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Saturday, August 10, 2013

$$$ काँग्रेस का अर्थ तो पार्टी नहीं अधिवेशन होता है ?

स्वाधीनता आन्दोलन  और  स्वामी विवेकानन्द !
आज के भाषण का विषय है- स्वामी विवेकानन्द एवं स्वदेशी आन्दोलन ! इस विषय का चयन स्वदेशी आन्दोलन की शतवार्षिकी (सेन्टिनेरी ऑफ़ स्वदेशी मूवमेन्ट) को ध्यान में रखकर किया गया है। आज से ठीक १०० वर्ष पहले,  १९०५ ई ० में ही Lord Curzon (लार्ड कर्जन) ने बंग-भंग (पार्टीशन ऑफ़ बेंगॉल
का अध्यादेश लागु किया था, जिस का विरोध करने के लिये भारतवासियों ने 'स्वदेशी आन्दोलन' का प्रारंभ किया था।  जब १९०५ ई. में वंगभंग हुआ, तब स्वदेशी का नारा जोरों से अपनाया गया। तो 
उसी वर्ष कांग्रेस ने भी इसके पक्ष में मत प्रकट किया। देश का पूँजीपति वर्ग उस समय कॉटन की मिलें तथा अन्य फैक्ट्री आदि खोलना शुरू कर रहे थे।  इसलिए स्वदेशी आंदोलन उनके लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ। स्वदेशी आन्दोलन की बुनियाद इस विचारधारा पर रखी गयी थी, कि यदि अंग्रेजों को आर्थिक दृष्टि से कमजोर बना दिया जाय तो देश को शीघ्र आजाद कराया जा सकता है।  वास्तव में १८७४ ई ० में ही अंग्रेजों ने आसाम के ग्वालपाड़ा जिले के साथ बंगाल, बिहार, उड़ीसा के कुछ हिस्से को आसाम में मिला देने का प्रस्ताव लाया था। किन्तु लार्ड कर्जन ने १९०३ ई ० में बंगाल प्रेसिडेन्सी को विभाजित करने का प्रस्ताव रखा था।  जब यह खबर अख़बारों में छपी तो इसका तीव्र विरोध शरू हो गया इसी आंदोलन के अवसर पर विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग शुरु हुई। पिकेटिंग करने के लिये 'अनुशीलन समितियाँ' (कार्यकारिणी समितियाँ) बनीं जो अंग्रेजों द्वारा दबाए जाने के कारण 'क्रांतिकरी समितियों' में परिणत हो गई। ऋषि अरविंद के छोटे भाई वारींद्र कुमार घोष ने बंगाल में क्रांतिकारी दल स्थापित किया। जब यह आन्दोलन बहुत अधिक जोर पकड़ने लगा तो, भारत की राजधानी को १९११ में कोलकाता से उठाकर दिल्ली ले जाया गया।  दिल्ली-दरबार (1911) में वंगभंग के निर्णय को रद्द कर दिया गया, पर 'स्वेदशी-आंदोलन' नहीं रुका और वही आंदोलन 'स्वतंत्रता आंदोलन' में परिणत हो गया। 
यहाँ यह बात ध्यान देने की है- स्वामी विवेकानन्द का शरीर ४ जुलाई १९०२ को गया और १९०३ में ही लार्ड कर्जन ने १९०३ ई ० में बंगाल प्रेसिडेन्सी को विभाजित करने का प्रस्ताव रखा-क्या इन दोनों घटनाओ के बीच कोई सम्बन्ध है ? इस बात को समझने के लिये हमें इतिहास के पुराने पन्नो को पलटना होगा। अंग्रेजो के विरुद्ध स्वतन्त्रता संग्राम की दो धारायें थीं एक क्रान्तिकारी धारा (भगतसिंह और नेताजीसुभाष )और दूसरी संविधानिक-व्यबस्था (साबरमती के तथाकथित सन्त)  के  अनुसार चलने वाली धारा। यह स्वदेशी आन्दोलन संविधानिक व्यवस्था के अनुसार चलने वाला आन्दोलन था। जबकि १८५७ का सिपाही-विद्रोह संविधानिक आन्दोलन नहीं था, यह प्रथम स्वाधीनता संग्राम था। संथाल विद्रोह, नील मजदूर विद्रोह ये सब संविधानिक आन्दोलन नहीं था, प्रथम संविधानिक आन्दोलन स्वदेशी आन्दोलन के रूप में आया था।  'भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस'  (Indian National  Congress) की स्थापना १८८५ ई० को हुई थी, और ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) का शरीर १६ अगस्त १८८६ में गया था. I.N.C की स्थापना अंग्रेजों ने की थी, कॉंग्रेस का अर्थ होता है, अधिवेशन (सम्मेलन)। तब उसका अर्थ था, भारत का राष्ट्रीय अधिवेशन, किन्तु अब कांग्रेस का अर्थ पार्टी हो गया है। उस  समय अधिवेशन (तीन दिन का सम्मेलन) के माध्यम से भारत के सम्भ्रान्त-अभिजात (कुलीन) वर्ग के भरतीय लोग अपने अंग्रेज हुक्मरानों के सामने प्रार्थना करते हुए अपनी मांगों को रखते थे। 

[एलेन ओक्टेवियन ह्यूम (६ जून, १८२९ - ३१ जुलाई, १९१२) ]
उस समय के एक बुद्धिमान अंग्रेज सर ए. ओ. ह्यूम  ने की थी जो ब्रिटिशकालीन भारत में सिविल सेवा के अधिकारी थे। वे यह समझ चुके थे कि यदि अंग्रेज लोग भारत के अभिजात्य वर्ग की मांगों को बलपूर्वक दबाने की चेष्टा करेंगे तो विद्रोह हो जायेगा, उसीसे बचने के लिये उनकी मांगों को अग्रेज दरबार से पूरा करवा देने के उद्देश्य से I.N.C का गठन हुआ था। उन दिनों कांग्रेस के कुलीन डेलीगेट्स लोग क्लब में इकट्ठे होकर भोजन पार्टी में खाने-पीने-नाचने के बाद जो प्रस्ताव पारित होते थे, उसमें लिखा जाता था कि 
'यह हमारा सौभाग्य है कि हम भारतवासी आप जैसे महान अंग्रेज जाती के दास हैं, अतः आपको हमारे उपर कृपा करनी चाहिये।' ११८५ से लेकर १८९५ तक के कांग्रेस अधिवेशन में जितने प्रस्ताव पारित हुए थे, उनको अभी देखने से बड़ी शर्मिन्दगी होगी।
इंग्लैंड में ह्यूम साहब ने अंग्रेजों को यह बताया कि भारतवासी अब इस योग्य हैं कि वे अपने देश का प्रबंध स्वयं कर सकते हैं। उनको अंग्रेजों की भाँति सब प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिए और सरकारी नौकरियों में भी समानता होना आवश्यक है। जब तक ऐसा न होगा, वे चैन से न बैठेंगे। इंग्लैंड की सरकार ने ह्यूम साहब के सुझावों को स्वीकार किया। भारतवासियों को बड़े से बड़े सरकारी पद मिलने लगे। कांग्रेस को अंग्रेजी सरकार अच्छी दृष्टि से देखने लगी और उसके सुझावों का सम्मान करने लगी। वे कहते थे कि भारत में एकता तथा संघटन की बड़ी आवश्यकता है।
स्वामीजी ३१ मई १८९३ ई ० को भारत से अमेरिका के लिये प्रस्थान किये थे, और १७ जनवरी १८९७ को अमेरिका से वापस लौट आये थे।  किन्तु उस समय तक भारत स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचान नहीं सका था।  जब शिकागो भाषण के बाद वे विश्व विख्यात भी हो गये थे, तब भी कोलकाता के लोग यह नहीं जानते थे, कि  स्वामी विवेकानन्द वास्तव में कोलकाता के ही युवा नरेन्द्रनाथ दत्त हैं।  जब तक १९ सितम्बर १८९३ को शिकागो में जब स्वामी विवेकानन्द ने 'हिन्दू धर्म' पर अपना व्याख्यान नहीं दे दिया था, तब तक पाश्चात्य जगत भारत की ओर अवज्ञा की दृष्टि से देखता था। 
भरतीय लोग स्वयं भी आत्महीनता की भावना से इस कदर ग्रस्त थे कि बड़े होकर किसी अंग्रेज साहब की चपरासी-गिरी करने में भी अपने लिये बड़े गौरव की बात समझते थे।  किन्तु जब स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के बाद पाश्चात्य देश भारत की सभ्यता और संस्कृति के प्रसंशक बन गये और भारत की ओर मुग्ध दृष्टि से देखने लगे, तो भारत ने अपनी खोयी हुई राष्टीय-आत्मश्रद्धा को फिर से प्राप्त कर लिया।
१८९७ में स्वामीजी आलासिंगा को पत्र लिखते हैं, और जनवरी में दक्षिण भरत से लेकर कश्मीर और लाहौर तक पुरे भारत को ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' का मन्त्र सुना कर, उसको नीन्द से जगा देते हैं. जिसके परिणाम स्वरुप १९०२ में उनके जाने के बाद जब १९०३ में बंगभंग की प्रथम घोषणा हुई थी, उस समय तक स्वामीजी के राष्ट्र के प्रति आह्वान को सुनकर सम्पूर्ण भारत की आत्मश्रद्धा जाग्रत हो चुकी थी. 
उनके भारत वापस लौटने के पहले तक I.N.C में केवल जो भाषण-भोजन और प्रस्ताव आदि अग्रेज दरबार के सामने गिड़गिड़ाते हुए भेजे जाते, वह तरीका स्वामीजी को पसन्द नहीं था।  क्योंकि अंग्रेज दरबार की चापलूसी करने वाले तात्कालीन बड़े बड़े बैरिस्टर, डाक्टर, अंग्रेजी पढ़े-लिखे उच्च श्रेणी के कुलीन और धनी-मानी काँग्रेस नेताओं को भारत की आम गरीब जनता की समस्यायों से कुछ लेना-देना नहीं था। 
किन्तु अपने परिव्राजक जीवन में ही सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके स्वामीजी ने यह जान लिया था, कि यथार्थ भारत आज भी गाँव की झोपड़ियों में वास करता है,यदि भारत के आम जनता की अवस्था को समझना है, तो गाँव-गाँव की झोपड़ियों में जाकर उनकी समस्याओं से अवगत होना होगा। श्री अश्विनी कुमार दत्त ने १८९५ के कांग्रेस अधिवेशन में डेलिगेट बनकर भाग लिया था, भारत लौटने के बाद स्वामीजी ने कहा था, कि यह कांग्रेस अधिवेशन तो तीन दिन का तमाशा  है; उसमें काँग्रेसी डेलिगेट्स लोग (अभी २० नवम्बर २०१७ तक भी विदेशिनी की सन्तान राहुल को अपना अध्यक्ष चुनते हैं ) सच्चे राष्ट्रीय हित की बात कहाँ करते हैं? 
कांग्रेस ने उस अधिवेशन के बाद यह प्रस्ताव पारित किया था कि I.C.S परीक्षा के लिये एक सेन्टर भारत में भी खुलना चाहिये तथा उसमें भाग लेने के लिये अंग्रेजों के एज लिमिट की तुलना में भारतीय अभ्यर्थियों के एज लिमिट को बढ़ाना चाहिए, इससे प्रतियोगिता में भाग लेने में सुविधा होगी। किन्तु कांग्रेस के इस प्रस्ताव के पास होने पर भी ३० करोड़ भारत वासियों में से कुल मिलाकर ३००० लोग भी आई.सी.एस बनने का स्वप्न नहीं देख सकते थे। भारत की आम गरीब जनता को इस प्रस्ताव के पास होने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला था। 
इस प्रकार हम समझ सकते हैं, कि सम्पूर्ण भारत वासियों को संगठित करके राष्ट्रीय आन्दोलन में सहभागी बनाने की विचार धारा का प्रवेश I.N.C में स्वामीजी की प्रेरणा से, उनके १८९७ में उनके भारत लौटने के बाद ही हुआ था. वे जानते थे कि स्वतंत्रता आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप देने के लिये भारत के गरीब ग्रामीण जनता को उससे जोड़ना ही पड़ेगा। २४ जनवरी १८९४ को लिखे एक पत्र में स्वामीजी ने कहा था," याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय ! उन लोगों  लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ?"
१९०५ के स्वदेशी आन्दोलन के पीछे भी स्वामीजी द्वारा ' कोलम्बो टू अल्मोड़ा ' तक उनके संदेशों की प्रेरणा ही कार्य कर रही थी. 'आक्टेवियन ह्यूम ' ने जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना बम्बई में 'गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज' के भवन में की। उसके प्रथम अध्यक्ष डब्ल्यू.सी.बनर्जी (बाबू व्योमेश चन्‍द्र बनर्जी (29 दिसंबर, 1844, कोलकाता; मृत्यु- 21 जुलाई 1906 इंग्लैंड) ) बनाये गए थे। वे कोलकाता उच्च न्यायालय के प्रमुख वक़ील थे, तथा भारत में अंग्रेज़ी शासन से प्रभावित थे और उसे देश के लिये अच्छा मानते थे। बाबू व्योमेश बनर्जी अंग्रेज़ी चाल-ढाल के इतने कट्टर अनुयायी थे कि इन्होंने स्वयं अपने पारिवारिक नाम 'बनर्जी' का अंग्रेज़ीकरण करके उसे 'बोनर्जी' कर दिया। इन्होंने अपने पुत्र का नाम भी 'शेली' रखा, जो कि अंग्रेज़ों में अधिक प्रचलित था। 1902 ई. में वे तो इंग्लैंड में जाकर बस ही गये थे। 
काँग्रेस के प्रथम अध्यक्ष श्री डब्ल्यू.सी.बनर्जी का यह मानना था कि भारत के किसी भी राष्ट्रीय आन्दोलन को धर्म से सदैव अलग रखने से ही, भारत में अंग्रेजों के शासन को सदा के लिये स्थायी रूप कायम रखा सकता है। अतः आगे चलकर यही कांग्रेस पार्टी की मुख्य विचार धारा बन गयी।   
[ जिसके बल से इमरजेंसी लगाकर १९७६ में संविधान के प्रीएम्बल में सेक्यूलर शब्द जोड़ दिया। बाबू दिगबिजय सिंह और सलमान खुर्शीद, और मौलाना मुलायम टाईप नेता इसी क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत-माता की दो सन्तानों हिन्दू-मुसलमान में फूट डाल कर अपना उल्लू सीधा करते आ रहे हैं, और असंख्य घोटालों में लूटा गया देश का काला-धन विदेशी बैंकों में जमा होता जा रहा है। २०१३ में चायवाले का बेटा के आने तक भारत में- 'तथाकथित कुलीन(अटल-अडवाणी-यशवन्त-शत्रुघ्न सिन्हा आदि) लोगों के माध्यम से एक प्रकार से अंग्रेजी राज्य ही कायम था।] 
२४ जनवरी १८९४ को अमेरिका से लिखे एक पत्र में स्वामीजी लिखते हैं " …. समस्त अमेरिकी जनता जिसे 
(तब नरेन्द्रनाथ दत्त अभी नरेन्द्र दामोदर दास मोदी को)  सिर-आँखों पर बैठा रही है, उस पर कीचड़ उछालकर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही पत्रिका ऐसा छाप दिया है। ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं, एवं इसे यहाँ कोई महत्व नहीं देता। किन्तु भारत के पादरी ( कुछ Indian National Congress के अंग्रेज संस्थापक ए.ओ.ह्युम तथा उसके प्रथम अध्यक्ष डब्लू.सी. बोनर्जि जैसे अंग्रेज-परस्त (इटली-परस्त नेता) लोग जो भारत भारत में पूजा और नमाज में झगड़ा लगा कर, धर्म को राजनीती से अलग करवाकर, दीर्घ काल तक भारत में अंग्रेजों के राज्य को स्थायी कराना चाहते हैं.) अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उनसे कहना - " हे यहूदी, याद रखो, तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है." उन लोगों की तथाकथित कुलीन नेताओं की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागलों के समान चीत्कार रहने के बावजूद उसका नाश अवश्यम्भावी है."  उन पर मुझे दया आती है कि यहाँ प्राच्य धर्मों के समावेश के कारण भारत में आराम से जीवन बिताने के साधन कहीं क्षीण न हो जाएँ। किन्तु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरा विरोधी नहीं। खैर, जो भी हो,  तालाब में उतरा हूँ, तो अच्छी तरह से  स्नान अवश्य करूँगा। 
किन्तु जिन ओस की बून्दों के बिना गुलाब खिल ही नहीं सकता, पर उसे कोई याद नहीं रखता; उसी प्रकार १९०५ के बंगभंग और स्वदेशी आन्दोलन का मुख्य प्रेरणा स्रोत स्वामीजी द्वारा ' कोलम्बो से अल्मोड़ा ' तक दिया गया राष्ट्र को सन्देश ही था. 


 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " आध्यात्मिकता अर्थात धर्म ही भारत का प्राण है ! अतः भारत का कोई भी आन्दोलन जो धर्म से रहित होगा, उसमें कभी गति नहीं हो सकती है.उनके भाषण की प्रेरणा से ही आज भी देश के लाखों युवाओं में राष्ट्रीय स्वाभिमान या आत्मश्रद्धा का जो भाव जाग्रत हो रहा है, उसको देखकर तो यही लगता है कि भारतमाता अब फिर से कभी सो नहीं सकती है। 

 
 बाल गंगाधर तिलक (जन्म: २३ जुलाई, १८५६ - मृत्यु:१ अगस्त, १९२०)
उनके ऐसे ही ओजस्वी भाषणों से प्रभावित होकर बाल गंगाधर तिलक ने ही सबसे पहले ब्रिटिश राज के दौरान पूर्ण स्वराज की माँग उठायी। तिलक का लक्ष्य स्वराज था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया। तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए, इनका यह कथन कि "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा"  बहुत प्रसिद्ध हुआ। इन्हें आदर से "लोकमान्य" (पूरे संसार में सम्मानित) कहा जाता था। इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है। तिलक का जीवन घटना-प्रधान रहा है। वे मौलिक विचारों के व्यक्ति थे। वह संघर्षशील और परिश्रमशील थे। वे आसानी से कुछ भी ठुकरा सकते थे। वह तब विशेष प्रसन्नता का अनुभव करते थे, जब उन्हें कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। 
तिलक का दृढ़ विश्वास था कि पुराने देवताओं और राष्ट्रीय नेताओं की स्वस्थ वंदना से लोगों में सच्ची राष्ट्रीयता और देशप्रेम की भावना विकसित होगी। विदेशी विचारों और प्रथाओं के अंधानुकरण से नई पीढ़ी में अधार्मिकता पैदा हो रही है और उसका विनाशक प्रभाव भारतीय युवकों के चरित्र पर पड़ रहा है। उनका यह मानना था कि युवाओं का चरित्र-निर्माण तभी किया जा सकता है, जब उन्हें अपने धर्म और पूर्वजों का अधिक आदर करना सिखाया जाएँ। उनका कहना था कि हिन्दू-मुस्लिम दंगो का कारण लॉर्ड डफ़रिन द्वारा शुरू की गई फूट डालो और राज करो की नीति है। इन दंगों को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीक़ा यह है कि सरकारी अधिकारी हिन्दू मुसलमानों के बीच कड़ाई के साथ निष्पक्ष आचरण करें। मरणोपरान्त श्रद्धांजलि देते हुए गान्धी जी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा था.  
१९०५ से लेकर १९११ तक बंगभंग को केन्द्र में रखते हुए जो आन्दोलन चलाया गया, वही भारत का पहला जन-आन्दोलन था,स्वदेशी आन्दोलन के उपर क्रन्तिकारी आन्दोलन की छाप नहीं पड़ी थी, किन्तु दोनों आंदोलनों पर स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है. स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जब धर्म को जोड़ा गया और " वंदे मातरम् " का नारा जब इस युग का महामंत्र बन गया तभी सम्पूर्ण भारत में स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा. 
स्वामीजी के गुरुभाई स्वामी सारदानन्द जी एवं सिस्टर निवेदिता क्रान्तिकारी आन्दोलनों को अनुप्रेरित करते थे. 
लाला लाजपत राय, बी. जी. तिलक, और विपिन चन्द्र पाल ने तीनों ने स्वामीजी से प्रेरणा प्राप्त की थी। स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बंगाल में हबीबगंज ज़िले के पोइल गाँव (वर्तमान में बांग्लादेश) में जन्मे  

 

विपिन चन्द्र पाल (7 नवंबर, 1858 - 20 मई, 1932) का नाम भारत में 'क्रान्तिकारी विचारों के जनक' के रूप में आता है, जो अंग्रेज़ों की चूलें हिला देने वाली 'लाल' 'बाल' 'पाल' तिकड़ी का एक हिस्सा थे। जिन्होंने 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन चलाया था। इन्हीं लोगों के कारण नरम पन्थ और चरम पन्थ के आधार पर कांग्रेस दो भागों बँट गयी थी. किन्तु १९०५ में जो कांग्रेस अधिवेशन बनारस में हुआ था, उसमें एक आयरिश महिला होकर भी निवेदिता कांग्रेस के दोनों गुटों से अनुरोध करने गयी थी कि आपलोग अलग अलग बैठकें मत करो, इससे भारत को हानी होगी। निवेदिता के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा ने ही, क्रांतिकारियों को भी अनुप्रेरित किया था. स्वामीजी ने भारत की खोई हुई आत्मश्रद्धा को निःसन्देह पुनः वापस लौटा दिया था. 
स्वामीजी के शिकागो भाषण के पहले हम भारतीय लोग अंग्रेजी पढ़-लिख कर अपने पूर्वजों को मूर्ख समझते थे और जैसा अंग्रेज लोग कहते थे कि वेद तो गड़ेड़ीये का गीत है - हमलोग भी वेद-उपनिषदों को shepherd song समझकर हीन भावना से ग्रस्त हो गये थे. किन्तु उसी कठोपनिषद के मन्त्र ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' को अंग्रेजी में अनुवाद करके फिर से सुनाया -'Arise, Awake and Stop not till the goal is reached ' तो इस जागरण-मन्त्र ने भारत से देश-प्रेम और राष्ट्रीय श्रद्धा के आभाव को पूरी तरह से दूर कर दिया। उनका यही भाव आजतक होने वाले समस्त राष्ट्रीय आंदोलनों के लिये नींव का पत्थर सिद्ध हुआ है, उनकी विचार धारा को जीवन और आचरण में अपनाये बिना किसी भी राष्ट्रीय आन्दोलन (चरित्र-निर्माण का आन्दोलन भी ) का सफल होना संभव नहीं है। 
( २६ दिसम्बर २००५ को सायं कालीन सत्र में श्री वीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती दिये गये बंगला भाषण का हिन्दी सारांश)
  

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