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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

भारतीय संविधान में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' -1.


 " लोकतंत्र की समस्या और समाधान "
देश को स्वतंत्र हुए ६८ वर्ष हो गए किन्तु अभी तक हम अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए। क्योंकि हम लक्ष्य से ही भटक गए।  हमने अंग्रेजों से मुक्ति पाई किन्तु अंग्रेजी संस्कृति के आज तक गुलाम हैं। हमारा शिक्षित वर्ग तो पाश्चात्य मानसिकता से मुक्त होना भी नहीं चाहता।  इसका बड़ा कारण है कि हमारा संविधान ही 'सेक्यूलर' (अधर्मी) बनकर रह गया है। सरकारी योजनायें समस्त देशवासियों के लिये न होकर वोट-बैंक, माइनॉरिटी-मेजॉरिटी की दृष्टि से बनाई जाती हैं। तभी समस्त सरकारी निर्णयों में सच्चे धर्म (मानवता) का प्रवेश कहीं दिखाई नहीं पड़ता। संविधान की मूल प्रस्तावना में "सेकुलर" और "सोशलिस्ट" शब्दों का समावेश नहीं था, किन्तु वर्ष १९७६ में आपातकाल के दौरान  ४२ वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से इन दोनों शब्दों को जोड़ दिया गया है। 
 धर्म प्रत्येक व्यक्ति की निजी धरोहर है। इसका सामूहिक स्वरूप सम्प्रदाय कहलाता है। हमारी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा (मूल्य परक शिक्षा) की यह सबसे बड़ी बाधा है, छात्रों के सिलेबस में सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने की व्यवस्था आज कहीं नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " हम मनुष्य- जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद है, न बाइबिल है, न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि संसार के सारे धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय धर्म के भिन्न भिन्न रूप हैं, जिसका पालन करने से पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।" प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल ने भी १९०५ में लिखा था-'मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।' 
कार्यपालिका और न्यायपालिका का प्रशिक्षण एवं कार्य आज भी उसी पाश्चात्य शैली में हो रहा है। इसीलिये आज तक भी संविधान का भारतीयकरण नहीं हो पाया। देश में तो अभी समान नागरिकता भी स्वीकृत नहीं है।  संविधान की मूल प्रस्तावना में ही इतने संशोधन कर दिए कि सामान्य भारतीय नागरिक तो उन्हें समझ ही नहीं सकता। तभी तो 'धर्मनिरपेक्षता' के नाम पर संविधान की मूल प्रति में भारत के गौवरव-शाली राष्ट्रीय विरासत से जुड़े उन २२ चित्रों को भी  हटा दिया गया, जिन्हें शांतिनिकेतन के प्रतिष्ठित कलाकार नंदलाल बोस ने २२ खण्डों में सज्जित किया था ! 
भारत के संविधान की हिंदी और अंग्रेजी में कैलिग्राफि अर्थात सुवाच्य शैली में हस्तलिखित सिर्फ दो मूल प्रतियाँ हैं- जिन्हें लोकसभा की लाइब्रेरी में हीलियम से भरे पेटी में संरक्षित किया गया है।  यहाँ यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि भारतीय संविधान की मूल प्रति में श्री राम के रेखाचित्र के हवाले से, पहली जनवरी १९९३ ई. को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो माननीय न्यायाधीशों न्यायमूर्ति एच.एन. तिलहारी तथा न्यायमूर्ति गुप्ता ने सेकुलरवाद की व्याख्या तथा ध्वंसित बाबरी ढांचे में रखी रामलला की मूर्ति के दर्शन पर रोक लगाने सम्बंधी याचिका को अस्वीकार करते हुए,अपना ऐतिहासिक निर्णय दिया था। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से कहा कि " श्रीराम का एक संवैधानिक अस्तित्व है, तथा श्रीराम स्वीकृत रूप से हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की सत्यता एवं आदर्श हैं , न कि कोई कोरी कल्पना।" दोनों विद्वान न्यायधीशों न्यायधीशों ने यह माना है कि " संविधान सभा में श्रीराम को इतिहास में स्थान की दृष्टि से एक तथ्य माना है तथा क महत्व की एक सच्चाई के रूप में स्वीकार किया है।" उपरोक्त निर्णय में माननीय न्यायधीशों ने यह भी कि "ये चित्र हमारे राष्ट्रीय जीवन, हमारी विरासत तथा हमारी संस्कृति को चित्रित करते हैं।"
प्रजातंत्र के चारों स्तम्भों -विशेष रूप से न्यायपालिका की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वह संविधान का सही इंटरपटेशन करे ताकि 'सेक्यूलर' या 'धर्मनिरपेक्ष'  के स्थान पर उसे “सम्प्रदाय निरपेक्ष” का स्वरूप प्राप्त हो। उसी प्रकार भारतीय संविधान में जोड़े गए 'सोशलिस्ट' शब्द की वास्तविक व्याख्या होगी 'आध्यात्मिक साम्यवाद ' के आधार पर भारतीय सांस्कृतिक विरासत में सन्निहित 'विविधता में एकता' को ही 'गंगा-जमुनी तहजीब' कहा जाता है ! "
भारत में २६ जनवरी १९५० को भारतीय सविंधान द्वारा संवैधानिक प्रजातंत्र की स्थापना की गयी,और डा० राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति बने। लिखित रूप में इस संविधान को बनाने में देश के कई नेताओं का योगदान था। संविधान की इस प्रति में उन सभी ३०८ सदस्यों के हस्ताक्षर हैं, जो संविधान समिति में सदस्य थे। इनमें संविधान ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर, के साथ ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, कन्हैया लाल मुंशी, सी राज गोपालाचारी, आदि के नाम शामिल हैं। विख्यात चित्रकार नंदलाल बोस [१८८२ -१९६६] का जन्म बिहार के मुंगेर जिले के तारापुर  ग्राम में हुआ था। उनके पिता पूर्णचंद्र बोस उस समय महाराजा दरभंगा की रियासत के मैनेजर थे। नंदलाल बोस १९२२ से १९५१ तक शांति- निकेतन के कलाभवन के प्रधानाध्यापक रहे वहीं उनकी मुलाकात पं. नेहरू जी से हुई। नेहरू जी ने नंदलाल बोस को संविधान की मूलप्रति को चित्रकारी से सजाने के लिये आमंत्रित किया। २२१ पेज के इस दस्तावेज के हर पन्नों पर तो चित्र बनाना संभव नहीं था. लिहाजा, नंदलाल जी ने संविधान के हर भाग की शुरुआत में ८-१३ इंच के चित्र बनाए। यह मौका उन्हें देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिया।  चित्रकार नंदलाल के इस काम की काफी प्रशंसा हुई. उन्हें तब इस काम के लिए २१,००० मेहनताना भी दिया गया. नंदलाल बोस ने ही राष्ट्रीय पुरस्कारों जैसे भारत रत्न और पद्म श्री के प्रतीक भी बनाये। १९५४ में उन्हें भारत सरकार ने पद्म भूषण से भी सम्मानित किया था।   
 सुनहरे बार्डर और लाल पीले रंग की अधिकता लिये हुए इन चित्रों की शुरुआत भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक के लाट से की गई है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के लिए चित्र परिणाम
  
अगले भाग मे भारतीय संविधान की प्रस्तावना है जिसे सुनहरे बार्डर से घेरा गया है, जिसमें घोङा, शेर, हाथी और बैल के चित्र बने हैं। इस बार्डर में शतदल कमल को भी जगह दी गई है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के लिए चित्र परिणाम


   ये चित्र हैं- १. मोहनजोदड़ो की सील,

 
२.'' विविधता में एकता '' - ही भारतीय गणतंत्र की आधारशिला और सबसे बड़ी विशेषता है! हमारे संविधान निर्माताओं को यह आदर्श  वैदिक ज्ञान- " एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति" से प्राप्त हुआ था। उस सत्य को ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया। जिन देशों ने विविधता को मिटाने की चेष्टा की उन देशों की राष्ट्रीय एकता भंग हो गई। इसी वैदिक काल के प्रारम्भ को दर्शाते हुए किसी ऋषी के आश्रम का दृष्य है, जहाँ मध्य में विराजित गुरू और उनके शिष्यों को बैठे हुए हैं और पास में ही एक यज्ञशाला भी बनी हुई है।
 

  ३. मूल अधिकार वाले भाग की शुरुवात त्रेता युग से होती है। इस चित्र में लंका विजय के पश्चात भगवान राम रावण को हरा कर लक्ष्मण के साथ सीता माता को पुष्पक विमान में लंका से वापस ला रहे हैं। राम धनुष बांण लेकर आगे बैठे हैं और उनके पीछे लक्षमण हैं। 
 

 ४.अगले क्रम में नीति निर्देशक तत्व हैं जिसमें श्री कृष्ण को गीता का उपदेश देते हुए दिखाया गया है। अर्जुन को गीता का उपदेश देते श्रीकृष्ण,
 
 ५. पाँचवें खण्ड में भगवान बुद्ध बीच में बैठे हुए हैं और उनके चारो ओर उनके पांच शिष्य बैठे हैं। हिरन और बारहसिंहा जैसे जानवरों को भी दर्शाया गया है।

 


 ६.अगले भाग में संघ और राज्यक्षेत्र में भगवान महावीर को समाधी मुद्रा में दर्शाया गया है।
 
 
 ७. सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार को दिखाया गया है। ८. आठवें भाग में गुप्तकालीन कलायें एवं क्रमिक विकसित हुई कलाकृतियों  को उकेरा गया है। इस चित्र में नृत्य करती हुई नर्तकियों के चारों ओर राजाओं का घेरा है। यह चित्र कलात्मक दृष्टीकोंण से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ९. विक्रमादित्य का दरबार १०. वें भाग में प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय की मुहर दिखाई गई है। ११ . वें भाग में मध्यकालीन इतिहास की शुरुवात होती है, वहाँ उड़ीसा की मूर्ति-स्थापत्य कला को दर्शाया गया है । १२.  वें भाग में नटराज की प्रतिमा  बनाई गई है। १३.  वें भाग में महाबलीपुरम मंदिर पर उकेरी गई कलाकृति में भागरीथ की तपस्या और गंगा अवतरण को दर्शाया गया।  

 

१४. वाँ भाग केन्द्र और राज्यों के अधीन है। इस खण्ड में मुगल स्थापत्यकला के साथ सम्राट अकबर  को जगह दी गई है। बादशाह अकबर बैठे हुए हैं, उनके पीछे चँवर झुलाती महिलाएँ हैं।

 
१५. वें भाग में गुरु गोविन्द सिहं और शिवाजी को दिखाया गया है।१६.वें भाग में ब्रिटिशकाल शुरू होता है, इसमें ब्रिाटिश प्रतिरोध का उदय  टीपूसुल्तान और रानी लक्षमीबाई को अंग्रेजो से लोहा लेते दर्शाया गया है। 
 
 
 १७. वां खण्ड मूल संविधान में अधिकारिक भाषाओं का खण्ड है, जिसमें गाँधी जी की दांडी यात्रा का दृष्य है। १८. अगले भाग में गाँधी जी की नोआखली यात्रा का चित्र है, जिसमें बापू को एक शांति दूत के रूप में दर्शाया गया है।  एन्ड्रयूज भी उनके साथ हैं, और एक हिन्दू महिला गाँधी जी को तिलक लगा रही है और कुछ मुस्लिम पुरूष हाँथ जोङकर खङे हैं।
 
  
 १९.वें भाग में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आजाद हिन्द फौज को सेल्यूट कर रहे हैं। चित्र में अंग्रेजी भाषा में लिखा है कि- इस पवित्र युद्ध में हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाधीँ की आवश्यकता हमेशा रहेगी।  
२०. वें भाग में हिमालय के उच्च शिखरों को दिखाया गया है जो भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। २१. वें भाग में रेगिस्तान का चित्रण है। दूर दूर तक फैले रेगिस्तान के बीच ऊँटों का काफिला, वास्तव में इस चित्र का उद्देश्य हमारी प्राकृतिक विविधता को दर्शाना है।

 
२२.  अंतिम भाग में समुंद्र का चित्र है, जिसमें एक विशालकाय पानी का जहाज है जो हमारे गौरवशाली सामुंद्रिक विस्तार और यात्राओं का प्रतीक है।  
अधिकारों एवं कर्तव्य का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। समाज का उद्देश्य किसी एक मनुष्य का विकास न होकर सभी मनुष्यों के चरित्र का समुचित विकास है। कर्तव्य आधारित सामाजिक व्यवस्था और जीवन शैली ने हमारे देश को युगों तक सुखी तथा समृद्ध बनाये रखा है। अधिकारों से अभिप्राय है कि मनुष्य को कुछ स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए, जबकि कर्तव्यों का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर समाज का कुछ न कुछ ऋण अवश्य है। लोग अपने अधिकार कि मांग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते ! इसलिए ब्रह्माजी देवताओं और मनुष्यों को उपदेश देते हैं कि एक-दूसरे का हित करना तुमलोगों का कर्तव्य है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के साथ-साथ अपने चरित्र को सुंदर ढंग से गठित करने गठित करने का कर्तव्य भी जुड़ा हुआ है। किन्तु हमारे मूल संविधान में, मौलिक कर्तव्य का उल्लेख नहीं था।  इन्हे ४२ वें संविधान संशोधन द्ववारा जोड़ा गया है, तथा संविधान के भाग ४ अनुच्छेद ५१ ’क’ में मूल कर्तव्य के अंतर्गत कुल ११ कर्तब्यों का निर्देश इस प्रकार है-
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि-- 
    (१ ) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ;

    (२ ) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे;

    (३ ) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;

    (४) देश की रक्षा करे और आह्वान करने किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;

    (५)  भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है;

    (६) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे;

    (७) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे;

    (८) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार (चरित्र-निर्माण ?) की भावना का विकास करे;
    (९)  सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;

    (१०) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले;

    (११) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।
 

संविधान के अनुच्छेद 51 'क'(१-६-८-१०) में उल्लेखित छोटे-छोटे  मौलिक कर्तव्यों का बार-बार स्मरण करवाकर, प्रत्येक युवा में चरित्र-निर्माण और जीवन गठन के प्रति जागरूकता पैदा करना अत्यन्त आवश्यक है। अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित नागरिक - या चरित्रवान मनुष्य ही एक आदर्शस्वरूप कर्मी (प्रोटोटाइप वर्कर) की भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इसीलिये भारत सरकार ने विश्वमानवता के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि को विकसित करने के उद्देश्य से १९८४ में ही विश्वमानवता के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने विश्वमानवता के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने  स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिन - १२ जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित कर दिया था। ताकि  भारत के युवा स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श या 'रोल मॉडल ' चुने सकें। और उनके मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण पद्धति - 'BE AND MAKE ' (मनुष्य बनने और बनाने) का प्रशिक्षण देकर, उनके जीवन को आदर्शस्वरूप कर्मी (प्रोटोटाइप वर्कर) के साँचे में ढाला जा सके।
प्रत्येक वर्ष २६ जनवरी प्रजातंत्र दिवस के अवसर पर विद्यार्थियों और युवाओं को डिग्री प्रदान करने वाली शिक्षा की साथ साथ 'चरित्रनिर्माण और जीवन गठन ' के प्रति जागरूक करने की दृष्टि से, संविधान के भाग ४ अनुच्छेद ५१ ’क’ विशेष रूप से 'आठवें' मूल कर्तव्यों  के अन्तर्गत के अन्तर्गत
१. वैज्ञानिक दृष्टिकोण की भावना का विकास, बनाम अन्धविश्वास ! 
२. मानववाद की भावना का विकास, बनाम सम्प्रदायवाद और जातिवाद ! 
३. ज्ञानार्जन की भावना का विकास, बनाम 'आत्मज्ञान ', आत्मश्रद्धा और विवेक-दृष्टि अर्जन !
४. सुधार की भावना का विकास , बनाम  'BE AND MAKE ' पशुमानव को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत करना !  
आदि विविध मूल कर्तव्यों पर,  सभी विद्यालयों एवं विश्विद्यालयों में ग्रुप बनाकर निबंध एवं वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन करना अनिवार्य बनाना चाहिए ।  
पर निबंध एवं वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन करना अनिवार्य बनाना चाहिएसंविधान पढ़ना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है और संविधान की मूल प्रति  प्राप्त करना उसका अधिकार है।  जिससे वह उसे बार-बार पढ़कर अपने अधिकारों को भली-भांति जाने व समझे तथा अपने कर्तव्यों के अनुसार आचरण करे, तभी हम एक सच्चे एवं गौरवशाली लोकतंत्र के उद्देश्यों को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे। किन्तु भारत का संविधान उनके नागरिकों के लिए सहज उलपब्ध नहीं है और कोई पढ़ना चाहे तो उसे खरीदने के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ता है, क्योंकि यह राजधानी स्थित केवल दो सरकारी कार्यालयों में यह सार्वजनिक बिक्री के लिए उपलब्ध है।
संविधान में प्रत्येक नागरिक का सर्वाधिकार निहित रहने तथा संविधान के अनुसार ही देश का संचालन होने तथा के कारण, भारत के प्रत्येक नागरिक को, अपने मौलिक कर्तव्य एवं अधिकार का पर्याप्त ज्ञान होना ही चाहिए। संविधान का पालन तभी हो सकेगा जब विद्यार्थियों को संविधान की वह मूल प्रति उपलब्ध हो जिसके २२ खण्डों को शांतिनिकेतन के प्रतिष्ठित कलाकार नंदलाल बोस ने २२ चित्रों के माध्यम से सज्जित किया था ! विचारणीय मुद्दा यह है कि भारतीय विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राएं इन २२ चित्रों के माध्यम से सज्जित भारतीय संविधान रूपी प्रेरणास्रोतों तथा भारतीय इतिहास दृष्टि से क्यों वंचित किए गए?
सरकार को एक ऐसी देशव्यापी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए, जिससे सहजता से संविधान की मूलप्रति को प्रकाशित कर जिससे नागरिकों को उनके निकटतम स्थान पर निःशुल्क/ सशुल्क उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।  
संविधान के सभी अनुच्छेदों के क्रियान्वन की जिम्मेदारी जिम्मेदारी प्रजातंत्र के चारों स्तम्भों पर सामान रूप से निर्भर करता है, किन्तु न्यायपालिका के ऊपर इसकी विशेष जिम्मेदारी है, क्योंकि संक्षेप में लिखित संविधान का सही सही इंटरपटेशन करना विधायिका और न्यायपालिका का परम पुनीत कर्तव्य है!  
 प्रजातंत्र की निरन्तरता के लिए चार स्तम्भ आवश्यक माने गये हैं।
  १. विधायिका (लेजिस्लेटिव संसद के नेता प्रधानमंत्री)- भारतीय संविधान के अनुच्छेद ७४ के अनुसार प्रधानमंत्री ही संघ की कार्यपालिका का भी प्रमुख होता है। क्योंकि वह राष्ट्रपति के कृत्यों का संचालन करता है। इसीलिये प्रधानमंत्री का पद ही सबसे महत्वपूर्ण पद है।

२. कार्यपालिका ( इग्ज़ेक्यूटिव या राष्ट्रपति)- भारत के राष्ट्रपति नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, जिसे रायसीना हिल के नाम से भी जाना जाता है, जो लगभग १८ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है ।
१९५० के पहले तक इसे वॉयसरॉय हाउस कहा जाता था और इस इलाके का नाम लुटियंस जोन था। रायसीना हिल्‍स पर 'वॉयसरॉय हाउस' बना हुआ था और अंग्रेजों का शासन वहीं से चल रहा था। २३ जनवरी १९३१ को पहली बार अंग्रेजों के जमाने में वॉयसरॉय ऑफ इंडिया लॉर्ड इरविन यहां रहने आये।  इसी के आसपास संसद भवन, इंडिया गेट, विजय चौक और राजपथ आदि इमारतें बनी हैं ।
भारत के राष्ट्रपति संघ का कार्यपालक अध्यक्ष हैं। संघ के सभी कार्यपालक कार्य उनके नाम से किये जाते हैं। वे तीनों सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च सेनानायक भी होते हैं। सिद्धांततः राष्ट्रपति के पास पर्याप्त शक्ति होती है। पर कुछ अपवादों के अलावा राष्ट्रपति के पद में निहित अधिकांश अधिकार वास्तव में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिपरिषद् के द्वारा उपयोग किए जाते हैं।

३. न्यायपालिका (जूडिशीएरी या न्यायालय)। उच्चतम न्यायालय संविधान का रक्षक है और यह सरकार द्वारा या किसी अन्य शक्ति द्वारा संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन को रोकता है। यद्यपि भारत में इंग्लैंण्ड की संसदीय शासन प्रणाली के आधार पर संसदीय सरकार की स्थापना की गयी है। लेकिन इंग्लैंण्ड में, जहाँ संसदीय सर्वोच्चता को मान्यता दी गयी है, वहीँ  भारत में संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है।

संविधान में विधायिका , कार्यपालिका  और न्यायपालिका के अधिकारक्षेत्र की लक्ष्मण रेखा साफ साफ खींच दी गई है।  इसके अनुसार कानून बनाना विधायिका (संसद) का काम है, इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने की जांच करना न्यायपालिका का काम है
ब्यूरोक्रेट्स (अधिकारी वर्ग) तथा जूडिशीएरी न्‍यायपालिका  कानूनों की व्‍याख्‍या करती है, उनका उल्‍लंघन करने वालों को सजा देती है। उनके पास गलती करने वालों को सजा देने का अधिकार होता है, इसीलिये उनको अधिकारी वर्ग कहा जाता है।
कार्यपालिका, ब्यूरोक्रैसी (Bureaucracy) या अफसरशाही कर्मियों (कार्मिकों) का वह समूह है जिस पर किसी संघ के प्रशासन का केंद्र आधारित है।  यह आम धारणा बन गई है कि  विधायिका (राजनीतिक नेतृत्व) अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ब्यूरोक्रेसी का इस्तेमाल करता है और वही अफसरों को भ्रष्ट बनाता है। पर यह अधूरा सच है। असल में जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व ऊंचे पदों पर बैठे ब्यूरोक्रेट्स का अपने लिए इस्तेमाल करता है, उसी तरह ब्यूरोक्रेसी भी अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए राजनीतिक संरक्षण हासिल करती हैयदि हमारी ब्यूरोक्रेसी ने पूरी ईमानदारी और तटस्थता से भ्रष्टाचार का विरोध किया होता, तो भ्रष्टाचार का मौजूदा स्वरूप नहीं दिखता. यह ब्यूरोक्रेसी में व्याप्त भ्रष्टाचार का नतीजा है कि आज हर योजना में भ्रष्टाचार मौजूद है।
ब्रिटिश शासकों ने वर्तमान नौकरशाही को अपनी वफादारी सुनिश्चित करने के लिये यूरोपियन माडल के अनुरुप ढाला था। स्वाधीनता का इतिहास इस बात की गवाह है कि उन दिनों के अधिकांश आई.सी.एस अफसरों में अंग्रेजों की चाटुकारिता, बेइमानी, बदनीयती का पलडा इतना भारी था कि ईमानदारी खो गयी थी। और सोने की चिड़िया की लूट इस नौकरशाही के ही हाथों होती रही।
सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा के बारे में सुप्रीम कोर्ट की हालिया राय - इसी कड़ी का खुलासा करती है. तभी तो हमारे देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने पार्लियामेन्ट के भीतर और बाहर यह कहा था कि सरकार द्वारा खर्च किए गए प्रत्येक रुपए का सिर्फ़ १५ पैसा ही जनता तक पहुँचता है, बाकी ८५ पैसा भ्रष्टाचारियों की जेबों में चला जाता है। सी.डब्लू.जी. घोटाला (कॉमनवेल्थ गेम्स में गड़बड़ी का मामला) हो या आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, 2जी स्कैम हो या कोयला घोटाला-  सभी में ऊंचे ओहदों पर बैठे अफसरों की संदेहास्पद भूमिका रही है.
४. दूरदर्शन एवं प्रिंट मिडिया :   दूरदर्शन की भूमिका एक पहरेदार जैसी है,जो समसामयिक विषयों पर लोगों को जागरुक करने तथा उनकी राय बनाने में बड़ी भूमिका निभाता है, वहीं वह अधिकारों/शक्ति के दुरुपयोग  कर बड़े बड़े घोटालों (टूजी,चारा, अलकतरा, कोयला) को रोकने में भी उसका महत्‍वपूर्ण स्थान है। इसलिए कहा जाता है कि किसी देश में स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष मीडिया भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है जितना कि लोकतंत्र के दूसरे स्‍तंभ।  
किन्तु  लोकतंत्र के चोथे स्तम्भ अधिकांश मीडिया का सबसे बुरा हाल क्यों है ? सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात काडर के बर्खास्त आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट की वो याचिका खारिज कर दी है, जिसमें उन्होंने  ये दावा किया था  कि गोधरा कांड के बाद हुई इस बैठक में नरेंद्र मोदी ने अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को सबक सिखाने की बात करते हुए आपत्तिजनक टिप्पणियां की थी और वो खुद उस बैठक में मौजूद थे। प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह को बदनाम करके हिन्दू-मुस्लिम एकता को नष्ट करके की साजिश रचने के चक्कर में स्वयं भट्ट ही  पूरी तरह बेनकाब हो ही गये हैं। इस फैसले से यही नहीं, वो विपक्षी पार्टी के नेताओं से पैकेज और अन्य सामग्री भी हासिल कर रहे थे और विपक्षी पार्टी को अपनी पार्टी तक बता रहे थे.  स्पष्ट होता है कि  नेता-अफसर और इलेट्रॉनिक मिडिया का नेक्सस विगत १२ वर्षों से 'मोदी सरकार' तथा भाजपा अध्यक्ष 'अमित शाह' को बदनाम करके देश के हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने के साजिश को कैसे आगे बढ़ाया जाए,  इसकी तैयारी कर रहे थे

प्रजातंत्र के ये चारों स्तम्भ मिलकर भी 'आदर्श कर्मी' (चरित्रवान, और देशभक्त नागरिक) का निर्माण करने में असमर्थ क्यों हो रहे हैं ? क्योंकि हमारी ब्यूरोक्रेसी का मौजूदा ढांचा और काम करने के उसके तौर-तरीके देश और जनता की जरूरतों से मेल नहीं खाते हैं। हमेशा अपने स्वार्थ का ध्यान पहले रखने वाली ब्यूरोक्रेसी विगत ६५ वर्षों से भारत में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था लागु होने के बावजूद, आज भी भारत की जनता को अपना शासक नही मानतीै।  नेता और  नौकरशाह लोग अपने को जनता का सेवक नहीं जनता का मालिक ही समझते आ रहे हैं। किंतु ये सभी जनता के सेवक या पब्लिक सर्वेन्ट हैं, क्योंकि इन्हें जनता द्वारा दिये गए टैक्स के पैसों से तनख्वाह मिलती है।
कार्यपालिका भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में क्यों विफल हो रही है ? क्योंकि कार्यपालिका के कर्मी आदर्श कर्मी न होकर लालफ़ीता शाह बन गए हैं। अफ़सरशाही में अनावश्यक औपचारिकता का अपनाया जाना लालफीताशाही है। लालफीताशाही कार्यपालिका को कठोर, यन्त्रवत और अत्यन्त अनौपचारिक कार्यविधि बना दे ती हैं। जब लालफीताशाही बहुत बढ़ जाती है तो प्रशासन में लचीलापन समाप्त हो जाता है। फलस्वरूप प्रशासकीय निर्णयों में देरी होती है और प्रशासकीय कार्यों के संचालन में सहानुभूति , जन -सहयोग और लोक-सेवक होने का भाव गौण हो जाता है। 
 २०१० में इन्फोसिस के संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति ने भी भारतीय नौकरशाही के स्वरूप में बदलाव की सलाह दी थी. उन्होंने कहा था कि भारतीय नौकरशाही का माइंडसेट और ढांचा आज के समय के अनुकूल नहीं रह गया है। हमारी ब्यूरोक्रेसी  कई तरह की समस्याओं की गिरफ्त में है. वह लापरवाही, सुस्ती और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है, ऊपर से राजनीतिक अवमूल्यन ने उसे भ्रष्ट और निकम्मा बना दिया है। देश की ब्यूरोक्रेसी को सोच-विचार का अपना तरीका यानी माइंडसेट बदलना चाहिए। आई.ए.एस सेवाओं को खत्म कर उसकी जगह इंडियन मैनेजमेंट सर्विस का गठन किया जाना चाहिए। 
 एक निजी टीवी चैनल द्वारा आयोजित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम पर आयोजित परिचर्चा में जाने-माने वकील और वित्त मंत्री अरूण जेटली, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर एम लोढ़ा, न्यायविद सोली सोराबजी और राजीव धवन ने महसूस किया कि न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था में खामियों को सही करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग NJAC को खारिज करने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने करारा हमला किया। उन्होंने कहा, भारतीय लोकतंत्र में ‘ऐसे लोगों की निरंकुशता नहीं चल सकती जो चुने नहीं गए हों।’ कॉलेजियम का विरोध करते हुए जेटली ने कहा कि जहां देश को स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता है, वहीं उसका  विश्वसनीय होना अधिक महत्वपूर्ण है। हम सब जानते हैं कि एक 'सीबीआई निदेशक' था जो स्वतंत्र था लेकिन भरोसेमंद नहीं था। जेटली ने बिना विधायिका और कार्यपालिका के हस्तक्षेप के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की प्रक्रिया में न्यायपालिका को मिले विशेष अधिकार पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम व्यवस्था जिमखाना क्लब की तरह है जहां के सदस्य ही भावी सदस्यों को नियुक्त करते हैं। मंत्री ने कहा कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में अंकुश और संतुलन ' चेक्स  ऐंड  बैलन्सेस ' की एक व्यवस्था होनी चाहिए। उन्होंने कहा, सिर्फ न्यायपालिका ही संविधान का मूल आधार नहीं है। विधायिका (संसदीय लोकतंत्र) संविधान का सबसे अहम मौलिक ढांचा है। प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष, कानून मंत्री, सभी संविधान के मूल आधार का हिस्सा हैं, वे लोगों की इच्छा की नुमाइंदगी करते हैं। जेटली के अलावा कानून मंत्री सदानंद गौडा और दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की थी। जस्टिस लोढा ने कहा कि यह बात सही है कि कॉलेजियम व्यवस्था अपारदर्शी और गोपनीय है। इसमें तीन खामियां हैं- पारदर्शिता का अभाव, स्थायी समिति जैसे विशेषज्ञ निकाय का अभाव, कॉलेजियम की मदद और भागीदारी प्रक्रिया में विधायिका और कार्यपालिका की उदासीनता भरी भूमिका। 
अभी हाल में ही दूरदर्शन पर ब्यूरोक्रेसी में सुधार लाने, उसे अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से एक परिचर्चा का लाइव टेलीकास्ट चल रहा था; जिसमें सांसद (पक्ष-विपक्ष के नेता), सरकार के पूर्व चीफ़ सेक्रेटरी और एक वरिष्ठ पत्रकार आपस में चर्चा कर रहे थे, जिसे मैं भी देख रहा था। दूरदर्शन के ऐंकर ने कहा- चूंकि प्रशासन में समाज की कोई भागीदारी नहीं होती, लिहाजा अधिकारी भी जनता की जरूरतों को नहीं समझ पाते हैं. 
गुलाम भारत के ब्यूरोक्रेट्स या नौकरशाह अपने अंग्रेज आकाओं के आदेश को लागु करते थे, इसीलिये वे अपने को जनसेवक (पब्लिक सर्वेन्ट) नहीं जनता के मालिक समझते थे। और जनता के साथ उनका व्यवहार भी एक अंग्रेज-शासक के जैसा होता था, इसलिये काली चमड़ी होने के बावजूद अपने लिये साहब या मेमसाहब का सम्बोधन सुनना पसन्द करते हैं ।  किन्तु आज की ब्यूरोक्रेसी भी औपनिवेशिक शासन काल की तरह सोचती और व्यवहार करती है. वह अब भी खुद को शासक मानती है. न तो उसके पास पास काम करने की इच्छाशक्ति है और न कोई दृष्टि. इसी का नतीजा है कि सरकारी प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है और योजनाओं का फायदा जनता को मिलने के बजाय दलालों को मिल रहा है। 
भाजपा सांसद श्री चंदन मित्रा ने ब्यूरोक्रेसी पर कटाक्ष करते हुए चर्चित फिल्म शोले के प्रसिद्ध  डायलॉग को उद्धृत किया  - " हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं।आधे दाएँ जाओ, आधे बाएँ  बाकी मेरे पीछे आओ। हम नहीं सुधरे तो तुम क्या सुधरोगे-हा हा!? " जो 'अंग्रेजों के ज़माने के जेलर (नौकरशाह) हैं उनकी उम्र इतनी अधिक हो गयी है, और आदतें इतनी पक्की हो गयीं हैं कि अब उन पुरानी आदतों को बदलना, और उनके चरित्र में सुधार लाना बहुत कठिन है।  
भ्रष्टाचार का दानव तभी मरेगा जब हम स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनेगे।  हमे भी ईमानदारी से अपने आप को टटोलना होगा कि इसके लिये हम खुद कितने तैयार है ? स्वामीजी ने कहा था - ' भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख के सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन तथा कर्म से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण हेतु सचेष्ट होंगे, जो निरन्तर निर्धनता एवं अज्ञान के अगाध सागर में डूबते जा रहे हैं'. 
भ्रष्टाचारी अंग्रेजों के जमाने के -अपना पदनाम 'जेलर-साहब' शब्द सुनते ही उसके चित्तरूपी सरोवर में बहुत सी छोटी छोटी लहरें उठने लगती हैं। यही स्मृति है ! इस देहाध्यास की स्मृति में फंस कर वह अपने यथार्थ स्वरूप (आत्मा) को भूल कर कहने लगता है - 'मैं अंग्रेजों के जमाने का जेलर हूँ'! निद्रा में भी यही घटना होती है। जब निद्रा नमक लहर चित्तरूपी सरोवर में स्मृति रूपी लहर उत्पन्न कर देती है, तब उसे स्वप्न कहते हैं। जाग्रत अवस्था में जिसे स्मृति कहते हैं, निद्राकाल में उसी प्रकार की वृत्ति को स्वप्न कहते हैं। इसीलिये वह दिनरात स्वप्न में भी अपने को भूतपूर्व जेलर ही सोचता है, और वैसा ही सपना देखता है। इस स्तर के भ्रष्टाचारी जेलर, के लिये उपचारात्मक कानून, सी.बी.आई छापा आदि तो पहले से ही बने हुए हैं।
किन्तु यदि कोई भ्रष्टाचारी नेता, प्रशासक या मीडियाकर्मी , किसी कारण वश (ईश्वर की कृपा-सत्संग, विवेक-प्रयोग करने से) अपने पूर्व चरित्र से ऊब चुका हो, और अपना सुंदर चरित्र गढ़ना चाहे, तो इसका उपाय वैसे व्यक्ति के (जेलर का)  चरित्र में सुधार लाने का उपाय बतलाते हुए महर्षि पतंजलि समाधिपाद में - पहले 'अथ योग अनुशासनम् ' कह लेने के बाद, कहते हैं- 
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ 
"  प्रत्येक कार्य से मानो चित्तरूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है। तब शेष क्या रहता है ? --केवल संस्कार समूह। मन में ऐसे बहुत से संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि 'आदत ही मनुष्य का दूसरा स्वभाव है'। किन्तु केवल दूसरा स्वभाव ही नहीं यह आदत ही मनुष्य का पहला स्वभाव भी है -मनुष्य का समस्त स्वभाव इस आदत पर ही निर्भर करता है।  
यह जान सकने से कि सब कुछ आदत का ही परिणाम है, मन में शांति आती है। क्योंकि यदि हमारा वर्तमान स्वभाव केवल आदत से निर्मित हुआ है, तो हम जब चाहें अपनी इच्छानुसार विवेक-प्रयोग करके पुरानी अशुभ या बुरी आदतों को नष्ट भी कर सकते हैं! इस तरह यह निष्कर्ष निकलता है कि मैं स्वतंत्र हूँ ! दैव या भाग्य नाम की कोई चीज नहीं है। बाह्य जगत में कोई भी ऐसी चीज नहीं, जो हमें बाध्य कर सके!  जो हमने किया है, उसका हम निराकरण भी कर सकते हैं।२/२३० 
हमारे मन में उठने वाला प्रत्येक विचार अपना एक एक चिन्ह या संस्कार छोड़ जाता है। हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की समष्टि स्वरूप है। बुरी आदतों (bad habits) को नष्ट करने का एकमात्र 'रेमिडी' या उपाय है प्रतिकूल आदतों (counter habits) अर्थात अच्छे कर्मों का पुनः पुनः विवेक-पूर्ण अभ्यास। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिंतन करो - 'बेस इम्प्रेसंस' पूर्व संचित संस्कारों को दबा कर नये विवेक-सम्मत संस्कारों के निर्माण का बस, यही एक उपाय है। ' नेवर से एनी मैन इज होपलेस'--ऐसा कभी मत कहो कि अमुक (अंग्रेजों के ज़माने के जेलर या ब्यूरोक्रेट्स ) के चरित्र में सुधार की कोई आशा नहीं; क्योंकि उस व्यक्ति का वर्तमान बुरा-चरित्र केवल कुछ असत प्रकार की आदतों की समष्टि -' बंडल ऑफ़ हैबिट्स' मात्र है, और इन बुरी आदतों को अच्छी आदतों के अभ्यास से दूर किया जा सकता है। ' कैरेक्टर  इज रिपीटेड हैबिट्स' -चरित्र बस पुनः पुनः दुहराये जाने वाली आदतों की समष्टि मात्र है, और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है - ' रिपीटेड हैबिट्स अलोन कैन रिफार्म करैक्टर' !
किसी समस्या को हल करने के दो तरीके हो सकते हैं- पहला तरीका है, उपचार करना और दूसरा तरीका है निरोध। किन्तु हमलोग जानते हैं कि -'प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर.' अर्थात किसी मर्ज का इलाज करने से बेहतर है उसकी रोकथाम की जाये !इसीलिये 'अंग्रेजों के जमाने का जेलर 'हूँ'- इस मिथ्या 'अहं रूपी कैंसर ' का प्राइमरी स्टेज पर इलाज कराकर इस बीमारी से निजात पाई जा सकती है।  इस प्रिवेन्टिव उपाय को विज्ञान की भाषा में 'कॉन्शसनेस मैनेजमेन्ट सिस्टम' और आध्यात्म की भाषा में 'विवेक-प्रयोग' कहते हैं ।  यह चेतनता या  विवेक-प्रयोग करने की शक्ति ही  मनुष्य के जड़-पदार्थ या पशु से भिन्न 'ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना' होने की पहचान है ! 
मैटर से कॉन्शसनेस को अलग करने की विधि है- मनःसंयोग ! मनुष्य के मन में चेतनता (अर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्तिअर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति)  रहने के कारण उसमें खुद से (मिथ्या अहं से) भिन्न होने की प्रवृत्ति होती है, इसीलिये मन अपने को दो भागों में बाँट सकता है   'डबल-प्रेजेन्स ऑफ़ माइन्ड' की शक्ति से द्रष्टा मन अपने ही दृश्य मन को देख सकता है !श्रेय-प्रेय, नित्य-अनित्य का विवेक करके वह अपने को इन्द्रियों (मस्तिष्क में स्थित -स्नायुकेन्द्र, ऑप्टिक नर्भ आदि) से खींच कर सत्य (ईश्वर) में नियोजित रख सकता है  
 विवेक-प्रयोग करने यह क्षमता ही उसे- पुरानी आदतों, प्रवृत्तियों (प्रकृति ) से स्वतंत्र बनाती है।  [हमारी चेतना की धार जहां-जहां (देहाध्यास की मान्यताओं में -इन्द्रिय विषयों में ) फंसी है, वहां-वहां से उसे हटाना होगा। उस विधि को भारतीय योग-शास्त्र में प्रत्याहार कहा जाता है। इसके बाद स्रोत (आत्मा-ह्रदय ) की तरफ लौटना, या श्रोत से जुड़ जाने का अभ्यास । यानी जहाँ से सब कुछ निकला है, जिसमें स्थित है, जिसमे लीन हो जाता है - अपने ह्रदय से जुड़ना। इसीको धारणा कहते हैं।]
" क्या (भ्रष्ट-ब्यूरोक्रेट्स से) लोगों से हमारा यह कहना उचित होगा कि घुटने टेककर चिल्लाओं -कन्फेशन करो ! कि प्रभु हम इतने बड़े पापी हैं ? नहीं, नहीं, बल्कि हम उन्हें उनकी खोई हुई आत्मश्रद्धा को वापस लौटा दें ; उन्हें उनकी दैवी प्रकृति की याद दिला दें ! मैं तुमसे एक कहानी कहूँगा। एक आसन्नप्रसवा सिंहनी शिकार की टोह में भेड़ों के किसी झुण्ड के ऊपर कूद पड़ी। किन्तु ज्यों ही वह अपने शिकार पर झपटी कि उसे प्रसव हो गया और वह वहीं मर गयी। वह सिंह-शावक भेड़ों के बीच ही पाला -पोसा गया। वह घास (घूस खाता) खाता और भेड़ों की तरह ही में-में करके बोलता,क्योंकि उसे कभी यह ज्ञान नहीं हुआ कि वह सिंह है। एक दिन एक दूसरा सिंह उधर से निकला। एक भीमकाय सिंह को भेड़ों के बीच घास खाते और भेड़ों की तरह ही में-में करते देख उसे बहुत आश्चर्य हुआ। इस नये सिंह को देख सभी भेड़ें भाग खड़ी हुईं और उनके साथ वह सिंह-भेड़ भी। 
किन्तु सिंह मौके की ताक में रहने लगा, और एक दिन उसने सिंह-भेड़ को अकेला सोते पाया। उसने उसे जगाया और कहा - "तुम सिंह हो !" दूसरे सिंह ने जवाब दिया -'नहीं', और यह कहकर वह भेड़ों की तरह मिमियाने लगा। इस पर वह नया सिंह उसको एक झील के किनारे ले गया और कहा- " तुम पानी में देखो और बताओ कि क्या तुम्हारा चेहरा मुझसे मिलता-जुलता नहीं है ? देखो ! दोनों का चेहरा हाँडी के जैसा दीखता है ? उसने वैसा ही किया और देखकर स्वीकार किया कि हाँ, बात तो बिल्कुल ठीक है। तब उस नये सिंह ने गरजना शुरू किया और उससे कहा कि तुम भी ऐसा करो ! सिंह-भेड़ ने अपनी आवाज आजमायी और फिर तो वह भी नये सिंह की ही भाँति विकराल रूप से गरजने लगा। और तब उसका भेड़पन जाता रहा। मेरे मित्रों, मैं तो तुमसे यही कहूँगा कि तुम सभी बलशाली सिंह हो ! " (२/२३६)


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गुरुवार, 24 सितंबर 2015

'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया'' (SVHS -35 /The Process of Character-Building)

१.चरित्र-निर्माण में मन की भूमिका -किसी बिजनेस या उद्द्योग का प्रारंभ करना हो तो सबसे पहले मूलधन (या Capital) रहना चाहिये। उसी प्रकार यदि किसी को चरित्र-निर्माण के लिये उद्यम करना हो, तो उसका मूलधन क्या होगा ? उत्कृष्ट विचार ५ सुंदर भावों को चरित्रगत करना होगा, इसके लिए सर्वप्रथम  मन की भूमि (मनवस्तु या चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने होंगे ! सुन्दर चरित्र गठन करने के लिये यदि हमें अपने आचार-विचार को शुद्ध और पवित्र रखना हो तो हमें इस कार्य में मन की सहायता लेनी ही होगी। शुद्ध आचार, शुद्ध विचार, के साथ अपने जीवन को निष्कलंक रूप में गठित करने का दृढ़ संकल्प रहेगा , तभी तो मेरा सुन्दर चरित्र-गठित हो पायेगा। इच्छा, विचार या दृढ़ संकल्प आदि मन के साथ जुड़े हुए विषय हैं। दृढ़ संकल्प और उसे क्रियान्वित करने का सामर्थ्य ही चरित्र निर्माण की पूंजी है! एक दिन के प्रयत्न से कार्य पूरा नहीं होगा, चरित्र-गठन में सफलता प्राप्त होने तक, निरन्तर प्रयास जारी रखना होगा।  चरित्र-निर्माण करने में 'मन' की सहयता लेनी ही पड़ेगी; क्योंकि मन की सहयता के बिना हम किसी भी कार्य को कुशलता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकते। यजुर्वेद (३४/३) का यह शिव संकल्प सूत्र मन को नियंत्रण करने में अत्याधिक सहायक है- 
                         'यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।'
 (यस्मात् ऋते) जिसके बिना (किंचन) कुछ (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो। जसके बिना किंचित् कर्म नहीं होता, वह मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो। 
किन्तु इस प्रार्थना के साथ साथ उद्द्य्म भी तो करना पड़ेगा, यही उद्द्य्म है 'विवेक-प्रयोग' का अभ्यास - जैसे ही कोई विचार बुल बुले के रूप में चित्त-भूमि से उपर उठने की कोशिश करेगा, या कोई भी शब्द जुबान पर लाने से पहले, हरेक गतिविधि या किसी भी कार्य को करने के पहले, दृढ़ निश्चय और संकल्प के साथ विवेक-प्रयोग करके यह देखने कि कोशिश करूँगा कि उससे मुझे शक्ति (हृदय में सिंह जैसा बल) प्राप्त होगी या नहीं ? मेरे उस विचार,शब्द, या कार्य से मेरा और दूसरों का कल्याण होगा या नहीं ? इस बात को भली-भाँति समझ लेने के बाद ही उस प्रकार से कुछ सोचूंगा, या कोई शब्द कहूँगा या कोई कार्य करूँगा। यदि मैं निरन्तर मन-वचन-कर्म में विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बन सकूँ, तो मेरा चरित्र अच्छा हुए बिना रह ही नहीं सकता। और इसी प्रकार 'विवेक-प्रयोग' की चेष्टा सभी युवा भाई करते रहें, तो देश का कल्याण हुए बिना रह नहीं सकता।
पहले हमें यह समझ लेना होगा कि मन हमारा का दास है: जैसे हम अपनी पाँच इन्द्रियों के द्वारा रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि विषयों का सम्यक सदुपयोग करते हैं, ठीक उसी प्रकार आँख,कान,नाक,
जीभ और त्वचा के समान यह मन भी हमारी छठी इन्द्रिय (सिक्स्थ सेन्स) भी हमारा यंत्र या उपकरण एक इन्स्ट्रुमेन्ट ही है किन्तु सबसे सूक्ष्म होने के कारण सबसे शक्तिशाली इन्द्रिय है ! मन की पूरी शक्ति लगाकर हमलोग जो भी कार्य करते हैं वह सुसम्पन्न होता है। मन में अनन्त शक्ति है, किन्तु वह मेरे (आत्मा या पक्का मैं के) केवल एक अंश (पाद) में ही है, अतः उसको मेरी (अहं नहीं विवेक-सम्पन्न बुद्धि या आत्मा की) आज्ञा का पालन तो करना ही पड़ेगा। क्योंकि मन मेरा मालिक नहीं है,( मेरी विवेक-सम्पन्न अर्थात विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बुद्धि या)  'मैं ' उसका मालिक हूँ, मन तो मेरा दास है !
किन्तु अनेक वर्षों से (जन्म-जन्मांतर से) हमने उसे मनमाने विषयों में जाने की छूट दे रखी थी, इसीलिये उसका स्वाभाव किसी बिगड़े हुए नादान बच्चे के समान जो बाजार पहुँच कर पानी-पूरी खाने की ज़िद ठान लेता है, या उस मदिरोन्मत्त,ईर्ष्या-बिच्छू द्वारा दंशित भूतारूढ़ बन्दर के समान बन गया है। 'बेकहल नौकर' के समान अब वह अपने मालिक को ही, अपना दास बनाने का प्रयत्न करता है। अब हमलोगों को उसे (प्यार से समझा-बुझा कर,या हल्की सी चपत लगाकर या थोड़ा बलपूर्वक, मन को स्थायी रूप से) अपना दास बना लेना होगा। 
किन्तु यह कैसे करूँगा ? पहले ही हमलोग यह जान चुके हैं कि चरित्र गठन करने में मन की सहायता लेनी ही पड़ेगी। इसके लिये मन को अपने वश में रखने या अपने नियंत्रण में रखने की बात भी कही गयी है। इसके लिये विवेक-प्रयोग के अभ्यास द्वारा मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर (बाज़ार की पानी-पूरी खाने की ज़िद को छुड़ा कर ) निरन्तर चरित्र-गठन के दृढ़ संकल्प पर ही एकाग्र रखने का अभ्यास करना होगा। उपरोक्त तरीके से दृढ़ संकल्प के साथ लक्ष्य पर एकाग्रता का नियमित अभ्यास करने से इच्छाशक्ति बहुत मजबूत हो जाएगी। मनसा-वाचा कर्मणा किसी भी कार्य करने-सोचने,बोलने या करने के पहले यदि हम विवेक-प्रयोग करने के बाद ही प्रत्येक कार्य करने में महारत ( Proficiency) हासिल कर लेते हैं, तो उसके बाद वाली चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त सरल है। किसी Algebra जितना, quadratic equation जितना, या किसी higher mathematics जितना, या अन्य किसी कठिन formula के जितना नहीं, बल्कि साधारण जोड़-घटाव जितना ही सहज है- चरित्र-निर्माण !  ऐसा करोगे तो यह होगा, वैसा करोगे तो वैसा होगा। जिस प्रकार २ में २ जोड़ने से ४  होता है, ४  में २  जोड़ने ६ होता है, और ६ में २  जोड़ देने से ८  हो जाता है, उसी प्रकार चरित्र भी अत्यन्त सहज वस्तु है। 
आत्ममूल्यांकन तालिका: चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त भी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के अनुसार सभी देशों के सभी मनुष्यों के लिये सत्य है ! किन्तु निरन्तर इस जोड़-घटाव के के चिन्ह पर दृष्टि गड़ाय रखना, और उन्हें देते रहने की क्षमता को बनाय रखना ही कठिन हो जाता है। एक बार किया, दो बार किया; दो-चार अच्छे कार्य करके लोगों की वाहवाही प्राप्त कर लिया। कैम्प में आकर दूसरों के साथ सुन्दर व्यवहार कर लिया, क्योंकि कैम्प में आचरण ठीक नहीं रखने से सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा, लेकिन यहाँ लौट कर घर जाने के बाद विवेक-प्रयोग करने के लिए सावधान रहने का अभ्यास करना एकदम छोड़ दूंगा। यदि ऐसा सोचोगे या करोगे तो चरित्र-गठन करना कभी संभव नहीं होगा। चरित्र-गठन करने में यही कठिनाई है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का फॉर्मूला या सूत्र तो बिलकुल सहज है, किन्तु विवेक-प्रयोग के लिये निरन्तर सजगता बनाये रखना आवश्यक है, इसकेलिये अथक प्रयास करना होता है; नहीं तो हर कदम पर पाँव फिसल जाने की सम्भावना बनी रहती है।  बहुत बार विवेक का ठीक ठीक प्रयोग किया, और अपने आचरण को ठीक रखा, किन्तु दो बार नहीं हो सका, आलस्य आ गया और एक बुरी आदत पड़ गयी। इसी प्रकार यदि बुरी आदतें पड़ती ही रहें, तो उसके नीचे अच्छी आदतें दब जाएँगी। उसी प्रकार यदि बहुत सी अच्छी आदतें एकत्रित हो गयीं, तो उसके निचे बुरी आदतें दब जाएँगी। बुरी आदतों की स्मृतियों को जड़ सहित नहीं उखाड़ सकते, उसको अच्छी आदतों के नीचे ही दबा कर  रखना पड़ता है। तथा अच्छी आदतों से दबाते दबाते ऐसा हो जाता है, कि वे फिर कभी अपना सिर उठा नहीं पातीं। जैसे किसी टेप-रेकार्डर के कैसेट में यदि एक बार रेकार्डिंग हो गया, तो पहले वाला रेकार्डिंग तुम नहीं सुन सकते।' यदि तुम बुरे कार्य करते हो, तो उसका दोष अपने बुरे चरित्र के मत्थे मढ़ कर अपनी जिम्मेवारी से बचने की चेष्टा मत करना। ' क्योंकि इतना तो हम सभी लोग समझ सकते हैं कि - चूँकि हमारा चरित्र ही हमें अच्छा या बुरा कर्म करने के लिए अनुप्रेरित करता है, ऐसा कहते हुए बुरे कर्म करने के बाद उसका समस्त दोष चरित्र के मत्थे मढ़ देने की चेष्टा करना स्वयं को ही धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं है।
हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, बुरा कर्म करने के लिये आखिर मैं उतारू क्यों हो जाता हूँ ? इसका कारण यही है कि किसी कारण से (बहुत लम्बे समय तक बुरी संगती, या गलत परिवेश में रहने से) मेरी उम्र अधिक हो गयी है, किन्तु अभी तक मेरा अपना चरित्र अच्छा नहीं बना सका है। और अब उसी बुरे चरित्र का दास बन कर, उसके वशीभूत होकर मैं कोई बुरा कार्य कर देता हूँ। यदि मेरी अवस्था सचमुच ऐसी हो गयी है, तो अब मुझे क्या करना चाहिये ? यह अवस्था थोड़ी कठिन है, क्योंकि मेरी उम्र अब अधिक हो गयी है, और अपना काफी समय मैंने नष्ट कर दिया है। उसी बुरे चरित्र के वशीभूत होकर, उसका दास होकर कार्य करते रहने के फलस्वरूप मेरे भीतर बुरे कार्यों को करने की प्रवृत्ति दृढ़ हो गयी है। मेरे अवचेतन मन पर उसकी लकीर गहरी हो गयी है। उस गहरी लकीर को मिटा कर फिर से अच्छे चरित्र का गठन करना अधिक मुश्किल काम है। वस्तुतः बुरे विचारों के दृढ़ हो जाने के बाद, या मन की गहरी परतों तक बैठ जाने के बाद, उनको मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि जब मन में अच्छे विचारों की लकीर अधिक गहरी हो जाती है, तो उसके नीचे बुरे विचारों की लकीरें केवल दब भर जाते हैं। इसलिये बुरी आदतों के परिपक्कव हो जाने के पहले, या कम उम्र में ही यदि अच्छा चरित्र निर्मित कर लिया जाय, तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः युवकों को अन्य समस्त कार्यों को छोड़ कर, सर्व प्रथम अच्छा चरित्र निर्मित करने की अनिवार्यता को समझने के लिये प्रयास करना चाहिये। फिर उन्हें प्रकृति तथा इन्द्रियों की अनेकों  प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प लेकर, अथक परिश्रम करते हुए एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके उसे बहुमूल्य धरोहर के रूप में संचित कर लेना होगा। निरंतर विवेक-प्रयोग करके दुर्गुणों को हटाओ और सद्गुणों को अपनी रुझान या टेन्डन्सी में परिणत करो। 

चरित्र के १२ दुर्गुण या दोष कौन कौन से हैं जिन्हें हमें बाहर निकालना है ?-(२६ जून २००९ का ब्लॉग देखें )
 १.जीवन-स्तर के मानदण्ड का दिखावा करने में वृद्धि नहीं।
२ " कपटता नहीं "
 ३. " जंग(मोर्चा) लग कर मरना ठीक नहीं "
४. स्वर्ग जाने की चाह नहीं "
५. " असन्तोष नहीं "
६." आत्मसंतुष्टि नहीं "
७." नैराश्य नहीं "
८ ." कर्म विमुखता नहीं "
९." ज्योतिष नहीं "
१०." भय नहीं "
११." क्रोध नहीं "
१२." विद्वेष नहीं "  

अब हमलोग चरित्र क्या है, इस बात को और अधिक गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। हमने इस रहस्य को जान लिया है कि चरित्र हमलोगों की प्रवृत्तियों (चित्त-वृत्तियों या रुझानों) की समष्टि या योगफल है। प्रवृत्तियों (या रुझानों  propensity) की समष्टि या योगफल की कार्यकारी शक्ति से भी हमलोग परिचित हैं। प्रवृत्तियाँ कितनी शक्तिशाली होती हैं, इस बात को भी हम जानते हैं। किसी विशेष परिस्थिति में सोच-विचार किये बिना, या विवेक-प्रयोग किये बिना ही, हमलोग जिसके वशीभूत होकर कोई कार्य कर डालते हैं, उसको ही प्रवणता या प्रवृत्ति कहते हैं। किसी भी कार्य को करने के जब कई विकल्प रहते हैं, और उसमें से किसी एक विकल्प का चयन जब हमें करना होता है, तो काफी सोच-विचार करने के बाद या विवेक-विचार करके जिस गुण को मनुष्योचित समझकर चयन करते हैं, और जब बार बार उसी को  दुहराने लगते हैं तो वह गुणग्रहण हमारी आदत में परिणत हो जाता है। जब वह आदत परिपक्व हो जाती है, तो वही हमारी प्रवृत्ति या  ' tendency' बन जाती है।  किन्तु यदि हम विवेक विचार करके कोई निर्णय लिये बिना, मानो बाध्य होकर या उसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर उस प्रकार का कार्य करते हैं। इसी प्रकार के विभिन्न प्रवृत्तियों का योगफल हमलोगों के चरित्र का निर्माण करता है, तथा उस चरित्र के फल को हमें अनिवार्य रूप से भोगना भी पड़ता है।
कौन कौन से ऐसे सदगुण हैं जिनको अपनी आदत में ढाल कर प्रवृत्ति या टेन्डन्सी बनाई जाय ?
फिर उन गुणों को अपनी आदत में ढाल लेने से, उन्हें परिपक्व बनाने से -उन्हीं प्रवृत्तियों का योगफल मेरे अच्छे चरित्र में परिणत हो जायेगा। अतः चरित्र के गुणों की तालिका में लिखे गुणों के बारे में ठीक से समझ कर उसी प्रकार के कार्यों को बार बार दुहरा कर अपनी आदत और प्रवृत्ति में शामिल कर लूँगा। जिन अच्छे गुणों को आत्मसात करने से मेरा चरित्र निश्चित रूप से अच्छा बन जायेगा।

                                                आत्म-मूल्यांकन तालिका
श्री ---------------------------------------------------------
केवल तुम्हारा चरित्र-बल ही तुम्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता प्रदान करता है. क्या तुम्हें अपना निश्चित जीवन-लक्ष्य ज्ञात है ?  यदि नहीं, तो इसी समय अपना एक निश्चित जीवन-लक्ष्य निर्धारित कर लो और यहाँ नीचे लिखो. यदि अपने अन्तर्निहित विवेक-शक्ति का प्रयोग करते हुए निम्न लिखित गुणों को जीवन में धारण कर लोगे तो तुम एक चरित्रवान मनुष्य बन सकोगे.
" मेरा निश्चित जीवन लक्ष्य है-----------------------------------"   
चरित्र के गुण
१. आत्म-श्रद्धा
२. आत्म-विश्वास
३. सच्चाई
४. स्पष्ट-विचारण
५. साहस
६. संकल्प
७. ईमानदारी
८. निष्कपटता
९. उद्दम
१०. अध्यवसाय
११. साधन-सम्पन्नता
१२. सहन-शीलता
१३. भद्रता
१४. सहानुभूति
१५. विश्वसनीयता
१६. आत्म-संयम
१७.आत्म-निर्भरता
१८. धैर्य
१९. सेवा परायणता
२०.संतुलन
२१. निःस्वार्थपरता
२२. अनुशासन की भावना
२३. स्वच्छता
२४. सामान्य बुद्धि
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प्रत्येक निश्चित अन्तराल के बाद आत्म-समीक्षा करो और उपरोक्त गुणों के सामने जो तुम अपनाने योग्य समझते हो, एक " श्रेणीकरण चिन्ह " या मानांक लगाओ.
८० % व अधिक के लिये -  ' A '
७० % व अधिक के लिये -' B'
६० % व अधिक के लिये -  ' C  '
५० % व अधिक के लिये - ' D
 ४०% से कम के लिये -      ' E '
हर एक गुण के मानांक को क्रमशः बढ़ाते जाओ तथा आगे के मार्गदर्शन हेतु महामण्डल के सम्पर्क में रहो.
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 स्मरण रखो कि इनमें से प्रत्येक गुण तुम्हारे लिये आवश्यक है, एवं केवल तुम स्वयं अपने संकल्प और चेष्टा से ही इन गुणों को बढ़ा सकते हो. इन गुणों पर चिन्तन करो और प्रतिदिन कोई भी कार्य या व्यव्हार करते समय विवेक का प्रयोग करके इस प्रकार करो, जिससे इन गुणों में से कोई एक या एकाधिक गुण को बढ़ाने में सहायता मिलती हो.
विवेक-प्रयोग का अभ्यास जिस प्रकार सर्वदा सभी अवस्था में करोगे, उसी प्रकार प्रतिदिन/ प्रतिसप्ताह/१५ दिन बाद या महीने में एक बार आत्म-समीक्षा भी करो कि तुमने कौन से गुण को कितना अर्जित किया है; फिर उसको तालिका में अंकित कर दो. ऐसा करते रहने से तुम देखोगे, कि कुछ महीनों में ही तुमने चरित्र-निर्माण में कितनी उत्तम प्रगति कर ली है !
इस प्रयक्ष-प्रमाण को देखने से तुमको एक ऐसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा, जो तुम्हें आत्म-विकास में निरन्तर आगे बढ़ते रहने के लिये अदमनीय उत्साह और उर्जा से भरपूर कर देगा.
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                                मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
                                  त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः |
                               परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यम्
                             निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः
||8||-भर्तृहरिः
कुछ सन्त ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका मन वचन और कर्म पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन के प्रति प्रेम वितरण करते हुए, दूसरों के परमाणु तुल्य गुण  अर्थात अत्यन्त स्वल्प राई जितने गुण को भी पर्वतप्रमाण बढ़ाकर अपने हृदयों का विस्तार करने की साधना में रत रहते हैं ! (४/३०५)    

[ अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, खरदह, २४ परगना, (पश्चिम बंगाल ) द्वारा प्रसारित]
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इन गुणों की एक तालिका बना कर इनका अभ्यास करने से इन समस्त गुणों को आत्मसात किया जा सकता है।  गुणों को आत्मसात करने के लिये, इन्हें आदत और फिर प्रवृत्ति में ढाल लेने की प्रक्रिया बिल्कुल वैज्ञानिक सूत्र (Scientific Formula ) के जैसा है, तथा हमलोग इनको अपने जीवन में उतार कर दिखला सकते हैं। 

चमत्कार जो आप कर सकते हैं ! (ऑटो-सजेशन): मनःसंयोग (मन को नियंत्रण में रखने की प्रक्रिया) कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वर्तमान युग में इस विज्ञान को  साइकालजी या मनोविज्ञान भी कहते हैं। किन्तु हमारे देश में यह बहुत प्राचीन समय से विद्यमान था। इस विषय का  सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ है, ऋषि पतंजली रचित अष्टांग-योग, या योग-सूत्र। मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर उसे वश में लाकर, उसे अपने लिये उपयोगी कैसे बनाया जाता है, उसकी पद्धति को इस ग्रन्थ में सूत्र-बद्ध किया गया है।
इसी मनोवैज्ञानिक (Psychological ) अथवा वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method ) के द्वारा हमलोग पहले अपना चरित्र गढ़ने के लिये एक महती इच्छाशक्ति (Will -Power ) का निर्माण करेंगे, दृढ़ निश्चय (Resolution या संकल्प) का निर्माण करेंगे, तथा चरित्र-गठन हो जाने तक निरन्तर प्रयासरत रहने की शक्ति -अध्यवसाय (Perseverance या धुन) का निर्माण करेंगे। हमलोग मानवजीवन को सुंदर बनाने वाले अच्छे अच्छे भावों (आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थता,त्याग और सेवा आदि) के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे तथा मन की सहायता से उन गुणों को अर्जित करने की कोशिश (उद्यम ) करते जायेंगे।
बस, साधारण मामला है एकदम Practical -Method (प्रयोगात्मक-पद्धति) है, कोई भी व्यक्ति इसका प्रयोग घर बैठे कर सकता है। इसके लिये जंगल जाने या गुफा में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करने पर परिणामी उत्पाद (उपज) होगा एक सुन्दर चरित्र ! जो कोई भी व्यक्ति चरित्र-निर्माण के इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करेगा उसको एक ही परिणाम प्राप्त होगा।
मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने से, केवल सद्कर्म ही करूँगा जिसका परिणामी पैदावार (भरपूर फसल) होगा-मेरा सुन्दर चरित्र! बीज के अनुसार फल मिलेगा ही मिलेगा, प्राकृतिक नियम है, होने को बाध्य है।

जो इसका परिक्षण करेगा, वह स्वयं यह देख पायेगा कि मात्र छः महीनों में ही उसका चरित्र पहले से कितना अच्छा बन चूका है ! जो भी व्यक्ति व्यग्रता के साथ दृढ़ संकल्प लेकर, इन गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करेगा, वह जरुर सफल होगा जिस प्रकार प्रयोग शाला में सही प्रयोग करने से सभी को एक समान परिणाम प्राप्त होता है। किन्तु चरित्र-गठन के अपने संकल्प पर अटल रहने के लिये जैसा दृढ़ संकल्प मेरे भीतर रहना चाहिये उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? उसे प्राप्त करने की भी एक वैज्ञानिक -प्रक्रिया (Formula ) है।
कोई किसी को ' विवेक-दर्शन ' का नियमित अभ्यास और निरंतर 'विवेक-प्रयोग' करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता है, ' जावत बाँची तावत सीखी ' निरंतर अभ्यास करके हमें स्वयं ही सीखना होगा। चरित्र-गठन के लिये श्रद्धा, विवेक-प्रयोग, जीवन की सार्थकता को ध्यान में रखने के बाद ही कुछ सोचने-बोलने-करने की  सरल वैज्ञानिक-पद्धति सामने रख दी गयी है, अब यह पूरी तरह से मुझपर निर्भर करता है कि मैं इसे प्रयोग में लाता हूँ या नहीं ? यदि हम इसे प्रयोग में नहीं अपनायें , तो अन्य किसी भी उपाय से समाज का कोई भला होना असम्भव है- इस तथ्य को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। इस पद्धति को प्रयोग में लाने से हममें से प्रत्येक का जीवन भी सुन्दर, सम्पूर्ण, सार्थक और कल्याणकारी होगा। यदि विवेक-प्रयोग को अभ्यास में नहीं उतारा गया, तो मनुष्य-जीवन विफल हो जायेगा, और समाज भी दुःख में डूबा रहेगा। यदि मैं अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को, समाज और देश को प्यार करता हूँ, यदि स्वयं से भी सच्चा प्रेम करता हूँ, तो मैं आज और अभी से ही, अपना सुन्दर चरित्र गढ़ने के लिये बिना आलस्य किये परिश्रम करता रहूँगा, तथा मनुष्य जीवन के स्वाद को चख कर स्वयं धन्य होऊंगा, तथा दूसरों के जीवन के दुःख को अपने सुन्दर चरित्र के द्वारा हटाने के कार्य में न्योछावर कर सकूँगा। 
स्वामी विवेकनन्द ने कहा है -  " शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है, सच्चरित्र मनुष्य का निर्माण। वैसा ' मनुष्य ' बनो जो अपना प्रभाव सब पर डालता है।  जो अपने संगियों के उपर मानो जादू सा कर देता है, जो इच्छाशक्ति का एक महान केंद्र (Dynamo) है, और जब ऐसा मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो चाहे कर सकता है...महान धर्माचार्यों या पैगम्बरों (बुद्धदेव, ईसामसीह, मोहम्मद, नानक, श्रीरामकृष्ण आदि) के जीवन को देखो, उन्होंने अपने जीवन-काल में ही सारे देश को झकझोर कर रख दिया था...उन महापुरुषों में ऐसा क्या था कि शताब्दियों के बाद भी लोग उनके बताये रस्ते पर चलने की बातें करते हैं ?  उनका वैसा सुंदर चरित्र और व्यक्तित्व ही था जिसने यह अन्तर पैदा किया " (४/१७२) 
ऐसे ही उज्ज्वल-चरित्र मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या पैगम्बरों युवाओं का निर्माण करने वाली ' स्वाधीन भारत की राष्ट्रिय शिक्षा-नीति ' ऐसी हो जिससे " Be and Make " आन्दोलन को भारत के गाँव-गाँव तक फैलाया जा सके! और इसी स्वामीजी द्वारा सौंपे इसी मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन से आजीवन जुड़े रहने एवं यथार्थ मनुष्य बन जाने के लिये हमें दृढ़ संकल्प लेना होगा। चरित्र-गठन के कार्य को हमें स्वयं करना है, इसके लिये हमलोगों को दृढ़ संकल्प लेना होगा, तथा इस संकल्प पर अटल रहने के लिये अध्यवसाय के साथ प्रयत्न करते रहना होगा। क्योंकि,सर्वप्रथम अपने संकल्प को परिपक्व कर लेने के बाद ही मैं चरित्र-निर्माण के कार्य सफलता प्राप्त कर सकूँगा। और दृढ संकल्प अर्जित करने का सूत्र :आत्म-सुझाव या " स्व-परामर्श सूत्र " है - 
' चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा '

" मैं पूरी दृढ़ता के साथ संकल्प लेता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा,
क्योंकि केवल इसी प्रकार मैं जगत का सर्वाधिक कल्याण करने में सक्षम हो सकता हूँ। मेरा सुन्दर चरित्र ही एक सुन्दर-समाज का निर्माण कर मेरी प्रिय मातृभूमि भारत को सुन्दर और महान बनाने में मेरी सहायता करेगा। मैं जानता हूँ कि चरित्रवान मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता होता है, अतः इसी चरित्रबल से मैं अपना भी सर्वाधिक कल्याण कर पाउँगा। चरित्र ही धर्म है, इसलिये  चरित्रबल (श्रद्धा-निर्भीकता-निःस्वार्थपरता -त्याग और सेवा) के बिना लौकिक उन्नति अथवा आध्यात्मिक उन्नति के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है। 
" क्योंकि स्वामी विवेकानन्द अपनी शिक्षाओं की प्रतिमूर्ति हैं, इसीलिये  'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से  'विवेक-स्रोत' उद्घाटित हो जाता है। और विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से हमारा आत्मविश्वास  इतना प्रबल हो जाता है कि हम जब चाहें, वैराग्य का फाटक लगाकर मन के इच्छाशक्ति के प्रवाह की दिशा को निरन्तर एकाग्र (अंतर्मुखी या उर्ध्वगामी) बनाये रखने में समर्थ मनुष्य बन जाते हैं ! मैं प्रति दिन उनके चित्र पर अपने मन को इस तरह एकाग्र करने का अभ्यास करूँगा कि उनका जीवन्त स्वरुप मेरे चित्त की गहरी परतों में बस जाये।"
" मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को एक चरित्रवान मनुष्य के साँचे में ढाल सकता हूँ। इसी लिये इस उद्देश्य को सिद्ध करने के मार्ग में आने वाले किसी भी बाधा या विघ्न को कभी प्रश्रय नहीं दूंगा; तथा धैर्य और अध्यवसाय के साथ बिना आलस्य किये इस उद्देश्य के सिद्ध हो जाने तक निरन्तर प्रयत्न करता रहूँगा। मैं अवश्य सफल होऊंगा, क्योंकि मैं उस अनन्त शक्ति के प्रति अटूट विश्वास रखता हूँ जो मुझमें अन्तर्निहित है।"

दिनांक /हस्ताक्षर 
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उपरोक्त कथन को एक कागज पर लिखिए तथा उसके नीचे अपना हस्ताक्षर करके आज की तारीख डाल दीजिये। अपनी इस वचनबद्धता को प्रतिदिन कई बार पढिये, विशेष रूप से रात में सोने से पहले तथा सुबह नीन्द से उठने के तुरन्त बाद बहुत ध्यान पूर्वक पढिये, तथा आपने जो प्रतिज्ञा की है उसको साकार करने के कार्य में जुट जाइये।
 आप देखेंगे कि केवल छः महीनों में ही आपका चरित्र पहले से अच्छा बन गया है, और आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चूका है। इस प्रक्रिया की सफलता के सम्बन्ध में कोई सन्देह ही नहीं है, आप इसका परिक्षण करके स्वयं देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को अपनाने से सुन्दर चरित्र बनता ही है-यह कोई चमत्कारपूर्ण बात नहीं है। यह एक ऐसा प्राकृतिक नियम है, जो आपकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है। 

'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया -'२': अप्रियस्य तू पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:। [महामण्डल के लीडर ट्रेनी को बहुत निष्ठा के साथ महामण्डल के वार्षिक शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग लेना होगा, मानवजाति के किसी सच्चे मार्गदर्श नेता के रूप में कई आवश्यक बातें अपने भावी नेताओं से कहनी होगी! किन्तु अपनी विद्वता प्रदर्शन करने की जरुरत नहीं अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित करना होगा।]  
मनःसंयोग का अभ्यास करने के साथ ही साथ हमलोग निरन्तर अपना चरित्र गठन करने का प्रयत्न करते रहेंगे। प्रतिदिन हमलोग अपने मन को चरित्र के गुणों के विषय में सुनाते रहेंगे। हमलोगों की ' आत्म मूल्यांकन तालिका ' में चरित्र के २४ गुणों के नाम लिखे हुए हैं। कम से कम उन सभी गुणों के नाम को दिन में एक बार जरुर पढेंगे, तथा रात में सोने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिये अपने मन को कहेंगे- हमलोग बलवान हैं, दुर्बल नहीं है। अपना चरित्र गठित करने के लिये हमने दृढ़ संकल्प लिया है, क्योंकि चरित्र गठित नहीं करने से जिस प्रकार हमारा अपना जीवन विफल हो जायेगा, उसी तरह हमलोग जनकल्याण करने योग्य भी नहीं बन पाएंगे। क्योकि बिना अपना चरित्र गढ़े (५ भावों को आचरण में धारण किये ) ही कोई व्यक्ति यदि राजनीती या समाज-सेवा के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने लगे तो वह सफल नहीं होगा। इसीलिये हम स्वयं से निरन्तर कहते रहेंगे, " मेरा शरीर स्वस्थ,शक्तिशाली और मन प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न है। मैं इसी शरीर और इसी मन द्वारा, इसी जीवन में अपना सुन्दर चरित्र गठित कर लूँगा। मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है,वह मुझे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में मेरी सहायता करे।" यह बात हमलोग अपने आप को दिन भर में कम से कम दो बार अवश्य सुनायेंगे।
प्रातःकाल नीन्द से जगने के बाद हमलोगों का मन स्वभावतः ही शान्त रहता है, उस समय उसमें अन्य कोई विचार नहीं रहता है। इसीलिये उस अवसर पर हमें अपने मन के कोटर में (गहरी परतों या चित्त में) पवित्र विचारों को प्रविष्ट कराना होगा। उसी प्रकार रात में सोने से ठीक पहले भी करना होगा।

इस अभ्यास के बारे में जिस प्रकार हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कहा है, उसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह एक परीक्षित सत्य है। नींद से उठने के बाद हमलोगों का मन अत्यन्त सौम्य (कोमल) रहता है। उस समय उसमें किसी विचार की छाप आसानी से पड़ती है। वह समय, मन में किसी पवित्र विचार को प्रविष्ट कराने का सबसे उपयुक्त समय होता है। नीन्द से उठने के बाद यदि कुछ पवित्र भावों के विषय में मन को सुनाया जाय, तो मन उसको आसानी से ग्रहण कर लेता है, और यदि वे विचार मन की गहराईयों तक खुद जाएँ तो फिर आसानी से भूलती नहीं। उसी प्रकार सोने से ठीक पहले हमलोग अपने मन को कहेंगे, " मैं चरित्रवान मनुष्य बनूंगा। क्योंकि चरित्रवान बन जाने में ही मेरा सबसे अधिक मंगल है, और केवल तभी दूसरों का मंगल करने में भी मैं समर्थ हो सकूँगा।" 
इस संकल्प-प्राप्ति की पद्धति हल्के में नहीं लेना है, किन्तु इसको यदि एक खेल के जैसा बना लिया जाय, तो सचमुच यह खेल बहुत लाभदायक होगा। यदि  हम अपने जीवन को सत्य नहीं है - ऐसा समझते हैं; और  जगत हमारे लिये एक खेल के जैसा प्रतीत होता हो, तब इस स्वपरामर्श-सूत्र के अभ्यास को सत्य समझ कर खेलना ही उचित होगा। 
 हो सकता है कि बोलने में थोड़ा संकोच लगे। क्योंकि इतना उमर तो बीत गया, और अब अचानक यह कहने लगूँ कि मैं चरित्रवान बनूंगा, मैं मनुष्य बनूंगा; और कहूँगा, मेरे भीतर जो अनन्त शक्ति है, वह जाग उठे, मैं निश्चय ही सफल होऊंगा, क्योंकि मुझमें प्रबल आत्मविश्वास है ? हो सकता है, यह सब कहने में संकोच लगे। किन्तु यदि हमलोग यह सब कह सकें, तो ये विचार मन में इस प्रकार छप जायेंगे, कि फिर कभी वहाँ से बाहर ही नहीं निकलेंगे। उसके बाद हम अपने जीवन के सामान्य विविध कर्मों को कर रहे होंगे, उस समय स्वतः यही सब विचार मन में उठने लगेंगे, क्योंकि ये विचार मन की गहराई तक, हमारे अवचेतन मन में प्रविष्ट हो चुके हैं। इसीलिये अब यदि कोई अपवित्र विचार मन में प्रविष्ट करना भी चाहेगा, तो ये विचार उस समय उससे युद्ध करने पर उतारू हो जायेंगे, और गन्दे विचारों को मन में घुसने से रोक देंगे। यही है चरित्र-गठन का उपाय। 
 यह बिल्कुल सच है कि कोई भी मनुष्य अपना सुंदर चरित्र गढ़ सकता है। किन्तु आज तक तो यह किसी ने नहीं बताया कि कैसे सुन्दर चरित्र गढ़ा कैसे जाता है ? सभी लोग यही कहते हैं कि अच्छा बनना होगा, अभी तक हमलोग केवल यही सुनते आये हैं कि अच्छा मनुष्य बनना होगा। सभी लोग सलाह देते हैं - सत्यवादी, आत्मविश्वासी, ईमानदार, साहसी मनुष्य बनना होगा। वर्णाक्षर सीखते समय से ही - हमलोग कॉपी में लिखते आये हैं - ' सदा सत्य बोलो '। किन्तु जैसा स्वामी विज्ञानानन्दजी ने विद्यासागर की बाल पुस्तिका को उद्धृत करते हुए कहा था- यह तो लिखा हुआ है, पर क्या तुम सत्य बोलते हो ? उसी प्रकार सभी कहते हैं, यह करना होगा, वह करना होगा, उसे करना होगा, किन्तु करूँगा किस प्रकार ? यह बात तो कोई बताता नहीं है। चरित्र-निर्माण करना होगा, देश का उद्धार करना होगा, किन्तु उसकी व्यावहारिक पद्धति क्या है, यह कौन बतायेगा ? 
महामण्डल के शिविर में क्लास लेते समय यदि वक्ता ने पूरी लगन से तैयारी नहीं की हो, या स्वयं के जीवन में उसे नहीं उतारा हो, सही पद्धति ज्ञात नहीं हो, तो हमलोग इधर-उधर की बातें करके समय बिता देंगे। किन्तु वैसा करने से महामण्डल का कार्य नहीं हो सकता है। हमें तो सही ढंग से कार्य करना होगा, कठोर परिश्रम करना होगा। महाभारत में महात्मा विदुर धृत्रराष्ट्रसे कहते हैं -
सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य तू पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
 महात्मा बिदुरजी कह रहे हैं, हमेशा अच्छी अच्छी बातें कहने वाले मनुष्य जगत में बहुत से पाये जाते हैं, किन्तु क्या अप्रिय वचनों को सुनना भी अच्छा लगता है ? स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं - " मन का संयम करो,अपने हृदय को उखाड़ कर रक्त बहाते हुए भी साधारण मनुष्यों का कल्याण करो" - ये सब कैसी बातें हैं ? किन्तु सुनने में अच्छी न लगने पर भी ये बातें पथ्य जैसी हित करने वाली हैं, इसमें हमलोगों का सच्चा हित छुपा हुआ है। किन्तु इस तरह की बातों को कहने वाले लोग तो बहुत कम होते ही हैं, सुनने वाले लोग भी कम ही होते हैं।  “ हे राजन, प्रिय बोलनेवाले व्यक्ति आपको सुलभतासे प्राप्त हो जाएँगे; परंतु ऐसा वक्ता जो ऐसा सत्य बोलता हो जो कटु हो और सामनेवालेके हितमें हो वह बोलनेवाला और उसकी बातको सुननेवाला दुर्लभ ही मिलता है”।  
हमलोगों को आवश्यक बातें कहनी होंगी, और उसी तरह से कार्य भी करने होंगे। बहुत से बड़े बड़े कोटेशन को रट लेने की जरूरत नहीं है। हमें अपने मन को पवित्र विचारों से आप्लावित कर देना होगा, तथा जीवन में निरन्तर विवेक-प्रयोग की सहायता से मन,वाणी और कर्म द्वारा  जो अच्छा हो वही करना होगा।
 क्या अच्छा है, क्या बुरा है -इसे कैसे समझेंगे ? जिस में अपना कोई स्वार्थ नहीं हो, वही अच्छा है, जिससे मेरा मनुष्यत्व बढ़े, उसी को अच्छा समझना चाहिये। जिस कार्य द्वारा अन्य मनुष्यों का, जीवों का हित होता हो, उसी कार्य को अच्छा समझना होगा। अच्छे-बुरे विचारों की यही पहचान है। उसी तरह के पवित्र विचार मन में रखने होंगे। बुरे विचार यदि उठने लगें, अर्थात जिस विचार के मन में उठने से हम अपने को कमजोर महसूस करें, या ऐसा लगे कि वैसा विचार करने से मेरे चरित्र-गठन में कोई सहायता नहीं मिलेगी, जिस विचार से दूसरे मनुष्यों का अकल्याण होता हो, जिस विचार का परिणाम मुझे स्वार्थी बना देता हो, उस प्रकार के विचारों को मैं आने नहीं दूंगा।
सभी कर्मों, सभी बातों जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यदि हमलोग इसी प्रकार करते रहें, तथा हमलोगों के आचरण में अच्छे गुणों में वृद्धि हो जाये -ऐसी चेष्टा करें, यदि हमेशा सत्य बोलें, यदि कभी झूठी बातें कहने का प्रलोभन मन में जगे, तो मनः संयम के अभ्यास से जिस विवेक-प्रयोग के द्वारा हमने प्रबल इच्छाशक्ति को अर्जित किया है, उसी शक्ति की सहायता से झूठ कहने से बच जाएँ।  इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में -भय के क्षेत्र में भी इसी शान्त (सचेत) मन से किसी भय को भी यदि जीत सकें।  तथा एक बार उस भय को जीत लेने के बाद, जिस साहस, आनन्द, शान्ति को प्राप्त करूँगा, वह मुझे इससे भी बड़े बड़े भय को जीतने में सहायता करेगा। इसी प्रकार विवेक-प्रयोग की सहायता से आत्म मूल्यांकन तालिका में उल्लिखित प्रत्येक गुण को बढ़ाने में सक्षम हो जाऊँगा। यह कार्य करूँगा कैसे ? मनःसंयोग की पद्धति को पूर्णतया सीख लेने से हम सच्चे महामण्डल कर्मी बन सकते हैं।

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मंगलवार, 15 सितंबर 2015

SVHS -CAMP NOTES [1*****] "नानात्व (diversity ) देखना ही पाप है"

जो लोग ऐसा सोचते हैं कि  ' परमेश्वर स्रष्टा है ';  अर्थात - उन्होंने ही इस विश्वब्रह्माण्ड की रचना की है; तो वे अभी भ्रम (अर्धसत्य ) में ही जी रहे हैं ! ऐसी मान्यता, ऐसे विचार केवल द्वैत बुद्धि रहने के कारण ही उत्पन्न होते हैं। सत्य तो यह कि स्वयं परब्रह्म परमेश्वर (श्रीरामकृष्ण,अल्ला, काली, गॉड जो भी नाम दो ) ही इस जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत के निमित्त (efficient cause या कार्यसाधक कारण) और उपादान कारण ['material cause' जगत-वस्तु (यूनिवर्स-स्टफ़ अरस्तु-चिंतन के अनुसार एक ऐसी वस्तु जो किसी स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ को गठित करता हो ' in Aristotelian thought' --the matter or substance that constitutes a thing.] दोनों हैं। जहाँ एक ओर वे विश्वब्रह्माण्ड के रचयिता हैं, दूसरी ओर वे स्वयं ही इस जगत के उपादान भी हैं, उन्होंने स्वयं के द्वारा ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड को  गढ़ा  है। कैसे ? जगत ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है इस विषय में मुण्डकोपनिषद १-१-७ में कहा है-
             यथोर्णनाभिः सृजते  गृह्णते च
                यथा पृथिव्याम् ओषधयः सम्भवन्ति ।
                   यथा सतः पुरूषात् केशलोमानि
                   तथाऽक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥
जिस प्रकार मकड़ी जालेको बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथ्वी में औषधियाँ उत्पन्न होती है और जैसे सजीव पुरुष से केश एवं लोम उत्पन्न होते हे उसी प्रकार उस अक्षर ( ब्रह्म ) से यह विश्व प्रकट होता है ! जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट से जाले को बाहर निकाल कर फैलाती है और फिर उस जाले को निगल जाती है, उसी प्रकार वह परब्रह्म परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में अपने अन्दर सूक्ष्मरूप से लीन हुए जड़-चेतन रूप जगत को नाना प्रकार से उत्पन्न करके फैलाते हैं, और प्रलयकाल में पुनः उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। वे ही जगत बने हैं, फिर उनके ही भीतर सब कुछ लय हो रहा है।अर्थात वे एक और आद्वितीय हैं, एक ही अनेक के रूप में दिख रहा है। इसीलिये समस्त कार्य उन्हीं के कार्य हैं; यदि कोई कर्तव्य है, तो वह भी उन्हीं का है। एक दिन हमें नेति नेति विचार (विवेक-प्रयोग) करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि वे ही समस्त घटनाओं के निदेशक (director) हैं। वे अन्तर्यामी हैं, वे हमारे ही भीतर अवस्थित रहकर हमलोगों को चला रहे हैं।
जगत में जैसे ही ' कॉज़ैलिटी' (Causality) कारण-कार्य-सिद्धान्त (योगमाया-जोरन) को जोड़ दिया गया, उसी समय यह सृष्टि अस्तित्व में आ गयी ! किन्तु वे (ब्रह्म) किसी causality-के भीतर नहीं हैं, [अर्थात ब्रह्म कारणता के परे हैं ?[माया शुद्धाद्वैत सिद्धान्तानुसार माया (कॉज़ैलिटी Causality) परब्रह्म की स्वरूपा शक्ति है, अतः आत्ममाया या योगमाया कहा गया है। जिस प्रकार अग्नि से उसकी दाहक शक्ति और सूर्य से उसका प्रकाश भिन्न नही, उसी प्रकार पर ब्रह्म से आत्ममाया भी भिन्न नहीं है। माया ब्रह्म के अधीन है इसलिए ब्रह्म के सत्य स्वरूप को माया कभी आच्छादित नहीं कर सकती है। ] किन्तु यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों - Space (देश), time (काल) और causality निमित्त (कारण-कार्य सिद्धान्त) की सीमा के भीतर है, इसके बाहर कोई जगत नहीं है। इन्हीं तीनों के भीतर वह relative world (सम्बंधयुक्त जगत या सापेक्षिक जगत) है, जिसे सब कुछ के साथ तुलना (मिलान comparison) कर के समझना पड़ता है। 
 जिस प्रकार सादा का अर्थ काला नहीं है, लाल नहीं है - उसी प्रकार 'नानात्व' जैसा कुछ नहीं है। पुनः जिस प्रकार प्रकाश के कई रंगों  का योगफल है सादाजैसे सोझा (straight) का अर्थ यह हुआ कि वह वक्र (बंका curved) नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक के साथ और एक (दूसरा) लिप्त (फँसा involve) है, या एक के उपर और एक (दूसरे) का अस्तित्व निर्भर करता है। किन्तु वह परब्रह्म परमेश्वर, सत्य या भगवान, उनको हम चाहे जिस नाम से भी क्यों न पुकारें, वे सदैव इस causality -के बाहर रहते हैं। जैसा की स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता में गाया है - ''देशरहित कालरहित नेति नेति विराम जहाँ है!" 
(एक ऐसी सत्ता जिसका नाम, रूप या वर्ण कुछ भी नहीं है, जो देश-काल निमित्त से परे है, जिस अवस्था में 'नेति नेति ' का विचार (विवेक-प्रयोग) समाप्त हो जाता है, এক সত্তা, যাঁহার নাম রূপ বর্ণ কিছুই নাই, যিনি দেশকালের অতীত, যেখানে 'নেতি নেতি' বিচার শেষ হইয়াছে।) 
सृष्टि 
एक रूप, अरूप-नाम-बरन, अतीत-आगामी-कालहीन,
देशहीन, सर्वहीन, 'नेति नेति' विराम जहाँ।
वहीं से होकर बहे कारण-धारा,
धार की वासना वेश उजाला,
गरज गरज उठता है उसका वारि,
'अहमहमिति' सर्वमिति सर्वक्षण।।

उसी अपार इच्छा-सागर माँझे 
अयुत अनन्त तरंगराजे 
कितने रूप, कितनी शक्ति,
कितनी गति-स्थिति किसने की गणना।।

कोटि चन्द्र, कोटि तपन 
पाते उसी सागर में जन्म,
महाघोर रोर गगन में छाया 
किया दश दिक् ज्योति-गगन।।

उसीमें बसे कई जड़-जीव-प्राणी,
सुख-दुःख, जरा, जनम-मरण,
वही सूर्य जिसकी किरण, जो है सूर्य वही किरण।। 
বীরবাণী
সৃষ্টি
খাম্বাজ—চৌতাল
একরূপ, অ-রূপ-নাম-বরণ, অতীত-আগামি-কাল-হীন,
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।।

[ भारतीय-संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना गया है-'आत्मानं विद्धि' (अपने आपको जानो) ! अज्ञानता क्या है ? अपने आपको न जानना ही अज्ञानता है। मनुष्य को दूसरों को जानने से पहले स्वयं को गहराई से जानना चाहिए, जो व्यक्ति स्वयं को जान, समझ जायेगा, वहीं अन्यों का ऑकलन ठीक तरीके से कर पायेगा।' अपने आपको जानना ' ही सच्चा ज्ञान है। संसार का प्रत्येक प्राणी ' मैं ' और ' मेरा ' में फंसा हुआ है। मैं प्रेसिडेन्ट हूँ, मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ, मैं नेता हूं, या रिटायरमेन्ट के बाद भी मैं 'भू० पू० आई.ए. एस.' हूँ, यह बंगला-मोटर मेरा,वगैरह-वगैरह है ! मैं डॉक्टर हूं , मैं बिजनेसमैन हूं , मैं वकील हूं , मैं पुरुष या स्त्री हूँ ! ' मैं ' क्या हूं- इसको जानो , समझो। (इमानुएल कांट (१७२४ -१८०४)  के मतानुसार  बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि ऐंद्रिक सामग्री में इतना रूपांतर कर देती है कि इंद्रियद्वारों में प्रविष्ट होने के पश्चात् जगत् का रूप पहले जैसा नहीं रह जाता। अतएव, उसे बुद्धिगत वस्तु और बाह्य वस्तु में भेद करना पड़ता है। बुद्धि के अनुशासन से मुक्ति वस्तु की उसने "न्यूमेना" और उक्त अनुशासन में जकड़ी हुई वस्तु का "फ़ेनॉमेना" संज्ञा दी। इस अंतर का तात्पर्य यह दिखाना था कि बौद्धिक रूपांतर के पश्चात् सत्य ज्ञेय वस्तु प्रातिभासिक हो जाती है।) यह कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि ' मैं ' ' मैं ' को नहीं जानता। और जो समझ रहा है वह मात्र भ्रम है , अज्ञानता है। अपने सच्चे स्वरूप को जानने से ज्ञान की आभा प्रकट होती है , समस्त बुराइयों का शमन होता है और जीवन को सच्चा सुकून , शांति और परमानंद की प्राप्ति होती है , जीवन सार्थक और सफल हो जाता है।उपनिषदों ने- आत्मावारे श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः। -कहकर और बताया है कि विभिन्न साधनों से तुम अपने आपको पहचानो।]  जो व्यक्ति इस सृष्टि रहस्य को जान लेगा वह इस जगत में 'मुक्त-पुरुष' बन कर कार्य करेगा- अर्थात अब वह जो कुछ भी कार्य करेगा उस कार्य को स्वाधीन (unattached) या अनासक्त होकर कार्य करेगा। मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है; उसके लिये अब वैयक्तिक-अस्तित्व (क्षुद्र मैं) जैसा कुछ नहीं रह जाता है। उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा। इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करने से समस्त कर्म स्वतः उनमें समर्पित हो जायेंगे। क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का तो अस्तित्व है ही नहीं !
वास्तव में आध्यात्मिकता किसे कहते हैं ?  इस बात पर विश्वास करना कि- 'प्रत्येक मनुष्य का स्वरूप आत्मिक है'- इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना तथा इसी दृढ़ आत्मविश्वास के चलना-बोलना समस्त व्यवहार करना।  और जब हम अपने को 'आत्मिक ' कहते हैं, तब उसका अर्थ होता है, देह-मन नश्वर (मरणाधीन) होने से भी, हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जो क्षणिक नहीं है, अजर-अमर-अविनाशी है। इस बात को एक बार अपने अनुभव से जानते ही, हमलोग फिर अपने को कभी छोटा, दुर्बल, असहाय नहीं समझ सकते हैं। तथा, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता जो हमारी निजी सम्पत्ति है, उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न करते ही हमलोग महान, शक्तिशाली, साहसी और निर्भीक बन जाते हैं। 
मनुष्य-मात्र  के भीतर अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता विद्यमान है, और यही हमलोगों का यथार्थ स्वरूप, दैवत्व या ब्रह्मत्व है। जिस व्यक्ति को हमलोग अत्यन्त नीच, दुष्ट या घोर-पापी समझते हैं, उसके भीतर भी वही  'अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता' ठीक उतने ही परिमाण में विद्यमान है। किसी महापुरुष तथा किसी दुराचारी व्यक्ति में मात्र इतना ही अन्तर है कि महापुरुष के भीतर का देवत्व, आवरण को चीर कर पूर्ण रूप में प्रकाशित हो गया है, और दूसरे के भीतर वह घने आवरण में आवृत है। यह आवरण चाहे जितना भी घना हो, मनुष्य ने कितना भी नीच कर्म क्यों न किया हो, कितना भी गन्दे विचारों वाला हो, उससे उसकी अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व कभी विलुप्त नहीं होता, बल्कि अधिकतर आवृत हो जाता है। जगत में ऐसा कोई नीच कर्म नहीं है, जिसे कर बैठने से मनुष्य हमेशा के लिये नष्ट हो जाता हो। जिस क्षण मनुष्य अपने अन्तर्निहित देवत्व के प्रति सचेत हो जायेगा, परिचित हो जायेगा कि ' ओह! यह 'देवत्व' ही मेरा यथार्थ स्वरूप है ' - ऐसा बोध जिस क्षण जाग्रत हो जायेगा, उसी क्षण से उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति होने लगेगी।
 पुरुष मानो अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है. इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुंदर कहानी है : किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बन कर कीचड़ में रहते थे, उनकी एक शूकरी थी-उस शूकरी से उनके बहुत से बच्चे पैदा हुए थे. वे बड़े सुख से (नाली में पालक-पनीर खोजते हुए ) समय बिताते थे. कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले-' आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं, फिर आप यहाँ क्यों हैं ?
परन्तु  इन्द्र ने उत्तर दिया, ' मैं बड़े मजे में हूँ. मुझे स्वर्ग की प्रवाह नहीं; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए. देवगण तो यह सुनकर अवाक् हो गये, उन्हें कुछ सूझ न पड़ा. कुछ दिनों बाद उन्होंने ...एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालने का संकल्प कर लिया. जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगे. तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर-देह को भी चिर डाला. तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, ' मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !'

पुरुष (आत्मा ) भी बस, इसी प्रकार प्रकृति (मन) के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है. किन्तु वह (पुरुष) यहाँ तक स्वरूप-भ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है।  इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है। 
यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार ! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट पड़ता है. तुम कभी किसी नियम (जन्म-मृत्यु) से बद्ध नहीं थे. योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष (आत्मा) किस प्रकार इस मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुःखी समझने लगता है, तथा अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय भी है. हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी.इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है. 
[साधनपाद :१८ ' प्रकाश-क्रिया-स्थितिशीलं ' भुतेन्द्रियात्मकं भोगा पवर्गार्थं दृश्यम ।।' ]
यह दृश्यमान जगत रूपी चित्र मन का ही कार्य है, परिवर्तनशील जगत के 'प्रकाश-कार्य-स्थिति ' जड़ हैं, इस बात को आत्मा अपने अनुभव से जानकर मुक्त हो सके यही इन दृश्यों की उपयोगिता है. अतएव, पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र-सखी सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो. यदि हर हाल में तुम्हें अपना स्वरूप याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इन सब बन्धनों के पार हो जाओगे. यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हम इन अनुभवों को भुगतने के लिए बाध्य हैं. यह सुख-दुःख का अनुभव ही -हमारा एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे हमें क्रमशः एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं. तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है. और इसी तुच्छता के कारण जगत चित्रवत होकर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है. सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें.(१/१६३-६५)]

 स्वामी विवेकानन्द के समग्र सन्देशों का प्रधान राग है - ' हे मानव, अपने अन्तर्निहित देवस्वरूप के प्रति सचेत हो जाओ, उसे अभिव्यक्त करने के मार्ग पर अभी से ही चलना प्रारंभ कर दो, और उसको पूर्ण रूप से विकसित करने से पहले विश्राम मत लो !' हमलोगों के प्रत्येक वचन में, कार्य में और विचार में यदि इस देवत्व की अभिव्यक्ति होने लगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने देवत्व के भाव को चरित्रगत कर लिया है। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय, हमलोग मन-वचन-कर्म से  प्रत्येक चेष्टा इस प्रकार करेंगे  मानो हम अभी और इसी समय उनके अन्तर्निहित दैत्व को हम साक्षात् देख रहे हों- दूसरों में अन्तर्निहित दैवत्व के प्रति सदैव सचेत होकर व्यहार करने से -अपना दैवत्व अभिव्यक्त होने लगता है। (सदैव श्रीकृष्ण के समान मुस्कुराते हुए) विवेकानन्द ने के कई छोटे छोटे महावाक्यों में अपना उपदेश दिया है, 
जैसे -- ' कर्म को पूजा में रूपान्तरित करो।', 'अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति (manifestation) का नाम शिक्षा है ' , अन्तर्निहित ईश्वरत्व (श्रीरामकृष्णत्व  Divinity) की अभिव्यक्ति का नाम धर्म है ', ' शिवज्ञान से जीव की सेवा करो', ' बनो और बनाओ ' --आदि आदि ! किन्तु उनके समस्त महावाक्यों का लक्ष्य एक ही है।  उनकी दृष्टि में-'सच्ची शिक्षा और सच्चे धर्म में कोई अन्तर नहीं '।  क्योंकि पूर्णता (Perfection) और ईश्वर  ( Divinity) एक ही वस्तु है।  'मनुष्य स्वरूपतः अनन्त शक्ति-ज्ञान-पवित्रता की मूर्ति है' - इसी दृष्टि से देखकर ही उन्होंने मानव-मात्र को "अमृतस्य पुत्राः  -- हे, अमृत के सन्तान !" -कहकर पुकारा था।
यदि हमलोग अपने देश के दुःख-कष्ट को दूर हटाना चाहते हों, तो सम्पूर्ण देश में ऐसी अध्यात्मिकता को जाग्रत करने वाले आन्दोलन को फैला देना होगा, इसका अर्थ है, सच्चे अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मिक-बुद्धि (मैं केवल शरीर मन नहीं, आत्मा हूँ !) को जागृत करना होगा। मनुष्य में आस्तिक्य-बुद्धि का उन्मेष करना होगा।
 मैं केवल 'देह-मन ' की समष्टि मात्र नहीं हूँ, मेरे भीतर अनन्त शक्ति, ज्ञान और पवित्रता है- इस बोध को ही सच्ची आस्तिकता या आस्तिक्य-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य बनना कहते हैं।  इसको ही श्रद्धा कहते हैं; इस श्रद्धा या आस्तिक्य-बुद्धि को जागृत करना ही आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है। जब तक मनुष्य में यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान (awakening) नहीं किया जाय,वह मनुष्य मोहनिद्रा से जाग नहीं सकता, और उसका कोई विकास होना भी संभव नहीं है। यदि सांसारिक उन्नति करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भी इसी आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। इसीलिये स्वामीजी ने सम्पूर्ण देश को आध्यात्मिकता के ज्वार से प्लावित कर देने का आह्वान किया है। किन्तु यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता-कोई ऐसी वस्तु नहीं है,जिसे किसी व्यक्ति को दे दी जा सकती हो। केवल इसका सन्देश सुनाया जा सकता है, स्वामीजी ने इसीलिये इस सन्देश को सुनाया है।
वे कहते हैं- " अपने आप से कहते रहो, मैं वह हूँ-I am He ! I am He! ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति निहित है, वह व्यक्त हो उठेगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। " (6/297) हममें से पत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर इसी श्रद्धा, विश्वास और आस्तिक्य-बुद्धि को जगाना होगा। जो कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति है !! और जैसे ही डंके की चोट पर दूसरों को भी सुनाने लगेगा, वैसे ही उसकी अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत हो उठेगी !

कठोपनिषद (२.३. १२) में यमराज-नचिकेता से यही बात कह रहे हैं- ' एतत् वै तत्'- नचिकेता ! हे नचिकेता यही  वह परमात्म-तत्व है,  जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।' 'तत् अस्ति '- इति ब्रुवतः वह अवश्य है ! 'अस्तिति ध्रुवतः '- निःसन्देह या निश्चित रूप से मेरे भीतर है, जो व्यक्ति इस बात को डंके की चोट पर कहता है, उसी के भीतर यह शक्ति प्रकट होती है ! ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त जो हमेशा 'म्याऊं म्याऊं' करता रहता हो; उसे वह शक्ति भला कैसे प्राप्त हो सकती है ?  

नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
                           अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।।                     

वह परब्रह्म परमात्मा वाणी आदि कर्मोन्द्रियों से, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों से और मन-बुद्धिरूप अन्तःकरण से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। परन्तु वह है अवश्य और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखने वाले को वह अवश्य मिलता है, किन्तु जो इस बात को स्वीकार ही नहीं करता- उसको वह केसे मिल सकती है?  अतः हमें दृढ़ निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए। 
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः  =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की  घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को -वह कैसे प्राप्त हो सकता है? जो व्यक्ति इस बात को डंके की चोट पर कहता है कि -'अस्तिति ध्रुवतः '- निःसन्देह या निश्चित रूप से मेरे भीतर है, उसी के पास यह शक्ति रहती है। जो व्यक्ति ऐसा कभी कहता ही नहीं, ' अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' - उसको यह उपलब्धी कहाँ से होगी ?
अपनी उस अन्तर्निहित  दैवत्व (आस्तिक्य-बुद्धि) को वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह अवश्य है ! और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले को वह अवश्य मिलता है ! ' इस बात को जो नहीं कहता, अर्थात जिसका दृढ़ विश्वास नहीं है, उसको वह कैसे मिल सकता है ? और जैसे ही किसी व्यक्ति को इसकी उपलब्धी हो जाएगी, उस अनुभूति के बाद- उसके आँखों और चेहरे की रंगत बदल जाएगी, देह-मन में चैतन्य (consciousness) में विकसित होता रहेगा, शक्ति आएगी, और वह सभी बाधाओं का अतिक्रमण करके अपनी दुर्दशा का अन्त कर देगा। 
अपने जीवन को गढने के लिये, या देश का निर्माण करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। शक्ति बाहर में नहीं है। समस्त शक्ति हमलोगों के भीतर ही है। ' पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। अव्यक्त रूप से पशु के भीतर मनुष्य, मनुष्य के भीतर देवत्व विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।'…  जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है। 
और व्युत्थान के बाद विभिन्न नाम-रूपों वाला जगत पुनः सत्य जैसा भासने लगेगा, किन्तु उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, क्योंकि हमारी दृष्टि बदल जाएगी-अर्थात उसमें सार्वभौमिक प्रेम या अनन्त प्रेम छलकने लगेगा। इसीलिये मृत्यु के दहलीज पर खड़े होकर, घोरतर विपद में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल में उच्चतम पर्वत शिखर में, गम्भीरतर अरण्य में, चाहे जिस परिस्थिति और परिवेश में क्यों न पड़ जाओ, सर्वदा अपने से कहते रहो, ' मैं वह हूँ, मैं वह हूँ ', दिन-रात बोलते रहो, ' मैं वह हूँ।' ...ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव में विद्द्यमान है, वह जग जायेगी। ' (6/296-97)
पृथ्वी की potentiality (अन्तः शक्ति या विभव) शून्य या 'zero' है,[Why the earth,In electrical point; is zero potential (0 V)? ] इसीलिये वज्र (Thunderbolt) की समस्त विद्युत् को पृथ्वी अपने भीतर सोख लेती है। किसी वस्तु में potentiality (स्थितिज उर्जा या विभव) यदि अधिक होगी तो वह हर समय कम विभव की तरफ जाने की चेष्टा करेगी। किन्तु पृथ्वी शून्य विभव-विशिष्ट है, इसीलिये यहाँ से कहीं और जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इसके विभव में घटना-बढ़ना नहीं होता। उसी प्रकार भगवान (माँ काली ) समस्त कर्म, शक्ति, वस्तु, समय (काल) को भी अपने भीतर खींच (निगल) सकते हैं। इसलिये समस्त कर्मों को उसी बुद्धि से करना होगा। क्योंकि भगवान को देने योग्य हमलोगों के पास कुछ भी नहीं है। भगवान क्या इतने गरीब हैं, कि कर्म करके उनको देंगे ? ' To give unto God '- (भगवान को समर्पित करो ) ऐसा कहना केवल कहने भर के लिये है। वे सभी कुछ के ग्राही (स्वीकारकर्ता) हैं ! इसीलिये समस्त कर्म उन्हीं में चले जाते हैं। 
जैसे किसी टंकी में पम्प लगाकर जल भर दिया जाय, और समस्त नलों को बन्द रखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो जल अब नीचे नहीं उतरेगा। किन्तु यदि कहीं का एक भी नल थोड़ा ढीला रह गया तो पानी अपने आप गिरने लगता है। इसीलिए जबतक वह 'गतिजमें'  या कार्य में परिणत नहीं होता, या जबतक शक्ति (ऊर्जा) समाप्त नहीं होती, उसके नीचे उतरने, चलने या प्रवाहित होने की सम्भावना या रुझान (प्रवृत्ति) बनी रहेगी। जैसे जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर लिया जाय तो उसके फिर और नीचे गिरने की सम्भावना नहीं रहती है। उसी तरह जब तक वह (हमलोगों का 'मैं'-पन या अहंकार) zero potentiality तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके भीतर kinetic या गतिज होने की प्रवणता बनी रहती है। जिस प्रकार जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर लिया जाय, तो फिर उसके और नीचे गिरने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उसी प्रकार जब तक वह (हमारा अहं) zero potentiality तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके भीतर kinetic या गतिज होने की प्रवणता बनी रहती है।
 [ Potential Energy-किसी वस्तु में उसकी अवस्था या स्थिति के कारण कार्य करने की क्षमता को स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जैसे- बाँध बना कर इकट्ठा किए गए पानी की ऊर्जा, घड़ी की चाभी में संचित ऊर्जा, तनी हुई स्प्रिंग या कमानी की ऊर्जा। Kinetic Energy- किसी वस्तु में कार्य करने से गति के कारण जो ऊर्जा आ जाती है, उसे उस वस्तु की गतिज ऊर्जा कहते हैं।]
मनुष्य भी जाने-अनजाने, हर समय  एक ऐसे स्थान पर जाने की चेष्टा कर रहा है, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़े। इसी को मुक्ति कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने के बाद और चलना नहीं पड़ेगा, फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा। समस्त व्यक्ति या वस्तु हर समय उसी अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़ेगा, जहाँ उसके लिये फिर से कर्म करने की सम्भावना नहीं रहती, जहाँ वह बिल्कुल निष्कर्म हो जाता है। 
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में matter (वस्तु) एवं energy (शक्ति) में कोई अंतर नहीं है। पदार्थ का रूपांतरण उर्जा में हो सकता है, उसी तरह उर्जा energy को भी matter या पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। वस्तु की अवस्था में रहने से 'सृष्टि' कहते हैं, उसी समय नानात्व या अनेकता दृष्टिगोचर होती है; और शक्ति (उर्जा) की अवस्था में रहने को 'लय' कहते हैं, उस अवस्था में बहुत्व या नानात्व नहीं रह जाता, सबकुछ एकाकार हो जाता है। समस्त व्यक्ति या वस्तु जब चलते चलते उस परम सत्ता या भगवत वस्तु के साथ एकीभूत हो जाता है, उसी समय मुक्ति या लय होता है।
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश  रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना ! 

 कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है, 
 यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।। 
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
                  मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। 
जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो यहाँ नाना रूप देखते हैं, वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।
सभी मनुष्यों के नाम-रूप अलग अलग हैं, तो रहें ! किन्तु हमें प्रत्येक मनुष्य को -'अनेक' को अपनी आत्मा के रूप में देखना होगा। अलग अलग रूप में (अपना-पराया) नहीं देखना होगा। सभी को आत्मा के रूप में देखना होगा। ऐसा करने से क्या होगा ? सभी को प्रेम किया जा सकेगा। हमलोग तो स्वयं को ही प्यार करते हैं। इसीलिए, सभी को अपनी ही आत्मा के रूप में नहीं देखेंगे, तो किसी से ठीक ठीक प्यार भी नहीं कर पाएंगे। और ठीक ठीक प्यार नहीं कर सकेंगे, तो अनेक को आत्मवस्तु के रूप में देखना भी संभव नहीं होगा। इसलिये खण्डित-प्रेम अर्थात अपने-पराये में बाँट कर प्रेम करने की आदत का त्याग करना होगा। जब तक खण्डित-प्रेम बना रहेगा, तब तक यह मानना होगा कि हम अनेक को एक के रूप में नहीं देख पा रहे हैं। जब तक हमारा प्रेम सार्वभौमिक नहीं हो जाता है, तब तक हम सभी को अपनी आत्मा के रूप में नहीं देख सकेंगे। अतः आध्यात्मिकता के पथ पर हमलोग कितनी दूरी तक आगे बढ़ सके हैं, उसकी कसौटी या test है - सार्वभौमिक (Universal) प्रेम। इसीलिये खण्डित प्रेम को त्याग देना होगा। आज सार्वभौमिक प्रेम की ही सर्वाधिक जरूरत है।
इसीलिये, सत्य, पवित्रता आदि गुण उसी अद्या-शक्ति के static या स्थैतिक पक्ष (aspect) हैं;और जब यही गतिशील या dynamic बन जाते है, तभी प्रेम या love होता है। जिस समय यह अवस्था होगी, अर्थात जब हम सत्य और पवित्रता में स्थित हो जायेंगे, उसी समय भेद-ज्ञान चला जायेगा। इसके फल स्वरूप नानात्व या अनेकता नहीं रहेगी - नहीं, सो नहीं होगा।  नानात्व या अनेकता तो वैसे ही बनी रहेगी- किन्तु हमारी दृष्टि बदल जाएगी। -अर्थात सीमायें टूट जायेंगी (अपने-पराय का भेद चला जायेगा) सबों के प्रति प्रेम या अनन्त प्रेम से हृदय भर उठेगा !
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