मंगलवार, 6 अगस्त 2013

$$$ प्रत्याहार -धारणा 'जड़ की रे ? सब चैतन्य !' [सरिसा कैम्प २८/१२/२००५]

" काली-महाराज (स्वामी अभेदानन्द जी)  के लिए वेदान्त एक अनुसन्धान (exploration) था। उनके प्राणों की भूख थी। उनका मन किसी सत्यान्वेषी जैसी सत्य का साक्षात्कार करने व्याकुलता के आवेग और  आर्तनाद से भरा हुआ था। वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे। उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी। उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभेद-दृष्टि प्राप्त हो सकती है ? क्या, किसी व्यक्ति को सचमुच सर्वभूतों में आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई समर्थ गुरु हैं, जो मुझे ' ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी आत्मदृष्टि (विवेकश्रोत) को भी उद्घाटित करा सकते हैं ? यदि कोई वैसे समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी गुरु  मिलेंगे कहाँ ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, वेदान्त-सिद्धान्त (doctrine of Vedanta-'एकं सत्य', 'रोपे पेड़ बबूल का अमवा कहाँ से होय ?', 'लॉ ऑफ़ एसोशिएसन -बर्ड ऑफ़ सेम फीदर फॉल्क टुगेदर', 'या मति सागतिर्भवेत', 'तत्त्वमसि' आदि) को व्यवहार में, प्रत्यक्ष-प्रमाण में रूपांतरित होते देखने का अवसर उपस्थित हो गया !  शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था। इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो।  मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो। " 
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था।  जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया। आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया। लौट कर उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं। अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों. 
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था।  विचार कर रहे हैं- क्या इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है? तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सब-कुछ के भीतर स्वयं को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है! यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से (अष्टांग के ५ अभ्यासों से) होकर गुजरना होता है। "
[आज सुबह के क्लास में मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते समय मेरी दृष्टि भी बंगला भाषा में लिखित सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण की इसी  उक्ति -" जड़ की रे ? सब चैतन्य ! तोमादेर चैतन्य होक ! " पर पड़ी थी, जो कोटेसन के रूप में वहाँ टंगा हुआ था ! ऐसा प्रतीत हुआ मानो ठाकुर (शाश्वत चैतन्य) यह दिखा रहे हों कि एक महामण्डल नेता (मानव-जाति के भावी मार्गदर्शक नेता) को अपने अनुभव से क्या जानना है ? ठाकुर के इस कृपा-कटाक्ष के बाद, प्रवेश-द्वार के दूसरी ओर श्रीश्री माँ सारदा देवी ' व्यवहारिक वेदान्त ' को जीवन में धारण करने का उपदेश दे रही थीं- " जगत के आपनार कोरे निते शिखो, केऊ पर नेई मा जगत तोमार ! " -  " यहाँ कोई पराया नहीं है माँ, सम्पूर्ण विश्व तुम्हारा अपना है ! जब सभागृह में प्रवेश किया तो देखा आज नवनीदा भी व्यासपीठ से मजाज लखनवी [Asrar ul Haq Majaz  (1911 – 5 December 1955)] की यह नज्म सुना रहे थे -
कुछ नहीं- तो कम से कम ख्वाबे सहर देखा तो है,
जिस तरफ देखा न था, अब तक उधर देखा तो है।
…. नवनीदा कह  रहे थे- कम से कम ' ख्वाबे- सहर '- या नये प्रभात का स्वप्न तो देख लिया ! इतना तो हमसे हुआ…ये जो इतना गहरा अँधेरा छाया हुआ है, इस गहरे अँधेरे में भी उजाला होने का स्वप्न तो देखा है।  स्वामी विवेकानन्द ही प्रभात के सूर्य हैं ! उनको जो एकबार भी देख लेता है, उसके जीवन में छाया अँधेरा दूर हो जाता है।  जिसका विवेक जाग्रत हो जाता है, उसे सबकुछ मिल जाता है। मजाज लखनवी भी स्वामी विवेकानन्द की तरह अपने को 'उस ईश्वर का उपासक मानते थे, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं' ; उन्होंने आगे लिखा है -   
'नौ-ए-इंसा का परस्तार हूँ मै। खूब पहचान लो 'असरार' हूँ मै !'
[ मायने : "चेहरा-ए-असरार"= mysterious face- रहस्यमय चेहरा/ जीन्स-ए-उल्फत=प्रेम नामक वस्तु, ख्वाबे-इशरत=ऐश्वर्य के सपने में, अरबाबे-खिरद=बुद्धिजीवी, शायरे-बेदार=जागरूक कवि, नोअ-ए-इंसा=मनुष्य मात्र का, परस्तार=उपासक हूँ मैं !
[मजाज़ की शायरी का विवेचन करते हुए उर्दू के एक बुजुर्ग शायर "असर लखनवी" ने एक बार लिखा था कि "उर्दू में एक किट्स पैदा हुआ था लेकिन इन्किलाबी भेडिये उसे उठा ले गए। "  इस बात पर बहस कि गुंजाईश नहीं है कि 'मजाज़ को इन्किलाबी भेडिये (प्रगतिशील लेखक ) उठा ले गए या वह खुद मिमियाती हुई भेड़ों  के झुंड से बहार निकल आया था ? जो 'हाफिज और खय्याम के ऐब' का (अर्थात शराब-परस्ती)
का यह बेशक गुनहगार था, लेकिन 'नौअ-ए-इंसा की उपासना' अर्थात मनुष्य मात्र का उपासक होने की यही भावना हर अवसर पर उसकी सहायता करती रही। और यह कोई साधारण बात नहीं है कि अपनी मस्ती और शराब-परस्ती के बावजूद और मौलिक रूप से रोमांटिक शायर होते हुए भी, यदि हर कदम पर नहीं तो हर मोड पर, वह अवश्य जीवन कि प्रगतिशील शक्तियों का साथ देता रहा है। ] 
योगा -योगा करते रहने से क्या होता है ? उनका नाम विवेकानन्द कैसे हो गया  था ? यह ठीक से ज्ञात नहीं है। अपने गुरुभाइयों का संन्यास नाम भी उन्होंने ही रखा था।  और अमेरिका जाने से पहले उन्होंने अपना नाम भी स्वयं ही रख लिया था और इसी नाम से जहाज का टिकट खरीदा था।  विवेक जाग्रत हो जाने से सबकुछ  जाता है। पतंजली योग सूत्र इतना प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है कि उसके उपर भाष्य स्वयं व्यासदेव को लिखना पड़ा था।  
 यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता है कि हमारा मन - ' मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो ' जैसा चंचल है। ऐसे मन को अपने वश में ले आना ही पहला पुरुषार्थ है।  जिनका मन उनके वश में आ गया, वे जगत के स्वामी हो जाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को भी जीत सकते हैं।  मन का प्रभु होने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अभी हमलोग मन के दास हैं, जो स्वयं को जीत सकते हैं, वे सबों को जीत सकते हैं।  इसीलिये कहा गया है - ' आत्मानं प्रथमं द्वेष रूपेण योजयेत ' - अर्थात मन को ही सबसे बड़ा शत्रु समझते हुये उसे जीत लेना चाहिये, तब जगत जय हो जायेगा। मन को जय करने का एक ही नुस्खा गीता में है, भागवत में है और योगसूत्र में है. और वह है - 
"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः "
इसके आलावा अन्य कोई उपाय नहीं है. सभी शास्त्रों में मन को जीतने की यही औषधि बताई गयी है- अभ्यास और वैराग्य ! इस उपाय द्वै की साधना करते रहने से मन अवश्य वशीभूत हो जाता है. परन्तु मन के वशीभूत होने के स्वाद को पुरे जीवन में दो या तीन बार बस २ या ३ सेकण्ड के लिये ही अनुभव किया जा सकता है. भगवत में कहा गया है - 
यत्र यत्र मनो देहि धार्येत सकलं धिया।  
स्नेहात द्वेषात भयात वापि याति तत तत स्वरुपताम।। 
do you fear God ? भगवान क्या डरने की चीज हैं ? उनसे तो प्यार करना चाहिये -वे तो स्वयं प्रेम-स्वरूप हैं ! फिर भी कोई व्यक्ति यदि डर कर भी उनका चिन्तन करे, या उनसे शत्रुता के कारण  भी उनका चिन्तन करे या उनसे प्रेम होने के कारण निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हो, चाहे जैसे भी उनकी छवि पर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करता हो, तो 'साहचर्य के नियमानुसार' उनकी सत्ता हममें आ ही जाती है।  इसका अभ्यास जितना ही कम उम्र से आरम्भ करेंगे, उतना ही कल्याणकारी होगा। ध्यान करना क्या है, वो तो हमें मालूम नहीं, किन्तु १४-१५ वर्ष की उम्र से एकाग्रता का अभ्यास करते रहें तो मन इतना एकाग्र हो जायेगा कि दुनिया में सबकुछ प्राप्त कर लेना आसान हो जायेगा। हमलोग जो कुछ भी आविष्कार करते हैं, निर्माण करते हैं, या कविता लिखते हैं, वो सब मन के द्वारा ही होता है। 
स्वामी विवेकानन्द के जीवन में उनके 'मन का प्रभु' होने को दो उदाहरण  यहाँ उद्धृत किये जा सकते हैं।  
वे लाइब्रेरी से सुबह में एन्साइक्लोपेडिया ब्रिटेनिका का एक वॉल्यूम लाते हैं और दूसरे दिन वापस करके दूसरा खण्ड ले आते हैं। लाइब्रेरियन को आश्चर्य हुआ आप कल सुबह में दो खण्ड ले गये थे, और शाम को दोनों वापस कर दिये थे, क्या आपने इसको पढ़ लिया था? स्वामीजी बोले हैं, मैं तो पढ़कर ही वापस किया हूँ, कुछ पूछना चाहते हों, तो पूछ कर देख लीजिये और पूछने पर ठीक ठीक उत्तर देते हैं। और दूसरा उदाहरण है - इंग्लैण्ड में नदी में बहते अण्डे के छिलकों पर एयर गन से निशाना लगते हुए बच्चों के एयर गन से एक बार में ही सभी अण्डों पर सही सही निशाना लगाकर दिखाते हैं, बच्चे आश्चर्य से पूछते हैं कि क्या आप रोज बन्दुक से निशाना लगाने का अभ्यास करते हैं ? स्वामीजी ने कहा मैंने तो आज ही पहली बार बन्दुक से निशाना लगाया है। 
स्वामी रंगनाथानन्द जी में भी ऐसी ही एकाग्रता देखनो को मिली है. एक बार हम दोनों ट्रेन से साथ में आ रहे थे। उन्होंने अपने बैग से एक मोटी पुस्तक निकाली और १५-२० मिनट में १०-१२ पन्ने पढकर वहाँ मार्कर लगा कर रख दिए।  मैंने पूछा अभी अभी जो पोर्शन अपने पढ़ा है, क्या आपको याद भी हो गया ? वे बोले -हाँ, यदि और एक बार देख लूँगा तो उसका शब्द-शब्द याद हो जायेगा। पूछने पर रंगनाथानन्दजी बोले- हम word to word नहीं पढ़ते हैं, पन्ने के बायीं तरफ उपर में लिखे एक लाइन को पढ़ता हूँ, और पन्ने के नीचे लिखे अंतिम लाइन को पढ़ लेने से पूरा पन्ना याद हो जाता है.
इसी को कनेक्शन ऑफ़ माइंड (connection of mind) या मनः संयोग अर्थात आत्मा के साथ मन का सम्बन्ध होना कहते हैं !  मानो xerox मशीन से चित्त के उपर एक ऑफिस कॉपी छप जाती है।  छात्र लोग यदि इस मनः संयोग को सीख लें तो पढाई कितना अच्छा होगा ? मन को एकाग्र रखने का उपाय है, रेगुलर प्रैक्टिस (Regular-Practice) अभ्यास ! किन्तु अभ्यास करने के साथ साथ मन में थोडा वैराग्य का भाव भी रखना होगा। वैराग्य के बिना कुछ नहीं होगा, क्योंकि सन्तत्व (आत्मस्वरूप में अवस्थान -या भ्रममुक्ति)
 केवल 'परिधान-परिवर्तन' (गरुआ-धारण करने)  का नाम नही है।  बल्कि मन का एक ऐसा रूपांतरण है, जहाँ कोई भी पराया शेष नही रहता है, वह व्यक्ति सदा-सदा के लिए अपने-पराये के भ्रम से मुक्त हो जाता है ! कबीर ने कहा है-
"मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा ! 
दढ़िया बढ़ाये जोगी बन गईले बकरा !
आसान मारि मंदिर में बईठे, 
ब्रह्म छाड़ी पूजन लागे पथरा..! 
जंगल जाय जोगी धुनिया रमवलै,
कमवा जराय जोगी होगइलै हिजड़ा !
गृहस्थ लोगों को (प्रवृत्ति मार्ग के साधकों को) बाहरी कपड़े को रंगने की जरुरत नहीं है, अपने मन को,अपने विचारों को ही त्याग के रंग में,पवित्रता के रंग में, रंग लेना चाहिये। प्रत्येक पति को अपनी स्त्री को छोड़ कर अन्य सभी स्त्रियों को अपनी सगी माता, बहन अथवा पुत्री के रूप में देखना चाहिये। विशेष रूप से जो व्यक्ति मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता बनना चाहता हो, उसके लिये यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक स्त्री को मातृवत देखे और उसके साथ तद्रूप व्यवहार करे। क्योंकि मातृपद ही संसार में सबसे श्रेष्ठ पद है, और यही एक अवस्था है जिससे निःस्वार्थपरता की महत्तम शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। स्वामीजी कहते हैं- " वास्तव में वह पुरुष धन्य है जो स्त्री को ईश्वर के मातृभाव की प्रतिमूर्ति समझता है, और वह स्त्री भी धन्य है, जो पुरुष के पितृभाव की प्रतिमूर्ति मानती है. तथा वे बच्चे भी धन्य हैं, जो अपने माता-पिता को भगवान का ही रूप मानते हैं. " (३/४२)  मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं या लोकशिक्षकों को अपने मन में किसी भी सांसारिक विषयों को भोगने की कामना नहीं रखनी चाहिये।
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जी, प्रवृत्ति मार्ग के नहीं, बल्कि  निवृत्ति मार्ग के ऋषि थे, उत्तर आकाश में ध्रुव तारे के चारों ओर जो सप्त-ऋषि परिक्रमा किया करते हैं, वे प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि हैं। नरेन्द्र को देखते ही ठाकुर पहचान लेते हैं, तथा भीतरी बरामदे में ले जाकर देवता की तरह सम्मान देते हुए हाथ जोड़ कर कहते हैं - 
" प्रभु मैं जानता हूँ, आप वही पुरातन ' नारायण ऋषि ' हैं, जीवों का दुःख दूर करने के लिये जगत में आये हैं। " निवृत्ति मार्ग का वर्णन पुराणों में किया गया है, किन्तु ठाकुर यहाँ जो नरेन्द्र को नारायण कहते हैं, वह वैकुण्ठ के नारायण नहीं हैं, वे तो निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक हैं।  जिन्हें ठाकुर स्वयं अखण्ड के राज्य से लेकर धरती पर आये थे।  ये वही नारायण ऋषि हैं, जो बदरी पहाड़ पर बैठकर १००० वर्ष तक ॐ गायत्री मन्त्र का जाप किये थे, जिसके फलस्वरूप उनको सर्वोच्च स्थित ब्रह्लोक प्राप्त हुआ था. उस समय ध्यान ही उनका भोजन था। 
जो व्यक्ति वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हैं, उनमें से कई लोगों को बहुत अधिक मात्रा में भोजन करने की आवश्यकता नहीं रहती। वैराग्य का अर्थ किसी भी वस्तु की बहुत ज्यादा कामना नहीं रखना, लालच नहीं रखना, जीने के लिये जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण करना -परिमित मात्रा में ही सभी वस्तुओं का उपभोग करना। जो लोग मानव-जीवन प्राप्त करके भी उसको सार्थक करने का प्रयत्न नहीं करते और केवल भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं, वे भी क्या मनुष्य हैं? त्य ही कहा है....

"एषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः?
ते मर्त्यलोके भुविभारभुता....मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति!!"
रूप-आकृति या शरीर का ढाँचा तो मनुष्य की तरह है, किन्तु आचरण 'मृग ' की तरह का यदि हो, तो उसे मनुष्य कैसे कहा जा सकता है ? मृगा का अर्थ केवल हीरण नहीं होता है, उसका अर्थ है -पशु. हमलोगों ने कल जलालुद्दीन रूमी की नज्म 'आदमी की तरक़्क़ी' में सुना था -
" बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया,
 फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया। 
  हैवानों से मर गया और 'आदमी ' हो गया, 
 डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?"
 किन्तु मनुष्य बन जाने के बाद इच्छा होती है कि देवता बन जाएँ। फिर इसी प्रकार अभ्यास और वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हुए उससे भी उन्नत अवस्था ' ब्रह्म ' होने तक यात्रा जारी रहनी चाहिये, इसीलिये रूमी आगे कहते हैं - 
अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ, 
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ। 
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना,
कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना। 
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा,
फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा। 

नरेन्द्र को धरती पर आने का निमन्त्रण देने के लिये, ठाकुर स्वयं अखण्ड के राज्य में जब गये थे, उस घटना का वर्णन करते हुए कहते हैं - " एक दिन देखता हूँ कि - ' मन ' समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ से भी उपर उठता ही जा रहा है ! चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र-युक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उपर उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगी. क्रमशः वह उस राज्य की अन्तिम सीमा पर आ पहुँचा। 

वहाँ देखा कि एक ज्योतिर्मय पर्दे के द्वारा खण्ड और अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है।  उस पर्दे को लाँघ कर वह क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ।  वहाँ देखा, मूर्तरूप-धारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य-देहधारी देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना अधिकार फैलाकर अवस्थित है।  किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य-ज्योतिर्तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे हैं।  समझ लिया कि ज्ञान और पूण्य में तथा त्याग और प्रेम में ये लोग मनुष्य का तो कहना ही क्या- देवी-देवता तक के परे पहुँचे हुए हैं ! विस्मित होकर इनकी महिमा के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड, भेद-रहित, समरस ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रूप में परिणत हो गया।  फिर वह दिव्य-शिशु उन सप्त-ऋषियों में एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने की चेष्टा करने लगा.   शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जाग्रत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे।  
उनके मुख-मण्डल के प्रसन्नोज्ज्वल भाव देखकर ज्ञात हुआ कि मानो वह बालक उनका बहुत दिनों का परिचित ह्रदय-धन है. वह अद्भुत देव-शिशु अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा- ' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा !' उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अन्तर की सम्मति प्रकट हो रही थी. इसके अनन्तर वह ऋषि, बालक को प्रेम-पूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्थ हो गये. उस समय आश्चर्य से चकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम-मार्ग से धराधाम पर अवतीर्ण हो रहा है. नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था, कि यही वह ऋषि है ! " उस दर्शन में जो दिव्य-शिशु ऋषि को आने का निमंत्रण दे रहा था वह स्वयं श्रीरामकृष्ण देव थे " (श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग पेज ८०-८१ )
अखण्ड के राज्य से वह ऋषि नरेन्द्र बनकर नरेन्द्र बनकर क्यों आये थे ? सिर्फ मानव-कल्याण के लिये।.. इस धरती में बहुत कष्ट है,बहुत दुःख है; किन्तु उस दुःख-कष्ट को हमलोगों ने स्वयं बुलाने की चेष्टा की है, वह हमारे ही कर्मों का फल है, किन्तु बाद में रोना पड़ता है।  पर अब बुढ़ापे में रोने से क्या होगा ? क्यों हमने युवाकाल में ही जीवन-गठन करने का प्रयत्न नहीं किया ? जब समय रहते , जब जवानी का तेज मुझमें विद्यमान था, उस समय 3H के निर्माण का कोई प्रयत्न नहीं किया, तो बुढ़ापे में पश्चाताप करने से भी कोई उपाय नहीं सूझेगा। इसी प्रकार सही समय पर उचित जीवन-लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर पाने से लाखों युवाओं का जीवन नष्ट हो जाता है।  हमारे राजनीतिज्ञ लोग तथाकथित धर्म-रक्षक या छद्म-धर्मनिरपेक्षता का चोंगा ओढ़कर हमारे युवाओं को fodder या चारे की तरह, अपनी रोटी सेंकने के लिये हिन्दू-मुसलमानों में दंगा करवाने या भारतवासियों में घृणा फ़ैलाने के लिये उनका उपयोग करते हैं।  स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने की कोई शिक्षा-नीति पूरे भारतवर्ष में कहीं नहीं है।  
अभी (२००५ में) पश्चिम बंगाल के साम्यवादी मुख्यमन्त्री जिस रस्ते से जा रहे थे, उसमें लैण्डमाईन का कॉइल बिछा हुआ दिखाई पड़ा, तब D.G.P डर कर तुरन्त मिलिट्री से माईन डिफ्यूज करने वाला एक्सपर्ट बुलवाये और रास्ते को साफ करवा लिया गया। किन्तु इस घटना के बाद, साम्यवादी पार्टी के हेडक्वार्टर से एक आदेश निकाला गया कि आगे से C.M को जिस रास्ते पर भी पैदल जाना हो, तो उनके आगे आगे ४०० पार्टी कामरेडों को या कैडर्स को भेज कर रास्ते की 'सुरक्षा जाँच' करवा लेना अनिवार्य होगा। उन पार्टी कैडर्स को मरने दो! क्या पार्टी कैडर और मुख्यमंत्री के 'प्राण' में कोई 'साम्यवाद' नहीं है ? (क्या मुख्यमंत्री का खून, खून है; पार्टी कैडर्स का खून पानी है ?) मनुष्य का जीवन कितना सस्ता हो गया है ? ये राजनीतिज्ञ लोग अपने जीवन की रक्षा करने के लिये कितने भी लोगों को मरवाने से नहीं हिचकते हैं, क्या उनके ह्रदय थोड़ा भी feeling for others, थोड़ी भी समानुभूति या हमदर्दी Empathy नहीं है? जबकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि- ' मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है !' मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। महर्षि वेद व्यास ने इसके संबंध में कहा है, 
''गुह्य ब्रह्म तदिदिं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हिं किंचित।'' 
अर्थात् मैं बड़े भेद की बात तुम्हें बताता हॅू, मनुष्य से बढ़कर संसार में कुछ नहीं है।मनुष्य अभी क्या है, आगे उसमें क्या बन जाने की सम्भावना है ? इसका वर्णन भगवत-महापुराण के साथ साथ इस्लाम और ईसाई पुराणों में भी पाया जाता है. अल्ला,जिसको यहाँ ब्रह्माजी कहते हैं, ने जब समूची दुनिया को बना लिया,तो भी वे बहुत satisfied नहीं हुए. किन्तु जब मनुष्य को बना लिया तो अपनी इस रचना को देखकर वे बहुत खुश हो गए. उन्होंने सभी फरिस्तों या देवदूतों को बुलाकर कहा कि तुमलोग इसको सिर झुकाकर प्रणाम करो, यह हमारी श्रेष्ठतम रचना है. सभी फरिस्तों ने सिर को झुकाया, लेकिन एक इब्लीस ने सिर नहीं झुकाया तो उसीको अल्ला कहा-तुम दूर हो जाओ शैतान ! भारतीय परम्परा के अनुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। इसकी अभिव्यक्ति अनेक ग्रंथों में हुई है। श्रीमद्भागवत पुराण में क्रमविकास का सिद्धान्त, ' Evolution Theory ' वर्णन आता है-

सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या 
 वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय
                व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ ११-९-२८ 

भगवान ने अपनी अचिन्त्य आद्या-शक्ति के द्वारा स्थावर-जंगम कई प्रकार की सृष्टि को रचा।  इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु, पक्षी,डंक मारने वाले कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु उससे स्रष्टा के मन में संतुष्टि नहीं हुई। अत: अन्त में मनुष्य का निर्माण हुआ जो अपने स्रष्टा को भी देखने में समर्थ था। जिस मूल तत्व को प्रयोगशाला में पंचेन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना सकता, जिसको बुद्धि से भी जानना संभव ही नहीं है, मनुष्य उसका भी साक्षात्कार कर सकता है। यही क्षमता प्रत्येक मनुष्य के भीतर अभी सर्वोच्च-संभावना के रूप में छुपी हुई है। 'व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:' ऐसी अद्भुत-शक्ति से सम्पन्न मनुष्य को देखकर सृष्टा को बहुत आनन्द हुआ। 
'जन्माद्यस्य यतः' - जिससे सबकुछ निकला, जिसमें सबकुछ स्थित है और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है; उसी चैतन्य से उत्पन्न इस अति-दुर्लभ मनुष्य-जीवन को सार्थक नहीं बनाकर, अर्थात मूलतत्व का साक्षात्कार किये बिना, क्या पशुओं की तरह केवल, ' आहार-निद्रा-भय-मैथुन ' करके पशुओं की तरह मर जाना मनुष्य को शोभा देता है ? अतः युवा-काल से ही मनुष्य जीवन को गठित करने का प्रयत्न करना चाहिये। जीवन-गठन का तात्पर्य है-चरित्र को बनाना। और चरित्र-निर्माण की सबसे पहली आवश्यकता है, मन को वश में लाना। मन के वशीभूत होने का अर्थ है, विवेक सम्पन्न ' मनुष्य ' बन जाना। अर्थात ज्ञान की ज्योति का जाग्रत हो जाना। 
[' देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ' -की अवस्था का अनुभव हो जाने के बाद - यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम्॥ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥ ॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥  जब देह होते हुए भी मैंने (आत्मा ने) अपने को देह से पृथक् अनुभव किया था, जो अपनी मौत की यात्रा के साक्षी बन जाते हैं उनके लिये यात्रा केवल यात्रा भर रह जाती है, साक्षी उस यात्रा से परे हो जाता है। समस्त प्राणियों को दो भागों में बांटा गया है, योनिज तथा आयोनिज। दो के संयोग से उत्पन्न या अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होने वाले। बृहत्‌ विष्णु पुराण में संख्या के आधार पर विविध प्रकार के ८४ लाख योनियों का वर्गीकरण किया गया है।]
अर्थात मिथ्या मैं-पन के धारावाहिकत्व के भ्रम को हटाकर यह अनुभव से जान लेना कि मैं केवल मरण धर्मा शरीर मात्र नहीं हूँ, मेरी सार-वस्तु, सत्ता तो आत्मा या ब्रह्म हैं।  ब्रह्म का अर्थ है बृहत व्यापक सबसे बड़ा -सब कुछ इसी के उपर अध्यारोपित है।  हमलोगों का यथार्थ स्वरुप भी वही चैतन्य है-जिससे सबकुछ निकला है ! उसका साक्षात्कार करने या अनुभव से जानने के लिये लालच को कम करते हुए एकाग्रता का -या विवेक-प्रयोग का निरन्तर अभ्यास करते रहना होगा। संतोष से बड़ा और कोई सद्गुण नहीं है, माँ सारदा स्वयं ऐसा कहती थीं।  पूर्णत्व का अर्थ है, अपना जीवन जगत की सेवा में समर्पित कर देना- यही है वैराग्य का भाव, इसके साथ साथ मन को एकाग्र करने का अभ्यास। अर्थात यह देखते रहना कि मेरा मन अभी कहाँ है ? मन्दिर में, बाजार में, किचेन में जाता है, अभी घर में चला गया ? 
यहाँ-वहाँ कई स्थानों में जा रहा है, उसकी इस दौड़ को देखकर, पहले थोड़ा 'हँसना' और फिर उसको समझाना-बुझाना-' बाबा उधर कहाँ जाता है ? थोडा इधर आओ !' ह्रदय में एक आसन बिछाकर उस पर जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द को बैठाकर उनका ही चिन्तन करो।  या ठाकुर को बैठा सकते हो।  क्योंकि ईश्वर क्या है, यह हमलोग अभी नहीं जानते हैं। वेद कहता है- " न तस्य प्रतिमा अस्ति " -अर्थात उसकी कोई प्रतिमा नहीं है।  क्योंकि वो सर्वत्र व्यापक है उसको किसी ने भी देखा नहीं है। वो निराकार होते हुए साकार ब्रह्माण्ड का निर्माता है, संसार में जितनी भी जीती जागती प्रतिमाये हैं वो सभी उस निराकार परमात्मा का साकार स्वरुप हैं। किन्तु हमारे मन का गठन इस प्रकार हुआ है कि उसे मूर्त से अमूर्त तक पहुँचने में आसानी होती है। अमूर्त या निराकार वस्तु में मन को लगाना संभव नहीं होता। अब हमने यदि ईश्वर को देखा ही नहीं है, तो उसकी भक्ति कैसे करें ? इसलिये स्वामीजी ने योगसूत्र समाधि पाद के सूत्र
१.२३ ईश्वरप्रणिधानाद्वा ।  ईश्वरप्रणिधानात् वा =  वा – अथवा (इसके अतिरिक्त), ईश्वरप्रणिधानात् – ईश्वरप्रणिधान से (समाधि की सिद्धि शीघ्र होती है)। अपेक्षाकृत अल्पकाल में सिद्धिलाभ के लिये अन्य श्रेष्ठ उपाय ईश्वर - प्रणिधान है। प्रणिधान का तात्पर्य है - अनन्य चित्त होकर पूर्णभक्तिभाव से आत्मसमर्पणपूर्वक उपासना करना। अब हमने यदि ईश्वर को देखा ही नहीं है, तो उसकी भक्ति कैसे करें ? इसलिये इस सूत्र को और सरल करते हुए स्वामी जी कहते हैं- ' महापुरुष प्रणिधानात् वा '! तुमको जिस किसी तत्वदर्शी महापुरुष  में आस्था हो जिनके जीवन को तुमने पढ़ा या नजदीक से देखा है जैसे ठाकुर-माँ-स्वामीजी में से किसी की छवि या मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास किया जा सकता है। (या हममें से जिन लोगों ने नवनी दा जैसे महापुरुष को नजदीक से देखा है, वे उनकी छवि पर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकते हैं !)
स्वामी विवेकानन्द को तो भारत सरकार ने भी ' युवा आदर्श ' युवाओं के ' नेता ' के रूप में स्वीकार किया है. क्योंकि वे सभी जाति, और सभी धर्म के युवाओं से प्यार करते थे, यहाँ तक जी युवा किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करता हो, उससे भी प्यार करते थे। उनके चित्र के उपर मन को एकाग्र करना एक scientific process है, mechanical method है।  विवेकानन्द (या नवनीदा) के उपर मन को एकाग्र करने से कोई हिन्दू नहीं बन जाता है। उन्होंने सभी संप्रदाय के युवाओं को जीवन से सर्वाधिक लाभ उठाने का उपाय बताया है. यहाँ विवेकानन्द के चित्र या मूर्ति की कोई हिन्दू ढंग पूजा करने को भी नहीं कहा जाता है। केवल चंचल मन को वश में लेन के लिये ही, किसी महापुरुष के चित्र पर मन को एकाग्र रखने के लिये कहा गया है।  यदि कोई चाहे तो ईसामसीह की मूर्ति या छवि को अपने ह्रदय में धारण कर उनके उपर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकता है। तब पूरी दुनिया मुट्ठी में आ जायेगी। 
इसके लिये अब रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए अर्ध-पद्मासन में बैठो और यह देखने की कोशिश करो कि तुम अपने ह्रदय में स्वामीजी की छवि देख पा रहे हो या नहीं ? इसको बिल्कुल एक खेल के जैसा लो, और मन से अनुरोध करते रहो, उसको समझाते रहो कि अभी थोड़ी देर तक केवल उन्हीं का चिन्तन करना है।  यदि ऐसा होने लगा तो बहुत कल्याण हो जायेगा। पवित्र और अच्छे विचारों से मन जितना अधिक भरा रहेगा हम उतने ही अच्छे मनुष्य बन जायेंगे। 'या मति सा गतिर्भवेत' यह अभ्यास बिल्कुल logical है, सरलता से समझ में आ जाता है, गूढ़ तत्व इसमें कुछ नहीं है, मन को वश में रखने का सबसे सरल उपाय है। ॐ 
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[उत्तरप्रदेश के रुदौली में 19 अक्टूबर 1911 को जन्मे उर्दू के लोकप्रिय शायर मजाज़ की गिनती उन चंद तरक्कीपसंद शायरों में की जाती है जिसने बहुत ही कम उम्र में शोहरत की बुलंदियों को छू लिया। 46 साल की छोटी सी उम्र में इस नौजवान शायर ने शायरी के जो जलवे दिखाए उसकी चमक आज भी वैसे ही बरक़रार है। 
मजाज़ ने एक विराट स्वप्न देखा था जिसमे महज़ विदेशी हुक्मरानो से मुक्ति ही नहीं थी बल्कि हर तरह के शोषण-उत्पीड़न,धर्म की पाबंदियों और पिछड़ेपन से मुक्ति की भावना थी। 'ख्वाबे-सहर'उसी सपने की दास्ताँ है। कबीर ने कहा है -  सुखिया सब संसार है,खावै और सोवै . दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै। इंसान के 'जागरण'की अभिव्यक्ति पहले उसके रुदन होती है। ख्वाब और हक़ीक़त के बीच का फैसला मजाज़ को मायूस कर देता था। यही मायूसी उनकी शायरी की शक्ल ले लेती। थी हालाँकि मायूसी और अवसादग्रस्तता पर उनकी संकल्पशक्ति भारी पड़ती थी।'ख्वाबे-सेहर'में तो मजाज़ ने धर्म के परदे में चलने वाले फरेब,शोषण और गैरबराबरी को बेपर्द कर दिया है। 
 पूरी नज्म यूँ है -
खूब पहचान लो 'असरार' हूँ मै,
जिनसे-उल्फत का तलबगार हूँ मै।
 ख्वाबे-इशरत में है अरबाबे-खिरद,
और इक शायरे बेदार हूँ मै। 
ऐब जो हाफिज-ओ-खय्याम मै था,
हाँ कुछ उसका भी गुनाहगार हूँ मै। 
हूरो-गिलमां का यहाँ जिक्र नहीं,
नौ-ए-इंसा का परस्तार हूँ मै। 

[ मायने : हुरो -जन्नत की ७२ हूरों और, शराब की नदी और नौकरों ( जन्नत में कुंवारी और सुन्दर हूरें और साथ में सुन्दर अल्पायु के लडके भी दिए जायेंगे जिन्हें “गिलमा ” कहा जाता .गिलमा)/ जीन्स-ए-उल्फत=प्रेम नामक वस्तु, ख्वाबे-इशरत=ऐश्वर्य के सपने में, अरबाबे-खिरद=बुद्धिजीवी, शायरे-बेदार=जागरूक कवि, नोअ-ए-इंसा=मनुष्य मात्र, परस्तार=उपासक ] 

' ख्वाबे सहर:'
मेहर (कृपा)  सदियों से चमकता ही रहा अफलाक पर,
रात ही तारी रही इंसान की अदराक पर।
अक्ल के मैदान में जुल्मत का डेरा ही रहा,
दिल में तारिकी दिमागों में अंधेरा ही रहा।
आसमानों से फरिश्ते भी उतरते ही रहे,
नेक बंदे भी खुदा का काम करते ही रहे।
इब्ने मरियम भी उठे मूसाए उमराँ भी उठे,
राम व गौतम भी उठे, फिरऔन व हामॉ भी उठे।
 मस्जिदों में मौलवी खुतवे सुनाते ही रहे,
मन्दिरों में बरहमन श्लोक गाते ही रहे।
एक न एक दर पर जबींने-शौक घिसटती ही रही, 
आदमियत जुल्म की चक्की में पिसती ही रही।
रहबरी जारी रही, पैगम्बरी जारी रही,
दीन के परदे में, जंगे जरगरी जारी रही।
 (जबीने-शौक = प्रेम से भरा हृदय , जंगे-ज़रगरी =  धन-दौलत की जंग)
अहले बातिन इल्म के सीनों को गरमाते ही रहे,
जहल के तारीक साये हाथ फैलाते ही रहे।
जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,
जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।
कुछ नहीं तो कम से कम ' ख्वाबे सहर ' - देखा तो है ! 
जिस तरफ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है।]



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