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बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

🕊🏹 स्वामी विवेकानन्द का नव-विप्लव' 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.5 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.5] ("The Way of the Drop-outs - Come Out and Stand Alone"))

5.

🕊🏹स्वामी विवेकानन्द का नव-विप्लव🕊🏹

 [Come Out and Stand Alone !]

      "मुक्ति ओ मुक्ति, मुक्ति ओ मुक्ति! ' आत्मा के अन्तस्तल से सदैव यही संगीत ध्वनित होता रहता है।" ये बातें स्वामी विवेकानन्द की हैं। (२/२९४) वे यह भी कहते हैं-" जगत में सबके भीतर ही एक असन्तोष का भाव दिखाई पड़ता है। इस सर्वव्यापी असन्तोष का अर्थ क्या है ? " इसका  अर्थ यह है कि स्वाधीनता ही मनुष्य का चरम लक्ष्य है
`जब तक मनुष्य स्वाधीनता की प्राप्ति नहीं करता, तबतक किसी भी तरह उसका असन्तोष दूर नहीं हो सकता। विश्व के स्पन्दन के माध्यम से यही मुक्ति प्रस्फुटित हो रही है। स्वामी विवेकानन्द ने जिस नए विप्लव में कूद पड़ने के लिए युवाओं का आह्वान किया था, उस विप्लव के मूल को उन्होंने यहीं से प्राप्त किया था। स्वामी जी कहते हैं -" जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता, तब तक इस मुक्ति को खोजता रहेगा। शिशु जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज रुदन की होती है, जो स्वयं को बंधनों में आबद्ध देखकर उसके विरोधस्वरूप होता है। " 
             किन्तु, वे पुनः कहते हैं - " वेदान्त में संग्राम का स्थान तो है, किन्तु भय के लिए कोई स्थान नहीं है। यह 'संग्राम', 'प्रतिवाद', 'विद्रोह', 'निर्भिकता', 'स्वाधीनता प्राप्ति की चेष्टा '--ये सब विप्लवी मन की भाषा है।"  किन्तु, अन्य कई शब्दों की तरह ही 'विप्लव' या 'इंकलाब'  शब्द के साथ भी - हमारे मन में 'विद्रोह', 'विनाश', 'विक्षोभ' आदि धारणायें इस प्रकार घुल-मिल गयी हैं कि, इंकलाब या विल्पव की जो एक महान गरिमा है, एक सुन्दर रूप है, उसमें जो अन्तर्निहित देवत्व के अनिवार्यरूप से आविर्भूत हो जाने की तीव्र आकांक्षा है, उसी मूल अर्थ को हम बिल्कुल भूल चुके हैं।  'विप्लव' शब्द 'प्लू' धातु से उत्पन्न हुआ है। 'प्लू' धातु का मूल अर्थ है- 'पार जाना' विशेष तौर पर जिन बन्धनों में मनुष्य जकड़ा हुआ है,उन बन्धनों को तोड़ना ही विप्लव का लक्ष्य है। स्वामी जी के नव विप्लव का यही निहितार्थ है। 
      स्वामीजी कहते हैं- " मैं इस सिद्धान्त से असहमत हूँ कि - प्रकृति के नियमों का पालन ही मुक्ति है। मैं नहीं समझता कि इसका क्या अर्थ हो सकता है? मनुष्य की प्रगति के इतिहास के अनुसार प्रकृति के नियमों के उल्लंघन से ही प्रगति सम्भव हुआ है। यह भले ही कहा जा सकता है कि निम्नतर नियमों पर उच्चतर नियमों द्वारा विजय प्राप्त हुई, परन्तु वहाँ भी विजेता मन मुक्त होने के लिए प्रयत्न कर रहा था। जैसे ही उसने देखा कि वह संघर्ष नियमों के कारण ही था, उसने  उस नियम को भी जीतना चाहा। प्रत्येक क्षेत्र का आदर्श सदा ही मुक्ति है। वृक्ष कभी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करते, गाय को कभी किसी ने चोरी करते हुए नहीं देखा, कोई घोंघा कभी झूठ नहीं बोलता, फिर भी वे मनुष्य से बड़े नहीं हैं। यह जीवन मुक्ति का एक उत्कट आग्रह है।" (2/261)
          स्वामी जी ने कहा है, " इस देश में एक बात हर समय सुनता रहता हूँ कि हमारे लिये सदा प्रकृति के साथ ताल मिलाकर चलना ही उचित है। क्या तुम यह नहीं जानते कि आज विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब प्रकृति को जीत लेने से ही हुई है।  यदि हमलोग किसी भी तरह से उन्नति करना चाहते हों, तो इसके लिये हर कदम पर हमें प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।" इसीलिये विनय कुमार सरकार ने कहा था यदि विवेकानन्द के विचारों को किसी मतवाद की संज्ञा देनी ही हो तो उसको ' प्रकृति के उपर- मनुष्यवाद' (Man-over-nature -ism) कहना होगा। प्रकृति तो मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि स्वयं जीवित बचे रहने के लिये संग्राम करते रहो। लेकिन, स्वयं बचे रहने के लिये संग्राम करना तो स्वार्थपरता को साधित करने का नामान्तर मात्र है, और विवेकानन्द के अनुसार वैसी चेष्टा किसी भी सामाजिक नैतिकता का सम्पूर्ण विरोधी है। इसी स्वार्थपूर्ण प्रथा का पालन करते रहने से विशेष अधिकार का जन्म होता है 
विवेकानन्द कहते हैं, " विशेषाधिकार भोग करने की धारणा मनुष्य जीवन के लिये कलंकस्वरुप है।" स्वामी जी इस विशेषाधिकार की धारणा को केवल आर्थिक क्षेत्र में ही निबद्ध रखने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने कहा है " इसके द्वारा पहले पाशविक विशेषाधिकार की धारणा उत्पन्न होती है- दुर्बल पर सबल के अधिकार की चेष्टा। इस जगत में धन के ऊपर अधिकार भी इसी प्रकार का है। किसी व्यक्ति के यदि दूसरों की अपेक्षा अधिक धन होता है, तो वह जो कम धनी हैं, उनके ऊपर अधिकार जमाना चाहता है या अधिक सुविधा का भोग करना चाहता है।  बुद्धिमान व्यक्तियों अधिकार- लिप्सा सूक्ष्मतर तथा अधिक प्रभावशाली होती है। कोई व्यक्ति यदि दूसरों की तुलना में अधिक ज्ञान या जानकारी रखता है, तो इसी आधार पर वह अपने लिए विशेष सुविधा का दावा करने लगता है।और  सबसे अन्तिम और सबसे निकृष्ट विशेषाधिकार है-आध्यात्मिकता का विशेषाधिकार। यह निकृष्टतम इसलिए है कि इसमें दूसरों के ऊपर सबसे अधिक अत्याचार करने की क्षमता होती है। जो यह समझते हैं, कि आध्यात्मिकता या ईश्वर के सम्बन्ध में वे अधिक जानते हैं, वे दूसरों से अधिक अधिकार पाने का दावा करने लगते हैं। किन्तु, एक वेदान्ती कभी भी शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक रूप से बलवान होने के कारण किसी के भी लिए विशेषाधिकार का समर्थन नहीं कर सकता। बिल्कुल ही नहीं। सभी के भीतर एक ही शक्ति विद्यमान है। इसलिए अद्वैत का कार्य है इन सभी विशेषाधिकारों को तोड़ डालना । वेदान्त इस विशेषाधिकारवाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है, मानव-आत्मा के उपर होने वाले इस उत्पीड़न को चूर-चूर कर देना चाहता है।" 
             स्वामी विवेकानन्द के `वेदान्ती इंकलाब ' या 'वेदान्ती विप्लव' की योजना में यही नया मोड़ है। किन्तु वे बड़े क्षोभ के साथ कहते हैं- " इस देश में लक्ष्य तो अनेक हैं, किन्तु उपाय नहीं।मस्तिष्क तो है, परन्तु हाथ नहीं। हम लोगों के पास वेदान्त मत (चार महावाक्य) है लेकिन उसे कार्य में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम-साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महाभेदवृत्ति है। महा निःस्वार्थ निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, किन्तु  हमारे कर्म अत्यन्त निर्मम और हृदयहीन हुआ करते हैं; और मांसपिण्ड की अपनी इस काया को छोड़ कर, अन्य किसी विषय में हम सोचते ही नहीं। " 
              स्वामी विवेकानन्द के अनुसार- "ईश्वर और शैतान में स्वार्थशून्यता और स्वार्थपरता के सिवा और कोई अन्तर नहीं हैं।  शैतान भी ईश्वर के जैसा ही शक्तिशाली है, केवल उसमें पवित्रता नहीं है -इस पवित्रता के अभाव ने ही उसको शैतना बना दिया है। केवल इसी पैमाने को इस दृष्टिगोचर जगत के प्रति प्रयोग करो। पवित्रता नहीं रहने से, ज्ञान और शक्ति का आधिक्य मनुष्य को शैतान में परिणत कर देता है। " (९/१०२) इस पवित्रता को प्राप्त करना ही वेदान्ती-विप्लव की योजना का प्रधान अंग है। इसकी प्राप्ति ही आध्यात्मिकता को अर्जित करना है एवं जीवन के समस्त स्तर पर वह प्रभावकारी होता है। विवेकानन्द के विचार में मनुष्य जीवन में- ' धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष' (Sacred and Secular) जैसे दो अलग-अलग कार्य-क्षेत्र नहीं हैं। क्योंकि जीवन एक ही वस्तु है, और हर प्रकार से अधि-आत्मिक है 
       किन्तु,धर्म क्या है ? विवेकानंद कहते हैं -" धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार प्रार्थना करना है कि "मुझे यह दो, मुझे वह दो" ? धर्म के संबन्ध में ये सब अहमकी धारणा है। मेरे गुरु श्री रामकृष्ण देव कहते थे -' गिद्ध  तो बहुत ऊँचाई पर उड़ते हैं, किन्तु, उनकी दृष्टि जानवरों के मुर्दा शरीर पर होती है।'  .....रास्ते की सफाई करना और अच्छे अन्न-वस्त्र का संग्रह और उनका वितरण कर देना ?  यदि साहस हो, इन सबके बाहर निकल आओ। समुदय नियम के बाहर  चले जाओ, मानो समग्र जगत भाप बनकर उड़ गया हो - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'(८/७९) यही है स्वामीजी का सच्चा इन्कलाब जिन्दाबाद ! या यथार्थ विप्लवी आह्वान !
        हम लोग उनके इसी उक्ति की प्रतिध्वनी प्रसिद्द इतिहासकार एवं विचारक अर्नाल्ड टायनबी (Arnold Joseph Toynbee) की पुस्तक 'Surviving the Future' में सुन सकते हैं। वे कहते हैं- " सच्चे दीर्घ स्थायी शान्ति के लिए जो अत्यन्त आवश्यक है, वह है एक आध्यत्मिक-विप्लव के घटित हो जाने की!" वे क्रांति के दो मार्गों की बातें करते हैं। एक में यह विप्लव व्यवस्था के प्रति क्षोभ और मुक्ति की आकांक्षा विस्फोटक रूप धारण कर लेती है और दूसरे प्रकार का इन्कलाब या निःशब्द और बाहर से देखने पर कम क्रियाशील प्रतीत होता है। फिर टॉयनबी  अपनी पुस्तक  'The way of the dropouts' में ठीक विवेकानन्द की भाषा में - सेन्ट फ्रांसिस ऑफ़ आसीसी का उदाहरण देते हुए कहते हैं- उनके अलावा इस प्रकार अकेले आकर खड़े हो जाने वाले क्रन्तिकारी नेतृत्व के और भी कई उदाहरण  हैं, जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत है।" हम नहीं जानते कि यह लिखते हुए टॉयनबी के मन में विवेकानन्द का नाम था या नहीं किन्तु हम निःसन्देह यह जानते हैं कि हमारे युग के ऐसे ही आध्यात्मिक यायावर दल के पुरोधा' का नाम था- स्वामी विवेकानन्द! ये यायावर लोग केवल अपने समाज में ही क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए ही संकल्पवान नहीं थे, बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति के विचार जगत में एक क्रांति लाना चाहते थे । और यही है इस नव विप्लव की भूमिका ।   
             विवेकानन्द ने घोषणा किया था, " हमलोग निश्चित रूप से विशेषाधिकार को विलुप्त कर सकते हैं। समग्र जगत के सामने यही एक सच्चा कार्य है। प्रत्येक जाति और देश के सामाजिक जीवन में यही एकमात्र संग्राम है। युग-युगान्तर से नैतिकता और धर्म का लक्ष्य इसी (वंशवाद में आधारित) अधिकारवाद का ध्वंश करना है। विभिन्नता को नष्ट किये बिना साम्य और ऐक्य (oneness) की ओर अग्रसर होना ही हमलोगों का एकमात्र कार्य है।" यहीं पर स्वामी विवेकानन्द के अध्यात्मिक इन्कलाब का सकारात्मक पक्ष दिखाई देता है। जड़वादियों के इन्कलाब और अध्यात्मवादियों के इन्कलाब में यही अन्तर है। संस्कृत के कवि भास ने बहुत ही सुंदर ढंग से कहा है- 
 प्राज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे, 
 समत्वमभ्येति तनुर्नबुद्धि: ।  

- कोई कार्य चाहे किसी ज्ञानी द्वारा सम्पादित हो या मूर्ख द्वारा बाहर से उसमें कोई अन्तर नहीं दिखलाई पड़ता। किन्तु, बुद्धि या विचार की दृष्टि से देखने पर दोनों में बहुत अन्तर रहता है। 
            विवेकानन्द की स्वाधीनता की परिकल्पना काफी व्यापक थी। वे सम्पूर्ण मानव जाति को राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्वाधीनता उपलब्ध करवाना चाहते थे।
        इसीलिये 1929 ई० में हुगली जिला छात्र सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था- " राममोहन के युग से प्रारम्भ हो भारत की स्वाधीनता  की आकांक्षा विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से क्रमशः प्रकट होती आ रही है।  उन्नीसवीं शताब्दी में यह आकांक्षा एक विशेष वर्ग के विचार -जगत तक ही सीमित दिखाई देता, उस समय तक यह विचार राष्ट्रीय फलक पर नहीं आया था।  क्योंकि उस समय भी भारतवासी पराधीनता के मोहनिद्रा में निमग्न हो ऐसा समझते थे कि अंग्रजों का भारत पर विजय भाग्य का फेर है या 'divine dispensation' ईश्वरीय विधान है।" 
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत एवं बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में स्वाधीनता के अखण्ड रूप का आभास 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा में प्राप्त होता है। "Freedom! Freedom, is the song of the soul. यह सन्देश जब स्वामीजी के हृदय को भेदकर प्रकट हुआ उस समय इस दैवी सन्देश ने सम्पूर्ण भारतवर्ष को मंत्रमुग्ध और हर्ष से भर दिया था। विवेकानन्द की साधना, आचरण एवं व्याख्यानों के माध्यम से भी यही सत्य प्रकट हुआ था। स्वामी विवेकानन्द जहाँ एक ओर मनुष्य को समस्त प्रकार के बन्धनों से स्वाधीन  होकर यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद) बनने का आह्वान करते हैं वहीं दूसरी ओर सर्वधर्म समन्वय का प्रचार कर भारत के राष्ट्रीय-एकता की बुनियाद को भी स्थापित कर देते हैं। "
               बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में गठित Sedition Committee' या "राजद्रोह जाँच समीति " के रिपोर्ट में कहा गया था कि "भारत के क्रांतिकारियों को कोर्स के रूप में मैजिनी, गैरीबाल्डी की जीवनी के साथ-साथ भगवदगीता और विवेकानन्द साहित्य पढ़ाये जाते थे।" तात्कालीन बंगाल के गवर्नर रोनाल्ड ने क्रांतिकारी हरिकुमार से ढाका के जेल में   पूछा था - " कहीं आप विवेकानन्द के अनुयायी और वेदान्ती तो नहीं हैं ? " 
विपिन चन्द्र पाल विवेकानन्द को ' राष्ट्रवाद के प्रवक्ता ' कहते थे। कई लोग उनको 'भारत का रूसो ' के नाम से भी संबोधित करते थे। ऋषि अरबिन्दो ने लिखा था, " दक्षिणेश्वर की मिट्टी से डायनामाईट का निर्माण हुआ था।" शायद इसीलिये जब अरबिन्दो को बम बनाने के मुकदमे में गिरफ्तार किया गया था, उस समय तलाशी में पुलिस को वहाँ से केवल एक ही सन्देहास्पद पुड़िया प्राप्त हुई थी। उनलोगों ने समझा  कि शायद उसमें कोई बिस्फोटक पदार्थ रखा हुआ है। अरबिन्दो  ने बाद में लिखा था, " पुलिस का सन्देह गलत नहीं था, क्योंकि ताखे में जो पुड़िया बांध कर रखा रखा हुआ था , वह वास्तव में बिस्फोटक पदार्थ ही तो था क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर की थोड़ी- सी मिट्टी रखी हुई थी।" 
          विवेकानन्द के भीतर अध्यात्मिक-क्रांति का बीज था, इसीलिये यह सब सम्भव हुआ था। उन्होंने आह्वान किया था- " हे नर-नारियों! उठो, आत्मा के सम्बंध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो संसार को कई सौ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है। अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, (विज्ञान और वेद दोनों प्रकार के सत्य को जान सके), जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करेजो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो उसका विनाश कर सके। " लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) में दृढ़ विश्वास रूपी कवच से सज्जित होकर दरिद्र,पतित  और पददलितों के प्रति सहानुभूति सेसिंह के समान साहसी बनकर, सिंह विक्रम से युक्त होकर  इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र मुक्ति,सेवा, सामाजिक उन्नति और साम्य के मंगलमय सन्देश को भारत के द्वार-द्वार तक पहुँचा सकें। उठो, जागो ! तुम्हारी मातृभूमि इसी महाबली की प्रार्थना कर रही है। " [पत्रावली2/18] अध्यात्मिक इन्कलाब का यह मार्ग उस्तुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुर्गम है। यदि भारत के युवा लोग व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, समाज से भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये कृतसंकल्प हों तथा इस नई क्रांति से प्रेम करने का साहस करें तभी उन्हें मानवीय सम्भावना का विकास और अभिव्यक्ति के लिये आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होगी। इस मार्ग पर चलने का एकमात्र संबल है, विवेकानन्द निर्देशित मनुष्यत्व उन्मेषक चरित्र निर्माणकारी शिक्षा।  " 
              चरित्र ही इस इन्कलाब का एकमात्र हथियार है और इस क्रांति का आघात पूरी निर्दयता के साथ इंकलाबियों को दूसरों पर नहीं अपने आप पर करना चाहिए। वे यदि अपने चरित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकें, तभी उनके द्वारा समाज में परिवर्तन ला पाना संभव होगा। नहीं तो जड़वादी इन्कलाब की भोथरी तलवार निष्फल होकर किसी न किसी दिन वापस लौट आएगी। जो लोग 'त्याग और सेवा' के माध्यम चरित्र का गठन करते हैं, वे ही लोग अध्यात्मिक क्रांति की पताका उठाकर संगठित हो सकते हैं। आज भारत को जिस चीज की आवश्यकता है, वह है चरित्र। चरित्र ही समाज के पतन और वैषम्य को दूर कर सकता है, विशेषाधिकार और शोषण को समाप्त कर सकता है, साम्य, न्याय और परस्पर सौहार्द को स्थापित कर सकता है। 
          आज भारत की स्वाधीनता के 27 वर्षों बाद (यह लेख 1974 में  प्रकाशित हुआ था) टॉयनबी उल्लेखित पुराने ढंग की  क्रांति का प्रयोजन समाप्त हो गया है। आज आवश्यकता है एक नये ढंग की क्रांति की। मन की चंचलता को संयमित कर अपने जीवन को गढ़ते हुए देश को गढ़ने का कार्य करना, वर्त्तमान परिस्थितियों से उत्पन्न निराशा की विभीषिका से बचने की चेष्टा में मर जाने से भी कठिनतर है। 
  
सत्य है कठिन, बोलो  - कठिनतर से किया प्रेम !  
 मृत्युपर्यन्त जीवन है दुःख की तपस्या मात्र !   

  " विषयी को परिवर्तित करो, विषय भी परिवर्तित हो जायेगा। स्वयं को परिवर्तित करो, तो जगत भी परिवर्तित होने को बाध्य हो जायेगा। हमलोग उत्तरोत्तर अपने पड़ोसियों को लेकर व्यस्त होते जाते हैं, अपने बारे में हमारी व्यस्तता क्रमशः कम होती जाती है। यदि हमलोग बदल  जाएँ तो जगत भी बदल  जायेगा। विवेकानन्द के इन विचारों में 'नये इंकलाब की योजना' सन्निहित है।  इस नई क्रांति की रण-गर्जना को अपने हृदय से श्रवण करो- 
' उठो उठो, महातरंग आ रहा है !
जागो वीर ! छोड़ो सपने, तोड़ो भ्रमजाल, 
भय क्या तुम्हें  देगा शोभा ?
 सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।

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>>>आध्यात्मिक विप्लव में अध्यात्म का अर्थ क्या है ? "छन्न छाड़ा गोष्ठिर पुरोधा" : जीवनमुक्त यायावरों के (मार्गदर्शक-नेताओं के) दल  के अग्रदूत (forerunner)  विप्लव के वीर ...... कौन ? वह चौथा व्यक्ति (ईश्वरकोटि का मनुष्य)  ऊँची चहारदीवारी उस ओर देखकर या  देश-काल (time and space) की सीमा के परे जाकर वापस शरीर में लौट आता है। ठीक विवेकानन्द की भाषा में- "मानो समग्र जगत भाप बनकर उड़ गया हो और जो विप्लवी `अकेले आकर खड़े हो जाते हैं।'

किन्तु हमारे युग के -यायावर दल के नेता ' छन्न छाड़ा गोष्ठी के पुरोधा' अथवा रूढ़िमुक्त  यथार्थ ब्राह्मण पुरोधा का नाम है -श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ! जो न केवल अपने समुदाय (ब्राह्मण समुदाय) में ही एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिये कृतसंकल्प थे, बल्कि सम्पूर्ण भारत के युवाओं  के विचार-जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए कृतसंकल्प थे। और यही एक नई क्रांति की शुरुआत भी है। पूज्य नवनी दा ने जो कुछ लिखा है, उसको उन्होंने पहले अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था।  जिसका सूत्रपात उन्होंने अपने आदर्श जीवन को एक आदर्श नेता के रूप में गठित करते हुए किया था। उनके मुख से ही पहली बार सुना था - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' का अर्थ है - 
’'Come out from the hypnotized state of mind, from the herd of ships; And stand alone like a Lion ion of Vedanta, Like a true Leader of mankind! -and spread the man-making and character building ideas of Swami Vivekananda in every villages of India. 

 " BE AND MAKE " मानवजाति के भावी सच्चे मार्गदर्शक 'नेता बनो और बनाओ', ---यही है नवनी दा  के नव-विप्लव का आह्वान ! उन्होंने आजीवन अपनी शारीरिक, मानसिक, धन-संपत्ति से परिपूर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल (श्री हर्ष के कुल) और 'भुवन-भवन' में जन्म ग्रहण के बावजूद अथवा आध्यात्मिक श्रेष्ठता के आधार पर कभी किसी विशेषाधिकार का दावा नहीं किया ! बल्कि यह कहा कि यदि तुम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करना चाहते हो तो-    "सबसे पहले अपनी सब संकीर्ण धारणाओं का त्याग कर दो, और हर व्यक्ति में ईश्वर का दर्शन करो--वे सब हाथों से काम कर रहे हैं, सब पैरों से चल रहे हैं, सब मुखों से भोजन कर रहे हैं ! हर व्यक्ति में वे निवास करते हैं, सब मनों से वे सोचते हैं। वे हमसे भी हमारे अधिक निकटवर्ती हैं। इसे जानना ही धर्म है --यही विश्वास है; प्रभु हमें ऐसा दृढ़ विश्वास प्रदान करें !
    जब हम समग्र संसार से एकत्व का अनुभव करेंगे, तब हम भौतिक दृष्टि से देखने पर भी अमर हो जायेंगे ! जब तक एक भी व्यक्ति इस संसार में श्वास ले रहा है, मैं उसके भीतर जीवित हूँ !! मैं यह संकीर्ण क्षुद्र व्यष्टि जीव नहीं हूँ, मैं समष्टिस्वरूप हूँ । मैं ही बुद्ध, ईसा और मुहम्मद की आत्मा हूँ ! मैं सब आचार्य गणों की आत्मा हूँ। मैं सर्वमय हूँ !!! अतएव उठो --यही श्रेष्ठ पूजा है। तुम स्वयं समग्र जगत के साथ अभिन्न हो !यही यथार्थ विनय है- घुटने टेक कर ' मैं पापी हूँ , मैं पापी हूँ '( मैली चादर ओढ़कर कैसे द्वार तुम्हारे आऊँ ?)---कहकर आजीवन रुदन करते रहने का नाम विनय नहीं है। समस्त जगत का एकत्व -यही श्रेष्ठ धर्ममत है।
मैं अमुक हूँ ----व्यक्ति विशेष -यह बहुत ही संकीर्ण भाव है , यथार्थ 'अहम्' (पक्का मैं) के लिये यह  सत्य नहीं है!! मैं विश्वव्यापक हूँ ----इस धारणा में प्रतिष्ठित हो जाओ;  ......किन्तु इस महान धारणा में सदैव प्रतिष्ठित बने रहना कितना कठिन है !!! मैं 'दृष्टि को ब्रह्ममयी बनाकर जगत को ब्रह्ममय अनुभव करने ' के लिए दार्शनिक विचार करता हूँ, कितनी बातें करता हूँ (कैम्प में सिंहशावक हरि की कथा दूसरों को सुनाता हूँ !) इतने में मेरे प्रतिकूल कोई घटना होती है (कोई अपना गुरु -भाई ही ईर्ष्यालु होकर मेरे ब्रह्मज्ञान की बातें और मेरे अतीत के व्यावहारिक जीवन पर कुछ कहता है ).... मैं जाने-अनजाने ही क्रुद्ध हो उठता हूँ (?) भूल जाता हूँ कि ----इस विश्व में मेरे इस क्षुद्र ससीम (नाम-रूप) के नश्वर अस्तित्व से भिन्न मेरा यथार्थ अविनाशि स्वरूप भी है ! मैं कहना भूल जाता हूँ कि "मैं चैतन्य स्वरूप हूँ ," मैं भूल जाता हूँ कि यह सब (mintu-pintu)   मेरी ही लीला है; मैं ईश्वर को भूल जाता हूँ, मैं मुक्ति की बात भी भूल जाता हूँ । {गीता ९/११  में भगवान् कहते हैं, 
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।
‘‘मूढ़ लोग मानुषी तन में निवास कर रहे मुझको (आत्मा को), समग्र भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझकर तिरस्कृत करते हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वलोक महेश्वर परमभाव को नहीं जानते (अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ....)।’’ इन विचारों को सामने रखकर यदि हम भगवान् के दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के मर्म को समझ सकें, तो ठीक रहेगा।
" प्रश्न पूछा जाता है - विश्व की उत्पत्ति किससे होती है, किसमें उसकी स्थिति है और फिर किस में वह लय होता है ? और उत्तर है --- प्रेम से उसकी उत्पत्ति होती है, प्रेम में वह स्थित होता है और प्रेम में ही लीन हो जाता है। " ९/९९ " जिन्हें हम सिद्धियाँ, प्रकृति के रहस्य और शक्ति कहते हैं, वे सब भीतर विद्यमान हैं। प्रकृति में कोई ज्ञान नहीं; मानव की आत्मा से समस्त ज्ञान उदभुत होता है। मनुष्य ज्ञान व्यक्त करता है, अपने भीतर ही वह उसका आविष्कार करता है, जो पहले से -शाश्वत काल से विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति चितस्वरुप है, प्रत्येक व्यक्ति आनन्दस्वरूप और सतस्वरुप है!! (---प्रत्येक व्यक्ति अव्यक्त रूप में सच्चिदानन्द ही है !!)।  
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
           शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।। 
सचमुच वही ऋषि और पण्डित (नेता) है, जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में समदृष्टि रखता है। ९/१०२ [ ब्राह्मण होनेसे वह जातिसे तो ऊँचा है ही साथहीसाथ विद्या और विनयसे भी सम्पन्न है यह ब्राह्मणत्वकी पूर्णता है। जहाँ पूर्णता होती है वहाँ अभिमान नहीं रहता। अभिमान वहीं रहता है जहाँ पूर्णता नहीं होती। ब्राह्मण और चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में व्यवहार की विषमता अनिवार्य है। इन पाँचों प्राणियोंका उदाहरण देकर भगवान् यह कह रहे हैं कि इनमें व्यवहार की समता सम्भव न होने पर भी तत्त्वतः सब में एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। महापुरुषोंकी दृष्टि उस परमात्मतत्त्व पर ही सदा सर्वदा रहती है। इसलिये उनकी दृष्टि कभी विषम नहीं होती।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
जिसका अन्तःकरण (मन) समदर्शित्व (समता) में अर्थात सब भूतों में अन्तर्निहित दिव्यता में समभाव से निश्चलतापूर्वक स्थित हो गया है; उसने जीवित अवस्था में ही जन्म (जन्म-जरा-मृत्यु के नियम) को जीत लिया है। और क्योंकि वह ब्रह्म निर्दोष है, इसलिए जो समदर्शी एवं निर्दोष हैं, वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं ! 
" चाहे हम कितना भी प्रयत्न क्यों न करें, सब मनुष्य एक से कभी नहीं हो सकते। मनुष्य जन्म से ही भिन्न-भिन्न होंगे ; कुछ में अन्य की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य होगा, कुछ में स्वाभाविक क्षमता होगी, दूसरों में नहीं; कुछ के शरीर पूर्ण विकसित होंगे, और दूसरों के नहीं। हम इसे कभी रोक नहीं सकते। फिर जगतगुरु श्रीकृष्ण कहते हैं -
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।
एक ही ईश्वर को सबमें समभाव से देखने वाला मनीषी पुरुष या समदर्शी पुरुष आत्मा से आत्मा की हिंसा नहीं करता, और इस प्रकार परमगति को प्राप्त करता है ।
 वह फिर अपनी हत्या नहीं करता अर्थात् जन्ममरणके चक्करमें नहीं जाता ।  वास्तवमें नाशवान् शरीरके साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है? अपना पतन करना है? अपनेआपको जन्ममरणमें ले जाना है।ततो याति परां गतिम् -- शरीरके साथ तादात्म्य करके जो ऊँचनीच योनियोंमें भटकता था? बारबार जन्मतामरता था? वह जब परमात्माके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव कर लेता है? तब वह परमगतिको अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। 
हम इसे अस्वीकार नहीं कर सकते यही यथार्थ भाव है, फिर भी इसी के साथ यह कठिनाई उपस्थित होती है कि बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता। यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ लोगों में शारीरक बल अधिक होगा, और वे निर्बल को आसानी से दबा देंगे या परास्त कर देंगे। परन्तु हमारा कानून ऐसा नही कहता। कठिनाई यह नहीं है कि कोई जनसमूह (जातिविशेष ) किसी अन्य जनसमूह से स्वाभाविक तौर से अधिक मेघावी क्यों है ? परन्तु क्या जिस जनसमूह को बौद्धिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, उसे उन लोगों के शारीरिक सुख-भोग भी छीन लेने का अधिकार है, जिनको वे सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं ? संघर्ष है इसी विशेषाधिकार के उन्मूलन का। सारे संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है !
 प्रो० जोसफअर्नाल्ड टॉयनबी [(Joseph Arnold Towanby (1889 – 1975)]:विश्वविख्यात अंग्रेज इतिहासकार और शिक्षाविद नेलिखा था, ‘‘संसार का इतिहास 'चैलेंज एण्ड रिस्पांस का ही इतिहास' है, अर्थात विश्व का इतिहास मानवजाति के समक्ष आने वाली चुनौतीयों  एवं उसके प्रत्युत्तर' देने का इतिहास है। इसीसे सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म होता है। मानव को सृष्टि के आरंभ से ही चुनौती मिलती रही है एवं वह उसका प्रत्युत्तर देता रहा है। तभी तो वह आज तक जीवित है। चुनौती भौतिक भी हो सकती है, सामाजिक भी, आध्यात्मिक भी। जब यह चुनौती उग्र रूप ले लेती है, तो एक संकट का जन्म होता है, तब कहीं कोई दैवीय शक्ति, निस्सहायों की पुकार सुन उनके अंदर से आत्मबल के प्रवाह के रूप में फूट पड़ती है। हम ललकार का उत्तर देते हैं। कोई करुणामय सत्ता आकर हमें संकट से बचा लेती है। यही विश्व का नियम है एवं इसी को गीता ने अवतारवाद व शेष धर्म- संप्रदायों ने पैगंबर कह दिया है।’’ 
  अर्नाल्ड टायनबी कहते हैं - कि दुनिया आज इतनी बेचैन क्यों ह़ै? सभी तनाव में क्यों है? भ्रष्टाचार, आतंकवाद......वगैरह-वगैरह क्यों है ? इन सबकी जड़ 'पश्चिम का भौतिक विकास मॉडल' में है। पश्चिम इस संकट से उबरने के लिए पूरब की ओर देखता है. पूरब से आशय है भारत।  भारत की आजादी से पश्चिम को नयी रोशनी मिलेगी।  पाश्चात्य भौतिक ग्रस्त सभ्यता को पूरब से ही नये विचार आध्यत्मिकता और जीवनमूल्य मिलेंगे। वास्तव में उनका ऐतिहासिक विश्लेषण मुख्यत: धार्मिक दृष्टि से प्रभावित था, और उन्हें मानव सभ्यता के इतिहास में 'मनुष्य की ईश्वर (निःस्वार्थपरता) की ओर प्रगति' ही दिखाई देती थी
      श्री अरविंद कहते हैं, ‘‘भगवान् का अवतरण इसलिए होता है कि मनुष्य और उनके बीच के परदे को फाड़कर दिखाया जा सके, जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य, जीवन भर उठा तक नहीं पाता।’’श्री अरविंद ने और एक स्थान पर लिखा है, ‘‘अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मानवजाति के मार्गदर्शक नेता और भागवत् मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं।’’ 
    अर्नाल्ड टॉयनबी ने अपनी पुस्तक 'Surviving the Future'(अर्थात मरणोत्तर जीवन) में युवाओ को परामर्श देते हुए लिखा था - 'मरते दम तक जवानी के जोश को कायम रखना। ' उनको ऐसा इसीलिये कहना पड़ा कि 'तरुणाई के समय में (निःस्वार्थपरता-त्याग और सेवा के भाव को) सीखने का जो जोश उनमें भरा हुआ होता है, यौवन के परिपक्व होते ही वे उन चीजों को भावुकता या जवानी का जोश कहकर भूलने लगते हैं। वे नीति विरोधी काम करने लगते है, गलत और विध्वंसकारी दिशाओं की ओर अग्रसर हो जाते हैं। इसलिये युवकों के लिये जरूरी है कि वे जोश के साथ होश कायम रखे। वे अगर ऐसा कर सके तो उब्का भविष्य उनके ही हाथों संवर सकता है।
                इसीलिये सुकरात को भी युवाओं पर पूरा भरोसा था। वे यह जानते थे कि नवयुवकों का मन उपजाऊ मिट्टी की तरह होता है। इस अवस्था में यदि उनके मन में उन्नत विचारों के बीज बो दिए जाएँ तो वह शीघ्र ही उग आता है। इसीलिए एथेंस के शासकों को सुकरात का भय था, क्योंकि वे यह जानते थे कि सुकरात तो युवाओं के मन में अच्छे विचारों के बीज बोनेे की क्षमता रखता है, और युवाओं को अनुप्रेरित कर वह उनके भोग के विशेषाधिकारों के लिए बाधक हो सकता है।  
                 आज की युवापीढ़ी में भी उर्वर मस्तिष्क की कोई कमी नहीं है, मगर उनके दिलो दिमाग में उन्नत विचारों के बीज पल्लवित कराने वालेे सच्चे शिक्षक (नेता या स्वामी विवेकानन्द और नवनी दा जैसे-जीवनमुक्त शिक्षक) दिनोंदिन घटते जा रहे हैं। उसी प्रकार कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे कितने लोग हैं, जो नई प्रतिभाओं को उभारने के लिए ईमानदारी से प्रयास करते हैं? हेनरी मिलर ने एक बार कहा था- ‘‘मैं जमीन से उगने वाले घास के हर तिनके को नमन करता हूं, क्योंकि मुझे इसी प्रकार हर नवयुवक में वट वृक्ष बनने की क्षमता नजर आती है।    
>>>St. Francis of Assisi (1181-1232): 'असीसी के संत फ्रांसिस' को यीशु मसीह के त्यागपूर्ण जीवन का अनुकरण करने वाले, ईसाई परंपरा में संतों में एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। वे एक इतालवी कैथोलिक सन्त थे, जो अपने लिए धनी होने के कारण किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते थे। उन्हें उन्होंने गरीबी और पवित्रता (इन्द्रिय-निग्रह, chastity) के जीवन को आत्मसात करने के लिए, अपने पूर्व-जीवन के धन और सामाजिक स्थिति का त्याग कर दिया था।          
      टॉयनबी के द्वारा सेन्ट फ्रांसिस के विद्रोह की तुलना हिप्पी आंदोलन के क्रन्तिकारी युवा से करने का कारण यही दिखाना है कि सेन्ट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी ने भी अपना विप्लव एक “drop-out”  की तरह ही प्रारम्भ किया था, किन्तु उनके जीवन का अन्त एक हिप्पी के रूप में नहीं, बल्कि एक मानवजाति के सच्चे नेता की तरह हुआ। 1960-70 के दशक के मध्य में संयुक्त राज्य अमेरिका में उभरा "हिप्पी आन्दोलन" धन का प्राचुर्य में जीने वाले युवाओं का एक आंदोलन था जो और बड़ी तेजी से दुनिया के अन्य देशों में फ़ैल गया था।        
     इन्हीं धनाड्य युवावर्ग के हिप्पियों की तरह, सेंट फ्रांसिस भी इटली के एक समृद्ध और धनाड्य व्यापारी के पुत्र थे। उनके पिता ने बहुत सारा धन कमाया था, उन्हें अपने धन-सम्पत्ति का बहुत गर्व भी था। वे चाहते थे कि उनका पुत्र  एक विलासमय और खर्चीला जीवन जीये और महँगे -महँगे कपड़ों पहन कर शानदार ढंग से रहे। सेन्ट फ्रांसिस भी कुछ समय तक तो उस प्रकार का जीवन जीये, किन्तु इस प्रकार के आडम्बरी जीवन से वे बिल्कुल संतुष्ट नहीं हुए, क्योंकि आध्यात्मिक विकास में ऐसा जीवन उन्हें बहुत बड़ा बाधक प्रतीत होता था । और उनके मन में इस जीवन के विरुद्ध बहुत कड़ी प्रतिक्रिया हुई। जब उनके पिता उनके आदर्शवादी जीवन पर ताने देने लगे; तो उनके जीवन में एक ऐसा पल भी आया, जब इस पर हिप्पी ढंग से प्रतिक्रिया करते हुए उन्होंने अपने को निर्वस्त्र कर लिया, और पिता के सामने नग्न होकर खड़े हो गए। तब असीसी के बिशप ने उस नग्न लड़के के शरीर को अपने सभावस्त्र से ढँक कर,अर्थात अपना शिष्य बनाकर उसकी रक्षा की। 
उन्होंने युवावस्था में अपनी क्रांति का प्रारम्भ अपने पिता के भौतिकवादी मानसिकता का हिप्पियों की तरह नग्न होकर नकारात्मक विरोध किया था, किन्तु वे क्रमशः चरित्र-निर्माण की सकारात्मक पद्धति को सीखकर अपना आध्यात्मिक जीवन गठित कर लिया था। इसीलिए अर्नाल्ड टायनबी ने कहा था  - मैं हिप्पी-आंदोलन के ऊपर अभी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दूंगा, मैं इस आंदोलन की परिणीति को देखने के बाद ही हिप्पी युवाओं के विषय में कुछ कहूँगा।  


बाहरसे देखनेपर महापुरुष (नेता ) और साधारण पुरुष में खाना-पीना चलना-फिरना आदि व्यवहार एक सा ही दीखता है,किन्तु महापुरुषों के अन्तःकरण में निरन्तर समता निर्दोषता शान्ति आदि रहती है और साधारण पुरुषों के अन्तःकरण में विषमता दोष अशान्ति आदि रहती है। ऐसे ही जिनके मनबुद्धि पर मान-अपमान निन्दा-स्तुति सुख-दुःख आदि का कोई असर नहीं पड़ता, उनकी स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति अवश्य होती है। कारण कि स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिके बिना मनबुद्धिमें अटल और एकरस समता का (poise) रहना सम्भव ही नहीं है। महापुरुषों के अन्तःकरण में असत् का  महत्त्व न रहने से उन पर असत् का  कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असत् का  कोई प्रभाव न पड़नेसे उनका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो जाता है। निर्दोष और सम होनेसे उनकी परमात्मतत्त्व में स्वतः स्वाभाविक स्थिति हो जाती है जो कि पहले से ही है। 
जैसे जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि अवश्य है क्योंकि अग्निके बिना धुआँ सम्भव ही नहीं ऐसे ही जिनके अन्तःकरणमें समता (poise) है वे अवश्य ही परमात्मतत्त्व में स्थित हैं क्योंकि परमात्मतत्त्व में स्थिति हुए बिना पूर्ण समता (अविचलता ) आनी सम्भव ही नहीं। वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है --सबके प्रति साम्य का भाव या समदर्शित्व ! अपने को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है। " ९/१०२}

 स्वामीजी कहते थे - " पहले के किसी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा देने की आवश्यकता है। क्योंकि हमलोग अभी अपने विषय में उतरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में क्रमशः अधिक व्यस्त होते जा रहे हैं।  यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जायेगा; यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जायेगा। " (९/१०२)

' जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल। 
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो-काटो यह भ्रमजाल ।।

फोड़ो वीणा प्रेमसुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो वीर ।
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंजीर।। 

 सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।

चूर चूर हो स्वार्थ, साध, सब मान, हृदय हो महाश्मशान।
            नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण ।।   ' 9/335]

जीवन में कर्तव्य कठोर हैं,
सुखों के पंख लग गये हैं,

मंजिल दूर, धुँधली सी झिलमिलाती है,
फिर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ़ जाओ,

अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ !
हे वीरात्मन,तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,

यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिन्ता न करो, मार्ग-प्रदर्शन करते जाओ।

तुम्हारा साथ वे देंगे, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,

आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन, तुम्हारा सर्वमंगल हो !
"वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है-सबके प्रति साम्य । हम देख चुके हैं कि वह अन्तर्जगत है, जो बाह्य जगत पर शासन करता है।} 
{उपनिषदों ने घोषणा की है - " मुक्ति का पथ उस्तरे की धार की भाँति तीक्ष्ण , दीर्घ और कठिन है, किन्तु हमलोग उस पथ का अवश्य अतिक्रमण करेंगे। क्योंकि मनुष्य तो देवताओं और असुरों से भी श्रेष्ठ है, उनका प्रभु है ! ' उठो, जागो, जब तक उस लक्ष्य पर नहीं पहुँचते , रुको नहीं । '  २/३०० 

" इस जगत में या अन्य किसी जगत में मेरे लिए कोई कार्य नहीं है। मेरे पास एक सन्देश है, वह मैं अपने ढंग से ही दूँगा। मैं अपने सन्देश को न हिन्दू धर्म, न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा। बस, मैं केवल उसे अपने साँचे में ढालूँगा। मुक्ति ही मेरा एकमात्र धर्म है, और जो भी उसमें रुकावट डालेगा, उससे मैं लड़कर या भागकर बचूँगा ! यदि तुम निकल सकती हो,तो इस मूर्खता की जाल से निकलो, जिसे दुनिया कहा जाता है। तभी मैं तुम्हें वास्तव में साहसी और मुक्त (या डीहिप्नोटाइज्ड) कह सकूँगा।" ३/३८०}

‘‘व्यापक शक्तियाँ सूक्ष्म और निराकार होती हैं। उनका कार्यक्षेत्र अदृश्य जगत् है। परब्रह्म श्रीरामकृष्ण की अवतार सत्ता युग असंतुलन को सँभालने- सुधारने के लिए आती हैं। यह कार्य वह उन व्यक्तियों से कराती है, जिनमें दैवीतत्त्वों का चिरसंचित बाहुल्य पाया जाता है।’’ प्रेमस्वरूप मानवजाति का मार्गदर्शक नेता वही होता है-  जो ‘स्व’ का ‘पर’ के लिए समग्र समर्पण कर दें। समर्पण- शरणागति का विसर्जन कर वे आत्मदानी बन जाते हैं।गोस्वामी तुलसी दास अपने ग्रंथ श्रीरामचरित्र मानस में लिखते हैं-
जब-जब होई धरम के हानि। बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धर विविध षरीरा। हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।। 
तुलसीदास जी कहते हैं - जब धर्म, कर्मों की हानि होती है असुरों का अभिमान व एकाधिकार बढ़ता है, तब भगवान श्री हरि विष्णु अवतारों को धारण करते हैं। इस दिव्य अवतरण के दो पहलू हैं, एक है अवतरण, मानवजाति में भगवान् का जन्म लेना, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान् का प्रकट होना। दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्म ग्रहण, भागवत् चेतना में उसका उत्थान। यह जीव का नवजन्म है, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म की स्थापना करना इसी नवजन्म के लिए होता है। यह जो दूसरा पहलू है, यही सबसे महत्त्वपूर्ण है ! 
            इसीलिए गीता ४/७ में मानव की सबसे बड़ी त्रासदी एवं समाज की सबसे बड़ी दुर्घटना अनाचार का बढ़ना, सज्जनों का घटना बताया गया है व इन सबका उपचार है, नेता (अवतार)  का प्रकटीकरण। 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
 अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।
जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्कर्ष होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं। धर्म एक पवित्र सत्य है जिसके पालन से ही समाज धारणा सम्भव होती है। जब बहुसंख्यक लोग धर्म का पालन नहीं करते तब द्विपद-पशुओं के समूह द्वारा (भृतृहरि के चौथे प्रकार के मनुष्यों के द्वारा) यह जगत् जीत लिया जाता है उस समय परस्पर सहयोग और आनन्द से जीवन व्यतीत करते हुये सुखी परिवार दिखाई नहीं देते। मनुष्य को शोभा देने वाला उच्च जीवन भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इतिहास के ऐसे काले युग में कोई महान् व्यक्ति समाज में आकर लोगों के जीवन और नैतिक मूल्यों का स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है।
           समाज में विद्यमान नैतिक मूल्यों को आगे बढ़ाने से ही यह कार्य सम्पादित नहीं होता वरन् साथ-साथ दुष्टता का भी नाश अनिवार्य होता है। इस कार्य के लिये अनन्तस्वरूप परमात्मा कभीकभी देहादि उपाधियों को धारण करके पृथ्वी पर प्रगट होते हैं उस बड़ी सम्पत्ति के स्वामी के समान जो कभी-कभी अपनी सम्पत्ति का निरीक्षण करने और उसे सुव्यवस्थित करने के लिये हाथ में अस्त्र आदि लेकर निकलता है। धूप में काम करते श्रमिकों के बीच वह खड़ा रहता है तथापि अपने स्वामित्व को नहीं भूलता। इसी प्रकार समस्त जगत् के अधिष्ठाता भगवान् शरीर धारण कर र्मत्य मानवों के अनैतिक जीवन के साथ निर्लिप्त रहते हुए उनको अधर्म से बाहर निकालकर धर्म मार्ग पर लाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। भगवान् के इस अवतरण में यहाँ एक बात स्पष्ट की गई है कि यद्यपि वे शरीर धारण करते हैं तथापि अपने स्वातन्त्र्य को नहीं खोते। उपाधियों में वे रहते हैं परन्तु उपाधियों के वे दास नहीं बन जाते।
        लेकिन, किस प्रयोजन के लिये?  यह तो स्पष्ट है कि बिना किसी इच्छा अथवा प्रयोजन के ईश्वर अपने को व्यक्त नहीं करता। इच्छाओं के आत्यन्तिक अभाव का अर्थ है कर्मों का पूर्ण अभाव। सब इच्छाओं में सर्वोत्तम दैवी इच्छा है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की इच्छा किन्तु वह भी एक इच्छा ही है। कर्तव्य पालन करने वाले साधु पुरुषों के रक्षण का कार्य करते हुये अपनी माया का आश्रय लेकर एक और कार्य अवतारी पुरुष को करना होता है वह है दुष्टों का संहार। दुष्टों के संहार से तात्पर्य शब्दश दुष्ट व्यक्तियों के संहार से ही समझना आवश्यक नहीं है उसमें दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश अभिप्रेत है। अवतारी पुरुष साधुओं का उत्साह बढ़ाते हैं दुष्टों के स्वभाव को परिवर्तित करने का प्रयत्न करते हैं,किन्तु कभी-कभी दुष्टों का पूर्ण संहार भी आवश्यक हो जाता है। अर्जुन के लिये इतना सब कुछ विस्तार से बताना पड़ा क्योंकि वह श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ था। [साभार [https://www.gitasupersite.iitk.]
        सर्वशक्तिमान भगवान् का जीव- जगत् के कल्याण के लिए मनुष्य देह धारण कर आना, प्रकट होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना है। अवतारों के द्वारा धर्म की संस्थापना एक प्रकार से तोरण द्वार बनाना है, जिसके माध्यम से वे स्वयं प्रवेश करते हैं और मनुष्यों के सामने अपना ही द्रष्टांत रखते हैं, अपने आप को ही एकमात्र मार्ग बताते हैं। प्रत्येक अवतार में धर्म- संस्थापन की पद्धति भिन्न- भिन्न प्रकार की होती है। देश, काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य की प्रणाली बदल जाती है। अवतार का अर्थ ही होता है, नीचे उतरना। अवतार में दिव्य चैतन्य की अभिव्यक्ति के हमें निरंतर दर्शन होते रहते हैं। अवतार में तो दिव्यसत्ता मानो हमारे समक्ष स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है। 
               वस्तुतः भगवान् के पार्षद, विभूतियाँ, सिद्धपुरुष, स्वयं भगवान् भी समय -समय में अवतार लेते हैं। चेतना के अति उच्च शिखर से नीचे आकर मानव रूप में आते हैं। हर अवतार (या सच्चे नेता ) के पीछे महाकरुणा का भाव होता है। महा- करुणा नहीं होती, तो इतने ऊँचे शिखर पर बैठा आदमी नीचे क्यों उतरता ? और हम सबके जीवन में वैसा ही जीवन जीते हुए क्यों जाता ? जबकि सामान्य मनुष्य सारा भोग भोगते हुए जीता है। लोक-शिक्षण के लिए करुणा के अवतार के रूप में धरती पर नेता (स्वयं भगवान्) आते हैं और उन्हें अपनी संतानों के बीच आना, उनका दुःख बाँटना बहुत अच्छा लगता है।
                    श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, ‘‘मैं तो माँ का चपरासी हूँ। माँ की जमींदारी देखने आया हूँ।’’ ईश्वर का अवतार माँ के चपरासी के रूप में, माँ की जमींदारी अर्थात् उनकी सारी संतानों की देखभाल करने के लिए ही आविर्भूत होने की बात श्री रामकृष्ण ने कही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस नेता (अवतार) के विषय में कहा करते थे, ‘‘सामान्यजन जिन्होंने बैरागी का चोला तो पहन लिया है, साधु- महात्मा भी कहलाते हैं, किन्तु हैं सड़ी लकड़ी की तरह हैं, जिस पर एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाती है। सड़ी लकड़ी पानी में बहते- बहते फूल तो जाती है, अटक भी जाती है, स्वयं भी पार नहीं हो पाती। जबकि मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) एक बड़े जहाज की तरह होता है, जो सारी नदी- समुद्र का चक्कर लगाकर कइयों को पार उतारकर आता है।’’ जरा- सी सिद्धि आते ही अपने मद में फूलने वालों की तुलना ठाकुर श्री रामकृष्ण ने सड़ी लकड़ी से की है। मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (अवतार) कितनी बड़ी शक्ति है, इस उदाहरण से इसलिए समझना जरूरी है कि आज के इस कलियुग में ढेरों अवतार- भगवान् क्यों दिखाई देते हैं ?  
                 इसको एक और उदाहरण के द्वारा श्री रामकृष्ण समझाया  करते थे, ‘‘गुरु-शिष्य परम्परा में शिक्षक-प्रशिक्षण की प्रक्रिया (लीडरशिप ट्रेनिंग)  एक जादूगर के खेल की तरह है। वह आता है गाँव में जादू दिखाने, कई गाँठें लगी रस्सी को लेकर। कहता है सभी इसे खोलो। लोग खोल नहीं पाते, और उलझ जाते हैं। जादूगर तब हवा में रस्सी फेंकता है एवं सभी गाँठें खुल जाती हैं।’’ वे कहते थे कि नेता ऐसे ही हमारी जन्म- जन्मांतरों की गाँठों की रस्सियों को लेकर आता है एवं एक क्षण में खोल देता है। गीता में  काम, क्रोध, और लोभ को जो नरक-रूपी  तीन द्वार कहा गया है, उनसे बचाकर ऊँचा उठाने का कार्य नेता (जीवन्मुक्त शिक्षक -कैप्टन सेवियर के अवतार नवनी दा) ही करते हैं। 
      राष्ट्रीय नव जागरण के पुरोधा स्वामी विवेकानन्द ने इसी आध्यात्मिक-विप्लव या महाक्रान्ति के विचार बीज बोए थे। इसकी भावी आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा था- राष्ट्र की सबसे पहली आवश्यकता- मनुष्य निर्माण है। मनुष्य होने का परिचय केवल मानवीय कलेवर भर नहीं है। उसमें मानवीय गुणों का समन्वय भी चाहिए। मानवीय गुणों, भावों एवं सम्वेदनाओं से पूर्ण मनुष्य गढ़ने के लिए चरित्र-निर्माण क्रान्ति की कार्यशाला या युवा प्रशिक्षण शिविर की आवश्यकता है। इसी से मनुष्य को अपनी खोयी पहचान मिलेगी, उसका अपनी लुप्तप्राय महिमा और गरिमा से परिचय प्राप्त होगा। ऐसे गरिमा सम्पन्न महिमान्वित व्यक्तित्व की प्रचण्ड चेतना धारा में अनेकों नए व्यक्तियों की चेतना परिष्कृत होगी। एक दीपक की लौ दूसरे नए दीपों को जलाएगी। मनुष्यों की मनःस्थिति बदलेगी तो परिस्थितियाँ भी बदलेंगी ही। व्यक्ति (व्यष्टि) ही (समष्टि) व्यवस्था का बीज है। जब व्यक्ति (व्यष्टि) बदलता है- तो व्यवस्था (समष्टि) के गुण और मूल्य भी बदल जाते हैं। 
              'मनुष्यत्व-उन्मेषक इन्कलाब', या मनुष्य निर्माण क्रान्ति में व्यक्ति और व्यवस्था दोनों के ही परिवर्तन के सूत्र और कार्यक्रम निहित हैं। चरित्र-निर्माण क्रान्ति ही इससे जूझने और उबरने का एक मात्र उपाय है। यही वह ब्रह्मास्त्र है, जिससे मानव की मनःस्थिति बदलेगी। उसकी आस्थाएँ, मान्यताएँ और धारणाएँ बदलेंगी। विश्वास और मूल्य बदलेंगे। व्यक्ति का व्यक्तित्व बदलेगा। यह क्रान्ति बन्दूक की नाली से नहीं, लहू और लोहे से नहीं, उन्नत विचारों और भावनाओं से की जा सकेगी। ब्रह्मविद या स्वार्थशून्य मनुष्य  ‘बनो और बनाओ ' BE AND MAKE - ही  इस महाक्रान्ति का ध्येय वाक्य होगा
     
{ स्वामी विवेकानन्द ने 1 फरवरी, 1895 को कुमारी मेरी हेल को लिखे पत्र में कहा था — " मैं झूठी विनयशीलता में विश्वास नहीं करता, मैं समदर्शित्व में विश्वास रखता हूँ -अर्थात सबके प्रति सम-भाव। साधारण मनुष्यों का धर्म है, समाज को ही ईश्वर मानकर उसकी आज्ञा का पालन करना,'But the children of light never do so' -- किन्तु जो दिव्य ज्योति ( माँ काली के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण देव) की सन्तानें हैं, वे ऐसा कभी नहीं करते। यह एक अटल नियम है। एक व्यक्ति सामाजिक विचारों के अनुरूप अपने को ढाल लेता है, दूसरा एकाकी खड़ा रहता है और समाज को अपनी ओर खीँच लेता है। परन्तु लोकमत के उपासकों का एक क्षण में विनाश होता है और सत्य की सन्तान सदा जीवित रहती है। " ३/३७८

[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " अनेक लडकों की आवश्यकता है, जो सब कुछ छोड़-छाड़ कर देश के लिये जीवनोत्सर्ग करें। पहले उनके जीवन का निर्माण करना होगा, तब कहीं काम होगा।   हमें इस अवसर पर मुख्यतः आवश्यकता है एक ' वीर ' (पूज्य नवनी दा ) को अपना आदर्श या ' रोल मॉडल ' के रूप में ग्रहण करने की - ऐसा वीर जिसके सिर से लेकर पैर तक नस नस में प्रचण्ड ' रजस ' की भावना से ओतप्रोत हो- ऐसा वीर जो सत्य को जानने के लिये समुद्र में कूद पड़े और प्राणों तक का मोह न करे-वह वीर जिसका कवच त्याग हो और खड्ग ज्ञान। हमें इस समय जीवन के युद्ध क्षेत्र में आवश्यक है बहादुर सेनानी का जोश, न की प्रणय में दीवाने व्यक्ति की भावुकता जो जीवन में सब्ज-बाग ही देखता रहता है। " (वि0 के संग में- 256]
{ "पूर्णसाम्य की अवस्था सृष्टि रचना के व्यक्त होने के पूर्व की अवस्था है, सृष्ट जगत में विभेद और असमानता रहेंगी ही ! स्वामी जी कहते हैं , " भारत के ब्राह्मण अन्य सब लोगों के विरुद्ध समाज के विशेष वर्ग के विशेषाधिकारों को बनाये रखने के लिए, तथा वर्गभेद और वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करने में इन्हीं तर्कों पर बल देते हैं। वे घोषणा करते हैं कि जातिभेद के विनाश से समाज का भी विनाश हो जायेगा। जिन्हें कोई सुविधा प्राप्त है, वे उसे बनाये रखना चाहते हैं। जब तक जीवन का अस्तित्व है, तबतक ऐसी अवस्था का होना असम्भव है, जिसमें सारी विविधताओं का लोप होकर एक सी मृत समरूपता कायम हो जाय। यह वांछनीय भी नहीं। साथ ही तथ्य का दूसरा पहलु है --एकत्व का अस्तित्व पहले से ही है। ९/१०८
"प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन में यह संघर्ष होता रहा है। संघर्ष है उस विशेषाधिकार के उन्मूलन का।" अन्य  के उपर सुविधा के उपभोग को विशेषाधिकार कहते हैं और इसका विनाश करना युग युग तक नैतिकता और धर्म का उद्देश्य रहा है। यह कार्य ऐसा है,जिसकी प्रवृत्ति साम्य और एकत्व की ओर है तथा जिससे विविधता का विनाश नहीं होता। इन विविधताओं को अनन्त काल तक रहने दो; यह तो जीवन का सार है। अनन्त काल तक हम सब इस प्रकार लीला करेंगे। तुम धनी होगे, मैं निर्धन; तुम बहुत बड़े आध्यात्मिक (नेता-सिंह ) होगे और मैं कम (अपने को भेंड़ समझने वाला सिंहशावक हरि)। किन्तु उससे क्या ? ... सभी विरोधाभासों के बावजूद आत्मा की शाश्वत, अनन्त और तात्विक पवित्रता को स्वीकार करना नीतिशास्त्र का कार्य रहा है और भविष्य में भी रहेगा, न कि विविधता का विनाश करना, और बाह्यजगत में एकरूपता की स्थापना करना- (सभी को सिंह बना देना) जो असम्भव है। क्योंकि उससे मृत्यु तथा विनाश हो जायेगा। " ९/११२
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" मैं उस महापुरुष का शिष्य हूँ, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण (चट्टोपाध्याय? इस युग में श्री नवनीहरन  मुखोपाध्याय !) होते हुए भी एक पैरिया (चाण्डाल) के घर को साफ करने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। अवश्य वह इस पर सहमत हुआ नहीं -और भला होता भी कैसे ? एक तो सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, उस पर भी संन्यासी, वे आकर घर सफाई करेंगे ? इस पर क्या वह कभी राजी हो सकता था ? निदान,  क दिन आधी रात को उठकर गुप्त रूप से उन्होंने उस पैरिया के घर में प्रवेश किया और उसका शौचालय साफ कर दिया, उन्होंने अपने लम्बे बालों से उस स्थान को पोंछ डाला।और यह काम वे लगातार कई दिनों तक करते रहे, ताकि वे अपने को सबका दास बना सकें ! (विशेषाधिकार की भावना का उन्मूलन कर सकें !) मानवजाति का सच्चा मार्गदर्शक नेता या आचार्य शब्दों से उपदेश देने से अधिक अपने आचरण द्वारा शिक्षित करते हैं ! ताकि मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के मन में यह बात बैठ जाये कि - जब दृष्टि ज्ञानमयी हो जाने के बाद जगत ब्रह्ममय है (पवित्र ट्रिनिटी है) तो मैं आस-पास रहने वाले सभी स्वजनों, बन्धुबान्धव, जिज्ञासुओं का दास हूँ,मुझे विशेषाधिकार क्यों मिलना चाहिए ?  नेता को दास बनकर- उपदेश नहीं व्यव्हार से विद्यादान करने का अभ्यास करना चाहिये !  मैं उन्हीं महापुरुष के चरण कमलों को अपने मस्तक पर धारण किये हूँ ! वे ही मेरे आदर्श हैं -मैं उन्हीं आदर्शपरुष श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूँगा ! क्योंकि सबका सेवक बनकर ही एक हिन्दू (= नेता) अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है।  क्योंकि नेता अपने ईश्वरत्व को कभी नहीं भूलता, और अपने स्वरूप में अटल रहने के लिये, कहीं नेतागिरी या 'गुरुगिरि' का अहंकार न हो जाय। सच्चा नेता (अवतार) केवल विद्या का अहंकार, दास मैं, या भक्त मैं की सहायता से ईश्वर (परमसत्य) से जुड़ने में भावी नेताओं का सेवक बनकर नेतृत्व प्रदान करने की चेष्टा करता है। हमें इसी प्रकार (त्याग और सेवा के माध्यम से ) भारत की सर्वसाधारण जनता को उन्नत करना चाहिये न-कि पाश्चात्य समाज-सेवी क्लबों जैसी पद्धति का अनुकरण करके ! हमारे इन सुधारकों या तथा-कथित समाज- सेवियों (क्लब और समिति के सदस्यों) में से एक भी, ऐसा जीवन गठन करके दिखाये दिखाये तो सही जो एक पैरिया की भी सेवा के लिए तत्पर हो ! फिर तो मैं भी उसके चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण करूँ, पर हाँ -उसके पहले नहीं ! लम्बी-चौड़ी बातों की अपेक्षा थोड़ा कुछ कर दिखाना लाख गुना अच्छा है।"५/१०६
विवेकानन्द के इन्हीं विचारों में नयी क्रांति की योजना --'Be and Make' में सन्निहित है। इसे सब समझते हैं, सब इसे सत्य घोषित करते हैं, किन्तु व्यवहार में लाने की बात कहो, तो लोग कहने लगते हैं कि इसमें लाखों वर्ष लगेंगे। " बहुत से वीर तथा अदभुत आध्यात्मिक होने का दावा करने वाले व्यक्ति - दुनिया से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर के, ध्यान-धारणा के लिये गुफाओं और वनों में चले जाते हैं। दूसरी ओर हमें ऐसे महापुरुष भी मिलते हैं जो ब्रह्मज्ञ और यशस्वी होते हुए भी, समाज में प्रवेश करते हैं, तथा जनसाधारण एवं दीन-दुःखीयों की समुन्नति के लिए (अर्थात विवेक-प्रयोग और आध्यात्मिक दृष्टि खोलने के लिये) प्रयत्न करते हैं। जो लोग साधु बनकर अपने भाई मनुष्यों से पृथक गुफा में निवास करते हैं, वे उन लोगों पर (महामण्डल नेताओं पर) व्यंग की दृष्टि से हँसते हैं, जो अपने भाई मनुष्य की पुनरुद्धार के लिए (आध्यात्मिक दृष्टि खोलने के लिये) कार्य कर रहे हैं। वे कहते हैं, किंतनी मूर्खता की बात है, माया का संसार सदा मायामय रहेगा। वह बदल नहीं सकता। वहाँ हमारा क्या काम ?......  जब अद्वैत को मानते हो, तो छूत से बचने के लिये कूदते क्यों हो ? वह जवाब देता है, " अरे भाई, उपनिषदों के चार महावाक्य गृहस्थों के लिए तो केवल सिद्धान्त का विषय हैं,(बोलने के लिए हैं करने के लिए नहीं।) जब मैं संन्यास लेकर वन में चला जाऊँगा, तो मैं भी समदर्शी हो जाऊँगा।" अतएव कई हजार वर्षों तक अद्वैतवाद कोरा सिद्धान्त ही रहा है, और कभी कार्य में परिणत नहीं हुआ। इसे सब समझते हैं, वेदान्त के सिद्धान्तों को सभी लोग सत्य घोषित करते हैं, किन्तु जब व्यवहार में लाने की बात कहो, तो लोग कहने लगते हैं---कि अभी इसमें लाखों वर्ष लगेंगे। एक राजा था, जिसके बहुत से सभासद थे और इन सभासदों में से प्रत्येक यह दम भरता था कि अपने स्वामी के लिए वह जीवनोत्सर्ग भी करने को तैयार है ! और उससे बढ़कर निष्कपट व्यक्ति दूसरा कोई कभी पैदा ही नहीं हुआ। कालान्तर में एक संन्यासी राजा के यहाँ आया। राजा ने उससे कहा - मेरे पास जितने अधिक सच्चे सभासद हैं, उतने किसी राजा के पास पहले कभी नहीं थे। संन्यासी मुस्कुराने लगा और बोला -मैं इस पर विश्वास नहीं करता। राजा ने कहा कि यदि सन्यासी महोदय चाहें तो परीक्षा ले सकते हैं। तब संन्यासी ने घोषणा की वह एक बहुत बड़ा यज्ञ करेगा, जिसके कारण राजा का राज्य-काल बहुत दीर्घ स्थायी हो जायेगा। लेकिन एक शर्त यह है कि एक छोटा सा दूध का  तालाब बनना चाहिये, जिसमे अमावस्या की रात्रि के अंधकार में प्रत्येक सभासद एक एक घड़ा दूध उड़ेल दे। राजा मुस्कुराया -बस इतनी छोटी सी परीक्षा है ? उसने सभासदों को अपने पास बुलवाया और उन्हें बताया कि क्या करना है। सबने प्रस्ताव पर अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान की और वे सब लौट गए। निशीथ वेला में आकर उन्होंने अपने घड़े उड़ेले। परन्तु सबेरे देखा गया तो वह केवल पानी से भरा था। सभासद एकत्र किये गए, और उनसे इस मामले में पूछताछ की गयी। उनमेंसे प्रत्येक ने यही सोचा था कि इतने घड़ों का दूध हो जायेगा कि उसके द्वारा उड़ेले गए पानी का पता न लगेगा। " ---दुर्भाग्य से हममें से अधिकांश का भाव यही होता है, और हम अपने कार्य-भाग (सौंपे हुए कर्तव्य) को उसी प्रकार करते हैं, जैसा कहानी के सभासदों (या आज के एम.पी.लोग )  ने किया है। " ९/१०५ लोमड़ी की क्रूरता सिंह की क्रूरता से अधिक भयानक है। पुरोहित सोंचता है-  पैगम्बरों की समदर्शिता का भाव इतना अधिक है कि मेरे छोटे से विशेषाधिकार की पोल नहीं खुलेगी।  पौरोहित्य (आडम्बरी नेतृत्व) स्वाभाविक रूप से क्रूर तथा हृदयहीन होता है ! जिस संस्था में पौरोहित्य का उदय होगा, वहाँ धर्म का (उच्च स्तर की समाज-सेवा का ) अधःपतन हो जाता है। वेदान्त कहता है - हमें विशेषाधिकार का भाव (गुरुगिरि का भाव, होलियर देन दाऊ का भाव ) अवश्य त्याग देना होगा, तभी धर्म आएगा। उसके पूर्व तो तुममें धर्म का लेश भी नहीं है !'अन्य लोगों की अपेक्षा मैं अधिक पवित्र हूँ '- यह भाव उन सबसे अधिक भयावह है, जिनका प्रवेश कभी मानव के हृदय में हो सकता है। तुम, भला किस अर्थ में  अधिक पवित्र हो? तुम्हारे अन्दर जो परमात्मा है, वही परमात्मा सबमें है। यदि तुमने यह न जाना, तो कुछ न जाना। भेद कैसे हो सकता है ? यह सब तो एक है। प्रत्येक प्राणी प्रभु का सर्वोच्च मन्दिर है। यदि तुम सभी मनुष्यों के हृदय में विराजमान उसे देख सके तो ठीक है, यदि नहीं देख सके, तो तुममें आध्यात्मिकता अभी तक नहीं आयी।"९/१०६  
(तब तुम उच्च-स्तर की समाजसेवा , आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की सेवा का प्रशिक्षण देने का नेतृत्व कैसे करोगे? लीडरशिप ट्रेनिंग क्लास कैसे लोगे   ?) '
" जब हम समत्व (समदर्शिता) की अद्भुत स्थिति में पहुँच जायेंगे अर्थात साम्यभाव (आत्मसाक्षात्कार के बाद) प्राप्त कर लेंगे,तब उन सभी वस्तुओं पर हमें हँसी आयेगी, जिन्हें हम दुखों और अशुभों का कारण समझते आ रहे थे। 'सुख-दुःख में सम,जय-पराजय में सम' --इस प्रकार की (डी -हिप्नोटाइज्ड) मनःस्थिति मुक्तावस्था के निकट तो है, किन्तु मन आसानी से नहीं जीता जा सकता। मान-अपमान, की प्रत्येक छोटी सी घटना उपस्थित होते ही, जो मन तरंगायित होने लगते हैं, उनकी दशा भला क्या होगी ? मन की यह अस्थिर दशा बदलनी ही होगी। ..... जब दुनिया की सारी शक्तियों को हम अपना सन्तुलन (poise) बिगाड़ने से रोकने में सफल हो जायें तभी हम मुक्त हैं, उसके पूर्व नहीं !! यही उद्धार है। वह इसी जन्म में, इसी क्षण में है, अन्यत्र नहीं ! (९/१०३)} 
किसी नादान 'मैं' ने (१९९२ के अनुभव के बाद) नवनीदा को एक पत्र में लिखा था - ‘‘मैं तो उस आनंद को छोड़ कर पुनः शरीर में आना नहीं चाहता था, पर मुझे किसने धकेल कर नीचे भेज दिया ?" 
उन्होंने कहा था  ’’स्‍वामी विवेकानन्‍द ने कहा है-‘‘अतीत से ही भविष्‍य बनता है। अतः यथासम्‍भव अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरन्‍तन निर्झर बह रहा है, भरपेट उसका जल पिओ और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्‍ज्‍वलतर, महत्‍तर और पहले से अधिक ऊँचा उठाओ।‘‘ शयद यह तुम्हारी इच्छा थी - माँ मुझसे इस धरती पर अपना कोई विशेष काम करवाना चाहती है ?
अतीत गौरव के ज्ञान से हम निश्‍चय ही पहले से भी श्रेष्‍ठ भारत बनाएँगे। हम भारत के गौरवशाली अतीत का जितना ही अध्‍ययन करेंगे, हमारा भविष्‍य उतना ही उज्‍ज्‍वल होगा। हमारे पीछे परम्‍परागत संस्‍कार और हजारों वर्षाें के सत्‌-कर्म हैं, उन्‍हीं से सम्‍बल प्राप्‍त कर वर्तमान सामाजिक व्‍यवस्‍था और भी सुदृढ़ बन सकेगी। हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्‍य सब शास्‍त्रों में जो अपूर्व सत्‍य छिपे हुए हैं, उन्‍हें इन ग्रन्‍थों के पन्‍नों से बाहर निकालकर, मठों की चाहरदीवारियाँ भेदकर, वनों की निर्जनता से निकालकर, कुछ विश्‍ोष सम्‍प्रदायों के हाथ से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि नयी पीढ़ी उससे सीख लेकर आगे बढ़ सके। आज समय की आवश्‍यकता है भारत के नेतृत्‍व की महत्‍वाकांक्षा रखने वाले प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति में हमारे महापुरूषों जैसे महान्‌ त्‍याग, महान्‌ निष्‍ठा तथा महान्‌ धैर्य के भाव को भर देने की, ताकि स्‍वार्थगंध-रहित शुद्ध बुद्धि की सहायता से राष्‍ट्रोत्‍थान के महान्‌ उद्यम में वे जुट सकें।
विवेकानन्‍द का ज्‍वलंत प्रश्‍न है-‘‘क्‍या भारत मर जाएगा?........ तब तो संसार से सारी आध्‍यात्‍मिकता का समूल नाश हो जाएगा। सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जाएगा, धर्माें के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्‍ट हो जाएगी, सारी भावुकता का भी लोप हो जाएगा और उसके स्‍थान पर कामरूपी देव और विलासिता-रूपी देवी राज करेंगे। धन उनका पुरोहित होगा। छल, पाशविक बल और स्‍पर्धा - ये ही उनकी पूजा-पद्धति होगी और मानवात्‍मा उनकी बलि-सामग्री हो जाएगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता। क्रियाशक्‍ति की अपेक्षा सहनशक्‍ति कई गुना प्रबल होती है। घृणा के बल से प्रेम का बल अनन्‍त गुना सबल है।‘‘ निश्‍चित रूप से इस संसार से सत्‍य, नैतिकता और मानवीयता को यदि बचाये रखना है तो भारत और उसकी आध्‍यात्‍मिकता को जीवित रखना ही होगा। जीवन-मूल्‍य समाप्‍त हो गये तो फिर यह संसार भी समाप्‍त ही हो जाएगा। इसलिए आने वाले इस युग का केन्‍द्र विश्‍व में यदि कोई हो सकता है तो वह है - भारत। ‘अतीत तो हमारा गौरवमय था ही, परन्‍तु मेरा द्‌ढ़ विश्‍वास है कि हमारा भविष्‍य और भी अधिक गौरवमय होगा।‘ भारत का पुनरूत्‍थान होगा, पर जड़ की शक्‍ति से नहीं, वरन्‌ आत्‍मा की शक्‍ति से। यह उत्‍थान विनाश से नहीं, वरन्‌ शान्‍ति और प्रेम की ध्‍वजा लेकर सम्‍पन्‍न होगा। हमारी विजय की गाथा को भारत के महान्‌ सम्राट अशोक ने धर्म तथा आध्‍यात्‍मिकता की ही विजय बताया है। एक बार फिर भारत को विश्‍वविजय करना होगा। यही हमारे सामने महान्‌ आदर्श है। अपनी आध्‍यात्‍मिकता और दार्शनिकता से हमें जगत्‌ को जीतना होगा। संसार में मानवता को जीवित रखने का और कोई उपाय नहीं है। स्‍वामी विवेकानन्‍द के इन ओजस्‍वी संदेशों के माध्‍यम से यह अवश्‍य होगा, इसी में मानव जाति का कल्‍याण है।    

[ यदि हमें कभी भी स्वाधीनता लाभ करना हो, तो प्रकृति को जीत कर ही हम उसे पाएंगे, प्रकृति से भागकर नहीं । कापुरुष कभी जययुक्त (विजयी) नहीं हो सकता। मृत्यु के भय, दुःख, कष्ट और आतंक से भागकर देखो ---वे तुम्हारा पीछा करेंगे, उनके सामने डटकर खड़े हो जाओ , वे भाग जायेंगे।  " सारा संसार सुख और आराम (या लस्ट ऐंड लूकर ) का उपासक है, इन दोनों का अतिक्रमण ही मुक्ति है ! जो कष्टप्रद है, उसकी उपासना करने का साहस  बहुत कम लोग करते हैं ! "२/२९८]  
[" रास्ता माया के साथ नहीं है, वह तो माया के विरुद्ध है-हम प्रकृति के सहायक होकर नहीं जन्मे हैं, वरन हम तो प्रकृति (माया) के प्रतियोगी होकर जन्मे हैं। यह मकान कहाँ से आया ? प्रकृति ने तो दिया नहीं। प्रकृति कहती है, ' जाओ, जंगल में जाकर बसो।' मनुष्य कहता है, ' नहीं, मैं मकान बनाउँगा और प्रकृति के साथ लडूंगा।'और वह ऐसा कर भी रहा है। मानव जाति का इतिहास तथाकथित प्राकृतिक नियमों के साथ लगातार संग्राम का इतिहास है। और अंत में मनुष्य ही प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है। " 2/59 ] 
 [जो सच्चा वेदान्ती होगा, वह कभी किसी के उपर शारीरिक,मानसिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार के लिये दावा नहीं करेगा। 'स्वयं को आध्यात्मिक (नेता-लोकशिक्षक) कहना और विशेषाधिकार के लिये दावा भी करना' - दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकतीं। किसी को रंचमात्र विशेषाधिकार नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति में समान ही सामर्थ्य है--एक में उसकी अभिव्यक्ति अधिक है,दूसरे में कम। प्रत्येक में समान क्षमता है। फिर विशेषाधिकार के दावे का सवाल कहाँ? ईश्वर का कोई विशेष संदेशवाहक नहीं, न कभी हुए और न हो सकते हैं। छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर की समान रूप से अभिव्यक्तियाँ हैं -अंतर केवल अभिव्यक्तियों में है। कोई मनुष्य दूसरे से जन्मना श्रेष्ठ है, यह भाव वेदान्त की दृष्टि से निरर्थक है। "९/१००-१०१ ]
 [ज्ञानी और मूर्ख मनुष्य के कर्म करने में शरीर तो एक जैसा रहता है, परन्तु बुद्धि में भिन्नता रहती है। गीता १३/२५ में भी कहा गया है, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही विद्वान् पुरुष अनासक्त होकर लोकसंग्रह (लोक कल्याण) की इच्छा से ही कर्म करना चाहिए। किन्तु बुद्धि या विचार की दृष्टि से देखा जाय तो - एक व्यक्ति (mda) विशेषाधिकार पाने या बॉसिज्म की इच्छा से कर्म करता है, और दूसरा (pda)आध्यात्मिक साम्य में स्थापित रहने की इच्छा से, दोनों के बीच बहुत अधिक अंतर होता है।
{नवनी दा द्वारा बंगला में लिखे-'মনুষ্যত্ব -উন্মেষক ও চরিত্রগঠনকারী শিক্ষা' का हिन्दी अनुवाद हमलोग करते हैं - " मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' या अंग्रजी में कहते हैं ' Man making and character building education' किन्तु थोड़ा गहराई से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि नवनी दा के 'मनुष्यत्व -उन्मेषक-शिक्षा ' कहने का तात्पर्य थोड़ा गूढ़ है; जिसे ठीक से समझ लेने के बाद ही हमें महामण्डल के 'एक नया युवा आन्दोलन' या स्वामी विवेकानन्द की 'नव विप्लव योजना से जुड़ना उचित होगा। क्योंकि महामण्डल के 3H विकास के 5 अभ्यास द्वारा मनुष्यत्व का उन्मेष करने की पद्धति गीता एवं उपनिषदों की शिक्षा में आधारित है, जिसे भारत की प्राचीन 'गुरु -शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के अनुसार किसी ब्रह्मज्ञ गुरु के सानिध्य में ही बैठकर सीखना पड़ता है। इसी  विशेषता को दिखाने के लिए  तैत्तरीय उपनिषद की शीक्षा-वल्ली में -'श' में दीर्घ 'ई'-कार की मात्रा लगाई गयी है। 'मनुष्यत्व का उन्मेष' -कैसे होगा ? उस प्रशिक्षण पद्धति को भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' के अनुसार देने वाले प्रशिक्षक/जीवनमुक्त शिक्षक /नेता को अपने गले में पहले वह धागा धारण करना होगा जिस धागे का नाम स्वामी जी ने - 'निःस्वार्थपरता' दिया था। क्योंकि इसी धर्म (गुण-वैशिष्ट्य) के रहने से 'पशु' मनुष्य में और मनुष्य 'देवता ' में उन्नत हो जाता है। अतएव 'मनुष्यत्व-उन्मेषक -शिक्षा' का अर्थ होगा 'निःस्वार्थपरता प्रवर्तक या अभिज्ञानक' (Manhood-innovator) अथवा भारतीय संस्कृति में समाहित चार पुरुषार्थ -ज्ञानोदय, 'धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष' का सम्यक ज्ञान (Enlightenment) देने वाली शिक्षा।} 
अतएव हिन्दी अनुवादक का अपना मंतव्य है कि,  जिस प्रकार  "हिप्पी आन्दोलन" साठ के दशक ( 1960- 70) में  धन के प्राचुर्य में जीने वाले युवाओं का एक नकारात्मक आंदोलन था, और 'असीसी के संत फ्रांसिस [(St. Francis of Assisi (1181-1232)]: 1000 वर्षों के बाद भी "छन्न छाड़ा गोष्ठिर पुरोधा  का जीवन  प्रवृत्ति से निवृत्ति में पहुँचे युवा नेता के आदर्श उदाहरण बने हुए हैं। और ठीक 'हिप्पी-आंदोलन' के बदले 'नक्सल आंदोलन' के प्रति-उत्तर में (1967) में "छन्न छाड़ा गोष्ठी के पुरोधा " नवनीदा द्वारा आविष्कृत 'Be and Make, चरैवेति, चरैवेति' मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन साठ के दशक का कोई नकारात्मक आंदोलन नहीं, बल्कि एक रचनात्मक आन्दोलन है ! 
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