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रविवार, 7 फ़रवरी 2021

SANATANA DHARMA - (1) - " हिन्दू धर्म और नैतिकता " [ HINDU RELIGION AND ETHICS .सेंट्रल हिन्दू कॉलेज" (B.H.U.) ' के " संरक्षक समिति द्वारा प्रकाशित ] .

' सनातन धर्म ' 

हिन्दू धर्म और नैतिकता 

( के विषय पर एक प्राथमिक पाठ्य -पुस्तक)

 "सेंट्रल हिन्दू कॉलेज"  

(बनारस के संरक्षक समिति द्वारा प्रकाशित  )

 ' SANATANA DHARMA '

 AN ELEMENTARY TEXT-BOOK
OF 

HINDU RELIGION AND ETHICS .

(PUBLISHED BY THE BOARD OF TRUSTEES)

[ CENTRAL HINDU COLLEGE, BANARAS . ] 

1916

 भूमिका : यह पुस्तक 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की गई थी, जो अब उपलब्ध नहीं है। इसकी सभी प्रतियाँ नष्ट हो गईं थीं । केवल एक प्रति कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध थी, जिसे Microsoft द्वारा डिजिटाइज़ किया गया है। इस पुस्तक में बिना किसी खास स्कूल (मतवाद ) की संबद्धता के प्राचीन हिन्दू धर्म का सुंदर परिचय दिया गया है। यह पुस्तक  सत्य -जिज्ञासु युवाओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। फुर्सत के समय में या अपनी सुविधानुसार , आप इस पुस्तक के माध्यम से सनातन वैदिक धर्म का प्रारंभिक परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इस पुस्तक में 332 पृष्ठ हैं, जिसे अपनी मातृभाषा में (अपने राज्य की भाषा में ) अनुवाद कर , अपने परिचित युवा पीढ़ी के जिज्ञासु तरूणों के साथ साझा करें। यह "सनातन धर्म" पर एक दुर्लभ पुस्तक है। 

[यद्यपि इसके अनुवाद और पुनर्मुद्रण का अधिकार सुरक्षित है। तथापि गैर-व्यावसायिक, व्यक्तिगत, शोध एवं मानव-विकास (Research and Human development) या शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए या अन्य किसी उचित प्रशिक्षण में इसका उपयोग किया जा सकता है। लेकिन किसी वाणिज्यिक सेवा में इसे प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है। -- पाण्डेय गुलाब शंकर द्वारा दी तारा प्रिंटिंग वर्क्स (तारा मुद्रणालय), बनारस में प्रकाशित। ]

[Introduction : This book was published in 1916 by Banaras Hindu University , not available now. All the copies got destroyed. One copy was available in the library of California University , which has been digitised by Microsoft. It is beautiful introduction to Hinduism, without any school affiliations. It is especially suited to youth. You may go though at leisure. It has 332 pages and share it further with your known younger generation kids. This is a rare book on " Sanatana Dharma".

[THE RIGHT OF TRANSLATION AND REPRODUCTION IS  RESERVED . May be used for non-commercial , personal, research, or educational purposes or any fair use. May not be indexed in a commercial service .PRINTED BY PANDEYA GULAB SHANKAR AT 'THE TARA PRINTING WORKS', BENARAS.] 

इस पुस्तिका के प्रथम पृष्ठ पर मुण्डकोपनिषद एवं कठोपनिषद के जिन दो सर्वज्ञात मंत्रों को उद्धरित किया गया है, वे हैं - 

1. " सत्यमेव जयते नानृतम " 

2. " उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत"

      स्वामी विवेकानन्द को उपनिषदों में कथित ये दोनों मंत्र (महावाक्य ) अत्यन्त  प्रिय थे , उन्होंने कहा था - " उपनिषदों का मूलमंत्र है -स्वाधीनता अर्थात मुक्ति ! दैहिक स्वाधीनता , मानसिक स्वाधीनता , आध्यात्मिक स्वाधीनता ! संसार भर में एकमात्र उपनिषद ही ऐसे शास्त्र हैं , जिसमें उद्धार (salvation ) का वर्णन नहीं , किन्तु मुक्ति (भ्रमों से मुक्ति) का वर्णन है।  प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाओ , दुर्बलता से मुक्त हो जाओ। और उपनिषद तुमको यह भी बतलाते हैं कि यह मुक्ति तुममें पहले से ही विद्यमान है।  तुम यदि द्वैतवादी भी हो, किसी पैगंबर या अवतार को अपना उद्धारक समझते हो ---तो भी कोई चिंता नहीं , तुमको केवल इतना  स्वीकार करना ही होगा कि आत्मा स्वभाव से ही पूर्णस्वरूप है ! किन्तु कई जन्मों से किये, भले-बुरे कर्मों के कारण ; आत्मा अपनी स्वाभाविक पूर्णता से भ्रष्ट होकर मानो क्रम-संकोच (atavism) को प्राप्त होती है,- (एक ऐसी प्रवृत्ति जो क्रमशः अपने पूर्व या मूल स्वरुप तक लौटे बिना रूकती नहीं है, जैसे कोई स्प्रिंग।) आत्मा  की शक्ति अव्यक्त भाव धारण करती है सत्कर्म और अच्छे विचारों द्वारा वह पुनः विकास को प्राप्त होती है और बाधा (मिथ्या अहं, तीन गुण दो शक्ति =माया ) हटते ही उसकी स्वाभाविक पूर्णता उसी क्षण प्रकट हो जाती है।" ५/१३४ 

{ " By good deeds and good thoughts , it expands again and reveals its natural perfection."  " Be and Make Leadership Training Tradition " परम्परा में प्रशिक्षित  महामण्डल के प्रतिष्ठाता ( C-IN-C या जीवनमुक्त शिक्षक) नवनीदा  जैसे किसी श्रेष्ठ ज्ञानी के  प्रशिक्षण द्वारा वह पुनः विकास को प्राप्त होती है।  स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा या " इंटर्नशिप (गुरुगृहवास) प्रशिक्षण पद्धति " में  सत्कर्मों (by good deeds - निःस्वार्थ सेवा ) और अच्छे विचारों (good thoughts-त्याग ) में तीव्रता लाने वाले  3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण द्वारा वह पुनः विकास को प्राप्त होती है।  }    

" वेदान्त (गीता , उपनिषद और ब्रह्मसूत्र )  यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है, तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये , जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता तो उसकी बात कान में भी न पड़ने दो। कारण ,  यदि धर्म मनुष्य को जहाँ भी और जिस स्थिति में वह है , सहायता नहीं दे सकता , तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं - तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त बन कर रह जायेगा। धर्म  यदि मानवता का कल्याण करना चाहता है , तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक दशा में --चाहे गुलामी हो या आजादी , घोर पतन हो या अत्यन्त पवित्रता , उसे सर्वत्र मानव की सहायता करने सकने में समानरूप से समर्थ होना चाहिए। केवल तभी वेदान्त (उपनिषद) के सिद्धान्त अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो - कृतार्थ हो सकेंगे । ८/१२ 

सत्यमेव जयते नानृतम  (= सत्यं एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, लेकिन उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। 'सत्यमेव जयते' मूलतः मुण्डक-उपनिषद का मंत्र है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है..

सत्यमेव जयते नानृतम, सत्येन पंथा विततो देवयानः।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्।।---यजुर्वेद


अर्थात अंततः सत्य की ही विजय होती है न कि असत्य की। ईश्वर की ओर जाने का मार्ग सत्य में से है। मिथ्या का कुछ पुट रहने पर सत्य का प्रचार सहज ही में ही हो सकता है --ऐसी जिनकी धारणा है वे भ्रान्त हैं।  जो व्यक्ति निजी क्षुद्र स्वार्थ को संसार के कल्याणार्थ त्याग देता है वह सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकात्मता को प्राप्त होता है ! 'सत्य' के द्वारा ही देवों का यात्रा-पथ विस्तीर्ण हुआ।  यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) ऋषिगण मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। 

चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य "प्रावदा वितेजी" ("सत्य जीतता है") का भी समान अर्थ है। 

स्वामीजी इस मंत्र का उल्लेख करते हुए 2 अगस्त 1895 को ई.टी स्टर्डी को लिखित पत्र में कहते हैं - " इस सनातन सत्य " सत्यमेव जयते नानृतम, सत्येन पंथा विततो देवयानः।" --  को मैंने कई बार अपने वैचित्र्यपूर्ण जीवन में आजमा कर देखा है ! जो 'सत -स्वरुप ' (ठाकुर देव) आपके हृदय में विराजित हैं --वे ही सदैव आपके अभ्रान्त मार्गदर्शक नेता /शिक्षक बनें तथा मुक्ति के आलोक में आप स्वयं शीघ्रातिशीघ्र उद्भासित होकर दूसरों को भी मुक्त होने में सहायता प्रदान करें ! " 

" उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।" (काठकोपनिषत् १-३-१४) --( " Arise, awake, find out the great ones and learn of them; for sharp as a razor's edge, hard to traverse, difficult of going is that path, say the sages. “जिसका अर्थ कुछ यूं हैः-  उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् ऋषिगण ऐसा कहते हैं कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना । कठोपनिषद का यह मंत्र कहता है कि ज्ञान प्राप्त करने और उसे साधने का मार्ग अस्त्रों को साधने जितना ही कठिन है।  यहाँ ज्ञान को अस्त्र के समान बताया गया है, अर्थात ज्ञान (धर्म/शिक्षा )  मारक और प्रतिरक्षात्मक  दोनों स्थितियों में कारगर हथियार है। ज्ञान के प्रयोग की विधा (विवेक-प्रयोग की विधा ) भी सबको सुलभ नहीं होती।

 कठोपनिषद का दूसरा नाम 'नचिकेतोपाख्यान ' भी है क्योंकि इसमें उस बालक नचिकेता की कहानी है जो आत्मज्ञान की खोज करता है। वहाँ मृत्युदेव यमराज कहते हैं - अस्मिन् मन्त्रे ब्रह्मविद्याचार्यः ब्रह्मनिष्ठश्च मृत्युदेवः सर्वेभ्यः जिज्ञासुमुमुक्षुभ्यः ज्ञानप्राप्त्यै चतुरः सन्देशान् उपदिशति । ते च : - " हे विवेकिनो मुमुक्षवः, यूयम् उत्तिष्ठत, जाग्रत, वरान् गुरून् प्राप्नुत, तेभ्यः आत्मानं विजानीत ।  उत्तिष्ठत –आत्मज्ञानं प्राप्तुं संकल्पं कुरुत । अनादिभूतायाम् अविद्यानिद्रायामेव मा मग्ना भवत ।नित्यशुद्धम् आत्मानम् अवगन्तुं प्रयत्नं कुरुत ॥ जाग्रत – सर्वानर्थबीजभूतायाः अविद्यानिद्रायाः ऊर्ध्वम् आगच्छत । अज्ञानान्धकारासुरं संहरत । ज्ञानं सम्पादयत ॥ वरान् प्राप्य – ब्रह्मनिष्ठान् सम्प्रदायविदः सद्गुरून् उपगम्य, सद्गुरुसेवां भक्त्या कुर्वन्तः तेभ्यः आत्मोपदेशं शृणुत ॥ निबोधत – सद्गुरुभ्यः आत्मस्वरूपम् विज्ञाय भ्रम -मुक्ता भव !! " 

 " इंटर्नशिप (गुरुगृहवास) प्रशिक्षण पद्धति " में अर्थात स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  प्रशिक्षित - श्रेष्ठ ज्ञानियों  (महामण्डल के प्रतिष्ठाता- नवनीदा जैसे ( C-IN-C या जीवनमुक्त शिक्षक) के पास जाकर ही विवेकज-ज्ञान प्राप्त करो । 

   स्वामी विवेकानन्द  ने भी नचिकेता की भाँति ज्ञान की खोज करने के पश्चात् ‘उठो, जागो…’ का उद्घोष कर भारत के सुषुप्त जनमानस (HYpnotized-आहार,निद्रा , भय और मैथुन में फंसे जनमानस) को जगाया था।    " हे युवाओं तुम अपनी शक्ति को पहचानो , तथा आदिग्रंथ, ऋग्वेद (काठकोपनिषत् ) में कहे गए " उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत "  वाले सिद्धांत के अनुसार "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त होने तक रुको मत ! " Arise, awake and stop not till the goal is reached.” परन्तु हर व्यक्ति ने इस श्लोक के अर्थ को अपनी-अपनी दृष्टि से ही समझा है । कोई तो अपने व्यापार में सफलता पाना चाहता है , तो कोई I.A.S की नौकरी, कोई तो खेती में (M.S.P) पाना चाहता है , तो कोई राजनीति -Politics  आदि को अपना लक्ष्य समझ रहा है । परन्तु सम्पूर्ण मानव जाति का एक ही लक्ष्य है और वो - है आत्म ज्ञान !

विवेकवान को ही शास्त्र जाग्रत मनुष्य या 'जागा हुआ ' कहते हैं। जागृति को वा? अर्थात्, जागा हुआ कौन है? इसका उत्तर देते हुए आद्यशंकर कहते हैं, 'सदसद् विवेकी, ' यानी, जो सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेक करने के लिए प्रशिक्षित हुआ है, वही जागा हुआ है। स्वयं में परम सत्ता (आत्मा )  को अनुभूत करने की दिव्य सामर्थ्य जागरण में सहायक है, सत्संग अर्थात विवेकानन्द युवा पाठचक्र । अतः सत्संग ही सर्वथा श्रेयस्कर-हितकर है ! शास्त्रों में सत्संग की महिमा का बारंबार बखान किया गया है। व्यवहार की दृष्टि से संग जहां संस्कारों का वाहक है, वही चित्त में प्रसुप्त पड़े संस्कारों को क्रियाशील भी बनाता है। जब हम सत्संग में होते हैं तब हम चैतन्य होते हैं, हमारा विवेक और अंतरूकरण के सभी द्वार खुलने लगते हैं और हम जीवन की भौतिक लालसाओं से सहज मुक्त होकर ईश्वरीय आलोक में निवास करते हैं। सत्संग हमें सत्य का साक्षात्कार करवाता है। सत्संग ऐसे लोगों के साथ उठने, बैठने या उनकी कथा सुनने से है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है। सत्य का साक्षात्कार करने हेतु ही हमें आंतरिक सत्संग करना है। सत्संग से अभिप्राय मन को विषयों से खींचकर अपने सामने लाना, और उसको आदेश देना  है। अपने भीतर ईश्वर के रूप में स्थित सत्य को जानना है। ईश्वर के प्रकाश के निकट होना है, मन की चंचलता को रोक देना है तथा मन की मैल दूर करते हुए स्वयं के दर्शन करने हैं। यही सच्चे अर्थों में सत्संग है।  

“जिन खोजा तिन पइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ! अर्थात् असल वस्तु ब्रह्म दर्शन पाना है तो गहरी डुबकी तो लगानी ही होगी। गुरु ने आपको हृदय -समुद्र के किनारे तो लाकर खड़ा कर दिया है, जो अनमोल मोतियों से भरा है। मात्र ऊपर-ऊपर ही तैरते रहने से मोती नहीं मिलेंगे, उसके लिए तो आपको मनःसंयोग के अभ्यास और वैराग्य द्वारा चित्त की गहराइयों में गहरी डुबकी लगानी ही पड़ेगी। हां, यह बात अलग है कि कभी समुद्र की दया हो जाए और मोती किनारे पर आ जाएय अर्थात्, सद्गुरु की अहैतुकी कृपा हो जाए तो मोती (ठाकुर माँ स्वामीजी ) आपके हाथ में आ जाएं! 


इसीलिए कहा गया कि " इंटर्नशिप (गुरुगृहवास) प्रशिक्षण पद्धति " में अर्थात गुरु -शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  प्रशिक्षित - श्रेष्ठ ज्ञानियों (महामण्डल के प्रतिष्ठाता- नवनीदा जैसे ( C-IN-C या जीवनमुक्त शिक्षक) के पास जाकर ही विवेकज-ज्ञान प्राप्त करो ।

स्वामीजी कहते हैं - " परन्तु पुरुषकार चाहिये। पुरुषकार [चौथा पुरुषार्थ ] क्या है , जानता है ? ... आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा , [ऋषि या ब्रह्मविद मनुष्य बनकर ही रहूँगा ] इसमें जो बाधा -विपत्ति सामने आयेगी , उस पर अवश्य ही विजय प्राप्त करूँगा - इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम ही पुरुषकार है। माँ , बाप , भाई , मित्र , स्त्री , पुत्र मरते हैं तो मरें , यह देह रहे तो रहे , न रहे तो न सही , मैं किसी भी तरह से पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मदर्शन नहीं होता , तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरूषकार!...  नहीं तो दूसरे पुरुषकार (आहार ,निद्रा, भय , मैथुन) तो पशु -पक्षी भी कर रहे हैं। 

मनुष्य ने इस सर्वश्रेष्ठ मानव-देह को (विवेक-प्रयोग क्षमता सम्पन्न देह को ] प्राप्त किया है , केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए। .... संसार में अधिकांश लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, क्या तू भी उसी स्रोत (आहार-निद्रा -भय -मैथुन ) में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार (मनुष्यत्व-उन्मेषकारी प्रशिक्षण-शिविर ) का मूल्य क्या है? ....सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है ! महावीर हनुमान की तरह अग्रसर हो जा। किसी की परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्त किया है तो भीतर की आत्मा को जगा, और बोल - ' मैंने मृत्यु के भय को जीत लिया है, मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है।' बोल - मैं वही आत्मा हूँ जिसमें मेरा क्षुद्र 'अहं भाव ' डूब गया है ! [अर्थात मेरा क्षुद्र व्यष्टि अहं, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरित हो चुका है !

इसी तरह पहले तू स्वयं सिद्ध बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महावीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत !" --'तू वही है', 'उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त करने तक रुको मत  ' - यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में एक सच्चा नेता/भ्रममुक्त शिक्षक (বাঙ্গাল /C-IN-C ) है !"   6/179]   

{ अर्थात 'Be and Make ' इंटर्नशिप प्रशिक्षण परंपरा' में ब्रह्म को जानकर पहले तू स्वयं एक प्रशिक्षित ब्रह्मविद " मनुष्य " बन जा, और उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को भी यह महावीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत !" 'Be and Make ' Leaders or de-Hypnotized Teachers under Internship Training Tradition. में या  प्रशिक्षित  'मनुष्य ' (प्रशिक्षित भ्रममुक्त/जीवनमुक्त शिक्षक) पहले तू स्वयं बन और साथ -साथ दूसरों को भी 'मनुष्य' (जीवन्मुक्त शिक्षक/प्रशिक्षित नेता) बनने में सहायता कर । }

 " हे नर -नारियों ! उठो , आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ , सत्य में विश्वास करने का साहस करो , सत्य के अभ्यास का साहस करो। संसार को कोई 100 साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है।अपने में वह साहस लाओ , जो सत्य को जान सके , जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके , जो मृत्यु से न डरे , प्रत्युत उसका स्वागत करे , जो मनुष्य को यह करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है , जो उसका विनाश कर सके।तब तुम मुक्त हो जाओगे।तब तुम अपनी वास्तविक आत्मा को जान लोगे।" इस आत्मा (ब्रह्म) के सम्बन्ध में पहले श्रवण करना चाहिए , फिर मनन और तत्पश्चात निदिध्यासन। 

आजकल के समाज में एक प्रवृत्ति देखी जा रही है और वह है - कार्य पर अधिक जोर देना और विचार की निंदा करना।कार्य अवश्य अच्छा है , पर वह भी तो विचार या चिंतन से उत्पन्न होता है। शरीर के माध्यम से शक्ति की जो छोटी छोटी अभिव्यक्तियाँ होती हैं , उन्हींको कार्य कहते हैं। बिना विचार या चिन्तन के कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क को ऊँचे ऊँचे विचारों , ऊँचे ऊँचे आदर्शों से भर लो , और उनको दिन-रात मन के सम्मुख रखो ; ऐसा होने पर इन्हीं विचारों से बड़े बड़े कार्य होंगे।अपवित्रता की कोई बात मन में न लाओ , प्रत्युत मन से कहते रहो कि मैं अजर -अमर शाश्वत आत्मा हूँ , पवित्रता स्वरूप हूँ ! हम क्षुद्र हैं, हमने जन्म लिया है , हम मरेंगे , इन्हीं विचारों से हमने अपने आप को एकदम सम्मोहित कर रखा है , और इसीलिए हम सर्वदा भय से काँपते रहते हैं।

" हमारा यह आपातप्रतीयमान व्यक्तित्व वास्तव में भ्रम मात्र है; इस भ्रमात्मक व्यक्तित्व में आसक्त रहना अत्यन्त नीच कार्य है। ... एक सिंहनी जिसका प्रसव-काल निकट था, एक बार अपने शिकार खोज में बाहर निकली। उसने दूर एक भेडों के झुण्ड को चरते देख, उनपर आक्रमण करने के लिये ज्यों ही छलाँग मारी, त्यों ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह-शावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ों की भाँति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भाँति, ' में-में ' करने लगा। और यद्दपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली, पूर्ण विकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था।  

इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेडों के बीच एक सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भाँति डरकर भगा जा रहा है। तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिये बढ़ा की तू सिंह है, भेड़ नहीं। और ज्यों ही वह आगे बढ़ा, त्यों ही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ वह ' भेड़-सिंह ' भी। जो हो, लेकिन उस बड़े सिंह ने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरुप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। अब  वह यह पता लगाने लगा कि वह भेंड़ -सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है ? 

 एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, " अरे, तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वाभाव कैसे भूल गया ? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है। " भेड़-सिंह बोल उठा, " क्या कह रहे हो ? मैं तो भेड़ हूँ, सिंह कैसे हो सकता हूँ ? उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भाँति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक शान्त-सरोवर (चित्त-नदी) के किनारे ले गया और बोला, " यह देख, अपना प्रतिबिम्ब, और यह देख, मेरा प्रतिबिम्ब। " और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा।  तब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा माँस भी लाकर खिला दिया, घास-पात की जगह मांस के स्वाद को चखते ही उसे बोध हो गया। तब क्षण भर में ही वह जान गया कि ' सचमुच, मैं तो सिंह ही हूँ ! ' तब वह सिंह गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया ! 

इसी प्रकार तुम सब सिंह हो- तुम आत्मा हो, अनन्त और पूर्ण हो। विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है।  ' हे सखे, तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसे पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा। 

हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं।  किसी मार्ग में एक ठूँठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेदार है। अपने प्रेमिका की बाट जोहने वाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा। इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्दपि उसे भिन्न भिन्न  में देखा, तथापि वह एक ठूँठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। "२/१५- १९  ] 

" भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।".... हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। 

              एक भाव को पकडो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रहते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य तत्त्व का उन्मेष होता है।...एक विचार लो उसी विचार को अपना जीवन बनाओ उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ। सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढो। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना (Be and Make?)  चाहें, तो हमे मन की गहराई तक जाना पड़ेगा। पुरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फ़िर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ! " (१:८९-९०)

 " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४०)

 कैवल्यपाद -25 में कहा गया है - 'तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।' (4.25) शब्दार्थ :- तदा ( तब अर्थात योगी को विवेक ज्ञान की प्राप्ति होने पर ) चित्तम् ( उसका चित्त ) विवेकनिम्नम् ( विवेकज -ज्ञान के मार्ग का अनुसरण करता हुआ ) कैवल्य ( कैवल्य अर्थात मोक्ष या समाधि प्राप्त करने के लिए ) प्राग्भारम् - उसकी ओर अग्रसर हो जाता है। 

विवेक ज्ञान होने से पहले योगी अज्ञानता/अविद्या -अस्मिता के वशीभूत होकर कैवल्य से विपरीत दिशा में भटकता रहता है । लेकिन जैसे ही उसे विवेक से जनित ज्ञान की प्राप्ति होती है । वैसे ही वह कैवल्य प्राप्ति के मार्ग की ओर निरन्तर अग्रसर होता जाता है । जब तक हमें अपने जीवन में सही व गलत (श्रेय-प्रेय ) का ज्ञान नहीं होता । तब तक हम अपने स्वरुप के विषय में गलत पहचान या गलत ज्ञान या अनजाने में न जाने कितने ही गलत कार्य करते रहते हैं । उस समय हम सही जानकारी न होने के कारण अपने जीवन के लक्ष्य से विपरीत दिशा में चलते रहते हैं । लेकिन जैसे ही हमें यथार्थ ( वास्तविक ) ज्ञान की प्राप्ति होती है । वैसे ही हम अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होना प्रारम्भ कर देते हैं । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जल हमेशा ऊँचाई से नीचे की ओर बहता रहता है । वही उसकी वास्तविक गति होती है । लेकिन चित्त नदी तो उभयतो वाहिनी है - अतः विवेक का फाटक लगा देने या विवेक ज्ञान प्राप्त होने पर योगी बिना रुके निरन्तर कैवल्य मार्ग की ओर (उर्ध्व दिशा में ) अग्रसर रहता है । विवेक ज्ञान के प्राप्त होने पर ही चित्त में कैवल्य मार्ग पर आगे बढ़ने की समर्थता ( ताकत ) आती है । जिससे मनुष्य अपने जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर पाता है । मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं :- 1. धर्म, 2. अर्थ, 3. काम व 4. मोक्ष ।

 इस प्रकार विवेक-दर्शन का योगाभ्यास करने से विवेक-शक्तिरूप दृष्टि की शुद्धता प्राप्त होती है। हमारी आँखों के सामने से आवरण हट जाता है , और तब हम वस्तु के यथार्थ स्वरुप की उपलब्धि करते हैं।हम तब यह जान लेते हैं कि प्रकृति [नाम-रूप ]एक यौगिक पदार्थ है और उसके सारे दृश्य केवल साक्षी पुरुष के लिए हैं।तब हम जान लेते हैं कि प्रकृति ईश्वर नहीं है।इस प्रकृति की सारी संहति , सारे संयोग केवल हमारे हृदय-सिंहासन में विराजमान राजा पुरुष (ठाकुर) को यह सब दृश्य दिखाने के लिए हैं।जब दीर्घ काल तक अभ्यास के फलस्वरूप विवेक का उदय होता है , तब भय चला जाता है और कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।

" प्रत्येक देश में ऐसी सिंह-आत्मा के समान दस-बारह व्यक्ति तैयार होने दो, जिन्होंने अपने बंधन तोड़ डाले हैं , जिन्होंने 'अनन्त ' का स्पर्श कर लिया है , जिनका चित्त ब्रह्मानुसन्धान में लीन है , जो न धन की चिन्ता करते हैं , न जनबल की , न नाम की - और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। यही जीवन का रहस्य है। योग-प्रवर्तक पतंजलि कहते हैं , " जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है तभी उसको धर्ममेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। {4.28 में कहते हैं - प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेधर्ममेघः समाधिः ॥28 ॥}  शब्दार्थ :- प्रसंख्याने ( बुद्धि व आत्मा की भिन्नता का ज्ञान अर्थात विवेकख्याति के प्राप्त होने पर ) अपि ( भी ) अकुसीदस्य ( सिद्धियों या विभूतियों में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ) सर्वथा ( पूरी तरह से ) विवेकख्याते: ( विवेकख्याति के प्राप्त होने पर ) धर्ममेघ: ( धर्ममेघ नामक ) समाधि: ( समाधि की प्राप्ति) होती है। सुत्रार्थ : तत्वों के इस विवेकज-ज्ञान से उत्पन्न ऐश्वर्य में भी जिनका वैराग्य हो जाता है, उनका विवेकज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहने के कारण उन्हें धर्ममेघ समाधि प्राप्त हो जाती है।  व्याख्या : जब योगी इस विवेकज-ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं , तब उनके पास पूर्व अध्याय में बताई गयी सिद्धियाँ आती हैं , पर सच्चे सत्यार्थी /योगी इन सबका परित्याग कर देते हैं। उनके पास धर्ममेघ नामक एक विशेष प्रकार का आलोक आता है। इतिहास ने संसार के जिन सब महान धर्माचार्यों का वर्णन किया है , उन सभी को यह धर्ममेघ समाधि हुई थी। उन्होंने ज्ञान का मूल स्रोत अपने भीतर ही पाया था। सत्य उनके निकट अत्यंत स्पष्ट रूप से प्रकाशित हुआ था। पूर्वोक्त सिद्धियों की असारता को छोड़ देने के कारण शान्ति , समता और पूर्ण पवित्रता उनका स्वभाव ही बन जाता है।  १/२१६ ] 

" वह ब्रह्म को जानकर ब्रह्म बन जाता है और दूसरों को ब्रह्म बनने में सहायता करता है। मुझे इसी का प्रचार करना है। जगत में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं , परन्तु हाय ! कोई भी बिन्दुमात्र प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता। " पत्रावली -३४० ]

 पतंजलि योगसूत्र में अर्थात " मनःसंयोग की विद्या " में पारंगत " प्रबुद्ध (Enlightened) भारत " अथवा " Awakened India"  (जाग्रत भारत ) ही सम्पूर्ण मानवजाति को आत्मज्ञान का प्रतिपादन करने में सक्षम है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द सम्पूर्ण भारत के नागरिकों को ही  'प्रबुद्ध ' या 'जाग्रत' मनुष्य (नेता या जीवनमुक्त शिक्षक) बनाना चाहते थे। वे 30 नवम्बर 1894 को डॉ. नानजुन्दा राव को लिखित पत्र में कहते हैं - " भारत माता अपनी उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है , और मेरी आंतरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होंगे। तुम्हें मनुष्यजाति का श्रेष्ठ शिक्षक होना है। हमारे गुरुदेव कहते थे , कोई आत्महत्या करना चाहे तो वह नहरनी से भी काम चला सकता है , परन्तु दूसरों को मारना हो तो तोप -तलवार की आवश्यकता होती है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जायेगा। पहले सद्कर्म और साधना या सद्विचारों द्वारा अपने को पवित्र करो ! भारत चिरकाल से दुःख सह रहा है ; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचार पीड़ित है। परन्तु ईश्वर दयामय हैं - वे अपनी सन्तानों के परित्राण के लिए एक बार फिर अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव के रूप में अवतरित हुए हैं - और भारत को पुनः विश्वगुरु बनने का सुयोग प्राप्त हुआ है। श्रीरामकृष्ण के चरणों में बैठने पर ही भारत का पुनरुत्थान हो सकता है।  उनकी जीवनी और उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा , -- हिन्दू समाज के अंग-अंग में , रोम रोम में उन्हें भरना होगा। यह काम कौन करेगा ? श्रीरामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिए विचरण करने वाला है कोई ? वह धन्य है जिसे प्रभु ने चुन लिया। तुम्हारा संकल्प शुभ है , तुम्हारी आशायें उच्च हैं , घोर अंधकार में डूबे हुए हजारों मनुष्यों को प्रभु श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं के सम्मुख लाने के लिए एक पत्रिका को प्रकाशित करने का तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब लक्ष्यों में महान है। ईश्वर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करें ! " 

स्वामीजी की प्रेरणा से 14 सितम्बर 1895 में मद्रास से अंग्रेजी में ' ब्रह्मवादीन ' नामक एक मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई थी। उसके नाम तथा ' मोटो ' -- " एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति " को लक्ष्य करके आलासिंगा पेरुमल को लिखित पत्र में स्वामीजी कहते हैं - " ' ब्रह्मवादीन ' पत्रिका का प्रकाशन करके तुमने बहुत अच्छा कार्य किया है। नाम तथा मोटो (ध्येयवाक्य) दोनों ही ठीक हैं। निरर्थक समाज-सुधार में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं , पहले आध्यात्मिक सुधार हुए बिना समाज-सुधार नहीं हो सकता।  "  

14 जुलाई 1896 को लन्दन , इंग्लैण्ड से लिखित डॉ. नानजुन्दा राव को एक पत्र में कहते हैं - " प्रबुद्ध भारत " की प्रतियाँ मिलीं तथा उनका 'क्लास' में [लन्दन विवेकानन्द युवा पाठचक्र में ] वितरण भी कर दिया गया है।

https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/e/e5/Prabuddha_Bharatha_March_1897_Front_Cover.jpg

 ... पत्रिका का मुखपृष्ठ इसके नाम के अनुरूप नहीं है , यदि सम्भव हो तो आप उसे बदल दें। उसे भावव्यंजक तथा साथ ही सरल बनाएं -उसमें मनुष्य की मूर्ति बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। 'वटवृक्ष ' कत्तई प्रबुद्ध होने का चिन्ह नहीं है , और न पहाड़ व् ऋषि लोग ही , यूरोपीय दम्पति भी नहीं। ' कमल ' का फूल ही पुनरभ्युत्थान का प्रतीक है। 'ललित -कला ' में अभी हमलोग बहुत ही पिछड़े हुए हैं - खासकर 'चित्रकला ' में। वन में वसन्त का समागम हुआ है , वृक्षलताएँ नवपल्ल्वों से सुशोभित तथा मुकुलित हो उठी हैं --इस प्रकार का चित्रांकन तो कीजिये। और भी कितने भाव हैं -धीरे धीरे उनको 'चित्रकला ' में स्थान देकर प्रकाश में लाइए। " पत्रावली-२/७ ] 

 इंग्लैण्ड में जन्मी 'मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल' (1867–1911) को 'घनीभूत भारत'  स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)  का प्रथम दर्शन 1895 ई ० के नवम्बर महीने में,  इंग्लैंड में आयोजित 'क्लास ' अर्थात  'लंदन, विवेकानन्द युवा पाठ चक्र' में  हुआ था।  उस प्रथम विवेक-दर्शन के दिन -  स्वामी विवेकानन्द ड्राइंग रूम के पश्चिमी छोर वाले फर्श पर ध्यान मुद्रा (अर्ध--पद्मासन)  में बैठे हुए थे।  उनका गरिमा पूर्ण मुखमण्डल आत्मविश्वास और सन्तुलन ( dignity and  poise) की विनम्रता के साथ दीप्तिमान हो रहा था।  (नारद का माया दर्शन के बाद,   नारद के भक्त स्वरुप में पुनः लौटने के बाद  प्राप्त होने वाला आत्मविश्वास तथा संतुलन ! ) उनके चेहरे पर किसी बच्चे जैसी सरलता और प्रशांति एक सम्मोहक " आध्यात्मिक आभा" (spiritual aura) के रूप में विकीर्ण हो रही थी। 

भारत में किसी आश्रम में किसी ब्रह्मज्ञ  गुरु के मुख से  संस्कृत मंत्रों  की व्याख्या  सुनते समय जिस प्रकार बैठकर श्रवण करने की परम्परा  रही है , ठीक उसी प्रकार लंदन के उस ड्राइंगरूम में  लगभग पंद्रह -सोलह ईसाई  किन्तु हिन्दू-महावाक्यों से प्रभावित जिज्ञासु श्रोता , स्वामी विवेकानन्द के समक्ष   सुखासन की मुद्रा में बैठे हुए थे।  और उनके मुख से निकलने वाले प्रत्येक शब्द को सम्पूर्ण एकाग्रता के साथ, बहुत मन लगाकर सुन रहे थे। उस 'लन्दन विवेकानन्द युवा  पाठचक्र' में  मिस मार्गरेट नोबल भी उपस्थित थी !  एवं  स्वामी जी के द्वारा पातंजल योगसूत्र , गीता , उपनिषद और वेदांत के प्राचीन ज्ञान पर  दिए जा रहे अतीन्द्रिय उपदेशों (celestial words)  के प्रत्येक शब्द का सुधबुध खोकर आकण्ठ पान करने में लीन थीं !  

1895 के नवम्बर महीने में इंग्लैण्ड में , स्वामी विवेकानन्द द्वारा  दिए गए जिस भाषण को सुनकर मिस मार्गरेट नोबेल मंत्रमुग्ध हो गयीं थीं, उसका पहला वाक्य ही इस प्रकार था-" मित्रों, आपका चर्च सत्य है, हमारे मंदिर सत्य हैं; और इन दोनों से परे जो निर्गुण-निराकर शाश्वत ब्रह्म (अल्ला या गॉड ) हैं वे भी सत्य हैं।" (Friends, your Church is true, our Temples are true; and true is Brahman, formless and eternal, beyond the two.) वैश्विक बाजार में  , विश्व के सभी राष्ट्र आज  जिस प्रकार अपने-अपने देशों  में उत्पादित अनाजों  अथवा उपयोगी वस्तुओं (commodities ) का आदान-प्रदान (Exchange -बिनमय) कर रहे हैं , वह समय आ गया है जब निकट भविष्य में वे अपने -अपने देशों के प्रबुद्ध या जाग्रत  आध्यात्मिक आदर्शों का ( प्रबुद्ध नागरिकों का) आदान-प्रदान भी ठीक उसी प्रकार किसी आध्यात्मिक खजाने के रूप में (as a Spiritual treasures *1 )  करेंगे! 

  "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" अर्थात  "Be and Make परम्परा" में 1896 में स्थापित अद्वैत आश्रम , मायावती , अल्मोड़ा हिमालय से  मासिक पत्रिका  ' प्रबुद्ध भारत या Awakened India'  पिछले 125 वर्षों से प्रकाशित होती चली आ रही है। एक देश से दूसरे देश में प्रबुद्ध नागरिकों का आदान-प्रदान करने की अपनी योजना के विषय में स्वामी विवेकानन्द 28th नवम्बर,1896 को हेल सिस्टर्स [मिस मेरी तथा हेरियट हेल] को, 39 VICTORIA ST., LONDON S.W., से  एक पत्र में लिखते हैं - " आश्चर्य है कि छः माह के अन्दर ही , मेरे 'क्लास ' में [लन्दन विवेकानन्द युवा पाठचक्र में ] 120 व्यक्ति नियमित रूप से उपस्थित हो रहे हैं। इस समय कलकत्ता तथा हिमालय में एक एक केन्द्र स्थापित करने जा रहा हूँ। प्रायः 7000 फुट ऊँची एक समूची पहाड़ी पर हिमालय -केन्द्र स्थापित होगा। कैप्टन तथा श्रीमती सेव्हीयर वहाँ रहेंगे, एवं प्रबुद्ध यूरोपीय (Enlightened European) कार्यकर्ताओं (जीवनमुक्त शिक्षकों / नेताओं) का वह प्रशिक्षण केन्द्र होगा [और वहाँ से, अद्वैत आश्रम , मायावती , अल्मोड़ा , हिमालय से " प्रबुद्ध भारत " पत्रिका प्रकाशित होगी ? ] क्योंकि भारतीय जीवन यात्रा (गुरु-शिष्य परम्परा) को अपनाने के लिये बलपूर्वक बाध्य कर तथा अग्निमय भारतीय समतल भूमि में बसाकर उन्हें मैं मार डालना नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ, मेरी योजना यह है कि, सैकड़ों की संख्या में हिन्दू युवक प्रत्येक सभ्य देश में जाकर वेदान्त का प्रचार करें। और वहाँ से प्रशिक्षित नर-नारियों को एकत्रित कर कार्य करने के लिए भारत भेजें। इस प्रकार परस्पर आदान-प्रदान (exchange) बहुत ही उत्तम होगा। (Capt. and Mrs. Sevier will live there, and it will be the centre for European workers . My plan is to send out numbers of Hindu boys to every civilised country to preach — get men and women from foreign countries to work in India. This would be a good exchange. )  केन्द्रों की प्रतिष्ठा कर मैं " Book of Job " में वर्णित उस भद्र व्यक्ति {स्वर्ग निष्काषित अय्यूब } की तरह ऊपर-नीचे चारों ओर घूमता रहूँगा। "

31 जनवरी 2021  को ' प्रबुद्ध भारत ' या 'Awakend India ' के  125 वीं वर्षगाँठ के  'अद्वैत आश्रम ', मायावती द्वारा आयोजित समारोह के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने को कहा था- ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका भारत के प्राचीन आध्यामिक ज्ञान के संदेश को प्रसारित करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही है। इसका प्रकाशन चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) से साल 1896 में शुरू किया गया था, जहां से दो साल तक इसका प्रकाशन होता रहा, जिसके बाद यह कैप्टन सेवियर के निवास-स्थान , थॉम्पसन हॉउस अल्मोड़ा से प्रकाशित हुई। बाद में अप्रैल 1899 में पत्रिका के प्रकाशन का स्थान उत्तराखंड में मायावती स्थित अद्वैत आश्रम में स्थानांतरित कर दिया गया था और तब से यह लगातार प्रकाशित हो रही है। माना जाता है कि इस पत्रिका के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, अरबिंद, पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे विभूतियों ने योगदान दिया। 

प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि जो लोग भारत को जानते हैं, उन्हें इस बात का पता है कि यह देश  राजनीतिक या भौगोलिक सीमाओं से परे है।जब विवेकानन्द 1893 में शिकागो के ‘पार्लियामेंट ऑफ़ रिलीजंस‘ में बोल रहे थे, उस समय वे सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक एकीकृत सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक इकाई के ‘सॉफ़्ट पॉवर’ रूप में विश्व के सामने रख रहे थे। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ही विश्वरंगमच पर भारत के प्रथम राजदूत थे जिन्होंने भारत के ‘सॉफ़्ट पॉवर’ को विश्व के सामने प्रोजेक्ट किया था।

  ‘प्रबुद्ध भारत’ की 125 वीं वर्षगांठ पर पीएम नरेद्र मोदी ने कहा " स्वामी विवेकानंद ने इस वेदान्त आधारित पत्रिका के नाम - ' प्रबुद्ध भारत ' के जरिए देश की आध्यात्मिक भावना को प्रकट किया था। वे सम्पूर्ण भारत के नागरिकों को ही  'प्रबुद्ध' या जागृत मनुष्य बनाना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद ने भारत को एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में देखा, जो सदियों से जीवित है। एक ऐसा भारत, जो हर चुनौती के बाद मजबूती से उभरा है। स्वामी विवेकानंद में गरीबों के प्रति करुणा और दया का भाव था। जो लोग पढ़े-लिखे (उच्च डिग्री धारी) होने पर भी वैचारिक रूप से गरीब हैं - उन गरीबों के विकास के बिना देश का विकास संभव नहीं है !  

     पीएम मोदी जी ने कहा विवेकानंद के सिद्धातों पर चलते हुए कोरोना काल के दौरान हमने न सिर्फ समस्या का देखा, बल्कि उसका समाधान निकाला। हमने न सिर्फ पीपीई किट का प्रोडक्शन किया, बल्कि दुनिया की फॉर्मेसी बन गए। भारत कोरोना वैक्सीन विकसित करने में सबसे आगे रहा। हम इस क्षमता का इस्तेमाल दुनिया के दूसरे देशों को मदद करने में कर रहे हैं। असल मायने में यही प्रबुद्ध भारत की संकल्पना है। आयुष्मान भारत योजना, जनधन योजना आदि के द्वारा भी  हम यही कर रहे हैं।  उन्होंने कहा कि  पीएम ने कहा कि अगर गरीब बैंक तक नहीं पहुंच पाता है तो बैंकों को ही गरीब तक पहुंचना चाहिए... इस सिद्धांत पर जन धन खाते खोले गए हैं।

      पीएम नरेद्र मोदी ने आगे  कहा कि स्वामी विवेकानंद के फोकस में सदैव मूर्ख भारतवासी , दरिद्र-भारतवासी ही रहते थे , उनकी दृष्टि में दरिद्र ही नारायण थे। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि अगर गरीब (वैचारिक दृष्टि से गरीब ) खुद अपना विकास (3H का विकास ) नहीं कर पा रहे हैं तो विकास को (मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास के प्रशिक्षण-पद्धति को ) ही उनके पास ले जाने की जरूरत है। 

 और स्वामी जी के सम्पूर्ण भारत को ही  प्रबुद्ध बनाने  के संकल्प को साकार करने के उद्देश्य से, स्वामी विवेकानन्द द्वारा 1896 में प्रकाशित अंग्रजी  पत्रिका ' प्रबुद्ध भारत ' (Awakened India ) की प्रेरणा और प्रभाव से , तथा पण्डित मदन मोहन मालवीय एवं एनी बेसेन्ट के प्रयास से  1916 में  स्थापित 

"सेंट्रल हिन्दू कॉलेज" (Banaras Hindu University) ' के " संरक्षक समिति द्वारा प्रकाशित " प्राथमिक पाठ्य पुस्तक की एकमात्र अंग्रेजी दुर्लभ प्रति प्राप्त हुई उसका यथासम्भव हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है ।   



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1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

क्या सनातन धर्म की किताब उपलब्द है जो कि 1912 में प्रकासित हुई थी