परिच्छेद~ ८७.
(१)
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆🙏कुण्डलिनी और षट्चक्र-भेद🔆🙏
[Yoga and the six centres]
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में दोपहर के भोजन के बाद भक्तों के साथ बैठे हैं । दिन के दो बजे होंगे। शिवपुर से बाउलों (एक तरह के गानेवालों) का दल और भवानीपुर से भक्तगण आये हुए हैं। श्रीयुत राखाल, लाटू और हरीश आजकल हमेशा यहीं रहते हैं । कमरे में बलराम और मास्टर हैं।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে মধ্যাহ্ন সেবার পর ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। বেলা দুইটা হইবে। শিবপুর হইতে বাউলের দল ও ভবানীপুর হইতে ভক্তেরা আসিয়াছেন। শ্রীযুক্ত রাখাল, লাটু, হরিশ, আজকাল সর্বদাই থাকেন। ঘরে বলরাম, মাস্টারও আছেন।
SRI RAMAKRISHNA was sitting in his room in the temple garden at Dakshineswar after his midday meal. A party of Bauls from Shibpur, several devotees from Bhawanipur, Balaram, and M. were in the room. Rakhal, Latu, and Harish were then living with the Master. They too were present.
आज श्रावण की शुक्ला द्वादशी है, 3 अगस्त, 1884 । झूलनयात्रा का दूसरा दिन है । कल श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र के घर गये थे । वहाँ शशधर आदि भक्त भी आपके दर्शन करने के लिए आये थे ।
[আজ রবিবার, ৩রা অগস্ট, ১৮৮৪, ২০শে শ্রাবণ। শুক্লা দ্বাদশী, ঝুলনযাত্রার দ্বিতীয় দিন। গতকল্য ঠাকুর সুরেন্দ্রের বাড়িতে গিয়াছিলেন, — যেখানে শশধর প্রভৃতি ভক্তেরা তাঁহাকে দর্শন করিয়াছিলেন।
श्रीरामकृष्ण शिवपुर के बाऊल -सम्प्रदाय के भजन-गायकों से बातचीत कर रहे हैं ।
[ঠাকুর শিবপুরের ভক্তদের সম্বোধন করিয়া কথা কহিতেছেন —
The Master began the conversation by addressing the Baul musicians from Shibpur.
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🙏जब साध्य-साधना से कुण्डलिनी शक्ति जागती है-अद्भुत ज्योति के दर्शन होते हैं 🙏
श्रीरामकृष्ण - जब तक मन 'कामिनी और कांचन' में आसक्त बना रहेगा , तब तक योग नहीं होता । साधारण जीवों (worldly man) का मन तीन निचले केन्द्रों (sexual organ) लिंग, गुदा और नाभि (navel) में रहता है । बहुत प्रयास और आध्यात्मिक साधना करने के बाद कहीं कुंडलिनी जाग्रत होती है। मेरुदण्ड (spinal column-रीढ़ की हड्डी) में तीन नाड़ियाँ होती हैं, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना । सुषुम्ना के भीतर छ: पद्म (or centres) होते हैं । सब से नीचे वाले पद्म को मूलाधार कहते हैं । उसके ऊपर हैं क्रमशः स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा। इन्हें षट्चक्र कहते हैं ।
"Yoga is not possible if the mind dwells on 'woman and gold'. The mind of a worldly man generally moves among the three lower centres: those at the navel, at the sexual organ, and at the organ of evacuation. After great effort and spiritual practice the Kundalini is awakened. According to the yogis there are three nerves in the spinal column: Ida, Pingala, and Sushumna. Along the Sushumna are six lotuses, or centres, the lowest being known as the Muladhara. Then come successively Svadhisthana, Manipura, Anahata, Visuddha, and Ajna. These are the six centres.
{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকলে যোগ হয় না। সাধারণ জীবের মন লিঙ্গ, গুহ্য ও নাভিতে। সাধ্য-সাধনার পর কুলকুন্ডলিনী জাগ্রতা হন। ইড়া, পিঙ্গলা আর সুষুম্না নাড়ী; — সুষুম্নার মধ্যে ছটি পদ্ম আছে। সর্বনিচে মূলাধার, তারপর স্বাধিষ্ঠান, মণিপুর, অনাহত, বিশুদ্ধ ও আজ্ঞা। এইগুলিকে ষট্চক্র বলে।
[मंत्र दीक्षा और साधना के बाद] "कुण्डलिनी शक्ति जब जागती है तब वह मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, इन सब पद्मों को क्रमशः पार करती हुई हृदय के अनाहत पद्म में आकर विश्राम करती है । जब साधक का मन लिंग, गुदा और नाभि से हट जाता है, तब उसे दिव्य चेतना की जागृति का अनुभव होता है और 'अद्भुत ज्योति' (Ultraviolet color???) के दर्शन होते हैं। साधक आश्चर्यचकित होकर ज्योति देखता है और कहता है, 'यह क्या है, यह क्या है?? !'
[After Mantra initiation and Sadhna] The Kundalini, when awakened, passes through the lower centres and comes to the Anahata, which is at the heart. It stays there. At that time the mind of the aspirant is withdrawn from the three lower centres. He feels the awakening of Divine Consciousness and sees Light. In mute wonder he sees that radiance and cries out: 'What is this? What is this?'
“কুলকুণ্ডলিনী জাগ্রতা হলে মূলাধার, স্বাধিষ্ঠান, মণিপুর — এই সব পদ্ম ক্রমে পার হয়ে হৃদয়মধ্যে অনাহত পদ্ম — সেইখানে এসে অবস্থান করে। তখন লিঙ্গ, গুহ্য, নাভি থেকে মন সরে গিয়ে চৈতন্য হয় আর জ্যোতিঃদর্শন হয়। সাধক অবাক হয়ে জ্যোতিঃ দেখে আর বলে, ‘একি!’ ‘একি!’}
"छहों चक्रों का भेद हो जाने पर कुण्डलिनी सहस्रार पद्म में पहुँच जाती है; तब समाधि होती है ।
[“ষটচক্র ভেদ হলে কুণ্ডলিনী সহস্রার পদ্মে গিয়ে মিলিত হন। কুণ্ডলিনী সেখানে গেলে সমাধি হয়।"
After passing through the six centres, the Kundalini reaches the thousand-petalled lotus known as the Sahasrara, and the aspirant goes into samadhi.
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆वेदमतानुसार सहस्रार के साथ षट्चक्र को मिलाकर सप्तभूमि कहा जाता है🔆
"वेदों के मत से ये सब चक्र एक एक भूमि हैं । इस तरह सात भूमियाँ है । हृदय चौथी भूमि है । तंत्र मत के अनुसार इस केंद्र में अनाहत नामक पद्म है, जिसकी बारह पंखुड़ियाँ हैं। अर्थात हृदयवाले अनाहत-पद्म के बारह दल हैं ।{ गुरुदेव के निर्देशानुसार इसी ह्रदय भूमि के अष्टदल रक्तवर्ण कमल पर हमारे इष्ट ठाकुदेव विराजमान हैं !}
"According to the Vedas these centres are called 'bhumi', 'planes'. There are seven such planes. The centre at the heart corresponds to the fourth plane of the Vedas. According to the Tantra there is in this centre a lotus called Anahata, with twelve petals.“
{বেদমতে এ-সব চক্রকে — ‘ভূমি’ বলে। সপ্তভূমি। হৃদয় — চতুর্থভূমি। অনাহত পদ্ম, দ্বাদশ দল।}
"विशुद्ध-चक्र पाँचवीं भूमि है । इस चक्र का स्थान कण्ठ है । वह पद्म सोलह दलों का है । अर्थात इस चक्र का स्थान (केन्द्र) कण्ठ है और वह सोलह पंखुड़ियों वाला कमल है। जब मन यहाँ आता है तब केवल ईश्वरी प्रसंग कहने और सुनने के लिए प्राण व्याकुल होते हैं । जिसका मन इस चक्र पर आया है, उसके सामने अगर विषय की बातें - कामिनी और कांचन की बातें होती हैं, तो उसे बड़ा कष्ट होता है । उस तरह की बातें सुनकर वह वहाँ से उठ जाता है ।
The centre known as Visuddha is the fifth plane. This centre is at the throat and has a lotus with sixteen petals. When the Kundalini reaches this plane, the devotee longs to talk and hear only about God. Conversation on worldly subjects, on 'woman and gold', causes him great pain. He leaves a place where people talk of these matters.
[“বিশুদ্ধ চক্র পঞ্চমভূমি। এখানে মন উঠলে কেবল ঈশ্বরকথা বলতে আর শুনতে প্রাণ ব্যাকুল হয়। এ-চক্রের স্থান কণ্ঠ। ষোড়শ দল পদ্ম। যার এই চক্রে মন এসেছে, তার সামনে বিষয়কথা — কামিনী-কাঞ্চনের কথা — হলে ভারী কষ্ট হয়! ওরূপ কথা শুনলে সে সেখান থেকে উঠে যায়।"
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆छठी भूमि -आज्ञाचक्र-दो पंखुड़ियों वाला कमल दोनों भौंहों के बीच।🔆
"इसके बाद छठी भूमि है आज्ञाचक्र । यह दो दलों का है । कुण्डलिनी जब यहाँ पहुँचती है, तब ईश्वरी रूप के दर्शन होते हैं । परन्तु फिर भी कुछ ओट रह जाती है ( भक्त और भगवान के बीच थोड़ा सा अवरोध (सन्देह) बना रहता है।) , जैसे लालटेन के भीतर की बत्ती, जान तो पड़ता है कि हम बत्ती पकड़ सकते हैं, परन्तु शीशे के भीतर है - एक पर्दा है, इसलिए छुई नहीं जाती ।
"Then comes the sixth plane, corresponding to the centre known as Ajna. This centre is located between the eyebrows and it has a lotus with two petals. When the Kundalini reaches it, the aspirant sees the form of God. But still there remains a slight barrier between the devotee and God. It is like a light inside a lantern. You may think you have touched the light, but in reality you cannot because of the barrier of glass.
{“তারপর ষষ্ঠভূমি। আজ্ঞা চক্র — দ্বিদল পদ্ম। এখানে কুলকুণ্ডলিনী ঈশ্বরের রূপ দর্শন হয়। কিন্তু একটু আড়াল থাকে — যেমন লন্ঠনের ভিতর আলো, মনে হয় আলো ছুঁলাম, কিন্তু কাচ ব্যবধান আছে বলে ছোঁয়া যায় না।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆सप्तम भूमि सहस्रार -शिव शक्ति मिलन का स्थान है🔆
"इससे आगे चलकर सातवीं भूमि (तल) है सहस्रार, जो तंत्र के अनुसार हजार पंखुड़ियों वाले कमल का स्थान है; जब कुंडलिनी वहां पहुंचती है, तो साधक समाधि में चला जाता है। उस सहस्रार कमल में परम् तत्व (the Absolute-इन्द्रियातीत सत्य) सच्चिदानन्द शिव हैं, वे शक्ति के साथ [ प्रलयरूपिणी माँ काली (समय) के साथ] मिलित हो जाते हैं। इसे ही शिव (कर्पूरगौरं -कपूर के समान सफेद) और शक्ति (श्यामा काली) का मेल कहते हैं !
[शिव शक्ति प्वाइंट : ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’। शिव का अर्थ ही है कल्याण! हमारा संकल्प शिव हो। मंगलकारी, सुखकारी व विधेयात्मक संकल्प हो।' शिव संकल्प में प्राणिमात्र के लिए कल्याण का चिंतन है। स्वभावतः जब हम सबके कल्याण की कामना करते हैं, स्वयं का कल्याण तो हो ही जाता है। तो मनुष्य के चिंतन की धारा कभी अशिव नहीं हो। चंद्रमा पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चंद्रयान-3 मिशन का लैंडिंग स्थल है। 23 अगस्त, 2023 को चंद्रयान-3 का लैंडर विक्रम, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव इसी जगह पर उतरा था। इसके साथ ही भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला पहला देश और चंद्रमा की सतह पर सफल सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला चौथा देश बन गया। इस अवसर पर भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, "मानवीय संकल्प शिव की अवधारणा का अभिन्न अंग है और शक्ति से ही हमें उस संकल्प को पूरा करने की क्षमता मिलती है। चंद्रमा पर शिव शक्ति प्वाइंट भारत की एकता का एहसास कन्याकुमारी से हिमालय तक कराता है।" ]
"And last of all is the seventh plane, which, according to Tantra, is the centre of the thousand-petalled lotus. When the Kundalini arrives there, the aspirant goes into samadhi. In that lotus dwells Satchidananda Siva, the Absolute. There Kundalini, the awakened Power, unites with Siva. This is known as the union of Siva and Sakti.
{“তারপর সপ্তভূমি। সহস্রার পদ্ম। সেখানে কুণ্ডলিনী গেলে সমাধি হয়। সহস্রারে সচ্চিদানন্দ শিব আছেন — তিনি শক্তির সহিত মিলিত হন। শিব-শক্তির মিলন!
" जब कुंडलिनी सहस्रार तक उठती है और मन समाधि में चला जाता है, तो साधक (अहं नहीं जीवात्मा?) बाह्य जगत की सारी चेतना (consciousness -होश) खो देता है। अब वह अपने भौतिक शरीर को बनाए नहीं रख सकता। मुख में दूध डालने से दूध गिर जाता है । इस अवस्था में रहने पर इक्कीस दिन में मृत्यु हो जाती है । 'काले पानी ' में जाने पर जहाज फिर नहीं लौटता ।
"When the Kundalini rises to the Sahasrara and the mind goes into samadhi, the aspirant loses all consciousness of the outer world. He can no longer retain his physical body. If milk is poured into his mouth, it runs out again. In that state the life-breath lingers for twenty-one days and then passes out. Entering the 'black waters' of the ocean, the ship never comes back.
[“সহস্রারে মন এসে সমাধিস্থ হয়ে আর বাহ্য থাকে না। সে আর দেহরক্ষা করতে পারে না। মুখে দুধ দিলে গড়িয়ে যায়। এ অবস্থায় থাকলে একুশদিনে মৃত্যু হয়। কালাপানিতে গেলে জাহাজ আর ফেরে না।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🙏केवल ईश्वरकोटि और अवतारी पुरुष ही इस अवस्था- सहस्रार से उतर सकते हैं🙏
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
"समाधि के बाद कोई कोई इच्छापूर्वक 'विद्या का मैं' रख छोड़ते हैं। उस 'मैं' में कोई मजबूत पकड़ नहीं है, वह 'मैं' की एक रेखा मात्र है ।
After attaining samadhi some souls of their own accord keep the 'ego of Knowledge'. But that ego does not create any attachment. It is like a line drawn on the water.
[“সমাধির পর ‘বিদ্যার আমি’ কেউ কেউ ইচ্ছা করে রেখে দেন। সে আমির আঁট নাই। — রেখা মাত্র।"
" हनुमान ने साकार और निराकार के दर्शनों के बाद 'दास मैं' रखा था । नारद, सनक, सनन्द, सनातन, सनत्कुमार जैसे महान ऋषियों ने भी ब्रह्म-साक्षात्कार के बाद 'दास मैं', 'भक्त मैं' रख छोड़ा था । ये सब जहाज की तरह हैं । स्वयं भी पार जाते हैं और साथ बहुत से आदमियों को भी पार ले जाते हैं । (क्या ठाकुर इस तरह अपनी अवस्था का ही वर्णन कर रहे हैं?)
"Hanuman kept the 'servant ego' after realizing God in both His Personal and His Impersonal aspects. He thought of himself as the servant of God. The great sages, such as Narada, Sanaka, Sananda, Sanatana, and Sanatkumara, after attaining the Knowledge of Brahman, kept the 'servant ego' and the 'ego of Devotion'. They are like big steamships, which not only cross the ocean themselves but carry many passengers to the other shore.
{“হনুমান সাকার-নিরাকার সাক্ষাৎকারের পর ‘দাস আমি’ রেখেছিলেন। নারদাদি — সনক, সনন্দ, সনাতন, সনৎকুমার, এঁরাও ব্রহ্মজ্ঞানের পর ‘দাস আমি’ ‘ভক্তের আমি’ রেখেছিলেন। এঁরা, জাহাজের মতো, নিজেও পারে যান, আবার অনেক লোককে পার করে নিয়ে যান।” ঠাকুর এইরূপে কি নিজের অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন? বলিতেছেন —
(श्री रामकृष्ण कह रहे हैं) " परमहंस निराकारवादी भी हैं और साकारवादी भी । निराकारवादी जैसे त्रैलंगस्वामी। त्रैलंग स्वामी निराकार सत्य में विश्वास करते थे। इनके जैसे--'आप्तसारा परमहंस' केवल अपने ही हित के लिए चिन्ता करते हैं । यदि उन्हें स्वयं को इष्ट-प्राप्ति हो जाती है तो वे उसी से सन्तुष्ट हो जाते हैं ।
"There are two classes of paramahamsas, one affirming the formless Reality and the other affirming God with form. Trailanga Swami believed in the formless Reality. Paramahamsas like him care for their own good alone; they feel satisfied if they themselves attain the goal.
{ “পরমহংস — নিরাকারবাদী আবার সাকারবাদী। নিরাকারবাদী যেমন ত্রৈলঙ্গ স্বামী। এঁরা আপ্তসারা — নিজের হলেই হল।"
"ब्रह्मज्ञान के बाद भी जो लोग साकारवादी होते हैं, वे लोकशिक्षा के लिए भक्ति लेकर रहते हैं । वे उस घड़े के सदृश है जो मुँह तक लबालब भरा है । उसमें से थोड़ा पानी किसी दूसरे बर्तन में भी डाला जा सकता है ।
"But those paramahamsas who believe in God with form. keep the love of God even after attaining the Knowledge of Brahman, so that they may teach spiritual truth to others. They are like a pitcher brimful of water. Part of the water may be poured into another pitcher.
{“ব্রহ্মজ্ঞানের পরও যারা সাকারবাদী তারা লোকশিক্ষার জন্য ভক্তি নিয়ে থাকে। যেমন কুম্ভ পরিপূর্ণ হল, অন্য পাত্রে জল ঢালাঢালি করছে।
"ये सिद्ध आत्माएँ दूसरों को उन विभिन्न आध्यात्मिक अनुशासनों का प्रशिक्षण देती हैं जिनके द्वारा उन्होंने खुद ईश्वर को प्राप्त किया है। इन लोगों ने जिन साधनाओं के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया है, उनकी बातें लोक-शिक्षा के लिए कही जाती हैं । इस तरह लोगों का कल्याण होता है ।
पानी पीने के लिए बड़ी मेहनत करके कुआँ खोदा गया, फावड़ा और कुदार लेकर । कुआँ खुद जाने पर कोई कोई गैंता , कुदार आदि उसी में छोड़ देते हैं, क्योंकि फिर खोदने की कोई जरूरत नहीं रही । परन्तु कोई कोई कन्धे में डाले फिरते हैं, दूसरे के उपकार के लिए ।
These perfected souls describe to others the various spiritual disciplines by which they have realized God. They do this only to teach others and to help them in spiritual life. With great effort men dig a well for drinking-water, using spades and baskets for the purpose. After the digging is over, some throw the spades and other implements into the well, not needing them any more. But some put them away near the well, so that others may use them.]
[“এরা যে-সব সাধনা করে ভগবানকে লাভ করেছে, সেই সকল কথা লোকশিক্ষার জন্য বলে — তাদের হিতের জন্য। জলপানের জন্য অনেক কষ্টে কূপ খনন করলে — ঝুড়ি-কোদাল লয়ে। কূপ হয়ে গেল, কেউ কেউ কোদাল, আর আর যন্ত্র কূপের ভিতরেই ফেলে দেয় — আর কি দরকার! কিন্তু কেউ কেউ কাঁধে ফেলে রাখে, পরের উপকার হবে বলে।
"कोई आम छिपाकर खाता है, फिर मुँह पोंछकर लोगों से मिलता है, और कोई कोई दूसरे को देकर खाते हैं, लोक-शिक्षा के लिए भी और लोगों को स्वाद चखाने के लिए भी । मैं चीनी खाना अधिक पसन्द करता हूँ, चीनी बन जाना नहीं ।
"Some eat mangoes secretly and remove all trace of them by wiping their mouths with a towel. But some share the fruit with others. There are sages who, even after attaining Knowledge, work to help others and also to enjoy the Bliss of God in the company of devotees. 'I' want to eat sugar. I don't want to be sugar.'}
{“কেউ আম লুকিয়ে খেয়ে মুখ পুঁছে! কেউ অন্য লোককে দিয়ে খায় — লোকশিক্ষার জন্য আর তাঁকে আস্বাদন করবার জন্য। ‘চিনি খেতে ভালবাসি’।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆वृन्दावन की गोपियाँ सत्यार्थी नहीं कृष्ण की भक्त थीं 🔆
“वृंदावन की गोपियों को भी ब्रह्मज्ञान (परम् सत्य या इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) प्राप्त हुआ था ; लेकिन वे इसकी खोज में नहीं थीं । गोपियों को भी ब्रह्मज्ञान हुआ था, परन्तु वे ब्रह्मज्ञान नहीं चाहती थीं । वे ईश्वर का सम्भोग करना चाहती थीं,कोई वात्सल्यभाव से, कोई सख्यभाव से, कोई मधुरभाव से और कोई दासीभाव से ।”
"The gopis of Vrindavan, too, attained the Knowledge of Brahman; but they were not seeking It. They wanted to enjoy God, looking on themselves as His mother, His friend, His handmaid, or His lover."
{“গোপীদেরও ব্রহ্মজ্ঞান ছিল। কিন্তু তারা ব্রহ্মজ্ঞান চাইত না। তারা কেউ বাৎসল্যভাবে, কেউ সখ্যভাবে, কেউ মধুরভাবে, কেউ দাসীভাবে ঈশ্বরকে সম্ভোগ করতে চাইত।”}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🙏🙏'उन्हें' पा जाने के गीत गाओ - आनन्द के गाने 🙏🙏
["भय पेये -भजना, प्रवर्तकेर भाव " -भयभीत होकर भक्ति करना नौसिखिया का काम है ! "ताके लाभ करार गान गाओ !" -एकत्व तथा अन्तर्निहित दिव्यत्व को व्यक्त करने वाले गीत गाओ!]
शिवपुर के बाऊल लोग गोपीयन्त्र (तार वाला वाद्य यंत्र ) बजाकर गा रहे हैं । पहले गाने में कह रहे हैं, "हम लोग पापी हैं, हमारा उद्धार करो।"
The Bauls from Shibpur began to sing to the accompaniment of a stringed instrument. A line in the first song was: We are sinners: redeem us, O merciful Lord!
[শিবপুরের ভক্তেরা গোপীযন্ত্র লইয়া গান করিতেছেন। প্রথম গানে বলিতেছেন, “আমরা পাপী, আমাদের উদ্ধার কর।”
श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - भय दिखाकर या भय खाकर ईश्वर की भक्ति करना प्रवर्तकों का भाव है । उन्हें पा जाने के गीत गाओ । आनन्द के गाने ।
[विवेकज आनन्द के गाने - विवेक-स्रोत उद्घाटित होने के बाद विषयानन्द में आसक्ति खत्म होने से निरंतर प्राप्त होने वाली नाम -मदिरा के कीर्तन में मस्त हो जाओ ।]
MASTER (to the devotees): "It is the attitude of a beginner to worship God out of fear. Please sing about God-realization — songs expressing divine joy.
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — ভয় দেখিয়ে — ভয় পেয়ে — ভজনা, প্রবর্তকের ভাব। তাঁকে লাভ করার গান গাও। আনন্দের গান।
(राखाल से) "उन्होंने उस दिन नवीन नियोगी के घर पर कितना अच्छा भजन गाया था : – “नाम की मदिरा पीकर मस्त हो जाओ । धार्मिक गीत गाते समय, ईश्वर के समक्ष हमेशा अपनी चिंताओं का जिक्र नहीं करना चाहिए। ईश्वर का भजन करने का अर्थ है , ईश्वर को लेकर आनन्द करना, उन्हें लेकर मस्त हो रहना।"
(To Rakhal) "How well they sang that song the other day at Nabin Niyogi's house: 'Be drunk, O mind, be drunk with the Wine of Heavenly Bliss'! While singing religious songs one should not constantly refer to one's worries. One should rather feel joyous and ecstatic as one chants God's name."
[ (রাখালের প্রতি) নবীন নিয়োগীর বাড়িতে সেদিন কেমন গান করছিল —হরিনাম মদিরায় মত্ত হও —“কেবল অশান্তির কথা ভাল নয়। তাঁকে লয়ে আনন্দ — তাঁকে লয়ে মাতোয়ারা হওয়া।”
शिवपुर के भक्त - क्या आपका एक-आध गाना न होगा ?
A DEVOTEE: "Sir, won't you sing?"
[শিবপুরের ভক্ত — আজ্ঞা, আপনার গান একটি হবে না?
श्रीरामकृष्ण - मैं क्या गाऊँगा ? अच्छा, जब भाव आ जायगा तब मैं गाऊँगा ।
MASTER : "What shall I sing? Well, I may sing when the spirit moves me."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি গাইব? আচ্ছা, যখন হবে গাইব।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🙏🙏श्यामा माँ ने कैसी अद्भुत कल (मशीन) बनायी है !!🙏🙏
[मनुष्य शरीर रूपी कल (मशीन) स्वचालित कल नहीं माँ काली द्वारा संचालित कल है !]
[श्यामा माँ कि कल करेछे, काली माँ कि कल करेछे।
वे उसके भीतर बैठकर घुमाती है - कल कहती है -मैं स्वयं घूम रही हूँ !]
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण गाने लगे । गाते हुए आप ऊर्ध्वदृष्टि हैं । आपने कई गाने गाये -
गीत - कौपिन दाओ कांगाल बेशे बृजे जाई हे भारती।
[গান - কৌপিন দাও কাঙালবেশে ব্রজে যাই হে ভারতী।
गीत - गौरांग प्रेमेर ढेउ लेगेछे गाय।
गोरा के उन्मादपूर्ण प्रेम की तरंगों को देखो; उनके प्रेम-ज्वार में सारा ब्रह्मांड डूबा हुआ है! और उस प्रेम की तरंगों में मैं भी डूब जाने को तरसता हूँ। मेरे मित्र ! गौरांग के सर्वग्रासी प्रेम ने मुझे निगल लिया है, हमारे गृहस्थी के दलदल में घसिटाने के दुख-दर्द को गौरांग जैसा और कौन अनुभव कर सकता है?
[গান - গৌর প্রেমের ঢেউ লেগেছে গায়।
Behold the waves of Gora's ecstatic love; Under them all the universe lies submerged! And in his love I, too, long to be drowned. O friend, Gauranga's love has swallowed me; Who else feels for our misery like Gauranga, Dragging us from the mire of worldliness?
गीत - देखे आए गौरवर्ण रूपखानी (गो सजनी)।
গান - দেখসে আয় গৌরবরণ রূপখানি (গো সজানী)।
उन्होंने फिर गाया: --गीत - डूब डूब डूब रूपसागरे आमार मन। गहरा गोता लगाओ, हे मन, ईश्वरीय सौन्दर्य सागर में गहराई तक गोता तो लगाओ; यदि तुम उस चित्त-सागर की पूर्ण गहराई तक उतर सको हैं, तो तुम्हें प्रेम का रत्न मिलेगा।
[গান - ডুব ডুব ডুব রূপসাগরে আমার মন।
ডুব-ডুব-ডুব ডুব সাগরে আমার মন,
তলাতল পাতাল খুঁজলে পাবি রে প্রেম রতন ধন,
পাবি রে প্রেম রতন ধন।
ডুব ডুব ডুব রূপসাগরে আমার মন,
ডুব ডুব ডুব রূপসাগরে আমার মন।
খোঁজ-খোঁজ-খোঁজ খুঁজলে পাবি
হৃদয়-মাঝে বৃন্দাবন,
খোঁজ খোঁজ খোঁজ খুঁজলে পাবি
হৃদয় মাঝে বৃন্দাবন।
দীপ-দীপ-দীপ জ্ঞানের বাতি
জ্বলবে হৃদে অনুক্ষণ।
ডুব ডুব ডুব ডুব সাগরে আমার মন।
ড্যাং ড্যাং ড্যাং ড্যাঙায় ডিঙে
চালায় বল সে কোন জন,
ড্যাং ড্যাং ড্যাং ড্যাঙায় ডিঙে
চালায় বল সে কোন জন?
কুবীর বলে শোন শোন শোন,
কুবীর বলে শোন শোন শোন,
ভাব গুরুর শ্রীচরণ,
ভাব গুরুর শ্রীচরণ।
ডুব-ডুব-ডুব ডুব সাগরে আমার মন,
তলাতল পাতাল খুঁজলে পাবি রে প্রেম রতন ধন,
পাবি রে প্রেম রতন ধন।
ডুব-ডুব-ডুব ডুব সাগরে আমার মন,
ডুব-ডুব-ডুব ডুব সাগরে আমার মন।
. . .He sang again: Dive deep, O mind, dive deep in the Ocean of God's-Beauty;If you descend to the uttermost depths,There you will find the gem of Love. . . .
गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) का नामसंकीर्तन करने के बाद ठाकुर अब माँ जगदम्बा का नामसंकीर्तन कर रहे हैं -
(१) श्यामा धन कि सबाई पाय ? अबोध मन बोझे ना एकि दाय। ....
(भावार्थ) क्या श्यामा माँ के दर्शन सभी को हो सकते हैं? क्या माँ काली रूपी अनमोल खज़ाना सबके लिए है? जो नाश की गति नाचता है- माँ उसी के पास आती है ! ओह, क्या अफ़सोस है कि मेरा मूर्ख मन इस अपरिवर्तनीय (सत्य) को नहीं देख सकता !
. . .Then he sang about the Divine-Mother: Can everyone have the vision of Syama? Is Kali's treasure for everyone?Oh, what a pity my foolish mind will not see what is true! . . .
(১) শ্যামা ধন কি সবাই পায়। অবোধ মন বোঝে না একি দায়।।
শ্যামা ধন কি সবাই পায়
ওরে কালি ধন কি সবাই পায়?
অবোধ মন বোঝেনা একি দায়!
শিবেরও অসাধ্য সাধন মন মাজালো ওই রাঙা পায়
ইন্দ্রদি সম্পদ সুখ তুচ্ছ হয় যে ভাবে মায়।
সদানন্দ সুখে ভাসি শ্যামা যদি ফিরে চায়।
যোগিন্দ্র মনীন্দ্র ইন্দ্র যে চরণ ধ্যানে না পায়,
নির্গুণ কমলাকান্ত তবু সে চরণ চায়।
उन्होंने फिर गया -
(२).... मजलो आमार मन भ्रमरा श्यामापद नीलकमले।
.... मेरा काला मधुमक्खी रूपी मन , माँ श्यामा के नीलवर्ण चरण-कमल रूपी आनन्द में खो गया है।
. . .He continued: The black bee of my mind is drawn in sheer delight To the blue lotus flower of Mother Syama's feet. . . .
(২) মজলো আমার মনভ্রমরা শ্যামাপদ নীলকমলে।
মজলো আমার মন-ভ্রমরা শ্যামাপদ নীলকমলে।
( শ্যামাপদ নীল কমলে,কালীপদ নীল কমলে)
যত বিষয়মধু তুচ্ছ হ'ল কামাদি কুসুম সকলে।।
চরণ কালো ভ্রমর কালো,কালোয় কালো মিশে গেল,
পঞ্চতত্ত্ব প্রধান মত্ত রঙ্গ দেখে ভঙ্গ দিলে।।
কমলাকান্তের মনে, আশা পূর্ণ এত দিনে,
(তায়) সুখ দুখ সমান হ'ল আনন্দ- সাগর- উথলে।
(३) श्यामा माँ कि कल करेछे, काली माँ कि कल करेछे।
इस गीत का भाव नीचे दिया जाता है ।
“श्यामा माँ ने कैसी कल (मशीन) बनायी है । वह साढ़े तीन हाथ के कल (मशीन) के भीतर कितने ही रंग दिखा रही है । वह स्वयं कल के भीतर रहती है और डोर पकड़कर अपनी इच्छा के अनुसार उसे घुमाती रहती है - परन्तु कल कहती है, मैं खुद घूम रही हूँ । वह नहीं जानती कि घुमानेवाली कोई दूसरी ही है । जिसने कल का हाल मालूम कर लिया है, उसे फिर कल नहीं बनना पड़ता । किसी किसी कल की भक्ति की डोर से तो श्यामा माँ स्वयं आकर बंध जाती है ।"
(৩) শ্যামা মা কি কল করেছে, কালী মা কি কল করেছে,
শ্যামা মা কি এক কল করেছে।
(কালী মা কি এক কল করেছে)
চোদ্দপোয়া কলের ভিতরি, কল ঘুরায় ধরে কলডুরি,
কল বলে আপনি ঘুরি, জানে না কে ঘুরাতেছে।
যে কলে জেনেছে তারে, কল হতে হবে না তারে,
কোন কলের ভক্তিডোরে আপনি শ্যামা বাঁধা আছে।
O Mother, what a machine (The human body) is this that Thou hast made! What pranks Thou playest with this toy Three and a half cubits high! . . .
(२)
[ (3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆 श्रीरामकृष्ण की समाधि, जगज्जनी (शुध्द मन,बुद्धि) के साथ बातचीत - प्रेमतत्त्व🔆
यह गाना ~ 'श्यामा माँ कि कल करेछे, काली माँ कि कल करेछे।' गाते-गाते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भक्तगण स्तब्ध भाव से निरीक्षण कर रहे हैं । कुछ देर बाद कुछ प्राकृत दशा के आने पर श्रीरामकृष्ण माता के साथ (शुद्ध मन-बुद्धि के साथ ?) वार्तालाप करने लगे ।
..... "माँ, ऊपर से (सहस्रार से) यहाँ उतर आओ ! क्यों जलाती हो ! - चुपचाप बैठो ।
As Sri Ramakrishna sang the last song he went into samadhi. The devotees sat speechless, gazing at his radiant figure. After some time he regained partial consciousness of the world and began to talk to the Divine Mother. The Master said, "Mother, please come down from up there." Did he feel his mind still lingering in the seventh plane of consciousness, the thousand-petalled lotus of the Sahasrara?
[এই গান গাহিতে গাহিতে ঠাকুর সমাধিস্থ হইলেন। ভক্তেরা সকলে নিস্তব্ধ হইয়া দর্শন করিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ হইয়া মার সঙ্গে কথা কহিতেছেন। “মা, উপর থেকে (সহস্রার থেকে?) এইখানে নেমে এস! — কি জ্বালাও! — চুপ করে বস!
[क्या श्रीरामकृष्ण यह अनुभव कर रहे थे कि उनका मन (माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय का सर्वव्यापी विराट मैं रूपांतरित "मैं ") अभी भी सहस्रार के हजार पंखुड़ियों वाले पद्म का पराग पी कर मदमस्त हुआ पड़ा है?]
[ (3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🔆चरित्रवान 'मनुष्य' बनने में विवेक और वैराग्य का महत्व🔆
[प्रत्येक व्यक्ति का भविष्य उसके पूर्वजन्म की प्रवृत्तियों से निर्धारित होता है। पूर्वजन्मों की विरासत में मिली प्रवृत्तियाँ (Inherited tendencies) अंतर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) को व्यक्त करने में बाधक हैं ! Inherited tendencies are obstacles to expressing inherent divinity.]
"माँ, प्रत्येक व्यक्ति का भविष्य उसके पूर्व जन्मों की प्रवृत्तियों से निर्धारित होता है। जिसके जो संस्कार हैं, (inherited tendencies -विरासत में मिली प्रवृत्तियाँ हैं) वे तो होकर ही रहेंगे । - मैं और इससे क्या कहूँ ? विवेक -वैराग्य के हुए बिना कुछ होता नहीं।"
[विवेक = discrimination (i) श्रेय-प्रेय (ii) सत्य-असत्य-मिथ्या विवेक।/वैराग्य या (= संसार =कामिनी -कांचन से अनासक्ति या detachment के हुए बिना 3'H' विकास का 5 अभ्यास करते हुए भी चरित्रवान मनुष्य नहीं बना जा सकता।]
"O Mother, everybody's future is determined by the tendencies of his previous births. What shall I say to these people? Nothing can be achieved without discrimination and renunciation."
“মা, যার যা (সংস্কার) আছে, তাই তো হবে! — আমি আর এদের কি বলব! বিবেক-বৈরাগ্য না হলে কিছু হয় না।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆 राजर्षि जनक के पास सबकुछ था लेकिन उन्हें वह सब मिथ्या जान पड़ता था 🔆
"वैराग्य कितने ही तरह के हैं । एक ऐसा है जिसे मर्कटवैराग्य कहते हैं, वह वैराग्य संसार की ज्वाला से जलकर होता है, वह अधिक दिन नहीं टिकता। और सच्चा वैराग्य भी है। एक व्यक्ति के पास सब कुछ है, किसी वस्तु का अभाव नहीं, फिर भी उसे सब कुछ मिथ्या (नश्वर) जान पड़ता है।
[नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥ (उत्तरकांड/रामचरितमानस) जो लोग स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं, वही मर्कट-वैराग्य है। और सच्चा वैराग्य है - राजर्षि जनक का वैराग्य !]
"There are many kinds of renunciation. One of them may be called 'markata-vairagya', 'monkey renunciation' . It is a false renunciation stimulated by the afflictions of the world. That renunciation doesn't last long. Then there is real renunciation. A man with everything in the world, lacking nothing, feels all to be unreal.
{“বৈরাগ্য অনেকপ্রকার। একরকম আছে মর্কটবৈরাগ্য! — সংসারের জ্বালায় জ্বলে বৈরাগ্য — সে বৈরাগ্য বেশিদিন থাকে না। আর ঠিক ঠিক বৈরাগ্য — সব আছে, কিছুর অভাব নাই, অথচ সব মিথ্যাবোধ।}
“वैराग्य (कामिनी-कांचन में अनासक्ति detachment) या त्याग (renunciation) एकाएक नहीं होता । समय के आये बिना नहीं होता । परन्तु एक बात है, वैराग्य के सम्बन्ध में सुन लेना चाहिए । जब सही समय आएगा, तो तब इसकी याद होगी कि, 'अरे हाँ, मैंने इसके बारे में कभी सुना था ।'
"It is not possible to acquire detachment (renunciation) all at once. The time factor must be taken into account. But it is also true that a man should hear about it. When the right time comes, he will say to himself, 'Oh yes, I heard about this.'
{“বৈরাগ্য একেবারে হয় না। সময় না হলে হয় না। তবে একটি কথা আছে — শুনে রাখা ভাল। সময় যখন হবে তখন মনে হবে — ও! সেই শুনেছিলাম!}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🔆'सिंह-शावक' के भ्रममुक्त होने में बाधक तो कामिनी और कांचन की आसक्ति ही है🔆
"एक बात और है । इन सब बातों को सुनते सुनते विषय की इच्छा (कामिनी -कांचन में मोह) थोड़ी थोड़ी करके घटती जाती है । शराब के नशे को घटाने के लिए थोड़ा थोड़ा चावल का पानी पिया जाता है । इस तरह धीरे-धीरे नशा घटता रहता है । फिर व्यक्ति धीरे-धीरे सामान्य हो जाता है।
You must also remember another thing. By constantly hearing about renunciation one's desire for worldly objects gradually wears away. One should take rice-water in small doses to get rid of the intoxication of liquor. Then one gradually becomes normal.
(विवेक, वैराग्य और त्याग के महिमा का नित्य श्रवण करने से सांसारिक विषयों में आसक्ति क्रमशः समाप्त हो जाती है, और व्यक्ति धीरे -धीरे 'Hypnotized से de -hypnotized' या सिंह शावक भ्रममुक्त हो जाता है ।)
[“আর একটি কথা। এ-সব কথা শুনতে শুনতে বিষয়বাসনা একটু একটু করে কমে। মদের নেশা কমাবার জন্য একটু একটু চালুনির জল খেতে হয়। তাহলে ক্রমে ক্রমে নেশা ছুটতে থাকে।"
"ज्ञानलाभ करने के अधिकारी बहुत ही कम हैं -अर्थात दुर्लभ हैं । गीता में कहा है - हजारों (भ्रमित) मनुष्यों में कहीं एक (सिंहशावक) उनके जानने की इच्छा करता है । और ऐसी इच्छा करनेवाले हजारो में से कहीं एक ही उन्हें जान पाता है ।"
तान्त्रिक भक्त - 'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये' आदि । (गीता -7.3)
[भगवान श्री कृष्ण गीता (7.3) में यह ब्रह्मज्ञान ( दुलर्भ ) कैसे है सो कहते हैं - हजारों भ्रमित मनुष्यों (सम्यक रूप से hypnotized मनुष्यों) में कोई एक ही सिद्धिके लिये (मोक्षरूप-भ्रममुक्त De-Hypnotized होने के लिए ) प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है। ]
"An aspirant entitled to the Knowledge of God is very rare. It is said in the Gita that one in thousands desires to know God, and again that among thousands who have such a desire, only one is able to know God." A devotee quoted the text from the Gita.।।7.3।।
[“জ্ঞানলাভের অধিকারী বড়ই কম। গীতায় বলেছে — হাজার হাজার লোকের ভিতর একজন তাঁকে জানতে ইচ্ছা করে। আবার যারা জানতে ইচ্ছা করে, সেইরূপ হাজার হাজার লোকের ভিতর একজন জানতে পারে।” [তান্ত্রিকভক্ত — ‘মনুষ্যাণাং সহস্রেষু কশ্চিৎ যততি সিদ্ধয়ে’ ইত্যাদি।
श्रीरामकृष्ण -संसार की आसक्ति (कामिनी -कांचन की आसक्ति) जितनी ही घटती जाएगी , ज्ञान भी उतना ही बढ़ता जाएगा। आध्यात्मिक ज्ञान में बाधक तो कामिनी और कांचन की आसक्ति ही है ।
"As your attachment to the world diminishes your spiritual knowledge will increase. Attachment to the world means attachment to 'woman and gold'.
{শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারে আসক্তি যত কমবে, ততই জ্ঞান বাড়বে। কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি।
[जीवनमुक्त शिक्षकों का संग (सत्संग) , श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति, भाव, महाभाव, प्रेम]
[সাধুসঙ্গ, শ্রদ্ধা, নিষ্ঠা, ভক্তি, ভাব, মহাভাব, প্রেম ]
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🔆प्रेम तो केवल ईश्वरकोटि को - जैसे अवतारों (नवनीदा जैसे नेता) को होता है !🔆
"प्रेम सभी को नहीं होता । गौरांग को हुआ था । जीवों को भाव हो सकता है । बस ईश्वरकोटि को - जैसे अवतारों को - प्रेम होता है । प्रेम के होने पर संसार तो मिथ्या जान पड़ेगा ही, किन्तु इतने प्यार की वस्तु जो यह शरीर है, यह भी भूल जायगा ।
"It is not given to everybody to feel prema, ecstatic love of God. Chaitanya experienced it. An ordinary man can at the most experience bhava. Only the Isvarakotis, such as Divine Incarnations, experience prema. When prema is awakened the devotee not only feels the world to be unreal forgets even the body, which everyone loves so intensely.
{“প্রেম সকলের হয় না। গৌরাঙ্গের হয়েছিল। জীবের ভাব হতে পারে — এই পর্যন্ত। ঈশ্বরকোটির — যেমন অবতার আদির — প্রেম হয়। প্রেম জলে জগৎ মিথ্যা তো বোধ হইবেই, আবার শরীর যে এত ভালবাসার জিনিস, তা ভুল হয়ে যায়!}
"पारसियों के ग्रन्थ ^* (हाफिज) में लिखा है, त्वचा के भीतर मांस है, मांस के भीतर हड्डियाँ, हड्डियों के भीतर मज्जा (marrow), इसके बाद और भी न जाने क्या क्या; और सब के भीतर प्रेम !
[हाफ़िज़ शिराज़ी-ईरान के बड़े कवियों में से सबसे बड़े तथा अंतिम कवि हाफिज हैं।]
"प्रेम से मनुष्य कोमल हो जाता है । प्रेम से कृष्ण त्रिभंग * हो गये हैं ।
{त्रिभंग * में शरीर 'सीधा' न होकर तीन (त्रि) स्थानों से मुड़ा (भंग) होता है, घुटने से एक दिशा में, कमर से दूसरी दिशा में और कन्धों के ऊपर से दूसरी दिशा में। ओड़ीसी नृत्य में, अर्धनारीश्वर प्रतिमा में त्रिभंग देखा जा सकता है। }
"In a Persian book it is said that inside the skin is the flesh, inside the flesh the bone, inside the bone, the marrow and so on but that prema is the innermost of all. One becomes soft and tender through prema. On account of this prema, Krishna became Tribhanga.
{“পার্শী বইয়ে (হাফেজে ****) আছে, চামড়ার ভিতর মাংস, মাংসের ভিতর হাড়, হাড়ের ভিতর মজ্জা, তারপরে আরও কত কি! সকলের ভিতর প্রেম।“প্রেমে কোমল, নরম হয়ে যায়। প্রেমে, কৃষ্ণ ত্রিভঙ্গ* হয়েছেন।
प्रेम के होने पर सच्चिदानन्द को बाँधनेवाली डोर मिल जाती है । उसे पकड़कर खींचने ही से हुआ । जब भी तुम उसे बुलाओगे, वह तुम्हारे सामने प्रकट हो जायेंगे । जब बुलाओगे तभी पाओगे ।
"[प्रेम (भक्ति -माता यशोदा का वात्सल्य भाव) वह रस्सी है जिसके द्वारा आप ईश्वर को वैसे ही बाँध सकते हैं जैसे वह छोटा बालक कृष्ण हो ! (वात्सल्य भाव से माता यशोदा कान्हा को ओखली में बाँधने चली थी Prema is the rope by which you can tether (बाँध लेना) God, as it were.]
"Prema is the rope by which you can tether God, as it were. Whenever you want to see Him you have merely to pull the rope. Whenever you call Him, He will appear before you.
{“প্রেম হলে সচ্চিদানন্দকে বাঁধবার দড়ি পাওয়া যায়। যাই দেখতে চাইবে দড়ি ধরে টানলেই হয়। যখন ডাকবে তখন পাবে।}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🙏ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम (भक्ति ) ही वस्तु है बाकि सब मिथ्या है 🙏
(Unalloyed love of God is the essential thing. All else is unreal)
{“শুদ্ধাভক্তিই সার, আর সব মিথ্যা!"}
"भक्ति के पकने पर भाव होता है। भाव के पकने पर सच्चिदानन्द (के मूर्त रूपअवतार वरिष्ठ) के बारे में सोचकर निर्वाक रह जाता है। जीवों के लिए बस यहीं तक है। और फिर भाव के पकने पर महाभाव या प्रेम होता है। जैसे कच्चा आम और पका हुआ आम। शुद्धा भक्ति ही सार वस्तु है और सब मिथ्या है।
"The mature stage of bhakti is bhava. When one attains it one remains speechless, thinking of Satchidananda. The feeling of an ordinary man can go only that far. When bhava ripens it becomes mahabhava. Prema is the last. You know the difference between a green mango and a ripe one. Unalloyed love of God is the essential thing. All else is unreal
{“ভক্তি পাকলে ভাব। ভাব হলে সচ্চিদানন্দকে ভেবে অবাক্ হয় যায়। জীবের এই পর্যন্ত। আবার ভাব পাকলে মহাভাব, — প্রেম। যেমন কাঁচা আম আর পাকা আম। “শুদ্ধাভক্তিই সার, আর সব মিথ্যা!}
" नारद के स्तुति करने पर श्रीरामचन्द्र ने कहा, तुम वरदान लो। नारद ने शुद्धा भक्ति माँगी और कहा, हे राम, अब ऐसा करो जिससे तुम्हारी भुवनमोहिनी माया से मुग्ध न हो जाऊँ । राम ने कहा, यह तो जैसे हुआ, दूसरा वर माँगो ।“ नारद ने कहा, और कुछ न चाहिए, केवल भक्ति की प्रार्थना है ।
"Once Rama was pleased with the prayer of Narada and told him to ask for a boon. Narada prayed for pure love and said further, 'O Rama, please grant that I may not be deluded by Thy world-bewitching maya.' Rama said: 'That is all right. But ask for something else.' Narada replied: 'I don't want anything else. I pray only for pure love.'
[“নারদ স্তব করাতে বললেন, তুমি বর লও। নারদ চাইলেন, শুদ্ধাভক্তি। আর বললেন — রাম, যেন তোমার জগৎমোহিনী মায়ার মুগ্ধ না হই! রাম বললেন, ও তো হল, আর কিছু বর লও।“নারদ বললেন, আর কিছু চাই না, কেবল ভক্তি!
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆श्रद्धा -भक्ति (प्रेम) के लिये साधुसंग (पाठचक्र) करना अनिवार्य 🔆
[ क्या सभी के लिए महाभाव या प्रेम की प्राप्ति होना संभव है ? ]
“यह भक्ति भी कैसे हो ? पहले साधुओं का संग करना चाहिए । साधुसंग करने पर ईश्वरी बातों पर श्रद्धा होती है । 'श्रद्धा' के बाद 'निष्ठा' है, तब ईश्वर की बातों को छोड़ और कुछ सुनने की इच्छा नहीं होती । उन्हीं के काम करने को जी चाहता है ।" 'निष्ठा' के बाद 'भक्ति' है, इसके बाद 'भाव', फिर 'महाभाव' और 'वस्तुलाभ' । महाभाव और प्रेम केवल ईश्वर कोटि या अवतारों को होता है ।
{"How can a devotee attain such love? First, the company of holy men. That awakens sraddha (आस्तिक्यबुद्धि), faith in God . Then comes nishtha, single-minded devotion to the Ideal . In that stage the devotee does not like to hear anything thing but talk about God (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) . He performs only those acts (Be and Make) that please God. After nishtha (Be and Make) comes bhakti, devotion to God ; then comes bhava (भाव अर्थात ईश्वर का सतत भान रहना). Next mahabhava, then prema, and last of all the attainment of God Himself. Only for Isvarakotis, such as the Incarnations, is it possible to have mahabhava or prema.
[“এই ভক্তি কিরূপে হয়? প্রথমে সাধুসঙ্গ করতে হয়। সাধুসঙ্গ করলে ঈশ্বরীয় বিষয়ে শ্রদ্ধা হয়। শ্রদ্ধার পর নিষ্ঠা, ঈশ্বরকথা বই আর কিছু শুনতে ইচ্ছা করে না; তাঁরই কাজ করতে ইচ্ছা করে।" “নিষ্ঠার পর ভক্তি। তারপর ভাব, — মহাভাব, প্রেম — বস্তুলাভ। “মহাভাব, প্রেম, অবতার আদির হয়।
संसारी जीवों का ज्ञान जैसे दीपक का उजाला है। उससे घर के भीतर ही प्रकाश होता है और वहीं की चीजें देखी जा सकती हैं। उस ज्ञान से खाना -पीना, घर-गृहस्थी का काम सम्हालना, शरीर की रक्षा, संतान -पालन, बस, यही सब होता है।
"The knowledge of a worldly person, the knowledge of a devotee, and the Knowledge of an Incarnation are by no means of the same degree. The knowledge of a worldly person is like the light of an oil lamp, which shows only the inside of a room. Through such knowledge he eats and drinks, attends to household duties, protects his body, brings up his children, and so on.
{“মহাভাব, প্রেম, অবতার আদির হয়। সংসারী জীবের জ্ঞান, ভক্তের জ্ঞান, আর অবতারের জ্ঞান সমান নয়। সংসারী জীবের জ্ঞান যেন প্রদীপের আলো, — শুধু ঘরের ভিতরটি দেখা যায়। সে জ্ঞানে খাওয়া-দাওয়া, ঘর করা, শরীররক্ষা, সন্তানপালন — এই সব হয়। }
"भक्त का ज्ञान जैसे चाँदनी; भीतर भी दिखायी पड़ता है और बाहर भी; परन्तु बहुत दूर की चीज या बहुत छोटी चीज नहीं दिखायी देती ।
The knowledge of a devotee is like the light of the moon, which illumines mines objects both inside and outside a room. But such light does not enable him to see a distant or a very minute object.
[“ভক্তের জ্ঞান, যেন চাঁদের আলো। ভিতর বার দেখা যায়, কিন্তু অনেক দূরের জিনিস, কি খুব ছোট জিনিস, দেখা যায় না।
अवतार आदि का ज्ञान मानो सूर्य का प्रकाश है । भीतर-बाहर छोटी-बड़ी वस्तु, सभी दिखायी देती हैं ।
"The Knowledge of an Incarnation of God is like the light of the sun. Through that light the Incarnation sees everything, inside and outside, big and small.
[অবতার আদির জ্ঞান যেন সূর্যের আলো। ভিতর বার, ছোট বড় — তাঁরা সব দেখতে পান।
" यह सच है कि सांसारिक जीवों का मन गंदले पानी की तरह बना हुआ है । परन्तु फिटकरी छोड़ने पर वह साफ हो सकता है । विवेक और वैराग्य उनके लिए फिटकरी है ।"
{"The mind of a worldly person is, no doubt, like muddy water; but it can be made clear by a purifying agent. Discrimination and detachment (गृहस्थ के लिए- 'कामिनी -कांचन में अनासक्ति' या वैराग्य , और संन्यासी के लिए पूर्ण त्याग- 'renunciation') are the purifying agent."
[“তবে সংসারী জীবের মন ঘোলা জল হয়ে আছে বটে, কিন্তু নির্মলি ফেললে আবার পরিষ্কার হতে পারে। বিবেক-বৈরাগ্য নির্মলি।”
[ঈশ্বরকথা শ্রবণের প্রয়োজন। “সময়-সাপেক্ষ” ]
🔆🙏अवतारों के उपदेश को सुनना आवश्यक, लेकिन फल समय-सापेक्ष * है🔆🙏
अब श्रीरामकृष्ण शिवपुर के भक्तों से बातचीत कर रहे हैं ।
The Master spoke to the devotees from Shibpur.
[এইবার ঠাকুর শিবপুরের ভক্তদের সহিত কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - आप लोगों को कुछ पूछना हो तो पूछिये ।
MASTER: "Have you any questions to ask?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আপনাদের কিছু জিজ্ঞাসা থাকে বলো।
भक्त – जी ! सब तो सुन रहे हैं ।
A DEVOTEE: "We have listened to your words."
[ভক্ত — আজ্ঞা, সব তো শুনলাম।
श्रीरामकृष्ण - सुन रखना अच्छा है, परन्तु समय के बिना हुए होता नहीं ।
"जब ज्वर बहुत रहता है, तब कुनैन देने से क्या होगा ? फीवर मिक्श्चर देकर दस्त कराने पर जब बुखार कुछ उतर जाता है, तब कुनैन दी जा सकती है ।
“और किसी किसी का बुखार ऐसे भी अच्छा हो जाता है । कुनैन नहीं देनी पड़ती ।
“लड़के ने सोते समय अपनी माँ से कहा था, माँ, जब मुझे टट्टी की हाजत हो तब जगा देना । उसकी माँ ने कहा, बेटा, टट्टी की हाजत तुम्हे स्वयं उठा देगी ।
MASTER: "Yes, it is good to listen to these things. But nothing will happen except at the right time. What can quinine do for a fever patient when he runs a high temperature? Only when his temperature comes down through the use of 'fever mixture' or a purgative should quinine be prescribed. There are patients who get rid of their fever even without quinine. A child said to his mother, when he was put to bed, 'Mother, please wake me up when I feel the call of nature.' The mother said: 'My child, I shall not have to wake you. The urge itself will wake you.'
[শ্রীরামকৃষ্ণ — শুনে রাখা ভাল, কিন্তু সময় না হলে হয় না। “যখন খুব জ্বর, তখন কুনাইন দিলে কি হবে? ফিবার মিকশ্চার দিয়ে বাহ্যে-টাহ্যে হয়ে একটু কম পড়লে তখন কুনাইন দিতে হয়। আবার কারু কারু অমনি সেরে যায়, কুনাইন না দিলেও হয়।“ছেলে ঘুমবার সময় বলেছিল, ‘মা আমার যখন হাগা পাবে তখন তুলো।’ মা বললে, ‘বাবা, আমায় তুলতে হবে না, হাগায় তোমায় তুলবে।’
"कोई कोई यहाँ आता है, देखता हूँ, वह किसी भक्त के साथ नाव पर चढ़कर आता है, परन्तु ईश्वर की बातें उसे नहीं सुहातीं । वह सदा अपने मित्र को कोंचता रहता है, कि कब उठे जब उसका मित्र किसी तरह न उठा तब उसने कहा, अच्छा तो तुम यहाँ बैठो, मैं तब तक चलकर नाव पर बैठता हूँ ।
"Different kinds of people come here. Some come by boat with the devotees. But they do not enjoy spiritual talk. They keep nudging their friends and whispering: 'When shall we leave here? When are we going?' If the friends show no 'sign of getting up, they say, 'We would rather wait for you in the boat.'
{“কেউ কেউ এখানে আসে দেখি, কোন ভক্তসঙ্গে নৌকা করে এসেছে। ঈশ্বরীয় কথা তাদের ভাল লাগে না। কেবল বন্ধুর গা টিপছে, ‘কখন যাবে, কখন যাবে?’ যখন বন্ধু কোনরকমর উঠলো না, তখন বলে, ‘তবে ততক্ষণ আমি নৌকায় গিয়ে বসে থাকি।’}
"जिन्हें पहली ही बार आदमी का चोला मिला है, उन्हें भोग की आवश्यकता है । कुछ काम जब तक किये हुए नहीं होते तब तक चेतना नहीं आती ।”
[जिन्हें पहली बार मानव शरीर मिला है, या पूर्व जन्म के संस्कारों का पूर्णतया क्षय नहीं हुआ है , उन्हें 3H विकास के 5 अभ्यास को करने के साथ -साथ कुछ इन्द्रिय भोगों के अनुभव की भी आवश्यकता है। जब तक कुछ कर्तव्यों का पालन करके चित्त -शुद्धि नहीं हो जाती , तब तक साधक की आध्यात्मिक चेतना जागृत नहीं होती है।]
"Those who have a human body for the first time need the experience of sense enjoyments. Spiritual consciousness is not awakened unless certain duties have been performed."
{“যাদের প্রথম মানুষ জন্ম, তাদের ভোগের দরকার। কতকগুলো কাজ করা না থাকলে চৈতন্য হয় না।”}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆🙏अवतार आदि को सहजावस्था में भी अपने अवतार होने का बोध बना रहता है 🔆🙏
(ঠাকুরের সহজাবস্থা)
श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले की ओर जायेंगे । गोल बरामदे में मास्टर से कह रहे हैं –श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अच्छा, यह मेरी कैसी अवस्था है ?
The Master was going to the pine-grove. With a smile he said to M., on the semicircular porch, "Well, what do you think of my state of mind?"
[ঠাকুর ঝাউতলায় যাইবেন। গোল বারান্দায় মাস্টারকে বলিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আচ্ছা, আমার কিরকম অবস্থা।?
मास्टर - (सहास्य) - जी, बाहर से देखने में तो आपकी सहज अवस्था है, परन्तु भीतर बड़ी गम्भीर हैं - आपकी अवस्था समझना बड़ा कठिन है ।
M. (smiling): "On the surface you are very simple, but inwardly very deep. It is extremely difficult to understand you."
[মাস্টার (সহাস্যে) — আজ্ঞা, আপনার উপরে সহজাবস্থা — ভিতর গভীর। — আপনার অবস্থা বোঝা ভারী কঠিন!
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ, जैसे पक्की फर्श; लोग ऊपर तो देखते हैं, परन्तु भीतर क्या है, यह नहीं जानते ।
MASTER (smiling): "True. It is like the cement floor of a house. People see only the outer surface and do not know how many materials there are under it."
{শ্রীরাককৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ; যেমন floor করা মেঝে, লোকে উপরটাই দেখে, মেঝের নিচে কত কি আছে, জানে না!
चाँदनीवाले घाट में बलराम आदि कुछ भक्त कलकत्ता जाने के लिए नाव पर चढ़ रहे हैं । दिन का तीसरा प्रहर है, चार बजे होंगे । गंगा में भाटा है, उस पर दक्षिणवाली हवा बह रही है । गंगा का वक्षस्थल तरंगों से शोभित हो रहा है ।
बलराम की नौका बागबाजार की ओर जा रही है । मास्टर बड़ी देर से खड़े हुए देख रहे हैं । नाव जब दृष्टि से ओझल हो गयी, तब वे श्रीरामकृष्ण के पास लौट आये ।
It was about four o'clock in the afternoon. Balaram and several other devotees got into a country boat to return to Calcutta. It was ebb-tide in the Ganges. A gentle breeze was blowing from the south, covering the bosom of the sacred river with ripples. M. looked at the scene a long time. As the boat disappeared in the direction of Calcutta, he came back to the Master.
[চাঁদনির ঘাটে বলরাম প্রভৃতি কয়েকটি ভক্ত কলিকাতা যাইবার জন্য নৌকা আরোহন করিতেছেন। বেলা চারিটা বাজিয়াছে। ভাটা পড়িয়াছে, তাহাতে দক্ষিণে হাওয়া। গঙ্গাবক্ষ তরঙ্গমালায় বিভূষিত হইয়াছে।বলরামের নৌকা বাগবাজার অভিমুখে চলিয়া যাইতেছে, মাস্টার অনেকক্ষণ ধরিয়া দেখিতেছেন।নৌকা অদৃশ্য হইলে তিনি আবার ঠাকুরের কাছে আসিলেন।
श्रीरामकृष्ण पश्चिमवाले बरामदे से उतर रहे हैं । झाऊतल्ला जायेंगे । उत्तर-पश्चिम के कोने में बड़े ही सुहावने मेघ उमड़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं क्या वर्षा होगी ? जरा छाता तो ले आओ । मास्टर छाता ले आये । लाटू भी साथ हैं ।
श्रीरामकृष्ण पंचवटी में आये । लाटू से कह रहे हैं - तू दुबला क्यों हुआ जा रहा है ?
Sri Ramakrishna was going to the pine-grove. A beautiful, dark rain-cloud was to be seen in the northwest. The Master asked M.: "Do you think it will rain? Please bring my umbrella." M. brought the umbrella. Reaching the Panchavati, the Master said to Latu, who also accompanied him, "Why do you look so sickly?"
[ঠাকুর পশ্চিম বারান্দা হইতে নামিতেছেন — ঝাউতলায় যাইবেন। উত্তর-পশ্চিমে সুন্দর মেঘ হইয়াছে। ঠাকুর বলিতেছেন, বৃষ্টি হবে কি, ছাতাটা আনো দেখি। মাস্টার ছাতা আনিলেন। লাটুও সঙ্গে আছেন।ঠাকুর পঞ্চবটীতে আসিয়াছেন। লাটুকে বলিতেছেন — ‘তুই রোগা হয়ে যাচ্ছিস কেন?’
लाटू - कुछ खाया नहीं जाता ।
[লাটু — কিছু খেতে পারি না!
LATU: "I can hardly eat anything."
श्रीरामकृष्ण – क्या बस यही कारण है ? मौसम बड़ा खराब है - और शायद तू अधिक ध्यान करता है –
(मास्टर से) "यह भार तुम पर है - बाबूराम से कहना राखाल के चले जाने पर दो-एक दिन के लिए आकर रह जाया करे, नहीं तो मेरे मन में बड़ी अशान्ति रहेगी ।"
MASTER: "Is that the only reason? It is also a bad time of the year. Are you meditating too much? (To M.) I have a request to make of you. Please tell Baburam to stay with me a day or two during Rakhal's absence. Otherwise I shall feel very unhappy."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেবল কি ওই — সময় খারাপ পড়েছে — আর বেশি ধ্যান করিস বুঝি?ঠাকুর মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তোমার ওইটে ভার রইল। বাবুরামকে বলবে, রাখাল গেলে দুই-একদিন মাঝে মাঝে এসে থাকবে। তা না হলে আমার মন ভারী খারাপ হবে।
मास्टर - जी हाँ, मैं कह दूंगा ।
M: "Yes, sir. I shall tell him."
[মাস্টার — যে আজ্ঞা, আমি বলব।
सरल होने पर ही ईश्वर मिलते हैं । श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं, बाबूराम सरल है न ?
Sri Ramakrishna asked M. whether he thought that Baburam was guileless.
[সরল হইলে ঈশ্বরকে পাওয়া যায়। ঠাকুর জিজ্ঞাসা করিতেছেন, বাবুরাম সরল কি না!
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 87 ]
🔆झाउतला और पंचवटी में अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण के सुंदर रूप का दर्शन🔆
[ঝাউতলা ও পঞ্চবটীতে শ্রীরামকৃষ্ণের সুন্দর রূপ দর্শন ]
श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले से दक्षिण ओर आ रहे हैं । मास्टर और लाटू पंचवटी के नीचे उत्तर दिशा की ओर मुँह किये खड़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण के पीछे नये नये बादलों की छाया गंगा के विशाल वक्ष पर पड़ रही है, अपूर्व शोभा है! मेघों की परछाई से गंगाजल काला सा दिख रहा है ।
[लौटते समय उनके पृष्ठभूमि में पंचवटी के वही पवित्र वृक्ष थे, जिनके नीचे उन्होंने कभी आध्यात्मिक साधनायें की थीं, और भगवान के दर्शन किए थे। उनके चरणों के नीचे, भगवान विष्णु के चरणों से निकली पवित्र गंगा नदी, मृत्युलोक मनुष्यों के पापों का नाश करने के लिए बहती चली जा रही थी। इस अवतारी -पुरुष की उपस्थिति ने वहाँ पेड़ों, झाड़ियों, फूलों, पौधों और मंदिरों को आध्यात्मिक ऊर्जा और दिव्य आनंद से भर दिया था। श्रीरामकृष्ण के चेहरे पर किसी पाँच वर्ष के दिव्य बालक जैसी मासूमियत और पवित्रतापूर्ण मुस्कान को देखकर, भक्तों को ऐसा महसूस हुआ मानो श्रीरामकृष्ण स्वयं साक्षात् भगवान के अवतार हों।
Presently the Master left them, going in the direction of the pine-trees. After a few minutes M. and Latu, standing in the Panchavati, saw the Master coming back toward them.
Behind him the sky was black with the rain-cloud. Its reflection in the Ganges made the water darker. The disciples felt that the Master was God Incarnate, a Divine Child five years old, radiant with the smile of innocence and purity.
Around him were the sacred trees of the Panchavati under which he had practised spiritual discipline and had beheld visions of God. At his feet flowed the sacred river Ganges, the destroyer of man's sins. The presence of this God-man charged the trees, shrubs, flowers, plants, and temples with spiritual fervour and divine joy.
{ঠাকুর ঝাউতলা হইতে দক্ষিণাস্য হইয়া আসিতেছেন। মাস্টার ও লাটু পঞ্চবটীতলায় দাঁড়াইয়া উত্তরাস্য হইয়া দেখিতেছেন। ঠাকুরের পশ্চাতে নবীন মেঘ গগনমণ্ডল সুশোভিত করিয়া জাহ্নবী-জলে প্রতিবিম্বিত হইয়াছে — তাহাতে গঙ্গাজলে কৃষ্ণবর্ণ দেখাইতেছে।
ঠাকুর আসিতেছেন — যেন সাক্ষাৎ ভগবান দেহধারণ করিয়া মর্ত্যলোকে ভক্তের জন্য কলুষবিনাশিনী হরিপাদাম্বুজসম্ভূতা সুরধুনীর তীরে বিচরণ করিতেছেন। সাক্ষাৎ তিনি উপস্থিত। — তাই কি বৃক্ষ, লতা, গুল্ম, উদ্যানপথ, দেবালয়, ঠাকুর-প্রতিমা, সেবকগণ, দৌবারিকগণ, প্রত্যেক ধূলিকণা, এত মধুর হইতেছে!}
(३)
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🙏🙏श्रीरामकृष्ण की ज्ञानमयी दृष्टि तथा परस्पर विरोधी शास्त्रों का समन्वय*🙏🙏
🔆 हर देश में तूँ हर भेष में तूँ ! 🔆
[আমি দেখি .... ঈশ্বর নিজেই এই-সব .মানুষরূপ ধারণ করে রয়েছেন। ]
श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आकर बैठे । बलराम आम ले आये थे । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राम चैटर्जी से कह रहे हैं, अपने लड़के के लिए कुछ आम लेते जाओ । कमरे में श्रीयुत नवाई चैतन्य बैठे हैं । ये लाल रंग की धोती पहनकर आये हैं ।
उत्तरवाले लम्बे बरामदे में श्रीरामकृष्ण हाजरा से वार्तालाप कर रहे हैं । ब्रह्मचारी ने श्रीरामकृष्ण को हरताल भस्म (आयुर्वेदिक-दवा) दिया है । वही बात हो रही है ।
Sri Ramakrishna returned to his room and sat on the small couch. He began to praise a medicine that a certain brahmachari had prepared for him. Referring to this man, Hazra said: "He is now entangled in many worldly anxieties. What a shame! Look at Nabai Chaitanya of Konnagar. Though a householder, he has put on a red cloth."
[ঠাকুর নিজের ঘরে আসিয়া বসিয়াছেন। বলরাম আম্র আনিয়াছিলেন! ঠাকুর শ্রীযুক্ত রাম চাটুজ্যেকে বলিতেছেন — তোমার ছেলের জন্য আমগুলি নিয়ে যেও। ঘরে শ্রীযুক্ত নবাই চৈতন্য বসিয়াছেন। তিনি লাল কাপড় পরিয়া আসিয়াছেন। উত্তরের লম্বা বারান্দায় ঠাকুর হাজরার সহিত কথা কহিতেছেন। ব্রহ্মচারী হরিতাল ভস্ম ঠাকুরের জন্য দিয়াছেন। — সেই কথা হইতেছে।
श्रीरामकृष्ण - ब्रह्मचारी की दवा मुझ पर खूब असर करती है । आदमी सच्चा है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্রহ্মচারীর ঔষধ আমার বেশ খাটে — লোকটা ঠিক।
हाजरा - परन्तु बेचारा संसार में पड़ गया - क्या करे ! कोन्नगर से नवाई चैतन्य आये हुए हैं । परन्तु संसारी (गृहस्थ) होकर लाल धोती पहनना !
[হাজরা — কিন্তু বেচারী সংসারে পড়েছে — কি করে! কোন্নগর থেকে নবাই চৈতন্য এসেছেন। কিন্তু সংসারী লাল কাপড় পরা!
श्रीरामकृष्ण - क्या कहूँ ! मैं देखता हूँ, ये सब मनुष्य-रूप ^* ईश्वर ने स्वयं धारण किये हैं, इसी कारण किसी को कुछ कह नहीं सकता ।
"What shall I say? I clearly see that it is God Himself who has assumed all these human forms. Therefore I cannot take anybody to task .
{"শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বলব! আর আমি দেখি ঈশ্বর নিজেই এই-সব মানুষরূপ ধারণ করে রয়েছেন। তখন কারুকে কিছু বলতে পারি না।}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🔆🙏देह (Matter) धारण करके शक्ति (Energy-माँ) मानना अनिवार्य🔆🙏
श्रीरामकृष्ण फिर कमरे के भीतर आये । हाजरा से नरेन्द्र की बात कह रहे हैं ।
हाजरा - नरेन्द्र फिर मुकदमे में पड़ गया है ।
HAZRA: "Narendra is again involved in a lawsuit."
[ঠাকুর আবার ঘরের মধ্যে আসিয়াছেন। হাজরার সহিত নরেন্দ্রের কথা কহিতেছেন। হাজরা — “নরেন্দ্র আবার মোকদ্দমায় পড়েছে।”
श्रीरामकृष्ण - शक्ति नहीं मानता । देह धारण करके शक्ति को मानना चाहिए ।
MASTER: "He doesn't believe in Sakti (Energy), the Divine Mother. If one (Consciousness) assumes a human body, one must recognize Her."
{শ্রীরামকৃষ্ণ — শক্তি মানে না। দেহধারণ করলে শক্তি মানতে হয়।
हाजरा - नरेन्द्र कहता है, मैं मानूँगा तो फिर सभी लोग मानने लगेंगे, इसीलिए मैं नहीं मान सकता।
HAZRA: "Narendra says: 'If I believed in Sakti, all would follow me. Therefore I cannot.'"
[হাজরা — বলে, আমি মানলে সকলেই মানবে, — তা কেমন করে মানি।
श्रीरामकृष्ण - लेकिन उसके लिए यह अच्छा नहीं है कि वह माँ जगदम्बा के अस्तित्व को ही नकारने की हद तक जाए। इतना बढ़ना ठीक नहीं । अब वह शक्ति के ही अधिकार क्षेत्र में आया है । जज साहब * भी जब गवाही देते हैं, तब उन्हें अपनी कुर्सी से नीचे उतर कर गवाहियों के कटघरे (witness-box) में जाकर खड़ा होना पड़ता है ।
MASTER: "But it is not good for him to go to the extreme of denying the Divine Mother. He is now under Sakti's jurisdiction. Even a judge, while giving evidence in a case, comes down and stands in the witness-box.
[“অত দূর ভাল নয়। এখন শক্তিরই এলাকায় এসেছে। জজসাহেব (संविधानपीठ के सात जजों का बेंच या निवृत्ति मार्ग का सप्तर्षि) পর্যন্ত যখন সাক্ষী দেয়, তাঁকে সাক্ষীর বাক্সে নেমে এসে দাঁড়াতে হয়।”}
श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं- "क्या तुमसे नरेन्द्र की भेंट नहीं हुई ?"
(To M.) "Have you seen Narendra lately?"
[ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন — তোমার সঙ্গে নরেন্দ্রের দেখা হয় নাই?
मास्टर - जी नहीं, इधर नहीं हुई ।
M: "Not during the last few days."
[মাস্টার — আজ্ঞা, আজকাল হয় নাই।
श्रीरामकृष्ण - एक बार मिलना और गाड़ी पर बिठाकर ले आना । (हाजरा से) अच्छा यहाँ उसका क्या सम्बन्ध है ?
MASTER: "See him and bring him here in a carriage.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — একবার দেখা করো না — আর গাড়ি করে আনবে।
(हाजरा से) " अच्छा, उसका इससे [अर्थात् स्वयं से ] क्या संबंध है?"
(To Hazra) "Well, what is his relation to this [meaning himself]?"
[(হাজরার প্রতি) — “আচ্ছা, এখানকার সঙ্গে কি তার সম্বন্ধ?”
हाजरा - वह आशा करता है कि आपसे उसे सहायता मिलेगी ।
HAZRA: "He expects help from you."
[হাজরা — আপনার সাহায্য পাবে।
"अच्छा, हरीश और लाटू सदा ही ध्यान किया करते हैं, यह कैसा ?"
MASTER: "And what about Bhavanath? Would he come here so frequently if he didn't have good tendencies? What about Harish and Latu? They always meditate. Why is that?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভবনাথ? সংস্কার না থাকলে এখানে এত আসে?“আচ্ছা, হরিশ, লাটু — কেবল ধ্যান করে; — উগুনো কি?”
हाजरा - हाँ, ठीक तो है, सदा ध्यान करना कैसा ? यहाँ रहकर आपकी सेवा करे, तो बात दूसरी है ।
HAZRA: "That's right. Why should they devote all their time to meditation? It is quite a different thing for them to stay here to attend to your personal needs."
[হাজরা — হাঁ, কেবল ধ্যান করা কি? আপনাকে সেবা করে, সে এক।
श्रीरामकृष्ण - शायद तुम ठीक कहते हो । लेकिन कोई बात नहीं । कोई उनकी जगह दूसरा आ जायगा ।
MASTER: "Possibly you are right. Perhaps others may take their place now.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হবে! — ওরা উঠে গিয়ে আবার কেউ আসবে।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆एक वैष्णव मत में ईश्वर को सहज कहते हैं । श्री रामकृष्ण की सहज अवस्था🔆
हाजरा कमरे से चले गये । अभी सन्ध्या होने में देर है । श्रीरामकृष्ण कमरे में बैठे हुए मणि के साथ एकान्त में बातचीत कर रहे हैं ।
Hazra left the room, leaving the Master alone with M.
[হাজরা ঘর হইতে চলিয়া গেলেন। এখনও সন্ধ্যার দেরি আছে। ঠাকুর ঘরে বসিয়া একান্তে মণির সহিত কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - (मणि से) - अच्छा, भाव की अवस्था (state of ecstasy) में मैं जो कुछ कहता हूँ, क्या इससे लोग आकर्षित होते हैं ?
MASTER: "Does what I say in the state of ecstasy attract people?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — আচ্ছা, আমি যা ভাবাবস্থায় বলি, তাতে লোকের আকর্ষণ হয়?
मणि - जी हाँ, खूब होते हैं ।
M: "Oh, yes. Very much."
[মণি — আজ্ঞা, খুব হয়।
श्रीरामकृष्ण - मेरे बारे में लोग क्या सोचते हैं ? मुझे भाव-वाली अवस्था में देखने पर क्या उन्हें कुछ समझ में आता है ?
MASTER: "What do people think of me? Do they think anything in particular about me when they see me in that condition?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — লোকে কি ভাবে? ভাবাবস্থায় দেখলে কিছু বোধ হয়?
मणि - हमलोगों को आप के भीतर ज्ञान, प्रेम और त्याग का अद्भुत संश्लेषण विद्यमान रहने का अनुभव होता है और सतह पर एक स्वाभाविक सहजता की भी अनुभूति होती हैं । [ आपके अन्तस चेतना की गहराई से होकर, विशाल स्टीमबोट्स की तरह कई दिव्य अनुभव , गुजर चुके हैं; फिर भी बाहर से देखने पर आपमें हमेशा सहज भाव ही दिख पड़ता है ! ] भीतर कितनी उथलपुथल मच गयी है, फिर भी बाहर से सहज भाव दीख पड़ता है। बहुत से लोग इस अवस्था को समझ नहीं पाते, लेकिन कुछ लोग तो केवल उसी अवस्था से आकृष्ट होते हैं। यह अवस्था बहुतेरे नहीं समझ सकते । परन्तु कुछ लोग उसी पर आकृष्ट होते हैं ।
M: "We feel in you a wonderful synthesis of knowledge, love, and renunciation, and on the surface a natural spontaneity. Many divine experiences have passed, like huge steamboats, through the deep of your inner consciousness; still you maintain outwardly this utter simplicity. Many cannot understand it, but a few are attracted by this state alone.
{"মণি — বোধ হয়, একধারে জ্ঞান, প্রেম, বৈরাগ্য — তার উপর সহজাবস্থা। ভিতর দিয়ে কত জাহাজ চলে গেছে, তবু সহজ! ও অবস্থা অনেকে বুঝতে পারে না — দু-চারজন কিন্তু ওইতেই আকৃষ্ট হয়।
श्रीरामकृष्ण - घोषपाड़ा के मत में ईश्वर को सहज कहते हैं । और कहते हैं, सहज हुए बिना सहज को कोई पहचान नहीं सकता ।
MASTER: "There is a sect of Vaishnavas known as the Ghoshpara, who describe God as the 'Sahaja', the 'Simple One'. They say further that a man cannot recognize this 'Simple One' unless he too is simple.
{ শ্রীরামকৃষ্ণ — ঘোষপাড়ার মতে ঈশ্বরকে ‘সহজ’ বলে। আর বলে, সহজ না হলে সহজকে না যায় চেনা।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत -87 ]
🔆🙏श्री रामकृष्ण और अभिमान तथा माँ का पिउन होने अहंकार। "मैं यंत्र हूं वे यंत्री हैं"🔆🙏
[শ্রীরামকৃষ্ণ ও অভিমান ও অহংকার। “আমি যন্ত্র তিনি যন্ত্রী” ]
(मणि से) “अच्छा, क्या मुझे कोई अहंकार (ego) है?"
(To M.) Have I any ego?"
{"শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — আচ্ছা, আমার অভিমান আছে?
मणि - जी हाँ महाशय , कुछ है। उसे आपने , अपने शरीर की रक्षा करने तथा ईश्वर-भक्तों की संगति में ईश्वरीय प्रेम का आनन्द लेने और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने के लिये रखा है ! लेकिन अहंकार के इस अंश को भी आपने माँ जगदम्बा से प्रार्थना करके ही बनाये रखा है।
M: "Yes, sir. A little. You have kept it to preserve your body, and to enjoy divine love in the company of the devotees and impart spiritual knowledge to them. Further, you have kept this trace of ego by praying to the Divine Mother for it."
[মণি — আজ্ঞা, একটু আছে। শরীররক্ষা আর ভক্তির-ভক্তের জন্য, — জ্ঞান-উপদেশের জন্য। তাও আপনি প্রার্থনা করে রেখেছেন।
श्रीरामकृष्ण - नहीं , मैंने इसे नहीं रखा है। स्वयं ईश्वर ने ही ^* इसे मुझमें रख छोड़ा है !! अच्छा , क्या तुम मुझे यह बता सकते हो कि समाधि की अवस्था में मैं कैसा प्रतीत होता हूँ ?
[^* चपरासी होने का अहंकार भी माँ काली का दिया हुआ चपरास है, उसे मैंने खुद नहीं रखा है। माँ काली ने स्वयं अपना काम करवाने के लिए रख छोड़ा है !]
MASTER: "No. I have not kept it. It is God Himself who has left it in me. Can you tell me how I appear in the state of samadhi?"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি রাখি নাই; — তিনিই রেখে দিয়েছেন। আচ্ছা, ভাবাবেশের সময় কি হয়?
श्रीरामकृष्ण – वे ही सब कर रहे हैं । मैं कुछ नहीं जानता ।
MASTER: "It is God who does all these things. I do not know anything."
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনিই সব কচ্ছেন। আমি কিছুই জানি না।
मणि - जी हाँ, इसीलिए तो इतना आकर्षण है ।
"That is why you attract people so much.
মণি — আজ্ঞা, তাই জন্যই তো এত আকর্ষণ!
(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆🙏 ईश्वर अनन्त हैं और ईश्वर तक पहूँचने के मार्ग भी अनन्त हैं ।🔆🙏
[তিনি অনন্ত, পথও অনন্ত।
[ God is infinite, and infinite are the ways to reach Him.]
[सभी शास्त्र - सभी धर्म - सत्य क्यों हैं ? Why all Scriptures — all Religions — are true —[শ্রীরামকৃষ্ণ ও বিরুদ্ধ শাস্ত্রের সমন্বয়]
मणि - "देखिये महाराज मुझे एक प्रश्न पूछना है, शास्त्रों में 'अवतार ' के विषय में दो तरह से क्यों कहा गया है ? एक पुराण के मत में श्रीकृष्ण चिदात्मा हैं और श्रीराधा चित्शक्ति -उनकी ईश्वरीय शक्ति । किन्तु एक दूसरे पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण स्वयं आद्याशक्ति (Primordial Energy) माँ काली हैं !
M: Sir, I have a question to ask. There are two opinions in the scriptures. According to one Purana, Krishna is Chidatma, the Absolute, and Radha is Chitsakti, Its Divine Power; but according to another, Krishna Himself is Kali, the Primordial Energy."
[ মণি — আজ্ঞা, শাস্ত্রে দুরকম বলেছে। এক পুরাণের মতে কৃষ্ণকে চিদাত্মা, রাধাকে চিচ্ছক্তি বলেছে। আর এক পুরাণে কৃষ্ণই কালী — আদ্যাশক্তি বলেছে।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 87 ]
🙏🙏काली ने ही कृष्ण का रूप धारण किया है !🙏🙏
श्रीरामकृष्ण - देवी पुराण के मत से काली ने ही कृष्ण का स्वरूप धारण किया है । “तो इससे क्या अन्तर पड़ता है ? ईश्वर अनन्त हैं और ईश्वर तक पहूँचने के मार्ग भी अनन्त हैं ।”
MASTER: "This second view is held in the Devi Purana. According to it, Kali Herself has become Krishna. But what difference does it make? God is infinite, and infinite are the ways to reach Him."
{শ্রীরামকৃষ্ণ — দেবীপুরাণের মত। এ-মতে কালীই কৃষ্ণ হয়েছেন।“তা হলেই বা! — তিনি অনন্ত, পথও অনন্ত।”
यह सुनकर मणि अवाक् हो गए और कुछ क्षणों तक चुप रहे। फिर बोले; मणि - ओह, अब मैं समझा, आप जैसा कहते हैं, छत पर चढ़ना (सच्चिदानन्द को प्राप्त होना) ही महत्वपूर्ण बात है, चाहे जिस तरह चढ़ सको - सीढ़ी से या बाँस लगाकर अथवा रस्सी पकड़कर ।
M. remained speechless with wonder for a few moments and then said: "Oh, now I understand. As you say, the important thing is to climb to the roof. Our goal will be achieved if we can accomplish it by following any of the means — a rope or a pole."
[এই কথা শুনিয়া মণি অবাক্ হইয়া কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া রহিলেন।মণি — ও বুঝেছি। আপনি যেমন বলেন, ছাদে উঠা নিয়ে কথা। যে কোন উপায়ে উঠতে পারলেই হল — দড়ি, বাঁশ — যে কোন উপায়ে।
श्रीरामकृष्ण - यह जिसने समझा है, उस पर ईश्वर की दया है । ईश्वर की कृपा हुए बिना कभी (काली-कृष्ण / M/F द्वैत का) संशय दूर नहीं होता ।
MASTER: "It is through the grace of God that you have understood that. Without His grace doubt is never cleared up.
{শ্রীরামকৃষ্ণ — এইটি যে বুঝেছে, এটুকু ঈশ্বরের দয়া। ঈশ্বরের কৃপা না হলে সংশয় আর যায় না।}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆🙏तुम अशोक-वाटिका में आये हो तो हनुमान- दृष्टिकोण का पालन बुद्धिमानी है🔆🙏
হনুমানের ভাব — ‘আমি বার তিথি নক্ষত্র জানি না — এক রামচিন্তা করি’।”
[I do not know the day, date or the position of the stars; I only contemplate Rama.]
"महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी तरह 'उन पर' (अवतार वरिष्ठ पर ) भक्ति होनी चाहिए, प्यार होना चाहिए। बहुत सी बातें जानने से क्या फायेदा ? एक रास्ते से चलते चलते अगर उन पर प्यार हो जाय तो काम बन गया। प्यार के होने से ही उन्हें आदमी पाता है। इसके बाद अगर जरूरत होगी तो वे समझा देंगे – सब रास्तों की खबर बतला देंगे । ईश्वर पर प्यार होने ही से काम हुआ - तरह तरह के विचारों की क्या आवश्यकता है ?
तुम बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, तो जी भरकर आम खाओ न , कितनी डालियाँ हैं, कितने पत्ते हैं, इन सब के हिसाब से क्या मतलब ? हनुमान का भाव (दृष्टिकोण) चाहिए – 'मैं वार, तिथि, नक्षत्र, यह सब कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया करता हूँ ।"
"The important thing is somehow to cultivate devotion to God and love for Him. What is the use of knowing many things? It is enough to cultivate love of God by following any of the paths. When you have this love, you are sure to attain God. Afterwards, if it is necessary, God will explain everything to you and tell you about the other paths as well. It is enough for you to develop love of God. You have no need of many opinions and discussions. You have come to the orchard to eat mangoes. Enjoy them to your heart's content. You don't need to count the branches and leaves on the trees. It is wise to follow the attitude of Hanuman: 'I do not know the day of the week, the phase of the moon, or the position of the stars; I only contemplate Rama.'}
{“কথাটা এই — কোনরকমে তাঁর উপর যাতে ভক্তি হয় — ভালবাসা হয়। নানা খবরে কাজ কি? একটা পথ দিয়ে যেতে যেতে যদি তাঁর উপর ভালবাসা হয়, তাহলেই হল। ভালবাসা হলেই তাঁকে লাভ করা যাবে। তারপর যদি দরকার হয়, তিনি সব বুঝিয়ে দিবেন — সব পথের খবর বলে দিবেন। ঈশ্বরের উপর ভালবাসা এলেই হল — নানা বিচারের দরকার নাই। আম খেতে এয়েছ, আম খাও; কত ডাল, কত পাতা — এ-সবের হিসাবের দরকার নাই। হনুমানের ভাব — ‘আমি বার তিথি নক্ষত্র জানি না — এক রামচিন্তা করি’।”
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🔆🙏वैराग्य का अर्थ । गृहस्थ भक्त के लिए संचय या यादृच्छिक लाभ? 🔆🙏
[সংসারত্যাগ ও ঈশ্বরলাভ। ভক্তের সঞ্চয় না যদৃচ্ছালাভ? ]
मणि - इस समय ऐसी इच्छा होती है कि कर्म बिलकुल घट जायँ और ईश्वर की तरफ मन लगाऊँ।
[इस समय ऐसी इच्छा होती है कि मेरे सांसारिक कर्तव्य बिलकुल घट जायँ और मैं खुद को भगवान के कार्य - Be and Make ' के लिए समर्पित कर सकूं।"
"I now desire that my activities may be much reduced and that I may devote myself greatly to God."
{ "মণি — এখন এরূপ ইচ্ছা হয় যে, কর্ম খুব কমে যায়, — আর ঈশ্বরের দিকে খুব মন দিই।}
श्रीरामकृष्ण - अहा ! तुम्हारी यह मनोकामना निश्चय ही पूर्ण होगी ! “परन्तु ज्ञानी (भी) निर्लिप्त होकर संसार में रह सकता है ।"
"Ah! Certainly your desire will be fulfilled. But a jnani can live unattached in the world." }
{আহা! তা হবে বইকি! “কিন্তু জ্ঞানী নির্লিপ্ত হয়ে সংসারে থাকতে পারে।”
मणि - जी हाँ, परन्तु निर्लिप्त होकर रहने के लिए विशेष शक्ति चाहिए ।
[जी हाँ , परन्तु अनासक्त भाव से निष्काम कर्म Be and Make का प्रचार-प्रसार करने के लिए -गुरुदेव -CINC नवनीदा (ठाकुर, माँ, स्वामीजी) की 'विशेष कृपा' -चपरास' चाहिए !}
"True, sir. But one needs special power to lead an unattached life.
{"মণি — আজ্ঞা, কিন্তু নির্লিপ্ত হতে গেলে বিশেষ শক্তি চাই।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह ठीक है । परन्तु तुमने संसार चाहा होगा ।"श्रीकृष्ण राधिका के हृदय में ही थे, परन्तु राधा की इच्छा उनके साथ मनुष्य रूप में लीला करने की हुई । इसीलिए वृन्दावन में इतनी लीलाएँ हुई । अब प्रार्थना करो जिससे तुम्हारे सांसारिक कर्म सब घट जायँ ।“और मन से त्याग होने से तुम्हें अन्तिम ध्येय की प्राप्ति हो जायगी ।”
"That is also true. But perhaps you wanted the worldly life. Krishna had been enshrined in Radha's heart; but Radha wanted to sport with Him in human form. Hence all the episodes of Vrindavan. Now you should pray to God that your worldly duties may be reduced. And you will achieve the goal if you renounce mentally.]
{ "শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তা বটে। কিন্তু হয়তো তুমি (সংসার) চেয়েছিলে।“কৃষ্ণ শ্রীমতীর হৃদয়েই ছিলেন, কিন্তু ইচ্ছা হল, তাই মানুষরূপে লীলা। “এখন প্রার্থনা করো, যাতে এ-সব কমে যায়। “আর মন থেকে ত্যাগ হলেই হল।”}
मणि - यह ( मानसिक त्याग) तो उनके लिए (गृहस्थों के लिए निर्धारित है) है जो बाहर का त्याग नहीं कर सकते । ऊँचे दर्जेवालों के लिए तो एक साथ ही सब त्याग होना चाहिए - बाहर का भी और भीतर का भी ।
"But mental renunciation is prescribed for those who cannot give up the world outwardly. For superior devotees total renunciation is enjoined — both outer and inner."
{মণি — সে যারা বাহিরে ত্যাগ করতে পারে না। উঁচু থাকের জন্য একেবারেই ত্যাগ — মনের ত্যাগ ও বাহিরের ত্যাগ।}
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । फिर बातचीत करने लगे ।
Sri Ramakrishna was silent a few minutes and then resumed the conversation.]
[ঠাকুর চুপ করিয়া আছেন। আবার কথা কহিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - तुमने वैराग्य की बातें उस समय कैसी सुनीं ?
[ थोड़ी देर पहले , मैंने वैराग्य के विषय में जो कुछ कहा था, क्या वह तुम्हें अच्छा लगा ?]
MASTER: "How did you like what I said about renunciation a little while ago?"
मणि - जी हाँ, खूब ।
M: "Very much, sir."
श्रीरामकृष्ण - वैराग्य का अर्थ क्या है, जरा कहो तो –सुनूँ ।
[ त्याग और वैराग्य (अनासक्ति) में क्या फर्क है , जरा कहो तो सुनूं !]
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বৈরাগ্য মানে কি বল দেখি?
{ "Tell me, what is the meaning of renunciation/unattachment ?"
मणि - वैराग्य का अर्थ सिर्फ संसार से विराग नहीं, ईश्वर पर अनुराग और संसार से विराग है ।
["त्याग / अनासक्ति, का अर्थ केवल संसार के प्रति वैराग्य नहीं है। इसका अर्थ है संसार (मिथ्या-कामिनी-कांचन में आसक्ति ) के प्रति वैराग्य के साथ ही साथ (सत्य) ईश्वर को (काली-कृष्ण के एकत्व को ) पाने की लालसा भी।]
"Renunciation / unattachment , does not mean simply dispassion for the world. It means dispassion for the world and also longing for God.
{"মণি — বৈরাগ্য মানে শুধু সংসারে বিরাগ নয়। ঈশ্বরে অনুরাগ আর সংসারে বিরাগ।}
श्रीरामकृष्ण - हाँ, ठीक कहा । "संसार में धन की जरूरत है अवश्य, परन्तु उसके लिए अधिक चिन्ता न करना । यदृच्छालाभ - यही अच्छा है । संचय के लिए इतना न सोचा करो । जो लोग उन्हें मन और अपने प्राण सौंप देते हैं, जो उनके भक्त हैं - शरणागत हैं, वे लोग यह सब इतना नहीं सोचते । जहाँ आय है वहाँ व्यय भी है । एक ओर से रुपया आता है, दूसरी ओर से खर्च हो जाता है । गीता में इसका नाम है यदृच्छालाभ ।
"You are right. You no doubt need money for your worldly life; but don't worry too much about it. The wise course is to accept what comes of its own accord. Don't take too much trouble to save money. Those who surrender their hearts and souls to God, those who are devoted to Him and have taken refuge in Him, do not worry much about money. As they earn; so they spend. The money comes in one way and goes out the other. This is what the Gita describes as 'accepting what comes of its own accord'.
{" হাঁ, ঠিক বলেছ। “সংসারে টাকার দরকার বটে, কিন্তু উগুনোর জন্য অত ভেবো না। যদৃচ্ছালাভ — এই ভালো। সঞ্চয়ের জন্য অত ভেবো না। যারা তাঁকে মন প্রাণ সমর্পণ করে — যারা তাঁর ভক্ত, শরণাগত, — তারা ও-সব অত ভাবে না। যত্র আয় — তত্র ব্যয়। একদিক থেকে টাকা আসে, আর-একদিক থেকে খরচ হয়ে যায়। এর নাম যদৃচ্ছালাভ। গীতায় আছে।”
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🙏कथकता या गीतिनाट्य में प्रह्लाद-चरित्र, श्रीकृष्ण की जन्मकथा आदि का वर्णन🙏
श्रीरामकृष्ण हरिपद की बातें कहने लगे – “उस दिन हरिपद (हरीपद्दो) आया था ।”
[ঠাকুর হরিপদর কথা কহিতেছেন। — “হরিপদ সেদিন এসেছিল।
”The Master referred to Haripada and said, "He came here the other day."
मणि- (सहास्य) - हरिपद 'कथकता' (पुराणों की कथा का गायन करना) जानता है । प्रह्लाद-चरित्र, श्रीकृष्ण की जन्मकथा, यह सब सस्वर बहुत अच्छा कहता है ।
"He knows how to sing the stories of the Purana, He sings melodiously about the life of Prahlada and the nativity of Sri Krishna.
{"মণি (সহাস্য) — হরিপদ কথকতা জানে। প্রহ্লাদচরিত্র, শ্রীকৃষ্ণের জন্মকথা — এ-সব বেশ সুর করে বলে।}
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, उस दिन मैंने उसकी आँखें देखीं, जान पड़ता था, गुस्से में है । मैंने पूछा, क्या तू ध्यान ज्यादा करता है ? वह सिर झुकाये बैठा रहा । तब मैंने कहा, अरे ! इतना अच्छा नहीं।
"Is that so? That day I looked into his eyes. They had an inward look. I asked him whether he meditated a great deal, but he sat with his eyes cast down and didn't answer. Then I said to him, 'Look here, don't strain yourself too much.
{ 'শ্রীরামকৃষ্ণ — বটে সেদিন তার চক্ষু দেখলাম, যেন চড়ে রয়েছে। বললাম, “তুই কি খুব ধ্যান করিস?” তা মাথা হেঁট করে থাকে। আমি তখন বললাম, অত নয় রে!}
शाम हो गयी है । श्रीरामकृष्ण माता का नाम ले रहे हैं - उनका स्मरण कर रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीठाकुर-मन्दिर में आरती होने लगी । आज सावन की शुक्ला द्वादशी है । झूलनोत्सव का दूसरा दिन है। आकाश में चन्द्रोदय हो गया । मन्दिर, मन्दिर का आँगन, बगीचा, सारे स्थान हँस रहे हैं। धीरे धीरे रात के आठ बजे । कमरे में श्रीरामकृष्ण बैठे हैं । राखाल और मास्टर भी हैं ।
It was now dusk. Sri Ramakrishna, as was usual with him during this part of the day, chanted the names of God and turned his mind to contemplation Soon the moon rose in the sky. The temples, courtyards, and trees were bathed in its silvery light, and millions of broken moons played on the rippling surface of the Ganges. Rakhal and M. were with the Master in his room.
[সন্ধ্যা হইল। ঠাকুর মার নাম করিতেছেন ও চিন্তা করিতেছেন।কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুরবাড়িতে আরতি আরম্ভ হইল। শ্রাবণ শুক্লা দ্বাদশী। ঝুলন-উৎসবের দ্বিতীয় দিন। চাঁদ উঠিয়াছে! মন্দির, মন্দির প্রাঙ্গণ, উদ্যান, — আনন্দময় হইয়াছে। রাত আটটা হইল। ঘরে ঠাকুর বসিয়া আছেন। রাখাল ও মাস্টারও আছেন।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87]
🔆ठाकुर का प्रश्न - क्या छाया-वृक्ष" ("पत्नी") के पास बैठना आनन्दकारी है?🔆
"shade-tree" (The word means "wife")
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बाबूराम कहता है – ‘संसार ! अरे बापरे !’
[बाबूराम (बाबूराम घोष - स्वामी प्रेमानन्द :1861 - 1918) "बाबूराम कहता हैं, 'ओह, विवाह-शादी करके घर बसाना ! भगवान न करे!']
MASTER (to M.): "Baburam says, 'Oh, the worldly life! God forbid!'"
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — বাবুরাম বলে, ‘সংসার! — ওরে বাবা!’
मास्टर - यह सुनी बात है । बाबूराम अभी संसार का हाल क्या जाने !
M: "His opinion is based on mere hearsay. What does he know of the world? He is a mere child."
[মাস্টার — ও শোনা কথা। বাবুরাম সংসারের কি জানে?
श्रीरामकृष्ण - हाँ यह ठीक है । निरंजन को देखा है तुमने ? - बड़ा सरल है ।
मास्टर - जी हाँ । उसके चेहरे में ही आकर्षण है - खींच लेता है । आँखों का भाव कैसा है !
श्रीरामकृष्ण - आँखों का ही भाव नहीं, सब कुछ । उसके विवाह की बात घरवालों ने की थी, उसने कहा, क्यों मुझे डुबाते हो ? (हँसते हुए) क्यों जी, लोग कहते हैं, दिन भर मेहनत करके शाम को बीबी के पास जाकर बैठने से बड़ा आनन्द आता है – यह कैसा है ?
"Not only his eyes, but his entire person. His relatives proposed that he marry. At this he said, 'Why are you going to drown me?' (With a smile) Tell me this. People say that a man finds great pleasure in the company of his wife after the hard work of the day.
{"শ্রীরামকৃষ্ণ — শুধু চোখের ভাব নয় — সমস্ত। তার বিয়ে দেবে বলেছিল, — তা সে বলেছে, আমায় ডুবুবে কেন? (সহাস্য) হ্যাঁগা, লোকে বলে, খেটে-খুটে গিয়ে পরিবারের কাছে গিয়ে বসলে নাকি খুব আনন্দ হয়।}
मास्टर - जी हाँ, जो लोग उसी भाव में हैं, उन्हें आनन्द आता क्यों नहीं ? (राखाल से) मेरी और तुम्हारी परीक्षा हो रही है - Leading Question *.(राखाल से सहास्य- देखते हो हमलोगों की परीक्षा हो रही है ,जिसका यह सूचक प्रश्न है।)}
(*राखाल और एम. दोनों विवाहित थे। Both Rakhal and M. were married.)
{ "That is no doubt true of those who think that way. (To Rakhal, with a smile) We are now being examined. This is a leading question."
আজ্ঞা, যারা ওইভাবে আছে, তাদের হয় বইকি! (রাখালের প্রতি, সহাস্যে, — একজামিন হচ্ছে — leading question.
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - माँ कहती है, मैं अपने बच्चे का विवाह कर दूँ, तो जी ठिकाने हो । धूप में झुलसकर छाँह में थोड़ी देर बैठेगा, तो कुछ ठण्डा तो हो ही लेगा !
[" माँ कहती है, 'अगर मैं अपने बेटे (प्रवृत्ति मार्गी बेटे के लिए) एक सुन्दर "छाया-वृक्ष" (शब्द का अर्थ "सुन्दर पत्नी") का प्रबन्ध कर सकी तो मैं राहत की सांस लूंगी।" जब वह गृहस्थ जीवन की तपिश से झुलसेगा तो उसकी छाया में विश्राम करेगा।]
"A mother says, 'I shall heave a sigh of relief if I can procure a "shade-tree" (The word means "wife") for my son. He will rest in its shade when scorched by the heat of the world.'
{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — মায়ে বলে, ছেলের একটা গাছতলা করে দিলে বাঁচি! রোদে ঝলসা পোড়া হয়ে গাছতলায় বসবে।}
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-87 ]
🔆आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध पिता बच्चे के संस्कार अनुरूप प्रवृत्ति- निवृत्ति का प्रबंध🔆
मास्टर - जी हाँ । माँ बाप भी तरह-तरह के होते हैं । ज्ञानी पिता कभी अपने बच्चों को विवाह के बन्धन में नहीं डालता और अगर ऐसा करता है तब तो क्या कहना चाहिए उसके ज्ञान को ! (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं ।)
"True, sir. But there are parents and parents. A father who is spiritually illumined doesn't give his children in marriage. If he does, his is a fine spirituality!
{ "মাস্টার — আজ্ঞা, রকমারি বাপ-মা আছে। মুক্ত বাপ ছেলেদের বিয়ে দেয় না। যদি দেয় সে খুব মুক্ত! (ঠাকুরের হাস্য)।}
[अधर का चंद्रनाथ तीर्थ और सीताकुंड दर्शन का वर्णन ]
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
🔆चिटगाँव (पूबंगलादेश) सीताकुण्ड के पानी में जिह्वा जैसी अग्नि की शिखाएँ उठती रहती हैं🔆
[অধরের ও মাস্টারের কালীদর্শন। অধরের চন্দ্রনাথতীর্থ ও সীতাকুণ্ডের গল্প ]
श्रीयुत अधर सेन कलकत्ते से आये हैं । श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया, जरा देर बैठकर काली के दर्शन करने चले गये । मास्टर ने भी काली के दर्शन किये । फिर चाँदनी-घाट पर आकर गंगा के तट पर बैठे । गंगा का पानी ज्योत्स्ना में चमक रहा है । ज्वार का आना अभी शुरू हुआ है । मास्टर एकान्त में बैठे हुए श्रीरामकृष्ण के अद्भुत चरित्र की चिन्ता कर रहे हैं । उनकी अद्भुत समाधि, क्षण क्षण में भाव, प्रेम और आनन्द, विश्रामविहीन ईश्वरी कथाप्रसंग, भक्तों पर अकृत्रिम स्नेह, बालक का-सा स्वभाव यही सब सोच रहे हैं ।
[उनकी अद्भुत समाधि , क्षण क्षण में भावाविष्ट होना , प्रेम और आनन्द , विश्रामविहीन ईश्वरी कथाप्रसंग , भक्तों पर अकृत्रिम स्नेह , बालक का -सा स्वभाव --इन्हीं सब बातों का स्मरण कर रहे हैं। और सोच रहे हैं --ये कौन हैं ? क्या सचमुच ईश्वर (काली या कृष्ण) अपने भक्तों के लिए देह धारण करके आये हैं ?
A little later M. was sitting at the bathing-ghat on the Ganges. The flood-tide had just set in. As he listened to the waters lapping against the bank, many pictures of Sri Ramakrishna's divine life flitted before his mind: the Master's deep samadhi, his constant ecstasy, his joy in the love of God, his untiring discourse on spiritual life, his genuine love for the devotees, and, above all, his childlike simplicity. Who was this man? Was it God who had embodied Himself on earth for the sake of His devotees?
{মাস্টারও কালীদর্শন করিলেন। তৎপরে চাঁদনির ঘাটে আসিয়া গঙ্গার কুলে বসিলেন। গঙ্গার জল জ্যোৎস্নায় ঝকঝক করিতেছে। সবে জোয়ার আসিল। মাস্টার নির্জনে বসিয়া ঠাকুরের অদ্ভুত চরিত্র চিন্তা করিতেছেন — তাঁহার অদ্ভুত সমাধি অবস্থা — মুহুর্মুহুঃ ভাব — প্রেমানন্দ — অবিশ্রান্ত ঈশ্বরকথাপ্রসঙ্গ — ভক্তের উপর অকৃত্রিম স্নেহ — বালকের চরিত্র — এই সব স্মরণ করিতেছেন। আর ভাবিতেছেন — ইনি কে — ঈশ্বর কি ভক্তের জন্য দেহ ধারণ করে এসেছেন? ]
अधर और मास्टर श्रीरामकृष्ण के कमरे में गये । अधर दफ्तर के काम से चिटगाँव (पूर्वी बंगाल अब बंगलादेश) में गये थे । वे चन्द्रनाथ तीर्थ और सीताकुण्ड की बातें कह रहे हैं ।
अधर - सीताकुण्ड के पानी में अग्नि की शिखाएँ उठती रहती हैं, जीभ के आकार की ।
Adhar had been to Chittagong, in East Bengal, on official duty. He was telling the Master about his visit to the Chandranath Hills and Sitakunda, sacred places of Chittagong.
{"অধর চট্টগ্রামে কর্ম উপলক্ষে ছিলেন। তিনি চন্দ্রনাথ তীর্থের ও সীতাকুণ্ডের গল্প করিতেছেন। অধর — সীতাকুণ্ডের জলে আগুনের শিখা জিহ্বার ন্যায় লকলক করে।}
ADHAR: "Near Sitakunda I visited a well where I saw fire in the water. It is always burning on the water with leaping tongues.
श्रीरामकृष्ण - यह किस तरह होता है ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — এ কেমন করে হয়?
MASTER: "How is that possible?"
अधर - पानी में फास्फोरस (Phosphorus) है ।
ADHAR: "The water contains phosphorous."
[অধর — জলে ফসফরাস (phosphorus) আছে।
श्रीयुत राम चैटर्जी भी कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण अधर से उनकी तारीफ कर रहे हैं । और कह रहे हैं - “राम है, इसीलिए हम लोगों को अधिक चिन्ता नहीं करनी पड़ती । हरीश, लाटू इन्हें वह बुला बुलाकर खिलाया करता है । वे सब कहीं एकान्त में ध्यान करते रहते हैं और राम उन्हें बुला लाता है।
"Ram's presence in the temple garden has relieved us of many anxieties. He searches out Harish, Latu, and the others at meal-time. Very often they are absorbed in meditation in some corner of the temple garden. It is Ram who sees that they eat at the proper time."
{ “রাম আছে, তাই আমাদের অত ভাবতে হয় না। হরিশ, লাটু, এদের ডেকে-ডুকে খাওয়ায়। ওরা হয়তো একলা কোথায় ধ্যান কচ্ছে। সেখান থেকে রাম ডেকে-ডুকে আনে।”}
=========>>>>>>>><<<<<<<<<=======
🔆🙏 अशोक वाटिका में आम खाने आये हुए हनुमान जी का दृष्टिकोण : श्रीश्री माँ सारदा (सीता) देवी की कृपा प्राप्त नेता के लिए उनकी आज्ञा का पालन करने में ही बुद्धिमानी है।
It is wise to follow the attitude of Hanuman: 'I do not know the day of the week, the phase of the moon, or the position of the stars; I only contemplate Rama.'}You don't need to count the branches and leaves on the trees. You have come to the orchard to eat mangoes. Enjoy them to your heart's content. You have no need of many opinions and discussions. It is enough for you to develop love of God. Afterwards, if it is necessary, God will explain everything to you and tell you about the other paths as wellAfterwards, if it is necessary, God will explain everything to you and tell you about the other paths as well.When you have this love, you are sure to attain God.It is enough to cultivate love of God by following any of the paths.What is the use of knowing many things? The important thing is somehow to cultivate devotion to God and love for Him.
🔆🙏सम्भ्रान्त मनुष्य का आचरण : जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति सभी जीवों की ये तीन सामान्य अवस्थाएं हैं, सुषुप्ति में आत्मज्ञान बना रहे उसी को तुरीयावस्था अर्थाय चौथी अवस्था कहते हैं जो समाधि का पर्याय है। व्याकरण के अनुसार तुरीय का अर्थ है चौथा। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जड़ता की अवस्थाएं हैं, तुरीयावस्था में ही जड़ता से मुक्ति मिलती है, जीव चैतन्य बनता है |
पाश्चात्य शिक्षा की डिक्सनरी से संस्कृत के अर्थ देवभाषा के मूल अर्थों पर थोपने से ऋषियों का ज्ञान समझ में नहीं आएगा । आजकल लोग गर्व से अपने-आप को "सम्भ्रान्त" नागरिक कहते हैं, जबकि सम्भ्रान्त का अर्थ है 'सम्यक रूप से भ्रान्त' (पूर्ण पागल)। अतः देवभाषा के मूल दिव्य अर्थों को सावधानी पूर्वक जानने का प्रयास करना चाहिए । मानवों में वह सामर्थ्य नहीं जो ऐसी दिव्य भाषा बना सके ।चित्त की सम अवस्था को समाधि कहते हैं । समाधि से भिन्न अवस्था को मानसिक व्याधि कहते हैं । धारणा-ध्यान-समाधि में असमर्थ चञ्चल मन इतस्ततः विचरण करे तो विचार कहलाता है । विचार जब व्यवहार में उतरे तो आचार कहलाता है ।
सारे विचार समाधि से भिन्न अवस्था में ही उत्पन्न होते हैं । मन पूर्ण शान्त रहे तो चित्त में कोई भी वृत्ति उत्पन्न ही नहीं होगी । विचार चित्त की वृत्ति है , किन्तु सारे विचार 'दोष' नहीं हैं ! सारी वृत्तियाँ भी दोष नहीं हैं । पहले तामसिक वृत्तियों से पिण्ड छुड़ाना पड़ता है , फिर राजसिक, और अन्त में सात्विक से भी ।
फल की इच्छा से रहित कर्तव्य कर्म संसार में अनिवार्य हैं, योग में बाधक नहीं हैं । सब कुछ मैं ही हूँ , इसका अर्थ यह नहीं कि माता और पत्नी में अन्तर नहीं । आत्मज्ञान मोक्ष का साधन है , किन्तु लौकिक सम्बन्धों में लौकिक व्यवहार तब तक रखना ही पडेगा जब तक संसारचक्र से पूरी तरह मुक्ति न मिल जाय । आत्मज्ञान तर्क और विचार से नहीं मिलता । संस्कार भस्म करने पड़ते हैं ।
जहाँ तक जो कुछ भी है वह केवल "मैं" (आत्म) ही हूँ । यही कैवल्य है । सब कुछ मैं ही हूँ , तो शब्द और विचार का क्या प्रयोजन ? प्रमाण किस काम का ? आँख-नाक लेकर क्या करेंगे ? सब कुछ मैं ही हूँ तो शादी किससे करेंगे ? सब कुछ मैं ही हूँ तो इच्छा किस चीज की ? संकल्प किस बात का ? विकल्प किसलिए ? यही निर्विकल्पता है । सब कुछ मैं ही हूँ तो जानना किसे ? यही असम्प्रज्ञात है । स्वयं को जान लो, बस यही पर्याप्त है । किन्तु यह आसान नहीं ।
पातञ्जल योग-सूत्र के अनुसार असम्प्रज्ञात समाधि से भिन्न अवस्था को "व्युत्थान" कहते हैं ('आत्मतत्व से योग की विपरीत दिशा में चित्त का उत्थान')। वास्तविक समाधि तो "असम्प्रज्ञात समाधि" है जिसमे चिन्तन भी संभव नहीं रहता, मन पूरा शांत और निष्क्रिय रहता है । लेकिन समाधि तो लग जाय और चित्त में प्रज्ञा कार्य करती रहे, तो उसे सम्प्रज्ञात समाधि (याज्ञवल्क्य की भाषा में "अमौन") कहते हैं ।
===============
হাফেজে **** हाफ़िज़ शिराज़ी (Hafez of Shiraz- 1325 - 1389) ईरान के बड़े कवियों में से सबसे बड़े तथा अंतिम कवि हाफिज हैं। क़ुरान के अलावा जो दूसरी किताब ईरान के घर घर में पाई जाती है वो है 'दीवान ए हाफिज़। ' इसके लेखक हाफ़िज़ शिराज़ी (Hafez of Shiraz) के नाम से जाने जाते हैं। हाफिज ने सूफी विचारों तथा प्रेम की अच्छी कल्पनाएँ की हैं। शब्दचयन अत्यंत सुष्ठु तथा मधुर है।
ईरानी शायरी में 'बुलबुल' और 'गुल' (गुलाब के फूल) का वही सम्बन्ध है, जो यहाँ भ्रमर और कमल का है। वहाँ के शायर फूल के खिलने को प्रायः उसका हँसना कहते हैं। हाफ़िज कहते हैं—“इधर तो बेचारा बुलबुल प्रेम से पीड़ित होकर हाय-हाय कर रहा है, उधर फूल खिलखिला कर हँसता है। भला क्योंकर प्रेमी का दिल न जले, जब कि दिलबर (हृदय ले जानेवाला-प्रियतम) स्वयं उसमें (व्यंग्य रूपी) आग लगा रहा है।”
" जो परमात्मा की भक्ति में लीन हो जाते हैं वे साधारण लौकिक मर्यादा की परवा नहीं करते।" हाफ़िज कहते हैं——यद्यपि बुद्धिमानों के निकट यह बदनामी की बात है, पर हम सांसारिक नेकनामी नहीं चाहते। मीराबाई का एक पद्य कुछ इसी से मिलता-जुलता है—सन्तन् सँग बैठ बैठ लोक-लाज खोई।अब तो बात फैल गई जानत सब कोई।। मेरे तो गिरधर गोपाल…….'तृष्णा कभी पूरी नहीं होती,' इस पर हाफ़िज़ कहते हैं——प्राण होंठों पर आगये, पर वासना पूरी न हुई। आशा का अन्त हो गया परन्तु तृष्णा का अन्त न हुआ।
इस भाव को कि " केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो बुद्धि और ज्ञान के द्वारा परमात्मा के प्रेम और भक्ति को अपने अन्तःकरण में धारण कर सकता है।" हाफ़िज़ इस प्रकार वर्णन करते हैं—“आकाश उसके बोझे को नहीं सँभाल सका तब हम मनुष्यों के सिर मढा गया।” इसी बात को एक दूसरे कवि ने जो लिखा है उसका पद्यबद्ध अनुवाद सुनिए—“तीन लोक माँ नाहिं समानो, जोती अखंड अपार तुम्हारी। भक्तन हृदय वास किंहिं कीन्ही, महिमा अपरम्पार तुम्हारी।।”
संसार कंटकमय है, इस विषय में हाफ़िज़ कहते हैं—(1) वह मनुष्य बिलकुल मूढ़ है, जो संसार में आनन्द ढूँढ़ता है।(2) फूल की मुस्कान में विशुद्ध प्रेम और स्नेह लेशमात्र नहीं है। हे बुलबुल, तू चिल्ला कि यह दुहाई देने की बात है। (3) तेरे मार्ग में तमाम कुँऐ खुदे हुए है, अतः सिर झुकाकर (बिना देखे) न चल। तेरे प्याले में विष है, बिना चखे (परीक्षा) न पी।
आत्मनिरीक्षण :" मनुष्य को पहले अपने ही गुप्त-दोष का निरीक्षण करना चाहिए", इस विषय में हाफ़िज़ ने कहा है- 'तुम अच्छे हो या बुरे, यह अपनी अन्तरात्मा से पूछो। क्यों दूसरा तुम्हारी परीक्षा करे।'
समय-सापेक्ष * "धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।" संत कबीर के इस दोहे को समझना आज की जनरेशन के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि आज लोगों में धैर्य न के बराबर होता जा रहा है। शिशु को चलने में एक साल का वक्त लगेगा। आप कुछ भी कर ले वह साल भर का होने से पहले चल नहीं सकेगा। मां को धैर्य रखना होगा। सही बुद्धि (निश्चयात्मिका बुद्धि) का इस्तेमाल करके अपने कर्म करते रहने चाहिए, सही समय आने पर उसका फल हमें मिलने लगेगा। फल मिलने में समय लगता है उसके लिए आपको धैर्य रखना आना चाहिए।
दीपावली पांच दिवसीय त्योहार है : जो धनतेरस से शुरू होकर भैया दूज पर समाप्त होता है
धनतेरस- महर्षि धन्वन्तरि की जयंती होती है उस दिन लोग सोना, चांदी तांबा और पीतल के बर्तन खरीदते है। धनतेरस के दिन ही लक्ष्मी गणेश और कुबेर की मूर्तिया और दीपावली पर पूजन हेतु खील,लइया, चूरा चीनी के खिलौने, खट्टा खरीदते है। दीपावली के दिन सोना चांदी और बर्तन खरीदना शुभ होता है। समुद्र मंथन में इंद्र अमृत भरा कलश लेकर निकले थे।
नर्क चतुर्दशी —इस दिन यम के नाम का दीपक जलाकर नाली के पास रखा जाता है। जो लोग नर्क मे अपना जीवन बिता रहे है उनको प्रकाश मिलता है। इसे छोटी दीपावली भी कहते है।
दीपावली- इस दिन गणेश लक्ष्मी और कुबेर की पूजा होती है घर को साफ सुथरा करके पूरे घर को प्रकाशित किया जाता है। घर के बाहर बिजली की झालर लगाई जाती हैऔर घर को सजाया जाता है।इस दिन लोग आतिशबाजी भी करते है।
गोवर्धन पूजा- दीपावली के दूसरे दिन सारे प्रतिष्ठान दुकाने बंद रहती है। इस दिन परेवा होता है इस दिन गोवर्धन पूजा होती है श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी एक ऊंगली पर उठाकर गोकुल वासियो की इंद्र के प्रकोप से रक्षा की थी।
भाई दूज- कार्तिक शुक्ल द्वितीया : इस दिन बहने अपने भाइयों को टीका लगाती है और मिठाई खिलाती हैवऔर उनके दीर्घायु होने की कामना करती है।
इस प्रकार दीपोत्सव का त्योहार सम्पन्न होता है।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया : 3 नवम्बर, 2024 : भ्रातृ द्वितीया, भाई दूज , भाई फोटा , भाईदूज का त्यौहार भाई-बहन के स्नेह और प्रेम का प्रतीक माना गया है। भाईदूज को यम द्वितीया, भातृ द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है।
इस दिन बहनें अपने भाइयों के मस्तक पर तिलक 🔴 लगाकर उनकी सुख-समृद्धि और दीर्घायु की कामना करती है। स्कंद पुराण में भातृ द्वितीया यानी भाई दूज के बारे में बताया गया है कि, कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन यमुना ने अपने घर में पूजन करके भाई यम यानी यमराज का सत्कार किया था और अपने हाथों से भोजन बनाकर भाई को भोजन करवाया था। भाई दूज के अवसर पर यमराज ने अपनी बहन यमुना को वरदान दिया था कि जो भी भाई यम द्वितीया के दिन अपनी बहन से टीका 🔴लगवाएगा और बहन के हाथों से बना भोजन करेगा उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहेगा। ऐसी मान्यता है आज के दिन जो भाई-बहन मथुरा में यमुनाजी के विश्राम घाट पर स्नान करते हैं, उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। 🙏🙏
यम द्वितीया से जुड़ी कथा
पौराणिक कथा के अनुसार भाई-बहन के इस पवित्र पर्व के कारक सूर्यदेव की पुत्री यमुना और पुत्र यमराज हैं। भगवान सूर्य देवता और उनकी पत्नी संज्ञा के एक पुत्र यम और पुत्री यमुना दो संतान थीं। देवी संज्ञा अपने पति सूर्यदेव के ताप को सहन कर सकें इसलिए वह सूर्यदेव के पास अपनी छाया को छोड़कर खुद तप करने चली गईं। देवी छाया को यम और यमुना से किसी प्रकार का लगाव न था, किंतु यम और यमुना में बहुत प्रेम था। देवी छाया यम तथा यमुना से बुरा व्यवहार करने लगीं। इससे दुखी होकर यम ने यमपुरी नामक अपनी एक नई नगरी बसाई और वहां चले गए।
यमपुरी में यम को पापियों को दण्ड देने का काम करते देखकर यमुना जी गोलोक आ गईं। शास्त्रों के अनुसार यमुनाजी अपने भाई 'यम' से बड़ा स्नेह करतीं थीं, वे अपने भाई यम से बार-बार आग्रह करती कि वह उसके घर आयें और भोजन करें।
चाहते हुए भी यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण बहन यमुना के घर नहीं जा पाते। बहुत समय बीत जाने पर एक दिन 'यम' को बहन यमुना की बहुत याद आई और उन्होंने बहन के घर जाने की ठान ली। यम ने अपने दूतों से यमुना को ढूंढ़ने के लिए कहा, लेकिन उन्हें तलाशने में दूत सफल नहीं रहे।
तब यमराज स्वयं ही गोलोक गए जहाँ विश्राम घाट पर यमुना जी से भेंट हुई भाई को देखते ही यमुना ने भावविभोर होकर उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया तथा उन्हें अनेकों प्रकार के परम स्वादिष्ट व्यंजन भोजन में परोसे।
इससे यमदेव बहुत प्रसन्न हुए और बहन से कहा-बहन ! आज तुम कोई भी मनोवांछित वर मांग लो, बहन यमुना के मन में कलयुग में जन कल्याण की चिंता हुई और उन्होंने कहा, भैया मुझे वरदान दो कि जो भाई-बहन यम द्वितीया के दिन मेरे जल में स्नान करें उन्हें यमलोक की कठोर यातनायें न सहन करनी पड़े। जनकल्याण के लिए अपनी बहन की ऐसी इच्छा देख यमदेव ने कहा,'तथास्तु ' !
जिस दिन मृत्यु के देवता यम यमुना से मिलने आए वह कार्तिक शुक्ल द्वितीया का दिन था, तभी से ऐसा माना जाने लगा कि जो भाई बहन इस दिन हाथ पकड़ कर यमुना में डुबकी लगाएंगे उन्हें नरक से मुक्ति मिल जाएगी।
यही कारण है कि सदियों से भाई-बहन आज भी यानि भाई दूज के दिन यमुना नदी में एक साथ डुबकी लगाने के लिये आते हैं।
यह भी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण नरकासुर को मारने के बाद अपनी बहन सुभद्रा के घर गए थे। वहां सुभद्रा ने उनके मष्तक पर तिलक🔴 लगा कर आरती उतार कर उनका स्वागत किया था। तभी से भाई दूज का यह पर्व मनाया जाने लगा आप सभी को 3 नवम्बर, 2024 को भाईदूज की खूब खूब बधाई🙏🙏🪔🪔
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।7.3।।
।।7.3।। हजारों मनुष्यों में कोई एक वास्तविक सिद्धि के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धों में कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है।
आत्मज्ञान तथा उसका अपरोक्ष अनुभव प्राप्त करने वाले साधक विरले ही होते हैं। वेदान्त के सिद्धांतों को भी (Oneness and Inherent Divinity को भी) एक आश्चर्य के समान सुना तथा समझा जाता है। उपनिषदों में भी इसी तथ्य का ऋषियों ने वर्णन किया है। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार आत्मज्ञान की प्राप्ति का उत्तरदायितत्व साधक पर ही निर्भर है। यदि कोई साधक इस अनुभव को प्राप्त नहीं कर पाता है तो उसका एकमात्र कारण आवश्यक पुरुषार्थ का अभाव है। वेदान्त अध्यात्म विषयक विज्ञान होने के कारण हमारे लिए अपने अवगुणों का ज्ञानमात्र पर्याप्त नहीं है वरन् उसकी निवृत्ति के लिए और आत्मबल की वृद्धि के लिए आवश्यक है कि हम वेदान्त ज्ञान को अपने जीवन में उतारने का भी सदैव प्रयत्न करें।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि किसी विरले पुरुष में ही आत्मोन्नति की तीव्र अभिलाषा होती है जिसके लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहता है। सहस्रों मनुष्यों में से जो लोग वेदान्त का श्रवण करते हैं तथा सम्भवतः बौद्धिक स्तर पर तत्प्रतिपादित समस्त सिद्धांतों को समझते भी हैं उनमें भी कोई कोई पुरुष ही ऐसे होते हैं जो आध्यात्मिक जीवन पद्धति को पूर्णतया अपनाते हैं ! ऐसे (3'H' विकास के 5 अभ्यास के प्रति) प्रयत्नशील साधकों में से कोई एक साधक मुझे तत्त्व से जानता है।
इसके अनेक कारण हैं। जब शिष्य उत्साहपूर्वक एकाग्रचित्त होकर सद्गुरु के उपदेश का श्रवण करता है तब वह स्वयं किसी सीमा तक ऊँचा उठ भी सकता है। परन्तु हो सकता है कि सत्य के द्वार तक पहुँचकर भी वह किसी सूक्ष्म एवं अज्ञात अभिलाषा अथवा अनजाने गर्व के कारण अपनी प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध कर ले और इस प्रकार सत्य के दर्शन से वंचित ही रह जाय। इस दृष्टि से ईसामसीह की यह घोषणा अर्थपूर्ण है कि एक धनवान् व्यक्ति के स्वर्ग द्वार में प्रवेख करने की अपेक्षा एक ऊँट सुई के छिद्र से सरलता से प्रवेश करके बाहर निकल सकता है। यहाँ धन शब्द से अभिप्राय मन में कामिनी-कांचन के संचित वासनाओं में घोर आसक्ति से है- न कि किसी जनक राजा की लौकिक सम्पत्ति से। जब तक मन पूर्णतया वासनारहित होकर पवित्र नहीं हो जाता तब तक वह सत्य के आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता है।
भगवान् श्रीकृष्ण की दृष्टि को ध्यान में रखकर इस श्लोक पर विचार करने से उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि विरले लोग ही वेदान्त का श्रवण करके उसके सिद्धांत को यथार्थ रूप में समझ पाते हैं। उनमें भी ऐसे साधकों की संख्या बहुत कम ही होती है जिनमें सत्य एवं पवित्र जीवन जीने के लिए लक्ष्य का आवश्यक ज्ञान मन की दृढ़ता शारीरिक सहनशक्ति तथा प्रयत्न की सम्पन्नता हो। अर्जुन तथा गीता के जिज्ञासु लोग ऐसे ही विरले पुरुष हैं जो आत्मज्ञान के अधिकारी हैं। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण विज्ञान के सहित ज्ञान के उपदेश का वचन देते हैं जिससे आत्मा का साक्षात् अनुभव हो सकता है।
[(3 अगस्त, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
(2nd जनवरी, 2024 से Nacl ) पहले किस कृष्ण (ठाकुर जी T) को देखा पता नहीं। अब जिसको देख रही है वे तो एकदम नव -नवयमान है। इस प्रकार नित्य नया रस , नित्य नया आनंद , इस लीला- विलास का नाम " अनुराग " है। जब इसमें प्रगाढता आती है तब भाव कहलाता है। जब भाव पूर्ण को प्राप्त हो जाता है तब वह महाभाव बन जाता है।... जब चित्त में भगवान के सिवा अन्य किसी विषय की जरा भी चाह नहीं रहती। जब सर्वेन्द्रिय के द्वारा श्रीकृष्ण (ठाकुर जी T) की सेवा में ही रत हुआ जाता है, तब उसे "रति " कहते है। जब रति में प्रगाढ़ता आती है तो उसे प्रेम कहते है। प्रेम में अनन्य ममता होती है सब जगह से सारी ममता निकलकर यह भाव हो जाए कि "सर्वज्ञ", "सर्वदा" और "सर्वथा" एकमात्र श्रीकृष्ण (ठाकुर जी T) के सिवा और कोई मेरा नहीं है, इसी का नाम "प्रेम" है।]
🙏ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम ही वस्तु है बाकि सब मिथ्या है 🙏 "যে যার ইষ্ট সে তার আত্মা - শ্রী রামকৃষ্ণ !" अर्थात किसी व्यक्ति के लिए जो उसका इष्टदेव (beloved) है, और गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र से जो उसका नाम जप करता है, वही उसकी आत्मा का मूर्त रूप है! अतएव इष्टदेव या आत्मा के प्रति अनन्य श्रद्धा और प्रेम रखना ही सत्य वस्तु है बाकि सब मिथ्या है।
... That is, the person who chants the name of his/her beloved (Ishta-Deva) with the mantra given by the Guru, is the embodiment of his/her soul. Therefore, having exclusive faith and love towards Ishtadev or soul is the only true thing, everything else is false.
==============
[लेकिन C-IN-C नवनीदा जैसे परमहंस जो ईश्वर के सगुण -साकार रूप (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, श्री माँ सारदा , स्वामी विवेकानन्द ) में विश्वास करते हैं; वे ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी 'मनुष्य रूपी ईश्वर से प्रेम बनाये रखते हैं, ताकि वे दूसरों को आध्यात्मिक सत्य की शिक्षा दे सकें। स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त लीडरशिप परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे परमहंस (CINC), राजर्षि भर्तृहरि को उद्धरित करते हुए कहते थे -
मनसि वचसि काये पुण्य पीयूष पूर्णाः
त्रिभुवनं उपकार श्रेणिभिः प्रीणयन्तः
परगुण परमाणून् पर्वती कृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ।
(नीतिशतकम् (५३/२२१)
पदार्थः---मनसि---मन में , वचसि---वाणी में, काये---शरीर में, पुण्यपीयूषपूर्णाः---पुण्यरूप अमृत से भरे हुए, त्रिभुवनम्---तीनों लोकों को, उपकारश्रेणिभिः--उपकारों की पंक्ति से, प्रीणयन्तः---प्रसन्न रखते हुए, नित्यम्---सदा, परगुणपरमाणून्---दूसरों के छोटे-से-छोटे गुणों को भी, पर्वतीकृत्य--पर्वत के समान बढ़ा -चढ़ाकर, (बढ़ाकर), निजहृदि विकसन्तः--अपने हृदय में विकसित करते हुए , सन्तः, सज्जन व्यक्ति, (संसार में), कियन्तः सन्ति---कितने हैं ।
भावार्थः----मन, वाणी और शरीर (3H) में सत्कर्मरूपी अमृत से परिपूर्ण, तीनों लोकों का अनेक प्रकार के उपकारों से कल्याण करने वाले और दूसरों के थोड़े से भी गुणों को सर्वदा पहाड़ की तरह (बहुत बड़ा) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष कितने हैं, अर्थात् ऐसे सज्जन बहुत कम हैं, दुर्लभ हैं।]