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रविवार, 5 अगस्त 2012

2.3 "हम क्या कुछ कर सकते हैं ?" [ द्वितीय अध्याय -2.3 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.3]

 " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.3 " 

[द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान] 

3. 

 "हम क्या कुछ कर सकते हैं ?"

              देश के लिये हम क्या कर सकते हैं ?  स्वयं आगे बढ़ कर कुछ करना तो दूर, इस प्रश्न को पूरी गंभीरता के साथ उठाने वाले लोगों की संख्या भी बहुत कम है। भारत इस बात लगभग भूल ही चुका है कि विश्व मानवता के प्रति हमारा भी कोई दायित्व है। इसको ही तमोगुण से आच्छादित होना कहते हैं। किन्तु केवल भी सोचना ठीक नहीं कि हम भारत वासी कुछ भी नहीं करते हैं। हमारे लिये भी करने को ढेर सारे काम पड़े हैं न ! दूसरों की निन्दा, दूसरों का शोषण या उन्हें वंचित कर स्वार्थसिद्धि, भ्रष्टाचार के सहारे भाग्य परिवर्तन तथा सभी कठिनाइयों के लिये दूसरों को दोषी ठहराने की चेष्टा आदि कार्यों में तो हमलोग दिन-रात लगे ही रहते हैं।
         किन्तु क्या सचमुच हमारे करने योग्य ऐसा कोई कार्य नहीं है-जिसे हम अपने-अपने परिवारों के भरण-पोषण की जिम्मवारीयों का वहन करते हुए , खाली बचे हुए समय में नियमित रूप से और निष्ठापूर्वक करते रहें, तो उससे भले ही कोई व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि की सम्भावना तत्काल हो, परन्तु भविष्य में हमारे साथ-साथ उन सबका भी निश्चित रूप से कल्याण होगा जिनको देखने वाला कोई नहीं है ? ऐसा कार्य अवश्य है। (जिसमें दाता और ग्रहीता दोनों को लाभ होता है , बल्कि दाता को ही लाभ अधिक होता है !)    
         लेकिन आम तौर पर हम इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि जब तक हमें इच्छा के अनुरूप सुख-भोग भरपूर प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक हम सन्तुष्ट नहीं होते। हम इस बात पर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि इसी देश में मेरे ही जैसे अनेकों मनुष्य ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त का भोजन भी नसीब नहीं है, सिर छुपाने के लिये जगह नहीं है, शिक्षा नहीं मिलती, चिकित्सा नहीं मिल पाती, जिनका समाज में कोई मान या परिचय नहीं है, जो मेरे जैसा ऐशो-आराम से अपना गुजारा नहीं कर पाते हैं ! और इनकी ही झोपड़पट्टी के ही दूसरी तरफ आकाश को भेदता हुआ विशाल निजी मकान ही नहीं खड़ा है, बल्कि पोर्टिको में कारों की कतारें भी लगी हैं। आये दिन चकाचौंध भरी पार्टियों में खाने-पीने एवं भोग-ऐश्वर्य की चीजों अम्बार लगा रहता है। उनके ये सारे ऐशो-आराम सड़क की दूसरी ओर रहने वाले मनुष्यों को उनके अधिकार से वंचित करने का ही परिणाम हैं !?!? क्या इस अवस्था में परिवर्तन लाने के लिये हम कुछ नहीं कर सकते ?
          इधर मेरा अपना जीवन भी जिस प्रकार से चल रहा है, क्या उसे सुंदर कहा जा सकता है? तेल लाता हूँ तो नमक घट जाता है, नमक लाता हूँ, तो चावल खत्म हो जाता है, लिहाजा मौका मिलते ही मुझे रिश्वत लेना पड़ता है। ऐसी बात नहीं कि केवल मैं ही लेता हूँ, मैं तो देखता हूँ कि प्रत्येक दफ्तर में उपरी आय की व्यवस्था बनी हुई है। तथा जिन लोगों को पर्याप्त उपरी कमाई हो जाती है, उनकी शानो-शौकत कितनी बढ़ जाती है, परिवार-समाज में उनका रुतबा कितना बढ़ जाता है, उनकी कितनी चलती हो जाती है ! इस महंगाई के जमाने में भी बेटी की शादी में हम कितना खर्च कर देते हैं ! खाने-पीने से लेकर, मौज-मस्ती,  धूम-धड़ाके तक, हर चीज का इंतजाम रहता है। डीजल-पेट्रोल का दाम बढने के बावजूद भी  बस में भरकर ' बहु-भात ' या रिसेप्सन पार्टी में जाते हैं। फिर हर साल क्रिसमस या नए साल पर बस लेकर टूरिस्ट -प्लेस में घूमने जाते हैं, वहाँ खाने-पीने, पिकनिक मनाने के बाद लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले किसी प्रसिद्द मन्दिर में थोड़ा चढ़ाव भी चढ़ा आते हैं, इस मन्नत के साथ कि मेरी ऊपरी आये कहीं बन्द न हो जाय या निगरानी विभाग कहीं मुझे पकड़ न ले ! सर्वोच्च पद से लेकर चतुर्थवर्गीय पद तक इस महाव्याधि से ग्रस्त है। बच्चे की पढ़ाई की जिम्मेदारी पूरा करने के लिएडोनेसन देकर लड़के को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवा दिया हूँ, मोटा ट्यूशन फी देकर एक उपयुक्त शिक्षक भी नियुक्त कर दिया हूँ। इतना ही नहीं,अपने मुन्ने से मुझे इतना प्रेम है कि, स्कूल-कॉलेज में अच्छे नम्बरों से पास कराने से लेकर डॉक्टरेट तक की डिग्री दिलवाने का सारा इंतजाम कर लिया हूँ। इसके बाद भी लड़का यदि होनहार निकल गया तो खुद एक गैंग बनाकर चाकू पर धार देना सीख ही जायेगा, परीक्षा में नकल करना सीख लेगा और यदि इन्भेजिलेटर मन-मुताबिक मिल गया तो अहिंसक पद्धति से- ' जीयो और जीने दो ' के सिद्धान्त के सहारे, सभी दरवाजों से होता हुआ भी बाहर आ जायेगा। और फिर एक दिन सुन्दर दीक्षान्त-भाषण सुन कर, बिना झन्झट के डिग्री लेकर घर चला आएगा।  उसके बाद, नैतिकता की  परवाह किये बिना, कहाँ कितना देने से, या किस नेता-अफसर के यहाँ बेगार खटने से नौकरी मिल जाएगी, यह सब भी सीख लेगा। उसके बाद इसी व्यवस्था या प्रणाली में और पक्का होने से, उसकी तरक्की भी होगी और उपरी आय में बढ़ोत्तरी भी होगी। 
       किन्तु समाज में जो लोग निचले स्तर पर हैं, वे क्या वहीँ रहेंगे ? यदि विषय में कुछ सोचने को कहा जाये, तो उनका उत्तर होगा- वे लोग भी मेरे जैसा करें, तब वे भी आराम से रहेंगे ! किन्तु वैसा क्या हो सकता है ? गैर-सरकारी संगठनों (NGO) में भी भ्रष्टाचार कम नहीं है! वहाँ पर भी ओभर-हेड खर्च या 'लीगल-एक्सपेंस' खाते में दिखाये जाने वाले खर्च बढ़ते ही जा रहे हैं। धोखा देकर, श्रमिकों को वंचित कर, मिलावटी और निम्न स्तर के उत्पादों का निर्माण करके भी लाभ दिखाने के लिये, उद्योगपतियों को खाते में वह सब करना पड़ता है। उनलोगों को और भी कई तरह के कार्यों में गलत खर्च करने पड़ते हैं, इसीलिये खाते में थोड़ा  उलट फेर करने को वे लोग न्यायोचित समझते हैं।
          जो लोग व्यापार करते हैं उनके उपर तो लक्ष्मी यूँ ही प्रसन्न रहती हैं ! उनको उतना झंझट भी नहीं उठाना है, केवल चालाकी से गोदाम के माल को इन-आउट (लाना-निकालना) दिखाते रहें और व्यापारी-संघ में एकता रखते हुए, बही-खाता में कोई गलती किये बिना, समय के अनुसार दाम बढ़ा दें तो रातो-रात माला-माल हुआ जा सकता है। मैं भी उन ब्लैक में बेचने वाले उत्पादों के पीछे भागते हुए अपने जीवन-मूल्यों या जीवन के मानदण्डों को जितना चाहूँ, नीचे गिरा सकता हूँ। इसके लिये मेरा तर्क केवल इतना होगा, कि आखिर इसी मंहगाई और रिश्वतखोरी के दौर में मुझे भी तो जिन्दा रहना है, अपने परिवार का भरण-पोषण मुझे भी तो करना है! किन्तु यह एक बहुत बुरा दुश्चक्र (vicious circle) है। हम जितने भी तथाकथित बुद्धिमान या चालाक लोग हैं, इस दुष्चक्र से तत्काल तो बच जाते हैं; किन्तु अपने ही वंशजों के लिये एक डरावने भविष्य की रचना कर जाते हैं। और उधर जो समाज के सबसे वंचित लोग हैं, जो अन्तिम पायदान पर खड़े थे, वे क्रमशः शून्य (nothingness) या अनस्तित्व की खाई में गिरते चले जाते हैं।
          इसी प्रकार अपना जीवन-यापन करते हुए, हमलोगों में जो सूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने की इच्छा या कलात्मकता होती है, उन्हें व्यक्त करने के लिये हमलोग नाटक खेलते हैं, साहित्यिक चर्चा करते हैं, संगीत-संध्या आयोजित करते हैं, धार्मिक-सम्मेलन (भागवत-कथा आदि) कराते हैं, सार्वजानिक पूजा करते है, बड़ी बड़ी प्रदर्शनीयाँ लगाते हैं, मेला लगाते हैं, सांस्कृतिक-कार्यक्रम आयोजित करते हैं, या किसी 'क्लब' के सदस्य बन जाते हैं। किन्तु सच्चाई यही है कि अधिकांश समाज-सेवियों के मन में, नाम-यश पाने या अनैतिक उपायों से धन कमाने या अन्य कई प्रकार से उल्लू सीधा करने का विचार ही होता है। फिर किसी  धनाड्य या उच्च-पदस्थ व्यक्ति-विशेष में ये सब लोभ-लालच भले नहीं भी हों, किन्तु वहाँ भी निरर्थक कार्यों में लगे रहकर आत्म-सन्तोष पाने की तीव्र इच्छा हो कार्य में प्रेरक शक्ति होती है। ये सारे आयोजन (उच्च पदों से रिटायरमेन्ट के बाद भी दस नामी कंपनियों में डायरेक्टर का पद लेकर व्यस्त रहना) भी एक प्रकार से 'निठल्लों/निकम्मों की कर्म-लिप्तता ' के सिवा और कुछ नहीं है। इसका परिणाम क्या होता है ? यही भाव (आजीवन इन्द्रियसुख प्राप्ति और बाणप्रस्थ- संन्यास आश्रम से वैराग्य का भाव)  दूसरे लोगों में भी संक्रमित होने लगती हैं। इसलिये हमलोग आज भी जो कर सकते हैं - वह यह कि इन सब व्यर्थ के कार्यों का निरीक्षण-परीक्षण करके यह विचार कर सकते हैं कि वे सभी कार्य मुझे तथा मेरे भविष्य को किस दिशा में लिये जा रहे हैं ? 
          आत्मनिरीक्षण करने पर यह समझ में आ जायेगा कि उपर से आकर्षक लगने पर भी ये कार्य आमजनों के यथार्थ कल्याण के उद्देश्य से नहीं किया जा रहे है। तब हमें तुरन्त निर्णय लेना चाहिए कि इस विषय में क्या करना उचित होगा ? विचार करना होगा कि जिन कार्यों का दायित्व  हमें सौंपा गया है या अभी अपने खाली समय में मैं जिन कार्यों को अपना शौक पूरा करने के लिये कर रहा हूँ,उससे दूसरों का यथार्थ कल्याण होगा या नहीं ?  उसके बाद दृढ़ता के साथ उसी कार्य को करना चाहिये जिससे यह विराट विषम चक्र (vicious cycle) हट जाये। यदि ऐसा नहीं किया गया तो सम्पूर्ण समाज विध्वंश के मार्ग पर चल पड़ेगा। हमलोग उसी मार्ग पर बहुत आगे निकल आये हैं, यदि अब भी नहीं रुके ओर मन को U-turn नहीं किया तो पूरे देश के लिये बहुत बड़ा संकट प्रतीक्षा कर रहा है। यदि हमलोग इस कार्य को नहीं करते हैं तो हमलोगों को मनुष्य से पशु-मानव बनने में अधिक देर नहीं लगेगी।
        हमलोग जो कुछ भी करते हैं वह सब व्यक्तिगत स्वार्थ  को पूरा करने के लिये ही करते हैं। एवं अधिकांश दल (वे तथाकथित धार्मिक दल भी हो सकते हैं ) जो कुछ भी करते हैं, वह सब दलगत स्वार्थ को पूरा करने के लिये ही करते हैं। क्योंकि हमारा दल यदि सत्ता की कुर्सी पर बना रहा तो, दल के लोगों को विशेष-सुविधायें भी मिलती रहेंगी, और गलत-सही सभी रास्तों से बहुत सारा धन जमा करने का मौका भी मिलेगा। सम्पूर्ण देशवासियों के कल्याण की चिन्ता किसे है? किन्तु 'मनुष्यत्व' की प्राप्ति लोक-कल्याण के यथार्थ कार्य में आत्मनियोग करने से ही होती है। और इसीमें यथार्थ लौकिक या सांसारिक सुख पाने की सम्भावना भी निहित होती है। इसीलिये जो व्यक्ति सभी मनुष्यों के सुख में, उसके यथार्थ कल्याण में विश्वास करते हों या ईश्वर में विश्वास करते हों, उन सब को मिल कर ऐसा कुछ करना चाहिये जिससे न केवल वर्तमान समस्यायें दूर हो सके बल्कि भविष्य में आने वाली सभी समस्यायों का समाधान भी प्राप्त हो जाय।
          वर्तमान एवं भविष्य की समस्त समस्याओं का मूल कारण चरित्र का आभाव ही है। व्यक्ति-चरित्र को गठित कर लेने से समाज का जघन्य-दुश्चक्र भी टूट जायेगा, जीवन में सुख-शांति आएगी, ओर चरित्र-निर्माण रूपी यही यथार्थ धर्मानुष्ठान हमारे जीवन को भी महिमामय बना देगा जो कि हमारा मानवोचित कर्तव्य है। इसी को धर्म कहा जाता है। धर्म और कुछ नहीं है। यथार्थ लोक-कल्याण (People Welfare) का कार्य करना ही धर्म है। 
    लोक-कल्याण करने का अर्थ लोगों को भिक्षा देना नहीं है, लोगों की आंतरिक शक्ति को जाग्रत कर देना ही यथार्थ समाज-सेवा है ! इसी शक्ति के जागरण से भोजन-वस्त्र भी प्राप्त होगा, कला-विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्नति होगी, जीवन में किसी भी प्रकार का आभाव न होगा। व्यक्ति में अंतर्निहित अनन्त शक्ति (दिव्यता और पूर्णता) को जाग्रत करना ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिये प्रत्येक व्यक्ति को अथक प्रयत्न करना होगा, एवं एकजुट होकर संघबद्ध प्रयास करना पड़ेगा। एकजुट होकर, संगठन बनाकर, उसे मजबूत करिये। 
       गाँव-गाँव, शहर-शहर में इस कार्य को फैला दीजिये। यदि धर्म करना चाहते हों तो इसी कार्य से यथार्थ धर्म-लाभ होगा। और यदि आप धर्म को पसंद नहीं करते हों; किन्तु कर्तव्य-निष्ठ व्यक्ति हों एवं सभी मनुष्यों के प्रति आपके हृदय में प्रेम हो तो मात्र इसी कर्तव्य का पालन करने से आपका जीवन सार्थक हो जायेगा। ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे आप नहीं कर सकते!  वर्तमान युग की समस्यायों के विशाल पर्वत को लाँघ पाना, कठिन प्रतीत हो सकता है। किन्तु एकता के सूत्र में बँधे व्यक्तियों के संयुक्त-प्रयास एवं दृढ-संकल्प ऊँचे से ऊँचे पहाड़ को भी न केवल लाँघ जाता है बल्कि उसको चूर-चूर कर दे सकता है।  यदि युवा-शक्ति इसी विश्वास के साथ कमर कस कर खड़ी हो जाये तथा प्रतीयमान असम्भव को संभव कर दिखाने का संकल्प लेकर आगे बढ़ें तो विश्वास कीजिये हमलोग सबकुछ कर सकते हैं !
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>>> 'मन पछितैहें अवसर बीते' , जब आप किसी को अच्छे नहीं लगेंगे, तब ईश्वर आपको अच्छा लगेगा! लेकिन तब आप कुछ कर नहीं पाएंगे। जिसके न करने से रोना पड़ता है,उसे पहले करो। वो है परमार्थ,उसे पहले करें। 'निकम्मों की कर्म-व्यस्तता में लगे रहे तो - मन पछितैहें अवसर बीते !