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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

" स्वामी विवेकानन्द के साथ भगिनी निवेदिता का भारत -भ्रमण पर थोड़ी चर्चा" ["NOTES OF SOME WANDERINGS WITH THE SWAMI VIVEKANANDA" BY SISTER NIVEDITA' ]

   28 अक्टूबर, 1867 को जन्मीं निवेदिता का वास्तविक नाम ‘मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल’ था। एक अंग्रेजी-आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, शिक्षक एवं स्वामी विवेकानन्द की शिष्या- मार्गरेट ने 30 साल की उम्र में भारत को ही अपना घर बना लिया।उनकी शिक्षा इंग्लैंड के एक चैरिटेबल बोर्डिंग स्कूल में हुई। सिर्फ 17 साल की उम्र में अपनी पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने शिक्षक की नौकरी कर ली। ताकि वे अपनी माँ और भाई-बहनों का ख्याल रख सकें।

 वे मनुष्य जीवन का सच्चा सार और उद्देश्य जानना और समझना चाहती थीं और इसीलिए उन्हें महान विचारकों और सुधारकों की संगत बेहद पसंद थी।  आयरलैंड की मार्गरेट एक स्कूल में टीचर थीं और विचारों से सामाजिक-धार्मिक होने के चलते लंदन के कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखती थी. शादी करने जा रहीं मार्गरेट के मंगेतर की मौत एक एक्सीडेंट में हो गई थी. उसके बाद से सांसारिक (भोग) दुनिया से उनका ध्यान हट गया. 

 साल 1895 में मार्गरेट के जीवन में सबसे बड़ा बदलाव आया। दरअसल, अमेरिका की यात्रा करके स्वामी विवेकानंद लंदन चले आए. उन्हें एक निजी संगठन द्वारा  बुलाया गया था। लंदन में स्वामी जिसके घर पर रुके थे, उन्होंने मार्गरेट को भी एक ‘हिन्दू योगी’ का भाषण सुनने के लिए  बुलाया।  और पहली ही मुलाकात में वो विवेकानंद के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुईं। और जब विवेकानंद मार्गरेट से मिले तो उन्हें भी समझ में आ गया कि मार्गरेट भारतीय महिलाओं के उत्थान में योगदान कर सकती हैं।  इस योगी की बातों और विचारों ने मार्गरेट को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने भारत आने का फैसला कर लिया।

 इसके तीन साल बाद, 28 जनवरी 1898 को वो स्वामी विवेकानंद की शरण में भारत आ गयीं।  स्वामी विवेकानंद ने उन को 25 मार्च 1898 को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी और उनका नाम रखा भगिनी (बहन) निवेदिता. दीक्षा देकर भगवान बुद्ध के करुणा के पथ पर चलने की प्रेरणा दी। विवेकानंद उन्हें अपनी मानस पुत्री (आध्यात्मिक बेटी) मानते थे।  पाश्चत्य जगत की भोगवादी चमक-धमक को छोड़कर स्वामी विवेकानंद का शिष्यत्व ग्रहण करने को आतुर आयरिश युवती मार्गरेट भारत की ही हो गयी। वेदांत (अद्वैत के चार महावाक्यों) को सीखा,अपनाया और जीया भी । जिन तेजस्वी गुरु स्वामी विवेकानंद के आकर्षक व्यक्तित्व और सदाचार से प्रभावित होकर मातृभूमि छोड़ी थी। उन्हीं के द्वारा दिए ज्ञान ने भारत को कर्मभूमि बनाकर एक शिक्षिका और लेखिका मार्गरेट से अलग एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक व सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भगिनी निवेदिता नाम से ख्याति प्राप्त की। स्वामी जी की दो और विदेशी शिष्याएं उन दिनों कोलकाता में थीं, जिनमें से एक नॉर्वे के मशहूर संगीतकार ओले बुल की पत्नी  सारा सी बुल और अमेरिका की जोसफिन मेकलॉड.इन सभी के साथ विवेकानंद ने कश्मीर समेत पूरे देश की और अमेरिका की यात्रा भी की थी।  जबकि 1902 में जर्मनी से सिस्टर क्रिस्टीन भी आ गईं, क्रिस्टीन ने ही निवेदिता की मौत के बाद उनका स्कूल संभाला था।  

 निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद और अपने रिश्तों को लेकर एक किताब लिखी, 'The Master, As I Saw Him'.(‘मेरे गुरुदेव , जैसा मैंने उन्हें देखा ’.) निवेदिता ने उस पुस्तक में उन्हें किंग और खुद को उनकी आध्यात्मिक पुत्री की तरह लिखा है। निवेदिता के ऊपर स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता लिखी थी। इस कविता को पढ़कर हम समझ सकते हैं कि वे अपनी इस प्रिय शिष्या का कितना सम्मान करते थे ! यद्यपि इस कविता को लिखने का समय अज्ञात है। तथापि, ऐसा लगता है कि यह 1900 ईस्वी में लिखा गया था। क्योंकि भगिनी निवेदिता द्वारा  13 जनवरी, 1900 को  स्वामीजी को लिखित एक पत्र इस कविता का उल्लेख करते हुए लिखा था - " जन्मदिन के अवसर पर लिखी हुई आपकी कविता कल रात में प्राप्त हुई है ! "

यह कविता इस प्रकार है -  

"जगतजननी जैसा सर्वव्यापी विराट  हृदय, वीरों जैसी अटल इच्छाशक्ति ,

 शीतल मन्द दक्षिणी समीर जैसी  मिठास,   आर्यों की यज्ञ वेदियों पर धधकती

 पवित्र और मुक्त ज्वाला जैसी  जादुई आकर्षण शक्ति --ये सभी तुम्हारे (स्वाभाविक गुण) हों ,

 तथा इस सबके अतिरिक्त  कई वैसे अन्य कई सद्गुण ,  

जिसका स्वप्न भी तुमसे  पहले किसी प्राचीन आत्मा नहीं देखा हो , 

विवेकानन्द के आशीर्वाद से,  '  भारत की भावी संतानों के लिए ,

 वैसे समस्त ( 24 गुण) से परिपूर्ण होकर -- हे निवेदिता , तुम एक ही आधार में तीन - 

सेविका , बांधवी (सखी) और गुरु (The mistress) बनो !  

[श्री कृष्ण भी द्रोपदी को सखी कहकर संबोधित करते थे। तुम  भारतमाता की भावी सन्तानों (would be Leaders of the Mahamandal ) के लिए एक ही आधार में तीन - सेविका , सखी , गुरु (The mistress)  बनो ! स्वामीजी अपने मानस पुत्र-पुत्रियों (शिष्य-शिष्याओं) को यह आर्शीवाद देते हैं वे सभी बेलपत्र के पत्तों जैसे " एक में तीन" बन जाएँ।  गतिशील वायु को पवन (Wind) कहते हैं, जिस प्राणवायु को  योगी वश में रखते हैं, उसे समीर कहते हैं  । इनकी उत्पत्ति के कारणों में स्थानीय तापान्तर (Temperature difference) ही सर्वप्रमुख होता है। उसी प्रकार मानवजाति के  मार्गदर्शक नेता /नेत्री /या नेता जीवनमुक्त शिक्षक वे ही बन सकते हैं जो "मरजीवड़े वीर, विपरितधारा के तैराक" होते हैं।  उनके कार्य शीतल मंद दक्षिणी पवन की मिठास जैसी होती है। जिसका मिथ्या अहं (Identity Confusion -अस्मिता) माँ जगदम्बा (काली माँ) के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट अहं -बोध में रूपांतरित हो गया हो ,वैसे वीरों की दृढ़ इच्छाशक्ति ही अटल होती है, उनमें अनंत धैर्य होता है।   सन्त तुलसी दास जी (विनयावली / पद 191 से 200) लिखते  हैं 

सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,
 पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।
 बँधत बिनहिं पास सेसर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर।2।

कछु न साधन -सिधि , जानौं न निगम -बिधि,
 नहिं जप-तप , बस मन, न समीर।

तुलसिदास भरोस परम करूना -कोस,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर।3।]

 (A poem composed by Swami Vivekananda as a benediction to his disciple Sister Nivedita- Excerpts from Sister Nivedita's Book /http://www.vivekananda.net/BooksBySwami/CompleteWorks/CV9/Nivedita.html/ अंग्रेजी के वॉल्यूम 6 में the cup नामक कविता के बाद है - the benediction/मंगलकामना या आशीर्वचन। )

 BLESSINGS TO NIVEDITA

The mother’s heart, the hero’s will
The sweetness of the southern breeze,

The sacred charm and strength that dwell
On Aryan altars, flaming, free;

All these be yours and many more
No ancient soul could dream before-

Be thou to India’s future son
The mistress, servant, friend in one.

With the blessings of Vivekananda 

 ["নিবেদিতাকে নিয়ে স্বামীজি একটি কবিতা লিখেছিলেন। এই কবিতাটি পড়লে আমরা বুঝতে পারি, প্রিয় শিষ্যাকে কতখানি শ্রদ্ধা করতেন এই কবিতাটির রচনাকাল অজ্ঞাত। তবে মনে হয় এটি ১৯০০ খ্রিষ্টাব্দে লেখা হয়েছিল। ১৯০০ খ্রিষ্টাব্দের ১৩ জানুয়ারিতে নিবেদিতা স্বামীজিকে একটি চিঠি লিখেছিলেন। সেই চিঠিতে তিনি বলেছিলেন – “আপনার জন্মদিনের কবিতা এসে পৌঁছালো গতরাতে”।]

এই কবিতাটি হল এইরকম –


মায়ের মমতা আর বীরের হৃদয়
দক্ষিণের সমীরণে যে মমতা বয়
বীর্যময় পূর্ণকান্তি যে অনল জ্বলে
অবন্ধন শিখা মেলি আর্যবেদী তলে।


এসব তোমারই হোক আরও ইহা ছাড়া
অতীতের কল্পনায় ভাসে নাই যারা
ভারতের ভবিয্যৎ সন্তানের তরে।
সেবিকা, বান্ধবী , গুরু তুমি একাধারে।


(নারায়নীদেবী অনুদিত) 

Be thou a loving mother fearless, 

but tender like the southern breeze,

 may your life glow like a flame of the sacred fire 

full of strength pure, radiant, without a simile .


1900 সালের 22 সেপ্টেম্বর স্বামীজী নিবেদিতাকে এই কবিতা উৎসর্গ করেন । কবিতাটির বাংলা রূপান্তর করেছেন নারায়ণী দেবী । 

মায়ের মমতা আর বীরের হৃদয়
দক্ষিণের সমীরণে যে মমতা বয়
বীর্যময় পূর্ণকান্তি যে অনল জ্বলে
অবন্ধন শিখা মেলি আর্যবেদী তলে।


এসব তোমারই হোক আরও ইহা ছাড়া
অতীতের কল্পনায় ভাসে নাই যারা
ভারতের ভবিয্যৎ সন্তানের তরে।
সেবিকা, বান্ধবী ***, গুরু তুমি একাধারে।


(- নারায়নীদেবী অনুদিত)   

https://thebetterindia-hindi.s3.amazonaws.com/uploads/2018/10/200px-Sarada_Devi_and_Sister_Nivedita.jpg

दीक्षा प्राप्त करने के बाद निवेदिता कोलकाता के बागबाज़ार में बस गयीं। यहाँ पर उन्होंने लड़कियों के लिए एक स्कूल शुरू किया। जहाँ पर वे लडकियों के माता-पिता को उन्हें पढ़ने भेजने के लिए प्रेरित करती थी। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव की पत्नी माँ श्री सारदा देवी  उन्हें अपनी बेटी की तरह मानतीं थीं, तभी दक्षिणेश्वर, कोलकाता में बने ब्रिज का नाम निवेदिता ब्रिज रखा गया.  निवेदिता स्कूल का उद्घाटन भी  श्री सारदा देवी ने ही किया था। निवेदिता ने माँ सारदा देवी  के साथ बहुत समय बिताया। और माँ श्री श्री सारदा देवी भी उनसे बेहद प्रेम करती थीं। उस समय बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित थी और स्त्रियों के अधिकारों के बारे में तो कोई बात ही नहीं करता था। पर निवेदिता यह समझती थीं  कि केवल शिक्षा ही इन कुरूतियों से लड़ने में मददगार हो सकती है। और नारियों को सशक्त बना सकती है। विवेकानंद निवेदिता को महिलाओं की एजुकेशन के क्षेत्र में काम करने के लिए लेकर आए थे.  कोलकाता में निवेदिता ने एक गर्ल्स स्कूल खोला, वो घर घर जाकर गरीबों के घर लड़कियां स्कूल भेजने की गुहार लगाने लगीं, विधवाओं और कुछ गरीब औरतों को भी वो सिलाई, कढ़ाई आदि काम स्कूल के बचे समय में सिखाने लगीं.स्कूल के फंड जुटाने के लिए वो कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगीं, लेक्चर देने जाने लगीं. फंड के लिए वो कई बार अमेरिका और लंदन भी गईं. फिर भी कोलकाता के बाकी के भारत में स्वामी विवेकानंद की इस सबसे खास शिष्या को जानने वाले गिनती के मिलेंगे. इसके बावजूद उसी कोलकाता की मदर टेरेसा को तो दुनिया जानती है, निवेदिता को भारतीय भी नहीं जानते.भारतीयता को लेकर उनके मन में इतना गहरा गौरव था कि भारतीयों को आज भी ना हो, एक बार उन्होंने कर्म योगिन पत्रिका में अपने लेख में सीधे सीधे लिखा कि क्या भास्कराचार्य और शंकराचार्य के देशवासियों को न्यूटन और डार्विन के देशवासियों के सामने खुद को हीन समझना चाहिए?  ये हैं उनके इस लेख की पंक्तियां- ‘’The whole history of the world shows that the Indian intellect is second to none. This must be proved by the performance of a task beyond the power of others, the seizing of the first place in the intellectual advance of the world. Is there any inherent weakness that would make it impossible for us to do this? Are the countrymen of Bhaskaracharya and Shankaracharya inferior to the countrymen of Newton and Darwin? We trust not. It is for us, by the power of our thought, to break down the iron walls of opposition that confront us, and to seize and enjoy the intellectual sovereignty of the world’’

लॉर्ड कर्जन को भारत के इतिहास में 'बंग भंग' के लिए जाना जाता है, जिसने बंगाल को दो टुकड़े करके 1905 में एक तरह से अलग बांग्लादेश की नींव रख दी थी।  भगिनी निवेदिता ने  भारत को, उसकी आकांक्षाओं को, भारतीयों के सपनों को, उनकी परम्पराओं को, उनकी भावनाओं को इतने अंदर तक आत्मसात कर लिया था कि वो अपने ही देश के लोगों का झूठ और भारतीयों को झूठा कहना बर्दाश्त नहीं हुआ। कर्जन के एक  भाषण में भारतियों को झूठा कहने के खिलाफ एक किताब लिखी,  'Problems of the Far East'. (प्रॉब्लम्स ऑफ द फार ईस्ट). जिसमें उसने खुलासा किया कि लॉर्ड कर्जन ने कोरिया के फॉरेन ऑफिस को अपनी उम्र और शादी के बारे में क्या- क्या झूठा बयान दिया था। जिसमें उसने खुलासा किया कि लॉर्ड कर्जन ने कोरिया के फॉरेन ऑफिस को अपनी उम्र और शादी के बारे में क्या- क्या झूठा बयान दिया था.द स्टेट्समेन और अमृत बाजार पत्रिका जैसे समाचार पत्रों ने इस किताब के अंशों को जमकर छापा. कर्जन को अपने भाषण के लिए और भारतीयों को झूठा कहने के लिए माफी मांगनी पड़ गई.भगिनी निवेदिता की किताब 'Kali: The Mother' (काली: द मदर) से ही प्रभावित होकर अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार भारत माता की पेंटिंग बनाई थी. इसके अलावा निवेदिता अनुशीलन समिति के युवा क्रांतिकारियों के संपर्क में भी थीं, सीधे क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ना लेकर वो अलग-अलग तरीकों से उनकी मदद करती थीं. 

स्कूल टीचिंग को लेकर उनके अभिनव प्रयोगों की वजह से 2010 में वेस्ट बंगाल बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजुकेशन के ऑफिस का नाम उनके नाम पर रख दिया गया. चेन्नई में भी सिस्टर निवेदिता एकेडमी स्थापित की गई.अलीपुर कोलकाता में एक सरकारी डिग्री कॉलेज भी दो साल पहले उनके नाम पर खोला गया.1962 में एक बंगाली फिल्म भी बिजॉय बसु ने बनाई ‘भगिनी निवेदिता’, जिसे नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला.

निवेदिता ने देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना को जागरूक किया। बागबाज़ार में उनका घर उस समय के प्रतिष्ठित भारतीयों जैसे रवींद्रनाथ टैगोर, जगदीश चंद्र बोस, गोपाल कृष्ण गोखले और अरबिंदो घोष के लिए विचार-विमर्श का स्थान बन गया था।  जाने माने भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस की सिस्टर निवेदिता ने काफी मदद की थी. ना केवल धन से बल्कि विदेशों में अपने रिश्तों के जरिए. उनके युवा प्रशंसकों में क्रांतिकारियों के साथ-साथ उभरते कलाकार और बुद्धिजीवी भी शामिल थे। महान  तमिल राष्ट्रवादी कवि सुब्रमण्य भारती,  1906 में थोड़ी सी देर के लिए निवेदिता से मिले थे, जिसमें निवेदिता ने भारती को भारत की महिलाओं के लिए कुछ करने को कहा, भारती ने पूरी जिंदगी में फिर उसी में लगा दी.भारती की कविताओं ने तमाम राष्ट्रभक्तों को प्रेरित किया. सुब्रमण्य भारती ने केवल एक बार निवेदिता से मुलाकात की थी , किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने निवेदिता को भारत की भावी संतानों का गुरु बनने का जो आशीर्वाद दिया था ,  उस आशीर्वाद की शक्ति से अनजाने ही उन्हें अपने गुरु के रूप में मान लिया।  उन्होंने लिखा कि “उन्होंने मुझे भारत माता की पूर्णता को दिखाया और मुझे अपने देश से प्यार करना सिखाया है।” 


उन्होंने रमेशचन्द्र दत्त और यदुनाथ सरकार को भारतीय नजरिए से इतिहास लिखने की प्रेरणा दी।निवेदिता ने न केवल स्वदेशी अभियान का समर्थन किया बल्कि उन्होंने लोगों को भी इसके प्रति जागरूक किया। भगिनी निवेदिता, वह महिला थीं जिन्होंने पहचाना कि भारत की सबसे बड़ी ताकत इसकी एकता में है। और उन्होंने हमेशा इस दिशा में काम किया। उन्होंने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता पर लिखा और कहा कि वे दोनों एक ही माँ की संताने हैं और उन्हें हमेशा मिलजुल कर रहना चाहिए। यहाँ तक कि जब ब्रिटिश सरकार ने ‘वन्दे मातरम’ के गायन पर रोक लगा दी, तब भी उन्होंने इसे अपने स्कूल में वंदमातरम का गान छात्राओं और अध्यापकों के लिए अनिवार्य कर दिया था। 1899 में कोलकाता में प्लेग फैलने पर निवेदिता ने जमकर गरीबों की मदद की।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि भगिनी निवेदिता ने भी आजाद भारत के लिए एक राष्ट्रीय झंडे को डिजाइन किया था, केसरिया रंग की बैकग्राउंड वाले इस झंडे के बीचो बीच वज्र बना था.साल 1905 में भारत के लिए प्रतीक चिन्ह और राष्ट्रीय ध्वज की कल्पना करने वाली व डिजाईन करने वाली पहली शख्स थीं। इस ध्वज को 1906 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा आयोजित एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। जे.सी. बोस जैसे प्रतिष्ठित भारतीयों (जिन्होंने बाद में इसे कलकत्ता में अपने बोस संस्थान का प्रतीक बना दिया) ने इसका उपयोग शुरू किया, और बाद में इसे भारत की सर्वोच्च सैन्य पुरुस्कार, परम वीर चक्र के डिजाइन में अपनाया गया। अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ने भगिनी निवेदिता द्वारा निर्मित ध्वज को महामण्डल ध्वज को अपने ध्वज रूप में और उसमे बने बज्र निशान को पूर्णतः निःस्वार्थी ब्रह्मविद मनुष्यों का निर्माण करने को अपना ध्येय वाक्य बना लिया।

उन्होंने भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की स्थापना की। निवेदिता एक उम्दा लेखिका थीं जिन्होंने भारतीय इतिहास, भारतीय महिलाओं, शिक्षा, राष्ट्रवाद, कला और पौराणिक कथाओं के विषयों पर अपने छोटे से जीवनकाल में आधा दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित कीं। उन्होंने विवेकानंद पर कई पुस्तिकाएं, और भारतीय के साथ-साथ ब्रिटिश प्रेस में भी कई लेख प्रकाशित किये।

जब विवेकानंद जी की मौत हुई तो सुबह सात बजे से लेकर दोपहर एक बजे तक सिस्टर निवेदिता हाथ का पंखा लेकर उनके शव पर हवा करती रहीं, बिना रुके. स्वामी के शरीर को भगवा कपड़े से ढक दिया गया था. निवेदिता ने कोशिश की कि इस भगवा कपड़े का एक टुकड़ा उनके पास भी हो ताकि स्वामी की अंतिम स्मृति के तौर पर रख सकें, लेकिन उनको भारतीय परम्पराओं का खासा डर था. ऐसे में स्वामी के शिष्य स्वामी सर्वदानंद (?) ने इजाजत भी दे दी, लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई. स्वामी की चिता की राख पूरी तरह शांत होने तक वो श्मशान में ही रुकी रहीं, कि उसी गेरुआ कपड़े का एक टुकड़ा उन्हें वहीं उड़ता मिला. निवेदिता ने स्वामी का उपहार समझ कर उसे रख लिया. 

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बांग्ला विभाग के पूर्व अध्यक्ष अमरनाथ गांगुली ने एक बार कहा था -  कि मार्गरेट नोबेल को स्वामी विवेकानंद ने निवेदिता नाम दिया था। इसके दो अर्थ हो सकते हैं एक तो ऐसी महिला जिसने अपने गुरु के चरणों में अपना जीवन अर्पित कर दिया।  जबकि दूसरा अर्थ निवेदिता पर ज्यादा सही बैठता है कि एक ऐसी महिला जिन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया

साल 1899 में कलकत्ता में प्लेग प्रकोप के दौरान और 1906 के बंगाल फेमिन के दौरान उन्होंने मरीजों के इलाज के लिए अपने जीवन की भी परवाह नहीं की। इसके बाद वे स्वयं मलेरिया की चपेट में आ गयीं। स्वामी विवेकानंद की तरह ही उनकी भी कम उम्र में ही मृत्यु हो गई. 2011 में वो दार्जीलिंग के दौरे पर थीं, जब उनकी मौत हुई. जिसकी वजह से उनकी हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती गयी और इसी बीमारी ने उनकी जान भी ले ली। 13 अक्टूबर 1911 को मात्र 44 साल की उम्र में दार्जिलिंग में उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह से भारत को समर्पित कर दिया था। एक बार उन्होंने लिखा था, “मेरा जीवन भारत को अर्पित है। और इसमें मैं यहीं रहूंगी और मर जाउंगी।”

 उनकी मौत के बाद बने मेमोरियल पर लिखा है, – “ HERE REPOSE THE ASHES OF SISTER NIVEDITA WHO GAVE HER ALL TO INDIA. ”.

 1. In 1895, she attended a private social gathering in London, to hear a ‘Hindoo Yogi’...
2. She collaborated with the secret revolutionary movement...
3. Her meeting with Swami Vivekananda changed the course of her life...
4.She collaborated with the secret revolutionary movement...
5. Nivedita was at the forefront of this intellectual ferment and set out to forcefully make her point ...
6.It was her idea to worship the nation as a ‘mother’...

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*** " सखी " : मित्र शब्द पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग दोनों मे एक समान प्रयुक्त होता है। परन्तु  बान्धवी का हिन्दी अनुवाद यहाँ  महिला मित्र (girlfriend) कहने की बजाय केवल मित्र, दोस्त या सखी कहना उपयुक्त होगा। मित्रता के अर्थ को सच्चाई, निश्चलता, समझ और आत्मीयता की तराज़ू मैं तौला जाना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण भी द्रोपदी को सखी कहकर संबोधित करते थे।

भगवान श्रीकृष्ण और द्रौपदी अच्छे मित्र थे। द्रौपदी उन्हें सखा तो कृष्ण उन्हें सखी मानते थे। कृष्ण ने द्रौपदी के हर संकट में साथ देकर अपनी दोस्ती का कर्तव्य निभाया था। इनकी मित्रता समाज में महिला और पुरुष कि मित्रता की मिसाल कायम करती है। जब श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया गया, उस समय श्रीकृष्ण की अंगुली भी कट गई थी। अंगुली कटने पर श्रीकृष्ण का रक्त बहने लगा। तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर श्रीकृष्ण की अंगुली पर बांधी थी। इस कर्म के बदले श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को आशीर्वाद देकर कहा था कि एक दिन मैं अवश्य तुम्हारी साड़ी की कीमत अदा करूंगा। इन कर्मों की वजह से श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के चीरहरण के समय उनकी साड़ी को इस पुण्य के बदले ब्याज सहित इतना बढ़ाकर लौटा दिया और उनकी लाज बच गई।   

द्रौपदी उच्च कोटि की पतिव्रता एवं भगवद भक्त थी। उसकी भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अविचल प्रीति थी। ये उन्हें अपना सखा, रक्षक, हितैषी एवं परम आत्मीय तो मानती ही थी, उनकी सर्वव्यापकता एवं सर्वशक्तिमत्‍ता में भी इसका पूर्ण विश्वास था। जब कौरवों की सभा में दुष्ट दु:शासन ने द्रौपदी को नग्न करना चाहा और सभासदों में से किसी का साहस न हुआ कि इस अमानुषी अत्याचार को रोके, उस समय अपनी लाज बचाने का कोई दूसरा उपाय न देखकर उसने अत्यन्त आतुर होकर भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा-"हे गोविन्द! हे द्वारकावासी! हे सच्चिदानन्दस्वरूप प्रेमघन! हे गोपीजनवल्लभ! हे केशव! मैं कौरवों के द्वारा अपमानित हो रही हूँ, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ, हे आर्तिनाशन जनार्दन! मैं कौरव समुद्र में डूब रही हूँ, आप मुझे इससे निकालिये। कृष्ण! कृष्णे! महायोगी! विश्वात्मा! विश्व के जीवनदाता गोविन्द! मैं कौरवौ से घिरकर बडे संकट में पडी हुई हूँ, आपकी शरण में हूँ, मेरी रक्षा कीजिए।"

(साभार krishnakosh.org)

श्री कृष्ण और द्रोपदी का आदर्श सम्बंध :

 इस पवित्र सम्बंध को गहराई से समझने के लिए हमें दोनों की पृष्ठभूमि में जाना होगा। द्रोपदी पांचाल देश के महाराजा द्रुपद की पुत्री थी। उसका जन्म द्रुपद की प्रतिशोध भावना के कारण हुआ था। एक बार द्रुपद ने अपने सहपाठी ओर घनिष्ठ मित्र द्रोण को अपने दरबार में केवल साधारण ब्राह्मण कहकर अपमानित किया था। द्रोण ने इसका बदला लेने के लिए अपने शिष्य पांडवों द्वारा उनको पराजित कराया था और फिर मुक्त कर दिया था।

द्रुपद अपने अपमान की इसी ज्वाला में जल रहे थे और द्रोण को पराजित करके अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे। बदले की इसी आग से उनके पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री कृष्णा (द्रोपदी) का जन्म हुआ था। उनके जन्म से ही उनको यह सिखाया-पढ़ाया गया था कि आचार्य द्रोण से अपने पिता के अपमान का बदला लेना ही उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। इसी कारण रूपक के रूप में यह कहा जाता है कि दोनों का जन्म अग्नि से हुआ था।  द्रुपद चाहते थे कि उनकी पुत्री द्रोपदी का विवाह आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ योद्धा से हो, जो द्रोण को पराजित कर सके। उन्होंने सबसे पहले अर्जुन के बारे में सोचा। परन्तु उनको पता चला कि अर्जुन की मृत्यु वारणावत में अग्निकांड में हो गयी है, इसलिए उन्होंने दूसरे योद्धाओं के बारे में विचार किया।

तब उनका ध्यान यादवों के एकछत्र नेता कृष्ण की ओर गया। उन्होंने कृष्ण को पांचाल आमंत्रित किया और उनके आने पर उनसे अपनी पुत्री द्रोपदी का पाणिग्रहण करने की प्रार्थना की। लेकिन जब कृष्ण को पता चला कि द्रुपद का असली उद्देश्य द्रोण से अपने अपमान का बदला लेना है और इसके लिए अपने जामाता का उपयोग करना चाहते हैं, तो कृष्ण ने उनकी पुत्री के साथ विवाह करने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया, क्योंकि वे स्वयं को किसी के व्यक्तिगत प्रतिशोध का मोहरा नहीं बनने देना चाहते थे। कृष्ण के अस्वीकार से द्रुपद बहुत निराश हुए। उनकी निराशा को देखते हुए कृष्ण ने उनसे कहा कि मैं द्रोपदी के योग्य सर्वश्रेष्ठ वर का चुनाव करने में आपकी सहायता कर सकता हूं।  द्रपुद ने उनका प्रस्वाव स्वीकार कर लिया या यह भी कहा कि मुझे ऐसा योद्धा चाहिए जो द्रोण को पराजित करके उनके अपमान का बदला चुका सके।

 तब उन्होंने सलाह दी की द्रोपदी के स्वयंवर में धनुर्विद्या  की एक बहुत कठिन प्रतियोगिता रखिए। जो उस प्रतियोगिता में विजयी होगा, वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होगा। उसके साथ द्रोपदी का विवाह करके आप अपनी इच्छा पूर्ण कर सकते हैं। द्रुपद को उनकी सलाह जँच गयी और फिर उन्होंने जो प्रतियोगिता रखी और जिस प्रकार अर्जुन ने वह कठिन शर्त पूरी करके द्रोपदी के साथ विवाह किया, वह कहानी सबको मालूम है। लेकिन एक भेंट में श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के समझाया और उन्हें अर्जुन के बारे में बताया। कहा कि अर्जुन इंद्र का पुत्र है अर्थात वह देवपुत्र है। वह आर्योपुत्रों में सर्वश्रेष्ठ है। इस तरह द्रौपदी का मन श्रीकृष्ण ने अर्जुन की ओर मोड़ दिया और दोनों मित्र बन गए। और प्रतियोगिता भूमि पर कृष्ण ने ही द्रोपदी को संकेत करके समझाया था कि वह कर्ण से विवाह करने से मना कर दे।  इस योजना के सफल होने के कारण द्रुपद कृष्ण का बहुत सम्मान करते थे और उनकी पुत्री द्रोपदी भी कृष्ण को अपने सगे बड़े भाई जितना प्यार और सम्मान देती थी। 

  अन्य खास बातें :  कृष्ण और द्रोपदी महाभारत के दो प्रमुख पात्र हैं।  द्रौपदी महाभारत में पाँच पांडवों की रानी थी। उसका जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था। अतः यह ‘यज्ञसेनी’ भी कहलाई। इन दोनों में आपस में कोई सीधा रक्त सम्बंध नहीं था, फिर भी दोनों एक-दूसरे से बहुत गहरे से जुड़े हुए थे और उनका सम्बंध बहुतों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है।  कृष्ण ने इस महायुद्ध में पांडव पक्ष का नेतृत्व किया था और उनको विजयी बनाया था। द्रोपदी इस महायुद्ध का प्रमुख कारण थी, क्योंकि उसी के अपमान का बदला लेने के लिए पांडव यह युद्ध करने को बाध्य हुए थे

द्रौपदी का मूल नाम कृष्णा था। द्रौपदी का नाम कृष्णा इसलिए था क्योंकि वह भी सांवली थीं।श्रीकृष्ण और द्रौपदी दोनों ही सुंदर, सक्षम और वैचारिक रूप से समान थे। दोनों ही एक दूसरे को समझते ते। बाद में कृष्ण ने अपनी सगी बहिन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से कराया, तो स्वाभाविक रूप से सबको यह चिन्ता हुई कि द्रोपदी अपनी सौत को किस प्रकार स्वीकार करेगी। इसका समाधान करने के लिए कृष्ण की सलाह पर ही सुभद्रा ने द्रोपदी को अपना परिचय अर्जुन की पत्नी के बजाय कृष्ण की बहिन के रूप में दिया।  यही कारण था कि जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया तो द्रौपदी ने उसे सहज ही स्वीकार कर लिया। अर्थात उसने श्री कृष्ण की बहन को अपनी सह-पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया।  इसका परिणाम यह हुआ कि वे दोनों हमेशा सगी बहिनों की तरह प्यार और सद्भाव के साथ रहीं। कृष्ण और द्रोपदी का सम्बंध एक आदर्श भाई-बहिन की तरह हमेशा बना रहा। द्रोपदी उनके ऊपर बहुत विश्वास करती थी और उनकी सलाह पर चलती थी। कृष्ण भी हर संकट के समय उनकी सहायता करते थे, जैसा कि महाभारत से पता चलता है।  

डॉ. राममनोहर लोहिया अपने एक लेख - " कृष्ण – कृष्णा सखा-सखी ही क्यों रहे ?" : में कहते हैं कि ''महाभारत का नायक कृष्ण और नायिका कृष्‍णा (द्रौपदी) हैं । द्रौपदी तो कृष्ण के लायक ही थी। अर्जुन समेत पांचों पांडव उसके सामने फीके थे। कृष्ण और कृष्णा का यह संबंध राधा और कृष्ण के संबंध से कम नहीं।'' राधा तो कृष्ण के साथ बचपन में ही रही थी इसके बाद तो उसका कृष्ण से कोई संबंध नहीं रहा। कहते हैं कि वर्षों बाद राधा बस एक बार वह द्वारिका आई थी, फिर उसके बाद उनकी कभी मुलाकात नहीं हुई। द्रौपदी का श्रीकृष्‍ण से संबंध बहुत ही आत्मीय था।

 कृष्ण छलिया जरूर था , लेकिन कृष्णा (द्रौपदी) से उसने कभी छल न किया । शायद वचन – बद्ध था , इसलिए । जब कभी कृष्णा ने उसे याद किया , वह आया । स्त्री – पुरुष की किसलय – मित्रता को , आजकल के मनो वैज्ञानिक , अवरुद्ध रसिकता के नाम से पुकारते हैं । हो सकता है कि योगेश्वर श्री कृष्ण को अपनी चित्तप्रवृत्तियों का कभी विरोध न करना पड़ा हो ।  यह उसके लिए सहज और अन्तिम सम्बन्ध था अगर यह सही है , तो कृष्ण – कृष्णा के सखा – सखी सम्बन्ध के ब्योरे पर दुनिया में विश्वास होना चाहिए और तफ़सील से , जिससे से स्त्री – पुरुष सम्बन्ध का एक नया आयाम (केवल पत्निवत ही नहीं मातृवत -पुत्रीवत -बहनवत प्रेम का कमरा) खुल सके । रास रचाने वाला का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक हैं । न जाने हजारों वर्ष से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है ? बताओ कृष्ण !

- रानी पद्मिनी, संत मीरा बाई की पुरखिन थी । दोनों चित्तौड़ की नायिकाएँ हैं । करीब ढाई सौ वर्ष का अन्तर है । कौन बड़ी है , वह पद्मिनी जो जौहर करती है या वह मीरा जिसे कृष्ण के लिए नाचने से कोई मना न कर सका ?  पुराने -प्राचीनतम देश भारत की यही प्रतिभा है । बड़ा जमाना देखा है इस हिन्दुस्तान ने । क्या पद्मिनी थकती – थकती सैंकड़ों बरस में मीरा बन जाती है ? या मीरा ही पद्मिनी का श्रेष्ठ स्वरूप है ? अथवा जब प्रताप आता है , तब मीरा फिर पद्मिनी बनती है । हे त्रिकालदर्शी कृष्ण ! क्या तुम एक ही आधार में मीरा, कृष्ण  और पद्मिनी नहीं बन सकते ? लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई सम्बन्ध नहीं । ज्ञानी जन  बताते हैं कि महाभारत में राधा का नाम तक नहीं । बात इतनी सच नहीं , क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं । सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते , जो समझते हैं वे , और जो नहीं समझते हैं वे भी । महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है । राधा (माँ सारदा देवी) का वर्णन  तो वही होगा जहाँ तीन लोक का स्वामी (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) उसका पुजारी (सेवक) है । 

 राम गम्य है। कृष्ण अगम्य है । कहना मुशकिल है कि राम और कृष्ण में कौन उन्नीस , कौन बीस है । सबसे आश्चर्य की बात है कि स्वयं ब्रज के चारों ओर की भूमि के लोग भी वहाँ एक – दूसरे को ‘ जैरामजी ” से नमस्ते करते हैं । सड़क चलते अनजान लोगों को भी यह ” जैरामजी ” बड़ा मीठा लगता है , शायद एक कारण यह भी हो ।   बच गया कृष्ण का मन और उसकी वाणी । और बच गया राम का कर्म । अभी तक आम हिंदुस्तानी या भारत की साधारण जनता (झोपड़ियों में रहने वाले) भारतवासी श्रीरामकृष्ण देव के रूप में इन दोनों का समन्वय नहीं कर पाये हैं । यदि जनसाधारण भी (धर्मतल्ला या हेदुआ पार्क की रैली में भाग लेकर ) समन्वयाचार्य भगवान श्रीरामकृष्ण के वेदमूर्ति चरित्र के आधार पर " श्री राम और श्री कृष्ण " (ज्ञान और कर्म या प्रवृत्ति और निवृत्ति ) में समन्वय  करें , तो राम के कर्म (अर्थात भारत के ब्रह्मतेज) में भी परिवर्तन आये । राम रोऊ है , इतना कि मर्यादा भंग होती है । कृष्ण (क्षात्रवीर्य) कभी रोता नहीं । आँखें जरूर डबडबाती हैं उसकी , कुछ मौकों पर , जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं  

सिर्फ बंगाल में ही मुर्दे – ” बोलो हरि , हरि बोल ” के उच्चारण से – अपनी आख़री यात्रा पर निकाले जाते हैं , नहीं तो कुछ दक्षिण को छोड़ कर सारे भारत में हिन्दू मुर्दे – ” राम नाम सत्य है ” के साथ ही ले जाये जाते हैं । बंगाल के इतना तो नहीं , फिर भी उड़ीसा और असम में कृष्ण का स्थान अच्छा है। 
सरयू और यमुना कर्त्तव्य की नदियाँ हैं । कर्त्तव्य कभी – कभी कठोर हो कर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है ।  जमुना क्या तुम कभी बदलोगी , आखिर गंगा में ही तो गिरती हो ?  क्या कभी इस भारत भूमि पर रसमय कर्त्तव्य का उदय होगा ?  [भारत के भावी मार्गदर्शक नेताओं / जीवनमुक्त गृहस्थ शिक्षकों के लिए  नहीं , त्याग ही पहले भी नियम था और आगे भी सदा वही अनिवार्य नियम - " निवृत्तिअस्तु महाफला " ही नियम रहेगा।  ( ” जन ” , १९५८ जुलाई से )

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भगिनी निवेदिता के बागबाजार आवास  में रहने की पृष्ठभूमि पर  कुछ शब्द
(सिस्टर निवेदिता के जन्मदिन के अवसर पर 
 स्वामी शिवमयानन्द जी द्वारा प्रस्तुत एक निबंध)

[1]
स्वामी शिवमयानन्द जी लेख का प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं -- " आज मेरी बहन का 152 वां जन्मदिन है - हिमालय के उजाड़ वनों में जहाँ बहन निवेदिता का अंतिम संस्कार किया गया था उस पवित्र स्थान पर एक समाधि बनी है, उसके ऊपर अंग्रेजी में लिखा है - (ठाकुर देव की भाषा में यहाँ सिस्टर निवेदिता के शरीर की हड्डी  विश्राम कर रही हैं ? ) " HERE REPOSE THE ASHES OF SISTER NIVEDITA WHO GAVE HER ALL TO INDIA. " --अर्थात  यहाँ भगिनी निवेदिता चिरनिद्रा में सो रही हैं, जिन्होंने भारतवर्ष  के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था ! "

स्वामी विवेकानन्द की शिष्या निवेदिता ने भी स्वामी जी की तरह कम उम्र [39 -44 ] में  ही अपना शरीर त्याग दिया था। मृत्यु के समय उनकी आयु 44 वर्ष से थोड़ी कम ही थी। लेकिन उनका जीवन इतना विराट था कि उसके समस्त पक्षों को एक घंटे के भाषण में (एक निबंध में) समेटा नहीं जा सकता है। दार्जलिंग में इनकी समाधि फलक पर उनकी स्मृति में जो शब्द उत्कीर्ण हैं, वही उनका सर्वश्रेष्ठ परिचय है। अभी हमलोग केवल उनके बागबजार मुहल्ले में उनके आवास बनाकर रहने तथा वहाँ पर के किये गए सेवाकार्यों पर थोड़ी चर्चा करेंगे। 

হিন্দু নারীদের মধ্যে কাজ করার জন্য হিন্দু জীবনযাত্রা প্রয়োজন। " हिंदू महिलाओं के बीच काम करने के लिए, सर्वप्रथम  हिंदू- जीवन पद्धति को समझने की आवश्यकता होती है।" ---स्वामी विवेकानन्द की इस मान्यता को निवेदिता ने हृदय से स्वीकार कर लिया था। श्री श्री माँ (जगतजननी) सारदा देवी उन दिनों कोलकाता में ही थीं।और निवेदिता माँ के सानिध्य में रहना चाहती थीं। इसलिए स्वामी जी ने निवेदिता को माँ के साथ रहने की व्यवस्था कर दी। मेरी माँ (हमलोगों की माँ-जगदम्बा सारदा देवी) उस समय 10/2 बोसपाड़ा लेन (Bospara Lane) में निवास करती थीं। उसके प्रवेश द्वार के दोनों ओर दो कमरे और भी थे। एक में बीमार योगानन्द जी रह रहे थे। दूसरी ओर निवेदिता के रहने की व्यवस्था थी।   

{স্বামীজীর শিষ্যা নিবেদিতা স্বামীজীর মতই অল্পায়ু। দেহত্যাগের সময় তাঁর চুয়াল্লিশ বছর হতে কিছু দিন বাকী ছিল। কিন্তু তাঁর জীবনের মহান দিকগুলির কথা মস্ত বই লিখেও শেষ করা যায় না। দার্জিলিঙ – এ তাঁর শ্মশানে স্মৃতিস্তম্ভে উৎকীর্ণ কথা ক’টিই তাঁর শ্রেষ্ঠ পরিচয়। আমরা শুধু তাঁর বাগবাজার পল্লীতে অবস্থান ও সেবাকাজের একটি রেখাচিত্র আঁকবো – এই প্রবন্ধে।
হিন্দু নারীদের মধ্যে কাজ করার জন্য হিন্দু জীবনযাত্রা প্রয়োজন। স্বামী বিবেকানন্দের এই অভিমত নিবেদিতা গ্রহণ করেছিলেন।

रनेन दा -दीपक दा के द्वारा मिशन के "साधुओं " सन्यासिओं का पर्यवेक्षणी -दृष्टि में अंतर का कारण : हिंदू महिलाओं के बीच काम करने के लिए, अथवा (सारदा नारी संगठन के बीच काम करने के लिए,)" को परामर्श देने के लिए सर्वप्रथम  हिंदू- जीवन पद्धति में सतीत्व के महत्व को समझने की आवश्यकता होती है।শ্রীশ্রীমা তখন কলকাতায় ছিলেন। নিবেদিতার তাঁর নিকটে বাস করবার একান্ত ইচ্ছা। স্বামীজী শ্রীমার কাছে তাঁর থাকবার ব্যবস্থা করে দিলেন। মা তখন ১০/২ নং বোসপাড়া লেনে যে বাড়িতে বাস করছিলেন, তার প্রবেশ পথে দুইদিকে দুটি ঘর। একটি ঘরে ছিলেন অসুস্থ স্বামী যোগানন্দ। অন্যটিতে নিবেদিতার থাকবার ব্যবস্থা ছিল।

 [2 ]

 श्री माँ ने निवेदिता को गले लगाकर स्वीकार कर लिया। उस समय निवेदिता तो यह कल्पना भी नहीं कर सकती थीं, कि उस युग में माँ के लिए एक अंग्रेज महिला को गले से लगा लेना कितना क्रांतिकारी और साहसिक कदम था। जब उन्हें बाद में उसका पता चला तब उनके पछतावे का अंत नहीं था। आठ-दस दिनों के बाद वे 16 नंबर वाले मकान में चली गयीं। कुछ ही दिनों के बाद, श्री माँ के निवास स्थान (10/2)  के बगल वाले मकान 11 Bose Para Lane में चली गयीं।

 श्रीश्री माँ (नवनीदा) को साक्षात् दुर्गा का अवतार मानने वाले स्वामी विवेकानन्द एवं स्वयं श्रीमाँ पर केंद्रित भक्त मण्डली में बहन निवेदिता को तो पहले ही स्थान प्राप्त हो गया था। बाद में  उदार हृदय के शिक्षित हिन्दू भी भगिनी निवेदिता के प्रति श्रद्धा का भाव रखने लगे थे । बागबाजार मुहल्ले की  कम उम्र से लेकर व्यस्क महिलाओं में कौन ऐसी नारी होगी , जो उनके गुणों से अप्रभावित रही हों ? निवेदिता स्वयं उन्हें नितांत अपना परिवार समझकर उनके निकट पहुँच जाती थीं। उसी प्रकार वे भी (बहन/निवेदिता दीदी भाई) को अपने से दूर नहीं रख पाती थीं। 

अब थोड़ी चर्चा बागबाजार में स्थित उस विद्यालय पर की जाए जो आज " Nivedita Girls School" के नाम से प्रसिद्द है। इस विद्यालय का परिचय देते समय इसकी स्थापना में सिस्टर निवेदिता की भूमिका पर चर्चा करना आवश्यक है। सिस्टर निवेदिता के 16 नंबर बोस पाड़ा लेन के आसपास रहने वाली छोटी छोटी लड़कियाँ प्रतिदिन शाम के समय उनके द्वारा संचालित एक खेल के मैदान में एकत्रित हो जाती थीं। और निवेदिता दीदीभाई होठों पर मुस्कान लिए उनके साथ खेला करती थीं। कभी कभी लड़कियों को वे Paint और brush देकर कागज के ऊपर जिसकी जैसी इच्छा वैसा चित्र बनाने के लिए अनुप्रेरित करती थीं।  

        सिस्टर  निवेदिता इंग्लैण्ड में उन दिनों प्रचलित किंडरगार्टन (बालवाड़ी) शिक्षा पद्धति से अच्छी तरह परिचित थीं। वहाँ के कुछ स्कूलों में शिक्षिका के रूप में काम करते समय , बालकेन्द्रित शिक्षा के संस्थापक  प्रसिद्ध पाश्चात्य शिक्षाशास्त्री-जोहान् हाइनरिख पेस्तालॉत्सी (Johann Heinrich Pestalozzi : 1746-1827,  ) उन्होंने मनोविज्ञान को शिक्षा का आधार बनाने के प्रयास किए। तथा पेस्तालॉत्सी शैक्षणिक सिद्धांतों को कार्यरूप देने वाले उनके शिष्य , किंडरगार्टन (बालवाड़ी) की संकल्पना के जनक 'अगस्त फ्रोबेल' (Friedrich Wilhelm August Fröbel :  उन्होने शैक्षणिक खिलौनों का विकास किया जिन्हें 'फ्रोबेल उपहार' के नाम से जाना जाता है। आधुनिक शिक्षण के कई प्रमुख सिद्धांतों को पेसलॉत्सी के शैक्षिक प्रयोगों द्वारा महत्व प्राप्त हुआ।] के शैक्षणिक सिद्धान्तों पर प्रयोगात्मक शोध करके उन्होंने जो ज्ञान और अनुभव अर्जित किया था उसका प्रारम्भ (विवेक-वाहिनी का प्रारम्भ) उन्होंने किया था। 

[3] 

उन बालिकाओ को निवेदिता टूटी-फूटी बंगला भाषा में रामायण , महाभारत की कहानियों को सुनाने का प्रयास करती थीं। बालिकायें जब खेल समाप्ति के बाद अपने घरों को लौटतीं तो वहां भी वे सिस्टर निवेदिता के बारे में ही चर्चा करती थीं। उन बच्चियों के अभिभावक-अभिभाविकाओं के साथ सिस्टर निवेदिता विशेष रूप से परिचित होना चाहती थीं। वे लोग भी देखते थे कि दूसरे अंग्रेज परिवार की तरह ये हमसे अलग-थलग नहीं रहती है, बल्कि हमारे बीच में ही रहती हैं , तथा हमारी बच्चियों की शिक्षा और उन्नति के लिए निःस्वार्थभाव से प्रयास करती हैं। स्वामीजी लोग के आने पर या अतिथि के आने पर उनकी थोड़ी मद्त भी कर देती थी । भोजन का प्रबंध भी कर देती थी । इस मुहल्ले के लोगों के प्रति निवेदिता के मन में सच्चा प्रेम जन्म लिया था। कोई बालिका यदि बीमार हो जाती तो मदद करने के लिए दौड़ पड़ती थीं ! लेकिन जिस वर्ष कोलकाता में प्लेग महामारी फ़ैल गया था , उस समय बागबाजार मुहल्ले के निवासियों को इस बात का पता चला कि सचमुच निवेदिता उनसे कितना प्रेम करती हैं ! जिस समय प्लेग ने महामारी का रूप धारण कर लिया , उस समय अपने प्राणों की उपेक्षा करके भी निवेदिता का सेविका (सेवा-निमग्न भक्त) का रूप लोगों के सामने आया। 

 31 मार्च, 1899 को सेवा-कार्य शुरू हुआ। उन दिनों मुहल्लों में सफाई रखना सबसे महत्वपूर्ण कार्य हो जाता है, क्योंकि प्लेग महामारी सबसे पहले गंदी-अस्वच्छ बस्तियों में ही फैलती है। स्वामी सदानन्द झाड़ू-चपड़ा कड़ाही लेकर बागबाजार , श्यामबाजार के गलियों की सफाई करने में जुट गए।

[4 ] 

सिस्टर निवेदिता ने अंग्रेजी अख़बारों में विज्ञापन निकालकर चंदा देने का अनुरोध किया तब कुछ आर्थिक सहायता भी प्राप्त हुई। 21 अप्रैल को Classic Theater ' में मिशन की और स्वामी जी की अध्यक्षता में आयोजित सभा में  'Plague and the Duties of Students' ( प्लेग जैसी महामारी के समय विद्यार्थियों का कर्तव्य) विषय पर निवेदिता ने एक भाषण दिया। उनके और स्वामी जी के प्रेरक भाषण से छात्रों में नए उत्साह का संचार हुआ , तथा निवेदिता के स्वच्छता अभियान में भाग लेने के लिए 15 विद्यार्थियों ने अपना योगदान दिया।

चिकित्सक डॉ. राधागोबिंद कर (Dr R.G. Kar) लिखते हैं, "संकट की इस घड़ी में, बागबज़ार मुहल्ले की प्रत्येक झुग्गी-झोपड़ियों में सिस्टर निवेदिता को  दयामयी मूर्ति के रूप में लोगों ने देखा था । एक दिन जब वे हाथों में झाड़ू लेकर सड़क की सफाई करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ीं , तब मुहल्ले के युवक लज्जित हो गए और सड़क को साफ करने की जिम्मेदारी स्वयं ले लिए। डॉ० राधागोबिंद कर आगे लिखते हैं -“उस दिन सुबह मैं मैं बागबाजार में एक झुग्गी में एक प्लेग से पीड़ित बच्चे को देखने के लिए गया था। उस रोगी बच्चे की सेवा-सुश्रुषा एवं दवा आदि की व्यवस्था देखने के लिए सिस्टर निवेदिता स्वयं चली आयी थी। मैंने कहा, 'मरीज की हालत गंभीर है।' बागड़ी बस्तियों में (मलिन बस्तियों में বাগদী বস্তিতে) में बागड़ी  वैज्ञानिक ढंग से देखभाल कैसे संभव है,इसकी चर्चा करने के बाद, मैंने उनसे  अतिरिक्त सावधानी बरतने के लिए कहा। जब मैं दोपहर को फिर से उसी रोगी को देखने गया, तो मैंने देखा कि निवेदिता उस बीमार बच्चे को अपनी गोद में लेकर बैठी हुई है। उसी बीमार बच्चे की देखभाल करने के लिए वे अपने घर को छोड़कर दिनरात उसी झोपडी में बच्चे की सेवा में लगी रहीं।  घर को स्वच्छ रखना आवश्यक है।  इसलिए उन्होंने एक छोटा सा मचान बांधकर , स्वयं उस झोपडी की दीवालों पर चूना पोतने लगीं। 'रोगी की मृत्यु निश्चित है ' यह जानने के बाद भी उस बच्चे की देखभाल में उन्होंने कोई ढिलाई नहीं बरती। लेकिन दो दिनों के बाद वह बच्चा इस दया की देवी के गोदी में ही आखिरी नींद सो गया !
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इस प्रसंग  में, रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा था , "  बहन निवेदिता जिन सब कार्यों को करने में लगी हुई थीं , उसमे से कोई भी कार्य बहुत तड़क-भड़क के साथ किया जाने वाला बड़ा आयोजन नहीं था। उन सभी कार्यों की शुरुआत उन्होंने बहुत छोटे पैमाने पर प्रारम्भ किया था। मैंने यह देखा है कि 'নিজের মধ্যে যেখানে বিশ্বাস কম' जहाँ अपनेआप में विश्वास कम होता है , वहीँ पर बाह्याडम्बर का प्रदर्शन पूर्वक कार्य करके वाहवाही लूटने का मनोभाव रहता है। या प्रसंशा पाने की भूख रहती है। सिस्टर निवेदिता के लिए यह बिल्कुल भी संभव नहीं था।उसका कारण यही है कि " তিনি অত্যন্ত খাঁটি ছিলেন। "  उनका अपना चरित्र शुद्ध सोने या 24 कैरेट गोल्ड जितना शुद्ध था , थोड़ा भी खाद मिला हुआ नहीं रह गया था। " যেটুকু সত্য " --তাহাই তাঁহার পক্ষে একেবারে যথেষ্ট ছিল ; अर्थात सेवा करते समय शिवज्ञान से जीव सेवा करने की जो दृष्टि है , उसका जाग्रत रहना ही उनके लिए पर्याप्त था।  इस साधारण -सरल सत्य को बढ़ाकर दिखाने की चेष्टा में जिस झूठ को मिलाना पड़ता है , उस झूठ को वे अपने अंतर्मन से घृणा करती थीं।  " 
" और इसी कारण लोगों को  एक अद्भुत दृश्य देखने के लिए मिला , जिनकी शिक्षा और प्रतिभा असाधारण थी , उन्होंने कार्य करने के लिए एक ऐसे कार्यस्थल को चुना जिसे दुनिया बिल्कुल पसंद नहीं करती। जिस प्रकार माँ जगदम्बा की सर्वव्यापी विराट शक्ति जमीन के नीचे बोये हुए छोटे से बीज को प्रस्फुटित करने में कोई अवहेलना नहीं करती , उसी प्रकार निवेदिता के कार्य करने ढंग भी था। "
[6 ] 
सिस्टर निवेदिता ने भारत से ऐसा विशुद्ध प्रेम किया था , कि उसके कल्याण के लिए अपना सर्वस्व सौंप दिया था , उन्होंने अपने लिए कुछ भी पकड़ कर नहीं रखा था।   … জনসাধারণকে হৃদয় দান করা .... जनता-जनार्दन की सेवा में अपना हृदय चढ़ा देना - यह कितना महान सत्य है , इस बात को हमने उनके जीवन को देखकर ही सीखा है।  … মা যেমন ছেলেকে সুস্পষ্ট করিয়া জানেন, .... कोई माँ जैसे अपने पुत्र को स्पष्ट रूप से पहचानती है ,(उसके रग रग को पहचानती है) , ठीक उसी प्रकार भगिनी निवेदिता ने भी जन -साधारण को प्रत्यक्ष सत्ता (ब्रह्म) के रूप में उपलब्धि (SQ- आध्यात्मिक लब्धि ) किया करती थीं । वे इस बृहत भाव (ब्रह्म) को किसी विशेष व्यक्ति के जैसा प्रेम करने में समर्थ थीं।   उन्होंने इस आमजनता ( People ) को अपने हृदय की समस्त वेदना के द्वारा ढांककर  पकड़ रखा था। वह यदि केवल एक बच्चा होता , तब वे उसको अपने गोदी में रखकर , अपना जीवन देकर मनुष्य (ब्रह्वेत्ता) बना सकती थीं।  किन्तु वास्तव में वे तो 'लोकमाता ' (People's Mother -जगदम्बा)  थीं
‘বস্তুত তিনি ছিলেন লোকমাতা।' अपने परिवार से बाहर, सम्पूर्ण भारत देश के लिए ऐसा मातृभाव जो उसके सम्पूर्ण जनसाधारण के प्रति व्याप्त रहे - वैसे किसी लोकमाता की मूर्ति हमने उनके पहले कभी नहीं देखी थी। बातचीत के समय जब वे कहतीं …" हमारे लोग " ( তিনি যখন বলিতেন Our People)  तब उनके कंठ से निकली ध्वनि में एकात्मता का जो सुर रहता था , वैसा सुर हममें से किसी के गले से वो सुर नहीं निकलता। 
श्री माँ (नवनीदा) और उनके साथ रहने वाली वयोवृद्ध महिलाओं की भक्त मण्डली (बासुदा ,तनुदा , रनेन दा , बिरेन दा) के शब्दों पर पुनः आते हैं।माँ के बागबाजार वाले घर से निकलकर पड़ोस वाले घर में रहने से भी, निवेदिता अपने अपराह्न या दोपहर बाद के समय को श्रीश्री माँ के सानिध्य में ही व्यतीत करती थीं। तथा गर्मियों के समय में दोपहर के समय श्री माँ उन्हें अपने कमरे में ही विश्राम करने का आदेश देती थीं।उनका कमरा ठंढा रहता था। पॉलिश किए गए काले फर्श के ऊपर नारियल की चटाइयाँ बिछा दी जाती थीं। ऊपरी ,मंजिल से गंगाजी का दर्शन होता था। श्री श्री माँ के साथ - गोपाल की माँ, योगिन माँ, गोलाप  माँ, और लक्ष्मी दीदी हमेशा रहा करती थीं ।
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इसी से सम्बंधित एक घटना - पश्चिम से लौटने के बाद  एक दिन  स्वामीजी ने गोपाल की माँ से कहा था, " गोरे अंग्रेज साहेब और मेम मेरे शिष्य हैं , क्या तुम उन्हें अपने निकट आने की अनुमति दोगी , या इससे तुम्हारी जाति तो नहीं चली जाएगी ? "
जिस पर उन्होंने जवाब दिया, " यह कैसी बात कहते हो वत्स ? वे जब तुम्हारे सन्तान बन गए , तो क्या मैं अपने पोते-पोतियों को अपनी गोदी में भी नहीं लूँगी ? " इसको लेकर तुम्हें जरा भी चिंता करने की जरूरत नहीं है। और सचमुच यह देखा गया कि ,जिस दिन गोपाल की माँ ने निवेदिता को बागबाजार में स्वामी सदानन्द (हाथरस के शरत चंद्र गुप्ता) के साथ देखा तब , उनसे पूछा - ' अरे गुप्तू , यह लड़की कौन है ? क्या यही नरेन् की मानसपुत्री है , जो उसके साथ आयी है ? ' जब उन्हें पता चला कि  उनका अनुमान सत्य है , तब उन निष्ठावान ब्राह्मणी ने भगिनी निवेदिता की ठुड्डी को छुआ तथा चूम लिया।  और बाद में उसका दाहिना हाथ पकड़ कर चलने लगी।  
 गोपाल की माँ एक ब्राह्मण और बाल विधवा थीं । यद्यपि  भगवान श्री कृष्ण को 'गोपाल ' के रूप में भक्ति के साथ पूजा करती थीं , तथापि वे बहुत पुरातनपंथी ( orthodox) विचारों की थीं। बाद में उनको अपने इष्टदेव का साक्षात् दर्शन भी हुआ था।एवं गोपाल को श्रीरामकृष्ण के साथ अभिन्न रूप में देखने में समर्थ थी , और क्रमशः उनका हृदय विस्तारित होता चला गया था।नरेन् या विवेकानन्द को बहुत अधिक प्रेम करती थीं। बाद में जब अकस्मात उनको नरेन् के शरीर त्यागने की खबर मिली तो - 'क्या मेरा नरेन् चला गया ?' बोलकर बेहोश हो गयीं। इसीलिए 'नरेन् की पुत्री' होने तथा निवेदिता का स्वभाव इतना मधुर था कि , वे गोपाल की माँ की स्नेहपात्री बन चुकी थीं।और अपने जीवन के अंतिम समय में निवेदिता के पास ही उनका निधन हो गया। निवेदिता भारतियों के दैनंदिन जीवन का गंभीर पर्यवेक्षक थीं , विशेष रूप उस समय जब 10 /2 बोस पाड़ा लेन में श्री माँ के सानिध्य में रहते समय हिन्दू नारियों के जीवन को गहराई से देखने का अवसर प्राप्त हुआ था।माँ का यह घर मानो निवेदिता के लिए शांति और माधुर्य का आवास प्रतीत होता था। 
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सिस्टर निवेदिता में जो गहरी पर्यवेक्षण क्षमता थी , उसके परिणामस्वरूप वे श्री माँ के घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित होने के फलस्वरूप उनकी कई कहानियाँ हमलोगों को उपहार में प्राप्त हुई हैं। उनकी इच्छानुसार सिस्टर निवेदिता और क्रिस्टीन ईसाई  विवाह पद्धति में वर-वधु और पुरोहित के कर्मकांड की व्याख्या करते करते इसाई विवाह मंत्र का उच्चारण करनेलगीं।  ‘ সুখে-দুঃখে, সৌভাগ্যে-দারিদ্র্যে, রোগে-স্বাস্থ্যে , যতদিন না মৃত্যু আমাদিগকে পৃথক করে ‘ -- जब तक मृत्यु हमें अलग नहीं कर देती - तबतक 'सुख हो या दुःख , सौभाग्य मिले या दुर्भाग्य , बीमारी में या अच्छे स्वास्थ्य में हमलोग कभी अलग नहीं होंगे। "श्री माँ ने उस मंत्र को, पूरे उत्साह के साथ बार-बार सुना, तथा आल्हादित होते हुए कहा - ‘ আহা কী ধর্মীয় কথা গো। ‘ --ओह बाइबिल में भी कितनी धार्मिक बातें कही गयी हैं ! " 
ईसाईमत के प्रति श्रीमाँ के इस उद्गार को सुनकर निवेदिता की बुद्धि के समक्ष यह और अधिक स्पष्ट हो गया कि -" श्री श्री माँ की पवित्रता जिस प्रकार चकित कर देने वाली (Astonishing  purity) थी, उतना  ही अद्भुत था उनका परिष्कृत शिष्टाचार और और दूसरों की भावनाओं को समझने के लिए एक बिल्कुल उदार मन"  (Astonishing purity of sri Ma, Refined courtesy , an absolutely generous mind to understand the feelings of others
भगिनी निवेदिता लिखती हैं - " मैंने यह अनुभव भी किया था कि श्रीमाँ के सामने चाहे जिस प्रकार के, कठिन और विचित्र प्रकार के (difficult or fancy) प्रश्न भी क्यों न लाये जाएँ , उन प्रश्नो का उत्तर देते समय श्री माँ को कभी हिचकिचाते हुए नहीं देखा है माँ श्री सारदादेवी की दृष्टि से अगोचर तात्कालीन भारतीय समाज में जो क्रांति घटित हो रही थी , समाज में जो बदलाव आ रहे थे उनके द्वारा भ्रमित और परेशान होकर यदि कोई उन प्रश्नों का समाधान माँ से प्राप्त करना चाहता तो वे अपनी अभ्रान्त अन्तर्दृष्टि या अचूक बुद्धि [infallible In sight/आध्यात्मिक तेज (ब्रह्मतेज) से उस समस्या के जड़ को देखकर उसका समाधान करके प्रश्नकर्ता के मन को उस खतरे को दूर करने का उपाय सुझा देती थीं। "  [जैसे प्रश्नोत्तरी सत्र में जब कोई पूछे - माया क्या है , स्पष्ट करें तब नवनीदा को कभी हिचकिचाते नहीं द्देखा उनक आध्यात्मिक तेज (ब्रह्मतेज)  के समक्ष कोई भी उत्तर स्पष्ट हो जाते थे ?All the revolutions that are happening in the society invisible to the mother,
भगिनी निवेदिता को व्यक्तिगत रूप श्री श्री माँ सारदादेवी (जगतजननी माँ काली) के साथ केवल कुछ दिनों तक ही उनके कमरे में रहने और ठहरने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था - [Bhagini Nivedita had the privilege of personally staying  with Sri Sri Godess Maa -in her room .] लेकिन उन थोड़े से दिनों में ही अपनी अद्भुत पर्यवेक्षणी शक्ति (supervising or Observing Power) के द्वारा उन्होंने श्रीमाँ के जगदम्बा स्वरूपा व्यक्तित्व के विषय में कितनी गहरी अवधारणा बना ली थीं। 
ब्रह्मचर्य-दीक्षा अर्थात परम् सत्य की खोज में लगे रहने में उद्बुद्ध करने या दीक्षा के समय स्वामी विवेकानंद ने उनको 'निवेदिता' नाम दिया था। बाद में उनके जन्मदिन के अवसर पर उन्होंने एक और कविता लिखी और उन्हें आशीर्वाद दिया। (For the Would be Leaders of India-महामण्डल के भावी नेताओं/ जीवनमुक्त शिक्षकों  के लिए  ) उस कविता की  अंतिम दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
(For the Would be Leaders of India-महामण्डल के भावी नेताओं/ जीवनमुक्त शिक्षकों  के लिए )
भारतमाता की भावी संतानों के लिए
तुम -उनकी  सेविका , सखी  और  गुरु (The mistress) 
 एक ही आधार में तीन -बनो ! 

মূল ইংরেজী কবিতার অংশবিশেষ এই –
” Be thou to India’s future son
The mistress, servant, friend in one. “

” ভবিষ্যৎ ভারতের সন্তানের তরে,

সেবিকা, বান্ধবী, মাতা তুমি একাধারে। ”
 
उनके गुरु का यह आशीर्वाद सिस्टर निवेदिता के छोटे से जीवन में,  सचमुच  में पूरा हो गया था।
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2. “I am the servant of the servants of the servants of Buddha.Who was there ever like Him? – The Lord – who never performed one action for Himself -with a heart that embraced the whole world! So full of pity that He – prince and monk – would give His life to save a little goat! So loving that He sacrificed himself to the hunger of a tigress! – to the hospitality of a pariah and blessed him! And He came into my room when I was a boy and I fell at His feet! For I knew it was the Lord Himself!” 

3.“Four eyes met. There were changes in two souls.All I know is, there were two, Love came, and there is one!”

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He talked of the girls at their spinning wheels, listening to the “Sohum! Sohum! – I am He! I am He!” He who attains to God in this life, says Manu, is the Brahmin. 

you accept Catholic ritual as Aryan!”

“Yes almost all Christianity is Aryan, I believe. I am inclined to think Christ, never existed. I have doubted that, ever since I had my dream, – that dream off Crete! * Indian and Egyptian ideas met at Alexandria, and went forth to the world, tinctured with Judaism and Hellenism, as Christianity.”

* In travelling from Naples to Port Said, on his way Backto India, in January 1897, the Swami had a dream of an old and bearded man, who appeared before him, saying “This is the island of Crete,” and showing him a place in the island, that he might afterwards identify. The vision went to say that the religion of Christianity had originated in the island of Crete and in connection with this gave him two European words, – one of which was Therapeutae — which it declared, were derived from Sanskrit. Therapeutae meant sons (from the Sanskrit putra) of the Theras, or Buddhist monks. From this the Swami was to understand that Christianity had originated in a Buddhist mission. The old man added “The proofs are all here,” pointing to the ground. “Dig and you will see!

As he awoke, feeling that this was no common dream, the Swami rose, and tumbled out on deck. Here he met an officer, turning in from his watch. “What o’clock is it?” – said the Swami. “Mid-night!” – was the answer. “Where are we?” – he then said; when, to his astonishment, the answer came Back- “fifty miles off Crete!

National life was a question of organic forces. We must reinforce the current of that life itself, and leave it to do the rest. Buddha preached renunciation, and India heard. Yet within a thousand years, she had reached her highest point of national prosperity. The national life in India has renunciation as its source. Its highest ideals are service and mukti. The Hindu mother eats last. Marriage is not for individual happiness, but for the welfare of the nation and the caste.

As we sat at lunch, the Swami invited his daughter1 to go to the Cave of Amarnath with him, and be dedicated to Siva. Dhira Mata smiled permission, and the next half-hour was given to pleasure and congratulations. It had already been arranged that we were all to go to Pahlgam and wait there for the Swami’s return from the pilgrimage.

 THE SHRINE OF AMARNATH/Place Kashmir./Time :- July 29th to August 8th 1898./This incident has been described in greater detail by Sister Nivedita in her book,The Master as I Saw Him(Chapter 7 – Flashes from the Beacon Fire)..next halt, Chandanawara! / Shisharnag, with its sulky water, and at last we camped in a cold damp place amongst the snow-peaks, 18,000 feet high.Pantajharni – the place of the five streams – was not nearly such a long march. Moreover, it was lower than Shisharnag,August 2nd. On Tuesday.

 August the 2nd, the great day of Amarnath, the first batch of pilgrims must have left the camp at two! We left by the light of the full moon. The sun rose as we went down the narrow valley. he entered the cave. With a smile he knelt, first at one end of the semi-circle, then at the other. The place was vast, large enough to hold a cathedral, and the great ice-Siva, in a niche of deepest shadow, seemed as if throned on its own base. A few minutes passed, and then he turned to leave the cave.To him, the heavens had opened. He had touched the feet of Siva. He had had to hold himself tight, he said afterwards, lest he ‘should swoon away.’ But so great was his physical exhaustion, that a doctor said afterwards that his heart ought to have stopped beating, and had undergone a permanent enlargement instead. How strangely near fulfilment had been those words of his Master, “when he realises who and what he is he will give up this body!” ठाकुरदेव ने कहा था , "जब उसे पता चल जायेगा  कि वह कौन है और वह क्या है तो वह इस शरीर को त्याग देगा!"[ अर्थात " जब नरेन का पहचान भ्रम , अस्मिता या Identity Confusion दूर हो जायेगा तथा उसको यह अहसास हो जायेगा कि वह कौन है और क्या है - (तब विरक्त होकर ?) वह अपने शरीर को त्याग देगा ! " ]

“I have enjoyed it so much!” he said half an hour afterwards,“I thought the ice-lingam was Siva Himself. And there were no thievish Brahmins, no trade, nothing wrong. It was all worship. I never enjoyed any religious place so much!”Afterwards he would often tell of the overwhelming vision that had seemed to draw him almost into its vertex. He always said too that the grace of Amarnath had been granted to him there, not to die till he himself should give consent. 

And to me he said “You do not now understand. But you have made the pilgrimage, and it will go on working. Causes must bring their effects. You will understand better afterwards. The effects will come.”we returned next morning to Pahlgam; we came to the tiny goat-path down the face of a steep cliff, by which we were able to shorten the return journey so much. August 8th.We started for Islamabad next day, and on Monday morning as we sat at breakfast, we were towed safely into Srinagar.

AT SRINAGAR ON THE RETURN JOURNEY/Persons The Swami Vivekananda and a party of Europeans, amongst whom were Dhira Mata – ‘the Steady Mother,’ ‘One whose name was Jaya ? ’; and Nivedita.Place :- Kashmir – Srinagar.Time :- August 9th to August 13th.

“The River is pure that flows, the monk is pure that goes,” बहता पानी और चलता साधु पवित्र और निर्मल रहता है। जो समय को सार्थक करता है उसी की महानता है। इसके लिए गुरु का सान्निध्य जरूरी है, क्योंकि गुरु पारस पत्थर के समान है, वे ही जीवन संवारते हैं। गुरू के प्रति श्रद्धा भावना व गुरु के प्रति समर्पण से ही व्यक्ति महान बनता है।

   श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥


श्री गुरु के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करनेवाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं।

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥


पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों (ठाकुर,माँ, स्वामीजी-नवनीदा ) के चरणों की वंदना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरनेवाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ। 

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥


संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज है, जहाँ राम भक्तिरूपी गंगा की धारा हैं और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती हैं।

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो--यम और नियम ) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली सूर्यतनया यमुना हैं और भगवान विष्णु और शंकर की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देनेवाली हैं।

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।

 बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और राम की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥ 6

विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किंतु संतरूपी हंस दोषरूपी जल को छोड़कर गुणरूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥ 6॥

 अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥

विधाता जब इस प्रकार का (हंस का-सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं। 

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥
7(ग)॥

जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वंदना करता हूँ॥ 7(ग)॥

 निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥

रसीली हो या अत्यंत फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किंतु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं।

बहता पानी और चलता साधु ही निर्मल होता है !  चातुर्मास का अंतिम संदेश यही है कि हृदय को पवित्र बनाएं तथा आत्मा के स्वरूप को पहचानें। आत्मा का प्रकाश सूर्य से भी बढ़कर है। सत्य, तप, सम्यक ज्ञान व ब्रह्मचर्य के द्वारा आत्मा को प्राप्त किया जा सकता है।

बहता पानी निर्मला, बंधा गंदा होय ।
साधु जन रमता भला, दाग न लागे कोय ॥
अर्थ: संत कबीर दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार नदी के बहते हुए जल को स्वच्छ एवं निर्मल माना जाता है तथा तालाब अथवा पोखर के ठहरे हुए जल को दूषित मन जाता है, उसी प्रकार सद्पुरुष एवं साधुजन को भी नदी की भाँति सदा चलायमान ही रहना चाहिए ऐसी प्रवृति रखने से उसके चरित्र पर कोई दाग लगने की कोई संभावना भी नहीं होती है।

I know exactly what it means – the passionate outcry “I am always so much better when I have to undergo hardships and beg my bread,

ज्योतिष नहीं : There was occasion this day for the Swami to rebuke a member of this party for practising palmistry. इस दिन इस अवसर पर स्वामी ने हस्तरेखा विज्ञान के अभ्यास के लिए इस पार्टी के एक सदस्य को फटकार लगाई। Brahmin cook. against his willingness to let even a Mussalman cook for him. “But for the present he was worshipping his little Mohammedan boat-child as Uma.

episode of Meera Bai, the queen who would not be queen, but would wander the world with the lovers of Krishna, was always his favourite, even in Tod. He talked of how she preached submission, prayerfulness, and service to all in contrast to Chaitanya, who preached love to the Name of God, and mercy to all. Meera Bai was always one of his great patronesses.  episode of Meera Bai, the queen who would not be queen, but would wander the world with the lovers of Krishna, was always his favourite, even in Tod. He talked of how she preached submission, prayerfulness, and service to all in contrast to Chaitanya, who preached love to the Name of God, and mercy to all. Meera Bai was always one of his great patronesses. marvellous tale of Meera Bai, in which on reaching Brindavan, she sent for a certain famous sadhu.* He refused to go, on the ground that woman might not see men in Brindavan. When this had happened three times, Meera Bai went to him herself saying that she had not known that there were such beings as men there, she had supposed that Krishna alone existed.And when she saw the astonished sadhu she unveiled herself completely, with the words “Fool, do you call yourself a Man?” And as he fell prostrate before her with a cry of awe, she blessed him as a mother blesses her child.

 “our national hero” Protap Singh (महाराण प्रताप सिंह शिशौदिया) , who never could be brought to submission. Once indeed he was tempted to give in, at that moment when, having fled from Cheetore, and the queen herself having cooked the scanty evening meal, a hungry cat swooped down on that cake of bread which was the children’s portion, and the King of Mewar heard his babies cry for food. Then, indeed, the strong heart of the man failed him. 

The Eternal Will protects its own. “There is but one left amongst us who has kept his blood free from admixture with the alien. Let it never be said that his head has touched the dust.”  And the soul of Protap drew in the loner breath of courage and renewed faith, and he arose and swept the country of its foes, and made his own way back to Oodeypore....  And so on, and so on. For the stories of Rajput heroes in this kind are endless.

“জগৎকে আলো দেবে কে? আত্মবিসর্জনই ছিল অতীতের ধারা; হায়! যুগ যুগ ধরে তা চলতে থাকবে! পৃথিবীর যারা বীরোত্তম ও সর্বোত্তম, তাদের আত্মোৎসর্গ করতে হবে ‘বহুজন হিতায়, বহুজন সুখায়।’ ...নিঃস্বার্থ, অগ্নিজলন্ত প্রেম যাঁদের মধ্যে— তাঁদের এখন জগৎ চায়। সেই প্রেম প্রতিটি উচ্চারিত শব্দকে বজ্র করে তুলবে।”
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