गुरुवार, 15 अगस्त 2013

क्या राजनीति मनुष्य को गिरगिट बना देती है ?

प्रश्न : आत्मा क्या है ? 
उत्तर :  किसी देश के राजा और प्रजा दोनों मुर्ख थे उन्होंने एक साधू से पूछा आप बताइये कि बुद्धिमान किसे कहते हैं ? साधू ने कहा कि जो व्यक्ति आत्मा को शून्य कहकर उड़ा देता हो, वह मूर्ख है. श्रुति और शास्त्रों में आत्मा को जानने की युक्ति दी गयी है,श्रवण -मनन और निदिध्यासन - जिसकी सहायता से आत्मा को समझने में सहायता मिल सकती है. किन्तु उसको पुस्तकों के द्वारा या प्रयोग शाला में दूरबीन से देखकर या चिमटे से पकड़ कर दिखाया नहीं जा सकता कि देखो -यही आत्मा है. निर्धारित साधना पद्धति को सीख कर स्वयं आत्मा की उपलब्धी करनी होती है -या आत्मसाक्षात्कार करना होता है. शास्त्रों में ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्नम ' या  'जन्मादि यस्य यतः ' आदि सूत्रों के द्वारा केवल उसका संकेत भर दिया जा सकता है. यह दृश्यमान जगत प्रपंच ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है, उसी में स्थित है, फिर उसी में लीन हो जाता है. किन्तु इन बातों को भाषण के द्वारा नहीं समझा या समझाया नहीं जा सकता है. इसकी अनुभूति करनी होती है.
 एक बार किसी स्थान में पूछा गया था कि परमात्मा या ब्रह्म एक है, तो उससे इतनी आत्मायें कैसे निकली ? एक ही वस्तु के इतने टुकड़े हो गये तब तो ब्रह्म भी खत्म हो गया होगा ? ब्रह्म या आत्मा अनन्त हैं, विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि अनन्त का अंश नहीं होता। अनन्त से अनन्त को निकालने से अनन्त ही बचता है. इतनी आत्मायें कहा से आती हैं ? विश्व में मनुष्यों की संख्या छः अरब है, वास्तव में ये सभी भगवान के ही मूर्त रूप हैं- मनुष्य के रूप में हमें भगवान को ही देखने की विद्या अर्जित करनी चाहिये। मन्दिर को हमलोग भगवान का शो रूम कह सकते हैं, जिसे देखकर प्रत्येक मनुष्य शरीर रूपी मन्दिर में अवस्थित भगवान की याद हो जाती है.
आत्मा ही इस जगत का निमित्त और उपादान कारण दोनों हैं. जगत को निर्मित करने के लिये Raw Material जैसा अलग से कुछ नहीं है.
आमतौर से हमलोग जीवात्मा को आत्मा कहते हैं, किन्तु जीव का शरीर भी एक मन्दिर है, जिसमें वही ब्रह्म अवस्थित हैं. फिर उसके परे भी जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है. 'सोअयं आत्मा चतुष्पादः ' - समूचा विश्व ब्रह्माण्ड इसके एक पाद या एक अंश में अवस्थित है, उसके तीन पाद इसके परे हैं. इससे अधिक नहीं कहूँगा।
प्रश्न : धर्म का अर्थ यदि धारण करना है, तो क्या धारण करना है ? इसे समझाइये।
उत्तर: धर्म हमें धारण करता है, अर्थात हमारी रक्षा करता है. इसका अर्थ हुआ कि आध्यात्मिकता या रूहानियत ही वास्तव में धर्म है, जो हमें पशु बन जाने से बचाए रखता है, यह हमें राक्षस नहीं बनने देता है. हमें मनुष्य से देवता में उन्नत कर देता है.
प्रश्न : जन्म के पहले मैं कहाँ था ? मेरा स्वरुप क्या है ? 
उत्तर : गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को बोलते हैं,
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।४/५ ।।
" हे परन्तप अर्जुन मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ. " बुद्ध को भी अपना ५०० पूर्व जन्म याद था. किन्तु हमलोगों को इस बहस में न पड़कर यह देखना चाहिये कि इस जन्म में मेरा क्या कर्तव्य है ? कण्ठ फूट जाने के बाद कोई तोता राम राम बोलना नहीं सीख पाता है. इसलिये तरुण या युवा अवस्था में हमलोगों का पहला कर्तव्य अपने जीवन को गठित करना, चरित्र-निर्माण करके यथार्थ मनुष्य बन जाना है. नहीं तो इस जन्म के बाद , या इस शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद जहाँ कहीं भी जाउँगा, वहाँ इसी शरीर को लेकर तो नहीं जा सकूँगा ? यह प्रश्नोत्तर कठोपनिषद में है, महाभारत में है. 
मृत्यु के बाद कहाँ जाउँगा ? इसको जानने की  आवश्यकता अभी नहीं है. किन्तु अपना चरित्र निर्माण किये बिना यह युवा अवस्था बीत गयी तो, बुड्ढा हो जाने पर कुछ भी नहीं हो सकेगा। जब तक मिट्टी कच्ची है, उसके आकार में परिवर्तन लाया जा सकता है. किन्तु उसको पका देने के बाद उसके आकार में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है.
  मेरा स्वरुप क्या है ? यह कोई ' कौन बनेगा करोड़पति ' में पूछा जाने वाला प्रश्न नहीं है. आत्मा बोल देने से कुछ नहीं होगा- इसकी उपलब्धी करनी होगी। जगत और ब्रह्म स्वरूपतः  एक ही वस्तु है, ब्रह्म के सिवा अन्य कोई वस्तु नहीं है. ठाकुर ने कहा था - ' ब्रह्म ही वस्तु है बाकी सबकुछ अवस्तु है. ' वस्तु के उपर अवस्तु आरोपित है! किन्तु 'परिणाम वाद' और 'विवर्त-वाद' पर बहस करके इसे समझा नहीं जा सकता। द्रष्टा-दृश्य विवेक का अभ्यास करना होता है, यह सब मुख से कहने से कुछ नहीं होता। चरित्र गठन करने से ही पता चल सकता है. अपने स्वरुप की उपासना करो ! ऐसा किसने कहा ? इस शिविर में किसी की उपासना करना तो सिखाया नहीं जाता है. स्वामी विवेकानन्द से प्रेम करने को यदि उपासना समझते हो तो कर सकते हो. 
प्रश्न : धार्मिक मनुष्य (Religious) और धर्म-निरपेक्ष (Secular) मनुष्य में क्या अंतर होता है ?
उत्तर : अंग्रेजी का रिलिजन शब्द ग्रीक रूट ' Rejoining ' से हुआ है, हमलोग ईश्वर से आये  हैं, और धर्म के मार्ग पर चलकर उनसे पुनः मिल जायेंगे। Secular का अर्थ है धर्म से अलग रहना ' To shun Religion' . धर्म निरपेक्षता शब्द का अविष्कार धूर्त कांग्रेसियों ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच झगड़ा करवाने के लिये किया है. ठाकुर ने कहा है- मनुष्य को अपने जीवन आदर्श के रूप में ' सर्वधर्म समन्वय ' को अपनाना  चाहिये; Secular अर्थात ' सर्वधर्म समभाव ' की वकालत करने वाले राजनीतिज्ञ सोचते हैं- सभी धर्म बेकार हैं - इसलिये धर्म या आध्यात्मिकता और रूहानियत की बातों से जनता को दूर रखना चाहिये। ऐसा भाव मनुष्य को पशु या राक्षस बना देता है. 
प्रश्न: ईश्वर बनने की सम्भावना समस्याओं में दब कैसे जाती है ? 
उत्तर : ईश्वर छुपने और छुपाने के खेल में निपुण या expert है. वह मनुष्य की संभावना को समस्याओं के आवरण में छुपा देता है. बिलियर्ड बॉल की तरह समस्याओं से टकराते टकराते उन्हीं समस्याओं के बीच से ईश्वर स्वयं प्रकट हो जाता है. समस्याओं को हल करने के प्रयत्न में ईश्वरत्व प्रकट हो जाता है. अपने ही अनादर वह आनन्द को छुपाये हुए है, किन्तु मनुष्य को लगता है, नये साल को मनाने के लिये शराब पीने से आनन्द होगा। किन्तु जो विवेकी होता है, वह जानता है कि ' नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ! ' किन्तु बोतल नहीं नाचती मनुष्य नाचने लगता है. 
रूहानियत के नशे में सूफ़ी फ़क़ीर लोग भी नाचने लगते हैं. हमलोगों के ह्रदय के अन्दर वह ईश्वर ही प्रेम (आनन्द) का चुम्बक बन कर छुप गया है; वही चुम्बक दूसरों के ह्रदय को खीँच रहा है. वास्तव में समस्यायें नहीं, आनन्द और प्रेम ही हमें खीँच रहा है; किन्तु हम दूसरों को अपना बनाने की कला नहीं जानते इसीलिये अपने रिश्तेदारों में., सास-बहु एक दूसरे में ईश्वर को देखना नहीं जानते। यदि मानव मात्र में वही विद्यमान हैं, इस सत्य को अपनी उपलब्धि से कोई नहीं जान लेता तो समस्याओं को देखकर उसका विश्वास डोल जाता है, और वह डर कर पहले ही आक्रमण कर देता है. गुगली वाले गेन्द को देखकर जैसे बैट्स मैन डर जाता है. और जल्दी रन पूरा करने मत दौड़ो गेन्द को खेल देना ही काफी है. गेन्द को स्वीकार कर लेना ही काफी है. हमने जो आर्डर दिया था, वही पार्सल आ रहा है. पार्सल को खोलकर देखो, धैर्य है तो समस्याओं को दूर हटकर संभावनाएँ खुल जायेंगी; ईश्वर की लीला समझ में आ जाएगी। इसके अन्दर किसको छुपाया है, बाहर से देखकर समझ ही नहीं आता. नव वर्ष की शुभकामना में बहुत कुछ छुपा हुआ है. हमें यह विचार करना चाहिये कि इस वर्ष हमने अपनी कितनी और कौन कौन सी संभावनाओं को अभिव्यक्त कर लिया है ? ' well begun is half done ' कोई जाग्रत व्यक्ति ही इस कहावत का वास्तविक अर्थ समझ सकता है. 
यदि सही दिशा में चलना शुरू कर दिया तो अब हमारे आगे मन का नाटक और अधिक चलने वाला नहीं है. कम परिश्रम से ज्यादा आनन्द मिलने वाला है. अब हमलोग समस्या रूपी गुगली बॉल से घबड़ाने वाले नहीं हैं. क्या हममें अपने आप पर अकंप विश्वास है ? अटल विश्वास कभी काँप नहीं सकता है. हर समस्या के आने पर उसको खोलकर देखने की स्वीकारता ही उसकी चाभी है, जब तक कोई समस्या डरावनी लग रही है, हमारी प्रार्थना भी चलती रहनी चाहिये। जलालुद्दीन रूमी की कविता है 
The Guest House

This being human is a guest house.
Every morning a new arrival.

A joy, a depression, a meanness,
some momentary awareness comes
As an unexpected visitor.

Welcome and entertain them all!
Even if they're a crowd of sorrows,
who violently sweep your house
empty of its furniture,
still treat each guest honorably.
He may be clearing you out
for some new delight.

The dark thought, the shame, the malice,
meet them at the door laughing,
and invite them in.

Be grateful for whoever comes,
because each has been sent
as a guide from beyond.

From Essential Rumi

पुरे वर्ष के लिये ३६५ प्रार्थनायें बनानी हैं, रोज एक नई प्रार्थना करनी है. हमारे A.C. से रूहानी हवा आनी चाहिये, राहत वाली हवा हमें नहीं चाहिये। "Believe, and You are Saved"(John 6:40)
For this is the will of God, that every one who sees the Son and believes in him should have eternal life; and I will raise him up at the last day." स्वरुप के उपर जो निगेटिव राख जमा हो गया है, वह प्रार्थना के बल पर उड़ जायेगा। जो प्रार्थना हमारे ह्रदय चुम्बक को छू जाती हैं, वे अवश्य ही विश्वास की अनुभूति करता है -सेल्फ को रियालाइज करता है. 'You are light of my life; you are sleeper of my soul '
पैर के तलवे को भी सोल Sole कहा जाता है. चरित्रवान मनुष्य वही है, जिसका विवेक सदा जाग्रत रहता है, स्वप्न में भी उससे कोई बुरा कार्य नहीं हो सकता है. आदत ही परिपक्व होकर व्यसन बन जाता है. व्यसन की गुलामी ही पशु बनाये रखती है. एक एक कर के समस्त व्यसनों को तोड़ डालो। प्रचण्ड इच्छा शक्ति और दृढ संकल्प के बल पर मनुष्य बन जाओ ! 
*' सामूहिक ध्यान ' नहीं हो सकता, 'सामूहिक प्रार्थना' की जा सकती है. काली और नरेन्द्र एक साथ बैठकर ध्यान कर रहे थे, नरेन्द्र ने काली के शरीर को स्पर्श कर दिया तो उनका सारा भाव नष्ट हो गया. ठाकुर को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने नरेन्द्र को डांट लगाई थी - उसका अपना भाव क्यों खराब करते हो. समूह में बैठकर ध्यान करते समय यदि हम दूसरों को शरीर से न भी स्पर्श करें तो भी विचार तरंगों का प्रभाव दूसरों के मन पर पड़ता है. मोबाईल के जमाने में ह्मोग ध्वनी तरंगों के माध्यम से ही तो बात करते हैं. यदि एक साथ कई लोग ध्यान में बैठेंगे तो उनकी विचार तरंगे आपस में टकराएंगी। इसलिये ग्रुप में बैठकर ध्यान करने को सही नहीं कहा जा सकता, अभी सुनने में आया कि भुनेश्वर में एक लाख लोग एक साथ बैठकर ध्यान किया। पर उनको मिला क्या होगा ?
* महामण्डल का एक भी कार्यकर्ता paid worker या (वेतन भोगी कर्मी )नहीं है. इस तरह की एक भी संस्था विश्व में कहीं नहीं है, जिसके ३१५ शाखायें हैं. आज से केवल १० साल पहले ऐसी एक संस्था आस्ट्रेलिया में खुली है. 
* आग का धर्म है जला देना, बर्फ का धर्म शीतलता है- किन्तु यह उनकी विशिष्टता या Individuality नहीं है, यह तो उनकी Natural Quality या प्राकृतिक गुणवत्ता है. किन्तु प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन गठित करने या चरित्र का निर्माण करने के लिये स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है. चरित्र मनुष्य का जन्मजात या स्वाभाविक गुण नहीं है, उसमें परिवर्तन लाया जा सकता है, अंश से पूर्ण बनना पड़ता है. पशु-पक्षी-वृक्ष आदि तो पहले से पूर्ण होते हैं, आग, पानी, बिजली आदि भी पहले से पूर्ण होते हैं, किन्तु मनुष्य को अपना विवेक-प्रयोग करके प्रचण्ड इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प के बल पर मनः संयोग सीखकर चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ता है. किसी मनुष्य में जन्म से ही धर्म नहीं होता। चरित्रवान मनुष्य को ही शिक्षित या धार्मिक मनुष्य कहा जाता है.
* 'चरैवेति चरैवेति'- का अर्थ है; और आगे जाओ ! और आगे जाओ ! किसी गरीब लकड़हारे से संसयासी ने कहा था-जंगल में लकड़ी काटते हुए और आगे जाओ- उसकी बात मान कर आगे बढ़ने से आगे उसे चन्दन का वन मिला, और आगे जाने पर चाँदी -सोना-हिरा आदि का खान मिला और वह लकड़हारा मालामाल हो गया; किन्तु उस संन्यासी ने लकड़हारे को कहा और आगे जाओ, एक साधू की कुटिया मिलेगी-वहाँ तुम उस परम चैतन्य को प्राप्त कर लोगे जिससे सबकुछ निकला है, जिसमें अवस्थित है, और जिसमें लीन हो जाता है. संसारी क्षण-भंगुर विषयों को  भोगने में अपना जीवन व्यर्थ न करो, अपनी 3H की शक्तियों का वृथा क्षय करने से कोई लाभ नहीं होगा। पहले एक दीपक जलता है, फिर उससे दूसरा दीपक जलता है; किन्तु एक दीपक से एक साथ १००० दीपक नहीं जल सकता है. सामूहिक ध्यान के द्वारा एक साथ १००० मन को प्रदीप्त नहीं किया जा सकता है-उनको electrocute किया जा सकता है-अर्थात विद्युत् के झटके से मारा जा सकता है. जैसे एक ही स्विच को दबाने से १००० टुन्नी बल्ब जल जाते हैं, किन्तु यदि हाई वोल्ट का करेन्ट निकला तो, एक विद्युत् के एक ही झटके कितने ही बल्ब फ्यूज भी हो सकते हैं. इसीलिये सभी को चैतन्य एक साथ मिल जाय -यह आवश्यक नहीं है; पहले योग्य पात्र बनो चरित्र निर्माण करो !
* राजनीतिज्ञ और गिरगिट एक जैसे होते हैं ! राजनीतीक नेता बनने का अर्थ है - मनुष्य से गिरगिट बनजना ! एक-आध अपवाद भी हो सकते हैं - जैसे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ! किन्तु दर्जी से खादी का कुर्ता-पैजामा सिलवाकर कोई नेता नहीं बना जाता है- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने के लिये पहले चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ता है नहीं तो प्रधानमन्त्री बनने के बाद भी कोएले की कालिख से मुँह काला हो जाता है. आई. पी. एस. होकर सीबीआई के डिरेक्टर को भी तोता बन जाना पड़ता है ! एक ही राजनैतिक पार्टी में हरा-पीला-लाल-नीला रंग के नेता होते हैं, या कोई सेप्रेटिस्ट, कोई बाम पंथी कोई दक्षिण पंथी भी हो सकता है. लेकिन सभी राजनीतिज्ञ लोग गिरगिट ही होते हैं- लाभ होता देखने से, अवसर देखकर गिरगिट के जैसा रंग बदल लेते हैं.  इसीलिये महामण्डल में राजनीति का प्रवेश पूरी तरह से निषिद्ध है !! जो बात स्वयं समझ में आ गया है, वही बोलता हूँ, पुस्तक में अच्छी बाते हैं, उनको रट कर नहीं बोलता हूँ.
* डंके की चोट पर कह सकता हूँ कि -' स्वामी विवेकानन्द के जैसा दूसरा मनुष्य आजतक पृथ्वी पर नहीं जन्मा है ! ' ठाकुर-माँ-स्वामीजी चुम्बक के बहुत बड़े पहाड़-Great Magnet  जैसे है उनके सामने यह शरीर रूपी नौका जैसे ही पहुँचेगी इसमें लोहे से बने जितने भी नट -बोल्ट लगे हैं सभी खुल जायेंगे ! अर्थात मन इन्द्रिय विषयों में आसक्त रहना छोड़ देगा, इन्द्रियों की समस्त जंजीरे टूट जाएँगी ! जैसे कोई शिप यदि किसी चुम्बक के पहाड़ के निकट से गुजरेगा -तो जिन पटरों को लोहे की कील ठोक कर जोड़ा गया था, वे सभी कीलें उखड़ जाएँगी
* नेता को पूर्ण ह्रदयवान मनुष्य बनना पड़ता है - Be a heart whole Man ! स्वामीजी कहते हैं-' बनो और बनाओ ' Be and Make !' इतने बड़े काम को अकेला नहीं कर पाउँगा - इसीलिये जवानी की उर्जा से भरपूर युवाओं का एक संगठन बनाना होगा। आनन्द मठ के लेखक बंकिमचन्द्र ने कहा था- हे वर्षा की बूँदों ! तुम अकेले मत धरती पर गिरना। धरती पर गिरते समय सभी से कहो- आई भाइयों हम सभी एक साथ उतरें! इसीके लिये हम  ह्रदय एक सामान हो. आकूति - फल की प्राप्ति एक समान हों. हमलोग एक ही बात कहेंगे - भारत का कल्याण ! चरित्र-निर्माण और मनुष्य निर्माण ! तुम बंकिमचन्द्र द्वारा कथित वर्षा की बून्द बनो ! अपने साथ पढने वाले सभी युवाओं को स्वाती नक्षत्र की बून्द पीने के लिये इस कैम्प में लेकर आओ ! देश की अवस्था बहुत खराब है. शक्ति को ही वीर्य कहते हैं, शक्ति को बर्बाद मत करो ! तुम युवा लोग चरित्रवान मनुष्य बनकर देश की हालत को सुधारो ! आतंकवादी हिंसा या तोड़-फोड़ करने से देश नहीं बनेगा !
* चरित्र गठन के लिये डिग्री होना आवश्यक नहीं है: अभी हाल ही में Value Education  " मूल्य-आधारित शिक्षा" के नाम पर ' Art of Living ' की पुस्तिकाओं को बहुत सी स्कूलों में वितरित किया जा रहा है. किन्तु किसी हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक ने पूछा है कि -इन पुस्तकों को पढ़ने वाले शिक्षक कहा से आयेंगे ? इसमें केवल संकेत भर दिये गये हैं - किन्तु इसकी व्याख्या कौन करेगा ? मैं एकबार पाठ चक्र में जाने के लिये स्टेसन पर खड़ा था एक शिक्षक भी पास में खड़ा था, उसका एक छात्र जब वहाँ आया तो अपने ही छात्र को जेब से निकाल कर एक सिगरेट दिया और दोनों ने एकसाथ प्लेटफ़ॉर्म पर ही सिगरेट पीना शुरू कर दिया। हमलोगों ने पढ़ा था - माता पिता अतिथि भी नारायण नारायणी हैं, गुरु माथा के मणि हैं, ये सभी साक्षात् नारायण हैं ! किन्तु चित्त विनोद के चक्कर में पड़कर शिक्षकों का चित्त ही जड़ हो रहा है, विनोद क्या है- यह शिक्षक क्या जानेगा ?
चरित्र गठन के लिये डिग्री होना आवश्यक नहीं है, जिस व्यक्ति के पास कोई डिग्री नहीं है-वह भी चरित्रवान मनुष्य बन सकता है. चैतन्य देव बहुत बड़े विद्वान् थे लेकिन ठाकुर के पास कोई शिक्षा नहीं थी, पुराणों में जितने महापुरुष हुए हैं-उनका चरित्र महान था, किन्तु शिक्षा साधारण ही थी. Values का अर्थ होता है- सदभाव या जीवन-मूल्य किन्तु हमारे नेताओं को Value Education किसे कहते हैं-यह भी पता नहीं है.
* Intellect is the function of Manas  or mind but Heart is the seat of feeling. मन के चार कार्य -संशयो, निश्चयो, गर्वं, स्मरणं च धारणा. चित्त है संचित स्मृतियों का गोदाम या भण्डार घर, यही  अहं या कर्तापन अहंकार बन कर स्मरण करता और धारणा करता है, चित्त ही मन-वस्तु mind stuff है-  चित्त तरंगायित होकर जब मन बन जाता है, तब वह  संकल्प-विकल्प करता है या संशय करता है।  बुद्धि का कार्य है निश्चय करना, किन्तु अहं के बिना संशय कौन करेगा? कर्ता के बिना कर्म नहीं हो सकता यहाँ अहंकार का अर्थ डींगे हाँकना या boasting नहीं है. किन्तु 3H में आत्मा के लिये Heart क्यों कहा है ? स्वामीजी ने एक दिन विचार किया कि मानव शरीर में आत्मा का आसन कहाँ होना चाहिये ? शरीर विज्ञान की सहायता से यह समझे कि Physical Heart तो blood pumping मशीन है, यह रक्त संचार को नियंत्रित करता है; उसके नजदीक ही एक ग्रन्थि है जिसका नाम ही ' Sympathetic ganglia ' या सहानुभूति ग्रन्थि है. पता नहीं किस वैज्ञानिक ने क्या सोचकर इसका यह नाम रख दिया होगा ? लेकिन आत्मा का काम भी तो सहनुभूति करना है. विज्ञान के बिना धर्म अन्धा है, धर्म के बिना विज्ञान पंगु है. अपने हृदय को जानो तुम्हें अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जायेगा।
* प्रवृत्ति और निवृत्ति भगवान ने जब इतनी सुन्दर सृष्टि बनाई और उसमें स्वयं छुप गये तथा इतने विवेकी मनुष्यों को बनाया जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है, तब उन्होंने स्वयं को जानने के दो मार्ग बनाये - प्रवृति और निवृत्ति। जब सृष्टि बनी तभी से प्रवृत्ति मार्ग बना - yes, I want to be engaged in the world; मैं इस जगत के आनन्द का उपभोग करूँगा, और जी भरकर उपभोग करने के बाद जिस जन्म में गुरु मिलेंगे इसको निस्सार समझने के बाद इसको त्याग कर भगवान को पकड लूँगा ! प्रवृत्ति का अर्थ है- आनन्द पाने के लिये जगत को स्वीकार करना। निवृत्ति का अर्थ है - त्याग - इस जगत में जिसे तुम सुख समझ रहे हो, वो तो दुःख कारण है, इसलिये निवृत्ति मार्गी ऋषि स्वामी विवेकानन्द एवं हमारे उपनिषद मनुष्यों के त्याग पूर्वक भोग करने का उपदेश देते हैं. जब ठाकुर ने बंकिम चन्द्र से पूछा कि तुम क्या करते हो ? इसके उत्तर में आनन्द मठ के रचयिता बंकिम चन्द्र बोले- आहार,निद्रा, भय और मैथुन ! तन ठाकुर ने  उन्हें धिक्कारते हुए कहा था- देखता हूँ तुम नाम से ही नहीं अक्ल से भी टेढ़े ही हो, छेछड़ा आदमी हो क्या ? ये वही बंकिम चन्द्र हैं, जिन्होंने वन्दे मातरम रचा था. उनको हमलोग प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि समझ सकते हैं.


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