मंगलवार, 31 जुलाई 2012

🕊🏹1.8" स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : एक सम्पूर्ण परिचय " 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.8 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.8] old book 1.9]

8.

 स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : "एक सम्पूर्ण परिचय " 
 
      स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा  का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है। उनके एक व्याख्यान या परिचर्चा को पढ़कर या सुनकर,  उनकी विचारधारा के समस्त आयामों की पूर्ण अवधारणा नहीं हो सकती। इसके लिये नियमित रूप से 'विवेकानन्द साहित्य ' के पठन-पाठन अथवा श्रवण -मनन की चेष्टा के साथ-साथ उन्हें आचरण में उतारने का अभ्यास (निदिध्यासन) करना भी आवश्यक है। 
              स्वामीजी के पास या तो इतना समय नहीं था कि वे समस्त विषयों पर विस्तारपूर्वक लिखते या उनको इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि वार्तालाप, व्याख्यान या पत्राचार के क्रम में अथवा यदा-कदा स्वयं कुछ लिखते समय विषयों के मूल में पहुँचकर उसे अत्यंत स्पष्ट रूप से समझाया है। दूसरे  विचारकों के द्वारा लिखित कई पुस्तकों को पढने के बाद भी उन विषयों की उतनी स्पष्ट धारणा नहीं हो पाती यहाँ तक कि हम कई बार और अधिक दिगभ्रमित हो जाते हैं। किन्तु, स्वामी जी की विचारधारा से परिचय हो जाने के बाद वे सब भ्रम-भ्रान्तियाँ तो दूर होंगी ही, साथ-ही-साथ प्रत्येक विषय की स्पष्ट धारणा भी बन सकेगी। और, यदि हम प्रयत्न करें, जो हमें अवश्य करना चाहिये, तो उस धारणा को हम अपने आचरण में उतार भी सकते हैं। हमें इस बात को अवश्य समझ लेनी चाहिये कि कोई विद्या या ज्ञान, चाहे वह कितना ही सुन्दर और महान क्यों न हो, उसका तब तक कोई मूल्य नहीं है -जब तक उसे कार्यरूप न दिया जाय। 
     किसी भी सिद्धान्त या ज्ञान का मूल्य उसका जीवन में प्रयोग और फल प्राप्त करने पर ही निर्भर है। इस तरह के विचार को ही प्रयोगाश्रित (empirical) या व्यावहारिक (Pragmatic) ज्ञान कहा जाता है। व्यवहारिकतावाद या उपयोगितावाद  (pragmatism) को तो एक दार्शनिक मतवाद के रूप में स्वीकार भी किया गया है। स्वामी जी को बिना जाने-समझे ही कह दिया जाता है कि वे आदर्शवादी थे या कल्पनालोक में विचरण करने वाले मनुष्य थे। आजकल लोग बिना गहराई से सोचे-समझे ही किसी के लिए किसी भी शब्द का व्यवहार कर देते हैं। हाँ, विवेकानन्द को कल्पनालोक या भावराज्य में विचरण करने वाला मनुष्य केवल इस अर्थ में कहा जा सकता है, जब हमलोगों को यह समझ में यह आ जाय कि जीवन के समस्त कार्य - व्यापार या यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड ही मात्र भाव-राशि है अर्थात  मनःकल्पित है। नहीं तो वास्तविक अर्थों में स्वामी जी से बड़ा प्रयोगवादी या व्यवहारवादी कोई दूसरा नहीं हुआ। उनके अनुसार इस भौतिक जगत में यदि कोई सिद्धान्त या ज्ञान व्यावहारिक और उपयोगी नहीं हो तथा उसके प्रयोग से -व्यक्ति और समाज को शुभफल नहीं प्राप्त हो, तो वैसे सिद्धान्त या ज्ञान (विद्या ) का कोई मूल्य नहीं है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वामी जी की विचारधारा सकारात्मक , वास्तविक जगत में व्यावहारिक तथा प्रयोग  योग्य है।   
             यह सत्य हम सब को ज्ञात होना चाहिए कि स्वामी जी जैसा व्यावहारिक और सकारत्मक सोच रखने वाले मनुष्य बहुत कम ही दीखते हैं,  किन्तु स्वयं उनसे बिना परिचित हुए , केवल दूसरों के मुख से सुनकर हम भी कहने लगें कि स्वामीजी तो एक आदर्शवादी मनुष्य थे अर्थात व्यावहारवादी नहीं थे, तो अपने इस कथन से हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय देंगे। क्योंकि स्वामीजी ने तो हमें यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़े हो जाने का उपदेश दिया है, अपने पैरों पर खड़े होने का निर्देश दिया है। उनका उपदेश था- " अपने पैरों को जमीन पर जमाकर खड़े हो जाओ और दूसरों को अपने हाथों से ऊपर उठा लो। " हमें इस बात पर जरा भी सन्देह नहीं होना चाहिये कि स्वामीजी उपयोग-बुद्धि या व्यावहारिक-बुद्धि से सम्पन्न थे। इसीलिये, जो लोग अपने को व्यावहारिक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य या 'Technocrats' समझते हैं, या स्वयं को आधुनिक तकनीकी से लैस समझते हैं वैसे ही लोग स्वामी जी के सम्पर्क में आकर अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। स्वामी जी के बारे में अमुक-अमुक व्यक्ति ने क्या कहा है -इसके माध्यम से यदि स्वामी जी के साथ परिचय करने की चेष्टा की जाय तो वह ' दूसरों के मुख से मिर्ची खाने' जैसा है। इसके बजाय हमलोगों को उनके विचारों को स्वयं समझने तथा उन्हें व्यवहार में लाने की चेष्टा कर स्वामीजी से सीधा संपर्क स्थापित करना होगा। स्वामीजी ने स्वयं कहा या लिखा है, उसके अधिकृत अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ कर, उसके उपर गहन- चिन्तन करके हमलोग उनका परिचय प्राप्त कर सकते हैं। उनकी विचारधारा से सम्यक परिचय प्राप्त करने के लिए  ऐसा करना नितान्त आवश्यक है।         
          स्वामी जी ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है परन्तु कुछ लोग उनको एक महान देशप्रेमी के रूप में जानते हैं। आश्चर्य की बात है कि कुछ लोग इसी विषय (उत्कट देशप्रेम) को लेकर उनकी आलोचना भी करते हैं। वास्तव में, स्वामीजी का देशप्रेम अतुलनीय था, फिर भी स्वामी जी सम्पूर्ण मानव जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करने में समर्थ थे। वे कहते हैं - " चाहे अमेरिका हो या भारत उनके लिए सभी देश सामान हैं। " किन्तु इतना होने पर भी जब वे पहली बार विदेश से वापस आये तो कहा था- " भारतवर्ष का प्रत्येक धूलकण मेरे लिये और अधिक महान हो गया है, भारत मुझे अपने प्राणों से भी  प्रिय प्रतीत हो रहा है। " ऐसा उन्होंने क्यों कहा था; इसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। ऐसे विचार जिसके मन में जन्म ले वही इस बात को समझ सकता है। ऐसे विचार हमारे व्यक्तिगत  जीवन और समस्त मानव जाति  के लिए अत्यन्त मूल्यवान है। ऐसे शुद्ध , कल्याणकारी और सर्वजन हितकारी विचार किसी अन्य व्यक्ति में भी मिलते हों ऐसा कोई दूसरा उदाहरण हमें नहीं दिखाई देता जबकि कई अन्य लोगों ने भी अनेक अच्छी बातें अवश्य कही हैं, लेकिन किसी व्यक्ति के मुख से उसके सम्पूर्ण जीवनकाल में जो भी बातें निकली हों , वह सब की सब केवल मनुष्य के कल्याण हों , ऐसा कोई दूसरा उदाहरण (व्यक्ति) हमें नहीं दिखाई देता। स्वामी विवेकानन्द सभी मनुष्यों के कल्याण के विचारों से भरे एक ऐसे अक्षय कोष की तरह हैं, जो अतुलनीय है। वे अनुपम हैं और उनका विराट व्यक्तित्व अचम्भित कर देनेवाला है, इसीलिए वे हमारे अनन्य श्रद्धा के पात्र हैं और उन्हें हम सबको आदर्श के रूप में ग्रहण करना चाहिए।     

     स्वामीजी ने सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए कई विषयों पर अपने विचार विभिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। और उन्होंने जो कुछ कहा है उसमें एक अविच्छिन्न तारतम्यता देखी जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो उनके सारे विचार एक अद्भुत कड़ी से जुड़े हुए हैं। जाति-प्रथा, नारी-कल्याण तथा शिक्षा, विश्व एकता इत्यादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये हैं। किन्तु एक- एक मुद्दे के उपर अलग से सोच-सोचकर कुछ नहीं कहा है। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -(एकोऽहं बहुस्याम् ) क्या है, यह तथ्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। उन्होंने जीवन और जगत के भ्रमरहित स्वरुप का साक्षात् दर्शन किया था, क्योंकि वे विवेकज-ज्ञान के अधिकारी थे, और उसी अधिकार से वे ऐसा कह और कर पाये  थे।
            अतः हमलोगों को पहले ही यह समझ लेना होगा कि अविवेकपूर्ण अनुसन्धान से हम स्वामी जी का वास्तविक परिचय नहीं प्राप्त कर सकते हैं। उनका नाम था - विवेकानन्द, जो विवेक-प्रयोग के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके आनन्द का अधिकारी बना हो।हमलोग भी ज्ञान  प्राप्त करना चाहते हैं, आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, सभी संसार के सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हैं, किन्तु विवेक का प्रयोग नहीं करते हैं। विवेक क्या है, इसका व्यवहार जीवन में किस प्रकार किया जाता है , इसको भली-भाँति सीख लेने से ही हमलोग अपने समस्त दुःखों के कारण को नष्ट कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक -सद असद विचार। ' इस विवेकज-ज्ञान को  दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस अद्भुत संयम का उपदेश दिया गया है - 
  
"क्षणतत्क्रमयोः संयमात्विवेकजं ज्ञानम् ।।"  (3 -52) 

पातंजल योग सूत्र 3 -52।। में क्षण का अर्थ है, काल का सूक्ष्तम अंश। इस क्षण के पहले जो क्षण बीत चूका है और उसके बाद जो क्षण प्रकट होगा,-इस लगातार सिलसिले को ' क्रम ' कहते हैं।  उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिये इसी क्षण और उसके क्रम में मन का संयम करना होता है। क्षणतत्क्रमयोः – क्षण और उसके क्रम में, संयमात् – संयम करने से, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान उत्पन्न होता है। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड 1/80) 

        विवेक का अर्थ है, सद -असद विचार , कौन शाश्वत है और कौन नश्वर है - इसका परीक्षण करके अच्छे-बुरे का निर्णय करना अथवा सत्य, असत्य और मिथ्या के अन्तर को समझना। इसी को सरल भाषा में शुभ-अशुभ, भला- बुरा, या श्रेय-प्रेय का अन्तर करना भी कह सकते हैं। 
लेकिन अच्छा-बुरा का निर्णय करते समय हम अक्सर भ्रम में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमलोगों की प्रकृति या इन्द्रियों को जो अच्छा प्रतीत होता है उसी को हम अपने लिए अच्छा मानकर ग्रहण कर लेते हैं, और जो इन्द्रियों को अच्छा नहीं लगता उसे बुरा मान कर त्याग देते हैं। विवेकानन्द के नाम का तात्पर्य जानने के लिए हमें विवेक-प्रयोग करके उन्हीं के ऊपर मनोनिवेश करना होगा। विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं, इसको और स्पष्ट करते हुए पतंजलि योगसूत्र के विभूतिपाद में आगे कहा गया है - 
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।।3 -54।। 

 तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं अक्रमम् – बिना क्रम में है वह, विवेकजम् – विवेक जनित, ज्ञानम् – ज्ञान है। इस ज्ञान को  तारक-ज्ञान  इसलिये कहा गया है कि वह योगी का जन्म-मृत्यु सागर से तारण करता है। समस्त  प्रकृति (वाह्य एवं अन्तः) की स्थूल और सूक्ष्म सभी अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य (विषय) हैं, तथा इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है। 'विवेकज-ज्ञान ' ऐसा ज्ञान है, जो हमें समस्त विषयों, समस्त अवस्थाओं तथा समस्त समस्याओं से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। पुनः जो भूत, भविष्य और वर्तमान समस्त अवस्थाओं का ज्ञान हो उसे - ' अक्रमम '; अर्थात बिना क्रम में गये, एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय, वही  विवेकज ज्ञान है। जैसे अगर किसी कमरे में हजार वर्ष से भी अँधेरा हो, तो दीपक जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है, वरन एक ही बार में चला जाता है। वैसे ही विवेकज ज्ञान से अज्ञान रूपी अँधेरा एक ही बार में चला जाता है। जबकि साधारण ढंग से ज्ञान का अर्जन एक के बाद एक अर्थात क्रम से होता है। 
     अतः उसी 'विवेकज ज्ञान' प्राप्ति की बलवती इच्छा के साथ पूरी श्रद्धा रखते रखते हुए स्वामीजी के सन्देशों को पढ़ने, उसपर गहन चिन्तन करने और अपने जीवन में प्रयोग करने से हम भी उसको प्राप्त कर सकेंगे। आमतौर पर जो भी ज्ञान हम प्राप्त करते हैं, उसे केवल बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। उस लौकिक या बौद्धिक ज्ञान के द्वारा किसी वस्तु या विषय की जितनी जानकारी हमें मिलती है वह क्षणिक, सामयिक, सापेक्षिक और परिवर्तनशील होती है।  
          ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक स्थानिक और त्वरित सम्पर्क स्थापक प्रक्रिया द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा मनुष्य जीवन और जगत की अपरिमित समस्यायों के मूल कारण  का परिचय नहीं मिल पाता है। जिस दृष्टि और अनुसन्धान से एक क्षण में समग्र जगत और विश्व- ब्रह्माण्ड भासित हो उठता है तथा समस्त समस्याओं का स्वरुप और समाधान-सूत्र दृष्टि पथ में आने लगता है, वही ज्ञान हम स्वामी जी से प्राप्त करते हैं। इसी दृष्टि के कारण वे निश्चित रूप से एक भविष्यद्रष्टा भी हैं। अपने सार्वभौम  वैश्विक दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्होंने भविष्य के पथ का संकेत किया था। समग्र विश्व,उसकी समस्त समस्याएं और इसके आत्यंतिक समाधान को उन्होंने एक साथ देख लिया था।  उसके बाद उन्होंने उसे टुकड़ों में करके जो कहा, उन्हीं संदेशों से हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों से अवगत होते हैं और उनकी बातें हमें इतनी मूल्यवान लगती हैं।  जिस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण ने समस्त मुख्य-मुख्य वस्तुओं को  अपनी योग शक्ति रूपी तेज़ की अभिव्यक्ति बताकर कहा है कि समस्त जगत मेरी योग शक्ति के एक अंश से ही धारण किया हुआ हैं-
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।  
                        विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता: 10: 42।।         
अर्थात हे अर्जुन ! तुम जो अनेक को जानने की चेष्टा कर रहे हो कि -यह क्या है, यह क्या है? इस प्रकार अलग- अलग जानने की क्या आवश्यकता है? केवल इतना ही जान लो की केवल मेरे एक चौथाई अंश में ही यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड अवस्थित है।  स्वामीजी के विचारों का भी यही वैशिष्ट्य है। उनके समस्त संदेशों के भीतर जो मूल बात है, वह है मनुष्य को 'मनुष्य' के रूप में गढ़ लेना।  वे कहते हैं - " तुम लोग समाज का पुनर्गठन करो, समाज का नवीकरण करो, समाज की सेवा करो। तुम लोग राजनीति का उपयोग करो, विज्ञान और अर्थनीति का उपयोग करो ! इन सब चीजों की आवश्यकता है, लेकिन इतना समझ लो कि सभी नीतियाँ और आर्थिक योजनाएं मनुष्य के कल्याण के लिए ही हैं। इसलिये यदि तुम मनुष्य को ही पूर्ण मनुष्य के रूप में नहीं गढ़ सको, उसकी अन्तर्निहित सत्ता को यदि  पूर्ण विकसित और प्रकाशित न करा सको, तो वैसे विज्ञान,प्रद्योगिकी, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान, राजनीति, इतिहास, दर्शन - ये सभी किसी काम के नहीं होंगे। अगर तुम इस इस मूल को जान लो, तो बाकी सब कुछ को जान लोगे यही है सच्चा ज्ञान। " जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहते थे, " एक को जानने का नाम है ज्ञान, और बहुत को जानने का नाम है अज्ञान।" हमलोगों की आकांक्षा होनी चाहिये कि हम भी सबकुछ जान लेंगे, नहीं तो मूल सत्य हृदयंगम नहीं होगा। स्वामीजी के अनुसार इसी क्षण सब कुछ को जान लेने का अर्थ है- मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जान लेना और उसी ज्ञान की बुनियाद पर उससे संलग्न बाह्य विषयों को उचित रूप से अपने लिये उपयोगी बना लेना। 
             स्वामीजी ने मनुष्य के स्वरुप का अन्वेषण करके उसकी वास्तविक सत्ता का विकास करने तथा उसे अभिव्यक्त करने की साधना को ही प्राथमिक कार्य के रूप में कार्यान्वित करने पर जोर दिया था। विदेश से वापस लौटकर स्वामीजी ने भारत के प्रत्येक धूल-कण को पहले से भी अधिक पवित्र कहकर और अधिक प्रेम इसीलिये दर्शाया था कि सार्वभौमिक-कल्याण के महान तत्व (वसुधैव कुटुम्बकम- सर्वे भवन्तु सुखिनः ) का अविष्कार पृथ्वी पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ था। वे यह देख पाने में समर्थ थे, उन्होंने अनुभव किया था, कि समस्त जगत का कल्याण करने के लिये, जिस मौलिक तत्व (ब्रह्म) को जानने की आवश्यकता होती है, उसका आविष्कार भारतवर्ष में ही हजारों वर्ष पूर्व यहाँ के ऋषि-मुनियों ने मनन-चिंतन तथा प्रत्यक्ष आत्मानुभूति के माध्यम से कर लिया था। उन्होंने देख लिया था कि यदि हृदयाकाश में उद्भासित, उस महान तत्व को, भारतवर्ष समग्र विश्व के मनुष्यों तक पहुँचा सका , तभी विश्व का यथार्थ कल्याण संभव होगा।
स्वामीजी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों से अपने हृदय से प्रेम करते थे इसीलिये वे भारतवासियों से अपेक्षा करते थे कि हमलोग उस तत्व को जानने और अभिव्यक्त करने की साधना करेंगे और  उसकी अनुभूति प्राप्त करके, एक दिन सम्पूर्ण विश्व में उस ज्ञानालोक को फैला देंगे।  इसीलिये भारत की धरती उनके नेत्रों के समक्ष एक पुण्यभूमि के रूप में प्रकट हो गयी थी। 
           जो तत्व प्राचीनकाल में जटिल भाषा में लिपिबद्ध होने के कारण अगम था। जो अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं में छिपा हुआ था एवं केवल साधू-महात्माओं के चर्चा का विषय समझा जाता था, उसी तत्व को स्वामीजी ने हमलोगों के समक्ष सरल भाषा में रख दिया है। स्वामी जी ने अपने भावी संतानों से यह अपेक्षा की थी कि वे उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य में ले जाएँ। अर्थात उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजारों में, खेतों-खलिहानों में, कल-कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर दें। ऐसा होने पर किसानों के हल से, कारखानों के कल से, एक नया महान तेजस्वी भारत महाशक्ति के रूप में उठ खड़ा होगा।
            वह तत्व क्या है-- हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम का एक  महासागर ठांठे मार रहा है, उसे ही जानना होगा उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीन-हीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमिट प्रताप है। हमलोग भूलवश या महाभ्रम के कारण अपने आप को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र समझते हैं। इस निन्दनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर देवमानव से पशु-मानव में परिणत कर लिया है, और पशुवत आचरण कर रहे हैं। भ्रम के कारण मनुष्य ने अपने आप को संकुचित कर लिया है,  उसे पुनः उसके जन्मसिद्ध बिराट स्वरुप में प्रतिष्ठित करा देना होगा, उसको ज्ञान आलोक से आलोकित कर देना होगा और प्रेम-सिन्धु में परिणत कर देना होगा।  स्वामी जी के उस विख्यात उपदेश से हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म,  उपासना, मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। " 
वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं और हमलोगों का लक्ष्य अपनी प्रकृति को नियंत्रित एवं उसपर विजय प्राप्त कर ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म, मन को वशीभूत करने की साधना, संयम, ज्ञान चर्चा, सत्-असत - विवेक-विचार  तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में अपने आप को पूर्ण रूप से नियोजित करके अभिव्यक्त कर सकते हैं। 
      आधुनिक मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने पराजय स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) की तस्वीर स्वामी जी के मानस चक्षुओं के समक्ष स्पष्टता से प्रकट हुई थी। इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया  है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा छिछली (ricochet) का खेल, खेल रही है और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है। ऐसे में  बेमिसाल, वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) पाशविक वृत्तियों में उलझकर मुरझा गई है !ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो ! वशीभूत करो ! आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके उसे बाह्य-जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ ! किन्तु उस शक्ति का घमण्ड नहीं करना।  शक्तिवान होकर स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जागृत करने के कार्य में समर्पित कर दो ! अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश, स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से, वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती।"
         स्वामीजी कहते हैं, " सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है, बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है। " उनके इसी सन्देश में छुपा है (सूत्र-रूप से) शक्तिमान मनुष्य बनने का आदर्श, जो अपने पैरों को जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हम यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम लोग परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, वही देखने में सर्वांग-सुन्दर मनुष्य  प्रतीत होता है। उसीके जीवन में अग्रगति संभव है। कल्याणकारी नवविप्लव का अग्रदूत वही बन सकता है जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है। 
     और इसी कारण हमलोगों को अपना सुंदर चरित्र गढ़ना होगा। महान जीवन के 'विवेकज आनन्द' को उत्तराधिकार को उत्तरदायित्व के रूप में ग्रहण करने के  महान लक्ष्य पर पहुँचने के लिए "यथार्थ मनुष्य " [हिन्दू-मुसलमान -ईसाई -या ब्राह्मण-क्षत्रिय -वैश्य -शूद्र नहीं]  बनना होगा। अपने जीवन को उन्नत बना लेना होगा। हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।  
        स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर, यही आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकट हो जाता है। इसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा। इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी का जीवन और सन्देश की ध्यानजन्य विवेचना और उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। इसी से चरित्र गठित होगा और जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा। 
          
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>> चरित्र निर्माण :
एक बौद्ध कहावत है कि-विचार से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से आदत की उत्पत्ति होती है, आदत से चरित्र की उत्पत्ति होती है और चरित्र से चरित्र से आपके भाग्य (कर्म फल या प्रारब्ध) की उत्पत्ति होती है। उत्तम चरित्र व्यक्ति की सबसे बड़ी संपदा है।  चरित्र मन को उज्ज्वल करता है। जीवन को संवारता है। चरित्र से ही व्यक्तित्व आकार पाता है। चरित्र के प्रभाव से ही लोग मित्र बनते हैं और सुख संपत्ति के मार्ग खुलते हैं। संसार में मनुष्य के पास यदि सभी साधन हैं, परंतु आदर्श चरित्र नहीं है तो सब व्यर्थ। व्यक्ति को योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और उस सफलता का संरक्षण आपके चरित्र से ही संभव है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते उनकी सफलता स्थायी नहीं रहतीरावण और कंस आदि पराक्रमियों के पास अपार शक्ति थी, परंतु उनका चरित्र आदर्श नहीं था। इसी कारण समाज उनका तिरस्कार करता है।
 वस्तुत: धन बल और बाहुबल से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है 'चरित्रवान मनुष्य ' बनना। इसलिए जीवन में चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। हम चाहे किसी भी क्षेत्र में सक्रिय हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। 
जिस प्रकार पानी में डूबते हुए पुरुष के लिये जीवन रक्षक उपकरण (life-saving device-लाइफ जैकेट, लाइफबॉय)  के अलावा अन्य कोई भी वस्तु अधिक महत्व की नहीं हो सकती उसी प्रकार एक मोहित जीव (Hypnotized-भेंड़) के लिये इस ज्ञानार्जन से बढ़कर कोई सम्पत्ति नहीं होती।

जैसे ज्ञान (आत्मज्ञान) के बिना - चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता, उसी प्रकार आत्मश्रद्धा के बिना आत्मज्ञान भी सम्भव नहीं है।  गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से ज्ञान प्राप्ति के लिए तीन महत्वपूर्ण सूत्र बतलाते हैं- ‘श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय।’ (4.39) अर्थात, इंद्रिय संयम, तत्परता और श्रद्धा से युक्त पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। जिस विषय को हम अपने अनुभव से नहीं जानते, पर शास्त्रों से, अनुभवी और अपने से श्रेष्ठ व्यक्तियों से, गुरुजनों आदि से सुनकर विश्वास कर लेते हैं उसका नाम श्रद्धा है। रामचरितमानस में श्रद्धा और विश्वास को माता पार्वती और भगवान शंकर का स्वरूप बताया है। श्रद्धा और विश्वास साथ ही रहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग, जिसमें ज्ञान, कर्म (निष्काम कर्म-कर्मयोग ) और भक्ति  और भी सम्मिलित हैं, उसमें जाने के लिए श्रद्धा का होना बेहद जरूरी है। अगर श्रद्धा और तत्परता हमारे अंदर हैं, पर एकाग्रता नहीं है, इंद्रियां विषय भोगों में लगी रहती हैं, तब भी हम अपने ज्ञान के बहिरंग और अंतरंग साधनों पर अपना ध्यान नहीं लगा पाएंगे। इसलिए ज्ञान प्राप्ति के साधन हेतु तीसरे सूत्र की भी बहुत आवश्यकता है। जिसका मन और इंद्रियां उसके वश में हैं, वही मनुष्य संयतेंद्रिय है, अन्यथा अधिकांश मनुष्य तो इंद्रियों के ही वश में रहते हैं।  जैसा मन में आता है, बिना विचार किए अज्ञान के साथ कार्य शुरू कर देते हैं और फिर पछताते रहते हैं। इसलिए भगवान ने श्रद्धा, तत्परता के साथ संयतेंद्रिय (इन्द्रिय संयम) होने की भी बात कही है। अगर इंद्रियां हमारे वश में नहीं हैं और साधन में तत्परता नहीं है तब समझना चाहिए कि अभी हमारी श्रद्धा में कमी है।
ज्ञानपूर्वक कर्म करने पर हमारा प्रत्येक कर्म ही कर्मयोग (निष्काम कर्म)  के रूप में परम तत्व की प्राप्ति कराने वाला बन जाता है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है- भगवान ने गीता में कहा है, ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ (4.38) इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला,  निसंदेह,  कुछ भी नहीं है। योग में संसिद्ध पुरुष स्वयं ही उसे (उचित) काल में आत्मा में प्राप्त करता है। योग में संसिद्धि अर्थात्  अन्तकरण की शुद्धि -प्राप्त पुरुष ही आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है।
कोई भी गुरु अपने शिष्य को चित्तशुद्धि प्रदान नहीं कर सकते। उसके लिये शिष्य को ही प्रयत्न करना पड़ेगा। लोगों में मिथ्या धारणा फैली हुई हैं कि गुरु अपने स्पर्श मात्र से शिष्य को सिद्ध बना सकता है। (अवतार वरिष्ठ के अलावा) यह असंभव है। अन्यथा अपने अत्यन्त प्रिय मित्र एवं शिष्य अर्जुन को स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण स्पर्शमात्र से ही सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान करा सकते थे।अनेक साधक (शिष्य) पुरुष गुरु की कुछ सेवा के प्रतिदान स्वरूप उनका अर्जित किया हुआ ज्ञान क्षणमात्र में प्राप्त करना चाहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि उसे स्वयं चित्तशुद्धि के लिये (एकाग्रता  के लिए) प्रयत्न करना होगा जिससे उचित समय में पारमार्थिक सत्य का वह साक्षात् अनुभव कर सकेगा। पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये किसी निश्चित समय का यहां आश्वासन नहीं दिया गया है। कालेन शब्द से यह बताया गया है कि यदि साधक अधिक प्रयत्न करे तो लक्ष्य प्राप्ति में उसे अधिक समय नहीं लगेगा। अत सभी साधकों को चाहिए कि वे इसके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहें
 इसलिए शिक्षा के साथ-साथ युवा शक्ति का ['Be and Make' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में]-चरित्र निर्माण आज की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए-आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास,आत्मसंयम,  नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता,  विषयों के प्रति अनासक्ति, निर्भयता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग और सेवा परायणता जैसे चरित्र के 24 गुणों को अपने व्यवहार से अभिव्यक्त करना चाहिए । सुन्दर चरित्र के निर्माण में परिवार की अहम भूमिका होती है। माता-पिता जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे सीखते हैं। चरित्र को अधिक प्रभावित करने में परिवार के बाद विद्यालय का परिवेश, सामाजिक रहन-सहन, व्यवहार व वातावरण भी विशिष्ट स्थान रखते हैं। ऐसे में कह सकते हैं एक कच्चे घड़े की तरह युवा पौधों को संस्कारित करना पूरे समाज का दायित्व है।
ज्ञान के बिना कर्म - कर्म के बिना ज्ञान बाँझ है - भक्ति के बिना कर्म और ज्ञान दोनों -भक्ति हो कैसे ? श्रीराम के चरणों का ध्यान करना ही भक्ति का उपाय है। 

श्री राम । जय राम । जय जय राम । श्री राम ।
श्री राम । जय राम । 

शंकर मानस हंस प्रणाम् ।
हंस वंश आवतंस प्रणाम् ।

अतिथि ब्रह्म् रघूवीर प्रणाम् ।
जीव प्रजाणम धीर प्रणाम्।  

धनुभंजन शिव-भक्त प्रणाम् ।
राम ।
धनुभंजन शिव-भक्त प्रणाम् ।
ततसत् व्यक्ता व्यक्त प्रणाम्

वसुंधरा वरदान प्रणाम् ।
श्री राम । श्री राम । 
पुन्य सुरभि पवमान प्रणाम्


क्षीरोदधिगंभिर्य प्रणाम् ।
क्षीरोदधिगंभिर्य प्रणाम् ।
उत्तरतम् उत्तिरय प्रणाम्

श्री राम । श्री राम । जय जय राम । जय जय राम । श्री राम । श्री राम । 

" उठो, जागो ! अपनी अन्तर्निहित महिमा के प्रति सचेतन हो जाओ, और तब तक मत रुको जब तक तुम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते। - स्वामी विवेकानंद 
>>>"श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में स्वयं ठाकुर देव से-'नरेन शीक्षा देबे' का लिखित चपरास प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक (नेता, विश्वमित्र) होने का भावार्थ : [ 'शीक्षा'= अर्थात "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर प्रवृत्ति-निवृत्ति लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा' में महामण्डल (भूमण्डल) आन्दोलन,  [(प्रधान नेता-विश्वमित्र) बनो और बनाओ आंदोलन] के स्वयं विवेकानन्द से "C-IN-C" होने का चपरास प्राप्त पूज्य नवनी दा द्वारा आविष्कृत और स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित "सत्ययुग स्थापन पद्धति (वैश्विक धर्म) 'Be and Make -चरैवेति, चरैवेति"  का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन कार्य है।]    
 >>>Yoga formula invented by Nabani da :  The Yoga formula or  invented by Nabani dato make life meaningful invented by modern Maharishi Patanjali Nabani da : " unselfishness tending to zero is animality, unselfishness tending to fifty is humanity, 100% unselfishness is becoming God! Be and Make ' Let this be our motto! 
 जीवन को सार्थक बनाने का योग सूत्र :  विश्वमित्र बनने और बनाने के मार्गदर्शक नेता आधुनिक महर्षि पतंजलि नवनीदा द्वारा आविष्कृत 'Be and Make -चरैवेति, चरैवेति" परम्परा में "सतयुग (वैश्विक धर्म) स्थापित करने की पद्धति या सूत्र"= अर्थात निःस्वार्थपरता का उर्ध्व (ब्रह्मरंध्र की दिशा) में पचास प्रतिशत की ओर प्रवृत्त होना मानवता है ,और सौ प्रतिशत निःस्वार्थी बन जाना ईश्वरत्व है। निःस्वार्थपरता का शून्य की दिशा में प्रवृत्त होना पशुता है। नेता को सबसे पहले यह समझना होगा कि मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ?  हमारे जीवन की सार्थकता इसी कार्य (विवेकज ज्ञान से उत्पन्न विवेकज आनंद का अनुभव करने) के पूर्ण होने पर निर्भर है। जितने भी अन्य सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है। 

>>> वेदान्तडिण्डिम> "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।अनेन वेद्यं सच्छास्त्रम् इति वेदान्तडिण्डिमः।।अर्थ—ब्रह्म सत्य है। जगत् अर्थात् जगत के सभी नामरूप मिथ्या अर्थात् नाशवान हैं।जीव ही ब्रह्म है दूसरा नही,अर्थात् आत्मा एवं ब्रह्म मूलतः एक ही है।इसे सही शास्त्र(शास्त्रवचन)जानना चाहिए, यह वेदान्त का उद्घोष है।

>>>"एकोऽहं बहुस्याम् ।" (छान्दोग्योपनिषद्)  वेदों में कहा गया है, ब्रह्म एक था, उसमें इच्छा हुई, एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि का निर्माण हुआ।  किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा। 
     जैसे कोई बीज एक होता है, किंतु समय पाकर एक से अनेक हो जाता है।  पहले अंकुर फूटता है, फिर तना, डालियाँ, पत्ते, फूल, फल और अंत में बीज रूप में वह अनेक हो जाता है, किंतु हर बीज उस पूर्व बीज के ही समान है।  उसमें भी अनेक होने की पूरी सम्भावनाएं हैं। जैसे अंकुर, तना, या डालियाँ, फूल आदि सभी उस बीज में से ही निकले हैं, पर वे बीज नहीं हैं, इसी प्रकार ब्रह्म से ही जड़ जगत, वृक्ष, पशु, पंछी आदि हुए हैं पर वे ब्रह्म के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकते, केवल मानव को ही यह सामर्थ्य है कि वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके। {"स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"  { 'Be and Make ' Leadership Training Tradition में  में CINC का चपरास प्राप्त नवनी दा द्वारा प्रदत्त जीवन को उन्नत बनाने की पद्धति के अनुसार वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके !}
[जैसे ऋग्वेद कहता है - मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्‌ (ऋग्वेद 10.53.6)- ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्च मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात्‌ सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। बौद्ध, हिन्दू ,मुस्लिम,सिख, इसाई बनने की बात वेदों में नहीं है। वेद कहता है – मनुर्भव – मनुष्य बन! जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’।
 /2. स्वस्ति पन्थामनुचरेम । (5.51.15) कल्याण मार्ग का अनुसरण करें ।/5. सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् । (10.181.2) मिलकर  चलें, मिलकर बोलें।/यजुर्वेद कहता है - सुमना भव । अच्छे मन वाले बनें।  तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । (34.1) यह मेरा मन शिव संकल्प युक्त हो। 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।' (36.18) मित्र की दृष्टि से सर्वत्र देखें ।/अथर्ववेद कहता है  : मानवो मानवम् पातु - मनुष्य मनुष्य को पाले ।  माता भूमिः पुत्रोSहम् पृथिव्याः । माता भूमि है, पुत्र है हम पृथ्वी के ।ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (11.5.19) ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की । मधुमतीं वाचमुदेयम । (16.2.2) मैं मीठी वाणी बोलूँ ।] 
" दुनिया में मनुष्य और उसके मन से अधिक शक्तिशाली और कुछ नहीं है। - सर विलियम हैमिल्टन :  ''সাত কোটি বাঙালিরে হে মুগ্ধ জননী রেখেছ বাঙালি করে মানুষ করনি ”* ——রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর /জেগে ওঠো, সচেতন হও এবং লক্ষ্যে না পৌঁছা পর্যন্ত থেমো না। - স্বামী বিবেকানন্দ/* দুনিয়াতে মানুষের চেয়ে বড় আর কিছু নেই আর মানুষের মাঝে মনের চেয়ে বড় নেই। - স্যার উইলিয়াম হ্যামিলন/ 
"सात करोड़ बंगालियों की हे मुग्ध जननी (माँ काली) आपने उन्हें केवल बंगाली बनाये रखा है, मनुष्य नहीं बनाया !"  - रवींद्रनाथ टैगोर। 
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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

🕊🏹1.6 ' क्या वर माँगना चाहिये ' 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.6 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.6]

  6.

' क्या वर माँगना चाहिये '

           स्वामी विवेकानन्द क्या प्राप्त करना चाहते थे ? इसी हमलोग इसे अपने देह-मन तथा सत्ता की सम्पूर्ण चेतना के साथ समझने की चेष्टा करें, और उनकी ज्वलन्त इच्छा (Burning-Desire) के साथ अपनी भी इच्छा, आकांक्षा को जोड़ दें तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतमाता एक दिन अपने गौरवशाली सिंहासन पर अवश्य आरूढ़  हो जायेंगी।
       सच तो यह है कि स्वामी जी जो प्राप्त करना चाहते थे, उससे बड़ी कोई प्राप्तव्य वस्तु हो भी नहीं सकती। उसको प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ प्राप्त करने लायक बचता भी नहीं है। स्वामी जी कहते हैं -" मनुष्यत्व की प्राप्ति, हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। मैं इसी श्रेष्ठ जन्म-सिद्ध अधिकार को प्राप्त करना चाहता हूँ। क्या हम केवल थोड़ा शारीरिक सुख भोग, थोड़ी धन सम्पत्ति, बंगला, मोटरकार, थोड़ा नाम-यश, थोड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करके ही संतुष्ट हो जायेंगे ? क्या इतने क्षुद्र जीवन से सन्तुष्ट हो जायेंगे? नहीं, बिलकुल नहीं।" 
             ' भूमैव सुखम ' - अल्प नहीं भूमा में जो महाआनन्द है, मैं उसी आनन्द का अधिकारी हूँ। हम सभी उसी मनुष्यत्व को प्राप्त करने के अधिकारी है। इसलिए यदि हम सबसे बड़ी वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करें, अर्थात  मनुष्य बनने का प्रयत्न करें, या सुप्त मनुष्यत्व को जाग्रत कर लें तो फिर इस व्यावहारिक जीवन में और कुछ प्राप्त करने की इच्छा शेष नहीं रह जाती। 
         हमारी एक मात्र लक्ष्य है- 'मनुष्यत्व' या 'पूर्णत्व' या इसी जीवन में पूर्णता की प्राप्ति। सभी  मनुष्य उस पूर्णता के अधिकारी बन सकते हैं। स्वामीजी के मन की  सबसे बड़ी आकांक्षा यही थी।और, वे इसी आकांक्षा को सभी मनुष्यों के मन में विशेषकर युवाओं के मन में जाग्रत करा देना चाहते थे। एक दिन नरेन् श्रीरामकृष्ण देव के पास जाकर कहते है, ' मैं इन दिनों बड़ी मुफलिसी के दौर से गुजर रहा हूँ। माँ एवं भाई- बहनों के लायक भोजन भी नहीं जुट पाता है, आप ही कोई उपाय कर दीजिये। माँ काली तो आपकी सब बातों को मान लेती हैं और वे सबकुछ कर सकती हैं, तो मेरे लिये आप उनसे कहकर इतना तो अवश्य करवा दीजिये। मेरे परिवार के लिये थोड़े धन और अन्न की व्यवस्था होनी चाहिए - जरा देखें कि वे इसकी व्यवस्था कर सकती हैं या नहीं?" 
          श्री रामकृष्ण ने कहा -  " मैं तो माँ से यह सब चीजें नहीं माँग सकता। तुम स्वयं माँ से ये सभी चीजें माँग लो। तुम स्वयं माँ के पास जाकर उनसे कहो न। " 
           किन्तु, जब नरेन माँ से माँगने गए तो महाकाली के सामने उन्होंने अपने मन की सर्वोच्च आकांक्षा  व्यक्त कर दी। उन्होंने  कहा - " माँ, मुझे भक्ति दो, विवेक दो, वैराज्ञ दो, ज्ञान दो ! " नरेन् ने केवल वही माँगते हैं, जो मनुष्यत्व-प्राप्त करने के अधिकारी के रूप में, एक मनुष्य के रूप में वे माँग सकते थे। नरेन् डरते -काँपते हुए छोटी- छोटी वस्तुओं को माँगने वालों में से नहीं थे। इसलिए, वे माँ के सामने निडरता के साथ खड़े होकर सर्वोच्च वस्तु -'भूमा' के आनन्द को प्राप्त का अधिकारी या योग्य बना देने की माँग करते हैं। क्योंकि बुद्धिमान नरेन् यह जानते थे कि हो सकता है कि अधिक माँगने से उतना नहीं मिले, किन्तु कम मांगने पर तो अधिक मिलने की कोई सम्भावना ही नहीं रह जाती । किन्तु, आमतौर पर हमलोग अपने जीवन में क्षुद्र वस्तुओं को पाने की ही कामना करते हैं। 
स्वामीजी कहते हैं, " तुम लोग केवल नौकरी दो, नौकरी दो, चिल्लाते रहते हो। क्या अंग्रेजों के बेंत और जूतों का प्रहार खाय बिना तुम्हें चैन नहीं मिलता है? क्या तुम स्वयं कुछ नहीं कर सकते? आधुनिक विज्ञान और प्रौद्यगिकी की सहायता से तुमलोग भी आधुनिक उपभोग के व्यावसायिक वस्तुओं के उत्पादनों का निर्माण या विपणन (startup business ideas) क्यों नहीं कर सकते ? जापान जाकर देखो, उन लोगों का देश-प्रेम कितना अद्भुत है !"
       वे कहते थे- ' जब मनुष्य बन कर जन्म लिया है, तो मनुष्य-जीवन की महिमा को प्रकट  करो। जीवन (Life) क्या है ? एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है, और बाहरी परिस्थितियाँ तथा बाधाएँ उसको दबाये रखना चाहती हैं, उन समस्त बाधा-विघ्नों का अतिक्रमण करके जो प्रकट हो जाता है, उसी को जीवन कहते हैं। " अतः उसी शाश्वत जीवन  को प्राप्त करने के लिए हमलोगों को भी अपनी समस्त प्रकार की संभावनाओं (पुरुषार्थ) को प्रकट करने की  साधना करनी होगी।  स्वामी जी ने मनुष्य मात्र में बीज रूप से विद्यमान पूर्णत्व को प्रफुटित करने का सन्देश दिया है। यहाँ प्रस्फुटित करने का अर्थ है -"मनुष्य जीवन की उत्कृष्टता को अभिव्यक्त करना।" अपने जीवन को प्रस्फुटित करके यह दिखला दो कि तुम्हारे जीवन की  माँग क्या है , तुम्हारी सर्वोच्च आकांक्षा (ज्वलंत इच्छा -Burning-Desire) क्या है ? थोड़ा धैर्य रखकर जीवन को परिष्कृत  कर लो तथा उस अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता, पूर्णता) को अभिव्यक्त करो ! जीवन कमल को खिलाकर उसके सुगन्ध को प्रसारित होने दो। एक अद्भुत महान सत्ता हमारे भीतर छुपी हुई है। उसी परम् सत्य को जान लेना होगा तथा अभिव्यक्त करना होगा। हम लोगों को अपने जीवन में प्रतिमुहूर्त चलते, बोलते एवं कर्म करते समय यह स्मरण रखना होगा कि हमलोगों में अनन्त अविरोध है, अनन्त ज्ञान है , अनन्त शक्ति है,अनन्त प्रेम है, मेरे भीतर भी वे हैं तथा प्रत्येक मनुष्य के भीतर वे ही हैं। किन्तु, उनको (निःस्वार्थपरता के अवतार वरिष्ठ को ?) हम जानते नहीं हैं, उसका सम्मान (श्रद्धा) नहीं करते हैं, उनको अभिव्यक्त नहीं करते हैं। सर्वदा शारीरिक सुख या क्षणिक इन्द्रिय सुख प्राप्त करने की कामना में आसक्त रहने से क्या होता है? हम अपने अन्तर्निहित सर्वोच्च, सुन्दर और बड़ी वस्तु को (ह्रदय में विद्यमान आध्यात्मिकता के अवतार वरिष्ठ को) उपेक्षित कर उसे- भूल जाते हैं। " 
        स्वामी जी क्या चाहते थे, इसे पत्र-पत्रिकाओं या समाचार पत्रों के पन्नों को पढ़कर नहीं जाना जा सकता। स्वामी जी क्या चाहते थे इसे समझने के लिये अपने हृदय को विशाल बना लेना होगा। स्वामीजी ने स्वयं ही कहा है, कि मुझे क्या लाभ हुआ है सो तो मैं नहीं जानता किन्तु, इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मेरा हृदय जरुर विशाल हो गया है। यह जो मेरा हृदय विशाल हो गया है, यही है वास्तव में आकांक्षा योग्य वस्तु है जिसे मैंने चाहा तथा प्राप्त किया है। स्वामीजी कहते हैं, " किसी भी तुच्छ को पाने या भोगने की कामना को मन से निकाल दो, हर समय अपने हृदय को बड़ा करने की चेष्टा करो। " यदि कोई यह प्रश्न करे कि,स्वामीजी क्या प्राप्त करना चाहते थे, इसे जानने की चेष्टा मैं क्यों करूँ ? तो इसका उत्तर यह है कि हमलोग अभी एक बहुत बड़े संकट में घिर गये हैं, इसमें गिरने की सम्भावना ही अधिक है।
     यदि इसी उम्र में हमलोग यह नहीं जान लें कि हमें ईश्वर से वरदान में सचमुच क्या माँगने की इच्छा करनी चाहिये; तो हमलोग इतना अधिक नीचे गिर सकते हैं कि वहाँ से फिर कभी उठ ही न सकें। इसीलिये हमें अपनी कामना के स्तर को ऊँचा कर लेना होगा तथा सर्वोच्च वस्तु को ही पाने की कामना करनी होगी। 
[ यदि राजाधिराज (ईश्वर) के दरबार तक पहुँच ही गए, तो राजा से कोंहड़ा (ऐश्वर्य या सिद्धि) माँगने की अपेक्षा सर्वोच्च वस्तु -राजा (ईश्वर) को ही पाने की कामना ही करनी होगी।
          हमारे सम्पूर्ण जीवन को सार्थक करने के लिए स्वामीजी ने एक सूत्र दिया है। वह है- 'जिसने दूसरों के लिये जीना सिख लिया हो, केवल उसी ने जीवन को जाना है।' दूसरों  के लिये  त्याग करने की आवश्यकता सदैव रहेगी। इसीलिये ऐसा सोचना उचित नहीं होगा कि चूँकि हमने राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त कर ली है इसीलिये अब त्याग की आवश्यकता नहीं रह गयी है। इस त्याग से ही सबकुछ का प्रारंभ हुआ है, इस त्याग के अन्दर ही जीवन का विस्तार करना होगा, तथा इसके द्वारा ही अपने जीवन को सफल करना होगा
            श्रीरामकृष्ण देव के त्याग की तो हम धारणा भी नहीं कर सकते। उनके त्याग का क्या कहना ? सारदा देवी के त्याग की तो तुलना ही नहीं हो सकती। श्रीरामकृष्ण देव की माँ चन्द्रादेवी के असाधारण त्याग की बात हमलोग जानते ही हैं। एक बार मथुर बाबु ने उनसे पूछा था, " माता जी आप अपने लिए क्या चाहती हैं, मुझे बताइये।  आप जो कुछ भी चाहियेगा , मैं उसे लाकर दूंगा। " इसके उत्तर में उन्होंने कहा था -"बेटा,  मैं कुछ भी नहीं चाहती हूँ, भला मैं क्या चाहूँगी ।" किन्तु, मथुर बाबु भी छोड़ने वाले नहीं थे, वे जिद करने लगे। तब, उन्होंने कहा था - 
" देखो बेटा, मैं अभी क्या माँगू यह नहीं सोच पा रही - बहुत सोचने पर भी कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही है।" 
          उधर मथुर बाबु की भी देने की प्रतिबद्धता दृढ़ हो रही थी। वे कहने लगे -" माता जी आप संकोच मत कीजियेगा, आप जो भी चाहेंगी मैं दूंगा। यदि जमीन, मकान, रुपया चाहिये तो वह भी दूँगा। " तब माता चन्द्रादेवी कहती हैं, " बेटा, अभी तो सोचने पर भी माँगने लायक कुछ दिखाई नहीं दे रहा है, कल सोच कर मैं तुम्हें बता दूंगी। " दूसरे दिन,  बहुत सोचने के बाद उन्होंने कहा था- " बेटा, एक पैसे का दोख्ता (जर्दा पत्ता ) ला दोगे ?
        ' इस छोटी- सी कामना के पीछे जो सत्य अंतर्निहित है, उसको समझने की चेष्टा करनी होगी। स्वामी जी ने हमें जिस वस्तु को माँगने के लिये कहा है, उसी वस्तु को 
(निःस्वार्थपरता -पूर्णता -दिव्यता के अवतार वरिष्ठ को) यदि कोई माँगे और प्राप्त कर ले या प्राप्त करने की चेष्टा में लगा रहे, तभी उसको मनुष्य कहा जा सकता है। यह चेष्टा, संग्राम या प्रयत्न ही मनुष्य जीवन की साधना है। स्वामी जी के अनुसार, " कोई मनुष्य जबतक यह प्रयत्न या संग्राम करता रहता है, तभी तक उसको मनुष्य कहा जा सकता है। जिस क्षण वह इस चेष्टा को बन्द करके प्रकृति के सामने पराजय स्वीकार कर लेता है, उसी क्षण वह मनुष्य की महिमा से स्वयं को गिरा लेता है। इसीलिये स्वामी जी की ज्वलंत इच्छा यही थी कि- " हमलोग मनुष्य बन जाएँ "। 
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वे कहते थे – " मेरे मित्रो, मैंने तुम्हारी पार्लियामेंट, सेनेट, वोट, मेजोरिटी, बैलेट आदि सब देखा है, शक्तिमान पुरुष जिस ओर चलने की इच्छा करते हैं समाज को उसी ओर चलाते हैं, बाक़ी लोग भेड़ों की तरह उनका अनुकरण करते हैं| तो भारत में कौन शक्तिमान पुरुष है ? वे ही जो धर्मवीर हैं। वे ही हमारे समाज को चलाते हैं। वे ही आवश्यकता होने पर समाज की रीति नीति को बदल देते हैं।  हम चुपचाप सुनते हैं, और उसे मानते हैं। 
जिनके हाथ में रूपया है, वे राज्य शासन को अपनी मुट्ठी में रखते हैं, प्रजा को लूटते हैं और उसको चूसते हैं, उसके बाद उन्हें सिपाही बनाकर देश-देशान्तरों (सीरिया-इराक़) में मरने के लिए भेज देते हैं।  जीत होने पर घरद्वार धन धान्य से उनका भरेगा, प्रजा तो उसी जगह मार डाली गई। एक बात पर विचार करके देखो। मनुष्य नियमों को बनाता है, या नियम मनुष्य को बनाते हैं ? मनुष्य रुपया पैदा करता है, या रूपया मनुष्यों को पैदा करता है ? 
 " मेरे मित्रो ! पहले मनुष्य बनो,तब तुम देखोगे कि वे सब बाक़ी चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी। परस्पर के प्रति घृणित द्वेषभाव को छोड़ो और सदुद्देश्य,सदुपाय,सत्यसाहस एवं सदवीर्य का अवलंबन करो। तुमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है, तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाओ।
तुलसी आयो जगत में, जगत हँसे तुम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये।।
अगर ऐसा कर सको, तब तो मनुष्य हो,अन्यथा तुम मनुष्य किस बात के ?१०/६२" 
(http://www.krantidoot.in/2014/09/blog-post_5.html)
[इसमें कोई सन्देह नहीं है कि, एक दिन जब अधिकांश भारतवासी 'हृदयवान मनुष्य' बन जायेंगे तब भारतमाता अपने गौरवशाली सिंहासन पर अवश्य विराजमान हो जाएँगी।] 

 " सैकड़ों युग के लगातार सामाजिक अत्याचार से तुम्हारा सारा मनुष्यत्व नष्ट हो गया है! ...आओ, मनुष्य बनो। अपने संकीर्ण अन्धकूप से निकलकर बाहर जाकर देखो, सभी देश कैसे उन्नति के पथ पर चल रहें है। क्या तुम मनुष्य से प्रेम करते हो? तुम लोग क्या देश से प्रेम करते हो? तो फिर आओ हम भले बनने के लिए  प्राणपण से चेष्टा करे। "
 " माया के भीतर अग्रसर होने को एक वृत्त कहा जा सकता है-जो तुम्हें प्रस्थान बिंदु पर पुनः वापस ले आता है। अन्तर केवल इतना ही है कि यात्रा प्रारंभ करते समय तुम अज्ञानी थे और उस स्थान पर जब लौट कर आते हो, तब तुम पूर्ण ज्ञान उपलब्ध किये होते हो। यह है वह ज्ञान ,जो हमारा स्वभाव या स्वरूप है। इस ज्ञान को हमारा 'जन्मगत स्वत्व' भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वास्तव में हमारा जन्म तो है ही नहीं।"७/१०८ 
" यह कहना कि केवल मनुष्यों में ही आत्मा होती है,पशुओं में नहीं, बिल्कुल बेतुका है। मैंने पशु से भी गये-गुजरे मनुष्यों को देखा है। किन्तु जब यह मनुष्य के रूप में उच्चतम स्तर पर रहती है, तभी उसे मुक्ति मिल पाती है। इस तरह मनुष्यत्व का स्तर सबसे उन्नत स्तर है, देवत्व से भी उन्नत। क्योंकि मनुष्यत्व के स्तर पर ही आत्मा को मुक्ति मिल सकती है।"२/२२०
 "मनुष्य जाति के बड़े बड़े नेताओं की बात यदि ली जाये, तो हमें सदा यही दिखलाई देगा कि ..सच्चा मनुष्यत्व या व्यक्तित्व ही वह वस्तु है,जो हम पर प्रभाव डालती है।४/१७१
" मनुष्य के सच्चे स्वरूप में कोई विधि नहीं,कोई दैव नहीं,कोई अदृष्ट नहीं। अनन्त में विधान या नियम कैसे रह सकता है ?" श्रृंखला तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ।"८/३२
 " आज के पाश्चात्य ईश्वरतत्व-अन्वेषियों का मूलमंत्र तो 'मनुष्य का सच्चास्वरूप' और आत्मा हो गया है।" ९/३७५ 
[इसीलिए जानिबिघा को लिखित एक पत्र में दादा ने लिखा था -" सत्यं शिवं सुन्दरम" तो पाश्चात्य का भाव है, भारत का भाव है -"सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म । "(तैत्तिरीय उपनिषद 2.1.1) ब्रह्म सत्यं  - अनंत चेतना मौलिक वास्तविकता है। जगत मिथ्या  - परिवर्तनशील  एक   सापेक्षिक सत्य है। जीवः ब्रह्म एव न अपरः - वास्तविक 'मैं' अनंत चेतना से अलग नहीं है।]    
तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार,उदासी मन काहे को डरे  ।
काबू में मँझधार उसी के, हाथों में पतवार उसी के। 
तेरी हार भी नहीं है तेरी हार,उदासी मन काहे को डरे ?....
गज भी वही बना है, ग्राह भी वही बना है - 
ग्राह को मार कर, गज को तारने वाला भी वही है ! 
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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

🕊🏹 'स्वामी विवेकानन्द के प्रति श्रद्धांजलि 🕊🏹 [ प्रथम अध्याय -1.4 [निर्झर का स्वप्नभंग] : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.4 ]

 'स्वामी विवेकानन्द के प्रति श्रद्धांजलि ' 

[निर्झर का स्वप्नभंग] 

   जनवरी महीने में  
स्वामी जी का आविर्भाव हुआ था। इस महीने में हमलोग स्वामीजी की पूजा करते हैं, सभा-सम्मेलन का आयोजन कर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। एकबार फिर से हमलोग सर्वस्व त्यागी परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों का स्मरण करते हैं। विश्व धर्म-महासभा में भारत के महान विचारों के वज्रघोष के अनुभव से रोमांचित होते हैं। एक बार पुनः स्वीकार करते हैं कि स्वामी जी एक सच्चे देशभक्त थे, सच्चे मानवप्रेमी थे , सदियों से सबसे नीचे रहने वाले
 पददलितों के हमदर्द थे। और यह सब अनुभव करके गौरवान्वित होते हैं कि स्वामी जी हमारे ही यहाँ हुए थे। 
           महाकाल रूपी रथ के पहियों की घड़घड़ाहट में इस क्षणिक स्मरण-मनन से उत्पन्न उत्साह फिर विस्मृति के सागर में विलीन हो जाता है। व्यक्तिगत रूप से पूछने पर भारतभूमि पर जन्म लिया हुआ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो स्वामी जी प्रति श्रद्धा के दो शब्द न बोल पाये। किन्तु, यदि हम अपने सामाजिक जीवन और राष्ट्रीय जीवन पर दृष्टि डालते हैं, उनको परिचालित करने वाले नीतियों और योजनाओं को देखते हैं, तब यह पाते हैं कि इस महीने में सभा-समिति एवं समसामयिक लेखों में हम जो भी उल्लेख करते हैं, इन दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है।   
           ऐसा लगता है मानो यह सब केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। यह सब बोलने के लिये कुछ पुस्तकों के कुछ पन्नो को उलट -पलट लेना ही यथेष्ट है। किन्तु करने में बहुत कष्ट है। हमारी इस महान राष्ट्रीय दोष के प्रति स्वामी जी ने हमें बहुत पहले ही सावधान कर दिया था। किन्तु, हमलोग इस मार्ग में अपना कदम क्यों नहीं बढ़ा पाते ? इसके दो कारण हो सकते हैं - पहला है, स्वामी जी ने क्या -क्या किया था, इसके बार में थोड़ी-बहुत जानकारी रखने पर भी स्वामीजी क्या चाहते थे, इस पर विशेष ध्यान नहीं देते। दूसरा कारण है विद्यार्थी जीवन में शिक्षकों की व्यक्तिगत इच्छा होने पर क्लास में स्वामीजी की दो-एक कहानियाँ सुना देने के अतिरिक्त और कुछ सिखाने की व्यवस्था हमारी शिक्षा पद्धति में नहीं है। इसीलिए हमारा काम है स्वामी जी प्रति कुछ बोलने के समय श्रद्धा निवेदन कर देना। किन्तु उनके प्रति श्रद्धा निवेदन का मतलब है अपना जीवन समर्पित करना, उसे हम अपना कर्तव्य नहीं समझते। दूसरा -स्वामी जी हमसे क्या चाहते थे, यह हम (व्यक्तिगत और राष्ट्रिय जीवन में) थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं, तो 'समझ नहीं सके हैं ' का बहाना कर दायित्व से बचना चाहते हैं। क्योंकि यह घोषणा करने पर कि हम समझ चुके हैं हमें सर्वस्व त्यागकर सबके कल्याण के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा,यह बात सोचकर ही हम सिहर उठते हैं।    
        स्वामी जी ने इसका भी कारण बतलाया था। मनुष्य के अनेकों स्वभावों में से एक है -जड़ता, अर्थात किसी जड़पिण्ड के समान स्थिर रहना। जैसा हैं, वैसा ही बने रहना। लेकिन स्वामीजी के भाव को ग्रहण करने के लिए अपनी जड़ता तोड़नी होगी। इस भाव को लेने पर हम विगत वर्ष जिस जगह पर थे, उसी जगह पर बने नहीं रह सकते। विगत समय में हम जितना मनुष्य बन सके थे, आज भी उसी जगह खड़े रहना सम्भव नहीं हो पाता है। यहाँ तक कि अभी जो क्षण बीता है उस समय में मैं जो था, उसी जगह पर वर्तमान क्षण में नहीं रह सकता। हमें प्रति मुहूर्त आगे बढ़ते रहना पड़ता है। शरीर का बड़ा होना और वार्धक्य को पाकर अन्ततः नष्ट हो जाना, यह तो प्राकृतिक रूप से घटित होता रहता है।  इसके लिए हमें कोई यत्न नहीं करना पड़ता। हमें मन को शक्तिशाली बनाने, हृदय का द्वार खोलने एवं इसका विस्तार करते रहना पड़ता है। प्रतिक्षण अपने क्षुद्र 'मैं ' पन को पूरी निर्ममता से त्याग कर, उसे विराट बन जाने की चेष्टा में स्वामीजी के भाव को लगाए रखना चाहिए। ह्रदय के बन्द द्वारा के खुलने से जब मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है तो 'हेसे खलखल गेये कलकल ' उसकी निर्झरता की खिलखिलाती  कलकल ध्वनि को सुन हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। और इसकी धारा में स्नान करके हम अपने छोटे- छोटे स्वार्थों का त्याग करते हुए यथार्थ जीवन रूपी समुद्र के आमने -सामने खड़े हो जाते हैं। (मठ में आयोजित -2016  गोल्डन जुबली कैम्प का थीम यही था।) इस क्षुद्रताओं को त्यागकर महत की प्राप्ति के प्रति भयभीत क्यों होना चाहिए ? ऐसा भय केवल अपनी जड़ता को बनाये रखने के कारण होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- ' चलते रहना ही जीवन है और थम जाना ही मृत्यु है। उठो, जागो, अब और सपने मत देखो ! घोर निद्रा को त्यागकर खड़े हो जाओ और आगे बढ़ो - चरैवेति चरैवेति !' यही है स्वामीजी का जीवन मन्त्र। स्वामी जी के महाजन्म का स्मरण करके यदि इस नवजीवन के मंत्र से में हम दीक्षित नहीं हो सके तो उनके प्रति केवल मौखिक श्रद्धा निवेदन का कोई मूल्य नहीं होगा। 
                किन्तु, केवल इतना ही से नहीं होगा। अपने जीवन रूपी दीपक को प्रज्वलित कर स्वयं जागना होगा एवं दूसरों को भी इसी तरह जगाना होगा। सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ते हुए इसी भाव में जागृत होना होगा। व्यक्ति से लेकर पारिवारिक,पारिवारिक से सामाजिक,  तदन्तर राष्ट्रिय जीवन को इसी 'चरैवेति, चरैवेति' के मंत्र से दीक्षित करना होगा। 
      इस महाजागरण की वाणी को खेत-खलिहान, कल-कारखाने, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यवसाय करने वाले बणिकों की गद्दीयों, राष्ट्रचालकों के मसनदों तक सर्वत्र प्रसारित करना होगा। स्वामी जी भारतवर्ष के पूर्ण जागरण के लिए ही आये थे। हमने स्वामी जी को इस भाव में देखना सीखा ही नहीं है। किन्तु, ऐसा देखना होगा और दूसरों को भी दिखाना होगा। स्वामी जी कहते थे भारत झोपड़ियों में वास करता है। अतः  जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। यदि भारत को उठाना चाहते हों तो देश के जनसाधारण को उठाना होगा। तुम सबों को उठा नहीं सकते लेकिन तुम उनके कानों तक इस महाजीवन की वाणी को अवश्य पहुँचा सकते हो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है। इस शक्ति के जग जाने से फिर कोई अवरोध उसे रोक नहीं सकता। जब वे अपने अधिकार को जान पायेंगे तब उनमें दायित्व का बोध जगेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध के साथ अपने पैरों पर खड़ा होगा, सिर उठाकर चलना शुरू करेगा, अपने निजी सुख को तुच्छ समझकर, उनका त्याग करेगा और दूसरों के कल्याण के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देगा तभी भारत जगेगा। इस नवजीवन को जो धारण करता है वही है स्वामीजी का धर्म। 
यह धर्म कोई अफीम का नशा नहीं है। जिस जड़ता रूपी अफीम ने हमें घोर निद्रा में निमग्न  कर रखा है, उस महानिद्रा को त्याग कर उठ खड़े होने का आह्वान स्वामी जी करते हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवा को इस आह्वान को समझना होगा और समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  व्यवस्था को यह समझाने का दायित्व लेना होगा। स्वामीजी को महान बताकर भाषण देना या समाचार पत्रों में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली व्यक्त करने से देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारत अभी तक जितना सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है वह स्वामीजी के इसी - चरैवेति, चरैवेति मंत्र के कारण हुआ है। 
      इस आह्वान की उपेक्षा कर, अवहेलना कर हम उस कीमती रत्न को खो देंगे जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को महाजीवन में बदलने में समर्थ है। यदि हम इसे खोयें नहीं , इसका उचित मूल्य लगाकर उसका वरण कर सकें तो यही स्वामीजी के महाजन्म के शुभ मुहूर्त के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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शनिवार, 21 जुलाई 2012

"स्वामीजी का धर्म " [अध्याय-5.1 : "धर्म और समाज" : स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना/SVHS -5.1 ]

4.

"स्वामी विवेकानन्द का धर्म " 

     भाव रखना अच्छा है, किन्तु अतिशय भावुकता (excessive sentimentality) अच्छी चीज नहीं है। अपने आदर्श और उद्देश्य के प्रति संवेदनशील होना तो अच्छा है, किन्तु उसके प्रति बेहद भावुक हो जाना अच्छी चीज नहीं है। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति अतिशय भावावेग में बहते ही हैं। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि हम किसी भाव या उच्च आदर्श के प्रति गहराई से विचार किये बिना ही केवल भावुकता में बहकर उसे ग्रहण कर लेते हैं। 
     यह बात सत्य है, कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह भी सत्य है कि धर्म के साथ उसके गन्ध की तरह संयुक्त अतिशय भावुकता रूपी अफ़ीम के वशीभूत होकर कई बार हमलोग अपने कर्तव्यपथ से दूर चले जाते हैं। किन्तु, यह भी सत्य है कि अफीम के नशे की तरह अतिशय भावुकता भी स्थायी या सत्य नहीं है , परन्तु धर्म सत्य, सनातन और शाश्वत है।  स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के इसी सनातन -सत्य को अतिशय भावुकता रूपी अफीम से अलग कर समस्त मानव-जाति के लिए ग्राह्य (सुपाच्य) बनाकर एक विशुद्ध धर्म - "मनुष्य बनो और बनाओ (Be and Make)" के रूप में  प्रस्तुत किया है।  
            चाहे जिस कारण से भी हो, समय के प्रवाह में सच्चा धर्म भी दूषित हो ही जाता है। चाहे वह  राष्ट्रिय-विचारधारा के कारण हो, सामाजिक सोच के कारण हो या धार्मिक नासमझी के कारण; किन्तु प्रायः ऐसा देखा जाता है कि किसी भी धर्म का शुद्ध स्वरुप उसके अधिकांश अनुयायियों के आचरण से व्यक्त होता हुआ प्रतीत नहीं होता है।  
        केवल धर्म के क्षेत्र में ही ऐसा होता है , ऐसा दावा हम नहीं कर सकते। अन्यान्य क्षेत्रों में भी हमलोगों ने ऐसी घटनाओं को घटते देखा है, तथा आज भी देख रहे हैं। किन्तु , जब धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था आती है तब धर्म को नए रूप में समस्त मनुष्यों के लिए ग्राह्य बनाकर (स्वादिष्ट और सुपाच्य बनाकर) मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है और उसका प्रचार भी करना पड़ता है। ( अर्थात 'जब धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है'-- तब धर्म को पुनः संस्थापित करने के लिए किसी व्यक्ति या संगठन को आविर्भूत होना ही पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है !
          स्वामीजी के इस नव प्रचार में केवल एक ही विशिष्टता है और वह वैशिष्टय भी 'भारतीय विचारधारा' के अनुरूप ही है। अन्यान्य क्षेत्रों के विचारकों ने केवल एक-एक विषय को लेकर ही चिन्तन किया है तथा उसका फल समाज को प्रदान किया है। किन्तु युगनायक विवेकानन्द का वैशिष्ट्य यही है कि उन्होंने मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हुए अपने विचार रखे हैं। उनके विचारों में 'समग्र मानव ' अर्थात मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता और समाज को  एक विषय के रूप में देखा जा सकता है। 
               अन्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के ऊपर चिन्तन किया है, तो किसी ने समाज के ऊपर। समाज में भी किसी ने जाति-प्रथा के ऊपर, तो किसी ने विभिन्न धर्मों पर, किसी ने शिक्षा पर, तो किसी ने कृषि पर, किसी ने कला के ऊपर , तो किसी ने साहित्य के और किसी ने संगीत के ऊपर अपने विचारों को व्यक्त किया है। 
   किन्तु, उपरोक्त समस्त क्षेत्र जिस मनुष्य के साथ जुड़े हुए हैं, स्वामी जी उसी मनुष्य के ऊपर चिन्तन किया है। तथा, उन्होंने ने एक ऐसे धागे  का आविष्कार किया जो इन सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है, फिर इस धागे (निःस्वार्थपरता) को मनुष्य के गले में पहना दिया, और नाम दिया -धर्मऔर कहा कि यह निःस्वार्थपरता ही वह धागा है जो मनुष्य को सभी ओर से संयम में रखेगा[क्योंकि धर्मो रक्षति रक्षितः>धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।‘‘जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है । इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म ( यानि निःस्वार्थपरता ) का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए। ]     
          इसीलिये भिन्न - भिन्न नाम वाले जितने भी धर्म हैं, वे समय के प्रवाह में केवल भावुकता प्रदान करते हैं या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। किन्तु, स्वामीजी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से [branded religion] पूर्णतया अलग किस्म का है। धर्म का नाम सुनते ही, जो लोग अपना नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं, वे यदि चाहें तो इसके लिए एक नये शब्द [जैसे शिक्षा ] का आविष्कार कर सकते हैं, ऐसा करने से वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।  सा कहना, कि जो लोग एक विशेष निर्दिष्ट तरीके से जीवन-यापन करते हैं, वे ही धार्मिक हैं, शेष सभी अधार्मिक (काफ़िर) हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो अपने जीवन को सभी ओर से धर्म के वास्तविक केन्द्र में संयमित रख सकते हैं , वे ही यथार्थ धार्मिक हैं। कोई मनुष्य जब अपने केन्द्र से (आत्मा से) जुड़ जाता है , तभी वह दूसरे मनुष्यों के साथ स्वयं को जुड़ा हुआ अनुभव करता है। ऐसा योग तभी साधित होता है, जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक धागे (निःस्वार्थपरता) को धारण कर लेता है। 
          स्वामीजी जब मनुष्य को परिभाषित करते हैं तो उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित रहती है। स्वामीजी के अनुसार मनुष्य एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है लेकिन उसका केंद्र एक स्थान पर निश्चित है। जबकि इस धागे का निहितार्थ अत्यन्त विस्तृत है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म का अनुयायी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। यही विकास की कुँजी है। और मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही धर्म की मूल बात है।
       इस उन्नति के पथ पर अग्रसर रहते हुए मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता 'मैं'-पन को (मिथ्या अहंकार को) खोना सीख लेता है। एवं हृदय की संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ, मनुष्य अपनी महिमा को प्राप्त करने की ओर आगे बढ़ता जाता है। यह आगे बढ़ना, ह्रदय का ऐसा विस्तार होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के अनुसार,'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! '('Unselfishness is God!) ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय तो भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? विश्व के किस जननायक ने धर्म के इसी मौलिक सिद्धान्त को, अन्य भाषा में अर्थात भिन्न प्रकार से नहीं कहा है? और जिन्होंने यह बात नहीं बताई या इस 'सार्वभौमिक सिद्धान्त' को अपना समर्थन नहीं दिया, समाज उनको कभी जननेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करता है। 
      फिलॉसफी, जप-तप, मन्दिर, दीपक, केले का थम, घंटी आदि चीजों को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म का अंग बताया है। किन्तु, जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व (unity of all living beings) की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने पर हमारे द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार हो जाता है, और वही है- धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर दूसरों को मारता है, और वीर अपने कच्चे 'मैं'-पन को (अपने मिथ्या अहं) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं अपने सुखद जीवन का बाधक समझता हूँ, या हानि पहुंचाने वाला समझता हूँ, उसे मार देता हूँ क्योंकि वास्तव में मैं 'कायर' (नहीं मूर्ख) हूँ। 
[क्योंकि 'each soul is potentially divine ' की उपलब्धि मुझे नहीं हुई है। रामायण और महाभारत दोनों धर्म-ग्रन्थ भारत के भाइयों का इतिहास क्यों है ?  'सर्वेभवन्तु सुखिनः' प्रार्थना का मर्म नहीं जानता हूँ ! दुर्योधन ने कहा है-  "जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति: जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। केनापि देवेन हृदय स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। " 'मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती।  मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।'दुर्योधन द्वारा कहा गया यह 'देव' अपवित्र 'काम' ( तीनो ऐषणाएँ या भोग और संग्रह में घोर आसक्ति) ही है, जिससे मनुष्य विवेक पूर्वक धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता ]  
         किन्तु जो वीर होता है वह इस वृहत जगत (देश,काल,निमित्त) के पार जाने (या ब्रह्म तक पहुँचने) के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - 'मैं' और 'मेरा'  को मारता है। इसीलिये धर्म कायरों के लिये नहीं, वीरों के लिये है। स्वामीजी ने कहा है, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण होना ही धर्म है।' उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हराने, कल्याण कार्यों को सम्पादित करने,भूखों को अन्नदान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने तथा शुद्ध बुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास में होती है।
      धर्म का मुख्य कार्य ही है मनुष्य को शान्ति प्रदान करना। स्वामीजी का विचार था कि - " जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख मिलेगा -का आश्वासन देना बिलकुल झूठी बात है।" यदि मनुष्य इस संसार में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो केवल अपने सुख-सुविधा की बात सोचने से वह सुख प्राप्त नहीं होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को उसकी असीम परिधि तक जन-कल्याण की भूमिका में नियोजित कर देता है।यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक (Conscience-नैतिकता)  का जागरण हो जाता है।  
        धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है और नीतिबोध (sense of morality) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की नीति को निर्धारित करता है। 

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गाने का  शीर्षक: " आई गवनवा की साड़ी, उमरि अजहुँ मोरी बारी "

आई  गवनवा की साड़ी , उमरि अजहूँ मोरी बारी।।
साज सजाय पिया लै आये, और कहरिया चारी।
बम्हना बेदर्दीं अचरा पकड़ी कें, जोरत गँठिया हमारी,
सखी सब गावत गारी।।

विधि गति बाम कछु समझ परै ना, बैरिन भई महतारी।
रोय रोय अँखियाँ कागजति है, घर सों देत निकारी,
भैं सबकों हम भारी।।

गवना कराय पिया लै चले, इत उत बाट निहारी।
छूटत गांव नगर सों नाता, छूटत महल अटारी,
करम-गति टारे न टारि।।

नदिया किनारा बलम मोरे रसिया, दीन्ह घुँघट पट तारी।
थार थारै तन कापन लाग्यौ, काहू न देख हमारी,
पिया लै आये गोहारी।।

कहत 'कबीर' सुनौ भाई साधो, यह मत लेहु विचारी।
अबकी गौना बहुरि नहिं अउना, करिलै कलाकार अकुँवारी,

एक बैरी मिलि लै प्रिय।।

गीतकार - कबीर :
$$$$ SVHS-5.1 स्वामीजी का धर्म (नये संस्करण में 5 वां अध्याय का पहला निबंध है )
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