जो लोग ऐसा सोचते हैं कि ' परमेश्वर स्रष्टा है '; अर्थात - उन्होंने ही इस विश्वब्रह्माण्ड की रचना की है; तो वे अभी भ्रम (अर्धसत्य ) में ही जी रहे हैं ! ऐसी मान्यता, ऐसे विचार केवल द्वैत बुद्धि रहने के कारण ही उत्पन्न होते हैं। सत्य तो यह कि स्वयं परब्रह्म परमेश्वर (श्रीरामकृष्ण,अल्ला, काली, गॉड जो भी नाम दो ) ही इस जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत के निमित्त (efficient cause या कार्यसाधक कारण) और उपादान कारण ['material cause' जगत-वस्तु (यूनिवर्स-स्टफ़ अरस्तु-चिंतन के अनुसार एक ऐसी वस्तु जो किसी स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ को गठित करता हो ' in Aristotelian thought' --the matter or substance that constitutes a thing.] दोनों हैं। जहाँ एक ओर वे विश्वब्रह्माण्ड के रचयिता हैं, दूसरी ओर वे स्वयं ही इस जगत के उपादान भी हैं, उन्होंने स्वयं के द्वारा ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड को गढ़ा है। कैसे ? जगत ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है इस विषय में मुण्डकोपनिषद १-१-७ में कहा है-
जगत में जैसे ही ' कॉज़ैलिटी' (Causality) कारण-कार्य-सिद्धान्त (योगमाया-जोरन) को जोड़ दिया गया, उसी समय यह सृष्टि अस्तित्व में आ गयी ! किन्तु वे (ब्रह्म) किसी causality-के भीतर नहीं हैं, [अर्थात ब्रह्म कारणता के परे हैं ?[माया शुद्धाद्वैत सिद्धान्तानुसार माया (कॉज़ैलिटी Causality) परब्रह्म की स्वरूपा शक्ति है, अतः आत्ममाया या योगमाया कहा गया है। जिस प्रकार अग्नि से उसकी दाहक शक्ति और सूर्य से उसका प्रकाश भिन्न नही, उसी प्रकार पर ब्रह्म से आत्ममाया भी भिन्न नहीं है। माया ब्रह्म के अधीन है इसलिए ब्रह्म के सत्य स्वरूप को माया कभी आच्छादित नहीं कर सकती है। ] किन्तु यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों - Space (देश), time (काल) और causality निमित्त (कारण-कार्य सिद्धान्त) की सीमा के भीतर है, इसके बाहर कोई जगत नहीं है। इन्हीं तीनों के भीतर वह relative world (सम्बंधयुक्त जगत या सापेक्षिक जगत) है, जिसे सब कुछ के साथ तुलना (मिलान comparison) कर के समझना पड़ता है।
जिस प्रकार सादा का अर्थ काला नहीं है, लाल नहीं है - उसी प्रकार 'नानात्व' जैसा कुछ नहीं है। पुनः जिस प्रकार प्रकाश के कई रंगों का योगफल है सादा। जैसे सोझा (straight) का अर्थ यह हुआ कि वह वक्र (बंका curved) नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक के साथ और एक (दूसरा) लिप्त (फँसा involve) है, या एक के उपर और एक (दूसरे) का अस्तित्व निर्भर करता है। किन्तु वह परब्रह्म परमेश्वर, सत्य या भगवान, उनको हम चाहे जिस नाम से भी क्यों न पुकारें, वे सदैव इस causality -के बाहर रहते हैं। जैसा की स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता में गाया है - ''देशरहित कालरहित नेति नेति विराम जहाँ है!"
(एक ऐसी सत्ता जिसका नाम, रूप या वर्ण कुछ भी नहीं है, जो देश-काल निमित्त से परे है, जिस अवस्था में 'नेति नेति ' का विचार (विवेक-प्रयोग) समाप्त हो जाता है, এক সত্তা, যাঁহার নাম রূপ বর্ণ কিছুই নাই, যিনি দেশকালের অতীত, যেখানে 'নেতি নেতি' বিচার শেষ হইয়াছে।)
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्याम् ओषधयः सम्भवन्ति ।
यथा सतः पुरूषात् केशलोमानि
तथाऽक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥
जिस प्रकार मकड़ी जालेको बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथ्वी में औषधियाँ उत्पन्न होती है और जैसे सजीव पुरुष से केश एवं लोम उत्पन्न होते हे उसी प्रकार उस अक्षर ( ब्रह्म ) से यह विश्व प्रकट होता है ! जिस प्रकार मकड़ी अपने पेट से जाले को बाहर निकाल कर फैलाती है और फिर उस जाले को निगल जाती है, उसी प्रकार वह परब्रह्म परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में अपने अन्दर सूक्ष्मरूप से लीन हुए जड़-चेतन रूप जगत को नाना प्रकार से उत्पन्न करके फैलाते हैं, और प्रलयकाल में पुनः उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। वे ही जगत बने हैं, फिर उनके ही भीतर सब कुछ लय हो रहा है।अर्थात वे एक और आद्वितीय हैं, एक ही अनेक के रूप में दिख रहा है। इसीलिये समस्त कार्य उन्हीं के कार्य हैं; यदि कोई कर्तव्य है, तो वह भी उन्हीं का है। एक दिन हमें नेति नेति विचार (विवेक-प्रयोग) करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि वे ही समस्त घटनाओं के निदेशक (director) हैं। वे अन्तर्यामी हैं, वे हमारे ही भीतर अवस्थित रहकर हमलोगों को चला रहे हैं। यथा पृथिव्याम् ओषधयः सम्भवन्ति ।
यथा सतः पुरूषात् केशलोमानि
तथाऽक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥
जगत में जैसे ही ' कॉज़ैलिटी' (Causality) कारण-कार्य-सिद्धान्त (योगमाया-जोरन) को जोड़ दिया गया, उसी समय यह सृष्टि अस्तित्व में आ गयी ! किन्तु वे (ब्रह्म) किसी causality-के भीतर नहीं हैं, [अर्थात ब्रह्म कारणता के परे हैं ?[माया शुद्धाद्वैत सिद्धान्तानुसार माया (कॉज़ैलिटी Causality) परब्रह्म की स्वरूपा शक्ति है, अतः आत्ममाया या योगमाया कहा गया है। जिस प्रकार अग्नि से उसकी दाहक शक्ति और सूर्य से उसका प्रकाश भिन्न नही, उसी प्रकार पर ब्रह्म से आत्ममाया भी भिन्न नहीं है। माया ब्रह्म के अधीन है इसलिए ब्रह्म के सत्य स्वरूप को माया कभी आच्छादित नहीं कर सकती है। ] किन्तु यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड इन्हीं तीनों - Space (देश), time (काल) और causality निमित्त (कारण-कार्य सिद्धान्त) की सीमा के भीतर है, इसके बाहर कोई जगत नहीं है। इन्हीं तीनों के भीतर वह relative world (सम्बंधयुक्त जगत या सापेक्षिक जगत) है, जिसे सब कुछ के साथ तुलना (मिलान comparison) कर के समझना पड़ता है।
जिस प्रकार सादा का अर्थ काला नहीं है, लाल नहीं है - उसी प्रकार 'नानात्व' जैसा कुछ नहीं है। पुनः जिस प्रकार प्रकाश के कई रंगों का योगफल है सादा। जैसे सोझा (straight) का अर्थ यह हुआ कि वह वक्र (बंका curved) नहीं है। ठीक उसी प्रकार एक के साथ और एक (दूसरा) लिप्त (फँसा involve) है, या एक के उपर और एक (दूसरे) का अस्तित्व निर्भर करता है। किन्तु वह परब्रह्म परमेश्वर, सत्य या भगवान, उनको हम चाहे जिस नाम से भी क्यों न पुकारें, वे सदैव इस causality -के बाहर रहते हैं। जैसा की स्वामी विवेकानन्द ने एक कविता में गाया है - ''देशरहित कालरहित नेति नेति विराम जहाँ है!"
(एक ऐसी सत्ता जिसका नाम, रूप या वर्ण कुछ भी नहीं है, जो देश-काल निमित्त से परे है, जिस अवस्था में 'नेति नेति ' का विचार (विवेक-प्रयोग) समाप्त हो जाता है, এক সত্তা, যাঁহার নাম রূপ বর্ণ কিছুই নাই, যিনি দেশকালের অতীত, যেখানে 'নেতি নেতি' বিচার শেষ হইয়াছে।)
सृष्टि
एक रूप, अरूप-नाम-बरन, अतीत-आगामी-कालहीन,
देशहीन, सर्वहीन, 'नेति नेति' विराम जहाँ।
वहीं से होकर बहे कारण-धारा,
धार की वासना वेश उजाला,
गरज गरज उठता है उसका वारि,
'अहमहमिति' सर्वमिति सर्वक्षण।।
उसी अपार इच्छा-सागर माँझे
अयुत अनन्त तरंगराजे
कितने रूप, कितनी शक्ति,
कितनी गति-स्थिति किसने की गणना।।
कोटि चन्द्र, कोटि तपन
पाते उसी सागर में जन्म,
महाघोर रोर गगन में छाया
किया दश दिक् ज्योति-गगन।।
उसीमें बसे कई जड़-जीव-प्राणी,
सुख-दुःख, जरा, जनम-मरण,
वही सूर्य जिसकी किरण, जो है सूर्य वही किरण।।
বীরবাণী
সৃষ্টি
খাম্বাজ—চৌতাল
একরূপ, অ-রূপ-নাম-বরণ, অতীত-আগামি-কাল-হীন,
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।।
[ भारतीय-संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना गया है-'आत्मानं विद्धि' (अपने आपको जानो) ! अज्ञानता क्या है ? अपने आपको न जानना ही अज्ञानता है। मनुष्य को दूसरों को जानने से पहले स्वयं को गहराई से जानना चाहिए, जो व्यक्ति स्वयं को जान, समझ जायेगा, वहीं अन्यों का ऑकलन ठीक तरीके से कर पायेगा।' अपने आपको जानना ' ही सच्चा ज्ञान है। संसार का प्रत्येक प्राणी ' मैं ' और ' मेरा ' में फंसा हुआ है। मैं प्रेसिडेन्ट हूँ, मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ, मैं नेता हूं, या रिटायरमेन्ट के बाद भी मैं 'भू० पू० आई.ए. एस.' हूँ, यह बंगला-मोटर मेरा,वगैरह-वगैरह है ! मैं डॉक्टर हूं , मैं बिजनेसमैन हूं , मैं वकील हूं , मैं पुरुष या स्त्री हूँ ! ' मैं ' क्या हूं- इसको जानो , समझो। (इमानुएल कांट (१७२४ -१८०४) के मतानुसार बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि ऐंद्रिक सामग्री में इतना रूपांतर कर देती है कि इंद्रियद्वारों में प्रविष्ट होने के पश्चात् जगत् का रूप पहले जैसा नहीं रह जाता। अतएव, उसे बुद्धिगत वस्तु और बाह्य वस्तु में भेद करना पड़ता है। बुद्धि के अनुशासन से मुक्ति वस्तु की उसने "न्यूमेना" और उक्त अनुशासन में जकड़ी हुई वस्तु का "फ़ेनॉमेना" संज्ञा दी। इस अंतर का तात्पर्य यह दिखाना था कि बौद्धिक रूपांतर के पश्चात् सत्य ज्ञेय वस्तु प्रातिभासिक हो जाती है।) यह कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि ' मैं ' ' मैं ' को नहीं जानता। और जो समझ रहा है वह मात्र भ्रम है , अज्ञानता है। अपने सच्चे स्वरूप को जानने से ज्ञान की आभा प्रकट होती है , समस्त बुराइयों का शमन होता है और जीवन को सच्चा सुकून , शांति और परमानंद की प्राप्ति होती है , जीवन सार्थक और सफल हो जाता है।उपनिषदों ने- आत्मावारे श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः। -कहकर और बताया है कि विभिन्न साधनों से तुम अपने आपको पहचानो।] जो व्यक्ति इस सृष्टि रहस्य को जान लेगा वह इस जगत में 'मुक्त-पुरुष' बन कर कार्य करेगा- अर्थात अब वह जो कुछ भी कार्य करेगा उस कार्य को स्वाधीन (unattached) या अनासक्त होकर कार्य करेगा। मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है; उसके लिये अब वैयक्तिक-अस्तित्व (क्षुद्र मैं) जैसा कुछ नहीं रह जाता है। उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा। इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करने से समस्त कर्म स्वतः उनमें समर्पित हो जायेंगे। क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का तो अस्तित्व है ही नहीं !
वास्तव में आध्यात्मिकता किसे कहते हैं ? इस बात पर विश्वास करना कि- 'प्रत्येक मनुष्य का स्वरूप आत्मिक है'- इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना तथा इसी दृढ़ आत्मविश्वास के चलना-बोलना समस्त व्यवहार करना। और जब हम अपने को 'आत्मिक ' कहते हैं, तब उसका अर्थ होता है, देह-मन नश्वर (मरणाधीन) होने से भी, हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जो क्षणिक नहीं है, अजर-अमर-अविनाशी है। इस बात को एक बार अपने अनुभव से जानते ही, हमलोग फिर अपने को कभी छोटा, दुर्बल, असहाय नहीं समझ सकते हैं। तथा, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता जो हमारी निजी सम्पत्ति है, उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न करते ही हमलोग महान, शक्तिशाली, साहसी और निर्भीक बन जाते हैं।
मनुष्य-मात्र के भीतर अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता विद्यमान है, और यही हमलोगों का यथार्थ स्वरूप, दैवत्व या ब्रह्मत्व है। जिस व्यक्ति को हमलोग अत्यन्त नीच, दुष्ट या घोर-पापी समझते हैं, उसके भीतर भी वही 'अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता' ठीक उतने ही परिमाण में विद्यमान है। किसी महापुरुष तथा किसी दुराचारी व्यक्ति में मात्र इतना ही अन्तर है कि महापुरुष के भीतर का देवत्व, आवरण को चीर कर पूर्ण रूप में प्रकाशित हो गया है, और दूसरे के भीतर वह घने आवरण में आवृत है। यह आवरण चाहे जितना भी घना हो, मनुष्य ने कितना भी नीच कर्म क्यों न किया हो, कितना भी गन्दे विचारों वाला हो, उससे उसकी अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व कभी विलुप्त नहीं होता, बल्कि अधिकतर आवृत हो जाता है। जगत में ऐसा कोई नीच कर्म नहीं है, जिसे कर बैठने से मनुष्य हमेशा के लिये नष्ट हो जाता हो। जिस क्षण मनुष्य अपने अन्तर्निहित देवत्व के प्रति सचेत हो जायेगा, परिचित हो जायेगा कि ' ओह! यह 'देवत्व' ही मेरा यथार्थ स्वरूप है ' - ऐसा बोध जिस क्षण जाग्रत हो जायेगा, उसी क्षण से उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति होने लगेगी।
पुरुष मानो अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है. इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुंदर कहानी है : किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बन कर कीचड़ में रहते थे, उनकी एक शूकरी थी-उस शूकरी से उनके बहुत से बच्चे पैदा हुए थे. वे बड़े सुख से (नाली में पालक-पनीर खोजते हुए ) समय बिताते थे. कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले-' आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं, फिर आप यहाँ क्यों हैं ?
परन्तु इन्द्र ने उत्तर दिया, ' मैं बड़े मजे में हूँ. मुझे स्वर्ग की प्रवाह नहीं; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए. देवगण तो यह सुनकर अवाक् हो गये, उन्हें कुछ सूझ न पड़ा. कुछ दिनों बाद उन्होंने ...एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालने का संकल्प कर लिया. जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगे. तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर-देह को भी चिर डाला. तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, ' मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !'
पुरुष (आत्मा ) भी बस, इसी प्रकार प्रकृति (मन) के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है. किन्तु वह (पुरुष) यहाँ तक स्वरूप-भ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है। इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है।
यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार ! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट पड़ता है. तुम कभी किसी नियम (जन्म-मृत्यु) से बद्ध नहीं थे. योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष (आत्मा) किस प्रकार इस मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुःखी समझने लगता है, तथा अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय भी है. हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी.इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है.
[साधनपाद :१८ ' प्रकाश-क्रिया-स्थितिशीलं ' भुतेन्द्रियात्मकं भोगा पवर्गार्थं दृश्यम ।।' ]
यह दृश्यमान जगत रूपी चित्र मन का ही कार्य है, परिवर्तनशील जगत के 'प्रकाश-कार्य-स्थिति ' जड़ हैं, इस बात को आत्मा अपने अनुभव से जानकर मुक्त हो सके यही इन दृश्यों की उपयोगिता है. अतएव, पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र-सखी सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो. यदि हर हाल में तुम्हें अपना स्वरूप याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इन सब बन्धनों के पार हो जाओगे. यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हम इन अनुभवों को भुगतने के लिए बाध्य हैं. यह सुख-दुःख का अनुभव ही -हमारा एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे हमें क्रमशः एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं. तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है. और इसी तुच्छता के कारण जगत चित्रवत होकर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है. सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें.(१/१६३-६५)]
स्वामी विवेकानन्द के समग्र सन्देशों का प्रधान राग है - ' हे मानव, अपने अन्तर्निहित देवस्वरूप के प्रति सचेत हो जाओ, उसे अभिव्यक्त करने के मार्ग पर अभी से ही चलना प्रारंभ कर दो, और उसको पूर्ण रूप से विकसित करने से पहले विश्राम मत लो !' हमलोगों के प्रत्येक वचन में, कार्य में और विचार में यदि इस देवत्व की अभिव्यक्ति होने लगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने देवत्व के भाव को चरित्रगत कर लिया है। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय, हमलोग मन-वचन-कर्म से प्रत्येक चेष्टा इस प्रकार करेंगे मानो हम अभी और इसी समय उनके अन्तर्निहित दैत्व को हम साक्षात् देख रहे हों- दूसरों में अन्तर्निहित दैवत्व के प्रति सदैव सचेत होकर व्यहार करने से -अपना दैवत्व अभिव्यक्त होने लगता है। (सदैव श्रीकृष्ण के समान मुस्कुराते हुए) विवेकानन्द ने के कई छोटे छोटे महावाक्यों में अपना उपदेश दिया है,
जैसे -- ' कर्म को पूजा में रूपान्तरित करो।', 'अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति (manifestation) का नाम शिक्षा है ' , अन्तर्निहित ईश्वरत्व (श्रीरामकृष्णत्व Divinity) की अभिव्यक्ति का नाम धर्म है ', ' शिवज्ञान से जीव की सेवा करो', ' बनो और बनाओ ' --आदि आदि ! किन्तु उनके समस्त महावाक्यों का लक्ष्य एक ही है। उनकी दृष्टि में-'सच्ची शिक्षा और सच्चे धर्म में कोई अन्तर नहीं '। क्योंकि पूर्णता (Perfection) और ईश्वर ( Divinity) एक ही वस्तु है। 'मनुष्य स्वरूपतः अनन्त शक्ति-ज्ञान-पवित्रता की मूर्ति है' - इसी दृष्टि से देखकर ही उन्होंने मानव-मात्र को "अमृतस्य पुत्राः -- हे, अमृत के सन्तान !" -कहकर पुकारा था।
यदि हमलोग अपने देश के दुःख-कष्ट को दूर हटाना चाहते हों, तो सम्पूर्ण देश में ऐसी अध्यात्मिकता को जाग्रत करने वाले आन्दोलन को फैला देना होगा, इसका अर्थ है, सच्चे अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मिक-बुद्धि (मैं केवल शरीर मन नहीं, आत्मा हूँ !) को जागृत करना होगा। मनुष्य में आस्तिक्य-बुद्धि का उन्मेष करना होगा।
मैं केवल 'देह-मन ' की समष्टि मात्र नहीं हूँ, मेरे भीतर अनन्त शक्ति, ज्ञान और पवित्रता है- इस बोध को ही सच्ची आस्तिकता या आस्तिक्य-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य बनना कहते हैं। इसको ही श्रद्धा कहते हैं; इस श्रद्धा या आस्तिक्य-बुद्धि को जागृत करना ही आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है। जब तक मनुष्य में यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान (awakening) नहीं किया जाय,वह मनुष्य मोहनिद्रा से जाग नहीं सकता, और उसका कोई विकास होना भी संभव नहीं है। यदि सांसारिक उन्नति करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भी इसी आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। इसीलिये स्वामीजी ने सम्पूर्ण देश को आध्यात्मिकता के ज्वार से प्लावित कर देने का आह्वान किया है। किन्तु यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता-कोई ऐसी वस्तु नहीं है,जिसे किसी व्यक्ति को दे दी जा सकती हो। केवल इसका सन्देश सुनाया जा सकता है, स्वामीजी ने इसीलिये इस सन्देश को सुनाया है।
वे कहते हैं- " अपने आप से कहते रहो, मैं वह हूँ-I am He ! I am He! ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति निहित है, वह व्यक्त हो उठेगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। " (6/297) हममें से पत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर इसी श्रद्धा, विश्वास और आस्तिक्य-बुद्धि को जगाना होगा। जो कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति है !! और जैसे ही डंके की चोट पर दूसरों को भी सुनाने लगेगा, वैसे ही उसकी अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत हो उठेगी !
कठोपनिषद (२.३. १२) में यमराज-नचिकेता से यही बात कह रहे हैं- ' एतत् वै तत्'- नचिकेता ! हे नचिकेता यही वह परमात्म-तत्व है, जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।' 'तत् अस्ति '- इति ब्रुवतः वह अवश्य है ! 'अस्तिति ध्रुवतः '- निःसन्देह या निश्चित रूप से मेरे भीतर है, जो व्यक्ति इस बात को डंके की चोट पर कहता है, उसी के भीतर यह शक्ति प्रकट होती है ! ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त जो हमेशा 'म्याऊं म्याऊं' करता रहता हो; उसे वह शक्ति भला कैसे प्राप्त हो सकती है ?
वह परब्रह्म परमात्मा वाणी आदि कर्मोन्द्रियों से, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों से और मन-बुद्धिरूप अन्तःकरण से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। परन्तु वह है अवश्य और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखने वाले को वह अवश्य मिलता है, किन्तु जो इस बात को स्वीकार ही नहीं करता- उसको वह केसे मिल सकती है? अतः हमें दृढ़ निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए।
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को -वह कैसे प्राप्त हो सकता है? जो व्यक्ति इस बात को डंके की चोट पर कहता है कि -'अस्तिति ध्रुवतः '- निःसन्देह या निश्चित रूप से मेरे भीतर है, उसी के पास यह शक्ति रहती है। जो व्यक्ति ऐसा कभी कहता ही नहीं, ' अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' - उसको यह उपलब्धी कहाँ से होगी ?
अपनी उस अन्तर्निहित दैवत्व (आस्तिक्य-बुद्धि) को वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह अवश्य है ! और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले को वह अवश्य मिलता है ! ' इस बात को जो नहीं कहता, अर्थात जिसका दृढ़ विश्वास नहीं है, उसको वह कैसे मिल सकता है ? और जैसे ही किसी व्यक्ति को इसकी उपलब्धी हो जाएगी, उस अनुभूति के बाद- उसके आँखों और चेहरे की रंगत बदल जाएगी, देह-मन में चैतन्य (consciousness) में विकसित होता रहेगा, शक्ति आएगी, और वह सभी बाधाओं का अतिक्रमण करके अपनी दुर्दशा का अन्त कर देगा।
अपने जीवन को गढने के लिये, या देश का निर्माण करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। शक्ति बाहर में नहीं है। समस्त शक्ति हमलोगों के भीतर ही है। ' पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। अव्यक्त रूप से पशु के भीतर मनुष्य, मनुष्य के भीतर देवत्व विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।'… जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है।
और व्युत्थान के बाद विभिन्न नाम-रूपों वाला जगत पुनः सत्य जैसा भासने लगेगा, किन्तु उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, क्योंकि हमारी दृष्टि बदल जाएगी-अर्थात उसमें सार्वभौमिक प्रेम या अनन्त प्रेम छलकने लगेगा। इसीलिये मृत्यु के दहलीज पर खड़े होकर, घोरतर विपद में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल में उच्चतम पर्वत शिखर में, गम्भीरतर अरण्य में, चाहे जिस परिस्थिति और परिवेश में क्यों न पड़ जाओ, सर्वदा अपने से कहते रहो, ' मैं वह हूँ, मैं वह हूँ ', दिन-रात बोलते रहो, ' मैं वह हूँ।' ...ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव में विद्द्यमान है, वह जग जायेगी। ' (6/296-97)
সৃষ্টি
খাম্বাজ—চৌতাল
একরূপ, অ-রূপ-নাম-বরণ, অতীত-আগামি-কাল-হীন,
দেশহীন, সর্বহীন, 'নেতি নেতি' বিরাম যথায় !!১
সেথা হ'তে বহে কারণ-ধারা
ধরিয়ে বাসনা বেশ উজালা,
গরজি গরজি উঠে তার বারি,
'অহমহমিতি' সর্বক্ষণ ।।
[ भारतीय-संस्कृति में सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना गया है-'आत्मानं विद्धि' (अपने आपको जानो) ! अज्ञानता क्या है ? अपने आपको न जानना ही अज्ञानता है। मनुष्य को दूसरों को जानने से पहले स्वयं को गहराई से जानना चाहिए, जो व्यक्ति स्वयं को जान, समझ जायेगा, वहीं अन्यों का ऑकलन ठीक तरीके से कर पायेगा।' अपने आपको जानना ' ही सच्चा ज्ञान है। संसार का प्रत्येक प्राणी ' मैं ' और ' मेरा ' में फंसा हुआ है। मैं प्रेसिडेन्ट हूँ, मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ, मैं नेता हूं, या रिटायरमेन्ट के बाद भी मैं 'भू० पू० आई.ए. एस.' हूँ, यह बंगला-मोटर मेरा,वगैरह-वगैरह है ! मैं डॉक्टर हूं , मैं बिजनेसमैन हूं , मैं वकील हूं , मैं पुरुष या स्त्री हूँ ! ' मैं ' क्या हूं- इसको जानो , समझो। (इमानुएल कांट (१७२४ -१८०४) के मतानुसार बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि ऐंद्रिक सामग्री में इतना रूपांतर कर देती है कि इंद्रियद्वारों में प्रविष्ट होने के पश्चात् जगत् का रूप पहले जैसा नहीं रह जाता। अतएव, उसे बुद्धिगत वस्तु और बाह्य वस्तु में भेद करना पड़ता है। बुद्धि के अनुशासन से मुक्ति वस्तु की उसने "न्यूमेना" और उक्त अनुशासन में जकड़ी हुई वस्तु का "फ़ेनॉमेना" संज्ञा दी। इस अंतर का तात्पर्य यह दिखाना था कि बौद्धिक रूपांतर के पश्चात् सत्य ज्ञेय वस्तु प्रातिभासिक हो जाती है।) यह कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि ' मैं ' ' मैं ' को नहीं जानता। और जो समझ रहा है वह मात्र भ्रम है , अज्ञानता है। अपने सच्चे स्वरूप को जानने से ज्ञान की आभा प्रकट होती है , समस्त बुराइयों का शमन होता है और जीवन को सच्चा सुकून , शांति और परमानंद की प्राप्ति होती है , जीवन सार्थक और सफल हो जाता है।उपनिषदों ने- आत्मावारे श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः। -कहकर और बताया है कि विभिन्न साधनों से तुम अपने आपको पहचानो।] जो व्यक्ति इस सृष्टि रहस्य को जान लेगा वह इस जगत में 'मुक्त-पुरुष' बन कर कार्य करेगा- अर्थात अब वह जो कुछ भी कार्य करेगा उस कार्य को स्वाधीन (unattached) या अनासक्त होकर कार्य करेगा। मुक्त पुरुष वह है, जिसे इसी जीवन में ईश्वर और जगत के साथ एकात्मबोध हो चुका है; उसके लिये अब वैयक्तिक-अस्तित्व (क्षुद्र मैं) जैसा कुछ नहीं रह जाता है। उसको सारे नाम-रूप उसी एक परब्रह्म परमेश्वर के ही विविध नाम-रूप अनुभव होंगे,अब उसमें 'मेरा ' कहने लायक कुछ नहीं बचेगा। इसीलिये अब वह जगत के समस्त कर्मों को अनासक्त होकर करने में समर्थ बन जायेगा। सबकुछ 'तूँ और तेरा ' है, सभी कर्म ' तेरे' कर्म हैं- ऐसी बुद्धि से कार्य कर सकेगा। इस प्रकार अनासक्त होकर कर्म करने से समस्त कर्म स्वतः उनमें समर्पित हो जायेंगे। क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का तो अस्तित्व है ही नहीं !
वास्तव में आध्यात्मिकता किसे कहते हैं ? इस बात पर विश्वास करना कि- 'प्रत्येक मनुष्य का स्वरूप आत्मिक है'- इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना तथा इसी दृढ़ आत्मविश्वास के चलना-बोलना समस्त व्यवहार करना। और जब हम अपने को 'आत्मिक ' कहते हैं, तब उसका अर्थ होता है, देह-मन नश्वर (मरणाधीन) होने से भी, हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जो क्षणिक नहीं है, अजर-अमर-अविनाशी है। इस बात को एक बार अपने अनुभव से जानते ही, हमलोग फिर अपने को कभी छोटा, दुर्बल, असहाय नहीं समझ सकते हैं। तथा, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता जो हमारी निजी सम्पत्ति है, उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न करते ही हमलोग महान, शक्तिशाली, साहसी और निर्भीक बन जाते हैं।
मनुष्य-मात्र के भीतर अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता विद्यमान है, और यही हमलोगों का यथार्थ स्वरूप, दैवत्व या ब्रह्मत्व है। जिस व्यक्ति को हमलोग अत्यन्त नीच, दुष्ट या घोर-पापी समझते हैं, उसके भीतर भी वही 'अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता' ठीक उतने ही परिमाण में विद्यमान है। किसी महापुरुष तथा किसी दुराचारी व्यक्ति में मात्र इतना ही अन्तर है कि महापुरुष के भीतर का देवत्व, आवरण को चीर कर पूर्ण रूप में प्रकाशित हो गया है, और दूसरे के भीतर वह घने आवरण में आवृत है। यह आवरण चाहे जितना भी घना हो, मनुष्य ने कितना भी नीच कर्म क्यों न किया हो, कितना भी गन्दे विचारों वाला हो, उससे उसकी अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व कभी विलुप्त नहीं होता, बल्कि अधिकतर आवृत हो जाता है। जगत में ऐसा कोई नीच कर्म नहीं है, जिसे कर बैठने से मनुष्य हमेशा के लिये नष्ट हो जाता हो। जिस क्षण मनुष्य अपने अन्तर्निहित देवत्व के प्रति सचेत हो जायेगा, परिचित हो जायेगा कि ' ओह! यह 'देवत्व' ही मेरा यथार्थ स्वरूप है ' - ऐसा बोध जिस क्षण जाग्रत हो जायेगा, उसी क्षण से उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति होने लगेगी।
पुरुष मानो अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है. इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुंदर कहानी है : किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बन कर कीचड़ में रहते थे, उनकी एक शूकरी थी-उस शूकरी से उनके बहुत से बच्चे पैदा हुए थे. वे बड़े सुख से (नाली में पालक-पनीर खोजते हुए ) समय बिताते थे. कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले-' आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं, फिर आप यहाँ क्यों हैं ?
परन्तु इन्द्र ने उत्तर दिया, ' मैं बड़े मजे में हूँ. मुझे स्वर्ग की प्रवाह नहीं; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए. देवगण तो यह सुनकर अवाक् हो गये, उन्हें कुछ सूझ न पड़ा. कुछ दिनों बाद उन्होंने ...एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालने का संकल्प कर लिया. जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगे. तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर-देह को भी चिर डाला. तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, ' मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !'
पुरुष (आत्मा ) भी बस, इसी प्रकार प्रकृति (मन) के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है. किन्तु वह (पुरुष) यहाँ तक स्वरूप-भ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है। इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है।
यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार ! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट पड़ता है. तुम कभी किसी नियम (जन्म-मृत्यु) से बद्ध नहीं थे. योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष (आत्मा) किस प्रकार इस मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुःखी समझने लगता है, तथा अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय भी है. हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी.इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है.
[साधनपाद :१८ ' प्रकाश-क्रिया-स्थितिशीलं ' भुतेन्द्रियात्मकं भोगा पवर्गार्थं दृश्यम ।।' ]
यह दृश्यमान जगत रूपी चित्र मन का ही कार्य है, परिवर्तनशील जगत के 'प्रकाश-कार्य-स्थिति ' जड़ हैं, इस बात को आत्मा अपने अनुभव से जानकर मुक्त हो सके यही इन दृश्यों की उपयोगिता है. अतएव, पति-पत्नी सम्बन्धी, मित्र-सखी सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो. यदि हर हाल में तुम्हें अपना स्वरूप याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इन सब बन्धनों के पार हो जाओगे. यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हम इन अनुभवों को भुगतने के लिए बाध्य हैं. यह सुख-दुःख का अनुभव ही -हमारा एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे हमें क्रमशः एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं. तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है. और इसी तुच्छता के कारण जगत चित्रवत होकर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है. सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें.(१/१६३-६५)]
स्वामी विवेकानन्द के समग्र सन्देशों का प्रधान राग है - ' हे मानव, अपने अन्तर्निहित देवस्वरूप के प्रति सचेत हो जाओ, उसे अभिव्यक्त करने के मार्ग पर अभी से ही चलना प्रारंभ कर दो, और उसको पूर्ण रूप से विकसित करने से पहले विश्राम मत लो !' हमलोगों के प्रत्येक वचन में, कार्य में और विचार में यदि इस देवत्व की अभिव्यक्ति होने लगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने देवत्व के भाव को चरित्रगत कर लिया है। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय, हमलोग मन-वचन-कर्म से प्रत्येक चेष्टा इस प्रकार करेंगे मानो हम अभी और इसी समय उनके अन्तर्निहित दैत्व को हम साक्षात् देख रहे हों- दूसरों में अन्तर्निहित दैवत्व के प्रति सदैव सचेत होकर व्यहार करने से -अपना दैवत्व अभिव्यक्त होने लगता है। (सदैव श्रीकृष्ण के समान मुस्कुराते हुए) विवेकानन्द ने के कई छोटे छोटे महावाक्यों में अपना उपदेश दिया है,
जैसे -- ' कर्म को पूजा में रूपान्तरित करो।', 'अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति (manifestation) का नाम शिक्षा है ' , अन्तर्निहित ईश्वरत्व (श्रीरामकृष्णत्व Divinity) की अभिव्यक्ति का नाम धर्म है ', ' शिवज्ञान से जीव की सेवा करो', ' बनो और बनाओ ' --आदि आदि ! किन्तु उनके समस्त महावाक्यों का लक्ष्य एक ही है। उनकी दृष्टि में-'सच्ची शिक्षा और सच्चे धर्म में कोई अन्तर नहीं '। क्योंकि पूर्णता (Perfection) और ईश्वर ( Divinity) एक ही वस्तु है। 'मनुष्य स्वरूपतः अनन्त शक्ति-ज्ञान-पवित्रता की मूर्ति है' - इसी दृष्टि से देखकर ही उन्होंने मानव-मात्र को "अमृतस्य पुत्राः -- हे, अमृत के सन्तान !" -कहकर पुकारा था।
यदि हमलोग अपने देश के दुःख-कष्ट को दूर हटाना चाहते हों, तो सम्पूर्ण देश में ऐसी अध्यात्मिकता को जाग्रत करने वाले आन्दोलन को फैला देना होगा, इसका अर्थ है, सच्चे अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मिक-बुद्धि (मैं केवल शरीर मन नहीं, आत्मा हूँ !) को जागृत करना होगा। मनुष्य में आस्तिक्य-बुद्धि का उन्मेष करना होगा।
मैं केवल 'देह-मन ' की समष्टि मात्र नहीं हूँ, मेरे भीतर अनन्त शक्ति, ज्ञान और पवित्रता है- इस बोध को ही सच्ची आस्तिकता या आस्तिक्य-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य बनना कहते हैं। इसको ही श्रद्धा कहते हैं; इस श्रद्धा या आस्तिक्य-बुद्धि को जागृत करना ही आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है। जब तक मनुष्य में यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान (awakening) नहीं किया जाय,वह मनुष्य मोहनिद्रा से जाग नहीं सकता, और उसका कोई विकास होना भी संभव नहीं है। यदि सांसारिक उन्नति करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भी इसी आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। इसीलिये स्वामीजी ने सम्पूर्ण देश को आध्यात्मिकता के ज्वार से प्लावित कर देने का आह्वान किया है। किन्तु यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता-कोई ऐसी वस्तु नहीं है,जिसे किसी व्यक्ति को दे दी जा सकती हो। केवल इसका सन्देश सुनाया जा सकता है, स्वामीजी ने इसीलिये इस सन्देश को सुनाया है।
वे कहते हैं- " अपने आप से कहते रहो, मैं वह हूँ-I am He ! I am He! ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति निहित है, वह व्यक्त हो उठेगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। " (6/297) हममें से पत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर इसी श्रद्धा, विश्वास और आस्तिक्य-बुद्धि को जगाना होगा। जो कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति है !! और जैसे ही डंके की चोट पर दूसरों को भी सुनाने लगेगा, वैसे ही उसकी अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत हो उठेगी !
कठोपनिषद (२.३. १२) में यमराज-नचिकेता से यही बात कह रहे हैं- ' एतत् वै तत्'- नचिकेता ! हे नचिकेता यही वह परमात्म-तत्व है, जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।' 'तत् अस्ति '- इति ब्रुवतः वह अवश्य है ! 'अस्तिति ध्रुवतः '- निःसन्देह या निश्चित रूप से मेरे भीतर है, जो व्यक्ति इस बात को डंके की चोट पर कहता है, उसी के भीतर यह शक्ति प्रकट होती है ! ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त जो हमेशा 'म्याऊं म्याऊं' करता रहता हो; उसे वह शक्ति भला कैसे प्राप्त हो सकती है ?
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।।
वह परब्रह्म परमात्मा वाणी आदि कर्मोन्द्रियों से, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों से और मन-बुद्धिरूप अन्तःकरण से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। परन्तु वह है अवश्य और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखने वाले को वह अवश्य मिलता है, किन्तु जो इस बात को स्वीकार ही नहीं करता- उसको वह केसे मिल सकती है? अतः हमें दृढ़ निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए।
'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को -वह कैसे प्राप्त हो सकता है? जो व्यक्ति इस बात को डंके की चोट पर कहता है कि -'अस्तिति ध्रुवतः '- निःसन्देह या निश्चित रूप से मेरे भीतर है, उसी के पास यह शक्ति रहती है। जो व्यक्ति ऐसा कभी कहता ही नहीं, ' अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' - उसको यह उपलब्धी कहाँ से होगी ?
अपनी उस अन्तर्निहित दैवत्व (आस्तिक्य-बुद्धि) को वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह अवश्य है ! और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले को वह अवश्य मिलता है ! ' इस बात को जो नहीं कहता, अर्थात जिसका दृढ़ विश्वास नहीं है, उसको वह कैसे मिल सकता है ? और जैसे ही किसी व्यक्ति को इसकी उपलब्धी हो जाएगी, उस अनुभूति के बाद- उसके आँखों और चेहरे की रंगत बदल जाएगी, देह-मन में चैतन्य (consciousness) में विकसित होता रहेगा, शक्ति आएगी, और वह सभी बाधाओं का अतिक्रमण करके अपनी दुर्दशा का अन्त कर देगा।
अपने जीवन को गढने के लिये, या देश का निर्माण करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। शक्ति बाहर में नहीं है। समस्त शक्ति हमलोगों के भीतर ही है। ' पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। अव्यक्त रूप से पशु के भीतर मनुष्य, मनुष्य के भीतर देवत्व विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।'… जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है।
और व्युत्थान के बाद विभिन्न नाम-रूपों वाला जगत पुनः सत्य जैसा भासने लगेगा, किन्तु उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, क्योंकि हमारी दृष्टि बदल जाएगी-अर्थात उसमें सार्वभौमिक प्रेम या अनन्त प्रेम छलकने लगेगा। इसीलिये मृत्यु के दहलीज पर खड़े होकर, घोरतर विपद में, रणक्षेत्र में, समुद्रतल में उच्चतम पर्वत शिखर में, गम्भीरतर अरण्य में, चाहे जिस परिस्थिति और परिवेश में क्यों न पड़ जाओ, सर्वदा अपने से कहते रहो, ' मैं वह हूँ, मैं वह हूँ ', दिन-रात बोलते रहो, ' मैं वह हूँ।' ...ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़ा-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति अवस्थित है, वह प्रकाशित हो जाएगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव में विद्द्यमान है, वह जग जायेगी। ' (6/296-97)
पृथ्वी
की potentiality (अन्तः शक्ति या विभव) शून्य या 'zero' है,[Why the
earth,In electrical point; is zero potential (0 V)? ] इसीलिये वज्र
(Thunderbolt) की समस्त विद्युत् को पृथ्वी अपने भीतर सोख लेती है। किसी
वस्तु में potentiality (स्थितिज उर्जा या विभव) यदि अधिक होगी तो वह हर
समय कम विभव की तरफ जाने की चेष्टा करेगी। किन्तु पृथ्वी शून्य
विभव-विशिष्ट है, इसीलिये यहाँ से कहीं और जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
इसके विभव में घटना-बढ़ना नहीं होता। उसी प्रकार भगवान (माँ काली ) समस्त
कर्म, शक्ति, वस्तु, समय (काल) को भी अपने भीतर खींच (निगल) सकते हैं।
इसलिये समस्त कर्मों को उसी बुद्धि से करना होगा। क्योंकि भगवान को देने
योग्य हमलोगों के पास कुछ भी नहीं है। भगवान क्या इतने गरीब हैं, कि कर्म
करके उनको देंगे ? ' To give unto God '- (भगवान को समर्पित करो ) ऐसा कहना
केवल कहने भर के लिये है। वे सभी कुछ के ग्राही (स्वीकारकर्ता) हैं !
इसीलिये समस्त कर्म उन्हीं में चले जाते हैं।
जैसे
किसी टंकी में पम्प लगाकर जल भर दिया जाय, और समस्त नलों को बन्द रखा जाय
तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो जल अब नीचे नहीं उतरेगा। किन्तु यदि कहीं का
एक भी नल थोड़ा ढीला रह गया तो पानी अपने आप गिरने लगता है। इसीलिए जबतक वह
'गतिजमें' या कार्य में परिणत नहीं होता, या जबतक शक्ति (ऊर्जा) समाप्त
नहीं होती, उसके नीचे उतरने, चलने या प्रवाहित होने की सम्भावना या रुझान
(प्रवृत्ति) बनी रहेगी। जैसे जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर
लिया जाय तो उसके फिर और नीचे गिरने की सम्भावना नहीं रहती है। उसी तरह जब
तक वह (हमलोगों का 'मैं'-पन या अहंकार) zero potentiality तक नहीं पहुँच
जाता, तब तक उसके भीतर kinetic या गतिज होने की प्रवणता बनी रहती है। जिस
प्रकार जल को यदि सबसे निचले स्थान में संचित कर लिया जाय, तो फिर उसके और
नीचे गिरने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उसी प्रकार जब तक वह (हमारा अहं)
zero potentiality तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसके भीतर kinetic या गतिज
होने की प्रवणता बनी रहती है।
[
Potential Energy-किसी वस्तु में उसकी अवस्था या स्थिति के कारण कार्य
करने की क्षमता को स्थितिज ऊर्जा कहते हैं। जैसे- बाँध बना कर इकट्ठा किए
गए पानी की ऊर्जा, घड़ी की चाभी में संचित ऊर्जा, तनी हुई स्प्रिंग या
कमानी की ऊर्जा। Kinetic Energy- किसी वस्तु में कार्य करने से गति के कारण
जो ऊर्जा आ जाती है, उसे उस वस्तु की गतिज ऊर्जा कहते हैं।]
मनुष्य भी जाने-अनजाने, हर समय एक ऐसे स्थान पर जाने की चेष्टा कर रहा है, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़े। इसी को मुक्ति कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने के बाद और चलना नहीं पड़ेगा, फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा। समस्त व्यक्ति या वस्तु हर समय उसी अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़ेगा, जहाँ उसके लिये फिर से कर्म करने की सम्भावना नहीं रहती, जहाँ वह बिल्कुल निष्कर्म हो जाता है।
मनुष्य भी जाने-अनजाने, हर समय एक ऐसे स्थान पर जाने की चेष्टा कर रहा है, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़े। इसी को मुक्ति कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने के बाद और चलना नहीं पड़ेगा, फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा। समस्त व्यक्ति या वस्तु हर समय उसी अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, जहाँ से उसको पुनः प्रवाहित नहीं होना पड़ेगा, जहाँ उसके लिये फिर से कर्म करने की सम्भावना नहीं रहती, जहाँ वह बिल्कुल निष्कर्म हो जाता है।
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में matter (वस्तु) एवं energy (शक्ति)
में कोई अंतर नहीं है। पदार्थ का रूपांतरण उर्जा में हो सकता है, उसी तरह
उर्जा energy को भी matter या पदार्थ में रूपान्तरित किया जा सकता है। वस्तु की अवस्था में रहने से 'सृष्टि' कहते हैं, उसी समय नानात्व या अनेकता दृष्टिगोचर होती है; और शक्ति (उर्जा) की अवस्था में रहने को 'लय' कहते हैं, उस अवस्था में बहुत्व या नानात्व नहीं रह जाता, सबकुछ एकाकार हो जाता है। समस्त व्यक्ति या वस्तु जब चलते चलते उस परम सत्ता या भगवत वस्तु के साथ एकीभूत हो जाता है, उसी समय मुक्ति या लय होता है।
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना !
कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है,
उपरी तौर से जो विभिन्न प्रकार के मनोरम रूप और दृश्य दिखाई पड़ते हैं, हमलोग उन्हीं को लेकर मदहोश रहते हैं। किन्तु वास्तव में वे अलग अलग (M/F नाना) नाम-रूप नहीं हैं, सब एक का ही बहुरूप है, तथा सभी क्रमशः लय की ओर भागे चले जा रहे हैं। कालान्तर में कोई भी रूप मन को मदहोश बना देने वाला नहीं रहेगा, नानात्व नहीं रहेगा, सब एक हो जायेगा। इसीलिये जो वस्तु अनेक नहीं बना है, जिसमें नानात्व नहीं है, उसको उस प्रकार से देखना पापकर्म (Sin) या अपराध है। और अपराध करने से क्या होता है ? मुक्ति नहीं मिलती, सजा मिलती है, दण्ड भोगना पड़ता है। कैसी सजा मिलती है? उसे बार बार मृत्यु से मृत्यु में जाना पड़ता है। यदि हमलोग इस मृत्युदण्ड से बचना चाहते हों, सजा से मुक्ति पाना चाहते हों, तो उसका उपाय है - एक को देखना !
कठोपनिषद: २ /१ /१०-११ में कहा गया है,
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
जो
परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा
अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो यहाँ नाना रूप देखते हैं, वे बारम्बार
मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों
में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः
मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।
सभी मनुष्यों के नाम-रूप अलग अलग हैं, तो रहें ! किन्तु हमें प्रत्येक मनुष्य को -'अनेक' को अपनी
आत्मा के रूप में देखना होगा। अलग अलग रूप में (अपना-पराया) नहीं देखना
होगा। सभी को आत्मा के रूप में देखना होगा। ऐसा करने से क्या होगा ? सभी को
प्रेम किया जा सकेगा। हमलोग तो स्वयं को ही प्यार करते हैं। इसीलिए, सभी
को अपनी ही आत्मा के रूप में नहीं देखेंगे, तो किसी से ठीक ठीक प्यार भी
नहीं कर पाएंगे। और ठीक ठीक प्यार नहीं कर सकेंगे, तो अनेक को आत्मवस्तु के
रूप में देखना भी संभव नहीं होगा। इसलिये खण्डित-प्रेम अर्थात अपने-पराये
में बाँट कर प्रेम करने की आदत का त्याग करना होगा। जब तक खण्डित-प्रेम बना
रहेगा, तब तक यह मानना होगा कि हम अनेक को एक के रूप में नहीं देख पा रहे
हैं। जब तक हमारा प्रेम सार्वभौमिक नहीं हो जाता है, तब तक हम सभी को अपनी
आत्मा के रूप में नहीं देख सकेंगे। अतः आध्यात्मिकता के पथ पर हमलोग कितनी
दूरी तक आगे बढ़ सके हैं, उसकी कसौटी या test है - सार्वभौमिक (Universal)
प्रेम। इसीलिये खण्डित प्रेम को त्याग देना होगा। आज सार्वभौमिक प्रेम की
ही सर्वाधिक जरूरत है।
इसीलिये,
सत्य, पवित्रता आदि गुण उसी अद्या-शक्ति के static या स्थैतिक पक्ष
(aspect) हैं;और जब यही गतिशील या dynamic बन जाते है, तभी प्रेम या love
होता है। जिस समय यह अवस्था होगी, अर्थात जब हम सत्य और पवित्रता में स्थित
हो जायेंगे, उसी समय भेद-ज्ञान चला जायेगा। इसके फल स्वरूप नानात्व या
अनेकता नहीं रहेगी - नहीं, सो नहीं होगा। नानात्व या अनेकता तो वैसे ही
बनी रहेगी- किन्तु हमारी दृष्टि बदल जाएगी। -अर्थात सीमायें टूट जायेंगी
(अपने-पराय का भेद चला जायेगा) सबों के प्रति प्रेम या अनन्त प्रेम से हृदय
भर उठेगा !
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