विद्यासागर चुप रहे । श्रीरामकृष्ण फिर कहने लगे- “तुम्हारा कर्म सात्त्विक कर्म है । यह सत्त्व का रजस् है । सत्त्वगुण से दया होती है । दया से जो कर्म किया जाता है, वह ही तो राजसिक कर्म सही, पर यह रजोगुण सत्त्व का रजोगुण है, इसमें दोष नहीं है। शुकदेव आदि ने लोकशिक्षा के लिए दया रख ली थी- ईश्वर के विषय में शिक्षा देने के लिए । तुम विद्यादान और अन्नदान कर रहे हो- यह भी अच्छा है । निष्काम रीति से कर सको तो इससे ईश्वर-लाभ होगा । कोई करता है नाम के लिए, कोई पुण्य के लिए- उनका कर्म निष्काम नहीं ।
“फिर 'सिद्ध' तो तुम हो ही ।”
[“তোমার কর্ম সাত্ত্বিক কর্ম। সত্ত্বের রজঃ। সত্ত্বগুণ থেকে দয়া হয়। দয়ার জন্য যে কর্ম করা যায়, সে রাজসিক কর্ম বটে — কিন্তু এ রজোগুণ — সত্ত্বের রজোগুণ, এতে দোষ নাই। শুকদেবাদি লোকশিক্ষার জন্য দয়া রেখেছিলেন — ঈশ্বর-বিষয় শিক্ষা দিবার জন্য। তুমি বিদ্যাদান অন্নদান করছ, এও ভাল। নিষ্কাম করতে পারলেই এতে ভগবান-লাভ হয়। কেউ করে নামের জন্য, পুণ্যের জন্য, তাদের কর্ম নিষ্কাম নয়। আর সিদ্ধ তো তুমি আছই।”
"Your activities are inspired by sattva. Though they are rajasic, they are influenced by sattva. Compassion springs from sattva. Though work for the good of others belongs to rajas, yet this rajas has sattva for its basis and is not harmful. Suka and other sages cherished compassion in their minds to give people religious instruction, to teach them about God. You are distributing food and learning. That is good too. If these activities are done in a selfless spirit they lead to God. But most people work for fame or to acquire merit. Their activities are not selfless. Besides, you are already a siddha."
(Literally, "perfect" or "boiled"; the word is applied both to the perfected soul and to boiled things.)
विद्यासागर- महाराज, यह कैसे?
[বিদ্যাসাগর — মহাশয়, কেমন করে?
VIDYASAGAR: "How is that, sir?"
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏सिद्धपुरुष (ब्रह्मविद) दयालु और विनम्र हो जाते हैं,
किताबी पण्डित की कामिनी-कांचन में आसक्ति बनी रहती है,
इसलिए वे अन्त तक आँठी जैसा सख्त ही बने रहते हैं । 🔆🙏
[सिद्ध का शाब्दिक अर्थ है "पूर्ण" या "उबला हुआ"; यह 'सिद्ध ' शब्द परिपूर्ण आत्मा (perfected soul ) और उबली हुई चीजों दोनों पर लागू होता है। ]
श्रीरामकृष्ण (सहास्य)-आलू-परवल सिद्ध होने से (पक जाने से) नरम हो जाते हैं-सो तुम भी बहुत नर्म हो। तुम्हारी ऐसी दया ! (हास्य)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — আলু পটল সিদ্ধ হলে তো নরম হয়, তা তুমি তো খুব নরম। তোমার অত দয়া! (হাস্য)
MASTER (laughing): "When potatoes and other vegetables are well cooked, they become soft and tender. And you possess such a tender nature! You are so compassionate!" (Laughter.)
विद्यासागर (सहास्य) - पीसा उरद तो सिद्ध होने पर सख्त हो जाता है । (सब हँसे ।)
[বিদ্যাসাগর (সহাস্য) — কলাই বাটা সিদ্ধ তো শক্তই হয়! (সকলের হাস্য)
VIDYASAGAR (laughing): "But when the paste of kalai pulse is boiled it becomes all the harder."
श्रीरामकृष्ण- तुम वैसे क्यों होने लगे? खाली पण्डित कैसे हैं- मानो एक पके फल का अंश (आँठी) जो अन्त तक कठोर ही रह जाता है । वे न इधर के हैं न उधर के । गीध खूब ऊँचा उड़ता है, पर उसकी नजर हड़ावर पर ही रहती है । जो खाली किताबी -पण्डित हैं, वे सुनने के ही हैं, पर उनकी कामिनी-कांचन पर आसक्ति होती है- गीध की तरह वे सड़ी लाशें ढूँढ़ते हैं । आसक्ति का घर अविद्या के संसार में है । दया, भक्ति, वैराग्य-ये विद्या के ऐश्वर्य हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি তা নও গো; শুধু পণ্ডিতগুলো দরকচা পড়া! না এদিক, না ওদিক। শকুনি খুব উঁচুতে উঠে, তার নজর ভাগাড়ে। যারা শুধু পণ্ডিত শুনতেই পণ্ডিত, কিন্তু তাদের কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি — শকুনির মতো পচা মড়া খুঁজছে। আসক্তি অবিদ্যার সংসারে। দয়া, ভক্তি, বৈরাগ্য বিদ্যার ঐশ্বর্য।
"But you don't belong to that class. Mere pundits are like diseased fruit that becomes hard and will not ripen at all. Such fruit has neither the freshness of green fruit nor the flavour of ripe. Vultures soar very high in the sky, but their eyes are fixed on rotten carrion on the ground. The book-learned are reputed to be wise, but they are attached to 'woman and gold'. Like the vultures, they are in search of carrion. They are attached to the world of ignorance. Compassion, love of God, and renunciation are the glories of true knowledge."
विद्यासागर चुपचाप सुन रहे हैं । सभी टकटकी बाँधे इस आनन्दमय पुरुष को देख रहे हैं, उनका वचनामृत पान कर रहे हैं ।
[বিদ্যাসাগর চুপ করিয়া শুনিতেছেন। সকলেই একদৃষ্টে এই আনন্দময় পুরুষকে দর্শন ও তাঁহার কথামৃত পান করিতেছেন।
Vidyasagar listened to these words in silence. The others, too, gazed at the Master and were attentive to every word he said.
(३)
श्रीरामकृष्ण : ज्ञानयोग अथवा वेदान्त-विचार
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏“श्रीश्रीहरिः शरणम्” का ध्यान हमें अनुकरणीय मनुष्य बनाता है🔆🙏
विद्यासागर बड़े विद्वान हैं । जब संस्कृत कालेज में पढ़ते थे तब अपनी श्रेणी के सब से अच्छे छात्र थे । हरएक परीक्षा में प्रथम होते और स्वर्णपदक आदि अथवा छात्रवृत्तियाँ पाते थे । होते होते वे संस्कृत कालेज के प्रधान अध्यापक तक हुए थे । संस्कृत व्याकरण तथा काव्य में उन्होंने विशेष ज्ञान प्राप्त किया था । स्वयं के प्रयत्न से अंग्रेजी सीखी थी ।
[বিদ্যাসাগর মহাপণ্ডিত। যখন সংস্কৃত কলেজে পড়িতেন, তখন নিজের শ্রেণীর সর্বোৎকৃষ্ট ছাত্র ছিলেন। প্রতি পরীক্ষায় প্রথম হইতেন ও স্বর্ণপদকাদি (Medal) বা ছাত্রবৃত্তি পাইতেন। ক্রমে সংস্কৃত কলেজের প্রধান অধ্যাপক হইয়াছিলেন। তিনি সংস্কৃত ব্যাকারণ ও সংস্কৃত কাব্যে বিশেষ পারদর্শিতা লাভ করিয়াছিলেন। অধ্যবসায় গুণে নিজে চেষ্টা করিয়া ইংরেজী শিখিয়াছিলেন।
विद्यासागर किसी को धर्मशिक्षा नहीं देते थे । वे दर्शनादि ग्रन्थ पढ़ चुके थे । मास्टर ने एक दिन उनसे पूछा, “आपको हिन्दू दर्शन कैसे लगते हैं?” उन्होंने जवाब दिया, “मुझे यह मालुम होता है कि वे जो चीज समझाने गए उसे समझा न सके ।” वे हिन्दुओं की भाँति श्राद्धादि सब धर्मानुष्ठान करते थे, गले में जनेऊ धारण करते थे, अपनी भाषा में जो पत्र लिखते थे, उनमें सब से पहले “श्रीश्रीहरिः शरणम्” यह ईश्वरवन्दानात्मक वाक्य लिखते थे ।
[ধর্ম-বিষয়ে বিদ্যাসাগর কাহাকেও শিক্ষা দিতেন না। তিনি দর্শনাদি গ্রন্থ পড়িয়াছিলেন। মাস্টার একদিন জিজ্ঞাসা করিয়াছিলেন, “আপনার হিন্দুদর্শন কিরূপ লাগে?” তিনি বলিয়াছিলেন, “আমার তো বোধ হয়, ওরা যা বুঝতে গেছে, বুঝাতে পারে নাই।” হিন্দুদের ন্যায় শ্রাদ্ধাদি ধর্মকর্ম সমস্ত করিতেন, গলায় উপবীত ধারণ করিতেন, বাঙলায় যে-সকল পত্র লিখিতেন, তাহাতে ‘শ্রীশ্রীহরিশরনম্’ ভগবানের এই বন্দনা আগে করিতেন।
[Vidyasagar was very reticent (अल्पभाषी) about giving religious instruction to others. He had studied Hindu philosophy. Once, when M. had asked him his opinion of it, Vidyasagar had said, "I think the philosophers have failed to explain what was in their minds." But in his daily life he followed all the rituals of Hindu religion and wore the sacred thread of a brahmin.
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏हमें ऐसा अनुकरणीय (exemplary ) मनुष्य बनना चाहिए
कि यदि सब कोई वैसे हों तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाय🔆🙏
[আমাদের নিজের এরূপ হওয়া উচিত যে, সকলে যদি সেরূপ হয়,
পৃথিবী স্বর্গ হয়ে পড়বে।
we should live in such a way that, if others followed
our example, this very earth would be heaven.]
मास्टर ने और एक दिन उनको ईश्वर के विषय में यह कहते सुना, “ईश्वर को कोई जान तो सकता नहीं। फिर करना क्या चाहिए? मेरी समझ में, हम लोगों को (अपने जीवन से उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए,) ऐसा मनुष्य बनना चाहिए कि यदि सब कोई वैसे हों तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाय । हरएक को ऐसी चेष्टा करनी चाहिए कि (Be and Make की चेष्टा ) जिससे जगत् का भला हो ।”
[মাস্টার আর একদিন তাঁহার মুখে শুনিয়াছিলেন, তিনি ঈশ্বর সম্বন্ধে কিরূপ ভাবেন। বিদ্যাসাগর বলিয়াছিলেন, “তাঁকে তো জানবার জো নাই! এখন কর্তব্য কি? আমার মতে কর্তব্য, আমাদের নিজের এরূপ হওয়া উচিত যে, সকলে যদি সেরূপ হয়, পৃথিবী স্বর্গ হয়ে পড়বে। প্রত্যেকের চেষ্টা করা উচিত যাতে জগতের মঙ্গল হয়।”
About God he had once declared: "It is indeed impossible to know Him. What, then, should be our duty? It seems to me that we should live in such a way that, if others followed our example, this very earth would be heaven. Everyone should try to do good to the world."
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏मनुष्य बनने और बनाने 'Be and Make' का प्रशिक्षण लेना अनिवार्य क्यों है ?🔆🙏
[ब्रह्म , माया या द्वैत- भ्रम, 'illusion of duality' के परे है !]
विद्यासागर बड़े पण्डित हैं- शायद षट्दर्शन पढ़कर उन्होंने देखा है कि ईश्वर के विषय में कुछ भी जानना सम्भव नहीं । विद्या और अविद्या की चर्चा करते हुए श्रीरामकृष्ण अब ब्रह्मज्ञान की बात कह रहे हैं ।
[गुरु-शिष्य परम्परा अर्थात "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित हुए बिना और केवल शास्त्र पढ़कर, ईश्वर -माँ काली के अवतार (C-IN-C नवनीदा) को पहचानना या उनके विषय में कुछ भी जानना सम्भव नहीं।]
[ বিদ্যাসাগর মহাপণ্ডিত। ষড় দর্শন পাঠ করিয়া দেখিয়াছেন, বুঝি ঈশ্বরের বিষয় কিছুই জানা যায় না। বিদ্যা ও অবিদ্যার কথা কহিতে কহিতে ঠাকুর ব্রহ্মজ্ঞানের কথা কহিতেছেন।
Sri Ramakrishna's conversation now turned to the Knowledge of Brahman.
श्रीरामकृष्ण- ब्रह्म' विद्या और अविद्या दोनों के परे है, वह मायातीत है। (अर्थात ब्रह्म , माया या द्वैत- भ्रम, illusion of duality' के परे है !)
[ "Brahman is beyond vidya and avidya, knowledge and ignorance. It is beyond maya, the illusion of duality.]
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏जगत् ज्ञान और अज्ञान के मायावी द्वैत से बना है,परन्तु ब्रह्म निर्लिप्त है 🔆🙏
“इस जगत् में ज्ञानभक्ति (विद्या) भी हैं, और साथ ही
कामिनी-कांचन में आसक्ति (अविद्या) भी है परन्तु ब्रह्म निर्लिप्त है।
এই জগতে বিদ্যামায়া অবিদ্যামায়া দুই-ই আছে; জ্ঞান-ভক্তি আছে আবার কামিনী-কাঞ্চনও আছে,
[The world consists of the illusory duality of knowledge and ignorance.]
“इस जगत् में विद्यामाया और अविद्यामाया दोनों हैं, ज्ञानभक्ति भी हैं, और साथ ही कामिनी-कांचन में आसक्ति भी है, सत् भी हैं और असत् भी, भला भी है और बुरा भी, परन्तु ब्रह्म निर्लिप्त है । भला-बुरा जीवों के लिए है, सत्-असत् जीवों के लिए । वह ब्रह्म को स्पर्श नहीं कर सकता ।
[“এই জগতে বিদ্যামায়া অবিদ্যামায়া দুই-ই আছে; জ্ঞান-ভক্তি আছে আবার কামিনী-কাঞ্চনও আছে, সৎও আছে, অসৎও আছে। ভালও আছে আবার মন্দও আছে। কিন্তু ব্রহ্ম নির্লিপ্ত। ভাল-মন্দ জীবের পক্ষে, সৎ-অসৎ জীবের পক্ষে, তাঁর ওতে কিছু হয় না।
"The world consists of the illusory duality of knowledge and ignorance. It contains knowledge and devotion, and also attachment to 'woman and gold; righteousness and unrighteousness; good and evil. But Brahman is unattached to these. Good and evil apply to the jiva, the individual soul, as do righteousness and unrighteousness; but Brahman is not at all affected by them.
“जैसे, दीप के सामने कोई भागवत पढ़ रहा है और कोई जाल रच रहा है, पर दीप निर्लिप्त है ।
सूर्य "शिष्ट " पर भी प्रकाश डालता है और "दुष्ट " पर भी ।
[“যেমন প্রদীপের সম্মুখে কেউ বা ভাগবত পড়ছে, আর কেউ বা জাল করছে। প্রদীপ নির্লিপ্ত। “সূর্য শিষ্টের উপর আলো দিচ্ছে, আবার দুষ্টের উপরও দিচ্ছে।
"One man may read the Bhagavata by the light of a lamp, and another may commit a forgery by that very light; but the lamp is unaffected. The sun sheds its light on the wicked as well as on the virtuous.}
“यदि कहो कि दुःख, पाप, अशान्ति ये सब फिर क्या हैं, -तो उसका जवाब यह है कि वे सब जीवों के लिए हैं, ब्रह्म निर्लिप्त है । साँप में विष है; औरों को डसने से वे मर जाते हैं, पर साँप को उससे कोई हानि नहीं होती ।”
[“যদি বল দুঃখ, পাপ, অশান্তি — এ-সকল তবে কি? তার উত্তর এই যে, ও-সব জীবের পক্ষে। ব্রহ্ম নির্লিপ্ত। সাপের ভিতর বিষ আছে, অন্যকে কামড়ালে মরে যায়। সাপের কিন্তু কিছু হয় না।
"You may ask, 'How, then, can one explain misery and sin and unhappiness?' The answer is that these apply only to the jiva. Brahman is unaffected by them. There is poison in a snake; but though others may die if bitten by it, the snake itself is not affected by the poison.}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏ब्रह्म अनिर्वचनीय, ‘अव्यपदेश्यम्’ (जिसका शब्दों में वर्णन न हो सके) है🔆🙏
[ब्रह्म अज्ञात और अज्ञेय — The Unknown and Unknowable है !]
“ब्रह्म (आत्मा ) क्या है सो मुँह से नहीं कहा जा सकता । सभी चीजें जूठी हो गयी हैं; वेद, पुराण, तन्त्र, षट्दर्शन सब जूठे हो गये हैं । मुँह से पढ़े गए हैं, मुँह से उच्चारित हुए हैं- इसी से जूठे हो गए । पर केवल एक वस्तु जूठी नहीं हुई है-वह वस्तु ब्रह्म है । ब्रह्म क्या है यह आज तक कोई मुँह से नहीं कह सका ।”
[“ব্রহ্ম যে কি, মুখে বলা জায় না। সব জিনিস উচ্ছিষ্ট হয়ে গেছে। বেদ, পুরাণ, তন্ত্র, ষড় দর্শন — সব এঁটো হয়ে গেছে! মুখে পড়া হয়েছে, মুখে উচ্চারণ হয়েছে — তাই এঁটো হয়েছে। কিন্তু একটি জিনিস কেবল উচ্ছিষ্ট হয় নাই, সে জিনিসটি ব্রহ্ম। ব্রহ্ম যে কি, আজ পর্যন্ত কেহ মুখে বলতে পারে নাই।”
"What Brahman is cannot be described. All things in the world — the Vedas, the Puranas, the Tantras, the six systems of philosophy — have been defiled, like food that has been touched by the tongue, for they have been read or uttered by the tongue. Only one thing has not been defiled in this way, and that is Brahman. No one has ever been able to say what Brahman is."}
विद्यासागर (मित्रों से) -वाह ! यह तो बड़ी सुन्दर बात हुई ! आज मैंने एक नयी बात सीखी ।
[বিদ্যাসাগর (বন্ধুদের প্রতি) — বা! এটি তো বেশ কথা! আজ একটি নূতন কথা শিখলাম।
"Oh! That is a remarkable statement. I have learnt something new today.")
श्रीरामकृष्ण- एक पिता के दो लड़के थे । ब्रह्मविद्या सीखने के लिए पिता ने लड़कों को आचार्य को सौंपा। कुछ वर्ष बाद वे गुरुगृह से लौटे, आकर पिता को प्रणाम किया । पिता की इच्छा हुई कि देखें इन्हें कैसा ब्रह्मज्ञान हुआ । बड़े बेटे से उन्होंने पूछा, ‘बेटा, तुमने तो सब कुछ पढ़ा है, अब बताओ ब्रह्म कैसा है ।’ बड़ा लड़का वेदों से बहुत से श्लोकों की आवृत्ति करते हुए ब्रह्म का स्वरूप समझाने लगा; पिता चुप रहे । जब उन्होंने छोटे लड़के से पूछा तो वह सिर झुकाए चुप रहा, मुँह से बात न निकली; तब पिता ने प्रसन्न होकर छोटे लड़के से कहा, ‘बेटा, तुम्हीं ने कुछ समझा है । ब्रह्म क्या है यह मुँह से नहीं कहा जा सकता ।’
[শ্রীরামকৃষ্ণ — এক বাপের দুটি ছেলে। ব্রহ্মবিদ্যা শিখবার জন্য ছেলে দুটিকে, বাপ আচার্যের হাতে দিলেন। কয়েক বৎসর পরে তারা গুরুগৃহ থেকে ফিরে এল, এসে বাপকে প্রণাম করলে। বাপের ইচ্ছা দেখেন, এদের ব্রহ্মজ্ঞান কিরূপ হয়েছে। বড় ছেলেকে জিজ্ঞাসা করলেন, “বাপ! তুমি তো সব পড়েছ, ব্রহ্ম কিরূপ বল দেখি?” বড় ছেলেটি বেদ থেকে নানা শ্লোক বলে বলে ব্রহ্মের স্বরূপ বুঝাতে লাগল! বাপ চুপ করে রইলেন। যখন ছোট ছেলেকে জিজ্ঞাসা করলেন, সে হেঁটমুখে চুপ করে রইল। মুখে কোন কথা নাই। বাপ তখন প্রসন্ন হয়ে ছোট ছেলেকে বললেন, “বাপু! তুমি একটু বুঝেছ। ব্রহ্ম যে কি। মুখে বলা যায় না।”
MASTER: "A man had two sons. The father sent them to a preceptor (गुरु) to learn the Knowledge of Brahman. After a few years they returned from their preceptor's house and bowed low before their father. Wanting to measure the depth of their knowledge of Brahman, he first questioned the older of the two boys. 'My child,' he said, 'you have studied all the scriptures. Now tell me, what is the nature of Brahman?' The boy began to explain Brahman by reciting various texts from the Vedas. The father did not say anything. Then he asked the younger son the same question. But the boy remained silent and stood with eyes cast down. No word escaped his lips. The father was pleased and said to him: 'My child, you have understood a little of Brahman. What It is cannot be expressed in words.'
“मनुष्य सोचता है कि हम ईश्वर को जान गए । एक चींटी चीनी के पहाड़ के पास गयी थी । एक दिन खाकर उसका पेट भर गया, एक दूसरा दाना मुँह में लिए अपने डेरे को जाने लगी, जाते समय सोच रही है कि अब की बार आकर समूचे पहाड़ को ले जाऊँगी । क्षुद्र जीव यही सब सोचते हैं-वे नहीं जानते कि ब्रह्म वाक्य-मन के अतीत है ।
[“মানুষ মনে করে, আমরা তাঁকে জেনে ফেলেছি। একটা পিঁপড়ে চিনির পাহাড়ে গিছল। এক দানা খেয়ে পেট ভরে গেল, আর এক দানা মুখে করে বাসায় যেতে লাগল, যাবার সময় ভাবছে — এবার এসে সব পাহাড়টি লয়ে যাব। ক্ষুদ্র জীবেরা এই সব মনে করে। জানে না ব্রহ্ম বাক্যমনের অতীত।
"Men often think they have understood Brahman fully. Once an ant went to a hill of sugar. One grain filled its stomach. Taking another grain in its mouth it started homeward. On its way it thought, 'Next time I shall carry home the whole hill.' That is the way shallow minds think. They don't know that Brahman is beyond one's words and thought.}
“कोई भी हो-वह (मैं ?) कितना ही बड़ा क्यों न हो, ईश्वर को जान थोड़े ही सकता है ! शुकदेव आदि मानो बड़े चींटे हैं-चीनी के आठ-दस दाने मुँह में ले लें-और क्या?”
[“যে যতই বড় হউক না কেন, তাঁকে কি জানবে? শুকদেবাদি না হয় ডেও-পিঁপড়ে — চিনির আট-দশটা দানা না হয় মুখে করুক।”
However great a man may be, how much can he (मैं ?) know of Brahman? Sukadeva and sages like him may have been big ants; but even they could carry at the utmost eight or ten grains of sugar!}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏निर्विकल्प समाधि और ब्रह्मज्ञान - 'ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूप है'🔆🙏
“वेद-पुराणों में जो ब्रह्म के विषय में कहा गया है, वह किस ढंग का कथन है सो सुनो । एक आदमी के समुद्र देखकर लौटने पर यदि कोई उससे पूछे कि समुद्र कैसा देखा, तो वह जैसे मुँह बाये कहता है, ‘आह ! क्या देखा ! कैसी लहरें ! कैसी आवाज !’ बस, ब्रह्म का वर्णन भी वैसा ही है । वेदों में लिखा है- वह आनन्दस्वरूप है- सच्चिदानन्द । शुकदेव आदि ने यह ब्रह्मसागर किनारे पर खड़े होकर देखा और छुआ था । किसी के मतानुसार वे इस सागर में उतरे नहीं । इस सागर में उतरने से फिर कोई लौट नहीं सकता ।
[“তবে বেদে, পুরাণে যা বলছে — সে কিরকম বলা জান? একজন সাগর দেখে এলে কেউ যদি জিজ্ঞাসা করে, কেমন দেখলে, সে লোক মুখ হাঁ করে বলে, — ‘ও! কি দেখলুম! কি হিল্লোল কল্লোল!’ ব্রহ্মের কথাও সেইরকম। বেদে আছে — তিনি আনন্দস্বরূপ — সচ্চিদানন্দ। শুকদেবাদি এই ব্রহ্মসাগর তটে দাঁড়িয়া দর্শন স্পর্শন করেছিলেন। এক মতে আছে — তাঁরা এ-সাগরে নামেন নাই। এ-সাগরে নামলে আর ফিরবার জো নাই।
"As for what has been said in the Vedas and the Puranas, do you know what it is like? Suppose a man has seen the ocean, and somebody asks him, 'Well, what is the ocean like?' The first man opens his mouth as wide as he can and says: 'What a sight! What tremendous waves and sounds!' The description of Brahman in the sacred books is like that. It is said in the Vedas that Brahman is of the nature of Bliss — It is Satchidananda. "Suka and other sages stood on the shore of this Ocean of Brahman and saw and touched the water. According to one school of thought they never plunged into it. Those who do, cannot come back to the world again.}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏केवल ईश्वरकोटि के नेता ही निर्विकल्प समाधि से वापस लौट सकते हैं🔆🙏
“समाधिस्थ होने से ब्रह्मज्ञान होता है-ब्रह्मदर्शन होता है-उस दशा में विचार बिलकुल बन्द हो जाता है, आदमी चुप हो जाता है । ब्रह्म कैसी वस्तु है, यह मुँह से बताने की सामर्थ्य नहीं रहती ।”
[“সমাধিস্থ হলে ব্রহ্মজ্ঞান হয়; ব্রহ্মদর্শন হয় — সে অবস্থায় বিচার একেবারে বন্ধ হয়ে যায়, মানুষ চুপ হয়ে যায়। ব্রহ্ম কি বস্তু মুখে বলবার শক্তি থাকে না।
"In samadhi one attains the Knowledge of Brahman — one realizes Brahman In that state reasoning stops altogether, and man becomes mute. He has no power to describe the nature of Brahman.}
“एक नमक का पुतला समुद्र नापने गया ! (सब हँसे ।) पानी कितना गहरा है, उसकी खबर देना चाहता था ! पर खबर देना उसे नसीब न हुआ । वह पानी में उतरा कि गल गया ! बस फिर खबर कौन दे !”
[“লুনের ছবি (লবণ পুত্তলিকা) সমুদ্র মাপতে গিছল। (সকলের হাস্য) কত গভীর জল তাই খপর দেবে। খপর দেওয়া আর হল না। যাই নামা অমনি গলে যাওয়া। কে আর খপর দিবেক?”
"Once a salt doll went to measure the depth of the ocean. (All laugh) It wanted to tell others how deep the water was. But this it could never do, for no sooner did it get into the water than it melted. Now who was there to report the ocean's depth?"}
किसी ने प्रश्न किया, “क्या समाधिस्थ पुरुष जिनको ब्रह्मज्ञान हुआ है, फिर बोलते नहीं?”
[একজন প্রশ্ন করিলেন, “সমাধিস্থ ব্যক্তি, যাঁহার ব্রহ্মজ্ঞান হয়েছে তিনি কি আর কথা কন না?”
A DEVOTEE: "Suppose a man has obtained the Knowledge of Brahman in samadhi. Doesn't he speak any more?"
श्रीरामकृष्ण (विद्यासागर आदि से)- “लोकशिक्षा के लिए शंकराचार्य ने विद्या का ‘अहं’ रखा था । ब्रह्मदर्शन होने से मनुष्य चुप हो जाता है । जब तक दर्शन न हो, तभी तक विचार होता है । घी जब तक पक न जाय, तभी तक आवाज करता है । पके घी से शब्द नहीं निकलता । पर पके घी में कच्ची पूरी छोड़ी जाती है, तो फिर एक बार वैसा ही शब्द निकलता है । जब कच्ची पूरी को पका डाला, तब वह फिर चुप हो जाता है । वैसे ही समाधिस्थ पुरुष [नेता-जीवनमुक्त शिक्षक, माँ की कृपा से] लोकशिक्षण के लिए फिर नीचे उतरता है, फिर बोलता है ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিদ্যাসাগরাদির প্রতি) — শঙ্করাচার্য লোকশিক্ষার জন্য বিদ্যার ‘আমি’ রেখেছিলেন। ব্রহ্মদর্শন হলে মানুষ চুপ করে যায়। যতক্ষণ দর্শন না হয়, ততক্ষণই বিচার। ঘি কাঁচা যতক্ষণ থাকে ততক্ষণই কলকলানি। পাকা ঘির কোন শব্দ থাকে না। কিন্তু যখন পাকা ঘিয়ে আবার কাঁচা লুচি পড়ে, তখন আর একবার ছ্যাঁক কলকল করে। যখন কাঁচা লুচিকে পাকা করে, তখন আবার চুপ হয়ে যায়। তেমনি সমাধিস্থ পুরুষ লোকশিক্ষা দিবার জন্য আবার নেমে আসে, আবার কথা কয়।
MASTER: "Sankaracharya (One of the greatest philosophers of India.) retained the 'ego of Knowledge' in order to teach others. After the vision of Brahman a man becomes silent. He reasons about It as long as he has not realized It. If you heat butter in a pan on the stove, it makes a sizzling sound as long as the water it contains has not dried up. But when no trace of water is left the clarified butter makes no sound. If you put an uncooked cake of flour in that butter it sizzles again. But after the cake is cooked all sound stops. Just so, a man established in samadhi comes down to the relative plane of consciousness in order to teach others, and then he talks about God.}
“जब तक मधुमक्खी फूल पर नहीं बैठती, तब तक भनभनाती रहती है । फूल पर बैठकर मधु पीना शुरू करने के बाद वह चुप हो जाती है । हाँ, मधुपान के उपरान्त मस्त होकर फिर कभी कभी भनभनाती है ।
[“যতক্ষণ মৌমাছি ফুলে না বসে ততক্ষণ ভনভন করে। ফুলে বসে মধু পান করতে আরম্ভ করলে চুপ হয়ে যায়। মধুপান করবার পর মাতাল হয়ে আবার কখন কখন গুনগুন করে।
"The bee buzzes as long as it is not sitting on a flower. It becomes silent when it begins to sip the honey. But sometimes, intoxicated with the honey, it buzzes again.}
“तालाब में घड़ा भरते समय भक् भक् आवाज होती है । घड़ा भर जाने के बाद फिर आवाज नहीं होती । (सब हँसे ।) हाँ, यदि एक घड़े से पानी दूसरे में डाला जाय, तो फिर शब्द होता है।” (हास्य)
[“পুকুরে কলসীতে জল ভরবার সময় ভকভক শব্দ হয়। পূর্ণ হয়ে গেলে আর শব্দ হয় না। (সকলের হাস্য) তবে আর এক কলসীতে যদি ঢালাঢালি হয় তাহলে আবার শব্দ হয়।” (হাস্য)
"An empty pitcher makes a gurgling sound when it is dipped in water. When it fills up it becomes silent. (All laugh.) But if the water is poured from it into another pitcher, then you will hear the sound again. (Laughter.)}
(४)
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏 विज्ञानी देखता है कि ‘नि’ में- चरम भूमि में-बहुत देर तक रहा नहीं जाता 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण- “ऋषियों को ब्रह्मज्ञान हुआ था-विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते यह ब्रह्मज्ञान नहीं होता । ऋषि लोग कितना परिश्रम करते थे ! सबेरे आश्रम से चले जाते थे । दिनभर अकेले ध्यान-चिंतन करते और रात को आश्रम में लौटकर कुछ फलमूल खाते थे । देखना, सुनना, छूना इन सब विषयों से मन को अलग रखते थे; तब कहीं उन्हें ब्रह्म का बोध होता था ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঋষিদের ব্রহ্মজ্ঞান হয়েছিল। বিষয়বুদ্ধির লেশমাত্র থাকলে এই ব্রহ্মজ্ঞান হয় না। ঋষিরা কত খাটত। সকাল বেলা আশ্রম থেকে চলে যেত। একলা সমস্ত দিন ধ্যান চিন্তা করত, রাত্রে আশ্রমে ফিরে এসে কিছু ফলমূল খেত। দেখা, শুনা, ছোঁয়া — এ-সবের বিষয় থেকে মনকে আলাদা রাখত, তবে ব্রহ্মকে বোধে বোধ করত।
"The rishis of old attained the Knowledge of Brahman. One cannot have this so long as there is the slightest trace of worldliness. How hard the rishis laboured! Early in the morning they would go away from the hermitage, and would spend the whole day in solitude, meditating on Brahman. At night they would return to the hermitage and eat a little fruit or roots. They kept their minds aloof from the objects of sight, hearing, touch, and other things of a worldly nature. Only thus did they realize Brahman as their own inner consciousness.
“कलियुग में लोगों के प्राण अब प्राण अन्न पर निर्भर हैं, देहात्मबुद्धि जाती नहीं । इस दशा में ‘सोऽहम् ’-मैं ब्रह्म हूँ-कहना अच्छा नहीं । सभी काम किए जाते हैं, फिर ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ यह कहना ठीक नहीं । जो विषय का त्याग नहीं कर सकते, जिनका अहंभाव किसी तरह जाता नहीं, उनके लिए ‘मैं दास हूँ’, ‘मैं भक्त हूँ’ यह अभिमान अच्छा है । भक्तिपथ में रहने से भी ईश्वर लाभ होता है।”
[“কলিতে অন্নগত প্রাণ, দেহবুদ্ধি যায় না। এ-অবস্থায় ‘সোঽহং’ বলা ভাল নয়। সবই করা যাচ্ছে, আবার ‘আমিই ব্রহ্ম’ বলা ঠিক নয়। যারা বিষয় ত্যাগ করতে পারে না, যাদের ‘আমি’ কোন মতে যাচ্ছে না, তাদের ‘আমি দাস’ ‘আমি ভক্ত’ এ-অভিমান ভাল। ভক্তিপথে থাকলেও তাঁকে পাওয়া যায়।
"But in the Kaliyuga, man, being totally dependent on food for life, cannot altogether shake off the idea that he is the body. In this state of mind it is not proper for him to say, 'I am He.' When a man does all sorts of worldly things, he should not say, 'I am Brahman.' Those who cannot give up attachment to worldly things, and who find no means to shake off the feeling of 'I', should rather cherish the idea, 'I am God's servant; I am His devotee.' One can also realize God by following the path of devotion.}
“ज्ञानी ‘नेति नेति’-ब्रह्म यह नहीं, वह नहीं, अर्थात् कोई भी ससीम वस्तु नहीं- यह विचार करके सब विषयबुद्धि छोड़े तब ब्रह्म को जान सकता है । जैसे कोई जीने की एक एक सीढ़ी पार करते हुए छत पर पहुँच सकता है । पर विज्ञानी- जिसने विशेष रूप से ईश्वर से मेल-मिलाप किया है- और भी कुछ दर्शन करता है वह देखता है कि जिन चीजों से छत बनी है- उन ईंटों, चूने, सुर्खी से जीना भी बना है । ‘नेति नेति’ करके जिस ब्रह्मवस्तु का ज्ञान होता है, वही जीव और जगत् होती है । विज्ञानी देखता है कि जो निर्गुण है, वही सगुण भी है ।”
[“জ্ঞানী ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে বিষয়বুদ্ধি ত্যাগ করে, তবে ব্রহ্মকে জানতে পারে। যেমন সিঁড়ির ধাপ ছাড়িয়ে ছাড়িয়ে ছাদে পৌঁছানো যায়। কিন্তু বিজ্ঞানী যিনি বিশেষরূপে তাঁর সঙ্গে আলাপ করেন তিনি আরও কিছু দর্শন করেন। তিনি দেখেন, ছাদ যে জিনিসে তৈয়ারি — সেই ইঁট, চুন, সুরকিতেই, সিঁড়িও তৈয়ারি। ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে যাঁকে ব্রহ্ম বলে বোধ হয়েছে তিনিই জীবজগৎ হয়েছেন। বিজ্ঞানী দেখে, যিনি নির্গুণ, তিনিই সগুণ।
"The jnani gives up his identification with worldly things, discriminating, 'Not this, not this'. Only then can he realize Brahman. It is like reaching the roof of a house by leaving the steps behind, one by one. But the vijnani, who is more intimately acquainted with Brahman, realizes something more. He realizes that the steps are made of the same materials as the roof: bricks, lime, and brick-dust. That which is realized intuitively as Brahman, through the eliminating process of 'Not this, not this', is then found to have become the universe and all its living beings, The vijnani sees that the Reality which is nirguna, without attributes, is also saguna, with attributes.}
“छत पर बहुत देर तक लोग ठहर नहीं सकते फिर उतर आते हैं । जिन्होंने समाधिस्थ होकर ब्रह्मदर्शन किया है वे भी नीचे उतरकर देखते हैं कि वही जीव-जगत हुआ है । सा, रे, ग, म, प, ध, नि । ‘नि’ में- चरम भूमि में-बहुत देर तक रहा नहीं जाता । ‘अहं’ (मन) नहीं मिटता; तब मनुष्य देखता है कि ब्रह्म ही ‘मैं’, जीव, जगत-सब कुछ हुआ है । इसी का नाम विज्ञान है ।”
[“ছাদে অনেকক্ষণ লোক থাকতে পারে না, আবার নেমে আসে। যাঁরা সমাধিস্থ হয়ে ব্রহ্মদর্শন করেছেন, তাঁরাও নেমে এসে দেখেন যে, জীবজগৎ তিনিই হয়েছেন। সা, রে, গা, মা, পা, ধা, নি। নি-তে অনেকক্ষণ থাকা যায় না। ‘আমি’ যায় না; তখন দেখে, তিনিই আমি, তিনিই জীবজগৎ সব। এরই নাম বিজ্ঞান।
"A man cannot live on the roof a long time. He comes down again. Those who realize Brahman in samadhi come down also and find that it is Brahman that has become the universe and its living beings. In the musical scale there are the notes sa, re, ga, ma, pa, dha, and ni; but one cannot keep one's voice on 'ni' a long time. The ego does not vanish altogether. The man coming down from samadhi perceives that it is Brahman that has become the ego, the universe, and all living beings. This is known as vijnana.}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏विज्ञानी (भक्त) देखता है कि जो गुणातीत ब्रह्म है वही भगवान् श्रीरामकृष्ण हैं🔆🙏
“ज्ञानी की राह भी राह है, ज्ञान-भक्ति की राह भी राह है, फिर भक्ति की भी राह एक राह है। ज्ञानयोग भी सत्य है, और भक्तिपथ भी सत्य है सभी रस्ते से ईश्वर के समीप जाया जा सकता है। ईश्वर जब तक जीवों में ‘मैं’ बोध रखता है, तब तक भक्तिपथ ही सरल है ।”
[“জ্ঞানীর পথও পথ। জ্ঞান-ভক্তির পথও পথ। আবার ভক্তির পথও পথ। জ্ঞানযোগও সত্য, ভক্তিপথও সত্য — সব পথ দিয়ে তাঁর কাছে যাওয়া যায়। তিনি যতক্ষণ ‘আমি’ রেখে দেন, ততক্ষণ ভক্তিপথই সোজা।
"The path of knowledge leads to Truth, as does the path that combines knowledge and love. The path of love, too, leads to this goal. The way of love is as true as the way of knowledge. All paths ultimately lead to the same Truth. But as long as (अंतिम साँस तक?) God keeps the feeling of ego in us, it is easier to follow the path of love.}
“विज्ञानी देखता है कि ब्रह्म अटल, निष्क्रिय, सुमेरुवत (समुद्रमंथन की मथानी जैसा) है । यह संसार उसके सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों से बना है, पर वह निर्लिप्त है ।”
[“বিজ্ঞানী দেখে ব্রহ্ম অটল, নিষ্ক্রিয়, সুমেরুবৎ। এই জগৎসংসার তাঁর সত্ত্ব রজঃ তমঃ তিন গুণে রয়েছে। তিনি নির্লিপ্ত।
"The vijnani sees that Brahman is immovable and actionless, like Mount Sumeru . This universe consists of the three gunas — sattva, rajas, and tamas. They are in Brahman. But Brahman is unattached.
“विज्ञानी देखता है कि जो ब्रह्म है वही भगवान् है, -जो गुणातीत है वही षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् है । ये जीव और जगत, मन और बुद्धि, भक्ति, वैराग्य और ज्ञान-सब उसके ऐश्वर्य हैं । (सहास्य) जिस बाबू के घरद्वार नहीं है-या तो बिक गया-वह बाबू कैसा ! (सब हँसे ।) ईश्वर षडैश्वर्यपूर्ण है । यदि उसके ऐश्वर्य न होता तो कौन उसकी परवाह करता?” (सब हँसे)
{“বিজ্ঞানী দেখে যিনিই ব্রহ্ম তিনিই ভগবান, যিনিই গুণাতীত, তিনিই ষড়ৈশ্বর্যপূর্ণ ভগবান। এই জীবজগৎ, মন-বুদ্ধি, ভক্তি-বৈরাগ্য-জ্ঞান — এ-সব তাঁর ঐশ্বর্য। (সহাস্য) যে বাবুর ঘর-দ্বার নাই, হয়তো বিকিয়ে গেল সে বাবু কিসের বাবু। (সকলের হাস্য) ঈশ্বর ষড়ৈশ্বর্যপূর্ণ। সে ব্যক্তির যদি ঐশ্বর্য না থাকত তাহলে কে মানত!” (সকলের হাস্য)
"The vijnani further sees that what is Brahman is the Bhagavan, the Personal God (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण !) . He who is beyond the three gunas is the Bhagavan, with His six supernatural powers. Living beings, the universe, mind, intelligence, love, renunciation, knowledge — all these are the manifestations of His power. (With a laugh) If an aristocrat has neither house nor property, or if he has been forced to sell them, one doesn't call him an aristocrat any more. (All laugh.) God is endowed with the six supernatural powers. If He were not, who would obey Him? (All laugh.)
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏विभु के रूप में एक- किन्तु अवतार, 'नेता ' में शक्तिविशेष🔆🙏
[One in the form of Vibhu - but special power in 'Leader']
‘देखो न, यह जगत् कैसा विचित्र है ! कितने प्रकार की वस्तुएँ-चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र-कितने प्रकार के जीव इसमें हैं ! बड़ा-छोटा, अच्छा-बुरा; किसी में शक्ति अधिक है, किसी में कम ।”
[“দেখ না, এই জগৎ কি চমৎকার। কতরকম জিনিস — চন্দ্র, সূর্য, নক্ষত্র। কতরকম জীব। বড়, ছোট, ভাল, মন্দ, কারু বেশি শক্তি, কারু কম শক্তি।”
"Just see how picturesque this universe is! How many things there are! The sun, moon, and stars; and how many varieties of living beings! — big and small, good and bad, strong and weak — some endowed with more power, some with less."}
विद्यासागर- क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ?
[বিদ্যাসাগর — তিনি কি কারুকে বেশি শক্তি, কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন?
VIDYASAGAR: "Has He endowed some with more power and others with less?"
श्रीरामकृष्ण- वह विभु के रूपमें (सर्वव्यापी विराट मैं के रूपमे) सब प्राणियों में है-चींटियों तक में है । पर शक्ति का तारतम्य होता है; नहीं तो क्यों कोई दस आदमियों को हरा देता है, और कोई एक ही आदमी से भागता है? और ऐसा न हो तो भला तुम्हें ही सब कोई क्यों मानते हैं? क्या तुम्हारे दो सींग निकले हैं?(हास्य) औरों की अपेक्षा तुममें अधिक दया है, विद्या है, इसीलिए तुमको लोग मानते हैं और देखने आते हैं। क्या तुम यह बात नहीं मानते हो? विद्यासागर मुस्कराते हैं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি বিভুরূপে সর্বভূতে আছেন। পিঁপড়েতে পর্যন্ত। কিন্তু শক্তিবিশেষ। তা না হলে একজন লোকে দশজনকে হারিয়ে দেয়, আবার কেউ একজনের কাছ থেকে পালায়, আর তা না হলে তোমাকেই বা সবাই মানে কেন? তোমার কি শিং বেরিয়েছে দুটো? (হাস্য) তোমার দয়া, তোমার বিদ্যা আছে — অন্যের চেয়ে, তাই তোমাকে লোকে মানে, দেখতে আসে। তুমি এ-কথা মানো কি না? [বিদ্যাসাগর মৃদু মৃদু হাসিতেছেন।]
"As the All-pervading Spirit He exists in all beings, even in the ant. But the manifestations of His Power are different in different beings; otherwise, how can one person put ten to flight, while another can't face even one? And why do all people respect you? Have you grown a pair of horns? (Laughter.) You have more compassion and learning. Therefore people honour you and come to pay you their respects. Don't you agree with me?"
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏केवल गीता रटन्त विद्या या कोरा पाण्डित्य असार है- भक्ति ही सार है 🔆🙏
श्रीरामकृष्ण- केवल पण्डिताई में कुछ नहीं है । लोग किताबें इसलिए पढ़ते हैं कि वे ईश्वरलाभ में सहायता करेंगी - उनसे ईश्वर का पता लगेगा । ‘आपकी पोथी में क्या है?’-किसी ने एक साधु से पूछा । साधु ने उसे खोलकर दिखाया । हरएक पन्ने में ‘ॐ रामः’ लिखा था, और कुछ नहीं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — শুধু পাণ্ডিত্যে কিছু নাই। তাঁকে পাবার উপায়, তাঁকে জানবার জন্যই বই পড়া। একটি সাধুর পুঁথিতে কি আছে, একজন জিজ্ঞাসা করলে, সাধু খুলে দেখালে। পাতায় পাতায় “ওঁ রামঃ” লেখা রয়েছে, আর কিছুই লেখা নাই!
"There is nothing in mere scholarship. The object of study is to find means of knowing God and realizing Him. A holy man had a book. When asked what it contained, he opened it and showed that on all the pages were written the words 'Om Rama', and nothing else.}
“गीता का अर्थ क्या है? उसे दस बार कहने से जो होता है वही । दस बार ‘गीता’ ‘गीता’ कहने से ‘त्यागी’ ‘त्यागी’ निकल आता है । गीता यह शिक्षा दे रही है कि हे जीव तू सब छोड़कर ईश्वर-लाभ की चेष्टा कर । कोई साधु हो चाहे गृहस्थ, मन से सारी आसक्ति दूर करनी चाहिए ।
[“গীতার অর্থ কি? দশবার 'O man, renounce everything and seek God alone.' বললে যা হয়। ‘গীতা’ ‘গীতা’, দশবার বলতে গেলে, ‘ত্যাগী’ ‘ত্যাগী’ হয়ে যায়। গীতায় এই শিক্ষা — হে জীব, সব ত্যাগ করে ভগবানকে লাভ করবার চেষ্টা কর। সাধুই হোক, সংসারীই হোক, মন থেকে সব আসক্তি ত্যাগ করতে হয়।
"What is the significance of the Gita? It is what you find by repeating the word ten times. It is then reversed into 'tagi', which means a person who has renounced everything for God. And the lesson of the Gita is:Whether a man is a monk or a householder, he has to shake off all attachment from his mind.
“जब चैतन्यदेव दक्षिण में तीर्थ-भ्रमण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है। एक दूसरा आदमी थोड़ी दूर बैठ उसे सुन रहा है और सुनकर रो रहा है-आँखों से आँसू बह रहे हैं । चैतन्यदेव ने पूछा, ‘क्या तुम यह सब समझ रहे हो?’ उसने कहा, ‘प्रभु, इन श्लोकों का अर्थ तो मैं नहीं समझता हूँ ।’ उन्होंने पूछा, ‘तो रोते क्यों हो?’ भक्त ने जवाब दिया, ' मैं देखता हूँ कि - अर्जुन का रथ है और उसके सामने भगवान् और अर्जुन बातचीत कर रहे हैं ।' बस, यही देखकर मैं रो रहा हूँ ।’
[“চৈতন্যদেব যখন দক্ষিণে তীর্থভ্রমণ করছিলেন — দেখলেন, একজন গীতা পড়ছে। আর-একজন একটু দূরে বসে শুনছে, আর কাঁদছে — কেঁদে চোখ ভেসে যাচ্ছে। চৈতন্যদেব জিজ্ঞাসা করলেন, তুমি এ-সব বুঝতে পারছ? সে বললে, ঠাকুর! আমি শ্লোক এ-সব কিছু বুঝতে পারছিনা। তিনি জিজ্ঞাসা করলেন, তবে কেন কাঁদছো? ভক্তটি বললে, আমি দেখছি অর্জুনের রথ, আর তার সামনে ঠাকুর আর অর্জুন কথা কচ্চেন। তাই দেখে আমি কাঁদছি।”
"Chaitanyadeva set out on a pilgrimage to southern India. One day he saw a man reading the Gita. Another man, seated at a distance, was listening and weeping. His eyes were swimming in tears. Chaitanyadeva asked him, 'Do you understand all this?' The man said, 'No, revered sir, I don't understand a word of the text.' 'Then why are you crying?' asked Chaitanya. The devotee said: 'I see Arjuna's chariot before me. I see Lord Krishna and Arjuna seated in front of it, talking. I see this and I weep.'
(५ )
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏भक्तियोग का रहस्य🔆🙏
श्रीरामकृष्ण- विज्ञानी क्यों भक्ति लिए रहते हैं? इसका उत्तर यह है कि ‘मैं’ नहीं दूर होता । समाधि-अवस्था में दूर तो होता है, परन्तु फिर आ जाता है । साधारण जीवों का ‘अहम्’ नहीं जाता । पीपल का पेड़ काट डालो, फिर उसके दूसरे दिन अंकुर निकल आता है । (सब हँसे)
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিজ্ঞানী কেন ভক্তি লয়ে থাকে? এর উত্তর এই যে, ‘আমি’ যায় না। সমাধি অবস্থায় যায় বটে, কিন্তু আবার এসে পড়ে। আর সাধারণ জীবের ‘অহং’ যায় না। অশ্বত্থগাছ কেটে দাও, আবার তার পরদিন ফেঁক্ড়ি বেরিয়েছে। (সকলের হাস্য)
"Why does a vijnani keep an attitude of love toward God? The answer is that 'I-consciousness' persists. It disappears in the state of samadhi, no doubt, but it comes back. In the case of ordinary people the 'I' never disappears. You may cut down the aswattha tree, but the next day sprouts shoot up. (All laugh.)
“ ज्ञानलाभ के बाद भी, न जाने कहाँ से ‘मैं’ फिर आ जाता है । स्वप्न में तुमने बाघ देखा; इसके बाद जागे, तो भी तुम्हारी छाती धड़कती है । जीवों को जो दुःख होता है, ‘मैं’ से ही होता है । बैल ‘हम्बा, हम्बा’ (हम, हम) करता है, इसी से तो इतनी यातना मिलती है । हल में जोता जाता है, वर्षा और धूप सहनी पड़ती है फिर कसाई लोग काटते हैं, चमड़े से जूते बनते हैं, ढोल बनता है, -तब खूब पिटता है । (हास्य)
[“জ্ঞানলাভের পরও আবার কোথা থেকে ‘আমি’ এসে পড়ে! স্বপনে বাঘ দেখেছিলে, তারপর জাগলে, তবুও তোমার বুক দুড়দুড় করছে। জীবের আমি লয়েই তো যত যন্ত্রণা। গরু ‘হাম্বা’ (আমি) ‘হাম্বা’ করে, তাই তো অত যন্ত্রণা। লাঙলে জোড়ে, রোদবৃষ্টি গায়ের উপর দিয়ে যায়, আবার কসাইয়ে কাটে, চামড়ায় জুতো হয়, ঢোল হয় — তখন খুব পেটে। (হাস্য)
"Even after the attainment of Knowledge this 'I-consciousness' comes up, nobody knows from where. You dream of a tiger. Then you awake; but your heart keeps on palpitating! All our suffering is due to this 'I'. The cow cries, 'Hamba!', which means 'I'. That is why it suffers so much. It is yoked to the plough and made to work in rain and sun. Then it may be killed by the butcher. From its hide shoes are made, and also drums, which are mercilessly beaten. (Laughter.)
“फिर भी निस्तार नहीं । अन्त में आँतों से ताँत बनती है और धुनिया अपने धनुहे में लगाता है । तब वह ‘मैं’ नहीं कहता, तब कहता है ‘तू-ऊँ, तू-ऊँ’ (अर्थात् तुम, तुम) जब ‘तुम’ ‘तुम’ कहता है तब निस्तार होता है । हे ईश्वर ! मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो; मैं सन्तान हूँ, तुम माँ हो ।
[“তবুও নিস্তার নাই। শেষে নাড়ীভুঁড়ি থেকে তাঁত তৈয়ার হয়। সেই তাঁতে ধুনুরীর যন্ত্র হয়। তখন আর ‘আমি’ বলে না, তখন বলে ‘তুঁহু’ ‘তুঁহু’ (অর্থাৎ ‘তুমি’, ‘তুমি’)। যখন ‘তুমি’, ‘তুমি’ বলে তখন নিস্তার। হে ইশ্বর, আমি দাস, তুমি প্রভু, আমি ছেলে, তুমি মা।
Still it does not escape suffering. At last strings are made out of its entrails tor the bows used in carding cotton. Then it no longer says, 'Hamba! Hamba!', 'I! I!', but Tuhu! Tuhu!', Thou! Thou!' Only then are its troubles over. O Lord, I am the servant; Thou art the Master. I am the child; Thou art the Mother.
“राम ने पूछा, हनुमान, तुम मुझे किस भाव से देखते हो? ^ हनुमान ने कहा, राम ! जब मुझे ‘मैं; ‘तुम’ का बोध रहता है, तब देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मैं अंश हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम! जब तत्त्वज्ञान होता है तब देखता हूँ, तुम्हीं ‘मैं’ हो मैं ही ‘तुम’ हूँ ।
{ देहदृष्टया तु दासोऽहं जीव दृष्टया त्वदंशक:।
आत्मदृष्टवा त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मति:।।
देह दृष्टि से मैं आपका दास हूँ और जीव दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ तथा परमार्थरूपी आत्मदृष्टि से देखा जाय तो जो आप हैं, वही मैं हूँ - ऐसी मेरी निश्चित धारणा है।}
[“রাম জিজ্ঞাসা করলেন, হনুমান, তুমি আমায় কিভাবে দেখ? হনুমান বললে, রাম! যখন ‘আমি’ বলে আমার বোধ থাকে, তখন দেখি, তুমি পুর্ণ, আমি অংশ; তুমি প্রভু, আমি দাস। আর রাম! যখন তত্ত্বজ্ঞান হয়, তখন দেখি, তুমিই আমি, আমিই তুমি।
"Once Rama asked Hanuman, 'How do you look on Me?' And Hanuman replied: 'O Rama, as long as I have the feeling of "I", I see that Thou art the whole and I am a part; Thou art the Master and I am Thy servant. But when, O Rama, I have the knowledge of Truth, then I realize that Thou art I, and I am Thou.'
“सेव्य-सेवक भाव ही अच्छा है । ‘मैं’ जब कि हटने का ही नहीं तो बना रहने दो साले को ‘दास मैं’ ।
[“সেব্য-সেবক ভাবই ভাল। ‘আমি’ তো যাবার নয়। তবে থাক শালা ‘দাস আমি’ হয়ে।”
"The relationship of master and servant is the proper one. Since this 'I' must remain, let the rascal be God's servant.
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏विद्यासागर को उपदेश - ‘मैं’ और ‘मेरा’ अज्ञान (ignorance) है🔆🙏
“मैं और मेरा-ये दोनों अज्ञान हैं । यह भाव कि मेरा घर है, मेरे रुपये हैं, मेरी विद्या है, मेरा यह सब ऐश्वर्य है-अज्ञान से पैदा होता है; और यह भाव ज्ञान से कि हे ईश्वर, तुम कर्ता (नेता,गुरु) हो और ये सब तुम्हारी चीजें हैं-घर-परिवार, लड़के-बच्चे, स्वजनवर्ग, बन्धु-बान्धव-ये सब तुम्हारी वस्तुएँ हैं ।
[“আমি ও আমার এই দুটি অজ্ঞান। ‘আমার বাড়ি’, ‘আমার টাকা’, ‘আমার বিদ্যা’, ‘আমার এই সব ঐশ্বর্য’ — এই যে-ভাব এটি অজ্ঞান থেকে হয়। ‘হে ঈশ্বর, তুমি কর্তা আর এ-সব তোমার জিনিস — বাড়ি, পরিবার, ছেলেপুলে, লোকজন, বন্ধু-বান্ধব — এ-সব তোমার জিনিস’ — এ-ভাব থেকে জ্ঞান হয়।
"'I' and 'mine' — these constitute ignorance. 'My house', 'my wealth', 'my learning', 'my possessions' — the attitude that prompts one to say such things comes of ignorance. On the contrary, the attitude born of Knowledge is: 'O God, Thou art the Master, and all these things belong to Thee. House, family, children, attendants, friends, are Thine.'
“मृत्यु का सर्वदा स्मरण रखना चाहिए मरने के बाद कुछ भी न रह जाएगा । यहाँ कुछ कर्म करने के लिए आना हुआ है । जैसे की देहात में घर है, परन्तु काम करने के लिए कलकत्ते आया जाता है । यदि कोई दर्शक बगीचा देखने को आता है तो धनी मनुष्योंके बगीचे का कर्मचारी कहता है-यह बगीचा हमारा है, यह तालाब हमारा है; परन्तु किसी कसूर पर जब वह नौकरी से अलग कर दिया जाता है, तब आम की लकड़ी के बने हुए सन्दूक को ले जाने का भी उसे अधिकार नहीं रह जाता, सन्दूक दरवान के हाथ भेज दिया जाता है । (हास्य)
{মৃত্যুকে সর্বদা মনে রাখা উচিত। মরবার পর কিছুই থাকবে না। এখানে কতকগুলি কর্ম করতে আসা। যেমন পাড়াগাঁয়ে বাড়ি — কলকাতায় কর্ম করতে আসা। বড় মানুষের বাগানের সরকার, বাগান যদি কেউ দেখতে আসে, তা বলে ‘এ-বাগানটি আমাদের’, ‘এ-পুকুর আমাদের পুকুর’। কিন্তু কোন দোষ দেখে বাবু যদি ছাড়িয়ে দেয়, আর আমের সিন্দুকটা লয়ে যাবার যোগ্যতা থাকে না; দারোয়ানকে দিয়ে সিন্দুকটা পাঠিয়ে দেয়। (হাস্য)
"One should constantly remember death. Nothing will survive death. We are born into this world to perform certain duties, like the people who come from the countryside to Calcutta on business. If a visitor goes to a rich man's garden, the superintendent says to him, 'This is our garden', This is our lake', and so forth. But if the superintendent is dismissed for some misdeed deed, he can't carry away even his mango-wood chest. He sends it secretly by the gate-keeper. (Laughter.)}
“भगवान् दो बातों पर हँसते हैं । एक तो जब वैद्य रोगी की माँ से कहता है-माँ, क्या भय है? मैं तुम्हे लड़के को अच्छा कर दूँगा । उस समय भगवान् यह सोचकर हँसते हैं कि मैं मार रहा हूँ और यह कहता है, मैं बचाऊँगा । वैद्य सोचता है-मैं कर्ता हूँ । ईश्वर कर्ता है-यह वह भूल गया है । दूसरा अवसर वह होता है जब दो भाई रस्सी लेकर जमीन नापते हैं और कहते हैं-इधर की मेरी है, उधर की तुम्हारी । तब ईश्वर और एक बार हँसते हैं; यह सोचकर हँसते हैं कि जगत्-ब्रह्माण्ड मेरा है, पर ये कहते हैं, यह जगह मेरी है और वह तुम्हारी ।”
[“ভগবান দুই কথায় হাসেন। কবিরাজ যখন রোগীর মাকে বলে, ‘মা! ভয় কি? আমি তোমার ছেলেকে ভাল করে দিব’ — তখন একবার হাসেন; এই বলে হাসেন, আমি মারছি, আর এ কিনা বলে আমি বাঁচাব! কবিরাজ ভাবছে, আমি কর্তা, ঈশ্বর যে কর্তা — এ-কথা ভুলে গেছে। তারপর যখন দুই ভাই দড়ি ফেলে জায়গা ভাগ করে, আর বলে ‘এদিকটা আমার, ওদিকটা তোমার’, তখন ঈশ্বর আর-একবার হাসেন, এই মনে করে হাসেন; আমার জগদ্ব্রহ্মাণ্ড, কিন্তু ওরা বলছে, ‘এ-জায়গা আমার আর তোমার’।”
"God laughs on two occasions. He laughs when the physician says to the patient's mother, 'Don't be afraid, mother; I shall certainly cure your boy.' God laughs, saying to Himself, 'I am going to take his life, and this man says he will save it!' The physician thinks he is the master, forgetting that God is the Master. God laughs again when two brothers divide their land with a string, saying to each other, 'This side is mine and that side is yours.' He laughs and says to Himself, The whole universe belongs to Me, but they say they own this portion or that portion.'
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏उपाय-माँ काली के अवतार श्रीरामकृष्ण में विश्वास और भक्ति🔆🙏
श्रीरामकृष्ण- उन्हें क्या कोई विचार द्वारा जान सकता है? दास होकर,-शरणागत होकर उन्हें पुकारो ।
[“তাঁকে কি বিচার করে জানা যায়? তাঁর দাস হয়ে, তাঁর শরণাগত হয়ে তাঁকে ডাক।
"Can one know God through reasoning? Be His servant, surrender yourself self to Him, and then pray to Him.
(विद्यासागर के प्रति, हँसते हुए)- “ अच्छा, तुम्हारा भाव क्या है? ”
[(বিদ্যাসাগরের প্রতি সহাস্যে) — “আচ্ছা, তোমার কি ভাব?”
(To Vidyasagar, with a smile) "Well, what is your attitude?"
विद्यासागर मुस्करा रहे हैं । कहते हैं, “अच्छा, यह बात आपसे किसी दिन निर्जन में कहूँगा।”(सब हँसे।)
[বিদ্যাসাগর মৃদু মৃদু হাসিতেছেন। বলিতেছেন, “আচ্ছা সে কথা আপনাকে একলা-একলা একদিন বলব।” (সকলের হাস্য)
VIDYASAGAR (smiling): "Some day I shall confide it to you." (All laugh.)
श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- उन्हें पाण्डित्य द्वारा विचार करके कोई जान नहीं सकता ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — তাঁকে পাণ্ডিত্য দ্বারা বিচার করে জানা যায় না।
MASTER (laughing): "God cannot be realized through mere scholarly reasoning."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गाने लगे :
[ईश्वर (माँ काली) --अगम्य और अनंत है]
के जाने काली केमन ?
षड् दर्शने ना पाय दरशन।।
मुलाधारे सहस्त्रारे सदा योगी करे मनन।
काली पद्म वने, हंस सने, हंसी रूपे कोरे रमण।।
आत्मारामेर आत्मा काली प्रमाण प्रणवेर मतोन।
तीनि घटे घटे विराज कोरेन , इच्छामयिर इच्छा जेमन।।
मायेर उदरे ब्रह्माण्ड , भाण्ड ,प्रकाण्ड ता जानो केमन।
महाकाल जेनेछेन कालीर मर्म, अन्य केबा जाने तेमन।।
प्रसाद भासे, लोक हासे, संतरणे सिंधू -तरण।
आमार मन बुझेछे, प्राण बुझे ना , धोरबे शशी --होये बामण।।
के जाने काली केमन, षड् दर्शने ना पाय दरशन। ...
(कवि- रामप्रसाद)
संगीत का मर्म है- “कौन जानता है कि काली कैसी है? षट्दर्शनों ने उसका दर्शन नहीं पाया । मूलाधार और सहस्त्रार में योगी लोग सदा उसका ध्यान करते हैं । वे पद्मवन में हंस के साथ हंसी जैसे रमण करती हैं । वह आत्माराम की आत्मा है, प्रणव का प्रमाण है । वह इच्छामयी अपनी इच्छा के अनुसार घट घट में विराजमान है । माता के जिस उदर में यह ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, समझो कि वह कितना बड़ा हो सकता है ।
काली का माहात्म्य महाकाल ही जानते हैं । वैसा और कोई नहीं समझ सकता । उसको जानने का लोगों का प्रयास देखकर ‘प्रसाद’ हँसता है । अपार सागर क्या कोई तैरकर पार कर सकता है? यह मेरा मन समझ रहा है, परन्तु फिर भी जी नहीं मानता, वामन होकर चन्द्रमा की ओर हाथ बढ़ाता है ।”
{এই বলিয়া ঠাকুর প্রেমোন্মত্ত হইয়া গান ধরিলেন:
[ঈশ্বর অগম্য ও অপার ]
কে জানে কালী কেমন?
ষড় দর্শনে না পায় দরশন ৷৷
মূলাধারে সহস্রারে সদা যোগী করে মনন ।
কালী পদ্মবনে হংস-সনে, হংসীরূপে করে রমণ ৷৷
আত্মারামের আত্মা কালী প্রমাণ প্রণবের মতন ।
তিনি ঘটে ঘটে বিরাজ করেন, ইচ্ছাময়ীর ইচ্ছা যেমন ৷৷
মায়ের উদরে ব্রহ্মাণ্ড ভাণ্ড, প্রকাণ্ড তা জানো কেমন ।
মহাকাল জেনেছেন কালীর মর্ম, অন্য কেবা জানে তেমন ৷৷
প্রসাদ ভাষে লোকে হাসে, সন্তরণে সিন্ধু-তরণ ।
আমার মন বুঝেছে প্রাণ বুঝে না ধরবে শশী হয়ে বামন ৷৷
Who is there that can understand what Mother Kali is? Even the six darsanas are powerless to reveal Her. It is She, the scriptures say, that is the Inner Self Of the yogi, who in Self discovers all his joy; She that, of Her own sweet will, inhabits every living thing. The macrocosm and microcosm rest in the Mother's womb; Now do you see how vast it is? In the Muladhara The yogi meditates on Her, and in the Sahasrara: Who but Siva has beheld Her as She really is? Within the lotus wilderness She sports beside Her Mate, the Swan. (Siva the Absolute)When man aspires to understand Her, Ramprasad must smile; To think of knowing Her, he says, is quite as laughable As to imagine one can swim across the boundless sea. But while my mind has understood, alas! my heart has not; Though but a dwarf, it still would strive to make a captive of the moon.}
“सुना? कहते हैं-माता के जिस उदर में ब्रह्माण्ड समाया हुआ है समझो कि वह कितना बड़ा है’ और यह भी कहा है कि षट्दर्शनों ने उसका दर्शन नहीं पाया । पाण्डित्य द्वारा उसे प्राप्त करना असम्भव है ।
{“দেখলে, কালীর ‘উদরে ব্রহ্মাণ্ড ভাণ্ড প্রকাণ্ড তা জানো কেমন’! আর বলছে, ‘ষড় দর্শনে না পায় দরশন’ — পাণ্ডিত্যে তাঁকে পাওয়া যায় না।”
" देखले , कालीर ' उदरे ब्रह्माण्ड भाण्ड प्रकाण्ड ता जानो केमोन ! ' आर बोलछे , ' षड्दर्शने ना पाय दरशन ' - पाण्डित्ये तांके पावा जाय ना। "
Continuing, the Master said: "Did you notice?The macrocosm and microcosm rest in the Mother's womb; Now do you see how vast it is? "Again, the poet says: Even the six darsanas are powerless to reveal Her.She cannot be realized by means of mere scholarship.}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏ईश्वर के नाम-जप का महात्म्य ~ अवतार के प्रति विश्वास और भक्ति 🔆🙏
“विश्वास और भक्ति चाहिए । विश्वास कितना बलवान है, सुनो । किसी मनुष्य को लंका से समुद्र के पार जाना था । विभीषण ने कहा-इस वस्तु को कपड़े के छोर में बाँध लो तो बिना किसी बाधा के पार हो जाओगे, जल के ऊपर से चल कर जा सकोगे; परन्तु खोलकर न देखना, खोलकर देखोगे तो डूब जाओगे । वह मनुष्य आनन्दपूर्वक समुद्र के ऊपर से चला जा रहा था, विश्वास की ऐसी शक्ति है । कुछ रास्ता पार कर वह सोचने लगा कि विभीषण ने ऐसा क्या बाँध दिया, जिसके बल से मैं पानी के ऊपर से चला जा रहा हूँ ! यह सोचकर उसने गाँठ खोली और देखा तो एक पत्ते पर केवल ‘रामनाम’ लिखा था ! तब वह मन ही मन कहने लगा-अरे, बस यही है । ज्योंही यह सोचा कि डूब गया ।
[“বিশ্বাস আর ভক্তি চাই — বিশ্বাসের কত জোর শুনঃ একজন লঙ্কা থেকে সমুদ্র পার হবে, বিভীষণ বললে, এই জিনিসটি কাপড়ের খুঁটে বেঁধে লও। তাহলে নির্বিঘ্নে চলে যাবে; জলের উপর দিয়ে চলে যেতে পারবে। কিন্তু খুলে দেখো না; খুলে দেখতে গেলেই ডুবে যাবে। সে লোকটা সমুদ্রের উপর দিয়ে বেশ চলে যাচ্ছিল। বিশ্বাসের এমন জোর। খানিক পথ গিয়ে ভাবছে, বিভীষণ এমন কি জিজিস বেঁধে দিলেন যে, জলের উপর দিয়ে চলে যেতে পাচ্ছি? এই বলে কাপড়ের খুঁটটি খুলে দেখে, যে শুধু ‘রাম’ নাম লেখা একটি পাতা রয়েছে। তখন সে ভাবলে, এঃ, এই জিনিস! ভাবাও যা, অমনি ডুবে যাওয়া।
"One must have faith and love. Let me tell you how powerful faith is. A man was about to cross the sea from Ceylon to India. Bibhishana said to him: 'Tie this thing in a corner of your wearing-cloth, and you will cross the sea safely. You will be able to walk on the water. But be sure not to examine it, or you will sink.' The man was walking easily on the water of the sea — such is the strength of faith — when, having gone part of the way, he thought, 'What is this wonderful thing Bibhishana has given me, that I can walk even on the water?' He untied the knot and found only a leaf with the name of Rama written on it. 'Oh, just this!' he thought, and instantly he sank.
“यह कहावत प्रसिद्ध है कि रामनाम पर हनुमान का इतना विश्वास था कि विश्वास ही के बल से वे समुद्र लाँघ गये, परन्तु स्वयं राम को सेतु बाँधना पड़ा था ।
[“কথায় বলে হনুমানের রামনামে এত বিশ্বাস যে, বিশ্বাসের গুণে ‘সাগর লঙ্ঘন’ করলে! কিন্তু স্বয়ং রামের সাগর বাঁধতে হল!
"There is a popular saying that Hanuman jumped over the sea through his faith in Rama's name, but Rama Himself had to build a bridge.
“यदि 'उन पर' विश्वास हो तो चाहे पाप करे और चाहे महापातक ही करे, किन्तु किसी से भय नहीं होता ।”
[“যদি তাঁতে বিশ্বাস থাকে, তাহলে পাপই করুক, আর মহাপাতকই করুক, কিছুতেই ভয় নাই।”
"If a man has faith in God, then he need not be afraid though he may have committed sin — nay, the vilest sin."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण भक्त के भावों से मस्त होकर नाम ~ विश्वास का माहात्म्य गा रहे हैं-
(भावार्थ)-
“दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं, जब मेरे निकलेंगे प्राण ।
देखूँ कैसे नहीं तारती वो मुझे होकर, भला करुणा की खान ? "
[এই বলিয়া ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তের ভাব আরোপ করিয়া ভাবে মাতোয়ারা হইয়া বিশ্বাসের মাহাত্ম্য গাহিতেছেন:
আমি দুর্গা দুর্গা বলে মা যদি মরি।
আখেরে এ-দীনে, না তারো কেমনে, জানা যাবে গো শঙ্করী।
{सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥
(भावार्थ) वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं॥2॥ साभार bhartdiscovery.org}
(६ )
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏ईश्वर (माँ काली के अवतार) से प्रेम करना ही -जीवन का उद्देश्य है🔆🙏
(ঈশ্বরকে ভালবাসা জীবনের উদ্দেশ্য — The End of life)
“विश्वास और भक्ति । भक्ति से वे सहज ही में मिलते हैं । वे भाव के विषय हैं ।”
यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण ने फिर भजन आरम्भ किया :
मन कि तत्व कोरो तांरे, जेनो उन्मत्त आँधार घरे।
शे जे भावेर विषय भाव व्यतीत , अभावे कि धोरते पारे ll
अग्रे शशी वशीभूत कोरो तव शक्ति-सारे।
ओ रे कोठार भीतर चोर- कुठीर, भोर होले शे लुकाबे रे।।
षड दर्शने ना पाय दरशन , आगम- निगम तंत्रसारे।
शे जे भक्ती-रसेर रसिक, सदानंदे विराज कोरे पूरे।।
शे भाव लागी परम जोगी, जोग कोरे जुग-जुगान्तरे।
होले भावेर उदय लोय शे जेमोन, लोहाके चुंबक धोरे ll
प्रसाद बोले मातृभावे आमि तत्व कोरि जां'रे।
शेटा चातरे की भांगबो हाँड़ी, बोझो न रे मन ठारे ठारे।।
भाव यह है-
“मन तू अँधेरे घर में पागल जैसा उसकी खोज क्यों कर रहा है? वह तो भाव का विषय है । बिना भाव के, अभाव द्वारा क्या कोई उसे पकड़ सकता है? पहले अपनी शक्ति द्वारा कामक्रोधादि को अपने वश में करो । उसका दर्शन न तो षट्दर्शनों ने पाया, न निगमागम-तन्त्रों ने ।”
“वह भक्तिरस का रसिक है, सदा आनन्दपूर्वक हृदय में विराजमान है । उस भक्तिभाव को पाने के लिए बड़े बड़े योगी युग-युगान्तर से योग कर रहे हैं । जब भाव का उदय होता है, तब भक्त को वह अपनी ओर खींच लेता है । जैसे लोहे को चुम्बक ।
‘प्रसाद’ कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी खोज कर रहा हूँ, उसके तत्त्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा? मन, इशारे से ही समझ लो ।”
[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিশ্বাস আর ভক্তি। তাঁকে ভক্তিতে সহজে পাওয়া যায়। তিনি ভাবের বিষয়। এ-কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার গান ধরিলেন:
মন কি তত্ত্ব কর তাঁরে, যেন উন্মত্ত আঁধার ঘরে ।
সে যে ভাবের বিষয় ভাব ব্যতীত, অভাবে কি ধরতে পারে ৷৷
অগ্রে শশী বশীভূত কর তব শক্তি-সারে ।
ওরে কোঠার ভিতর চোর-কুঠরি, ভোর হলে সে লুকাবে রে ৷৷
ষড় দর্শনে না পায় দরশন, আগম-নিগম তন্ত্রসারে ।
সে যে ভক্তিরসের রসিক, সদানন্দে বিরাজ করে পুরে ৷৷
সে ভাব লাগি পরম যোগী, যোগ করে যুগ-যুগান্তরে ।
হলে ভাবের উদয় লয় সে যেমন, লোহাকে চুম্বকে ধরে ৷৷
প্রসাদ বলে মাতৃভাবে আমি তত্ত্ব করি যাঁরে ।
সেটা চাতরে কি ভাঙব হাঁড়ি, বোঝ না রে মন ঠারে ঠোরে ৷৷
How are you trying, O my mind, to know the nature of God? You are groping like a madman locked in a dark room. He is grasped through ecstatic love; how can you fathom Him without it? Only through affirmation, never negation, can you know Him; Neither through Veda nor through Tantra nor the six darsanas. It is in love's elixir only that He delights, O mind; He dwells in the body's inmost depths, in Everlasting Joy. And, for that love, the mighty yogis practise yoga from age to age; When love awakes, the Lord, like a magnet, draws to Him the soul. He it is, says Ramprasad, that I approach as Mother; But must I give away the secret, here in the market-place? From the hints I have given, O mind, guess what that Being is!
*श्रीरामकृष्ण समाधि में*
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏जो ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) हैं, उन्हीं को 'माँ काली' कहकर पुकारते हैं।🔆🙏
गाते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गए, हाथों की अंजलि बँध गयी-देह उन्नत और स्थिर, -नेत्र स्पन्दहीन हो गए । पश्चिम की ओर मुँह किये उसी बेंच पर पैर लटकाए बैठे रहे । सभी लोग गर्दन ऊँची करके यह अद्भुत अवस्था देखने लगे । पण्डित विद्यासागर भी चुपचाप एकटक देख रहे हैं।
[গান গাইতে গাইতে ঠাকুর সমাধিস্থ হইয়াছেন! হাত অঞ্জলিবদ্ধ! দেহ উন্নত ও স্থির! নেত্রদ্বয় স্পন্দহীন! সেই বেঞ্চের উপর পশ্চিমাস্য হইয়া পা ঝুলাইয়া বসিয়া আছেন। সকলে উদগ্রীব হইয়া এই অদ্ভুত অবস্থা দেখিতেছেন। পণ্ডিত বিদ্যাসাগরও নিস্তব্ধ হইয়া একদৃষ্টে দেখিতেছেন।
While singing, the Master went into samadhi. He was seated on the bench, facing west, the palms of his hands joined together, his body erect and motionless. Everyone watched him expectantly. Vidyasagar, too, was. speechless and could not take his eyes from the Master.
श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ हुए । लम्बी साँस छोड़कर हँसते हुए बातें कर रहे हैं- “भाव भक्ति, इसके माने उनसे प्यार करना । जो ब्रह्म हैं, उन्हीं को माँ कहकर पुकारते हैं ।”
{ঠাকুর প্রকৃতিস্থ হইলেন। দীর্ঘনিঃশ্বাস ফেলিয়া আবার সহাস্যে কথা কহিতেছেন। — “ভাব ভক্তি, এর মানে — তাঁকে ভালবাসা। যিনিই ব্রহ্ম তাঁকেই ‘মা’ বলে ডাকছে।
After a time Sri Ramakrishna showed signs of regaining the normal state. He drew a deep breath and said with a smile: "The means of realizing God are ecstasy of love and devotion — that is, one must love God. He who is Brahman is addressed as the Mother,
" प्रसाद बोले मातृभावे आमि तत्व कोरि जां''रे ।
शेटा चातरे की भांगबो हाँड़ी, बोझो न रे मन ठारे ठारे।।"
“प्रसाद कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी खोज कर रहा हूँ ; क्या उसके तत्त्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा? मन, इशारे से ही समझ लो ।”
“ रामप्रसाद मन को इशारे ही से समझने के लिए उपदेश करते हैं । यह समझने को कहते हैं कि वेदों ने जिन्हें ब्रह्म कहा है उन्हीं को मैं माँ कहकर पुकारता हूँ । जो निर्गुण हैं वे ही सगुण हैं; जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं । जब यह बोध होता है कि वे निष्क्रिय हैं तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब यह सोचता हूँ कि वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते हैं, तब उन्हें आद्याशक्ति काली कहता हूँ।”
[“রামপ্রসাদ মনকে বলছে — ‘ঠারে ঠোরে’ বুঝতে। এই বুঝতে বলছে যে, বেদে যাঁকে ব্রহ্ম বলেছে — তাঁকেই আমি মা বলে ডাকছি। যিনিই নির্গুণ, তিনিই সগুণ; যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই শক্তি। যখন নিষ্ক্রিয় বলে বোধ হয়, তখন তাঁকে ‘ব্রহ্ম’ বলি। যখন ভাবি সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় করছেন, তখন তাঁকে আদ্যাশক্তি বলি, কালী বলি।
{“প্রসাদ বলে মাতৃভাবে আমি তত্ত্ব করি যাঁরে ।
সেটা চাতরে কি ভাঙব হাঁড়ি, বোঝ না রে মন ঠারে ঠোরে ৷৷
He it is, says Ramprasad, that I approach as Mother;But must I give away the secret, here in the market-place?From the hints I have given, O mind, guess what that Being is!
"Ramprasad asks the mind only to guess the nature of God. He wishes it to understand that what is called Brahman in the Vedas is addressed by him as the Mother. He who is attributeless also has attributes. He who is Brahman man is also Sakti. When thought of as inactive, He is called Brahman, and when thought of as the Creator, Preserver, and Destroyer, He is called the Primordial Energy, Kali.}
“ब्रह्म (जय श्रीराम) और शक्ति (जय माँ काली - जय सीता मईया ) अभेद हैं, जैसे कि अग्नि और उसकी दाहिकाशक्ति । अग्नि कहते ही दाहिकाशक्ति का ज्ञान होता है और दाहिकाशक्ति कहने से अग्नि का ज्ञान । एक को मानिए तो दूसरा भी साथ मान लिया जाता है ।”
{“ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ। যেমন অগ্নি আর দাহিকাশক্তি, অগ্নি বললেই দাহিকাশক্তি বুঝা যায়; দাহিকাশক্তি বললেই অগ্নি বুঝা যায়; একটিকে মানলেই আর একটিকে মানা হয়ে যায়।
"Brahman and Sakti are identical, like fire and its power to burn. When we talk of fire we automatically mean also its power to burn. Again, the fire's power to burn implies the fire itself. If you accept the one you must accept the other.}
“उन्हीं को भक्तजन माँ कहकर पुकारते हैं । माँ बड़े प्यार की वस्तु है न । ईश्वर को प्यार करने से वे प्राप्त होते हैं; भाव, भक्ति, प्रीति और विश्वास चाहिए ।”
{তাঁকেই ‘মা’ বলে ডাকা হচ্ছে। ‘মা’ বড় ভালবাসার জিনিস কিনা। ঈশ্বরকে ভালবাসতে পারলেই তাঁকে পাওয়া যায়। ভাব, ভক্তি, ভালবাসা আর বিশ্বাস। আর একটা গান শোনঃ
"Brahman alone is addressed as the Mother. This is because a mother is an object of great love. One is able to realize God just through love. Ecstasy of feeling, devotion, love, and faith — these are the means. Listen to a song:}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏उपाय- पहले माँ काली के अवतार में विश्वास उसके बाद उनकी भक्ति🔆🙏
[Way - first faith - then devotion]
भाबिले भाबेर उदय होय।
(ओ से) जेमन भाब , तेमनी लाभ , मूल से प्रत्यय।।
कालीपद -सुधाहृदे, चित्त जदि बोय (जदि चित्त डूबे बोय। )
तोबे पूजा , होम , यागयज्ञ , किछुइ किछु नोय।।
(भावार्थ)- “ चिन्तन करने से भाव का उदय होता है । जैसा भाव होगा, लाभ भी वैसा होगा, मूल है प्रत्यय। काली के चरण-सुधासागर में यदि चित्त डूब जाय तो पूजा-होम, योग-यज्ञ-कुछ भी आवश्यक नहीं ।”
{“ভাবিলে ভাবের উদয় হয় ।
(ও সে) যেমন ভাব, তেমনি লাভ, মূল সে প্রত্যয় ৷৷
কালীপদ-সুধাহ্রদে, চিত্ত যদি রয় (যদি চিত্ত ডুবে রয়) ।
তবে পূজা, হোম, যাগযজ্ঞ, কিছুই কিছু নয় ৷৷
As is a marl's meditation, so is his feeling of love; As is a man's feeling of love, so is his gain; And faith is the root of all. If in the Nectar Lake of Mother Kali's feet My mind remains immersed, Of little use are worship, oblations, or sacrifice.
“चित्त को (मन वस्तु को) उन पर लगाना चाहिए, उन्हें प्यार करना चाहिए । वे सुधासागर हैं; अमृतसिन्धु हैं; इसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं, अमर हो जाता है । किसी किसी का यह विचार है कि ईश्वर को ज्यादा पुकारने से मस्तिष्क बिगड़ जाता है, पर बात ऐसी नहीं । यह तो सुधासमुद्र है, अमृतसिन्धु है । वेदों में इसे अमृत कहा है । इसमें डूब जाने से कोई मरता नहीं, अमर हो जाता है।”
{“চিত্ত তদগত হওয়া, তাঁকে খুব ভালবাসা। ‘সুধাহ্রদ’ কিনা অমৃতের হ্রদ। ওতে ডুবলে মানুষ মরে না। অমর হয়। কেউ কেউ মনে করে, বেশি ঈশ্বর ঈশ্বর করলে মাথা খারাপ হয়ে যায়। তা নয়। এ-যে সুধার হ্রদ! অমৃতের সাগর। বেদে তাঁকে ‘অমৃত’ বলেছে, এতে ডুবে গেলে মরে না — অমর হয়।”
"What is needed is absorption in God — loving Him intensely. The 'Nectar Lake' is the Lake of Immortality. A man sinking in It does not die, but becomes immortal. Some people believe that by thinking of God too much the mind becomes deranged; but that is not true. God is the Lake of Nectar, the Ocean of Immortality. He is called the 'Immortal' in the Vedas. Sinking in It, one does not die, but verily transcends death.
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7]
🔆🙏 कर्म का यूरोपीय आदर्श - तथा श्री रामकृष्ण 🔆🙏
[ Sri Ramakrishna and the European ideal of work]
[निष्काम कर्म ~ "Be and Make" तथा जगत का कल्याण]
“ पूजा, होम, याग, यज्ञ-ये कुछ नहीं हैं । यदि ईश्वर पर प्रीति पैदा हो जाय तो इन कर्मों की अधिक आवश्यकता नहीं । जब तक हवा नहीं बहती तभी तक पंखे की जरूरत होती है । यदि दक्षिणी हवा आप ही आने लगे तो पंखा रख देना पड़ता है । फिर पंखे का क्या काम ?
[“পূজা, হোম, যাগ” কিছুই কিছু নয়। যদি তাঁর উপর ভালবাসা আসে, তাহলে আর এ-সব কর্মের বেশি দরকার নাই। যতক্ষণ হাওয়া পাওয়া না যায়, ততক্ষণই পাখার দরকার; যদি দক্ষিণে হাওয়া আপনি আসে, পাখা রেখে দেওয়া যায়। আর পাখার কি দরকার?
Of little use are worship, oblations, or sacrifice.If a man comes to love God, he need not trouble himself much about these activities. One needs a fan only as long as there is no breeze. The fan may be laid aside if the southern breeze blows. Then what need is there of a fan?
(विद्यासागर के प्रति उपदेश ) “ तुम जो काम कर रहे हो, ये सब अच्छे कर्म हैं । यदि ‘मैं कर्ता (नेता) हूँ’ इस भाव को छोड़कर निष्काम भाव से कर्म कर सको तो और भी अच्छा है । यह कर्म करते करते ईश्वर पर भक्ति और प्रीति होगी । इस प्रकार निष्काम कर्म [Be and Make] करते जाओ तो ईश्वर-लाभ भी होगा ।”
[“তুমি যে-সব কর্ম করছ, এ-সব সৎকর্ম। যদি ‘আমি কর্তা’ এই অহংকার ত্যাগ করে নিষ্কামভাবে করতে পার, তাহলে খুব ভাল। এই নিষ্কামকর্ম করতে করতে ঈশ্বরেতে ভক্তি ভালবাসা আসে। এইরূপ নিষ্কামকর্ম করতে করতে ঈশ্বরলাভ হয়।
(To Vidyasagar) "The activities that you are engaged in are good. It is very good if you can perform them in a selfless spirit, renouncing egotism, giving up the idea that you are the doer. Through such action one develops love and devotion to God, and ultimately realizes Him.
“उन पर जितनी ही भक्ति-प्रीति होगी, उतने ही तुम्हारे काम घटते जाएँगे । गृहस्थ की बहू जब गर्भिणी होती है, तब उसकी सास उसका काम कम कर देती है । नौ महीने पूरे होने पर बिलकुल काम छूने नहीं देती । उसे डर रहता है कि कहीं बच्चे को कोई हानि न पहुँचे, सन्तान-प्रसव में कोई विपत्ति न हो । (हास्य) तुम जो काम (दानधर्म आदि) कर रहे हो, उससे तुम्हारा ही उपकार है । निष्काम भाव से कर्म कर सकोगे तो चित्त की शुद्धि होगी, ईश्वर पर तुम्हारा प्रेम होगा । प्रेम होते ही तुम उन्हें प्राप्त कर लोगे । संसार का उपकार मनुष्य नहीं करता, वे ही करते हैं जिन्होंने चन्द्र-सूर्य की सृष्टि की, माता-पिता को स्नेह दिया, सत्पुरुषों में दया का संचार किया और साधु-भक्तों को भक्ति दी । जो मनुष्य कामनाशून्य होकर कर्म [ Be and Make ] करेगा वह अपना ही हित करेगा ।”
{“কিন্তু যত তাঁর উপর ভক্তি ভালবাসা আসবে, ততই তোমার কর্ম কমে যাবে। গৃহস্থের বউ, পেটে যখন ছেলে হয় — শাশুড়ী তার কর্ম কমিয়ে দেয়। যতই মাস বাড়ে, শাশুড়ী কর্ম কমায়। দশমাস হলে আদপে কর্ম করতে দেয় না, পাছে ছেলের কোন হানি হয়, প্রসবের কোন ব্যাঘাত হয়। (হাস্য) তুমি যে-সব কর্ম করছ এতে তোমার নিজের উপকার। নিষ্কামভাবে কর্ম করতে পারলে চিত্তশুদ্ধি হবে, ঈশ্বরের উপর তোমার ভালবাসা আসবে। ভালবাসা এলেই তাঁকে লাভ করতে পারবে। জগতের উপকার মানুষ করে না, তিনিই করছেন, যিনি চন্দ্র-সূর্য করেছেন, যিনি মা-বাপের স্নেহ, যিনি মহতের ভিতর দয়া, যিনি সাধু-ভক্তের ভিতর ভক্তি দিয়েছেন। যে-লোক কামনাশূন্য হয়ে কর্ম করবে সে নিজেরই মঙ্গল করবে।”
"The more you come to love God, the less you will be inclined to perform action. When the daughter-in-law is with child, her mother-in-law gives her less work to do. As time goes by she is given less and less work. When the time of delivery nears, she is not allowed to do any work at all, lest it should hurt the child or cause difficulty at the time of birth.
"Man cannot really help the world. God alone does that — He who has created the sun and the moon, who has put love for their children in parents' hearts, endowed noble souls with compassion, and holy men and devotees with divine love. The man who works for others, without any selfish motive, really does good to himself.}
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏निष्काम कर्म 'Be and Make ' का उद्देश्य-ईश्वरदर्शन🔆🙏
“भीतर सुवर्ण है, अभी तक तुन्हें पता नहीं चला । ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी है । यदि एक बार पता चल जाय तो अन्य काम घट जाएँगे । गृहस्थ की बहू के लड़का होने से वह लड़के ही को लिए रहती है, उसी को उठाती बैठाती है । फिर उसकी सास उसे घर के काम में हाथ नहीं लगाने देती। (सब हँसे )
{“অন্তরে সোনা আছে, এখনও খবর পাও নাই। একটু মাটি চাপা আছে। যদি একবার সন্ধান পাও, অন্য কাজ কমে যাবে। গৃহস্থের বউ-এর ছেলে হলে ছেলেটিকেই নিয়ে থাকে; ওইটিকে নিয়েই নাড়াচাড়া; আর সংসারের কাজ শাশুড়ী করতে দেয় না। (সকলের হাস্য)
"There is gold buried in your heart, but you are not yet aware of it. It is covered with a thin layer of clay. Once you are aware of it, all these activities of yours will lessen. After the birth of her child, the daughter-in-law in the family busies herself with it alone. Everything she does is only for the child. Her mother-in-law doesn't let her do any household duties.}
और भी ‘आगे बढ़ो ।’ लकड़हारा लकड़ी काट ने गया था; ब्रह्मचारी ने कहा- आगे बढ़ जाओ । उसने आगे बढ़कर देखा तो चन्दन के पेड़ थे ! फिर कुछ दिन बाद उसने सोचा कि ब्रह्मचारी ने बढ़ जाने को कहा था, सिर्फ चन्दन के पेड़ तक तो जाने को कहा नहीं । आगे चलकर देखा तो चाँदी की खान थी । फिर कुछ दिन बीतने पर और आगे बढ़ा और देखा तो सोने की खान मिली । फिर क्रमशः हीरे की-मणियों की । वह सब लेकर वह मालामाल हो गया ।
[“আরও এগিয়ে যাও। কাঠুরে কাঠ কাটতে গিছিল; — ব্রহ্মচারী বললে, এগিয়ে যাও। এগিয়ে গিয়ে দেখে চন্দনগাছ। আবার কিছুদিন পরে ভাবলে, তিনি এগিয়ে যেতে বলেছিলেন, চন্দনগাছ পর্যন্ত তো যেতে বলেন নাই। এগিয়ে গিয়ে দেখে রূপার খনি। আবার কিছুদিন পরে এগিয়ে গিয়ে দেখে, সোনার খনি। তারপা কেবল হীরা, মাণিক। এই সব লয়ে একেবারে আণ্ডিল হয়ে গেল।
"Go forward. A wood-cutter once entered a forest to gather wood. A brahmachari said to him, 'Go forward.' He obeyed the injunction and discovered some sandal-wood trees. After a few days he reflected, 'The holy man asked me to go forward. He didn't tell me to stop here.' So he went forward and found a silver-mine. After a few days he went still farther and discovered a gold-mine, and next, mines of diamonds and precious stones. With these he became immensely rich.
“निष्काम कर्म [Be and Make ] कर सकने से ईश्वर पर प्रेम होता है । क्रमशः उनकी कृपा से उन्हें लोग पाते भी हैं । ईश्वर के दर्शन होते हैं, उनसे बातचीत होती है जैसे कि मैं तुमसे वार्तालाप कर रहा हूँ।”
[सब निःशब्द हैं (बेलघड़िया कैम्प निर्जनवास ...... में माँ तारा का दर्शन और बातचीत !....]
{ “নিষ্কামকর্ম করতে পারলে ঈশ্বরে ভালবাসা হয়; ক্রমে তাঁর কৃপায় তাঁকে পাওয়া যায়। ঈশ্বরকে দেখা যায়, তাঁর সঙ্গে কথা কওয়া যায়, যেমন আমি তোমার সঙ্গে কথা কচ্ছি!” (সকলে নিঃশব্দ)
"Through selfless work, love of God grows in the heart. Then, through His grace, one realizes Him in course of time. God can be seen. One can talk to Him as I am talking to you."
(बेलघड़िया कैम्प निर्जनवास ...... में माँ तारा का दर्शन और बातचीत !.... )
(७)
[ अहेतुक कृपासिन्धु नवनीदा कौन हैं ?]
[( 5 अगस्त 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत- 7 ]
🔆🙏अहेतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण🔆🙏
सब की जबान बन्द हैं । लोग चुपचाप बैठे ये बातें सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की जिव्हा पर मानो साक्षात् वाग्वादिनी (Goddess of Wisdom) बैठी हुई जीवों के हित के लिए विद्यासागर से बातें कर रही हैं । रात हो रही है-नौ बजने को है। श्रीरामकृष्ण अब चलनेवाले हैं ।
[সকলে অবাক ও নিস্তব্ধ হইয়া এই সকল কথা শুনিতেছেন। যেমন সাক্ষাৎ বাগ্বাদিনী শ্রীরামকৃষ্ণের জিহ্বাতে অবতীর্ণ হইয়া বিদ্যাসাগরকে উপলক্ষ করিয়া জীবের মঙ্গলের জন্য কথা বলিতেছেন। রাত্রি হইতেছে; নয়টা বাজে। ঠাকুর এইবার বিদায় গ্রহণ করিবেন।
In silent wonder they all sat listening to the Master's words. It seemed to them that the Goddess of Wisdom Herself, seated on Sri Ramakrishna's tongue, was addressing these words not merely to Vidyasagar, but to all humanity for its good. It was nearly nine o'clock in the evening. The Master was about to leave.]
श्रीरामकृष्ण (विद्यासागर से, सहास्य)- यह सब जो कहा, वह तो ऐसे ही कहा । आप सब जानते हैं, किन्तु अभी आपको इसकी खबर नहीं । (सब हँसे ।) वरुण के भण्डार में कितने ही रत्न पड़े हैं, परन्तु वरुण महाराज को कोई खबर नहीं ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিদ্যাসাগরের প্রতি সহাস্যে) — এ-যা বললুম, বলা বাহুল্য আপনি সব জানেন — তবে খপর নাই। (সকলের হাস্য) বরুণের ভাণ্ডারে কত কি রত্ন আছে! বরুণ রাজার খপর নাই!
MASTER (to Vidyasagar, with a smile): "The words I have spoken are really superfluous. You know all this; you simply aren't conscious of it. There are countless gems in the coffers of Varuna. But he himself isn't aware of them."
विद्यासागर (हँसते हुए)-यह आप कह सकते हैं ।
[বিদ্যাসাগর (সহাস্যে) — তা আপনি বলতে পারেন।
VIDYASAGAR (with a smile): "You may say as you like."
श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- हाँ जी, अनेक बाबू नौकरों के नाम तक नहीं जानते ! (सब हँसते हैं ।) घर में कहाँ कौनसी कीमती चीज पड़ी है, वे नहीं जानते ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ গো, অনেক বাবু জানে না চাকর-বাকরের নাম (সকলের হাস্য) — বা বাড়ির কোথায় কি দামী জিনিস আছে।
MASTER (smiling): "Oh, yes. There are many wealthy people who don't know the names of all their servants, and are even unaware of many of the precious things in their houses." (All laugh.)
वार्तालाप सुनकर लोग आनन्दित हो रहे हैं । थोड़ी देर के लिए सब लोग शान्त हो गए । श्रीरामकृष्ण विद्यासागर से फिर आगे प्रसंग उठाते हैं । श्रीरामकृष्ण (हँसमुख)- एक बार बगीचा देखने जाइए, रासमणि का बगीचा । बड़ी अच्छी जगह है।
[কথাবার্তা শুনিয়া সকলে আনন্দিত। সকলে একটু চুপ করিয়াছেন। ঠাকুর আবার বিদ্যাসাগরকে সম্বোধন করিয়া কথা কহিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একবার বাগান দেখতে যাবেন, রাসমণির বাগান। ভারী চমৎকার জায়গা।
Everybody was delighted with the Master's conversation. Again addressing Vidyasagar, he said with a smile: "Please visit the temple garden some time — I mean the garden of Rasmani. It's a charming place."
विद्यासागर- जरुर जाऊँगा । आप आए और मैं न जाऊँगा ?
[বিদ্যাসাগর — যাব বই কি। আপনি এলেন আর আমি যাব না!
VIDYASAGAR: "Oh, of course I shall go. You have so kindly come here to see me, and shall I not return your visit?"
श्रीरामकृष्ण- मेरे पास ? राम राम ...
[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার কাছে? ছি! ছি!
MASTER: "Visit me? Oh, never think of such a thing!"
विद्यासागर- यह क्या ! ऐसी बात आपने क्यों कही ? मुझे समझाइए ।
[বিদ্যাসাগর — সে কি! এমন কথা বললেন কেন? আমায় বুঝিয়ে দিন।
VIDYASAGAR: "Why, sir? Why do you say that? May I ask you to explain?"
श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- हम लोग (महामण्डल कर्मी) छोटी छोटी किश्तियाँ हैं जो खाई, नाले और बड़ी नदियों में भी जा सकती हैं । परन्तु आप हैं जहाज; कौन जानता है, जाते समय रेत में लग जाय ! (सब हँसते हैं।)
{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — আমরা জেলেডিঙি। (সকলের হাস্য) খাল বিল আবার বড় নদীতেও যেতে পারি। কিন্তু আপনি জাহাজ, কি জানি যেতে গিয়ে চড়ায় পাছে লেগে যায়। (সকলের হাস্য)
"You see, we are like small fishing-boats. (All smile.) We can ply in small canals and shallow waters and also in big rivers. But you are a ship. You may run aground on the way!" (All laugh. )
[ एक संस्मरण : एक बार किसी बड़े संन्यासी ने मेरे घर पर पधारकर कहा था महामण्डल में क्या है ? कितना स्कूल कितना अस्पताल बनाया है ? तुम लोग तो केवल खड़े रहो ! खड़े रहो ! करते हो ! तब दादा ने कहा था, आगे से 'तुम विनम्र भाव कहना, महाराज , महामण्डल तो छोटी -छोटी नौका के समान भारत के छोटे-छोटे गाँव (जानिबिघा, फुलवरिया, बसरिया, बरही , बरसोत) तक ही जा सकता है, जबकि ' मठमीशन' तो विशाल जहाज जैसा बड़ा संगठन है , और विश्व भर के बड़े- बड़े देशों और महानगरों में भी जा सकता है !]
विद्यासागर प्रफुल्लमुख किन्तु चुपचाप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हैं । श्रीरामकृष्ण- पर हाँ, इस समय जहाज भी जा सकता है ।
[বিদ্যাসাগর সহাস্যবদন, চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর হাসিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তার মধ্যে এ-সময় জাহাজও যেতে পারে।
Vidyasagar remained silent. Sri Ramakrishna said with a laugh, "But even a ship can go there at this season."
विद्यासागर- (हँसते हुए)- हाँ, ठीक है, यह वर्षाकाल है । (लोग हँसे ।)
[বিদ্যাসাগর (সহাস্য) — হাঁ, এটি বর্ষাকাল বটে! (সকলের হাস্য)
VIDYASAGAR (smiling): "Yes, this is the monsoon season." (All laugh.)
मास्टर (स्वगत)- नवानुराग की वर्षा, नवानुराग जब होता है, तब मान-अपमान का बोध क्या रह सकता है ।
[মাস্টার (স্বগতঃ) — নবানুরাগের বর্ষা নবানুরাগের সময় মান-অপমান বোধ থাকে না বটে!
M. said to himself: "This is indeed the monsoon season of newly awakened love. At such times one doesn't care for prestige or formalities."
श्रीरामकृष्ण उठे । भक्तजन भी उठे । विद्यासागर आत्मीयों के साथ खड़े हैं, श्रीरामकृष्ण को गाड़ी पर चढ़ाने जाएँगे । श्रीरामकृष्ण अब भी खड़े हैं । करजाप कर रहे हैं । जपते हुए भाव के आवेश में आ गए, मानो विद्यासागर के आत्मिक हित के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते हों ।
[ঠাকুর গাত্রোত্থান করিলেন, ভক্তসঙ্গে। বিদ্যাসাগর আত্মীয়গণসঙ্গে দাঁড়াইয়াছেন। ঠাকুরকে গাড়িতে তুলিয়া দিবেন।শ্রীরামকৃষ্ণ এখনও দাঁড়াইয়া রহিয়াছেন কেন? মূলমন্ত্র করে জপিতেছেন; জপিতে জপিতে ভাববিষ্ট হইয়াছেন। অহেতুক কৃপাসিন্ধু! বুঝি যাইবার সময় মহাত্মা বিদ্যাসাগরের আধ্যাত্মিক মঙ্গলের জন্য মার কাছে প্রার্থনা করিতেছেন।
Sri Ramakrishna then took leave of Vidyasagar, who with his friends escorted the Master to the main gate, leading the way with a lighted candle in his hand. Before leaving the room, the Master prayed for the family's welfare, going into an ecstatic mood as he did so.
भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण उतर रहे हैं । एक भक्त उनका हाथ पकड़े हुए हैं । विद्यासागर स्वजन-बन्धुओं के साथ आगे जा रहे हैं, हाथ में बत्ती लिए रास्ता दिखाते हुए । सावन की कृष्णपक्ष की षष्ठी है, अभी चन्द्रोदय नहीं हुआ है । अँधेरे से ढकी हो उद्यान-भूमि को बत्ती के मन्द प्रकाश के सहारे किसी तरह पार कर लोग फाटक की ओर आ रहे हैं ।
[ঠাকুর ভক্তসঙ্গে সিঁড়ি দিয়া নামিতেছেন। একজন ভক্তের হাত ধরিয়া আছেন। বিদ্যাসাগর স্বজনসঙ্গে আগে আগে যাইতেছেন — হাতে বাতি, পথ দেখাইয়া আগে আগে যাইতেছেন। শ্রাবণ কৃষ্ণাষষ্ঠী, এখনও চাঁদ উঠে নাই। তমসাবৃত উদ্যানভূমির মধ্য দিয়া সকলে বাতির ক্ষীনালোক লক্ষ্য করিয়া ফটকের দিকে আসিতেছেন।
भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण फाटक के पास ज्योंही पहुँचे त्योंही एक सुन्दर दृश्य ने सब को चकित कर दिया । सामने एक दाढ़ीवाले, गौरवर्ण पुरुष खड़े थे । उम्र छतीस-सैतीस वर्ष की होगी। बंगालियों की तरह पोशाक थी पर सिर पर सिक्खों की तरह शुभ्र साफा बँधा था । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखते ही भूमि पर मस्तक रखकर प्रणाम किया । उनके उठ खड़े होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, “बलराम तुम हो ? इतनी रात को ?”
[শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে ফটকের কাছে যাই পৌঁছিলেন, সকলে একটি সুন্দর দৃশ্য দেখিয়া দাঁড়িয়া পড়িল। সম্মুখে বাঙালীর পরিচ্ছদধারী একটি গৌরবর্ণ শ্মশ্রুধারী পুরুষ, বয়স আন্দাজ ৩৬/৩৭, মাথায় শিখদিগের ন্যায় শুভ্র পাগড়ি, পরনে কাপড়, মোজা, জামা। চাদর নাই। তাঁহারা দেখিলেন, পুরুষটি শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিবামাত্র মাটিতে উষ্ণীষসমেত মস্তক অবলুন্ঠিত করিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া রহিছেন। তিনি দাঁড়াইলে ঠাকুর বলিলেন, “বলরাম! তুমি? এত রাত্রে?”
As soon as the Master and the devotees reached the gate, they saw an unexpected sight and stood still. In front of them was a bearded gentleman of fair complexion, aged about thirty-six. He wore his clothes like a Bengali, but on his head was a white turban tied after the fashion of the Sikhs. No sooner did he see the Master than he fell prostrate before him, turban and all.When he stood up the Master said: "Who is this? Balaram? Why so late in the evening?"
बलराम (हँसकर)- मैं बड़ी देर से आया हूँ ।
[বলরাম (সহাস্যে) — আমি অনেক্ষণ এসেছি, এখানে দাঁড়িয়েছিলাম।
BALARAM: "I have been waiting here a long time, sir."
श्रीरामकृष्ण- भीतर क्यों नहीं गए ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ভিতরে কেন যাও নাই?
MASTER: "Why didn't you come in?"
बलराम- जी, लोग आपका वार्तालाप सुन रहे थे । बीच में पहुँचकर क्यों शान्ति भंग करूँ, यह सोचकर नहीं गया ।
[বলরাম — আজ্ঞা, সকলে আপনার কথাবার্তা শুনছেন, মাঝে গিয়ে বিরক্ত করা।
BALARAM: "All were listening to you. I didn't like to disturb you."
यह कहकर बलराम हँसने लगे ।
[এই বলিয়া বলরাম হাসিতে লাগিলেন।]
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ गाड़ी पर बैठ गए ।
[ঠাকুর ভক্তসঙ্গে গাড়িতে উঠিতেছেন।
The Master got into the carriage with his companions.
विद्यासागर (मास्टर से धीमी आवाज में)- गाड़ी का किराया क्या दे दें ?
[বিদ্যাসাগর (মাস্টারের প্রতি মৃদুস্বরে) — ভাড়া কি দেব?
VIDYASAGAR (to M., softly): "Shall I pay the carriage hire?"
मास्टर- जी नहीं, दे दिया गया है ।
[মাস্টার — আজ্ঞা না, ও হয়ে গেছে।
M: "Oh, don't bother, please. It is taken care of."
विद्यासागर और अन्यान्य लोगों ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । गाड़ी उत्तर की ओर चलने लगी, दक्षिणेश्वर काली मन्दिर को जाएगी । सब लोग गाड़ी की ओर देखते हुए खड़े हैं । सोच रहे हैं- ये महापुरुष (faculty : नवनीदा) कौन हैं ? ये ईश्वर पर कितना प्रेम करते हैं फिर जीवों के घर -घर जाकर कहते हैं कि ईश्वर पर प्रेम करना ही जीवन का उद्देश्य है।
[বিদ্যাসাগর ও অন্যান্য সকলে ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন। গাড়ি উত্তরাভিমুখে হাঁকাইয়া দিল। গাড়ি দক্ষিণেশ্বর কালীবাড়িতে যাইবে। এখনও সকলে গাড়ির দিকে তাকাইয়া দাঁড়াইয়া আছেন। বুঝি ভাবিতেছেন, এ মহাপুরুষ কে? যিনি ঈশ্বরকে ভালবাসেন, আর যিনি জীবের ঘরে ঘরে ফিরছেন, আর বলছেন, ঈশ্বরকে ভালবাসাই জীবনের উদ্দেশ্য।
Vidyasagar and his friends bowed to Sri Ramakrishna, and the carriage started for Dakshineswar. But the little group, with the venerable Vidyasagar at their head holding the lighted candle, stood at the gate and gazed after the Master until he was out of sight.
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