गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

$$$ SANATANA DHARMA - (4) - " हिन्दू धर्म के मूलतत्व " [ Fundamentals of Hinduism.] (Sanatan Dharma: Part-1)

सनातन धर्म 

भाग -१ 

हिन्दू धर्म के मूल तत्व

(BASIC HINDU RELIGIOUS IDEAS.) 


ॐ  मंगलम दिशतु मे विनायको ,
          मंगलम दिशतु नः  सरस्वती ।
       मंगलम दिशतु नः  समुद्रजा,
               मंगलम दिशतु नो महेश्वरी।।

  विषय-प्रवेश 

     (Introduction)  

सनातन धर्म का अर्थ है शाश्वत धर्म, चिरन्तन नियम अर्थात चिरकाल से चला आ रहा नियम , जो हजारों वर्ष पहले मानव-जाति को दिए गये पवित्र ग्रन्थ वेदों [या वेदों के चार महावाक्य ] पर आधारित हैं। 

इस सनातन धर्म को ही 'आर्यन धर्म ' भी कहा जाता है, क्योंकि यह वह धर्म है जो 'आर्य ' सन्तति से निर्मित किसी प्रथम राष्ट्र को दिया गया था। 'आर्य' शब्द का अर्थ होता है - 'श्रेष्ठ जन ' (noble-ठाकुर )!  'आर्य ' नाम से सम्बोधन एक ऐसी महान प्रजाति (great race) को दिया गया था, जो विश्व के इतिहास में  इससे पहले उत्पन्न समस्त प्रजातियों में ; चरित्र और रूप-रंग की दृष्टि से बहुत अधिक उत्कृष्ट (finer) थी । [जैसे प्राचीन काल के यूपी में जन्मे भगवान श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण और आधुनिक युग के बंगाल में जन्मे भगवान श्रीरामकृष्ण देव, 'ठाकुरदेव' या स्वामी विवेकानन्द श्रेणी के आर्य /नेता /जीवनमुक्त शिक्षक ! ]

      ऐसे श्रेष्ठ (ठाकुर ) श्रेणी के मनुष्यों से निर्मित 'प्रथम परिवार ' (The first families-रघुवंश, रघुकुल रीत सदा चली आई; प्राण जाई पर वचन न जाई। ) की सन्ततियाँ उत्तर में हिमालय और दक्षिण में समुद्र के बीच के उस भूभाग में निवास करती थी , जिसे आज भारतवर्ष ( India) कहते हैं ! तथा वह भूभाग जहाँ वे बस गए थे उस सम्पूर्ण भूभाग को ही पहले 'आर्याव्रत ' (Aryavarta )के नाम से पुकारा जाता था ; क्योंकि वहां आर्य लोग निवास करते थे। [" पूर्वी महासागर से पश्चिमी महासागर तक, दो पहाड़ों (हिमवान और विंध्य पर्वत ) के बीच की भूभाग को ज्ञानी लोग आर्यवर्त कहते हैं।"] 

     समय के प्रवाह में सनातन धर्म को ही हिन्दू धर्म के नाम से पुकारा जाने लगा, और यह वह नाम है जिसके द्वारा आमतौर पर अब उस धर्म को जाना जाता है। सभी जीवित धर्मों में यह सबसे पुराना धर्म है।और विश्व के किसी अन्य धर्म ने इतने सारे महापुरुष ,महान शिक्षक, महान लेखक, महान ऋषि , महान संत, महान राजा, महान योद्धा, महान राजनेता, महान उपदेशक, महान देशभक्त पैदा नहीं किए हैं, जितना इस धर्म में पैदा हुए हैं । इस महान धर्म के विषय में जितना अधिक आप जानते जायेंगे , उतना ही अधिक आप इसका सम्मान करेंगे और इससे प्रेम करने लगेंगे , और अपने को महाभाग्यवान समझेंगे कि आप का जन्म इस महान धर्म में हुआ था ! लेकिन जबतक आप, अपने चरित्र को सुन्दर रूप से गढ़ कर , हिन्दू अर्थात आर्य श्रेष्ठ -जन कहलाने के योग्य 'मनुष्य ' नहीं बन जाते, तब तक यह महान और पवित्र धर्म आपकी रक्षा  नहीं करेगा। (this great and holy Religion will do you no good.धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात तुम धर्म की रक्षा करो धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।)

सनातन धर्म की आधारशिला 

       [The Basis of Sanatana Dharma.] 

      हमारा प्राचीन धर्म एक मजबूत नींव पर आधारित है, जिस पर इसकी संरचना (स्वरुप ) की दीवारें खड़ी की गयीं हैं। इस सनातन धर्म की नींव ( foundation-मूल सिद्धान्त ) को  " श्रुतिः " कहते हैं , -अर्थात (गुरुमुख से ) जिसे सुना गया' (Shrutih -thaबार t which has been heard) तथा  दीवारों को  "स्मृतिः " कहा जाता है , अर्थात ' जिसे याद किया गया है ' (Smrtih,that which has been remembered)

            श्रुति ** अत्यन्त  बुद्धिमान पुरुषों के माध्यम से दी गई है, जिन्होंने स्वयं इसे देवों से सुना और प्राप्त किया था, पुस्तक के रूप में छापने की मशीनों का आविष्कार बहुत हाल के समय तक नहीं हुआ था , इसलिए इन  पवित्र शिक्षाओं को गुरु के  मुख से सुनकर और लगातार दोहराकर कण्ठस्थ कर लेना पड़ता था।

[ ** मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका, नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या। वास्तव में  गुरु की सत्ता – गुरु की प्रकृति – ऐसी श्रद्धा और प्रज्ञा से युक्त  होती है, जो माता के सामान  ममत्व का भाव रखती है तो पिता के सामान उचित मार्गदर्शन भी करती है। क्योंकि गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत जल से शिष्य के व्यक्तित्व की नींव को सींच कर उसे दृढ़ता प्रदान करता है और उसका रक्षण तथा विकास करता है।  गुरु शिष्य को ज्ञान और पुरुषार्थ का मार्ग दिखाता है, किन्तु यह शिष्य पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार उस ज्ञान और पुरुषार्थ में वृद्धि करके प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है | क्योंकि अन्ततोगत्वा पुरुषार्थ तो व्यक्ति को स्वयं ही करना पड़ता है।

 हमारे देश में पौराणिक काल से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा के रूप में मनाया जाता है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से प्रायः वर्षा आरम्भ हो जाती है।  चातुर्मास की अवधि में सभी ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास करते थे। और इस प्रकार इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी।  क्योंकि विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी, अर्थात  गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था। गुरु के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को न केवल स्मरण रहती थी, बल्कि उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी। इस प्रकार  गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य प्राप्त होती थी और उनके व्यक्तित्व की नींव दृढ़ होती थी जो उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती थी।

 भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उपपुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव” की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था। इसलिये बौद्ध धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं।]

   गुरु अपने शिष्यों को पहले श्रुति विद्या (गीता , उपनिषद, ब्रह्मसूत्र ) के कुछ श्लोकों को गाकर सुनाते थे ; उसके बाद शिष्य एक एक श्लोक के कुछ शब्दों को बार बार दोहराते थे , जब तक वे उनको कंठस्थ करके ठीक से समझ नहीं लेते थे। आज भी हमारे देश में ऐसे कई वैदिक पाठशाला (गुरुकुल ) हैं , जहाँ लड़के अभी भी श्रुति को उसी तरह से सीखते हैं जैसे उनके पूर्वजों ने इसे बहुत प्राचीन दिनों में सीखा था। और वर्तमान समय में भी आप किसी वैदिक पाठशाला में जाकर लड़कों को उन श्लोकों का जाप करते हुए सुन सकते हैं। 

    " श्रुति " के अन्तर्गत "चतुर्वेद" आते हैं ; या श्रुति में चार वेद होते हैं। Veda means knowledge, that which is known ; वेद का अर्थ है- जो जाना जाता है वह ज्ञान ! 'वेद' शब्द 'विद' धातु से बना है , जिसका अर्थ होता है 'जानना' अर्थात ज्ञान ; और  जो ज्ञान धर्म की नींव है वह मनुष्य को चार वेदों के माध्यम से दिया गया है। तथा उनके नाम हैं - "ऋग्वेद:" (Rigvedah) ; "सामवेद:" (Samavedah); "यजुर्वेद:" (Yajurvedah); और "अथर्ववेद:" (Atharvavedah) | { तथा 'वेदान्त' का मतलब है 'जानने का अन्त ',जिसको जान लेने के बाद और कुछ जानना बाकि नहीं रह जाता , अर्थात इन्द्रियातीत सत्य (परम् सत्य या ब्रह्म ) को जानकर ब्रह्म हो जाना। 'अंतिम ज्ञान' - " ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।।" ... ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं। 

प्रत्येक वेद को तीन भागों में बांटा गया है:

1. मन्त्र वाला भाग ; या संहिता अर्थात मंत्र संग्रह (Mantrah-collection कोडवर्ड )  

2. ब्राह्मणम (Brahmanam.)

3. उपनिषद (Upanishat.) 

    वेदों के मंत्र भाग (The Mantra portion ) में कुछ ऐसे बीज मंत्र या वाक्य होते हैं, जिसके ध्वनियों के उच्चारण -क्रम में एक विशेष शक्ति होती है, जो कुछ विशेष निश्चित प्रभाव (या तासीर ) पैदा करती है। ये वाक्य उन देवों के स्तुति-गीत (hymn-स्तोत्र ) होते हैं , जिनका सम्बन्ध मनुष्यों से होता है। और जो उसको अपने यथार्थ स्वरुप के विषय में जाग्रत करने में किस प्रकार सहायता करता है , उसका अध्यन हम आगे करेंगे। तथा उन बीजमंत्रों को जब कोई उचित रीति से निर्देशित व्यक्ति (दीक्षित साधक -properly instructed person) सही ढंग से जप करता है , तब उसका असन्दिग्ध परिणाम या अचूक परिणाम अवश्य सामने आता है ! कुछ विशेष धार्मिक अनुष्ठानों (religious ceremonies-यज्ञ आदि ) में भी इनका उपयोग किया जाता है; और उन अनुष्ठानों का मूल्य मुख्य रूप से उन बीजमंत्रों के उचित जाप पर (repetition पुनरावृत्ति पर) निर्भर करता है।  

   वेदों के ब्राह्मण भाग (The Brahmana portion of the Vedas) में धार्मिक अनुष्ठानों के विषय में कुछ दिशा-निर्देश होते हैं , जो यह बताते हैं कि उन अनुष्ठानों को हमें किस प्रकार सम्पन्न करना है। इस पुस्तक के प्रथम भाग में उन मंत्रों को तथा उनसे जुडी हुई कहानियों का वर्णन किया गया है। 

     वेदों के उपनिषद भाग (The Upanishat portion ) में ब्रह्म के स्वभाव के विषय में गहरी दार्शनिक विवेचना और उपदेश दिए गए हैं। इसमें पूर्ण और अंश , परम् सत्य और सापेक्षिक सत्य , परमात्मा और आत्मा (the supreme and the separated Self) के विषय में , व्यष्टि और समष्टि अहं के बारे में , मनुष्य और ब्रह्माण्ड (man and the universe) के बारे में , बन्धन और मुक्ति (bondage and liberation-मोक्ष ) के बारे में वर्णन किया गया है। यह सभी दर्शन की नींव है, और जब तुम इस सर्वश्रेष्ठ मनुष्य-योनि को प्राप्त हो चुके हो तब , प्रत्येक मनुष्य इसका अध्यन कर सकता है और इससे आनन्द प्राप्त कर सकता है। 'Only highly educated men can study it; it is too difficult for others.' केवल उच्च शिक्षित मनुष्य ( अर्थात गुरु--शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित मनुष्य ) ही इसका अध्ययन कर सकते हैं; दूसरों के लिए , उपनिषदों के मर्म को समझ लेना बहुत मुश्किल है।

          प्राचीन युग में वेद का चौथा भाग भी  था, जिसे कभी-कभी "उपवेद:" (Upavedah) या "तन्त्रम" (Tantram) कहा जाता था। इसके अंतर्गत 'science, and of practical instructions based on the science ' विज्ञान, और विज्ञान पर आधारित व्यावहारिक निर्देश को रखा गया था। लेकिन सच्चा प्राचीन तंत्र (ancient Tantra) शास्त्र इस समय बहुत कम ही उपलब्ध है। क्योंकि हमारे पूर्वज ऋषियों ने जब यह देखा कि काल के प्रवाह में मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल ( less spiritual) हो गए हैं, तब उन्होंने समय की दृष्टि से उन तंत्र -शास्त्रों को अनुपयुक्त समझकर उन्हें पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया। बावजूद इसके ,  वर्तमान वैदिक रूप के साथ अथवा बिना इसके भी ; पूजा करते समय तांत्रिक-अनुष्ठान के कुछ रूप अब भी प्रयोग में लाये जाते हैं। लेकिन , तंत्र-शास्त्र के नाम से अब जो पुस्तकें प्रचलन में हैं, आमतौर पर उन्हें वेद का हिस्सा नहीं माना जाता है ! 

         सनातन धर्म का प्रत्येक निष्ठावान  अनुयायी जो कुछ नियम या सिद्धान्त (महावाक्य ) हमारे श्रुति ग्रंथों में पाए जाते है , उनको ही अंतिम रूप से सर्वोच्च अधिकारी ( supreme authority) के रूप में स्वीकार करता है। सनातन धर्म के अंतर्गत आने वाले किसी सम्प्रदाय , या किसी दार्शनिक प्रणाली, (जैसे शैव, शाक्त , वैष्णव या सिख , बौद्ध , जैन आदि सम्प्रदाय) के बीच कोई विवाद उठने पर अंतिम निर्णय के लिए श्रुति को ही निर्धारक माना जाता है।
       स्मृति-ग्रन्थ (या धर्म शास्त्र) भी  श्रुति पर ही आधारित हैं , तथा निर्णायक प्रभुत्व की दृष्टि से श्रुति के बाद प्रथम स्थान इनको ही प्राप्त है। इसके अन्तर्गत ऋषियों के द्वारा रचित चार महान स्मृति -ग्रंथों को लिया जाता है -जिसमें मुख्य रूप से व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में अचार और अधिनियम (laws and regulations) के पालन आदि को विषयवस्तु के रूप में लिखा गया है। हिन्दू समाज इन्हीं अचार और अधिनियमों पर आधारित है , तथा इन्हीं कानूनों के द्वारा शासित होता है।  जिनके नाम इस प्रकार हैं -

1. मनु स्मृतिः (Manu Smrtih) : महर्षि मनु की संस्थान (The Institutes of Manu) के नियम-कानून, अथवा ' मानव-धर्म शास्त्र ' (Anthropology -नृविज्ञान या मनुष्यजाति का विज्ञान, or Manva Dharma Shastram.

2. याज्ञवल्यक्य  स्मृतिः (Yagyvalkya Smritih ) 

3. शंख लिखित स्मृतिः (Shankha Likhita Smrtih.) 

4. पराशर स्मृतिः ( Parashara Smrtih.)  

        उपरोक्त चार धर्म शास्त्रों या स्मृति ग्रंथों में पहला 'आर्यन अचार-अधिनियमों ' के बारे में सबसे विस्तृत और सर्वोच्च वर्णन (compendium ) है ; मनु महाराज को आर्य-जाति का महान विधिकर्ता या कानून घड़ने वाला (Law-giver) माना जाता है।  हिन्दू कालक्रम-विज्ञान (Hindu chronology) विश्व के इतिहास को सबसे शानदार 7 युगों में, या अस्तित-चक्र (कालचक्र cycle of existence, or cycles of time) में विभाजित करता है। इन में प्रत्येक युग एक 'मनु ' से प्रारम्भ होता है , और दूसरे 'मनु ' द्वारा समाप्त होता है। इसीलिये इस कालचक्र को एक मन्वन्तर (Manvantara या Manu-antara) या " दो मनुओं के बीच का कालखण्ड "between (two) Manus." कहा जाता है। 

" इस 'मनु ' की जाति से संबंधित दूसरे '6 मनु' भी , अत्यन्त महान वैभवशाली और अत्यन्त प्रतिभाशाली "स्वयंभू मनु " के वंशज (the descendant of Svayambhu ) हैं , तथा प्रत्येक ने प्राणियों का निर्माण किया है। " चूँकि प्रत्येक मन्वन्तर में दो मनु होते हैं , इससे यह पता चलता है कि हमलोग चौथे मन्वन्तर में और सातवें मनु के शासन में रह रहे हैं। अगला श्लोक कहता है कि वे विवस्वत (Vivasvat या सूर्य ) के पुत्र हैं। उनके द्वारा घड़े कुछ अचार-अधिनियमों का वर्णन मनुस्मृति में दिया गया है।

               याज्ञवल्क्य स्मृति (The Yagyavalkya Smrtih) भी मनुस्मृति के समानांतर रेखा का अनुसरण करती है , तथा सामाजिक महत्व के मामले में उसके सबसे निकट मानी जाती है। इन दिनों अन्य दो स्मृति -शास्त्र , दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों को छोड़कर , कहीं भी उनका अध्यन नहीं किया जाता है, या उनमें दिए नियमों का उल्लेख भी नहीं होता है।

            जिस प्रकार श्रुति सनातन धर्म की नींव है , और स्मृति उसके किले की दीवार (Ramparts -परकोटा) हैं ; उसी प्रकार इस दुर्ग को मजबूत करने वाले अन्य दो महत्वपूर्ण घटक हैं - पुराणानि (Puranas) एवं इति-हा-स: (Itihasah या History)| 

      पुराणों में इतिहास , ऐसी प्राचीन कहानियाँ और दृष्टान्त कथाएं (allegories) आदि का वर्णन है , जिसकी रचना राष्ट्र के कम पढ़े -लिखे सदस्यों (नागरिकों ) के उपयोग के लिये, विशेष रूप से जो (कृषक-मजदूर आदि ) वेदों का अध्यन करने में असमर्थ रह गए हैं, उनके उपयोग के लिए हुई है। पुराणादि पढ़ने में बहुत चित्ताकर्षक तो हैं ही, साथ-साथ सभी प्रकार के ज्ञान की बातों से भरी हुई हैं।  हाँ , यह बात जरूर है कि पुराणों में दिये गए कुछ कुछ नीति-कथायें ( allegories रूपक) को पढ़कर उसके मर्म को समझ पाना कठिन होता है, तथा उन्हें समझने के लिए किसी मार्गदर्शक नेता /जीवनमुक्त शिक्षक के मदद की आवश्यकता होती है। 

भारतवर्ष का इतिहास दो महान काव्यों में समावेशित हुआ है

 1. रामायणम  (The Ramayanam) : जैसा कि आप सभी जानते हैं , रामायण महाकाव्य राजा दशरथ के पुत्र श्री रामचंद्र और उनकी पत्नी सीता और उनके भाइयों का इतिहास है , जिसे एक सर्वाधिक मनोरंजक और मंगलमय कथा के रूप में लिखा गया है। 

2. महाभारतं  (The Mahabharatam ) : महाभारत , उत्तरी भारत के एक राजवंश "कुरु-वंश " का इतिहास है जो आगे चलकर दो दलों - कौरवों और पाण्डवों (Kurus and the Pandavas) में विभाजित हो गया; और जिनके बीच महान युद्ध (महाभारत ) छिड़ गया। इस महाकाव्य में एक अपरिमित परिमाण में सुंदर कहानियाँ, उत्कृष्ट नैतिक शिक्षायें एवं सभी प्रकार के उपयोगी दृष्टान्त समावेशित हैं।

      प्राचीन भारत (ancient India) के बारे में , उस समय के लोगों के बारे में , रीति-रिवाज के बारे में, उनके रहन-सहन के बारे में , उनके जीवनयापन के तरीकों के बारे में, उस समय की ललित-कला और शिल्प-कला के बारे में आज हमलोग जो कुछ भी जानते हैं, उनमें से अधिकांश बातें हमें इन दोनों महाकाव्य रामायण और महाभारत से ही जानने को मिलती हैं। यदि तुम इन महान काव्यों का अध्यन करोगे , तब तुम्हें पता चलेगा कि एक समय में भारत कितना महान था ; और तुम यह भी समझ जाओगे कि उसे एक बार पुनः महान बनाने के लिए तुम्हें दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए , और कैसा मनुष्य **बनना चाहिए।

[** 'इन का सारांश, बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में श्रीमती एनी बेसेंट (Annie Besant)  द्वारा अंग्रेजी में प्रदत्त व्याख्यानों में दिया गया था , जिसे बाद में  " द स्टोरी ऑफ द ग्रेट वॉर" ,  एवं " स्टोरी ऑफ़ श्री रामचंद्र " के नाम से प्रकाशित किया गया है। (क्या वे पुस्तिकाएं BHU की लाइब्रेरी में आज भी उपलब्ध हैं ? ) ] 

" सनातन धर्म का विज्ञान और दर्शन "

[The Science and Philosophy of Sanatana Dharma.]

हिन्दू धर्म का अभेद्य दुर्ग एक ओर जहाँ श्रुति और स्मृति तथा पुराण और इतिहास के द्वारा निर्मित है ; वहीं दूसरी ओर देखते हैं कि स्वयं इस धर्म ने ही विज्ञान और दर्शन के उत्कृष्ट साहित्य को जन्म दिया है। 

   विज्ञान (अपरा विद्या ) को षडंगानी (Shadangani) अर्थात षड -अंग (Six Angas) शब्दतः छह शाखाओं में विभाजित किया गया था। हिन्दू-धर्म जिन छह शाखाओं से मिलकर बना हुआ है , उन छह शाखाओं (six Branches ) या अंगों को आज की भाषा में - सांसारिक या ऐहिक-ज्ञान (secular knowledge), अथवा धर्म-निरपेक्ष ज्ञान कहा जायेगा। (In the old days religious and secular knowledge were not divided.पाश्चात्य शिक्षानीति लागु होने से पहले ? ) प्राचीन काल में धार्मिक ज्ञान (religious knowledge, परा-विद्या अर्थात संन्यासियों के द्वारा समझा जाने वाला ज्ञान), और विज्ञान (secular knowledge अपरा- विद्या, गृहस्थों के द्वारा सीखा जाने वाला ज्ञान) को अलग-अलग विभाजित नहीं किया गया था। 

       इनके अंतर्गत व्याकरण (Grammar) , दर्शनशास्त्र (Philosophy), भाषाविज्ञान (Philology-संस्कृत भाषा देवभाषा है , क्योंकि इसमें व्याकरण पहले बना भाषा बाद में बनी ) , ज्योतिष (Astrology), काव्य-छन्द (Poetry) , 64 कलायें और विज्ञान (sixty-four sciences and arts), तथा शिक्षा [ and the method by which study should be carried on, अर्थात वह विधि या प्रशिक्षण पद्धति (3H विकास के 5 अभ्यास की प्रशिक्षण पद्धति ) जिस विधि के अनुसार अध्यन किया जाना चाहिए।] को समावेशित किया गया था ताकि जो कोई भी मनुष्य इन छह अंगों में महारत हासिल कर ले , वह विविध और गहरी शिक्षा से सम्पन्न यथार्थ मनुष्य के रूप में निर्मित हो जाये। 

     दर्शनशास्त्र के भी छह विभाग थे (the Six Darshanas) , जिन्हें षड् -दर्शनानी, षड्दर्शन, The Six  ways of seeing things - अर्थात जगत को या चीजों को देखने के तरीके थे, जिन्हें आमतौर से छह दर्शन या छह प्रणाली (The Six Systems) कहा जाता है।  इन छह प्रणालियों (वेद से विवेकानन्द तक) का उद्देश्य एक ही है , और वह है - ' सर्व दुःख निवृत्ति ' ** [“साधन चतुष्टय के माध्यम से ज्ञानम (Jnanam), या प्रज्ञता (Wisdom) को उपलब्ध होकर सभी दुःखों से मुक्ति व आनन्दमय मोक्ष की प्राप्ति " the putting an end to pain, by enabling the separated human selves to reunite with the supreme Self ;  and they all have one method the development of ज्ञानम  Jnanam, Wisdom. ] सभी मनुष्यों का मानसिक -गठन (मस्तिष्क का रुझान) अलग -अलग प्रकार का होता है , इसलिये वे अपने-अपने मानसिक गठन के अनुसार इन छः दर्शनों में से एक को या छहों को चुन सकता है , अतः ये छः दर्शन एक ही नगर तक पहुँचने के छः अलग अलग मार्ग हैं।

{ ** दुःखों से निवृत्ति का उपाय आध्यात्मिक ज्ञान व उसके अनुरूप कर्म करना है। ज्ञान दो प्रकार का है जिसे आध्यात्मिक एवं सांसारिक ज्ञान (religious knowledge and secular knowledge) कह सकते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद भौतिक पदार्थों की अल्प मात्रा में उपलब्धता होने पर भी हम सुखी रह सकते हैं। दूसरी ओर सांसारिक ज्ञान (अपरा विद्या ) हमें सुख भोग के प्रति आसक्त और अतृप्त बना देता है।  हम आज के संसार में देखते हैं कि सब प्राणियों से मनुष्य का शरीर श्रेष्ठ होने पर भी यह मानव प्रायः सारा जीवन दुःख व क्लेशों से घिरा रहता है। दूसरों लोगों को देख कर यह अपनी रुचि व सामर्थ्यानुसार विद्या प्राप्त कर धनोपार्जन एवं सुख-सुविधा की वस्तुओं का संग्रह व उनके भोग को ही सुख व परम-लक्ष्य मान लेता है। मनुष्य बिजीनेस आदि अनेक कार्यों को करके रात-दिन धनोपार्जन करने में व्यस्त रहते हैं। उनके पास अपने को स्वस्थ रखने के लिये भी समय नहीं होता। सोकर उठते ही वह अपने कुछ अत्यावश्यक दैनन्दिन कार्य करते हैं और धनोपार्जन के कार्यों में लग जाते हैं। रात्रि शयन से पूर्व तक भोजन आदि के लिये कुछ समय निकाल कर वह सारा समय धन कमाने व सुख-सुविधा की वस्तुयें एकत्रित करने में लगाते हैं। ऐसा करते हुए ही उसकी आयु व्यतीत होती जाती है और मृत्यु आ जाती है। क्या इसी का नाम मनुष्य जीवन है? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। मनुष्य की आयु, जो वैदिक काल में 100 से 300 व 400 वर्ष तक की होती थी, आजकल प्रायः 55 से 80 वर्ष के बीच ही समाप्त हो जाती है। हमें हर क्षण यह स्मरण रखना चाहिये कि दुःख का मूल कारण पापाचरण तथा सुख का मूल कारण धर्माचरण है। मनुष्य को सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय अवश्य करना चाहिये। इन्हें पृथक्-पृथक् यथार्थ रूप में जानना चाहिये। मानव शरीर अर्थात् इसके पंच कोषों का हमें विवेचन करना चाहिये। आत्मा और शरीर की तीन अवस्थायें होती हैं। एक ‘जागृत’, दूसरी ‘स्वप्न’ और तीसरी ‘सुषुप्ति’ अवस्था। तीन शरीर हैं- एक ‘स्थूल’ जो यह दीखता है। दूसरा पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच सूक्ष्म भूत, मन तथा बुद्धि, इन सतरह तत्वों का समुदाय ‘सूक्ष्म शरीर’ कहाता है। इन सब पांच कोशों तथा तीन अवस्थाओं से जीव पृथक है। यह सूक्ष्म शरीर जन्म–मरणादि में भी जीव के साथ रहता है।  जब इन्द्रिया अपने अपने विषयों में, मन इन्द्रियों के साथ और आत्मा मन के साथ युक्त होकर प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों में लगाता है तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय अच्छे कर्मों को करने में भीतर से आनन्द, उत्साह, निर्भयता और बुरे कर्मों में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न होती है। यह अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्त्तता है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है और जो विपरीत वर्त्तता है वह बन्धजन्य दुःख भोगता है। चौथा तुरीय शरीर वह कहाता है जिस में समाधि से शरीर का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है।   वैदिक शास्त्रों में बार-बार के जन्म-मरण तथा सभी दुःखों से मुक्ति के लिये ही पंचमहायज्ञों, स्वाध्याय, यम,नियम आसन, प्रत्याहार , धारणा, ध्यान, अष्टांग योग, सन्ध्या, यज्ञ व सदाचारण आदि का विधान किया गया है।  इन चार साधनों साधन-चतुष्टय  के नाम विवेक, वैराग्य, षट्क सम्पत्ति तथा मुमुक्षत्व हैं।  हमें अपने शास्त्रों को पढ़कर अपने विवेक से आत्मा व मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानना चाहिये और अक्षय सुख की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये।}

      यदि कोई यह जानना चाहे कि दर्शन की इन छः प्रणालियों ( Six Systems of philosophy) में क्या सिखाया गया है ? तो छात्रों के लिए केवल इतना जान लेना पर्याप्त होगा कि ; न्याय (Nyaya) और वैशिषिक (Vaisheshika) संसार की सभी वस्तुओं को एक निश्चित संख्या में क्रमवार ढंग रखने का प्रयत्न करता है। फिर इस तथ्य को सामने रखता है कि यह जगत पंचेन्द्रिय ग्राह्य है , अतः मनुष्य अपनी पांच इन्द्रियों के माध्यम से ही इसके पांच विषयों को जान सकता है। अथवा अनुमान (inference) और उपमान  (analogy-सादृश्य) अथवा आप्त ऋषियों की घोषणा, गवाही -वेदाहमेतं  या प्रमाण से  (by testimony of wise and experienced) जगत रचना को समझा जा सकता है। फिर वे यह समझाते हैं कि अणुओं और परमाणुओं के द्वारा ईश्वर (माँ काली) ने इस भौतिक जगत को (जड़-चेतन मय विश्व-ब्रह्माण्ड) को कैसे रचा है। अंत में वे यह बताते हैं कि कैसे सर्वोच्च और सबसे उपयोगी ' ज्ञानम ' के द्वारा भगवान (ब्रह्म) को भी जाना जा सकता है। और वे यह भी बतलाते हैं कि मनुष्य के केन्द्र के समीपस्थ (inmost-सबसे अंदरूनी) आत्मा भी ईश्वर ही है , तथा इस ज्ञानम को प्राप्त करने के लिए कई प्रकार के मार्ग हैं। 

    सांख्य शास्त्र  (The Sankhya) में  क्या है ? तो सांख्य पुरुषः ( Purushah, पुरुष या चेतन आत्मा,pure consciousness ) तथा प्रकृतिः (Prakritih, Matter) जड़ पदार्थ या द्रव्य (reflected consciousness) के स्वभाव; तथा एक के साथ दूसरे के सम्बन्ध की व्याख्या, न्याय और वैशिषिक की अपेक्षा और अधिक विस्तार से और नए तरीकों से करता है।  

      योग-शास्त्र कहता है कि , जैसा कि अब हमलोग आम तौर पर यह जानते हैं कि स्थूल शरीर में हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (five sense organ या मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र ) और पाँच कर्मेन्द्रियाँ (five organs of action) हैं; उसी प्रकार हमारे सूक्ष्म शरीर में भी अतिसूक्ष्म (subtler-और तीव्र संवेदी) अन्य ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियाँ भी होती हैं ! तथा जो मनुष्य (एथेंस का सत्यार्थी- who are seeking to know God) परम् सत्य , ब्रह्म या भगवान को, जो कि उनकी अपनी सच्ची आत्मा ही हैं (own true inmost Spirit) - को जानना चाहते हैं , वे (अपने यथार्थ स्वरुप को ) उन स्थूल एवं अतिसूक्ष्म इन्द्रियों (मन-बुद्धि-चित्त -अहंकार या 3H ) को विकसित करके ' उन्हें ' कैसे  जान सकते हैं , उस विकास पद्धति की व्याख्या अधिक विस्तार से करता है। [ The Yoga says that as there are now generally known five senses and five organs of action, so there are other subtler senses and organs; and explains more fully how they may be developed by men who are seeking to know God, who is their own true inmost Spirit.] 

          मीमांसा शास्त्र (The Mimansa) हमें यह बतलाता है कि धार्मिक कर्म या पवित्र कर्म [Religious karma or Sacred work] तथा सांसारिक कर्म [Worldly karma or Secular work] दोनों प्रकार के कर्म ( i. e., Action) क्या हैं ? तथा इसके परिणाम, कारण और प्रभाव क्या हैं, तथा किस प्रकार ये कर्म ही मनुष्यों को - जन्म-मृत्यु चक्र (this world or to another) के बंधन में बाँध देते हैं ? 

     वेदान्त दर्शन (The Vedanta) की विशेषतायें : सबसे अंत में वेदान्त हमें यह बतलाता है कि ईश्वर ( आत्मा  या ब्रह्म) का एकदम शुद्ध और वास्तविक स्वरुप क्या है। तथा यह दिखलाता कि जीवात्मा भी वस्तुतः ब्रह्म ही है। फिर इस बात की व्याख्या भी करता है कि मनुष्य को अपना जीवन कैसे व्यतीत करना चाहिये ताकि कर्म उसको बन्धन में नहीं डाल सके ! और सबसे अंत में वेदान्त हमें यह भी समझा देता है कि , ब्रह्म ( या आत्मा ?) की वह माया शक्ति (माँ काली ) क्या है , जिसके द्वारा यह विश्व-ब्रह्माण्ड निर्गत  होता है (comes forth), दिखाई देता है ( appears -भासता और आकार ग्रहण करता है ) और फिर गायब या अदृश्य  हो जाता है (disappears, अन्तर्ध्यान हो जाता है ! तथा योगाभ्यास [3H विकास के 5 अभ्यास] का प्रशिक्षण प्राप्त करके , मनुष्य कैसे अपने मिथ्या व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरित करके अपने आप को विलय कर सकता है और भगवान के साथ एक हो सकता है; और इसलिए मोक्ष प्राप्त कर सकता है । [ अर्थात सबसे अंत में वेदान्त हमें वह उपाय बतलादेता है कि मनुष्य कैसे सदा के लिये de-Hypnotized अवस्था को प्राप्त कर सकता है ?   how he may (after practice of Yoga) merge himself into and become one with God and so gain Moksha.]

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