मंगलवार, 13 अगस्त 2013

श्री मनोज साधवानी द्वारा ' स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश '

परमपूज्य स्वामी रंगनाथानन्द ने एक बार कहा था- " मैंने समग्र विवेकानन्द साहित्य ७१ पढ़ा है, और अभी ७२ वीं बार पढ़ रहा हूँ।" स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा था, मैंने सम्पूर्ण मानवता के लिये क्या किया है, इसे कोई दूसरा विवेकानन्द ही समझ सकता है। 
१.  उनके अविर्भाव की पृष्ठ भूमि: उनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी ने भगवान शिव (काशी विश्वनाथ) से पुत्र बनकर स्वामीजी के रूप में जन्म लेने की प्रार्थना की थी. स्वामीजी निवृत्ति मार्ग के ऋषि थे, जिनको समाधी से जगा कर धराधाम पर स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने धराधाम पर अवतीर्ण कराया था। जिस प्रकार प्रभु श्रीराम का का काज करने के लिये हनुमाजी महाराज समूद्र लाँघ गये थे, ठीक उसी प्रकार स्वामीजी महाराज ने भी ७ समूद्र लाँघकर ठाकुर द्वारा सौंपे गए कार्य - (नरेन् पूरे विश्व को शिक्षा देगा !) को पूरा कर दिखाया था। श्रीरामकृष्ण देव ने स्वयं यह कहा था कि जो राम जो कृष्ण वही रामकृष्ण; उनके इस कथन से भी यही सिद्ध होता है कि रामावतार में जो स्वामीजी हनुमान बन कर आये थे।  रामकृष्ण-अवतार के साथ वही हनुमानजी स्वामीजी बन कर आये थे. स्वामीजी का दृढ़ संकल्प नचिकेता के सदृश्य था।  इसीलिये कठोपनिषद के उत्तिष्ठत जाग्रत मन्त्र को सुना कर उन्होंने अपने ' कोलम्बो टू अल्मोड़ा ' लेक्चर के द्वारा सम्पूर्ण भारत की आत्मश्रद्धा रूपी कुण्डलिनी को जाग्रत कर दिया था। पूज्य नवनीदा की भाषा में कहें तो- " स्वामी विवेकानन्द हम युवाओं के गुरु, सखा और मार्गदर्शक नेता हैं ! जो उनको जिस रूप में चाहे ग्रहण कर सकता है. 
२.  उनका जीवन-चरित : (प्रथम १८ वर्ष ) अब उनके जीवन पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाये। १२ जनवरी १८६३ को उनका जन्म हुआ, उनके बचपन का नाम बिले था. तब से लेकर १८८१ ई तक १८ वर्ष के नरेन्द्रनाथ बनने तक की घटनाओं  को देखें. बाल्यकाल से ही साहसी, बुद्धिमान, दयालु, गंभीर, गंभीर ध्यानी, संगीत पारंगत, कसरती थे. ज्ञानी तो इतने थे कि छात्र जीवन में ही जर्मन दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर, कान्ट, हेगल आदि के पुस्तको का अध्यन कर लिया था. यही नहीं आगे चलकर जब उन्होंने हर्बर्ट स्पेन्सर को उनकी पुस्तक में वर्णित गलतियों पर उनका ध्यान आकृष्ट किया तब उनके कहे अनुसार स्पेन्सर ने उन त्रुटियों को सुधार लिया था।  उनके कॉलेज के प्रिंसिपल विलियम हेस्टि ने भी अपने छात्र की अद्भुत मेधा का उल्लेख किया था। 
३. ठाकुर के सानिध्य में :(१८८१ से १८८६ तक) स्वामीजी की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी, बिना स्वयं परीक्षा किये किसी भी बात को स्वीकार नहीं करते थे. सबसे पहले अपने गुरु की परीक्षा लेते हैं. ' टाका माटी, माटी टाका ' को एक समान जानकर ठाकुर ने इस अनुभूति को इतना आत्मसात कर लिया था, कि उस समय प्रचलित चाँदी के सिक्के को छूने से भी उनको काँटा चुभने जैसा दर्द होता था. उनके बिछावन के नीचे एक सिक्का रखकर इसकी सत्यता को भी जाँचा कर देख लिया था. गुरु भी समझ गये थे, यह किसका कार्य हो सकता था ? यह एक अद्भुत गुरु-शिष्य सम्बन्ध था. ठाकुर से उन्होंने सीखा था, ' जीवों के उपर दया नहीं, शिव ज्ञान से जीव सेवा ! 'उसी  समय उन्होंने कहा था, यदि मुझे अवसर मिला तो मैं ठाकुर के इस उपदेश को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करके दिखा दूंगा ! इसी ६ वर्ष की अवधि में ठाकुर ने नरेन्द्रनाथ के जीवन को एक मार्गदर्शक नेता के रूप में गढ़ दिया था। 
४. समाधी का त्याग और चपरास : ठाकुर का शरीर रुग्न हो जाने पर जब वे काशीपुर उद्द्यान बाटी में थे, उन्होंने उसी समय से मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता के निर्माण का प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया था. और भावी नेताओं में त्याग और सेवा भावना को प्रविष्ट कराने के उद्देश्य से -जब स्वामीजी ने समाधि के आनन्द में डूबे रहने की इच्छा व्यक्त की थी तब ठाकुर ने उनकी भर्त्सना करते हुए कहा था- छिः छिः तुम अपनी मुक्ति के लिये कामना करते हो ? लोक कल्याण के लिये अपनी मुक्ति या अमृत तक का त्याग कर देने का उपदेश दिया था. और विश्व के भावी मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने का सामर्थ्य (शक्ति-पात) प्रदान करके -एक स्लेट पर लिखकर ' चपरास ' दे दिया था - " नरेन्द्र शिक्षा देगा ! "
५. परिव्राजक जीवन : अंग्रेजी शासन की बेड़ियों में जकड़ी 'भारत- माता ' के फैले हुए बायें हाथ, कोलकाता से प्रारंभ करके दाहिने हाथ पश्चिम में गुजरात के कक्ष-भुज तक, और उसके मस्तक कश्मीर से प्रारंभ करके, उन्होंने दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी तक परिभ्रमण करते हुए, अंत में भारतमाता  के चरण कन्याकुमारी की शिला पर बैठकर गौरव शाली अतीत, गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी वर्तमान की दुर्दशा, और भविष्य में भारत माता को विश्व-गुरु के सिंहासन पर आसीन होते हुए देख लिया था. तथा भारतमाता की आत्मा कहाँ बसी हुई उसको भी खोज निकाला था और कहा था -भारत का भविष्य इतना गौरशाली बनने वाला है, जितना वह अतीत में भी नहीं थी. 
६. नरेन्द्रनाथ से विश्वविजयी विवेकानन्द: १८९३ तक पाश्चात्य भ्रमण, १८९७  में कोलम्बो से अल्मोड़ा तक घूम-घूम कर सारे भारत को मोहनिद्रा से जाग्रत करने के लिये वेदान्त मन्त्र 'उत्तिष्ठत जाग्रत ' सुना कर भारत की कुण्डलिनी को जाग्रत कर दिया। उनका वही सन्देश भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का आधार बना. विदेशों भारत लौटने के बाद उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन के नेता अश्विनी कुमार दत्त से Congress की पोल खोलते हुए कहा था Indian National Congress के एक विदेशी संस्थापक,एक अंग्रेज I.C.S ए.ओ.ह्युम तथा उसके प्रथम अध्यक्ष डब्लू.सी. बोनर्जि जैसे अंग्रेज-परस्त लोग जो भारत भारत में पूजा और नमाज में झगड़ा लगा कर, धर्म को राजनीती से अलग करवाकर, दीर्घ काल तक भारत में अंग्रेजों के राज्य को स्थायी कराना चाहते हैं।  ए. ओ. ह्यूम तथा डब्लू. सी. बोनार्जी द्वारा स्थापित कांग्रेस का बनारस अधिवेशन तो  तीन दिन का तमाशा है, इसके अधिवेशन में भारत के अभिजात्य वर्ग को I.C.S की परीक्षा में उम्र छूट के लिये जो प्रस्ताव पारित किया गया था उसकी भाषा को देखने से भारी शर्मिन्दगी होती है.  देश को जीवन्त माता माता के रूप में देखो और उसके सगुण रूप की आराधना करो.  ' सिंहवाहिनी भारतमाता ' के सगुण रूप से जोड़ने की परामर्श के कारण वन्देमातरम द्वारा स्वंत्रता आन्दोलन का नारा बना और देश आजाद हुआ। सनातन धर्मावलम्बियों की आँखे खोलने के लिये , उनके खोये हुए आत्मगौरव को पुनः प्राप्त करने के लिये यह कहना कि - मुझे हिन्दू संन्यासी कहना उचित नहीं, बल्कि अनजाने ही उस प्रकार अपमानित करना है, जैसे पंचानन को पेंचो कहना!
७. रामकृष्ण मठ-मीशन की स्थापना : सनातन धर्म की गुरु-शिष्य परम्परा को पुनर्स्थापित करने के लिये एक विशुद्ध संन्यासी किन्तु भारत प्रेमी सन्यासी मठ की स्थापना   
८. मायावती तथा प्रबुद्ध भारत :  अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के लिये मायावती मठ तथा प्रबुद्ध भारत पत्रिका की स्थापना की थी क्योंकि वे चाहते थे कि श्रेष्ठ विचार जन जन तक पहुँच जाएँ।  " जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं  श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें।  हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह सर्वसाधारण को जानने दो।  विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो।  रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो।  देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ।  " धर्म को बिना हानी पहुँचाये जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "
९. बेल-पत्र के तीन पत्ते: ठाकुर-माँ के बिना स्वामीजी के जीवन को समझना आसान नहीं होगा। क्योंकि किसी विशेष प्रयोजन को सिद्ध करने के लिये ही उन्होंने स्वामीजी को तैयार किया था. विश्व के समस्त धर्मों में समन्वय स्थापित कराने की शिक्षा देने में समर्थ नेता का निर्माण करने के लिये, पहले ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) ने स्वयं पूजा और नमाज आदि विभिन्न धर्म-पथों से साधना करने के बाद, अपने जीवन से प्रमाणित करते हुए कहा था - ' जितने मत उतने पथ !' ठाकुर के आने के बाद ही, विश्व के समस्त देशों में 'Universal Religion' या ' सार्वभौमिक धर्म ' के उपर चर्चा आरंभ हो गयी थी.
१०. माँ सारदा: ने कहा था, ठाकुर देव का आगमन मातृत्व शक्ति को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिये हुआ था. 
११. स्वामीजी के जीवन के चार प्रमुख आयाम थे- भारतप्रेमी, युवाशक्ति का सदुपयोग, गुरु, संगठन क्षमता! 
१२.भारत के प्रति सन्देश: हे भारत! मत भूलना कि तुम्हारी नारी जाति का आदर्श सीता, सावित्री और दमयन्ती हैं ! यदि मुझे प्राचीन भारतीय संस्कृति संस्कृति और तथाकथित आधुनिक भारतीय संस्कृति में से किसी एक को चुनने को कहा जाय, तो मैं प्राचीन भारतीय संस्कृति के पक्ष में ही अपना मत दूंगा। क्योंकि जो व्यक्ति पाश्चात्य सभ्यता और अपनी देव-संस्कृति को भूल कर केवल अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा-पद्धति के अनुसार अपना जीवन गठित करते हैं, उनके भीतर रीढ़ की हड्डी या मेरुदण्ड ही नहीं होता है. भारत माता अब जाग चुकी है, अब वह कभी सो नहीं सकती, हमलोगों को अब उन्हें फिर से विश्व-गुरु के सिंहासन पर आसीन करवाना होगा ! ईश्वर अवतरित ही होते हैं, दीन-दुखियों और असहायों की सहायता करने के लिये। 
१३. युवाओं के प्रति सन्देश : उन्होंने आजादी से पहले ही सावधान किया था - यदि संगठित प्रयास के द्वारा चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं किया गया, तो आज जिस प्रकार हमारे देश को विदेशी राजा लोग लूट रहे हैं, आजादी के बाद देशी राजा लोग लूटेंगे। शिकागो भाषण के बाद अमेरिकी समाचारपत्र Herald में समाचार छपा था- जिस देश में स्वामीजी जैसे प्रबुद्ध लोग रहते हों, उस देश भारत में अब हमारे ईसाई मिशनरियों या धर्म-प्रचारकों को भेजने की आवश्यकता नहीं है. और उसके बाद से ही भारत के प्रति पाश्चात्य देशों में हीन भावना थी वह पूरी तरह से बदल गयी थी.
 तरुण और युवा मित्रों को लिखे एक पत्र में उनहोंने कहा था- " याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है. क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनके खोये हुए व्यक्तित्व (individuality या आत्मश्रद्धा) उन्हें वापस दे सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता; कार्य-कौशल तथा पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो ? क्या तुम उसी के साथ साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा तथा आध्यात्म-साधनाओं में कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही ! 

(" Yes, We Can ! We Will Do !) तुम सबने इसीके लिये जन्म लिया है. अपने  विश्वास रखो. दृढ़ संकल्प, दृढ इच्छाशक्ति ही महत कार्यों की जननी हैं! Onwards for ever ! (क्रम विकास- Be and Make के मार्ग पर) हमेशा आगे ही बढ़ते रहो, " मरते दम तक गरीबों और पददलितों के लिये सहानुभूति- यही हमारा आदर्श वाक्य है ! " बहादुर लड़कों, आगे बढ़ो ! "(२/३२१)
तभी तो हजारों युवा आज अपनी मातृभूमि के लिये अपने प्राणों की आहूति देने को तैयार हैं. उन्होंने कहा था, यदि पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं आ सकता तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना होगा। अर्थात यदि भारत के गरीब और पददलित लोग उच्च विचारों को ग्रहण करने लिये साधू-सन्तों के पास नहीं आ सकते तो साधू-संतों को ही उनके पास जाना होगा। 
१४. भारत एवं विश्व के कल्याण के लिये संगठन : स्वामीजी विश्व सभ्यता को प्रबुद्ध बनाने के उद्देश्य से अमेरिका के विभिन्न स्थानों पर जितने ' वेदान्ता सोसाईटी ' की स्थापना की थी उनके कार्यो में तेजी लाने के उद्देश्य दुबारा पाशचात्य देशो की यात्रा की थी.

१५. प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों के लिये:  उनका उपदेश था - Be and Make ! उन्होंने कहा था- " साथ ही एक केन्द्रीय महाविद्यालय (गृही पुरुषों के लिये अ ० भा० वि० यु० महामण्डल तथा स्त्रियों के लिये सारदा नारी संगठन ) एवं  भारत की चारों दिशाओं में उसकी विभिन्न शाखाएँ स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। खूब मेहनत से कार्य करो. ….मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन लोगों भी को दी जाये।"
 " जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं  श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुंचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें. हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह सर्वसाधारण को जानने दो. विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो. रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो. देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ. " धर्म को बिना हानी पहुँचाये जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "
१६. निवृत्ति मार्गियों के लिये: ठाकुर से फटकार खाने के बाद उन्होंने जो समझा था उसीको ध्यान में रखते हुए, उन्होंने निवृत्ति मार्गियों के लिये सन्देश दिया था -" आत्मनो मोक्षार्थं जगत हितायच !" उनके इन्हीं दो संदेशों के माध्यम से जो जहाँ पर है, अपने अपने अभिरुचि के अनुसार दोनों मार्गों में से किसीएक को चुन कर अपना मनुष्य जीवन सार्थक बना सकता है।
[' स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश चाम्पा , छत्तीसगढ़ के प्रिय भाई ' श्रीमनोजसाधवानी ; सरिसा आश्रम कैम्प २८. १२. २००५ ]




 
 

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