बुधवार, 19 दिसंबर 2012

'जन-साधारण की उन्नति और स्वामी विवेकानन्द' (भारत गाँवों में बसता है ) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [55] (9.समाज और सेवा),

भारतवर्ष का कल्याण ही विश्व का कल्याण है !  
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का एक विशेष पहलु है। वे जितना भी जगत की विकास की बातें क्यों न करते हों, समस्त बातों को कहते समय उनकी दृष्टि उस गरीब मनुष्य पर ही टिकी रहती थी। उनको उपर उठाना होगा, उनको सुखी करना होगा। स्वामीजी यह मानते थे कि जनसाधारण को उपर उठाने का अर्थ है, भारतवर्ष को उपर उठाना; और भारतवर्ष के उत्कर्ष का अर्थ है, सम्पूर्ण विश्व का कल्याण। स्वामीजी ने जो भी चिन्तन किया, कहा और किया सबकुछ इसीके लिये था।
उनका समग्र उच्च चिन्तन-उनका राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, वेदान्त, मायातत्व - सम्पूर्ण भावाभिव्यक्ति के केन्द्र-बिंदु में थी भारत की आम-जनता। वे जानते थे कि समष्टि की मुक्ति हुए बिना व्यक्ति की मुक्ति भी नहीं हो सकती है। जो लोग नीचे गिरे हुए हैं, उनको उपर उठाना होगा; उनके लिये सभी प्रकार की मुक्ति, स्वाधीनता का अवसर प्रदान करना होगा। जो प्रजा झोपड़ियों में निवास कर रही है, जो लोग गांवों में रहते हैं, वही है यथार्थ भारतवर्ष ! वे कहते थे-" भारत तो गांवों में ही बसता है। " जब उनकी उन्नति संभव होगी, तभी विश्व सभ्यता का अभ्युदय संभव होगा।
समग्र विवेकानन्द -साहित्य का, उनके विचार-विश्लेषण का मुख्य स्वर है- व्यक्ति मनुष्य द्वारा अपना मूल्य  आविष्कृत कर लेने, स्वयं अपने रहस्य का उद्भेदन करने के माध्यम से समष्टि के साथ उसके (व्यष्टि के)   सम्पर्क-सूत्र को ढूँढ़ निकालने, या व्यष्टि और समष्टि के बीच संबन्ध की कड़ी को ढूँढ़ निकालने में ही, सम्पूर्ण मानवता के यथार्थ कल्याण का बीज छुपा हुआ है ! मनुष्य जब अपने स्वरुप का अन्वेषण कर लेता है, अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेता है, तब उसको यह अनुभूति होती है कि -समष्टि के बिना तो व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है ! उस एकात्मबोध या अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति-सम्पन्न होकर, उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख का अनुभव करते हुए धीरे धीरे आगे बढना- जीवन की सच्ची उन्नति, दिव्यता की सच्ची अभिव्यक्ति इसी प्रकार होती है, इसीको मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना कहते हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते है- " अपने यथार्थ स्वरुप का अनुसन्धान करना ही मनुष्य का भाग्य है। " स्वयं देख लेने के बाद हो, या दूसरों की सहायता से हो- मनुष्य को आत्मसुखी, आत्म-सन्तुष्ट (Self-satisfied) बनना ही होगा। उपर उपर में निरर्थक वस्तु या कचरा चाहे जितना भी क्यों न जम गया हो, उसके नीचे प्रेम-स्वरूप का निःस्वार्थ समाजिक-जीवन का प्राण-स्पन्दन (Life pulse) चलता ही रहता है। इस सत्य (विविधता में एकता ) को अस्वीकार करके, यदि मनुष्य केवल अपने निजी स्वार्थ को पूर्ण करना ही जीवन का उद्देश्य समझ ले, और उसी के पीछे दौड़ता रहे, तो उसके फलस्वरूप मृत्यु अवश्यम्भावी है। 
इस प्रकार विकास का तात्पर्य है जीवनबोध में- प्रगति, प्रेम का विस्तार, शान्ति का अभ्युदय। एक व्यक्ति दूसरे से प्रेम करना चाहेगा। अपनी जरूरतों और निधियों को दूसरों के साथ मिलाना चाहेगा। इसीलिये मूल सत्य (अद्वैत) में विश्वासी होकर, भारतवर्ष के उत्कर्ष की कामना करने वाले सभी भारतवासी भोग के नहीं, संन्यास के आदर्श का ही वरण करेंगे। वे सांसारिक ऐश्वर्य का संग्रह करने के बदले महात्याग के आदर्श को सामने रखकर नये भारत के उत्कर्ष को साकार कर दिखायेंगे। संन्यासी के प्राण-धारण का उद्देश्य परम सत्य की अनुभूति की वासना को पूर्ण करना होता है, इसीलिये संन्यासी की एकमात्र इच्छा -अर्थप्राप्ति की नहीं, परमार्थ की होती है। और वह परमार्थ है अपने आचरण के द्वारा प्रेम और निःस्वार्थपरता को अभिव्यक्त करना। व्यवहारिक जीवन में अन्य अभावों के बीच रहकर भी मनुष्यत्व प्राप्त करने के लिये जितने भी गुण होने चाहिये, उनको अपने आचरण में प्रस्फुटित कर लेना ही सम्पूर्ण भारतवर्ष का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार किसी देश का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश के मनुष्य क्या करते हैं, और कितना करते हैं-इसके उपर। मनुष्य जिस प्रकार अपने व्यक्तिगत कार्यों/कर्म के द्वारा अपने व्यक्तिगत भाग्य का निर्माण करता है, उसी प्रकार समस्त देशवासियों के सामूहिक कार्यों के (Collective work) के द्वारा उस देश की सम्पूर्ण जाती या राष्ट्र का भग्य भी निर्मित होता है। फिर जिस प्रकार इच्छा के द्वारा ही कर्म साधित होता है; इसीलिये इच्छाशक्ति की फुर्ती (alacrity) और उसकी गति को अपने नियंत्रण में रखने के ज्ञान का महत्व की भी सीमा नहीं है।
 भारतवर्ष के जो ग्रामीण मनुष्य हैं, जो आम गरीब लोग हैं, उनकी इच्छाशक्ति के प्रवाह की गति किस दिशा में है ? त्याग के आदर्श को ही सच्चे अर्थ में अभिव्यक्त करने की दिशा में है। भारत की विशाल ग्रामीण जनसंख्या के भीतर जो राष्ट्र जीवित है, उसके भीतर भी उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त स्वाभाविक विचारधारा में आज भी त्याग का भाव ही जीवित है। किन्तु विजातीय विरोधी भावों के कुछ स्वार्थान्ध भोगी मनुष्यों  के आसुरी प्रवृत्ति के अवास्तविक प्राबल्य (Apparent dominance) के प्रभाव में आकर त्याग के आदर्श में श्रद्धावान मनुष्य भी अपने भीतर आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के आभाव का अनुभव कर रहे हैं। और जो त्याग के भाव के साथ प्रगति करना चाहते हैं, उनके लिये बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं।स्वामीजी कहते हैं, केवल इनको पेटभर सत्तू खाने को भी मिल जाये तो वे, अपनी आन्तरिक महाशक्ति को अभिव्यक्त कर सकते हैं। इनके लिये दो शाम के भोजन की व्यवस्था करनी होगी। इनके विश्वास को, इनके त्याग के आदर्श को प्रतिष्ठा देनी होगी, उनसे प्रेम करना होगा, सबसे पहले इनको इनका अधिकार लौटा देना होगा। अपने स्वार्थ के लिये उनको अशिक्षित और आत्मश्रद्धा रहित बनाने के समस्त कूचेष्टाओं को विसर्जित कर देना होगा। सुविधाभोगी, मतलबी, स्वार्थी मनुष्यों का जो समूह केवल संचय की मनोवृत्ति लेकर जीते हैं, जो केवल दैहिक भोग को ही जीवन का आदर्श समझते हैं, और उसीके साथ साथ जनसधारण की उन्नति के लिये कानून बनाने की बातें भी करते रहते हैं, उनके विषय में सावधान कराते हुए स्वामीजी कहते हैं- " वे गलतफहमी में जी रहे हैं, वे नहीं जानते हैं कि पहले से ही हमारे देश के सामाजिक जीवन का आदर्श त्याग रहा है, वर्तमान में भी वही है, और भविष्य में भी चाहे कोई आशा करे या नहीं, त्याग ही भारत का आदर्श बना रहगा। क्योंकि मनुष्य के व्यष्टि और समष्टि जीवन में त्याग ही एकमात्र ऐसी नीति है, जिसका पालन करने से हम मनुष्य बने रहते हैं, और हमारा राष्ट्र आजतक जीवित है। 
श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ इस नीति की वास्तविकता पुनर्प्रतिष्ठित हुई है। स्वामीजी ने कहा है कि गरीबों को उपर उठाने के लिये ही श्रीरामकृष्ण ने शरीर धारण किया था। श्रीरामकृष्ण को देखने, उनके जीवन का परिचय प्राप्त करने से यह जाना जा सकता है कि त्यागी-चरित्र की शक्ति सामने अन्य सभी प्रकार की शक्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। सच्चा मनुष्यत्व क्या चीज है, चरित्र-गठन किसे कहते हैं, जीवन को सुन्दर, सम्मानजनक बनाने वाले अवश्य पालनीय निर्णयात्मक गुणों की आवश्यकता कहाँ होती है- इत्यादि बातों को सामान्य मनुष्य समझना सीख जायेगा, और उसके फलस्वरूप उसका अपना जीवन भी उन्नत हो जायेगा। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में उत्कर्ष लाने के लिये इसके सिवा अन्य कोई दूसरा उपाय नहीं है।  
आज जिस बात की आवश्यकता है, एक ओर तो जैसे सामान्य मनुष्यों को भी आत्मबोध की अदम्य उर्जा का श्रोत का पता देना, और दूसरी ओर व्यवहारिक जीवन की जरूरतों को स्वीकार करके उनकी समस्त इच्छाशक्ति और क्रियाशक्ति का एकीकरण करना। संघबद्ध जीवन की अनुभूति के मूल में जो एकत्व विश्वास और आध्यात्मिकता में आस्था की जरूरत होती है, उसी को अर्जित करने के लिये स्वामीजी चरित्र-गठन की पद्धति आत्म-मूल्यांकन तालिका के उपर इतना जोर देते थे। 
बड़ी बड़ी योजनाओं की आवश्यकता नहीं है, अभी जिस कार्य को करना आवश्यक है वह है- अपने जीवन को (त्याग के साँचे में ढाल कर ) आदर्शरूप में गढ़ कर, इन गरीब मनुष्यों के पास एकात्मता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना। कोई किसी से छोटा नहीं है, जीवन की संभावना के विषय में सभी मनुष्यों की मौलिक महिमा एक ही स्थान पर है, वह यही है कि अवसर मिलने और बाधा हट जाने (प्रतिबन्धक कर्म समाप्त हो जाने ) के बाद प्रत्येक व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त कर सकता है। मनुष्य के रूप में जीने और बड़ा बनने के लिये जो जीवन-संघर्ष चल रहा है, वह अपने अपने क्षेत्र में सबों के लिये महान है। व्यवहारिक जीवन में आजीविका पाने के लिये संघर्ष, मानसिक,आध्यात्मिक अपूर्णता को दूर करने के लिये संघर्ष - इसी प्रकार का भाग्य (प्रारब्ध) लेकर सभी मनुष्य को जीवनयात्रा पूर्ण करनी होती है। जीवन का यही नियम है। इस कुदरती कानून के प्रति श्रद्धा रखनी ही पड़ती है, और इसीलिये हमलोगों के जीवन की सफलता या सार्थकता आपसी फूट, पारिवारिक अलगाव में नहीं है, ऐक्यब्द्ध शक्ति के आविष्कार करने और उसके कुशल प्रयोग में है। श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द के जीवन और सन्देश की गहरी-विवेचना (अनुध्यान) करने से यही सत्य प्रकट होता है।
       

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