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शनिवार, 27 अप्रैल 2024

🕊🏹परिच्छेद 130~सर्वधर्म-समन्वय* 🕊🏹 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]🔱🕊 ज्ञान के बाद भक्ति है तो उसका अर्थ यह है कि> पहले एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' का ज्ञान होता है -बाद में शिवज्ञान से जीवसेवा) 🕊🏹पहले इन्द्रियातीत सत्य का - 'भगवान का ज्ञान' होता है, बाद में भक्ति !🕊🏹🕊🏹अवतार वरिष्ठ के चरणरज 🕊🏹 (पहले अवतार-वरिष्ठ का तत्वज्ञान ज्ञान होता है बाद में भक्ति !)🕊🏹ईसाई भक्त मिश्र साहब - 'वही राम घट-घट में लेटा ।🕊🏹

 *परिच्छेद- 130~सर्वधर्म-समन्वय*

(1)

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

*बलराम के लिए चिन्ता । श्री हरिवल्लभ वसु*

श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुर वाले मकान में चिकित्सा के लिए भक्तों के साथ ठहरे हुए हैं । आज शनिवार है, आश्विन की कृष्णा अष्टमी, 31 अक्टूबर 1885 । दिन के नौ बजे का समय होगा । यहाँ दिन-रात भक्तगण रहा करते हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए। अभी किसी ने संसार का त्याग नहीं किया है बलराम सपरिवार श्रीरामकृष्ण के सेवक हैं । उन्होंने जिस वंश में जन्म लिया है, वह बड़ा ही भक्त-वंश है । इनके पिता वृद्ध होकर अब श्रीवृन्दावन में अपने ही प्रतिष्ठित श्रीश्यामसुन्दर कुँज में रहा करते हैं । उनके चचेरे भाई श्रीयुत हरिवल्लभ बसु और घर के दूसरे सब लोग वैष्णव हैं । हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । उन्होंने जब यह सुना कि बलराम श्रीरामकृष्णदेव के पास आया-जाया करते हैं और विशेषकर स्त्रियों को ले जाते हैं, तब वे बहुत नाराज हुए । उनसे मिलने पर बलराम ने कहा था, ‘तुम पहले एक बार उनके दर्शन करो, फिर जो जी में आये मुझे कहना ।’

Hariballav was the government pleader at Cuttack. He did not approve of Balaram's visiting the Master, especially with the ladies of the family; Balaram had said to his cousin: "You had better meet him first. Then you can say whatever you like."

শ্রীরামকৃষ্ণ শ্যামপুকুরের বাটীতে ভক্তসঙ্গে চিকিৎসার্থ বাস করিতেছেন। আজ শনিবার। আশ্বিন, কৃষ্ণা অষ্টমী তিথি, ১৬ই কার্তিক। ৩১শে অক্টোবর, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ। বেলা নয়টা।এখানে ভক্তেরা দিবারাত্রি থাকেন — ঠাকুরের সেবার্থ! এখনও কেহ সংসার ত্যাগ করেন নাই। বলরাম সপরিবারে ঠাকুরের সেবক। তিনি যে বংশে জন্মিয়াছেন, সে অতি ভক্তবংশ। পিতা বৃদ্ধ হইয়াছেন, বৃন্দাবনে একাকী বাস করেন — তাঁহাদের প্রতিষ্ঠিত শ্রীশ্রীশ্যামসুন্দরের কুঞ্জে। তাঁহার পিতৃব্যপুত্র শ্রীযুক্ত হরিবল্লভ বসু ও বাটীর অন্যান্য সকলেই বৈষ্ণব। হরিবল্লভ কটকের প্রধান উকিল। পরমহংসদেবের কাছে বলরাম যাতায়াত করেন — বিশেষতঃ মেয়েদের লইয়া যান — শুনিয়া বিরক্ত হইয়াছেন। দেখা হইলে, বলরাম বলিয়াছিলেন, তুমি তাঁহাকে একবার দর্শন কর — তারপর যা হয় বলো!

अतएव आज हरिवल्लभ आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को बड़े भक्तिभाव से प्रणाम किया ।

Hariballav Bose, a cousin of Balaram, came to see Sri Ramakrishna. He saluted the Master respectfully.

আজ হরিবল্লভ আসিয়াছেন, তিনি ঠাকুরকে দর্শন করিয়া অতি ভক্তিভাবে প্রণাম করিলেন।

Presently the Master and Hariballav became engaged in conversation.

श्रीरामकृष्ण - किस तरह बीमारी अच्छी होगी ? आपकी राय में क्या यह कोई कठिन बीमारी है ?

MASTER: "Can you tell me how I shall get well? Do you think this is a serious illness?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি করে ভাল হবে! — আপনি কি দেখছো, শক্ত ব্যামো?

हरिवल्लभ - जी, यह तो डाक्टर ही कह सकेंगे ।

HARIBALLAV: "Sir, the doctors can tell you better than I about that."

হরিবল্লভ — আজ্ঞা, ডাক্তারেরস বলতে পারেন।

श्रीरामकृष्ण – स्त्रियाँ जब मेरे पैरों की धूलि लेती हैं तब यही सोचता हूँ कि भीतर तो वे ही हैं, वे उन्हीं को प्रणाम कर रही हैं । इसी दृष्टि से मैं देखता हूँ

MASTER: "When the women take the dust of my feet, I say to myself that they are saluting God, who dwells inside me  . I look at it in that way."

শ্রীরামকৃষ্ণ — মেয়েরা পায়ের ধুলা লয়। তা ভাবি একরূপে তিনিই (ঈশ্বর) ভিতরে আছেন — হিসাব আনি।

हरिवल्लभ - आप साधु हैं, आपको सब लोग प्रणाम करेंगे, इसमें दोष क्या है ?

HARIBALLAV: "You are a holy man. All should take the dust of your feet. What harm is there in that?"

হরিবল্লভ — আপনি সাধু! আপনাকে সকলে প্রণাম করবে, তাতে দোষ কি?

श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह हो सकता था अगर ध्रुव, प्रह्लाद, नारद, कपिल, ये कोई होते; पर मैं क्या हूँ? अच्छा आप फिर आइयेगा ।

MASTER: "You may speak that way about sages like Dhruva, Prahlada, Narada, or Kapila; but who am I? Please come again."

শ্রীরামকৃষ্ণ — সে ধ্রুব, প্রহ্লাদ, নারদ, কপিল, এরা কেউ হলে হত। আমি কি! আপনি আবার আসবেন

हरिवल्लभ - जी, मैं तो आप के आकर्षण से स्वयं ही खिंचा चला आऊंगा, आपको मुझसे आने के लिए आग्रह करने की जरूरत नहीं है?

HARIBALLAV: "I shall certainly come, because you attract me. You don't have to urge me."

হরি — আজ্ঞা, আমাদের টানেই আসব — আপনি বলছেন কেন।

हरिवल्लभ बिदा होंगे, प्रणाम कर रहे हैं । पैरों की धूलि लेने जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पैर हटा लिये । परन्तु हरिवल्लभ ने छोड़ा नहीं, जबरदस्ती उन्होंने पैरों की धूलि ली  

Hariballav was about to depart. He saluted Sri Ramakrishna and was going to take the dust of the Master's feet, when Sri Ramakrishna moved his feet away. But Hariballav persisted; he took the dust of Sri Ramakrishna's feet against the latter's wish.

হরিবল্লভ বিদায় লইবেন — প্রণাম করিতেছেন। পায়ের ধুলা লইতে যাইতেছেন — ঠাকুর পা সরাইয়া লইতেছেন। কিন্তু হরিবল্লভ ছাড়িলেন না — জোর করিয়া পায়ের ধুলা লইলেন।

हरिवल्लभ उठे । उनके प्रति शिष्टाचार दिखाने के लिए (अवतार वरिष्ठ ? किन्तु एकदम सरल ) श्रीरामकृष्ण देव भी उठकर खड़े हो गये । कह रहे हैं, "इस बात से बलराम बहुत दुःख करता है कि उसके घर मैं नहीं जाता। मैंने सोचा, एक दिन जाऊँ, जाकर तुम लोगों से मिलूँ परन्तु भय भी होता है कि तुम लोग कहीं यह न कहो कि इसे कौन यहाँ लाया !"

When he stood up, the Master stood up too, to show him courtesy. The Master said to him: "Balaram feels unhappy because I don't go to his house. I thought of visiting you all there one day, but then I was afraid you might say to Balaram, 'Who asked him to come here?'

হরিবল্লভ গাত্রোত্থান করিলেন। ঠাকুর যেন তাঁহাকে খাতির করিবার জন্য দাঁড়াইলেন। বলিতেছেন, “বলরাম অনেক দুঃখ করে। আমি মনে কল্লাম, একদিন যাই — গিয়ে তোমাদের সঙ্গে দেখা করি। তা আবার ভয় হয়! পাছে তোমরা বল, একে কে আনলে!

हरिवल्लभ - इस तरह की बातें आपसे कौन कहता है ? कृपया आप इन बातों पर कुछ सोचियेगा नहीं ।

HARIBALLAV: "Who has been telling you things? Please don't let such a thought enter your mind."

হরি — ও-সব কথা কে বলেছে। আপনি কিছু ভাববেন না।

हरिवल्लभ चले गये ।

Hariballabh departed.

হরিবল্লভ চলিয়া গেলেন।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - उसमें भक्ति है; नहीं तो जबरदस्ती पैरों की धूलि क्यों लेता ? "वह बात जो तुमसे मैंने कही थी कि भाव समाधि में मैंने डाक्टर (डॉक्टर महेन्द्रलाल सरकार) को देखा था तथा एक आदमी और था - यह 'Hariballabh' वही है ! इसीलिए देखो आया !"

MASTER (to M.): "He is a devotee of God; why else would he have forcibly taken the dust of my feet? I told you the other day that in samadhi I had seen Dr. Sarkar and another person. He is the other person. So he has come."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — ভক্তি আছে — তা না হলে জোর করে পায়ের ধুলা নিলে কেন? “সেই যে তোমায় বলেছিলাম, ভাবে দেখলাম ডাক্তার ও আর-একজনকে, — এই সেই আর-একজন। তাই দেখ, এসেছে।”

मास्टर - जी, सचमुच वह भक्त है ।

M: "Yes, sir. Undoubtedly he is a bhakta."

মাস্টার — আজ্ঞে, ভক্তিরই ঘর।

श्रीरामकृष्ण - कितना सरल है !

MASTER: "How guileless he is!"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি সরল!

श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल लेकर मास्टर डाक्टर सरकार के पास शाँकारिटोला आये हुए हैं । डाक्टर आज फिर श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे । डाक्टर श्रीरामकृष्ण और महिमाचरण आदि की बातें कह रहे हैं ।

M. went to Dr. Sarkar's house to report Sri Ramakrishna's condition. The doctor talked to M. about Sri Ramakrishna, Mahimacharan, and the other devotees.

ডাক্তার সরকারের কাছে ঠাকুরের অসুখের সংবাদ দিবার জন্য মাস্টার শাঁখারিটোলায় আসিয়াছেন। ডাক্তার আজ আবার ঠাকুরকে দেখিতে যাইবেন। ডাক্তার ঠাকুরের ও মহিমাচরণ প্রভৃতি ভক্তদের কথা বলিতেছেন।

डाक्टर - महिमाचरण वह पुस्तक तो नहीं लाये जिसे उन्होंने दिखाने के लिए कहा था उन्होंने कहा, ‘भूल गया ।’ हो सकता है । मैं भी प्रायः इसी तरह भूल जाता हूँ ।

DOCTOR: "Mahimacharan didn't bring the book he promised to show me. He said he had forgotten all about it. It is quite possible. I am forgetful too."

ডাক্তার — কই, তিনি (মহিমাচরণ) সে বইতো আনেন নাই — যে বই আমাকে দেখাবেন বলেছিলেন! বললে, ভুল হয়েছে। তা হতে পারে — আমারও হয়।

मास्टर - उनका (महिमाचरण का) अध्ययन (स्वाध्याय) बहुत अच्छा है ।

M: "He has read a great deal."

মাস্টার — তাঁর বেশ পড়াশুনা আছে।

डाक्टर - तो फिर उनकी ऐसी दशा क्यों है ?

DOCTOR: "Then why is he in such a plight?"

ডাক্তার — তাহলে এই দশা!

श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में डाक्टर कह रहे हैं - "केवल भक्ति लेकर क्या होगा, अगर ज्ञान न रहा?"

Referring to the Master, the doctor said: "What will a man accomplish with mere bhakti? He needs jnana too."

ঠাকুরের সম্বন্ধে ডাক্তার বলিতেছেন, “শুধু ভক্তি নিয়ে কি হবে — জ্ঞান যদি না থাকে।”

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

🕊🏹पहले इन्द्रियातीत सत्य का - 'भगवान का ज्ञान' होता है, बाद में भक्ति !🕊🏹

(पहले एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' का ज्ञान होता है -बाद में शिवज्ञान से जीवसेवा     

मास्टर - श्रीरामकृष्ण तो कहते हैं, ज्ञान के बाद भक्ति है; परन्तु उनके ज्ञान और भक्ति से आप लोगों के ज्ञान और भक्ति में बड़ा अन्तर है

M: "Why, the Master says that bhakti comes after jnana. But his conception of jnana and bhakti is quite different from yours

মাস্টার — কেন, ঠাকুর তো বলেন — জ্ঞানের পর ভক্তি। তবে তাঁর ‘জ্ঞান, ভক্তি’ আর আপনাদের ‘জ্ঞান, ভক্তি’র মানে অনেক তফাত

"वे जब कहते हैं, ज्ञान के बाद भक्ति है तो उसका अर्थ यह है कि पहले तत्त्वज्ञान होता है और बाद में भक्ति; पहले ब्रह्मज्ञान और बाद में भक्ति; पहले भगवान का ज्ञान, फिर उनके प्रति प्रेम आप लोगों के ज्ञान का अर्थ है, इन्द्रियजन्य ज्ञान । 

When he says that one obtains bhakti after jnana, he means that first comes the Knowledge of Reality- (that One has become many)  and then bhakti; first the Knowledge of Brahman and then bhakti; first the Knowledge of God and then love for Him. When 'you' speak of jnana you mean the knowledge obtained through the senses

“তিনি যখন বলেন — ‘জ্ঞানের পর ভক্তি’ তার মানে — তত্ত্বজ্ঞানের পর ভক্তি, ব্রহ্মজ্ঞানের পর ভক্তি — ভগবানকে জানার পর ভক্তি। আপনাদের জ্ঞান মানে সেন্স্‌ নলেজ্‌ (ইন্দ্রিয়ের বিষয় থেকে পাওয়া জ্ঞান।)

श्रीरामकृष्ण जिस ज्ञान (आत्मज्ञान, तत्वज्ञान, इन्द्रियातीत सत्य, 'वेद') की चर्चा करते हैं, उसकी परख हमारे मापदण्ड द्वारा नहीं हो सकती । परन्तु आपका ज्ञान तो -इन्द्रियजन्य है, उसकी परख हो सकती है ।"

(इन्द्रियगोचर सत्य के ज्ञान को प्रयोगशाला में  'verified '-सत्यापित किया जा सकता है, लेकिन इन्द्रियातीत सत्य को गुरु-शिष्य परम्परा में केवल अपने अनुभव से सत्यापित किया जा सकता है।)    

The jnana Sri Ramakrishna speaks of cannot be verified by our standards. The Knowledge of Reality cannot be tested by the knowledge obtained through the senses. But your jnana, the knowledge through the senses, can be verified."

 প্রথমটি not verifiable by our standard; তত্ত্বজ্ঞান ইন্দ্রিয়লভ্য জ্ঞানের দ্বারা ঠিক করা যায় না। দ্বিতিয়টি — verifiable (জড়জ্ঞান)।”

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

🕊🏹अवतार वरिष्ठ के चरणरज 🕊🏹

(पहले अवतार-वरिष्ठ का तत्वज्ञान ज्ञान होता है बाद में भक्ति !)

डाक्टर कुछ देर चुप रहे, फिर अवतार के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे ।

The doctor remained silent. Then he referred to the subject of Divine Incarnation.

ডাক্তার চুপ করিয়া, আবার অবতার সম্বন্ধে কথা কহিতেছেন।

डाक्टर - अवतार क्या है ? और पैरों की धूलि लेना, वह क्या है ?

DOCTOR: "What is this idea of Divine Incarnation? What is this taking the dust of a man's feet?"

ডাক্তার — অবতার আবার কি? আর পায়ের ধুলো লওয়া কি!

मास्टर – क्यों ? आपही तो कहते हैं कि अपनी साइन्स की प्रयोगशाला में अन्वेषण करते समय ईश्वर की सृष्टि के बारे में सोचने से आपको भावावस्था हो जाती है, और फिर आदमी को देखने से भी आपमें उसी भाव का उद्रेक होता है । अगर यह ठीक है तो ईश्वर को फिर हम सिर क्यों न झुकावें ? मनुष्य के हृदय में ईश्वर है

M: "Why, you say that during your experiments in the laboratory, you go into ecstasy when you think of God's creation. Further, you feel the same emotion when you think of man. If that is so, why shouldn't we bow our heads before God? God dwells in the heart of man.

মাস্টার — কেন, আপনি তো বলেন একস্‌পেরিমেন্ট্‌ সময় তাঁর সৃষ্টি দেখে ভাব হয়, মানুষ দেখলে ভাব হয়। তা যদি হয়, ঈশ্বরকে কেন না মাথা নোয়াব? মানুষের হৃদয় মধ্যে ঈশ্বর আছেন

"हिन्दू धर्म के अनुसार सर्वभूतों में ईश्वर का वास है । यह विषय आपको अच्छी तरह मालूम नहीं है। सर्वभूतों में जब ईश्वर हैं तो मनुष्य को प्रणाम करने में क्या बुराई है ? "श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं किसी-किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है । सूर्य का प्रकाश पानी में, आईने में अधिक है । पानी सब जगह है, परन्तु नदी और सरोवर में अधिक है

"According to Hinduism God dwells in all beings. You have not studied this subject much. Since God dwells in all beings, what is wrong in saluting a man?

“হিন্দুধর্মে দেখে সর্বভূতে নারায়ণ! এটা তত আপনার জানা নাই। সর্বভূতে যদি থাকেন তাঁকে প্রণাম করতে কি?

नमस्कार ईश्वर को ही किया जाता है, मनुष्य को नहीं । God is God, not, man is God. (ईश्वर ही ईश्वर हैं, मनुष्य ईश्वर नहीं ।) "ईश्वर को कोई साधारण विचार द्वारा समझ ही नहीं सकता । सब विश्वास पर अवलम्बित है । ये ही सब बातें श्रीरामकृष्ण कहते हैं ।"

"Sri Ramakrishna says that there is a greater manifestation of God in certain things than in others, as the sun is reflected better by water and by a mirror than by other objects. Water exists everywhere, but is most apparent in a river or lake. We bow down to God and not to man. God is God — not man is God. "God cannot be known through reasoning. All depends on faith. Of course, I am repeating to you what Sri Ramakrishna says."

“পরমহংসদেব বলেন, কোনও কোনও জিনিসে তিনি বেশি প্রকাশ। সূর্যের প্রকাশ জলে, আরশিতে। জল সব জায়গায় আছে — কিন্তু নদীতে, পুষ্করিণীতে, বেশি প্রকাশ। ঈশ্বরকেই নমস্কার করা হয় — মানুষকে নয়। God is God — not, man is God.“তাঁকে তো রীজ্‌নিং (সামান্য বিচার) করে জানা যায় না — সমস্ত বিশ্বাসের উপর নির্ভর। এই সব কথা ঠাকুর বলেন।”

आज डाक्टर ने मास्टर को अपनी लिखी पुस्तक-'The Physiological Basis of Psychology' - अर्थात 'मनोविज्ञान का शारीरिक आधार ' की एक प्रति उपहार-स्वरूप दी ।

Dr. Sarkar presented M. with one of his books, The Physiological Basis of Psychology. He wrote on the first page "As a token of brotherly regards."

আজ মাস্টারকে ডাক্তার তাঁহার রচিত একখানি বই উপহার দিলেন —Physiological Basis of Psychology — 'as a token of brotherly regards'.

(२)

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

श्रीरामकृष्ण तथा ईशु 

🕊🏹ईसाई भक्त मिश्र साहब - 'वही राम घट-घट में लेटा ।🕊🏹

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । मिश्रा साहब (प्रभुदयाल मिश्र) - नाम के एक ईसाई भक्त के साथ बातचीत हो रही है । मिश्रा साहब उत्तर पश्चिम भारत के मूल निवासी थे।  उनके दो भाइयों की मृत्यु उनमें से एक भाई के विवाह के लिए तय दिन पर हो गई थी; तब से मिश्र ने संसार का त्याग कर दिया है ।  ब्राह्मण होते हुए भी वे ईसा मसीह के प्रति आकर्षित हो गए थे,  और ईसाई बन गए थे। ये Quaker(क्वेकर) सम्प्रदाय के हैं । बाहर से तो वे साहबी वेश-भूषा धारण किये हुए हैं, परन्तु भीतर गेरुआ वस्त्र पहने हैं । [उन्होंने ठाकुरदेव का दिव्य-दर्शन पहले ही प्राप्त कर लिया था। उन्हें भावस्थ ठाकुर देव में यीशु की साक्षात् अभिव्यक्ति देखने का सौभाग्य मिला था ।] 

It was about eleven o'clock in the morning. Sri Ramakrishna was sitting in his room with the devotees. He was talking to a Christian devotee named Misra. Misra was born of a Christian family in northwestern India and belonged to the Quaker sect. He was thirty-five years old. Though clad in European dress he wore the ochre cloth of a sannyasi under his foreign clothes. Two of his brothers had died on the day fixed for the marriage of one of them, and on that very day Misra had renounced the world.

ঠাকুর ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। বেলা এগারটা। মিশ্র নামক একটি খ্রীষ্টান ভক্তের সহিত কথা কহিতেছেন। মিশ্রের বয়ঃক্রম ৩৫ বৎসর হইবে। মিশ্র খ্রীষ্টানবংশে জন্মিয়াছেন। যদিও সাহেবের পোশাক, ভিতরে গেরুয়া আছে। এখন সংসারত্যাগ করিয়াছেন। ইঁহার জন্মস্থান পশ্চিমাঞ্চলে। একটি ভ্রাতার বিবাহের দিনে তাঁহার এবং আর একটি ভ্রাতার একদিনে মৃত্যু হয়। সেই দিন হইতে মিশ্র সংসারত্যাগ করিয়াছেন। তিনি কোয়েকার্‌ সম্প্রদায়ভুক্ত।

मिश्र - 'वही राम घट-घट में लेटा ।'

MISRA: "'It is Rama alone who dwells in all beings.'"

মিশ্র — ‘ওহি রাম ঘট্‌ ঘটমে লেটা।’

श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र से धीरे-धीरे कह रहे हैं, परन्तु इस ढंग से कि मिश्र भी सुनें – “राम एक ही हैं, परन्तु उनके नाम हजारों हैं । “ईसाई जिन्हें गाड(God) कहते हैं, हिन्दू उन्हें ही राम, कृष्ण और ईश्वर कहकर पुकारते हैं तालाब में बहुत से घाट हैं । हिन्दू एक घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं ‘जल’; ईसाई दूसरे घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं 'वाटर' (Water); मुसलमान तीसरे घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं 'पानी' । “इसी प्रकार जो ईसाइयों का 'गाड'(God) है, वही मुसलमानों का 'अल्ला' है ।”

Sri Ramakrishna said to the younger Naren, within Misra's hearing: "Rama is one, but He has a thousand names. He who is called 'God' by the Christians is addressed by the Hindus as Rama, Krishna, Isvara, and by other names. A lake has many ghats. The Hindus drink water at one ghat and call it 'jal'; the Christians at another, and call it 'water'; the Mussalmans at a third, and call it 'pani'. Likewise, He who is God to the Christians is Allah to the Mussalmans." 

শ্রীরামকৃষ্ণ ছোট নরেনকে আস্তে আস্তে বলিতেছেন — যাহাতে মিশ্রও শুনিতে পান — ‘এক রাম তাঁর হাজার নাম।’“খ্রীষ্টানরা যাঁকে God বলে, হিন্দুরা তাঁকেই রাম, কৃষ্ণ, ঈশ্বর — এই সব বলে। পুকুরে অনেকগুলি ঘাট। একঘাটে হিন্দুরা জল খাচ্ছে, বলছে জল; ঈশ্বর। খ্রীষ্টানেরা আর-একঘাটে খাচ্ছে, — বলছে, ওয়াটার; গড্‌ যীশু। মুসলমানেরা আর-একঘাটে খাচ্ছে — বলছে, পানি; আল্লা।”

मिश्र - ईशु मेरी का लड़का नहीं है, ईशु साक्षात् ईश्वर हैं । (भक्तों से) "ये (श्रीरामकृष्ण) अभी तो ऐसे दिखते हैं, पर ये साक्षात् ईश्वर हैं । आप लोगों ने इन्हें पहचाना नहीं । मैं पहले ही इनके दर्शन ध्यान में कर चुका हूँ - अब इस समय इन्हें साक्षात् देख रहा हूँ । मैंने देखा था, एक बगीचा है, ये ऊँचे आसन पर बैठे हुए हैं; जमीन पर एक व्यक्ति और बैठे हुए हैं, - वे उतने पहुँचे हुए नहीं थे

MISRA: "Jesus is not the son of Mary. He is God Himself. (To the devotees) Now he (pointing to Sri Ramakrishna) is as you see him — again, he is God Himself. You are not able to recognize him. I have seen him before, in visions, though I see him now directly with my eyes. I saw a garden where he was seated on a raised seat. Another person was seated on the ground, but he was not so far advanced.

মিশ্র — মেরির ছেলে Jesus নয়। Jesus স্বয়ং ঈশ্বর। 
(ভক্তদের প্রতি) — “ইনি (শ্রীরামকৃষ্ণ) এখন এই আছেন — আবার এক সময়ে সাক্ষাৎ ঈশ্বর। “আপনারা (ভক্তেরা) এঁকে চিনতে পাচ্ছেন না। আমি আগে থেকে এঁকে দেখেছি — এখন সাক্ষাৎ দেখছি। দেখেছিলাম — একটি বাগান, উনি উপরে আসনে বসে আছেন; মেঝের উপর আর-একজন বসে আছেন, — তিনি তত advanced (উন্নত নন।)

“इस देश में ईश्वर के चार द्वारपाल हैं । बम्बई प्रान्त में तुकाराम, काश्मीर में रॉबर्ट माइकेल (Robert Michael), यहाँ ये, और पूर्व बंगाल में एक और हैं ।"

"There are four door-keepers of God in this country: Tukaram in Bombay, Robert Michael in Kashmir, himself [meaning Sri Ramakrishna] in this part of the country, and another person in eastern Bengal."

“এই দেশে চারজন দ্বারবান্‌ আছেন। বোম্বাই অঞ্চলে তুকারাম ও কাশ্মীরে রবার্ট মাইকেল; — এখানে ইনি; — আর পূর্বদেশে আর-একজন আছেন।”

श्रीरामकृष्ण - क्या तुम्हें कुछ दर्शन होता है ?

MASTER: "Do you see visions?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি কিছু দেখতে-টেকতে পাও?

मिश्र – जी, जब मैं घर पर था, तब ज्योति-दर्शन होता था । इसके बाद ईशु को मैंने देखा । उस रूप की बात अब क्या कहूँ - उस सौन्दर्य के सामने स्त्री का सौन्दर्य खाक है !

MISRA: "Sir, even when I lived at home I used to see light. Then I had a vision of Jesus. How can I describe that beauty? How insignificant is the beauty of a woman compared with that beauty!"

মিশ্র — আজ্ঞা, বাটীতে যখন ছিলাম তখন থেকে জ্যোতিঃদর্শন হত। তারপর যীশুকে দর্শন করেছি। সে-রূপ আর কি বলব! — সে সৌন্দর্যের কাছে কি স্ত্রীর সৌন্দর্য!

कुछ देर बाद भक्तों के साथ बातचीत करते हुए मिश्र ने कोट और पतलून खोलकर भीतर गेरुए की कौपीन दिखलायी ।

After a while Misra took off his trousers and showed the devotees the gerrua loin-cloth that he wore underneath.

কিয়ৎক্ষণ পরে ভক্তদের সঙ্গে কথা কহিতে কহিতে মিশ্র জামা পেন্টলুন খুলিয়া ভিতরের গেরুয়ার কৌপীন দেখাইলেন।

श्रीरामकृष्ण बरामदे से आकर कह रहे हैं - "इसे (मिश्र को) देखा, वीर की तरह खड़ा है ।" यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिमान हो रहे हैं । पश्चिम की ओर मुँह करके खड़े हुए वे समाधिमग्न हो गये ।

Presently Sri Ramakrishna went out on the porch. Returning to the room, he said to the devotees, "I saw him [meaning Misra] standing in a heroic posture." As he uttered these words he went into samadhi. He stood facing the west.

ঠাকুর বারান্দা হইতে আসিয়া বলিতেছেন — “বাহ্যে হল না — এঁকে (মিশ্রকে) দেখলাম, বীরের ভঙ্গী করে দাঁড়িয়ে আছে।”এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর সমাধিস্থ হইতেছেন। পশ্চিমাস্য হইয়া দাঁড়াইয়া সমাধিস্থ।

कुछ प्रकृतिस्थ होने पर मिश्र पर दृष्टि लगाकर हँस रहे हैं । अब भी खड़े हैं । भावावेश में मिश्र से हाथ मिलाते हुए हँस रहे हैं । हाथ पकड़कर कह रहे हैं, 'तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त हो जायगा।'

Regaining partial consciousness, he fixed his gaze on Misra and began to laugh. Still in an ecstatic mood, he shook hands with him and laughed again. Taking him by the hands, he said, "You will get what you are seeking."

কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া মিশ্রকে দেখিতে দেখিতে হাসিতেছেন।এখনও দাঁড়াইয়া। ভাবাবেশে মিশ্রকে শেক্‌ হ্যাণ্ড (হস্তধারণ) করিতেছেন ও হাসিতেছেন। হাত ধরিয়া বলিতেছেন, “তুমি যা চাইছ তা হয়ে যাবে।”

श्रीरामकृष्ण को ईशु का भाव हुआ है ! मिश्र - (हाथ जोड़कर) - उस दिन से मैंने अपना मन, अपने प्राण, अपना शरीर, सब कुछ आपको समर्पित कर दिया है ।

MISRA (with folded hands): "Since that day I have surrendered to you my mind, soul, and body."

ঠাকুরের বুঝি যীশুর ভাব হইল! তিনি আর যীশু কি এক? মিশ্র (করজোড়ে) — আমি সেদিন থেকে মন, প্রাণ, শরীর, — সব আপনাকে দিয়েছি!

श्रीरामकृष्ण भावावस्था में अब भी हँस रहे हैं ।

 Sri Ramakrishna was laughing, still in an ecstatic mood.

[ঠাকুর ভাবাবেশে হাসিতেছেন]

 वे बैठे । मिश्र भक्तों से अपने सांसारिक जीवन का वर्णन कर रहे हैं । उन्होंने बताया कि किस प्रकार विवाह के समय शामियाना के नीचे गिर जाने से उनके दो भाइयों की मृत्यु हो गयी

The Master resumed his seat. Misra was describing his worldly life to the devotees. He told them how his two brothers were killed when the canopy came down at the time of the marriage.

ঠাকুর উপবেশন করিলেন। মিশ্র ভক্তদের কাছে তাঁহার পূর্বকথা সব বর্ণনা করিতেছেন। তাঁহার দুই ভাই বরের সভায় সামিয়ানা চাপা পড়িয়া, মানবলীলা সম্বরণ করিলেন, — তাহাও বলিলেন।

श्रीरामकृष्ण ने भक्तों से मिश्र की खातिर करने को कहा ।

Sri Ramakrishna asked the devotees to take care of Misra.

ঠাকুর মিশ্রকে যত্ন করিবার কথা ভক্তদের বলিয়া দিলেন।

 [ (31 अक्टूबर, 1885 ), श्री रामकृष्ण वचनामृत-130 ]

भगवान श्रीरामकृष्ण नरेंद्र, डॉ. सरकार आदि के साथ कीर्तनानंद में 

[নরেন্দ্র, ডা: সরকার প্রভৃতি সঙ্গে কীর্তনানন্দে ]

(दिव्य मद्यपान के आनन्द के बाद है -सच्चिदानन्द, कारण का कारण ) 

 🕊🏹“कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"🕊🏹

“शान्त वही है जो रामरस चखे:  ‘पीवत रामरस लगी खुमारी’ 

नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिनरात 

 'He alone has peace who has tasted the Bliss of Rama.' 

डाक्टर सरकार आये । डाक्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भाव का कुछ उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"

Dr. Sarkar arrived. At the sight of him Sri Ramakrishna went into samadhi. When his ecstasy abated a little, he said, "First the bliss of divine inebriation and then the Bliss of Satchidananda, the Cause of the cause."

ডাক্তার সরকার আসিয়াছেন। ডাক্তারকে দেখিয়া ঠাকুর সমাধিস্থ। কিঞ্চিৎ ভাব উপশমের পর ঠাকুর ভাবাবেশে বলিতেছেন — “কারণানন্দের পর সচ্চিদানন্দ। — কারণের কারণ!

डाक्टर कह रहे हैं - "जी, हाँ ।”

DOCTOR: "Yes."

ডাক্তার বলিতেছেন, হাঁ!

श्रीरामकृष्ण - मैं बेहोश नहीं हूँ ।

MASTER: "I am not unconscious."

শ্রীরামকৃষ্ণ — বেহুঁশ হই নাই।

डाक्टर समझ गये कि श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश है । इसीलिए उत्तर में कहा - "हाँ, आप खूब होश में हैं !"

The doctor realized that the Master was inebriated with divine bliss. Therefore he said, "No, no! You are quite conscious."

ডাক্তার বুঝিয়াছেন যে, ঠাকুরের ঈশ্বরের আবেশ হইয়াছে। তাই বলিতেছেন — “না তুমি খুব হুঁশে আছ!”

श्रीरामकृष्ण हँसकर गाने लगे -

सुरापान करि ना आमि, सुधा खाई जय काली बोले।

मन माताले माताल करे, मद माताले माताल बोले।।   

 "मैं सुरा-पान नहीं करता, किन्तु 'जय काली' कह-कहकर सुधापान करता हूँ । इससे मेरा मन मतवाला हो जाता है, पर लोग बोलते हैं कि मैं सुरा-पान करके मत्त हो गया हूँ !

गुरुदत्त गुड़ लोय, प्रवृत्ति ताय मशला दिये माँ,

ज्ञान शुण्डिते चूयार भाँटि, पाल करे मोर मन माताले। 

मूलमन्त्र यन्त्र भरा, शोधन कोरि बोले तारा ,

प्रसाद बोले एमन सूरा, खेले चुतरवर्ग मेले।   

गुरुप्रदत्त रस को लेकर, उसमें प्रवृत्तिरूपी मसाला छोड़कर, ज्ञान-कलार शराब बनाकर भाँड़े में छान लेता है । मूलमन्त्ररूपी बोतल से ढालकर मैं 'तारा-तारा' कहकर उसे शुद्ध कर लेता हूँ;  और मेरा मन उसका पान कर मतवाला हो जाता है । प्रसाद कहता है, ऐसी सुरा का पान करने से चारों फलों की प्राप्ति होती है ।"

Sri Ramakrishna smiled and said:I drink no ordinary wine, but Wine of Everlasting Bliss, As I repeat my Mother Kali's name; It so intoxicates my mind that people take me to be drunk! First my guru gives molasses for the making of the Wine; My longing is the ferment to transform it. Knowledge, the maker of the Wine, prepares it for me then; And when it is done, my mind imbibes it from the bottle of the mantra, Taking the Mother's name to make it pure. Drink of this Wine, says Ramprasad, and the four fruits of life are yours.

ঠাকুর সহাস্যে বলিতেছেন —

গান   —   সুরাপান করি না আমি, সুধা খাই জয়কালী বলে,

মন মাতালে মাতাল করে, মদ মাতালে মাতাল বলে।

গুরুদত্ত গুড় লয়ে, প্রবৃত্তি তায় মশলা দিয়ে (মা)

জ্ঞান শুঁড়িতে চুয়ার ভাঁটি, পাল করে মোর মন মাতালে।

মূলমন্ত্র যন্ত্র ভরা, শোধন করি বলে তারা,

প্রসাদ বলে এমন সুরা, খেলে চতুর্বর্গ মেলে . 

गाना सुनकर डाक्टर को भावावेश-सा हो गया । श्रीरामकृष्ण को भी पुनः भावावेश हो गया । उसी आवेश में उन्होंने डाक्टर की गोद में एक पैर बढ़ाकर रख दिया । कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । तब पैर खींचकर उन्होंने डाक्टर से कहा - "अहा, तुमने कैसी सुन्दर बात कही है ! 'उन्हीं की गोद में बैठा हुआ हूँ । बीमारी की बात उनसे नहीं कहूँगा तो और किससे कहूँगा ?' - बुलाने की आवश्यकता होगी तो उन्हें ही बुलाऊँगा ।" यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण की आँखें आँसुओं से भर गयीं । 

As the doctor listened to the words, he too became almost ecstatic. Sri Ramakrishna again went into a deep spiritual mood and placed his foot on the doctor's lap. A few minutes later he became conscious of the outer world and withdrew his foot. He said to the doctor: "Ah, what a splendid thing you said the other day! 'We lie in the lap of God. To whom shall we speak about our illness if not to Him?' If I must pray, I shall certainly pray to Him." As Sri Ramakrishna said these words, his eyes filled with tears.

গান শুনিয়া ডাক্তার ভাবাবিষ্টপ্রায় হইলেন। ঠাকুরেরও আবার ভাবাবেশ হইল। ভাবে ডাক্তারের কোলে চরণ বাড়াইয়া দিলেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ভাব সম্বরণ হইল, — তখন চরণ গুটাইয়া লইয়া ডাক্তারকে বলিতেছেন — “উহ্‌! তুমি কি কথাই বলেছ! তাঁরই কোলে বসে আছি, তাঁকে ব্যারামের কথা বলব না তো কাকে বলব। — ডাকতে হয় তাঁকেই ডাকব!”এই কথা বলিতে বলিতে ঠাকুরের চক্ষু জলে ভরিয়া গেল।

वे फिर भावाविष्ट हो गये । उसी अवस्था में डाक्टर से कह रहे हैं - "तुम खूब शुद्ध हो । नहीं तो मैं पैर न रख सकता !" 

Again he went into ecstasy and said to the doctor, "You are very pure; otherwise I could not have put my foot on your lap."

আবার ভাবাবিষ্ট। — ভাবে ডাক্তারকে বলিতেছেন — “তুমি খুব শুদ্ধ! তা না হলে পা রাখতে পারি না!” 

फिर कह रहे हैं – “'शान्त वही है जो रामरस चखे ।'

 Continuing, he said: " 'He alone has peace who has tasted the Bliss of Rama.' 

আবার বলিতেছেন। “শান্ত ওহি হ্যায় যো রাম-রস চাখে!

"इन्द्रिय विषयों में क्या रखा है? - तीन ऐषणाओं की आसक्ति में क्या है ? - रुपया, पैसा, मान, शरीर-सुख इनमें क्या रखा है ? 'ऐ दिल, जिसने राम को नहीं पहचाना, उसने फिर पहचाना ही क्या ?’”

What is this world? What is there in it? What is there in money, wealth, honour, or creature comforts? 'O mind, know Rama! Whom else should you know?'"

बीमारी की इस अवस्था में श्रीरामकृष्ण को भावावेश में रहते देखकर भक्तों को चिन्ता हो रही है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "उस गाने के हो जाने पर मैं रुक जाऊँगा - 'हरि-रस-मदिरा – ’।" नरेन्द्र एक दूसरे कमरे में थे, बुलाये गये ।

The devotees were worried to see the Master's repeated ecstasies in this state of ill health. He said, "I shall be quiet if someone sings that song — The Wine of Heavenly Bliss'."

এত অসুখের পর ঠাকুরের ভাবাবেশ হইতেছে দেখিয়া ভক্তেরা চিন্তিত হইয়াছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, “ওই গানটি হলে আমি থামব; — হরিরস মদিরা।”

गन्धर्वोपम कण्ठ से नरेन्द्र गाने लगे - 

हरिरस मदिरा पिये मम मानस मातो रे। 

(एकबार) लूटोये अवनीतल हरि हरि बोले कांदो रे। 

गभीर नीनतदे हरिनामे गगन छाऊ रे। 

नाचो हरि बोले, दूबाहू तूले, हरिनाम बिलाऊ रे।    

हरिप्रेमानन्द-रसे अनिदिन भासो रे, 

गाउ हरिनाम होऊ पूर्णकाम, नीच वासना नाशो रे।  

(भावार्थ) - "ऐ मेरे मन हरि-रस-मदिरा का पान करके तुम मस्त हो जाओ । मधुर हरिनाम करते हुए धरती पर लोटो और रोओ । हरि-नाम के गम्भीर निनाद से गगन को छा दो । 'हरि-हरि' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचो, और सब में इस मधुर हरि-नाम का वितरण कर दो । ऐ मन, हरि के प्रेमानन्द-रसरूपी समुद्र में रात्रन्दिवा तैरते रहो । हरि का पावन नाम ले-लेकर नीच वासना का नाश कर दो और पूर्णकाम (100 % निःस्वार्थपर मनुष्य ) बन जाओ ।”

Narendra was sent for from another room. He sang in his sweet voice:Be drunk, O mind, be drunk with the Wine of Heavenly Bliss! Roll on the ground and weep, chanting Hari's sweet name! Fill the arching heavens with your deep lion roar, Singing Hari's sweet name! With both your arms upraised, Dance in the name of Hari and give His name to all! Swim day and night in the sea of the bliss of Hari's love; Slay desire with His name, and blessed be your life!

নরেন্দ্র কক্ষান্তরে ছিলেন, তাঁকে ডাকানো হইল। তিনি তাঁহার দেবদুর্লভ কণ্ঠে গান শুনাইতেছেন:

হরিরসমদিরা পিয়ে মম মানস মাতো রে।

(একবার) লুটায়ে অবনীতল হরিহরি বলি কাঁদো রে।

গভীর নিনতদে হরিনামে গগন ছাও রে

নাচো হরি বলে, দুবাহু তুলে, হরিনাম বিলাও রে।

হরিপ্রেমানন্দরসে অনিদিন ভাসো রে,

গাও হরিনাম হও পূর্ণকাম, নীচ বাসনা নাশো রে!

श्रीरामकृष्ण - और वह गाना, ‘चिदानन्द-सागर में... ?’

MASTER: "And that one — 'Upon the Sea of Blissful Awareness'."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর সেইটি? ‘চিদানন্দসিন্ধুনীরে?’

नरेन्द्र गा रहे हैं - 

१. चिदानन्द सिन्धु नीरे प्रेमानन्देर लहरी, महाभाव रासलीला कि माधुरी मरी मरी। 

महायोगे सब एकाकार होईलो, देशकाल व्यवधान सब घुचीलो रे। 

एखन आनन्दे मातिया, दू बाहू तुलिया बोलो रे मन हरि हरि।  

(भावार्थ) - "चिदानन्द-सागर में आनन्द और प्रेम की तरंगें उठ रही हैं; उस महाभाव और रासलीला की कैसी सुन्दर माधुरी है ! ....”

(2)-चिंतय मन मानस हरि चिदघन निरंजन।  

MASTER: "And that one — 'Upon the Sea of Blissful Awareness'."

Narendra sang: 

Upon the Sea of Blissful Awareness waves of ecstatic love arise: Rapture divine! Play of God's Bliss! Oh, how enthralling!

নরেন্দ্র গাইতেছেন:

(১)

 —   চিদানন্দ সিন্ধুনীরে প্রেমানন্দের লহরী,

মহাভাব রসলীলা কি মাধুরী মরি মরি।

মহাযোগে সব একাকার হইল, দেশকাল ব্যবধান সব ঘুচিল রে,

এখন আনন্দে মাতিয়া, দু বাহু তুলিয়া বল রে মন হরি হরি।

(২)   —   চিন্তায় মন মানস হরি চিদ্‌ঘন নিরঞ্জন।

 . . .डाक्टर सरकार ने गानों को ध्यानपूर्वक सुना । जब गाना समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा, "यह गाना अच्छा है - 'चिदानन्द-सागर में ....’”

Dr. Sarkar listened to the songs attentively. When the singing was over, he said. "That's a nice one — 'Upon the Sea of Blissful Awareness'."

ডাক্তার একাগ্রমনে শুনিতেছেন। গান সমাপ্ত হইলে বলিতেছেন, ‘চিদানন্দসিন্ধুনীরে, ওইটি বেশ!’

डाक्टर को इस प्रकार प्रसन्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "लड़के ने बाप से कहा, "पिताजी, आप थोड़ीसी शराब चख लीजिये और उसके बाद यदि मुझसे कहेंगे कि मैं शराब पीना छोड़ दूँ, तो छोड़ दूँगा ।' शराब चखने के बाद बाप ने कहा, 'बेटा, तुम चाहो तो शराब छोड़ दो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मैं स्वयं तो अब निश्चय ही न छोडूँगा !'(डाक्टर तथा अन्य सब हँसते हैं)

At the sight of the doctor's joy, Sri Ramakrishna said: "The son said to the father, 'Father, you taste a little wine, and after that, if you ask me to give up drinking, I shall do so.' After drinking the wine, the father said: 'Son, you may give it up. I have no objection. But I am certainly not going to give it up myself (The doctor and the others laugh.)

 ডাক্তারের আনন্দ দেখিয়া ঠাকুর বলিতেছেন — “ছেলে বলেছিল, ‘বাবা, একটু (মদ) চেখে দেখ তারপর আমায় ছাড়তে বল তো ছাড়া যাবে।’ বাবা খেয়ে বললে, ‘তুমি বাছা ছাড় আপত্তি নাই কিন্তু আমি ছাড়ছি না।’ (ডাক্তার ও সকলের হাস্য)

"उस दिन माँ ने मुझे दो व्यक्ति दिखाये थे । उनमें से एक तुम (डाक्टर) थे । उन्होंने यह भी दिखाया कि तुम्हें बहुत ज्ञान होगा, पर वह शुष्क ज्ञान रहेगा । (डाक्टर के प्रति मुस्कराते हुए) पर धीरे-धीरे तुम नरम हो जाओगे ।"

"The other day the Divine Mother showed me two men in a vision. He [meaning the doctor] is one. She also revealed to me that he will have much knowledge; but it is dry knowledge. (Smiling, to the doctor) But you will soften."

“সেদিন মা দেখালে দুটি লোককে। ইনি তার ভিতর একজন। খুব জ্ঞান হবে দেখলাম, — কিন্তু শুষ্ক। (ডাক্তারকে, সহাস্যে) কিন্তু রোসবে।”

डाक्टर सरकार चुप रहे ।

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>>आत्मज्ञान : ही है असली ज्ञान ! 

दुनिया बड़ी विचित्र है। यहां सब कुछ संभव है। विद्वता की दृष्टि से ऐसे-ऐसे लोग इस दुनिया में हैं, जिनकी विद्वता सुनकर चमत्कृत होकर आंखें हैरानी से खुली की खुली रह जाती हैं। दूसरी ओर मूर्खों को लें तो ऐसे-ऐसे मूर्ख भी इस दुनिया में हैं, जो जिस डाल पर बैठे होते हैं, उसे ही काटते हैं। जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। भागवत की दृष्टि से दुनिया का अच्छा-बुरा सभी समान है। 
        दुनिया में किया गया पाप यदि बंधन का कारण है, तो पुण्य भी बंधन का ही कारण है। बस ऐसे ही जैसे एक जंजीर लोहे की तो दूसरी सोने की। परंतु हैं तो दोनों जंजीरें ही। दोनों से बंधन ही होता है। दोनों ही हमें सांसारिक त्रिताप में जलाते रहेंगे। हां, सचमुच अच्छा कार्य अगर कोई है तो वह है अपने आप को पहचानना। अपने प्रभु को पहचानना व उसके स्वरूप ज्ञान के साथ अपने कर्तव्यों को पूरा करना। 
        एक बार एक विद्वान व्यक्ति जिसने न जाने कितने विषयों में पी.एच.डी. की थी, एक परमहंस संत के पास पहुंचा। संत तो बहस करना नहीं चाहते थे, परंतु उसने जब बार-बार अपनी विद्वता का बखान किया तो संत ने उसे संबोधित करते हुए कहा, तुम समझते हो कि तुम बहुत इंटेलिजेंट हो, तुम मैथेमैटिक्स जानते हो, अंग्रेजी जानते हो, फिजिक्स जानते हो, केमेस्ट्री जानते हो, बायोलॉजी जानते हो, साइक्लॉजी जानते हो, ज्योलॉजी जानते हो, परंतु मैं कहता हूं कि -"तुम कुछ नहीं जानते, क्योंकि तुम स्वयं को भी नहीं जानते हो ! " ---'You Know Nothing Because You Don't Know Yourself.'
          एक लोक कथा है। एक व्यक्ति नाव में जा रहा था। मल्लाह अपनी धुन में चप्पू चला रहा था और कुछ गुनगुना रहा था। आकाश में बादलों की ओर देखते हुए उस व्यक्ति ने कहा- भाई! तुम मेट्रोलॉजी जानते हो? वो क्या होता है बाबूजी? मल्लाह ने कहा।अरे मेट्रोलॉजी का मतलब मौसम विज्ञान। नहीं बाबूजी, मैं नहीं जानता ये। यदि तुम मेट्रोलॉजी नहीं जानते हो तो समझो तुम्हारी एक चौथाई जिंदगी बेकार चली गई। चुपचाप रहा मल्लाह।
        थोड़ी देर बाद यात्री फिर बोला, मल्लाह! क्या तुम बॉटनी जानते हो? वो क्या होती है बाबूजी, मैं नहीं जानता। मैं तो गांव का अनपढ़-गंवार व्यक्ति हूं। तब तो तुम्हारी आधी जिंदगी बेकार चली गई। तब तो तुम बायोलॉजी भी नहीं जानते होगे। वह विद्वान अपनी बातें कह ही रहा था कि अचानक नदी में तूफान सा उठा और नाव भंवर में फंस गई। नाव को डांवाडोल देख मल्लाह ने चप्पू चलाना लगभग बंद कर दिया, पहले ही वह उस व्यक्ति की बातें सुन-सुन कर चिढ़ सा गया था। सो उसने तूफान की सांय-सांय के बीच जोर से चिल्लाते हुए कहा- बाबूजी, नाव भंवर में फंस गई, इससे निकलना मुश्किल है। क्या तुम्हें तैरना आता है?  नहीं, मैं कभी नहीं तैरा, भयभीत स्वर में बाबूजी ने कहा। इस पर मल्लाह हंसते हुए बोला- तो बाबूजी, बिना पढ़े मेरी जिंदगी जो गई सो गई, परंतु आपने तो तैरना सीखा नहीं सो, आपकी तो सारी की सारी जिंदगी ही बेकार चली गई- कहकर मल्लाह ने नाव से छलांग लगाई और तैरकर नदी पार लगा। बाबूजी भंवर में नाव को लेकर डूब गए।
तात्पर्य यह कि दुनिया में आकर बहुत कुछ सीखा, परंतु मनुष्य जीवन को पा कर भव सागर से पार होना सीखा हो, तो समझो कुछ सीखा। हम बहुत कुछ जानते हैं, परंतु अपने बारे में। अपने प्रभु के बारे में नहीं जानते, तो समझना होगा कि हम कुछ नहीं जानते। अपने स्वरूप को जानना, भगवान के स्वरूप को जानना व संसार के स्वरूप को जानना! सब कुछ जानकर उसी प्रकार का व्यवहार संसार के प्रति करना ही जीवन की सफलता है। अन्यथा हम भव सागर में डूबते हुए, कष्ट पाते हुए प्राणी मात्र ही हैं।
मुमुक्षु राजा जनक ज्ञान वृद्ध आचार्य अष्टावक्र से पूछते हैं कि - हे प्रभु ! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? मुक्ति (भ्रम से) कैसे होती है? और वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? यह मुझे कहिए।
ज्ञान >अष्टावक्र गीता में आचार्य महर्षि अष्टावक्र कहते हैं - कि अध्यात्म (spirituality)  में ज्ञान का अर्थ है - आत्मसाक्षात्कार (self-realization-आत्मानुभूति)  आत्मज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है ! बाकी सब पंचतत्व एवं प्रकृति जन्य जानकारी है, सूचनाएं हैं, जो बाहर से प्राप्त होती हैं। यह जड़ प्रकृति उस शाश्वत चैतन्य की ही अभिव्यक्ति है , उसी का खेल है, लीला है, नृत्य है। यह चैतन्य ही समस्त सृष्टि का आधारभूत तत्व है जो समस्त जड़ चेतन में व्याप्त है ।
 इस व्यष्टि चैतन्य (individual consciousness)  को आत्मा तथा समष्टिगत चैतन्य (collective consciousness) को ही ब्रह्म कहा गया है । दोनों एक ही तत्व हैं । आत्मा का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान है। आत्मा से परमात्मा भिन्न नहीं है। आत्म तत्व का ज्ञान होने पर सब कुछ जाना हुआ हो जाता है । उपनिषद कहते हैं जिसके जानने से सब कुछ जाना हुआ हो जाता है । संपूर्ण सृष्टि का रहस्य ज्ञात हो जाता है फिर जानने को कुछ बाकी नहीं रहता। मनुष्य का वास्तविक स्वरुप यह परिवर्तनशील या नश्वर शरीर , मन ,बुद्धि, अहंकार (M/F-का जीव भाव) आदि नहीं बल्कि आत्मा ही उसका वास्तविक स्वरुप है । वही नित्य ,शाश्वत एवं सनातन है। सतत परिवर्तनशील होने से प्रकृति अनित्य है । इस आत्मा का ज्ञान ही 'स्व' का ज्ञान है । अज्ञानी प्रकृति को ही जानते हैं जो स्थूल है इंद्रिय ग्राह्म है, जबकि ज्ञानी उस चेतन को भी जान लेते हैं जो सूक्ष्म है।
आत्मज्ञान के बिना मुक्ति नहीं > इस ज्ञान प्राप्ति से [आत्मानुभूति से ही-भेंडत्व के भ्रम से] होती है मुक्ति । सृष्टि का आधार जान लेने पर समस्त विश्व प्रपंच का ज्ञान हो जाता है ,भ्रांति मिट जाती है , मनुष्य शांत हो जाता है ,साक्षी हो जाता है , दृष्टा मात्र रह जाता है, जिससे संसार बंधनों से मुक्त होकर (तीनों ऐषणाओं से मुक्त होकर) वह स्वतंत्र हो जाता है। मुक्ति ज्ञान के बिना नहीं हो सकती ।जीवन का चरमोत्कर्ष मुक्ति है जो जीव की अंतिम परिणति है ,अंतिम स्थिति है ,चरम विकास है ।
आत्मज्ञान में स्थित रहने के लिए वैराग्य अनिवार्य है >आत्मज्ञान के लिए वैराग्य का होना अत्यंत आवश्यक है। वैराग्य का अर्थ संसार >> तीनों ऐषणाओं को छोड़ना अथवा उससे भागना नहीं है। अपितु उसके प्रति मन ,मस्तिष्क में जो आसक्ति है ,उसका त्याग करना है। संसार (तीनों ऐषणाओं) बंधन नहीं है ,उसके प्रति जो आसक्ति है ,लगाव है, अनुराग है ,यही बंधन है। आसक्ति का मूल कारण है अहंकार । जब तक अहंकार है आसक्ति होगी ही तथा यही आसक्ति बंधन है। संसार और आत्मा दो अलग-अलग छोर हैं ।
    बाहर है संसार, भीतर है आत्मा (परमात्मा)। दोनों मार्ग भिन्न है अलग-अलग दिशाओं में जा रहे हैं । मनुष्य दोनों के मध्य खड़ा है। यदि वह संसार की ओर भागता है तो परमात्मा से दूर होता जाता है। यदि वह परमात्मा की ओर जाना चाहता है तो उसे संसार से विमुख होना पड़ेगा। संसार से विमुख होना ही वैराग्य है। किंतु वैराग्य का अर्थ संसार को छोड़कर भागना नहीं है । [इसका अर्थ है बाह्य संसार (शरीर और मन) की तरफ पीठ और अपने स्वरुप (आत्मा) की तरफ आँख को घुमा लेना है ! इसका अर्थ है संसार पर जो आसक्ति है ,जो लगाव है ,जो अत्यधिक राग है ,उससे मुक्ति। यह केवल दृष्टि परिवर्तन से होगा, मानसिकता के बदलाव से होगा। शहर छोड़ कर जंगल में भागने से नहीं होगा। घर छोड़कर चले जाने से या एकांतवास में रहने से नहीं/ गुरुगृह वास या निर्जनवास में रहना होगा। यदि एकांत में रहने के बाद भी आप के विचारों में संसार की यादें बनी हुई है तो आप आसक्ति को त्याग नहीं पाए हैं । वैराग्य को धारण नहीं कर पाए हैं। जब हम अपने प्रिय से अलग हो जाते हैं तो उसकी याद भी बढ़ जाती है।  जबकि नजदीक रहने पर वह हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है हम इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं।  क्योंकि हमें उसकी याद नहीं आती वह हमारी आंखों के समक्ष होता है। जो प्राप्त है उसे स्वाभाविक रूप में भोगना आसक्ति नहीं किंतु जो प्राप्त नहीं है उसकी अत्यधिक इच्छा करना, और यदि कुछ प्राप्त हो गया उसके बाद उससे बड़ी उपलब्धि की अत्यधिक उत्कट इच्छा बनाए रखना यही आसक्ति है।  जो संसार की तरफ होने पर साधक को आत्मा की तरफ नहीं मुडने देती । यदि व्यक्ति संसार के प्रति आसक्ति का त्याग मात्र कर देता है तो वह ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है । मनुष्य के अहंकार के कारण ही लोभ, मोह, वासना आदि जागृत होते हैं, जिससे मनुष्य इस कर्म जाल के बंधन में उलझ जाता है । यह जाल उसने स्वयं ही अज्ञानवश तैयार किया है जिसे आत्मज्ञान द्वारा नष्ट किया जा सकता है।
 किंतु ज्ञान प्राप्ति हेतु मुमुक्षु भी होना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा उसे कोई भी देवता या ईश्वरीय शक्ति उपहार स्वरूप लाकर नहीं दे सकती। राजा जनक मुमुक्षु हैं। उनमें ज्ञान व मुक्ति की तीव्र इच्छा है। अष्टावक्र ज्ञानी है। जिन्होंने पा लिया है, वही दे सकते हैं। जिसने स्वयं ही नहीं पाया वह दे भी नहीं सकता बल्कि और अधिक भटका सकता है। आज संसार ऐसे ही अज्ञानियों द्वारा भटकाया जा रहा है, भ्रमित किया जा रहा है। मूढ़ों ने दुनिया को जितनी हानि नहीं पहुंचाई उससे कई गुना अधिक इन अज्ञानियों ने हानि पहुंचाई है। ये अज्ञानी ही सांप्रदायिकता का जहर फैलाते हैं जिससे संसार विकृत हुआ है।
महामण्डल लीडरशिप ट्रेनिंग का महत्व > राजा जनक ज्ञानी गुरु आचार्य अष्टावक्र से 3 प्रश्न करते हैं --ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? मुक्ति कैसे होती है? तथा वैराग्य कैसे होता है ? इन तीन ही प्रश्नों के उत्तर में सारे अध्यात्म का सारा निचोड़ समाया हुआ है। हर व्यक्ति मुक्ति की चाह (अर्थात स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा - Be and Make की चाह -मनुष्य बनो और बनाओ की चाह - तो करता है, किंतु सद्गुरु (या CINC नवनीदा जैसा नेता/जीवनमुक्त शिक्षक /पैगम्बर)  के अभाव में सब कुछ करता हुआ भी आत्म ज्ञान को प्राप्त नहीं होता। इसके तीन मुख्य कारण है-- स्वयं की मुमुक्षा का न होना, स्वयं की पात्रता का अभाव एवं सद्गुरु / मार्गदर्शक नेता का अभाव। ये तीनों जहां मिल जाते हैं, जहां इस त्रिवेणी का संगम हो जाता है वहां चेतना अवश्य जागृत होती है। कोई आत्मज्ञानी गुरु ही तत्व का बोध करा सकता है। मुमुक्षु राजा जनक की पात्रता का निश्चय हो जाने पर अष्टावक्र ने अपनी पूरी शक्ति का उपयोग कर सारा ज्ञान सारभूत रूप में बंद कर कैप्सूल के रूप में उनके गले में उतार दिया व तीनों प्रश्नों का ,3 वाक्यों का समाधान कर दिया।
आचार्य अष्टावक्र 'अष्टावक्र गीता' में कहते हैं कि मनुष्य शरीर मात्र नहीं है। वह चैतन्य आत्मा है। आत्मा या आत्म तत्व ही इस शरीर का पोषक है। जैसे ही यह आत्म तत्व इस शरीर से बाहर निकलता है, शरीर सड़ने  लगता है। आत्मज्ञान के अभाव में ऐसी भ्रांति हुआ करती है कि मैं एक शरीर हूं (M/F हूँ), आत्मा नहीं, यही तो अज्ञान है।  पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच तत्वों से मिलकर शरीर बनता है, जो भौतिक, अनित्य, नष्ट होने वाला है। मृत्यु उपरांत नष्ट हो जाता है, पर हम (जीव मरता नहीं लोकान्तर गमन करता है ) शरीर को नष्ट हो जाने के बाद भी अगली यात्रा पर निकल जाते हैं। जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर नया वस्त्र धारण कर लेते हैं। यह शरीर हमारा वस्त्र मात्र है, जो भौतिक पदार्थों से मिलकर बना है। हम सब घर नहीं, बल्कि उसमें रहने वाले मालिक हैं। 
>>>संसार का त्याग करने का अर्थ है :  आत्मा की तरफ 'ऑंख' और संसार की तरफ 'पीठ' करना ! 
       संसार का त्याग करने का अर्थ -  संन्यासी हो या गृहस्थ सभी के लिए घर छोड़ देना  नहीं है, बल्कि संसार में आसक्ति (या तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) का त्याग करना है। संसार का त्याग करने से तात्पर्य अपने मन को वश में करना है , उसे अन्तर्मुखी बनाना है। क्यूँकि मनुष्य की समस्त इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं , इसीलिए इद्रियविषयों में आसक्त मन  बहुत चंचल रहता है। उसमें  लाखों विचार, लाखों लालसायें  होती है जिनको छोड़ना एक सामान्य मनुष्य के लिए नामुनकिंन है।
>>स्वयं की तरफ (आत्मा की तरफ) 'पीठ' और संसार (M/F ) की तरफ 'आँख' > 
महात्माओं का कथन है कि - अपने यथार्थ स्वरुप 3H या 'आत्मा ' के प्रति अज्ञान के कारण ही ‘संसार’ का एहसास होता है। मानो आत्मज्ञान (enlightenment) का अभाव ही संसार है, और आत्मज्ञान के होते ही संसार नाम की कोई चीज नहीं रह जाती। वास्तव में संसार और परमात्मा दो नहीं हैं ये एक ही अस्तित्व के दो दृश्य हैं। 
     अज्ञान में जो दृश्य होता है वो ‘संसार’ है और जब हम दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर - अर्थात [स्वयं की तरफ आँख और संसार की तरफ पीठ रखते हुए ही ] संसार को आत्मदृष्टि (ब्रह्ममय जगत दृष्टि) से देखने के काबिल हो जाते हैं , तो ये दृश्य ‘परमात्मा’ होता है। अर्थात अंधकार में संसार है और प्रकाश में परमात्मा। जैसे सांप है तो रस्सी नहीं और रस्सी है, तो सांप नहीं
    स्वयं की तरफ (आत्मा की तरफ) 'पीठ' और संसार (M/F ) की तरफ 'आँख'  ऐषणाओं में आसक्ति का प्रतीक है -इसके विपरीत " स्वयं की तरफ आँख और संसार की तरफ पीठ " संसार के त्याग की सूचक है !  [अपनी तरफ पीठ- (Heart की तरफ पीठ)  और संसार (Hand= M/F body या Head) की तरफ आंख - आसक्ति की प्रतीक है।  और इसके विपरीत स्वयं की तरफ आंख  (Mind is divine Eyes of Atman) और संसार की तरफ पीठ संसार के त्याग की सूचक है। यानि ऐषणाओं में आसक्ति के त्याग की सूचक है !]
      ये भी एक अटल सच्चाई है कि संसार (M/F विविधता पूर्ण जगत) कदाचित मनुष्य को नहीं बांधता बल्कि संसार की कामना - (तीन ऐषणाएँ) ही मनुष्य को बांधती है। जैसे मनुष्य को प्रतिष्ठा नहीं बांधती प्रतिष्ठा (नाम -यश ) की तमन्ना इसे प्रतिष्ठा से बांधती है। 
    अब संसार का मतलब है कि संसार को जागकर देखना कि इस संसार में मेरा कुछ नहीं है। अगर इसके विपरीत मनुष्य को किसी और ख्याल/कल्पना  (यह M/F शरीर, इस शरीर के नाते-रिश्ते मेरे हैं) ने पकड़ा हुआ है, तो इसे छोड़ देना। जैसे कोई मनुष्य स्वप्न में देखता है कि - एक सुन्दर महल में, सुंदर सिंहासन पर बैठा है, अकूत दौलत -जायदाद है , कुटुंब-कबीला आदि है, किन्तु सुबह में जागने पर जब कुछ नहीं दीखता। तब क्या वह कभी कहता है कि उसने स्वप्न में जो कुछ देखा था उन वस्तुओं का  त्याग कर दिया है ? नहीं , बल्कि मनुष्य कहता है कि ये चीजें केवल रातभर के स्वप्न में थीं , अभी वह से जाग उठा है- इसलिए सब स्वप्न की चीजें - तिरोहित हो गई हैं। 
       उदाहरण के तौर पर जैसे किसी ऊँट के पैर में बहुत देर तक रस्सी बांधे रखें, और इसके बाद इनके पैरों की रस्सी खोल भी दें, तो वे खूँटा छोड़कर भागते नहीं है।क्योंकि ये सम्मोहित हो जाते हैं , या इन्हें ये मिथ्या भ्रम पड़ जाता है,  कि इनके पैर  में अब भी रस्सी बंधी हुई है। इसी प्रकार माया रूपी जड़ शरीर और मन (2H) चेतन जीव (आत्मा Heart) में आपस में गांठ पड़ गई है।  हालांकि इन दोनों में ये गांठ (रिश्ता) मिथ्या ही है। (क्योंकि जड़ और चेतन का मिलाप कभी भी सत्य नहीं हो सकता) जड़, जड़ (नश्वर) ही रहता है और चेतन, चेतन (अविनाशी) ही रहता है।
         
        स्थैतिक और गतिशील (Static and Dynamic ) की भांति इन दोनों का स्वभाव से ही विरोध होने के काण -इनका अर्थात जड़ (शरीर + मन) और चेतन (आत्मा) का संयोग सत्य नहीं है। इसी तरह जीव के हृदय में मोह/ सम्मोहन/भ्रम  रूपी महा-अंधकार छा रहा है।  अर्थात जब तक ये मनुष्य माया रूपी जड़ शरीर और मन (2H)  के साथ अपने (3rd' H) संयोग को सच्चा समझकर शरीर (M/F) ही बन बैठा है,  और इस शरीर के साथ जुड़े हुए सभी रिश्ते-नाते, स्त्री-पुत्र , भाई-बहन ,  कुटुंब-कबीला, जायदाद, महल-जायदाद  आदि को अपनी मलकियत समझ रहा है, तब तक वह भ्रममुक्त नहीं हो सकता।  ये मिथ्या भ्रम /सम्मोहन तभी दूर होती है, जब इसके सत्यमूल का ज्ञान हो जाए। 
      जैसे जाहिर तौर पर पृथ्वी से आकाश मिला नजर आता  है, मगर आकाश पृथ्वी से नहीं मिल पाया केवल नजर का धोखा ही है। अर्थात इस मिथ्या गांठ का नजर न आना ही अविद्या या माया है। जब सद्गुरु की अपार कृपा से इस बात का पता चल जाता है तो फिर ये गांठ नहीं रह जाती। मनुष्य के मन का जगत संसार से गहरा संबध है मानो जगत का जोड़ हमारा मन है जो सदा संसार में लगा रहना पसंद करता है
>>>संसार को कैसे देखा जाए इसके लिए किष्किंधा कांड में भगवान श्रीरामचन्द्र बालि की रोती हुई विधवा तारा को समझाते हैं। इस वार्तालाप पर तुलसीदासजी चौपाई लिखते हैं -
 
तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।
 छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।। 

प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥3॥

तारा को व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। उन्होंने कहा - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।  वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? क्या इसमें से आत्मा निकल जाने पर इसको रख सकती थी?  जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान्‌ के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया॥3॥

>>>यदि क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा, पंच रचित अधम शरीरा… मनाव की देह इन पाँच तत्वों से मिलकर बनती है और इन्ही पंच तत्वों में मिल (विलीन) जाती है। आत्मा अमर है, तो मृत्यु किसकी होती है?
 श्रीराम ने तारा को समझाया कि यह जो शरीर निष्प्राण तुम्हारे सामने पड़ा है यह इसके पूर्व तुम्हारे पति का था। शरीर का अंत होने पर पांचों तत्व अपना हिस्सा ले जाते हैं, मृत्यु जीव के शरीर की होती है। लेकिन इसके भीतर जो आत्मा है वह कभी नहीं मरती। इस पूरे वार्तालाप से हम यह समझें कि - यह संसार हमें उसकी समझ के कारण अच्छा या बुरा लगता है। जगत को यदि हम श्रीराम की दृष्टि से देखें, ज्ञानमयी दृष्टि से देखें तो - यह समझ में आयेगा कि जो कुछ शरीर और मन इन्द्रियगोचर हो रहा है, उसका जन्म समय में, काल में हुआ है वह नश्वर है -  तो जो आया है वह जाएगा। 
      हम बार-बार यह कहते हैं कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं, जो शाश्वत चैतन्य है। आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता। वह ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं होती। वह तो चैतन्य शक्ति मात्र है, जो समस्त प्रकार के जीवों में समान रूप से व्याप्त है। न इसकी कोई जाति होती है और न ही लिंग होता है। ये चार आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास वाली भी नहीं है। आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता है, न ही भोग्य विषय है। इन तीनों से परे असंग, निराकार और साक्षी मात्र है।           सभी लोग कहते हैं कि यह घोर कलियुग है, इसमें तो मुक्ति हो ही नहीं सकती। आचार्य अष्टावक्र बड़ी कहते हैं कि यह सब बकवास है। अगर तुम अपने को चैतन्य में स्थिर कर लेते हो, आत्मस्थ (स्वामी आत्मस्थानन्द?) हो जाते हो  तो अभी मुक्त हो सकते हो। जैसे दीपक जलते ही अंधेरा गायब हो जाता है, उसी तरह आत्मज्ञान के प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार गायब हो सकता है। अज्ञान मिटते ही जीव की सभी भ्रांतियां मिट जाती हैं। आत्मा चैतन्य है, नित्य मुक्त है, सर्वत्र व्यापक है। वह किसी बंधन में बंधी नहीं है। शरीर सीमित है। आत्मा किसी एक शरीर या मन में बंधी नहीं है। सारी भिन्नता शरीर गत है। आत्मा का कोई रूप नहीं है, वह निराकार है, उसी निराकार का रूप सृष्टि है। आकार बनते हैं, बिगड़ते हैं, किंतु मूल तत्व वही रहता है। सोने से विभिन्न आभूषण बनते हैं, बिगड़ते हैं, किंतु मूल तत्व सोना वही रहता है। इस तरह से हम कह सकते हैं, आत्मा ही सत्य है। आत्मा ही पुरातन है, आत्मा ही शाश्वत और सनातन है।

यदि संसार के कण-कण में इन्द्रियातीत परमात्मा देखने लगें, तो फिर जब हमें अपनों से बिछड़ना पड़े ; या कभी अपनों से (नाते रिश्तों- पुत्र-पत्नी, भाई -बहन, मित्र आदि से ) धोखा खाना पड़े;  तब हम दुख को अलग ढंग से लेने लगेंगे।  क्योंकि जगत के प्रत्येक निर्णय में माँ काली (या माँ सारदा) ही समायी हुई  है। उसे जितना देना था, उसने दिया और जितना लेना था ले लिया। फिर किस बात का शोक करें, क्यों दुख मनाएं। हम उसके पुत्र हैं , उसके अंश -हिस्से हैं उसी की तरह प्रसन्न रहें।

>>>🕊🏹 मैं कितना 'अयोग्य ' था ! (अपने को केवल देह ही समझता था ?) , पर आपकी कृपा ने (अर्थात स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा के आदर्श वाक्य Be and Make के अनुसार 3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण ने अनुसार 'मुझे' (इस कुम्भ को) कितना योग्य बना दिया! इसलिये भगवान् की कृपा की ओर देखो- हम जो कुछ बने हैं, अपनी बुद्धि, बल, विद्या, योग्यता, सामर्थ्य से नहीं बने हैं। जहाँ मन में अपनी बुद्धि, बल आदि से बनने की बात आयी, वहीं अभिमान आता है कि हमने ऐसा किया, हमने वैसा किया। इस अभिमान से बचने के लिये भगवान को पुकारो। अपने बल से नहीं बच सकते, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही बच सकते हैं। कोई कष्ट आये तो रोकर, सब तरफ से निराश होकर, एकान्त में हदय से भगवान् को पुकारो और उनकी कृपा के भरोसे निश्चिन्त हो जाओ । भगवान् का नाम जपते हुए प्रार्थना करते रहो कि 'हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं' ।

 "हरि स्मृतिः  सर्व विपद विमोक्षणं "

(श्रीमद्भागवत ८ । १० । ५५ ) 

भगवान (श्रीरामकृष्ण) की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है ।। भगवान् का सतत स्मरण अर्थात भगवान्‌ को याद करने से सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश होता है, सब पाप नष्ट होते हैं, सब विलक्षण दैवी शक्तियाँ पैदा होती हैं ! भगवान्‌ की विस्मृति महान् पतन करनेवाली है ।

"LORD ठाकुरदेव " या अवतार वरिष्ठ का सतत स्मरण अर्थात '8 पहर 64 घड़ी' स्मरण समस्त कष्टों से मुक्त कर देता है 

 I am not this 'I' Consciousness of Pot (M/F) but as a Consciousness, I am 'He' the LORD Sri Ramakrishna, but still being forced by Maa Kali to live in this (MF) Pot - I am His - Servant and son of Ma Sarda, Brother of Swami Vivekananda!  

जीव दृष्टि से (ईश्वरकोटि का -विष्णु कोटि ) का अंश हूँ। और आत्मदृष्टि से मैं वही हूँ! जल में कुम्भ है - कुम्भ में जल है ! किन्तु मैं यह कुम्भ (Pot-सुराही या घड़ा) की यह 'मैं' (M/F) चेतना नहीं हूं, बल्कि एक चेतना के रूप में, मैं 'वह' शाश्वत चैतन्य ॐ भगवान श्री रामकृष्ण हूं, लेकिन फिर भी मां काली द्वारा मुझे जब तक इस शरीर -(M/F) पॉट में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जब अपने को मैं देह दृष्टि से देखता तो मैं ठाकुर का दास हूँ , माँ सारदा देवी का पुत्र हूँ और स्वामीजी का अनुज हूँ ! 

 कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन सोनपुर में गजेंद्र (हाथी-मतवाला मन ?) को ग्राह (मगरमच्छ-विषयों में आसक्ति) से सैकड़ो सालों से चली आ रही युद्ध से मुक्ति मिली थी।

>>>भजन~ "हे गोविंद राखो शरण" - "गज और ग्राह प्रसंग"- सूरसागर 

हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ।

अब तो जीवन हारे, प्रभु शरण हैं तिहारे ॥

हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे... हे गोविंद ॥

नीर पिवन हेतु गयो सिन्धू के किनारे,

सिन्धु बीच बसत ग्राह चरण धरि पछारे,

हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥

चार पहर युद्ध भयो ले गयो मझधारे,

नाक कान डूबन लागे कृष्ण को पुकारे,

हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥

द्वारिका में शब्द गयो शोर भयो द्वारे,

शंख चक्र गदा पद्म गरुड़ तजि सिधारे,

हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥

सूर कहे श्याम सुनो शरण हैं तिहारे,

अबकी बेर पार करो नन्द के दुलारे,

हे गोविन्द हे गोपाल अब तो जीवन हारे ॥

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

8 पहर 64 घड़ी : 

आठ पहर चौसठ घड़ी, लागी रहे अनुराग। 

हिरदै पलक न बिसरे, तब सांचा बैराग॥

प्रहर (पहर) - हिन्दी का 'पहर' शब्द  संस्कृत के प्रहरी शब्द का ही एक रूपांतर है। संस्कृत के प्रहरी शब्द का प्रयोग हिन्दी में 'पहरेदारी ' या  'पहरा देने' के सम्बंध में भी प्रयोग होता है। राजाओं के समय में एक प्रहर  प्रहरियों के लिए एक बार का कार्य-काल होता था (हर प्रहर में द्वारपाल बदला जाता था-यानि 'Guard Duty' बदला जाता था।)

आठ प्रहर के नाम : दिन के चार प्रहर- 1.पूर्वान्ह, 2.मध्यान्ह, 3.अपरान्ह और 4.सायंकाल। रात के चार प्रहर- 5.प्रदोष, 6.निशिथ, 7.त्रियामा एवं 8.उषा। तत्वदर्शी मुनियों ने  'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को संध्याकाल माना है।

>>> ब्रह्म मुहूर्त >

ब्रह्म का अर्थ है ‘ज्ञान’ और मुहूर्त का अर्थ है ‘समय-अवधि’। ब्रह्म अर्थात जिससे सबकुछ निकला है, स्थित है और लीन हो जाता है - उस ब्रह्म से आत्मा। आत्मा से जगत की उत्पत्ति हुई।  यह आत्मा एक काल और स्थान में या हर काल और स्थान पर एक साथ (युगपत) हो सकती है।  ज्ञान (सत्यं -अनन्तं) को समझने के लिए ब्रह्म मुहूर्त, सबसे सही समय है। ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से लगभग दो घंटे पूर्व होता है। यह समय योग साधना और ध्यान लगाने के लिये सर्वोत्तम कहा गया है। एक मुहूर्त दो घड़ी या लगभग 48 मिनट के बराबर होता है। अमृत काल /जीव मुहूर्त और ब्रह्म मुहूर्त (कुम्भ स्नान का महेन्द्र योग) बहुत श्रेष्ठ होते हैं।  

>>ब्रह्म मुहूर्त में जागने के चमत्कारी लाभ :  ब्रह्म मुहूर्त में तम और रजो गुण की मात्रा बहुत कम होती हैं। इस समय सत्वगुण का प्रभाव अधिक होता हैं इसलिए इस काल में बुरे मानसिक विचार भी सात्विक और शांत हो जाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार इस समय में बहने वाली वायु चन्द्रमा से प्राप्त अमृत कणों से युक्त होने के कारण हमारे स्वास्थ्य के लिए अमृत तुल्य होती है। यह वीरवायु कहलाती हैं। इस समय भ्रमण करने से शरीर में शक्ति का संचार होता है और शरीर कांतियुक्त हो जाता है।

भारतीय संस्कृति में ब्रह्ममुहूर्त में उठने की बड़ी महत्ता है। मनु महाराज ने कहा है -

ब्राह्मे मुहूर्ते बुद्ध्येत, धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत।   

ब्राह्मे मुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी।।  

ब्राह्म मुहूर्त में प्रबुद्ध होकर, धर्म और अर्थ का चिंतन करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त की निद्रा पुण्यों का नाश करने वाली है।

वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।

ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥

इस श्लोक के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठने से व्यक्ति को सुंदरता, धनलक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य और लंबी आयु की प्राप्ति होती है। रोज सुबह जल्दी जागने वाले लोगों का शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता है।

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अपने श्रीकृष्ण अवतार में ठाकुर देव ने कहा था -  "Abandoning all duties, take refuge in Me alone: I will liberate thee from all sins; grieve not."

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

।।18.66।। सब धर्मों (कर्तव्यों) का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
 श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है। धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की। 
 धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है अन्यथा नहीं, वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है।  उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है, उष्णता के अभाव में नहीं।  इसलिए अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है।  मधुरता चीनी का धर्म है।  कटु चीनी मिथ्या है जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक)।  गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है।  परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है।  जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है
          इस दृष्टि से मनुष्य का मुख्य धर्म क्या है ?  उसकी त्वचा का वर्ण, असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार, उसका स्वभाव (संस्कार), उसके शरीर, मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं।  ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है। जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा मनुष्य की समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है। 
       यद्यपि नैतिकता, सदाचार, जीवन के समस्त कर्तव्य, श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है।  तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। सदाचार [मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा आदि] को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार सदाचार (सुंदर चरित्र) के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गयी है जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कतिपय श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है।  और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे। उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं।
        ध्यान योग के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं (1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा सब धर्मों का त्याग? (2) मेरी (ईश्वर की) ही शरण में आना और (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है।
         गीता एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है, मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है। सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है।  और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त धर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं अथवा क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।                      आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण मनुष्य अपने शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न र्मत्य जीव का जीवन जीता है।  इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा, मन्ता, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है। वह शरीरादि उपाधियों के जन्म-मरणादि धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु वस्तुतः ये हमारे शुद्ध स्वरूप के धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है। इसलिए समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। 
       यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय -'आत्मनिरीक्षण और आत्म-विश्लेषण' ही हैं। मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है, जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं- तुम मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मा शुच (तुम शोक मत करो) उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। 
       अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं।  क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में कर्म मनुष्य के अन्तकरण में वासनाओं को अंकित करते जाते हैं जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार कर्म में प्रवृत्त होता है। शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं। वृत्ति रूप मन है अत जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है तब तक मन का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है। इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है और यही मनोनाश भी है। मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है। जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है,  उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है। इस नवप्राप्त अनुभव में वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अत भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा।मन को विचलित करने वाली, कर्मों की प्रेरक इच्छा और विक्षेपों को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।
यह श्लोक महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा अपना योगदान देने को उत्सुक है।  साधनाकाल में यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है। इसके विपरीत जिस साधक का मन नैराश्य और रुदन, विषाद और अवसाद से भरा रहता है,  वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर सकता है।  और स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूरदूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है। 

ओम नमो नारायणम् जग कारणस्य कारणम्,

विविधावतार धारणम्, मंगलमूर्ती जनार्दनम् !
 
पहले होगा आत्मज्ञान ( the bliss of divine inebriation-आत्मानुभूति ) उसके बाद कारण के कारण - आत्मा के भी कारण सच्चिदानन्द के साथ एकत्व का  आनन्द   (Bliss of Satchidananda-परमात्मा - आत्मा का भी कारण हैं। 
[>विवेक-जीवन ब्लॉग : सोमवार, 20 जुलाई 2020/माण्डूक्य उपनिषद,गौड़पादीय कारिका, शंकर भाष्य सहित, आनन्दगिरि टीका.]


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[गीता :अध्याय नौ : राज विद्या योग >श्लोक 18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥गीता 9.18॥

गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्; प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजम् अव्ययम् ॥ १८ ॥

[गतिः – लक्ष्य; भर्ता – पालक; प्रभुः – Lord श्रीरामकृष्ण ; साक्षी – गवाह; निवासः– धाम; शरणम् – शरण; सुहृत् – घनिष्ठ मित्र; प्रभवः – सृष्टि; प्रलयः – संहार;स्थानम् – भूमि, स्थिति; निधानम् – आश्रय, विश्राम स्थल; बीजम् – बीज, कारण;अव्ययम् – अविनाशी |]

मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्तप्रिय मित्र हूँ | मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ। 
यह सम्पूर्ण इन्द्रियगोचर जगत जो हमें आत्म-अज्ञान की दशा में मिथ्या होकर भी सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है - उसका अधिष्ठान आत्मा है। दुखपूर्ण प्रतीत होने वाले इस जगत् का अधिष्ठान आत्मा है। उस आत्मा का साक्षात्कार करने का अर्थ है समस्त श्वासरोधक बन्धनों के परे चले जाना। वह पारमार्थिक ज्ञान जिसे जानकर अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है, उसे ही यहाँ आत्मा के रूप में दर्शाया गया है।  
वास्तव में यह परिवर्तनशील जगत परम सत्य (आत्मा या इन्द्रियातीत सत्य) पर अध्यारोपित है।"मैं गति हूँ" - पूर्णत्व (100 % निःस्वार्थपरता) के अनुभव में हमारी समस्त अपूर्णताएं नष्ट हो जाती हैं।  और उसके साथ ही अनादि काल से चली आ रही परम आनन्द की हमारी खोज भी समाप्त हो जाती है। रज्जु (रस्सी) में मिथ्या सर्प को देखकर भयभीत हुए पुरुष को सांत्वना और सन्तोष तभी मिलता है, जब रस्सी के ज्ञान से सर्प भ्रम की निवृत्ति हो जाती है। 
मैं भर्ता हूँ जैसे रेगिस्तान उस मृगजल का आधार है धारण करने वाला है जिसे एक प्यासा व्यक्ति भ्रान्ति से देखता है।  वैसे ही आत्मा सबको धारण करने वाला है। अपने सत्स्वरूप से वह इन्द्रियगोचर वस्तुओं को सत्ता प्रदान करता है और समस्त परिवर्तनों के प्रवाह को एक धारा में बांधकर रखता है। इसके कारण ही अनुभवों की अखण्ड धारा रूप जीवन का हमें अनुभव होता है।
मैं प्रभु हूँ यद्यपि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं, परन्तु वे स्वयं जड़ होने के कारण यह स्पष्ट होता है कि उन्हें चेतनता किसी अन्य से प्राप्त हुई है। वह चेतन तत्त्व आत्मा है। उसके अभाव में उपाधियाँ कर्म में असमर्थ होती है इसलिए यह आत्मा ही उनका प्रभु अर्थात् स्वामी है।मैं साक्षी हूँ यद्यपि आत्मा चैतन्य स्वरूप होने के कारण जड़ उपाधियों को चेतनता प्रदान करता है तथापि वह स्वयं संसार के आभासिक और भ्रान्तिजन्य सुखों एवं दुखों के परे होता है। 
मैं साक्षी हूँ इस दृश्य जगत् को आत्मा से ही अस्तित्व प्राप्त हुआ है, परन्तु स्वयं आत्मा मात्र साक्षी है। अनन्त आत्मा साक्षी है , क्योंकि वह स्वयं अलिप्त रहकर बुद्धि के अन्तपुर, मन की रंगभूमि शरीर के आंगन और बाह्य जगत् के विस्तार को प्रकाशित करता है। साक्षी उसे कहते हैं जो किसी घटना को घटित होते हुए समीप से देखता है ; परन्तु उसका घटना से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता। बिना किसी राग या द्वेष के वह उस घटना को देखता है। जब किसी व्यक्ति की उपस्थिति में कोई घटना स्वत हो जाती है,  तब वह व्यक्ति उसका साक्षी कहलाता है।
मैं निवास हूँ समस्त चराचर जगत् का निवास स्थान आत्मा है। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी हमारी इन्द्रियों और मन को बहुविध दृश्यजगत् का आभास होता है,  उन सबके लिए आत्मा ही अस्तित्व और सुरक्षा का निवास है।  
शरण स्थल : मोह शोक को जन्म देता है , जबकि ज्ञान आनन्द का जनक है। मोहजनित होने के कारण यह संसार दुखपूर्ण है। विक्षुब्ध संसार सागर की पर्वताकार उत्ताल तरंगों पर दुख पा रहे भ्रमित जीव के लिए जगत् के अधिष्ठान आत्मा का बोध शान्ति का शरण स्थल है।
 एक बार जब आत्मा शरीर, मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य कर व्यष्टि जीव भाव को प्राप्त होकर बाह्य जगत् में क्रीड़ा करने जाता है, तब वह सागर तट की सुरक्षा से दूर तूफानी समुद्र में भटक जाता है। जीव की इस जर्जर नाव को जब सब ओर से भयभीत और प्रताड़ित किया जाता है।  ऊपर घिरती हुई काली घटाएं, नीचे उछलता हुआ क्रुद्ध समुद्र।  और चारों ओर भयंकर गर्जन करता हुआ तूफान तब नाविक के लिए केवल एक ही शरणस्थल रह जाता है और वह शान्त पोतस्थान है आत्मा। आत्मा का उपर्युक्त वर्णन सत्य के विषय में ऐसी धारणा को जन्म देता है मानो वह सत्य निष्ठुर है या एक अत्यन्त प्रतिष्ठित देवता है , या एक अप्राप्त पूर्णत्व है।
मैं मित्र हूँ अनन्त परमात्मा परिच्छिन्न जीव का मित्र है। उसकी यह मित्रता नमस्कार तक ही सीमित नहीं  वरन् उसकी आतुरता अपने मित्र की सुरक्षा और कल्याण के लिए होती है। प्रत्युपकार की अपेक्षा किये बिना मित्र पर उपकार करने वाला मनुष्य सुहृत् कहलाता है।मैं प्रभव, प्रलय,  स्थान और निधान हूँ जैसे आभूषणों में स्वर्ण और घटों में मिट्टी है।  वैसे ही आत्मा सम्पूर्ण विश्व में है। इसलिए सभी की उत्पत्ति, स्थिति और लय स्थान वही हो सकता है। इसी कारण से उसे यहाँ निधान कहा गया है। क्योंकि सभी नाम- रूप एवं गुण इसी में निहित रहते हैं ।
        मैं अव्यय बीज हूँ सामान्य बीज अंकुरित होकर और वृक्ष को जन्म देकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं? परन्तु यह बीज सामान्य से सर्वथा भिन्न है। निसन्देह आत्मा ही इस संसार वृक्ष का बीज है, परन्तु इस वृक्ष की उत्पत्ति में स्वयं आत्मा परिणाम को प्राप्त नहीं होता।  क्योंकि वह अव्यय स्वरूप है। यह धारणा कि सनातन सत्य परिणाम को प्राप्त होकर यह सृष्ट जगत् बन गया है ?मनुष्य की तर्क बुद्धि को एक कलंक है। और वेदान्त ऐसी दोषपूर्ण अयुक्तिक धारणा को अस्वीकार करता है। परन्तु द्वैतवादी इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं, अन्यथा उनके तर्कों का महल ही धराशायी होकर चूरचूर हो जायेगा। जैसे शरद ऋतु के आकाश में निर्मित मेघों का किला छिन्न - भिन्न हो जाता है।
गति का अर्थ है गन्तव्य या लक्ष्य, जहाँ हम जाना चाहते हैं।  लेकिन (आधुनिक युग में) चरमलक्ष्य तो श्रीरामकृष्ण हैं, यद्यपि लोग इसे जानते नहीं।  जो अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव को नहीं जानता वह पथभ्रष्ट हो जाता है।  और उसकी तथाकथित प्रगति या तो आंशिक होती है या फिर भ्रमपूर्ण।  ऐसे अनेक लोग हैं जो देवताओं को [आजकल  मुसलमान साईं बाबा को]  ही अपना लक्ष्य बनाते हैं और तदानुसार कठोर नियमों का पालन करते हुए चन्द्रलोक, सूर्यलोक, इन्द्रलोक, महर्लोक जैसे विभिन्न लोकों को प्राप्त होते हैं।  किन्तु ये सारे लोक श्रीरामकृष्ण की ही सृष्टि होनेके कारण श्रीरामकृष्ण हैं और नहीं भी हैं। 
सब कुछ श्रीरामकृष्ण की शक्ति पर आश्रित है।   प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित होनेके कारण श्रीरामकृष्ण परम साक्षी हैं।  हमारा घर, देश या लोक जहाँ पर हम रह रहें हैं, सबकुछ श्रीरामकृष्ण का है।  शरण के लिए श्री रामकृष्ण परम  गन्तव्य हैं, अतः मनुष्य को चाहिए कि अपनी रक्षा या अपने कष्टों के विनाश के लिए श्रीरामकृष्ण की शरण ग्रहण करे। हम चाहें जहाँ भी शरण लें हमें जानना चाहिए कि हमारा आश्रय कोई जीवित शक्ति होनी चाहिए। श्रीरामकृष्ण परम जीव हैं | चूँकि श्रीरामकृष्ण हमारी उत्पत्ति के कारण या हमारे परम पिता हैं, अतः उनसे बढ़कर न तो कोई मित्र हो सकता है, न शुभचिन्तक।  श्रीरामकृष्ण सृष्टि के आदि उद्गम और प्रलय के पश्चात् परम विश्रामस्थल हैं। अतः श्रीरामकृष्ण ही सभी कारणों के शाश्वत कारण हैं। 

श्री हरिकृष्ण दास गोयनका द्वारा श्री शंकराचार्य की संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद -
सब धर्मों को छोड़कर -- सर्व कर्मों का संन्यास करके,  मुझ एक (परमात्मा या आत्मा -जिससे सबकुछ निकला -स्थित और लीन होता है) की शरण में आ।  अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभाव से सर्व भूतों में स्थित, ईश्वर अच्युत तथा गर्भ, जन्म जरा और मरण से रहित हूँ।  उस एक के इस प्रकार शरण हो। अभिप्राय यह कि मुझ परमेश्वर से अन्य (परमात्मा से भिन्न आत्मा ?) कुछ है ही नहीं ऐसा निश्चय कर। तुझ इस प्रकार निश्चय वाले को मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष कराके  समस्त धर्माधर्म-बन्धन रूप पापों से मुक्त कर दूँगा। पहले कहा भी है कि -- मैं हृदयमें स्थित हुआ प्रकाशमय ज्ञान-दीपक से (अज्ञानजनित अन्धकार का) नाश करता हूँ।  इसलिये तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर। 
        इस बात पर विचार करना चाहिये कि आखिर हमें यह सन्देह क्यों होता है कि मोक्ष (भ्रम से मुक्ति)  ज्ञान से (आत्मज्ञान से ?) होता है या कर्म से ? -  अथवा दोनों से?  गीता में निश्चय किया हुआ परम कल्याण ( मोक्ष ) का साधन क्या है ? - जिस आत्मतत्व को जानकर मनुष्य अमरता को प्राप्त कर लेता है,  तदनन्तर मुझे तत्त्व से जानकर मुझमें ही प्रविष्ट हो जाता है;  इत्यादि वाक्य तो यही दिखला रहे हैं कि केवल ज्ञान से ही (आत्मज्ञान से ही) मोक्ष की प्राप्ति  (अर्थात भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति) होती है। फिर गीता में एक जगह भगवान कहते हैं - कर्म में ही अधिकार है, इसलिए तू कर्म ही कर। यह वाक्य कर्मों की अवश्यक कर्तव्यता क्यों दिखला रहे हैं ?  इस प्रकार ज्ञान और कर्म दोनों की कर्तव्यता का उपदेश होने से ऐसा संशय भी हो सकता है कि सम्भवतः दोनों समुच्चित ( मिलकर ) ही मोक्ष के साधन होंगे ?।  परंतु ज्ञान और कर्म में इस मीमांसा का फल क्या होगा ?  -- यही कि इन तीनों में से किसी एक को ही परम कल्याण का साधन निश्चय करना होगा। अतः इसकी विस्तारपूर्वक मीमांसा कर लेनी चाहिये।
>>>मनुष्य के परम् कल्याण का साधन: मोक्ष सिद्धान्त का प्रतिपादन >(Propounding the theory of salvation-मोक्ष के सिद्धान्त को विचारार्थ सामने रखना):  महामण्डल का उद्देश्य है - भारत का कल्याण ! लेकिन गीता के अनुसार अंतिम पुरुषार्थ - मोक्ष का हेतु, मनुष्य के परम कल्याण  का हेतु (cause of ultimate welfare) तो  एकमात्र आत्मज्ञान ही है।  क्योंकि भेद-प्रतीति का निवर्तक होनेके कारण, और कैवल्य ( मोक्ष ) की प्राप्ति ही उसकी अवधि है। 
आत्मा केवल साक्षी है -किन्तु अविद्या के कारण जिसकी उपस्थिति में चित्त, मन , बुद्धि और अहंकार में क्रिया (action), कारक (cause) और फल (result) आदि में भेद-बुद्धि सदा से चली आ रही है। 'Be and Make ' कर्म मेरे हैं,  मैं उनका कर्त्ता हूँ !  मैं अमुक फल  (भारत का कल्याण) पाने के लिये यह कर्म करता हूँ - यह अविद्या अनादिकाल से प्रवृत्त हो रही है। यह केवल ( एकमात्र ) अकर्ता, क्रिया  रहित और फल से रहित आत्मा मैं हूँ ,  मुझसे भिन्न और कोई भी नहीं है ;  ऐसा आत्म-विषयक ज्ञान [आत्मज्ञान ही ] इस अविद्या का नाशक है। क्योंकि यह (आत्मज्ञान) उत्पन्न होते ही कर्म-प्रवृत्ति की हेतु रूप भेद-बुद्धि का नाश करनेवाला है।  उपर्युक्त वाक्य में तु शब्द दोनों पक्षों की निवृत्ति के लिये है अर्थात् मोक्ष न तो केवल कर्म से मिलता है और न ज्ञान-कर्म के समुच्चय से ही। इस प्रकार तु शब्द दोनों पक्षों का खण्डन करता है। मोक्ष अकार्य अर्थात् स्वतःसिद्ध है।  इसलिये कर्मों को उसका साधन मानना नहीं बन सकता क्योंकि कोई भी नित्य ( स्वतःसिद्ध ) वस्तु कर्म या ज्ञान से उत्पन्न नहीं की जाती।
 
>> तब क्या (धर्म, अर्थ और काम के पुरुषार्थ के बाद) चौथा पुरुषार्थ आत्मज्ञान भी व्यर्थ ही है ?- क्या वह परम् कल्याण (मोक्ष) का साधन  नहीं है ? नहीं , यह बात नहीं है, क्योंकि अविद्या का नाशक होने के कारण उसकी मोक्ष-प्राप्ति रूप फल पर्यन्तता प्रत्यक्ष है। जिस प्रकार अंधकार में रज्जु में सर्प की भ्रान्ति हो जाने पर दीपक के प्रकाश का फल सर्प की भ्रान्ति को नष्ट कर देना है। और जैसे उस प्रकाश का फल सर्प विषयक विकल्प को हटाकर  केवल रज्जु को प्रत्यक्ष करा के समाप्त हो जाता है।  वैसे ही अविद्यारूप अन्धकार के नाशक आत्मज्ञान का भी फल केवल,आत्म-स्वरूप को प्रत्यक्ष करा के ही समाप्त होता देखा गया है। 
       जैसे लकड़ी को चीरना अथवा अरणीमन्थन द्वारा अग्नि उत्पन्न करना आदि  उनमें लगे हुए कर्ता आदि कारकों की क्रियाएँ हैं,  जिनका फल - जैसे अलग-अलग टुकड़े हो जाना अथवा अग्नि प्रज्वलित हो जाना प्रत्यक्ष दीखता है, उसके अतिरिक्त किसी अन्य फल देने वाले कर्म में प्रवृत्ति नहीं हो सकती।  वैसे ही जिसका फल प्रत्यक्ष है- ऐसी ज्ञाननिष्ठा रूप क्रिया में लगे हुए ज्ञाता आदि कारकों की भी आत्मकैवल्य रूप फल से अतिरिक्त फलवाले किसी अन्य कर्म में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उसी तरह ज्ञाननिष्ठा कर्म सहित नहीं हो सकती। यदि कहो कि भोजन और अग्निहोत्र आदि क्रियाओं के समान ( इसमें भी समुच्चय ) हो सकता है।  तो ऐसा कहना ठीक नहीं , क्योंकि जिसका फल कैवल्य ( मोक्ष ) है ;  उस ज्ञान (आत्मज्ञान) के प्राप्त होने के पश्चात् कर्म फल की इच्छा नहीं रह सकती। 
         जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर कूपतालाब आदि की जलके लिये चाह नहीं रहता।  उसी प्रकार मोक्ष जिसका फल है, ऐसे ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद क्षणिक सुखरूप फलान्तर की या उसकी साधनभूत क्रिया की इच्छुकता नहीं रह सकती। क्योंकि जो मनुष्य राज्य प्राप्त करा देने वाले कर्म में लगा हुआ है उसकी प्रवृत्ति क्षेत्र-प्राप्ति ही जिसका फल है, ऐसे कर्म में नहीं होती और उस कर्म के फल की इच्छा भी नहीं होता। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि परम कल्याण (मोक्ष) का साधन न तो कर्म है और न ज्ञान-कर्म का समुच्चय ही है तथा कैवल्य ( मोक्ष ) ही जिसका फल है ऐसे ज्ञान (आत्मज्ञान) को कर्मों की सहायता भी अपेक्षित नहीं है। क्यों कि ज्ञान (अर्थात आत्मज्ञान) अविद्या का नाशक है; इसलिये उसका कर्मों से विरोध है। यह प्रसिद्ध ही है कि अन्धकार का नाशक अन्धकार नहीं हो सकता। इसलिये केवल ज्ञान ही परम कल्याण का साधन है
       दुश्चरित्र और शास्त्र - निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग कर देने से अनिष्ट ( बुरे ) शरीरों की प्राप्ति न होगी।  काम्य कर्मों का त्याग कर देने के कारण इष्ट ( अच्छे ) शरीरों की प्राप्ति न होगी।  तथा वर्तमान शरीर को उत्पन्न करने वाले कर्मों का, फल के उपभोग से क्षय हो जाने पर इस शरीर का नाश हो जाने के पश्चात् , दूसरे शरीर की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं रहने से तथा शरीर सम्बन्धी आसक्ति आदि के न करनेसे जो स्वरूपमें स्थित हो जाना है वही कैवल्य है।  अतः बिना प्रयत्न के ही कैवल्य सिद्ध हो जायगा।
     किंतु भूतपूर्व अनेक जन्मों के किये हुए जो स्वर्ग-नरक आदि की प्राप्ति रूप फल देने वाले अनेक अनारब्ध फल -- सञ्चित कर्म हैं ,  उनके फल का उपभोग न होने के कारण, उनका तो नाश नहीं होगा।   ऐसा कहें तो -- यह बात नहीं है क्योंकि नित्यकर्म के अनुष्ठान में होने वाले परिश्रमरूप दुःखभोग को उस कर्मों के फल का उपभोग माना जा सकता है। अथवा प्रायश्चित्त की भाँति नित्य कर्म भी पूर्वकृत पाप का नाश करने वाले मान लिये जायँगे तथा प्रारब्धकर्मका फलभोग से नाश हो जायगा? फिर नये कर्मोंका आरम्भ न करनेसे कैवल्य,बिना यज्ञके सिद्ध हो जायगा।यह सिद्धान्त ठीक नहीं है क्योंकि उस ( परमात्मा ) को जानकर ही मनुष्य मृत्यु से तरता है।  मोक्ष
प्राप्तिके लिये दूसरा मार्ग नहीं है। 
 इस प्रकार मोक्ष के लिये विद्या के अतिरिक्त अन्य मार्ग का अभाव बतलानेवाली श्रुति है तथा जैसे चमड़े की भाँति आकाशको लपेटना असम्भव है? उसी प्रकार अज्ञानी की मुक्ति असम्भव बतलानेवाली भी श्रुति है? एवं पुराण और स्मृतियोंमें भी यही कहा गया है कि ज्ञानसे ही कैवल्यकी प्राप्ति होती है।  इसके सिवा ( उस सिद्धान्तमें ) जिनका फल मिलना आरम्भ नहीं हुआ ऐसे पूर्वकृत पुण्यों के नाश की उत्पत्ति न होने से भी यह पक्ष ठीक नहीं है। 
         अर्थात् जिस प्रकार पूर्वकृत सञ्चित पुण्योंका होना सम्भव है, उसी प्रकार सञ्चित पापोंका होना भी सम्भव है. ही अतः देहान्तर को उत्पन्न किये बिना उनका क्षय सम्भव न होनेसे ( इस पक्षके अनुसार ) मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकेगा। इसके सिवा पुण्य-पाप के कारण रूप राग- द्वेष और मोह आदि दोषोंका  बिना आत्मज्ञान के मूलोच्छेद होना सम्भव न होनेके कारण भी पुण्य पाप का उच्छेद होना सम्भव नहीं
तथा श्रुति में नित्यकर्मों का पुण्यलोक की प्राप्ति रूप फल बतलाया जाने के कारण और अपने कर्मों में स्थित वर्णाश्रमावलम्बी इत्यादि स्मृतिवाक्योंद्वारा भी यही बात कही जाने के कारण भी कर्मोंका क्षय ( मानना ) सिद्ध नहीं होता। तथा जो यह कहते हैं कि नित्यकर्म दुःखरूप होने के कारण पूर्वकृत पापोंका फल ही है।  उनका अपने स्वरूप से अतिरिक्त और कोई फल नहीं है क्योंकि श्रुति में उनका कोई फल नहीं बतलाया गया तथा उनका,विधान जीवननिर्वाह आदिके लिये किया गया है।

जो भगवत्स्वरूप और आत्मा के एकत्व ज्ञान की शरण हो चुके हैं ऐसे भगवान  के तत्त्व को जानने वाले परमहंस परिव्राजकों को इष्ट, अनिष्ट और मिश्र -- ऐसा त्रिविध कर्मफल नहीं मिलता। इनसे अन्य जो संन्यास न करने वाले कर्म परायण अज्ञानी हैं उनको कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है।  यही गीताशास्त्रमें कहे हुए कर्तव्य और अकर्तव्यका विभाग है। परंतु आत्मा को शरीर से पृथक् समझे बिना नित्यनैमित्तिक आदि कर्मों में प्रवृत्ति का होना असम्भव है।
- जैसे हे पुत्र तू मेरा आत्मा ही है इस श्रुतिवाक्य के अनुसार अपने पुत्र में अहंभाव होता है तथा संसार में भी जैसे यह गौ मेरा प्राण ही है, इस प्रकार प्रिय वस्तु में अहंभाव होता देखा जाता है।  परंतु भ्रान्तिके कारण सब कुछ हो सकता है। जैसे कि स्वप्न देखते समय और माया में होता है। परंतु शरीरादि में,आत्म-बुद्धिरूप अज्ञान-सन्तति का विच्छेद हो जानेपर। सुषुप्ति और समाधि आदि अवस्थाओं में कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनर्थ उपलब्ध नहीं होता। इससे यह सिद्ध हुआ कि यह संसार भ्रम मिथ्या है और ज्ञान-निमित्तक ही है, वास्तविक नहीं। अतः पूर्ण तत्त्वज्ञान से उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। 
 
गीता अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग > श्लोक 16 में भगवान कहते हैं - 

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
 तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।5.16।।

पदच्छेदः - ज्ञानेन तु तत् अज्ञानं येषां नाशितम् आत्मनः; तेषाम् आदित्यवत् ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ १६ ॥
ज्ञानेन-आत्मज्ञान (दिव्य ज्ञान) द्वारा; तु–लेकिन; तत्-वह; अज्ञानम्-अज्ञानता (अविद्या जन्य पंचक्लेश) ; येषाम् जिनका; नाशितम् नष्ट हो जाती है; आत्मनः-आत्मा का; तेषाम्-उनके; आदित्यवत्-सूर्य के समान; ज्ञानम्-ज्ञान; प्रकाशयति-प्रकाशित करता है; तत्-उस; परम्-परम तत्त्व को ।
-अर्थात परन्तु जिनका वह अज्ञान (अविद्या जन्य पंचक्लेश) परमात्मा के तत्व ज्ञान के द्वारा (आत्मानुभूति या आत्मज्ञान  द्वारा) नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है॥5.16॥
व्याख्या -  सूर्य के उदय होने पर कोई नयी वस्तु निर्मित नहीं होती, अपितु 'वह' (रज्जु जो सर्प के आवरण से ढंकी होने के कारण) , जो नहीं दिख रही थी, दिखने लग जाती है। इसी प्रकार भगवान् स्वतः सिद्ध हैं, परन्तु अज्ञान के कारण उनका अनुभव नहीं होता। विवेकज ज्ञान  के द्वारा अज्ञान का नाश होने से स्वतःसिद्ध परमतत्त्व अनुभव होने लग जाता है।
              सामन्य जीवों का आत्मज्ञान, स्वयं को केवल शरीर -मन (2H) मानने के कारण -  अविद्या माया से [अस्मिता-रागद्वेष -अभिनिवेश -पंचक्लेश ] से आवृत रहता है अर्थात् उन्हें अपने यथार्थ या शुद्ध स्वरुप का अनुभव नहीं होता। जबकि 'ज्ञानी पुरुष' अर्थात आत्मज्ञानी पुरुष के लिए अज्ञानावरण (M/F का मिथ्या अहं ) पूर्णतया निवृत्त हो जाता है। जैसे कोई कमरा यदि हजारों वर्षों से बन्द हो, लेकिन एक दिया जलते ही सारा अँधेरा तत्काल  ही दूर हो जाता है न कि धीरे-धीरे किसी विशेष क्रम से। इसी प्रकार से आत्मज्ञान का उदय होते ही अनादि अविद्या उसी क्षण निवृत्त हो जाती है। अविद्या से उत्पन्न होता है अहंकार (M/F होने का भ्रम ) जिसका अस्तित्व शरीर मन और बुद्धि के साथ हुए तादात्म्य के कारण बना रहता है। अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अहंकार (मिथ्या M/F वाला शरीरबोध) भी नष्ट हो जाता है
         वेदान्त के इस सिद्धांत को समझने में द्वैतवादियों को कठिनाई होती है। वस्तुओं को जानने के लिए हमारे पास उपलब्ध साधन हैं इन्द्रियां मन और बुद्धि। अहंकार इनके माध्यम से देखता अनुभव करता और विचार करता है। द्वैतवादी यह समझने में असमर्थ हैं कि अहंकार इन्द्रियां मन और बुद्धि के अभाव में आत्मज्ञान कैसे सम्भव है ?  एक बुद्धिमान् विचारक में यह शंका आना स्वाभाविक है। इसका अनुमान लगाकर श्रीकृष्ण यह बताते है कि अहंकार नष्ट होने पर आत्मज्ञान स्वत हो जाता है।विचाररत बुद्धि को यह बात सरलता से नहीं समझायी जा सकती। इसलिए दूसरी पंक्ति में प्रभु एक दृष्टान्त देते हैं आदित्यवत्। 
        हम सबका सामान्य अनुभव है कि वर्षा ऋतु में कई दिनों तक सूर्य नहीं दिखाई देता और हम जल्दी में कह देते हैं कि सूर्य बादलों से ढक गया है। इस वाक्य के अर्थ पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य बादल के छोटे से टुकड़े से ढक नहीं सकता। इस विश्व के मध्य में जहाँ सूर्य अकेला अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है वहाँ से बादल बहुत दूर है। पृथ्वी तल पर खड़ा छोटा सा मनुष्य अपनी बिन्दु मात्र आँखों से देखता है कि बादल की एक टुकड़ी ने दैदीप्यमान आदित्य को ढक लिया है। यदि हम अपनी छोटी सी उँगली अपने नेत्र के सामने निकट ही लगा लें - और कहें बड़ा अँधेरा है - सामने का विशाल पर्वत भी ढक गया है। इसी प्रकार सामान्य जीव जब आत्मा पर दृष्टि डालता है,  तो उस अनन्त आत्मा  को अविद्या से (जीव-भाव M/F से) आवृत पाता है। यह अविद्या सत् स्वरूप आत्मा में नहीं है जैसे बादल सूर्य में कदापि नहीं है। 
         अनन्त सत् की तुलना में सीमित अविद्या बहुत ही तुच्छ है। किन्तु आत्मस्वरूप की विस्मृति हमारे हृदय में उत्पन्न होकर अहंकार में यह मिथ्या धारणा उत्पन्न करती है कि आध्यात्मिक सत् अविद्या से प्रच्छन्न है। इस अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मतत्त्व प्रकट हो जाता है जैसे मेघपट हटते ही सूर्य प्रकट हो जाता है।सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है आत्मानुभव के लिए भी किसी अन्य अनुभव की अपेक्षा नहीं है वह चित् स्वरूप है। चित् की चेतना के लिए किसी दूसरे चैतन्य की अपेक्षा नहीं है। ज्ञान का अन्तर्निहित तत्त्व चेतना ही है। अतः अहंकार या  मिथ्या-जीवभाव (M/F का अहंकार) आत्मा को पाकर आत्मा ही हो जाता है। स्वप्न से जागने पर स्वप्न-द्रष्टा अपनी स्वप्नावस्था से मुक्त होकर जाग्रत् पुरुष बन जाता है। वह जाग्रत् पुरुष को कभी भिन्न विषय के रूप में न देखता है और न अनुभव करता है बल्कि वह स्वयं ही जाग्रत् पुरुष बन जाता है।
       ठीक इसी प्रकार अहंकार भी अज्ञान से ऊपर उठकर स्वयं आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। सूर्य के दृष्टान्त द्वारा  अहंकार और आत्मा का सम्बन्ध तथा आत्मानुभूति की प्रक्रिया का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। जिसके लक्ष्यार्थ - "आत्मज्ञानी और आत्मनिष्ठ (वैराग्य वान) पुरुष सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है " --पर सभी साधकों को मनन करना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द अपनी एक अँग्रेज़ी कविता, 'काली माता' 'Kali the Mother' में कहते हैं -

साहसी, जो चाहता है- दुःख, मिल जाना मरण से,

नाश की गति नाचता है, माँ उसी के पास आयी ।

- स्वामी विवेकानन्द 

Who dares misery love, And hug the form of Death,
Dance in destruction's dance, To him - the Mother comes.
- Swami Vivekananda
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥

दिनों के फेर अर्थात् जब समय प्रतिकूल हो, तब शान्त चित्त हो कर प्रतीक्षा करें, व्यग्र-उग्र, क्षुब्ध-विक्षुब्ध न हों। जब समय अनुकूल होगा, तो बात बनने में देर नहीं लगेगी।

गीता अध्याय 12 भक्तियोग (12. 18-19) में भगवान कहते हैं - 

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
            शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।। 
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्।
               अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥ 
[संधि विच्छेद -
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मान अपमानयोः।
शीत उष्ण सुख दुःखेषु समः सङ्गाविवर्जितः॥
तुल्य निन्दा स्तुति मौनी सन्तुष्टः येन केन चित्‌।
अनिकेतः स्थिर मतिः भक्तिमान मे प्रियः नरः॥]
अनुवाद- 
1. शत्रु और मित्र के साथ समान व्यवहारः भक्त सभी के साथ सकारात्मक समता (positive equality)  का व्यवहार करते हैं तथा शत्रुता और मित्रता की भावना को अपने उपर हावी नहीं होने देते। ईश्वर तत्व (अद्वैत) का ज्ञान हो जाने के बाद, वह भगवान (ठाकुर देव) का परम भक्त बन जाता है। उसके ह्रदय से अपने -पराये का भेद समाप्त हो जाता है, कोई पराया नहीं रहता सभी अपने हो जाते हैं। ठाकुरदेव का परम भक्त होने के कारण उसमें  निष्पक्ष न्याय करने का गुण स्वाभाविक  रूप से  उत्पन्न हो जाता है। इसलिए वह मित्र, सगे संबंधी, पुत्र, पोते और पराये लोगों के साथ समता का व्यवहार कर सकता है।
2.  मान-अपमान में समभावः श्रीकृष्ण पुनः व्यक्त करते हैं कि भक्त, मान-अपमान की ओर ध्यान नहीं देते।  भक्त के हृदय में दिव्य प्रेम की ज्योति इतनी दीप्तिमान होकर जलती है कि उसके लिए लौकिक मान और अपमान का कोई महत्व नहीं रहता। 
3. शीत और गर्मी तथा सुख और दुख में समभावः भक्त अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में समभाव रहते हैं। वे जानते हैं कि दोनों में से कोई भी स्थायी नहीं है। ये दिन और रात्रि की भांति आते-जाते रहते हैं। इसलिए वे इन द्वन्द्वों को महत्व नहीं देते ताकि उनका ध्यान भगवान से हटकर इनमें केन्द्रित न हो जाए। रामकृष्ण परमहंस के जीवन की एक घटना संतों की महानता का उदाहरण है। ठाकुर के गले में कैन्सर हो गया था । लोग उन्हें इसके उपचार हेतु काली माता की प्रार्थना करने के लिए कहते थे। उन्होंने कहा- "मेरा मन काली मां के प्रेम में निमग्न है तब फिर मैं इस तुच्छ शरीर को कैंसर से बचाने के लिए प्रार्थना क्यों करूँ। जो भगवान की इच्छा होगी उसे होने दो।" 
4. कुसंग से मुक्तः किसी भी व्यक्ति या वस्तु के संयोग को संग कहते हैं। संग दो प्रकार के होते है। जो संग हमारे मन को सांसारिकता की ओर ले जाता है उसे कुसंग कहते हैं और जो हमारे मन को सांसारिकता से दूर ले जाता है उसे सत्संग कहते हैं। चूँकि भक्त सांसारिक चिन्तन में (विषय-भोग तीन ऐषणाओं में) आनन्द नहीं लेते इसलिए वे कुसंग की उपेक्षा कर सत्संग में लीन रहते हैं। 
5. प्रशंसा और निंदा में एक समानः वे जो संसार के चकाचौन्ध से या बाह्य रूप से प्रेरित होते हैं उनके लिए अन्य लोगों की प्रशंसा और निंदा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। किन्तु भक्त आंतरिक रूप से अपने अंतर के सिद्धांतों -गुरुवाक्य से जिन्हें वे महत्व देते हैं, से प्रेरित होते हैं। इसलिए अन्य लोगों द्वारा की जाने वाली प्रशंसा और निंदा से उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि वह सभी ऐषणाओं में आसक्ति से रहित हो चुका है।। 
6. मौन चिंतनः जो विपरीत परिस्थिति में भी मौनी या संयतवाक् है -अर्थात् वाणी जिसके वशमें है शांत रहता है। समान रूप से सांसारिक लोगों का मन लौकिक विषयों पर वार्तालाप करने में अत्यंत आनन्द प्राप्त करता है। लेकिन संतों का मन शुद्ध होता है इसलिए उन्हें सांसारिक विषय उसी प्रकार से आकर्षित प्रतीत नहीं होते जैसा कि वे गंदगी का ढेर हों। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे वार्तालाप नहीं करते। वे भी वार्तालाप करते हैं -लेकिन  उनका मन भगवान के नाम, गुण, रूप, लीलाओं और भगवान की महिमा के व्याख्यान जैसे विषयों की ओर आकर्षित होता है। 
7. अपनी मिहनत से अर्जित धन में संतोष : शरीर की देखभाल के लिए भक्त अति न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ जीवन निर्वाह करते हैं।इस संबंध में संत कबीर का प्रसिद्ध दोहा इस प्रकार से है: "मालिक इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाए, मैं भी AC में जा सकूँ , परिवरवो - -साधुवो AC में जाये !"
8. अनिकेत अर्थात घर-गृहस्थी से ममता रहितः जीवात्मा के लिए पृथ्वी पर स्थायी निवास नहीं होता क्योंकि मृत्यु के पश्चात उसका सब कुछ इसी संसार में रह जाता है। जब मुगल शहंशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी में अपनी राजधानी स्थापित की तब उसने मुख्य प्रवेश द्वार के शिला लेख पर निम्नलिखित शब्द उत्कीर्ण करवाएँ-"यह संसार एक पुल है इसे पार करो, किन्तु इस पर कोई घर न बनाओ।" 
 9. भक्तिमान पुरुष (नर) मुझे प्रिय है : भगवत्स्वरूप (सच्चिदानन्द) के विषय में जिसकी मति स्थिर हो गयी है, अर्थात् उसे कोई संशय नहीं रह गया है, ऐसा भक्तिमान पुरुष (नर) मुझे प्रिय है।  नर शब्द से यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो पुरुष कम से कम इस भक्तिमार्ग पर चलने का प्रयत्न करता है, वही गीताचार्य की दृष्टि से विकसित मनुष्य कहलाने योग्य है। जिसकी बुद्धि स्थिर है और जो भक्ति में संलग्न है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या
>>> मृत्यु शरीर की होती है, जीव का लोकान्तर होता है, ब्रह्मविद ब्रह्म हो जाता है ? : 
 परंतु जीवात्मा अपनी मर्ज़ी से संसार का वास्तविक त्याग नहीं कर सकता। मृत्यु भी केवल एक योनि के शरीर से निकल कर दूसरी योनि के शरीर में जाने की प्रक्रिया की एक अवस्था है। जीवात्मा के लिए एक लोक है और एक परलोक है। लोक ही संसार है, जो अनंत ब्रह्मांडों से बना हुआ है। परलोक, सर्वशक्तियुक्त अनादि निराकार परमेश्वर के शाश्वत परमानंद से भरपूर धाम है, जहां पहुँचने के पश्चात जीवात्मा संसार में वापिस नहीं आता। वह परमेश्वर के स्वरूप में पावन हो जाता है। जब तक जीवात्मा पर परमेश्वर की कृपा नहीं होती तब तक जीवात्मा अपने मनुष्य जन्म में किए गए कर्मों के फलस्वरूप इसी संसार में विभिन्न सुख-दुःख रूपी योनियों में भटकता रहता है। इन योनियों में अति कष्ट दायी योनियाँ भी हैं और अति सुखदायी योनियाँ भी शामिल हैं। परंतु इन में से कोई भी योनि सदा रहने वाली नहीं होती। जब तक जीवात्मा पाप और पुण्य रूपी कर्मफलों से शून्य नहीं हो जाता उसकी मुक्ति नहीं होती और वह परलोक में परमेश्वर के स्वरूप में पावन होने का सुपात्र नहीं बनता।
अपने मनुष्य जन्म के दौरान गृहस्थ जीवन व्यापन करते हुए भी यदि  अपने बचे हुए कर्मफल (प्रारब्ध) को इस प्रकार भोगता है कि उसके स्वयं के प्रति, अपने परिवार और समाज के प्रति जो कर्तव्य हैं, वे निष्काम रूप से परमेश्वर के वचनों के अनुसार निभते हैं, और उन्हें निभाने के दौरान कोई नए पाप-पुण्य नहीं जुड़ते तो उसका जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा हो सकता है।
     संसार को त्यागने का अर्थ यह मत लगा लेना , कि- आपको इस भौतिक संसार यानि अपने परिवार जन और काम धंधे को छोड़ देना है। ऐसा किया तो फिर कूएँ से निकलकर खाई में गिरने जैसी बात होगी।आपको केवल मानसिक रूप से संसार का त्याग करना है। इसका मतलब यह न निकालें कि संसार से अब तक प्यार किया, अब नफरत करने लगें। जी नहीं। इसका मतलब है संसार में जो अब तक आप प्रतिक्रिया करते रहे वह अब नहीं करना है। साक्षी-भाव से संसार की घटनाओं को एक दर्शक की भांति देखते जाना है तथा अपना कर्तव्य कर्म इस भाव से करते जाना है जैसे किसी नाटक के पात्र हों। संसार को एक हास्यकर  स्वप्न (laughing dream) के समान समझिए और तटस्थ भाव से उसका आनंद लीजिए। यही गीता का "कर्म-संन्यास" है। यानि कर्म जमकर कीजिए, मगर कर्ता भाव को साथ मत लाइए। समझिये कि- कर्म आप नहीं कर रहे। आप केवल निमित्त मात्र हैं। इसीप्रकार प्रेम सबसे किजिए किन्तु लगाव या अलगाव किसी से भी मत पालिये। ऐसी चेतना के आयाम में जीने लगना ही संसार को त्यागना है। और इसको त्यागने से आपको वह मिलेगा जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह आपका सनातन वास्तविक स्वरूप है जो अनन्त है।
        संसार त्याग का मतलब है कि शरीर, इन्द्रियाँ, अन्त:करण, मन, बुद्धि, प्राण आदि पदार्थों में अहंता-ममता का परित्याग। यही संसार का त्याग है। अगर इसमें सफल हो गए, तो कहीं जाने की जरूरत नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति चाहते हों, तो संसार का त्याग करना पड़ेगा अर्थात् सांसारिक वस्तुओं के साथ अहंता-मोह नहीं रख सकोंगे। अहंता-मोह रखोंगे, तो परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी - यह निश्चित बात है।

>>>ईश्वर और भगवान 

 ईश्वर क्या है , और भगवान कौन हैं ?

भारतीय धर्म या सनातन संस्कृति- ब्रह्म और शक्ति, 'ईश्वर', 'भगवान', परमात्मा, परब्रह्म, परमेश्वर, प्रभु आदि विविध शब्दों से भरी है। यह इस सनातन संस्कृति की गंभीर दार्शनिक दृष्टि है की अदृश्य शक्ति व अनव्यक्त अनुभवों को शब्दों की सीमाओं में बाँध लिया गया है। अन्य भाषाओँ में अनंत की अभिव्यक्ति के लिए थोड़े से गिने-चुने हुए  शब्द अत्यंत छोटे पड़ जाते हैं।  परन्तु यह भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा की अतुल (incomparable-अनुपम ) गरिमा ही है जो इन थोड़े से शब्दों में उस विराट-अनंत-असीम निराकार स्वरुप को साकार करने की सक्षमता रखते हैं।

ईश्वर — यह एक शक्ति है। [जब यह शक्ति अव्यक्त जगत को अपने भीतर से व्यक्त करती, पालन करती है, फिर अपने में या अव्यक्त में लीन कर लेती है - तब वह माँ काली रूपी एक शक्ति है। ब्रह्म या आत्मा वह वस्तु है जिससे सबकुछ निकला है, जिसमें स्थित है , और पुनः जिसमें लीन हो जाता है।  ब्रह्म जब क्रियाशील है तब उसको ही शक्ति कहते हैं, जब निष्क्रिय रहते हैं तब ब्रह्म कहते हैं। जैसे चलता हुआ सर्प और कुण्डली मार कर बैठा हुआ सर्प।] 

भगवान — यह एक व्यक्ति विशेष है जिन्होंने ईश्वर को जान लिया है।

[ईश्वर = माँ काली = जगतजननी माँ सारदा। और माँ सारदा को ही माँ काली के रूप में देखने वाले भगवान श्रीरामकृष्ण देव ! या मेरे गुरुदेव/स्वामी विवेकानन्द/ CINC नवनीदा ही भगवान थे जो जानते थे कि माँ सारदा देवी ही माँ जगदम्बा काली थी ! ]   

ईश्वर — सम्पूर्ण स्वरुप, आद्य शक्ति या शिवा की अनंत व्यापक स्थिति को ही ईश्वर कहते है।[समष्टि आद्य शक्ति, शिवा या माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट (अनंत) अहं बोध को ही ईश्वर कहते है।]

भगवान — ईश्वर के उस संपूर्ण स्वरुप की अनंत व्यापकता का जिन्होंने अनुभव किया, उसमें ही खो गए, वह सभी भव्य आत्माएँ (magnificent souls) भगवान है।

[जिन आत्माओं ने अपने मिथ्या अहं या व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं बोध में रूपांतरित कर लिया - या देहबुद्धि से दासो अहं के भाव को अपनाकर ईश्वर का काम - Be and Make ' करने को आतुर रहने लगे, वे सभी (नवनीदा जैसी) महाप्रतापी/भव्य आत्माएँ (magnificent souls) भगवान है।] 

ईश्वर — यह (माँ काली)  वह शक्ति है जो अजन्मा-अमर-अविनाशी है, यानि काल से पूर्व भी यह शक्ति विद्यमान थी और काल के पश्चात् भी विद्यमान रहती है

भगवान — जन्म- मरण के परिभ्रमण में, उसकी व्यार्थता जानकार जो अजर अमर होने की यात्रा पर निकल पड़े और अविनाशी शक्ति का अनुभव (अवतार तत्व का अनुभव ) किया वह भगवान (गुरु,नेता या पैगम्बर) है।

ईश्वर — क्षेत्र (देह) की अपेक्षा से ईश्वर असीम है, अनंत है।

भगवान — क्षेत्र की अपेक्षा से भगवान (गुरु,नेता, जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर)  एक सीमित शरीर (देश-क्षेत्र)  व आयुष्य (काल) में होते है। तभी तो हम उनकी जन्म-जयंती, निर्वाण-जयंती, आदि मनाते हैं।

ईश्वर — रूप आदि (वर्ण, गंध व स्पर्श) की अपेक्षा से ईश्वर (माँ काली) निराकार/साकार दोनों है?

भगवान — रूप आदि की अपेक्षा से भगवान साकार है।

ईश्वर — आद्य शक्ति व शिव ईश्वरीय शक्ति की अभिव्यक्ति को उजागर/प्रकट  करने के प्रतीक है।

भगवान — हिंदू परम्परा से भगवान विष्णु के अवतार श्री राम, कृष्ण, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव आदि भगवान / ब्रह्म कहलाते है। बौद्ध परम्परा से गौतम बुद्ध आदि भगवान कहलाते हैं। ईसाई परम्परा से जीसस आदि भगवान के पुत्र कहलाते हैं, जिन परम्परा से अष्ट कर्मों को क्षय करके अनंत में खोने वाले सभी तीर्थंकर, केवली, आदि भगवान कहलाते हैं। तो सिख परम्परा से नानक देव आदि भगवान कहलाते हैं।

ईश्वर — हर वस्तु-व्यक्ति में जो उसका पवित्र स्वभाव है वह ईश्वर है।

भगवान — स्वयं के पवित्र स्वभाव को जानने वाले भगवान हैं।

ईश्वर — इन्हें हम GOD कहते हैं।

भगवान — इन्हें हम LORD कहते हैं। 

राजा बलि को पहले राज-मद था । प्रह्लादजी ने जो कि उनके पितामह थे, उनको समझाया पर बलि नहीं माने । प्रह्लादजी ने देखा कि बीमारी बढ़ गयी है तो भगवान का स्मरण किया । भगवान ने वामन रूप में आकर बलि के सम्पूर्ण राज्य के साथ शरीर तक को नाप लिया । राजा बलि ने जब राजत्व का साज हटाकर मस्तक झुकाया, तब प्रभु ने उसके आंगन में खड़े रहना अंगीकार किया । यह मानभंग, ऐश्वर्यनाश आदि भगवान की बड़ी कृपा से होता है । 

      जैसा रोग होता है, भगवान वैसी ही दवा देते हैं । बलि का सब कुछ हर लिया पर सुदामा को सबकुछ दे दिया । जो मनुष्य सब प्रकार से अपने को भगवान के चरणों में समर्पण कर देता है, उसके पास भगवान सदा के लिए बस जाते हैं । 

     भगवान के चरणों में दर्पण का चिह्न है । दर्पण में प्रतिबिम्ब दीखता है, उसी तरह यह जगत भगवान का प्रतिबिम्ब है—‘वासुदेव सर्वम्’, सब कुछ, सब जगह भगवान-ही-भगवान हैं । किसी भी छवि को दर्पण अपने भीतर रखता नहीं है वरन् छवि की शोभा को बढ़ाकर देखने वाले को आनन्द प्रदान करता है । भगवान के चरणों में प्रेम रखकर जो भगवान को सुखी करना चाहते हैं, भगवान भी उनकी पूजा स्वीकार कर उन्हें कोटिगुना प्रेम और आनन्द लौटाकर सुखी करते हैं । इसके अतिरिक्त दर्पण के सामने जो जैसा जाता है, दर्पण उसे वैसा ही रूप लौटा देता है । भगवान के चरणों में जो जिस भाव से जाएगा, भगवान उसका वह भाव उसी रूप में प्रदान करेंगे । गीता में भगवान ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ ‘जो जिस भाव से मुझे भजता है, मैं भी उन्हें उसी तरह भजता हूँ ।’

🕊🏹सभी दु:खों का कारण है अभिमान 🕊🏹

भारतीय संस्कृति में स्वयं को बड़ा नहीं माना जाता, बल्कि दूसरों को बड़ा और आदरणीय मानने - की परम्परा रही है । अभिमान (घमण्ड, दर्प, दम्भ) ही सभी दु:खों व बुराइयों का कारण है । जैसे ही मनुष्य के हृदय में जरा-सा भी अभिमान आता है, उसके अन्दर दुर्गुण आ जाते हैं और वह उद्दण्ड व अत्याचारी बन जाता है । लंकापति रावण चारों वेदों का ज्ञाता, अत्यन्त पराक्रमी और भगवान शिव का अनन्य भक्त होते हुए भी अभिमानी होने के कारण समस्त कुल सहित विनाश को प्राप्त हुआ । 

प्रश्न - मिथ्या अहं तो जाता नहीं , फिर "अभिमान कैसे छूटे ?" अभिमान के विषय में रामायण में आया है- 

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। 

जन अभिमान न राखहिं काऊ॥

संसृत मूल, सूलप्रद नाना। 

सकल सोक दायक अभिमाना॥

भावार्थ

गरूड़ जी को श्रीराम कथा सुनाने के बाद, अपने मोह का कारण सुनाते हुए काकभुसुंडि जी कहते हैं - हे पक्षीराज गरुड़ जी ! LORD श्री रामचन्द्र जी का सहज स्वभाव सुनिए - भगवान का स्वभाव है कि वे अपने भक्त में अभिमान नहीं रहने देते; क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों और शोक को देने वाला है । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है; लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है ।

जितनी भी आसुरी-सम्पत्ति है, दुर्गुण-दुराचार हैं, वे सब अभिमान की छाया में रहते हैं। मैं हूँ- इस प्रकार जो अपना होनापन (अहंभाव M/F) है, वह उतना दोषी नहीं है, जितना अभिमान दोषी है। मैं भगवान का अंश हूँ , भगवान का दास हूँ - ऐसा समझना भी निर्दोष है। परन्तु मेरे में गुण हैं, मेरे में योग्यता है, मेरे में विद्या है, मैं बड़ा चतुर हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं नेता हूँ-मैं पैगम्बर हूँ, मैं गुरु हूँ  दूसरों को शिक्षा दे सकता हूँ /समझा सकता हूँ- इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता दीखती है, यह बहुत दोषी है। अपने में विशेषता चाहे भजन-ध्यान से दीखे, चाहे कीर्तन से दीखे, चाहे जप से दीखे, चाहे चतुराई से दीखे, चाहे उपकार (परहित-या सर्वोच्च समाजसेवा Be and Make) करने से दीखे, किसी भी तरह से दूसरों की अपेक्षा, अपने में विशेषता दीखती है तो यह अभिमान है। यह अभिमान बहुत घातक है और इससे बचना भी बहुत कठिन है।

अभिमान जाति को लेकर भी होता है, वर्ण को लेकर भी होता है, आश्रम को लेकर भी होता है, विद्या को लेकर भी होता है, बुद्धि को लेकर भी होता है। कई तरह का अभिमान होता है। मेरे को गीता याद है, मैं गीता पढ़ा सकता हूँ, मैं गीता के भाव विशेषता से समझता हूँ- यह भी अभिमान है। अभिमान बड़ा पतन करने वाला है। जो श्रेष्ठता है, उत्तमता है, विशेषता है, उसको अपना मान लेने से ही अभिमान आता है। यह अभिमान स्वयं के प्रयास से -(अपने उद्योग से) दूर नहीं होता, प्रत्युत भगवान् की कृपा से ही दूर होता है। अभिमान को दूर करने का ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं, त्यों-त्यों अभिमान दृढ़ होता है। अभिमान को मिटाने का कोई उपाय करें तो वह उपाय ही अभिमान बढ़ाने वाला हो जाता है। इसलिये अभिमान से छूटना बड़ा कठिन है! साधक को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिये। कबीरदासजी के शब्दों में–’जहां आपा तहां आपदा’ अर्थात् जब मनुष्य या देवता किसी में भी अभिमान आता है तब उस पर अनेक प्रकार की आपत्तियां आने लगती हैं ।’

साधक को इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अपने में जो कुछ विशेषता आयी है, वह खुद कि नहीं है, प्रत्युत भगवान् से आयी है। इसलिये उस विशेषता को भगवान् की ही समझे, अपनी बिलकुल न समझे। अपने में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह प्रभु की दी हुई है- ऐसा दृढ़तापूर्व मानने से ही अभिमान दूर हो सकता है

मैं जैसा कीर्तन करता हूँ, ( या मैं जैसा बंगला -अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करता हूँ / मैं उसको सर्वोत्तम तरिके से edit करता हूँ) वैसा दूसरा नहीं कर सकता। दूसरे इतने हैं, पर मेरे जैसा करने वाला कोई नहीं है- इस प्रकार जहाँ दूसरे को अपने सामने रखा, अपने भाइयों-बहनों के साथ अपनी तुलना कि - अभिमान आया! साधक को ऐसा मानना चाहिये कि मैं करने वाला नहीं हूँ, प्रत्युत यह तो भगवान् की कृपा से हो रहा है। जो विशेषता आयी है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है। अगर व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उस पर मेरा अधिकार चलता। ऐसा मानने से ही अभिमान से छुटकारा हो सकता है।

भगवान् की कृपा है कि वे किसी का अभिमान रहने नहीं देते। इसलिये अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है। भगवान् विशेष कृपा [सोडियम -डाइजेनिक मेडिसिन] करके चेताते हैं कि तू कुछ भी/ और किसको भी 'अपना' मत मान, तेरा सब काम मैं करूँगा। भगवान् अभिमान को तोड़ देते हैं, उसको ठहरने नहीं देते- यह उनकी बड़ी अलौकिक, विचित्र कृपा है।

जिसमें अभिमान रह जाता है, वह राक्षस हो जाता है। हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, दन्तवक्त्र, शिशुपाल आदि सब में अभिमान था। अभिमान के कारण वे किसी को नहीं गिनते। भगवान् को भी नहीं गिनते! उनके अभिमान को दूर करने के लिये भगवान् अवतार लेते हैं और कृपा करके उनका नाश करते हैं। वास्तव में भगवान् मनुष्य को नहीं मारते हैं, प्रत्युत उसके अभिमान को मारते हैं। जैसे फोड़ा हो जाता है तो वैद्य लोग पहले उसको पकाते हैं, फिर चीरा लगाते हैं। ऐसे ही भगवान् पहले अभिमान को बढ़ाते हैं, फिर उसका नाश करते हैं। इस विषय में वे किसी का कायदा नहीं रखते।

भगवान् का स्वभाव बड़ा विचित्र है। दूसरे मनुष्य तो हमारा कुछ भी उपकार करते हैं तो एहसान जनाते हैं कि तेरे को मैंने ऊँचा बनाया! पर भगवान् सब कुछ देकर भी कहते हैं- ‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! भगवान यह नहीं कहते कि मैंने तेरे को ऊँचा बनाया है, प्रत्युत खुद उसके दास बन जाते हैं। इतना ही नहीं, भगवान उसको पता ही नहीं चलने देते कि मैंने तेरे को दिया है। मनुष्य के पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ है, वह सब भगवान् का ही दिया हुआ है। वे इतना छिपकर देते हैं कि मनुष्य इन वस्तुओं को अपना ही मान लेता है कि मेरा ही मन है, मेरी ही बुद्धि है, मेरी ही योग्यता है, मेरी ही सामर्थ्य है, मेरी ही समझ है। यह तो देने वाले की विलक्षणता है कि मिली हुई चीज अपनी ही मालूम देती है। अगर आँखें अपनी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो? आँखों में कमजोरी आ गयी तो उसको ठीक कर लो। अगर शरीर अपना है तो उसको बीमार मत होने दो, मरने मत दो

देने वाले कि इतनी विचित्रता है कि वे यह जनाते ही नहीं कि मेरा दिया हुआ है। इसलिये मनुष्य मान लेता है कि मैं समझदार हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं लेखक हूँ आदि। वह अभिमान कर लेता है कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना भजन करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना पाठ करता हूँ आदि। विचार करना चाहिये कि यह किस शक्ति से कर रहा हूँ? यह शक्ति कहाँ से आयी है? अर्जुन वही थे, गाण्डीव धनुष और बाण भी वही थे, पर डाकू लोग गोपियों को ले गये, अर्जुन कुछ नहीं कर सके- ‘काबाँ लूटी गोपिका, वे अर्जुन वे बाण’। अर्जुन ने महाभारत-युद्ध में विजय कर ली तो यह उनका बल नहीं था, प्रत्युत जो उनके सारथि बने थे, उन भगवान श्रीकृष्ण का बल था। गीता में भगवान् ने कहा भी है- ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ ‘ये सभी मेरे द्वारा पहले से मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम निमित्तमात्र बन जाओ।’ [मैं कौन हूँ? मैं पॉट की यह 'मैं' (M/F) चेतना नहीं हूं, बल्कि एक चेतना के रूप में, मैं 'वह' भगवान श्री रामकृष्ण हूं, लेकिन फिर भी मां काली द्वारा मुझे जब तक इस शरीर -(M/F) पॉट में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है - मैं उनका दास हूं - माँ सारदा देवी का प्यारा पुत्र हूँ, और स्वामी विवेकानन्द का अनुज हूँ ! जब अपने को मैं देह दृष्टि से देखता तो मैं ठाकुर का सेवक हूँ , माँ सारदा देवी का पुत्र हूँ और स्वामीजी का अनुज हूँ ! जीव दृष्टि से ठाकुर (विष्णु-ईश्वरकोटि ) का अंश हूँ। और आत्मदृष्टि से मैं वही हूँ ! ]

      सन्तों की वाणी में एक बड़ी विचित्र बात आयी है कि भगवान् ने संसार को मनुष्य के लिये बनाया और मनुष्य को अपने लिये बनाया। तात्पर्य है कि मनुष्य मेरी भक्ति करेगा तो संसार की सब वस्तुएँ उसको दूँगा! उसको किसी बात की कमी रहेगी ही नहीं! सदा के लिये कमी मिट जायगी! पर मनुष्य भक्ति न करके अभिमान करने लग गया। लेकिन भगवान को अभिमान सुहाता नहीं-  

" ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च।" 

(ईश्वरस्याप्यभिमान द्वेषित्वात् दैन्यप्रियत्वाच्च)

(नारदभक्तिसूत्र २७)

अर्थात ‘ईश्वर भी अभिमान से द्वेष करते हैं, और उन्हें दैन्य से प्रियभाव है।’  दैन्य का अर्थ होता है-अपने में सभी अभावों का अनुभव करना। जो व्यक्ति संसार के चकाचौंध में तन्मय रहता है उसे भगवद् भावना की अनुभूति नहीं हो सकती।’ जगत का कोई भी सौंदर्य स्थाई नहीं है, वह तो क्षणभंगुर है । रामभक्ति की मधुरता का अनुभव तो तब होता है जब संसार की कटुता का अनुभव होने लग जाय । और संसार में कटुता का अनुभव तब होता है जब ईश्वर की कृपा (विपदा)  का सकारात्मक परिणाम-  ईश्वर का नाम-स्मरण पग पग पर,  दिखने लगता है । उस समय जगत का कोई प्रपंञ्च (नाता -रिश्ता) अच्छा नहीं लगता है । तब जीवन में श्री राम जी के अतिरिक्त कुछ भी 'ध्येय' और 'ज्ञेय'  नहीं रहता। सन्त तुलसीदास जी कहते हैं कि - 

तुलसी जौ लौं विषय की, सुधा माधुरी मीठि। 

तौ लौ सुधा सहस्र सम, राम भगति सुठि सीठि॥ (दोहावली)

अर्थात जब तक व्यक्ति को विषयों की मिथ्या माधुरी मीठी लगती है, तब तक श्रीराम की भक्ति अमृत से भी हज़ार गुणित मधुर होने के बाद भी बिल्कुल फीकी लगती है।

 [जब तक व्यक्ति को संसार के विषयों की ऐषणा (कामिनी -कांचन या बैंक F/D और नाम-यश बड़ा आदमी कहाने) में मिथ्या माधुरी का अनुभव (कुत्ता के अपनी हड्डी चाटने में जैसे असत नहीं परिवर्तनशील होने के कारण -झूँठे विषयसुख में, मिठास का अनुभव)  होता रहता है, तब तक अमृत से भी हजार गुणित मधुर राम भक्ति, भी शुष्क लगती है।] केवल भगवान का सौंदर्य ही नित्य और सदैव बढ़ने वाला है । भगवान को पाने के लिए दैन्य की आवश्यकता होती है । 

दैन्य का अर्थ है दीनता अर्थात् अभिमान-शून्यता । मनुष्य में तरह-तरह के अभिमान भरे पड़े हैं । जैसे–सौंदर्य का अभिमान, पद का अभिमान, ज्ञान का, धन का, त्याग का, सेवा का और न जाने कितने तरह के अभिमान । जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है । शुद्ध प्रेम में विकार-वासना का अभाव होता है । भगवान की सेवा करते समय आँख और मन को आराध्य में ही पिरोये रखना चाहिए । जो भगवान के सिवाय अन्य किसी वस्तु मे आनन्द ढूंढ़ता है, वह सच्चा सुखी नहीं हो सकता है । इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना। बस भगवान ऐसे ही दैन्य के महत्व का ज्ञानी -भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं । 

भगवान् अभिमान को दूर करते हैं, पर मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है! अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है! इसलिये हरदम ‘हे नाथ! हे मेरे नाथ!’ पुकारते रहो और भीतर से इस बात का खयाल रखो कि जो कुछ विशेषता आयी है, भगवान् से आयी है। यह अपने घर की नहीं है। ऐसा नहीं मानोगे तो बड़ी दुर्दशा होगी! यह मानव जन्म भी भगवान् का ही दिया हुआ है। भगवान् ने मनुष्य को तीन शक्तियाँ दी हैं- करने की शक्ति, जानने की शक्ति और मानने की शक्ति करने की शक्ति दूसरों का हित करने के लिये दी है, जानने की शक्ति अपने-आपको जानने के लिये दी है और मानने की शक्ति भगवान् को मानने के लिये दी है। परन्तु गलती तब होती है, जब मनुष्य इन तीनों शक्तियों को अपने लिये लगा देता है। इसीलिये वह दुःख पा रहा है। बल, बुद्धि, योग्यता आदि अपने दीखते ही अभिमान आता है। मैं ब्राह्मण हूँ- ऐसा मानने पर ब्राह्मणपने का अभिमान आ जाता है। मैं धनवान् हूँ- ऐसा मानने पर धन का अभिमान आ जाता है। मैं विद्वान् हूँ- ऐसा मानने पर विद्या का अभिमान आ जाता है। जहाँ मैं पन का आरोप किया, वहीं अभिमान आ जाता है। इसलिये भीतर से हरदम भगवान को (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव को) पुकारते रहो। 

        अपने में योग्यता प्रत्यक्ष दीखती हैं, इसलिये अभिमान से बचना बहुत कठिन होता है। मनुष्य को प्रत्यक्ष दीखता है कि मैं अधिक पढ़ा-लिखा हूँ, मैं गीता जानने वाला हूँ, मैं कीर्तन करने वाला हूँ, इसलिये वह फँस जाता है। अगर यह दीखने लग जाय कि यह सब केवल भगवान् की कृपा से ही हो रहा है तो निहाल हो जाय! जिनको अपने स्वरुप का चेत न हो, उन पर क्रोध नहीं करना चाहिए 'दया' आनी चाहिये।- वे भी चेतेंगे, पर देरी से! (..... दया नहीं सेवा, शिव ज्ञान से  जीव सेवा- अर्थात ठाकुर-माँ -स्वामीजी का यंत्र बनकर सभी को 'उत्तिष्ठत जाग्रत' मंत्र सुनाते रहो!)

राजा शील की पुत्री विश्व मोहिनी के स्वयंवर में अचानक नारद पहुंच जाते हैं। विश्व मोहिनी की सुंदरता देखकर नारद उस पर मोहित हो जाते हैं और शादी करने का निश्चय कर भगवान विष्णु से उनका रूप मांगते हैं। भगवान विष्णु उन्हें बंदर का रूप दे देते हैं। नारद बंदर का रूप लेकर स्वयंवर में पहुंचते हैं तो सभी लोग उनका उपहास उड़ाने लगते हैं। भगवान विष्णु जब सुंदर राजकुमार का रूप धारण कर स्वयंवर में पहुंचते हैं तो विश्व मोहिनी उनके गले में वरमाला डाल देती हैं। इससे नाराज होकर नारद भगवान विष्णु को श्राप देते हुए कहा कि उन्होंने उन्हें जिस बंदर का रूप दिया है, वही बंदर एक दिन उनके काम आएगा। वह पत्नी की तलाश में जंगलों में भटकेंगे। भगवान विष्णु नारद के श्राप को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। भगवान विष्णु ने यह भी कहा कि उन्होंने यह सब विश्व मोहिनी का स्वयंवर नारद मोह भंग करने के लिए, तथा विश्व के कल्याण के लिए आयोजित किया था। अगर नारद जी नारायण की भक्ति छोड़ विश्व मोहिनी के मोह में फंस जाते तो विश्व का कल्याण दांव पर लग जाता। यह सुनकर नारद लज्जित हुए और उन्होंने भगवान विष्णु से माफी मांगी। नारद जी महाराज भगवान् के भक्त थे, पर उनको भी अभिमान हो गया। इतना अभिमान हो गया कि भगवान् को ही शाप दे दिया-

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी।

करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥

मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी।

नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥

अर्थ : तुमने हमारा रूप बंदर का-सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होगे। तात्पर्य है कि नारद जी का शाप लोगों के कल्याण का उपाय हो गया! लोग कहते हैं कि भगवान ने दुःख भेज  दिया! पर भगवान् के खजाने में दुःख है ही नहीं, फिर वे कहाँ से दुःख लाकर आपको देंगे? भगवान् और सन्त कृपा-ही-कृपा करते हैं, इसलिये इनका संग छोड़ना नहीं चाहिये।

      अतः सब कुछ भगवान् के अर्पण कर दो। मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि को भगवान् का मान लो तो सब शुद्ध निर्मल हो जायँगे। जहाँ अपना माना, वहीं अशुद्ध हो जायँगे और अभिमान आ जायगा।

श्री नाम वंदना और नाम महिमा : अपने-अपने जीवन को देखें तो मालूम होता है कि हम कैसे थे और भगवान् ने कैसा बना दिया! गोस्वामी जी ने कहा है-

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी, तुलसीदासु॥

भावार्थ:-कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया26॥

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