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सोमवार, 13 जनवरी 2025

🔱🕊 🏹 🙋*परिशिष्ट -1 * [ (1 जनवरी, 1881) श्री रामकृष्ण वचनामृत ] [(क) परिच्छेद- 1, केशव के साथ दक्षिणेश्वर मन्दिर में] (Appendix A WITH KESHAB AT DAKSHINESWAR)

[(1 जनवरी, 1881),श्री रामकृष्ण वचनामृत- परिशिष्ट] 

(क)

परिच्छेद- 1 

🔱🕊 🏹केशव के साथ दक्षिणेश्वर मन्दिर में🔱🕊 🏹

কেশবের সহিত দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে

(१)

* श्रीरामकृष्ण तथा श्री केशवचन्द्र सेन*

शनिवार, 1 जनवरी, 1881 ई. ब्राह्मसमाज का माघोत्सव आनेवाला है । राम, मनोमोहन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित हैं । ब्राह्म भक्तगण तथा अन्य लोग केशव के आने से पहले ही कालीबाड़ी में आ गये हैं और श्रीरामकृष्णदेव के पास बैठे हुए हैं । सभी बेचैन हैं, बार-बार दक्षिण की ओर देख रहे हैं कि कब केशव आयेंगे, कब केशव जहाज से आकर उतरेंगे । प्रताप, त्रैलोक्य, जयगोपाल सेन आदि अनेक ब्राह्मभक्तों को साथ लेकर केशवचन्द्र सेन श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर के मन्दिर में आये ।

.KESHAB CHANDRA SEN, the leader of the Brahmo Samaj, was expected to visit Sri Ramakrishna at the temple garden at Dakshineswar. With the Master were many Brahmo celebrities — Pratap, Trailokya, Jaygopal, and others. It was only a few days before the annual festival of the Brahmo Samaj, and the Brahmos were eagerly awaiting the arrival of their leader, who was to come by steamer. They were restless and talking rather noisily. Ram, Manomohan, and several other devotees of the Master were also there.

ব্রাহ্মসমাজের মাঘোৎসব সম্মুখে। প্রতাপ, ত্রৈলোক্য, জয়গোপাল সেন প্রভৃতি অনেক ব্রাহ্মভক্ত লইয়া কেশবচন্দ্র সেন শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে আসিয়াছেন। রাম, মনোমোহন প্রভৃতি অনেকে উপস্থিত। ব্রাহ্মভক্তেরা অনেকেই কেশবের আসিবার আগে কালীবাড়িতেই আসিয়াছেন ও ঠাকুরের কাছে বসিয়া আছেন। সকলেই ব্যস্ত, কেবল দক্ষিণদিকে তাকাইতেছেন, কখন কেশব আসিবেন, কখন কেশব জাহাজে করিয়া আসিয়া অবতরণ করিবেন। তাঁহার আসা পর্যন্ত ঘরে গোলমাল হইতে লাগিল।

हाथ में दो बेल फल तथा फूल का एक गुच्छा है । उन्होंने श्रीरामकृष्ण के चरण स्पर्श कर उन चीजों को उनके पास रख दिया और भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने भी भूमिष्ठ होकर प्रति-नमस्कार किया । श्रीरामकृष्ण आनन्द से हँस रहे हैं और केशव के साथ बात कर रहे हैं ।

At last Keshab entered the Master's room with two fruits and a bouquet of flowers in his hands. Touching the Master's feet, he laid the offering at his side. Then he saluted Sri Ramakrishna with great reverence, bowing very low before him. Sri Ramakrishna returned in like manner his distinguished visitor's salutation. Then he laughingly began the conversation.

এইবার কেশব আসিয়াছেন। হাতে দুইটি বেল ও ফুলের একটি তোড়া। কেশব শ্রীরামকৃষ্ণের চরণ স্পর্শ করিয়া ওইগুলি কাছে রাখিয়া দিলেন এবং ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। ঠাকুরও ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রতিনমস্কার করিলেন।

श्रीरामकृष्ण (केशव के प्रति, हँसते हुए) - केशव, तुम मुझे चाहते हो, परन्तु तुम्हारे चेले लोग मुझे नहीं चाहते । तुम्हारे चेलों से कहा था, 'आओ, हम खंजन-मंजन करें, उसके बाद गोविन्द आ जायेंगे ।' (केशव के शिष्यों के प्रति) “वह देखो जी, तुम्हारे गोविन्द आ गये । मैं इतनी देर तक खंजन-मंजन कर रहा था, भला आयेंगे क्यों नहीं ? (सभी हँसे)

MASTER: "You, Keshab, want me; but your disciples don't. I was saying to them: 'Let us be restless. Then Govinda will come.' (To Keshab's disciples) See, here is your Govinda!

শ্রীরামকৃষ্ণ আনন্দে হাসিতেছেন। আর কেশবের সহিত কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (কেশবের প্রতি সহাস্যে) — কেশব তুমি আমায় চাও কিন্তু তোমার চেলারা আমায় চায় না। তোমার চেলাদের বলছিলুম, এখন আমরা খচমচ করি, তারপর গোবিন্দ আসবেন। (কেশবের শিষ্যদের প্রতি) — “ওইগো, তোমাদের গোবিন্দ এসেছেন। আমি এতক্ষণ খচমচ করছিলুম, জমবে কেন। (সকলের হাস্য)

"गोविन्द का दर्शन सहज नहीं मिलता । कृष्ण-लीला में देखा होगा, नारद जब व्याकुल होकर ब्रज में कहते हैं - 'प्राण ! हे गोविन्द ! मम जीवन !' - उस समय गोपालों के साथ श्रीकृष्ण आते हैं, पीछे पीछे सखियाँ और गोपियाँ । व्याकुल हुए बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होता । (केशव के प्रति) "केशव, तुम कुछ कहो, ये सब तुम्हारी बात सुनना चाहते हैं ।"

"We have been showing signs of restlessness all this while to set the stage for your arrival. It isn't easy to have the vision of Govinda. You must have noticed in the Krishnayatra.1 that Narada enters Vrindavan and prays with great yearning: 'O Govinda! O my soul! O Life of my life!', and then Krishna comes on the stage with the cowherd boys, followed by the gopis. No one can see God without that yearning. "Well, Keshab, say something! They are eager to hear your words."

(কেশবের শিষ্যদের প্রতি) — “ওইগো, তোমাদের গোবিন্দ এসেছেন। আমি এতক্ষণ খচমচ করছিলুম, জমবে কেন। (সকলের হাস্য) “গোবিন্দের দর্শন সহজে পাওয়া যায় না। কৃষ্ণযাত্রায় দেখ নাই, নারদ ব্যাকুল হয়ে যখন ব্রজে বলেন – ‘প্রাণ হে গোবিন্দ মম জীবন’, তখন রাখাল সঙ্গে কৃষ্ণ আসেন। পশ্চাতে সখীগণ গোপীগণ। ব্যাকুল না হলে ভগবানের দর্শন হয় না।(কেশবের প্রতি) — “কেশব তুমি কিছু বল; এরা সকলে তোমার কথা শুনতে চায়।”

केशव - (विनीत भाव से हँसते हुए) - यहाँ पर बात करना लुहार के पास सूई बेचने की चेष्टा-जैसा होगा !

KESHAB (humbly, with a smile): "To open my lips here would be like trying to 'sell needles to a blacksmith'."

কেশব (বিনীতভাবে, সহাস্যে) — এখানে কথা কওয়া কামারের নিকট ছুঁচ বিক্রি করতে আসা!

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - बात क्या है, जानते हो ? भक्तों का स्वभाव गाँजा पीनेवालों-जैसा है । तुमने एक बार गाँजे की चिलम लेकर दम लगाया, और मैंने भी एक बार लगाया । (सभी हँसे)

MASTER (smiling): "But don't you know that the nature of devotees is like that of hemp-smokers? One hemp-smoker says to another, 'Please take a puff for yourself and give me one.'" (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তবে কি জানো, ভক্তের স্বভাব গাঁজাখোরের স্বভাব। তুমি একবার গাঁজার কলকেটা নিয়ে টানলে আমিও একবার টানলাম। (সকলের হাস্য)

दिन के चार बजे का समय है । कालीबाड़ी के नौबतखाने का वाद्य सुनायी दे रहा है ।

श्रीरामकृष्ण - (केशव के प्रति) - देखा, कैसा सुन्दर वाद्य है ! लेकिन एक आदमी केवल एक राग - 'पों' - निकाल रहा है और दूसरा अनेक सुरों की लहर उठाकर कितनी ही राग-रागिनियाँ निकाल रहा है । मेरा भी वही भाव है ।

It was about four o'clock in the afternoon. They heard the music from the nahabat in the temple garden. MASTER (to Keshab and the others): "Do you hear how melodious that music is? One player is producing only a monotone on his flute, while another is creating waves of melodies in different ragas and raginis. (Modes in Indian music.) That is my attitude. 

বেলা ৪টা বাজিয়াছে। কালীবাড়ির নহবতে বাজনা শুনা যাইতেছে। শ্রীরামকৃষ্ণ (কেশব প্রভৃতির প্রতি) — দেখলে কেমন সুন্দর বাজনা। তবে একজন কেবল পোঁ করছে, আর-একজন নানা সুরের লহরী তুলে কত রাগ-রাগিণীর আলাপ করছে।মারও ওই ভাব। 

मेरे सात सूराख रहते हुए फिर मैं क्यों केवल 'पों' निकालूँ - क्यों केवल 'सोऽहम्' 'सोऽहम्' करूँ ? मैं सात सूराखों से अनेक प्रकार की राग-रागिनियाँ बजाऊँगा । केवल 'ब्रह्म-ब्रह्म' ही क्यों करूँ? शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य, मधुर सभी भावों से उन्हें पुकारूँगा, आनन्द करूँगा, विलास करूँगा ।

Why should I produce only a monotone when I have an instrument with seven holes? Why should I say nothing but, 'I am He, I am He'? I want to play various melodies on my instrument with seven holes. Why should I say only, 'Brahma! Brahma!'? I want to call on God through all the moods — through santa, dasya, sakhya, vatsalya, and madhur. I want to make merry with God. I want to sport with God."

 আমার সাত ফোকর থাকতে কেন শুধু পোঁ করব — কেন শুধি সোহং সোহং করব। আমি সাত ফোকরে নানা রাগ-রাগিণী বাজাব। শুধু ব্রহ্ম ব্রহ্ম কেন করব! শান্ত, দাস্য, বাৎসল্য, সখ্য, মধুর সবভাবে তাঁকে ডাকব — আনন্দ করব, বিলাস করব।

केशव अवाक् होकर इन बातों को सुन रहे हैं और कह रहे हैं, “ज्ञान और भक्ति की इस प्रकार अद्भुत और सुन्दर व्याख्या मैंने कभी नहीं सुनी ।”

Keshab listened to these words with wonder in his eyes and said to the Brahmo devotees, "I have never before heard such a wonderful and beautiful interpretation of jnana and bhakti."

কেশব অবাক্‌ হইয়া এই কথাগুলি শুনিতেছেন। আর বলিতেছেন, জ্ঞান ও ভক্তির এরূপ আশ্চর্য, সুন্দর ব্যাখ্যা কখনও শুনি নাই।

केशव - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप कितने दिन इस प्रकार गुप्त रूप में रहेंगे - धीरे धीरे यहाँ पर लोगों का मेला लग जायगा ।

KESHAB (to the Master): "How long will you hide yourself in this way? I dare say people will be thronging here by and by in great crowds."

কেশব (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আপনি কতদিন এরূপ গোপনে থাকবেন — ক্রমে এখানে লোকে লোকারণ্য হবে।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी यह कैसी बात है ! मैं खाता-पीता रहता हूँ और उनका नाम लेता हूँ । लोगों का मेला लगाना में नहीं जानता । हनुमानजी ने कहा था, 'मैं वार, तिथि, नक्षत्र यह सब कुछ नहीं जानता, केवल एक राम का चिन्तन करता हूँ ।"

MASTER: "What are you talking of? I only eat and drink and sing God's name. I know nothing about gathering crowds. Hanuman once declared: 'I know nothing about the day of the week or the position of the moon and stars in the sky. I simply meditate on Rama.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ও তোমার কি কথা। আমি খাই দাই থাকি, তাঁর নাম করি। লোক জড় করাকরি আমি জানি না। কে জানে তোর গাঁইগুঁই, বীরভূমের বামুন মুই। হনুমান বলেছিল — আমি বার, তিথি, নক্ষত্র ও-সব জানি না কেবল এক রামচিন্তা করি।

केशव - अच्छा, मैं लोगों का मेला लगाऊँगा, परन्तु आपके यहाँ सभी को आना पड़ेगा ।

KESHAB: "All right, sir, I shall gather the crowd. But they all must come to your place."

কেশব — আচ্ছা, আমি লোক জড় করব। কিন্তু আপনার এখানে সকলের আসতে হবে।

श्रीरामकृष्ण - मैं सभी के चरणों की धूलि की धूलि हूँ । जो दया करके आयेंगे, वे आवें !

MASTER: "I am the dust of the dust of everybody's feet. If anyone is gracious enough to come here, he is welcome."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি সকলের রেণুর রেণু। যিনি দয়া করে আসবেন, আসবেন।

केशव - आप जो भी कहें, आपका आगमन (अवतार ग्रहण) व्यर्थ न होगा ।

KESHAB: "Whatever you may say, sir, your advent cannot be in vain."

কেশব — আপনি যা বলুন, আপনার আসা বিফল হবে না।

(२)

 [(1 जनवरी, 1881),श्री रामकृष्ण वचनामृत- परिशिष्ट] 

🏹*ईश्वर-दर्शन का उपाय -अहं का त्याग * 🏹

इधर कीर्तन का आयोजन हो रहा है । अनेक भक्त जुट गये हैं । पंचवटी से कीर्तन का दल दक्षिण की ओर आ रहा है । हृदय शहनाई बजा रहा है । गोपीदास मृदंग तथा अन्य दो व्यक्ति करताल बजा रहे हैं ।

 In the mean time the devotees had arranged a kirtan. Many of them had joined it. The party started at the Panchavati and moved toward the Master's room. Hriday blew the horn, Gopidas played the drum, and two devotees played the cymbals.

Sri Ramakrishna sang: O man, if you would live in bliss, repeat Lord Hari's name;Then you will lead a life of joy and go to paradise,And feed upon the fruit of moksha evermore:Such is the glory of His name! I give you the name of Hari, which Siva, God of Gods, Repeats aloud with His five mouths.

এদিকে সংকীর্তনের আয়োজন হইতেছে। অনেকগুলি ভক্ত যোগ দিয়াছেন। পঞ্চবটী হইতে সংকীর্তনের দল দক্ষিণদিকে আসিতেছে। হৃদয় শিঙা বাজাইতেছেন। গোপীদাস খোল বাজাইতেছেন আর দুইজন করতাল বাজাইতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ গান ধরিলেন:

হরিনাম নিসে রে জীব যদি সুখে থাকবি।

সুখে থাকবি বৈকুণ্ঠে যাবি, ওরে মোক্ষফল সদা পাবি ॥

     (হরিণাম গুণেরে)

যে নাম শিব জপেন পঞ্চমুখে

আজ সেই হরিনাম দিব তোকে।

श्रीरामकृष्ण गाना गाने लगे –

हरिनाम निसे रे जीव यदि सूखे थाकबि। 

सूखे थाकबि बैकुण्ठ जाबी , ओरे मोक्षफल सदा पाबि।। 

(हरिनाम गुनेरे)

जे नाम शिव जपेन पञ्चमुखे ,

आज सेई हरिनाम दिबो तोके।   

संगीत - (भावार्थ) –"रे मन ! यदि सुख से रहना चाहता है तो हरि का नाम ले । हरिनाम के गुण से सुख से रहेगा, वैकुण्ठ में जायगा, सदा मोक्षफल प्राप्त करेगा । जिस नाम का जप शिवजी पंचमुखों से करते हैं, आज तुझे वही हरिनाम दूँगा ।"

श्रीरामकृष्ण सिंह-बल से नृत्य कर रहे हैं । अब समाधिमग्न हो गये ।समाधि-भंग होने के बाद कमरे में बैठे हैं ।

The Master danced with the strength of a lion and went into samadhi. Regaining consciousness of the outer world, he sat down in his room and began to talk with Keshab and the other devotees.

শ্রীরামকৃষ্ণ সিংহবিক্রমে নৃত্য করিতেছেন।এইবার সমাধিস্থ হইলেন।সমাধিভঙ্গের পর ঘরে উপবিষ্ট হইয়াছেন। 

[(1 जनवरी, 1881),श्री रामकृष्ण वचनामृत परिशिष्ट] 

 🏹[ब्रह्मसमाजी-आर्यसमाजी-मूर्तिपूजा पर विश्वास नहीं करने वाले]  

केशव के साथ सर्वधर्म समन्वय : विषय पर चर्चा 🏹 

श्रीरामकृष्ण  केशव आदि के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।

"- सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है - जैसे, तुममें से कोई गाड़ी पर, कोई नौका पर, कोई जहाज पर सवार होकर और कोई पैदल आया है - जिसकी जिसमें सुविधा और जिसकी जैसी प्रकृति है, वह उसी के अनुसार आया है । उद्देश्य एक ही है । कोई पहले आया, कोई बाद में ।

[जैसे स्वामी विवेकानन्द ने अलवर (राजस्थान) के राजा मंगलसिंह को उनके पिता का चित्र (2D) पर विश्वास और उनकी मूर्ति (3D) पर अविश्वास को तार्किक तौर से प्रमाणित किया था ।]     

MASTER: "God can be realized through all paths, it is like your coming to Dakshineswar by carriage, by boat, by steamer, or on foot. You have chosen the way according to your convenience and taste; but the destination is the same. Some of you have arrived earlier than others; but all have arrived.

“সব পথ দিয়েই তাঁকে পাওয়া যায়। যেমন তোমরা কেউ গাড়ি, কেউ নৌকা, কেউ জাহাজে করে, কেউ পদব্রজে এসেছ, যার যাতে সুবিধা, আর যার যা প্রকৃতি সেই অনুসারে এসেছ। উদ্দেশ্য এক — কেউ আগে এসেছে, কেউ পরে এসেছে। কেশব প্রভৃতির সঙ্গে কথা কহিতেছেন।

[(1 जनवरी, 1881),श्री रामकृष्ण वचनामृत परिशिष्ट] 

 🏹ईश्वर को देखने का उपाय है - उपाधि के अहंकार का त्याग और सेवा 🏹 

"उपाधि जितनी दूर रहेगी, ईश्वर उतना ही निकट अनुभूत होंगे । अर्थात जितना अधिक तुम उपाधियों से मुक्त होते जाओगे  उतना ही अधिक तुम अपने ह्रदय में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करोगे। ऊँचे टिले पर वर्षा का जल एकत्र नहीं होता, यह केवल नीची जमीन पर ही एकत्र होता है । इसी प्रकार जहाँ अहंकार के उपाधि का टिला ऊँचा है, वहाँ पर ईश्वर की कृपा का जल नहीं जमता।  ईश्वर के समक्ष दीनभाव रखना ही अच्छा है ।

[अर्थात विद्या का 'मैं', या ठाकुर,माँ -स्वामी जी के दास का 'मैं',  के अलावा-किसी भी पद का मैं, या धनी-मानी होने का अहंकार ही ऊँचा टिला है। जितना अधिक तुम Director, अध्यक्ष, सचिव, बड़ा बाबू,  किसी फर्म के मालिक बाबू या पार्टनर बाबू, आदि उपाधियों से मुक्त होते जाओगे, उतना ही अधिक तुम अपने ह्रदय में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करोगे।] 

The more you rid yourself of upadhis, the nearer you will feel the presence of God. Rain-water never collects on a high mound; it collects only in low land. Similarly, the water of God's grace cannot remain on the high mound of egotism. Before God one should feel lowly and poor.

(কেশব প্রভৃতির প্রতি) — “উপাধি যতই যাবে, ততই তিনি কাছে হবেন। উঁচু ঢিপিতে বৃষ্টির জল জমে না। খাল জমিতে জমে; তেমনি তাঁর কৃপাবারি, যেখানে অহংকার, সেখানে জমে না। তাঁর কাছে দীনহীন ভাবই ভাল।

"बहुत सावधान रहना चाहिए, यहाँ तक कि वस्त्र से भी अहंकार होता है । तिल्ली के रोगी को देखा, काली किनारवाली धोती पहनी है और साथ ही निधुबाबू की गजल गा रहा है ! "किसी ने बूट पहना नहीं कि मुँह से अंग्रेजी बोली निकलने लगी ! यदि कोई छोटा आधार हो तो गेरुआ वस्त्र पहनने से अहंकार होता है । उसके प्रति सम्मान प्रदर्शन करने में जरा सी त्रुटि उसके क्रोध और नाराजगी को भड़का देती है ।

"One should be extremely watchful. Even clothes create vanity. I notice that even a man suffering from an enlarged spleen sings Nidhu Babu's light songs when he is dressed up in a black-bordered cloth. There are men who spout English whenever they put on high boots. And when an unfit person puts on an ochre cloth he becomes vain; the slightest sign of indifference to him arouses his anger and pique.

“খুব সাবধানে থাকতে হয়, এমন কি কাপড়চোপড়েও অহংকার হয়। পিলে রোগী দেখেছি কালাপেড়ে কাপড় পরেছে, অমনি নিধুবাবুর টপ্পা গাইছে!“কেউ বুট পরেছে অমনি মুখে ইংরাজী কথা বেরুচ্ছে! “সামান্য আধার হলে গেরুয়া পরলে অহংকার হয়; একটু ত্রুটি হলে ক্রোধ, অভিমান হয়।”

[(1 जनवरी, 1881),श्री रामकृष्ण वचनामृत परिशिष्ट] 

[भोगों (3 ऐषणा) का विवेकपूर्ण अन्त हुए बिना, विवेकदर्शन की तड़प नहीं होती !]

 🏹 ईश्वर लाभ के तीन चरण : भोगान्त, व्याकुलता और आत्मसाक्षात्कार ! 🏹  

 [ভোগান্ত, ব্যাকুলতা ও ঈশ্বরলাভ ]

"व्याकुल हुए बिना उनका दर्शन नहीं किया जा सकता । यह व्याकुलता भोग का अन्त हुए बिना नहीं होती । जो लोग कामिनीकांचन के बीच में हैं, जिनके भोग का अन्त नहीं हुआ, उनमें व्याकुलता नहीं आती ।

[ "व्याकुल हुए बिना ईश्वर का दर्शन नहीं किया जा सकता । और यह व्याकुलता  (ईश्वर को देखने की तड़प -मन तड़पत हरि दर्शन को आज ) भोग का अन्त हुए बिना नहीं होती । जो लोग कामिनी-कांचन के बीच घिरे रहते हैं, जिनके भोग का (स्वयं को M/F शरीर मानकर तीनों ऐषणाओं में Bh  आसक्ति का) अन्त नहीं हुआ, उनमें व्याकुलता नहीं आती ।]

"God cannot be seen without yearning of heart, and this yearning is impossible unless one has finished with the experiences of life. Those who live surrounded by 'woman and gold', and have not yet come to the end of their experiences, do not yearn for God.

“ব্যাকুল না হলে তাঁকে দেখা যায় না। এই ব্যাকুলতা ভোগান্ত না হলে হয় না। যারা কামিনী-কাঞ্চনের মধ্যে আছে ভোগান্ত হয় নাই, তাদের ব্যাকুলতা আসে না।

"उस देश (कामारपुकुर) में जब मैं था, हृदय का लड़का, जो चार-पाँच वर्ष का था सारा दिन मेरे पास रहता था, मेरे सामने इधर उधर खेला करता था, एक तरह से भूला रहता था । पर ज्योंही सन्ध्या होती वह कहने लगता - 'माँ के पास जाऊँगा ।' मैं कितना कहता - 'कबूतर दूँगा' आदि आदि, अनेक तरह से समझाता, पर वह भूलता न था, रो-रोकर कहता था – ‘माँ के पास जाऊँगा ।’ खेल, खिलौना कुछ भी उसे अच्छा नहीं लगता था । मैं उसकी दशा देखकर रोता था ।

"When I lived at Kamarpukur, Hriday's son, a child four or five years old, used to spend the whole day with me. He played with his toys and almost forgot everything else. But no sooner did evening come than he would say, 'I want to go to my mother.' I would try to cajole him in various ways and would say, 'Here, I'll give you a pigeon.' But he wouldn't be consoled with such things; he would weep and cry, 'I want to go to my mother.' He didn't enjoy playing any more. I myself wept to see his state.

“ও-দেশে হৃদয়ের ছেলে সমস্ত দিন আমার কাছে থাকত, চার-পাঁচ বছরের চেলে। আমার সামনে এটা ওটা খেলা করত, একরকম ভুলে থাকত। যাই সন্ধ্যা হয় হয় অমনি বলে — মা যাব। অমি কত বলতুম — পায়রা দিব, এই সব কথা, সে ভুলত না; কেঁদে কেঁদে বলত — মা যাব। খেলা-টেলা কিছুই ভাল লাগছে না। আমি তার অবস্থা দেখে কাঁদতুম।

"यही हैं बालक की तरह ईश्वर के लिए रोना ! यही है व्याकुलता ! फिर खेल, खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता । यह व्याकुलता तथा उनके लिए रोना, भोग के क्षय होने पर होता है ।"

"One should cry for God that way, like a child. That is what it means to be restless for God. One doesn't enjoy play or food any longer. After one's experiences of the world are over, one feels this restlessness and weeps for God."

“এই বালকের মতো ঈশ্বরের জন্য কান্না। এই ব্যাকুলতা। আর খেলা, খাওয়া কিছুই ভাল লাগে না। ভোগান্তে এই ব্যাকুলতা ও তাঁর জন্য কান্না!”

सब लोग विस्मित होकर इन बातों को सुन रहे हैं । सायंकाल हो गया है, बत्तीवाला बत्ती जलाकर चला गया । केशव आदि ब्राह्म भक्तगण जलपान करके जायेंगे । जलपान का आयोजन हो रहा है।

The devotees sat in silence, listening to the Master's words. When evening came, a lamp was lighted in the room. Preparations were being made for feeding Keshab and the devotees.

সকলে অবাক্‌ হইয়া নিঃশব্দে এই সকল কথা শুনিতেছেন।সন্ধ্যা হইয়াছে, ফরাশ আলো জ্বালিয়া দিয়া গেল। কেশব প্রভৃতি ব্রাহ্মভক্তগণ সকলে জলযোগ করিয়া যাইবেন। খাবার আয়োজন হইতেছে।

केशव - (हँसते हुए) - आज भी क्या लाई-मुरमुरा है ?

KESHAB (with a smile): "What? Puffed rice again today?"

কেশব (সহাস্যে) — আজও কি মুড়ি?

श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) - हृदय जानता है ।

MASTER (smiling): "Hriday knows."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হৃদু জানে।

पत्तल बिछाये गये । पहले लाई-मुरमुरा, उसके बाद पूड़ी और उसके बाद तरकारी । (सभी हँसते हैं) सब समाप्त होते होते रात के दस बज गये ।

The devotees were served first with puffed rice, and then with luchi and curries on leaf-plates. All enjoyed the meal very much. It was about ten o'clock when supper was over.

পাতা পড়িল। প্রথমে মুড়ি, তারপর লুচি, তারপর তরকারি। (সকলের খুব আনন্দ ও হাসি) সব শেষ হইতে রাত দশটা বাজিয়া গেল।

[(1 जनवरी, 1881),श्री रामकृष्ण वचनामृत परिशिष्ट] 

 🙋*बूढ़ी* (ढाई) को पहले छू लो, और फिर खेल करो 🙋

श्रीरामकृष्ण पंचवटी के नीचे ब्राह्म भक्तों के साथ फिर बातचीत कर रहे हैं ।

The Master went to the Panchavati with Keshab and the devotees.

ঠাকুর পঞ্চবটীমূলে ব্রাহ্মভক্তগণের সঙ্গে আবার কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए, केशव के प्रति) - ईश्वर को प्राप्त करने के बाद गृहस्थी में भलीभाँति रहा जा सकता है । *बूढ़ी* (ढाई) को पहले छू लो, और फिर खेल करो ।(*बच्चों के एक खेल में एक बालक 'चोर' बनता है, जो एक खूंटी के पास रहता है और अन्य बालक इधर-उधर रहते हैं । वह 'चोर' बालक जिस बालक को छुएगा, वही 'चोर' बनेगा । लेकिन जिसने उस खूँटी को छू लिया वह फिर 'चोर' नहीं बन सकता । उस खूँटी को बूढ़ी कहते हैं ।)

MASTER (to Keshab and the others): "One can very well live in the world after realizing God. Why don't you first touch the 'granny' and then play hide-and-seek?

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে কেশব প্রভৃতির প্রতি) — ঈশ্বরলাভের পর সংসারে বেশ থাকা যায়। বুড়ী ছুঁয়ে তারপর খেলা কর না।

"ईश्वर-प्राप्ति के बाद भक्त निर्लिप्त हो जाता है, जैसे कीचड़ की मछली - कीचड़ के बीच में रहकर भी उसके बदन पर कीच नहीं लगता ।"

"After attaining God, a devotee becomes unattached to the world. He lives like a mudfish. The mudfish keeps its body unstained though it lives in mud."

“লাভের পর ভক্ত নির্লিপ্ত হয়, যেমন পাঁকাল মাছ। পাঁকের ভিতর থেকেও গায়ে পাঁক লেগে থাকে না।”

लगभग ११ बजे रात का समय हुआ, सभी जाने की तैयारी में हैं । प्रताप ने कहा, ‘आज रात को यहीं पर रह जाना ठीक होगा ।’

About eleven o'clock the Brahmos became eager to go home. Pratap said, "It would be nice if we could spend the night here."

প্রায় ১১টা বাজে, সকলে যাইবার জন্য অধৈর্য। প্রতাপ বললেন, আজ রাত্রে এখানে থেকে গেলে হয়।

श्रीरामकृष्ण केशव से कह रहे हैं, 'आज यहीं रहो न ।'

MASTER (to Keshab): "Why not stay here tonight?"

শ্রীরামকৃষ্ণ কেশবকে বলিতেছেন, আজ এখানে থাক না।

केशव - (हँसते हुए) - काम-काज है, जाना होगा ।

KESHAB (smiling): "No, I have business to attend to. I must go."

কেশব (সহাস্যে) — কাজ-টাজ আছে; যেতে হবে।

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी, तुम्हें क्या मछली की टोकरी की गन्ध न होने से नींद न आयगी ? एक मछलीवाली रात को एक बागवान के घर अतिथि बनी थी । उसे फूलवाले कमरे में सुलाया गया, पर उसे नींद न आयी । वह करवटें बदल रही थी, उसे देख बागवान की स्त्री ने आकर कहा, 'क्यों री, सो क्यों नहीं रही हो ?' मछलीवाली बोली, 'क्या जानूँ बहन, शायद फूलों की गन्ध से नींद नहीं आ रही है । क्या तुम जरा मछली की टोकरी मँगा सकती हो ?'“तब मछलीवाली मछली की टोकरी पर जल छिड़ककर उसकी गन्ध सूँघती सो गयी !" (सभी हँसे)

MASTER: "Why must you, my dear sir? Can't you sleep without your fish-basket? Once a fishwife was a guest in a gardener's house. She was asked to sleep in a room full of flowers. But she couldn't get any sleep there. (All laugh.) She was restless and began to fidget about. The gardener called to her: 'Hello there! Why aren't you asleep?' 'Oh, I don't know', said the fishwife. 'There are flowers here. The smell keeps me awake. Can't you bring me my fish-basket?' She sprinkled a little water in the basket, and when she smelled the fish she fell fast asleep." (All laugh heartily.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন গো, তোমার আঁষচুবড়ির গন্দ না হলে কি ঘুম হবে না। মেছুনী মালীর বাড়িতে রাত্রে অতিথি হয়েছিল। তাকে ফুলের ঘরে শুতে দেওয়াতে তার আর ঘুম হয় না। (সকলের হাস্য) উসখুস করছে, তাকে দেখে মালিনী এসে বললে — কেন গো — ঘুমুচ্ছিস নি কেন গো? মেছুনী বললে কি জানি মা কেমন ফুলের গন্ধে ঘুম হচ্ছে না, তুমি একবার আঁষচুবড়িটা আনিয়ে দিতে পার? তখন মেছুনী আঁষচুবড়িতে জল ছিটিয়ে সেই গন্ধ আঘ্রাণ করতে করতে নিদ্রায় অভিভূত হল। (সকলের হাস্য)

बिदा के समय केशव ने श्रीरामकृष्ण के चरणों में अपने द्वारा चढ़ाये हुए पुष्पों में से एक गुच्छा लिया और भूमि पर माथा लगाकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके भक्तों के साथ कहने लगे, 'विधान की जय हो ।'

Keshab took a few of the flowers that he had offered at Sri Ramakrishna's feet on his arrival. He and his Brahmo devotees cried out as they saluted the Master, "Hail, Navavidhan!" Thus they bade him adieu.

বিদায়ের সময় কেশব ঠাকুরের চরণ স্পর্শ করে একটি ফুলের তোড়া গ্রহণ করিলেন ও ভূমিষ্ঠ প্রণাম করিয়া ‘বিধানের জয় হউক’ এই কথা ভক্তসঙ্গে বলিতে লাগিলেন।

केशव ब्राह्मभक्त जयगोपाल सेन की गाड़ी में बैठे । वे कलकत्ता जायेंगे ।

ব্রাহ্মভক্ত জয়গোপাল সেনের গাড়িতে কেশব উঠিলেন; কলিকাতায় যাইবেন।

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मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal , 56 'Th Annual All India Youth Training Camp , 2024 / Ujan Haripada High School , P.S.- Pingla/ Pashchim Medinipur

56'th वां वार्षिक अखिल भारत युवा प्रशिक्षण शिविर, 2024.

56'th Annual All India Youth Training Camp , 2024 

उजान हरिपद हाई स्कूल, 

(पी.एस.-पिंगला/पश्चिम मेदिनीपुर)

शिविरार्थियों के लिए कार्यक्रम 

(Programme For Campers)

प्रतिदिन - प्रातः 4.55 बजे से  10.30 बजे तक 

महामंडल गान के साथ ध्वजारोहण, मानसिक एकाग्रता, शारीरिक व्यायाम, परेड, खेल,महामंडल के आदर्श और उद्देश्य , भारतीय सांस्कृतिक विरासत, चरित्र निर्माण की विधियां, संगठन का प्रबंधन और नेतृत्व, समाज सेवा, राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सद्भावना, आदि विषयों के साथ "स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (Man-making and Character-Building Education of Swami Vivekananda) पर चर्चा की जायेगी

खुला कार्यक्रम

बुधवार, 25 दिसंबर 2024

4:50 अपराह्न उद्घाटन, उद्घाटन गीत, स्वागत भाषण। 

उद्घाटन भाषण: श्रीमत स्वामी हितकामानन्द जी महाराज, सचिव, रामकृष्ण मिशन शिलांग। 

भाषण (संस्कृत) : श्री प्रभात कुमार मैती, टियरबेरिया विवेकानन्द युवा पाठ चक्र। 

भाषण (उड़िया): श्री प्रदीप कुमार साहू, गुआमल विवेकानन्द युवा महामंडल, ओडिशा।

भाषण (हिन्दी): श्री रितेश सिन्हा, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, झुमरीतिलैया शाखा। 

भाषण (बंगाली) : श्री रंजीत मिश्रा, लालट विवेकानन्द युवा महामंडल। 


गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

सायं 6.30 से 7.30 बजे तक : ''वर्तमान समय में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता"(बंगाली) वक्ता हैं -

श्री अमित कुमार दत्त, महासचिव

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल। 

7.30 से 8.45 बजे तक : 'महामण्डल के कौमी तराने' (देशभक्ति मूलक संगीत। ) 

शुक्रवार 27 दिसंबर, 2024 :

शाम 6.30 से 7.30 बजे तक :  "स्वामी विवेकानन्द का जीवन एवं सन्देश" (हिन्दी)

श्री गजानंद पाठक,

 हज़ारीबाग़ विवेकानन्द युवा महामंडल

7.30 से 8.45 बजे तक : "भक्ति-संगीत के साथ देशभक्ति गीत'' - श्री पृथ्विश बिस्वास और श्री दीप्येंदु जाना। 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

सायं 6.30 से 7.30 बजे तक। : "भारतीय संस्कृति का सार" (अंग्रेजी- 'The Essence of Indian Culture')

वक्ता : श्रीमत स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, 

अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती। 

7.30 से 8.45 बजे तक : महामण्डल संगीत  - श्री पार्थ मिश्रा एवं अन्य।


रविवार, 29 दिसंबर 2024

10.30 से 12 बजे तक : रक्तदान

शाम 4.00 बजे - "महामण्डल के सिंह-शिशु दल (विवेक वाहिनी) द्वारा विविध कार्यक्रम। 

शाम 6.30 से 7.30 बजे तक : "जनसाधारण के विवेकानन्द " (बंगाली)।"

वक्ता : डॉ. समीर कुमार दासगुप्ता, 

(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के कार्यकारिणी समिति के माननीय सदस्य। )


सोमवार, 30 दिसंबर, 2024

विदाई सत्र : 

मुख्य अतिथि - श्रीमत् स्वामी बलभद्रानन्द जी महाराज, 

सहायक महासचिव, 

रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन, बेलूर मठ , हावड़ा। 

अतिथि वक्ता : श्री नरेंद्र नाथ मन्ना, 

प्रधानाध्यापक, उजान हरिपद हाई स्कूल

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नोट : प्रतिदिन सन्ध्या 6 बजे प्रार्थना होगी। 

पुस्तक- विक्रय केन्द्र , सह प्रदर्शनी

कैम्प साइट पर "श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द  वेदान्त साहित्य" तथा "स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा " के ऊपर अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा हिन्दी, बंगाली, गुजराती, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़ आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित महामण्डल की पुस्तिकायें भी बिक्रय के लिए उपलब्ध रहेंगी।   

शिविर प्रतिदिन शाम 4.00 बजे से रात 8.45 बजे तक साधारण जनता के लिए खुला रहेगा। 

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PROGRAMME FOR CAMPERS

4.55 a.m. to 10.30 p.m. Daily :

 Flag hoisting with Mahamandal Anthem, Mental Concentration, Physical Exercise , Parade, Games, and Discussion on the "Man-making and Character -building Education of Swami Vivekananda", Aims and Objects of The Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, Indian Cultural Heritage, Methods of Character Building, Management of Organization and Leadership, Social Service , National Integration, Harmony of Religion , etc.


OPEN PROGRAMME

Wednesday, 25th December, 2024 

4:50 P.M. Inauguration

Opening Song, Welcome Address

Inaugural Speech : Srimat Swami Hitakamananda ji Maharaj,

Secretary, Ramakrishna Mission Shillong. 

Speech (Sanskrit) : Sri Prabhat at Kumar Maity, 

Tearberia Vivekananda Yuva  Pathachakra

Speech (Odiya) : Sri Pradip Kumar Sahoo, 

Guamal Vivekananda Yuva Mahamandal, Odisha

Speech (Hindi) : Sri Ritesh Sinha, 

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, Jhumri Telaiya Branch.

Speech (Bengali) : Sri Ranjit Mishra, 

Lalat Vivekananda Yuva Mahamandal

Thursday, 26th December, 2024

6.30 to 7.30p.m. : 'Relevance of Swami Vivekananda Today' (Bengali)

Sri Amit Kumar Datta, 

General Secretary, 

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, 

7.30 to 8.45 p.m. : Songs :

Friday 27th December, 2024 : 

6.30 to 7.30 p.m. : Life and Message of Swami Vivekananda (Hindi)

Sri Gajanand Pathak, 

Hazaribagh Vivekananda Yuva Mahamandal

7.30 to 8.45 p.m. : Devotional & Patriotic Songs - Sri Prithwish Biswas & Sri Dipyendu Jana

Saturday, 28th December, 2024

6.30 to 7.30p.m. : 'The Essence of Indian Culture' (English)

Srimat Swami Suddhidanandaji Maharaj, President, Advaita Ashrama, Mayavati

7.30 to 8.45 p.m. : Songs - Sri Partha Mishra & Others

Sunday, 29th December, 2024

10.30 to 12 noon : Blood Donation

4.00 p.m. - Childern's (Vivek Vahini) Programme

6.30 to 7.30 p.m. : Janaganer Vivekananda (Bengali)

Dr. Samir Kumar Dasgupta, 

Executive Committee Member, Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. 

Monday, 30th December, 2024

Farewell  Session :

 Chief Guest - Srimat Swami Balabhadranandaji Maharaj, 

Assistant General Secretary, Ramakrishna Math & Ramakrihna Mission, Belur Math, Howrah. 

Guest Speaker : Sri Narendra Nath Manna, 

Headmaster, Ujan Haripada High School

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N.B. -Evening Prayers will be held every day at 6:00 pm.

 Sri Ramakrishna-Vivekananda Vedanta literature and Booklets published by Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal in various Indian languages ​​like Hindi, Bengali, Gujarati, Oriya, Telugu, Kannada etc. on "Swami Vivekananda's Man-making and Character-Building Teachings" will also be available for sale at the camp site.

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शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

🔱🕊 🏹 🙋 ' विवेकानन्द दर्शनम् का सारांश ' (9-12) [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा 26 संस्कृत श्लोकों में रचित और स्वामी विवेकानन्द के कोटेशन द्वारा अंग्रजी में दी हुई व्याख्या का झुमरीतिलैया महामण्डल द्वारा हिन्दी में अनुवाद की हुई महामण्डल पुस्तिका। ]

 श्लोक -९

कर्म-विधान क्या है ?

आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम् : 

  त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥ ९।। 

With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you.

(गुरुदेव, माँ सारदा देवी की कृपा से) तुम्हारा मन तो प्रबल इच्छासम्पन्न है, आत्मनिरीक्षण के अभ्यास में आलस्य मत करो , किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते।

प्रसंग : वनवास के दौरान राम,लक्ष्मण और सीता को कष्ट में देख कर जब निषादराज माता कैकई और मंथरा को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मणजी निषादराज रजसे गुह से कहते हैं ‒ 

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।

अहं करोमीति वृथाभिमानः

स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

                         (अध्यात्मरामायण )

अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। कोई दूसरा (हमें सुख और दुःख) देने वाला है - ऐसा समझना कुबुद्धि - मंदबुद्धि और अल्प-ज्ञान का सूचक है। 'मैं ही सब का कर्ता हूँ ' यह मानना भी मिथ्याभिमान है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)

यही बात तुलसीकृत रामायण में भी कही गई है‒

                काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।

                निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

                           (राम चरित मानस - अयोध्या काण्ड)

तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में तब लक्ष्मणजी निषादराजत गुहसे कहते हैं, सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। हे भाई - सब अपने अपने कर्मों के अनुसार ही सुख- दुःख भोगते हैं।

हम अक़्सर अपनी किसी बात - किसी घटना या अपने किसी काम के परिणाम की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते। ख़ास तौर पर अपने दुःख और कष्टों के लिए किसी और को जिम्मेवार और दोषी ठहरा कर हमें कुछ राहत और सांत्वना सी महसूस होती है। लेकिन अगर हम अपने भाग्य एवं परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेवार समझेंगे तो आगे के लिए हर काम को समझदारी से करने की कोशिश करेंगे। अगर हम ये अच्छी तरह से समझ लें कि हमारे कर्म (आदत-प्रवृत्ति-व्याभिचार -सदाचार) ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं तो हम हमेशा अच्छे कर्म ही करने की कोशिश करेंगे। वर्तमान के शुभ कर्मो के द्वारा पिछले कर्मों के दुष्परिणाम को भी बहुत हद तक बदला जा सकता है। इसीलिए धर्म ग्रन्थ और संत महात्मा हमें सत्संग, भक्ति, नम्रता, त्याग और सेवा भावना इत्यादि की प्रेरणा देते रहते हैं। लेकिन अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो कम-से -कम किसी का बुरा तो न करें।

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥

जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ~  'मा गृधः कस्यस्विद्धनम् '  अर्थात किसी का धन - किसी का हक़ छीनने की कभी कोशिश न करो और 'यह सब मेरा है' के भाव के साथ' पदार्थों का संग्रह न करो।

विषयवस्तु :  ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) में पतञ्जलि कहते हैं कि-जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। मन-वचन-काया से पहले किये हुए कर्मों के फल तीन रूपों -जन्म, आयु और भोग में प्राप्त होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल ! ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है!  प्रारब्ध भोग कर आज ही क्षय कर लो, शमी की लकड़ी से शनि ग्रह को भगाने की चेष्टा मत करो।

श्लोक -१०.

मनःसंयोग ही सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है !


 मन एव महच्छत्रुर्बन्धुरपि तदेव हि। 

मनोदासः प्रभुस्तस्य यदेकोSसि तथा भवेत्॥ १०।। 


1. Mind is a great enemy and may also be the best friend.

2. You may be a servant or the master of your mind.

3. If you are a servant, it will pose as an enemy; if you master it, it will become a trusted friend.

4. ' The mind uncontrolled and unguided will drag us down...,and guided will save us, free us.'


१. (अनियंत्रित) मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और यही मन जब वशीभूत हो जाता है- मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त भी बन सकता है।

२. तुम अपने के गुलाम हो सकते हो, और तुम यदि चाहो तो अपने मन के मालिक भी हो सकते हो।

३. यदि तुम अपने मन के दास बने रहोगे, तो यह तुम्हारे एक दुश्मन के रूप में तुमसे बहुत बुरा व्यव्हार करेगा। यदि तुम इसे वशीभूत कर लोगे तो यही मन तुम्हारा सबसे विश्वसनीय मित्र बन जायगा।

४. " अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा -हमें चींथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये, और मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिये।"

प्रसंग : 'मनःसंयोग' (दी साइन्स अव साइकालजी) या मनोविज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है।" (हिन्दी ४/११२)

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🔱🕊 श्लोक -११🔱🕊

 🏹 🙋श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी  🏹 🙋

(कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति और एक महान दैवी शक्ति श्रीरामकृष्ण !)  

जगति सति सत्ये तु न लाभश्चेत् किमु क्षतिः। 

प्रपञ्चस्यापि देहस्य प्रयोगे पुरुषार्थता ॥ ११।। 

1. What is the gain or loss by kicking up a row over the reality of this world ?

2. Objects of human life are attained by making the best use of human body and the visible world.

3. " Anyone and everyone cannot be an Âchârya (teacher of mankind); but many may become Mukta (liberated). ' The Acharya has to take a stand between the two states. He must have the knowledge that the world is true, or else why should he teach ? Again if he had not realized the world as a dream, then he is no better than an ordinary man, and what could he teach ?'

१. इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या?

[# प्रसंग : माँ श्री सारदा (तारा -जनकराजकिशोरी) जैसे डकैत अमजद की भी माँ है, और स्वामी सारदानन्द की भी माँ है ! (चिरंतनी 5 am-कोलकाता 22-11-2024)  जीवे प्रेम करे जेई जन, से सेवेच्छे ईश्वर ! परस्पर भावयन्तः, बहुजनहिताय -बहुजन सुखाये- इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (सिनेमा के पर्दे पर महाभारत या फिल्म शोले के जैसा स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या? 

२. इस मूर्खता को छोड़कर, देवदुर्लभ मानव शरीर एवं दृष्टिगोचर जगत का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !

[#जगत सत्य है या मिथ्या ? इसी मूर्खतापूर्ण प्रश्न को लेकर जीवन भर सिर खपाते रहने से लाभ क्या और हानी क्या? इस मूर्खता को छोड़कर, दृष्टिगोचर जगत और देवदुर्लभ मानव शरीर दोनों का सर्वोत्तम उपयोग करने से (प्रवृत्ति से निवृत्ति में स्थित हो जाने से) मनुष्य जीवन का उद्देश्य- (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !]

३. " हर कोई आचार्य (देव) या 'गुरु' नहीं हो सकता, (teacher of mankind-मानवजाति का मार्गदर्शक नेता नहीं हो सकता), किन्तु मुक्त बहुत से लोग हो सकते हैं। मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

 [# मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य देव को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा (=मंत्र-दीक्षा ?? श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय मंत्रदीक्षा भी देते थे, आसुतोष मुखोपाध्याय नहीं ले सके थे !!!) किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

निम्नलिखित पंक्तियों में सन्त रैदास जी भक्त और भगवान के बीच के संबंध का वर्णन करते हुए कहते हैं - 

प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती। 

प्रभु जी तुम मोती, हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा ॥

भाव स्पष्टीकरण : भगवान और भक्त के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए रैदास जी कहते हैं कि भगवान के बिना भक्त का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु जी यदि दीप हैं तो भक्त वर्तिका के समान है। दोनों मिलकर प्रकाश फैलाते हैं। प्रभु जी यदि मोती हैं तो भक्त धागा है, दोनों मिलकर सुंदर हार बन जाते हैं। दोनों का मिलन सोने पे सुहागे के समान है। दास्य भक्ति, शरणागत तत्व भी इसमें दर्शाया गया है। वे (रैदास) प्रभुजी को स्वामी मानते हैं और अपने को उनका दास या सेवक मानते हैं। विशेष : दास्य भक्ति की पराकाष्ठा इसमें है।

प्रसंग : 'भक्तियोग के आचार्य' (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) श्रीरामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी ! ३/२६१ :  ON BHAKTI-YOGA/Volume- 5-page -265/ 

संन्यासी और गृहस्थ

(खण्ड  ३ : १८५) 

The Sanyasin and the Householder

(5: 260-61)

" धनवानों का आदरसत्कार करना और आश्रय (support : भरण-पोषण) के लिये उनका मुँह जोहना यह हमारे देश के सभी संन्यासी सम्प्रदायों के लिये अभिशाप स्वरुप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना चाहिए और इससे बिल्कुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वैश्याओं के लिये ही उचित है, न कि संसार-त्यागी संन्यासी के लिये।  (जो प्रवृत्ति से होकर उसकी निस्सारता को समझकर निवृत्ति में स्थित आचार्य नहीं है, संसारी है -"How should a man immersed in Kâma-Kânchana (lust and greed) become a devotee of one whose central ideal is the renunciation of Kama-Kanchana? ")  

 कामिनी-कांचन (lust and greed) में डूबा व्यक्ति उस 'व्यक्ति' का भक्त कैसे हो सकता है, जिनके जीवन का मुख्य आदर्श कामिनी -कांचन का त्याग है ?   श्री रामकृष्ण तो रो रोकर जगन्माता से प्रार्थना किया करते थे , "माँ, मेरे पास बात करने के लिए एक तो ऐसा भेज दो, जिसमें काम -कांचन का लेश मात्र भी न हो। संसारी लोगों से बातचित करने में मेरा मुँह जलने लगता है। " वे यह भी कहते थे - " मुझे अपवित्र और विषयी लोगों का स्पर्श तक सहन नहीं होता। "  त्यागियों के बादशाह (That King of Sannyasins) यतिराज श्रीरामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार विषयी लोगों के द्वारा कभी नहीं हो सकता। ऐसे लोग (विषयों में 3'K' में घोर रूप से आसक्त भोगी गृहस्थ) कभी भी पूर्ण रूप में सच्चे नहीं हो सकते; क्योंकि उनके कार्यों में कुछ न कुछ स्वार्थ (तीनों ऐषणाओं में कोई एक ऐषणा) रहता ही है। "The latter can never be perfectly sincere; for he cannot but have some selfish motives to serve." 

   " यदि स्वयं भगवान (श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीरामकृष्ण ?) भी गृहस्थ (संसारी) के रूप में अवतीर्ण हों, तो मैं उसे भी सच्चा न समझूँ। जब कोई गृहस्थ (संसारी -कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति) किसी धार्मिक सम्प्रदाय के 'नेता-पद' [जेनरल -सेक्रेटरी] पर प्रतिष्ठित हो जाता है, तो वह आदर्श (ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये,  सत्चित् - सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिने।) की ओट में अपना ही स्वार्थ-साधन करने लगता है। और फल यह होता है कि वह सम्प्रदाय बिल्कुल सड़ जाता है। गृहस्थों के नेतृत्व में सभी धार्मिक आन्दोलनों का यही नसीब हुआ है। त्याग (और सेवा) के बिना धर्म खड़ा ही नहीं रह सकता। " (३/१८५)

[If Bhagavân (God) incarnates Himself as a householder, I can never believe Him to be sincere. When a householder takes the position of the leader of a religious sect, he begins to serve his own interests in the name of principle, hiding the former in the garb of the latter, and the result is the sect becomes rotten to the core. All religious movements headed by householders have shared the same fate. Without renunciation religion can never stand." (5:261)] 

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' विवेकानन्द - वचनामृत '

१२. 

🔱🕊 🏹 🙋 विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है "🔱🕊 🏹 🙋 

"The task before us"

देहोSयं वदति व्यासः परुषस्याखिलार्थदः।

लब्धव्यं प्राक् बलं देहे ततः परं मनोबलम्॥ (१२)  


1. This body, says Vyasa (Bhagavata, 9.9.28(24) fulfills all desires of man. 

2. But 'If there is no strength in body and mind the atman cannot be realized.    first you have to build the body-then only the mind be strong.'

3.  ' All power is within you , you can do anything and everything.'

१.  व्यासदेव जी श्रीमद्भागवत-महापुराण  ९.२८ में कहते हैं - 

    देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।

         तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥

राजन् ! यह मनुष्य शरीर ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये हे वीर ! इस शरीर को (दुर्बल बना लेना) नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है। 

२. "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य :--'दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने कोई भी, अपने ह्रदय में इस आत्मा की उपस्थिती का अनुभव नहीं कर सकता। पहले व्यायाम और पौष्टिक भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है।"(६.९३)

३.  आत्मश्रद्धा - आत्मविश्वास : 

'All power is within you, you can do anything and everything.' 

 " समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है, तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो। इस बात पर विश्वास करो, यह मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। आजकल हम में से अधिकांश जैसे अपने को अधपागल समझते हैं, तुम अपने को वैसा मत समझो। इतना ही नहीं, तुम किसी भी काम को बिना किसी के मार्गदर्शन के, अकेले ही करने में सक्षम हो । तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। कमर कस लो, और तुममें जो Inherent Divinity है, जो अंतर्निहित दिव्यता है, जो देवत्व छिपा हुआ है, उसे प्रकट करो !

हमारे शास्त्रों में बार बार कहा गया है कि बाह्य-इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा धर्म कभी प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया।  

हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे ! यदि तुम अपने को महापुरुष समझोगे तो कल ही तुम महापुरुष हो जाओगे। तुम्हें रोक सके-ज़माने में इतना दम नहीं ! और जितनी शीघ्रता से इस सिद्धान्त में श्रद्धा और विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा! " [ सन्दर्भ "The task before us"  -" विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है !"  'कोलम्बो से अल्मोड़ा तक- व्याख्यान' पुस्तक के कामट्रिप्लिकेन लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास में दिया गया भाषण। ५/१७८: ]  

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गुरुवार, 21 नवंबर 2024

🔱🕊 🏹 🙋 ' विवेकानन्द दर्शनम् का सारांश ' (1-8) [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा 26 संस्कृत श्लोकों में रचित और स्वामी विवेकानन्द के कोटेशन द्वारा अंग्रजी में दी हुई व्याख्या का झुमरीतिलैया महामण्डल द्वारा हिन्दी में अनुवाद की हुई महामण्डल पुस्तिका। ]


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |

वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||

नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |

सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||

सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||

सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर व्याख्या -

श्री रामकृष्ण वचनामृत : " मेरी माँ (जगन्माता भवतारिणी काली ) ने कह दिया है कि वही वेदान्त का ब्रह्म है। जीव के 'कच्चे मैं' (मिथ्या अहं) को पूरी तरह नष्ट कर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। माँ की इच्छा हुई तो तुम या तो विचारमार्ग से ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो , या फिर उसी ज्ञान को भक्तिमार्ग से भी प्राप्त कर सकते हो। 

भक्तिमार्ग ही सार है -ज्ञानभक्ति के लिए व्याकुल होकर निरंतर प्रार्थना करना , माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो कि यदि तुम हृदय से पुकारोगे तो माँ अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगी -तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर यदि तुम उसके निर्गुणनिराकर स्वरुप का दर्शन करना चाहते हो तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्तिरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधि में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो।  

पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है। तुम आँख मूँदकर स्वयं को समझते हुए बार बार का सकते हो कि 'कांटा नहीं है , कांटा नहीं है। ' पर ज्योंही तुम कांटे को हाथ लगते हो त्योंही वह तुम्हें चुभ जाता है , और तुम दर्द से उफ़ करके हाथ खींच लेते हो। तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , पुण्य नहीं , शोक नहीं दुःख नहीं ; क्षुधा नहीं, तृष्णा नहीं ; तुम जन्मरहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा  हो , परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है , ज्योंही मन संसार में काम-कांचन के आपात सुख के भुलावे पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है , त्यों ही मोह , यातना , दुःख आ खड़े होते हैं।  और वे तुम्हारे सारे विवेक-प्रयोग शक्ति को आच्छादित कर, स्वयं देहधारी समझने के बदले  देहध्यास  तुम्हें बेचैन कर देते हैं। 

इसलिए यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना , माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता , दुःख-कष्टों का अंत नहीं होता। सुना नहीं दुर्गासप्तशती में कहा है , 

"सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये *

  (दु.स.श. 1./53---58)

जब तक महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाताज्योंही महामाया की कृपा होती है , त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं ; और वह समस्त दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ नहीं होता। ऐसा कहते हैं कि अजवायन का एक दाना चावल के सौ दानों को पचा डालता है। पर जब पेट की बीमारी होती है तब सौ अजवायन के दाने भी एक चावल के दाने को हजम नहीं करा सकते। यह भी ऐसा ही जानना।  

ज्ञान-योगी निर्गुण , निराकार , निर्विशेष ब्रह्म को जानना चाहता है। परन्तु इस युग के लिए भक्तियोग ही सहज मार्ग है। भक्तिभाव से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए , उनके पूर्ण शरणागत होना चाहिए। भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं। साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुणसाकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं , भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं , और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। अगर कोई किसी तरह एक बार कलकत्ता आ पहुँचे तो उसे वहाँ के प्रसिद्द किले का मैदान , मानुमेंट , अजायबघर सभी कुछ दिख सकता है। अहंकार के आसन्न मृत्यु के क्षणों में भी परहित के लिए प्राणों को न्योछावर करने का साहस करते ही भावसमाधि में रूपदर्शन  (साक्षात् माँ सारदा देवी  के रूप दर्शन ? 1987 बेलघड़िया) और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरूप की अनुभूति (1992 -ऊँच, बनारस ??)] 

अद्वैत ज्ञान श्रेष्ठ है (वेदान्त का Oneness और Inherent Divinity की अनुभूति श्रेष्ठ है) परन्तु शुरू में ईश्वर की आराधना सेव्य -सेवक भाव से , उपास्य-उपासक भाव से  करनी चाहिए। यह सबसे सहज पथ है , इसी से आगे चलकर अद्वैत ज्ञान  सरलता से प्राप्त होता है। 

साधारणतया भक्त ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता। वह ईश्वर के साकार रूप के दर्शन करना चाहता हैं -जगज्जननी काली या श्रीकृष्ण, श्रीचैतन्य आदि अवतारों के रूप ही उसे अच्छे लगते हैं। वह नहीं चाहता कि समाधि मैं-पन (मिथ्या अहं) का पूर्ण नाश हो जाये। वह इतना मैं-पन (दासस्य दासोऽहं) बनाये रखना चाहता है , जिसके द्वारा वह भगवान के साकार रूप के दर्शन [शिवज्ञान से जीवसेवा 'Be and Make' आन्दोलन] का आनंद लूट सके। वह चीनी खाना चाहता है , स्वयं चीनी बनना नहीं चाहता। 

 शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि जगत जननी समझता है, अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह - चाहे अमजद डकैत हो या स्वामी सारदानन्द जी' उनके सभी भक्त सदैव निर्भय रहते  हैं; क्योंकि माँ श्री सारदा सभी की माँ हैं !  क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों का मायारूपी अन्धकार (पंचक्लेश) स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं ]

(संकलन साभार / स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

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महामण्डल पुस्तिका विवेकानन्द दर्शनम् (1-8) का सारांश

श्लोक -१.

यह जगत क्या है; और ऐसा  वैषम्य पूर्ण जगत रचना का उद्देश्य क्या है ?

नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् | 

एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते || (1) 

' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.

 " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"----और वह उद्येश्य क्या है ?

श्लोक -२.

 🏹मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है ! 🏹

 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |  

पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् || 

2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'

२.अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (100 % निःस्वार्थपरता अविरोध आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !

श्लोक :३

[Oneness of Existence and Inherent Divinity]

'मानव जाति के 'अस्तित्व की एकता और अंतर्निहित दिव्यता '

[का पता बता दो, जगत उसे सुनने को बाध्य है !) 

आदर्शस्य वर्णनञ्च् कियत् शब्दैः तु शक्यते-  

ब्रह्मत्वञ्च् मनुष्याणामाचारे तत् प्रकाशनम्॥ 3  

 " My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their Inherent Divinity, and how to make it manifest in every movement of life."

मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना ।

श्लोक-४.

 🏹भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो 🏹

 अन्नदानं वरं मन्ये विद्यादानं ततः परम् - 

 ज्ञानदानं सदा श्रेष्ठं ज्ञानेन हि विमुच्यते॥ ४।।  

 1.  'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.'

2. 'only knowledge can make you free.

१.  ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !'

अतएव - " भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जायेंगे।  आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual Knowledge) का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है।  इसके बाद है लौकिक ज्ञान (Secular Knowledgeका दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिये हमारी आँखें खोल देता है।  इसके बाद अत है जीवन-दान, और चौथा है अन्न दान।" (३:२६०)  

२. " कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (आत्मज्ञान) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।"

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श्लोक :५ 

🔱अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (दिव्यता) को अभिव्यक्त करो 🔱 

 ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये - 

समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥ ५।। 

'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable.

 कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।

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श्लोक :६

युवावस्था से ही धर्मशील, चरित्रवान मनुष्य बनो और व्यभिचार से बचो !  

ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना - 

युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥ ६।।  

1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)

2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.'

3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character.

१. वेदों में कहा गया है - " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः " अर्थात जो चरित्रबल के अतिशय उत्साह और साहस से सर्वस्मिन्काले (सदा) भरा रहे उसे देवतुल्य 'युवा' (यविष्ठ) कहते हैं! "

२. जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील (चरित्रवान-विवेकी) मनुष्य बनना चाहिये। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?

३.  युवाओं के लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। पूर्ण नीतिपरायण अर्थात 'कामिनी -कांचन' में अनासक्त तथा साहसी बनो, सद्गुण एवं धार्मिकता ही मनुष्य के चरित्र को अलंकृत करते हैं।  युवा अवस्था से ही धर्मपरायण होना चाहिए, व्यभिचार, चोरी, झूठ, नशा अदि से बचना चाहिए क्योंकि धर्मनिष्ठा सदाचार का आभूषण है।

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श्लोक:७

  (Para-Bhakti or Supreme Devotion:परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति) 

तुम नश्वर देह नहीं , मनुष्य-देहधारी अविनाशी आत्मा हो  !

जीवः शिव इति ज्ञानं नरो नारायणो ध्रुवम् -

 जीवसेवा परो धर्मः परोपकृतये वयम् ।। ७।।  

1. Every being is God (Shiva) --this is true knowledge; ' man is the greatest of all beings.'

2. ' There is no greater Dharma than this service of living beings.'

3.  ' Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.'

१. प्रत्येक जीव ईश्वर (शिव) है --यही सच्चा ज्ञान है; " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! "

२.  ' जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'

३. " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"

[प्रसंग -समष्टि की माँ ' डकैत, हत्यारा अमजद और स्वामी सारदानन्द - दोनों की माँ !! जगत-जननी माँ श्रीश्री सारदा देवी से प्रेम किये बिना हम किसी ईर्ष्यालु ,हत्यारे , व्यभिचारी भाई से प्रेम कैसे कर सकते हैं ? परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति " विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय" (४/५६) : (Universal Love and How It Leads to Self-Surrender): "How can we love the Vyashti  the particular, without first loving the Samashti, the universal (Mother)?" Volume 3 Page 81/ Para-Bhakti or Supreme Devotion/  ] 

समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से कैसे प्रेम कर सकते हैं ? भक्त उस एक सर्वव्यापी पुरुष (अवतार वरिष्ठ-माँ काली) की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिससे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के बाद दूसरे व्यक्ति (हत्यारा ,डकैत -साधु या शरीर M/F) से प्रेम करते चले जाओ , तो भी अनन्त समय तक संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम की समष्टि ईश्वर है, संसार के बद्ध, मुमुक्षु , मुक्त या नित्यमुक्त सारे जीवात्माओं की आदर्श-समष्टि ही ईश्वर है, तभी यह विश्वप्रेम सम्भव होता है। ईश्वर ही समष्टि है और यह दृष्टिगोचर जगत उसीका परिच्छिन्न भाव है - उसीकी अभिव्यक्ति है। यदि हम इस समष्टि को प्यार करें, तो इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत को प्यार करना और उसका कल्याण करना सहज हो जाता है। किन्तु, पहले भगवत्प्रेम के द्वारा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी-या उनके दासों के दास की भक्ति के द्वारा) हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी, अन्यथा संसार की भलाई करना कोई हँसी -खेल नहीं है। (महामण्डल का कर्मी बनना , विश्व का कल्याण करना - युवाओं को चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' Be and Make ' की शिक्षा देना कोई हँसीखेल नहीं है।) भक्त कहता है , " सब कुछ उसीका है, वह मेरा प्रियतम है, मैं उससे प्रेम करता हूँ। "इस प्रकार भक्त को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि सभी >उसीकी सन्तान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसके रूप हैं। तब फिर हम किसीको कैसे चोट पहुँचा सकते हैं? दूसरों को बिना प्यार किये हम कैसे रह सकते हैं ? (>>>अमजद डकैत और स्वामी सारदानन्द दोनों माँ तारा -श्री सारदा देवी की सन्तान हैं !) जब जीवात्मा  इस परम प्रेमानन्द को आत्मसात करने में सफल होती है (परमात्मा बुद्धिगम्य नहीं, आत्मगम्य हैं ! जानकर भी जीवित बच जाती है !???), तब वह ईश्वर को सर्वभूतों में देखने लगती है। इस प्रकार  [विवेक-दर्शन के अभ्यास से विवेक-स्रोत उद्घाटित होते ही] हमारा ह्रदय प्रेम का एक अनन्त श्रोत (Love -Dynamo) बन जाता है। तब मनुष्य मनुष्य के रूप में नहीं दीखता , वरन साक्षात् ईश्वर के रूप में ही दीख पड़ता है ; ऐसे प्रेमी की आँखों से बाघ का भी बाघ-रूप लुप्त हो जाता है और उसमें स्वयं भगवान प्रकाश-मान दिख पड़ता है। इस प्रकार भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिए उपास्य हो जाते हैं। — "Knowing that Hari, the Lord, is in every being, the wise have thus to manifest unswerving love towards all beings."

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी। 

कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥

'हरि को या नारायण को सब भूतों में अवस्थित देखकर ज्ञानी को सब प्राणियों के प्रति अव्यव्य-भिचारिणी भक्ति रखनी चाहिए। इस प्रगाढ़, सर्वग्राही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रों में इसीको अप्रातिकुल्य (Aprâtikulya.-अविरोध) कहा जाता है।   

जहाँ पहुँचकर गम और ख़ुशी का फर्क महसूस ही नहीं होता, तो वह शिकायत किस बात की करे ? शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे अनन्य प्रेमी के जीवन में जब कोई दुःख आता है, तो कहता है - " दुःख ! स्वागत है तुम्हारा।" यदि सर्प आये तो कहेगा," विराजो, सर्प!" यहाँ तक कि मृत्यु भी आये, तो वह अपने अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत करेगा। हम शेर से अपनी शरीर की रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें ? यह प्रेम-धर्म की वह चोटी है, सिर को चकरा देनेवाली ऐसी ऊँचाई है, जिस पर बहुत थोड़े से लोग ही चढ़ पाते हैं। हम अपने इस शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक भले ही बनाये रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others. धन्य हैं वे जो अपने जीवन को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं ! (४/५८) 

इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर नीच कार्य की अपेक्षा भारत कल्याण में ही अर्पित हो जाये। ' हम भले ही अपने जीवन को 76- 84-100 वर्ष तक खींच ले जायें, पर उसके बाद ? उसके बाद क्या होता है ? ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विघटित होना पड़ता है। ईसा, बुद्ध और मुहम्मद सभी दिवंगत हो गए। संसार के महापुरुष और आचार्यगण (नवनीदा के पितामह आचार्यदेव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय) आज इस धरती से उठ गए हैं। 

भक्त कहता है, इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े-टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है , हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए। और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाये। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हमारा/(दूसरों का ? यह काला या गोरा)यह शरीर ही हम हैं और जिस प्रकार से हो, इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। यह भयानक देहात्मबुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता जड़ है।  यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको कि तुम शरीर से बिल्कुल पृथक हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायेगा , जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। [तुम अविरोध में प्रतिष्ठित हो जाओगे। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता से अतीत हो जाओगे।- यही सच्ची शरणागति है - 'जो होने का है, हो। यही 'तेरी इच्छा पूर्ण हो ' का तात्पर्य है। ४/५९

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श्लोक :८

" श्रीरामकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था !

उत्तिष्ठत चरैवेति गुणान् तामसिकान् जहि । 

जातश्चेत्  प्रेहि संसारात् त्वक्त्वा चिह्नमनूत्तमम् ॥ ८ 

1.  ' Arise ! Awake ! and stop not till the goal is reached !'

2.  ' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities.

3.  ' As you have come into this world, leave some mark behind.'


१. ' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ।'

२. ' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।'

३. ' काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा।'

प्रसंग- [१. कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर:५: २०३/ २. ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र/३. (From the Diary of a disciple २३ / बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ]   

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