गृहस्थ भी ऋषित्व को प्राप्त कर सकता है !
क्या हमलोग- जो गृहस्थ आश्रम में रह रहे हैं, या प्रवृत्ति मार्गी हैं, स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान - 'उत्तीष्ठत जाग्रत ' के प्रतिउत्तर मे उन्हें यह आश्वासन दे सकते हैं - " हाँ हम अन्तः प्रकृति पर अवश्य विजय प्राप्त कर सकते हैं, और हम यह करके ही रहेंगे ! " Yes We Can ! and We Will Do" ? आज देश में जितना आभाव चरित्र का देखा जा रहा है, उतना आभाव अन्य किसी भी वस्तु का नहीं है। आज तो संसद में हमारे द्वारा चुने हुए नेता और सांसद लोग प्रश्न पूछने के लिये भी घूस लेते रंगे हाथ पकड़े जा रहे हैं। बहुत से नेता और ऑफिसर कोग प्याज-लहसुन तो नहीं खाते हैं, किन्तु जमीन का बड़ा बड़ा प्लाट खरीदने के लिये रिश्वत खाते हैं। आय से अधिक संपत्ति, काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा करते हैं-क्या यही धर्म है ? जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। आज का यक्ष-प्रश्न तो यही है कि क्या करने से हमारे देशवासी उत्तम और आदर्श चरित्र के अधिकारी बन जायेंगे ? हमलोग मनुष्य शरीर या ढाँचा तो प्राप्त कर लिये हैं, किन्तु मनुष्य नहीं बन सके हैं, शास्त्रों में कहा गया है -
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना चरित्र का मनुष्य तो पशुतुल्य है । सबको पता है कि धरती का एक इंच भी साथ में नहीं आया था,और न साथ में जायेगा। फिर भी मनुष्य जमीन के प्लाट खरीदने में ही मर खप जाता है. जान के भी न मानने का नाम मोह है. इस मोह-निद्रा से छूटने का क्या उपाय है ?
मनुष्य को जीवन में विकास करने के लिए जिस ज्ञान और शिक्षा की ज़रूरत होती है, उसका अधिकांश ज्ञान उसे उसकी पंचेन्द्रियों [Five Senses–देखना (आंख), सुनना (कान), सूंघना (नाक), चखना (जीभ), छूना (हाथ)] के माध्यम से उसे हासिल होता है। इसके साथ उसे मन (बुद्धि) भी प्राप्त है जिसके द्वारा वह चीज़ों का और अपनी नीतियों, कामों और फ़ैसलों आदि का उचित या अनुचित, लाभप्रद या हानिकारक होना तय करता है।
रामकृष्ण-विवेकानन्द भावी वेदाध्यापक प्रशिक्षक परम्परा में प्रशिक्षित भावी नेताओं या ऋषियों का निर्माण:
कुछ ऐसे आधारभूत प्रश्न हैं जिनका व्यक्ति और समाज के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है, और जो पंचेन्द्रियों और बुद्धि द्वारा अर्जित ज्ञान के दायरे से बाहर हैं, जैसे - मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? मनुष्य क्यों–अर्थात् किस उद्देश्य से पैदा किया गया है ? क्या सिर्फ़ ‘खाओ-पियो मौज करो’, के उद्देश्य से? लेकिन यह काम तो पशु-पक्षि आदि भी कर लेते हैं। फ़िर इस नश्वर जीवन की वास्तविकता क्या है ? मरने के बाद क्या है ? शरीर जलकर नष्ट हो जाता है और बस ? मनुष्य के जैसा उच्च व प्रतिभाशील प्राणी को भी संसार (जन्म-मृत्यु) में ही क्यों फंसे रहना चाहिये ? मनुष्य यदि समस्त प्राणियों में उच्च व प्रतिभामय है तो क्यों है और कैसे है ? क्या ईश्वर महान, दयालु, कृपाशील की यह दुनिया किसी ‘‘चौपट राजा की अन्धेर नगरी’’ समान है?
इन और इनसे निकले अनेकानेक अन्य सवालों का सही जवाब पाना मनुष्य की परम आवश्यकता है, क्योंकि इनके सही या ग़लत या भ्रमित होने पर मनुष्य के चरित्र, आचार-विचार, व्यवहार का तथा पूरी सामाजिक व सामूहिक व्यवस्था का अच्छा या बुरा होना निर्भर है। कोई चिन्तनशील व्यक्ति या समाज इन आधारभूत प्रश्नों का समाधान पाने के प्रति निस्पृह या बेपरवाह हरगिज़ नहीं हो सकता। ऐसी निस्पृहता ही व्यक्ति और समाज के लिये बहुत बड़े विनाश का कारण बन जाती है। अपने अनुभव से हम जानते हैं, तथा पूरा इतिहास गवाह है कि ज्ञानोपार्जन के सिर्फ़ उपरोक्त साधनों (पंचेन्द्रियों और बुद्धि) पर ही पूरी तरह से निर्भर होकर किए जाने वाले काम और निर्णय कभी बहुत ग़लत और कभी बड़े हानिकारक व घातक भी हो जाते हैं। इससे साबित होता है कि मनुष्य को उपरोक्त साधनों के अतिरिक्त भी किसी अन्य साधन की परम आवश्यकता है,जो मनुष्य को उस सत्य का ज्ञान अथवा जानकारी दे जिसे इन्द्रियाती ज्ञान कहते हैं, जो उसकी पंचेन्द्रियों की पहुंच से बाहर है। ऐसा साधन ' मनः संयोग ' ही है जो हर मनुष्य को उस अनुभूति जन्य ज्ञान की उपलब्धी करा सकता है, जो उसकी पंचेन्द्रियों बुद्धि की पहुंच से बाहर है। यह साधन जिस माध्यम से प्राप्त होता है उसे ऋषि, पैग़म्बर और Prophet या ‘ईशदूत’ आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता है। नचिकेता के समान श्रद्धा के बल पर, 'मन की चौथी अवस्था'-इन्द्रियातीत अवस्था (Super Conscious state of mind ) में पहुँचकर मृत्यु के रहस्य को जान लेने की साधना या अभ्यास की पद्धति मनुष्य को जिस माध्यम से प्राप्त होता है, महामण्डल में उसी के लिये ‘नेता’ शब्द का व्यवहार किया जाता है। इस नेतृत्व क्षमता या ऋषित्व को प्राप्त करने की संभावना, मानव-मात्र में निहित है !
स्वामीजी कहते हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त कर -अपने दिव्य-स्वरूप को अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है !" सुषुप्ति में सोया मनुष्य पहले जागता है, तब उठता है, किन्तु हमलोग साधारण निद्रा में नहीं मोहनिद्रा में सोये हैं, इसीलिये स्वामीजी हमें झकझोर कर उठाते हुए कहते हैं - ' उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।' -अर्थात ' हे युवाओं, उठो ! जागो ! और लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो !' फिर उन्हीं की प्रेरणा स्थापित संगठन 'महामण्डल' हमें सहारा देते हुए कहता है - सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् - अर्थात अपने संघर्ष में तुम अकेले नहीं हो, पूरा संगठन तुम्हारे साथ है।" Be and Make ! -अर्थात तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो ! पूज्य नवनी दा कहते हैं - " प्रवृत्ति मार्गियों के लिए महामण्डल के साथ जुड़े रहना ही अतीन्द्रिय-ज्ञान प्राप्त करने का सबसे आसान और श्रेष्ठ पथ है ! "
मनुष्य यदि समस्त प्राणियों में उच्च व प्रतिभामय है तो क्यों है और कैसे है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामीजी कहते हैं - " ईसाई और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य सभी प्राणियों की रचना करने के बाद मनुष्य की सृष्टि की,और इसी से मिलती-जुलती कथा श्रीमद्भागवत पुराण (श्रीमद्भागवत एकादश स्कन्ध / भगवदुद्धवसंवादेनवमोऽध्यायः॥९) में भी कहा गया है -
सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्।
तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥
जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था। तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था। यह देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। " तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥
इसीलिये सनातन वैदिक धर्म में ईश्वर को जानने के दो मार्ग -कहे गये हैं -निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्ति मार्ग ! तथा सद-गृहस्थ और संन्यासी दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में महान माना गया है। आदिगुरू शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति मार्ग वाले थे; तो भी उन्होंने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाए हैं। इसी तरह महाभारत में भी योग और ज्ञान दोनों शब्दों के अर्थ के विषय में स्पष्ट लिखा है कि प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम् अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। यह निर्विवाद सिद्ध है कि गीता में 'योग ' शब्द- प्रवृत्ति मार्ग अर्थात " Be and Make ! या 'कर्मयोग' के अर्थ ही में प्रयुक्त हुआ है। यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनुस्मृति में भी कहा गया है-
उत्तिष्ठत ! जाग्रत ! प्राप्य वरान्निबोधत! हे युवाओं , उठो ! जागो ! लक्ष्य प्राप्ति तक रुको नहीं
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु
महाफला । ।
मनुस्मृतिः५.५६ । ।
अर्थ-मांसभक्षण,मद्यपान और मैथुन में दोष नहीं है। मनुष्यों में यह गुण प्रकृति प्रदत्त हैं, किन्तु इनसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि निवृत्ति ही सबसे बड़ा फल है ! मनु महाराज कर्म-प्रधान लोगों को परामर्श देते हैं, कि विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो, किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि -निवृत्तिस्तु महाफला । चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक खाने देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है. पहले ही खींचने से डोरी टूट जाएगी।
इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में भोग-वासना अधिक देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " श्रुति भगवती बहुत दयालु है, यदि किसी को पुत्र की कामना हो, तो उसके लिये पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान दिया है. यहाँ तक कि शत्रू-नाश, अन्न वृद्धि आदि के लिये भी यज्ञ का करने का विधान है. ऐसा करके शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, इसप्रकार उसके भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं।
जब ईश्वर ने यह देखा कि भारत की धरती पर जन्मे ऋषि-मुनियों की सन्तान भी प्रवृत्ति मार्ग में आकर विषय-भोगों में इतने लिप्त हो गये हैं कि अपने यथार्थ स्वरूप को भूलकर पशु जैसा आचरण करने लगे हैं. तो उनको कठोपनिषद से ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' मन्त्र और यम-नचिकेता संवाद सुना कर पुनः मोह निद्रा से जाग्रतर रूपी नारायण हैं करने के लिये के लिये भगवान श्रीरामकृष्ण अपने साथ निवृत्ति मार्ग के ऋषि नरेन्द्रनाथ को लेकर आये थे। इसीलिये तो नरेन्द्र जब उनसे मिलने पहली बार दक्षिणेश्वर गये थे तो उनको कमरे से सटे उत्तरी बरामदे में ले आये और दोनों हाथ जोड़कर देवता की तरह सम्मान दिखाते हुए कहने लगे,' मैं जानता हूँ प्रभु ! आप वही पुरातन ऋषि न, जीवों की दुर्गति दूर करने के लिये आप पुनः संसार में अवतीर्ण हुए हैं.' इसीलिये तो निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा ' " It may be that I shall find it good to get outside of my body -- to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God ! हमलोग उत्तर आकाश में ध्रुव तारे के चारों ओर सप्तऋषि मण्डल में जिन भृगु, वशिष्ठ, अंगीरा, अत्री, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु आदि ऋषियों को देखते हैं वे तो प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं. वे सब प्रवृत्ति मार्गी या गृहस्थ ही थे किन्तु यथार्थ शिक्षा (उपनिषदों में वर्णित मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा को) प्राप्त किया था और ऋषि बनने में समर्थ हुए थे.
इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में भोग-वासना अधिक देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " श्रुति भगवती बहुत दयालु है, यदि किसी को पुत्र की कामना हो, तो उसके लिये पुत्रेष्टि-यज्ञ का विधान दिया है. यहाँ तक कि शत्रू-नाश, अन्न वृद्धि आदि के लिये भी यज्ञ का करने का विधान है. ऐसा करके शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, इसप्रकार उसके भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं।
जब ईश्वर ने यह देखा कि भारत की धरती पर जन्मे ऋषि-मुनियों की सन्तान भी प्रवृत्ति मार्ग में आकर विषय-भोगों में इतने लिप्त हो गये हैं कि अपने यथार्थ स्वरूप को भूलकर पशु जैसा आचरण करने लगे हैं. तो उनको कठोपनिषद से ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' मन्त्र और यम-नचिकेता संवाद सुना कर पुनः मोह निद्रा से जाग्रतर रूपी नारायण हैं करने के लिये के लिये भगवान श्रीरामकृष्ण अपने साथ निवृत्ति मार्ग के ऋषि नरेन्द्रनाथ को लेकर आये थे। इसीलिये तो नरेन्द्र जब उनसे मिलने पहली बार दक्षिणेश्वर गये थे तो उनको कमरे से सटे उत्तरी बरामदे में ले आये और दोनों हाथ जोड़कर देवता की तरह सम्मान दिखाते हुए कहने लगे,' मैं जानता हूँ प्रभु ! आप वही पुरातन ऋषि न, जीवों की दुर्गति दूर करने के लिये आप पुनः संसार में अवतीर्ण हुए हैं.' इसीलिये तो निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा ' " It may be that I shall find it good to get outside of my body -- to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God ! हमलोग उत्तर आकाश में ध्रुव तारे के चारों ओर सप्तऋषि मण्डल में जिन भृगु, वशिष्ठ, अंगीरा, अत्री, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु आदि ऋषियों को देखते हैं वे तो प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं. वे सब प्रवृत्ति मार्गी या गृहस्थ ही थे किन्तु यथार्थ शिक्षा (उपनिषदों में वर्णित मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा को) प्राप्त किया था और ऋषि बनने में समर्थ हुए थे.
इस चित्र में उत्तरी गोलार्ध मे सबसे आसानी से पहचाने जाना वाला तारामंडल – सप्तऋषि दिखाये गये हैं । इसे ग्रामीण क्षेत्रो मे ’बुढिया की खाट और तीन चोर’ भी कहा जाता है। कुछ लोगो को को इसमे हल की आकृति भी दिखायी देती है। कृतु जो कि सप्तऋषि तारामंडल के मातृ तारामंडल उर्षा मेजर का मुख्य तारा है इस चित्र मे उपर दायें स्थित है। कृतु तारे के साथ के तारे पुलह की सरल रेखा मे ध्रुव तारा है।वशिष्ठ तारे के पास एक नन्हा तारा अरुंधती भी देखा जा सकता है। वशिष्ठ तारा एक युग्म तारा है, वशिष्ठ और अरुंधती दोनो एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं।वशिष्ठ-ऋषि अपनी धर्म पत्नी अरुंधती के साथ एक युग्म तारे के रूप में अवस्थित हैं, वशिष्ठ और अरुंधती दोनो एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। अर्थात गृहस्थ स्त्रियाँ भी ऋषि बन सकती हैं।
इसीलिये भविष्य में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल एवं सारदा नारी संगठन को अपनी ऋषि दृष्टि से आविर्भूत होते हुए देखकर " २४ जनवरी १८९४ को लिखे पत्र में स्वामीजी ने कहा था -" प्रिय मित्रों,मुझे तुम्हारे पत्र मिले। मैं यह जानकर हैरान हूँ, कि मेरे सम्बन्ध इतनी जानकारी तुम लोगों प्राप्त कैसे हो गयी? 'इन्टीरियर' पत्रिका की आलोचना के बारे में तुम लोगों ने जो उल्लेख किया है, उसे अमेरिकी जनता का रुख न समझ बैठना। प्रबुद्ध अमेरिकी समाज में इस पत्रिका को कोई विशेष महत्व नही प्राप्त है, और वे इसे ' नीली नाक वाले प्रेसबिटेरियनों ' की पत्रिका कहते हैं।
यह ईसाईयों का एक बहुत ही कट्टर सम्प्रदाय है.किन्तु इसी ' नीली नाक वाले' कट्टर सम्प्रदाय में से कुछ लोग उदारवादी भी हैं.आम अमेरिकी जनता एवं पादरियों में भी बहुत से लोग मेरा सम्मान करते हैं. समस्त अमेरिकी जनता जिसे सिर-आँखों पर बैठा रही है, उस पर कीचड़ उछालकर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही पत्रिका ऐसा छाप दिया है. ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं, एवं इसे यहाँ कोई महत्व नहीं देता, किन्तु भारत के पादरी अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उनसे कहना - " हे यहूदी, याद रखो, तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है." उन लोगों की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागलों के समान चीत्कार रहने के बावजूद उसका नाश अवश्यम्भावी है." उन पर मुझे दया आती है कि यहाँ प्राच्य धर्मों के समावेश के कारण भारत में आराम से जीवन बिताने के साधन कहीं क्षीण न हो जाएँ। किन्तु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरा विरोधी नहीं। खैर, जो भी हो, तालाब में उतरा हूँ, तो अच्छी तरह से स्नान अवश्य करूँगा। "
" मेरे अधिकांश भाषण बिना तैयारी के होते हैं.… तुम लोगों के पास जितना भी धन जमा हुआ हो, उससे इस संक्षिप्त भाषण को छपवाकर प्रकशित करो, एवं देश की विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद करा कर चारों तरफ इसका प्रचार करो. यह हमें जनमानस के सामने रखेगा।" वे चाहते थे कि उनके जीवन और संदेशों को अंग्रेजी -बंगला-हिन्दी- तथा भारत में बोले जाने वाली अन्य भाषाओँ में विवेक-जीवन और विवेक अंजन का प्रकाशन करके अ ० भा० वि० यु० महामण्डल के नेतृत्व में संचालित चरित्र निर्माण और मनुष्य निर्माण आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत के जनमानस तक विशेष रूप से युवाओं तक ले जाने कठिन प्रयत्न करना होगा, इसीलिये उन्होंने आगे कहा था -
"साथ ही (प्रवृत्ति मार्गियों के लिये) एक केन्द्रीय महाविद्यालय (गृही पुरुषों के लिये अ ० भा० वि० यु० महामण्डल तथा स्त्रियों के लिये सारदा नारी संगठन ) एवं भारत की चारों दिशाओं में उसकी विभिन्न शाखाएँ (युवा -पाठचक्र) स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। खूब मेहनत से कार्य करो. ….जातियाँ रहेंगी या जाएँगी, इस प्रश्न से मेरा कोई मतलब नहीं। मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन को दी जाये। और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाये। जात-पांत रहनी चाहिये या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये या नहीं, मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। ' विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल क्षेम का एकमेव साधन है.' जहाँ यह स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाती, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी। जात-पाँत रहे या न रहे, संप्रदाय रहे या न रहे, परन्तु जो मनुष्य (उमर अब्दुल्ला टाईप नेता) या वर्ग-विशेष (कांग्रेस पार्टी आदि जो क्षद्म-निरपेक्षता का लबादा ओढ़ कर १८८५ से लेकर २०१३ के तक हिन्दू-मुसलमानों में फूट डाल कर १२८ वर्ष से देश को लूट रहे हैं, तीन टुकड़ों में बाँटने के बाद भी पाश्चात्य देशों का ही हित साध रहे हैं), जाति या देश किसी व्यक्ति के स्वतंत्र विचार या कर्म पर प्रतिबन्ध (विपक्षी दलों को ' किश्तवार 'अपने देश में ही जाने पर प्रतिबन्ध) लगाती है -भले ही उससे दूसरों को क्षति न पहुँचे, तब भी -वे असुर हैं, और उसका नाश अवश्य होगा।"
" जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें. हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह (आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास ) सर्वसाधारण को जानने दो. विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो. रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो. देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ.
" धर्म को बिना हानी पहुँचाये जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से आजाद करा कर, उसे फिर से उसके गौरवमय सिंहासन पर आरूढ़ करने का उपाय बतलाते हुए आगे कहते हैं - " याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनकी खोयी हुई " Individuality " उन्हें वापस दे सकते हो ? [Individuality का अर्थ व्यक्तित्व या personality नहीं है, इसका अर्थ है विशेष चरित्र या आत्मश्रद्धा ! ] आजकल personality Development पर सेमिनार होता है. कई क्लब में पैसा लेकर इसका आयोजन करते हैं. केवल अंग्रेजी बोलने सूट -बूट पहन लेने से ही Individuality या चरित्र निर्माण नहीं होता। personality अथवा व्यक्तित्व या Appearance तो बाहर की वस्तु है, जबकि चरित्र या Individuality आन्तरिक उन्नति है, जो मन को जीत लेने से प्राप्त होता है. आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास आदि चरित्र के गुण हैं, जो मन को वशीभूत कर लेने से प्राप्त होते हैं. चरित्र-निर्माण की कोई कैप्सूल या दवा नहीं मिलती यह पहरावा या दाढ़ी-बाल का स्टाइल बदल देने से प्राप्त नहीं होता।
इसीलिये भविष्य में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल एवं सारदा नारी संगठन को अपनी ऋषि दृष्टि से आविर्भूत होते हुए देखकर " २४ जनवरी १८९४ को लिखे पत्र में स्वामीजी ने कहा था -" प्रिय मित्रों,मुझे तुम्हारे पत्र मिले। मैं यह जानकर हैरान हूँ, कि मेरे सम्बन्ध इतनी जानकारी तुम लोगों प्राप्त कैसे हो गयी? 'इन्टीरियर' पत्रिका की आलोचना के बारे में तुम लोगों ने जो उल्लेख किया है, उसे अमेरिकी जनता का रुख न समझ बैठना। प्रबुद्ध अमेरिकी समाज में इस पत्रिका को कोई विशेष महत्व नही प्राप्त है, और वे इसे ' नीली नाक वाले प्रेसबिटेरियनों ' की पत्रिका कहते हैं।
यह ईसाईयों का एक बहुत ही कट्टर सम्प्रदाय है.किन्तु इसी ' नीली नाक वाले' कट्टर सम्प्रदाय में से कुछ लोग उदारवादी भी हैं.आम अमेरिकी जनता एवं पादरियों में भी बहुत से लोग मेरा सम्मान करते हैं. समस्त अमेरिकी जनता जिसे सिर-आँखों पर बैठा रही है, उस पर कीचड़ उछालकर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही पत्रिका ऐसा छाप दिया है. ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं, एवं इसे यहाँ कोई महत्व नहीं देता, किन्तु भारत के पादरी अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उनसे कहना - " हे यहूदी, याद रखो, तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है." उन लोगों की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागलों के समान चीत्कार रहने के बावजूद उसका नाश अवश्यम्भावी है." उन पर मुझे दया आती है कि यहाँ प्राच्य धर्मों के समावेश के कारण भारत में आराम से जीवन बिताने के साधन कहीं क्षीण न हो जाएँ। किन्तु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरा विरोधी नहीं। खैर, जो भी हो, तालाब में उतरा हूँ, तो अच्छी तरह से स्नान अवश्य करूँगा। "
" मेरे अधिकांश भाषण बिना तैयारी के होते हैं.… तुम लोगों के पास जितना भी धन जमा हुआ हो, उससे इस संक्षिप्त भाषण को छपवाकर प्रकशित करो, एवं देश की विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद करा कर चारों तरफ इसका प्रचार करो. यह हमें जनमानस के सामने रखेगा।" वे चाहते थे कि उनके जीवन और संदेशों को अंग्रेजी -बंगला-हिन्दी- तथा भारत में बोले जाने वाली अन्य भाषाओँ में विवेक-जीवन और विवेक अंजन का प्रकाशन करके अ ० भा० वि० यु० महामण्डल के नेतृत्व में संचालित चरित्र निर्माण और मनुष्य निर्माण आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत के जनमानस तक विशेष रूप से युवाओं तक ले जाने कठिन प्रयत्न करना होगा, इसीलिये उन्होंने आगे कहा था -
"साथ ही (प्रवृत्ति मार्गियों के लिये) एक केन्द्रीय महाविद्यालय (गृही पुरुषों के लिये अ ० भा० वि० यु० महामण्डल तथा स्त्रियों के लिये सारदा नारी संगठन ) एवं भारत की चारों दिशाओं में उसकी विभिन्न शाखाएँ (युवा -पाठचक्र) स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। खूब मेहनत से कार्य करो. ….जातियाँ रहेंगी या जाएँगी, इस प्रश्न से मेरा कोई मतलब नहीं। मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन को दी जाये। और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाये। जात-पांत रहनी चाहिये या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिये या नहीं, मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। ' विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल क्षेम का एकमेव साधन है.' जहाँ यह स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाती, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी। जात-पाँत रहे या न रहे, संप्रदाय रहे या न रहे, परन्तु जो मनुष्य (उमर अब्दुल्ला टाईप नेता) या वर्ग-विशेष (कांग्रेस पार्टी आदि जो क्षद्म-निरपेक्षता का लबादा ओढ़ कर १८८५ से लेकर २०१३ के तक हिन्दू-मुसलमानों में फूट डाल कर १२८ वर्ष से देश को लूट रहे हैं, तीन टुकड़ों में बाँटने के बाद भी पाश्चात्य देशों का ही हित साध रहे हैं), जाति या देश किसी व्यक्ति के स्वतंत्र विचार या कर्म पर प्रतिबन्ध (विपक्षी दलों को ' किश्तवार 'अपने देश में ही जाने पर प्रतिबन्ध) लगाती है -भले ही उससे दूसरों को क्षति न पहुँचे, तब भी -वे असुर हैं, और उसका नाश अवश्य होगा।"
" जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें. हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह (आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास ) सर्वसाधारण को जानने दो. विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो. रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो. देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ.
" धर्म को बिना हानी पहुँचाये जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से आजाद करा कर, उसे फिर से उसके गौरवमय सिंहासन पर आरूढ़ करने का उपाय बतलाते हुए आगे कहते हैं - " याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनकी खोयी हुई " Individuality " उन्हें वापस दे सकते हो ? [Individuality का अर्थ व्यक्तित्व या personality नहीं है, इसका अर्थ है विशेष चरित्र या आत्मश्रद्धा ! ] आजकल personality Development पर सेमिनार होता है. कई क्लब में पैसा लेकर इसका आयोजन करते हैं. केवल अंग्रेजी बोलने सूट -बूट पहन लेने से ही Individuality या चरित्र निर्माण नहीं होता। personality अथवा व्यक्तित्व या Appearance तो बाहर की वस्तु है, जबकि चरित्र या Individuality आन्तरिक उन्नति है, जो मन को जीत लेने से प्राप्त होता है. आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास आदि चरित्र के गुण हैं, जो मन को वशीभूत कर लेने से प्राप्त होते हैं. चरित्र-निर्माण की कोई कैप्सूल या दवा नहीं मिलती यह पहरावा या दाढ़ी-बाल का स्टाइल बदल देने से प्राप्त नहीं होता।
दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः ।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किंचिन्न भाषते ॥
तावन्न शोभते विद्वान् यावत्किञ्चिन्न भाषते।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते।।
मूर्ख व्यक्ति की पोल मुख खोलते ही प्रकट हो जाती है, चाहे वह कितना भी कोट-टाई लगा कर क्यों न बैठा हो ! चरित्रवान और विद्वमान मनुष्य यदि नहीं बोले तो उसकी शोभा नहीं होती, किन्तु मूर्ख व्यक्ति तभी तक शोभता है, जब तक वह चुप रहता है. कैट वाक करना या चलने का स्टाइल बदलना केवल दूरों को दिखलाने की चीज है.} क्या समता, स्वतंत्रता; कार्य-कौशल तथा पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा आध्यात्म-साधनाओं में कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही ! (" Yes, We Can ! We Will Do !) तुम सबने इसीके लिये जन्म लिया है. अपने विश्वास रखो. दृढ़ संकल्प, दृढ इच्छाशक्ति ही महत कार्यों की जननी हैं! Onwards for ever ! (क्रम विकास- Be and Make के मार्ग पर) हमेशा आगे ही बढ़ते रहो, " मरते दम तक गरीबों और पददलितों के लिये सहानुभूति- यही हमारा आदर्श वाक्य है ! " बहादुर लड़कों, आगे बढ़ो ! "(२/३२१)
[letter from Swami Vivekananda ,C/O GEORGE W. HALE ES.,541 DEAR-BORN AVENUE, CHICAGO, 24th January, 1894.
To.DEAR FRIENDS, (His disciples in Madras) Your letters have reached me. I am surprised that so much about me has reached you. The criticism you mention of the Interior is not to be taken as the attitude of the American people. That paper is almost unknown here, and belongs to what they call a "blue-nose Presbyterian paper", very bigoted. Still all the "blue-noses" are not ungentlemanly. The American people, and many of the clergy, are very hospitable to me. That paper wanted a little notoriety by attacking a man who was being lionized by society. That trick is well known here, and they do not think anything of it. Of course, our Indian missionaries may try to make capital out of it. If they do, tell them, "Mark, Jew, a judgment has come upon you!" Their old building is tottering to its foundation and must come down in spite of their hysterical shrieks. Well, when I am in the pond,I must bathe thoroughly. Most of my speeches are extempore. Employ the money you have in printing and publishing this short speech; and translating it into the vernaculars, throw it broadcast; that will keep us before the national mind. In the meantime do not forget our plan of a central college (A.B.V.Y.M), and the starting from it to all directions in India. Work hard. . . .My whole ambition in life is to set in motion a machinery which will bring noble ideas to the door of everybody, and then let men and women settle their own fate. Let them know what our forefathers as well as other nations have thought on the most momentous questions of life. Let them see specially what others are doing now, and then decide. We are to put the chemicals together, the crystallization will be done by nature according to her laws. Work hard, be steady, and have faith in the Lord. Set to work, I am coming sooner or later. Keep the motto before you — "Elevation of the masses without injuring their religion." Remember that the nation lives in the cottage. But, alas! nobody ever did anything for them. Our modern reformers are very busy about widow remarriage. Of course, I am a sympathizer in every reform, but the fate of a nation does not depend upon the number of husbands their widows get, but upon the condition of the masses. Can you raise them? Can you give them back their lost individuality without making them lose their innate spiritual nature? Can you become an occidental of occidentals in your spirit of equality, freedom, work, and energy, and at the same time a Hindu to the very backbone in religious culture and instincts? This is to be done and we will do it.You are all born to do it . Have faith in yourselves, great convictions are the mothers of great deeds. Onward for ever! Sympathy for the poor, the downtrodden, even unto death — this is our motto. Onward, brave lads!"" Can you give them back their lost individuality without making them lose their innate spiritual nature ?]
उपरोक्त पत्र में स्वामीजी मानवमात्र के जिस खोई हुई ' व्यक्तिकता ' या ' individuality ' को वापस करने का जो 'Task' (विशेष कार्य) हम युवाओं को सौंपना चाहते हैं, उसका तात्पर्य मनुष्य में जन्मजात रूप से विद्यमान आध्यात्मिक वृत्ति अर्थात ' पूजा और नमाज ' की पद्धति को यथावत बनाये रखते हुए , उसे भारतमाता के लाड़ले पुत्र, युवा नेता स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करने की पद्धति सिखा सकते हो ? उनकी जन्मसिद्ध आध्यात्मिक वृत्ति -अर्थात ' हिन्दू-मुस्लिम-सिख ईसाई ' होते हुए भी भारतमाता की सन्तान कहलाने में गर्व का अनुभव, उनकी खोई हुई आत्मश्रद्धा उन्हें वापस दे सकते हो ? अपने राजयोग ग्रन्थ की भूमिका मे स्वामीजी कहते है- " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण ओर नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था प्रकट होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल मे नहीं है, तब उसे फिर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण-द्वय का अभाव हो जाने फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये एकमात्र उपाय है -एकाग्रता !" (१/४०)
किसी मनुष्य का दिखावटी व्यक्तित्व-विकास तो एक दर्जी करा सकता है; किन्तु उसके यथार्थ स्वरुप की उस अविभाज्यता या (individuality) ' ब्रह्मत्व ' की अनुभूति करने में सहायता कर सकते हो,जो उसमें अन्तर्निहित अनन्त प्रेम को अभिव्यक्त करा सके, जो मनुष्य-मात्र को वैसा भय-मुक्त चरित्र ! प्रदान कर दे , जिसे एक बार प्राप्त कर लेने के बाद हमें अपने प्रारब्ध के कारण,चाहे अमेरिका में रहना पड़े या मायावती के जंगल में; फिर कोई छीन ही नहीं सके ! दर्जी का दिया हुआ व्यक्तित्व (टोपी-दाढ़ी या त्रिपुण्ड ) नहीं, बल्कि ' 3H ' के विकास से प्राप्त मनुष्यत्व या ' अहं ब्रह्मास्मि ' की अनुभूति ही वह ' व्यक्तिकता ' individuality है, जिसे भूल जाने के कारण जो ' भेड़ और सिंह ' की कहानी में वह ' सिंह-शिशु' स्वयं को ' भेड़ ' या केवल मरण-धर्मा शरीर समझ कर में-मेँ कर रहा था ! किन्तु स्वामी विवेकानन्द रूपी उस ऋषि-सिंह या नेता के मार्ग-दर्शन मे अपने ह्रदय सरोवर में हुए उसका जन्मसिद्ध 'सिंहत्व' अपने स्वरूप को देखते ही जाग्रत हो गया था ! उसी प्रकार उस परम-सत्य का साक्षात्कार करके 'ऋषित्व' या ' बुद्धत्व ' प्राप्त करने की संभावना भारत का प्रत्येक युवा में है है ! स्वामीजी कहते हैं - " हम लोग भेड़ों के स्वाभाव का आवरण धारण किये हुए सिंह हैं। हम लोग अपने आसपास के आवरण के द्वारा सम्मोहित कर शक्तिहीन बना दिये गये हैं। वेदान्त का क्षेत्र स्वयं को विसम्मोहित करना है। स्वाधीनता हमारा ध्येय है। " 2/261]
और स्वामीजी कहते हैं - ' तुम सबने इसीके लिये जन्म लिया है! ' " Have faith in yourselves, great convictions are the mothers of great deeds. अटल श्रद्धा और दृढ़ संकल्प ही महान कार्यों (जीवन-गठन और आत्मसाक्षात्कार आदि) की जननी है ! Onwards forever ! क्रम विकसित होने के मार्ग (मनः संयोग का अभ्यास और विवेक-प्रयोग ) पर हमेशा आगे ही बढ़ते रहो, Sympathy for the poor, the downtrodden, even unto death-this is our motto. Onward, brave lads ! मरते दम तक गरीबों और पददलितों (भारतमाता की आत्मा जिसमें बसी हुई ) के लिये सहानुभूति - यही हमारा आदर्श वाक्य है ! बहादुर लड़कों, आगे बढ़ो ! " स्वामीजी द्वारा प्रदत्त भारत निर्माण सूत्र ' Be and Make ' तथा आदर्श वाक्य - "मरते दम तक गरीबों और पददलितों के लिये सहानुभूति "- को व्यवहारिक रूप देने के लिये; जिस प्रकार किसी कारखाने में ढलाई-तपाई करके इस्पात की छड़ों का निर्माण क्या जाता है, उसीयहाँ इस "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " को कुटीर-उद्द्योग का रूप देकर प्रातः ५ बजे से लेकर देर रात तक की तीन शिफ्टों में - व्यायाम, मनः संयोग,जीवन गठन आदि का प्रशिक्षण देकर हजारों युवाओ को यथार्थ मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य के रूप में निर्मित करने का प्रयास किया जाता है. इसके अतिरिक्त यहाँ दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति के नाध्य्म से देहाध्यास या मिथ्या 'मैं'-पन के धारावाहिकत्व को समाप्त करके पूर्ण मनुष्य बन जाने, या सत्य का साक्षात्कार करके ऋषि बन जाने की व्यवहारिक पद्धति भी सिखाई जाती है. ' 3H ' का विकास - अर्थात मूर्त शरीर से अमूर्त ह्रदय के विकास द्वारा, भारत में जन्मे सभी जाती सभी धर्म के कुछ चुने हुए युवाओं को नेतृत्व का विशेष प्रशिक्षण (Special training class on Leadership ) भी दिया जाता है. इस उत्कृष्ट प्रकार की निःस्वार्थ समाज-सेवा के अनिवार्य फलस्वरूप स्वामीजी के कार्यकर्ताओं को जो अध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है, उस दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर हम अपने ह्रदय को केन्द्र बनाकर एक ऐसा वृत्त खींच सकते हैं, जिसकी परिधि कहीं नहीं हो, किन्तु केन्द्र सर्वत्र हो जाये -अर्थात सम्पूर्ण जगत उसकी परिधि में समा जाये।
' जगत में कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं '- ऐसे बोध से सम्पन्न, Heart-whole भय-मुक्त, ठोस चरित्र सम्पन्न मानवजाति के मार्ग-दर्शक नेताओं का निर्माण करने वाले आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिये महामण्डल सभी देश-प्रेमी युवाओं का आह्वान करता है. किन्तु इस सर्वोत्कृष्ट समाज-सेवा का नेतृत्व करते समय कर्तापन का अहंकार यदि दंभ बन जाये तो, नाम-यश के चक्कर में पड़कर हमारा घोर पतन हो भी सकता है. इसी बात से सावधान करते हुए जीवन्मुक्त अष्टावक्र जी महाराज कहते हैं-
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिः उपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनि॥
" मूढ़मती लोगों के लिये अर्थात जिनकी बुद्धि मोहनिद्रा में सोयी हुई है, जो स्वयं को केवल शरीर समझते हैं, के लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति को ही उत्पन्न करने वाली होती है, तथा उसी प्रकार ज्ञानी, धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म (प्रवृत्ति) ही निवृत्ति का फल प्रदान करता है।
"निवृत्त
रागस्य
गृहम् तपोवनम्"
जिस सद गृहस्थ के हृदय से सांसारिक भोगों की लालसा, राग, आसक्ति समाप्त हो जाती है, उनका घर ही तपोवन बन जाता है। "You are all born to do it. This is to be done and we will do it." यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही !' क्या हम महामण्डल कर्मी " Yes We Can ! We Will Do ! यह आश्वासन स्वामीजी को दे सकते हैं ? ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सबों को इसी श्रेणी का मनुष्य बना दे ! इसी प्रार्थना के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ !
(महामण्डल द्वारा आयोजित ३९ वाँ युवा प्रशिक्षण शिविर, सरिसा रामकृष्ण आश्रम के उद्घाटन सत्र में
विवेक-अंजन के सम्पादक द्वारा दिया गये हिन्दी भाषण के आधार पर )
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