स्वामी विवेकानन्द की योजना के अनुसार गाँव गाँव में आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाले संगठन (Organization) के नेताओं का निर्माण करने में पाठ-चक्र की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
सामान्य कक्षा में वक्ता और श्रोता के बीच दूरी होती है, इस विशेष कक्षा में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से Ideal and Organisation अर्थात स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मानकर उनकी शिक्षाओं के अनुरूप आदर्श-मनुष्यों के निर्माण लिये नये पाठ-चक्र की स्थापना कैसे होती है, उसकी जानकारी दी जायेगी। भारत के विभिन्न स्थानों से आये प्रशिक्षणार्थियों, शाखा संचालकों को या जो लोग इस कैम्प में पहली बार आये हैं, यदि उन्हें महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम अच्छा लगा हो, और वे अपने गाँव या इलाके में इसकी शाखा खोलना चाहते हों, या किसी पुराने पाठ-चक्र के संचालक को अपने संगठन के संचालन में यदि कोई कठिनाई हो, या कोई प्रश्न हो, तो आप इस विशेष प्रशिक्षण कक्षा में उसको अपनी भाषा में पूछ सकते हैं, यहाँ से उसी भाषा में उसका उत्तर दिया जायेगा।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । ।
सामान्य कक्षा में वक्ता और श्रोता के बीच दूरी होती है, इस विशेष कक्षा में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से Ideal and Organisation अर्थात स्वामी विवेकानन्द को आदर्श मानकर उनकी शिक्षाओं के अनुरूप आदर्श-मनुष्यों के निर्माण लिये नये पाठ-चक्र की स्थापना कैसे होती है, उसकी जानकारी दी जायेगी। भारत के विभिन्न स्थानों से आये प्रशिक्षणार्थियों, शाखा संचालकों को या जो लोग इस कैम्प में पहली बार आये हैं, यदि उन्हें महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम अच्छा लगा हो, और वे अपने गाँव या इलाके में इसकी शाखा खोलना चाहते हों, या किसी पुराने पाठ-चक्र के संचालक को अपने संगठन के संचालन में यदि कोई कठिनाई हो, या कोई प्रश्न हो, तो आप इस विशेष प्रशिक्षण कक्षा में उसको अपनी भाषा में पूछ सकते हैं, यहाँ से उसी भाषा में उसका उत्तर दिया जायेगा।
श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति मार्गी या संन्यासी थे;किन्तु उन्होंने अपने गीता
भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं. प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्
अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या
निवृत्ति–मार्ग है।गीता में 'योग शब्द प्रवृत्ति मार्ग अर्थात 'कर्मयोग' के
अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने निवृत्ति
मार्ग के अधिकारीयों के लिये १८९७ में एक संगठन बनाया ' रामकृष्ण मठ और मीशन ' तथा आदर्श-वाक्य दिया 'आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय च' – For one's own salvation and for the welfare of the world ! जिसका मुख्यालय बेलुड़, पश्चिम बंगाल में है.
यदि सभी मनुष्यों
के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये
तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर
निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनु महाराज कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि -निवृत्तिअस्तु महाफला।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । ।
मनुस्मृतिः५.५६ । ।
अर्थ-मांसभक्षण,मद्यपान और मैथुन में दोष नहीं है। मनुष्यों में यह गुण
प्रकृति प्रदत्त हैं, किन्तु इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि निवृत्ति
ही सबसे बड़ा फल है !
चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक खाने देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है. पहले ही खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में भोग-वासना अधिक देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " श्रुति भगवती बहुत दयालु है, यदि किसी को पुत्र की कामना हो, तो उसके लिये पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान दिया है. यहाँ तक कि शत्रू-नाश, अन्न वृद्धि आदि के लिये भी यज्ञ का करने का विधान है. ऐसा करके शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, इसप्रकार उसके भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं.
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और
ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा '
" It may be that I shall find it good to get outside of my body -- to
cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I
shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one
with God !चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक खाने देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है. पहले ही खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में भोग-वासना अधिक देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " श्रुति भगवती बहुत दयालु है, यदि किसी को पुत्र की कामना हो, तो उसके लिये पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान दिया है. यहाँ तक कि शत्रू-नाश, अन्न वृद्धि आदि के लिये भी यज्ञ का करने का विधान है. ऐसा करके शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, इसप्रकार उसके भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं.
अपने इसी वचन को प्रमाणित करते हुए, हम जैसे गृहस्थ या प्रवृत्ति मार्गी पुरुषों या कर्म -योगियों के लिये उनकी ही प्रेरणा से १९६७ ई० में ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' नामक संगठन की स्थापना हुई। जिसका आदर्श वाक्य है ' Be and Make ' और नारा है ' चरैवेति चरैवेति ' -अर्थात आगे बढ़ो, आगे बढ़ो! इसका मुख्यालय ' भुवन-भवन ' पो० बलराम धर्म सोपान, खरदा,उत्तर २४ परगना, ७००११६, पश्चिम बंगाल में है. इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके ३१५ से अधिक केन्द्र क्रियाशील हैं, और निरन्तर इसकी शाखायें हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी खुलती जा रही हैं. उसी
प्रकार निवृत्ति मार्गी स्त्रियों के लिये भी एक मठ दक्षिणेश्वर में है,
और प्रवृत्ति मार्गी स्त्रियों के लिये महामण्डल की सहयोगी संस्था (Sister
concern ) के रूप /में ' सारदा नारी संगठन ' भी
कार्यरत है. यदि भारत में महामण्डल की स्थापना नहीं हुई होती तो हम जैसे
अधिकांश गृहस्थ आदर्श के अभाव में शास्त्रोक्त धर्म को छोड़ देते (और 'चार-धाम की यात्रा से मोक्ष मिलता है' -सोचकर उत्तराखण्ड में बादल फटने से मोक्ष को प्राप्त हो गये होते।)
महामण्डल द्वारा संचालित पाठचक्र का उद्देश्य
' Ideal Man ' आदर्श-मानव का निर्माण करना है। 'one-sided man ' एक पक्षीय
मनुष्य को ' Ideal Man ' में या 'man with capital M' में रूपान्तरित
करना है। विश्व की जनसंख्या ६ अरब है, किन्तु उनमें मनुष्यत्व का उन्मेष
नहीं हुआ है; इसीलिये आम तौर से विश्व भर में humanity या मानवता का घोर
आभाव दिखाई दे रहा है। किन्तु जो अभिभावक या नेता ' तुम तो ऐसे सुधरोगे नहीं !' जैसी टीका-टिप्पणी करके मनुष्य निर्माण करना कहते हैं, वे नहीं जानते कि प्रत्येक मनुष्य का शरीर भगवान मन्दिर है !
इसीलिये किसी के चरित्र में दुर्बलता दिखे, या कमजोरी दिखे तब भी कहीये
नहीं ! उसका उत्साह नहीं बढ़ायेंगे तो वह लड़ लेगा और संगठन को नुकसान
पहुंचेगा। यदि किसी को वातावरण या कुसंग के प्रभाव से अनजाने ही पीने
वालों की संगती हो गयी हो, तो उससे भी मीठा रहिये- महामण्डल सदस्य को दवा छोड़ कर ' अंगूर ' का जूस या जिस किसी पेय में अल्कोहल हो, उसे हाथ भी नहीं लगाना चाहिये; अंगूर का रस छोड़ कर बाकी सब फल का रस पी सकते हो, ऐसे समझाना चाहिये। हमारे जीवन का लक्ष्य और संकल्प होना चाहिये
-चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण !
भावी संचालकों (नेताओं) को सबसे पहले अपने गाँव के किसी स्कूल में या
सुविधाजनक स्थान में, या किसी
मैदान में पेड़ के नीचे जहाँ तरुण और युवा लोग शाम को एकत्र होते हैं, वहाँ
पहुंचकर उनसे कहें, आओ हमलोग अपने गाँव में भी स्वामी विवेकानन्द के
विचारों तथा जीवन गठन के
भावों को तथा नया भारत गढ़ने की उनकी योजना को कार्यरूप देने के लिये एक
साप्ताहिक पाठ चक्र का शुभारम्भ करें ! उनको स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान, विवेकानन्द संक्षिप्त जीवनी, शक्तिदायी विचार, महामण्डल द्वारा प्रकाशित कुछ पुस्तिकाओं यथा- 'जीवन-गठन ' 'मनः संयोग', 'चरित्र के गुण', 'चरित्र-निर्माण कैसे करें', 'एक युवा आन्दोलन'
आदि को उन्हें दिखलाते हुए, उन्हें अपनी भाषा में सामूहिक रूप से
पढ़कर, उस पर चर्चा करके उन्हें अनुप्रेरित करें कि इन अच्छे विचारों को
अपनाने से हमारा, हमारे परिवार, समाज और देश का बहुत भला हो सकता है. आरम्भ
में विवेकानन्द साहित्य के मोटे वोल्यूम को सामूहिक रूप में
पढ़ना ठीक नहीं होगा, कोई सदस्य चाहे तो अलग से अपने घर में पढ़ सकता है.
महामण्डल एक त्री -आयामी संगठन है, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम " विवेकानन्द युवा पाठचक्र " की स्थापना की जाती है. सभी सदस्यों को सबसे पहले (महामण्डल PC ) पाठचक्र के उद्देश्य के विषय में स्पष्ट अवधारणा होनी चाहिये, इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि इसका सार, मौलिक कार्य क्या है ? हमें आदर्श मनुष्य बनना है, एक आयामी मनुष्य से त्री-आयामी मनुष्य बनना है , one sided man नहीं रहना है. इसके लिये अपने किसी ऐसे ही आदर्श के साँचे में अपने जीवन को ढाल कर अपना जीवन गढ़ लेना पड़ता है. उसके लिये ५ कार्य प्रार्थना, मनःसंयोग, संकल्प-ग्रहण सूत्र आदि का अभ्यास प्रतिदिन करना है. (व्रत तो आप लोग रहते होंगे ? १७ अगस्त को एकादसी है, कठोर तप करें कृपा बरसेगी,आप अनुभव करेंगे।) इन्हें करने से क्या लाभ होगा ? विवेक-प्रयोग ही स्वाभाव बन जायेगा, दृढ़ संकल्प और प्रचण्ड इच्छा शक्ति की सहायता मन वशीभूत हो जायेगा, हमारे द्वारा केवल सद्कर्म ही होंगे, उससे सद्प्रवृत्ति बन जाएगी, और सद्चरित्र गठित हो जायेगा।
जब आपके इलाके के कुछ प्रबुद्ध निवासी आपके इस शुभ संकल्प को देखकर अनुप्रेरित हो जाएँ, तो सबसे पहले अपने गाँव या शहर का नाम आगे लिखकर पाठ चक्र स्थापित करें ' ग्राम का नाम' विवेकानन्द युवा पाठचक्र " के नाम से नया पाठचक्र अपने गाँव या शहर में स्थापित कर सकते हैं. पूरी निष्ठा के साथ और नियमित रूप से विवेकानन्द को पढ़ें, विवेक-जीवन या विवेक-अंजन पढ़ें, केंद्र के साथ नियमित सम्पर्क में रहिये. फिर उसके अनुमोदन हेतु रजिस्टर्ड ऑफिस -' भुवन-भवन ' के सम्पर्क में रहते हुए मासिक रिपोर्ट भेजते रहें। कुछ महीनों तक कार्य करने के बाद, 'भुवन-भवन ' के परामर्श के अनुसार एक दिवसीय शिविर का आयोजन कर लेते हैं, तो आपके केन्द्र को ' युवा महामण्डल ' का नाम व्यवहार करने की अनुमति दी जा सकती है. यह प्रयास तभी करें जब आपको यह विश्वास हो जाये कि यह संगठन अब कभी बन्द नहीं हो सकता है. युवा महामण्डल का स्थायी-प्रतिनिधि के निर्देशानुसार महामण्डल संचालन समिति का गठन करने के बाद, समिति का अनुमोदन केन्द्रीय संस्था से करवा केन चाहिये। यह अनुमति मिल जाने के बाद आप अपने लेटर पैड पर महामण्डल का
' monogram' या नाम-चिन्ह का व्यवहार कर सकते हैं; और दो, दो, महीने पर रिपोर्ट भेज सकते हैं.
फिर जब त्रि-दिवसीय शिविर का आयोजन कर लेते हैं, या समीति को ऐसा लगे कि इस केन्द्र के पास महामण्डल-ध्वज,बिगुल,शिविर में प्रातः काल बजने वाला दादा का गाया चैंटिंग CD भी होना चाहिये तो, किसी पुराने केन्द्र से जानकारी प्राप्त करके केन्द्र से सम्बद्ध करने का आवेदन फॉर्म प्राप्त कर लें,और उसे भर कर मुख्यालय भेज दें. संबंधन अनुमति (affiliation) मिल जाने बाद ही, और अब आप ३ महीने पर रिपोर्ट भेज सकते हैं. इसके पीछे कारण यही है, कि जब पौधा छोटा होता है, तो उसको अधिक नजदीक से देख-भाल करनी पड़ती है.
अतः पाठ-चक्र से भी महामण्डल का उतना ही घनिष्ट सम्बन्ध है, जितना किसी संबंधन प्राप्त केन्द्र का. क्या आपको स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य निर्माण-कारी शिक्षा-पद्धति में पूर्ण आस्था है, क्या आप केवल स्वामी विवेकानन्द को ही अपना आदर्श स्वीकार करते हैं ? क्या आप यह स्वीकार करते हैं कि स्वामीजी ही हमारे मार्गदर्शक नेता हैं ? (मूर्ति माने बिन, सगुन को जाने बिन ? जइयो कहाँ ऐ हुजूर ? समस्त साधना ही व्यर्थ है! धर्म हमेशा 'अवतार' का, 'सगुण-साकार' का समर्थक होता है) यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ है, तो आप के इकाई का नाम पाठ चक्र हो या महामण्डल आप हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं ! महामण्डल अपने पाठ चक्र और प्रशिक्षण-शिविर आदि के माध्यम से -ज्ञान,कर्म,भक्ति और राजयोग -चारों मार्गों का समन्वयव करके आदर्श मनुष्यों का निर्माण करने का प्रयास करता है.हम कौन हैं ? जीवन क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? पाठ चक्र में इसी प्रकार ज्ञान-योग के द्वारा चिन्तन-मनन किया जाता है . पाठ चक्र में जिस पुस्तिका से पाठ चल रहा है, उसके खत्म हो जाने के बाद ही, दूसरी को लेना चाहिए।
प्रत्येक केन्द्र में पाठ चक्र शुरू होने के पहले, एक हस्ताक्षर-पंजी पर हस्ताक्षर और ५ कार्यों का साप्ताहिक आत्ममुल्यांकन करने के बाद , हिन्दी में महामण्डल द्वारा हिन्दी प्रकाशित स्वदेश-मन्त्र और संघ-मन्त्र संस्कृत और हिन्दी अनुमोदित धुन के अनुसार पाठ करना चाहिये। पाठचक्र की अवधि १.३० घन्टे से २ घन्टे तक हो सकती है, आधा घन्टा तो प्रार्थना और स्वदेश-मन्त्र में चला जाता है, किन्तु २ घन्टे से अधिक समय तक पाठ चक्र न होना ही अच्छा है. उतना ही खाओ, जितना पच सके.
अखिल भारत विवेकानन्द तो समझा लेकिन ' महामण्डल '-का क्या अर्थ है ? एक वृहत वृत में भारत के मानचित्र के दक्षिणी प्रान्त पर स्वामीजी परिव्राजक के वेश-भूषा में खड़े हैं.इसका तात्पर्य है कि महामण्डल किसी खास जाति या धर्म के लोगों का संगठन नहीं है, जो भी मनुष्य भारतमाता को जीवन्त मूर्ति समझकर, इसके समस्त सन्तानों को अपने ह्रदय से प्रेम करते हों वे इसके सदस्य बन सकते हैं. १८८७ में उन्होंने संन्यास लिया था, १८९० से अगस्त १८९३ तक परिव्राजक जीवन था, इसीलिये हाथ में लाठी थी. किनारे किनारे वज्र का प्रतीक है, नीचे ' Be and Make ' लिखा है, उपर में 'चरैवेति चरैवेति ' लिखा है. भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या को देश-भक्ति के रंग में रंग देंगे, चरित्र-निर्माण आन्दोलन देश के हर गाँव में पहुँचा देंगे इसी संकल्प के साथ हमें भी स्वामीजी के पीछे पीछे चलते जाना है!
उनके गुरु ने अपने शिष्य नरेन्द्रनाथ के उपर सम्पूर्ण जगत में उस 'शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था जिसे वेदों में, 'श' के साथ 'ई' की मात्रा लगा कर "शीक्षा" कहा जाता है। (तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा-वल्ली ' देखें वहाँ शिक्षा को 'शीक्षा' लिखा गया है ) जो शिक्षा मनुष्य को पैगम्बर या मानवजाति के सच्चे 'नेता' में परिणत कर दे उसी को 'शीक्षा' कहते हैं। इसीलिये 'अनपढ़ ठाकुर' ने स्लेट पर लिखा था- " नरेन् शिक्षा देगा ! " और उसी 'शीक्षा' को प्राप्त करके भारतवासी मानवजाति के पथप्रदर्शक या सच्चे नेता बनेंगे।
और तब हमारी भारतमाता अपने "जगद्गुरू" के
गौरवशाली सिंहासन पर फिर से विराजमान हो जाएगी। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द
भारत के युवाओं का आह्वान करते है-
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? सत्ययुग कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता मैलापन आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ! किन्तु हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है,
देवराज इन्द्र ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि ' जो कोई अश्विनीकुमारोंको ब्रह्माविद्याका उपदेश करेगा, उसका मस्तक मैं वज्रसे काट डालूँगा ।' वैद्य होनेके कारण अश्विनीकुमारोंको देवराज हीन मानते थे । अश्विनीकुमारोंने महर्षि दधीचिसे ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेकी प्रार्थना की । एक जिज्ञासु अधिकारी प्रार्थना करे तो उसे किसी भय या लोभवश उपदेश न देना धर्म नहीं है । महर्षिने उपदेश देना स्वीकार कर लिया । अश्विनीकुमारोने ऋषिका मस्तक काटकर औषधद्वारा सुरक्षित करके अलग रख दिखा और उनके सिरपर घोड़ेका मस्तक लगा दिया । इसी घोड़ेके मस्तकसे उन्होंने ब्रह्माविद्याका उपदेश किया । इन्द्रने वज्रसे जब ऋषिका वह मस्तक काट दिया, तब अश्विनीकुमारोंने उनका पहला सिर उनके धड़से लगाकर उन्हें जीवित कर दिया । इस प्रकार ब्रह्मपुत्र अथवां ऋषिके पुत्र ये दधीचिजी घोड़ेका सिर लगनेसे अश्वशिरा भी कहे जाते हैं ।
जब त्वष्टाके अग्नि - कुण्डसे उत्पन्न होकर वृत्रासुरने इन्द्रके स्वर्गपर अधिकार कर लिया और देवताओंने अपने जिन अस्त्रोंसे उसपर आघात किया, उन अस्त्र - शस्त्रोंको भी वह असुर निगल गया, तब निरस्त्र देवता बहुत डरे । कोई और उपाय न देखकर देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये । ब्रह्माजीने भगवानकी स्तुति की । भगवानने प्रकट होकर दर्शन दिया और बताया - कि यह युद्ध तो अच्छाई और बुराई के बीच चलने वाला युद्ध है, जब कोई व्यक्ति लोक-कल्याण की इच्छा से जीवित अवस्था में अपनी हड्डियों का दान कर देगा, और उससे जो वज्र बनेगा, उसी से असुर मरेगा। ' महर्षि दधीचिकी हड्डियाँ उग्र तपस्याके प्रभावसे दृढ़ तथा तेजस्विनी हो गयी हैं । उन हड्डियोंसे वज्र बने, तभी इन्द्र उस वज्रसे वृत्रको मार सकते हैं । महर्षि दधीचि मेरे आश्रित हैं, अतः उन्हें बलपूर्वक कोई मार नहीं सकता । तुमलोग उनसे जाकर याचना करो । माँगनेपर वे तुम्हें अपना शरीर दे देगे ।'
देवता साभ्रमती तथा चन्द्रभागाके सङ्गमपर दधीचिऋषिके आश्रममें गये । उन्होंने नाना प्रकारसे स्तुति करके ऋषिको सन्तुष्ट किया और उनसे उनकी हड्डियाँ माँगीं ।
महर्षिने कहा कि उनकी इच्छा तीर्थयात्राचा करनेकी थी । इन्द्रने नैमिषारण्यमें सब तीर्थोका आवाहन किया । वहाँ स्त्रान करके दधीचिजी आसन लगाकर बैठ गये । जिस इन्द्रने उनका सिर काटना चाहा था, उन्हीके लिये ऋषिने अपनी हड्डियाँ देनेमें भी सक्कोच नहीं किया ! शरीरसे उन्हें तानिक भी आसक्ति नहीं थी । एक - न - एक दिन तो शरीर छूटेगा ही । यह नश्चर देह किसीके भी उपयोगमें आ जाय, इससे बड़ा और कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता । महर्षिने अपना चित्त भगवानमें लगा दिया । मन तथा प्राणोंको हदयमें लीन करके वे शरीरसे ऊपर उठ गये । जङ्गली गायोंने अपनी खुरदरी जीमोंसे महर्षिके शरीरको चाट - चाटकर चमड़ा, मांसादि अलग कर दिया । इन्द्रने ऋषिकी हड्डी ले ली । उसी हड्डीसे विश्वकर्माने वज्र बनाया और उस वज्रसे इन्द्रने वृत्रको मारा । इस प्रकार एक तपस्वी दधिची के अनुपम त्यागसे इन्द्रकी, देवलोककी वृत्रासुर से रक्षा हुई ।
वज्र अच्छाई की संगठित-शक्ति का प्रतिक है, जिसके द्वारा
बुराइयों को जीता जा सकता है. भगिनी निवेदिता ने -गेरुआ पर वज्र के निशान वाले पताका को स्वाधीन-भारत का
राष्ट्रीय-ध्वज बनाने का प्रस्ताव दिया था, किन्तु हमारे छद्म-धर्मनिर्पेक्ष राजनितिक नेताओं ने उनके
द्वारा निर्मित पताका को 'भगवा-पताका ' की संज्ञा देकर अस्वीकार कर दिया. उसी ध्वज को महामण्डल-ध्वज
के रूप में चुन लिया गया है।
मासिक रिपोर्ट में किन बातों का उल्लेख करना है ? अभी क्या पढ़ा जा रहा है, कितना अटेंडेंस कितना होता है ? सभी सदस्य विवेक-प्रयोग, प्रेम प्रयोग, आदि ५ कार्य करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तो उसका फल क्या हो रहा है ? यदि अब भी लेट आता है, तो क्या कारण है ? जो टी.वि सिनेमा के कारण लेट आता हो,वह महामण्डल कर्मी नहीं हो सकता। मुख्य कार्य आत्मविकास करके Ideal Man में रूपान्तरित हो जाना है.इस कार्य में फल कितना मिल रहा है ? प्रतिमाह महामण्डल सचिव को इ-मेल से जानकारी देना चाहिये,एवं शिविर अथवा जयन्ती आयोजित करनी हो तो, सारे कार्यक्रम की जानकारी - जैसे ध्वजा रोहन कैसे व्यक्ति से करवानी चाहिए ? मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बनने का निमंत्रण किन लोगों को भेजना उचित है; इन सब विषयों पर महामण्डल की केन्द्रीय समीति से दिशानिर्देश पहले प्राप्त कर लेना चाहिये।
किसी भी आयोजन के लिये केन्द्र से मार्गदर्शन प्राप्त करना क्यों अनिवार्य है? क्योंकि साधारण तौर से जो लोग केवल अख़बारों में अपना नाम छपवाने के लिये महापुरुषों (तुलसीदास, कबीरदास, मुंशी प्रेमचन्द, राम-हनुमान, रानीसती दादी, खाटूवाले श्यामबाबा या स्वामी विवेकानन्द की 'सार्धशती या जयन्ती ' ) आदि मनाते हैं, वे स्वयं को जनाने के उद्देश्य से ही यह सब आयोजन करते हैं, उन्हें उनकी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षाओं से कुछ लेना-देना नहीं होता। किन्तु महामण्डल सम्पूर्ण भारत को अपना परिवार मानता है, इसीलिये बच्चों में क्या संस्कार डाले, कैसे डालें इस शिक्षा को गाँव-गाँव तक या प्रत्येक परिवार में पहुंचा देना ही पाठचक्र का उद्देश्य है.अतः अपना सुन्दर जीवन गठन करने के साथ साथ (simultaneously), महामण्डल के नेताओं को ' ब्रह्म', 'परमात्मा' और 'भगवान' का अर्थ समझ लेने के बाद, सारे संकोच त्याग कर, उच्च स्वर से घोषणा करनी होगी कि - " इस युग के आदर्श स्वामी विवेकानन्द हैं, तथा इस युग के भगवान श्रीरामकृष्ण हैं! " जब तक भारतवर्ष इस आदर्श को स्वीकार नहीं कर लेता,तब तक - मुर्दा-घाट (जैसे राज-घाट आदि) पर विदेशियों से माला-फूल चढ़वा कर,नकली महात्मा और नकली भगवानों की पूजा करते रहने से चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण नहीं हो सकता, और भारत एक भ्रष्टाचार-मुक्त महान देश भी नहीं बन सकता. अतः इस युग में टी.वी. पर चलने वाला भागवत-रामायण का कथा वाचन यदि वयोवृद्ध लोग सुनते हों तो सुने; किन्तु युवाओं को स्वामी विवेकानन्द के सन्देश -Be and Make से परिचित कराना सभी देशभक्त सन्तों का परम कर्तव्य होना चाहिये ! मन को वश में करने की दवा -अभ्यास और वैराग्य ही है, किन्तु वैराग्य का नाम सुनने से मुँह का स्वाद कड़वा हो जाता है, इस लिये ह्लोग उसको लालच कम करना कह सकते हैं,क्योंकि यदि कड़वी दवा हो, तो शहद मिलाकर दो लेकिन पिलाओ जरुर।
महामण्डल एक त्री -आयामी संगठन है, जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम " विवेकानन्द युवा पाठचक्र " की स्थापना की जाती है. सभी सदस्यों को सबसे पहले (महामण्डल PC ) पाठचक्र के उद्देश्य के विषय में स्पष्ट अवधारणा होनी चाहिये, इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि इसका सार, मौलिक कार्य क्या है ? हमें आदर्श मनुष्य बनना है, एक आयामी मनुष्य से त्री-आयामी मनुष्य बनना है , one sided man नहीं रहना है. इसके लिये अपने किसी ऐसे ही आदर्श के साँचे में अपने जीवन को ढाल कर अपना जीवन गढ़ लेना पड़ता है. उसके लिये ५ कार्य प्रार्थना, मनःसंयोग, संकल्प-ग्रहण सूत्र आदि का अभ्यास प्रतिदिन करना है. (व्रत तो आप लोग रहते होंगे ? १७ अगस्त को एकादसी है, कठोर तप करें कृपा बरसेगी,आप अनुभव करेंगे।) इन्हें करने से क्या लाभ होगा ? विवेक-प्रयोग ही स्वाभाव बन जायेगा, दृढ़ संकल्प और प्रचण्ड इच्छा शक्ति की सहायता मन वशीभूत हो जायेगा, हमारे द्वारा केवल सद्कर्म ही होंगे, उससे सद्प्रवृत्ति बन जाएगी, और सद्चरित्र गठित हो जायेगा।
जब आपके इलाके के कुछ प्रबुद्ध निवासी आपके इस शुभ संकल्प को देखकर अनुप्रेरित हो जाएँ, तो सबसे पहले अपने गाँव या शहर का नाम आगे लिखकर पाठ चक्र स्थापित करें ' ग्राम का नाम' विवेकानन्द युवा पाठचक्र " के नाम से नया पाठचक्र अपने गाँव या शहर में स्थापित कर सकते हैं. पूरी निष्ठा के साथ और नियमित रूप से विवेकानन्द को पढ़ें, विवेक-जीवन या विवेक-अंजन पढ़ें, केंद्र के साथ नियमित सम्पर्क में रहिये. फिर उसके अनुमोदन हेतु रजिस्टर्ड ऑफिस -' भुवन-भवन ' के सम्पर्क में रहते हुए मासिक रिपोर्ट भेजते रहें। कुछ महीनों तक कार्य करने के बाद, 'भुवन-भवन ' के परामर्श के अनुसार एक दिवसीय शिविर का आयोजन कर लेते हैं, तो आपके केन्द्र को ' युवा महामण्डल ' का नाम व्यवहार करने की अनुमति दी जा सकती है. यह प्रयास तभी करें जब आपको यह विश्वास हो जाये कि यह संगठन अब कभी बन्द नहीं हो सकता है. युवा महामण्डल का स्थायी-प्रतिनिधि के निर्देशानुसार महामण्डल संचालन समिति का गठन करने के बाद, समिति का अनुमोदन केन्द्रीय संस्था से करवा केन चाहिये। यह अनुमति मिल जाने के बाद आप अपने लेटर पैड पर महामण्डल का
' monogram' या नाम-चिन्ह का व्यवहार कर सकते हैं; और दो, दो, महीने पर रिपोर्ट भेज सकते हैं.
फिर जब त्रि-दिवसीय शिविर का आयोजन कर लेते हैं, या समीति को ऐसा लगे कि इस केन्द्र के पास महामण्डल-ध्वज,बिगुल,शिविर में प्रातः काल बजने वाला दादा का गाया चैंटिंग CD भी होना चाहिये तो, किसी पुराने केन्द्र से जानकारी प्राप्त करके केन्द्र से सम्बद्ध करने का आवेदन फॉर्म प्राप्त कर लें,और उसे भर कर मुख्यालय भेज दें. संबंधन अनुमति (affiliation) मिल जाने बाद ही, और अब आप ३ महीने पर रिपोर्ट भेज सकते हैं. इसके पीछे कारण यही है, कि जब पौधा छोटा होता है, तो उसको अधिक नजदीक से देख-भाल करनी पड़ती है.
अतः पाठ-चक्र से भी महामण्डल का उतना ही घनिष्ट सम्बन्ध है, जितना किसी संबंधन प्राप्त केन्द्र का. क्या आपको स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य निर्माण-कारी शिक्षा-पद्धति में पूर्ण आस्था है, क्या आप केवल स्वामी विवेकानन्द को ही अपना आदर्श स्वीकार करते हैं ? क्या आप यह स्वीकार करते हैं कि स्वामीजी ही हमारे मार्गदर्शक नेता हैं ? (मूर्ति माने बिन, सगुन को जाने बिन ? जइयो कहाँ ऐ हुजूर ? समस्त साधना ही व्यर्थ है! धर्म हमेशा 'अवतार' का, 'सगुण-साकार' का समर्थक होता है) यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ है, तो आप के इकाई का नाम पाठ चक्र हो या महामण्डल आप हमारे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं ! महामण्डल अपने पाठ चक्र और प्रशिक्षण-शिविर आदि के माध्यम से -ज्ञान,कर्म,भक्ति और राजयोग -चारों मार्गों का समन्वयव करके आदर्श मनुष्यों का निर्माण करने का प्रयास करता है.हम कौन हैं ? जीवन क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? पाठ चक्र में इसी प्रकार ज्ञान-योग के द्वारा चिन्तन-मनन किया जाता है . पाठ चक्र में जिस पुस्तिका से पाठ चल रहा है, उसके खत्म हो जाने के बाद ही, दूसरी को लेना चाहिए।
प्रत्येक केन्द्र में पाठ चक्र शुरू होने के पहले, एक हस्ताक्षर-पंजी पर हस्ताक्षर और ५ कार्यों का साप्ताहिक आत्ममुल्यांकन करने के बाद , हिन्दी में महामण्डल द्वारा हिन्दी प्रकाशित स्वदेश-मन्त्र और संघ-मन्त्र संस्कृत और हिन्दी अनुमोदित धुन के अनुसार पाठ करना चाहिये। पाठचक्र की अवधि १.३० घन्टे से २ घन्टे तक हो सकती है, आधा घन्टा तो प्रार्थना और स्वदेश-मन्त्र में चला जाता है, किन्तु २ घन्टे से अधिक समय तक पाठ चक्र न होना ही अच्छा है. उतना ही खाओ, जितना पच सके.
अखिल भारत विवेकानन्द तो समझा लेकिन ' महामण्डल '-का क्या अर्थ है ? एक वृहत वृत में भारत के मानचित्र के दक्षिणी प्रान्त पर स्वामीजी परिव्राजक के वेश-भूषा में खड़े हैं.इसका तात्पर्य है कि महामण्डल किसी खास जाति या धर्म के लोगों का संगठन नहीं है, जो भी मनुष्य भारतमाता को जीवन्त मूर्ति समझकर, इसके समस्त सन्तानों को अपने ह्रदय से प्रेम करते हों वे इसके सदस्य बन सकते हैं. १८८७ में उन्होंने संन्यास लिया था, १८९० से अगस्त १८९३ तक परिव्राजक जीवन था, इसीलिये हाथ में लाठी थी. किनारे किनारे वज्र का प्रतीक है, नीचे ' Be and Make ' लिखा है, उपर में 'चरैवेति चरैवेति ' लिखा है. भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या को देश-भक्ति के रंग में रंग देंगे, चरित्र-निर्माण आन्दोलन देश के हर गाँव में पहुँचा देंगे इसी संकल्प के साथ हमें भी स्वामीजी के पीछे पीछे चलते जाना है!
उनके गुरु ने अपने शिष्य नरेन्द्रनाथ के उपर सम्पूर्ण जगत में उस 'शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था जिसे वेदों में, 'श' के साथ 'ई' की मात्रा लगा कर "शीक्षा" कहा जाता है। (तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा-वल्ली ' देखें वहाँ शिक्षा को 'शीक्षा' लिखा गया है ) जो शिक्षा मनुष्य को पैगम्बर या मानवजाति के सच्चे 'नेता' में परिणत कर दे उसी को 'शीक्षा' कहते हैं। इसीलिये 'अनपढ़ ठाकुर' ने स्लेट पर लिखा था- " नरेन् शिक्षा देगा ! " और उसी 'शीक्षा' को प्राप्त करके भारतवासी मानवजाति के पथप्रदर्शक या सच्चे नेता बनेंगे।
'चरैवेति चरैवेति!' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो !
देखो यह अवसर कहीं बीत न जाये। वे हमे सचेत करते हुए कहते हैं- "
समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किन्तु अपने आमोद पूर्ण जीवन से
सन्तुष्ट, अपने सुन्दर प्रसादों में मनोरम वस्त्राभूषणों से विभूषित,
अनेकविध भोज्य पदार्थों से तुष्ट; हे मोहनिद्रा में अभिभूत नर-नारियों!
..जगत
के इस महा सत्य पर विचार करो, संसार में चारो ओर दुःख ही दुःख
है।देखो,संसार में पदार्पण करता हुआ शिशु भी वेदनापूर्ण रुदन करने लगता है।
यह एक हृदयविदारक सत्य है।
कभी
कभी इन उपदेशों को भूलकर मैं मोह से अभिभूत हो जाता हूँ। तब इस स्थिति
में हठात तथागत बुद्ध का सन्देश मुझे सुनाई पड़ता है-'सावधान ! संसार के सकल
पदार्थ नश्वर हैं। संसार दुःखमय है।
"
तभी
मेरे कानों में ईसा की घोषणा गूंजने लगती है-
"प्रस्तुत रहो ! (अर्थात मन को एकाग्र करने का अभ्यास करो !), स्वर्गराज्य
अत्यन्त समीप है !"
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था, कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? सत्ययुग कहने से हमलोगों को क्या समझना चाहिये? क्या यही कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता मैलापन आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ! किन्तु हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है,
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
-सोये रहने का नाम है कलिकाल में रहना,
जब नींद टूट गयी तो द्वापर में रहना कहेंगे, जब उठ कर खड़े हो गये तब जीवन
में त्रेता युग चलने लगता है; फिर जब चलना शुरू कर दिये, तब उसे सत्ययुग
में रहना कहते हैं। इसलिये सत्ययुग का लक्ष्ण है, निरन्तर आगे
बढ़ना-"चरैवेति चरैवेति।" जो मनुष्य
(मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य
भी सोया रहता है, जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य
भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता
है, इसीलिये-
" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! "
सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है- "कलिः शयानो भवति" वह अभी ' कलिकाल में वास
'कर रहा है, और स्वामीजी की ललकार -
सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, " संजिहानस्तु द्वापरः" वह द्वापर युग में वास कर रहा है.
" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"
- जो व्यक्ति (पुरुषार्थ करने के लिये )
उठ कर के खड़ा हो जाता है- अर्थात मनुष्य बन जाने के लिये, अपना
चरित्र-निर्माण करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में
वास कर रहा है,
" कृतं संपद्यते चरन् । "
और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है,अर्थात जो
व्यक्ति मनुष्य बन जाने के लिये तप करना (मन को एकाग्र करने का अभ्यास )
शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है।
महामण्डल-ध्वज में वज्र का सम्पूर्ण चित्र अंकित है, इसके ' गुम्फाक्षर '(monogram) में
उसका केवल प्रतीक अंकित है. यह वज्र ही देवासुर संग्राम में वृत्तासुर को
मारने वाला अस्त्र है।
योऽध्रुवेणात्मना नाथा न धर्म न यशः पुमान् ।
ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थावरैरपि ॥
' जो पुरुष नाशवान् शरीरके द्वारा समर्थ होकर भी प्राणियोंपर दया करके
धर्म या यश प्राप्त करनेकी इच्छा, चेष्टा, प्रयत्न नहीं करता, वह तो स्थावर
वृक्ष - पर्वतादिके द्वारा भी शोचनीय है; क्योंकि वृक्ष - पर्वतादि भी
अपने शरीरके द्वारा प्राणियोंकी सेवा करते हैं ।' ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थावरैरपि ॥
( श्रीमद्भा० ६।१०।८ )
देवराज इन्द्र ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि ' जो कोई अश्विनीकुमारोंको ब्रह्माविद्याका उपदेश करेगा, उसका मस्तक मैं वज्रसे काट डालूँगा ।' वैद्य होनेके कारण अश्विनीकुमारोंको देवराज हीन मानते थे । अश्विनीकुमारोंने महर्षि दधीचिसे ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेकी प्रार्थना की । एक जिज्ञासु अधिकारी प्रार्थना करे तो उसे किसी भय या लोभवश उपदेश न देना धर्म नहीं है । महर्षिने उपदेश देना स्वीकार कर लिया । अश्विनीकुमारोने ऋषिका मस्तक काटकर औषधद्वारा सुरक्षित करके अलग रख दिखा और उनके सिरपर घोड़ेका मस्तक लगा दिया । इसी घोड़ेके मस्तकसे उन्होंने ब्रह्माविद्याका उपदेश किया । इन्द्रने वज्रसे जब ऋषिका वह मस्तक काट दिया, तब अश्विनीकुमारोंने उनका पहला सिर उनके धड़से लगाकर उन्हें जीवित कर दिया । इस प्रकार ब्रह्मपुत्र अथवां ऋषिके पुत्र ये दधीचिजी घोड़ेका सिर लगनेसे अश्वशिरा भी कहे जाते हैं ।
जब त्वष्टाके अग्नि - कुण्डसे उत्पन्न होकर वृत्रासुरने इन्द्रके स्वर्गपर अधिकार कर लिया और देवताओंने अपने जिन अस्त्रोंसे उसपर आघात किया, उन अस्त्र - शस्त्रोंको भी वह असुर निगल गया, तब निरस्त्र देवता बहुत डरे । कोई और उपाय न देखकर देवता ब्रह्माजीकी शरणमें गये । ब्रह्माजीने भगवानकी स्तुति की । भगवानने प्रकट होकर दर्शन दिया और बताया - कि यह युद्ध तो अच्छाई और बुराई के बीच चलने वाला युद्ध है, जब कोई व्यक्ति लोक-कल्याण की इच्छा से जीवित अवस्था में अपनी हड्डियों का दान कर देगा, और उससे जो वज्र बनेगा, उसी से असुर मरेगा। ' महर्षि दधीचिकी हड्डियाँ उग्र तपस्याके प्रभावसे दृढ़ तथा तेजस्विनी हो गयी हैं । उन हड्डियोंसे वज्र बने, तभी इन्द्र उस वज्रसे वृत्रको मार सकते हैं । महर्षि दधीचि मेरे आश्रित हैं, अतः उन्हें बलपूर्वक कोई मार नहीं सकता । तुमलोग उनसे जाकर याचना करो । माँगनेपर वे तुम्हें अपना शरीर दे देगे ।'
देवता साभ्रमती तथा चन्द्रभागाके सङ्गमपर दधीचिऋषिके आश्रममें गये । उन्होंने नाना प्रकारसे स्तुति करके ऋषिको सन्तुष्ट किया और उनसे उनकी हड्डियाँ माँगीं ।
महर्षिने कहा कि उनकी इच्छा तीर्थयात्राचा करनेकी थी । इन्द्रने नैमिषारण्यमें सब तीर्थोका आवाहन किया । वहाँ स्त्रान करके दधीचिजी आसन लगाकर बैठ गये । जिस इन्द्रने उनका सिर काटना चाहा था, उन्हीके लिये ऋषिने अपनी हड्डियाँ देनेमें भी सक्कोच नहीं किया ! शरीरसे उन्हें तानिक भी आसक्ति नहीं थी । एक - न - एक दिन तो शरीर छूटेगा ही । यह नश्चर देह किसीके भी उपयोगमें आ जाय, इससे बड़ा और कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता । महर्षिने अपना चित्त भगवानमें लगा दिया । मन तथा प्राणोंको हदयमें लीन करके वे शरीरसे ऊपर उठ गये । जङ्गली गायोंने अपनी खुरदरी जीमोंसे महर्षिके शरीरको चाट - चाटकर चमड़ा, मांसादि अलग कर दिया । इन्द्रने ऋषिकी हड्डी ले ली । उसी हड्डीसे विश्वकर्माने वज्र बनाया और उस वज्रसे इन्द्रने वृत्रको मारा । इस प्रकार एक तपस्वी दधिची के अनुपम त्यागसे इन्द्रकी, देवलोककी वृत्रासुर से रक्षा हुई ।
मासिक रिपोर्ट में किन बातों का उल्लेख करना है ? अभी क्या पढ़ा जा रहा है, कितना अटेंडेंस कितना होता है ? सभी सदस्य विवेक-प्रयोग, प्रेम प्रयोग, आदि ५ कार्य करते हैं या नहीं ? यदि करते हैं तो उसका फल क्या हो रहा है ? यदि अब भी लेट आता है, तो क्या कारण है ? जो टी.वि सिनेमा के कारण लेट आता हो,वह महामण्डल कर्मी नहीं हो सकता। मुख्य कार्य आत्मविकास करके Ideal Man में रूपान्तरित हो जाना है.इस कार्य में फल कितना मिल रहा है ? प्रतिमाह महामण्डल सचिव को इ-मेल से जानकारी देना चाहिये,एवं शिविर अथवा जयन्ती आयोजित करनी हो तो, सारे कार्यक्रम की जानकारी - जैसे ध्वजा रोहन कैसे व्यक्ति से करवानी चाहिए ? मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि बनने का निमंत्रण किन लोगों को भेजना उचित है; इन सब विषयों पर महामण्डल की केन्द्रीय समीति से दिशानिर्देश पहले प्राप्त कर लेना चाहिये।
किसी भी आयोजन के लिये केन्द्र से मार्गदर्शन प्राप्त करना क्यों अनिवार्य है? क्योंकि साधारण तौर से जो लोग केवल अख़बारों में अपना नाम छपवाने के लिये महापुरुषों (तुलसीदास, कबीरदास, मुंशी प्रेमचन्द, राम-हनुमान, रानीसती दादी, खाटूवाले श्यामबाबा या स्वामी विवेकानन्द की 'सार्धशती या जयन्ती ' ) आदि मनाते हैं, वे स्वयं को जनाने के उद्देश्य से ही यह सब आयोजन करते हैं, उन्हें उनकी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षाओं से कुछ लेना-देना नहीं होता। किन्तु महामण्डल सम्पूर्ण भारत को अपना परिवार मानता है, इसीलिये बच्चों में क्या संस्कार डाले, कैसे डालें इस शिक्षा को गाँव-गाँव तक या प्रत्येक परिवार में पहुंचा देना ही पाठचक्र का उद्देश्य है.अतः अपना सुन्दर जीवन गठन करने के साथ साथ (simultaneously), महामण्डल के नेताओं को ' ब्रह्म', 'परमात्मा' और 'भगवान' का अर्थ समझ लेने के बाद, सारे संकोच त्याग कर, उच्च स्वर से घोषणा करनी होगी कि - " इस युग के आदर्श स्वामी विवेकानन्द हैं, तथा इस युग के भगवान श्रीरामकृष्ण हैं! " जब तक भारतवर्ष इस आदर्श को स्वीकार नहीं कर लेता,तब तक - मुर्दा-घाट (जैसे राज-घाट आदि) पर विदेशियों से माला-फूल चढ़वा कर,नकली महात्मा और नकली भगवानों की पूजा करते रहने से चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण नहीं हो सकता, और भारत एक भ्रष्टाचार-मुक्त महान देश भी नहीं बन सकता. अतः इस युग में टी.वी. पर चलने वाला भागवत-रामायण का कथा वाचन यदि वयोवृद्ध लोग सुनते हों तो सुने; किन्तु युवाओं को स्वामी विवेकानन्द के सन्देश -Be and Make से परिचित कराना सभी देशभक्त सन्तों का परम कर्तव्य होना चाहिये ! मन को वश में करने की दवा -अभ्यास और वैराग्य ही है, किन्तु वैराग्य का नाम सुनने से मुँह का स्वाद कड़वा हो जाता है, इस लिये ह्लोग उसको लालच कम करना कह सकते हैं,क्योंकि यदि कड़वी दवा हो, तो शहद मिलाकर दो लेकिन पिलाओ जरुर।
जो युवा नेता गाँव गाँव में स्वामी विवेकानन्द की योजना के अनुसार आदर्श मनुष्यों (Ideal
Man ) का निर्माण करने वाले नेताओं का निर्माण करने वाले संगठन
(Organization) की स्थापना करने में अगुवा बनना चाहते हैं, उनको पहले यह
समझना होगा कि आदर्श मनुष्य कैसा होता है ? वैसे मनुष्य कैसे तैयार किये
जाते हैं?
मनुष्य के तीनों अवयव-'3H ' में fully developed मनुष्य-निर्माण का
कार्य प्रतिमा गढ़ने जैसा कलाकारी का कार्य है! जो शिल्पकार को मूर्ति गढ़ना
जानते हैं, उनके पास लकड़ी, बाँस, पुआल, मिट्टी आदि जमा कर दिया जाय तो वह
सुन्दर मूर्ति गढ़ लेता है. जीवन गढ़ना भी ठीक उसी प्रकार का कार्य है.इसकी शुरुआत पहले स्वयं को चरित्रवान
मनुष्य के रूप में गढने से होनी चाहिये। आदर्श मनुष्य का निर्माण कैसे होता है, इसको समझने और समझाने के लिये ' जीवन गठन ' पुस्तिका से PC का प्रारम्भ करना अच्छा होगा।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत के भावी नेताओं के निर्माण का जो मानदण्ड रखा है, उसके अनुसार - " आदर्श मनुष्य का मन-मस्तिष्क शंकर के जैसा मेधा-सम्पन्न होगा, ह्रदय बुद्ध
के जैसा विशाल होगा, जो एक मेमने की रक्षा के लिये भी अपने प्राणों को
न्योछावर करने के को तत्पर रहेगा। और उसका शरीर इतना सुगठित होगा कि वह
अथक परिश्रम करने से कभी थकेगा नहीं।" ऐसा ही आदर्श मनुष्य '
बनना और बनाना ' महामण्डल के नेताओं उद्देश्य है. जीवन को
परिभाषित करते हुए स्वामीजी ने कहा है-"
Life is unfoldment and development of a being (प्राणी ) under the
circumference tending to press it down." अर्थात एक अन्तर्निहित शक्ति
(पूर्णता) अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है, और वाह्य परिवेश तथा
परिस्थितियाँ उसको दबाये रखना चाहती हैं, परिस्थिति और परिवेश के दबाव को
हटाकर पूर्ण विकसित हो जाना जीवन है! किन्तु मन को नियंत्रित करने का कौशल
सीखे बिना, इन्द्रियाँ और विषय-भोग हमें पशु जैसा जीवन जीने को विवश किये
रहते हैं। इसीलिये
हमारे शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति का उपाय बताया गया है -श्रवण, मनन और
निदिध्यासन! क्योंकि जो कुछ हमने सुना है, जब तक उसका अर्थ हमारी बुद्धि के
सामने स्पष्ट नहीं होता, तब तक उस विषय की धारणा नहीं हो पाती है.
3H का विकास अर्थात '
Head-Hand-Heart ' का विकास - मेधा या बुद्धि का अधिष्ठान मस्तिष्क में है,
प्रेम और सहनुभूति का अधिष्ठान ह्रदय में होता हा, आदर्श मनुष्य केवल एक
या दो पहलुओं में ही विकसित नहीं होता, उसके तीनों पहलु सुसमन्वित रूप में
विकसित होते हैं. यदि हममें कर्म करने की शक्ति तो रहे, किन्तु बुद्धि न हो
तो हमें 'एक पक्षीय ' मनुष्य कहा जायेगा। या बुद्धि भी रहे, किन्तु ह्रदय
का विकास नहीं हुआ हो, हमारा ह्रदय यदि आत्मकेन्द्रित हो, तो दूसरों के
सुख-दुःख को देखकर मेरा ह्रदय द्रवित नहीं होगा। इस प्रकार हम आदर्श मनुष्य
'Ideal Man ' न बनकर One sided man ही बने रहेंगे। आदर्श मनुष्य बनने के
लिये ' 3H development process ' या 3H विकास की पद्धति का अनुसरण करना होगा।
मनुष्य का पहला ' H ' (Hand) या प्रमुख अवयव शरीर है इसकी शक्ति का विकास कैसे होगा ?- इसका
उपाय स्वामी विवेकानन्द ने बताया है। दैहिक(Hand) शक्ति को बढ़ाने का उपाय
है, व्यायाम और पौष्टिक आहार। इसका नियमित अभ्यास करने से दुर्बल भी बलवान
हो जायेगा, सारा दिन काम करने से भी उसको थकावट नहीं होगी। अंग-प्रत्यंग
में फुर्ती बनी रहेगी, इसका कारण बिल्कुल वैज्ञानिक है- जिस अंग का हमलोग
अधिक व्यवहार करते हैं, वो अंग अधिक मजबूत होजाता है. शरीर
को रूप-आकार हमलोग नहीं देते हैं, वह प्रकृति के नियमानुसार जन्म लेता है,
फिर स्वतः उसमें विकास होता है. व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा शरीर
को सबल और स्वस्थ रखना आवश्यक है, क्योंकि तभी हमलोग स्वामीजी के कार्य को
करने में सक्षम हो सकेंगे।
दूसरा ' H '(Head) या मन है : किन्तु मन तो सूक्ष्म वस्तु है, उसे बाहर से देखा नहीं जा सकता, फिर की शक्ति बढ़ाने के लिये मन का व्यायाम कैसे करेंगे ? मन
का अस्तित्व है, उसके कार्यों को देखने से इतना तो समझ में तो आता है; किन्तु उसको यदि अपनी आवश्यकता अनुसार जब
और जहाँ चाहें लगाने और हटा लेने का अभ्यास नहीं करेंगे तो उसकी शक्ति का
विकास नहीं होगा। जैसे किसी बच्चे को सदैव गोदी में ही रखे रहें, तो वह
बलवान नहीं बन पाता है; इसका सिद्धान्त यही है कि जिस किसी अवयव का व्यवहार
कम होगा, या बिल्कुल नहीं होगा वह organ दुर्बल हो जाता है. मन का व्यायाम है- कारण और कार्य के उपर चिन्तन करना।
कार्य स्थूल है, वह सबको दीखता है, पर उसके पीछे उसका कारण क्या है ? मन को विकसित
करने के लिये पहले यह समझना पड़ेगा कि यह जीवन क्या है ? कहाँ से आया है ?
इसे जानने के लिये जीवन के उपर ही चिन्तन-मनन करना पड़ता है. जैसे देश में हर स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है, यह तो हर किसी को दीखता है, प्रधानमन्त्री कार्यालय से भी कोयला घोटाले की फाइलें गायब हो जाती है; किन्तु उसका कारण क्या है ? यह किसी भी दल के नेता को नहीं दीखता।इसका कारण है, देश के हर स्तर पर चरित्रवान मनुष्यों का आभाव। जब हमलोग यह समझ लेंगे कि चरित्र का आभाव ही समस्त समस्याओं का कारण है, तो हम चरित्र-निर्माण की शिक्षा को पूरे जोर-शोर से फ़ैलाने में क्यों नहीं लगेंगे ? जैसे विशाल बरगद के वृक्ष का कारण उसका बहुत छोटा सा बीज होता है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार का कारण चरित्र का आभाव ही तो है, यदि हम एक दूसरे को कोसना छोड़ कर चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण - ' बनो और बनाओ ' (Be and Make) के कार्य में अब भी लग जायें तो देश से बाढ़ और अकाल जैसी समस्याओं को दूर करने में कितना समय लगेगा ? हमें अपने स्कूलों में प्राथमिक कक्षा से ही मन का व्यायाम करना अर्थात कारण और कार्य पर चिन्तन करना सिखाया जाये तो, हमारा मन कभी दुर्बल नहीं होगा, कारण की ओर हमारी दृष्टि तुरंत चली जाएगी।
इसे जानने के लिये जीवन के उपर ही चिन्तन-मनन करना पड़ता है. जैसे देश में हर स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है, यह तो हर किसी को दीखता है, प्रधानमन्त्री कार्यालय से भी कोयला घोटाले की फाइलें गायब हो जाती है; किन्तु उसका कारण क्या है ? यह किसी भी दल के नेता को नहीं दीखता।इसका कारण है, देश के हर स्तर पर चरित्रवान मनुष्यों का आभाव। जब हमलोग यह समझ लेंगे कि चरित्र का आभाव ही समस्त समस्याओं का कारण है, तो हम चरित्र-निर्माण की शिक्षा को पूरे जोर-शोर से फ़ैलाने में क्यों नहीं लगेंगे ? जैसे विशाल बरगद के वृक्ष का कारण उसका बहुत छोटा सा बीज होता है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार का कारण चरित्र का आभाव ही तो है, यदि हम एक दूसरे को कोसना छोड़ कर चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण - ' बनो और बनाओ ' (Be and Make) के कार्य में अब भी लग जायें तो देश से बाढ़ और अकाल जैसी समस्याओं को दूर करने में कितना समय लगेगा ? हमें अपने स्कूलों में प्राथमिक कक्षा से ही मन का व्यायाम करना अर्थात कारण और कार्य पर चिन्तन करना सिखाया जाये तो, हमारा मन कभी दुर्बल नहीं होगा, कारण की ओर हमारी दृष्टि तुरंत चली जाएगी।
मन के व्यायाम का पहला सोपान है - मनः संयोग।
मन, हमारे शरीर का सबसे चंचल हिस्सा।
मन को साधने या उसे जीतने में कई लोगों को बरसों लग जाते हैं। युवा पीढ़ी
के साथ यह समस्या सबसे आम है कि उनका मन कभी एक जगह नहीं टिकता। पढ़ाई,
खेल, नौकरी या निजी जीवन, हर जगह युवा वैसे ही चलता है, व्यवहार करता है,
जैसा मन कहे। जब तक मन लगा काम किया, नहीं तो छोड़ दिया। मन के मुताबिक
चलना युवाओं का स्वभाव हो गया है। बस, यहीं से शुरू होती है असफलता और
अशांति की कहानी। मन को साधने से ही सारे संकट मिट सकते हैं। मुश्किल समय में मन ही सबसे
ज्यादा भटकता है और सही निर्णय नहीं लेने देता। मन स्थिर रहे तो सारे संकट
से छुटकारा मिल सकता है।
मन बहुत चंचल है, उसको एकाग्र और स्थिर करने का प्रशिक्षण लेना पड़ता है. मन लगाकर पढ़ने या जिस किसी भी कार्य को करने से वह कार्य जल्दी हो जाता है, और याद भी रहता है. जो कुछ भी कर रहे हों, स्वामी जी को ही पढ़ रहे हों, तो उनकी प्रत्येक उक्ति चाहे वह "Be and Make !" जैसी छोटी ही क्यों न हो; उसी पर तबतक विचार-मंथन चलता रहेगा, जब तक कि उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता। यही है मन का व्यायाम और उसका पौष्टिक आहार है- स्वामीजी के शक्तिदायी विचारों का अध्यन करना।
मन बहुत चंचल है, उसको एकाग्र और स्थिर करने का प्रशिक्षण लेना पड़ता है. मन लगाकर पढ़ने या जिस किसी भी कार्य को करने से वह कार्य जल्दी हो जाता है, और याद भी रहता है. जो कुछ भी कर रहे हों, स्वामी जी को ही पढ़ रहे हों, तो उनकी प्रत्येक उक्ति चाहे वह "Be and Make !" जैसी छोटी ही क्यों न हो; उसी पर तबतक विचार-मंथन चलता रहेगा, जब तक कि उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता। यही है मन का व्यायाम और उसका पौष्टिक आहार है- स्वामीजी के शक्तिदायी विचारों का अध्यन करना।
मन को जीतना मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं है ! पूरे समय भागदौड़, ढेर सारा धन कमाने के बाद भी हम जीवन
के किसी हिस्से में असफल और अशांत ही रहते हैं। मन को साधना एक बड़ी चुनौती
है। अब प्रश्न है, मन को कैसे जीता जाए? दरअसल यह एक दिन का कार्य नहीं
है, बल्कि निरंतर किया जाने वाला अभ्यास है। जीवन में अगर स्थायी शांति और सुख की इच्छा हो तो मन को साधना ही
पड़ेगा। मन को साधने का एक सबसे बड़ा फायदा है कि यह हमें एक रास्ते पर ले
जाएगा, भटकाएगा नहीं। मन को जीतने के लिए, हमें भोगों के प्रति लालच को कम करना पड़ता है, अपने भीतर खुद से ही लडऩा
पड़ता है, जो तकलीफ तो देता ही है, हमारे सामने कई बार विचित्र स्थितियां
भी पैदा कर देता है। श्रीकृष्ण से अर्जुन कहते हैं-
यदि आप किसी से मन ही मन घृणा करें या उसकी उपेक्षा (अनदेखा) करें तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। अहिंसा धर्म को पूरी तरह से अपनाने का तात्पर्य है कि मन, वचन अथवा कर्म से किसी भी मनुष्य को दु:ख, कष्ट, अथवा किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाना। न करें स्वयं के प्रति हिंसा- हिंसा सदैव दूसरों के साथ होती हो यह भी आवश्यक नहीं है, जाने-अनजाने मनुष्य खुद अपने प्रति भी हिंसा का आचरण करता रहता है। मनुष्य हीन भावनासे, अज्ञानता से और मनोरोगों से घिरकर जाने-अनजाने स्वयं के प्रति भी हिंसा करता है। प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग कमजोरियां एवं दोष होते हैं। इसलिए समझदारी यह कहती है कि हमें दूसरों के दोषों एवं अपराधों को संभवत: सहन करते हुए क्षमता कर देना चाहिए। जो व्यक्ति बार-बार जानबूझकर कोई अपराध करें और क्षमा करने पर, समझाने पर भी न माने ऐसे व्यक्ति का मुनासिब (आवश्यक) प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। क्षमा का उद्देश्य दोषी या अपराधी को सुधरने या बदलने का मौका देना होता है। लेकिन क्षमा कायरता की पहचान नहीं होनी चाहिए। अर्थात् यदि क्षमा को कोई अपराधी आपकी कायरता, कमजोरी, मजबूरी समझे तो ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना आवश्यक हो जाता है। अत: जिनके सुधरने या बदलने की संभावना हो उसे क्षमा करना धर्म है अन्यथा नहीं। इस प्रकार पतंजली ऋषि के सूत्रों के माध्यम मन रूपी डॉन को पकड़ना मुश्किल तो है, किन्तु नामुमकिन बिल्कुल नहीं है !
तीसरे ' H ' (Heart) या ह्रदय की शक्ति का विकास कैसे होगा ? इसके लिये पहले हमें यह समझना होगा कि इस मुख्य अवयव ह्रदय (Heart) का कार्य (या function ) क्या है ? उसका
कार्य है -अनुभव करना, To feel for others, अपने देश की वर्तमान अवस्था को
देखने से जो दुःख-वेदना की अनुभूति होती है, वह ह्रदय का ही कार्य है.
दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख जैसा अनुभव करने (empathy) से ह्रदय
की शक्ति विकास होता है. इस प्रकार ह्रदय (Heart) का व्यायाम है-समानुभूति
या (empathy)! अभी हमलोगों का हृदय आत्मकेन्द्रित होने के कारण,
स्वार्थपरता में ही रत रहने के कारण जम कर ' पत्थर ' जैसा hard हो गया है.
अपने ही देश-वासियों को दुःख में डूबा देखकर भी द्रवित नहीं होता है. ह्रदय
की शक्ति को बढ़ाने के लिये अपने आस-पास रहने वाले सभी मनुष्यों की
आवश्यकताओं को, उनकी दुःख-वेदना को अपने ह्रदय में अनुभव करना होगा।
चज्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। गीता ६/३४ ।।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। गीता ६/३४ ।।
हि = क्योंकि; कृष्ण =हे कृष्ण (यह ); मन: =मन; चज्जलम् = बड़ा चज्जल (और
); प्रमाथि = प्रमथन स्वभाव वाला है (तथा); दृढम् = बड़ा दृढ़ (और ); बलवत्
= बलवान् है; (अत:) = इसलिये; तस्य = उसका; निग्रहम् = वश में करना; अहम् =
मैं; वायो: = वायु की; इव = भांति; सुदुष्करम् = अति दुष्कर; मन्ये =मानता
हूं;
हे
भगवन ! यह मन तो बहुत चंचल है, इन्द्रिय भोगों का आकर्षण इसको बल पूर्वक
मथ देता है, इसको वश में लाना तो उतना ही कठिन है, जैसे वायु को मुट्ठी में
पकड़ना। अर्जुन की इस बात से भगवान इन्कार भी नहीं करते हैं, किन्तु उसको
वश में लाने का एक उपाय या औषधि भी बता देते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।६/३५ ।।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।६/३५ ।।
महाबाहो = हे महाबाहो; असंशयम् =नि: सन्देह; मन: =मन;चलम् = चज्ज्ल;
दुर्निग्रहम् =कठनिता से वश में होने वाला है; तु =परन्तु; कौन्तेय = हे
कुन्तीपुत्र अर्जुन अभ्यास; अभ्यासेन = अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये
बारम्बार यन्त्र करने से; गृह्मते =वश में करता है।
श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और
कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु यह अभ्यास और
वैराग्य से वश में होता है॥ ठीक यही उपाय योगसूत्र में महर्षि पतंजली ने भी बताया है-'अभ्यासवैराग्या-
भ्याम तन्ननिरोधः।' और यही उपाय श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है.
मन
को साधने का सबसे आसान तरीका है- निरन्तर मन को एकाग्र करने का अभ्यास
(अष्टांग के पाँच अंग- यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा तक अभ्यास ) और लालच
को कम करते जाना अर्थात वैराग्य । सुबह-शाम दो बार थोड़ी
देर तक आसन, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करना चाहिये, किन्तु यम (सत्य,अहिंसा,ब्रह्मचर्य,आस्तेय और अपरिग्रह ) -नियम (शौच,संतोष,तपः, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधानम) का पालन जीवन भर प्रतिक्षण करते रहना चाहिये। मन, वचन
या कर्म के द्वारा किसी को हानि पहुंचाना, कष्ट देना या दु:खी करना, हिंसा
का कार्य है। सामान्यत: सोचा जाता है कि हथियारों से या हाथ पैर से किसी
को मारना-पीटना ही हिंसा है, जबकि यह तो हिंसा का मात्र एक प्रकार है। बिना
हाथ हिलाए, बिना बोले भी हिंसा हो सकती है। यदि आप किसी से मन ही मन घृणा करें या उसकी उपेक्षा (अनदेखा) करें तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। अहिंसा धर्म को पूरी तरह से अपनाने का तात्पर्य है कि मन, वचन अथवा कर्म से किसी भी मनुष्य को दु:ख, कष्ट, अथवा किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाना। न करें स्वयं के प्रति हिंसा- हिंसा सदैव दूसरों के साथ होती हो यह भी आवश्यक नहीं है, जाने-अनजाने मनुष्य खुद अपने प्रति भी हिंसा का आचरण करता रहता है। मनुष्य हीन भावनासे, अज्ञानता से और मनोरोगों से घिरकर जाने-अनजाने स्वयं के प्रति भी हिंसा करता है। प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग कमजोरियां एवं दोष होते हैं। इसलिए समझदारी यह कहती है कि हमें दूसरों के दोषों एवं अपराधों को संभवत: सहन करते हुए क्षमता कर देना चाहिए। जो व्यक्ति बार-बार जानबूझकर कोई अपराध करें और क्षमा करने पर, समझाने पर भी न माने ऐसे व्यक्ति का मुनासिब (आवश्यक) प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। क्षमा का उद्देश्य दोषी या अपराधी को सुधरने या बदलने का मौका देना होता है। लेकिन क्षमा कायरता की पहचान नहीं होनी चाहिए। अर्थात् यदि क्षमा को कोई अपराधी आपकी कायरता, कमजोरी, मजबूरी समझे तो ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना आवश्यक हो जाता है। अत: जिनके सुधरने या बदलने की संभावना हो उसे क्षमा करना धर्म है अन्यथा नहीं। इस प्रकार पतंजली ऋषि के सूत्रों के माध्यम मन रूपी डॉन को पकड़ना मुश्किल तो है, किन्तु नामुमकिन बिल्कुल नहीं है !
हमारे
साथ हमारे घर में ही, कितने लोग रहते हैं - दाई, नौकर, या मजदूर लोग रहते
हैं, उनका बच्चा पढ़ने में तेज है, छठी कक्षा तक स्वयं पढ़ लिया है, पर
सातवीं कक्षा में tutor (अनुशिक्षक) नहीं मिलने से आगे नहीं पढ़ पा रहा है,
किन्तु उनके अभिभावकों के पास इतना पैसा नहीं है, कि वे उसको कहीं ट्यूशन (tuition)
दिल सकें। यह बात तुम्हारे कानों में आती है, तुम कोई बड़ा ऑफिसर या
धनी-मानी व्यक्ति हो, -तुमने feel किया- ओह ! इतना तेज लड़का था, क्या अब
आगे नहीं पढ़ पायेगा ? क्या पैसे के आभाव में उसकी पढाई छूट जायेगी? -मुझे
उसके लिये कुछ करना चाहिये। मेरे घर में एक मौसी या चाची बर्तन माँजने का
काम करती है, वह भी अपने बेटे को पढ़ाना चाहती है, उसके लिये हमलोग अपने
पाठचक्र की छत के नीचे एक निःशुल्क कोचिंग सेन्टर 'free coaching center '
तो खोल सकते हैं. यह बात मैं अपने पाठचक्र के दोस्त को बताया उन सबने feel
किया, हाँ ये बात तो ठीक है, यदि हमलोग बारी बारी से एक दिन का श्रमदान
करें तो उनका पैसा खर्च नहीं होगा, दूसरे गरीब और असहाय बच्चे भी पढ़
सकेंगे. यदि उनके बिल्कुल अपने भैया जैसे बनकर पूरी श्रद्धा और निष्ठा से
पढ़ते हो, तो कोई लड़का यदि बहकने वाला भी होगा तो तुम उसे सुधार सकोगे।
कभी
यह दिखाई देगा कि पहले जो लड़का कोचिंग में रेगुलर आता था, उसने आना भी कम
कर दिया है, अब पढाई में उतना ध्यान भी नहीं देता है; बाद में पूछने से पता
चला कि उसके पिता रिक्सा चलते थे, दो दिन से बीमार हो गये हैं, इसीलिये
उसके घर में चूल्हा नहीं जला है ; वह दो दिन कुछ खाया ही नहीं है तो पढ़ेगा
कैसे? जब तक उसके पिता स्वस्थ नहीं होते तुम उस दोस्त को अपने घर ले जाकर
माँ से कहकर ईश्वर बुद्धि से खाना खिला दिया। तुम्हारी माँ ने जब उसको
बैठाकर प्रेम से खाना खिला दिया - तो उसका मुख कितना उज्ज्वल हो गया ! उसके
प्रसन्न और चमकते चेहरे को देखकर तुम्हारे हृदय में कितने असीम आनन्द का
अनुभव हुआ ! ह्रदय का आनन्द कितना असीम हो सकता है, इसका पता तमको आज चला
-कि सचमुच सुख और आनन्द में कितना बड़ा अंतर होता है !!
तुम उसके पिता को
डॉक्टर के यहाँ ले गये, उसने दवा देकर उसके पिता को अच्छा कर दिया, तब
उसका आनन्द जो होगा वह खुद आइसक्रीम खाने के सुख से बहुत बड़ा होगा !
मनुष्यों के दुःख को दूर करने की जितनी चेष्टा करते जाओगे, तुम्हारा ह्रदय
उतना ही अधिक विशाल होता जायेगा। यही है ह्रदय का व्यायाम इससे हृदय की
feel करने की शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है. इस प्रकार अपने 3H को विकसित
करने का अवसर इस प्रशिक्षण शिविर में प्राप्त होता है. दूसरे मनुष्य के
दुःख-कष्ट को अपना दुःख-कष्ट जैसा अनुभव करके उनके दुःख को दूर करने की
चेष्टा करने से ह्रदय का व्यायाम होता है.
ह्रदय का पौष्टिक आहार है,
माँ ठाकुर स्वामीजी के जीवन को नजदीक से देखना- वे लोग केवल मौखिक
सहानुभूति दिखाकर काम नहीं चलाते थे, माँझी की बहु ने माँ से आकर कहा कि
उसका बेटा मर गया है, माँ इसे सुनकर ऐसे रो पड़ी मानो उन्हीं का बेटा मर गया
हो, फिर सान्तवना देते हुए उसको स्नेह के साथ मुढ़ी- लाय खाने को दिया,
अपने हाथ से उसके सिर में तेल लगा दिया। उनके जीवन को देखने से हमलोग भी
'मातृ ह्रदय ' की हृदयवत्ता प्राप्त करके ' heart whole Man ' या Ideal Man
बन सकते हैं ! हमारा जीवन सुन्दर बन सकता है.
फिर अपने ह्रदय के बन्द दरवाजे को खोलना होगा। ह्रदय के अंदर जो प्रेम का
झरना है, वह जमकर पत्थर जैसा हो गया है, अहंकार के पत्थर से बन्द है, उसको
unfold नहीं करने से, उस प्रेम को अभिव्यक्त नहीं करने से वहाँ विद्यमान जो
चुम्बकत्व है, वह सुप्त-प्राय हो गया है, मेरे ह्रदय का चुबंक क्यों किसी
को आकर्षित नहीं करता है ? हमें अपने हृदय में विद्यमान ब्रह्म की सत्ता
को, ह्रदय के feeling को अभिव्यक्त करने का कौशल सीखना होगा। पहले उस सूप्त
सत्ता को प्रकाशित या प्रकट करना है, फिर उसको विकसित करना होगा। किन्तु
परिवेश और परिस्थिति हृदय के बन्द दरवाजे को खोलने नहीं देंगे, उसको press
करके बन्द किये रखना चाहेंगे। इस दबाव को हटाने के लिये जो दृढ़ संकल्प और
प्रचण्ड इच्छा शक्ति चाहिये उसे कहा से लाऊंगा ? मन को बदलने का कार्य भी
मन के द्वारा ही होता है, इसके लिये यहाँ - ' संकल्प ग्रहण विधि ' या '
चमत्कार जो तुम कर सकते हो ' का अभ्यास करना, या मनोविज्ञान की भाषा में
कहें तो- 'Autosuggestion' या ' आत्मसुझाव ' की पद्धति भी बताई जाती है.
इसे सीखकर अब दृढ़ संकल्प और प्रचण्ड इच्छा शक्ति के बल पर मनुष्य बनने के
काम में जुट जाउँगा।
अभीतक तो मनुष्य जीवन क्या है, किस लिए मिला है ?
यह सब नहीं समझता था, पूस-मेला ( या धजाधारी पहाड़ का मेला) में जाकर
life enjoy करने का मौका मिलता है-इतना ही जानता था. इतने दिनों तक
सहज-प्रवृत्ति के अनुसार आहार निद्रा-विषयभोग या खाना, सोना, वंश विस्तार
करने को ही जीवन का आनन्द मानकर मनुष्य-जीवन बिता रहा था? साधारण डिग्री
वाली शिक्षा प्राप्त लोगों के लिये मनुष्य बनने का अर्थ- I.A.S, I.P.S -
बनकर उत्कृष्ट पशु-जीवन जीना ही है. अपने घर में ही फ्रिज में चील्ड बियर
रखो, V.D.O में CD डाल कर मनपसन्द सिनेमा देखो - life enjoy करो !
मोहनिद्रा में सोया हुआ आदमी सोचता है, इन्द्रिय भोग और धन-सम्पत्ति अर्जित
करने में रत आदमी सोचता है, मैं बहुत सुखी हूँ ! किन्तु यह सुख तो क्षणिक
है, इन्द्रिय विषयों से प्राप्त होने वाला सुख अवसाद में परिणत हो जाता है.
इसलिये ' विवेक-प्रयोग ' द्वारा संचालित जीवन ही, श्रेष्ठ जीवन है, किन्तु मन इन्द्रिय भोगों में ही सुख मान कर उससे बाहर निकलना नहीं चाहता,
बार बार उसी को पाना चाहता है, मनुष्य की गरिमा से नीचे गिर देता है.
हमारा यह पतन हमारा मन ही करा रहा है, मनुष्य बनने की दृढ़-इच्छाशक्ति के
बल पर जो परिवेश मेरे मन को नीचे गिरा देता है, उसे बदलना होगा, कुसंग को
पूरी तरह से त्याग देना होगा। मन का केन्द्रापसारी होकर विषय-मुखी बने रहना,
मानसिक पतन है, मानसिक दिवालियेपन की पहचान है!
भारत के अधिकांश जनता का मन विषय-भोगो के पीछे ही
नष्ट हो रहा है- भारत को इस मोहनिद्रा से जगाने के लिये ' उत्तिष्ठत जाग्रत
' के मन्त्र को सुनाने का उत्तरदायित्व स्वामीजी ने युवाओं पर ही सौंपा
है. जीवन-गठन करना मनुष्य-जीवन का श्रेष्ठ पक्ष है.इसीलिये 3H निर्माण को स्वामीजी पुनर्जीवन का उपाय, पुनरुद्धार या
'
Regeneration of India ' कहते हैं ! आम आदमी जो कुछ करता है, केवल जीवन
निर्वाह के लिये ही करता है. किसी प्रकार जीवन-निर्वाह कर लेना निम्न पहलु
का जीवन है; जीवन-निर्वाह तो
गली गली घूमने वाले पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। किन्तु हमलोग तो मनुष्य हैं,
हमारा मन जिन विषयों में आसक्त होकर दुर्बल हो गया है, विषय के उन व्यसनों
से मन को मुक्त करना होगा, विषयगामी मन को उपर उठाने के लिये मन के साथ ही
संग्राम छेड़ देना होगा। मन में परिवर्तन लाकर उसे संस्कारों के द्वारा
सुसंस्कृत बना देना होगा। मन को बदलने का कार्य भी मन के द्वारा ही होता
है, इसीको इच्छा शक्ति कहते हैं,इस सूप्त इच्छा शक्ति को जाग्रत और
अभिव्यक्त करके मनुष्य बन जाना ही शिक्षा या प्रशिक्षण का उद्देश्य है.
हमलोग
स्वरूपतः अमृत-पुत्र हैं, किन्तु पाँच इन्द्रियों और शरीर को ही मैं समझने
वाले पशु-मानव से हमारा स्वरूप ढंका हुआ है. इन्द्रियाँ हमें भोगों की ओर
प्रेरित करती हैं, और हमलोग भोग में उन्मत्त होकर अपनी जवानी को व्यर्थ में
गँवा देते हैं. अत्मवस्तु भीतर में है, किन्तु वह पशु मानव के आवरण में
छुपा हुआ है, हमलोग दूसरों को हानी पहुँचाकर भी भोग के लिये उतारू हो जाते
हैं. अमावस्या की रात्रि में यदि १००० वाट के बल्ब को भी आवरण से ढंक दिया
जाय तो, स्विच दबाने से भी उसका प्रकाश बाहर नहीं आयेगा। धर्म वह वस्तु है
जो पशु-मानव को देव मानव में, उससे भी उपर ब्रह्म में भी उन्नत कर देता
है. हमारे जो युवा भाई अपने गाँव में 'आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का
निर्माण करने वाला संगठन ' खोलना चाहते हैं, वे ही तो मानव जाति के सच्चे
नेता हैं.
पशु मानव को नरदेव में
रूपान्तरित करने की वैज्ञानिक पद्धति को अष्टांग या पतंजली योग-सूत्र कहते
हैं. मनः संयोग सीखकर मन को शक्तिशाली बना लेने से यह संभव हो जाता है ! हमलोग अपने प्रशिक्षण शिविर और
' पाठ-चक्र' में ' संसार-चक्र ' से मुक्ति
(या इसके समस्त प्रकार के बन्धनों से मुक्त होने का) प्राप्त करने का उपाय
सीखते हैं ! यही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है! केन्द्र के सचिव-अध्यक्ष को इस बात पर दृष्टि रखनी
है कि कोई सदस्य ५ काम में टिक तो मार रहा है, फिर भी यदि उसमें विकास नहीं हो रहा है,
तो उसका कुछ कारण अवश्य है. अवश्य उसका विवेक सो रहा है, इसीलिये व्यसनों
को त्याग नहीं पा रहा है. विवेक-प्रयोग करते रहने से, आदत अवश्य बदलती है.
नजर रखनी होगी कि सदस्य साधना कर रहा है या नहीं ? अंत में एक गाना माँ मुझे मनुष्य बना दो गा कर समापन करना अच्छा होगा।
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