छब्बीस शताब्दी पूर्व का समय इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग था । इस समय मनुष्य जाति के लिए एक महान मार्गदर्शक नेता का जन्म हुआ था, जो गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए । इतिहास के अनुसार ६२४ ई.पू. में राजा शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के अधिपति थे । उनकी पत्नी का नाम महामाया था। जब महामाया अपने प्रथम प्रसव के लिए राजधानी कपिलवस्तु से अपने मायके देवदह की यात्रा कर रही थी तो उन्होंने मार्ग में ही वैसाख पूर्णिमा के दिन, लुम्बिनी वन (बुद्ध के ननिहाल -अभी नेपाल का हिस्सा ) में विशाल शाल वृक्ष के नीचे एक पुत्र को जन्म दिया । जन्म के पांच दिन पश्चात उनके नामकरण-संस्कार का आयोजन हुआ, जिसने आमंत्रित सभी विद्वान ब्राम्हणों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट होगा अन्यथा यह बुद्ध बनेगा । लेकिन कोंडण्य ने कहा कि यह निश्चित रूप से बुद्ध ही बनेगा । बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, जिसका अर्थ है- वह व्यक्ति जिसने अपना चारो पुरुषार्थ - धर्म ,अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध कर लिया है।
सोलह (16) वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने एक सुंदर राजकुमारी यशोधरा के साथ युवक सिद्धार्थ कर विवाह कर दिया इस आशा से कि यह उन्हें गृहस्थ जीवन में बाँध लेगी । उनतीस (29) वर्ष की अवस्था तक सिद्धार्थ ने सुविधा संपन्न सद्ग्रह्स्थ का जीवन जीया। एक दिन जब सिद्धार्थ अपने रथ में सवार होकर विचरण कर रहे थे , मार्ग में उन्होंने एक जर्जर वृद्ध व्यक्ति को देखा दूसरी बार एक बीमार व्यक्ति को , तीसरी बार एक मृत व्यक्ति के शव को और अतिंम बार एक 'स्वामी विवेकानन्द' जैसे किसी बड़ी बड़ी आँखों वाले शांत प्रसन्नमुख संन्यासी को देखा । इन चारों घटनाओं का उनके मन पर विशेष प्रभाव पड़ा । सर्वव्यापी अंतर्भूत दु:खो के विषय में वे चिंतन करने लगें और साथ ही सांसारिक सुख-सुविधाओँ के बंधनों का परित्याग करके मुक्ति-मार्ग खोजने का चिंतन करने लगे । संसार के दु:खों का कारण पता लगाने को तीव्र इच्छा से कुमार सिद्धार्थ ने एक रात्रि को अपना प्रासाद, सुंदरी पत्नी, नवजात शिशु और सभी प्रकार के भोगविलासों का परित्याग कर वे चुपचाप शहर से चले गये।
मुण्डकोपनिषद (3.2.4) में कहा गया है - " नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात्।" ( न अयम् आत्मा बलहीनेन लभ्यः , प्रमादात् च न वा 'अलिङ्गात् तपसः अपि ' nor even by asceticism without the true mark न लभ्यः) - यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है, न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्षणहीन तपस्या के द्वारा प्राप्य है, किन्तु जब कोई विद्वान् इन उपायों के द्वारा प्रयत्न करता है तो उसका आत्मा ब्रह्म-धाम में प्रवेश कर जाता है।(This Self cannot be won by any who is without strength, nor with error in the seeking, nor by an askesis without the true mark: but when a man of knowledge strives by these means his self enters into Brahman, his abiding place.)
'कायाक्लेश' (asceticism, एसिटिसिजम)
यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है' -- यहां पर बलहीन का अर्थ सामान्य दैहिक अथवा बौद्धिक बल से नहीं है । अपितु 'विवेक-प्रयोग ' या 'विवेक-दर्शन (स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने से उत्पन्न विवेकज-ज्ञान का बल से है। आत्मसाक्षात्कार द्वारा या ब्रह्मविद होकर ब्रह्म बन जाने का बल - ' अभिः। ' विवेक-प्रयोग ' का बल ही सच्चा बल है।
अतः ऋषि कहते है - " यह 'परमात्मा' बलहीन व्यक्ति के द्वारा लभ्य नहीं है, न ही प्रमादपूर्ण प्रयास से, और न ही लक्ष्यहीन या आदर्श रहित तपश्चर्या (Aimless penance = स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में चयन किये बिना- 'कायाक्लेश' (asceticism, एसिटिसिजम) बुद्ध के जैसा देह को सूखा कर हड्डी बना देने के द्वारा भी प्राप्य नहीं है। ( बलं नाम नैषा शरीरस्य वा बुद्धेर्वा शक्तिः । किंतु विवेकस्य बलम्, आत्मज्ञानस्य बलम्, आत्मनिष्ठाजातम्, अनुभवस्य बलमेतत् । विवेकज्ञानबलमेव हि बलं नाम ।) }
सिद्धार्थ गौतम छ: वर्ष तक उस सत्य की खोज में भटकते रहे । कठिन तपश्चर्या का अभ्यास आरंभ किया। उपवास करते -करते उनका शरीर केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया परन्तु चित्त की पूर्ण निर्मलता की अवस्था हाथ नहीं लगी । पास के गांव में रहने वाली सुजाता ने विवाह के पूर्व वट वृक्ष पर रहने वाले देवता से मन्नत मांगी थी कि उसे पुत्र होने पर वह वृक्ष देवता को खीर देगी । उस दिन वह खीर देने वाली थी । सिद्धार्थ प्रातःकाल से ही वट वृक्ष के नीचे बैठे थे । सुजाता ने उन्हें ही देवता समझकर खीर परोसी । सिद्धार्थ गौतम ने देखा कि जैसे भोग विलासमय जीवन एक अति है और इस पर चलने से दुःखों से नितांत छुटकारा पाना संभव नहीं है, वैसे ही 'ध्यान-मुद्रा में बैठकर कायाकष्ट की साधना' भी दूसरी अति है जिससे भी मुक्ति संभव नहीं है । इन अनुभवों ने उन्हें मध्यम मार्ग पर ला खड़ा किया ।
उन्होंने फिर से भोजन लेने का निर्णय किया । वैशाख पूर्णिमा के दिन निरंजना नदी में स्नान करके वह घने वृक्षों से आच्छादित एक रमणीक स्थान पर आये । वहीं बुद्धत्व प्राप्त करने तक न उठने का दृढ़ संकल्प लेकर बैठ गये । वह रात उन्होंने गहन साधना में बिताई, अपने भोतर सच्चाई की खोज में लीन रहे और प्रात: होने के पूर्व उन्हें परम् सत्य का साक्षात्कार हो गया । आत्मसाक्षात्कार वह अवस्था है , जहाँ वापस लौटने पर कोई भी मनुष्य बुद्ध बनकर (ब्रह्मवेत्ता बनकर, भ्रममुक्त होकर ) वस्तु-स्थिति व अवस्था को- न कि जैसे वह प्रतीत होती है; बल्कि उसके वास्तविक स्वरूप में देखने में समर्थ हो जाता है । समस्त संसार को संस्कृत करने वाले कारण-कार्य श्रृंखला के नियम 'पटिच्चसमुप्पाद' (मन को एकाग्र करने की पद्धति) का उन्होंने अन्वेषण कर लिया ।
अविद्या का अंधकार दूर हो गया और प्रज्ञा-प्रकाश प्रखरता से देदीप्यमान हो गया । सूक्ष्मतम मनोविकार भी धुल गये । सभी बेड़ियाँ टूट गयीं, भविष्य के लिये तृष्णा का लवशेष भी नहीं रह गया; उनका मन सर्वप्रकार से सर्वआसक्तियों से विहीन हो गया । उन्होंने अनित्य, दुःख तया अनात्म की सच्चाई का स्वानुभूति से साक्षात्कार कर लिया । सर्वथा शुद्ध स्वरूप में परम सत्य का अनुभव करके, सिद्धार्थ गौतम परम ज्ञान को प्राप्त हुए और - सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध (सम्यक सम्बुद्ध) हो गए । 'भग्ग रागो, भग्ग दोषों, भग्ग मोहो' अर्थात राग-द्वेष-मोह को पूर्णतया भग्न करने के कारण वे ' भगवा ' अर्थात सही अर्थ में भगवान कहलाये । यदि कारण को समाप्त कर लिया जाय तो कार्य स्वत: समाप्त हो जाता है । पूर्ण विमुक्ति की अवस्था प्राप्त करने पर उनके मुख से प्रसन्नतापूर्ण निम्न उदान उभरा -
अनेक जाति संसारं , संधाविस्सं अनिब्बिसं,
गहकारकं गवेसंतो , दुवखा जाति पुनष्पुनं ।
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ,
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा ।।
--"अनेक जन्मो तक बिना रूके संसार में दौड़ लगाता रहा, (इस कायारूपी) घर बनाने वाले (ब्रह्म) की खोज करते हुए पुन: पुन: दुःखमय जन्म होता रहा, हे गृहकारक अब " तू " देख लिया गया है अब " तू " पुन: घर नहीं बना सकेगा । तेरी सारी कड़ियां भग्न हो गई है घर का केन्द्रगत स्तंभ भी छिन्न-भिन्न हो गया है, चित्त संस्कार विहीन हो गया है - (चित्त की वृत्तियों का निरोध हो गया है, इसलिये) तृष्णा का समूल नाश हो गया है। बुद्ध ने सार्वजनीन दुःख से मुक्त होने का सार्वजनीन मार्ग 'धर्म ' (मनःसंयोग की पद्धति) को फिर से खोज निकाला । असीम करूणा से भरकर बुद्ध ने इस "दुःखनिवारण धर्म' की देशना देने का निर्णय लिया ।
बुद्ध ने वाराणसी के समीप सारनाथ में एकांतवास (वर्षावास) करते हुए संघ के साथ (" Be and make - Leadership Training " का प्रशिक्षण देने) में बिताये, जो संघ बढ़ कर अब साठ अरहंत (जीवनमुक्त शिक्षकों/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का ) भिक्षुओं का समुदाय हो गया था। वर्षावास समाप्ति पर भगवान ने भिक्षुओं को आदेश दिया:- 'चरैवेति , चरैवेति ! '- अर्थात " भिक्षुओं (जीवनमुक्त शिक्षकों) । बहुजन के हित-सुख के लिए, देवों तथा मनुष्यों के कल्याण के लिए, मंगल के लिए, लोकों पर अनुकम्पा करते हुए- (मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देते हुए) विचरण करें। "
उन्होंने पांचवां (5th) वर्षावास वैशाली में व्यतीत किया । इसी वर्ष उनके पिता महाराज शुद्धोधन का स्वर्गवास हुआ । विधवा रानी (बुद्ध की सौतेली माता) महाप्रजापती गौतमी ने महिलाओं को संघ में प्रवेश की बुद्ध से अनुमति मांगी । उनकी ओर से आनंद ने विशेष अनुरोध किया तब उन्हें अनुमति मिली । इस तरह भिक्षुणी संघ (सारदा नारी संगठन ?) का आरंभ हुआ ।
बुद्ध ने बीसवां वर्षावास (20th) राजगृह में बिताया । बीसवें वर्ष में ही उनकी प्रेरणा से नौ सौ निन्यानवे (999) मनुष्यों की हत्या कर चुकने वाले भयावह डाकू अंगुलिमाल का जीवन परिवर्तन (हृदय-परिवर्तन) हुआ। 'धर्म ' के संपर्क में आकर अंगुलिमाल संत बन गया और कालांतर में अरहंत (जीवनमुक्त शिक्षक/नेता) हो गया।
जन्म, जाति, वर्ग, पशु-बलि पर आधारित कर्मकांड और प्राचीन रूढिवादी अंध मान्यताओं पर विश्वास करने वालों ने उनका अनवरत विरोध किया । अनेक अवसरों पर उनका तथा उनकी शिक्षा का विरोध करने के लिये संप्रदायवादियों ने विविध षड़यंत्र भी किये । एक भिक्षु देवदत्त (कालनेमि ?) ने संघ में फूट डालने की कोशिश की यहाँ तक कि बुद्ध की हत्या करने के अनेक प्रयास किये । परंतु हर बार बुद्ध ने अपने अनंत 'ज्ञान', 'मैंत्री' और 'करूणा' से इन विरोधी शक्तियों को शांत किया और वे दुःखियारे लोगों की अधिक से अधिक सेवा में रत रहे, जिससे कि वे अपने दुःखों से बाहर आ सकें ।
अस्सी वर्ष की अवस्था में बुद्ध वैशाली पधारे । वहा गणिका अंबपाली ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया और अपना अंबलट्टिका नामक आम्र उद्यान संघ को दान में समर्पित कर दिया । "धर्म धारण कर, - अर्थात चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके; वह दुश्शीलता के आचरण से मुक्त हुई और "सत्य" में प्रतिष्ठित होकर अरहंत हो गयी । अपने सभी दुःखों से सदा सर्वदा के लिये विमुक्त हो गयी ।
उसी वर्ष बुद्ध वहां से पावा आये और चुंद के आम्रवन में ठहरे । यहीं पर उन्होंने अपना अंतिम भोजन ग्रहण किया और अस्वस्थ हो गये । इस अशक्त अवस्था में ही उन्होंने कुशीनारा के लिए प्रस्थान किया । यहां पर उन्होंने आनंद से युग्म शाल वृक्षों के बीच अ्पना चीवर बिछाने का निर्देश दिया और कहा कि उनके शरीर त्याग करने का समय आ गया है । बहुत बड़ी संख्या में भिक्षु, गृहस्थ और देवता उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उपस्थित हुए । ५४४ ईसा पूर्व, वैसाख पूर्णिमा के दिन अपने अस्सीवें वर्ष में जैसा धर्म उन्होंने स्वयं आचरित किया था, उसे 'सुभद्र नामक व्यक्ति को सिखाते हुए' बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए ।
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