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गुरुवार, 8 अगस्त 2013

$$$ " पूर्ण हार्दिक मनुष्य- हार्ट् होल मैन " ( उदार हृदय मनुष्य) निर्माणकारी शिक्षा ' सरिसा आश्रम कैम्प २९/१२/२००५ ''

ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता | मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् | आविरावीर्म एधि | वेदस्य मे आणीस्थः | श्रुतं मे मा प्रहासीः | अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि | ऋतं वदिष्यामि | सत्यं वदिष्यामि | तन्मामवतु | तद्वक्तारमवतु | अवतु माम्।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
- हे ईश्वर (ठाकुर देव) ! मेरी 'वाणी मन में' - स्थित हो, और 'मन वाणी में' स्थित हो जाये (अर्थात कथनी और करनी में फर्क बिल्कुल न रहे, भाव के घर में चोरी न करूँ।) हे ज्योतिस्वरूप परमेश्वर ! आप मेरे लिये कट हो जाइये ! हे मेरे मन और वाणी तुम वेद विषयक ज्ञान को प्राप्त कराने में सक्षम बनो. ' श्रुतं मे मा प्रहासीः' - गुरुमुख से सुना हुआ तथा अनुभव-जन्य ज्ञान मेरा त्याग न करे. अपने यथार्थ-स्वरुप का मुझे कभी विस्मरण न हो. मैं तो यह चाहता हूँ कि ' अनेन अधीतेन '-इसी अध्यन में - केवल ब्रह्म-विद्या के पठन-पाठन में ' अहो रात्रान सन्दधामि ' दिन-रात एक कर दूँ. मैं अपनी वाणी से केवल ' ऋतं ' विवेक-सम्पन्न वचनों को ही बोलूँगा, सर्वदा सत्य ही बोलूँगा अर्थात 
जो सुना और समझा हुआ भाव है -['जड़ कुछ नहीं, सब कुछ चैतन्य है,' E=M है] ठीक उसी दृष्टि से 'तेषु आत्मदेवता बुद्धिः ' -सभी छात्रों में देवता-बुद्धि रखकर वेदाध्यापक बनने की शिक्षा दूँगा। वह धर्म वह सत्य मेरी रक्षा करे। वक्ता की रक्षा करे। हे ओंकार स्वरूप परमात्मन् ! मेरे श्रोता (शिष्य) की तथा वक्ता- शिक्षक दोनों की रक्षा करें। दोनों के बीच; -वक्ता और श्रोता के बीच मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा का विनमय ऐसा हो जो गुरू-शिष्य, अपने-पराये तथा विश्वभर के लिए शान्ति के सन्देश वाहिका हो। 
जबसे जीवन मूल्यों का शिक्षा से विछोह हो गया है तबसे देशवासी ”चरित्र-भ्रष्ट ” हो गये है। परिवार समाज और विद्यालय का परिवेश बालकों के नैतिक एवं चरित्र विकास में सहायक नहीं हो रहा है। विवेकानन्द ने नव-विवाहित अमेरिकन दम्पति को बताया था की आपके देश में तो एक दर्जी भी किसी व्यक्ति को सभ्य और सुसंस्कृत बना सकता है, किन्तु भारत में चरित्र-निर्माण ही किसी भी व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाता है। वर्तमान भारत के सभी समस्याओं का मूल कारण क्राईसिस ऑफ केरेक्टर है-
If wealth is lost nothing is lost,
If health is lost something is lost,
But if character is lost- everything is lost !

भारतीय शिक्षा पद्धति या प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा में शिक्षा का उद्देश्य होता है -'मैन विथ कैपिटल एम्' (man with capital 'M') का निर्माण करने वाली 'शीक्षा',अर्थात 'उदार हृदय का मनुष्य' (पूर्ण हार्दिक-मनुष्य या हार्ट्-होल मैनबनाने वाली शिक्षा। 'सा विद्या या विमुक्तये'- अर्थात वह शिक्षा ही यथार्थ 'शीक्षा' है, जो किसी व्यक्ति को 'अयं निजः परोवेति' के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य बना देती हो! 'संपूर्ण विश्व को एक परिवार' मानने की विशाल भावना,या 'वसुधैव कटुम्बकम्' की अवधारणा ही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। 'यूनिटी इन डाइवर्सिटी' या अनेकता में एकता को देखने वाली दृष्टि ही भारत की विशेषता है !    

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।।
यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उत्तम चरित्र वाले व्यक्ति तो समस्त संसार को ही कुटुम्ब मानते हैं। 'वसुधैव कुटुम्बकम' में आस्था रखने वाला मन ही विश्वबंधुत्व की शिक्षा देता है। यदि कोई व्यक्ति 'उदार हृदय का मनुष्य' या चरित्रवान मनुष्य नहीं बन सका है, तो वास्तव में मनुष्यत्व-रहित व्यक्ति है! सच्चरित्रता ही मनुष्यत्व है l हमें 'पूर्ण हार्दिक मनुष्य' बनना ही होगा तभी विश्व में शान्ति हो सकती है। क्योंकि दृष्टिगोचर जगत, यह सब कुछ पूर्ण से, शाश्वत चैतन्य से ही क्रमविकसित होकर आया है - 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते || 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

-वह सत्यस्वरूप परमात्मा (ठाकुर) पूर्ण हैं, यह जगत भी पूर्ण ही है; क्योंकि यह पूर्ण से ही निकला है. कॉर्डिनेट ज्योमेट्री में हम पढ़ते हैं, पूर्ण (अनन्त) से पूर्ण निकाल लेने पर पूर्ण ही बचता है ! हमारे - आपके त्रिविध तापों की शांति हो ! उसी चैतन्य (Vibration) से सब कुछ क्रमविकसित होकर आया है। किन्तु मनुष्य बन जाने के बाद इच्छा होती है कि देवता (पूर्णतः निःस्वार्थपर मनुष्य) बन जाएँ। उर्दू शायर जलालुद्दीन रूमी ने कहा है -
" बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया;
 फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया.

  हैवानों से मर गया और 'आदमी ' हो गया. 

 डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?" 
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना; 

क्युंके सिवा 'उस' के हर शै को है फ़ना हो जाना।
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा।
फिर जो सोच में नहीं आता, मैं 'वो' (ब्रह्म हो जाऊँगा !!
फिर इसी प्रकार अभ्यास और वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हुए उससे भी उन्नत अवस्था ' ब्रह्म ' होने तक यात्रा जारी रहनी चाहिये, इसीलिये अब क्रम-विकास के चक्र को पूरा करते हुए पुनः उसी पूर्ण में पहुँच जाना चाहिये जहाँ से यह जीवन-यात्रा शुरू हुई थी. 
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१ ॥ 
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः । 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥ 
 ॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥
‘उस परमात्मतत्त्वकी ओर दृष्टि जाते ही हृदय की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’ विवेक-सम्पन्न दृष्टि हो जाने पर मिथ्या देहाध्यास (स्त्री-पुरुष शरीर में) 'मैं'-पन का मिथ्या अहं चला जाता है, और पूर्ण का साक्षात्कार होते ही यह अनुभव हो जाता है, कि मैं भी पूर्ण हूँ, क्योंकि अखण्ड चैतन्य का खण्ड नहीं हो सकता। शरीर को ही मैं समझना तो केवल भ्रम है, जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो जाता है। भ्रम से ही कोई पराया दीखता है, अपने से भिन्न दीखता है, इसी भ्रम से भय होता है। उपनिषदों में कहा गया है कि - 'द्वितीया द्वै भयं भवति' दो के रहने से ही सारी खुराफात होती है,जबतक साधककी दृष्टि में अन्य (अपने से भिन्न या परायेपन)  की सत्ता रहती है, तबतक उसके भीतर संशय और भ्रम बना रहता है।  'तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥ ' जब सभी एक हो गए तो डर किसका? इस भ्रम जनित भय को सदा के लिये हटा देना ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता है।  अपने जीवन को सार्थक करने के लिये जो करना है, वह यह है - 
          उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
             आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।।

(गीता ६/५) 
उद्धरेत् = उद्धार  करे (संसार समुद्र से); आत्मना = अपने द्वारा; आत्मानम् = आप का  (और); 
आत्मानम् = अपने आत्मा को; न अवसादयेत् = अधोगति में न पहुंचावे; हि = क्योंकि (यह ); आत्मा = जीवात्मा आप; एव =ही (तो ); आत्मन: = अपना; बन्धु: = मित्र है(और ); आत्मा = आप; आत्मन: = अपना; रिपु: = शत्रु है।   
' उद्धरेत आत्मना आत्मानम ' अपना कल्याण अपने आप ही कीजिये। अर्थात स्वयं के द्वारा ही स्वयं को मन की गुलामी मुक्त कर लीजिये। क्योंकि जब हम मन को अपने वश में ले आते हैं, तो वह हमारा मित्र बन जाता है, और वही मन जब तक वशीभूत नहीं हो जाता हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना रहता है। 'अहं से वयम' तक की यात्रा में अपने हृदय को विशाल , उदार , उच्च और महान बनाने में बाधक बना रहता है। किन्तु वशीभूत मन -अहं भाव को प्रसार कर सबको आत्म-दृष्टि से देखने से जो ह्रदय में प्रेम का सागर उमड़ता है, उस प्रेम का अमृत समस्त संसार पर बिना भेद-भाव के सिंचित करने में समर्थ बना देता है।  
मैं क्या केवल एक शरीर हूँ ? वास्तव में मैं कौन हूँ ? मेरे भीतर जो अखण्ड अविनाशी सत्ता है, उसका ज्ञान बहुत आसानी से प्राप्त नहीं होता है. किन्तु उसको पता करने का आत्मविश्वास हममें अवश्य रहना चाहिये। यह आत्मविश्वास केवल श्रद्धावान मनुष्य में ही होता है। श्रद्धा का अर्थ है -आस्तिक्य-बुद्धि। मेरे भीतर अजर-अमर अविनाशी आत्मा है, इसी दृढ़ विश्वास को श्रद्धा कहते हैं।  श्रद्धा होने से ही विश्वास होता है। मन का एक नाम आत्मा भी होता है, मन ही मेरा बन्धु है,और मन ही मेरा शत्रु भी है। क्योंकि अपरिष्कृत मन में ही अपवित्र विचार, असद संकल्प, असद इच्छायें, कामना-वासना, मोह और लालच का भाव हर समय बना रहता है; जिसके कारण हमारा जीवन पशुओं के समान आहार-निद्रा-भय -मैथुन में ही नष्ट हो जाता है। यह मन स्वभावतः बहुत चंचल है, बन्दर के समान, भोगों की आकांक्षा, लालच, कामना-वासना में बाधा होने से जब भोगों की इच्छा पूर्ण नहीं होती, तो क्रोध और ईर्ष्या रूपी बिच्छू के डंक से और अधिक उछलने लगता है। फिर उसके उपर एक अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता हैं।  श्रीकृष्ण से अर्जुन कहते हैं-
चज्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
            तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।६/३४ ।।
हि = क्योंकि; कृष्ण =हे कृष्ण (यह ); मन: =मन; चज्जलम् = बड़ा चज्जल (और ); प्रमाथि = प्रमथन स्वभाव वाला है (तथा); दृढम् = बड़ा दृढ़ (और ); बलवत् = बलवान् है; (अत:) = इसलिये; तस्य = उसका; निग्रहम् = वश में करना; अहम् = मैं; वायो: = वायु की; इव = भांति; सुदुष्करम् = अति दुष्कर; मन्ये =मानता हूं; 
हे भगवन ! यह मन तो बहुत चंचल है, इन्द्रिय भोगों का आकर्षण इसको बल पूर्वक मथ देता है, इसको वश में लाना तो उतना ही कठिन है, जैसे वायु को मुट्ठी में पकड़ना। अर्जुन की इस बात से भगवान इन्कार भी नहीं करते हैं, किन्तु उसको वश में लाने का एक उपाय या औषधि भी बता देते हैं- 
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
      अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।६/३५ ।।
महाबाहो = हे महाबाहो; असंशयम् =नि: सन्देह; मन: =मन;चलम् = चज्ज्ल; दुर्निग्रहम् =कठनिता से वश में होने वाला है; तु =परन्तु; कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र अर्जुन अभ्यास; अभ्यासेन = अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये बारम्बार यन्त्र करने से; गृह्मते =वश में करता है।  
श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥ ठीक यही उपाय योगसूत्र में महर्षि पतंजली ने भी बताया है- 'अभ्यासवैराग्या
-भ्याम तन्ननिरोधः।' और यही उपाय श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है. 
मन को वशीभूत करने की की वैज्ञानिक पद्धति का को ' अष्टांग ' कहा जाता है. इसमें ' शम -दम '  बहुत आवश्यक है. ' यम-नियम ' को " शम "  कहा जाता है, तथा अपने मन को इन्द्रियों विषय-भोगों में जाने से खींच कर अपने ह्रदय में किसी तत्वदर्शी महापुरुष या स्वामी विवेकानन्द पर दो बार सुबह-शाम मन को एकाग्र करने के अभ्यास को या प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को- " दम " कहा जाता है। 
किन्तु मनोनिग्रह का अभ्यास आसन पर बैठकर ही करना चाहिये, बैठने का सरल आसन है-सुखासन या अर्ध-पद्मासन। किन्तु प्रणायाम नहीं करना; क्योंकि बिना योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ जाता है, इसीलिये स्वामीजी ने चेतावनी दिया है।  नाक से साँस लेने छोड़ने को या प्राणायाम करने को योग नहीं कहा जाता है। योग को परिभाषित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं -
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
             सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।। ६/३२ ।।
आत्मौपम्येन = अपनी सादृश्यता से;सर्वत्र =संपूर्ण भूतों में; समम् =सम; पश्चति = देखता है; य: = जो योगी अर्जुन;
वा =और; सुखम् = सुख; यदि वा =अथवा; दु:खम् =दु:ख को (भी) (सब में सम देखता है); स: = वह; योगी =योगी; परम: = परम श्रेष्ठ; मत: = माना गया है।
हे अर्जुन! जो योगी समस्त भूतों की तुलना स्वयं से करके समस्त जीवों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख के ऐसा देखने में समर्थ होते हैं, वही सर्व-श्रेष्ठ योगी है-ऐसा मेरा मत है! इसी को योग कहा जाता है, ऐसा भगवान का मत है ! बाबा रामदेव जो आसन-व्यायाम सिखाते हैं, उसको ' योगा ' नहीं कहा जाता है, किसी को भी पराया नहीं मान कर सभी के सुख-दुःख में समानुभूति या Empathy करते हुए सबके साथ एक हो जाना,जुड़ जाना ही योग है। 
मन को देखते रहने की कोशिश करते रहनी चाहिये, इसके लिये मन को ही विचार पूर्वक दो भागों में बाँट लेना होगा- ' Objective mind ' या वस्तुनिष्ठ मन में उठने वाले विचारों को ' Subjective mind' व्यक्तिपरक मन देखता रहेगा। एक ही मन को-वस्तुनिष्ठ मन और व्यक्तिपरक मन में विभक्त करके देखते रहने का अभ्यास एक बहुत मनोरंजक खेल बन जाता है, मन के द्वारा ही मन को देखने में बहुत मजा आएगा। नेत्रों को मूंद कर देखो तुम्हारा वस्तुनिष्ठ मन ' Objective mind ' अभी कहाँ है ? धरती पर है, या सैर करता हुआ सितारों पर चला गया है ? किस वस्तु को भोगने या पाने की इच्छा आती है? या किसी आदत को त्यागने की इच्छा आती है ? आधा घन्टा या एक घन्टा तक ध्यान में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। 
प्रतिदिन केवल १०-१५ मिनट तक आसन पर बैठकर मन का खेल देखते रहने का अभ्यास करने से ही व्यक्तिपरक-मन 'Subjective mind' या आत्मनिष्ठ मन को यह पता चल जायेगा कि देखो भला क्या यही है मेरा मन ? इतने दिनों से मैं इसको खिलाता पिलाता आया हूँ, इसकी हर बात को मानता रहा हूँ, पर यह तो मेरी एक बात नहीं सुनता है, यह मन मुझको कहाँ ले जाना चाहता है ? यदि मैं इस विषयाश्रित मन या ' Objective mind ' को अपनी मनमानी करने की छूट देते रहूँ तो यह अनियंत्रित मन शत्रु बन कर मुझे ही बर्बाद कर देगा। मन की दुर्दान्त शक्ति को देखकर क्या ऐसा नहीं लगता कि कोई कद्दावर कुत्ता अपने मालिक को ही चेन सहित घसीटकर अपने पीछे लिये जा रहा है ? कुत्ता यदि दुम को हिलाये तो ठीक है, किन्तु यदि दुम ही कुत्ते को हिलाने लगे तो कितना हास्यास्पद दृश्य होगा ?
 ' जन्माद्यस्य यतः ' - जिससे सबकुछ निकला, जिसमें सबकुछ स्थित है और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है; इस सृष्टि के आदि में जो मूल वस्तु है, उसी का एक कण या एक अंश हमलोग भी हैं।  उस मूल शक्ति का कम या ज्यादा अंश होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।  यदि उस शक्ति के एक कण का भी स्वाद हमें मिल गया है, तो क्या हम अब भी पहले जैसा २ पैरों से चलने वाला पशु-मानव बने रह सकते हैं ? सभी जीवों में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो अपने सिर को उठाकर आसमान में ध्रुव तारे तक निहार सकता है। ईश्वर या अल्लाह-परवरदिगार को इंगित करने के लिये उपर क्यों देखते हैं ? इसलिये नहीं कि वे उपर में कही बैठे हुए हैं; बल्कि इसलिये कि वे बृहत हैं, असीम हैं, धरती की सीमा तक ही सीमित नहीं हैं. 
विज्ञान ने इधर हाल में ही, १-२ वर्ष पूर्व (२००४ ई० में) यह स्वीकार किया है कि गैलेक्सी या ब्रह्माण्ड केवल एक ही नहीं है। किन्तु मूर्ख ठाकुर ने बहुत पहले ही बता दिया था कि ब्रह्माण्ड केवल एक नहीं है, वे कहते थे कि आद्द्या शक्ति ने ऐसे बहुत से ब्रह्माण्ड बनाये हैं ! Milky way के बारे में ३-४ साल पहले Astronomy के वैज्ञानिकों ने बताया कि प्रत्येक आकाशगंगा में अलग अलग सौर-मण्डल भी होते हैं. किन्तु इसके कितने ही पहले ठाकुर ने इस बात को उजागर कर दिया था !
इस विश्व-ब्रह्माण्ड की धारणा करने की बुद्धि केवल मनुष्यों के पास ही है, वह अंतरिक्ष को समझ सकता है, उपर की ओर भी देख सकता है।  उत्तर आकाश में ध्रुव-तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले सप्त-ऋषि मण्डल की चाल का अध्यन करने के लिये प्लैनेटोरियम बना सकता है। मनुष्य पशुओं की तरह केवल नीचे ही नहीं देखता अनन्त विशाल ब्रह्माण्ड की तरफ भी अपनी दृष्टि उठा सकता है।  हमारे मन की दृष्टि पुरे विश्व-ब्रह्माण्ड में कहीं भी जा सकती है। 
 इस ब्रह्मांड में सबसे विस्मयकारी दृश्य है- आकाश गंगा (गैलेक्सी) का दृश्य। रात्रि के खुले (जब चंद्रमा न दिखाई दे) आकाश में प्रत्येक मनुष्य इन्हें नंगी आँखों से देख सकता है। देखने में यह हल्के सफेद धुएँ जैसी दिखाई देती है, जिसमें असंख्य तारों का बाहुल्य है। यह आकाश गंगा टेढ़ी-मेढ़ी होकर बही है। इसका प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर है। पर प्रात:काल होने से थोड़ा पहले इसका प्रवाह पूर्वोत्तर से पश्चिम और दक्षिण की ओर होता है। देखने में आकाश गंगा के तारे परस्पर संबद्ध से लगते हैं, पर यह दृष्टि भ्रम है। एक दूसरे से सटे हुए तारों के बीच की दूरी अरबों मील हो सकती है। 
इसी कारण से ताराओं के बीच तथा अन्य लंबी दूरियाँ प्रकाशवर्ष में मापी जाती हैं। एक प्रकाशवर्ष वह दूरी है जो दूरी प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से एक वर्ष में तय करता है। उदाहरण के लिए सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सवा नौ करोड़ मील है, प्रकाश यह दूरी सवा आठ मिनट में तय करता है। अत: पृथ्वी से सूर्य की दूरी सवा आठ प्रकाश मिनट हुई। मान लीजिए, ब्रह्मांड के किसी और नक्षत्रों आदि के बाद बहुत दूर दूर तक कुछ नहीं है, लेकिन यह बात अंतिम नहीं हो सकती है। यदि उसके बाद कुछ है तो तुरंत यह प्रश्न सामने आ जाता है कि वह कुछ कहाँ तक है और उसके बाद क्या है? इसीलिए हमने इस ब्रह्मांड को अनादि और अनंत माना।ब्रह्माण्ड की कोई सीमा नहीं होती ये अनंत है , क्योंकि सोचिये की पृथ्वी से 'एक्स' दुरी पर किसी बिंदु को हम ब्रह्माण्ड की सीमा माने तो उससे १ मीटर आगे क्या होगा ? यही अनंत का एहसास है। 
भगवान को मानना नहीं मानना व्यक्तिगत अवधारणा है, स्टीफन हाकिंग और अधिकतर वैज्ञानिक भगवान को नहीं मानते। पीटर हिग्स भी नहीं मानते, इसमे कोई आश्चर्य नहीं है। वह उनकी अपनी मान्यता है।  वे जानते हैं कि समस्त ब्रह्माण्ड मे सिर्फ दो ही चीजें है, पदार्थ और ऊर्जा। आईन्सटाइन ने प्रमाणित किया कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही है और इनका एक से दूसरे रूप मे परिवर्तन संभव है। समस्त ब्रह्माण्ड दो तरह के कणो से बना है, फर्मीयान और बोसान। फर्मीयान कण पदार्थ बनाते है और बोसान कण ऊर्जा। अधिकतर बोसान कण का द्रव्यमान नही होता है,इसमे फोटान भी है। फोटान बोसान का एक प्रकार है जो विद्युत-चुंबक बल का वाहक कण है।.
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
   हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।९/१० ।।
कौन्तेय = हे अर्जुन ; मया = मेरी ; अध्यक्षेण = अध्यक्षता में ; प्रकृति: = (यह मेरी) माया ; सूयते = रचती है; सचराचरम् = चराचरसहित सर्व जगत् को (और) ; अनेन = इस (ऊपर कहे हुए) ; हेतुना = हेतु से (ही) ; जगत् = यह संसार ; विपरिवर्तते = आवागमनरूप चक्र में घूमता है ; 
गीता मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।” , अर्थात मेरी अध्यक्षता में प्रकृति समस्त चर [life ] अचर [universe including everything ] को जन्म देती है . मतलब प्रकृति को सृष्टी का सृजन & सञ्चालन करने का कार्यभार सौपते हुए इश्वर अध्यक्ष अर्थात बिना व्यवधान के प्रकृति को अपना काम करने देते है , इसीलिए हम प्रकृति को ही कुछ रहस्यों को जानने के बाद उसे ही सब कुछ समझ लेते है . 
अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् ।
   परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।९/११ ।।
भूतमहेश्र्वरम् = संपूर्ण भूतों के महान ईश्र्वररूप ; मम = मेरे ; मानुषीम् = मनुष्य का ; तनुम् = शरीर ; आश्रितम् = धारण करने वाले ; परम् = परम ; भावम् = भावको ; अजानन्त: = न जाननेवाले ; मूढा: = मूढलोग ; माम् = मुझ परमात्मा को ; अवजानन्ति = तुच्छ समझते हैं ;
मेरे (श्रीरामकृष्ण परमहंस के) परमभाव को न जानने वाले मूढ (स्टीफन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक?) लोग भी मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर (ठाकुर देव) को साधारण मनुष्य मानते हैं । इन तथ्यों पर कुछ विचार कीजिये और फिर देखिये की ईश्वर के अस्तित्व से सम्बंधित आपकी सोच पर क्या प्रभाव पड़ता है?
किन्तु किसी तत्वदर्शी महापुरुष (स्वामी विवेकानन्द,नवनीदा) या भगवान श्रीरामकृष्ण देव की लीला को समझने के लिये पहले लालच को कम करना होगा, थोड़ा वैराग्य का भाव रखना होगा, क्योंकि जबतक हमारे मन से विषय-भोगों की कामना-वासना नहीं निर्मूल हो जायेगी, तब तक कुछ नहीं होगा। फिर इसके साथ शम-दम का अभ्यास (छात्रों के लिये अष्टांग के केवल ५ अंग तक) भी करना होगा। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में मन की कामना-वासना को वश में करने का सूत्र देते हुए लिखा है - १.१२ अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।।12।। तन्निरोधः अभ्यास-वैराग्याभ्यां = तन्निरोधः – उन (चित्त की क्लिष्ट एवं अक्लिष्ट वृत्तियों) का निरोध, अभ्यासवैराग्याभ्यां -  अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा होता है। यह योगसूत्र इतना प्राचीन है कि महर्षि 
वेदव्यास ने स्वयं पतंजली रचित अष्टांग योग पर भाष्य लिखा है। वे उपरोक्त योगसूत्र पर लिखित भाष्य में कहते हैं - (व्यासभाष्यम्:) " चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय  वहति पापय च । या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥"
मन के स्वरुप को समझाने के लिये महापुरुषों ने उसकी तुलना जल-प्रवाह, सरोवर, या नदी के साथ भी की है।  मस्तिष्क से  उठने वाले विचार-प्रवाह दो प्रकार की धाराओं - उर्ध्वमुखी और निम्नमुखी चैनल्स में विभक्त हो जाती है।  जो व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास करता है, उसका विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है ! और वह मन को जीतने वाला मनुष्य विश्व-विजेता बन जाता है. निरन्तर विवेक-प्रयोग करते हुए मन की जो  'संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा' प्रवाह स्रोत है, उसको त्याग या वैराग्य का फाटक लगाकर बन्द कर देना होगा।
और उसके साथ साथ ' विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत' अर्थात जो कोई भी व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करेगा, चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई हो, या चाहे नास्तिक ही क्यों न हो, उसको scientific experiment की तरह एक ही परिणाम प्राप्त होगा। स्वामीजी के दर्शन का अभ्यास करने से  विवेकस्रोत्र अवश्य उद्घाटित हो जायेगा ! 'पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम्। ' (७/मुक्तिक उपनिषद्)
Manliness अथवा पुरुषार्थ किसी कहते हैं ? मन में ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि मैं अपने मन को अवश्य वशीभूत कर सकता हूँ! यह कार्य निश्चित रूप से मेरे ही द्वारा होना संभव है, क्योंकि मैं अपने मन में त्याग का भाव रखता हुआ नियमित रूप से विवेक-दर्शन का अभ्यास करता हूँ. इसके लिये हमें प्रत्याहार का  अभ्यास करने का तरीका सीखकर, मन को किसी बालक के समान प्रेम के साथ विषयों की निस्सारता को समझाना होगा। वह समझ-बुझ कर भी शांत नहीं होगा, उधर फिर भी भागेगा क्योंकि कई जन्मों से मन का यही अभ्यास हो गया है, उसे फिर से बहुत नम्रता पूर्वक समझाते हुए अनुरोध करो, मेरे मन थोड़ा इधर आओ, यहाँ मेरे सामने बैठो तो सही- जोर-जबर्दस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है. इसप्रकार मन को विषयों में जाने से रोक कर, विषयों से खींचकर अपने ह्रदय-कमल में बैठे स्वामीजी के चित्र पर धारण करना चाहिये। 
विज्ञान का सिद्धान्त है - ' Nature abhors vacuum. ' - अर्थात प्रकृति शून्य (खालीपन) से नफरत करती है; और चूकि मन भी प्रकृति का ही अंश है, इसीलिये वह कभी खाली नहीं रहना चाहता, उसका स्वाभाव ही ऐसा है कि उसे विषयों से खींचने के साथ साथ ही वह कहीं न कहीं तुरन्त बैठना चाहता है। जब कोई अतिथि घर में आता है, तो उसे बैठने के लिये एक आसन अवश्य देते हैं। उसी प्रकार मन को भी कहाँ बैठायेंगे ? अपने सर्वाधिक परिचित, सबसे नजदीकी दोस्त लेकिन तत्वदर्शी महापुरुष -स्वामी विवेकानन्द की छवि पर ही मन को स्थिर करने का अभ्यास करेंगे। उसको समझायेंगे -' तुम क्यों इतना उछल-कूद मचा रहे हो ? क्यों इतना बिगड़ते जा रहे हो ? मेरे प्यारे दोस्त स्वामीजी के पास बैठो, तो तुम भी शान्त हो जाओगे। तुम इतने शक्तिशाली बन जाओगे, कि जो चाहो कर सकते हो. 
आखिर नासा के वैज्ञानिकों ने भी तो मन को ही एकाग्र करके मंगल ग्रह पर अपने घुमक्कड़ रोकेट 'क्यूरिऔसिटी' ('जिज्ञासा') को मंगल ग्रह पर उतार दिया था।  Atom का विस्फोट करना सीखा। एक साल पहले जो सुनामी आयी थी, उसे शायद दुर्नामी कहना ही ठीक होगा, जिसमें २.५० लाख मनुष्यों की मृत्यु हो गयी थी। २. ४३ लाख लोग बेघर हो गये थे, अभी दुनिया में उसके मेमोरियल स्तम्भ बन रहे हैं।  लेकिन कोई भी वैज्ञानिक उसकी कोई warning नहीं दे सका।  तमिलनाडु में आज भी बहुत से परिवारों के सिर पर छत नहीं है, वहां केवल R.K.Mission ने ही त्राण कार्य चलाया है। 
आज भी एक माँ अपने बेटा-बेटी का चित्र लेकर जो एक साल पहले चला गया था, उसे खोज रही है।  ऐसा सोचकर देखो कि वह चित्र किसी दूसरी माँ के बच्चों का नहीं है, मेरे अपने ही बेटे-बेटियों का या माँ-बाप का चित्र है। इस प्रकार की समानुभूति Empathy के साथ सोचने का प्रयत्न करो, ह्रदय का विस्तार करने के लिये उसमें जो प्रेम है, भवत-प्रीति है जब तक जीवन मिला है, हर मनुष्य में उस प्रेम को देखने की कोशिश करते जाना, दूसरों के आनन्द को भी अपना आनन्द समझना। मृत्यु तो एक दिन जरुर आयेगी। अभी प्रार्थना के समय सोच रहा था, यदि इसी समय मैं मर भी गया तो गया होगा ? बहुत सन्तोष और आनन्द से चला जाऊंगा। मैंने अपने जीवन को बर्बाद तो नहीं क्या है. 
" एक साधू जब गंगा-स्नान करके आश्रम में लौटते तो एक स्त्री रस्ते के किनारे में खड़ी रहती और बहुत सम्मान के साथ हाथ जोड़ कर पूछती महाराज क्या आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर देंगे ? किन्तु साधू उसकी तरफ देखे बिना ही आगे बढ़ जाते थे, हे दिन वैसा ही होता रहा. एक दिन उनके जाने का भी समय आ गया. अपने शिष्यों को बुलाकर उन्होंने कहा, आज मेरे जाने का दिन आ गया है, आज ही इस नश्वर शरीर का त्याग कर दूँगा। गंगा-स्नान से आते समय एक स्त्री रोज कोई प्रश्न पूछना चाहती थी, किन्तु मैं उसकी ओर देखता तक नहीं था।  उसको थोड़ा बुला कर ले आओ।  वह स्त्री उनके पास आई, प्रश्न पूछा और उत्तर सुनकर चली गयी।  उनके एक शिष्य ने पूछा आप इतने बड़े महात्मा है, आज तो आप जा रहे हैं, उस औरत को आपने आज क्यों बुलाया ?तब उस साधू ने कहा जब तक साँस रुक नहीं जाता तबतक कोई यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने इन्द्रियों को जीत लिया है ! मन का संयम करना बहुत कठिन है. अब तो मैं संसार को छोड़ने वाला हूँ, इसीलिये आज उसको बुलवाया। " 
यह कहानी साधुओं को संयम सिखाते समय उन्होंने सुनाया था, जो स्वयं मूर्खों में सबसे बड़े मुर्ख थे, और ब्रह्मज्ञ थे. गुरु भाइयों को वेदान्त पढ़ाते समय कहते थे, मन को घर के कोने या सुनसान स्थान में बैठकर देखो। लाटू महाराज ने नरेन्द्र नाथ से कहा था, 'लोरेन भाई, यदि तुम मुझे वेदान्त नहीं सिखा सकते हो, तो कैसे कह सकते हो कि तुम्हें अद्वैत का बोध हुआ है ?  अपने जीवन के अन्तिम साँस तक पवित्रता और संयम रखना बहुत कठिन है, किन्तु जिस व्यक्ति में यह नहीं हो, तो जीवन का लक्ष्य, जिससे बड़ा लाभ और कुछ भी नहीं है, -' अपने जीवन को लोक-कल्याण में अपने भाइयों के कल्याण न्योछावर कर देना '-यह कभी संभव नहीं होगा। 
अभ्यास करते जाना और संसार के किसी भी वस्तु के लिये मन में थोडा भी लालच का भाव नहीं आने देना। कल मेरे पास कोई लड्डू लेकर आया था, और एक झोला भर कर मुझे देने लगा. मैंने अपनी माँ से भी कोई खाने की वस्तु कभी मांग कर नहीं खायी है, सिवाय तब जब माँ घर में माखन विलोती थी तब, मैं उसकी पीठ पर झूलता था, और वो स्वयं मुझे माखन खिल देती थी।  जो वस्तु सचमुच मेरे लिये आवश्यक होगी, या जरुरत की चीज होगी, वह खुद चलकर मेरे पास आ जाएगी ! आवश्यकता से अधिक पाने की लालच नहीं रखनी चाहिये। सुबह-शाम दो बार दम यानि प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते रहना चाहिये। थोड़ा व्यायाम भी नियमित करना चाहिये। स्वामी सम्बुद्धानन्द जी महराज अपनी बाँहों का मसल दिखाकर कहते थे- नवनीहरण मुखोपाध्याय एइदिके आये, घुसी मार घुसीमार; मतलब जरा इसमें मुक्का मार कर देखो, ये बाजु फौलाद की तरह हैं या नहीं ? गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी, आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की जरुरत नहीं है, जितना मिलता है, उतने से ही हो जायेगा। 
बहुत लोग शिकायत करते हैं कि ३ वर्ष से मनःसंयोग कर रहा हूँ, किन्तु अभी तक मन एकाग्र नहीं होता है. एक अमेरिकन साधू माँ की शतवार्षिकी के उपलक्ष्य में माँ के उपर कुछ विचार रखने आये थे. उन्होंने कहा कि मैं ध्यान सीखने के लिये गया था, उसके बाद के अनुभव तो सुना सकता हूँ, माँ के उपर कुछ नहीं कह सकूँगा। एक रोज वहाँ आश्रम में ध्यान के उपर महाराज का भाषण सुना तो उनसे उसकी विधि सिखाने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा यदि तुम अपना सबकुछ छोड़ कर यहीं आश्रम में रहने आ जाओ, तो मैं तुम्हें ध्यान करना सीखा सकता हूँ।  ६० साल पहले गरुआ मिला है, तब से रोज ध्यान कर रहा हूँ, पर अभी तक केवल २-४ सेकण्ड ही ध्यान का सही सही स्वाद प्राप्त कर सका हूँ। किन्तु आजकल तो 'योगा एंड मेडिटेसन' के नाम पर- 'थ्री डे मेडिटेशन कोर्स', 'वन डे कोर्स' या कोई कोई तो भारी फ़ीस लेकर 'मेडिटेशन इन जस्ट थ्री आवर्स' के नाम से भी अपनी दुकान चला रहे हैं।  जबकि जीवन भर परिश्रम करके, यदि २-३ सेकण्ड के लिये भी ध्यान लग गया तो, उससे जितना आनन्द मिलेगा, उसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। 
अभ्यास का क्या फल होता है, इस पर नजर मत रखना, आनन्द से जगत को ही गोविन्द देखकर सेवा करना। इसी भाव का अभ्यास करते करते थोड़ा स्वाद मिल जायेगा। उस समय ह्रदय आनन्द से भर उठेगा। यदि दुःख होगा भी तो केवल दूसरों को दुःख-कष्ट में गिरा देखने से दुःख होगा। अपने लिये तो ह्रदय में केवल आनन्द ही आनन्द भरा रहेगा ! क्योंकि हमारा स्वरुप ही आनन्दमय है ! ॐ
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