गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

" मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल का सिस्टर निवेदिता में रूपान्तरण " [Transfiguration of 'Margaret Elizabeth Noble' (1867–1911) in Bhagini Nivedita ]

[(as a Spiritual treasures *1)  स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए 1895 में लंदन में कहा था - " बहुत निकट भविष्य में ' भारत के  प्रबुद्ध  या जागृत नागरिकों ' ('Enlightened or Awakened citizens of India' अर्थात अपने स्वरुप में जागृत मार्गदर्शक नेताओं /जीवनमुक्त शिक्षकों ) का निर्माण कर  एक उपयोगी वस्तु (commodity) या आध्यात्मिक खजाने के रूप में  एक देश से दूसरे देश में (या राज्य में) उनका आदान-प्रदान (exchange,बिनमय ) किया जायेगा।"]

  'विवेकानन्द युवा पाठ चक्र' 

 [लंदन, इंग्लैंड: 1895-1896]  

 इंग्लैण्ड में जन्मी 'मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल' (1867–1911) को 'घनीभूत भारत'  स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)  का प्रथम दर्शन 1895 ई ० के नवम्बर महीने में हुआ था।  लेकिन  'मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल' को भविष्य में भारत माता के लिए अपने जीवन को न्योछावर करने की तमन्ना रखने वाले देशभक्त सन्तानों की प्रेरणा स्रोत स्वरूप "भगिनी निवेदिता" अर्थात  प्रिय "बड़ी-दी"  [1985 की मिस सरोजा अय्यर नहीं ] बनना तो प्रारब्ध से ही निश्चित था। इसलिए 1896 में स्वामी जी की इंग्लैण्ड में  जब दूसरी यात्रा हुई थी , उसी समय काली माँ  (माँ भवतारिणी )  की इच्छा के अनुसार मिस मार्गरेट नोबल ने यह तय कर लिया था , कि भविष्य में उन्हें   स्वामी विवेकानन्द की सर्वाधिक समर्पित शिष्या (most devoted disciple - Sister Nivedita. )" भगिनी निवेदिता "  बनना  होगा ! और इस प्रकार इंगलैंड की दूसरी यात्रा के बाद 1896 में  मार्गरेट नोबल के लिए स्वामी विवेकानन्द के मुख से निसृत -" सिस्टर निवेदिता ", यह प्यार भरा सम्बोधन  मानो  विश्वगुरु भारत माता की समस्त भावी संतानों के लिए एक ही स्कूल के  सहपाठी (Classmate) के प्रति अनन्त काल तक सदा एक सा बना रहने वाला  स्नेह का एक अपरिवर्तनीय बंधन ( an Irrevocable Bond of affection *2 ) बन गया।

 उस प्रथम विवेक-दर्शन के दिन - (मूर्तमान विवेक) स्वामी विवेकानन्द ड्राइंग रूम के पश्चिमी छोर वाले फर्श पर ध्यान मुद्रा (अर्ध--पद्मासन)  में बैठे हुए थे।  उनका गरिमा पूर्ण मुखमण्डल आत्मविश्वास और सन्तुलन ( dignity and  poise) की विनम्रता के साथ दीप्तिमान हो रहा था।  (नारद का माया दर्शन के बाद,   नारद के भक्त स्वरुप में पुनः लौटने के बाद  प्राप्त होने वाला आत्मविश्वास तथा संतुलन ! ) उनके चेहरे पर किसी बच्चे जैसी सरलता और प्रशांति ही एक सम्मोहक " आध्यात्मिक आभा" (spiritual aura) के रूप में विकीर्ण हो रही थी।

भारत में किसी आश्रम में किसी ब्रह्मज्ञ  गुरु के मुख से गीता और  उपनिषदों में  उपदिष्ट संस्कृत मंत्रों  की व्याख्या  सुनते समय जिस प्रकार  गुरु के समक्ष  बैठकर श्रवण करने की परम्परा  रही है , ठीक उसी प्रकार लंदन के उस ड्राइंगरूम में  लगभग पंद्रह -सोलह ईसाई  किन्तु हिन्दू-महावाक्यों से प्रभावित जिज्ञासु श्रोता    (वेदों के चार महावाक्य  से प्रभावित ' एथेंस का सत्यार्थी ' जैसे जिज्ञासु श्रोता), स्वामी विवेकानन्द के समक्ष   सुखासन की मुद्रा (पालथी मारकर) में बैठे हुए थे।  और उनके मुख से निकलने वाले प्रत्येक शब्द को सम्पूर्ण एकाग्रता के साथ, दत्तचित्त होकर, बहुत मन लगाकर सुन रहे थे। 

उस दिन के छोटे से पाठचक्र में या  वेदान्त जिज्ञासु श्रोता समूह में  ( अथवा मनःसंयोग की कक्षा में)  मिस मार्गरेट नोबल भी उपस्थित थी !  एवं  स्वामी जी के द्वारा पातंजल योगसूत्र , गीता , उपनिषद और वेदांत के प्राचीन ज्ञान पर, विस्तार से  दिए जा रहे अतीन्द्रिय उपदेशों (celestial words)  के प्रत्येक शब्द का सुधबुध खोकर आकण्ठ पान करने में लीन थीं ! 

1895 के नवम्बर महीने में इंग्लैण्ड में , स्वामी विवेकानन्द द्वारा  दिए गए जिस भाषण को सुनकर मिस मार्गरेट नोबेल मंत्रमुग्ध हो गयीं थीं, उसका पहला वाक्य ही इस प्रकार था-'Friends, your Church is true, our Temples are true; and true is Brahman, formless and eternal, beyond the two.' " मित्रों, आपका चर्च सत्य है, हमारे मंदिर सत्य हैं; और इन दोनों से परे जो निर्गुण-निराकर शाश्वत ब्रह्म (अल्ला या गॉड ) हैं वे भी सत्य हैं।"  वैश्विक बाजार में  , विश्व के सभी राष्ट्र आज  जिस प्रकार अपने-अपने देशों  में उत्पादित अनाजों  अथवा उपयोगी वस्तुओं (commodities ) का आदान-प्रदान (Exchange -बिनमय) कर रहे हैं , वह समय आ गया है जब निकट भविष्य में वे अपने -अपने देशों के प्रबुद्ध या जाग्रत  आध्यात्मिक आदर्शों का ( प्रबुद्ध नागरिकों का) ठीक उसी प्रकार वे एक देश से दूसरे देश में  आदान-प्रदान भी  किसी आध्यात्मिक खजाने के रूप में (as a Spiritual treasures *1 )  करेंगे!

{' प्रबुद्ध भारत या Awakened India' ---as a Spiritual treasures * 1) : यहाँ प्रश्न उठता है कि 'प्रबुद्ध  या जागृत नागरिकों ' का निर्माण कैसे करें (मार्गदर्शक नेताओं /जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण कैसे करें) ताकि एक आध्यात्मिक खजाने के रूप में उनका बिनमय (exchange,आदान-प्रदान) एक देश से दूसरे देश में किया जा सके ? How to create 'enlightened or awakened citizens' so that they can be exchanged from one country to another as a spiritual treasure *1 :

   और इसीलिए बादरायण का "ब्रह्मसूत्र" इस अत्यंत सुंदर और अर्थगर्भी वाक्य --" अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"  ( ब्रसू-१,१.१ । ) से प्रारंभ होता है। "आओ, अब हम परम सत्य की जिज्ञासा करें।" यह एक आह्वान है, प्रस्थान है, दिशा है, गति भी।  प्रश्न यह है कि - क्यों जानें ? तो इसका उत्तर है, क्योंकि मानव का शरीर इसीलिये मिला है। जन्माद्यस्य यतः । ( ब्रसू-१,१.२ । ) “जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है और हमारी बुद्धि से परे है, उस आत्मा को जानो।”  यह सिद्धांत सर्वमान्य हैं कि बिना कर्ता के कर्म नहीं होता।  अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग पर चलाने वाला, कोई महान् शक्ति या सामर्थ्यवान् होना चाहिए।  उसे जानने के लिए जिज्ञासा भावना होनी चाहिए, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। शास्त्रों के अध्ययन से ही उसे पाया जा सकता है।  शास्त्रयोनित्वात् । ( ब्रसू-१,१.३ । ) अर्थात् शास्त्र की योनि होने के कारण ब्रह्म सर्वज्ञ है। शास्त्र योनि त्व आत। शास्त्र उसकी योनि से उत्पन्न होते हैं  या जन्मते है। त्व आत। उसी से आते हैं ; यानि ज्ञान भी उसी आत्मा के द्वारा उत्पन्न होता है। वेद उपनिषद इत्यादि जो भी सर्वज्ञगुणसंपन्न शास्त्र हैं , उनकी   उत्पत्ति सर्वज्ञ को आत्मा या ब्रह्म छोड़ कर अन्य किसी से संभव ही नहीं है।   अर्थात वह शास्त्र मतलब ज्ञान का जनक है। अर्थ हुआ ब्रह्म में जगत् का कारणत्व दिखलाने से उसकी सर्वज्ञता सूचित हुयी, अब उसी को दृढ़ करते हुये कहते हैं- (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इन वेदों के कर्म-काण्ड और ज्ञान काण्ड,  पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द शास्त्र, ज्योतिष आदि) अनेक विद्यास्थानों को पोषित करने वाले ऋग्वेद का मूल ब्रह्म है। ऋग्वेद से ब्रह्म के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है अतः ऋग्वेद ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने का प्रमाण है आधार है कारण है। 

ब्रह्म वेदान्त शास्त्र  द्वारा ही जाना जा सकता है। ब्रह्म स्वरूप बतलाना ही वेदान्त शास्त्र (गीता , उपनिषद और ब्रह्मसूत्र ) का लक्ष है। ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भेद बुद्धि नष्ट हो जाती है। ‘मैं ब्रह्म हूँ  ’ इन श्रुति वचनों (4 महावाक्यों ) का तात्पर्य यही है कि जीव और ब्रह्म अभिन्न है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’ जो ऐसा जानता है वह ब्रह्म मूल ही हो जाता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन है कि ब्रह्म के लिए कार्य रूप शरीर नहीं है - कारण रूप इन्द्रियाँ नहीं है - न कोई उसके समान है, न उससे बढ़कर है उसकी शक्ति महान व नाना प्रकार की है। हाथ न होने पर भी वह ग्रहण करता है, पैर न होने पर भी चलता है, आँख न होने पर भी देखता है, कान न होने पर भी सुनता है। जो कुछ जानने योग्य है वह सब जानता है किन्तु उसे जानने वाला कोई नहीं है।” ‘ब्रह्म सब कुछ देखता रहता है उसे कोई नहीं देख सकता। वह सब कुछ जानता रहता है किन्तु उसे कोई नहीं जान सकता।  

जीवात्मा स्वयं ब्रह्म (सिंह शावक) होते हुए भी अज्ञान के कारण स्वयं संसारी (भेंड़ शिशु ) समझता है , और जो अपने को जैसा समझता है , वही बन जाता है। सद्गुरु (वेदान्त केसरी विवेकानन्द, श्री रामकृष्ण और सर्वोपरि जगतजननी माँ सारदा देवी ) की कृपा से इस अज्ञान (या सम्मोहन ) के नष्ट होते ही जीव ब्रह्म-स्वरूप बन जाता है। अपने यथार्थ स्वरूप को पहिचान लेना यानी यह जान लेना कि जीव-ब्रह्म स्वरूप ही है,  मोक्ष है।

 जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन ( अर्थात अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव का दर्शन) करता है। नारायण का दर्शन सत्संग रूपी दर्पण से ही होती है। सत्संग से अभिप्राय सत्य का संग है या फिर ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य है, जिनका जीवन आदर्श है। उनका (स्वामी विवेकानन्द जैसे सद्गुरु का ) संग करने से, शारीरिक , मानसिक तथा आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है (अर्थात 3H का विकास होता है) और आत्मविश्वास बढ़ता है।

मानव-देह में ही एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है, जब तक वह मिल नहीं जाता, इच्छायें उसे इधर से उधर भटकाती, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। जब तक सत्यामृत की प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है। न कोई इच्छा तृप्त होती है और न ही आत्मसन्तोष होता है। ईश्वर हम सब को प्राप्त है, बस आवश्यकता है तो ईश्वर को पहचानने के लिए योग्य सद्गुरु/ नेता / जीवनमुक्त शिक्षक  की। गुरु ही हमें ईश्वर की पहचान (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की पहचान) कराते हैं। जिसके आशीष-अनुग्रह से आत्म-सत्ता (सच्चिदानन्द -Existence-consciousness-bliss) के अर्थ उजागर होते हैं। जिस माध्यम की सहायता से कोई साधक व्यष्टि से समष्टि सत्ता को स्वयं में अनुभूत कर पाता है, वह हैं सदगुरू/नेता / जीवनमुक्त शिक्षक । [ अर्थात कोई साधक जिस आदर्श माध्यम (C-IN-C) की सहायता से अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपांतरित करने में समर्थ हो जाता है , वे हैं नवनीदा !]

 आप भी आदिग्रंथ, ऋग्वेद (कठोपनिषद ) में कहे गए " उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।। काठकोपनिषत् १-३-१४" वाले सिद्धांत के अनुसार उठें , जागे तथा अपनी शक्तियों को पहचाने। - "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त होने तक रुको मत ! - स्वामी विवेकानन्द  "  परन्तु हर व्यक्ति ने इस श्लोक के अर्थ को अपनी-अपनी दृष्टि से ही समझा है । कोई तो अपने व्यापार में सफलता पाना चाहता है , तो कोई IAS की नौकरी   ,कोई तो खेती में (MSP) पाना चाहता है , तो कोई राजनीति -Politics  आदि को अपना लक्ष्य समझ रहा है । परन्तु सम्पूर्ण मानव जाति का एक ही लक्ष्य है और वो - है आत्म कल्याण, अर्थात (deHypnotized-भ्रममुक्त मनुष्य )   ब्रह्मविद " मनुष्य " बन जाना या ब्रह्म को जानकर ब्रह्म बन जाना । ( Arise, awake, find out the great ones and learn of them; for sharp as a razor's edge, hard to traverse, difficult of going is that path, say the sages. “Arise, awake and stop not till the goal is reached.” – Swami Vivekananda. )   जिसका अर्थ कुछ यूं हैः-  उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - "इंटर्नशिप प्रशिक्षण पद्धति" में) ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् ऋषिगण ऐसा कहते हैं कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना । कठोपनिषद का यह मंत्र कहता है कि ज्ञान प्राप्त करने और उसे साधने का मार्ग अस्त्रों को साधने जितना ही कठिन है। यहाँ ज्ञान को अस्त्र के समान बताया गया है, अर्थात ज्ञान (धर्म/शिक्षा )  मारक और प्रतिरक्षात्मक  दोनों स्थितियों में कारगर हथियार है। ज्ञान के प्रयोग की विधा (विवेक-प्रयोग की विधा ) भी सबको सुलभ नहीं होती। " मनःसंयोग की पद्धति " के विषय में पारंगत (जाग्रत व्यक्ति Awakened person/Enlightened India ) या " प्रबुद्ध भारत " ही ज्ञान का प्रतिपादन करने में सक्षम है। इसीलिए कहा गया कि " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित - श्रेष्ठ ज्ञानियों (महामण्डल के प्रतिष्ठाता C-IN-C नवनीदा ) के पास जाकर ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।  

 कठोपनिषद का दूसरा नाम नचिकेतोपाख्यान है क्योंकि इसमें उस बालक नचिकेता की कहानी है जो आत्मज्ञान की खोज करता है। वहाँ मृत्युदेव यमराज कहते हैं - अस्मिन् मन्त्रे ब्रह्मविद्याचार्यः ब्रह्मनिष्ठश्च मृत्युदेवः सर्वेभ्यः जिज्ञासुमुमुक्षुभ्यः ज्ञानप्राप्त्यै चतुरः सन्देशान् उपदिशति । ते च : - " हे विवेकिनो मुमुक्षवः, यूयम् उत्तिष्ठत, जाग्रत, वरान् गुरून् प्राप्नुत, तेभ्यः आत्मानं विजानीत ।  उत्तिष्ठत –आत्मज्ञानं प्राप्तुं संकल्पं कुरुत । अनादिभूतायाम् अविद्यानिद्रायामेव मा मग्ना भवत ।नित्यशुद्धम् आत्मानम् अवगन्तुं प्रयत्नं कुरुत ॥ जाग्रत – सर्वानर्थबीजभूतायाः अविद्यानिद्रायाः ऊर्ध्वम् आगच्छत । अज्ञानान्धकारासुरं संहरत । ज्ञानं सम्पादयत ॥ वरान् प्राप्य – ब्रह्मनिष्ठान् सम्प्रदायविदः सद्गुरून् उपगम्य, सद्गुरुसेवां भक्त्या कुर्वन्तः तेभ्यः आत्मोपदेशं शृणुत ॥ निबोधतसद्गुरुभ्यः आत्मस्वरूपम् विज्ञाय भ्रम -मुक्ता भव !!

 स्वामी विवेकानन्द  ने भी नचिकेता की भाँति ज्ञान की खोज करने के पश्चात् ‘उठो, जागो…’ का उद्घोष कर भारत के सुषुप्त जनमानस (HYpnotized-आहार,निद्रा , भय और मैथुन में फंसे जनमानस) को जगाया था। 

 [ स्वामी विवेकानन्द द्वारा 1896 में "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" अर्थात  "Be and Make परम्परा" में स्थापित ' प्रबुद्ध भारत या Awakened India' -  अद्वैत आश्रम , मायावती , अल्मोड़ा हिमालय वह पत्रिका है जो पिछले 125 वर्षों से प्रकाशित होती चली आ रही है। जिसकी 125 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर युवाओं को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी जी ने 31 जनवरी 2021 को कहा था- ‘प्रबुद्ध भारत’ पत्रिका भारत के प्राचीन आध्यामिक ज्ञान के संदेश को प्रसारित करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही है। इसका प्रकाशन चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) से साल 1896 में शुरू किया गया था, जहां से दो साल तक इसका प्रकाशन होता रहा, जिसके बाद यह कैप्टन सेवियर के निवास-स्थान , थॉम्पसन हॉउस अल्मोड़ा से प्रकाशित हुई। बाद में अप्रैल 1899 में पत्रिका के प्रकाशन का स्थान उत्तराखंड में मायावती स्थित अद्वैत आश्रम में स्थानांतरित कर दिया गया था और तब से यह लगातार प्रकाशित हो रही है। माना जाता है कि इस पत्रिका के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, अरबिंद, पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे विभूतियों ने योगदान दिया। " स्वामी विवेकानंद ने इस वेदान्त आधारित पत्रिका के नाम के जरिए देश की आध्यात्मिक भावना को प्रकट किया था। वे सम्पूर्ण भारत के नागरिकों को ही  'प्रबुद्ध ' या जागृत मनुष्य बनाना चाहते थे।  प्रधानमंत्री ने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने भारत को एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में देखा, जो सदियों से जीवित है। एक ऐसा भारत, जो हर चुनौती के बाद मजबूती से उभरा है। स्वामी विवेकानंद में गरीबों के प्रति करुणा और दया का भाव था। जो लोग पढ़े-लिखे (उच्च डिग्री धारी) होने पर भी वैचारिक रूप से गरीब हैं - उन गरीबों के विकास के बिना देश का विकास संभव नहीं है !   ‘प्रबुद्ध भारत’ की 125 वीं वर्षगांठ पर पीएम नरेद्र मोदी ने कहा कि स्वामी विवेकानंद के फोकस में सदैव मूर्ख भारतवासी , दरिद्र-भारतवासी ही रहते थे , उनकी दृष्टि में दरिद्र ही नारायण थे। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि अगर गरीब खुद अपना विकास (3H का विकास ) नहीं कर पा रहे हैं तो विकास को (मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास के प्रशिक्षण-पद्धति को ) ही उनके पास ले जाने की जरूरत है।  पीएम ने कहा विवेकानंद के सिद्धातों पर चलते हुए कोरोना काल के दौरान हमने न सिर्फ समस्या का देखा, बल्कि उसका समाधान निकाला। हमने न सिर्फ पीपीई किट का प्रोडक्शन किया, बल्कि दुनिया की फॉर्मेसी बन गए। भारत कोरोना वैक्सीन विकसित करने में सबसे आगे रहा। हम इस क्षमता का इस्तेमाल दुनिया के दूसरे देशों को मदद करने में कर रहे हैं। असल मायने में यही प्रबुद्ध भारत की संकल्पना है। आयुष्मान भारत योजना, जनधन योजना आदि के द्वारा भी  हम यही कर रहे हैं।  उन्होंने कहा कि  पीएम ने कहा कि अगर गरीब बैंक तक नहीं पहुंच पाता है तो बैंकों को ही गरीब तक पहुंचना चाहिए... इस सिद्धांत पर जन धन खाते खोले गए हैं।  प्रधानमंत्री ने आगे कहा कि जो लोग भारत को जानते हैं, उन्हें इस बात का पता है कि यह देश  राजनीतिक या भौगोलिक सीमाओं से परे है जब विवेकानन्द  1893 में शिकागो के ‘पार्लियामेंट ऑफ़ रिलीजंस‘ में बोल रहे थे, उस समय वे सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक एकीकृत सांस्कृतिक, भौगोलिक एवं राजनैतिक इकाई के ‘सॉफ़्ट पॉवर’ रूप में विश्व के सामने रख रहे थे। इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द ही विश्वरंगमच पर भारत के प्रथम राजदूत थे जिन्होंने भारत के ‘सॉफ़्ट पॉवर’ को विश्व के सामने प्रोजेक्ट किया था।   बुधवार, 12 अगस्त 2020 : " विश्व के महान शिक्षक " [$$$ The concept of "C-IN-C"/मंगलवार, 17 जुलाई 2018: महामण्डल आन्दोलन से 'अद्वैत आश्रम', मायावती, हिमालय, का सम्बन्ध क्या है ?]  विवेकानंद भारत को प्रबुद्ध या  'जागृत भारत'  बनाना चाहते थे। ...] ..... इसीलिए कहा गया कि श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास जाकर ही ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। 

विवेकवान को ही शास्त्र 'जागा हुआ' कहते हैं। जागृति को वा? अर्थात्, जागा हुआ कौन है? इसका उत्तर देते हुए आद्यशंकर कहते हैं, 'सदसद् विवेकी, ' यानी, जो सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेक कर सकता है, वही जागा हुआ है। स्वयं में परम सत्ता (आत्मा )  को अनुभूत करने की दिव्य सामर्थ्य जागरण में सहायक है, सत्संग अर्थात विवेकानन्द युवा पाठचक्र । अतः सत्संग ही सर्वथा श्रेयस्कर-हितकर है ! शास्त्रों में सत्संग की महिमा का बारंबार बखान किया गया है। व्यवहार की दृष्टि से संग जहां संस्कारों का वाहक है, वही चित्त में प्रसुप्त पड़े संस्कारों को क्रियाशील भी बनाता है। जब हम सत्संग में होते हैं तब हम चैतन्य होते हैं, हमारा विवेक और अंतरूकरण के सभी द्वार खुलने लगते हैं और हम जीवन की भौतिक लालसाओं से सहज मुक्त होकर ईश्वरीय आलोक में निवास करते हैं। सत्संग हमें सत्य का साक्षात्कार करवाता है। सत्संग ऐसे लोगों के साथ उठने, बैठने या उनकी कथा सुनने से है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है। सत्य का साक्षात्कार करने हेतु ही हमें आंतरिक सत्संग करना है। सत्संग से अभिप्राय मन को विषयों से खींचकर अपने सामने लाना ,  और उसको आदेश देना  है। अपने भीतर ईश्वर के रूप में स्थित सत्य को जानना है। ईश्वर के प्रकाश के निकट होना है, मन की चंचलता को रोक देना है तथा मन की मैल दूर करते हुए स्वयं के दर्शन करने हैं। यही सच्चे अर्थों में सत्संग है।  

“जिन खोजा तिन पइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ! अर्थात् असल वस्तु ब्रह्म दर्शन पाना है तो गहरी डुबकी तो लगानी ही होगी। गुरु ने आपको हृदय -समुद्र के किनारे तो लाकर खड़ा कर दिया है, जो अनमोल मोतियों से भरा है। मात्र ऊपर-ऊपर ही तैरते रहने से मोती नहीं मिलेंगे, उसके लिए तो आपको मनःसंयोग के अभ्यास और वैराग्य द्वारा चित्त की गहराइयों में गहरी डुबकी लगानी ही पड़ेगी। हां, यह बात अलग है कि कभी समुद्र की दया हो जाए और मोती किनारे पर आ जाएय अर्थात्, सद्गुरु की अहैतुकी कृपा हो जाए तो मोती (ठाकुर माँ स्वामीजी ) आपके हाथ में आ जाएं! 

वेदान्त केसरी - वेदान्त के शेर की दहाड़ (The Roar of the Lion of Vedanta) :

" सत्य का अनुसन्धान शक्ति की अभिव्यक्ति है - वह वह कायर - कमजोर , अंध लोगों का अँधेरे में टटोलना नहीं है। ईश्वर मनुष्य बना , मनुष्य भी फिर से ईश्वर बनेगा। मनुष्य सबसे अच्छा दर्पण है, और मनुष्य का हृदय जितना अधिक पवित्रतर होता जायेगा, वह उतना ही स्पष्ट रूप से भगवान (श्रीरामकृष्ण देव ) को प्रतिबिंबित कर सकेगा। मनुष्य अपने को ईश्वर (आत्मा या ब्रह्म ) से पृथक करने और देह से अपने को अभिन्न मानने की भूल करता है। यह भूल माया [ 3 गुण और 2 शक्ति ] से होती है , जो बिल्कुल असत्य या भ्रम जाल तो नहीं है , पर उसे सत्य को जैसा की वह है, वैसा न देखकर किसी अन्य रूप में (रज्जु-सर्प ) देखना कहा जा सकता है ! .... हमारा वास्तविक स्वरुप पवित्र या केवल शुभ ही है , मुक्त है , विशुद्ध सत है , और न तो कभी अशुद्ध हो सकता है। .... हम "हो " कुछ भी नहीं जाते , हम अपनी वास्तिविक आत्मा को पुनः प्राप्त करते हैं।

 ... बुद्ध ने संसार में दुःख का कारण तथा उससे मुक्त होने का उपाय को आविष्कृत करते हुए ,संक्षेप में बताया था "अज्ञान और उच्च जाति के नाम पर विशेषाधिकार का दावा "ignorance and caste" (inequality) " [चार जाति और चार आश्रम , चार जातिगत पुरुषार्थ के अनुरूप  असमानता-जैसा प्रतीत होने वाला 'वर्णाश्रम धर्म' का उद्देश्य है - शूद्र को ब्राह्मण में उन्नत होने का उपाय बताना !] इसी कारण  बुद्ध के द्वारा प्रदत्त इस सूत्र को वेदान्तवादियों ने अपना लिया है ; क्योंकि वह अबतक समाजसुधार के लिए किये गए प्रयत्नों में सर्वोत्कृष्ट है। उससे मनुष्यों में इस महानतम व्यक्ति की आश्चर्यजनक अंतर्दृष्टि व्यक्त होती है। तो आओ हम सब वीर (हीरो / नेता / शिक्षक बनें)  और सच्चे बनें। जो भी मार्ग हम श्रद्धा पूर्वक अपनाएं , हमें निश्चय ही मुक्ति की और ले जायेगा ! [ज्ञान योग पर प्रवचन -६/२७४-२७५ ]  

" जाति -भेद समदर्शी योगियों के लिए नहीं है "-यह जाति-विभाग तो उन लोगों के लिए जिनका मन अभी अप्रशिक्षित या अपरिपक्व है , उन्हें शिक्षा प्रदान का प्रशिक्षण विद्यालय (मनःसंयोग सीखने का training school) है !...... पर यदि यह जातिविभाग न होता , तो आज आपको एक भी संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने पढ़ने के लिए न मिलता। इसी जातिविभाग के द्वारा ऐसी मजबूत प्राचीर की सृष्टि हुई , जो हजारों वर्षों के बाहरी आक्रमणों द्वारा भी ध्वस्त नहीं हुई ! आज भी यह प्रयोजन मिटा नहीं है -[धारा 370 और 35 A हटने के बावजूद कश्मीरी पण्डित अपने घरों में वापस नहीं जा सके हैं !] इसीलिए अभी तक जाति-विभाग बना हुआ है। 700 वर्ष पहले जाति-विभाग जैसा था आज वैसा नहीं है । लेकिन बाहर से उस पर जितने ही आघात होते गए वह उतना ही दृढ़ होता गया।" १०/३९३, (Love-Jihad के खिलाफ कानून बनता चलता गया- लेकिन समान मानसिकता वाले हिन्दुओं में परस्पर अनतर्जातीय विवाह अब लगभग सम्भव है !! )

यह जगत मानो एक व्यायाम शाला के सदृश है -इसमें जीवात्मायें अपने अपने कर्म के द्वारा (वर्णाश्रम धर्म -प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति के द्वारा ) अपनी अपनी उन्नति कर रही हैं और इसी उन्नति के फलस्वरूप हम देवस्वरूप या ब्रह्मस्वरूप (ठाकुर के दास ) हो जाते हैंअतः किस व्यक्ति में ईश्वर (निःस्वार्थपरता ) की कितनी अभिव्यक्ति हो रही है यह जानकर उस व्यक्ति /नेता का मूल्यांकन करना चाहिए। सभ्यता का अर्थ है , मनुष्य में इसी ईश्वरत्व (निःस्वार्थपरता ) की अभिव्यक्ति ! पूर्णतः सभ्य या पूर्णतया निःस्वार्थ नेता/शिक्षक अप्रतिरोध्य बन जाता है !" १०/३९४ [सभ्यता (Civilization ) के विषय में वेदान्त की अवधारणा विषय पर 25 मार्च 1896 को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी , अमेरिका में आयोजित प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम !]

{ " The search for truth is the expression of strength—not the groping of a weak, blind man. God has become man; man will become God again. Man is the best mirror, and the purer the man, the more clearly he can reflect God. Man makes the mistake of separating himself from God and identifying himself with the body. This mistake arises through Maya, which is not exactly delusion but might be said to be seeing the real as something else and not as it is. ......अविद्या = अस्मिता This identifying of ourselves with the body leads to inequality (cast) , which inevitably leads to struggle and jealousy, and so long as we see inequality, we can never know happiness. "Ignorance and inequality are the two sources of all misery", says Buddha . Our true nature is good, it is free, the pure being that can never be or do wrong. ... ...... We become nothing; we regain our true Self.

" Buddha's summary of misery as the outcome of "ignorance and caste" (inequality) has been adopted by the Vedantists, because it is the best ever made. It manifests the wonderful insight of this greatest among men. Let us then be brave and sincere: whatever path we follow with devotion, must take us to freedom." 

   " Caste (inequality : जाति- विभाग, वर्णाश्रम धर्म) is only the training school for undeveloped minds. .... But if it had not been for caste, you would have had no Sanskrit books (अष्टावक्र गीता आदि शास्त्र ) to study. This caste made walls, around which all sorts of invasions rolled and surged, but found it impossible to break through. That necessity has not gone yet; so caste remains. The caste we have now is not that of seven hundred years ago. Every blow has riveted it......This universe is imply a gymnasium in which the soul is taking exercise; and after these exercises we become God. So the value of everything is to be decided by how far it is a manifestation of God. Civilization is the manifestation of that divinity in man. by the Swami at the Graduate Philosophical Society of Harvard University, U. S. A., on March 25, 1896.}

" प्रत्येक मनुष्य पाशविकता , मनुष्यता  और देवत्व  का एक यौगिक है।" पशु का स्वभाव - जहाँ वह है , वहीँ रहने का (100 % स्वार्थपरता ); मनुष्य का -शुभ खोजने और अशुभ से बचने का (50 % निःस्वार्थपरता ), और ईश्वर का स्वभाव - न तो खोजने (ढूँढ़ने ) का और न बचने का (टालने का) अपितु सदैव आनन्दमय रहने का ! आओ , हम ईश्वर (100 % निःस्वार्थपर) बनें ! हम अपने हृदय को महासागर जैसा अनन्त तक विस्तारित करें , ताकि हम संसार की छोटी छोटी बातों से - (जाति-भेद से ) परे जा सकें और उसे केवल एक चित्र की भाँति देखें। ६/२७८ (ज्ञानयोग पर प्रवचन )  

" अपने अन्तर्निहित ब्रह्मभाव को प्रकट करो और उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर , सामंजस्यपूर्ण ढंग से विन्यस्त हो जायेगा।  वेदान्त का आलोक घर घर ले जाओ, प्रत्येक जीवात्मा जो ब्रह्मत्व अन्तर्निहित है, उसे जगाओ ! (आत्मा की शक्ति का विकास करो ,  और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे डाल दो , और जिस स्थिति की आवश्यकता है ,  वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। तुम में से प्रत्येक को यह सोचना होगा कि सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है।  " ५/९५ /  [मद्रास अभिनन्दन का उत्तर ९/३८० सूक्तियाँ एवं सुभाषित -२ /खंड -१० /पृष्ठ -२२१ ]  

  [" Man is a compound of animality, humnity and divinity. "(Volume 5, Sayings and Utterances ) "Carry the light and the life of the Vedanta to every door, and rouse up the divinity that is hidden within every soul. (-visit to Kumbakonam/ THE MISSION OF THE VEDANTA )  " The nature of the brute is to remain where he is, of man to seek good and avoid evil, of God to neither seek nor avoid, but just to be blissful eternally."Manifest the divinity within you and everything will be harmoniously arranged around it.  (Volume 4, Writings: Prose REPLY TO THE MADRAS ADDRESS )]

" समस्त धर्मों का, समस्त मानवजाति का , [मानवतावादी शिक्षा का ] चरम लक्ष्य एक ही है , और वह है भगवान से पुनर्मिलन ! (अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात लौकिक उन्नति के साथ साथ - अंत में ईश्वर या  माँ जगदम्बा से reunion- पुनर्मिलन ! एकीकरण !) अथवा दूसरे शब्दों में उस ईश्वरीय स्वरुप की प्राप्ति , जो प्रत्येक मनुष्य का सच्चा स्वभाव है। यद्यपि लक्ष्य एक ही है , तथापि लोगों के विभिन्न रुझानों [ मनोदशा temperaments  ] के अनुसार उसकी प्राप्ति के साधन भिन्न भिन्न हो सकते हैं। ३/१६९

" The ultimate goal of all mankind, the aim and end of all religions, is but one–re-union with God, or, what amounts to the same, with the divinity which is every man’s true nature. But while the aim is one, the method of attaining may vary with the different temperaments of men. ]

" तुम तो ईश्वर की संतान हो , अमर आनन्द के भागी हो , पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो। तुम उठो ! हे सिंहों ! आओ और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेंक दो , कि तुम भेंड़ हो। तुम तो अजर-अमर -अविनाशी आत्मा हो। मुक्त , आनंदमय और नित्य ! तुम जड़ नहीं हो , तुम शरीर नहीं हो ; जड़ तो तुम्हारा दास है , न कि तुम दास हो जड़ के। " १/१२

[You are the Children of God, the sharers of immortal bliss, holy and perfect beings. You divinities on earth. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; you are not matter, you are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.  Read at the Parliament on 19th September, 1893]

"  प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम (विवेक-दर्शन ) अथवा ज्ञान , इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान पद्धति, शास्त्र, मंदिर अथवा अन्य बाह्य क्रियाकलाप (समाजसेवा आदि ) तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।" १/३५

[Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control (मनःसंयोग) , or philosophy ( – by one, or more, or all of these – and be free. This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.]

" पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनने में सहायता देंगे। “Be and make.” यही हमारा मूल-मंत्र रहे। (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य/ऋषि/नेता " बनो और बनाओ"  यही हमारा मूल-मंत्र रहे।)  ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है।उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है।( या तू ईश्वर की संतान है !) यदि कोई शैतान हो (इब्लीस है -सर्जिल इमाम हो ?) , तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का स्मरण करें , शैतना का नहीं।" ९/३८०

" First, let us be Gods, and then help others to be Gods. “Be and make.” Let this be our motto. Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil."

 " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। (7 जून 1896 को सिस्टर निवेदिता को लिखित पत्र। )  " ईश्वर प्रत्येक मनुष्य में विराजता है , चाहे वह इसे जाने या न जाने; उस मनुष्य में ईश्वरत्व का प्रस्फुटन तुम्हारी भक्ति से अवश्य होकर ही रहेगा !!" (माली की भक्ति से जीवनपुष्प का प्रस्फुटन होकर रहेगा !) श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित पत्र 3 जनवरी 1899 -७/ ३६५ )

[" My ideal indeed can be put into a few words and that is; to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life. God is in every man, whether man knows it or not; your loving devotion is bound to call up the divinity in him.]

 " एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ, वह यह कि अज्ञान (अस्मिता और जातिभेद  inequality ) ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। जगत को प्रकाश कौन देगा ? भूतकाल में बलिदान का नियम था और अफ़सोस युगों तक ऐसा ही रहेगा। संसार के वीरों को और सर्व-श्रेष्ठों को ' बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय ' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है।" ४/४०७

[ " One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law; it will be, alas, for ages to come. The earth’s bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.] 

 " सम्पूर्ण शक्ति तुम्हारे भीतर है , तुम जो चाह लोगे वही हो जायेगा। मन के हारे हार है , मन के जीते जीत ! मन जीते जग जीत ! तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो , यह विश्वास करो ! विदेशियों के कहने पर मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। तुम में अनंत शक्ति अंतर्निहित है। अपने पैरों पर खड़े हो जाओ , और तुममें जो देवत्व छिपा हुआ है , उसे प्रकट करो ! " [ हमारा प्रस्तुत कार्य ५/१७८ ]

[All power is within you; you can do anything and everything. Believe in that; do not believe that you are weak. Stand up and express the divinity within you.THE WORK BEFORE US] 

 " वेदान्त शास्त्र में तो कहा है - 'एक ही चित सत्ता (मन- वस्तु ) सर्वभूत में विद्यमान है। ६/१८१ ] परब्रह्म तत्व में लिंगभेद नहीं है।  स्त्री-पुरुषों में बाह्य भेद रहने पर भी स्वरुप में कोई भेद नहीं होता। समय आने पर स्त्रियों में यदि एक भी ब्रह्मज्ञ बन सकीं , तो उसकी प्रतिभा से हजारों स्त्रियाँ जाग उठेंगी।  जिससे देश और समाज का कितना कल्याण होगा - समझते हो भाई ? ६/१८५/ " अब धर्म को ही केंद्र बनाकर स्त्री-शिक्षा का प्रचार करना होगा। धर्म के अतिरिक्त दूसरी शिक्षाएं गौण होंगी। जो लोग स्त्री-शिक्षा में सुधार करने के लिए अग्रसर हुए हैं  - यदि वे स्वयं ब्रह्मज्ञ बने बिना  स्त्रियों को ज्ञान देने चलेंगे तब वे  त्रुटियाँ करते रहेंगे।  (जानिबीघा स्कूल के अशिकजी जैसे शिक्षक , यदि जीवनमुक्त शिक्षक बने बिना Bh आग रहने से ही धुआँ उठेगा , किन्तु क्या इसी डर से जानिबीघा स्कूल बंद करना उचित होगा ? ) अतः स्त्री-शिक्षा के प्रवर्तकों को मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने के पूर्व कठोर विवेक-दर्शन अभ्यास और वैराग्य की सहायता से पहले स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य /जीवनमुक्त शिक्षक हो जाना चाहिए। नहीं उनके काम में गलतियाँ निकलेंगी ही। समझा ? १८६ /

" आत्मा [सच्चिदानन्द ] की इस अनंत शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु [PVC ] पर होने से भौतिक उन्नति होती है [प्लास्टिक खोली से होटल तारा टावर बन जाता है ] विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है [बंगला भाषा भी समझ में आने लगता है।] और अपने पर ही होने से मनुष्य का ईश्वर (पूर्ण निःस्वार्थपर ) बन जाता है।९/३७९ /" 

The infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes of man a God.]   

" यह बात ध्रुव सत्य (tremendous truth) है कि यदि तेरे अंदर यदि कुछ तत्व रहे [यदि निर्विकल्प में पहुंचकर सच्चिदानन्द स्वरुप की अनुभूति हो गयी हो ?] तब बाह्य परिस्थिति जितनी ही विपरीत होगी , भीतर की शक्ति (प्रेम करने की शक्ति ) का उतना ही उन्मेष होगा। " ६/४२ /२१८ /

It is a tremendous truth (ध्रुव सत्य ) that if there be real worth in you, the more are circumstances against you, the more will that inner power manifest itself. हिन्दी ६/४२/] 

उपनिषदों का मूलमंत्र है -स्वाधीनता अर्थात मुक्ति (भ्रमों से मुक्ति -मोक्ष ) ! दैहिक स्वाधीनता , मानसिक स्वाधीनता , आध्यात्मिक स्वाधीनता ! संसार भर में एकमात्र उपनिषद ही ऐसे शास्त्र हैं , जिसमें उद्धार (salvation ) की बात नहीं की की गयी है , किन्तु मुक्ति के बारे में विस्तार से बताया गया है। प्रकृति के बंधन से मुक्त हो जाओ , दुर्बलता से मुक्त हो जाओ। .... तुम यदि द्वैतवादी भी हो, किसी पैगंबर या अवतार को अपना उद्धारक समझते हो ---तो भी कोई चिंता नहीं किन्तु तुमको यह स्वीकार करना ही होगा कि आत्मा स्वभाव से ही पूर्णस्वरूप है ! किन्तु कई जन्मों से किये-भले-बुरे कर्मों के कारण वह संकुचित हो गयी है। ...वेदांत गुरु-शिष्य परम्परा में सत्कर्मों और अच्छे विचारों के प्रशिक्षण द्वारा [ by good deeds and good thoughts it expands again and reveals its natural perfection. 3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण " Be and Make Leadership Training " - द्वारा ] वह पुनः विकास को प्राप्त होती है। और उसी दौरान [महामण्डल आंदोलन में निष्ठापूर्वक लगे रहने के दौरान  बिना कोई अन्य साधना किये ही, ] उसकी स्वाभाविक पूर्णता प्रकट हो जाती है। अद्वैतवादी के साथ द्वैतवादी का इतना ही मतभेद है कि अद्वैतवादी आत्मा के विकास को नहीं--अन्तः और बाह्य प्रकृति के विकास को स्वीकार करता है ! आत्मा अपरिवर्तनशील और अनन्त है। यह मानों मायारुपी पर्दे [तीन गुण और दो शक्ति मिथ्या-अहं बोध ? ]से ढंकी हुई है --जितना ही यह माया रूपी पर्दा क्षीण होता जाता है [ व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी और विराट अहं -बोध में रूपांतरित होता जाता है ] , उतनी ही आत्मा की स्वयं सिद्ध स्वाभाविक महिमा अभिव्यक्त होती है और क्रमशः वह अधिकाधिक प्रकाशमान होती है। This is the one great doctrine which the world is waiting to learn from India संसार इसी एक महान शिक्षा (doctrine या सिद्धान्त-या मति सा गतिर्भवेत --Feel that you are great and you become great. ) को -- ' तुम अपने को महान समझो , और तुम सचमुच महान हो जाओगे को---भारत से सीखने की अपेक्षा कर रहा है[रानी मदालसा की शिक्षा -Autosuggestion -Feel that you are great and you become great. को  तुम अपने को महान समझो , और तुम सचमुच महान हो जाओगे को अर्थात  / विवेक-दर्शन, स्वपरामर्ष सहित 5 अभ्यास  को ] भारत से सीखने की अपेक्षा कर रहा है। ५/१३४-138 ] " मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिंतन करे , तो वह एक उत्तम मछुआ होगा। विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा विचारे तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा। वकील यदि अपने को आत्मा समझे , तो वह एक अच्छा वकील होगा।  औरों के विषय में भी यही समझो। इसका फल यह होगा कि --जातिभेद [ Cast या inequality -जातिविभाग ] तो अनंत काल तक रह जायेगा , क्योंकि विभिन्न श्रेणियों में व्यक्त होना ही समाज का स्वभाव है। पर क्या नहीं दिखाई पड़ेगा ? पर रहेगा क्या नहीं ? उच्च जाति में जन्म लेने के कारण - विशेषाधिकारों का अस्तित्व न रह जायेगा !... मैं (बिहारी मजदूर ) जूते की सिलाई करने में निपुण हूँ , तुम वेदपाठ में निपुण हो। यह कोई कारण नहीं कि इस विशेषता के लिए , तुम मेरे सिर पर पाँव रखो। (देवराहा बाबा होकर 1986 के कुम्भ मेले में नेताओं के सिर पर पाँव रखो। )

Freedom, physical freedom, mental freedom, and spiritual freedom are the watchwords of the Upanishads. Ay, this is the one scripture in the world, of all others, that does not talk of salvation, but of freedom. Be free from the bonds of nature, be free from weakness! And it shows to you that you have this freedom already in you. That is another peculiarity of its teachings. You are a Dvaitist; never mind, you have got to admit that by its very nature the soul is perfect; only by certain actions of the soul has it become contracted. With the Advaitist the one difference is that he admits evolution in nature and not in the soul.by good deeds and good thoughts it expands again and reveals its natural perfection.  It is unchangeable, the Infinite One. It was covered, as it were, with a veil, the veil of Maya, and as this Maya veil becomes thinner and thinner, the inborn, natural glory of the soul comes out and becomes more manifest. story of queen Madâlasâ, how as soon as she has a child she puts her baby with her own hands in the cradle, and how as the cradle rocks to and fro, she begins to sing, "Thou art the Pure One the Stainless, the Sinless, the Mighty One, the Great One." Ay, there is much in that. Feel that you are great and you become great.  This is the one great doctrine which the world is waiting to learn from India."If the fisherman thinks that he is the Spirit he will be a better fisherman, if the student thinks he is the Spirit, he will be a better student. If the lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer. VEDANTA IN ITS APPLICATION TO INDIAN LIFE/ ] 

हजारों पापियों के प्राणों का नाश करके जगत से पाप को दूर करने की चेष्टा करने से जगत में पाप की वृद्धि ही होती है।  किन्तु यदि आध्यात्मिक प्रशिक्षण देकर , युवाओं को पापकर्म करने से निवृत्त किया जा सके तो फिर जगत में फिर पाप नहीं रहेगा। ६/११६ / हिन्दी ६/ २१ / ११४ --स्वामी निवेदिता, स्वामी योगानंद के साथ स्वामीजी, और अन्य लोग दोपहर में अलीपुर जू '-पशुशाला ' देखने गए हैं ।]

 [नक्सल हिंसा से ६ इंच छोटा करके , भ्रष्ट अफसरों/राजनेताओं / बिचौलियों  के प्राणों का नाश करके,  जगत से पाप को दूर करने की चेष्टा करने से जगत में पाप की वृद्धि ही होती है। किन्तु यदि आध्यात्मिक प्रशिक्षण (मनःसंयोग , विवेकदर्शन आदि ) देकर , युवाओं को पापकर्म करने से निवृत्त किया जा सके 3H  विकास के 5  अभ्यास का प्रशिक्षण देने के लिए " वार्षिक मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण कारी युवा प्रशिक्षण शिविर " का आयोजन किया जाय, तो स्त्री-अपमान, भ्रष्टाचार  आदि कोई समस्या नहीं रहेगी !] 

[" The attempt to remove evil from the world by killing a thousand evil-doers only adds to the evil in the world. But if the people can be made to desist from evil doing, by means of spiritual instruction, there is no more evil in the world. ] 

" वेदान्त-केसरी गर्जना करे [भारत माता के शेर दहाड़ना शुरू करें ] , सियार (गुरुगिरि करने वाले ढोंगी नेता ) बिलों में छिप जायेंगे। महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को सब ओर बिखेर दो और फल अपने आप होता रहेगा। भिन्न रसायनिक द्रव्यों को एक साथ डाल दो , उसकी सम्मिश्रण -क्रिया आप ही आप होती रहेगी। [भारत के राष्ट्रीय आदर्श - त्याग और सेवा में तीव्रता उत्पन्न कर दो -ब्रह्मवेत्ता मनुष्यों / सच्चे नेताओं का निर्माण आप ही आप होता हेगा  ! ९/380 ]

Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. Throw the ideas broadcast, and let the result take care of itself. Let us put the chemicals together; the crystallization will take its own course.]

" भारत को साम्यवादी या राजनीतिक विचारों का प्रचार -प्रसार करने के पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाये। सर्वप्रथम हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं , उन्हें उन सब ग्रंथों के पन्नों से बाहर निकालकर , मठों की चहारदीवारियों को भेदकर , वनों की शून्यता से दूर लाकर , कुछ सम्प्रदाय-विशेषों हाथों से छीनकर देश के गांव -गांव में सर्वत्र बिखेर देना होगा , ताकि वे सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों और से लपेट लें --उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जाएँ। " ५/११६ ]

First deluge the land with spiritual ideas. The first work that demands our attention is that the most wonderful truths confined in our Upanishads, in our scriptures, must be brought out from the books and scattered broadcast all over the land, so that these truths may run like fire all over the country from north to south and east to west.]

[" महामण्डल का उद्देश्य है - Welfare of India! भारत का कल्याण ! इसके लिए क्या करना होगा ?]

भारत के कल्याण के लिए , अपने राष्ट्र की  समस्त आध्यात्मिक शक्तियों की उस मूल उद्गम - एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति ' ( "That which exists is One; sages call Him by various names.") को ढूंढ़ निकलना होगा , जैसा कि अतीत काल में किया गया था और फिर चिर काल तक किया जायेगा। अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करना ही भारत में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। जिनके हृदय की धड़कन एक ही आध्यात्मिक धुन -Unity in Diversity  " अनेकता में एकता -भारत की विशेषता " -से बंधी हुई है , उन सबके सम्मिलन से ही भारत में राष्ट्रीय एकता स्थापित होगी ! " ५/२६२ ' " गुरु गोविन्द सिंह ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने हृदय का रक्त बहाया अपने पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मौत के घाट उतरते देखा - उन्हीं लोगों ने इन्हें त्याग दिया।उन्हें इस प्रदेश से हटना पड़ा। परन्तु अपने जीवन के अंतिम मुहूर्त तक उसने अपने उन कृतघ्न देशवासियों के प्रति कभी अभिशाप का एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला। यदि तुम सचमुच भारत का कल्याण करना चाहते हो , तो तुम में से प्रत्येक को गुरु गोविन्द सिंह /(नेता-जीवनमुक्त शिक्षक ) बनना पड़ेगा।५/२७१ / 

 " For our national welfare, we must first seek out at the present day all the spiritual forces of the race, as was done in days of yore and will be done in all times to come. National union in India must be a gathering up of its scattered spiritual forces. A nation in India must be a union of those whose hearts beat to the same spiritual tune.  every one of you will have to be a Govind Singh, if you want to do good to your country."

" सबसे पहले ' मनुष्य ' में विश्वास रखो , और तद्पश्चात यह विश्वास लाने का प्रयास करो कि यदि उसमें दोष है , यदि वह गलतियाँ करता है , यदि वह घृणित और आसार सिद्धान्तों को अपनाता है (गऊ हत्या करता है ?) , तो वह अपने वास्तविक स्वरूप के कारण वैसा नहीं करता , वरन उच्च आदर्शों को नहीं समझ पाने के कारण वैसा करता है। ... कमरे में यदि हजारों वर्षों से अन्धकार फैला है , तो क्या ' घोर अंधकार ' , भयंकर अंधकार !! कहकर चिल्लाने से अंधकार दूर  जायेगा ? नहीं , रौशनी जला दो फिर देखो अँधेरा अपने आप दूर होता है या नहीं ? मनुष्य में सुधार का , उसके संस्कार का यही रहस्य है। [मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर का यही रहस्य है।] अतः , मनुष्य-मात्र  में विश्वास रखो , चाहे वह पंडित हो , या घोर मूर्ख ; साक्षात् देवता जान पड़े या मूर्तिमान शैतान। ... यदि कोई व्यक्ति असत्य की ओर जाता है , तो उसका कारण यही है कि अभी वह अपने सत्यस्वरुप को ग्रहण करने योग्य नहीं बन सका है। यदि तुमने उसे सत्य का ज्ञान करा दिया , तो बस यहीं तुम्हारा काम समाप्त हो गया।  [ यदि 3H विकास विवेक-दर्शन के अभ्यास आदि द्वारा उसे इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान करा दिया ,  विवेकश्रोत को उद्घाटित करा दिया, {चार महावाक्यों की सत्यता का स्वानुभूत ज्ञान , उसे करा दिया ?} श्रवण-मनन-निदिध्यासन के द्वारा वेदों के चार महावाक्यों का बोध हो गया तो बस तुम्हारा काम यहीं समाप्त हो गया] -अब वह स्वयं उस सत्य के साथ अपने पूर्व भाव की तुलना करके देखे ! यदि तुमने वास्तव उसे सत्य का ज्ञान करा दिया है , तो निश्चय जानो उसका मिथ्याभाव अवश्य दूर हो जायेगा ! प्रकाश कभी अंधकार का नाश किये बिना नहीं रह सकता। [उसका व्यष्टि अहं माँ जगदम्बा के मातृहृदय के विराट अहंबोध में अवश्य रूपांतरित  जायेगा। .....प्रकाश (ज्ञान ) कभी अंधकार (अविद्या -अस्मिता ) का नाश किये बिना नहीं रह सकता ! सत्य स्वरुप का बोध उसके भीतर के सद्भावों [चरित्र के 24 गुणों को ] अवश्य प्रकाशित करेगा।  यदि सारे देश का आध्यात्मिक कल्याण करना चाहते हो ,  भारत का कल्याण करना चाहते हो ,तो उसके लिए यही रास्ता है - This is the way if you want to reform the country spiritually ! वाद-विवाद या गुटबाजी से कभी अच्छा फल नहीं हो सकता। किसी से भी यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जो तुम लोग तीन आदमी गुट बनाकर जो कुछ कर रहे हो , वह ठीक नहीं है , खराब है। जो कुछ अच्छा है , उसे उसके सामने रखदो , फिर देखो , वे कितने आग्रह से उसे ग्रहण करते हैं ! और फिर देखोगे मनुष्य मात्र में जो अविनाशी ईश्वरीय शक्ति है , वह दिव्यता - जो कभी मरती नहीं है ,...see how the divine that never dies,  वह अविनाशी विवेक-प्रयोग क्षमता -जाग्रत हो जाती है ! वह विवेक-श्रोत ही उद्घाटित हो जाता है, और जो कुछ श्रेय (शाश्वत या उत्तम) है , जो कुछ (all that is good, and all that is glorious. - त्याग और सेवा का भाव ) महिमामय है, मनुष्य उसे ही ग्रहण करने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ा देता  है।  { सच्चिदानन्द स्वरूप का साक्षात्कार होते ही , अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट अहंबोध या विवेक-श्रोत उद्घाटित होते ही ,  उसकी अंतर्निहित दिव्यता या  उसके भीतर अन्तर्निहित विवेक-प्रयोग क्षमता -(अच्छा - सुखद विवेक ,आँवला -ईमली विवेक , नित्य-अनित्य विवेक , good - pleasant discretion -उद्घाटित हो जायेगा तब)  श्रेय-प्रेय विवेक  उसके 24  सद्गुणों को अवश्य प्रकाशित करेगी।   अब स्वयं वह उस परम् सत्य (नित्य-निरपेक्ष सत्य -विराट अहंबोध ) के साथ अपने पूर्व भाव (सापेक्षिक सत्य मिथ्या अहं साथ -देहाध्यास , लीला ) की तुलना करके देखे , और ठाकुर की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे नित्य भी सत्य है, लीला भी सत्य है।  ब्रह्म भी सत्य लीला शक्ति भी सत्य है !} 

वे [अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव ] जिसे जानकर हमारे पूर्वज "  एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति " कह गए हैं , वह अपनी अनन्त प्रेम-शक्ति के साथ हममें प्रवेश करें, अपने शुभाशीर्वादों की हम पर वर्षा करें , हमें  एक दूसरे को समझने का सामर्थ्य दें , जिससे हम यथार्थ प्रेम के साथ , सत्य के प्रति तीव्र अनुराग के साथ [मोदी -ममता ] एक दूसरे के हित के लिए कार्य कर सकें , जिससे भारत के आध्यात्मिक पुनर्निर्माण के इस महत्कार्य में हमारे अंदर  व्यक्तिगत स्वार्थ , व्यक्तिगत बड़प्पन, अपने व्यक्तिगत नाम-यश की वासना के अंकुर न फूटें ! ५/२७५-७६ ]

Have faith in man, whether he appears to you to be a very learned one or a most ignorant one, whether he appears to be an angel or the very devil himself. Have faith in man first, and then having faith in man, believe that if there are defects in him, if he makes mistakes, if he embraces the crudest and the vilest doctrines, believe that it is not from his real nature that they come, but from the want of higher ideals… You give him the truth, and there your work is done. Let him compare it in his own mind with what he has already in him; and, mark my words, if you have really given him the truth, the false must vanish, light must dispel darkness, and truth will bring the good out… Put the good before them, see how eagerly they take it, see how the divine that never dies, that is always living in the human, comes up awakened and stretches out its hand for all that is good, and all that is glorious...... may He whom our forefathers knew and addressed by the words, एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति । — may He enter into us with His mighty love; may He shower His blessings on us, may He make us understand each other, may He make us work for each other with real love, with intense love for truth, and may not the least desire for our own personal fame, our own personal prestige, our own personal advantage, enter into this great work of me spiritual regeneration of India! THE COMMON BASES OF HINDUISM] 

" इस आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होकर ही हम जगत से ठीक ठीक प्रेम कर सकेंगे। यह जगत तो एक छोटे बच्चे के खिलौने के समान है। यह समझकर हमें जगत्प्रपंच की ओर सम्पूर्ण शान्त भाव से दृष्टिपात करना होगा। हम जब उसे समझ लेंगे तब जगत में कुछ भी क्यों न हो , वह हमें चंचल न कर सकेगा। केवल इन्द्रियों का ही नहीं , मन का भी समस्त सुख अनित्य है ; किन्तु हमारे अंदर ही वह निरपेक्ष सुख रहता है , जो किसी और के ऊपर निर्भर नहीं रहता। यह सुख पूरी तरह स्वायत्त और आनंदस्वरूप है। सुख के लिए अपनी अंतर्निहित आत्मा पर हम जितना निर्भर रहेंगे , उतना ही हम आध्यात्मिक होंगे।  हमें आनंद के लिए दुनिया पर निर्भर नहीं होना चाहिए। " देव वाणी ७/ १८]

" Stand upon the Self, then only can we truly love the world.It is but baby's play, and we know that, so cannot be disturbed by it.we must look with perfect calmness upon all the panorama of the world. All pleasures of the senses or even of the mind are evanescent but within ourselves is the one true unrelated pleasure, dependent upon nothing. It is perfectly free, it is bliss. The more our bliss is within, the more spiritual we are. The pleasure of the Self is what the world calls religion." TUESDAY, June 25, 1895.]

" तुम  मरणधर्मा नश्वर शरीर मात्र नहीं हो , तुमतो सर्वशक्तिमान , अजर -अमर अविनाशी आत्मा हो --तोप के मुँह तक यदि कभी जाना पड़ जाये ; तब बेधड़क होकर चले जाओ, जाओ तो डरो मत ! 

साहसी, जो चाहता है दुःख, मिल जाना मरण से।
नाश की गति नाचता है,माँ उसीके पास आयी।। 

[कविता काली माँ]

अति अधम -दुष्ट पापी [बेलघड़िया के तांत्रिक ] से भी घृणा मत करो ,उसके बाहर को मत देखो। दृष्टि को अन्तर्मुख करो ,जहाँ परमात्मा का निवास है ! तुरही की ध्वनि से विश्व को निनादित कर दो - ' तुममें कोई पाप नहीं है , तुममें कोई दुःख नहीं है , तुम परम् शक्ति के आगार हो ! उठो , जागो और भीतर के देवत्व को अभिव्यक्त करो !! 

[ उठो, हे सिंहों ! और इस भ्रम को झटक कर दूर फेंक दो कि तुम भेंड़  हो; तुम तो आत्मा हो - अजर, अमर, अविनाशी और मुक्त ! " ये डिविनिटीज़ ऑन अर्थ--सीनर्स ? इट इज़ अ सीन टू कॉल अ मैन सो; इट इज़ अ स्टैंडिंग लाइबल ऑन ह्यूमन नेचर. कम अप, ओ लॉयन्स ! एण्ड शेक ऑफ द डिलूज़न दैट यू आर शीप ! ] यदि कोई गीता का केवल एक श्लोक पढ़ता है - 

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
      क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।।

 हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे ! परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए [मन के संघर्ष करने के लिए ] खड़े हो जाओ।। .... तो उसे सम्पूर्ण गीता पाठ का लाभ होता है , क्योंकि इसी श्लोक में पूरी गीता का सन्देश निहित है। [गीता पर दादा के विचार /७/३२० ]

Thou art omnipotent — go, go to the mouth of the cannon, fear not.Hate not the most abject sinner, look not to his exterior. Turn thy gaze inward, where resides the Paramatman. Proclaim to the whole world with trumpet voice, “There is no sin in thee, there is no misery in thee; thou art the reservoir of omnipotent power. Arise, awake, and manifest the Divinity within!” If one reads this one Shloka —क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥ — one gets all the merits of reading the entire Gita; for in this one Shloka lies imbedded the whole Message of the Gita.THOUGHTS ON THE GITA]

 " केवल एक ही जीवन है , एक ही जगत है और वही हमलोगों के सामने अनेकवत प्रतीत होता है। यह अनेकता स्वप्न सदृश है। स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। स्वप्न में जो देखा जाता है , वह सत्य तो नहीं है। एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखाई पड़ता है,--विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं। उसी प्रकार यह जगत भी 90 % दुःखरूप और 10 % सुखरूप जगत जान पड़ता है। शायद कुछ दिनों बाद ही यह यह जगत 90 %सुख रूप प्रतीत होने लगे -तब हम साधारण लोग इसे स्वर्ग कहेंगे।किन्तु जब किसी साधक को माँ जगदम्बा की कृपा से सिद्धावस्था प्राप्त हो जाती है --[निर्विकल्प समाधि में अतीन्द्रिय सत्य की अनुभूति हो जाती है ?] उस अवस्था में यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड अन्तर्धान (vanishe-गायब, अदृष्ट , अलोप) हो जाता है। और शरीर में पुनः वापस लौटने के बाद यह जगत (Bh) और अपनी आत्मा साक्षात् ब्रह्मरूप अनुभव होती है। It is not therefore that there are many worlds; it is not that there are many lives. ' अतएव अद्वैत की दृष्टि से देखने पर जगत अनेक नहीं है (जातिभेद -Inequality/या  M/F विभाग भी नहीं है ), जीवन अनेक नहीं है। यह दृष्टिगोचर बहुत्व उस एकत्व की ही अभिव्यक्ति है।  All this manifoldness is the manifestation of that One. केवल वह 'एक ' ब्रह्म ही [काली माँ ] ही अपने को बहुरूप में - जड़ , चेतन , मन , विचार अथवा विविध रूपों में व्यक्त कर रहा है। अतएव हमलोगों का [महामण्डल के नेता /शिक्षकों का ] प्रथम कर्तव्य है - इस तत्व की शिक्षा अपने को तथा दूसरों को देना ! 

" There is only one life and one world, and this one life and one world is appearing to us as manifold. This manifoldness is like a dream. When you dream one dream passes away and another comes. You do not live in your dreams. The dreams come one after another, scene after scene unfolds before you.  So it is in this world of ninety per cent misery and ten per cent happiness. Perhaps after a while it will appear as ninety per cent happiness, and we shall call it heaven, but a time comes to the sage when the whole thing vanishes, and this world appears as God Himself, and his own soul as God. It is not therefore that there are many worlds; it is not that there are many lives. All this manifoldness is the manifestation of that One. That One is manifesting Himself as many, as matter, spirit, mind, thought, and everything else. It is that One, manifesting Himself as many. Therefore the first step for us to take is to teach the truth to ourselves and to others.(PRACTICAL VEDANTA/ PART I/ (Delivered in London, 10th November 1896)

" वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है, तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये , जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता तो उसकी बात कान में भी न पड़ने दो। कारण ,  यदि धर्म मनुष्य को जहाँ भी और जिस स्थिति में वह है , सहायता नहीं दे सकता , तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं - तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त बन कर रह जायेगा। धर्म/(शिक्षा)  यदि मानवता का कल्याण करना चाहता है , तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक दशा में --चाहे गुलामी हो या आजादी , घोर पतन हो या अत्यन्त पवित्रता , उसे सर्वत्र मानव की सहायता करने सकने में समानरूप से समर्थ होना चाहिए। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो - कृतार्थ हो सकेंगे । ८/१२ 

{"Be and Make Leadership Training " = =ब्रह्मविद मनुष्य-निर्माणकारी प्रशिक्षण ! बुद्धि वादी क्रांति ( rationalistic revolution)= तर्क बुद्धिपरक धर्म  (Rationalistic religion) =Humanatic Education = गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में मानवीय शिक्षण

Religion, to help mankind, must be ready and able to help him in whatever condition he is, in servitude or in freedom, in the depths of degradation or on the heights of purity; everywhere, equally, it should be able to come to his aid.The principle of Vedanta, or he ideal of religion, or whatever you may call it, will be fulfilled by its capacity for performing this great function." PRACTICAL VEDANTA/ PART I/ (Delivered in London, 10th November 1896)

भारत के के प्रबुद्ध युवाओ  के मस्तिष्क में इस तथ्य को बैठा देना होगा कि, भारत माता की साधारण गृहस्थ सन्तानों में से ,नेताजी सुभाष बोस , महर्षि अरविन्द , सुब्रह्मणियम भारती , रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि जैसे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने के लिए , 18 फरवरी (श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि ) , 22 दिसंबर ( या 5 जनवरी 2021 को माँ सारदा देवी की जन्मतिथि ) तथा  12 जनवरी (स्वामी विवेकानन्द की जन्मतिथि ) के अवसर पर महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय में केवल खिचड़ी -प्रसाद खिलाकर; भारत के जुड़वाँ राष्ट्रीय आदर्श " त्याग और सेवा " (Renunciation and Service) अर्थात  'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के प्रचार-प्रसार में तीव्रता नहीं लाई जा सकती है। स्वामी विवेकानन्द  कहते थे - "श्री रामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है ! " अतः  " निमित्त मात्र भव सव्यसाचिन " को ही अपना सम्बल बनाकर ,निःस्वार्थ कर्म ही पूजा है (Work as Worship) के मनोभाव के साथ, भारत के गांव-गांव में महामण्डल के " मनुष्य (ब्रह्मविद मनुष्य) -निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी आंदोलन' का प्रचार-प्रसार करने के लिए ' विवेकानन्द साप्ताहिक पाठचक्र ' की स्थापना एवं " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण (C-IN-C) परम्परा " में युवा-प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करना अनिवार्य है !

 अतः स्वामी जी की प्रेरणा से ही ग्राम रेवतीपुर , जिला गाजीपुर में  स्वामी विवेकानन्द लाइब्रेरी, के संस्थापक सचिव शिवम् चौबे द्वारा प्रत्येक रविवार को  शिव-मंदिर में जो 'साप्ताहिक हनुमान चालीसा पाठ ' का आयोजन किया जा रहा है। इसमें लगभग 60 बच्चे प्रत्येक रविवार को भाग लेते हैं। 31 जनवरी 2021 से 'स्टोरी टेलिंग एक्टिविटी ' का प्रारम्भ हुआ है।जिसमें देश के किसी महान व्यक्तित्व के बारे बताया जाता है , फिर उनके चारित्रक गुणों के विषय में उनसे प्रश्न किया जाता है। अगले रविवार से उनको " बच्चों के विवेकानन्द , श्री रामकृष्ण , बच्चों की माँ सारदा ' आदि पुस्तिकाएं उनसे ही पढ़वाई जाएँगी , उनके जीवन में घटित एक -एक प्रसंग पर वे परस्पर चर्चा करेंगे कि उस प्रसंग से उनको क्या शिक्षा मिलती है। फिर उसकी रिपोर्ट वे प्रति सप्ताह महामण्डल के ' अंतर्राज्यीय मॉनिटरिंग कमिटी ' के सचिव को भेजेंगे।

स्वामी विवेकानन्द लाइब्रेरी , रेवतीपुर , गाजीपुर को महामण्डल केन्द्रीय कार्यालय से जुड़ने के लिए सबसे  पहले कार्यकारिणी समिति बनाकर , स्वदेशमन्त्र और संघमन्त्र के साथ विधिपूर्वक महामण्डल की ' विवेक वाहिनी ' के उद्देश्य और कार्यक्रम पुस्तिकाओं पर आधारित 'साप्ताहिक हनुमान चालीसा पाठ ' का आयोजन  करना चाहिए।  तथा  महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय में अपनी गतिविधियों की साप्ताहिक / मासिक रिपोर्ट भेजनी चाहिए। ताकि आगे चलकर वह महामण्डल की एक शाखा के रूप में केन्द्रीय कार्यालय, कोलकाता  द्वारा पंजीकृत हो सके।  

क्योंकि  " रामायण के पात्र-पात्रियों में से हनुमान जी पर स्वामीजी की अगाध भक्ति थी। संन्यासी होने पर भी कभी कभी महावीर जी का प्रसंग कहते कहते आवेश में आ जाते थे और अनेक बार मठ में महावीरजी की एक प्रस्तर मूर्ति रखने का संकल्प करते थे। " (विवेकानन्द साहित्य खण्ड ६/पृष्ठ ८५) 

स्वामी कहते थे - " अब देश को उठाने के लिए महावीर हनुमान की पूजा चलानी होगी, शक्ति की पूजा चलानी होगी , श्री रामचन्द्र की पूजा घर घर में करनी होगी।  तभी तुम्हारा और देश का कल्याण होगा। दूसरा कोई उपाय नहीं। " (विवेकानन्द साहित्य खण्ड ६६/पृष्ठ १३८)      

" अब प्रयोजन है गीता के सिंहनादकारी श्री कृष्ण की , समुद्र को भी सूखा देने की क्षमता रखने वाले धनुषधारी श्रीरामचन्द्र की , महावीर हनुमान की , तथा माँ काली  की पूजा को सार्वजनिक बना देने की ! इसी से लोग महा उद्यम के साथ कर्म में लगेंगे और शक्तिशाली बनेंगे। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड ६/पृष्ठ १७)  " (अब प्रयोजन है उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों ,  विशेष रूप से बनारस, अयोध्या में 'साप्ताहिक हनुमान चालीसा पाठ ' के आयोजन द्वारा अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव के जीवन और  शिक्षाओं को सार्वजनिक बना देने की !) 

" मेरी अब एकमात्र इच्छा यही है कि देश को जगा डालूँ [ Awakened India या  प्रबुद्ध भारत ' बना डालूँ]   -- मानो महावीर हनुमान अपनी शक्तिमत्ता पर विश्वास खोकर सो रहे हैं - बेखबर होकर - शब्द नहीं हैं ? सम्पूर्ण भारतवर्ष को सनातन धर्म के भाव में (अद्वैत वेदान्त के महावाक्यों के अनुरूप )  किसी प्रकार जगा सकने से समझूँगा कि श्री रामकृष्ण तथा हम लोगों का आना सार्थक हुआ। " ६/१६०
 {.... हनुमान जी की इसी अवस्था को देखते हुए , जामवन्त जी को, समुद्र लांघने के समय कहना पड़ा था :--  -- 
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ? 
पवन तनय बल पवन समाना। बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना।।
 
 ... कौन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
 राम काज लगि तव अवतारा ....  सुनते ही भयउ पर्वताकारा
 
ऋक्षराज जाम्बवान ने श्री हनुमान जी से कहा- हे हनुमान्‌ ! हे बलवान्‌ ! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो। जगत में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री राम जी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान जी पर्वत के आकार के (अत्यंत विशालकाय) हो गए॥
  
" परन्तु पुरुषकार चाहिये। पुरुषकार [चौथा पुरुषार्थ ] क्या है , जानता है ? ... आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा , [ऋषि या ब्रह्मविद मनुष्य बनकर ही रहूँगा ] इसमें जो बाधा -विपत्ति सामने आयेगी , उस पर अवश्य ही विजय प्राप्त करूँगा - इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम ही पुरुषकार है। माँ , बाप , भाई , मित्र , स्त्री , पुत्र मरते हैं तो मरें , यह देह रहे तो रहे , न रहे तो न सही , मैं किसी भी तरह से पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मदर्शन नहीं होता , तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरूषकार!...  नहीं तो दूसरे पुरुषकार (आहार ,निद्रा, भय , मैथुन) तो पशु -पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्य ने इस सर्वश्रेष्ठ मानव-देह को (विवेक-प्रयोग क्षमता सम्पन्न देह को ] प्राप्त किया है , केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए। .... संसार में अधिकांश लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, क्या तू भी उसी स्रोत (आहार-निद्रा -भय -मैथुन ) में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार (मनुष्यत्व-उन्मेषकारी प्रशिक्षण-शिविर ) का मूल्य क्या है? ....सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है ! महावीर हनुमान की तरह अग्रसर हो जा। किसी की परवाह न कर। 
कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्त किया है तो भीतर की आत्मा को जगा, और बोल - ' मैंने मृत्यु के भय को जीत लिया है, मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है।' बोल - मैं वही आत्मा हूँ जिसमें मेरा क्षुद्र 'अहं भाव ' डूब गया है ! [अर्थात मेरा क्षुद्र व्यष्टि अहं, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरित हो चुका है !] 
इसी तरह पहले तू सिद्ध (जीवन्मुक्त शिक्षक/प्रशिक्षित नेता) बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महवीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत !" ('तू वही है', 'उठो, जागो और लक्ष्य (विवेकज-आनन्द) प्राप्त करने तक रुको नहीं / यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में एक सच्चा 'पूर्वी बंगाली' है ! ( -বাঙ্গাল /C-IN-C नेता/भ्रममुक्त शिक्षक) है !"    6/179] {अर्थात 'विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित-शिवम् चौबे एक सच्चा गाजीपुरिया है !
शिष्य -महाराज , कभी कभी (नारियों से पाठ चर्चा करते समय ?) न जाने कैसे  दुर्बलता और साहस शून्यता महसूस करने लगता हूँ।
स्वामीजी - " उस समय ऐसा सोचकर -' मैं किसकी सन्तान हूँ - माँ सारदा का ! उनका पुत्र होकर भी ऐसी दुर्बलता तथा साहस हीनता ? उस दुर्बलता और साहस-हीनता के मस्तक पर लात मारकर , मैं वीर्यवान हूँ - मैं मेधावान हूँ , मैं ब्रह्मविद हूँ !  मैं प्रज्ञावान हूँ ! ----कहता कहता वहाँ से उठखड़ा हो[दादा -R U a beast ? মনে করবি তুমি এক জন শ্যীক্ষক !]
" मैं  कामिनी -कांचन में आसक्ति का त्याग करने की शिक्षा देने वाले श्री रामकृष्ण [के साथी स्वामी विवेकानन्द के साथी कैप्टन सेवियर के अवतार अपने प्रकाशस्तम्भ जैसे मार्गदर्शक नेता C-IN-C नवनीदा] का डायरेक्ट शिष्य हूँ, साथी हूँ !" इस प्रकार की श्रद्धा /अभिमान रखेगा तभी कल्याण होगा। जिसे ऐसी श्रद्धा नहीं , उसके भीतर ब्रह्म नहीं जागता।  रामप्रसादि गाना नहीं सुना ? .... वे गाते थे - " मैं , जिसकी माता हैं - माँ महेश्वरी [जगतजननी , जगदम्बा माँ सारदा] - वह मैं ' इस संसार में भला किस से डर सकता हूँ ? इस प्रकार की श्रद्धा सदैव मन में जाग्रत रखना होगा।  
 तब फिर दुर्बलता , साहस हीनता पास नहीं आएगी। कभी भी मन में दुर्बलता न आने देना। महावीर हुनमान जी का स्मरण किया कर , महामाया का स्मरण किया कर [अर्थात्त मायातत्व - तीन गुण और दो शक्ति का आदरपूर्वक स्मरण किया कर ! ] --देखेगा , सब दुर्बलता , सारी कापुरुषता उसी समय चली जाएगी ! " ( विवेकानन्द साहित्य खण्ड ६/पृष्ठ १९७ )
 शिष्य - हमारे लिए इस समय किस आदर्श को ग्रहण करना उचित है ?
स्वामी जी - " महावीर हनुमान के चरित्र को ही तुम्हें इस समय आदर्श मानना पड़ेगा। देखो न , वे राम की आज्ञा से समुद्र लांघकर चले गए ! जीवन-मृत्यु की परवाह कहाँ ? महाजितेन्द्रिय , महाबुद्धिमान , दास्य-भाव  के उस महान आदर्श से तुम्हें अपना जीवन गठित करना होगा। वैसा करने पर दूसरे भावों का विकास स्वयं ही जायेगा। दुविधा (dilemma- भंवरजाल , असमंजस ) छोड़कर अपने प्रकाशस्तम्भ जैसे मार्गदर्शक नेता (गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक) की आज्ञा- 'Be and Make ' का पालन और ब्रह्मचर्य की रक्षा - यही है सफलता का रहस्य  ! नान्या पन्थाः विद्यते अयनाय ,  अवलंबन करने योग्य और दूसरा पथ नहीं। 
" एक ओर हनुमान जी के जैसा सेवा भाव और दूसरी ओर उसी प्रकार त्रैलोक्य को भयभीत कर देने वाला सिंह जैसा विक्रम ! राम के हित के लिए उन्होंने जीवन तक विसर्जन कर देने में कभी जरा भी संकोच नहीं किया। [घट-घट में विराजित ....] राम की सेवा के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों के प्रति उपेक्षा। यहाँ तक कि ब्रह्मत्व , शिवत्व प्राप्ति के प्रति उपेक्षा ! केवल रघुनाथ के उपदेश का पालन ही जीवन का एकमात्र व्रत ! --उसी प्रकार एकनिष्ठ होना चाहिए। 
" खोल, मृदंग, करताल बजाकर उछल-कूद मचाने से देश पतन के गर्त में जा रहा है...कामगन्धविहीन उच्च साधना (रासलीला-होली) का अनुकरण करने जाकर देश घोर तमोगुण से भर गया है. देश-देश में, गाँव-गाँव में -जहाँ भी जायेगा, देखेगा खोल-करताल ही बज रहे हैं. दुन्दुभी-नगाड़े क्या देश में तैयार नहीं होते ? तुरही-भेरी क्या भारत में नहीं मिलती ? वही सब गुरु गम्भीर ध्वनी लड़कों को सुना.   बचपन से ही जनाने बाजे सुन सुन कर, कीर्तन सुन सुनकर, देश स्त्रियों का देश बन गया है. इससे अधिक और क्या अधः पतन होगा !..डमरू-श्रृंग बजाना होगा, नगाड़े में ब्रह्मरूद्र ताल का दुन्दुभी नाद उठाना होगा, 'महावीर हनुमान की जय ' महावीर -महावीर की ध्वनि तथा 'हरs  हरs महादेव !'' शब्द से दिग्दिगंत कम्पित कर देना होगा। जिन सब गीत-वाद्यों से मनुष्य के हृदय के कोमल भावसमुह उद्दीप्त हो जाते हैं, उन सबको थोड़े दिनों के लिए अब बन्द रखना होगा. ख्याल टप्पा बन्द करके ध्रुपद का गाना सुनने का अभ्यास लोगों को कराना होगा. वैदिक छन्दों के उच्चारण से देश में प्राण-संचार कर देना होगा. सभी विषयों में वीरता की कठोर महाप्राणता लानी होगी. इस प्रकार के आदर्श (रामदूत अतुलित बलधामा नेता) का अनुसरण करने पर ही इस समय जीव का तथा देश का कल्याण होगा। यदि तू ही अकेला इस भाव के अनुसार अपने जीवन को तैयार कर सका तो तुझे देखकर हजारों लोग वैसा करना सिख जायेंगे. परन्तु देखना, आदर्श से कभी एक पग भी न हटना ! कभी साहस न छोड़ना ! खाते, सोते, पहनते, गाते, बजाते, भोग में, रोग में सदैव तीव्र उत्साह एवं साहस का ही परिचय देना होगा, तभी तो महाशक्ति [आवरण +विक्षेप शक्ति ? ] की कृपा होगी !! "(६/१९६-९७) 

{2. स्कूल में किसी सहपाठी (Classmate: कृष्ण-सुदामा या एक ही वर्ग के साथी सदस्य) के बीच स्नेह का एक अपरिवर्तनीय बंधन (An Irrevocable Bond of affection *2) with a classmate or fellow member of same class at school.)]   :
सांदीपनि आश्रम (
जैसे उज्जैन में स्थापित है , वैसे ही कैप्टन सेवियर द्वारा अद्वैत आश्रम , मायावती , अल्मोड़ा , हिमालय में स्थापित है ) :  (मनःसंयोग विद्या के श्रेष्ठतम आचार्य ) योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने अग्रज बलराम और सखा सुदामा के साथ लगभग 5,000 वर्ष पूर्व तपोनिष्ठ महर्षि सांदीपनि के श्रीचरणों में बैठकर जो शिक्षा-संस्कार प्राप्त किए थे, वे ही कालान्तर में श्रीमद्भगवद्गीता की ज्ञानगंगा के रूप में प्रस्फुटित हुए। आश्रमों में अध्ययन-व्यवस्था  "इंटर्नशिप प्रशिक्षण पद्धति" ( Internship training method :अनिवार्य गुरुगृह वास की प्रशिक्षण पद्धति) अत्यंत अनुशासित थी जिनमें गुरु-शिष्य एक साथ रहते थे और शिष्य गुरु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होता था। शिष्य का यह पावन कर्तव्य था कि वह गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए उनको  सदैव प्रसन्न रखे। यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद ही आश्रम में प्रवेश मिलता था तथा शिष्यों को आश्रम व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मचर्य के नियमों का पालन करना होता था। यहां विद्यार्थियों की अन्तर्निहित क्षमताओं को विकसित करने की शिक्षा के साथ-साथ उसकी बहुमुखी मेधावी क्षमताओं को भी गुरु तराशते थे। गुरु अपने शिष्य में ज्ञान (आत्मज्ञान)  के साथ विनय का समावेश कर अहंकार-रहित शिक्षा को जीवन में उतारने की शाश्वत शिक्षा देता था।

भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने सर्वज्ञानी होने के बाद भी सांदीपनि ऋषि के आश्रम में रहते हुए उनसे शिक्षा ग्रहण की और ये साबित किया कि कोई इंसान कितना भी प्रतिभाशाली या गुणी क्यों न हो, उसे जीवन में फिर भी एक गुरु की आवश्यकता होती ही है। " विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मं ततः सुखम्॥ " विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता [नेता /शिक्षक बनने और बनाने (Be and Make )की पात्रता] अर्थात " सज्जनता "  आती है! पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।"  के सिद्धान्त -अनुसार श्रीकृष्ण ने भी उसी परम्परा का निर्वहन किया और "इंटर्नशिप प्रशिक्षण पद्धति" अर्थात "अनिवार्य गुरुगृह वास की प्रशिक्षण व्यवस्था" में संचालित " प्रबुद्ध भारत युवा प्रशिक्षण शिविर " (Awakened India Youth Training Camp)  में रहते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने भी महर्षि सांदीपनि एवं गुरुमाता की विनम्रतापूर्वक सेवा-सुश्रुषा करते हुए अपने गुरु से ज्ञान के साथ विनयशीलता भी अर्जित की थी । 

पूरा संसार जब अज्ञान, अशिक्षा एवं अंधकार में भटक रहा था तथा आज के कई आधुनिक माने जाने वाले राष्ट्रों का अभ्युदय तक नहीं हुआ था, तब भारत की ह्मदयस्थली उज्जयिनी में स्थापित महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल अपने उत्कर्ष पर था।  इक्कीसवीं सदी के विश्वप्रसिद्ध सिंहस्थ महापर्व की आयोजनस्थली उज्जयिनी प्राचीन काल से शिक्षा का एक केन्द्र रही है। शिक्षास्थली के रूप में यह नगरी नालन्दा और काशी के पूर्व से स्थापित रही है।   आश्रम में ज्ञान प्राप्त करने आये विद्यार्थियों को तभी प्रवेश मिलता था, जब वे गुरु को गोत्र परम्परा के साथ अपना पूरा परिचय देते थे। सिंहस्थ के दौरान यह सारा क्षेत्र सजीव हो उठता है। उस समय यहां गुरुओं के सान्निध्य में उनके सुयोग्य शिष्य साधना, अध्ययन-मनन एवं शिक्षा प्राप्त करते हुए सहज रूप से देखे जा सकते हैं। तब लगता है कि  गुरु-शिष्य परम्परा का यह शैक्षणिक महातीर्थ पुन: सजीव हो उठा है।  

सिंहस्थ क्या है? सिंहस्थ भारतीय सांस्कृतिक विविधता के आयोजन की एक प्राचीन परम्परा है। भारतीय संस्कृति, आस्था ओर विश्वास के प्रतीक कुंभ का उज्जैन के लिये केवल पौराणिक कथा का आधार ही नहीं, अपितु काल चक्र या काल गणना का वैज्ञानिक आधार भी है। भौगोलिक दृष्टि से अवंतिका-उज्जयिनी या उज्जैन कर्क-अयन एवं भूमध्य रेखा के मध्य बिंदु पर अवस्थित है।भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण दर्शन कहाँ होते हैं? इस प्रश्न का सर्वाधिक निर्विवाद उत्तर है- मेले और पर्व। सिंहस्थ महापर्व के अवसर पर उज्जैन का धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व स्वयं ही कई गुना बढ़ जाता है। साधु-संतों का एकत्र होना, सर्वत्र पावन स्वरों का गुंजन, वैदिक मंत्रों के शब्द एवं स्वर-शक्ति का आध्यात्मिक  प्रभाव यहाँ प्राणी मात्र को अलौकिक शांति प्रदान करता है।

  सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरू (बृहस्पति) के प्रवेश होने पर उज्जैन में महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु के  प्रवेश का योग प्रत्येक 12 वर्ष पश्चात ही आता है।   इसके आयोजन के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित है। सबसे अधिक प्रचलित कथा समुद्र -मंथन की है। इस पौराणिक समुद्र मंथन की कथा के अनुसार देवताओं और दानवों ने मिल कर समुद्र मंथन किया और अमृत कलश प्राप्त किया। अमृत को दानवों से बचाने के लिए देवताओं ने इसकी रक्षा का दायित्व बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि को सौंपा। देवताओं के राजा इन्द्र का  पुत्र जयन्त जब अमृत कलश लेकर भागे, तब दानव उनके पीछे लग गये। अमृत को पाने के लिए देवताओं और दानवों में भयंकर संग्राम छिड़  गया। यह संग्राम बारह दिन चला। देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। इस प्रकार यह युद्ध बारह वर्षों तक चला। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश को पाने की जद्दोजहद में अमृत कलश (सद्गुरु)  की अमृत -बून्दें (वेदान्त के चार महावाक्य ) इस धरा के चार स्थानों हरिद्वार , प्रयाग, नासिक और उज्जैन में टपकी। पौराणिक मान्यता है कि अमृत कलश से छलकी इन अमृत - बूंदों से इन चार स्थानों की नदियां  गंगा, यमुना, गोदावरी और शिप्रा अमृतमयी हो गई। अमृत बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरू की स्थिति के विशिष्ट योग  के अवसर रहते हैं, वहां कुंभ पर्व का इन राशियों में ग्रहों के संयोग के समय पर  आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरू और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं ग्रहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व  (14 अप्रैल, 1986 हरिद्वार कुम्भ का महेन्द्र योग ** (राजयोग ) पर ?) मनाने की परम्परा है।  धार्मिक दृष्टि से सिंहस्थ महापर्व की अपनी महिमा है, परंतु इसके समाजशास्त्रीय महत्व से भी इंकार नहीं किया जा सकता। सिंहस्थ सामाजिक परिवर्तन और नियंत्रण की स्थितियों को समझने और तदनुरूप समाज निर्माण का एक श्रेष्ठ अवसर है। सही अर्थों में इसे “द्वादश वर्षीय जन सम्मेलन” कहा जा सकता है। 

सिंहस्थ कुंभ महापर्व भारतीय नागरिकों में धार्मिक व आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का एक महापर्व है। धार्मिक जागृति -  (मेष को अपने सिंह स्वरुप की स्मृति लौट आने पर उसका मोह नष्ट हो जाता है) अर्थात यथार्थ स्वरुप में जागृति द्वारा  त्याग, सेवा, उपकार, प्रेम, सदाचरण, अनुशासन, अहिंसा, सत्संग, भक्ति-भाव अध्ययन-चिंतन, परम शक्ति में विश्वास, मानवता और सन्मार्ग आदि आदर्श गुणों को स्थापित करने वाला पर्व है।  क्योंकि जो सिंह -शावक होकर भी भेंड़ों झुण्ड में रहने के कारण अपने को भेंड़ समझने लगता है ,  उसे इस भ्रम या सम्मोहन से जगाने के लिए ही - स्वामी विवेकानन्द को धरती पर अवतरित होना पड़ा था। 

ठीक महर्षि सांदीपनि - श्री कृष्ण वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा (इंटर्नशिप प्रशिक्षण पद्धति)  में राजर्षि (राजयोगी ) स्वामी विवेकानन्द भी  अपने गुरु श्री रामकृष्ण देव  के द्वारा काशीपुर उद्यान वाटि में 'अष्टावक्र गीता' (उपनिषद और वेदान्त सूत्र ) में आधारित ब्रह्मविद्या-(मनःसंयोग) के मानवतावादी प्रशिक्षण (Humanistic Education) अर्थात ' विद्या ददाति विनयं ' परम्परा में पढ़ाई नहीं, सीखने और सिखाने वाली शिक्षा-व्यवस्था  में प्रशिक्षित हुए थे। और श्री रामकृष्ण अपने युवा शिष्यों को जैसे बाघ की कहानी सुनाते थे , वैसे ही स्वामी विवेकान्द भी अपने पाश्चात्य शिष्यों को ( कैप्टन सेवियर और सिस्टर निवेदिता आदि को ) "सिंह-शावक " की कहानी सुनाते हुए कहते थे - ......

" यह आपातप्रतीयमान व्यक्तित्व वास्तव में भ्रम मात्र है; इस भ्रमात्मक व्यक्तित्व में आसक्त रहना अत्यन्त नीच कार्य है। आत्मत्याग का अर्थ है ,  इस मिथ्या अहं या मिथ्या 'व्यक्तित्व ' का त्याग एवं उससे जुडी सब प्रकार की स्वार्थपरता का त्याग। यह मिथ्या अहंकार और ममता पूर्व कुसंस्कारों का फल है और जितना ही इस 'व्यक्तित्व ' का त्याग होता जाता है , उतनी ही आत्मा अपने नित्य स्वरुप में , अपनी पूर्ण महिमा में अभिव्यक्त होती है।"आत्मा के ज्ञान के बिना जो कुछ भौतिक ज्ञान (डिग्री या पोस्ट ) अर्जित किया जाता है , वह सब आग में घी डालने के समान है। उससे दूसरों के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर देने की बात तो दूर रही , स्वार्थपर व्यक्तियों को दूसरों की चीजें हड़प लेने , दूसरों के रक्त पर फलने-फूलने का एक और हथियार , एक और सुविधा मिल जाती है। ... हम तो क्षुद्र शरीर मात्र हैं , हमने जन्म लिया है हम मरेंगे , इन्हीं विचारों से हमने अपने आप को एकदम सम्मोहित कर रखा है , और इसीलिए हम सर्वदा 'मृत्यु भय' से काँपते रहते हैं। 

 " एक सिंहनी जिसका प्रसव-काल निकट था, एक बार अपने शिकार खोज में बाहर निकली। उसने दूर एक भेडों के झुण्ड को चरते देख, उनपर आक्रमण करने के लिये ज्यों ही छलाँग मारी, त्यों ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह-शावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ों की भाँति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भाँति, ' में-में ' करने लगा। और यद्दपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली, पूर्ण विकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था।

इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेडों के बीच एक सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भाँति डरकर भगा जा रहा है। तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिये बढ़ा की तू सिंह है, भेड़ नहीं। और ज्यों ही वह आगे बढ़ा, त्यों ही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ वह ' भेड़-सिंह ' भी। जो हो, लेकिन उस बड़े सिंह ने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरुप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। अब  वह यह पता लगाने लगा कि वह भेंड़ -सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है ? 

 एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, " अरे, तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वाभाव कैसे भूल गया ? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है। " भेड़-सिंह बोल उठा, " क्या कह रहे हो ? मैं तो भेड़ हूँ, सिंह कैसे हो सकता हूँ ? उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भाँति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक शान्त-सरोवर (चित्त-नदी) के किनारे ले गया और बोला, " यह देख, अपना प्रतिबिम्ब, और यह देख, मेरा प्रतिबिम्ब। " और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा।  तब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा माँस भी लाकर खिला दिया, घास-पात की जगह मांस के स्वाद को चखते ही उसे बोध हो गया। तब क्षण भर में ही वह जान गया कि ' सचमुच, मैं तो सिंह ही हूँ ! ' तब वह सिंह गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया ! 

इसी प्रकार तुम सब सिंह हो- तुम आत्मा हो, अनन्त और पूर्ण हो। विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है।  ' हे सखे, तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसे पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा। 

हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं।  किसी मार्ग में एक ठूँठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेदार है। अपने प्रेमिका की बाट जोहने वाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा। इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्दपि उसे भिन्न भिन्न  में देखा, तथापि वह एक ठूँठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। "२/१५- १९  ]

" भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।".... हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। 

              एक भाव को पकडो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रहते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य तत्त्व का उन्मेष होता है।...एक विचार लो उसी विचार को अपना जीवन बनाओ उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ। सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढो। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना (Be and Make?)  चाहें, तो हमे मन की गहराई तक जाना पड़ेगा। पुरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फ़िर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ! " (१:८९-९०)

 " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४०)

  [ महेन्द्र योग ** 30  दिसंबर 2005 में आयोजित सरिसा कैम्प में मनःसंयोग (राजयोग ) का अंतिम क्लास पूज्य नवनीदा ने बंगला भाषा में ही लिया था, तथा कक्षा की शुरुआत करते हुए कहा था- 'आज शीपेर मुखे पड़बे अमृत बिन्दु '-- अर्थात 'आज सीपियों के मुख में अमृत बिन्दु गिरेगा।' सीपियों को यह मालूम होता है, कि स्वाति नक्षत्र कब उदित होगा, (अर्थात मेष राशि सूर्य और सिंह राशि में गुरु कब आएगा, कब सिंहस्थ होगा ? ) उस समय वे समुद्र की सतह पर आ जाती हैं, और मुँह खोल कर स्वाति-नक्षत्र (गुरु नवनीदा ) के अमृत -बून्दों (मनःसंयोग क्लास ) की प्रतीक्षा करती रहती हैं।  

ठीक उसी सिंहस्थ होने की परम्परा में माँ जगदम्बा की इच्छा से ही अद्वैत आश्रम ,मायावती, अल्मोड़ा , हिमालय के प्रतिष्ठाता कैप्टन सेवियर को भुवन-भवन , बलराम धर्म सोपान, खड़दह  के एक उच्च ब्राह्मण कुल में, श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के रूप में  पुनः 1931 में जन्म लेना पड़ा। और ठाकुर-माँ के आशीर्वाद से तथा  स्वामीजी की इच्छा से 1967 में महामण्डल को बंगाल में और 1988 में बिहार में, और 2021 में "रेवतीपुर साप्ताहिक हनुमान चालीसा पाठ " को गाजीपुर (बनारस) में आविर्भूत होना पड़ा है ! 

क्योंकि "पूज्य नवनीदा" (या गुरुदेव ) का " अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव, जगतजननी माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द " के साथ  जन्मजन्मानतर से जैसा अपरिवर्तनीय मधुर सम्बन्ध  चला आ रहा था ( नवनीदा पूर्व जन्म में कैप्टन सेवियर थे , और इस जन्म में उनका जन्म अपनी 'पर- पितामही ( ददिहाल में हुआ -अर्थात महिमाचरण चक्रवर्ती के उस घर में हुआ जिसमें ठाकुर और स्वामी जी के चरण पड़े थे , और जन्म लेते ही माँ श्री सारदा देवी का चरणामृत उनको पिला दिया गया था। इसीकारण ), नवनीदा के माध्यम से " ठाकुर-माँ -स्वामीजी " के प्रति- वह मधुर सम्बोधन ; मेरा और मेरे परिवार से जुड़े सदस्यों के लिए केवल 1987 से 2016 तक ही नहीं; जन्म-जन्मान्तर पर्यन्त, अनंतकाल तक-अटूट बना रहने वाला एक -अपरिवर्तनीय, अचल भक्ति (irrevocable devotion) का बंधन - (मधुर सम्बन्ध) बन गया ! स्वामीजी के द्वारा 1895 में उल्लेखित इस आध्यात्मिक खजाने के आदान-प्रदान की अनिवार्यता के महत्व को समझाने के लिए ही महामण्डल पुस्तक " जीवन नदी के हर मोड़ पर " में इन समस्त घटनाओं का उल्लेख किया गया है ! 

इसलिये स्वामीजी 12 जनवरी 1985 को तथा 14 अप्रैल ,1986 के कुम्भ मेले में (बाबा सबसुख दास, सहारनपुर के संन्यासी ,महेन्द्र योग में गंगा स्नान के समय सूक्ष्म शरीर में ) मुझसे  पहली बार मिले थे , और उनके द्वारा ही पूर्व जन्म में प्रशिक्षित उनका शिष्य कैप्टन सेवियर इस जन्म में नवनीदा बनकर मुझसे 25 से 30 दिसंबर 1987 के दौरान  इस अपनत्व के साथ मिले कि, उनके लिये " नवनीदा" सम्बोधन  - मेरे लिए , मेरे बेटे, और मेरे बेटे तुल्य रजत, अजय अग्रवाल , अजय पण्डे , रामचन्द्र मिश्र ,  धर्मेन्द्र सिंह ,  जयप्रकाश , धनेश्वर , दयानन्द , उपेन्द्र , आनन्द , गजानन्द, सुदीप विश्वास तथा गाजीपुर के शिवम् चौबे  के लिए भी " नवनीदा "  बन गए।  

 ठीक उसी प्रकार " श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द  वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परंपरा " अर्थात भारत माता की बलिवेदी पर अपने प्राणों को भी न्योछावर कर देने की तमन्ना रखने वाले अमर सेनानि (कभी न मरने वाले वीरों -Heroes) की  परम्परा ,  " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर  Be and Make नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा " , अथवा  ' विवेकानन्द - सुभाष चन्द्र बोस  परम्परा'   में प्रशिक्षित नेता (जीवनमुक्त वेदान्त शिक्षक, युवा प्रशिक्षण-शिविर के 'C-IN-C ' ) एवं महामण्डल के संस्थापक सचिव " आचार्य  नवनीदा"  का स्मरण करते ही ,  "महामंडल स्कूल " या 'विवेकानन्द युवा-पाठचक्र' में  प्रशिक्षित 'Classmate'  या एक राज्य (बंगाल ) से दूसरे राज्य में ( - उड़ीसा , बिहार, झारखण्ड , यूपी , एमपी , आंध्र , गुजरात  में) वेदान्त का प्रचार (महावाक्यों का आदान-प्रदान) करने में निष्ठा के साथ जुड़े हुए सभी सदस्यों,  को  इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। इसीलिए भारत के भावी नेताओं अर्थात 'आध्यात्मिक खजानों '(Spiritual treasures * )  -- के बीच परस्पर 'दादा ' के सम्बोधन रूपी स्नेह का एक अपरिवर्तनीय बंधन ( An Irrevocable Bond of affection *) भी स्थापित हो  जाता है ! अतः  महामण्डल में प्रशिक्षित समस्त भावी नेताओं, जीवनमुक्त शिक्षकों (प्रशिक्षकों) के बीच भी  ' दादा ' (भैया ) शब्द से  प्यार भरा जो मधुर सम्बोधन होगा एवं वह सम्बोधन एक अपरिवर्तनीय (Irrevocable Bond) सम्बन्ध होगा। अर्थात ठाकुर-माँ- के आशीर्वाद  से और स्वामीजी की इच्छा से यह सम्बन्ध अनंत काल तक बना रहने वाला अपरिवर्तनीय  नियम बन जायेगा ! उस अपरिवर्तनीय और अनंतकाल तक बने रहने वाले सम्बन्ध का तात्पर्य यह होगा कि   'प्रिय दादा -- आचार्य नवनीदा ' को महामण्डल का वर्तमान और भावी अध्यक्ष-उपाध्यक्ष , जेनरल सेक्रेटरी भी [C-IN-C *** =नेताजी  ] नवनीदा कहेगा और उसका बेटा भी नवनीदा को नवनीदा ही कहेगा। जैसे हमारे माँ-बाप भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को सिर्फ नेताजी ही कहते हैं! अथवा जैसे काली माँ को सिर्फ  'माँ ' और शिव जी को 'पिता' कहते हैं ! और हमलोग समझ जाते हैं कि यह सम्बोधन किनके लिए किया जा रहा है ? उसी प्रकार  'विवेकानन्द युवा पाठचक्र ' (भावी फिदायीन ब्रिगेड - would be Leaders of  Self-sacrifice brigade) के सभी सदस्य अपने भावी नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) को (C-IN-C को)  प्रिय दादा (भैया) 'नवनीदा '  कहकर ही सम्बोधित करेंगे। 

आज जिस प्रकार " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द अष्टावक्र गीता शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " (Internship Training tradition-'अनिवार्य निवासी सेवा ') में प्रशिक्षित  निवृत्ति मार्ग के  संन्यासी गुरु  /जीवनमुक्त शिक्षक/ -रामकृष्ण मिशन के प्रकाशस्तम्भ  स्वामी रंगनाथानन्द  सम्पूर्ण विश्व में  मानवतावादी शिक्षण (Humanistic Education) का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। 

ठीक उसी प्रकार प्रवृत्ति मार्ग से होकर ' निवृत्ति अस्तु महाफला ' में प्रतिष्ठित होने वाला तथा सम्पूर्ण मानवजाति से , अपने देशवासि जनता-जनार्दन  से पूर्णतया निःस्वार्थ प्रेम करने में समर्थ होने पर ,  कोई भी व्यक्ति/ मानवतावादी शिक्षण (Humanistic Education) में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय  वार्षिक  युवा-प्रशिक्षण शिविर के निर्जनवास रूपी 'अनिवार्य निवासी सेवा ' "स्वामी विवेकानंद- कैप्टन सेवियर ' Be and Make ' इंटर्नशिप प्रशिक्षण परंपरा " (Swami Vivekananda -Captain Sevier  Be and Make Internship Training tradition)  में  में प्रशिक्षित नेता, जीवनमुक्त/ भ्रममुक्त शीक्षक [=शीक्षावल्ली  भारतमाता के समस्त भावी सन्तानों से पूर्णतया निःस्वार्थ प्रेम करने में समर्थ = फिदायीन ब्रिगेड के 'C-IN-C'] प्रिय दादा - नवनीदा  , बासुदा , रनेन दा ,  वीरेन दा , धीरेन दा , बलेन दा , तनुदा ,... उषादा, प्रमोद दा (अथवा दीपक सरकार  .... बीजन बिहारी पण्डा,पाढ़ी जी, रवि भाटिया, बादल घोष.... आदि ?)  ...रणजीत घोष....मिन्टू दा ....उसी प्रकार  महामण्डल की सहयोगी संस्था फिदायीन ब्रिगेड ऑफ़ सारदा नारी संगठन की प्रवृत्ति मार्ग (विवाह संस्कार करने वाली ) .... श्रीमती नन्दिनी गोस्वामी,...चिन्मयी नन्दी , तापसी दी ,उमा दी,.. आदि भावी हजारों जीवनमुक्त शिक्षकों  नेताओं/  का आदान-प्रदान  या बिनमय  भी भारत के गांव- गांव में   किसी आध्यात्मिक  खजाने के रूप में ('as Spiritual treasures ')  होने लगेगा !   क्योंकि   ये सभी जीवनमुक्त शिक्षक और शिक्षिकायें   एक ही ब्रह्म [ईश्वर = निःस्वार्थ प्रेम रूपी अप्रतिरोध्य वज्र की प्रतीक माँ काली/ माँ सारदा देवी रूपी  विभिन्न शक्लों (modes-हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख , ईसाई , बौद्ध आदि ब्रांड ) मे विभिन्न संस्करणों  की मूर्तमान अभिव्यक्तियाँ हैं- साँचा (Model) हैं।  इनमें से प्रत्येक नेता 'नेताजी सुभाष बोस '   वज्र की तरह अप्रतिरोध्य बन सकते है।  इसलिए वर्तमान "आध्यात्मिक खजाने"  के साथ-साथ   Be and Make वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित समस्त भावी नेताओं को भी  " दादा " (भैया ) और " दीदी " के  अपरिवर्तनीय मधुर सम्बोधन का सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा  ! }   

  निवृत्ति तथा प्रवृत्ति मार्ग के क्रमशः दोनों नेता - आध्यात्मिक आदर्श विवेकानन्द और नवनीदा तथा उनके द्वारा स्थापित दो संगठन-- " रामकृष्ण मिशन और अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल "  प्रवृत्ति तथा निवृत्ति नामक दो धर्मों के माध्यम से  " एकं सत्" -- एक ही सत्य को अभिव्यक्त करने के अलग -अलग साँचा (Model) हैं।"   -These ideals are but various impressions in different modes of manifestation of the One . ) 

{सत् और असत् वेदों में बार -बार प्रयुक्त होने वाले ऐसे दो शब्द है। सद्गुरु अपने अनुभव से जानते हैं कि-एकं सत् याने अस्तित्व और अस्तित्व का मूल एक ही है, ब्रह्म (या ईश्वर)।  किन्तु ज्ञानी लोग उन्हें  'बहुधा वदन्ति '  मतलब कई तरह से, और कई नामों से बुलाते है।  कोई उन्हें ब्रह्म कहता है , कोई शक्ति कहता है ; कोई उन्हें भगवान श्रीरामकृष्ण देव कहता है ,  कोई जगत जननी माँ सारदा देवी कहता है। कोई परम् सत्य , कोई जीवन , कोई ईश्वर , कोई अल्ला-परवरदिगार  , कोई गॉड , कोई परमेश्वर , कोई Father , कोई Mother , कोई काल भी को खा जाने वाली माँ काली , कोई अकाल पुरुख , या कोई  कुछ और नाम से भी पुकारे , वे (ठाकुर देव) हैं एक ही !  जो अस्तित्व में है, वो सत्, जो नहीं, असत्।  ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 164 वें सूक्त की 46वीं ऋचा कहती है- "एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति" अर्थात सत्य एक है परन्तु ज्ञानी उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं। 

गीता (7.7) में भगवान कहते हैं -  " मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।" ... हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ (परे) अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है।।  'All these are threaded upon Me, like pearls upon a string,' so says the Lord in The Gita. 

 { मुझसे अन्य किञ्चिन्मात्र वस्तु नहीं है। स्वप्न से जागने पर जाग्रत् पुरुष के लिये स्वप्न जगत् की कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। समुद्र में असंख्य लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं परन्तु वास्तव में वहाँ समुद्र के अतिरिक्त किसी का कोई अस्तित्व नहीं होता। उनकी उत्पत्ति स्थिति और लय स्थान समुद्र ही होता है। संक्षेप में कोई भी वस्तु अपने मूल स्वरूप का त्याग करके कदापि नहीं रह सकती है। पहले हमें बताया गया है कि प्रत्येक प्राणी में एक भाग अपरा प्रकृतिरूप है जिसका संयोग आत्मतत्त्व से हुआ है। अर्थात पहले हमें बताया गया है कि प्रत्येक प्राणी के तीन अवयवों (3H) में दो अवयव  (2H-शरीर 'Hand' और मन 'Head') अपरा प्रकृतिरूप (लीला) है जिसका संयोग आत्मतत्त्व  से हुआ है। यहाँ जिज्ञासु मन में शंका उठ सकती है कि क्या मुझमें स्थित आत्मा अन्य प्राणी की आत्मा से भिन्न है ?

और जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव से लिखित चपरास -प्राप्त गुरु , मार्गदर्शक नेता (जीवनमुक्त -शिक्षक) स्वामी विवेकानन्द तथा " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर "Be and Make --वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे नेता [C-IN-C ] के मुख से श्रवण-मनन-निदिध्यासन की पद्धति में विवेक-दर्शन से ( मनःसंयोग के अभ्यास से ) विवेकश्रोत को उद्घाटित किये बिना , यह अविवेकपूर्ण तर्क- विचार हमें, भारतीय आदर्श - 'अनेकता में एकता ' (unity in diversity) के विपरीत इस निष्कर्ष पर पहुँचायेगा कि विभिन्न शरीरों में भिन्नभिन्न आत्मायें हैं अर्थात् आत्मा की अनेकता के शैतानी सिद्धान्त पर हम पहुँच जायेंगे। ....... एक बार भगवान् मैत्रेय कैलास पर्वत पर गये। वहाँ जाकर महादेव जी से उन्होंने कहा- ‘हे भगवन्! मुझे  परम तत्त्व का रहस्य बताने की कृपा करें।’ महादेव जी ने कहा-

देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवल:शिवः ।  
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहंभावेन पूजयेत् ॥ १ ॥

(-मैत्रेय्युपनिषद् /२. १ ) 

अर्थात प्रत्येक मानव देह ही प्रभु का वास्तविक मंदिर है ! ‘ शरीर देवालय है तथा उसमें रहने वाला जो 'जीव' है वह केवल (अव्यक्त ब्रह्म )  शिव-परमात्मा है।’  अतः अज्ञान को निर्माल्य की तरह अर्थात देवमूर्ति पर चढ़ाई गयी पुरानी -बासी माला की तरह त्याग कर इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं, सोऽहम् साधना से करनी चाहिए। [अविद्या-अस्मिता-रूपी निर्माल्य या गलत पहचान को , सिंहशावक होकर भी माया द्वारा Hypnotized भेंड़-शिशु  समझने के भ्रम को , अर्थात अपने को केवल नश्वर शरीर M/F नाम-रूप को ही मैं समझने के भ्रम को ,  निर्माल्य की तरह अर्थात  (पुरानी बासी) माला की तरह से सदा के लिए छोड़ देना चाहिए; तथा परमात्मा मैं ही हूँ. ऐसा समझकर ही उसकी पूजा करनी चाहिए।]  बाह्य सुधार- (मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण) /= खोज भी अंतर द्वारा ही है।  बाह्य भ्रांति एवं अंतर निर्भ्रांति है। निर्भ्रांति ही परम् सत्य है।

अतः  समस्त नाम-रूपों में आत्मा के एकत्व को दर्शाने के लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि वे ही इस जगत् के अधिष्ठान हैं। वे सभी रूपों को इस प्रकार धारण करते हैं जैसे कण्ठाभरण में एक ही सूत्र सभी मणियों को पिरोये रहता है। यह दृष्टांत अत्यन्त सारगर्भित है। काव्य के सौन्दर्य के साथ-साथ उसमें दर्शनशास्त्र का गम्भीर लाक्षणिक अर्थ भी निहित है।.... माँ काली के कण्ठाभरण में समस्त मणियाँ ( Hand और Head) एक समान होते हुये दर्शनीय (प्रिय ) भी होती हैं परन्तु वे समस्त छोटी-बड़ी मणियाँ (विवेकानन्द और नवनीदा जैसे प्रकाशस्तम्भ) जिस एक सूत्र में पिरोयी होती हैं वह सूत्र या अधिष्ठान (अस्ति -भाति -प्रिय=रज्जु=ब्रह्म) हमें दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि उसके कारण ही वह माला (विभिन्न नाम-रूप वाले नरमुण्डों की माला ) शोभायमान होती है।  इसी प्रकार मणिमोती (=लीला)  जिस पदार्थ से बने होते हैं वह उससे भिन्न होता है जिस पदार्थ से सूत्र (नित्य) बना होता है। इसी प्रकार मणिमोती (body -mind =2H) प्रतिबिम्बित चेतना ( reflected consciousness, स्थूल-जड़ और सूक्ष्म नश्वर जड़  पदार्थ जिन पंचभूतों (अपर और पर प्रकृति=लीला ) से बने होते हैं, वह उससे भिन्न होता है जिस पदार्थ से अविनाशी  सूत्र (रज्जु=अधिष्ठान =हृदय-आत्मा-ब्रह्म और शक्ति ) बना होता है।  वैसे ही यह जगत् असंख्य नामरूपों की एक वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि है जिसे इस पूर्णरूप में एक पारमार्थिक सत्य आत्मतत्त्व  धारण किये रहता है। वैसे ही यह जगत् (प्रातिभासिक या सापेक्षिक जगत ) असंख्य  नाम-रूपों की  परिवर्तनशील होने के कारण एक नश्वर वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि (लीला ) है जिसे इस पूर्णरूप में एक पारमार्थिक सत्य =अविनाशी आत्मतत्त्व (नित्य वस्तु = परमसत्य =माँ काली =जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश अँधा हो गया था ) धारण किये रहती/रहता ? है।  किसी व्यक्ति विशेष में भी शरीर (Hand) और  मन ['मन- बुद्धि-चित्त -अहंकार (Head 2H / M/F )] परस्पर भिन्न होते हुये भी एक साथ कार्य करते हैं और समवेत रूप में जीवन का संगीत -लीला निसृत करते हैं।  केवल यह आत्मतत्त्व (नित्यवस्तु- Heart ) ही इसका मूल कारण है। यह श्लोक ऐसा उदाहरण है जिसमें हमें महर्षि व्यास की काव्य एवं दर्शन की अपूर्व प्रतिभा के दर्शन होते हैं। यहाँ काव्य एवं दर्शन विवेक-दर्शन का सुन्दर समन्वय हुआ है। भगवान् ने  इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा कि- ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।7.2।।  मैं तुम्हारे लिए 'विज्ञान सहित इस ज्ञान'  को अशेष रूप से (सम्पूर्णता से) कहूँगा जिसको जानकर यहाँ (जगत् में) फिर और कुछ जानने योग्य (ज्ञातव्य) शेष नहीं रह जाता है।।"यह संसार (Universe) अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति ( Time-Space -Causation =समय-स्थान -संयोग ) आदि सभी परिवर्तनशील हैं। परन्तु जिसके होनेपन से इन सब का होनापन दीखता है; अर्थात् जिसकी सत्ता से ये सभी 'है' दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सब में परिपूर्ण हैं। जब मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं, तब मेरे को जानने के बाद जानना कैसे बाकी रहेगा ? क्योंकि  जो कार्य होता है, वह कारण के सिवाय अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। वास्तव में कारण ही कार्यरूप से दीखता है। ('नित्य' ही कार्यरूप 'नश्वर ' लीला जैसा से दीखता है।) इस प्रकर जब कारण का ज्ञान हो जायगा, तब कार्य कारण में लीन हो जायगा अर्थात् कार्य की अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी और 'एक परमात्मा = माँ जगदम्बा के सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है'--ऐसा अनुभव स्वतः हो जायगा।

 जगत् की ओर देखने के दो दृष्टिकोण- नित्य और लीला (Two approaches to Look upon the world) : गीता (7.7) के  पूर्व के श्लोकों में कथित सिद्धान्त को स्वीकार करने पर हमें जगत् की ओर देखने (अवलोकन करने या समीक्षा करने ) के दो दृष्टिकोण मिलते हैं, और दोनों सत्य हैं ? हाँ , लेकिन   एक है 'अपर ' अर्थात् ( inferior= प्रेयदृष्टि) कार्यरूप जगत् की दृष्टि से तथा दूसरा इससे भिन्न है 'पर ' अर्थात् (excellent = श्रेयदृष्टि याअत्युत्तम दृष्टि)   कारण की दृष्टि से जगत की ओर देखना। जैसे मिट्टी कारण और घड़ा कार्य है ! मिट्टी की दृष्टि से उसमें विभिन्न रूप रंग वाले घटों का सर्वथा अभाव होता है वैसे ही चैतन्यस्वरूप पुरुष में  (Witness Consciousness ,existence-consciousness-bliss सच्चिदानन्द स्वरुप में)  न विषयों का (पंचभूतों और पंचतन्मात्राओं से बना )स्थूल जगत् (M/F) है और न विचारों (Reflected-consciousness ) का सूक्ष्म जगत् ।  

" अतः निःस्वार्थ प्रेम (Love ) ही सबसे बड़ा मानवीय गुण है, क्योंकि प्रेम सिर्फ देना जानता है, बदले में कुछ भी पाने की आशा  नहीं करता। भगवान से प्रेम करो पर बदले में (विनमय के तौर पर) सांसारिक सुख-भोग या माया-मोह (worldly desires) कुछ न चाहो।  " [All these are threaded upon Me, like pearls upon a string,' so says the Lord in The Gita. Love is the highest virtue, love knows of giving alone, never expecting anything in return. Love God, but don't barter worldly pleasures and comforts in exchange for that. "]  

उस हिन्दू संन्यासी विवेकानन्द  ने पुनः समझाया - " मन और इन्द्रियों से 5 विषयों की जो लुभावनी संवेदनायें तुम्हारे 'व्यष्टि अहं ' तक पहुँच रही हैं , उन्हें स्वीकार मत करो ! क्योंकि मन और इन्द्रियाँ (2H) दोनों किसी अतीन्द्रिय तीसरी वस्तु (the transcendental third,  the Self. ) या अखण्ड अस्तित्व ( 3rdH- आत्मा, हृदय)  की खण्डित अभिव्यक्तियाँ (incomplete expressions) है ! तथा उस अतीन्द्रिय आत्मा ( ब्रह्म ) की उपलब्धि में अपनी श्रद्धा (विश्वास ) की मोड़ को घुमा देना ही धर्म है ! [ Turning our faith in realization of that Self is religion. चार पुरुषार्थों में पहला पुरुषार्थ-धर्म है। ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवा "   उस आत्मा (सृष्टिकर्ता या ब्रह्म) की उपलब्धि के लिए निरंतर प्रयासरत रहना ही धर्म है। अपनी श्रद्धा (faith =आस्तिक्य बुद्धि) की मोड़ को घुमा दो। अर्थात परिवर्तनशील जगत पर - श्रद्धा की मोड़ को खण्डित (नाम-रूप, कार्य ) से  उस अविनाशी , अपरिवर्तनीय अखण्ड (अस्ति -भाति -प्रिय /existence-consciousness-bliss/ सच्चिदानन्द, कारण  ) की अनुभूति की दिशा में घुमा  देना ही धर्म है !  And common to all the three is renunciation. Renounce the desires, even of going to heaven, for every desire related with body and mind creates bondage. ] 

इसके (श्रद्धा की मोड़ को घुमा देने के) तीन मार्ग हैं - कर्म , भक्ति और ज्ञानऔर तीनों में सामान्य है त्याग (renunciation या निवृत्ति )। शरीर (इन्द्रिय)  और मन से जुड़ी हर इच्छा का त्याग करने के लिए, " निवृत्ति अस्तु महाफला " को समझकर स्वर्ग जाने की इच्छा का भी त्याग करें। क्योंकि शरीर और मन से जुडी प्रत्येक इच्छा दासत्व ( bondage.- शुद्ध बुद्धि उपाधि से तादात्म्य करके गुलामी को जन्म देती है।  .....  एक बार की बात है संत तुलसीदास जी सत्संग कर रहे थे, अचानक वे मौज में बोले..

घट में है सूझत नहीं लानत ऐसी जिन्द। 
तुलसी जा संसार को भयो मोतियाबिंद।। 

अर्थात वो सर्वव्यापी परमात्मा और कहीं नहीं तेरे इसी घट (शरीर) में तो है पर तुझे दिखाई नहीं देता। ऐसी जिन्दगी को लानत है..इस संसार को मोतियाबिंद हो गया है। किसी शिष्य ने उत्सुकता से कहा..महाराज जी ये मोतियाबिंद हो तो गया अब कटेगा कैसे..? तुलसी ने उत्तर दिया..  

सतगुरु पूरे वैद्य है अंजन है सतसंग .

ज्ञान सराई जब लगे तो कटे मोतियाबिंद ..

अर्थात पूर्ण सतगुरु ही इसके वैध है और अंजन इसका सत्संग है..ये जब ज्ञान रूपी सलाई से लगाया जाता है तो अग्यान रूपी मोतियाबिंद कट जाता है।
 इस दुनिया में असंख्य मत हो सकते  हैं, किन्तु धर्म (या जीवन) तो एक ही है , जो शाश्वत या सनातन है !  जैसे कोई बच्चा अपने पिता को अब्बा कहे , डैडी कहे , बाबूजी कहे , पिता समझ लेते हैं कि मुझे ही पुकार रहा है।सद्गुरु यह जानते हैं कि -रंगरूप  अलग-अलग होने से भी , लहरें (आँखें ) छोटी-बड़ी होने से भी समस्त लहरों का मूलतत्व 'जल ' ही है ! लेकिन  सभी गुरुओं को आत्मज्ञान नहीं होता। इसलिए जो निरंतर सत् में ही रहते हैं, अविनाशी तत्व में ही रहते हैं, वे सदगुरु! इसलिए सदगुरु तो ज्ञानीपुरुष ही होते हैं।

अब प्रश्न उठेगा - शास्त्रीय भाषा में सदगुरु किसे कहा जाता है? तो इसका उत्तर कि पूज्य नवनीदा जैसा व्यक्ति जिसे अपने पूर्वजन्म में ही अद्वैत आश्रम , मायावती में " Be and Make Internship Training tradition -अनिवार्य निवासी सेवा " में रहते हुए वेदांत गुरु-शिष्य शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में    सत् अर्थात् आत्मा, वह जिसे प्राप्त हुआ है वैसे गुरु, वे सदगुरु (C-IN-C) नवनीदा  हैं  ! अर्थात् जिनको आत्मा का अनुभव हो चुका होता है , उस आत्मज्ञानी को ही सदगुरु कहा जाता है।

आधुनिक युग का युगनायक विवेकानन्द जैसा पूरा सतगुरु वैद्य है, पूरा आई सर्जन है, वह आत्म -विवेक की अंदरूनी आँख खोलने की तकनीक (जुगती) - 5 अभ्यास द्वारा 3H विकास का अनिवार्य आवासीय प्रशिक्षण देता है। उनके नुस्खे तुम्हारी आंख के लेन्स पर जो जाली जम गई है,  वह उस जाली को काटने की दवा औषधि भी देते हैं, सेवा, सत्संग, सिमरन, ध्यान और सबसे गहरी तह की बात है संतोष प्रेम पूर्णतः समर्पण। सदगुरु हमें इस जगत् के सर्व दुःखों से मुक्ति दिलवाते हैं। क्योंकि वे खुद मुक्त हो चुके होते हैं। वे हमें उनके फॉलोअर्स की तरह नहीं रखते, बल्कि हमें भी [5 अभ्यास से ] अपने जैसा मुक्त होने की तकनीक  सीखा देते हैं ! और साधारण  गुरु को तो फॉलो करते रहना पड़ता है हमें। मेरा सतगुरु पूरा है - अर्थात पूर्णत्व प्राप्त है , ब्रह्मविद है !  जिनके बड़े ऊंचे भाग और नेक कर्म हो उन्हें ही महामण्डल संगठन रूपी पूरे गुरु की सत्संगति (बार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर ) में 6 दिनों तक रहने का सौभाग्य प्राप्त होता  है।

कस्तूरी कुंडल बसे म्रग ढूँढे वन मांहि .
ऐसे घट घट राम है दुनिया देखे नांहि ..

इस दोहे का अर्थ बताना भी  जरूरी नही जान पड़ता ..पर कभी कभी कितना आश्चर्य होता है..? 

छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई
॥3॥ 

पानी को बिलोने  (छाछ की तरह ) से घी नहीं निकलता .. मैल से धोने से क्या मैल छूटता है? जल के मथने से क्या कोई घी पा सकता है? (उसी प्रकार) हे रघुनाथ जी! प्रेमभक्ति रूपी (निर्मल) जल के बिना अंतःकरण का मल कभी नहीं जाता॥ 

मोह जनित मल लाग विविध विधि कोटिक जतन नहीं जाहिं ,

 जन्म जन्म अपराध निरत चित अधिक अधिक लपटाहिं !

.... अर्थात गन्दगी से गन्दगी नहीं छूटती, मोतियाबिंद ग्रस्त या मोहग्रस्त लेन्स को ही स्वच्छ लेंस से इम्प्लांट करना पड़ता है।  ये सच है कि माचिस में आग है पर उसको जलाना पङेगा.. ये सच है कि दूध में घी है पर उसको निकालना पङेगा.. ये सच है कि परमात्मा (ठाकुर ) तुम्हारे अंदर है .पर एक विशेष युक्ति से -Humanistic Education या मानवतावादी शिक्षा (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक / नेता (C-IN-C ) नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल के " Be and Make Internship Training tradition -अनिवार्य निवासी सेवा" द्वारा मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी युवा -प्रशिक्षण शिविर/में 3H विकास के 5 अभ्यास की  वह पद्धति सीखकर तुम्हें आत्मसाक्षात्कार करना होगा - ब्रह्म को जानकर [आधुनिक युग में उस अवतार वरिष्ठ का नाम क्या है ? जानकर ] ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनना होगा , उस इन्द्रियातीत सत्य से मिलना होगा . जय गुरुदेव की.... 

चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ , गीदड़ों को मैं शेर बनाऊँ ! 

सवा लाख से एक लड़ाऊँ , तभी गोबिंद सिंह नाम कहाउँ !!

शौर्य और साहस के प्रतीक गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को बिहार के पटना-सिटी में हुआ था । एक आध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ वे एक निर्भयी योद्धा, कवि और दार्शनिक भी थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। ( अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक परम्परा  की स्थापना की थी।)  गुरु गोबिंद सिंह ने ही सिखों के लिए 5 मर्यादाएं- केश, कड़ा, कच्छा, कृपाण और कंघा आदि  'पंच ककार' धारण करने का आदेश सिखों को  दिया था। इनकी शिक्षाएं  आज भी प्रेरित करती हैं। उसी प्रकार महामण्डल के नेता / जीवनमुक्त शिक्षक / C-IN-C/ पूज्य नवनीदा ने भी भारत माता की संतानों को 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण [Humanistic Education] देने के लिए , श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से , और स्वामी विवेकानन्द की इच्छा से प्रेरित होकर अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना की थी ! -  जय अवतारवरिष्ठ जगतगुरु श्री रामकृष्ण देव जी की कृपा से .... जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल, वाहे गुरु जी की खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह’ 

" वाह नवनीदा का खालसा , वाह नवनीदा की फ़तेह ! "

महामण्डल  नामक 'एक  नए युवा आंदोलन का ' का आदर्श, उद्देश्य एवं कार्क्रम  : हमारे कार्यों का केन्द्रबिन्दु ( Our focus of action, ) न तो मानवता को बचाना है , न समाज सुधार के कार्यों में उलझना है , और न व्यक्तिगत लाभ (or social service for not to seek personal gains- लोकेषणा या नाम-यश पाने, वित्तेषणा और पुत्रेषणा आदि तीन ऐषणाओं )  की आकंठ पूर्ति करने में लगे रहना है; बल्कि भारत कल्याण के लिए - पहले अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व (indwelling Self) की अनुभूति करना अनिवार्य है। अतः  पहले 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा - या महामण्डल की " Be and Make Internship Training tradition -अनिवार्य निवासी सेवा परम्परा " प्रशिक्षित शिक्षक /नेता बनना और बनाना ही महामण्डल द्वारा की जाने वाली समस्त समाज -सेवी कार्यों का उद्देश्य है। 

अर्थात  हमारे संगठन - ' महामण्डल ' द्वारा संचालित (social service अथवा सरकारी स्तर से अथवा NGO के द्वारा जो कुछ सेवाएं - साधारण जन समुदाय, या जनता जनार्दन  के लाभ के लिए प्रदान की जाती हैं जैसे कि शिक्षा, चिकित्सा- देखभाल (medical care) और आवास  जैसी  समाज सेवा  का focus of action ) का समस्त क्रियाकलापों (Activities) का केन्द्रबिन्दु या मुख्य मुद्दा " 3H विकास के 5 अभ्यास" के  प्रशिक्षण द्वारा  पूर्ण स्वास्थ्य लाभ =  शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य (मन की  शक्ति) , एवं हृदय की शक्ति (आत्मश्रद्धा , आत्मबल या सभी जीवों से प्रेम करने शक्ति)  की सामान्य स्थिति में वापसी- 'Recovery' ही होनी चाहिए ! [Recovery -  a return to a normal state of Body health (Hand), mind-health (Head) , तथा (Heart)  strength. आत्मश्रद्धा या आत्मबल की वापसी !] 

लेकिन भारत के जुड़वां राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग (देहाध्यास का त्याग ) और सेवा ' हमलोगों को अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व) की अनुभूति के लिए -  स्व  की तलाश में दुनिया के भोग-विलास से दूर 'निवृत्ति अस्तु महाफला '  का भाव  की ओर  इशारा करती है। " त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः — By renunciation alone immortality was reached." यह महावाक्य भारतीय संस्कृति के गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  Be and Make Leadership Training परम्परा  में  वैराग्य के साथ-विवेक-दर्शन या मनःसंयोग के अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए ,  प्रशिक्षित शिक्षकों (C-IN-C) के निर्माण के लिए आयोजित महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने  की ओर इशारा करता है। 

[ Our focus of action is neither to save the humanity nor to engage in social- reforms, not to seek personal gains, but to realize the indwelling Self itself.Renunciation points to turning away from the world in search of this Self. ]

 लेकिन समय के प्रवाह में (विभिन्न नाम वाले धर्मों की भूलभुलैया में फंसकर ) मानवजाति धर्म के इस सार को भूल जाती है। उस समय परस्पर सहयोग और आनन्द से जीवन व्यतीत करते हुये सुखी संयुक्त परिवार दिखाई नहीं देते।  और वैसी अवस्था में "जब बहुसंख्यक लोग धर्म का पालन नहीं करते तब द्विपदपशुओं के समूह द्वारा यह जगत् जीत लिया जाता है। और धर्म अपनी शक्ति खो बैठता है। मनुष्य को शोभा देने वाला उच्च जीवन भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। गीता 4 /7 में में श्री भगवान कहते है,

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

- हे भारत ! जब -जब इस धर्म ( मनुष्य-निर्माणकारी धर्म /या चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा)  की हानि हो जाती है, और अधर्म (अशिक्षा या केवल अर्थकारी शिक्षा ) की वृद्धि होती है,  तब-तब मैं स्वयं को (एक जीवनमुक्त शिक्षक / मानवजाति का मार्गदर्शक नेता / के रूप में ) प्रकट करता हूँ।"   नेता / जीवनमुक्त शिक्षक का  जन्म कब और किसलिये होता है  ?  सो कहते हैं -  जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्कर्ष होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं। हे भारत ,  वर्णाश्रम आदि जिसके लक्षण हैं एवं प्राणियों की लौकिक उन्नति (अभ्युदय ) और परम कल्याणका मोक्ष (निःश्रेयस ) का  जो साधन है उस धर्म [मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्रगठनकारी शिक्षा / धर्म ]की जबजब हानि होती है और अधर्म बढ़ जाता  है तबतब ही मैं माया से अपने स्वरूप को रचता हूँ।    'whenever religion decays or declines and irreligion prevails, then I manifest myself.' इतिहास के ऐसे काले युग में कोई महान् व्यक्ति 'C-IN-C ' नवनीदा समाज में आकर लोगों के जीवन और नैतिक मूल्यों का स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है। 

जमींदार या खेत का मालिक धूप में काम करते श्रमिकों के बीच वह खड़ा रहता है तथापि अपने स्वामित्व को नहीं भूलता। इसी प्रकार समस्त जगत् के अधिष्ठाता भगवान् शरीर धारण कर र्मत्य मानवों के अनैतिक जीवन के साथ निर्लिप्त रहते हुए उनको अधर्म से बाहर निकालकर धर्म मार्ग पर लाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। भगवान् के इस अवतरण में यहाँ एक बात स्पष्ट की गई है कि यद्यपि वे शरीर धारण करते हैं तथापि अपने स्वातन्त्र्य को नहीं खोते। उपाधियों में वे रहते हैं परन्तु उपाधियों के वे दास नहीं बन जाते। जो लोग " दिव्य अवतार " (पैगम्बर ) बनकर इस धरती पर अवतरित होते हैं उनका यही सार सिद्धान्त । उनको यह याद रहता है कि वे पूर्वजन्म में कौन थे ? क्राइस्ट और बुद्ध, राम और कृष्ण तथा अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस -जिन्हें याद था --- " जो राम , जो कृष्ण वही रामकृष्ण , इस बार  दोनों एक साथ " अध्यात्म के सागर के  ब्रह्म / आत्मा रूपी जल  पर बृहद आकार की शक्तिशाली तरंगे या लहरें है[ निर्विकल्प समाधि के बाद जो पुनः शरीर में लौट आते हौं , उनको  'C-IN-C ' नवनीदा जैसे नेता को गृहस्थ के कार्यों को करते समय भी यह स्मरण बना रहता है कि किस प्रयोजन के लिये  वे  आये हैं ? ] 

"  Man proceeds from lower truth to higher truth, and not from error to truth. This growth in search of higher and still higher truth is what religion is all about. In the flow of time this thought is lost to the mankind and religion loses its force. And 'whenever religion decays or declines and irreligion prevails, then I manifest myself. This is the simple essence of Divine Incarnation. Christ and Buddha, Rama and Krishna are but mighty waves on the ocean of spirituality, on the everlasting substratum of the ocean of Spirit, The Brahman. }  

और मार्गरेट नोबल, जो बाद में [Would be Leader/ भावी नेता / जीवनमुक्त शिक्षक ] - सिस्टर निवेदिता बनने वाली थीं ; स्वामी विवेकानन्द के मुख से निसृत प्रत्येक शब्द , प्रत्येक विचार , प्रत्येक संकल्पना को अवाक् होकर सुन रही थीं - क्योंकि वे सभी अवधारणायें उनके लिए अभिनव और अनोखी थीं। विदेशी होने पर भी उस शिक्षित, साहसी और बुद्धिमान महिला को भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कथित  गीता के उपदेश  - " मुझसे अन्य किञ्चिन्मात्र वस्तु नहीं है।   मयि सर्वम् इदम् प्रोतम्  सूत्रे मणि-गणाः इव ' - यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है। " का उदाहरण उन्हें सच्चे धर्म के गहरे अर्थ से परिचित करवा रहा था। यद्यपि शुरू -शुरू में उनका अहंकार ( मार्ग्रेट M/F वाला   व्यष्टि अहं) स्वामी जी को बातों को स्वीकार नहीं करना चाह रहा था ,  तथापि कोई शिष्य अपने गुरु [माँ काली के द्वारा निर्दिष्ट गुरु ] की पुकार को कब तक अनसुना कर सकता था ? 

प्राचीन वैदिक सिद्धान्त (हिंदू विचार - चार महावाक्य की व्याख्या) से भरे हुए शब्द उस विदेशी बुद्धिमती नारी के मस्तिष्क में प्रविष्ट होने लगे , स्वामी जी ने आगे कहना जारी रखा - " देखो मार्गरेट -मनुष्य असत्य (अनित्य -लीला) से सत्य (नित्य ) की ओर नहीं आता , बल्कि निम्नतर सत्य (सापेक्षिक सत्य =लीला) उच्चतर सत्य (इन्द्रियातीत वस्तु, नित्य  आत्मा) की ओर आगे बढ़ता है !  Man proceeds from lower truth to higher truth, and not from error to truth.  [क्रमशः नित्य और लीला दोनों सत्य हैं - इस सच्चाई को आत्मसात करने में समर्थ हो जाता है।]  उच्च से उच्तर और उच्चतर से उच्चतम ( ब्रह्मविद, से तर और तं) सत्य की खोज में अपने जीवन की अंतिम साँस तक आगे बढ़ते रहना ही धर्म का सर्वस्व है। " धर्म वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत कर देता है ! 

 स्वामी जी ने कहना जारी रखा - " तुमने उपद्रवी शब्द 'माया ' का नाम अवश्य सुना होगा। कुछ लोग  इसको इन्द्रजाल (delusion-या मतिभ्रम ) कहते हैं , अन्य कुछ इसको जादू (magic या तिलस्म ) कहते हैं , अन्य इसको मरीचिका (illusionया भ्रान्ति ) हैं ; जबकि अन्य लोग इसको शक्ति (ब्रह्म की शक्ति) या प्रकृति कहते हैं। लेकिन सुनो  मैं तुम्हें बतलाता हूँ - ' हम क्या हैं और अपने आसपास जिस जगत को देखते हैं , विश्व-ब्रह्माण्ड को जिस रूप में हम देखते हैं ,  उस दृष्टिगोचर जगत के विषय में तथ्यों की  सरल व्याख्या को ही माया कहते हैं। संत तुलसी दास कहते हैं -  

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥

हे भाई! इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, उन सबको माया जानना। उसके भी दो भेद होते हैं -इन दोनों भेदों को तुम सुनो- एक है विद्या और दूसरी अविद्या। इसमें पहली जो अविद्या है , वह दोषयुक्त अर्थात दुष्ट और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है। और दूसरी जो विद्या है, तीनों  गुण जिसके वश में  है,  जो जगत्‌ की रचना करती है, वह ' विद्या माया ' दैवी है ! अर्थात वह प्रभु से (अवतरवरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्णदेव से ) ही प्रेरित होती है,  उसके अपना बल कुछ भी नही है।   [इसलिए गुरु के मुख से पहले अपने प्रभु (आदर्श ) को पुकारने या विवेक -दर्शन की पद्धति सीखनी होती है।]

 मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो, उच्च डिग्री प्राप्त ' ज्ञानी ' कहलाने पर भी अज्ञानी है। विद्या एवं अविद्या  में भेद बहुत ही हल्का होता है , इसलिए अधिकांश लोग तो अविद्या (भ्रम या मरीचिका की गठरी -डिग्री)  को ही, विद्या  समझ कर उसे उपने सिर पर लादे फिरते है।  ऋषि-मुनियों ने हमेशा ही विद्या के धोखे में अविद्या से सचेत सावधान रहने के लिये कहा है।  सभी शास्त्रों में एक बात ऊभर कर सामने आती है कि शरीर (Hand ) स्थूल है और पाँच तत्वों से मिलकर बना हुआ है, इन्द्रियाँ शरीर से शूक्ष्म है और शक्तिवान है, मन (Head ) इन्द्रियों से शूक्ष्म एवं बलवान है। प्राण (परा-शक्ति,चेतना) मन से शूक्ष्म और बलवान है, प्राण से शूक्ष्म एवं बलवान है हृदय (Heart - स्वयं आत्मा जो परब्रह्म, परमेश्वर का प्रतिनिधि) है, शरीर की चेतना शक्ति प्राण है और यही इस शारीर का संचालक भी है।  लगभग सभी शास्त्रों में कहा गया है, मनुष्य को अपने मन को वशीभूत करके उसका दास नहीं स्वामी बनना चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट करते है- शरीर रथ है ,इन्द्रियाँ अश्व ,मन लगाम है और बुद्धि (आत्मा की प्रत्रिबिम्बित चेतना या प्राण- शक्ति)  सारथि और आत्मा  रथी है। बुद्धि सारथि किस उपकर्म से इतना बलवान बन सकता है कि वह आसानी से अपने मन रूपी लगाम पर अपना शासन कायम रख सके। और  केवल मात्र एक ही उपाय ब्रह्म (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) का नाम-जप, या गुरु स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास।  मात्र स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने - प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करने से ही प्राण इतना शक्तिवान बन सकता है, कि वह प्राण (चेतना) को मन सहित इन्द्रियों के पाश जिसे माया कहा जाता है, माया से आसानी से मुक्ति पाकर अपनी मंजिल (आत्म-मिलन) की ओर अपने शरीर रूपी रथ पर चढ़कर पहुँच सकता है।  आत्मा लक्ष्य है परमात्मा की शक्ति प्राण की कृपा प्राप्त  करना और प्राण -शक्ति (माँ जगदम्बा ) का स्वभाव है अध्यात्म यानि आत्मा की अधीनता या आत्मा के साथ मेल।  जिसने अपना प्राण (श्रद्धा ) आत्मा की और उन्मुख कर लिया है वही युक्त अर्थात जुड़ा हुआ है, आत्म संयुक्त प्राणवान व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है। और श्री कृष्ण अर्जुन को बार बार   कहते है - " तस्मात् योगी भव अर्जुन।" गीता 6. 46 / -therefore be thou a Yogi, O Arjuna.   इसलिये हे अर्जुन तू योगी बन । "  आत्मिक उन्नति के अनेक साधनों में " मनःसंयोग '  की महत्ता को दर्शाने के लिए भगवान् यहां विभिन्न प्रकार के साधकों का निर्देश करके उनमें योगी (अष्टांगयोग) को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। भगवान् कहते हैं कि जो योगी अपने शरीर मन और बुद्धि के साथ के मिथ्या तादात्म्य को दूर करके आत्मानुसंधान करता है वह तपस्वी ज्ञानी और कर्मी से श्रेष्ठ है क्योंकि वह सत्य के अत्यंत समीप होता है। वेदान्त की भाषा में कहा जायेगा कि जिस योगी ने अनात्म जड़-उपाधियों से तादात्म्य दूर करके आत्मस्वरूप को पहचान लिया है वह श्रेष्ठतम योगी है।  इसलिये हे अर्जुन तुम योगी बनो। 
 इसका अर्थ हुआ कि यदि किसी जीव को अपने लक्ष्य आत्म-मिलन तक पहुंचना है, तो उसे आत्मोन्मुख होना ही पड़ेगा।  मनःसंयोग की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को " विवेकदर्शन करने के लिए " प्रयत्नपूर्वक ध्येय (स्वामी विवेकानन्द ) विषयक वृत्ति बनाये रखनी पड़ती है। इसके लिए मन को बारम्बार विषयों में जाने से रोककर प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करना पड़ता है।  इस दृष्टि से  प्रतीकोपासना के लिए गुरुप्रदत्त मन्त्र के द्वारा  ईश्वर के सगुण साकार रूप (श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा) का  जपरूप ध्यान का उपदेश   या ' विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा  में   गुरु विवेकानन्द के दर्शन सहित  5 अभ्यास  का प्रशिक्षण दिया जाता  है।
  किन्तु जबतक कोई मनुष्य अपने मन को एकाग्र करने की पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त कर वैराग्य के साथ अभ्यास (निवृत्ति अस्तु महाफला की समझ या त्याग पूर्वक विवेक-दर्शन सहित  5 अभ्यास ) नहीं करता, उस अतीन्द्रिय सत्य (ब्रह्म ) के दर्शन  नहीं करता इसलिए, उसने अपने मन को एक  स्वतंत्र उपकरण (Independent tool) न बना कर  , माया के हाथो गिरवी रखा हुआ है। इसका ये अर्थ हुआ कि किसी जीवनमुक्त शिक्षक ,  गुरु या नेता के मार्गदर्शन के बिना हमलोग जिस गीतापाठ करने को ही  विद्या  समझ रहे है वास्तव में वह तो केवल मात्र सूचना एकत्र करने का जरिया है, इससे विद्या का सीधा कोई सम्बन्ध साबित नहीं होता है। दुनिया के सारे शास्त्र केवल मनुष्य के लिए ही बने है और इसके बाद भी (गुरु-शिष्य वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नहीं होने के कारण ) ज्ञान की धारा का प्रवाह अवरुद्ध दिखाई पड़ता है। 
      इसलिए सिस्टर निवेदिता को उस समय भी आश्चर्य हो रहा था , कि जिस  - माया तत्व  (तीन गुण और दो शक्ति-आवरण और विक्षेप  ) की गूढ़ता को  दुर्गासप्तशती में दिए इसके बीजमंत्र (decipher) का उच्चारण करके भी नहीं समझा जा सकता; उस दैवी-शक्ति को  आत्मा या पुरुष (ब्रह्म) या 'ॐ के' चन्द्रबिन्दु जैसा साथ-साथ तुलना [juxtaposed- जक्स्टापोज ] करके समझना पड़ता है।   its meaning in words or sentences,  it is to be understood as a concept juxtaposed with the Self or Purusha. ]  उस माया तत्व को  उन व्याख्यानों के माध्यम से वहां उपस्थित कितने लोग समझ पाए होंगे ? यहाँ कितने लोग इतने भाग्यवान हैं , जो इसके विद्या और अविद्या के मर्म को समझ पाएंगे ?  अतः  भगिनी निवेदिता तथा अन्य पाश्चात्य जिज्ञासुओं को ब्रह्म और उनकी शक्ति माया के  वास्तविक तात्पर्य को [ दैवी शक्ति= मन,बुद्धि,चित्त, और व्यष्टि अहं =अविद्या से  विद्या (सर्वव्यापी विराट अहं ) में रूपांतरण की अवधारणा को]  समझाने के लिये  स्वामी जी को इंग्लैण्ड में 4 व्याख्यान देने पड़े। 
 लेकिन सिस्टर निवेदिता ने अपने गुरु -स्वामी विवेकानन्द के जीवन  में जिस एक खास बात का अनुभव किया था , वह यह था कि उन्होंने गीता , उपनिषद और ब्रह्मसूत्र (वेदान्त ) के अतिरिक्त और किसी शास्त्र के वाक्यों को उद्धृत कभी नहीं किया।   स्वामी विवेकानन्द को इस बात पर प्रगाढ़ विश्वास था कि  आज के यूरोप को जिस चीज की आवश्यकता है ,  वह किसी  तर्कबुद्धि-परक धर्म (rationalistic religion) की है , अथवा यूँ कहें कि विज्ञान की कसौटी पर भी खरा उतरनेवाला धर्म' की है!  पाश्चात्य शिक्षा में पले -बढ़े भारतीय युवाओं के या पाश्चात्य मानव-मस्तिष्क (Western psyche) में  गुरु-शिष्य परम्परा में दिए जाने वाले प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों , वेदान्त के महावाक्यों की समझ को-'Humanistic education' -मानवतावादी शिक्षा के रूप में प्रविष्ट करा देना अनिवार्य है। ताकि विज्ञान और आध्यात्मिकता का एकीकरण हो और जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव की मानवोपयोगी धर्म या मानवतावादी शिक्षा का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो सके।
उस  एक " पूर्ण  वस्तु " (जगतजननी काली माँ ) को  (Existence-consciousness-bliss/ परम् सत्य /इन्द्रियातीत सत्य / सच्चिदानन्द , ब्रह्म, अल्ला , गॉड , जीवोहा या जिस नाम से पुकारो, जिससे  (दृष्टिगोचर ब्रह्माण्ड, universe-अण्ड ) , बाह्य प्रकृति या सृष्टि निकली है ; उसका अनुसंधानात्मक विश्लेषण,  छानबीन (exploring)  या खोज  करने के लिए - वैज्ञानिक भौतिकवाद (scientific materialism) अर्थात  'अपरा विद्या' (अविद्या या चार्वाक मत  ) के साथ-साथ  'पराविद्या' अर्थात आत्म -अनुसन्धान ( search for Atman - ब्रह्म -अनुसधान विद्या =  अन्तर्निहित दिव्यता रूपी अधिष्ठान (basis= मौलिकता अर्थात काली माँ की  मदद (support-प्रोत्साहन) की भी आवश्यकता होती है।  [दादा कहते थे एक बार ब्रह्म (शिव ) माँ काली से मिलने उनके निवास स्थान पर गए , और द्वारपाल से बोले जाकर खबर दो कि ब्रह आये हैं ! तब माँ ने कहलवाया कि जाकर पूछो वे किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्म हैं ?
' पूर्णत्व ' शब्द [ जिससे सबकुछ निकला है ? काली माँ ] के मर्म को आत्मसात कर लेना उतना आसन नहीं है !  मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित अन्तः शक्ति या ' अनन्त सम्भावना ' ही अपने को  वैज्ञानिक अनुसन्धान और मानवतावादी शिक्षा /धर्म  के द्वारा अधिकाधिक अभिव्यक्त करती जा रही है और वह स्वतः ही पूर्णता की ओर आगे बढ़ रही है। शास्त्रों में कहा गया है - 
पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णात पूर्ण मुदच्यते।  
  पूर्णस्य पूर्णमादाय    पूर्णमेवावशिष्यते।।
- ' पूर्णमदः ' अर्थात वह ब्रह्म पूर्ण है, अर्थात वह इतना ' बृहद ' है की, उससे बाहर कुछ भी नहीं है ! फिर ' पूर्णं- इदं ' में इदम, अर्थात इससे ही निकला हुआ, यह दृष्टि गोचर बाह्य-जगत भी पूर्ण है।  कैसे ? क्योंकि वही पूर्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड में अनुस्यूत है, प्रविष्ट है, या ओतप्रोत है, वस्तुतः ब्रह्म ही जगत हो गये हैं ! और ' पूर्णस्य पूर्णमादाय ' कहने से तात्पर्य यह है की यदि तुम स्वयं इस सत्य की अनुभूति कर सको कि वही ' पूर्ण ' तुम्हारे साथ साथ इस सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के कण कण में भी प्रविष्ट है तो फिर उस ' पूर्ण ' के बाहर शेष बचा क्या ? इसी को कहा गया - ' पूर्णमेवावशिष्यते ' ! 
और इस प्रकार स्वामी जी ने विज्ञान (अपरा विद्या =science) और धर्म (Religion-कैपिटल R, पराविद्या या ब्रह्मविद्या ] के बीच 'hand shake' लाने या 'विज्ञान और धर्म ' (शिक्षा ) को एक दूसरे से हाथ मिलाने के इस प्रयास में  अनजाने में ही  नई  मठ-परम्परा (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा)  में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्मों के अधिकारी व्यक्तियों में से  प्रशिक्षित शिक्षकों /नेताओं के निर्माण करने की  "Be and Make " नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति का आविष्कार कर लिया !  सिस्टर निवेदिता ने अपने गुरुदेव के जीवन में जिस संघर्ष (जिद्दोजहद =struggle) का अनुभव किया वह केवल मनुष्यों के  व्यावहारिक जीवन या  'नाम-रूप' - मय जगत  (practical life-) में  वेदान्त (महावाक्यों)  के आलोक में साक्षी चैतन्य  (witness consciousness अस्ति , भांति , प्रिय)   को रूपान्तरित करने का लगातार प्रयत्न था।
 [ What Europe needed was a 'rationalistic religion'. The quest of scientific materialism to find the unity by exploring the external nature/universe  required support and basis of inner search, search for Atman.  In this attempt to bring about 'hand shake' between science and religion, the Swami unknowingly brought about new trends in monastic order. The struggle that Sister Nivedita perceived in the life of her Master was an effort of translating the superconscious into practical life.  और उसी का परिणाम है-  2020 के कोविड -19 महामारी के दौरान  आधुनिक विज्ञान (अपरा विद्या= Medical Science) और आयुर्वेद ने हाथ मिला लिया, और ' Mixopathy ' का प्रादुर्भाव हुआ। और Himalaya drug co. द्वारा 1930 में आविष्कृत आयुर्वेदिक औषधि Pilex , आज भी विश्व भर में  Piles रोग अचूक निवारक के रूप में प्रयोग की जाती है।  और मनुष्य में रोगप्रतिरोधक क्षमता (immune system ) को बढ़ाने वाले आयुर्वेदिक औषधि का प्रयोग पाश्चत्य देशों में होने लगा। और आत्मनिर्भर भारत 2021 में  कोविड वैक्सीन का निर्माता और निर्यातक  फार्मास्युटिकल  देश बन गया । और उसी प्रकार पाश्चात्य देशों में आविष्कृत आपके  मोतियाबिंद ग्रस्त प्राकृतिक लेन्स को एक नए क्लीन इंट्रा-ओकुलर लेंस से बदल देने की एक ऐसी (अद्भुत सतरंगी) सर्जिकल प्रक्रिया Micro-incision Cataract Surgery (MICS) 1.8 मिमी का माइक्रो इंसीजन सर्जरी This is a “keyhole” operation, which uses a very small incision (cut) into the eye.Currently we do not use a laser but an ultrasonic (phacoemulsifcation) probe. This breaks the lens into fragments before removing them from the eye. An intra-ocular lens implant is then inserted into the eye to replace the natural lens. ]  का आयात भी किया  जिसमें कोई लेडी सर्जन भी  (सूक्ष्म चीरा मोतिबिन्द ऑपरेशन) से आँखों को ठीक कर देती है ।.... यह सब देखसुनकर ] ..... भगिनी निवेदिता को स्वामीजी के जीवन में घटित उस घटना याद हो आयी जब निर्विकल्प समाधि की अनुभूति हो जाने के बाद उनके गुरुदेव (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव) ने भावी नेता would be Leader या भावी जीवनमुक्त शिक्षक स्वामी विवेकानन्द  से पूछा था - 'नरेन, अब तुम्हारी सबसे बड़ी ख़्वाहिश ( सर्वोच्च महत्वाकांक्षा-highest ambition) क्या है' ?   अब तुम्हारे  जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या है?  Naren , what is your chief aim of life now ?  और उनके इस प्रश्न के उत्तर में जब उन्होंने कहा कि - " मैं सदा उस समाधि के महानन्द में ही निमग्न रहना चाहूँगा , हाँ जब भूख लगेगी तो समाधि भूमि से नीचे उतर कर कुछ खा लूँगा फिर समाधि में लौट जाना चाहूँगा ! " तब श्री रामकृष्ण देव अपने सबसे प्रिय शिष्य को हल्के से डाँट लगाते हुए कहा था -'I thought you had been born for something greater my boy! ' " छिः छिः नरेन् , मैंने तो सोचा था कि अब तुम बटवृक्ष के जैसे महान बनोगे , जिसके छाँव तले बैठकर थके हारे मनुष्यों को विश्राम मिलेगा ! "
ठाकुर देव की यही (अंतिम ) शिक्षा थी जो आगे चलकर अन्य कई अविस्मरणीय घटनाओं (जमशेदपुर में मौखिक /लिखित चपरास और 16 जनवरी सरस्वतीपूजा आदि Bh =episodes-उपाख्यान ) के द्वारा , स्वामी विवेकानन्द के मन में और भी अधिक पुष्ट (buttressed ) हो कर बैठ गयी थी।  उन घटनाओं ने स्वामी विवेकानन्द को यह विश्वास दिला दिया था (convinced कर दिया था ) कि,  दलित-उत्पीड़ित एवं शोषित भारत जो झोपड़ियों में निवास करता है , उस भारत की आँखों से अश्रु को पोछने के लिए ,  उनके सूखे मुरझाये चेहरों पर मुस्कान लाने के लिए,  सर्वशिक्षा अभियान (mass education) और नारी सशक्तिकरण (Women empowerment) के लिए, प्रबुद्ध मानवसमाज पर लगे-रंगभेद नीति (racialism, partiality, bigotry.) या 'अस्पृश्यता के धब्बों को - ब्लोट ऑफ़ अनटचेबिलिटी (blot of untouchability)  को मिटा देने के लिए ही नहीं - सम्पूर्ण भारत और विश्व के कल्याण के लिए ( For the welfare of India and the whole of World ) भारत के युवाओं को " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा  ' Be and Make Leadership Training Tradition में प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से ( रामकृष्ण ब्रिगेड के भावी  प्रकाश स्तम्भ , नेता,  जीवनमुक्त शिक्षक C-IN-C   नवनीदा के नेतृत्व में 1967 में सत्ययुग की स्थापना करने के उद्देश्य से , अगले 50 वर्षों तक लगातार मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने के लिए ( एक नया संन्यासी सम्प्रदाय a New Monastic Order, रामकृष्ण मिशन के साथ-साथ ) "एक नया युवा आन्दोलन" "महामण्डल " को भी अवतरित होना ही पड़ा ! 
 
[ She remembered Sri Ramakrishna mildly rebuking his beloved disciple 'I thought you had been born for something greater my boy' when Swami Vivekananda was put the question 'Naren, what is your highest ambition' and he had answered 'to remain always in samadhi'. These teachings, further buttressed by many subsequent episodes, had convinced Swami Vivekananda that new monastic order would have to undertake 'work as worship', would have to wipe the tears of oppressed and inflicted, and to clear the 'blot of untouchability' by inculcating the twin ideals of 'renunciation and service'. Equally significant was the task of mass education and educating the women in particular.          
  इस प्रकार  स्वामी विवेकानन्द लंदन ने में प्रवास करते समय "  मायातत्व " - (तीन गुण और दो शक्ति) पर दिए अपने कई महत्वपूर्ण व्याख्यानों के माध्यम से अपनी शिष्या मार्गरेट नोबल को "Be and Make - Vedanta Leadership Training Lecture Series" के अंतर्गत  1895 से लेकर 1896 तक प्रशिक्षण देना जारी रखा !...  उन कुछ दिनों में ही सिस्टर निवेदिता ने 5000 ईसा पूर्व से चली आ रही गीता और उपनिषदों में समाहित  प्राचीन भारतीय अध्यात्म विद्या क्षेत्र (the ancient realm of Indian spirituality) की परिक्रमा सम्पूर्ण कर ली !
प्राचीन वैदिक संस्कृत में प्रयुक्त नए नए शब्द , जैसे  'अस्मिता' या 'अहम्', राग-द्वेष , अभिनिवेश , आत्मा , ब्रह्म , श्रद्धा , विवेक और बुद्धि , शुद्ध चैतन्य, प्रतिबिम्बित चैतन्य ,  ईश्वर , भगवान  (अवतार वरिष्ठ या इष्टदेव), माया , सेल्फ रियलाइजेशन , आत्मसाक्षात्कार या आत्मबोध आदि ने उनकी मनःचक्षु के समक्ष मानव मात्र द्वारा प्राप्तव्य नई सम्भावना (new vistas) के द्वार को उन्मुक्त कर दिया। 
जैसे कोई चतुर माली (deft artist) खिले हुए सुंदर और रंगबिरंगे फूलों (इन्द्रियातीत सत्य ) को अद्भुत गुलदस्ते के रूप में सजाकर सामने रख देता है ! Listening led to contemplation that merged into meditation, अपने गुरु के उन व्याख्यानों को सुनते -सुनते सिस्टर निवेदिता का जो चिन्तन (श्रवण -मनन -निदिध्यासन) प्रारम्भ हुआ था वह ' ध्यान और फिर  निर्विकल्प समाधि ' में विलीन हो गया। 
और जल्द ही निवेदिता ने अपनी जन्म भूमि में  जन्मजात रूप में प्राप्त  समस्त भोगों और सुख-सुविधा का त्याग कर दिया , और दुःख - दारिद्रय, रोग-शोक , अज्ञान और जन्म-मृत्यु के बोझ से जर्जर भारत माता की सेवा करने की पात्रता को अर्जित करने के बाद निवेदिता बहुत शीघ्र ही अपने गुरु के पास भारत पहुँच गयीं ! लेकिन भारत माता की सेवा में अपने जीवन को न्योछावर कर देने के पीछे जो  जादुई-आकर्षण शक्ति थी वह एक मात्र वेदांत (महावाक्यों) का वह ज्ञान था जो उन्हें अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों  का श्रवण-मनन -निदिध्यासन से प्राप्त हुआ था ! 
 [साभार-c s shah/ http://www.geocities.com/neovedanta/a76.html- International Forum for Neovedantins/Sister Nivedita and Swami Vivekananda ]
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Sister Nivedita and Swami Vivekananda

England, London; 1895-96

It was in the month of November 1895 that Swami Vivekananda met Margaret Noble for the first time and she was to later to become his most devoted disciple - Sister Nivedita. During his second visit, 1896, the bond became irrevocable.

Swami Vivekananda was seated on the floor of West End drawing room in meditative pose, his face radiant with dignity and poise. Childlike simplicity and calm was radiating spiritual aura. Nearly fifteen to sixteen curious listeners, newcomers to Hindu thought, sat around the Swami in a half circle and listened with rapt attention every word coming from the mouth of the great Jnani and the orator. Margaret Noble was one of them listening to the celestial words of the Swami who was elaborating ancient wisdom of the Upanishads and Vedanta to the small group:

Friends, your Church is true, our temples are true; and true is Brahman, formless and eternal, beyond the two. Time has come when nations would exchange their spiritual ideals as treasures, as they are already exchanging the commodities in the market. These ideals are but various impressions in different modes of manifestation of the One. 'All these are threaded upon Me, like pearls upon a string,' so says the Lord in The Gita. Love is the highest virtue, love knows of giving alone, never expecting anything in return. Love God, but don't barter worldly pleasures and comforts in exchange for that.

Further the Swami exhorted: Try not to accept the report of senses, for both mind and senses are but incomplete expressions of the transcendental third, the Self. Turning our

faith in realization of that Self is religion. Karma, Bhakti, and Jnana are but three paths to this end. And common to all the three is renunciation. Renounce the desires, even of going to heaven, for every desire related with body and mind creates bondage. Our focus of action is neither to save the humanity nor to engage in social reforms, not to seek personal gains, but to realize the indwelling Self itself. Renunciation points to turning away from the world in search of this Self.

And Margaret Noble, later to become Sister Nivedita, listened to every word, every idea, and every concept that was unique to her, new to her. Those words were full with deep meaning about true religion; words sweet yet foreign to this educated, literate, bold, and intelligent lady. Initially her ego resisted accepting what the Swami said, but for how long a disciple can turn a deaf ear to the call from the Guru?

As if, in the cool breeze at the bank of the holy Jamuna in the small hours of rising sun she heard the sweetest music of the Flute, attracting her unresistingly towards it. And drawn she was in ecstasy of madness in search of the music of supernatural love and beatitude. As she went nearer, clearer was the music; and soon she was enthralled with the most attractive face of Sri Krishna with his flute, beckoning her nearer and nearer. When she regained her consciousness Sri Krishna had disappeared, the storm of ecstasy had subsided, and instead there she was alone shining in the glory of realization. A sweet music emanating from within her heart, every beat was a sweet note of Bhakti and gratitude. The Swami had become her Master, and she the sister Nivedita.

The words full with wisdom of ancient Hindu thought entered her mind as the Swami continued:

Man proceeds from lower truth to higher truth, and not from error to truth. This growth in search of higher and still higher truth is what religion is all about. In the flow of time this thought is lost to the mankind and religion loses its force. And 'whenever religion decays or declines and irreligion

prevails, then I manifest myself. For the protection of the good and for the destruction of the evil, for the firm establishment of the truth I am born again and again,' so says Sri Krishna in the Gita. This is the simple essence of Divine Incarnation. Christ and Buddha, Rama and Krishna are but mighty waves on the ocean of spirituality, on the everlasting substratum of the ocean of Spirit, The Brahman.

Margaret Noble was progressive in her outlook and thought and could easily tear through the veil of Christian orthodoxy. She was pleased to listen to and meet the Hindu Yogi. But skepticism does not easily leave the mind of an educated person. The mind rebels and refuses to accept the truth. Ms. Noble was later teasingly reminded of this initial hesitancy of hers in the presence of the Swami. But the Swami, so considerate and respectful to his devotees, had said: "Let none regret that they were difficult to convince. I fought my Master (Sri Ramakrishna) for six long years, with the result that I know every inch of the way. Every inch of the way."

The words continued to make impact on Margaret, as if she continued to listen to the words of her master in the state of ecstasy:

You must have heard the mischievous word Maya. Some call it delusion, others say its an illusion or magic; still some call it Shakti or Nature. But, listen; I tell you, Maya is a simple statement of facts about the universe, as we perceive it, what we are and what we see around us. It took the Swami full four lectures to elaborate and bring home the concept of Maya, but still, Sister Nivedita wondered as to how many had really understood the intricacies of it. How many could fathom the deep meaning therein. Maya cannot be understood by trying to decipher its meaning in words or sentences, it is to be understood as a concept juxtaposed with the Self or Purusha.

One particular thing that Sister Nivedita noticed about her Master was that he never quoted anything other than the Gita, the Vedas, and the Upanishads. He was deeply convinced of

the need for ancient Indian thought to penetrate the Western psyche so that a beneficent amalgamation of science and spirituality could surface all over. What Europe needed was a 'rationalistic religion'. The quest of scientific materialism to find the unity by exploring the external nature/universe required support and basis of inner search, search for Atman.

In this attempt to bring about 'hand shake' between science and religion, the Swami unknowingly brought about new trends in monastic order. The struggle that Sister Nivedita perceived in the life of her Master was an effort of translating the superconscious into practical life. She remembered Sri Ramakrishna mildly rebuking his beloved disciple 'I thought you had been born for something greater my boy' when Swami Vivekananda was put the question 'Naren, what is your highest ambition' and he had answered 'to remain always in samadhi'. These teachings, further buttressed by many subsequent episodes, had convinced Swami Vivekananda that new monastic order would have to undertake 'work as worship', would have to wipe the tears of oppressed and inflicted, and to clear the 'blot of untouchability' by inculcating the twin ideals of 'renunciation and service'. Equally significant was the task of mass education and educating the women in particular.

Thus continued the teaching of a disciple in the lecture series through 1895 and 1896. In those few days Sister Nivedita travelled the whole of the ancient realm of Indian spirituality dating back to 5000 BCE. Words like Atman, Brahman, Self, Maya, Ishwara, God, Realization etc. opened up new vistas in front of her inner eyes, like flowers arranged in a wonderful bouquet by a deft artist. Listening led to contemplation that merged into meditation, and soon Nivedita left everything comfortable in her land of birth and accompanied her Master to reach the shores of India afflicted with poverty, want, disease, ignorance, and burden. The only force of attraction for her was Vedanta as preached by none other than her venerable Master, Swami Vivekananda.
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c s shah

http://www.geocities.com/neovedanta/a76.html  
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