बुधवार, 14 अगस्त 2013

" संगच्छध्वं संवदध्वं " राष्ट्रीय एकता और स्वामी विवेकानन्द {National unity and Swami Vivekananda} sarisa camp 29.12.2005


'चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है।'  
'ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी' के अनुसार " Nation" (राष्ट्र) की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है- ‘एक विशाल व्यक्ति–समूह, जिसकी भाषिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएं एक हों, तथा जो एक सरकार के अधीन हो, ‘राष्ट्र’ के अंतर्गत आता है।’ ‘ब्रिटानिका रेडी रिफरेंस इनसाइक्लोपीडिया’ में राष्ट्र (Nation) शब्द का अर्थ इस प्रकार है– ऐसे लोगों का समूह जिनकी साझा पहचान उनके अंदर एक मनोवैज्ञानिक बोध और राजनीतिक इकाई का निर्माण करती है।
'ऑक्सफोर्ड डिक्सनरी' में ही 'National' (राष्ट्रीय) शब्द को परिभाषित करते हुए कहा गया है- " relating to or characteristic of a nation; common to a whole nation:this policy may have been in the national interest." - अर्थात किसी राष्ट्र या कौम से सम्बद्ध कोई विशेषता जो किसी एक पूरे देश या जाति के हित में सामान्य रूप अपनाई जाती हो। उदहारण के लिये - राष्ट्रिय विदेश नीति, राष्ट्रिय वेश-भूषा (नेशनल ड्रेस), राष्ट्रिय सम्पत्ति, राष्ट्रिय ध्वज, राष्ट्र-गान, राष्ट्रिय चरित्र आदि; इस दृष्टि से National का पर्यायवाची शब्द है- कौमी, जातीय, राष्ट्रीय, सर्व साधारण का या  सारे देश का।
१५ अगस्त १९४७ को जो भारतवर्ष को तीन टुकड़ों में बाँट कर जो राष्ट्र गठित हुआ था, उसके पहले क्या भारत का अस्तित्व नहीं था ? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है ! -एक लंबी अवधि तक भारत एक राष्ट्र न होकर बहुत से राज्यों के रूप में था। वैदिक कालीन भारतवर्ष की सभ्यता, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था बहुत उन्नत अवस्था में थी। यहाँ गणतन्त्र भी प्रतिष्ठित था। कृषि, विज्ञान, गणित, चिकित्सा, शिल्प हर क्षेत्र में भारतवर्ष एक उन्नत राष्ट्र था।  भौतिक से रूप से उन्नत होने के साथ साथ भारतीय लोगों की आध्यात्मिक जिज्ञाषा भी जाग्रत हुई. 
भारतीय वाङ्मय में सम्पूर्ण भारत की कल्पना एक ऐसे राष्ट्र के रूप में की गयी है, जिसका भू–खंड भारत और इसमें रहनेवाली जनता भारतीय है–
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
 वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संततिः। 
आदिकाव्य ‘रामायण’ में भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक स्वरूप को ‘राष्ट्र’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है. श्रीराम के मुख से आदिकवि वाल्मीकि की पंक्तियां हैं–
नेयं स्वर्णपुरी लंका रोचते मम् लक्ष्मणः। 
जननी–जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। 
भारतीय राष्ट्रीय चेतना के सम्यक् स्वरूप के साक्षात्कार हेतु ‘अथर्ववेद’ के ‘भूमिसूक्त’ का अध्ययन–अनुशीलन भी सहायक है। भूमिसूक्त’ भारत–भूमि की विशालता और उसके नानाविध प्राकृतिक वैभव का विराट गौरवान्वयन है। इसमें हमारी मातृभूमि की गरिमा का अभिज्ञापन है। राष्ट्रीय चेतना के आधारभूत तत्त्व–देशप्रेम और जन्मभूमि के प्रति रागात्मक संवेदन का बड़े उदात्त शब्दों में प्रकटीकरण है. इसी ‘भूमि सूक्त’ के आधार पर डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने ‘दि फंडामेंटल यूनिटी ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक में भारत की राष्ट्रीय चेतना को पश्चिम से आयातित मानने की अवधारणा को सतर्क खंडित किया है. इस भूमि-सूक्त के एक मंत्र में  कहा गया है –
‘सानो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः। ’ 
 'सा नः भूमिः मे पयः विसृजताम् माता पुत्राय' -अर्थात यह भूमि हमारी माता है, हम इसके पुत्र–जो जन इस सम्बंध का अनुभव करता है, उसी के लिए माता दूध (कल्याण) का विसर्जन करती है।  
इसी आधार पर भारतीय विद्वानों ने भी ‘राष्ट्र’ शब्द को परिभाषित किया है। डॉ. सुधींद्र के अनुसार, ‘भूमि, भूमिवासी जन और जन–संस्कृति; इन तीनों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। ’‘भूमि’- अर्थात भौगोलिक एकता, ‘जन’- अर्थात जनगण की राजनीतिक एकता, ‘जन–संस्कृति’ अर्थात सांस्कृतिक एकता–तीनों के समुच्चय का नाम ‘राष्ट्र’ है। आगे वे पुनः लिखते हैं– ‘भूमि उसका (राष्ट्र का) कलेवर है, जन उसका प्राण है और संस्कृति उसका मानस है.’ श्री वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘राष्ट्र’ शब्द को अर्थित करते हुए लिखा है– ‘राष्ट्र का सम्मिलित अर्थ पृथ्वी, उसपर रहनेवाली जनता और उस जनता की संस्कृति है.’ राष्ट्र को परिभाषित करते हुए रविन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था - " वैसे लोगों के समूह को राष्ट्र कहते हैं, जो विभिन्न प्रकार के रंग-रूप, भाषा, और वेश-भूषा में रहते हुए भी आपसी समानता और भाईचारा के बुनियाद पर एक एक साथ सुख-शांति पूर्वक निवास करते हैं। " सारतः ‘राष्ट्र’ शब्द का सम्मिलित अर्थ है- पृथ्वी, उस पर बसनेवाली जनता और जन-संस्कृति. जब ये तीनों स्वर एकमेक होते हैं, तब ‘राष्ट्र’ का जन्म होता है.
क्या इस परिवर्तनशील जगत के पीछे क्या कोई अपरिवर्तनशील सत्ता भी है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? जिस प्रकार आज के पाश्चात्य वैज्ञानिक वाह्य जगत में ब्रह्माण्ड की रचना के रहस्यों को खोजने में लगे हुए हैं, उसी प्रकार भारत ने भी इन प्रश्नों के उत्तर वाह्य जगत में ही खोजने की चेष्टा की थी. किन्तु कुछ धीर मनुष्यों (ऋषियों) ने नेत्रों को अंतर्मुखी बना कर अपने ही अन्तर्जगत में स्थित शाश्वत चैतन्य सत्ता का आविष्कार किया और सिद्धान्त दिया कि 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे” अर्थात जिन पंचमहाभूतों से पूर्ण ब्रह्मांड संरचित है उन्हीं तत्वों से हमारा शरीर निर्मित है, तथा जो सत्ता हमारे शरीर को चला रही है, वही चैतन्य सत्ता वाह्य जगत के पीछे रहकर उसे भी चला रही है ! सबसे पहले यह सत्य भारत में ही आविष्कृत हुआ था कि एक ही ब्रह्म इस विश्व-ब्रह्माण्ड के पीछे अवस्थित हैं. इसलिये अनासक्ति के साथ इसका उपभोग करो, किसी दूसरे के धन की आकांक्षा मत करो. तुम केवल मरण धर्म शरीर ही नहीं हो. तुम तो अमृत के पुत्र हो, तुम मृत्यु को भी जीत सकते हो।  
भारत का यही ज्ञान हजारों वर्षों से राष्ट्रीय एकता को अखण्ड बनाये हुए थी. बहु-भाषीय, बहु-जातीय, बहु-धर्मीय व्यवस्था के बावजूद भारत -ऋग्वेद के ऋषियों के द्वारा आविष्कृत सत्य  - ' एकम सत विप्राः बहुधा वदन्ति!' हमारी राष्ट्रिय अखण्डता को अक्षुण बनाये हुए थी.  इसी सिद्धान्त- ' सत्य तो एक ही है ! बुद्धिमान लोग उसका वर्णन अनेक प्रकार से करते हैं' को आधार मान कर भारत के लोग आपस में मिल-जुल कर रहते आ रहे थे. किन्तु बाद में पुरोहितों ने अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये साधारण जनता को आध्यात्मिकता या तात्विक-दर्शन से वंचित करने के लिये केवल कर्म-काण्ड द्वारा पूजा अनुष्ठान को ही धर्म कहकर प्रचारित कर दिया। धर्म के दुर्बल हो जाने से ही राष्ट्रीय एकता खण्डित हो गयी और मुट्ठीभर विदेशी आक्रमण कारियों से पराजित होकर भारत पराधीन हो गया.
ऐसे भी समय आये जब इस उपमहाद्वीप का बहुत बड़ा भाग एक साम्राज्य के अधीन रहा; इस बार अनेक बार विदेशियों ने हमले किये। उनमें से कुछ यहाँ बस गये और भारतीय हो गये; और राजा या सम्राट के रूप में शासन किया। कुछ ने देश को लूटा-खसोटा और धन संपत्ति बटोर कर वापस चले गये। महान उपलब्धियों के भी वक्त आये और देश को जड़ता और दुख के भी अनेक दौरों से गुजरना पड़ा। और जब हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं तब हमारा तात्पर्य भारतीय इतिहास के उस दौर से होता है जिसमें भारत पर अंग्रेजों का शासन था और यहां के लोग विदेशी आधिपत्य को समाप्त करके स्वाधीन हो जाना चाहते थे।  हिन्दू-मुस्लिम सैनिकों ने मिलकर लार्ड क्लाइव से पलासी युद्ध किया था, तब से हम हिन्दू-मुसलमान लोग अपने को भारतीय कौम और अंग्रेजों को विदेशी समझते हैं। 
स्वामीजी ने ऋग्वेद के दसवें मण्डल का अंतिम सूक्त को उद्धरित करते हुए कहा था " एकचित्त हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है।भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिये राष्ट्रीय एकता आवश्यक है।  स्वतंत्र सामाजिक चेतना ही राष्ट्रीयता में परिणत हो जाती है।  राष्ट्र के समस्त नागरिकों की भाषागत, वंशगत, धर्मगत एकात्मकता ही राष्ट्रीय एकता के प्रमुख अवयव हैं। इसीलिये महामण्डल का संघगीत है -
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। 
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते || 
ईश्वर हमें उपदेश दे रहे हैं कि जीवन में मिल कर रहना, संगठित होकर काम करना ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। हम मिलकर चलें, एक सी ही बात कहें और हमारे सोचने विचारने में समानता हो, तभी हमारा काम ठीक होता है, काम में सफलता मिलती है अन्यथा हम लक्ष्य से कोसो दूर अपनी अपनी डफली अपना अपना राग अलापते रह जाते हैं। हम अपना स्वार्थ साधते रहते हैं और लड़ाइयां होती रहती हैं। यह समय की पुकार है कि हम मिल कर रहें। मिलकर चलें, मिलकर बोलें और समानरूप से सोचे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल का अंतिम सूक्त है यह संगठन सूक्त। यह मंत्र उस सूक्त का एक भाग है। निश्चित रूप से अंत में कही गई बात पूरी बात का सार होती है। 
तुम समान ज्ञान प्राप्त करो, अर्थात शिक्षापद्धति में कोई भेदभाव न हो, क्योंकि शिक्षार्थी ज्ञान तो अपनी योग्यता  तथा क्षमता के अनुसार अलग अलग प्राप्त करेंगे। समानता से एक दूसरे के साथ संबंध जोड़ो, समता भाव से मिल जाओ। तुम्हारे मन समान संस्कारों से युक्त हों। कभी एक दूसरे के साथ हीनता का भाव न रखो। जैसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ लोक के समय ज्ञानी लोग अपना कर्तव्य पालन करते रहे, वैसे तुम भी अपना कर्तव्य पूरा करो। समानता की अवधारणा कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई छोटा और बड़ा नहीं होता, सब बराबर हैं। छोटे और बड़े तो अपने कर्मों के अनुसार होते ही‌ हैं। किन्तु समानता का अर्थ है कि बिना  पक्षपात के, सब के साथ उनकी‌ क्षमता, योग्यता तथा उनकी आवश्यकताओं के अनुसार व्यवहार करना। 
मंत्र में बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से उपदेश दिया गया है। हमारा चलना दिखाई देता है, बोलना सुनाई देता है – पर इन सब का आधार मन ही है ! मन सूक्ष्म है,वह दिखाई नही देता किन्तु, एक साथ अनुशासन बद्ध होकर बोलने और कदम से कदम मिलाकर चलने की प्रेरणा देने वाला तो मन ही है ! वशीभूत मन ही इस पर नियंत्रण रखता है कि हम साथ चलें और एक सा बोलें। सैनिको के कदम-ताल चलने में क्यों अधिक बल रहता है क्योंकि अभ्यास कराते समय बोलते भी हैं दाएं-बाएं या लेफ्ट-राईट-लेफ्ट-राईट-लेफ्ट। अनपढ़ को भी सिखाते हैं - बायाँ हाथ में घाँस-दायाँ में माटी, बोलो 'घाँस-माटी-घाँस-माटी-घाँस।  तो इस तरह पैरो को उठाना, मुख से बोलना और मन की प्रेरणा यह सब एक ही उद्देश्य के लिए काम करते हैं इसलिए शक्ति का प्रतीक बन जाते हैं। 
आज समाज की, देश की स्थिति इससे विपरीत चल रही है। हमें पता है कि संगठन में शक्ति है – ' संघे शक्ति कलौयुगे'। परंतु आज नेतृत्व ऐसे लोगो के पास है जो जनता (या संगठन) को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, भाषा के नाम पर प्रांत के नाम पर बांट रहे हैं। 'नेताओ का चुनाव' भी उनकी योग्यता के आधार पर नही होता जाति या घर्म के नाम पर होता है। अपने मानव समाज और उसकी व्यवस्था को एक मशीन की तरह मानें तो जैसे मशीन के हर पुर्ज़े का महत्व है, हर पुर्ज़े का अपना काम है। सब पुर्ज़े ठीक से अपना अपना काम कर रहे हैं तो मशीन ठीक से चलती रहती है यदि कोई एक छोटा सा पुर्ज़ा भी काम न करे तो मशीन रुक जाती है। 

इसी तरह मानव समाज या  संगठन ठीक से चलता रहे , मिलकर काम करें इसके लिए ईश्वर का आदेश है मिलकर चलो , मिलकर बोलो और एक ही तरह सोचो ताकि लक्ष्य की प्राप्ति हो सके। इस मिलकर चलने की प्रक्रिया में मनुष्य को अपना स्वार्थ छोड़ना होगा, पद का लालच और घमण्ड छोड़ना होगा। क्योंकि, ये विरोधी विचार हैं, नकारात्मक चिंतन को उपजाते हैं। हम सभी दीवार के कंगूरे नही बन सकते हैं किसी को नींव का पत्थर भी बनना है। और यह भी सत्य है, कि नींव के पत्थर की मज़बूती पर ही भवन की मज़बूती निर्भर करती है। 
समाज या संगठन में भी कोई काम छोटा या कोई बड़ा नहीं है। इसके लिए ज़रुरी है कि सब अपना काम सुव्यवस्थित ढंग से करते रहें। एक दूसरे की सहायता करते हुए आगे बढ़ते रहें। अंधे और लंगड़े का सहयोग भी अच्छा उदाहरण है। अंधा देख नहीं पाता, चल सकता है और लगड़ा देख पाता है चल नहीं सकता। अंधे ने लगड़े को अपने कंधे पर बैठाया । अंधा चल रहा था और लंगड़ा मार्ग दिखा रहा था। दोनों ही लक्ष्य तक पहुँच गए। ये कहानियां तो केवल उदाहरण है। सत्य तो यही है कि एक दूसरे की सहायता करते हुए मिलकर चलो। सारे सांसारिक सुख व सम्पत्तियाँ तुम्हारे लिए है।
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्। 
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ||


 तुम्हारे विचार समान हों अर्थात तुम्हारे लक्ष्य एक हों तथा उनके प्राप्त करने के लिये विचार भी एक समान हों। तुम्हारी सभा सबके लिए समान हो, अर्थात सभा में किसी के साथ पक्षपात न हो और सबको यथा योग्य सम्मान प्राप्त हो। तुम सबका संकल्प एक समान हो। तुम सबका चित्त एक समान-भाव से भरा हो। एक विचार होकर किसी भी कार्य में एक मन से लगो। इसीलिए तुम सबको समान छवि या मौलिक शक्ति मिली है। 

समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:|
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ||

 तुम सबका संकल्प एक जैसा हो। तुम्हारा हृदय समान हो, तुम्हारा मन समान हो। तुममें परस्पर मतभेद न हो। तुम्हारे मन के विचार भी समता युक्त हों। यदि तुमने इस प्रकार अपनी एकता और संगठन स्थापित की तो तुम यहां उत्तम रीति से आनंदपूर्वक रह सकते हो और कोई शत्रु तुम्हारे राष्ट्र को हानि नही पहुंचा सकता है।
अंग्रेजों ने कभी भी युद्ध करके भारत में किसी राज्य को नहीं जीता था वो हमेशा छल और साजिस से ये काम करते थे। अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने का अधिकार जहाँगीर ने 1618 में दिया था और 1618 से लेकर 1750 तक भारत के अधिकांश रजवाड़ों को अंग्रेजों ने छल से कब्जे में ले लिया था। बंगाल उनसे उस समय तक अछूता था। और उस समय बंगाल का नवाब था सिराजुदौला (१७३७-१७५७ ) । बहुत ही अच्छा शासक था, बहुत संस्कारवान था । उसने अंग्रेजों को व्यापार की इज़ाज़त कभी नहीं दी । अंग्रेजों ने कई बार बंगाल पर हमला किया लेकिन हमेशा हारे। 
भारत में ब्रितानी राज का प्रारंभ सन् 1757 से माना जा सकता है जब ब्रितानी ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पलासी- युद्ध में पराजित कर दिया था। अंग्रेजों के पास प्लासी के युद्ध के समय मात्र 300 सिपाही थे और सिराजुदौला के पास 18 हजार सिपाही । अंग्रेजी सेना का सेनापति था रोबर्ट क्लाइव और सिराजुदौला का सेनापति था मीरजाफर । रोबर्ट क्लाइव ये जानता था की आमने सामने का युद्ध हुआ तो एक घंटा भी नहीं लगेगा और हम युद्ध हार जायेंगे। रोबर्ट क्लाइव ने तब अपने दो जासूस लगाये और उनसे कहा की जा के पता लगाओ की सिराजुदौला के फ़ौज में कोई ऐसा आदमी है जिसे हम रिश्वत दे लालच दे और रिश्वत के लालच में अपने देश से गद्दारी कर सके । उसके जासूसों ने ये पता लगा के बताया की हाँ उसकी सेना का सेनापति ही ऐसा आदमी है जो रिश्वत के नाम पर बंगाल को बेच सकता है और अगर आप उसे कुर्सी का लालच दे तो वो बंगाल के सात पुश्तों को भी बेच सकता है। और वो आदमी था मीरजाफर, वह प्लासी के युद्ध में रोबर्ट क्लाइव के साथ मिल गया क्योकि रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफ़र को बंगाल का नवाब बनाने का लालच दे दिया था। आगे चलकर मीर जाफ़र का नाम भारतीय उपमहाद्वीप में 'देशद्रोही' व 'ग़द्दार' का पर्रयायवाची बन गया।  इस प्रकार जितने भूभाग पर ब्रिटिस राज स्थापित था उतने ही भूभाग को हमलोग भारत कहते हैं,
 किन्तु ब्रिटिश शासन काल में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के चका-चौन्ध या आडम्बरी जीवन को देखकर भारत चकित हो गया, और भारत का पढ़ा-लिखा अभिजात्य वर्ग अंग्रेजी सभ्यता का अन्धानुकरण करने लगा. और अंग्रेजों के कथनानुसार वेदों-उपनिषदों के ज्ञान को गड़ेड़ीयों का गीत समझकर अंग्रेजी शिक्षापद्धति में पले-बढ़े आधुनिक भारत ने अपनी आत्मश्रद्धा को ही खो दिया। सनातन धर्म को भूलकर ये लोग शराब, क्लब, नाच को ही सभ्यता समझ बैठे। भोगवादी सभ्यता को अपना लेने से आजाद भारत में प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा का बोलबाला हो गया.
आजाद भारत के नेताओं ने स्वामीजी के परामर्श -'पहले मनुष्य बनो और बनाओ ' पर कभी ध्यान नही दिया जिसके फलस्वरूप स्वामीजी का नया भारत गढ़ने का स्वप्न पूरा नहीं हुआ. भारत चावल-गेहूँ के उत्पादन में विश्व का दूसरा बड़ा राष्ट्र है. दुग्ध-उत्पादन में भारत विश्व में प्रथम स्थान रखता है. अन्तरिक्ष में उपग्रह को भेजने वाले क्रायोजेनिक इंजन का स्वदेश में निर्माण कर लिया गया है. फिर भी क्या कारण है कि आज भी भारत की ६० % आबादी गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन बिताने को मजबूर है ? शिक्षा का दर पुरुषों में ६० % और स्त्रियों में २७ % ही क्यों है ? एक ओर धनियों के लिये जहाँ बड़े बड़े महल हैं वहीं दरिद्रों की टूटी फूटी झोपड़ियाँ भी हैं. शिशु को पौष्टिक आहार नहीं मिलता है, एक ओर पाँचतारा सुविधा से युक्त हॉस्पिटल हैं, वहीँ बीमार होने पर  गरीबों को उचित उपचार की सुविधा भी नहीं है. 
इन्हीं  विरोधाभासों के कारण भारत की राष्ट्रीय एकता में बाधा पहुँचती है. भारत को छोटे छोटे टुकड़ों में बाँटने की साजिशें चलती रहती है. हमलोग मानवाधिकार को लेकर तो बहुत व्यस्त रहते हैं, किन्तु मनष्यों का कुछ कर्तव्य भी होता है, जिसका पालन करने से ही उसके अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं. उन कर्तव्यों को सूचीबद्ध करने की ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता ? कुछ स्वार्थी लोग अधिक भोग के लालच में सत्ता की कुर्सी पाने के लिये जिन राज्यों को बाँट कर उनकी संख्या में वृद्धि तो कर रहे हैं, किन्तु झारखण्ड आदि राज्यों में केवल कुर्सी-कुर्सी का खेल चल रहा है, आम जनता की  स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. जबकि स्वामीजी ने बहुत पहले ही कहा था -  
" याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनके खोये हुए व्यक्तित्व (individuality या आत्मश्रद्धा) उन्हें वापस दे सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता; कार्य-कौशल तथा पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा आध्यात्म-साधनाओं में कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही !
 (" Yes, We Can ! We Will Do !) तुम सबने इसीके लिये जन्म लिया है."
 उन्होंने कहा था -" जनसाधारण की उपेक्षा ही राष्ट्रीय-महापाप है ! उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें शिक्षित बनाने के लिये द्वारा द्वार तक घूमेगा? उसी को मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है, अन्यथा वह तो दुरात्मा है. जब तक करोड़ो देश-वासी भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ, परन्तु सत्ता की कुर्सी या सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। 
केवल स्वामीजी द्वारा निर्देशित 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' के बल पर ही भारत एक उन्नत राष्ट्र बन सकता है, तथा राष्ट्रिय एकता भी अखण्ड रह सकती है. स्वामीजी ने कहा था धर्म के दो पहलु हैं, एक उसका आनुष्ठानिक पक्ष है- जैसे पूजा और नमाज; दूसरा उसका अध्यात्मिक पक्ष है-'एक नूर से सब जग उपजा' इस सत्य को समझकर पृथ्वी के सभी संप्रदाय के लोगों से प्रेम और क्षमा का व्यवहार रखना। स्वामीजी का मानना था कि विश्व के सभी धर्म एक ही बात कहते हैं- " To do good and to be good ! this is whole of Religion. " धर्म वह वस्तु है, जो पशु-मानव  को मनुष्य में तथा मनुष्य को देवता में उन्नत करा देता है " धार्मिक मनुष्य का अर्थ है चरित्रवान, पवित्र जीवन और प्रेमपूर्ण ह्रदय वाला मनुष्य। विभिन्न जाति-संप्रदाय के मनुष्यों की पूजा या नमाज की पद्धतियों, बाहरी वेश-भूषा, आचार-अनुष्ठान में अंतर रहना बहुत स्वाभाविक है. यदि बगीचे में एक ही रंग के फूल खिले हों, तो शोभा नहीं होती, रंग-बिरंगे फूलों से ही बगीचे की शोभा बढती है। किसी शायर ने कहा है - चमन की शोभा फूलों के विविध रंग और खुशबू के मेल-जोल से बढ़ती है:  
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है। 
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं,  तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो। 
 (चमन = बगीचा), (इख़्तिलात = मेल-जोल),(इख़्तिलात-ए -रंग-ओ-बू = रंग और ख़ुशबू का मेल-जोल)
 किन्तु क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता का सहारा लेकर हिन्दू-मुसलमानों में झगड़ा कराने वाली एक पार्टी जिसकी स्थापना एक विदेशी ने भारत में अंग्रेजी राज्य को स्थायी बनाने के लिए किया था वह एक संप्रदाय-विशेष को अपना वोट-बैंक बनाने के लिये दंगे करवाती रहती है. इसीलिये श्रीरामकृष्ण ने ' सर्वधर्म समन्वय ' को स्थापित करते हुए कहा था -जितने मत उतने पथ ! जिस  किसी भी साधन-पद्धति (पूजा- नमाज ) को अपनाकर मनुष्य निःस्वार्थी बन जाता हो, वही धर्म है! क्योंकि स्वार्थी मनुष्य ही अशिक्षित और गरीब लोगों का शोषण करते हैं. इसीलिये चाहे हम किसी भी संप्रदाय में जन्म ग्रहण किये हों, निःस्वार्थी मनुष्य बनना ही हमारा प्रथम कर्तव्य है. स्वामीजी कहते थे, विभिन्न लेबल या ब्राण्ड से चिपके तथाकथित धार्मिक लोग जी ' त्रिपुण्ड और टोपी ' धारण करने को ही धर्म समझते हैं,और वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते वैसे ही क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले राजनितिक पार्टियाँ सत्ता की कुर्सी पाने के लिये धर्मों के बीच भाईचारे और सौहार्द को नष्ट कर देते हैं. जब मनुष्य " मेरा धर्म बड़ा है, नहीं तेरा धर्म नहीं- मेरा धर्म बड़ा है !"  कहकर आपस में झगड़ा करने लगता है तो वह निःस्वार्थी बनने के बजाये - राक्षस जैसा बन जाता है और शैतान की तरह उन्मादी आचरण करने लगता है, अगर क्षद्म-धर्मनिरपेक्षता की प्रतिमूर्ति दिगविजय सिंह के शब्दों में कहें तो - ' आदरणीय हफ़िज सईदजी ' जैसा बन जाता है जो २६/११ का मास्टर माइण्ड था.
 इसीलिये स्वामीजी ने कहा था, सम्पूर्ण भारत को आध्यात्मिकता या रूहानियत से प्लावित कर दिया जायेगा; जब सभी धर्म के लोग एक दुसरे की अनुष्ठानिक पद्धति पूजा-नमाज पर न झगड़ कर; समस्त धर्मों की सार बात निःस्वार्थपरता और प्रेम को जीवन में धारण कर लेंगे तो यह राष्ट्रिय एकता ही विश्व-शान्ति या वसुधैव कुटुम्बकम का रूप धारण कर लेगी।
स्वामीजी ने कहा था- अद्वैत-वेदान्त के सागर में विश्व के समस्त धर्म -'हिन्दू-मुसलमान-पारसी-सिख-ईसाई ' एक हो जाते हैं, वेदान्त की भूमि पर खड़े होकर देखने से वेद-कुरान और बाइबिल में कोई विरोध नजर नहीं आता है। उनहोंने कहा था कि सर्व-धर्म समन्वय की बुनियाद पर जो नया भारत बनेगा-उसका ह्रदय आध्यात्मिकता या रूहानियत जन्य प्रेम से परिपूर्ण होगा, उसका शरीर इस्लामिक भाईचारे द्वारा गठित और मस्तिष्क वेदान्त द्वारा गठित होगा। वेदान्तिक मस्तिष्क और इस्लामिक शरीर के साथ हृदय की रूहानियत या प्रेम को मिला देने से जब विभिन्न मतावलंबियों में अभेद भाव स्थापित हो जायेगा, तो राष्ट्रीय एकता भी स्थापित हो जाएगी। क्योंकि ह्रदय का प्रेम ही एकता का वह सूत्र है, जिसमे राष्ट्रीय एकता की भावना को पिरोया जा सकता है.  
[जलपाईगुड़ी महामण्डल के भाई समीर दासगुप्ता, सचिव; उत्तर बंगाल विवेकानन्द युवा महामण्डल के बंगला भाषण का १० मिनट का हिन्दी सारांश ]
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कँगूरा=चोटी, शिखर, कलश। गुंबद, बुर्ज=turret/ किले की दीवार में थोड़ी-थोड़ी दूर पर बने हुए ऊँचे स्थान, जहाँ से खड़े होकर सिपाही लड़ते हैं। 
वह जो चमकीली, सुंदर, सुघड़ इमारत - इस महामण्डल को आप देख रहे हैं; वह किस पर टिकी है ? 
इसके कंगूरों (शिखर) को आप देखा करते हैं, क्या आपने कभी इसकी नींव की ओर ध्यान दिया है?  दुनिया चकमक देखती है, ऊपर का आवरण देखती है, आवरण के नीचे जो ठोस सत्य है, उस पर कितने लोगों का ध्यान जाता है ?
ठोस 'सत्य' सदा  'शिवम्' होता ही है, किंतु वह हमेशा 'सुंदरम्' भी हो यह आवश्यक नहीं है। सत्य कठोर होता है, कठोरता और भद्दापन साथ-साथ जन्मा करते हैं, जिया करते हैं। हम कठोरता से भागते हैं, भद्देपन से मुख मोड़ते हैं - इसीलिए सत्य से भी भागते हैं। नहीं तो इमारत के गीत हम नींव के गीत से ही प्रारंभ करते। 
वह ईंट महान है, जो कट-छँटकर कंगूरे पर चढ़ती है और बरबस लोक-लोचनों को आकृष्ट करती है। किंतु, धन्य है वह ईंट, जो  ज़मीन के सात हाथ नीचे जाकर गड़ गई और इमारत की पहली ईंट बनी! क्योंकि उसी पहली ईंट पर, उसकी मज़बूती और पुख़्तेपन पर- सारी इमारत की अस्ति-नास्ति निर्भर करती है।उस ईंट को हिला दीजिए, कंगूरा बेतहाशा ज़मीन पर आ गिरेगा। कंगूरे के गीत गानेवाले हम, आइए, अब नींव के (महामण्डल शिविर में डी.सी.सी.फिल्ड के) गीत गाएँ। 
वह ईंट जो ज़मीन में इसलिए गड़ गई कि दुनिया को इमारत मिले, कंगूरा मिले! वह ईंट जो सब ईंटों से ज़्यादा पक्की थी, जो ऊपर लगी होती तो कंगूरे की शोभा सौ गुनी कर देती! किंतु जिस ईंट ने यह समझ लिया कि इमारत की पायदारी (टिकाऊपन) उसकी नींव पर मुनहसिर (निर्भर) होती है, इसलिए उसने अपने को नींव में अर्पित किया। वह ईंट जिसने अपने को सात हाथ ज़मीन के अंदर इसलिए गाड़ दिया कि इमारत सौ हाथ ऊपर तक जा सके। वह ईंट जिसने अपने लिए अंधकूप इसलिए कबूल किया कि ऊपर के उसके साथियों को स्वच्छ हवा मिलती रहे, सुनहली रोशनी मिलती रहे। वह ईंट जिसने अपना अस्तित्व इसलिये विलीन कर दिया कि संसार एक सुंदर सृष्टि देखे। 
सुंदर सृष्टि सुंदर सृष्टि (संगठन) हमेशा से ही बलिदान खोजती है, बलिदान ईंट का हो या व्यक्ति का। हमारा समाज (या संगठन) सुंदर बने, इसलिए कुछ तपे-तपाए लोगों को 'मौन-मूक शहादत का लाल सेहरा' पहनना ही पड़ता है। शहादत भी (मार्टर्डम, स्वधर्मार्थ प्राण त्यागवही सच्ची है जो और मौन-मूक हो ! (जैसे नवनीदा ने खड़दह से कोननगर में आकर दी थी। और कोननगर से खड़दह तक की शवयात्रा में, विभिन्न राज्यों से आये महामण्डल के हजारों अनुशासित कर्मी 'मौन-मूक' होकर चल रहे थे, किसी भी अख़बार ने उनकी शहादत की खबर नहीं छापी ! पर वे अमर हैं ! )  जिस शहादत (गाँधी की शहादत) को शोहरत मिलती है, जिस बलिदान को प्रसिद्धि प्राप्त होती है, उसको ही इमारत का कंगूरा, या मंदिर का कलश कहते हैं। हाँ, सच्ची शहादत तो वही है, जो मौन और मूक होती है! (जैसे नेताजी, नवनीदा जैसी शहादत) ऐसी शहादत ही सुन्दर समाज (या सुन्दर संगठन) की आधारशिला यही होती है। 
कुछ लोग सोचते हैं कि ईसा की शहादत ने ईसाई धर्म को अमर बना दिया ; वे कहते हों तो कहें। किंतु मेरी समझ से ईसाई धर्म को अमर बनाया उन लोगों ने, जिन्होंने उस धर्म के प्रचार में अपने को अनाम उत्सर्ग (कुर्बान) कर दिया। उनमें से कितने ज़िंदा जलाए गए, कितने सूली पर चढ़ाए गए, कितने वन-वन की ख़ाक छानते हुए जंगली जानवरों का शिकार हुए, कितने उससे भी भयानक भूख-प्यास के शिकार हुए। उनके नाम शायद ही कहीं लिखे गए हों - उनकी चर्चा शायद ही कहीं होती हो। किंतु ईसाई धर्म उन्हीं के पुण्य प्रताप से फल-फूल रहा है। वे नींव की ईंट थे, गिरजाघर के कलश उन्हीं की शहादत से चमकते हैं। 
यदि आज हमारा देश आज़ाद हुआ है, तो सिर्फ़ उन लोगों के बलिदानों के कारण नहीं, जिन्होंने इतिहास में स्थान पा लिया है। देश का शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जहाँ कुछ ऐसे दधीचि नहीं हुए हों, जिनकी हड्डियों के दान ने ही विदेशी वृत्रासुर का नाश किया। जब तक मनुष्य भ्रम में रहता है, अज्ञान या हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहता है, वह पंचेन्द्रियग्राह्य जगत को ही सत्य समझता है। हमलोग बचपन में यही देखते और समझते थे कि सूर्य घूमता है, और पृथ्वी स्थिर है। और हम यह मान बैठे थे कि जिसे हम देख नहीं सकें वह सत्य नहीं है, किन्तु बड़े होने पर पता चलता है कि यह तो हमारी भ्रान्त धारणा थी ! बुद्धि की मूढ़ धारणा थी ! सत्य (अविनाशी आत्मा या ईश्वर या 3rd 'H') तो ढूँढ़ने से ही प्राप्त होता है। या यूँ कहें की कोई विरला 'एथेन्स का सत्यार्थी' सत्य की खोज करता है, और एक दिन उस सत्य को अपने भीतर ही आविष्कृत कर लेता है ! वह सत्यार्थी 'अन्तःप्रकृति पर विजय प्राप्त करके अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करता है,और मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है'। स्वामी जी कहते हैं -" बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मतवाद (डॉक्ट्रिन्स), अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर या मूर्तियाँ (forms) तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं!"   
 (This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.) 
हमारा कर्तव्य है,अर्थात धर्म है, ऐसी नींव की ईटों की ओर ध्यान देना। सदियों के बाद हमने नई समाज की सृष्टि की ओर कदम बढ़ाया है। इस नए समाज (सुन्दर संगठन) के निर्माण के लिये भी हमें नींव की ईंट चाहिए।अफ़सोस कंगूरा बनने के लिए चारों ओर होड़ा-होड़ी मची है, नींव की ईंट बनने की कामना लुप्त हो रही है। सात लाख़ गाँवों का नव-निर्माण! हज़ारों शहरों और कारखानों का नव-निर्माण! कोई शासक इसे संभव नहीं कर सकता। ज़रूरत है ऐसे नौजवानों की, जो इस काम में अपने को चुपचाप खपा दें।जो एक नई प्रेरणा से अनुप्राणित हों, एक नई चेतना से अभीभूत, जो शाबाशियों से दूर हों, दलबंदियों से अलग।जिनमें कंगूरा बनने की कामना न हो, कलश कहलाने की जिनमें वासना न हो। सभी कामनाओं से दूर - सभी वासनाओं से दूर। 
उदय के लिये आतुर हमारा समाज (संगठन के वुड बी लीडर्स) चिल्ला रहा है। हमारी नींव की ईंटें किधर हैं? देश के नौजवानों को यह चुनौती है!--रामवृक्ष बेनीपुरी 
(रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन 1902 में बिहार के मुज़फ़्फरपुर जनपद के अंतर्गत बेनीपुर गाँव में हुआ था।प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हि हुई, किंतु मैट्रिक पास करने से पहले ही वह गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े और कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा।  छोटी उम्र से ही वे अख़बारों में लिखने लग गए थे।उन्होंने 'तरुण भारत','किसान-मित्र','बालक','युवक','कर्मवीर','हिमालय' और 'नई धारा' जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। )
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के अनुसार - ‘किसी भी सरकार का एक ही धर्मग्रंथ होता है और वह है हमारा संविधान। एक ही प्रार्थना होती है वह है भारत-भक्ति। सरकार की एक ही शक्ति है वह है उसके 125 करोड़ भारतवासी और किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होनी चाहिए।
’मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य समीक्षामहे।। 
सब व्यक्ति मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सभी व्यक्तियों को मित्र (भगवती-भगवान) की दृष्टि से देखूं। सभी परस्पर मित्र की दृष्टि से देखा करें। हे दृढ़ता के देव ! आप हमें दृढ़ता दीजिये। शुक्ल यजुर्वेद ३६-१८.
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कलश और नींव का पत्‍थर 
(हरिवंशराय बच्चन)
अभी कल ही पंचमहले पर कलश था,
और चौमहले,तिमहले,दुमहले से खिसकता अब हो गया हूँ नींव का पत्थर !
काल ने धोखा दिया,या फिर दिशा ने,या कि दोनों में विपर्यय;
एक ने ऊपर चढ़ाया,दूसरे ने खींच नीचे को गिराया,
अवस्था तो बढ़ी, लेकिन व्यवस्थित हूँ कहाँ घटकर !
आज के साथी सभी मेरे कलश थे, आज के सब कलश कल साथी बनेंगे। 
हम इमारत,जो कि ऊपर से उठा करती बराबर और नीचे को धँसी जाती निरंतर। 
यह कविता निम्नलिखित व्याख्या के साथ सन १९६१ में आकाशवाणी केन्द्र, नई दिल्ली से प्रसारित की गयी थी।  
 "यहाँ कलश किसी भवन के ऊँचे भाग का प्रतीक है--हालाँकि आधुनिक भवन निर्माण कला में कलश नहीं रक्खा जाता पर प्रतीक अपना अर्थ त्यागने को तैयार नहीं। नींव का पत्थर ईमारत का सबसे निचला भाग हुआ। जीवन के किसी भी क्षेत्र की उपलब्धि को इमारत का रूपक दिया जा सकता है। 
हर क्षेत्र में कुछ चीजें नींव के पत्थर की जगह होती हैं। उन्हीं के ऊपर सारी इमारत का दामोदर होता है, पर वे दिखाई नहीं देतीं। कलश भले ही ऊपर दिखाई दे, भवन का श्रृंगार हो, पर उसपर निर्भर नहीं रहा जा सकता; वही सारी इमारत पर निर्भर रहता है।
पर गतिमान जीवन की कोई उपलब्धि स्थिर नहीं। जो कलश बनकर ऊपर ऊपर रहता है, उसे समय पा कर बल संचित करना, और ऊपर के कलशों को संभालना पड़ता है। यह विचित्र है कि अधिक बल पाकर, अधिक महत्वपूर्ण बनकर उसे नीचे जाना पड़ता है। और, दिखावटी और निर्बल ऊपर आते जाते हैं।  किसी स्थिति पर नींव की ओर जाने वाले को असन्तोष भी हो सकता है -जो हल्के दिखावटी हैं, वे तो ऊपर हैं; जो भारी और ठोस हैं, वे नीचे ! इस कविता में इस असन्तोष को समझा और दूर किया गया है।           



































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