दो शब्द
देश में जब पहले से ही स्वामी विवेकानन्द के नाम पर इतने सारे स्थानीय , राष्ट्रीय एवं अन्तरार्ष्ट्रीय स्तर के गैर सरकारी संगठन कार्यरत हैं, स्वयं उन्हीं के द्वारा स्थापित किया गया ' रामकृष्ण मठ और मिशन ' भी कार्यरत है ; तो फिर किन कारणों से, 1967 ई. में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा ? इसकी कार्य पद्धति क्या है ? -इसी विषय पर केन्द्रित है यह पुस्तिका।
यह निश्चित है कि जबतक किसी संगठन का उद्देश्य और उसकी कार्यपद्धति से भलीभाँति परिचित न हुआ जाय तबतक उसमें आत्मनियोग कर उसके निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन है। इसीलिए इस पुस्तिका में महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यपद्धति को यथासंभव सरल भाषा में रखने की चेष्टा की गई है।
वस्तुतः, महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन की एक पुस्तक ' एक युवा आन्दोलन ' में पहले से ही यह विद्यमान है, किन्तु सुधि पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए इसे एक अलग पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, आप इस पुस्तिका को पढ़कर सहजता से महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यपद्धति से परिचित हो सकेंगे तथा इसमें अपना आत्मनियोग कर सकेंगे।
प्रकाशक
===============
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल
का
उद्देश्य एवं कार्यपद्धति
समाज की मूल इकाई 'मनुष्य' है। अतएव, 'मनुष्य-निर्माण' का कार्य ही मौलिक है। समाज-सेवा के समस्त कार्य चाहे सरकारी माध्यम से किया जाये, या स्वयंसेवी संगठनों के द्वारा - उन्हें उत्कृष्ट ढंग से निष्पादित करने का कार्य तो मनुष्यों के माध्यम से ही होगा। अतः समाज-सेवा के किसी भी कार्य का शत-प्रतिशत लाभ तभी प्राप्त हो सकता है, जब उससे सम्बद्ध सभी मनुष्यों के विचार शुद्ध हो, दृष्टिकोण और अभिप्रेरणा (motivation) सही हों, अर्थात वे ईमानदार , निष्कपट, सेवा-परायण, अनुशासित और निःस्वार्थी हों। ये सभी गुण वस्तुतः मनुष्य के चरित्र में निहित रहते हैं ; इसलिए इन चारित्रिक गुणों को अर्जित कर लेना ही मनुष्य-निर्माण का बुनियादी कार्य (basic work) हुआ। अतः जिसे 'चरित्र-गठन' (character-building) कहा जाता है उसका ही दूसरा नाम 'मनुष्य निर्माण' (man-making) है।
निःसन्देह इस बुनियादी कार्य- 'मनुष्य' बनने के कार्य का प्रारम्भ हम स्वयं से भी कर सकते हैं, या दूसरों को इन गुणों को अर्जित करने के लिए प्रेरित करके भी कर सकते हैं। लेकिन, हमारा उद्देश्य यदि इस कार्य को पकड़ने-छोड़ने और कुछ गिने-चुने सनकी लोगों तक ही सीमित न रख कर, देश के सभी राज्यों में सर्वत्र इसके लिए गंभीर प्रयास करने का हो, तो यह कार्य हमें अनिवार्य रूप से संघबद्ध होकर ही करना होगा। और अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि भी यही है।
देश को पुनरुज्जीवित करने, या देश के पुनर्निर्माण के लिये जो भी प्रयोजनीय है - उन सबके ऊपर विस्तार से चर्चा कर लेने के पश्चात्, समस्त कल्याणकारी योजनाओं का सार बतलाते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -" इसलिए, पहले मनुष्य निर्माण करो !हमें अभी मनुष्यों की आवश्यकता है और बिना श्रद्धा के 'मनुष्य' कैसे बन सकते हैं ?" जब तुम्हारे पास ऐसे मनुष्य होंगे, जो अपना सबकुछ देश के लिए होम कर देने को तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। भारत तभी जागेगा ; जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास एवं सुख की इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतवासियों के कल्याण के लिए सचेष्ट होंगे, जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर डूबते जा रहे हैं।" इसलिए आन्तरिक आग्रह करते हुए उन्होंने युवाओं से कहा था - " जो सच्चे ह्रदय से भारतवासियों के कल्याण का व्रत ले सकें तथा इसी कार्य को अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे युवाओं के साथ कार्य करने में लग जाओ। भारत के युवाओं पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।"
समाज से चन्दा (धन, औषधि या अन्न-वस्त्र) इकट्ठा कर अभावग्रस्त लोगों के बीच राहत सामग्रियों का वितरण करना एक अच्छा कार्य है। साधारण जनता की आर्थिक उन्नति के लिये ऐसी परियोजनाओं को स्थापित करना भी अच्छा कार्य है, जिससे उन्हें दैनन्दिन वित्तीय लाभ प्राप्त होता हो। लेकिन जो युवा अपने क्षुद्र स्वार्थों (ऐषणाओं, कामिनी-कांचन और नाम-यश में आसक्ति ) को भूलकर भारतवासियों के कल्याण को ही अपना एकमात्र कर्तव्य (व्रत) समझ सकें, वैसे युवाओं का जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण करना और भी ज्यादा गुरुत्वपूर्ण तथा उत्कृष्ट कार्य है। चाहे सरकारी सेवा की बात हो या निजी-सेवा (private service) की; सामाजिक संस्था की बात हो या घर-परिवार की, आजीविका के सभी क्षेत्रों में इसी प्रकार के निःस्वार्थी या चरित्रवान मनुष्यों की आवश्यकता है। ऐसे मनुष्य ही सामाजिक कल्याण (social welfare) की सुनिश्चित तथा अनवरत गारंटी हैं, जबकि ऐसे सच्चरित्र मनुष्यों का भारी अभाव है। अतएव, समाजसेवा के समस्त कार्यों में इस प्रकार के मनुष्यों का निर्माण करना ही सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है। महामण्डल के माध्यम से अखिल भारत स्तर पर, यही प्रयास विगत 58 वर्षों से चल रहा है- तथा निःसन्देह उस प्रयास का फल भी मिल रहा है।
सही दृष्टिकोण (ज्ञानमयी दृष्टि) रखते हुए समाजसेवा के छोटे-मोटे और सरल कार्यों (सेवा) के माध्यम से हमलोग यह सीख जाते हैं कि बदले में कुछ चाहे बिना, दाता की भूमिका कैसे ग्रहण की जाती है; और साथ थी साथ आत्मविश्वास भी कैसे अर्जित किया जाता है। अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल, अपने सभी युवा मित्रों को इसी प्रकार के प्रयासों (endeavors) में जुट जाने के लिए अनुप्रेरित करता आ रहा है। इसका कोई बहुत विस्तृत घोषणापत्र नहीं है। यह बहुत ही छोटे रूप में गठित हुआ था, किन्तु क्रमशः बढ़ता ही जा रहा है। धीरे-धीरे युवाओं के मन को अपनी और लुभा रहा है, विशेष तौर पर यह ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं का मन लगातार जीतता चला जा रहा है। उन युवाओं ने अपने मन को एक ऐसे दुर्भेद्य दुर्ग के रूप में गठित कर लिया है , जिसमें पाश्चात्य संस्कृतिजन्य भोगवाद प्रविष्ट ही नहीं हो सकता; और जहाँ अहंबोध के द्वारा सेवा परायणता का भाव कभी ढंका (overshadow) नहीं जा सकता। स्वामी विवेकानन्द स्वयं कहा करते थे - " मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है, और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ- जागो , जागो !" (४/४०८) महामण्डल केवल इतना ही चाहता है कि स्वामी विवेकानन्द का यह जागरण मंत्र देश के समस्त युवाओं के कानों में गूँज उठे और इस संकट की घड़ी में जब हम हर किसी के प्रति, यहाँ तक कि स्वयं के प्रति भी विश्वास खो बैठे हैं; चिर गौरवमयी भारत माता को पुनः अपने सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने के लिए सभी युवा उठ खड़े हों तथा विषम परिस्थिति का डटकर सामना करें।
इस महती कार्य में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को यदि कोई भूमिका निभानी है, तो वह है देश के युवाओं के खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः वापस लौटा देना। इसका मुख्य कार्य युवाओं के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है, जिससे वे मनुष्य जीवन के विषय में अपना एक दर्शन बना सकें, अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित कर सकें। तथा अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम एक विवेक-सम्पन्न (conscientious) नागरिक के रूप में अपने जीवन को गठित कर, अपने व्यक्तिगत जीवन की उच्चतर सार्थकता को प्राप्त कर सकें। अतएव, आत्मविश्वास प्राप्ति के उपाय एवं चरित्र-निर्माण की व्यावहारिक पद्धति से युवाओं का परिचय करा देना ही - महामण्डल का मुख्य कार्य है। महामण्डल के जितने भी क्रियाकलाप हैं, वे इसी उद्देश्य से प्रेरित होते हैं। इसलिए, ऐसा कहा जा सकता है कि व्यष्टि मनुष्य के 'जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण' के माध्यम से श्रेष्टतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है।
स्वामी विवेकानन्द की एक विख्यात उक्ति है - 'man-making and character-building' - " संसार का इतिहास मात्र छः श्रद्धालु मनुष्यों का, छः गम्भीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है : अनुभव करने के लिए ह्रदय (Heart) की कल्पना करने के लिए मस्तिष्क (Head) की और काम करने के लिये हाथ (Hand) की, इन तीनों का एक साथ सुसमन्वित विकास को पाना हमारा लक्ष्य है। पहले हमें संसार से बाहर जाना चाहिए (ऐषणाओं में आसक्ति से बाहर जाना चाहिए) और अपने लिए समुचित उपकरण (विकसित '3H') तैयार करना चाहिए। अपने को एक डाइनेमो बनाओ।" (3/271) व्यष्टि मानव यदि संघबद्ध प्रयत्न के द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त करने में निरन्तर लगा रहे तो समाज का बहुत बड़ा भाग उत्तरोत्तर प्रभावित होने के लिए बाध्य है। क्योंकि यह परिणाम सामाजिक संरचना या व्यवस्था की मूल इकाई (मनुष्य) में सुधार (improvement) के माध्यम से प्राप्त होता है।
[अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम कभी ईसा नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो - वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में निरन्तर एक हैं, लेकिन गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में निरन्तर भिन्न हैं। 'ब्रह्म' (सच्चिदानन्द) ही ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उपादान है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं , परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं।
" तुम्हारे पास तीन चीजें हैं : (१) शरीर (२) मन (३) आत्मा। आत्मा इन्द्रियातीत (सत्य) है। मन जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर की है। तुम वही आत्मा हो,पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। जब मनुष्य कहता है 'मैं यहाँ हूँ', वह शरीर कि बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है, जब तुम उच्चतम भूमिका (तुरीय) में होते हो , तब तुम यह नहीं कहते, ' मैं यहाँ हूँ। ' किन्तु जब तुम्हें कोई गाली देता है अथवा शाप देता है और तुम रोष प्रकट नहीं करते, तब तुम आत्मा हो। " जब मैं सोचता हूँ कि मैं मन हूँ, तब मैं उस अनन्त अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ, जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ, तब तुम और मैं एक हूँ। ' - यह कथन प्रभु के एक भक्त का है। (हनुमान जी-दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्। देहबुद्धया तु दासोऽहं जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥) क्या मन (Head) आत्मा (Heart) से बढ़कर है ?" (मनुष्य और ईसा में अन्तर १०/४०) ]
परन्तु यह कार्य (डाइनेमो रूपी मनुष्य निर्माण का कार्य) कोई पाँच वर्ष, दस वर्ष या पच्चीस वर्ष की निर्धारित अवधि में समाप्त हो जाने वाला कार्य (योजना) नहीं है । पीढ़ी-दर-पीढ़ी, एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी इस कार्य को अपने हाथों में ले लेगी और यह कार्य अनवरत चलता रहेगा। लेकिन इस कार्य से जुड़ने के पहले हमें यह भी समझ लेना चाहिये कि समय के अनन्त प्रवाह में ऐसा कोई भी क्षण नहीं आएगा, जब हम गर्व के साथ यह कह सकेंगे कि, " बस ! अब हमलोगों का कार्य समाप्त होता है, हमने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया - यह रहा आपके सपनों का त्रुटिरहित आदर्श समाज (perfect society)!"
क्योंकि ऐसा होना एक खूबसूरत कल्पना ही हो सकता है, यथार्थ नहीं। अतएव, अपने जीवनव्रत के रूप में जो लोग इस कार्य में आत्मनियोग करेंगे , उन्हें जीवनपर्यन्त (100 वर्षों तक शरद शतं) संग्राम करने के लिए प्रस्तुत रहना होगा और विदा होते समय इस कार्य का दायित्व उनके हाथों में सौंप देना होगा जो इस कार्य से पीढ़ी दर पीढ़ी जुड़ते रहेंगे। अपने देश की अवस्था आज किसी से छिपी हुई नहीं है, देशवासियों की दुर्दशा से सभी लोग परिचित हैं। इस अवस्था को बदलने के लिए सरकारी तंत्र (state machinery), लोकतन्त्र (democracy) के साथ-साथ, समाजवाद (Socialism) और साम्यवाद (Communism) जैसी अनेक विचारधारायें भी हैं। किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के 78 वर्षों तक (आठ दशकों तक) इन सबके [ 'ism' के] क्रिया-कलापों को देख-सुन लेने के बाद इतना तो समझ में आ ही रहा है कि अभी भी एक काम ऐसा है जो किया जाना बाकी है, जो किसी की भी कार्य सूची (list of business) में शामिल नहीं है। महामण्डल ने उसी एकमात्र छूटे हुए कार्य को, जिसे किया जाना सर्वाधिक आवश्यक है- स्वयं पूरा करने का बीड़ा उठा लिया है। वह है स्वयं को सुसमन्वित रूप से विकसित 'मनुष्य' (डाइनेमो जैसा चरित्रवान मनुष्य) बनाने का प्रयास। क्योंकि, हमलोग अभीतक 'चरित्रवान मनुष्य' नहीं बन सके हैं केवल इसी एक मात्र कमी के कारण; भारतवासियों की दुःख-वेदना को कम करने की समस्त योजनायें, अंतिम आदमी को सुखी बनाने की सारी कोशिशें, भारत माता को पुनः गौरवमय सिंहासन पर बैठने के लिए हमारे द्वारा किये गए सारे प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं।
गहराई से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 'मनुष्य निर्माण की पद्धति ' (स्वयं मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने का कार्य-'Be and Make') जितना भौतिक (physical) उससे अधिक आध्यात्मिक (spiritual) है। ' Because this wants to treat the core of man and not merely his outer shell.' क्योंकि यह न केवल मनुष्य के बाहरी खोल (M/F outer shell देह और मन) का, बल्कि उसके मूलस्वरूप (core-ह्रदय) का उपचार करना चाहता है, जो इन्द्रियातीत (intangible-अमूर्त) है, मन-बुद्धि से परे है।
इसके बावजूद भी प्रचलित अर्थों में महामण्डल कोई धार्मिक संगठन नहीं है, क्योंकि यह अपने सदस्यों को कभी मन्दिर,मस्जिद या चर्च जाने के लिए बाध्य नहीं करता। न ही किसी प्रकार की धार्मिक पूजा, अनुष्ठान अदि आयोजित करने के लिए प्रेरित या उत्साहित करता है। क्योंकि, यह संगठन केवल युवाओं के प्रति समर्पित है, जिसके कुछ सदस्यगण की रूचि भले ही प्रचलित ढंग से पूजा-पाठ करने पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठानों में नहीं हो। किन्तु, बिना अपवाद के उन सभी युवाओं में एक देशभक्त नागरिक के रूप में अपना जीवन-गठित करने का आग्रह अवश्य रहता है। सामान्यतया तरुण लोग अपने देश से बहुत प्रेम करते हैं तथा मातृभूमि के गौरव एवं देश-वासियों के कल्याण के लिए अपने समग्र जीवन का भी उत्सर्ग कर देने से पीछे नहीं हटते। वास्तव में इसमें ही अद्भुत आध्यात्मिकता सन्निहित है, और इसीके माध्यम से उन्हें पूर्ण-मनुष्यत्व ( fuller manhood) की प्राप्ति भी हो जाती है। देशभक्ति के ऊपर गहराई से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि (गुलाम भारत की आजादी के लिए खुदीराम बोस और भगतसिंह की तरह) देश के लिए फाँसी के फंदे पर झूल जाना ही केवल देशभक्ति नहीं है, बल्कि (आजादी के बाद) केवल देश और देशवासियों के कल्याण के जीना (ऑपरेशन सिन्दूर) भी सच्ची देशभक्ति है। और सच्ची आध्यात्मिकता भी देशवासियों की 'शिवज्ञान' से सेवा करने में ही सन्निहित है। देश-वासियों की निःस्वार्थ सेवा करने से ही तरुण लोग पूर्णतया मनुष्यत्व अर्जित करने में समर्थ होंगे। स्वामी विवेकानंद के उपदेशों का स्मरण कराते हुए महामंडल सभी से कहता है - " धर्म का रहस्य तत्व को (चार महावाक्यों को) जान लेने में नहीं वरन उस तत्व ज्ञान को आचरण में उतार लेने में निहित है। भला बनना तथा भलाई करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। एक वाक्य में कहें तो मनुष्य स्वयं अपने यथार्थ स्वरुप में क्या है, इसको जान लेना ही वेदान्त का लक्ष्य है। "
" [ My children, the secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion. "धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।"(30 अप्रैल, 1891 को गोविन्द सहाय को लिखित पत्र/1-380/)]
जब कोई व्यक्ति अपरोक्षानुभूति के द्वारा अपने यथार्थ स्वरुप को जान लेता है अथवा आत्म -साक्षात्कार कर लेता है तो वह क्या देखता है ? स्वामी विवेकानंद के उपदेश को पुनः उद्धृत किया जाये तो, वह देखता है कि- " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र एक स्थान में निश्चित है। " वह (ब्रह्मविद-आत्मवेत्ता) यह भी जान लेता है कि स्वयं को केन्द्र मानकर अपने हृदय की परिधि को विकसित करते हुए वह अनन्त दूरी पर रहने वाले मनुष्यों (प्राणियों) को भी अपना बना सकता है। इस प्रकार उसका ह्रदय विकसित हो जाता है, उसका प्रभाव क्षेत्र प्रसारित होता है, वह बृहद होते- होते यथार्थ मनुष्य में परिणत हो जाता है। इसीको ईशवराभिमुखी पथ पर अग्रसर होना ( journey towards godhood) भी कहते हैं।
[दादा कहते थे -"मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा:, त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं, निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्त: ॥ -स्वामी विवेकानंद ]
किन्तु, प्रश्न उठ सकता है कि क्या भारत के सभी मनुष्य अपनी स्वार्थपरता, हिंसा , लोभ , असंयम, अनुशासनहीनता तथा क्षुद्र अहंबोध से परिपूर्ण अपने पाशविक आवरण (The shell of a brute existence) को भेदकर सीधा 'ईश्वर के साथ एकत्व' की (Inherent Divinity की) अनुभूति कर लेंगे ? इसका उत्तर यह है कि पशुत्व से सीधा अन्तर्निहित दिव्यता के साथ एकत्व की अनुभूति प्राप्त कर लेना या 'ईश्वर में उपनीत हो जाना' इतना आसान भी नहीं है। अतएव, आचरण में अन्तर्निहित 'पशुत्व' पर विजय प्राप्त करके 'मनुष्यत्व' अर्जित प्रथम सोपान है और हमलोग अभी इसी प्रथम सोपान की ओर अग्रसर हो रहे हैं। हम स्वीकार करते हैं 'मनुष्यत्व' अर्जित करने तक ही हमारी सीमा है। कोई भी व्यक्ति केवल मनुष्य का ढाँचा प्राप्त हो जाने मात्र से ही मनुष्य नहीं हो जाता, बल्कि 'मनुष्य' बनना पड़ता है।
अतएव जीवन में सम्पूर्णता (completeness) प्राप्ति के अन्य जितने भी सम्भावित मार्ग हो सकते हैं उन सब पर चर्चा किये बिना ही महामण्डल तरुणों से केवल उसी मार्ग की चर्चा करना चाहता है जो उसके लिए सरल एवं उपयोगी है और वह मार्ग है -कर्म मार्ग। जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान हो, उसे एक महान उद्देश्य के लिए त्याग देने में समर्थ होने को ही आध्यात्मिक क्षमता (spiritual capacity) कहा जाता है। और महामण्डल का वह उद्देश्य है - देश एवं करोड़ों देशवासियों का कल्याण। निःस्वार्थभाव से देशवासियों के कल्याण के लिए थोड़ा से भी कुछ करने से हृदय में सिंह का सा बल और हाथों में अधिक कर्म करने की शक्ति प्राप्त होती है। और समाज सेवा इसी प्रकार का कार्य है। इसलिए महामंडल इस कार्य को लक्ष्य नहीं बल्कि हृदय को विशाल बनाने का साधन मानता है।
महामण्डल के पास न तो प्रचुर धनबल है, न ही जनबल है। किन्तु उसे तबतक इसकी चिन्ता नहीं है जब तक उसकी दृष्टि के सम्मुख उसका वास्तविक लक्ष्य,'भारत का कल्याण' बिल्कुल स्पष्ट है। तथा थोड़े से ही सही पर उसके साथ ऐसे युवा जुड़े हुए हैं जो यह जान चुके हैं कि देश के कल्याण का एकमात्र उपाय है -चरित्र निर्माण। आज भी भारतवर्ष में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे युवा हैं जो ईमानदार , निष्ठवान, परिश्रमी , देशभक्त, जिज्ञासु, निःस्वार्थी , त्यागी, तेजस्वी एवं साहसी हैं। वे देश को पुनर्जागृत करने में रुचि रखते हैं। महामण्डल का कार्य केवल उन्हें संगठित करना है और मोहनिद्रा को त्याग कर इस मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़ जाने के लिए प्रेरित करना है।
महामण्डल कुछ चुनिंदा, तथाकथित गणमान्य (VIP) या प्रसिद्द हस्तियों (Celebrities) का संगठन नहीं है। यह उन समस्त तरुणों का संगठन है जो अपने देश, देशवासियों तथा साथ ही साथ स्वयं से भी प्रेम करते हैं। महामण्डल उन युवाओं का संगठन है जो अथक कर्मशील एवं गौरवपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं और राष्ट्रीय जीवन में गौरव प्राप्त करने के इच्छुक हैं, चाहे वे किसी भी स्थान पर रहें, किसी भी धर्म को मानें या वे नास्तिक ही क्यों न हों। महामण्डल के सदस्यों को न तो अपना घर-परिवार छोड़ना पड़ता है, न ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त आजीविका का परित्याग करना होता है। उन्हें देना होता है अपना कुछ अतिरिक्त समय, थोड़ी शक्ति और यदि संभव हो तो इसके कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए थोड़ा धन। और एक प्रबुद्ध नागरिक का जैसा सुसमन्वित होता है, वैसा ही सुन्दर चरित्र गठित करने में सहायक पाँच कार्यों (प्रार्थना, मनःसंयोग, शारीरिक व्यायाम, स्वाध्याय और विवेकप्रयोग) का नियमित अभ्यास पूरे अध्य्वसाय के साथ करने के लिए महामण्डल अपने सदस्यों को अनुप्रेरित करता है।
इन दिनों सभी आम और खास लोग चौक -चौराहों पर खड़े होकर अक्सर ये कहते हैं कि भारत की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए इस निकम्मी सरकार को तुरन्त बदल देना होगा। कोई-कोई यह भी सुझाव देते हैं कि प्रजातंत्र के वर्त्तमान स्वरुप स्वरुप को बदलने के लिए (बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा रचित) संविधान में संशोधन करना होगा। किन्तु इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं है कि इन कार्यों का उत्तरदायित्व लेने के लिए या साकार को समुचित ढंग से चलाने के लिए और भी अधिक योग्य, ईमानदार, निःस्वार्थ और चरित्रवान मनुष्य की आवश्यकता होगी; वे कहाँ से आयेंगे ? आखिर ऐसे सच्चरित्र मनुष्यों का निर्माण कैसे होता है? और इनके निर्माण की जिम्मेदारी कौन उठायेगा ? जो लोग (अन्नाहजारे-केजरी) बाँहें चढ़ाते हुए गणतांत्रिक व्यवस्था में क्रांतकारी परिवर्तन लाने के लिए संघर्षरत रहने का दावा किया करते हैं, वे इस सबसे महत्वपुर्ण कार्य, 'मनुष्य-निर्माण' की कोई योजना नहीं बनाते तथा असली कार्य को ही भूले रहते हैं।
इसीलिए महामंडल अन्य बड़े-बड़े परिवर्तनों की ओर ध्यान दिये बिना पूर्णतः उपेक्षित इस चरित्रनिर्माण के कार्य का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठा लेना चाहता है, क्योंकि इस प्रारंभिक कार्य को किये बिना बाद वाले बड़े-बड़े परिवर्तन कभी संभव नहीं है। अतः महामण्डल पूरी विनम्रता के साथ यह स्वीकार करता है कि उसके कार्यक्षेत्र की सीमा या उड़ान यहीं तक है। इसीलिए राजनीति के साथ महामण्डल का कोई संबंध नहीं है; क्योंकि राजनीति सर्वदा घोड़े को पीछे छोड़कर गाड़ी पर ध्यान केंद्रित रखती है।
ट्रकों के ऊपर 'मेरा भारत महान ' लिख देने मात्र से भारत महान नहीं बन जाता। कोई भी देश महान तब होता है जब वहाँ के मनुष्य महान होते हैं। हमें इस बात पर गहन चिन्तन करना चाहिये कि देश के लिये सचमुच प्रयोजनीय क्या है ? फिर उस प्रयोजनीयता को समझ लेने पर, चरित्र-निर्माण की पद्धति को सीखकर उसे अपने आचरण में उतारना चाहिये। यदि हम भारत वर्ष को पुनः उसकी ऊँचाइयों पर ले जाना चाहते हों, उसे एक महान राष्ट्र बनाना चाहते हों तो उसका एकमात्र उपाय यही है।
हमें पहले 'स्व-परामर्श ' (Autosuggestion) सूत्र के अनुसार एक चरित्रवान मनुष्य बनने का संकल्प लेकर, महामण्डल की पुस्तिका 'चरित्र के गुण' (Character qualities) का अध्यन कर उन गुणों को विवेक-प्रयोग तथा आत्म-मूल्यांकन के द्वारा अपने जीवन और आचरण में उतारकर आत्मसात (imbibed) कर लेना होगा। दैनन्दिन जीवन में विवेक-प्रयोग की शक्ति अर्जित करने में समर्थ बनाने वाली शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। यदि कोई बड़ा बदलाव लाना है और भारत को बेहतर भविष्य की ओर ले जाना है, तो स्वामी विवेकानंद के इस 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करना ही एक मात्र रास्ता है। अतः कहा जा सकता है कि - सच्चे अर्थों में शिक्षित मनुष्यों का निर्माण करना ही महामण्डल का वास्तविक कार्य है। अतः यह स्वभाविक है कि इस कार्य में समय तो लगेगा ही। निरंतर, अथक परिश्रम किये बिना केवल बैठकर सोचते रहने से ही रातों-रात किसी बड़े परिवर्तन को नहीं लाया जा सकता। इसके लिए हमें भी समुद्र मंथन के समान ही बिना विश्राम लिए तब तक संघर्ष करना होगा जबतक कि अमृत नहीं निकल आता। स्वामी विवेकानंद कहते थे - "जब आप मूल और आधार के प्रति कुछ करना चाहते हैं, तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी।" (४/२३५)(When you deal with roots and foundations, all real progress must be slow.) [ "बहुत से प्राचीन सिद्धान्तों (चार महावाक्यों) के समान यह नया सिद्धान्त -'Be and Make' भी बिना शुल्क और बिना मूल्य वितरित किया जाता है, और यह पूर्णतया उन्हीं लोगों के निजी प्रयासों पर निर्भर होता है, जो उसे अपनाते हैं।.. ये विचार, इस रीति से नहीं तो किसी दूसरी से, फैले बिना न रहेंगे , और हममें से बहुतों का विचार है कि उनके प्रचार का उचित समय अब आ गया है।"These ideas are bound to spread by one means or another, and to many of us the right moment for their dissemination seems now to have come. Like many an old doctrine, this new one is offered without money and without price, depending entirely upon the voluntary efforts of those who embrace it." (E 5/193) ]
इसीलिए हमारे इस धीमी गति से चलने वाले कार्य को देखकर कोई-कोई बुद्धिवादी बड़ा ही सूक्ष्म प्रश्न उठाते हुए पूछते हैं, 'क्या इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश के समस्त मनुष्यों का चरित्र निर्माण कभी संभव है ? ठीक है, ऐसा करना संभव नहीं है। तो क्या आपके पास भारत को महान बनाने का कोई दूसरा उपाय या विकल्प है ? यदि हो , तो वही बता दीजिये। यही न कि 'यथा पूर्वं तथा परं।' (जैसा पहले था, वैसा ही, पहले की नाईं, पूर्ववत्) यानि जैसा चल रहा है, वैसे ही चलते रहने दिया जाय। अब कुछ नहीं हो सकता। अब हमें हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहिए। तथा प्रलय होने का इंतजार करना चाहिए। क्या इस प्रकार से सोचने पर किसी भी समस्या का समाधान सम्भव हो सकेगा ?
किन्तु, यदि संगठित होकर थोड़े से लोग भी इस 'Be and Make' आंदोलन के साथ जुड़े रहें, यानि स्वयं को तथा साथ ही साथ दूसरों को भी मनुष्य बनाने के प्रयत्न में लगे रहें तो कोई न कोई तरुण अवश्य ही यथार्थ मनुष्य के रूप में उन्नत हो सकेगा। इस प्रकार क्रमशः ऐसे मनुष्यों की संख्या में वृद्धि होती रहेगी। परिणामस्वरूप उसी अनुपात में समाज में भी परिवर्तन सम्भव हो पायेगा। स्वामी विवेकानंद ने इसका उदाहरण देते हुए कहा था - "जब हम विश्व के इतिहास का मनन करते हैं करते हैं तो पाते हैं कि जब-जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब-तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, और जैसे ही अपनी अन्तःप्रकृति का अन्वेषण करना वह छोड़ देता है , वैसे ही उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। भले ही उपयोगितावादी लोग इस चेष्टा को कितना भी अर्थहीन प्रयास कहते रहें। (२/१९८) उनका निश्चित निष्कर्ष था - " हमें उस समय तक ठहरना होगा, जब तक कि लोग शिक्षित न हो जायें, जब तक वे अपनी आवश्यक्ताओं को न समझने लगें और अपनी समस्याओं को खुद सुलझाने के लिए तैयार न हो जाएँ और ऐसा करने की क्षमता न प्राप्त कर लें। " (४/२५४) शिक्षा (उच्च 'शी'क्षा ) के संबंध में स्वामी जी ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए बंगला भाषा में लिखित एक पत्र में कहा था - " जे विद्याचर्चाय इच्छा-शक्तिर प्रवाह एवं प्रकाश नियन्त्रित हये ता फलप्रसवनि शक्तिते रूपान्तरित हय ताकेई बले शिक्षा। " - अर्थात " सीखने की वह प्रक्रिया जिसमें मन को एकाग्र करने की विद्या--'मनःसंयोग' के अभ्यास का प्रशिक्षण द्वारा (यम,नियम का अभ्यास 24 X 7, तथा आसन, प्रत्याहार धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार करने के द्वारा) इच्छाशक्ति के प्रवाह और प्रस्फुटन को इस प्रकार अपने वश में कर लिया जाता है जिससे वह फलदायी गतिविधि/शक्ति (fruitful activity -यानि निःस्वार्थपर मनुष्य के निर्माण)में रूपांतरित हो जाती है, उसे शिक्षा कहा जाता है।"(७/३५९) किन्तु इस प्रकार की शिक्षा [श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में निःस्वार्थपर मनुष्य बनने और बनाने Be and Make' का प्रशिक्षण] राज्य संपोषित विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना कर नहीं दी जा सकती। आज प्रतिष्ठित शिक्षालयों की संख्या कम नहीं है, इसके अलावा, एक से बढ़कर एक नामी -गिरामी विद्यालय और विश्वविद्यालय प्रतिदिन खुलते भी जा रहे हैं। किन्तु स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मैं शिक्षा को गुरु के साथ सम्पर्क , गुरु-गृहवास -समझता हूँ। गुरु के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थायें हैं। जनसमुदाय के दुःख-कष्ट में सहभागी बनने के लिए अपने भोग-विलास को त्याग देने की भावना अभी तक हमारे देशवासियों के ह्रदय को भेद नहीं सकी है। "(जनसाधारण के कल्याण के लिए त्याग और बलिदान की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है।) (४/२६२) त्याग और सेवा की इसी भावना को तरुण वर्ग के प्राणों में प्रज्वलित करा देना होगा। अपने देश के सभी युवाओं के द्वार-द्वार तक इस शिक्षा को ले जाना होगा। यही है महामण्डल का कार्य।
एक प्रश्न और है जिसे हमलोगों से अक्सर पूछा जाता है - ' आपलोगों का उद्देश्य तो महान है, आपकी परिकल्पना भी प्रशंसनीय है, किन्तु इस कार्य को धरातल पर उतारने की आपकी पद्धति क्या है ? आप इस कार्य को पूरा करने के लिए किस प्रकार अग्रसर होना चाहते हैं ? इसके उत्तर में हम बस यही कहते हैं कि प्राचीनकाल हमारे ऋषियों ने 'मनुष्य -निर्माण और चरित्र गठन' (man-making and character-building) की जिस पद्धति का प्रतिपादन/ आविष्कार किया था, उसी को वर्तमान युग के भविष्य द्रष्टा स्वामी विवेकानन्द जिस प्रकार सरल भाषा में समझाया है , वह पूरी तरह से विज्ञानसम्मत है। और यही महामण्डल का भी पथ है। आधुनिक मनोविज्ञान तो उसकी अविकल प्रतिध्वनि मात्र है। संक्षेप में कहें तो यह पद्धति है श्रवण , मनन तथा निदिध्यासन की। पहले श्रवण अर्थात चरित्र के गुणों के विषय में पहले सुनना होगा। उसके बाद मनन के द्वारा इन गुणों की स्पष्ट धारणा को अपने अवचेतन मन में स्थापित करना होगा। फिर उनके संरक्षण, प्रयोग एवं इच्छाशक्ति के द्वारा पुनः पुनः अभ्यास करके अपने संस्कार में परिणत करना होगा। श्रेय-प्रेय (शाश्वत-नश्वर) के विवेक-प्रयोग को सीखकर लालच को थोड़ा कम करते हुए, एकाग्र मन से ऐसे कार्यों को ही बार-बार करना होगा जिनके माध्यम से ये गुण प्रतिबिंबित होते हों। इस कार्य में ह्रदय की भी एक भूमिका है। नियंत्रित हृदय आवेग , चरित्र निर्माण की समग्र प्रक्रिया को ही सरल और सरस् बना देता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि चरित्र-निर्माण की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में श्रेय-प्रेय के विवेक को जीवन में उतार लेना ज्ञान योग है, एकाग्रता द्वारा मन को वश में करने का अभ्यास करना राजयोग है। फिर ह्रदय के आवेग को नियंत्रित करना भक्तियोग है, एवं अपने सुविचारित उद्देश्य भारत का कल्याण के लिए निःस्वार्थ कर्म करना कर्मयोग है। इन चारों के सुसमन्वित अभ्यास से ही चरित्र गठन होता है। महामण्डल के कार्यक्रमों को इस प्रकार बनाया गया है कि इसमें सम्मिलित प्रत्येक सदस्य को इन चारों योगों का अनुसरण करने का अवसर प्राप्त हो जाता है। महामण्डल का मनुष्य निर्माण कार्यक्रम उपरोक्त योग प्रणाली के अनुसार चार धाराओं में बंटी हुई है -पाठचक्र, मनःसंयोग (mental concentration), प्रार्थना एवं समाज सेवा। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि समाज सेवा महामण्डल का लक्ष्य नहीं बल्कि चरित्र-गठन का उपाय मात्र है।
इसीलिये महामण्डल के कार्यों का आकलन करते समय समाज सेवा के कार्यों का मानदण्ड बनाना उचित नहीं होगा। बल्कि, यह देखना होगा कि उन कार्यों का सम्पादन करते समय महामण्डल कर्मी का दृष्टिकोण कैसा रहता है ? क्या वह ज्ञानमयी दृष्टि से जगत को ब्रह्ममय देखते हुए निष्काम भाव से; शिवज्ञान से जीवसेवा कर रहा है, अथवा नाम-यश या अन्य लाभ के लिए कर रहा है ? नियमित व्यायाम, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग एवं हृदय के विस्तार से महामण्डल कर्मी की प्रेम-परिधि कितनी विस्तृत हुई है तथा अपने मन पर नियंत्रण करने की शक्ति कितनी बढ़ी है -यही सब विचारणीय है।
महामण्डल के केन्द्र अपने-अपने क्षेत्र में इस प्रकार के परिवेश की रचना कर देते हैं जिससे वहाँ के तरुण, महामण्डल के उद्देश्य के अनुरूप चरित्र-गठन का अभ्यास करने में सक्षम हो सकें। इसके केन्द्र, गाँव, शहर कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं। इस समय देश के १२ राज्यों में महामण्डल के 330 केन्द्र कार्यशील हैं। इन केंद्रों को किसी विद्यालय के कमरे में, बरामदे में, पेड़ की छाया में, खेल के मैदान में , कहीं भी जहाँ तरुण लोग एकत्र होते हों - स्थापित किया जा सकता है। वहाँ पर ये तरुण अपने शरीर को स्वस्थ-सबल रखने के लिए व्यायाम करते हैं। ज्ञान को बढ़ाने तथा बुद्धि को तीक्ष्ण करने के लिए सागर से विशाल हृदय वाले स्वामी विवेकानंद के जीवन और उपदेशों का अध्यन एवं उनपर चर्चा किया करते हैं। फिर अपने ह्रदय को विस्तृत करने के लिए स्वामीजी के निर्देशों को कार्यरूप में उतारने के लिए मानव सेवा किया करते हैं।
"श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा: 'Be and Make" के माध्यम से 3'H' विकास या 'मनुष्य-निर्माण और जीवन गठन ' की यह पद्धति कितनी व्यावहारिक है, इसपर कोई तबतक विश्वास नहीं कर सकता जबतक कि वह स्वयं इस प्रणाली के अनुसरण के फल-स्वरूप अपने हृदय के विस्तार को देखकर आश्चर्यचकित न हो जाए !! युवाओं के ही समान बच्चों के लिए महामण्डल का एक 'शिशु -विभाग' भी है जिसमें उपरोक्त अभ्यासों को और भी सहजतर तरीके से कराया जाता है। [ फिर नारियों के चरित्र-गठन के लिये ठीक महामण्डल की ही कार्य-पद्धति पर आधारित अलग से 'सारदा नारी संगठन' भी है, स्वामीजी है के निर्देशानुसार जिसका संचालन भी स्त्रियों के द्वारा ही किया जाता है।] कई स्थानों पर महामण्डल के केन्द्रों में निःशुल्क चिकित्सालय, कोचिंग क्लासेज, वयस्क शिक्षा केंद्र, शिशु पाठशाला, उच्चविद्यालय , छात्रावास, पुस्तकालय -सह-वाचनालय , पौष्टिक आहार वितरण, प्राकृतिक आपदाओं के पीड़ितों को राहत और इसी तरह के अन्य बाह्य समाजसेवा रूपी कार्य भी, केवल सेवा ही नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ईश्वरत्व (Inherent Divinity) की आराधना की दृष्टि से किये जाते हैं। क्योंकि समाज सेवा के इन कार्यों को करते समय महामण्डल कर्मियों का मनोभाव यही रहता है कि ' नरदेह में नारायण सेवा' करने का जो सौभाग्य मिला है, उसे पूजा भाव से करना है; तथा इसी भावना को अपने जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में अभिव्यक्त करना है। ये लोग प्रतिवर्ष जरूरतमंद रोगियों के लिए रक्तदान भी करते हैं।
इस प्रकार वे उन समस्त कार्यों को करते हैं जिसके माध्यम से मांसपेशियों को बलिष्ठ, मस्तिष्क को प्रखर एवं हृदय को प्रसारित करने में सहायता मिलती हो। मनुष्य -निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति को सभी तरुण आत्मसात कर पाने में समर्थ हों, इसके लिए अखिल भारतीय स्तर पर, राज्य स्तर पर , जिला स्तर पर एवं स्थानीय स्तर पर भी प्रतिवर्ष युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जाते हैं। शिविर में उन्हें मन को एकाग्र करने की विधि, चरित्रवान मनुष्य बनने की पद्धति, एवं चरित्र के गुण , 'नेति से इति' आदि विषयों को स्पष्ट रूप से समझा दिया जाता है। यहाँ बताये जाने वाले निर्देशों को आग्रही तरुण लोग अपने नोटबुक में उतार लेते हैं। उन्हें अपने चरित्र के गुणों में वृद्धि को तालिकाबद्ध कर स्वयं अपना -मूल्यांकन करना या आत्म -मूल्यांकन तालिका को भरना भी सिखाया जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर विधिवत स्व-परामर्श सूत्र लिखने एवं आत्म-मूल्यांकन तालिका में अपने चरित्र के गुणों के मानांक भरने का अभ्यास करने के केवल छः महीने बाद ही अपने चरित्र में गुणात्मक विकास को देखकर वे स्वयं आश्चर्य और उत्साह से भर उठते हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी हजारों युवा जब एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए छः दिनों तक एक ही साथ निवास करते हैं तो सामूहिक क्रिया-कलाप, एवं पारस्परिक प्रेमपूर्ण व्यवहार से उनके भीतर सहिष्णुता , सहयोग की भावना, एकात्मबोध एवं राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत होती है।
छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण-शिविर के सभी कार्यक्रम उन्हें एक कर्तव्यपरायण , देशभक्त, निःस्वार्थी , त्यागी, सभ्य और चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता प्रदान करते हैं। इस प्रकार वे तरुण लोग क्रमशः मानवोचित गुणों से विभूषित, सेवा के लिए तत्पर एवं उदार जीवनदृष्टि सम्पन्न एक प्रबुद्ध नागरिक (Enlightened Citizens) के रूप में परिणत होते चले जाते हैं।
तरुणों को यह बात ठीक से समझ लेना होगा कि, राष्ट्र की सेवा सही ढंग कर पाने समर्थ होने के लिए पहले स्वयं को उसके 'योग्य' बनाना आवश्यक है। इसलिए समाज की समस्याओं का समाधान करने तथा समाज में बुराइयों को उत्पन्न होने से रोकने की चेष्टा करते हुए, स्वयं अपने चरित्र को सुन्दर रूप से गढ़ लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है। अतएव, तरुणों से इतर समाज के अन्य वयस्क लोगों के लिए स्वाभाविक रूप से महत्वपूर्ण कार्य हो जाता है, युवाओं को इस आत्म-विकास के प्रयास में हर प्रकार से सहायता और सहयोग करना। और यही वह चयनित कर्मक्षेत्र है, जिसे महामण्डल ने अपने लिए उत्तम समझा है। भारत को महान बनाने के लिए जो सबसे अनिवार्य कार्य है , वह है तरुणों के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था लागू करना। युवाओं के लिए प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के आलावा, " अलग से वार्षिक छः दिवसीय या तीन दिवसीय 'Be and Make ' (गुरु-गृहवास) प्रशिक्षण पद्धति" ऐसी लागू होनी चाहिए जिससे तरुण लोग शरीर, मन और ह्रदय हर दृष्टि से विकसित हो उठें। प्रसिद्द अंग्रेजी कवि ब्राउनिंग की कविता के अनुसार - "Progress, man's distinctive mark alone, Not God's, and not the beasts': God is, they are, Man partly is and wholly hopes to be"- " पशुत्व से पूर्णत्व (ईश्वरत्व) में उन्नत होना केवल 'मनुष्य' की विशिष्ट पहचान है, पशु पूर्ण है (100% स्वार्थी है) ईश्वर पूर्ण (100 % निःस्वार्थी) हैं, मनुष्य आंशिक रूप से (५० %निःस्वार्थी) है, लेकिन पूर्ण रूप से (100%) निःस्वार्थी होने (ईश्वरत्व में उन्नत होने) की आशा करता है।" स्वामी जी कहते थे - " धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और 'मनुष्य' - परमात्मा तक उठ सकता है। " (सू.सु -२/११/खंड १० /२१३) ["Religion is the idea that raises the brute to man, and man to God." 5/409] प्रत्येक तरुण में पूर्णत्व (Perfection-100 % निःस्वार्थपरता) का विकास ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।

उनके तीनों प्रमुख अवयवों का सुसमन्वित विकास कराकर उन्हें चरित्रवान मनुष्य में परिणत करना ही शिक्षा का उद्देश्य है और आज इसी शिक्षा की आवश्यकता है। किन्तु, हमारे विद्यालयों में जो शिक्षा अभी प्रचलित है, उसमें चरित्र-गठन के विषय में कोई चर्चा भी नहीं होती है। सम्पूर्ण शिक्षा का मूल तत्व है मनुष्य-निर्माण, जिसे सीखना प्रत्येक नागरिक के लिए अनिवार्य है, हमारे स्कूलों के वर्तमान पाठ्यक्रम से गायब है। प्रचलित संस्थागत शिक्षा प्रणाली (The institutional educational system) सम्पूर्ण शिक्षा का वह आवश्यक तत्व प्रदान नहीं करती है जिसकी प्रत्येक नागरिक को आवश्यकता होती है। इस दृष्टि से देखने पर कहा जा सकता है कि महामण्डल के सारे कार्यक्रम प्रचलित शिक्षा प्रणाली के परिपूरक के रूप में हैं। और चूँकि, महामण्डल के समस्त कार्यक्रमों में समाजसेवा का भाव अनिवार्य रूपसे अन्तर्निहित रहता है इसलिए जिन राज्यों के जिन जिन क्षेत्रों में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज उनकी सेवाओं से अवश्य लाभान्वित होता है। फिर जो लोग महामण्डल में योगदान करते हैं उन निष्ठावान कर्मियों को महामण्डल जो सेवायें (आध्यात्मिकता) प्रदान करता है, वही तो सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है। क्योंकि यही एकमात्र ऐसा कार्य है जो समाज की दिशा में वास्तविक परिवर्तन लाने में समर्थ है।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि महामण्डल मात्र एक संस्था ही नहीं वरन धीमी गति से चलने वाला एक विशेष प्रकार का (आध्यात्मिक) आन्दोलन भी है। यदि देश के युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन से जुड़ जाये तो इसमें सन्देह नहीं कि समाज अपनी पतनोन्मुख अवस्था से ऊपर उठकर उत्थान एवं सदाचार की दिशा में मुड़ जायेगा।
विगत 58 (अंग्रेजी बुकलेट18) वर्षों में इसके कार्य की प्रगति तथा सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर यह आशा क्रमशः बढ़ती जाती है तथा इस आन्दोलन से जुड़े पुराने निष्ठवान कर्मियों की आशा तो अब दृढ़ विश्वास में परिणत हो चुकी है। इसी प्रकार से चरित्रवान मनुष्यों की संख्या में क्रमशः वृद्धि करते हुए उन्हें समाज के हर क्षेत्र में प्रविष्ट करा देना है। किन्तु, यह कार्य दूसरों में छिद्रान्वेषण या जासूसी करने के लिए नहीं , और न ही राजनीति के माध्यम से सत्ता का सुख प्राप्त करने के लिए ही है। इस आन्दोलन से (इतने लम्बे समय तक यानि आजीवन) जुड़े रहने का एकमात्र कारण यह है कि इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी उपाय से समाज की बड़ी समस्या -भ्र्ष्टाचार का निदान संभव नहीं है। धन्यवाद- रहित इस कार्य को अनवरत सफलतापूर्वक संचालित करते रहने में सक्षम होकर ही महामण्डल संतुष्ट है।
स्वामी विवेकानन्द के उपदेश - " अतएव पहले मनुष्य निर्माण करो। और बिना श्रद्धा के कोई व्यक्ति भला मनुष्य कैसे बन सकता है ? " (8/270) का तात्पर्य ऐसे ही पूर्णत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर (चरित्रवान या श्रद्धावान) मनुष्यों का निर्माण करने से है। उनके महान भारत बनाने के इस अचूक परामर्श 'Be and Make' के महत्व को हमलोग अभी तक ठीक से समझ नहीं पाए हैं, इसलिए उनके परामर्श पर हम भारतियों ने ठीक से ध्यान भी नहीं दिया है। किन्तु, उनकी इसी वाणी में आमूल क्रान्तिकारी परिवर्तन -सम्पूर्ण क्रांति का बीज निहित है। सत्ता और धन की लालसा लीन छुटभइयों के स्वार्थपूर्ण सपने कहीं खो न जायँ, इसी डर से नवीन भारत के इस जननायक के गले में 'The Hindu Monk' (हिन्दू संन्यासी) का तगमा लगाकर भारत की आम जनता से दूर हटाने का प्रयास करना छोड़कर आइये , हम चरित्र-गठन के कार्य में कूद पड़ें एवं मनुष्य- निर्माण के इस आंदोलन को एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में फैलाते हुए सम्पूर्ण राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुँचा दें। इसलिए महामण्डल का अभियान मंत्र है - ' चरैवेति , चरैवेति !'
अखिल भारत विवेकानंद युवा महामण्डल का संक्षिप्त परिचय -
उद्देश्य -भारत का कल्याण !
उपाय -चरित्र निर्माण !
आदर्श -स्वामी विवेकानंद !
आदर्श वाक्य - 'Be and Make !'
अभियान मंत्र - ' चरैवेति , चरैवेति !'
=================================
'दी इको', लंदन, 1896 : क्या हम पूछ सकते हैं कि जिस धर्म का आप इंग्लैण्ड में प्रचार करने आये हैं , उसकी उद्भावना आपने ही की है ?
स्वामीजी- " निश्चय ही नहीं। मैं भारत के एक महान ज्ञानी रामकृष्ण परमहंस का शिष्य हूँ। वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिन्हें हम बहुत विद्वान् कह सकें , जैसा कि हमारे बहुत से ज्ञानी हैं , पर वे बहुत पवित्र थे, और वेदांत दर्शन की चेतना में गहरे डूबे हुए थे। केशवचन्द्र सेन और दूसरे लोगों के जीवन पर उनका प्रभाव बहुत गंभीर पड़ा था। अपने शरीर को संयमित करके और अपने मन को जीतकर उन्होंने आध्यात्मिक संसार में आश्चर्यजनक गहरी पैठ प्राप्त की थी। उनका चेहरा उनकी शिशुवत कोमलता, गंभीर नम्रता और कथन की उल्लेखनीय मधुरता के कारण असाधरण था। उसे देखकर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। "
'दी इको', लंदन, 1896 : तो क्या आपके उपदेश वेदों से लिए गए हैं ?
स्वामीजी - " हाँ। वेदांत का अर्थ है वेदों का अंत, तीसरा भाग अर्थात उपनिषद, जिनमें वे विचार गहन रूप से उपस्थित हैं, जो आरम्भिक भाग में अंकुर रूप में वर्तमान थे। " (४/२४३ -२४४)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा| यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा|" (४:२८४)
" जिसके मन में साहस तथा ह्रदय में प्यार है,वही मेरा साथी बने- मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है।...हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे, और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठ कर म्याऊँ-म्याऊँ करते रहेंगे ! "(४:३०६)
{There is much difference in manifested beings. As a manifested being you will never be Christ. Out of clay, manufacture a clay elephant, out of the same clay, manufacture a clay mouse. Soak them in water, they become one. As clay, they are eternally one; as fashioned things, they are eternally different. The Absolute is the material of both God and man. As Absolute, Omnipresent Being, we are all one; and as personal beings, God is the eternal master, and we are the eternal servants.
You have three things in you: (1) the body, (2) the mind, (3) the spirit. The spirit is intangible (अमूर्त या इन्द्रियातीत) , the mind (Head) comes to birth and death, and so does the body (Hand). You are that spirit , but often you think you are the body.
When a man says, "I am here", he thinks of the body. Then comes another moment when you are on the highest plane; you do not say, "I am here". But if a man abuses you or curses you and you do not resent it, you are the spirit.
"When I think I am the mind, I am one spark of that eternal fire which Thou art; and when I feel that I am the spirit, Thou and I are one"-- so says a devotee to the Lord. Is the mind in advance of the spirit? (Volume 8/179 Notes Of Class Talks And Lectures/ 'लेकिन वही बुद्ध ईसा हुए थे , यह मेरा अपना विश्वास है !' दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्। देहबुद्धया तु दासोऽहं जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥ ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए। देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, बताइये आपके लिए क्या कर सकता हूँ ? जीवबुद्धि से आपका अंश ही हूँ और आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ ])
=======================