आन्दोलन से संलग्न हममें से कुछ भाइयों में भी ऐसे गुण हों,ऐसी इच्छा और दृढ संकल्प हो कि, मैं दूसरों को दिखाने या नाम-यश पाने की इच्छा,या अपनी एक पहचान बनाने की इच्छा से इस आन्दोलन का नेता नहीं बनूंगा, बल्कि केवल दूसरों की अधिक से अधिक सेवा करने के सौभाग्य को प्राप्त करने की इच्छा से - ही चुपचाप, बिना कोई दिखावा किये, सदैव निःस्वार्थ भाव से अपनी नेतृत्व-क्षमता (आधात्मिक-शक्ति ) का प्रयोग करूँगा- वैसे सभी भाई श्रेष्ठ शिक्षक या नेता बन सकते हैं |   
नेताओं के मन स्वतः ऐसे विचार उठेंगे कि, मैं भी दूसरों कि सेवा में अपना थोडा बहुत योगदान कर सकता हूँ. थोड़ी बहुत सहायता दे सकता हूँ, किन्तु मैं केवल उतना ही करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कैसे मानलूं, उतने में ही संतुष्ट हो कर क्यूँ बैठ जाऊं ? मैं स्वयं तो दूसरों की सेवा करूँगा ही पर साथ साथ दूसरों को इसी प्रकार निःस्वार्थ भाव से सेवा करने के लिये प्रोत्साहित भी करूँगा |
अपने मित्रों को प्रोत्साहित करने के लिये मैं केवल गाल नहीं बजाऊंगा, बल्कि अपने जीवन को ही उदहारण स्वरूप बना कर उनके समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत कर दूंगा, कि वे आसानी से मुझ को देख कर ही समझ जायेंगे कि, मैंने अपना सुन्दर चरित्र गठित करने में जो सफलता पायी है, वह मुझे किस उपाय से प्राप्त हुई है; इस सत्य में मेरी अटल आस्था कैसे हो गई कि मानवता की सेवा, ही ईश्वर की पूजा है !
मैं अपने जीवन से ही यह भी दिखाने का प्रयास करूँगा कि मैंने अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्यागने का कौशल कैसे सीखा, सभी प्रकार के इन्द्रिय भोगों में लुफ्त उठाने कि इच्छा को बिल्कुल त्याग देने में साहस और सामर्थ्य कैसे प्राप्त हुई, कुछ ही हद तक सही पर, अपने मन को अपने वश में रखने में मुझे सफलता कैसे प्राप्त हुई,दूसरों के दुःख-कष्टों को अपने दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करना मैंने कैसे सीख लिया ! महामण्डल आन्दोलन को आगे ले जाने के लिये, हजारों कि संख्या में ऐसे ही नेताओं कि आवश्यकता है|  
तथा हम सभी लोग ऐसा ही नेता बनने और बनाने का पूरा प्रयास करेंगे, छोटे से दायरे में या चन्द लोगों की थोड़ी बहुत सेवा करके ही हम संतुष्ट हो कर बैठ नहीं जायेंगे | हमें नेता बनना चाहिये, तथा तथा स्वयं को स्वामी विवेकानन्द के साँचे में ढाल कर, उनके ही जैसा दूसरों को भी नेतृत्व करने करने के लिये अनुप्रेरित करने की क्षमता होनी चाहिये. साधारण ढंग से अन्य लोग जिस प्रकार समाज- सेवा का कार्य करते हैं, बहुत से लोगों की उस प्रकार की सेवा स्वामीजी ने भी कई बार की थी, किन्तु इसतरह के सेवा से कई गुना अधिक महत्वपूर्ण सेवा उन्होंने दूसरे के मन में - ऐसे सुन्दर और उच्च विचारों को संप्रेषित करके की थी, कि उनसे प्रेरणा-प्राप्त कई लोगों का जीवन इस सीमा तक रूपान्तरित हो गया , कि अब उनको पहचानना भी कठिन था | 



{Sister Nivedita, also known as Margaret Noble, was born in Ireland in 1867. After finishing her education, she settled down in England as a teacher. During this period, she happened to meet Swami Vivekananda at a London home in the year 1895. 
Greatly attracted by his teachings, she accepted him as her Master and followed him to India. It was the Swami, who called her by the name "Nivedita” meaning highly dedicated to the almighty God.
Swami Vivekananda’s principles and teachings had an imprint on her mind and heart and this brought about a major change in the way she lived her life. She became so inspired with the teachings and vision of the Swami that she forsake her career in England and travelled to India.

Sister Nivedita wrote in 1904 to a friend about her decision to follow swami Vivekananda: “Suppose he had not come to London that time! Life would have been like a headless dream, for I always knew that I was waiting for something. I always said that a call would come. And it did...."}


 उनसे अनुप्रेरित होने के बाद कईयों का जीवन पूर्णतया रूपान्तरित हो कर भारत माता की बलीवेदी के लिये नैवेद्य स्वरूप बन गया था, जिसे उन्होंने भारत के कल्याण में ' निवेदित ' कर दिया था | हमलोगों में भी इसी प्रकार एक नैवेद्य स्वरूप जीवन, भारत-कल्याण में पूर्णतया समर्पित जीवन गढ़ देने की क्षमता होनी चाहिये, नेतृत्व का यही आधार भूत सिद्धान्त है |   
{१६९९ की बैसाखी के ऐतिहासिक दिन गुरू गोबिन्द सिंह जी ने धर्म की रक्षा के लिए, स्व-राष्ट्र के लिए संगत के समक्ष कृपाण लहराते हुए एक शीश देने की बात की थी। संगत ने यह सुना तो चहुं ओर सन्नाटा छा गया था। गुरू जी ने एक ऐसे सिख के शीश की मांग पुनः की। सबसे पहले लाहौर (पंजाब) के भाई दया राम, जो कि जाति के खत्री थे, खड़े हुए। उन्हें साथ के एक टैन्ट में ले जाया गया। गुरू जी ने पुनः शीश की मांग की। इस बार हस्तिनापुर मेरठ के धर्म दास नाम का जाट बन्धु आगे आये। उन्हें भी टैन्ट में ले जाया गया। अगली ललकार पर एक सिख भाई मोहकम चन्द, जो कि छीपा समाज से था और द्वारिका (गुजरात) का निवासी था, खड़ा हुआ। उसके बाद झीवर समाज का भाई हिम्मत राय आगे आया, जो कि जगन्नाथपुरी क्षेत्र का निवासी था। अन्त में भाई साहिबचन्द खड़े हुए, जो कि नाई समाज के थे और बिदर (कर्नाटक) के निवासी थे। इन पांचों को पुनः संगत के समक्ष नये स्वरूप में पेश किया गया। पांचों को वीर आसन में ÷खण्डे की पाहुल' अर्थात अमृत का पान कराया गया । अब उनके नाम के आगे सिंह लगाया गया। अब वे भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह, भाई मोहकम सिंह, भाई हिम्मत सिंह, भाई साहिब सिंह हो गये । हम उन्हें ÷पंज प्यारे' कह कर सम्बोधित करते हैं। गुरू गोविन्द सिंह जी ने उन्हें खालसा शब्द से सम्बोधित किया। वे अब क्षेत्रवाद और जातिवाद से परे धर्म-देश की रक्षार्थ सर्वस्व न्यौछावर करने वाली शख्सीयत में तब्दील हो चुके थे।
खालसा को अकाल पुरुष की फौज कहा गया। खालसा पंथ में नैतिकता एवं सच्चाई के प्रति उदारता का संचार करने के लिए गुरु जी ने पहले पांच प्यारे को अमृत छकाया तथा फिर उसी बाटे में स्वयं अमृत का पान किया। गुरु और खालसा, रहन-सहन, खान-पान तथा रहित मर्यादा के अनुसार एक हो गए। गुरु जी ने खालसा को अपना खास रूप कहकर पुकारा। खालसा में यह आस्था भी दृढ की कि मेरा अध्यात्म चिन्तन खालसा में निवास करता है। यह सब कुछ आनंदपुर साहिब की धरती पर घटित हुआ है।
सिख धर्म का प्रगामी चिंतन एवं दर्शन खालसा पंथ के निर्माण के साथ नई ऊंचाईयों को छूता है। गुरु गोविन्द सिंह की विचारधारा ने भारतीय दर्शन को भी नए आयाम दिए। उस महान परम्परा को नए संदर्भो से जोड कर खालसा पंथ के रूप में नई ज्योति प्रज्वलित की। गुरु जी संत भी थे, सिपाही भी, दार्शनिक भी थे, महान साहित्यकार भी, वीर-योद्धा भी थे और उच्च कोटि के राजनीतिज्ञ भी। 
खालसा पंथ की सिरजनासे उत्तरी भारत का राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य बदल गया। आम लोगों में स्वाभिमान जाग उठा। लोग ईट का जवाब पत्थर से देने के लिए तैयार हो गए। गुरु जी ने चिडियों में बाज जैसी शक्ति भर दी। खालसा पंथ से जुडा प्रत्येक वीर सिपाही सवा लाख की फौज से टक्कर लेने के लिए तैयार हो गया। ऐसी स्थितियों के प्रेरणा स्त्रोत दशम गुरु, गुरु गोविन्द सिंह थे। वीरता व पराक्रम में उनका मुकाबला नहीं था। भारतीय युवकों को वे कहा करते थे कि-''सवा लाख से एक खड़ाऊ,
चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं,तबै गोविन्द सिंह नाम कहाऊँ''। खालसा को चरित्रवान व पराक्रमी बनाये रखने के लिए उन्होनें पांच ककार- 1. कृपाण 2. केश 3. कंघा, 4. कच्छा व 5. कड़ा धारण करने के लिए कहा। खालसा के लक्षण पूछने पर दशमेश गुरू ने एक बार कहा कि खालसा वह है जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर काबू पा लिया हो तथा अभिमान, परस्त्री गमन, पर-निन्दा तथा मिथ्या विश्वासों के भ्रमजाल से सदा दूर रहता हो। जो दीन-दुखियों की सेवा व दुर्जन-दुष्टों का विनाश कर निरन्तर श्रद्धापूर्वक प्रभु नाम के जप में लीन रहता हो।
खालसा' शब्द के अर्थ श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी के अन्तर्गत भक्त कबीर साहिब जी की वाणी में है -कहु कबीर जन भये खालसे, प्रेम भगति जिन जानी।'' (पृष्ठ ६५४)भाव - जो जन प्रभु की प्रेम भक्ति में लीन होकर परमात्मा के हो गये, .......... खालसे हो गये। यहां खालसा का अर्थ है, वे जो परमात्मा के हो गये। भाई गुरदास (द्वितीय) ने लिखा है -गुरसंगत कीनी खालसा।''अर्थात खालसा वह है, जो गुरू द्वारा प्रदत्त संगत का सहभागी होता है। जमीनों के बन्दोबस्त में फारसी का एक परिभाषिक शब्द है - खालसा जमीनें। जो भूमि अति उर्वरा हो, जिसके अन्दर बीजा गया बीज तुरन्त अंकुरित होता हो, जिस पर फसल लहलहाती हो, उसे खालसा कहते हैं। समाज के फीके फलसफों के बीच क्रियाशील जीवन पद्यति का नाम -खालसा' है। अतः गुरू गोबिन्द सिंह जी का खालसा नवीन विचार के धरातल पर अति उर्वरा है व राष्ट्र-केन्द्रित है, प्राण-प्रण से अकाल पुरख परमात्मा का है, गुरू की प्रदत्त संगत करता है।   
मानवता के विकास में खालसा पंथ की देन किसी से छुपी नहीं है। जुलम से टक्कर लेने के लिए तो सिख भाईचारा सदा ही तैयार रहता है, परंतु इसके साथ ही शांति बहाल करने में भी सिख भाईचारे की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सामाजिक, आर्थिक, एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में इस महान कौम ने अपने यश के ध्वज फहराई है। राष्ट्रीय अखण्डता, सुरक्षा, एवं सौहार्द बरकरार रखने में भी खालसा पंथ के चरण हमेशा आगे बढे है। देश की स्वतंत्रता में भी सिख भाईचारे ने जो पहल और हिम्मत दिखाई है वह किसी से छुपी नहीं। गुरु नानक, गुरु अंगद देव की नैतिकता गुरु अमर दास, रामदास एवं गुरु अर्जुन देव की सहनशीलता तथा गुरु तेग बहादुर की शहीदी ने जो महान रास्ता भारतवासियों को दिखाया उसकी दृढ निशान देही गुरु गोविन्द सिंह ने खालसे की सिरजनाकी। भारतवासियों के लिए यह बैसाखी का अमर संदेश है।डा. हरमहेन्द्रसिंह बेदी}
आधुनिक युग के एक प्रसिद्द जीव-विज्ञानी (Biologist), सर जुलियन हक्सले का मानना है, कि जिस प्रकार ' भौतिक-जगत ' ( Physical World ) के लिये एक विज्ञान है, ठीक उसी प्रकार का एक विज्ञान हमारे ' अन्तर-जगत ' ( Internal World ) के लिये भी है | जिस प्रकार भौतिक पदार्थों एवं उर्जा ( Matter and Energy ) के कुशल प्रबंधन के लिये हमारे पास एक यन्त्रशास्त्र (Engineering) है, ठीक उसी प्रकार हमारी अन्तःशक्तियों तथा आन्तरिक सामग्रियों ( Inner materials and powers ) का कुशल प्रबंधन सीखने और लाभ उठाने के लिये एक अलग ही अभियांत्रिकी विज्ञान है |
जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करने कि अभियांत्रिकी सीख कर हम बाह्य प्रकृति की प्रचण्ड शक्तियों को भी अपने लिये उपयोगी बना लेते हैं, उसी प्रकार अन्तः प्रकृति में विद्यमान संसाधनों को भी मानवोपयोगी बनया जा सकता है |जैसा की आप सभी जानते है, स्वामीजी ने भी सारे युवाओं को इसी 'अन्तः-प्रकृति ' और ' बाह्य-प्रकृति ' दोनों को वशीभूत कर - अपनी अन्तर्निहित आधात्मिक -शक्ति को अभीव्यक्त करने का आह्वान किया था ! 
जिस प्रकार बाह्य प्रकृति की शक्तियों को वशीभूत करके मानवोपयोगी बना लेने का विज्ञान है, उसी प्रकार  अन्तः प्रकृति में विद्यमान, अन्तः उर्जा स्रोतों के ऊपर नियन्त्रण रखकर पूरी दक्षता के साथ अपनी आध्यात्मिक उर्जा को मानवों के कल्याण में नियोजित किया जा सकता है | यदि इस विज्ञान को सर जुलियन हक्सले के शब्दों में कहा जाये,तो इसे " The Science of Human Development " या ' मानवीय उन्नति का विज्ञान 'कहा जा सकता है | इसलिए हमें इन दोनों विज्ञानों में निपुणता प्राप्त करनी  चाहिये | महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने इन दोनों को science न कहकर - ' two- religion's ' की संज्ञा दी है |
' मुण्डक-उपनिषद ' में एक प्रसंग है- आज से हजारों वर्ष पूर्व ' शौनक ', उस युग का एक युवा छात्र उस समय के एक बड़े विश्वविद्यालय(ऋषिकुल ) के अधिष्ठाता, और गुरु ' महर्षि अंगीरा ' के निकट शास्त्रोक्त-विधि पूर्वक ( हाथों में समिधा की लकड़ी लेकर ) आये और बहुत विनयपूर्वक पूछा-' कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ' अर्थात, हे भगवन ! क्या ऐसी कोई विद्या है, जिसको जान लेने से - ' इदं-सर्वम  ' यह सब कुछ( गो-गोचर जगत है, ) निश्चय पूर्वक जाना हुआ हो जाता है ? उत्तर में उनके गुरु, अंगीरा ऋषि कहते हैं- " द्वे विद्ये वेदितव्ये " - हाँ, शौनक ! ब्रह्मज्ञ ऋषियों का कहना है कि इसके लिये ' दो विद्याओं ' को सीखना आवश्यक है, एक है ' परा-विद्या ' और दूसरी है ' अपरा-विद्या ' | तुम इस अपरा-विद्या या ' science of external world ' को सीख कर इस भौतिक जगत के बारे में सबकुछ जान सकते हो, और दूसरी ' परा-विद्या ' को सीख कर तुम आन्तरिक जगत के बारे में भी सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हो ! देखिये क्या विलक्षण बात है !
हमारे अति-प्राचीन युग के एक 'ऋषि यहाँ ' दो प्रकार की विद्या ' या ' two sciences ' को सीखने की प्रेरणा दे रहे हैं, और आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन उन दो विज्ञानों को ' two religions ' या दो धर्म को जानने का परामर्श दे रहे हैं | एक को वे ' cosmic religion ' अर्थात  ' लौकिक जगत का धर्म ' कहते हैं जो इस प्रत्यक्ष विश्व का ध्यान रखता है, और दूसरे को ' religion for the internal world ' अर्थात 'आन्तरिक जगत का धर्म ' कहते हैं |  
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी का अन्त आते -आते विज्ञान और धर्म या आध्यात्म एक दूसरे के बिल्कुल निकट तक पहुँच चुके हैं | जबकि स्वामीजी ने १०० वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि निकट भविष्य में ही ' धर्म और विज्ञान ' में प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा | ठीक वैसा ही घटित हो भी रहा है | यदि वैज्ञानिकों में प्रचलित आधुनिक विचारधारा के झुकाव को समझने के लिये, आधुनिक  वैज्ञानिक आविष्कारों के शोध-पत्रों का अध्यन करें, तो यह बात बिल्कुल उभर कर सामने आ जाती है कि, आधुनिक विज्ञान अब और अधिक दिनों तक धर्म का या आध्यात्मिक-सिद्धान्तों का मखौल नहीं उड़ा पायेगा, उसी प्रकार धर्म को भी विज्ञान के विरूद्ध अपना संघर्ष त्याग देना होगा | 
क्योंकि मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने के लिये दोनों आवश्यक हैं | हमारे भौतिक जीवन को कल्याणप्रद बनाने के लिये जिस प्रकार विज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार आन्तरिक जीवन में सुख शान्ति बनाये रखने के लिये धर्म या आध्यात्म भी आवश्यक है |जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मनुष्य पञ्च-तत्वों के मिश्रण से बना एक भौतिक शरीर मात्र हीनहीं है | मनुष्य वास्तव में उन पञ्च भौतिक तत्वों से भिन्न -  'और भी कुछ ' है | उस ' और भी कुछ ' के प्रति हम तभी सचेत हो सकते हैं, जब हमारे पास ' आन्तरिक जगत ' को जानने का विज्ञान या धर्म हो |  
अतः हमारे नेताओं में इतनी क्षमता अवश्य रहना चाहिये कि वह आधुनिक शिक्षा में पले-बढ़े युवाओं को भी इन 'दो-धर्मों ' या ' दो-विज्ञानों ' ( या अंगीरा ऋषि के भाषा में -' द्वे विद्ये वेदितव्ये ') के संश्लेषण को, या संयोजन से परिचित करा सके | क्योंकि इन दोनों विज्ञानों को समझ लेने पर ही वे एक शक्तिशाली कार्यकर्ता बन सकते हैं, केवल तभी दूसरे दुःख कष्टों का अनुभव करने वाले ह्रदय के साथ साथ, उनके पास उन दुखों को दूर हटा देने में सक्षम- कुशाग्र बुद्धि और शारीरिक बल भी होगा |
ऐसा ही नेतृत्व हर जगह के लिये आवश्यक है, इसलिए  हम जहाँ कहीं भी जायेंगे कुछ युवा भाइयों को इकठ्ठा करके इन्हीं उच्च विचारों द्वारा उन्हें भी उत्प्रेरित करेंगे | सामान्य रूप से अभी के लोगों में, विशेष रूप से आजकल के युवाओं में कोई- ' निश्चित जीवन लक्ष्य ' नहीं होता | उनलोगों को अपने जीवन का लक्ष्य युवा काल में ही निर्धारित कर लेने के महत्व को समझा देने की योग्यता नेता में होना चाहिये | उनमे अपने जीवन के प्रति कोई दृष्टिकोण होता है न अपना कोई जीवन दर्शन होता है | अधिकांश युवा तो यह भी नहीं जानते, कि जीवन क्या है ?उनको यह समझाना चाहिये कि स्वामी विवेकानन्द ने जीवन को कैसे और क्यों परिभाषित किया है ? वे कहते हैं - " एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिये अविराम चेष्टा कर रही है, और बाiह्य प्रकृति और परिवेश उसको दबाये रखने के लिये प्रयास रत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने की इस चेष्टा का नाम ही जीवन है | " 
अन्यत्र कहते हैं - " असीम शक्ति का एक स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है | और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों-त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है, वह उनका परित्याग कर उच्चतर शरीरी धारण करता चला जाता है | यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या प्रगति का इतिहास | वह भीमकाय बद्धपाश ' प्रोमिथिअस ' मानो अपने को बंधन-मुक्त कर रहा है | किन्तु इन सब बातों से वंचित अधिकांश युवा यह भी जानने का प्रयास नहीं करते कि ' मनुष्य ' योनी को महामुल्यावन क्यों कहा जाता है ?
वे तो बस यही समझते हैं कि यह तो मुफ्त में बना-बनाया मिल गया है, अब इसको फिर से गठित करने की कोई जरुरत नहीं | हमें यह जीवन बस यूँ ही आकस्मिक संयोग से मिल गया है, और बहुतो को जीवन के सदुपयोग करने का अर्थ यही समझ में आता है, कि शरीर और इन्द्रिय विषयों का भरपूर लुत्फ़ उठाना ही जीवन का सदुपयोग करना है | इन्द्रिय विषयों में बहुत सुख है, इसलिए इसका भरपूर उपभोग करना चाहिये |किन्तु यह तो निरा पागलपन है, अज्ञान है, भयंकर मुर्खता है !
इस आन्दोलन से जो नया नेतृत्व उभर कर सामने आयेगा, वह मुर्खता के मकड़जाल में फंसे इन युवाओं को उससे बाहर खींच लेने में समर्थ होगा| वह युवाओं को सन्मार्ग का पता बतायेगा, अज्ञान के अन्धकार को दूर कर उनको एक नये जीवन का सन्देश देगा | वह अपने मित्रों को बताएगा कि इस जीवन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्य है |मनुष्य जीवन कि अनन्त संभावनाओं के सम्बन्ध में उनको जानकारी देनी होगी | 
स्वामीजी कहते हैं - ' इस मोह-निद्रा को त्याग कर उठ खड़े हो ! तुम्हारे ही भीतर अनन्त संभावनाएँ , अनन्त शक्ति का स्रोत छुपा है, बस वह केवल तुम्हारे ही द्वारा उदघाटित होने कि प्रतीक्षा कर रहा है |यदि तुम इस सत्य को जान लो , यदि तुम उसके राह में पड़ी रूकावट को हटा देने कि पद्धति सीख लो, तो तुम स्वयं ही जीवन कि बहुमूल्यता का अर्थ जान लोगे, और तभी तुम अपने जीवन से सर्वोत्तम आनन्द उठा पाओगे !यदि तुम अपने ' जीवन कि पूर्णता ' को प्राप्त कर लो, आत्म -साक्षात्कार कर सको, तो उस भूमा-आनन्द कि तुलना में इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सारे अल्प विषय-सुख तम्हें अत्यन्त तुक्ष जान पड़ेंगे | और उस भूमा आनन्द को पा लेने का यह रास्ता -  'Be and Make ' वाला रास्ता , बिल्कुल सरल और विज्ञान सम्मत प्रणाली पर आधारित है |
  यदि तुम इस पद्धति को सीख लो, मनः संयोग के महत्व को समझ लो तो तुम भी उन्नत हो सकते हो, तुम भी अपने व्यक्तित्व का विकास कर उसे प्रभाव शाली बना सकते हो, तथा इस मानव तन को पा कर इस मनुष्य जीवन का पूरा मूल्य वसूल सकते हो | अमेरिका के प्रसिद्ध अज्ञेयवादी श्री इंगरसोल ने एक बार कटाक्ष करते हुए, स्वामीजी से कहा - ' देखते हैं, स्वामीजी ; हम पाश्चात्य वाले इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत को छोड़ कर अन्य किसी वस्तु को सत्य नहीं समझते, अतः हम इस जगत के सारे सुख लूट लेना चाहते हैं, ' we want to squeeze the orange ' -अर्थात हम इस (जगत-रूपी ) सन्तरे का सम्पूर्ण  रस निचोड़ लेना चाहते हैं "|
इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा - ' हाँ,हम भारतीय भी इस सन्तरे को अवश्य निचोड़ना चाहते हैं, किन्तु हम इस जगत-रूपी सन्तरे को निचोड़ने कि तुमसे उत्कृष्ट-प्रणाली (त्याग पूर्वक भोग करने कि विधि ) जानते हैं,जिससे हमें उसका सम्पूर्ण रस प्राप्त हो जाता है, जब कि तुम्हें केवल कुछ बूंदें ही नसीब होती हैं !क्योंकि रस निचोड़ने के बाद तुम जिसे असार वस्तु समझकर फेंक देते हो, उसमें तब भी रस कि कुछ बुँदे शेष बची राह जातीं हैं | हम भारतीय सन्तरे से सम्पूर्ण रस निचोड़ लेने कि विद्या जानते हैं '| इसी कौशल को सीख लेने कि आवश्यकता है |   
किसी अन्य अवसर पर भी ऐसे ही किसी प्रसंग में स्वामीजी ने कहा था- ' You  are squeezing the orange and we squeeze the mango.' अर्थात ,' तुम पाश्चात्य लोग सन्तरे को निचोड़ रहे हो, और हम भारतीय आम-रस पीते हैं|' किन्तु सन्तरे के रस के साथ आम-रस की तुलना के पीछे उनका अभिप्राय क्या था, इसकी व्याख्या उन्होंने कहीं नहीं की है | शायद स्वामीजी के कथन का यह अभिप्राय रहा होगा कि, प्रत्येक फल में कुछ सिट्ठी या सारहीन पदार्थ बचा रह जाता है,जिसको हमें अवश्य फेंक देना चाहिये |
हमलोग जानते हैं कि आम में एक कड़ी सी गुठली भी रहती है, आम का रस निकाल लेने के बाद जो गुठली या सारहीन वस्तु बची हुई है उसको बाहर फेंकने का साहस भी तुममें अवश्य होना चाहिये |उसी प्रकार इस मनुष्य-जीवन में भी कुछ वस्तुएं ऐसी हैं जो सरस, मधुर, सुस्वादु, स्वास्थ्य वर्धक और कल्याण कारी हैं, उस मधुर-रस का पान अवश्य करो, किन्तु कुछ असार चीजें भी हैं, उनको तो कमसे कम अपने मुख से मत काटो|यदि तुम आम की गुठली को भी दांतों से काटना चाहोगे तो मुख का स्वाद बिगड़ जायेगा |
अतः प्रत्येक युवा को युवावस्था में ही जान लेना चाहिये कि, अपने जीवन से मिलने वाले किस रस का तुम्हें पान करना है, और किस रस को दूर से ही विष के जैसा जान कर त्याग देना है |किन्तु हममें से अधिकांश लोग अभी भी, आम कि कड़ी गुठली को ही दांतों से चबाने कि चेष्टा कर रहे हैं, क्योंकि हमें अभी तक आम के गुदे के,(या नारियल कि गरी के ) स्वाद का कुछ पता ही नहीं है | यहीं पर ' विवेक ' पूर्वक विचार करने के कौशल को, या आन्तरिक इन्जियरिंग को सीखना अति-आवश्यक हो जाता है !
आपके समक्ष जो कुछ भी परोस दिया जाय, उसको वैसे ही निगलने मत लगिए, बल्कि अपनी विवेक-क्षमता के प्रयोग से - ' good and pleasant '  अथवा ' हितकर और रुचिकर ' के फर्क को महसूस करने के बाद ही उसका उपभोग कीजिये |क्योंकि सामने परोसी गयी प्रत्येक ' रुचिकर या मनोहर ' वस्तु आपके स्वास्थ्य के लिये हितकारी नहीं भी हो सकती है | अतः उसमे से केवल उन्ही का सेवन कीजिये जो ' पौष्टिक आहार ' कि श्रेणी में आता हो और आपके लिये स्वास्थ्य वर्धक भी हो | कुछ आहार तो ऐसे हैं जिनका सेवन करते ही आपके शरीर में या मन में विषैली-प्रतिक्रियाएं होने लगती है| अतः हमलोगों को विषोत्पादक खाद्य-सामग्रियों या आहार को अविलम्ब त्याग देना चाहिये | केवल स्वास्थ्यकर पदार्थों का ही सेवन करना चाहिये | तथा श्रेय - प्रेय का विवेक कर ,अन्ततोगत्वा जो हमारे लिये स्वास्थ्यकर नहीं है, उसको सदा के लिये फेंक देने का साहस दिखाना चाहिये |  
हम सभी लोग जीवन में केवल सुख ही पाना चाहते हैं, किन्तु सच्चा सुख क्या है इसे नहीं जानने के करण ही हम अक्सर 'सुख ' का आवरण में छुपे दुःख को ही प्राप्त करते हैं | इसीलिये गीता में मानव जाति के सच्चे नेता श्री कृष्ण कहते हैं - 'सुखों का भोग करने से पूर्व विवेक द्वारा यह निर्णय कर लेना चाहिये कि कौन सा सुख सच्चा-सुख है और कौन सा नहीं है | सुख तीन प्रकार के हैं, सात्विक,राजसिक, और तामसिक |सामान्यतः हम सभी लोग पहले तामसिक सुख की तरफ ही दौड़ते हैं, या फिर राजसिक सुख (दाद-दिनाई खुजलाने से पहले सुख बाद में महा पीड़ा ) |
 "जो सुख आरम्भ में विष की तरह दुःख दायक है, किन्तु परिणाम में अमृत के समान है, और जो सुख आत्मनिष्ठ बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होता है, वह सात्विक सुख है |"(गीता : १८ :३७ )" रूप, रस आदि विषयों और इन्द्रियों के संयोग से जो सुख उत्पन्न होता है, और जो सुख आरम्भ में अमृत तुल्य लगता है, किन्तु परिणाम में विष की तरह दुःख दायक है, उसे राजसिक सुख कहते हैं " (गीता : १८ : ३८ )" जो सुख आरम्भ और परिणाम में बुद्धि का मोह्जनक है, और जो सुख अति निद्रा, आलस्य और असावधानता से उत्पन्न होता है, उसे तामसिक सुख कहते हैं | "(गीता:१८:३९)तुमने आँवला और हर्रे का नाम सुना होगा, जब इन्हें पहले मुख में डालकर चबाया जाता है तो आरम्भ उनका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु जब इन्हें चबाने के बाद थोडा पानी पी लेते हो तो इसका स्वाद भी अच्छा लगता है और इनसे हमारे शरीर को सच्ची पौष्टिकता भी प्राप्त होती है |अतः यही है सात्विक सुख |   
अतः केवल अपने क्षुद्र सुखों का भोग करने के लिये ही जीवन धारण करना, घोर स्वार्थपरता ही नहीं अपितु देवदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर उसे नष्ट कर देने जैसा है | तथा महामण्डल के नेता अपने आस-पास रहने वाले भाइयों के मन में ऐसे ही उच्च विचारों को भरने के लिये केवल मुख से न बोल कर जीवन से दिखा देते हैं |" मनुष्यों की सच्ची सेवा , उनके मन में उच्च भावों को प्रविष्ट कराकर भी की जा सकती है ! "              
5. नेतृत्व का गूढ़ रहस्य 
(The Secret of Leadership )

 [* 'नेता' की विशेष आध्यात्मिक शक्ति- " जगत को ब्रह्ममय देखने कि शक्ति (या 'खुली आँखों से ध्यान करने की शक्ति' में सन्निहित है!" ]
किसी भी नेता में इंतनी क्षमता तो रहनी ही चाहिये कि वह अपने जीवन को चारित्रिक गुणों से विभूषित कर सके,किन्तु इसके साथ ही साथ उसमें अपने आस-पास रहने वाले अन्य लोगों को भी इस सम्बन्ध में मार्गदर्शन करने की प्रतिभा भी अवश्य रहनी चाहिये | यही हमारा मुख्य कार्य है, और महामण्डल विगत ४३ वर्षों से इसी कार्य को करता आ रहा है | अपने अनुभवों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि,आज इस कार्य-योजना कि एक अपेक्षाकृत स्पष्ट छवि हमारे सामने है, तथा इस योजना को कार्यान्वित करने के लिये हमारा संकल्प पहले की अपेक्षा कई गुना अधिक दृढ हुआ है !
हमारा यह उद्यम कोई साधारण स्तर पर की जाने वाली समाज सेवा नहीं है, हमारा उपाय है- ' मनुष्य-निर्माण '  तथा हमारा  आदर्श-वाक्य है - ' Be and Make ' अर्थात ' स्वयं मनुष्य बनो और मनुष्य बनने में दूसरों की भी सहायता करो !' अतः इस मनुष्य-निर्माण आन्दोलन से जुड़े सभी नेताओं का कर्त्तव्य है अपने चारित्रिक गुणों के मानांक को उन्नत करते रहने के लिये प्रयत्नशील रहना, साथ ही साथ अपने आस-पास रहने वाले भाइयों को भी अपना चरित्र-गठित करने के लिये निरन्तर प्रोत्साहित करते रहना | क्योंकि यदि इस उद्यम में हम असफल रह गये, तो  अन्य किसी भी परिमाण में की गयी समाज सेवा का कोई स्थायी परिणाम प्राप्त न होगा, और उस दिशा में किया गया सारा परिश्रम अन्ततोगत्वा व्यर्थ सिद्ध होगा | ५ 
अतः महामण्डल आन्दोलन से जुड़े नेताओं को, समाज-सेवा के किसी भी उपक्रम में-चाहे वह प्रोढ़ शिक्षा परियोजना हो, सर्व शिक्षा अभियान हो, शिशु आधारित उपक्रम हो, विद्यालय या छात्रावास का सञ्चालन करना हो, या बच्चों को पोलियो ड्राप देना हो, या अन्य कुछ भी, में प्रवृत होने के पूर्व यह स्मरण कर लेना चाहिये कि; उस सेवा-कार्य में संलग्न कार्यकर्ताओं में चारित्रिक गुणों की वृद्धि के लक्ष्य को पाने के उद्देश्य से ही वह सेवा परियोजना हाथों में ली गयी है | यदि उस सेवा के माध्यम से महामण्डल कर्मियों के चारित्रिक गुणों को उन्नत करने में कोई सहायता नहीं पहुँचती तो वैसी समाज-सेवा कोई मूल्य नहीं है | महामण्डल द्वारा आयोजित किये जाने वाले किसी भी समाज-सेवा उपक्रम को सन्चालित करने की यही अनोखी कार्यप्रणाली है |
स्वामी विवेकानन्द की यह हार्दिक इच्छा थी की दुःख-कष्ट में पड़े मनुष्यों के लिये कोई न कोई सेवा-प्रकल्प अवश्य चलना चाहिये, किन्तु वे ऐसा कभी नहीं चाहते ते, कि हम बिना कोई व्यक्ति लाभ उठाये ही उन उपक्रमों को आजीवन चलाते रहें | समाज-सेवा के माध्यम से महामण्डल कर्मियों को भी कुछ-न-कुछ फायदा अवश्य उठाना चाहिये |सामान्य लोग किसी भी कार्य ( या आन्दोलन ) से जुड़ने का उद्देश्य, प्रायः केवल धन कमाना ही समझते हैं |
कुछ अन्य लोग समाज में थोड़ी पहचान बनाने, या नाम-यश पाने के उद्देश्य से भी सत्कर्म कर दिया करते हैं |किन्तु महामण्डल के नेता के मन में इस प्रकार कि कोई इच्छा नहीं उठनी चाहिये, बल्कि यदि तुम किसी की कुछ आर्थिक मदत न भी कर सको, तब भी ऐसी चेष्टा करनी चाहिये कि, उनके कल्याण के लिये ईश्वर से सच्ची प्रार्थना ही करके ही, अपने ह्रदय को उदार बनाने का लाभ उठा लेना चाहिये | अर्थात किसी भी तरीके से समाज-सेवा करते समय - चरित्र के गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिये तथा अपने ह्रदय का विस्तार करने के उद्देश्य से, त्याग-बलिदान करने कि क्षमता में कितनी उन्नति हुई इसका भी ध्यान रखना चाहिये | 
यदि तुम किसी भी प्रकार के सेवा-परियोजना से जुड़े हो, उसके लिये तुम अपना तन-मन धन का त्याग कर रहे हो, तो उस कार्य से तुम्हें अपने लिये भी कुछ लाभ अवश्य होना चाहिये |यदि समाज-सेवा के कार्य में जुड़े रहकर भी कोई लाभ नहीं हो रहा है,तो इसका अर्थ यही है कि -अभी तक तुमने सेवा के गूढ़ रहस्य को समझा ही नहीं है | इस सेवा-उपक्रम के माध्यम से कुछ मूल्यवान वस्तु प्राप्त करने की योग्यता तुममें रहनी चाहिये, इस कार्य के द्वारा नेता या कर्मी को दूसरों से अधिक त्याग करने, दूसरों से अधिक सेवा करने का लाभ अवश्य उठाना चाहिये | 
यदि महामण्डल के सभी सह-कर्मियों का ह्रदय इसी प्रकार विस्तृत होता जा रहा है, तो समझना चाहिये की ' मनुष्य-निर्माण ' का यह आन्दोलन सही दिशा में जा रहा है, और हम अपने मनुष्य ' बनो और बनाओ '- 'Be and Make ' के लक्ष्य को भूले नहीं हैं |  
महामण्डल के नेताओं को सदैव सतर्क हो कर यह देखते रहना चाहिये की. जो सेवा-प्रकल्प हमारे कर्मी  कहीं कहीं चला रहे हैं, वहाँ का कार्य सही दिशा में चल भी रहा है, या नहीं ? यदि सेवा-पद्धति में कही कोई भटकाव या दोष आ गया, तो जहाँ एक ओर वह सेवा-प्रकल्प पूरी तरह से व्यर्थ सिद्ध होगा,वहीँ  इस प्रकल्प से जुड़े अपने छोटे युवा भाइयों को भारी क्षति भी उठानी पड़ सकती है |अज्ञानतावश वे अहंवादी और स्वार्थी बन जायेंगे, ग्रामीण क्षेत्रों में रहकर सेवा-प्रकल्प चलाने वाले युवा मित्रों को कई प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है | कई प्रकार के प्रलोभनों या दुष्चक्र में फंस कर, वे ऐसे अंधे- कुएँ में गिर सकते हैं, जहाँ से उनका बाहर निकलना भी मुश्किल होगा | कठिनाईयाँ विभिन्न-विभिन्न कई रूपों में गले पड़ सकतीं हैं |
स्वतंत्रता से पूर्व भी जब कुछ सच्चे राष्ट्रवादी नेता नवयुवकों को गाँव-देहात में जा कर, अस्पताल चलाने या गृहस्थों के घरों में रहकर कोई शिक्षा-परियोजना चलाने का आदेश देते थे, तो वह ये जानते थे की यह कार्य कितना कठिन है - बिल्कुल छुरे की धार पर चलने के समान |उनमें से अनेकों का तो इतना चारित्रिक पतन हो जाता था, की अन्ततोगत्वा एक ऐसा समय भी आया था, जब सभी कहने लगे थे-' बस, बहुत हो चुकी समाज-सेवा, बोरिया-बिस्तर समेटो और वापस आ जाओ |'
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज-सेवा अथवा अन्य कोई उपरितौर से कल्याणकारी दिखने वाला उद्यम, या तो वह तुम्हारी सहायता कर सकता है अथवा तुम्हें चरित्र-भ्रष्ट करने के साथ-साथ सम्पूर्ण चेष्टा को भी व्यर्थ कर सकता है | 
उदाहरण के लिये संगीत-साधना एक अच्छी कला है, किन्तु इसकी साधना एक ओर जहाँ आपको ईश्वर से मिलवा सकती है, वहीं आप इसके माध्यम से स्वयं को नष्ट भी कर सकते हैं | ठीक उसी प्रकार समाज सेवा भी जहाँ एक ओर आपको प्रभावशाली व्यक्तित्व प्रदान कर सकती है,चरित्रवान मनुष्य में परिणत कर सकती है, वहीँ यदि सेवा के समय थोड़ी भी सावधानी हटी कि यह आपका सबकुछ बिगाड़ भी सकती है |अतः जब आपको ऐसा लग रहा हो कि मैं तो किसी नासमझ या जरुरतमन्द की मदत कर रहा हूँ, वहाँ भला मुझे क्या खतरा हो सकता है ? किन्तु उस समय भी आप बिल्कुल निश्चिन्त नहीं रह सकते,आपको हर समय उचित सावधानी रखनी चाहिये |
महामण्डल आन्दोलन को आगे ले जाने के लिये आप कोई भी सेवा-कार्य कर रहे हैं तो आपको हर समय यह स्मरण रखना चाहिये, इस सेवा के द्वारा मैं दूसरों का ही नहीं अपना उपकार उससे भी जयादा कर रहा हूँ | ये सभी कार्य मैं अपने चरित्र को उन्नत बनाने के लिये ही कर रहा हूँ, इसके माध्यम से मैं अपने ह्रदय का प्रेम बिना किसी प्रकार का भेद-भाव किये सबों के लिये एक समान प्रवाहित कर सकता हूँ | 
इस नयी, अनोखी दृष्टि से की गयी समाज-सेवा मुझमे सहानुभूति, सेवापरायणता, त्याग की भावना को जाग्रत कर देती है |सेवा के द्वारा निर्भयता अथवा अभिः की प्राप्ति भी अवश्य होनी चाहिये, अतः नेता को सदैव सतर्क हो कर यह देखना चाहिये कि मेरा आत्मविश्वास पहले कि अपेक्षा कई गुना बढ़ गया है, मैं अधिक निःस्वार्थपर हो गया हूँ, अब मेरे मन से सभी प्रकार कि भोगाकांक्षा का समूल नाश हो चुका है ! 
यदि महामण्डल आन्दोलन को आगे ले जाते हुए आपके जीवन में यह सब घटित हो रहा है, तब समझना चाहिये की मैं लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग पर चल रहा हूँ, और मैं अपना जीवन लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लूँगा ! इसीलिये महामण्डल जैसे पूर्व निर्धारित उद्देश्य- ' भारत का कल्याण ' को प्राप्त करने के की दिशा में अग्रसर आन्दोलन के नेताओं में ऐसी सतर्क दृष्टि अवश्य रहनी चाहिये, क्योंकि ऐसे नेताओ का निर्माण ही महामण्डल का लक्ष्य है |  
किसी भी नेता को, विशेषकर महामण्डल के नेताओं को अपना प्रत्येक कार्य को हर दृष्टि से- बिल्कुल साफ-सुथरे ढंग, या पूरी शुद्धता के साथ करना चाहिये, तथा किसी भी कार्य को ' पूजा के भाव ' से करना चाहिये, पूरा मन-प्राण देकर करना चाहिये | जैसे, जब हम किसी मन्दिर में प्रवेश करते हैं, तो हम वहाँ की प्रत्येक वस्तु को स्वच्छता तथा पवित्रता के साथ यथा-स्थान रखते हैं |यहाँ तक कि पूजा-घर में रखी मूर्ति या चित्र के समक्ष हम फूलों को भी चढाते हैं, तो उन्हें इधर-उधर न बिखेर कर, बड़े ही सुन्दर और आकर्षक ढंग सजाने कि चेष्टा करते हैं |किन्तु सार्वजनिक पूजा के अवसर पर हम इतनी पवित्रता और स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते, ऐसा होना उचित नहीं है | 
आपको स्मरण होगा कि श्री रामकृष्ण परमहंस जी, दक्षिणेश्वर के प्रसिद्द- ' माँ भवतारिणी 'के  मन्दिर में पुजारी के पद पर प्रारंभ से ही नियुक्त नहीं हुए थे | आरम्भ में वे पूजा-गृह में स्थापित मूर्ति के 'वेषकार' (dresser ) के पद पर नियुक्त हुए थे| उनका कार्य पूजा की विविध सामग्रियों,वस्त्र-अलंकरणों आदि से देवी का श्रृंगार करना, तथा फूल-चन्दन माला से पूजा-गृह की सजावट करना ही था |किन्तु पूजा की बेदी को वे फूलों - दीपों से इस प्रकार सजा-सवांर कर रखते थे की पूरा पूजा-गृह जगमगा उठता था |
बाद में उनको देवी-पूजक के पद पर नियुक्त कर दिया गया, पुजारी के रूप में वे, स्वयं के और देवी की प्रस्तर-मूर्ति के बीच के व्यवधान को मिटा देने का प्रयास करने लगे |उन्होंने यह जानना चाहा कि, ' माँ भवतारिणी ' क्या केवल एक पत्थर कि प्रतिमा हैं ? और हम जानते हैं कि वह मूर्ति अधिक दिनों तक केवल पत्थर कि प्रतिमा न रह सकी, उस मूर्ति में भी उन्होंने ईश्वर को ढूंढ़ निकाला !अब वे अपने सारे कार्य माँ से आज्ञां लेने के बाद ही करते थे, यह पूजा कि एक नवीन प्रणाली थी और उनका सम्पूर्ण जीवन ही पूजा बन गया | 
मुझे भी महामण्डल कार्यालय में जाकर विभिन्न प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं- मैं वहाँ फाइलों को सहेज कर रखता हूँ, कुछ पत्रों को टाइप करता हूँ, उन्हें लिफाफों में डाल कर उनके ऊपर पाता लिखता हूँ, उनपर डाक-टिकटों को चिपकता हूँ | किन्तु इन सारे कार्यों को भी मैं ईश्वर की पूजा समझते हुए पूरी शुद्धता और पवित्रता से करता हूँ |क्या तुम भी अपने प्रतिष्ठान या घर के कार्यों को इतनी ही शुद्धता और पवित्रता से कर सकते हो ? यदि वैसा करते हो, तो तुम्हें हर समय अपने कर्मियों या सदस्यों को भाषण पिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी |अपने भीतर तथा प्रत्येक कार्य और वस्तु में विद्यमान पवित्र-सत्ता की अनुभूति कीजिये, तथा उस अनुभूति को दूसरों में संचारित करने की चेष्टा कीजिये | एक बार भी यह जान लीजिये कि- यह जगत प्रत्यक्ष ब्रह्म है ! जिसको भी और जहाँ भी देखिये - सभी ईश्वर हैं ! प्रत्येक मनुष्य में वही पवित्रता विद्यमान है | बिना कुछ बोले, मन ही मन अपने ह्रदय में, प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान पवित्रता को अनुभव कीजिये |आप अपनी इस अनुभूति के द्वारा, दूसरों को भी महान बना सकते हैं | 'नेता' का विशिष्ट लक्षण (वास्तविक गुण आध्यात्मिकता) विशेष आध्यात्मिक शक्ति-जगत को ब्रह्ममय देखने कि शक्ति (या खुली आँखों से ध्यान करने की शक्ति में) सन्निहित है !
 हर समय उपदेश देते रहने से कोई लाभ नहीं होगा, बस- हर किसी में अन्तर्निहित पवित्रता का अनुभव कीजिये |आप स्वयं जिस परिमाण में प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान उस पवित्रता या ब्रह्मत्व की उपस्थिति का अनुभव करने में समर्थ बन जायेंगे, उसी परिमाण में आप दूसरों के भीतर भी इस पवित्रता को संचारित कर सकते हैं,तथा उसी परिमाण में उसे दूसरों के ह्रदय में इस पवित्रता को जाग्रत भी करा सकते हैं | आप यह सचमुच अनुभव कर सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में पहले से ही पूर्ण सत्य, पूर्ण पवित्रता, पूर्ण ज्ञान,सम्पूर्ण शक्ति विद्यमान है, यह केवल शास्त्रों में लिखी बातें नहीं है, यह बिल्कुल सत्य है, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - जरा इस सत्य को अपने ह्रदय में ही महसूस करने कि चेष्टा तो कीजिये ! आप जितनी जल्दी इस सत्य का अनुभव करने लगेंगे, वह आधात्मिक शक्ति आप में और दूसरों में विकसित होने लगेगी |यदि आप यह कर पाते हैं तो आप एक सच्चे नेता हैं |
श्री रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे ही नेता थे, स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे ही नेता थे, तथा निश्चित रूप से हममें से अनेक लोग सच्चे नेता बन सकेंगे |केवल इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्य में ऐसा नेता बनने की गुंजाईश है!     
6.भावी नेताओं के लिये कुछ आवश्यक सुझाव
(A Few Tips to Would be Leaders )
आप में से प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विश्वास रहना चाहिये कि मैं नेता बन सकता हूँ, किन्तु जब तक दूसरे लोग आपको नेता चुन नहीं लेते, तब तक आप अनुयायी ही बने रहिये | किन्तु जहाँ आपको यह अनुभव हो कि इस काम में मेरी आवश्यकता है, वहाँ स्वतः आगे बढ़ कर अपनी सेवाएं समर्पित कर दीजिये | ऐसा सोंच कर बैठे मत रहिये कि जब इन लोगों ने मुझे अपना नेता चुना ही नहीं है, या मुझे किसी कार्य कि जिम्मेवारी दी ही नहीं गयी है तो मैं क्यों उस कार्य में अपनी सेवाएं दूँ ?
यहाँ दो प्रकार कि कठिनाइयाँ हैं |प्रत्येक संगठन में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हर समय स्वयं को ही सबके आगे रखना चाहते हैं, अपना महत्व जताने के लिये दूसरों को पीछे धकेल कर अपने चेहरे को सामने रखना चाहते हैं | मुझे सचिव के पद पर क्यों नहीं नियुक्त होना चाहिये ? मुझको ही हाथ में माईक पकड़ कर कार्यक्रम को सन्चालित करने वाला उद्घोषक क्यों नहीं बनना चाहिये ?
वहीँ कुछ कार्यकर्त्ता वैसे भी होते हैं जो हर जगह अपने ही चेहरे को सामने कर देने में विश्वास नहीं करते, वे सदैव अपने को दूसरों के पीछे छुपाये रखते हैं | उनकी सोंच होती है, मैं दूसरों को दिखाने के लिये कार्य नहीं करता, मुझे तो चुप-चाप बिना किसी के जाने ही अपना कार्य करते जाना है, भले कोई मेरी सराहना करता हो या नहीं|
निश्चित रूप से बाद वाला व्यक्ति एक अच्छा कर्मी बन सकता है| इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द की एक उक्ति स्मरणीय है-"जो स्वयं को सबकी दृष्टि से पूरी तरह छुपाकर कार्य कर सकता हो,वही सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्त्ता है |" वे इसे युक्ति-तर्क की कसौटी पर परख कर स्पष्ट करते हैं- " इस विश्व ब्रह्माण्ड में ईश्वर ही सबकुछ कर रहे हैं, किन्तु वे सबकी दृष्टि से ओझल रहते हुए, बाहर से दिखा कर नहीं बल्कि उसी के भीतर बैठ कर इस विश्व-ब्रह्माण्ड में सबकुछ कर रहे हैं |" (सन्तरे के भीतर १२ फांक बना कर भीतर बैठे-बैठे ही बाहर की पैकिंग या छिलका से मढ़ देते हैं!) अच्छे कर्म का यही रहस्य है |
आत्मगोपन भाव से कर्म कीजये, हर समय मंच पर चढ़ कर अपने चेहरे को आगे रखने की चेष्टा मत कीजिये |अपने इम्पोर्टेंस को(क्षुद्र अहं को)- कम करने का एक सरल उपाय यह है कि, किसी कागज के टुकड़े पर हस्ताक्षर करके या अपना नाम लिख कर उसे फाड़ कर रद्दी कि टोकरी में फेंकते रहिये| कोई अच्छा काम कर देने के बाद भी यह चेष्टा कीजिये कि कोई बाहरी व्यक्ति यह न जान सके कि इस काम को किया किसने है |किसी को भी अपना चेहरा दिखाने की चेष्टा मत कीजिये, यही है सर्वश्रेष्ठ कर्म |(नेकी कर दरिया में डाल )
किन्तु यहाँ एक महत्वपूर्ण बात यह भी स्मरण कर लेना होगा कि, यदि समय की मांग हो, जहाँ आपकी उपस्थिति अनिवार्य हो- तो आपको ही वह पहला व्यक्ति होना चाहिये कि स्वयं आगे बढ़ कर उस कर्म को अपने कन्धों पर उठाले ! उस समय आपको अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रहना चाहिये | उस समय आपको यह नहीं सोचना चाहिये कि मेरे सहकर्मियों को मेरी कुशाग्र बुद्धि के बारे में सब पाता है, मेरी अध्यन क्षमता और मेरी लेखनी के तेज धार को  भी वे जानते हैं, धारा-प्रवाह रूप से मेरी भाषण क्षमता को भी जानते हैं, तुरंत किसी निर्णय पर पहुंच   कर यथोचित दिशानिर्देश देने कि क्षमता का भी इन्हें पता है, किन्तु फिर भी इन लोगों ने मुझे अपना नेता नहीं बनाया है, तो अब इन्हें इसका परिणाम भुगतने दो|यही तो अवसर है कि इनसबको मजा चखा दिया जाये, वे खुद इस कार्य को संभल नहीं पायेंगे, और भला बिन बुलाये मैं वहा क्यूँ जाने लगा ? मुझमे इतनी सारी प्रतिभा, योग्यता, क्षमता है, फिर भी इन लोगों ने, अभी तक नेतृत्व के किसी भी पद पर मुझे क्यों नहीं बैठाया था ? महामण्डल के किसी भी नेता में इस प्रकार का तुच्छ मनोभाव नहीं रहना चाहिये| 
जहाँ कहीं भी आपको ऐसा लगे मेरी उपस्थिति अब अनिवार्य हो गयी है, किन्तु आपको किसी ने पुकारा नहीं है, तो बिना बुलाये ही उस कार्य में जुट जाइये- किसी पद, नाम या विशेष दर्जा पाने के पीछे न तो दौडिए न उसकी कोई परवाह ही कीजिये | मानव जाती का श्रेष्ठ-शिक्षक या सच्चा नेता बनने का यही मर्म है | आप अपनी अंतरात्मा के प्रति सदैव इमानदार रहिये कि मैं जो कुछ भी कार्य कर रहा हूँ, वह सचमुच दूसरों के कल्याण के लिये ही है, इसके पीछे मेरा अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है | पर ऐसा करने में आप तभी समर्थ हो सकते हैं जब, जीनका आप नेतृत्व कर रहे हैं, उन्हीं में से एक बन जाने की क्षमता भी आप में हो| आप में (श्रेष्ठ-शिक्षक में ) अपने कार्य-कर्ताओं में से (छात्रों में से ) एक बन जाने की क्षमता अवश्य रहनी चाहिये |
अपने को ' गजदन्त से बने मीनार ' (Ivory Tower) पर बैठे हुए नेता के रूप में मत देखो, ऐसा
 ' खोखला-अहं ' कभी मत होने दो कि मैं तो ढेर सरे गुणों की खान हूँ, मुझमे तो अनेकों असाधारण गुण हैं, यह तक की कुछ उत्कृष्ट गुण भी हैं! मुझमे जितने सारे अतिरिक्त गुण हैं उनकी तुलना में तो उनके पास कोई गुण नहीं है, अतः मैं इन सब से महान हूँ ! मेरे चलने के ढंग को ही देख कर लोगों को यह समझ में आ जाना चाहिये कि, एक महान हस्ती चली आ रही है!मैं कोई खास ही चीज हूँ ! बिलकुल नहीं, आप कोई खास चीज या अलग ही प्रकार के 'फन्ने मियां ' या ' तीसमार-खां ' बिलकुल नहीं हैं ! यदि आप में कोई विशिष्ठता या असामान्यता है, तो बस इतना ही है कि ईश्वर ने आपको दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार प्रदान किया है! बस तुम्हरा अनोखापन केवल इतना ही है!   
आप में अतरिक्त उर्जा और जोश जरुर होना चाहिये, किन्तु उसका प्रयोग हमेशा आत्म-संयम के साथ करना चाहिये |उत्साह और जोश अवश्य रखो, किन्तु यदि तुममें आत्म-संयम न हो तो यह अतिरिक्त जोश ही तुमको धक्के दे कर धुल भी चटा देगा |नेताओं को नए उन्नत विचारों से दूसरों के मन को भरने के लिये अवश्य यथेष्ट बोलना चाहिये ताकि वे उन्हें ठीक से समझ कर अपने जीवन में उतार सकें, किन्तु उनको हमेशा बकवास करने से बचना चाहिये| हमेशा बक-बक करते रहने से अच्छी बात का महत्व भी कम हो जाता है |ऐसा होना अच्छा नहीं है |
नेतओं में दूर-दृष्टि या दूरदर्शिता भी रहनी चाहिये|इस अग्र-दृष्टि के बल पर किसी भी निर्णय को लेते समय उसके बाद एक-एक करके आ सकने वाले सभी परिणामों को पहले से ही देख लेने में अवश्य समर्थ होना चाहिये |उदाहरणार्थ  मैंने एक निर्णय लिया, और बाद में कोई समस्या आ जाती है, यदि मैंने उस समस्या के निदान का कोई विचार किये बिना ही निर्णय ले लिया होगा तो, वह एक समस्या अनेकों समस्याएं उत्पन्न कर सकती है| भविष्य का सोंचे बिना यदि केवल नेता होने के' मद ' में आकर कोई आदेश सुना दिया- यह करो ! और सभी उसका पालन करने में लग गए, पर कुछ समय बाद मैं यह जान गया की मेरे द्वारा लिया गया निर्णय तो गलत था, अब उसको वापस लेने से भी, तबतक जो क्षति हो चुकी उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती|इसलिए नेतओं को अग्र-दृष्टि का गुण अर्जित करने के लिये हमेशा प्रयास रत रहना चाहिये|इस अग्र-दृष्टि की प्राप्ति ' हितकर और रुचिकर ' अथवा ' श्रेय-प्रेय ' में विवेक करने की क्षमता पर ही निर्भर करता है ! अतः आप में विवेक अवश्य रहना चाहिये |  
किसी भी नेता में उचित रीति से योजना बनाने की क्षमता अवश्य रहनी चाहिये| किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, अल्पकालिक योजना और दीर्घकालीन योजना- दोनों प्रकार कि योजनायें बनानी आवश्यक हो जातीं है| अल्पकालिक योजनायें जल्दी में, बनानी पड़तीं हैं| किन्तु एक दीर्घकालीन योजना भी रहनी चाहिये| किसी संगठन की दीर्घकालीन योजना इस तथ्य को ध्यान में रख कर बनाई जानी चाहिये कि वह कमसे कम आगामी ५० या १०० वर्षों तक भी कार्यकारी बनी रहे|पहले-पहल जब लोग हमसे यह पूछते थे कि, आपके इस ' मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन ' को अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेने में अभी और कितना वक्त लग जायेगा, जब उसका एक स्पष्ट प्रभाव भी समाज पर होता हुआ दिखेगा ? हमलोग कह देते थे, हम यह नहीं बता सकते, उसमें १० से लेकर ५० वर्ष भी लग सकते हैं |कितु ४३ वर्षों तक इस अभियान को चला लेने के बाद अब हम यह निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि,
यदि हम बिना विश्राम लिये इसी प्रकार हम अपना कार्य चलते रहे तो,आगामी ५० से १०० वर्षों के भीतर समाज के ऊपर इसका ठोस और प्रत्यक्ष प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगेगा|इतना लम्बा......समय लगेगा, तबतक क्या हम इसके परिणाम को देखने के लिये जीवित भी रहेंगे ? तब क्या हमें अपना यह अभियान यहीं रोक देना चाहिये ? हम जानते हैं कि सामाजिक कार्यों से जुड़े सेवा-कर्मियों को कई प्रकार के राष्ट्रीय या अन्तर-राष्ट्रीय से सम्मानित भी 
 किया जाता है |  तो क्या हम अपने इस उत्कृष्ट समाज-सेवा के लिये किसी पुरस्कार को पाने की इच्छा नहीं कर सकते ? विशेष रूप से वैसे लोग जिनकी आयु ७० वर्ष हो चुकी है, और अभी भी वे इस अभियान में जुड़े हैं, कम से कम उनको तो कोई न कोई पुरस्कार अवश्य ही मिलना चाहिये ! नहीं, इस प्रकार की बेतुकी इच्छओं के लिये हमारे मन में कोई जगह नहीं रहनी चाहिये|हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, पुरस्कार या फल पाने की इच्छा भी मन में नहीं उठनी चाहिये |इस अभियान को, इसी भावना के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलाता रहना होगा|यदि आप स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दी गयी - ' कुत्ते की टेढ़ी पूंछ ' वाली उपमा के पीछे की दार्शनिकता को समझ सकते हैं, तो आप यह समझ सकते हैं कि - अपने ह्रदय कि वक्रता को दूर करने के लिये, हमें इस कार्य को अनवरत चलाते ही रहना होगा, क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता है ही नहीं ! 
इतना सब समझ बुझ कर भी, हम यदि इस जिद पर अड़ गए कि नहीं, हम तो इस सृष्टि की समस्त समस्याओं को समूल अभी ही सुलझा कर दम लेंगे, तो यह बील्कुल बच्चों जैसी जिद होगी |क्योंकि केवल बच्चों की कथा-कहानियों का समापन ही इस वाक्य के साथ हुआ करता है कि, ' उसके बाद रजा-रानी सुखपूर्वक रहने लगे |'
किन्तु सांसारिक द्वंद्वों की आँच में तपे-तपाये परिपक्व मनुष्य कभी अपनी जीवन-गाथा का समापन इस प्रकार होने की कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि निरंतर चलने वाले संघर्ष का नाम ही जीवन है !
              
7." नेता भी निर्मित किये जाते हैं ! "
( Leaders are Also Made)
ऐसा कहा जाता है कि कोई व्यक्ति जन्म से नेता होता है, तथा नेताओं का निर्माण-नहीं किया जा सकता है !किन्तु वास्तविकता यही है कि नेता भी निर्मित किये जा सकते हैं !साधारणतः ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य का चारित्र भी, जन्म-जात होता है, एक बार जिस चारित्र को लेकर वह पैदा हो गया,फिर उस में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है |किन्तु यह धारणा भी बिल्कुल गलत है |चारित्र को भी गढ़ा जा सकता है, प्रयास करने से प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने चारित्र को सुन्दर ढंग से गढ़ सकता है |
किन्तु यह बात बिल्कुल सत्य है कि - ' Nothing can be Made out of Nothing.' - अर्थात  ' कुछ नहीं '(शून्य से ) से कुछ भी का निर्माण नहीं किया जा सकता !और श्रद्धा अर्थात आस्तिक्य-बुद्धि या ' अपने आप पर विश्वास ' ही वह ' कुछ ' या, वह मौलिक उपादान है जिससे चारित्र को निर्मित किया जा सकता है | नेतओं के निर्माण का मौलिक उपादान भी यह श्रद्धा ही है !सत्य तो यह है कि ' चारित्र गढ़ने  ' और नेता को निर्मित करने ' की बुनियादी प्रक्रिया में कई बातें उभयनिष्ठ हैं अर्थात दोनों में एक समान लागु होतीं हैं |इसलिए केवल चरित्रवान मनुष्य ही सच्चे नेता का निर्माण कर सकते हैं |
यदि स्वयं का मार्ग-दर्शन मैं उचित रीति से कर सकने, में समर्थ हुआ हूँ- केवल तभी मैं दूसरों का नेतृत्व कर सकता हूँ !जिन व्यक्तियों में दूसरों को सभी प्रकार के दुःख-कष्टों से मुक्त करा देने या उसमे कुछ भी कमी लाने की अदम्य ईच्छा,दूसरों के लिये प्रेम और सहानुभूति, आत्म-श्रद्धा, आत्म-विश्वास, आत्म-विश्वास आदि गुण भी कूट-कूट कर भरे रहते हैं;  उनके भीतर नेतृत्व करने की भावना स्वतः स्फुरित हो जाती है |जिन लोगों को महामण्डल आन्दोलन का नेतृत्व प्रदान करने के लिये आह्वान किया जा रहा है उनमे नेतृत्व-क्षमता की यह मौलिक-स्फुरणा अवश्य विद्यमान रहनी चाहिये |दूसरे शब्दों में कहा जाय तो- दूसरों को अपने ह्रदय का विस्तार करने में, हर संभव सहायता देने की मुराद को प्राप्त करने के लिये, पहले मुझे अपने ह्रदय के बंद दरवाजों को खोल लेने में समर्थ बन जाना चाहिये ! महामण्डल के नेताओं को अपना लक्ष्य तथा उसे प्राप्त करने के साधनों का स्पष्ट ज्ञान रहना चाहिये |
महामण्डल आन्दोलन का लक्ष्य है - भारत का पुनर्जागरण ! तथा इस आन्दोलन को आगे ले जाने के लिये, राष्ट्र की आत्मा को जाग्रत कर देने में समर्थ नेताओं की आवश्यकता है |हमें इस महामण्डल-आन्दोलन के पीछे की मूल-भावना को ठीक से जान लेना चाहिये | हमलोग इस आन्दोलन से बड़े-बड़े चमत्कारी फल पाने की कामना नहीं करते हैं|बल्कि हमलोग स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अपने विनीत प्रयास के द्वारा जन-जन के द्वार तक ले जाना चाहते हैं ! हमारे आन्दोलन का लक्ष्य है मनुष्य के चारित्र में और उसकी मानसिकता में परिवर्तन लाकर चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना; तथा इसी उपाय से पूरे समाज की वर्तमान दयनीय अवस्था में परिवर्तन को संभव कर दिखाना! अतः निश्चित रूप से यह मंद-गति का आन्दोलन है,और इसमें लम्बा समय लगना बिल्कुल स्वाभाविक है| 
'आन्दोलन ' शब्द के बारे में शिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग में भी एक भ्रान्त धारणा घर कर गयी है, अधिकांश बुद्धिजीवी भी ऐसा मानते है कि किसी भी आन्दोलन की गति का ' तूफानी ' रहना अनिवार्य है| यदि कोई आन्दोलन मंद गति से आगे बढ़ रहा हो ( उसमें सड़क जाम,रेल-बस में अगल्ग्गी और तोड़-फोड़ पुलिस फायरिंग आदि न हों ),तो ये बुद्धिजीवी उसे आन्दोलन का दर्जा देने को भी तैयार नहीं होते|ऐसी मानसिकता किसी आन्दोलन को उसके लक्ष्य और उद्देश्य से ही भटका कर उद्देश्यहीन बना देती है|यह एक तथ्य है की यदि किसी आन्दोलन का कोई पूर्वनिर्धारित लक्ष्य या उद्देश्य नहीं रहे तो, उसका मूल्य दो कौड़ी का भी नहीं | सोडा-वाटर जैसे उफन कर, ठंढा पड़ जाने वाले किसी दिशाहीन -आन्दोलन का क्या मूल्य है, भले ही आरम्भ में उसकी गति कितनी भी तूफानी क्यों न दिखाई देती हो !इसलिए किसी कुशल और लाभकारी आन्दोलन के पास अपना एक स्पष्ट ध्येय का होना अनिवार्य है, उसकी गति तीव्र है या मन्द उससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता |
अपने देश को पुनर्जागृत करने के लिये यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करना परमावश्यक है | जबकि नव-निर्माण या विकास के नाम पर आज जो कुछ भी किया जा रहा है वह सब,मनुष्य के बाह्य जगत को बदलने के लिये हो रहा है, उसके अंतर्जगत को परिवर्तित करने की दिशा में (सरकारी स्तर पर) कोई प्रयास दिखाई नहीं दे रहा है|
महामण्डल का उद्देश्य मनुष्य के बाह्य-जगत में परिवर्तन लाने वाले आन्दोलन की दिशा को अंतर्जगत में परिवर्तन लाने की दिशा में स्थानांतरित कर देना है| अतः निश्चित तौर से यह जान लेना चाहिये कि इस प्रक्रिया की गति कभी तीव्र नहीं हो सकती|अब एक बहुत बड़ा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि क्या हम अपने इसी सीमित सामर्थ्य और संसाधनों के बल पर अपने उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में थोड़ा भी आगे बढ़ पायेंगे? इसके उत्तर में हम नचिकेता के जैसी - श्रद्धा का आवाहन करने से बेहतर और कुछ नहीं कर सकते| ' यह ठीक है हम सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं, किन्तु ऐसी भी बात नहीं कि हम बिल्कुल निकृष्ट हों !' हम में भी कुछ दम तो जरुर है ! 
प्रत्येक युवा को चाहिये, की वह अपने शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक नींव को सुदृढ़ बना कर प्रचण्ड क्रिया शक्ति का एक प्रबल डायनेमो बन जाय| ' बिखरी हुई इच्छाशाक्तियों का समन्वय ही सफलता की कुंजी है|' युवा मात्र के भीतर अनन्त उर्जा का एक भंडार-घर मौजूद है, किन्तु उसके दरवाजे पर ताला जड़ा हुआ है, उसे आवशयकता मात्र उस कुंजी को ढूंढ़ लेने की है जिससे वह उस उर्जा-पुंज के श्रोत को उदघाटित करने में सफल हो जाये|सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिये, अनन्त उर्जापुंजों के इन सभी वैयक्तिक- केन्द्रों को संयोजित कर एकता के सूत्र में पिरोने का प्रयास करना होगा|अपने देशवासियों को दैहिक, दैविक, भौतिक तापों के साथ-साथ नैतिक और आध्यात्मिक पीड़ा को दूर हटा कर समूर्ण राष्ट्र को वास्तविक उन्नति के पथ पर अग्रसर कराया जा सकता है|
हम सभीलोग निम्न कोटि की स्वाधीनता या केवल राजनैतिक स्वाधीनता को प्राप्त करके ही संतुष्ट नहीं हैं, अब हमें इससे उच्चतर स्वाधीनता - नैतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता भी प्राप्त करना चाहते है|किन्तु राजनीतिक स्वाधीनता को प्राप्त करने के बाद के भारत (अंग्रेजों के जाने के बाद -' भारत ' को INDIA ने अपना गुलाम बना लिया) ने स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को उपेक्षित कर दिया, इसीलिये हम उच्चतर स्वाधीनता प्राप्त करने से वंचित रह गये |आज जिनके हाथों में शासन की बागडोर है, उनमे से कितने ऐसे नेता हैं जिन्होंने जानता के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया हो ?शायद एक भी नहीं! किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया था| इसीलिये - 'विवेकानन्द हमारे नेता!!!' आज भी हैं|इसीलिये अपने देशवासियों को उच्चतर स्वाधीनता दिलाने के उद्देश्य से महामण्डल स्वामीजी के शिक्षाओं को भारत के कोने-कोने तक ले जाने के लिये कृतसंकल्प है|
क्या हमलोग, अब भी केवल अपने ही सुख-सुविधा, निजी भोग-विलास में ही डूबे रहना चाहते हैं?क्या हम इतने गये-बीते हैं, इतने निकृष्ट हैं कि- क्षणिक इन्द्रिय भोगों में ही पूरा जीवन व्यर्थ हो जाने देंगे ? किन्तु स्थायी आनन्द तो हमें तभी प्राप्त होगा जब हम अपने निजी दर्द और खुशियों को देशवासियों के सामूहिक पीड़ा और आनन्द के साथ एक सुर-तल में स्पंदित देख पाने में सक्षम हो जाएँ|
क्या महामण्डल भी देश की अवस्था में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से संसद भवन में अपने सांसदों को भेजने की इच्छा रखता है ? नहीं, किसी भी तरह की राजनीति से महामण्डल का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है |
महामण्डल समाज के बनावट को परिवर्तित करके, समाज के चेहरे को ही बदल देना चाहती है |यदि महामण्डल कुछ ऐसे सुचरित्रवान, ईमानदार, सदाचार-सम्पन्न नेताओं को निर्मित कर लेने में समर्थ होजाता है जो दूसरों को भी अपना चारित्र निर्मित करने के लिये अनुप्राणित कर दें, तो यही प्रक्रिया अगले कुछ वर्षों में इस देश के मनुष्यों में परिवर्तन ला कर उसे महानता के शिखर पर पहुँचा देगी | 
                     
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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

सापेक्ष-ज्ञान ' पूर्ण ज्ञान ' का मात्र एक छोटा सा अंश है।

" ईश्वर तो ज्ञात से भी ' अधिक ज्ञात ' है ! "

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" अद्वैतवादी कहते हैं, 'नाम-रूप' को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? ' (४:३३)
" जिसके ह्रदय में अथाह प्रेम है, और जो सभी अवस्थाओं में ' अद्वैत तत्त्व ' का साक्षात्कार करता है, वही सच्चा ज्ञानी है। "(१०:३७४)
"मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नहीं है। ...वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे, जो जानेंगे कि ये ' शत्रु ' भी साक्षात् 'ब्रह्म' स्वरूप हैं। वे ही लोग अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से भी प्रेम करेंगे जो यह जान लेंगे कि इन महा दुष्टों के पीछे भी वे ही प्रभु विराजमान हैं। जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, वे ही लोग जगत के प्रेरक (नेता ) हो सकते हैं। उनके लिये समग्र विश्व दिव्य भाव में रूपांतरित हो जाएगा। (२:४०)
" कोई भी चीज उन्हें बदला लेने के लिये प्रवृत्त नहीं कर सकती। वे सर्वदा अनन्त प्रेमस्वरूप हैं, और प्रेम की शक्ति से सर्व शक्तिमान हो गये हैं। ... योगी के अतिरिक्त अन्य सभी तो मानो गुलाम हैं। खाने-पीने के गुलाम, अपनी स्त्री के गुलाम, अपने लड़के-बच्चों के गुलाम, जलवायु परिवर्तन के गुलाम,इस संसार के हजारों विषयों के गुलाम। जो मनुष्य इन बन्धनों में से किसी में भी नहीं फंसे, वे ही यथार्थ मनुष्य हैं- यथार्थ योगी हैं। जिनका मन साम्य भाव में स्थित है, उन्होंने यहीं संसार पर जय प्राप्त कर ली है। ब्रह्म निर्दोष और सम्भावापन्न है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित हैं। " (१०:३९१) गिता ५/१९ 
" जो ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, - जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न स्रष्टा - जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न 'मैं' है, न 'तुम' और न 'वह', जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण, जहाँ ' कौन किसको देखे '- वे पुरूष सबसे अतीत हो गये हैं, और वे वहाँ पहुँच गये हैं- ' जहाँ न वाणी पहुँच सकती है, न मन ' और श्रुति जिसे नेति,नेति कहकर पुकारती है।
....जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिए न सृष्टि रही और न उसका कारण, रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त-तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ, त्योंही उनके सम्मुख जगत और कल्याणमय अनन्त-गुणागार ' जगदीश्वर ' प्रकाशित हो गये। "(४:१२) 
" इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद....तुम में इर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा; तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्पथ पर चलाने के लिये फ़िर चाबुक कि आवश्यकता नहीं रह जायेगी। "(२:४१)

"जो कोई विषय हमारे मन के विषयीभूत हो जाता है, अर्थात मन के द्वारा सीमा बद्ध हो जाता है, हम उसी को जान सकते हैं। और जब वह हमारे मन के बाहर रहता है, अर्थात मन का विषय नहीं रहता, तब हम उसे नहीं जान सकते।...यदि ईश्वर ज्ञात हो जाय, तो उसका ईश्वरत्व फ़िर नहीं रहेगा- वह हमारे समान ही एक व्यक्ति हो जायगा। उसको जाना नहीं जा सकता, वह सर्वदा ही अज्ञेय है।....किन्तु तुम अज्ञेय-वादियों के समान कहीं यह धारणा मत बनालेना, कि ईश्वर अज्ञेय है।.
..अद्वैत-वादी कहते हैं कि ईश्वर तो ज्ञात से भी कुछ और ' अधिक ज्ञात ' है ! कैसे ? दृष्टान्त स्वरूप देखो- सामने कुर्सी है, मैं इसे जानता हूँ, यह मेरा ज्ञात पदार्थ है। पर ईश्वर तो इससे अधिक ज्ञात है, क्योंकि पहले उसे जानकर, उसी के माध्यम से हमे कुर्सी का ज्ञान प्राप्त करना होता है। वह साक्षी स्वरूप है, समस्त ज्ञान का वह साक्षीस्वरूप है। 
हम जो कुछ जानते हैं, वह सब पहले उसे जानकर, उसी के माध्यम से जानते हैं। ईश्वर हमारी आत्मा का सार-सत्ता स्वरूप है। वही हमारा वास्तविक ' अहं ' है। और वह ' अहं ' ही हमारे इस अहं (क्षुद्र अहं) का सारसत्ता-स्वरूप है; हम उस ' अहं ' के माध्यम से जाने बिना कुछ नहीं जान सकते, अतएव सभी कुछ हमे ब्रह्म के माध्यम से ही जानना पड़ेगा। " (२:८७-८८)
* " ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति। तुमने बहुत से मनुष्यों को देखा है, और प्रत्येक ने तुम्हारे मन पर एक संस्कार (छाप) डाला है, और तुम जैसे ही इस मनुष्य को देखते हो, इसेअपने चित्त(या स्मृति के भंडार घर) से सम्बद्ध करते हो, और वहाँ तुमको इसी प्रकार के बहुत से चित्र दिखाई पड़तेहैं। और उनके साथ इस नए चित्र को भी रख देते हो। (तब पहचान जाते हो कि दो हाथ दो पैर वाला यह एलियन नहीं मनुष्य है ) साहचर्य की इसी अवस्था को ज्ञान कहते हैं।
तुम्हारा मन समारम्भ के लिये- एक ' अनुत्किर्ण फलक ' (Tabula Rasa या कोरा स्लेट) नहीं है। अपने पास पहले से ज्ञान का एक भण्डार होना चाहिये, जिसके साथ किसी नये संस्कार को सम्बद्ध किया जा सके।कोई नवजात शिशु (जन्म से) पहले एक ऐसी अवस्था में अवश्य रहा होगा, जब कि उसके पास ( संचित अनुभवोंका ) कोई ज्ञान-कोष था। इस प्रकार ज्ञान कि वृद्धि शाश्वत रूप से होती रहती है।..यह एक गणितीय तथ्य है।" ... (४:२०६)
" Knowledge is the ' recognition ' of the new- by means of associations already existing in the mind. Recognition - is finding associations with similar impressions that one already has. Nothing further is meant by Knowledge.Knowledge means finding the association; that is why a drunken man naturally gravitates to the lowest slums of the city. "(C.W.2:447,78 )

" किसी व्यक्ति के पास पहले से जो संस्कार हैं, उनके तुल्य संस्कारों कि साहचर्य- प्राप्ति ही प्रति-अभिज्ञा (Recognition या मान्यता) कहलाती है। ज्ञान का अर्थ है, साहचर्य-प्राप्ति । इससे भिन्न ज्ञान का कोई दूसरा अर्थ नहीं है।  

यह दृष्टिगोचर जगत् तभी जाना जा सकता है, जब हम इसके साह्चर्यों को पा सकने में सफल हो जायेंगे। इसकी सच्ची पहचान, प्रतिभिग्या (Recognition) तो हम तभी कर पायेंगे जब हम इस विश्व एवं चेतना के परे चले जायेंगे और तब विश्व हमे स्वतः व्याख्यात हो जाएगा।
हमारी वर्त्तमान चेतना से पृथक, विश्व का यह टुकड़ा हमारे लिये विस्मयकारी नूतन पदार्थ है, क्योंकि हम अभी तक इसके साह्चर्यों को न पा सके हैं। अतएव हम इससे संघर्ष कर रहे हैं, और इसे भयावह, दुष्ट तथा बुरा समझते हैं- हमारा विचार सदैव यही रहता है कि यह अपूर्ण है।...क्योंकि चेतना का यह साधारण स्तर हमे इसके एक ही स्तर (Dimension) का प्रत्यक्ष बोध प्रदान कर पाता है। यही बात ईश्वर के सम्बन्ध में हमारे विचारों के लिये है। 
ईश्वर का जो कुछ  हमे दिखाई पड़ता है, वह अंश मात्र है, उसी प्रकार जिस प्रकार हम विश्व का केवल एक अंश (नाम-रूप) देखते हैं और शेष (अस्ति, भाति, प्रिय) मानव बोध से परे है। यही कारण है कि ईश्वर हमें अपूर्ण दिखाई पड़ता है, और हम उसे समझ नहीं पाते। 'उसे' तथा विश्व को समझने का एकमात्र उपाय यह है कि हम इस बुद्धि एवं चेतना के परे चले जायें।...जब हम इनके परे जाते हैं, तब हमें सामंजस्य की प्राप्ति होती है, इसके पूर्व नहीं।
..सूक्ष्म ब्रह्मांड (यापिण्ड -सूक्ष्म शरीर) के हम केवल एक अंश- मध्य भाग- को ही जानते हैं। अभी हम न अवचेतन को जानते हैं, न अतिचेतन को। हम केवल चेतन को ही जानते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहता है, ' मैं पापी हूँ ', तो वह मिथ्या कथन करता है; क्योंकि वह अपने को नहीं जानता। क्योंकि वह जिस भूमि पर है, उसका ज्ञान केवल उसके एक ही पक्ष को स्पर्श करता है। ... यही बात विश्व के सम्बन्ध में है, बुद्धि द्वारा इसके केवल एक अंश को जानना सम्भव है, सम्पूर्ण को नहीं; क्योंकि विश्व का निर्माण अवचेतन, चेतन, अतिचेतन अथवा व्यक्तिगत महत्, सार्वभौम महत्, तथा परवर्ती परिणामों से होता है।"(४:२०६-२०७)
* " सापेक्ष-ज्ञान को- ' पूर्ण ज्ञान ' का एक छोटा सा अंश कहा जा सकता है। जिस प्रकार सोने की मुहर को भुना कर रुपया, आना, पैसा में बदला जा सकता है। उसी प्रकार इस पूर्ण ज्ञान की अवस्था (अतिचेतन) से सब प्रकार के ज्ञान में जाया जा सकता है।  इस अतिचेतन अवस्था को ज्ञानातीत या पूर्ण-ज्ञान की अवस्था कहते हैं- चेतन और अचेतन दोनों उसके अर्न्तगत आ जाते हैं। जो व्यक्ति इस पूर्ण ज्ञानावस्था को प्राप्त हो जाता है, उसमे यह सापेक्ष साधारण ज्ञान भी पूर्णरूप से विद्यमान रहता है। जब वह ज्ञान की दूसरी अवस्था - अर्थात हमारी परिचित सापेक्ष ज्ञानावस्था का अनुभव करना चाहता है, तो उसे एक सीढ़ी नीचे उतर आना पड़ता है। यह सापेक्ष ज्ञान तो एक निम्नतर अवस्था है- केवल माया (नाम-रूप या देश-काल-निमित्त) के भीतर ही इस प्रकार का ज्ञान हो सकता है। ( १०:३९७) 
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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

प्रारंभिक अवस्था में मूर्ति पूजा क्यों आवश्यक है ?

साकार मूर्ति की पूजा निराकार 'ब्रह्म' या 'अल्ला' की धारणा में सहायक है !

हजार सालों की गुलामी के कारण पाश्चात्य शिक्षा और सेमेटिक भावों से प्रभावित होकर कुछ अत्यन्त तर्कवादी और उच्च डिग्रीधारी समाज-सुधारक नेताओं ने ब्रह्म-समाज और आर्य-समाज जैसे मूर्तिपूजा-विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया था। जिसके फलस्वरूप तथाकथित बुद्धिजीवी या (elite group) में माँ काली की मूर्ति पर से विश्वास उठता जा रहा था। इसीलिये अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को अनपढ़ के रूप में अवतरित होना पड़ा और आचार्य केशव सेन और नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द) अंग्रेजी भाषा में पढ़े-लिखे, उच्च-डिग्री प्राप्त लोगों को भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार मनःसंयोग या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देना पड़ा। 
अब तर्क-वादी आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज के अनुयायी नरेन्द्रनाथ जैसे युवाओं के मन में संघर्ष होने लगा कि मेन्टल कान्सन्ट्रेशन का अभ्यास करते समय, प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों से मन को खींचकर अपने हृदय में धारण करने का अभ्यास या ' धारणा ' के लिए किसी मूर्त आदर्श का चयन करें या अमूर्त आदर्श , जैसे ॐ आदि का ?  
"मूर्ति-पूजा " करना भी जीवन की एक आवश्यक अवस्था है। किसी (' नर-देव ' या ' पुरुषोत्तम ' की ) मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने का तात्पर्य है, अपने ' दिव्य-स्वरूप ' को किसी - ' दिव्य-मूर्ति ' के अनुरूप मान कर ध्यान करने से आगे बढ़ने में सहायता मिलती है। उनका दिव्य गुण हमारे भीतर आने लगता है।
स्थूल भौतिक मूर्ति पर ध्यान (मनःसंयोग) करने से - ' सहचर्य ' (Law of Association ) के नियमानुसार उस ध्यान की 'वस्तु ' के अनुरूप मानसिक भावाविशेष का उद्दीपन हो जाताहै। और यदि कोई उस अवस्था के भी परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिए मूर्ति-पूजा या मूर्ति पर ध्यान करने को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है।
 स्वामी विवेकानन्द ने कहा है," जो लोग मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं करते वे - ईश्वर के ' सर्वव्यापित्व' का क्या अर्थ समझते हैं ? क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है ? अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें अनन्तता का भाव लानेके लिए नील-आकाश या अपार-समुद्र की कल्पना से जोड़ना ही पड़ता है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ, मन्दिर, ग्रन्थ, या गिरजाघर तो धर्मजीवन की शिशु-पाठशाला के सहायक उपकरण मात्र हैं; पर उसे जीवन भर वहीं पड़े नहीं रहना चाहिए, उसे तो वहाँ से आगे बढ़ कर उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिए। " (वि० सा० ख०१:१७,१८)
" बालक ही मनुष्य का जनक है  - तो क्या किसी वृद्धपुरुष के लिए बचपन या युवावस्था को पाप समझना उचित होगा ? मन में किसी मूर्ति का ध्यान आए बिना कुछ सोंच सकना उतना ही असंभव है, जितना श्वांस लिए बिना जीवित रहना। अपनी आंखों को बंद करके यदि मैं अपने अस्तित्व - ' मैं ' क्या हूँ; को समझने का प्रयत्न करूँ, तो मुझमे किस भाव का उदय होगा ? इस भाव कि मैं (M/F) शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों केसंघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों कि घोषणा है- नहीं ! मैं शरीर में रहने वाली ' आत्मा ' हूँ ! मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जायगा,  पर ' मैं ' नहीं मरूँगा !" (१:८) ' 
" निरपेक्ष ब्रह्मत्व का साक्षात्कार, चिन्तन या वर्णन केवल सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चंद्र-सितारा केवल प्रतीक हैं, जिनको अब इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं के वे ग़लत हैं, जिनको इसकी आवश्यकता है। "(१:१९)
'मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था है, आगे बढ़ते समय मानसिक जप-ध्यान साधना की दूसरी अवस्थाहै।  ' उत्तमो ब्रह्म सद्भावों ' - सबसे उच्च अवस्था तो वह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाय।' (१:१७)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " संसार के समस्त धर्म -ग्रंथों में केवल वेद ही ऐसा ग्रन्थ है, जिसमे बारम्बार यह कहा गया है कि - ' तुम्हें वेदों के भी अतीत हो जाना चाहिए '। वेद कहते हैं कि वे केवल बाल-बुद्धि रखने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए लिखे गए हैं, इस लिए जब तुम स्वयं आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो जाते हो, तो तुम्हें वेदों के भी परे जाना पड़ेगा। " (१०: ३७७)
" मन को एकाग्र करने की विद्या में सिद्ध " ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं-... हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है, जिसके द्वारा स्मृति-सागर की गंभीरतम गहराई तक मंथन किया जा सकता है-उसका प्रयोग कीजिये और आप अपने (यथार्थ स्वरूप की या) पूर्व जन्मोंकी सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे। ( श्वेताशतर२/५)." (१:१०) 
" एक ऋषि कहते हैं कि - तुम इस विश्व का कारण नहीं जानते; इसीलिये तुम्हारे और मेरे बीच में बड़ा भारी अन्तर उत्पन्न हो गया है ; ऐसा क्यों ? इसलिए कि तुम केवल इन्द्रिय-परक बातों की चर्चा करते हो, और इन्द्रिय विषयों तथा धार्मिक कर्म- कांडों में ही संतुष्ट रहते हो, जबकि - मैंने उस द्वन्द्वातीत पुरूष को जान लिया है।" (१:२५१)
' चेतना मानस-सागर की सतह मात्र है और भीतर उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभव-राशिस्मृतियाँ संचित हैं। केवल प्रयत्न तथा उद्यम कीजिये, वे सब ऊपर उठ आयेंगे, और आप अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान भी प्राप्त कर सकेंगे। ' (१:१०)
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