[(as a Spiritual treasures *1) स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए 1895 में लंदन में कहा था - " बहुत निकट भविष्य में ' भारत के प्रबुद्ध या जागृत नागरिकों ' ('Enlightened or Awakened citizens of India' अर्थात अपने स्वरुप में जागृत मार्गदर्शक नेताओं /जीवनमुक्त शिक्षकों ) का निर्माण कर एक उपयोगी वस्तु (commodity) या आध्यात्मिक खजाने के रूप में एक देश से दूसरे देश में (या राज्य में) उनका आदान-प्रदान (exchange,बिनमय ) किया जायेगा।"]
'विवेकानन्द युवा पाठ चक्र'
[लंदन, इंग्लैंड: 1895-1896]
इंग्लैण्ड में जन्मी 'मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल' (1867–1911) को 'घनीभूत भारत' स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) का प्रथम दर्शन 1895 ई ० के नवम्बर महीने में हुआ था। लेकिन 'मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल' को भविष्य में भारत माता के लिए अपने जीवन को न्योछावर करने की तमन्ना रखने वाले देशभक्त सन्तानों की प्रेरणा स्रोत स्वरूप "भगिनी निवेदिता" अर्थात प्रिय "बड़ी-दी" [1985 की मिस सरोजा अय्यर नहीं ] बनना तो प्रारब्ध से ही निश्चित था। इसलिए 1896 में स्वामी जी की इंग्लैण्ड में जब दूसरी यात्रा हुई थी , उसी समय काली माँ (माँ भवतारिणी ) की इच्छा के अनुसार मिस मार्गरेट नोबल ने यह तय कर लिया था , कि भविष्य में उन्हें स्वामी विवेकानन्द की सर्वाधिक समर्पित शिष्या (most devoted disciple - Sister Nivedita. )" भगिनी निवेदिता " बनना होगा ! और इस प्रकार इंगलैंड की दूसरी यात्रा के बाद 1896 में मार्गरेट नोबल के लिए स्वामी विवेकानन्द के मुख से निसृत -" सिस्टर निवेदिता ", यह प्यार भरा सम्बोधन मानो विश्वगुरु भारत माता की समस्त भावी संतानों के लिए एक ही स्कूल के सहपाठी (Classmate) के प्रति अनन्त काल तक सदा एक सा बना रहने वाला स्नेह का एक अपरिवर्तनीय बंधन ( an Irrevocable Bond of affection *2 ) बन गया।
उस प्रथम विवेक-दर्शन के दिन - (मूर्तमान विवेक) स्वामी विवेकानन्द ड्राइंग रूम के पश्चिमी छोर वाले फर्श पर ध्यान मुद्रा (अर्ध--पद्मासन) में बैठे हुए थे। उनका गरिमा पूर्ण मुखमण्डल आत्मविश्वास और सन्तुलन ( dignity and poise) की विनम्रता के साथ दीप्तिमान हो रहा था। (नारद का माया दर्शन के बाद, नारद के भक्त स्वरुप में पुनः लौटने के बाद प्राप्त होने वाला आत्मविश्वास तथा संतुलन ! ) उनके चेहरे पर किसी बच्चे जैसी सरलता और प्रशांति ही एक सम्मोहक " आध्यात्मिक आभा" (spiritual aura) के रूप में विकीर्ण हो रही थी।
भारत में किसी आश्रम में किसी ब्रह्मज्ञ गुरु के मुख से गीता और उपनिषदों में उपदिष्ट संस्कृत मंत्रों की व्याख्या सुनते समय जिस प्रकार गुरु के समक्ष बैठकर श्रवण करने की परम्परा रही है , ठीक उसी प्रकार लंदन के उस ड्राइंगरूम में लगभग पंद्रह -सोलह ईसाई किन्तु हिन्दू-महावाक्यों से प्रभावित जिज्ञासु श्रोता (वेदों के चार महावाक्य से प्रभावित ' एथेंस का सत्यार्थी ' जैसे जिज्ञासु श्रोता), स्वामी विवेकानन्द के समक्ष सुखासन की मुद्रा (पालथी मारकर) में बैठे हुए थे। और उनके मुख से निकलने वाले प्रत्येक शब्द को सम्पूर्ण एकाग्रता के साथ, दत्तचित्त होकर, बहुत मन लगाकर सुन रहे थे।
उस दिन के छोटे से पाठचक्र में या वेदान्त जिज्ञासु श्रोता समूह में ( अथवा मनःसंयोग की कक्षा में) मिस मार्गरेट नोबल भी उपस्थित थी ! एवं स्वामी जी के द्वारा पातंजल योगसूत्र , गीता , उपनिषद और वेदांत के प्राचीन ज्ञान पर, विस्तार से दिए जा रहे अतीन्द्रिय उपदेशों (celestial words) के प्रत्येक शब्द का सुधबुध खोकर आकण्ठ पान करने में लीन थीं !
1895 के नवम्बर महीने में इंग्लैण्ड में , स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए जिस भाषण को सुनकर मिस मार्गरेट नोबेल मंत्रमुग्ध हो गयीं थीं, उसका पहला वाक्य ही इस प्रकार था-'Friends, your Church is true, our Temples are true; and true is Brahman, formless and eternal, beyond the two.' " मित्रों, आपका चर्च सत्य है, हमारे मंदिर सत्य हैं; और इन दोनों से परे जो निर्गुण-निराकर शाश्वत ब्रह्म (अल्ला या गॉड ) हैं वे भी सत्य हैं।" वैश्विक बाजार में , विश्व के सभी राष्ट्र आज जिस प्रकार अपने-अपने देशों में उत्पादित अनाजों अथवा उपयोगी वस्तुओं (commodities ) का आदान-प्रदान (Exchange -बिनमय) कर रहे हैं , वह समय आ गया है जब निकट भविष्य में वे अपने -अपने देशों के प्रबुद्ध या जाग्रत आध्यात्मिक आदर्शों का ( प्रबुद्ध नागरिकों का) ठीक उसी प्रकार वे एक देश से दूसरे देश में आदान-प्रदान भी किसी आध्यात्मिक खजाने के रूप में (as a Spiritual treasures *1 ) करेंगे!
{' प्रबुद्ध भारत या Awakened India' ---as a Spiritual treasures * 1) : यहाँ प्रश्न उठता है कि 'प्रबुद्ध या जागृत नागरिकों ' का निर्माण कैसे करें (मार्गदर्शक नेताओं /जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण कैसे करें) ताकि एक आध्यात्मिक खजाने के रूप में उनका बिनमय (exchange,आदान-प्रदान) एक देश से दूसरे देश में किया जा सके ? How to create 'enlightened or awakened citizens' so that they can be exchanged from one country to another as a spiritual treasure *1 :
और इसीलिए बादरायण का "ब्रह्मसूत्र" इस अत्यंत सुंदर और अर्थगर्भी वाक्य --" अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" ( ब्रसू-१,१.१ । ) से प्रारंभ होता है। "आओ, अब हम परम सत्य की जिज्ञासा करें।" यह एक आह्वान है, प्रस्थान है, दिशा है, गति भी। प्रश्न यह है कि - क्यों जानें ? तो इसका उत्तर है, क्योंकि मानव का शरीर इसीलिये मिला है। जन्माद्यस्य यतः । ( ब्रसू-१,१.२ । ) “जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है और हमारी बुद्धि से परे है, उस आत्मा को जानो।” यह सिद्धांत सर्वमान्य हैं कि बिना कर्ता के कर्म नहीं होता। अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग पर चलाने वाला, कोई महान् शक्ति या सामर्थ्यवान् होना चाहिए। उसे जानने के लिए जिज्ञासा भावना होनी चाहिए, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। शास्त्रों के अध्ययन से ही उसे पाया जा सकता है। शास्त्रयोनित्वात् । ( ब्रसू-१,१.३ । ) अर्थात् शास्त्र की योनि होने के कारण ब्रह्म सर्वज्ञ है। शास्त्र योनि त्व आत। शास्त्र उसकी योनि से उत्पन्न होते हैं या जन्मते है। त्व आत। उसी से आते हैं ; यानि ज्ञान भी उसी आत्मा के द्वारा उत्पन्न होता है। वेद उपनिषद इत्यादि जो भी सर्वज्ञगुणसंपन्न शास्त्र हैं , उनकी उत्पत्ति सर्वज्ञ को आत्मा या ब्रह्म छोड़ कर अन्य किसी से संभव ही नहीं है। अर्थात वह शास्त्र मतलब ज्ञान का जनक है। अर्थ हुआ ब्रह्म में जगत् का कारणत्व दिखलाने से उसकी सर्वज्ञता सूचित हुयी, अब उसी को दृढ़ करते हुये कहते हैं- (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इन वेदों के कर्म-काण्ड और ज्ञान काण्ड, पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द शास्त्र, ज्योतिष आदि) अनेक विद्यास्थानों को पोषित करने वाले ऋग्वेद का मूल ब्रह्म है। ऋग्वेद से ब्रह्म के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है अतः ऋग्वेद ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने का प्रमाण है आधार है कारण है।
ब्रह्म वेदान्त शास्त्र द्वारा ही जाना जा सकता है। ब्रह्म स्वरूप बतलाना ही वेदान्त शास्त्र (गीता , उपनिषद और ब्रह्मसूत्र ) का लक्ष है। ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भेद बुद्धि नष्ट हो जाती है। ‘मैं ब्रह्म हूँ ’ इन श्रुति वचनों (4 महावाक्यों ) का तात्पर्य यही है कि जीव और ब्रह्म अभिन्न है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’ जो ऐसा जानता है वह ब्रह्म मूल ही हो जाता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन है कि ब्रह्म के लिए कार्य रूप शरीर नहीं है - कारण रूप इन्द्रियाँ नहीं है - न कोई उसके समान है, न उससे बढ़कर है उसकी शक्ति महान व नाना प्रकार की है। हाथ न होने पर भी वह ग्रहण करता है, पैर न होने पर भी चलता है, आँख न होने पर भी देखता है, कान न होने पर भी सुनता है। जो कुछ जानने योग्य है वह सब जानता है किन्तु उसे जानने वाला कोई नहीं है।” ‘ब्रह्म सब कुछ देखता रहता है उसे कोई नहीं देख सकता। वह सब कुछ जानता रहता है किन्तु उसे कोई नहीं जान सकता।
जीवात्मा स्वयं ब्रह्म (सिंह शावक) होते हुए भी अज्ञान के कारण स्वयं संसारी (भेंड़ शिशु ) समझता है , और जो अपने को जैसा समझता है , वही बन जाता है। सद्गुरु (वेदान्त केसरी विवेकानन्द, श्री रामकृष्ण और सर्वोपरि जगतजननी माँ सारदा देवी ) की कृपा से इस अज्ञान (या सम्मोहन )
के नष्ट होते ही जीव ब्रह्म-स्वरूप बन जाता है। अपने यथार्थ स्वरूप को
पहिचान लेना यानी यह जान लेना कि जीव-ब्रह्म स्वरूप ही है, मोक्ष है।
जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण का दर्शन ( अर्थात अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव का दर्शन) करता है। नारायण का दर्शन सत्संग रूपी दर्पण से ही होती है। सत्संग से अभिप्राय सत्य का संग है या फिर ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य है, जिनका जीवन आदर्श है। उनका (स्वामी विवेकानन्द जैसे सद्गुरु का ) संग करने से, शारीरिक , मानसिक तथा आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है (अर्थात 3H का विकास होता है) और आत्मविश्वास बढ़ता है।
मानव-देह में ही
एक चिरन्तन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है, जब तक वह मिल नहीं जाता, इच्छायें
उसे इधर से उधर भटकाती, दुःख के थपेड़े खिलाती रहती हैं। जब तक सत्यामृत की
प्राप्ति नहीं होती, तब तक मनुष्य बार-बार जन्मता और मरता रहता है। न कोई
इच्छा तृप्त होती है और न ही आत्मसन्तोष होता है। ईश्वर हम सब को प्राप्त
है, बस आवश्यकता है तो ईश्वर को पहचानने के लिए योग्य सद्गुरु/ नेता / जीवनमुक्त शिक्षक
की। गुरु ही हमें ईश्वर की पहचान (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की पहचान) कराते हैं। जिसके आशीष-अनुग्रह से
आत्म-सत्ता (सच्चिदानन्द -Existence-consciousness-bliss) के अर्थ उजागर होते हैं। जिस माध्यम की सहायता से कोई साधक व्यष्टि से समष्टि सत्ता को स्वयं
में अनुभूत कर पाता है, वह हैं सदगुरू/नेता / जीवनमुक्त शिक्षक । [ अर्थात कोई साधक जिस आदर्श माध्यम (C-IN-C) की सहायता से अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपांतरित करने में समर्थ हो जाता है , वे हैं नवनीदा !]
आप भी आदिग्रंथ, ऋग्वेद (कठोपनिषद ) में कहे गए " उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।। काठकोपनिषत् १-३-१४" वाले सिद्धांत के अनुसार उठें , जागे तथा अपनी शक्तियों को पहचाने। - "उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त होने तक रुको मत ! - स्वामी विवेकानन्द " परन्तु हर व्यक्ति ने इस श्लोक के अर्थ को अपनी-अपनी दृष्टि से ही समझा है । कोई तो अपने व्यापार में सफलता पाना चाहता है , तो कोई IAS की नौकरी ,कोई तो खेती में (MSP) पाना चाहता है , तो कोई राजनीति -Politics आदि को अपना लक्ष्य समझ रहा है । परन्तु सम्पूर्ण मानव जाति का एक ही लक्ष्य है और वो - है आत्म कल्याण, अर्थात (deHypnotized-भ्रममुक्त मनुष्य ) ब्रह्मविद " मनुष्य " बन जाना या ब्रह्म को जानकर ब्रह्म बन जाना । ( Arise, awake, find out the great ones and learn of them; for sharp as a razor's edge, hard to traverse, difficult of going is that path, say the sages. “Arise, awake and stop not till the goal is reached.” – Swami Vivekananda. ) जिसका अर्थ कुछ यूं हैः- उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - "