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शनिवार, 29 नवंबर 2014

१२. 'मन को देखना ' १३.' मन को आदेश देना ' १४. "मनः संयोग" [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

१२. मन को देखना 
(द्रष्टामन की सहायता से दृश्यमन की गतिविधियों का पर्यवेक्षण)
             अब वास्तविक कार्य का प्रारम्भ होता है। और वह है अपने मन के रूबरू होना अर्थात मन के आमने-सामने होना। षडरिपु के कारण अपने मन की अतिरिक्त चंचलता पर विवेक-सामर्थ्य का अंकुश लगाकर  को अनुशासित करने के लिये 'यम-नियम' का पालन (24 X 7) करके पहले उसको थोड़ा शान्त और स्थिर कर लेना होगा।  फिर उसकी बिखरी हुई शक्ति-रश्मियों को संघटित कर, उन्हें एकाग्र (तीक्ष्ण या नुकीला) बनाकर, उसे किसी वस्तु या विषय में केन्द्रीभूत कर उसी स्थान में रोके रखने का कौशल सीखना होगा। इसके लिए सबसे पहले अपने मन को देखना होगा। उसमें उठने वाले विचारों को, उसकी गति को, विभिन्न विषयों में बार-बार बिक्षिप्त (Distort) होने की क्रिया का अवलोकन (Observation) करना होगा अर्थात अपने मन को ही  ग़ौर से देखना होगा।
 बाह्य वस्तुओं को हमलोग आँखों से देखते हैं। लेकिन मन को तो चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि मन तो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है। इसलिये उसको किसी सूक्ष्म माध्यम से ही देखना होगा। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ? किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं। जब हम किसी विषय पर बहुत तल्लीन हो कर विचार कर रहे होते हैं या गहन चिन्तन में डूबे रहते हैं, तब हमें यह भी याद नहीं रहता कि हम विचार कर रहे हैं। हम उन विचारों में ही खो जाते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ? अर्थात उस समय अचानक हमारी दृष्टि मन कि ओर पड़ती है। कौन से माध्यम से यह दृष्टि पड़ी तथा यह स्मरण हुआ कि अरे! मैं ही इतनी देर से विचार कर रहा था-निश्चित रूप से मन के माध्यम से, मन के ऊपर हमारी दृष्टि पड़ी।  मानो मन का ही एक अंश इससे बाहर निकल कर, थोड़ा परे हट कर खड़ा हो शेष मन के कार्यों का अवलोकन कर रहा हो । 
अब उपरोक्त रीति से अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mindकी गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। मन में उठने वाले विचारों, चित्त की चंचलता को, और विभिन्न विषयों में मन के इधर-उधर भागने को ग़ौर से देखना होगा। एक चलचित्र की तरह न जाने क्या-क्या हमारे मन में चल रहा होता है,या अंकित रहता है। कितने शब्द, कितने चित्र, कितनी यादें और न जाने क्या- क्या! कभी-कभी तो हमें स्वयं ही अवाक् रह जाना पड़ता है कि अरे ! मेरे मन में क्या ऐसे-ऐसे विचार भी भरे हुए थे?

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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " अतएव मनः संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। मन सतत चंचल है। वह बन्दर की तरह सदा कूद-फाँद रहा है। यह मन -मर्कट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाय, कोई हानि नहीं ; धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ। लोग जो यह कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है, यह बिल्कुल ठीक है। जब तक मन कि क्रियाओं पर नज़र न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को इच्छानुसार घूमने दो।
सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आयें। तुम्हारे मन में इतनी असत भावनाएँ आ सकतीं हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं, दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है। पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आयेंगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैंकडो तक रह जायेगी। फ़िर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से वश में आ जायगा। पर हाँ, हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा। " (१:८७)
" बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके है, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं।..किन्तु फ़िर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन का पर्यवेक्षण करना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि उचित विश्लेषण के बिना कोई भी विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल बेबुनियाद (भित्तिहीन) अनुमान में परिणत हो जाता है।...द्रष्टा-मन ही अपने दृश्य-मन के अन्दर चल रहे व्यापारों का निरिक्षण-परिक्षण य़ा पर्यवेक्षण करने वाला यंत्र है। मनोयोग  की शक्ति का सही-सही नियमन कर जब उसे अन्तर जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है, और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है।" (१:३९)

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१३. 'मन को आदेश देना '
(२. प्रत्याहार- मन को बालक और मित्र के समान सलाह देना )
         इस प्रकार द्रष्टा-मन की सहायता से दृश्य-मन की गतिविधियों का थोड़ी देर पर्यवेक्षण करने के बाद, हमें वास्तविक कार्य की ओर एक कदम और आगे बढ़ना होगा। अब थोड़ी देर मन को उसकी मनमानी वस्तुओं की ओर जाने की छूट देने बाद, उसे समझा-बुझाकर अपने नियंत्रण में रहने को कहना होगा, उसे और मनमाने विषय अथवा वस्तु पर भटकने की छूट नहीं देनी होगी, इधर-उधर दौड़ने से रोकना होगा। मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा।  मन को एक बालक के समान सलाह देनी होगी। 
                 साथ-साथ स्वयं को (अहं को) भी समझाना होगा कि अब तक हम नासमझ बने हुए थे, जिसके कारण मन के चलाये चल रहे थे। मन की गुलामी कर रहे थे, मन को जो अच्छा लग रहा था, उसको ही मुझे अच्छा लग रहा है-ऐसा मान बैठे थे। अबतक जो कुछ मन ने देखना चाहा,सुनना चाहा, करना चाहा, वह सब कुछ देखा, सुना और किया। अब यह समझ गया हूँ कि यह तो मन का दास होना है; अब आगे  ऐसा नहीं होने दूँगा। मन तो मेरा ही एक शक्तिशाली उपकरण (Powerful Instrument) या साधन है, अतः उसे मेरी आवश्यकता और प्रयोजनीयता के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। अतः अब मन के ऊपर अपना प्रभुत्व जमाना होगा। हमने शुरू से ही उस पर शासन नहीं चलाया जिसके फलस्वरूप वह इतना शरारती हो गया है कि मेरी कोई बात सुनना ही नहीं चाहता, हर समय मनमानी करने पर उतारू रहता है। किन्तु अब इसे मेरा आदेश पालन करने के लिये किसी आदेशपाल (अर्दली) की तरह सदैव तत्पर रहना होगा। इसे प्रेमपूर्वक सिखाने से यह सीख सकता है और हमारी बात मानने लगता है। 
[ लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्॥
अर्थ- पाँच वर्ष की अवस्था तक पुत्र को लाड़ करना चाहिए, दस वर्ष की अवस्था तक (उसी की भलाई के लिए) उसे ताड़ना (डाँटना और कान खींचना) भी दिया जा सकता है; किन्तु उसके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेने पर उससे मित्रवत व्यहार करना चाहिए] . 
मन के साथ एक बालक के समान या  एक मित्र के समान बात-चीत करनी होगी। कहना होगा- मेरे मन ! शान्त होओ ! इतना दौड़ते रहना ठीक नहीं है। आज तक तेरा कहना मानकर मैं भटक रहा था, अब तू एक बार मेरा कहना मानकर तो देख ! शास्त्र के वचन तो मानकर तो देख कि नरक में भी वैसा दुःख नहीं जैसा  चित्त के घोर चंचल रहने से होता है। और वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं जैसा निश्चल चित्त में प्रकट होता है। ऐ मन ! तेरा चंचल होना तेरा और मेरा विनाश है और तेरा स्थिर होना हम दोनों के परम् कल्याण का हेतु है। अतः ऐ मेरे मन मान जा। इसी में तेरा कल्याण है।
            इस प्रकार अगर मनःसंयोग की इच्छा बहुत बलवती हो, और इस संकल्प पर  दृढ़ रहा जाय, यम-नियम का पालन प्रतिमुहूर्त करते रहा जाय, 'वासना और धन ' का ययाति जैसा भोग करने की घोर आसक्ति को त्याग दिया जाय, यदि इसी लगन के साथ मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिये नियमित चेष्टा की जाय, और पूरे लगन के साथ मनःसंयोग का अभ्यास करने की नियमित चेष्टा की जाय, तो हमें यह देखकर ख़ुशी होगी कि मन धीरे-धीरे कहना मानना सीख रहा है। हम यह भी देखेंगे कि मन  शान्त और स्थिर रहने लगा है तथा  मेरे वश में ही रहता है (स्वप्न में भी ?)। ऐसे आज्ञाकारी मन को बाह्य विषयों से खींचकर, एकाग्र बनाकर अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार किसी भी विषय में केन्द्रीभूत किया जा सकता है!
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 [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र 
अर्थात यत्न करने पर भी यदि काम सिद्ध न हो रहा हो, तो आत्मनिरीक्षण करो और देखो कि दोष कहाँ रह गया था? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जो इच्छा मात्र से अपने मन को (मस्तिष्क में स्थित) समस्त स्नायू केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसीका प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है-एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना। मन कि बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमे कृतकार्य होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे; .... इससे पहले तो हम मशीन (रबोट) मात्र हैं। " (१:८६)]
जनक-विचार
श्रीयोगवाशिष्ठ ग्रन्थ में वशिष्ठजी कहते हैं- ‘हे रामजी ! फिर उस महीपति ने अपने मन से कहा- ऐ मेरे मन ! आज तक मैं तेरे कहने में रहा और तूने जो कहा वह मैंने स्वीकार किया। तूने जो वासना की वह मैंने पूर्ण की। ऐ मेरे मन !   ऐ मन ! तू शान्त हो जा। राज्य तेरा नहीं। पुत्र-परिवार तेरा नहीं। यह शरीर भी तेरा नहीं। जिसका सब कुछ है वह परमात्मा तेरा है। ऐ मेरे चित्त ! तू उसी परमात्मा में शान्त हो जा। तेरा भला होगा।’
ऐ मेरे चित्त ! तेरा सच्चा राज्य तो आत्मा का राज्य है। इस जनकपुरी में तो कई राजा आये। जिसने यहाँ राज्य किया वह जनक कहलाया। तू कब तक इस झूठे पद-प्रतिष्ठा पृथ्वी-राज होने का गर्व करके अपने को धरती का राजा मानेगा ? तू इस पृथ्वी का पति नहीं, महिपति नहीं, तू तो इस पृथ्वी का एक ग्रास मात्र है। तेरे जैसे तो कई राजा आ-आकर इस पृथ्वी में दफनाये गये। उनकी हड्डियाँ भी गल गईं। 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय।एक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूगी तोय।।'
महिपति अपने चित्त को समझाता हैः ‘ऐ चित्त ! तू परमात्मा की शान्ति में शान्त हो जा। नहीं तो ऋषि लोग मेरी हँसी करेंगे। कहेंगेः समझदार होकर मूर्खों की नाईं आयुष्य बिता दिया। बुद्धिमान होकर पशुओं की नाईं शरीर को पालने-पोषने में जीवन गँवा दिया। ऐ मेरे मन ! जिस परमात्मा ने तुझे अनुराग का दान दिया है उससे संसार के विषय तू क्या माँगता है ? उससे नश्वर चीजों की चाह तू क्यों करता है ? अब तू शान्त पद का आश्रय ले। जैसे ज्ञानवान संत पुरूष आत्म-विचार करते शान्त पद का आश्रय लेकर संसार-समुद्र से तर जाते हैं, तू भी उस आत्मपद का आश्रय़ ले।"
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१४. "मनः संयोग"
( मन को अन्य विषयों से हटाते हुए एक विशेष ध्येय की ओर स्थिर करना)
 (Fixing the mind on a particular subject धारणा-१)
पिछले अध्याय में बताये गये विधियों के अनुसार मन को बार-बार समझा-बुझाकर नाना प्रकार के विषयों से खींच कर अपने सामने खड़ा करना होगा। परन्तु मन तो कभी खाली नहीं बैठता, उसे किसी न किसी वस्तु पर अवश्य ही लगाना पड़ेगा। इसीलिये मन में धारणा करने योग्य किसी-न-किसी वस्तु या विषय को पहले से निर्धारित करना होगा। मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा (Concentration) या एकाग्रता कहते हैं। [पतंजलि कहते हैं -' देशबन्धः चित्तस्य धारणा ' अर्थात चित्त को देश-विशेष में बाँधना धारणा है।] धारणा का उद्देश्य है किसी ध्येय वस्तु पर चित्त को एकाग्र करना । इसके द्वारा मानसिक शक्ति के प्रवाह को एक ही विषय की ओर प्रेरित करना सम्भव हो जाता है।
किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ? हम अपनी श्रद्धा के अनुसार किसी भी वस्तु का चुनाव कर सकते हैं। हम अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न कर सकते हैं। लेकिन किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं। ऐसे ध्येय (मूर्त-आदर्श) पर मन को स्थिर रखने की चेष्टा करने से मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। 
           यदि अभी तक हमने किसी पूजनीय मूर्ति या श्रद्धेय महापुरुष को अपने आदर्श के रूप में सतत ध्यान करने का पात्र नहीं चयन किया हो तो अब बिना देर किये चयन कर लेना चाहिये। हमलोग चरित्र के गुणों को अपने में धारण कर यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं तथा देश-सेवा से जुड़कर अपना जीवन धन्य करना या सार्थक करना चाहते हैं। यदि ऐसा ही लक्ष्य है तो भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं। फ़िर समस्त मानव जाति के लिए उनके ह्रदय कितना प्रेम था ! उन्होंने अपने उपदेशों में बहुत सरल भाषा में मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा यथार्थ मनुष्य बनने के उपाय ही नहीं सुझाया है- बल्कि वैसा करके और बनके  दिखा भी दिया है। उन्होंने मन या जगत का दास न बन कर संयमी बनने का निर्देश दिया है। मन को एकाग्र करने की शिक्षा को ही उन्होंने सर्वोपरि शिक्षा माना है। उन्होंने तैंतीस कोटि देवता पर विश्वास करने से पहले 'आत्मविश्वासी' बनने की शिक्षा दी है। इसलिये उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से ममें भी इसी प्रकार का आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे। जाती, धर्म, शिक्षा, धन-संपत्ति आदि के आधार पर वे किसी भी मनुष्य को अपने से अलग नहीं मानते थे।उनके लिए सभी मनुष्य एक समान थे। अतः किसी भी जाति और धर्म में जन्मा मनुष्य उन्हें अपना आदर्श मान सकता है और उनकी छवि पर 'मनः संयोग' का अभ्यास कर सकता है। 
जिस लक्ष्य (ध्येय-वस्तु) पर मनः संयोग का अभ्यास करना है, आँख बन्द करने से पहले उस लक्ष्य को खूब ध्यानपूर्वक थोड़ी देर तक देखते रहना चाहिए। ऐसा करने से यह होगा कि आँखें बन्द करने के बाद भी वही छवि या आकृति मन में बस जायेगी। (जैसे गुलाब का ध्यान करने से उसकी सुगन्ध नासिका में बस जाती है।) उसी तरह आराध्य के श्रीचरण हृदय में बस जायेंगे। तदुपरांत जैसा हम पहले जान चुके हैं - मन को समझाकर समस्त विषयों से खींच कर पूर्व चयनित आदर्श की मूर्ति या पवित्र - प्रतीक पर मन को एकाग्र रखने का प्रयास करेंगे। 
             हो सकता है कि ('वासना और धन' आदि विषयों से) खींचकर कर लाया गया मन पुनः वहीँ-वहीं भाग जाय, इसलिये मन की चालाकियां आपको पकड़नी पड़ेंगी। यह तभी संभव होगा जब मन पर आप पैनी नजर रखें। आप द्रष्टा मन से दृश्य मन पर पैनी नजर गड़ाये रखिये । हां ! अभी यह विवेक-दर्शन में लगा हुआ था, लेकिन अचानक यह आपको चकमा देकर सांसारिक प्रपंच में चला गया। चूंकि आप मन के प्रति सजग और सचेत हैं, इसलिए उसे पुनः विवेक-दर्शन में अनुप्रेरित कीजिये, पास खींच लाइए। इसमें ऊबने से काम नहीं चलेगा। उस स्थिति में मन का तब तक पीछा करना होगा, जब तक वह बैठ न जाए। उसे फ़िर से आदेश देते हुए अपने इष्ट का चिन्तन करने के लिए सम्भालना होगा। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि मन अपने इष्ट वस्तु से हट कर अन्य बातों का चिन्तन में इतना रम जाये कि हम कहाँ और क्यों बैठे हैं, यह भी हमें स्मरण नहीं रहे। अगर ऐसा होता है, तो भी हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। हम जान चुके हैं कि मन का स्वभाव ही वैसा है। उसे आज तक कभी भी संयम का पाठ पढ़ाया ही नहीं गया था, तभी तो उसका यह हाल बन गया है। यदि मन कि चंचलता से बहुत असुविधा होने लगे तो पुनः आँखे खोल कर मनः संयोग के लक्ष्य को खूब ध्यान से, निर्बाध दृष्टि से देखने के बाद पुनः मन को लगाना सहज हो जाता है।
जिस लक्ष्य या इष्ट वस्तु पर मनः संयोग करना चाहते हैं, उसी पर मन को लगाने का अर्थ क्या है ? हमलोग पहले ही जान चुके हैं कि मन की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को चारों ओर से समेट कर,अन्तर्मुखी बना कर एक ही (स्नायु) केन्द्र में निवेशित रखना मनः संयोग है। हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं जो जगत के रूप, रस, गंध,शब्द और  स्पर्श आदि पाँच विषयों के संवाद हम तक पहुँचाते रहते हैं। अभी सिर्फ़ एक इन्द्रिय के कार्य पर विचार करें। मान लो कि मैं अभी आँखों से विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा हूँ, या विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयोग कर रहा हूँ। जब तक यह विचार मन में रहता है कि मैं विवेक-दर्शन कर रहा हूँ, तब तक यह समझना चाहिए कि मन अपने आराध्य-देव का दर्शन करने में ही लगा हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नेत्रों कि दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि भी उसी वस्तु के ऊपर केन्द्रीभूत है। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी तो होता है, कि आँख की दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि उस वस्तु पर नहीं पड़ रही है, अर्थात उस समय मन की शक्ति रश्मियाँ दूसरी ओर जा रही होती हैं। उस समय ऑंखें कुछ देख ही नहीं सकेंगी। इसीलिये वस्तु को नेत्र दृष्टि के सम्मुख रहने पर भी हम उसे देख नहीं पाते हैं।
                            मनः संयोग का अर्थ है मात्र मनमाने ढंग से किसी भी व्यक्ति या विषय के चिंतन में तल्लीन (
engrossed) हो जाना नहीं है- (जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....)  बल्कि हमारी इच्छा और प्रयास से आँखों की दृष्टि और मन की दृष्टि दोनों को किसी प्रयोजनीय विषय में लगाये रखने (तल्लीन रखने)  का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना है। अर्थात मनःसंयोग के लिये जिस लक्ष्य-वस्तु का चयन किया है, अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने के लिये स्वामी विवेकानन्द की जिस छवि (शिकागो पोज) को पहलीबार १२ जनवरी १९८५ को टी.वी पर एक बार देखते ही अपने एकमात्र आदर्श के रूप में अपने मन में बसा चुका हूँ; अब उन्हीं के ऊपर बलपूर्वक इस प्रकार से केन्द्रीभूत करना है कि मन की शक्ति-रश्मियों का छोटा सा कण भी अन्य किसी विषय में जाने न पाये! 
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, उसके बाद की साधना अर्थात धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगाधारणा का अर्थ है - 'मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना।'  मन को स्थानविशेष में धारण करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाये रखना। मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया। तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जायेंगे। जब चित्त अर्थात मनोवृत्ति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध रहती है, तब उसे धारणा कहते हैं। इस धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो,हृदय के एक बिन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो और (तथा उस अष्टदल रक्तवर्ण कमल पर अपने इष्ट को बैठा हुआ देखने की) कल्पना करो कि वह आदर्श आत्म-ज्योति से पूर्ण है (वाइब्रेन्ट या जीवन्त है)-चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो । " (१:८७)
[और दुर्वासा ऋषि ने अपना  यथोचित स्वागत सत्कार नहीं  होता देखकर इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप (curse) को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली (fish) निगल गई |मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया। ]
  

बुधवार, 19 नवंबर 2014

$$$$ १०.अभ्यास और लालच- त्याग / ११. सम्यक आसन [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

  $$$$$$$$$$$$$$$$$$$ १०.चित्तवृत्तिनिरोध का नुस्खा 
 (विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालचत्याग -उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः)
मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। यदि हमारे पास मन ही नहीं होता, तो हमारे पास भला बचता ही क्या ? मन की शक्ति के द्वारा हमलोग सारे कर्म करते हैं, वस्तुओं और विषयों को जानते हैं तथा अनुभव करते हैं। लेकिन मन के स्वभाव में दो बातें ऐसी हैं जिसके कारण मन का उपयोग करके जीवन को सार्थक कर पाने में कठिनाई उत्पन्न होती है। वे दो कारण हैं - " चित्त की स्वाभाविक 'चंचलता' और विभिन्न विषयों में दौड़ने वाली 'बहिर्मुखी वृत्ति' (षडरिपु की 'बंडल ऑफ़ प्रोपेनसिटी।') लेकिन यह भी सत्य है कि इन्हीं दोनों शक्तियों (चंचलता और बहिर्मुखता) के कारण हम मन की सहायता से विभिन्न तरह के कार्य (सत्यान्वेषण,विवेक-प्रयोग आदि) कार्य भी कर पाते हैं। इस परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिये ? 
                 हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि मन अपनी इच्छानुसार सदैव चंचल और बहिर्मुखी ही नहीं बना रहे, तथा मनमाने ढंग से अप्रयोजनीय विषयों की तरफ बेलगाम दौड़ता ही न रहे। इसका अर्थ यह हुआ कि सबसे हमें अपने मन की दोनों प्रबल शक्तियों को अनुशासित और नियंत्रित करना होगा, उसे अपने वश में लाना होगा; केवल तभी हमलोग मन को संघटित करके एकाग्र कर सकेंगे, तथा जिस वांछित कार्य कार्य में लगाना चाहेंगे उसमें लगा सकेंगे। हमारे लिये आवश्यक है, उसी में केन्द्रीभूत रख सकेंगे। अर्थात मनःसंयोग कर सकेंगे।  
                   लेकिन यह सब किया कैसे जाता है ? यह संभव होता है- अभ्यास से। अभ्यास का अर्थ है पुनः पुनः चेष्टा करते रहना । खिलाड़िओं के मामले में जैसे हम देखते हैं कि उन्हें खेल-प्रतियोगिता (क्रिकेट मैच आदि) में उतरने से पहले उन्हें दीर्घकाल तक खेल और उनके नियमों का अभ्यास (Practice) करना पड़ता है, उसी तरह 'मनः संयोग' करने के लिये भी चित्त की स्वभाविक 'चंचलता' और 'बहिर्मुखी वृत्तिको
विवेक-प्रयोग रूपी अंकुश द्वारा  संयमित, नियंत्रित करने के लिये पूर्व में कहे गये ५ 'यम' और ५ 'नियम' रूपी विधि-निषेध (do's and don'ts) का निरंतर (24 x 7) अभ्यास करना होगा। 
                         किन्तु केवल अभ्यास करना ही यथेष्ट नहीं है। इसके साथ-ही-साथ एक अन्य गुण (वैराग्य) भी रहना अनिवार्य है। अर्थात इस ओर सतर्क दृष्टि रखनी होगी की हमारा मन 'वासना और धन' (Lust and Lucre) के प्रति कहीं अत्यधिक आकृष्ट (सम्मोहित या हिप्नोटाइज्ड) तो नहीं हो गया है ?
यदि किसी एक के प्रति भी हमारे मन में बहुत अधिक लालच या अत्यधिक आसक्ति होगी, तो मन को विषयों से खींच कर वांछित कार्य में लगाना या एकाग्र करना संभव नहीं होगा।
             इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः -अर्थात  चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी वृत्ति (आँधी) पर नियंत्रण 'वासना और धन' के प्रति लालच का 'त्याग' (Renunciation) और विवेक-दर्शन (Discrimination) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है। अर्थात विवेक-प्रयोग शक्ति को ही अपनी सहज-वृत्ति [Instinct] बना लेने के अभ्यास पर निर्भर है। [अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।1.12।। भाष्य ।।1.12।। चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। ] 
              व्यासदेव [५००० वर्ष पहले ही मानो व्यासदेव जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा !] कहते हैं - मनुष्य के चित्त-नदी का प्रवाह 'उभयतो वाहिनी' है, दोनों दिशाओं में होता रहता है। लेकिन मन में लालच के भाव को थोड़ा कम करते हुए 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा एक दिशा में (आत्मोन्मुखी या उर्ध्वमुखी) जाने से मन शान्त होता है, शक्तिशाली होता, असाध्य को भी साधने की शक्ति अर्जित करता है और मनुष्य के जीवन को कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ करा देता है। जबकि दूसरी दिशा में (संसारोन्मुखी या निम्नोमुखी ) जाने से और अधिक चंचल हो जाता है, दुर्बल हो जाता है और निस्तेज होकर मनुष्य जीवन को नष्ट कर पशु तुल्य बना देता है। जैसे कि खाद्य-पदार्थ भी दो प्रकार के होते हैं- एक प्रकार का आहार लेने से शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है और शक्तिशाली बन जाता है। जबकि दुसरे प्रकार का आहार स्वादिष्ट होने पर शरीर को दुर्बल और रोगी बनाता है। 
                     प्रयत्न के द्वारा (विवेक-दर्शन के अभ्यास के द्वारा) हम अपने मन के प्रवाह को कल्याण की दिशा में मोड़ सकते हैं। उसे शाश्वतसुख और नश्वरसुख, या श्रेय-प्रेय में अंतर समझाकर अच्छे रास्ते पर (ऊर्ध्वमुखी रखने) लाने से जीवन सुन्दर हो जाता है। लेकिन मन को मनमानी करने के लिये छोड़ देने से जीवन व्यर्थ हो जाता है। इसलिये 'वासना और धन ' (Lust and Lucre) के लालच या प्रलोभन से सम्मोहित न होकर 'मनः संयोग' का नियमित अभ्यास (विवेक-दर्शन का अभ्यास) करने से मन वश में हो जाता है। कहा भी गया है - 'करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात से सिल पर परत निसान॥' मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास द्वारा
शान्त और नियंत्रित मन के माध्यम से जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने से ही बहुमूल्य मनुष्य-जन्म  को सार्थक बनाया जा सकता है
                 अब हमलोग ' मनः  संयोग ' के महत्व को जानकर मन ही मन निश्चित रूप से संकल्प ले रहे होंगे कि हम 'मनः संयोग ' अवश्य सीखेंगे और इसका अभ्यास किस तरह किया जाता है, इसकी भी  जानकारी प्राप्त करेंगे। अपने जीवन को सम्पूर्ण  रूप से गठित करके जीवन में सार्थकता लाभ करने के लिये, अपने संकल्प पर अटल रहते हुए धैर्यपूर्वक प्रयत्न और कठोर परिश्रम करने को तत्पर रहेंगे। नीतिशतक में कहा गया है -
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः । 
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कुर्वाणो नावसीदति ॥  
– अर्थात आलस्य ही मनुष्यके शरीरमें स्थित महा शत्रु है और उद्यम (प्रयत्न) से अच्छा कोई मित्र नहीं है, जो इसका अभ्यास करता है उसे कभी कष्ट नहीं होता। हम पाँचो यम (संयम) और पाँचो नियम को विवेक-सामर्थ्य द्वारा अपने आचरण में उतार लेंगे। इसके साथही साथ शरीर को स्वस्थ रखने के लिये नियमित रूप से बिना आलस्य किये थोड़ा व्यायाम भी अवश्य करेंगे। फिर मन में पवित्र और सुंदर भावों को धारण करने के लिये प्रतिदिन सन्मार्ग पर ले जाने वाली अच्छी पुस्तकों (विवेकानन्द-साहित्य) का अध्यन (स्वाध्याय) भी करेंगे, तथा स्वयं को सिर्फ सुसंगति (Good company) में रखेंगे। 
                      इन सब के साथ 'मनः संयोग ' अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास नियमित रूप से प्रति दिन करना होगा, एक दिन भी अभ्यास छोड़ना नहीं होगा। पूर्व में कहे गये ५ 'यम' और ५ 'नियम' रूपी विधि-निषेध (do's and don'ts) का निरंतर (24 x 7) अभ्यास करना होगा। और 'मनःसंयोग' या 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास हेतु दिन में दो बार समय निकाल कर आसन पर बैठना होगा, एक बार प्रातः और एक बार सायंकाल में। यदि संध्या में देर हो जाय तो रात्रि में सोने से पहले। इसके लिये हाथ-मुँह धोकर, स्वच्छ होकर बैठना होगा। प्रातःकाल और सूर्यास्त (गोधुली बेला) के समय प्रकृति स्वतः शांत अवस्था में रहती है, जिससे मन भी स्वाभाविक रूप से  (spontaneously, अनायास) कुछ- कुछ शान्त हो जाता है, इसलिए इस समय अभ्यास करने का फल अच्छा होता है।
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पतंजलि के सूत्र तो साधकों के लिए भेजे गए टेलीग्राम हैं। इनमें इधर- उधर का एक भी फालतू शब्द नहीं है। ये सूत्र ऐसे हैं, जैसे कोई तार करने जाय और वहाँ बेकार के अनावश्यक शब्द काट दे। तार का मतलब ही यही है, कम से कम शब्दों में सम्पूर्ण सन्देश कह दिया जाय। उसी प्रकार सन्त तुलसीदास का भी साधकों के लिये भेजा गया एक बड़ा ही प्रसिद्द टेलीग्राम है-'अली-मृग-मीन-पतंग-गज जरै एक ही आँच, तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावें पाँच ?                  
इसके उत्तर में महर्षि पतंजलि कहते हैं- अथ योगानुशासनम् ॥१॥ अब गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार योगविषयक शास्त्र आरम्भ करते हैं । 
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥२॥ 

चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। वृत्तिशून्य मन - अर्थात इन्द्रिय-विषयों अनासक्त मन शुद्ध ही है। मन को विषय रहित करने से ही वह शान्त होता है। ईंधन (ऑक्सीजन) के अभाव में जिस प्रकार अग्नि बुझ जाती है उसी प्रकार विषय-वृत्ति (आँधी) न रहने से ही मन शान्त हो जाता है।  तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥३॥  उस समय द्रष्टा की अपने रूप में स्थिति हो जाती है ।  
[ अर्थात वृत्ति-बुद्धि -विवेक के अन्तर को जानकर विषयोन्मुखी 'आँधी'-योगः चित्त-वृत्ति निरोधः )'सही समय पर सही दाँव' चलने का हुनर या स्किल- 'बाउंसर बॉल पर हैलीकॉप्टर शॉट' मारने का हुनर भी अभ्यास से आता है ! [महाभारत (शान्तिपर्व ३१६/२) में चित्तवृत्ति निरोध या योग को सर्वश्रेष्ठ मानसिक बल कहा गया है- "नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलं"। ]
पतंजलि योगसूत्र (१.१२) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ को अधिक स्पष्ट करते हुए व्यास-भाष्य  में कहा गया है - " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। -मन (चित्त) की 'स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति ', चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है जो कि दोनों दिशाओं (ऊपर -नीचे उभयतः) में (वाहिनी) बहने वाली है। यह प्रवाह श्रेय (कल्याणाय) की दिशा में भी बहती है, और (च) अशुभ या पाप (पापाय) की ओर भी बहती है।' विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' -- चित्तनदी की धारा जब विवेकविषय, विवेक के क्षेत्र (विषय)  की ओर झुका (निम्ना) है,अर्थात विख्याति या विवेकशील ज्ञान, जो किसी व्यक्ति को बुद्धि (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देता है; वह धारा (सा) 'कैवल्यप्राग्भारा' कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है। 'अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'-  दूसरी ओर यह धारा जब अविवेक के क्षेत्र में, अर्थात जब बुद्धि और पुरुष के बीच रहने वाले अंतर का अनुभव नहीं करने की दिशा में झुकी होती है, वह 'संसारप्राग्भारा' संसार या देहान्तर-गमन  (Transmigration) की ओर ले जाने वाली धारा पाप-वहा है, जो बुराई की ओर बहती है।  उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या विषयों की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य (रिनन्सिएसन या परहेज) का फाटक लगाकर विषयस्रोत को मन्द बनाते हुए शक्तिहीन (खिलीक्रियते) किया जाता है; तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास या विवेकशील ज्ञान (डिस्क्रिमिनेटीव-नॉलेज) पर चिंतन-मनन करते रहने के परिणामस्वरूप (एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और) विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है। इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली प्रॉपेनसिटीका दमन या संशोधन,) परहेज,निवृत्ति या "रिनन्सिशन" और विवेक-दर्शन अर्थात "डिस्क्रिमनेशन" अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है।
"विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति' जो सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है; वह एक दिन  (१२ जनवरी १८६३ को) स्वयं स्वामी विवेकानन्द की आकृति में आविर्भूत होगी ! और तब उस गुरु विवेकानन्द के मूर्त रूप पर पुनः पुनः मन को धारण करने के अभ्यास से ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा ! 

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥ १/१३॥ 
शब्दार्थ- तत्र= उन दोनों (विवेक-दर्शन या विवेक-प्रयोग का अभ्यास बुद्धि और पुरुष के बीच अंतर को पहचानना डिस्क्रिमनेशन और रिनन्सिएसन वैराग्य या अनात्म जड़ इन्द्रिय-विषयों से परहेज ) में चित्त को प्रतिष्ठित रखने का प्रयास करना अभ्यास है। 
वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥१/४॥ 
साक्षी होने के अलावा अन्य सभी अवस्थाओं में चित्त की वृत्तियों (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार)  के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये वृत्तियाँ साधक की अन्तर्चेतना को मनचाहा भटकाती हैं। सुख- दुख के सपने दिखाती हैं। कभी हँसाती हैं, कभी रुलाती हैं। इच्छाओं के कच्चे धागों से बाँधती हैं। कल्पनाओं और कामनाओं की मदिरा पिला कर बेहोश करती हैं। 
या तो साक्षी भाव को उपलब्ध कर अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाओ या फिर वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके भटकते रहो। इन दो के अलावा कोई तीसरी सच्चाई नहीं हो सकती। और चित्तवृत्तियों का निरोध तो अभ्यास और वैराग्य (परहेज) से ही होता है। 
गीता ६/३४ में अर्जुन मन की इसी प्रबल चंचलता को देखकर भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं- 
चज्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
           तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।34।।
क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिये उसको वश में करना मैं वायु के रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ ।।34।।  
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
          अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।35।।
श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परंतु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ।।35।। 
वैराग्य शब्द का अर्थ है अनात्म वस्तुओं (जड़ मन-बुद्धि) के साथ अपने तादात्म्य को या आसक्ति को त्याग देना। जड़ विषयों में अनासक्ति और आत्मा में अत्यन्त अनुरक्ति ही यथार्थ वैराग्य है। 'इहामुत्रार्थ-फलभोग' वैराग्य ही मन को आत्माभिमुख करता है। शरीर, मन, वाणी से पुनः पुनः अभ्यास के द्वारा विषयों का दोष-दर्शन करा कर मन के बहिर्मुखी विषयोन्मुख प्रवाह को आत्मा की ओर लौटा लिया जाता है। इस प्रकार असार विषयों से वैराग्य उत्पन्न होता है। 
यम-नियम का निरंतर अभ्यास (प्रैक्टिस)करना है, तो मन को राजसिक और तामसिक सुखों में दोष-दर्शन कराकर, विवेक-प्रयोग द्वारा सात्विक सुख प्राप्त करने के लिये इन्द्रिय सुखों से मुँह मोड़ना ही होगा। भोगियों की दृष्टि से कहें तो , एकदम रूखी- सूखी जिन्दगी जीनी होगी। यह तो बाद में पता चलता है कि इस रूखे- सूखे पन में आनन्द की अनन्तता समायी है। मनुष्य मात्र को यदि भटकन, उलझन, तनाव, चिन्ता, दुःख, पीड़ा, अवसाद से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पानी है, तोसाक्षी भाव को उपलब्ध होने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। 
क्योंकि अन्य अवस्थाओं में तो मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य बना ही रहेगा। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है। यह बात किसी एक पर, किसी व्यक्ति विशेष पर लागू नहीं होती। बात तो सारे मनुष्यों के लिए कही गयी है। मानव प्रकृति की बनावट व बुनावट की यही पहचान है। साक्षी के अतिरिक्त दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तादात्म्य बना रहता है।
उपनिषद का उपदेश है - "आत्मानं वै विजानथ-अन्या वाचो विमुंचथ" -आत्मा को जानने की चेष्टा करो, अन्य बातें छोड़ो। इसके लिये अभ्यास और वैराग्य आवश्यक है।  सबसे श्रेष्ठ उपाय है भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा। विवेक-दर्शन का बार बार अभ्यास से ही मन शान्त होता है और विषय अपने आप छूट जाते हैं। भगवान का नाम जपना बहुत सहायक होता है। बार बार आत्मचिंतन या विवेक-दर्शन के अभ्यास के फलस्वरूप मन आनन्दमय आत्मा में तन्मय हो जाता है। अतः इस प्रकार अभ्यास और वैराग्य साधक के मन को अहं-शब्द के लक्ष्य आत्मा में संलग्न करके 'अहं ब्रह्म अस्मि' इस ज्ञान में प्रतिष्ठित करेंगे। मन को अनुशासित और नियंत्रित करने का शास्त्रविहित उपाय है-अभ्यास और वैराग्य।मेशा सतर्क रहना होगा कि किसी भी विषय में मन अत्यधिक आसक्त न हो जाये ! इस सच्चाई को जान सको तो जानो, मान सको तो मानो।
अभ्यास की सामान्य महिमा से तो हममें से प्रायः सभी परिचित हैं। अभ्यास के बारे में एक कहावत अक्सर सुनी जाती है-  कुछ उसी तरह से जैसे निरन्तर रस्सी की रगड़ से पाषाण पर भी निशान पड़ जाते हैं। मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। यहाँ- तक कि पशु- पक्षी भी अभ्यास के बलबूते ऐसे- ऐसे करतब दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबाने का मन करता है।  
बालकाण्ड : शिव-पार्वती संवाद में कहा गया है -
 जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
                        जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥ (बा. का.११७)

भावार्थ:-यह जगत (बुद्धि) प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी (पुरुष ) इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥ जो जगत का द्रष्टा (साक्षी) है वही राम है; शिवजी कहते हैं - "सब कर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ॥ " - सारा जगत जिसके कारण प्रकाशित है वही राम अवधपति हैं। 
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥
भावार्थ:-जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥117॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥
भावार्थ:-इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥

  झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥

भावार्थ:-जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥ 
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स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं " एकमात्र पुरुष (आत्मा) ही चेतन है। मन (वृत्ति, बुद्धि, विवेक) तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को छान-बिन करने के बाद ग्रहण करती है। मन सतत परिवर्तनशील है, इधर से उधर दौड़ता रहता है, कभी समस्त इन्द्रियों से लगा रहता है, तो कभी केवल एक से, और हमारा मन कभी कभी तो किसी इन्द्रिय के सम्पर्क में नहीं रह जाता न जाने कहाँ खो जाता है ? मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिक टिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे यह स्पष्ट समझ में आ जाता कि-मन जब श्रवण इन्द्रिय से लगा था, तो दर्शन इन्द्रिय (अर्थात मस्तिष्क में स्थित उसका स्नायु केन्द्र optic- nerve) से उसका संयोग न था।  परन्तु पूर्णता प्राप्त मन (विवेक-सामर्थ्य प्राप्त मन)  को सभी स्नायु-केन्द्रों या इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। यह उसकी " अन्तर्दृष्टि " की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सबसे गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है। इस अन्तर्दृष्टि को विकसित करना ही योगी का उद्देश्य है।" (१:४५)

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 ११. सम्यक आसन  
[मनः संयोग करने या मन को आमने -सामने देख कर उसके साथ बातचीत करने के लिये, सम्यक आसन एवं स्वच्छ परिवेश का महत्व :]
              मन सदैव हमारे साथ ही रहता है।  उसे ढूँढ़ने के लिये किसी पहाड़ पर या गुफ़ा में नहीं जाना पड़ता। फिर भी शान्त और एकान्त वातावरण में मौन होकर बैठने से मन की गहराइयों में उतरना सहज हो जाता है।  किसी भी ढंग से बैठकर मन की स्थिति देखी जा सकती है। लेकिन हमारे बैठने का ढंग (आसान) यदि ऐसा हो कि कुछ ही समय के बाद शरीर में इधर-उधर दर्द न होने लगे, यदि ऐसा होगा तो हमारा मन बार- बार उसी कष्ट की ओर चला जायगा। इसीलिये यथोचित आसन (Proper Posture) में बैठना आवश्यक हो जाता है। बैठने का ढंग ऐसा होना चाहिये कि बैठने के बाद शरीर में किसी पीड़ा का अनुभव नहीं हो, और कुछ समय तक स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठा जा सके। 
                   बैठने का स्थान शान्त और परिवेश स्वच्छ होना चाहिये। स्वयं भी हाथ- मुँह धोकर, या स्वच्छ होकर शान्त भाव से बैठना चाहिये। बाबू  की भाँति पालथी मारकर सुखासन में बैठा जा सकता है। अथवा उसी प्रकार तनाव-मुक्त होकर बैठे हुए एक पैर के तलुए को दूसरे पैर के जाँघों पर रखकर बैठने से थोड़ी देर तक सुकून के साथ बैठा जा सकता है। इसको ही 'पद्मासन' कहते हैं। लेकिन जिनको इस प्रकार बैठने  अभ्यास नहीं है, उन्हें दोनों पैरों को इस प्रकार रखने से कष्ट हो सकता है। इसलिए वे अगर  एक ही पैर को दूसरे पैर की जंघा पर रख 'जेन्टिल मैन' की तरह सुखासन में बैठें तो आराम मिलता है और कुछ देर तक, निश्चिन्त होकर बैठना सहज हो जाता है। इस मुद्रा में बैठने को 'अर्धपद्मासन' कहते हैं।इस आसन में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा। इस प्रकार अर्ध-पद्मासन में बैठकर धीरे-धीरे लंबा स्वांस लेना और छोड़ना  यथेष्ट होता है। (रेचक-पूरक-कुम्भक-प्राणायाम न करके केवल कपालभाँति और अनुलोम-विलोम कर लेना यथेष्ट होता है।)
                       हमें तो स्वाभाविक रूप से चंचल और विभिन्न विषयों में दौड़ने वाले मन को पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करना है। इसीलिये शरीर, साँस-प्रस्वांस  या अन्य किसी बात की तरफ मन को जाने देना उचित नहीं होगा। गर्दन को सीधा रखते हुए दृष्टि को जमीन के सामानांतर (Parallel to the ground) रखना अच्छा होता है। नहीं तो कुछ ही समय बाद गर्दन में भी दर्द हो सकता है। फिर दोनों हाथों को एक दूसरे पर फैला कर, इस प्रकार ....  धीरे से गोद में रख लेना चाहिये। 
                      इस तरह अर्ध-पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाने  यह तो निश्चित हो गया कि अब शरीर के चलते मन को विचलित नहीं होना पड़ेगा, लेकिन अन्य बाहरी विषय मन को प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार बैठ जाने से स्वाद एवं स्पर्श इन्द्रिय की तरफ मन के खिंच जाने की सम्भावना तो नहीं रह जाती, लेकिन कहीं से अचानक कोई अप्रिय गंध आ जाये, तो मन विचलित हो सकता है। इसीलिये किसी सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है। क्योंकि मन भीनी- भीनी सुगंध से प्रसन्न रहता है। किन्तु दोनों कान तो खुले हैं, उनमे विभिन्न प्रकार के शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! अंत में आँखों को बन्द कर लेने से अन्य कोई वाह्य 'रूप' भी मन को प्रभावित नहीं कर सकेगा। इसलिए एक बार अपने आदर्श (युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द) कि छवि को ध्यान से निहार कर नेत्रों को मूंद लेना अच्छा है। यही है -सम्यक आसन।  एकाग्रता का अभ्यास या 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व सम्यक आसन और स्वच्छ परिवेश का यही महत्व है।

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शनिवार, 15 नवंबर 2014

७.'क्या करना आवश्यक है ?' ८.' जीवन के खेल में हार-जीत ' ९ .'प्रारंभिक कार्य' ["मनःसंयोग " - लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

७. अत्यन्त आवश्यक कार्य  
अब हमलोगों ने समझ लिया है कि 'मनः संयोग' किये बिना किसी भी कार्य को समुचित तरीके से करना, या किसी विषय का सम्यक ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं है। और इसी तरह मनः संयोग के बिना  जीवन को  सुंदर तरीके से गठित करना और सार्थक करना भी सम्भव नहीं है।  हमने यह भी जान लिया कि यदि  मन को अपनी इच्छा या आकांक्षा के अनुरूप किसी कार्य में नियोजित करना सीख लें, तो ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो हम नहीं कर सकें। 
मन की शक्ति असीम है, किन्तु मन स्वभावतः चंचल है। इसीलिये वह अपने आप ही जगत के विभिन्न विषयों की ओर सर्वदा दौड़ता रहता है। इसी कारण हमलोग बहुधा स्वयं को असहाय सा महसूस करते हैं और बहुत से कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं। हमारी पसंद के ढेरों ज्ञातव्य विषय हमारे लिये अज्ञात बने  रह जाते हैं और हम अपने जीवन को सफल और सार्थक नहीं कर पाते। इस परिस्थिति में हमें  क्या करना चाहिए ?
अपनी इच्छा और प्रयत्न (उद्यम) के द्वारा केवल अपने प्रयोजनीय या वांछित विषय में मन को लगा सकने का कौशल सीखना चाहिये। यदि हम इस कौशल को सीख लें, तो चंचल मन को शांत कर, उसे विभिन्न विषयों से खींचकर अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्य या विषय पर एकाग्र रख सकते हैं। इसे ही 'मनः संयोग' कहते हैं, या सरल शब्दों में मनोयोग भी कहते हैं। इस कौशल को सीख लेने से,हम किसी भी कार्य को श्रेष्ठतर तरीके से कर सकेंगे, तथा इच्छित विषय का सम्यक ज्ञान भी प्राप्त कर सकेंगे। जो सीखेंगे उसे याद भी रख सकेंगे,फिर  उस ज्ञान को उपयोग में लाकर दूसरे कार्यों को भी  श्रेष्ठतर तरीके से कर सकेंगे, और अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर लेंगे।
                किसी स्थान में एक दीपक जलाने से जिस प्रकार प्रकाश की किरणें चारों ओर फ़ैल जाती हैं,  उसी प्रकार मन की शक्ति सर्वदा चारों ओर प्रसारित होती रहती है। और जिस विषय पर पड़ती हैं, उसको हमारे सामने स्पष्ट रूप से प्रकट कर देती है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश चारों ओर पड़ता है और सब कुछ को प्रकाशित कर उन्हें स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। तुमलोगों ने उत्तल लेंस (Convex lens) के बारे में अवश्य सुना होगा अथवा देखा भी होगा। सूर्य की किरणों को जब इस लेंस से गुजारा जाता है, तो वे अपनी वक्रता के अनुसार नजदीक या दूर के किसी बिन्दु पर केन्द्रीभूत हो जाती हैं; इसके  फलस्वरूप उस बिन्दु पर जो कुछ रहता है वह अधिक प्रकाशित हो जाता है। चूँकि सूर्य के प्रकाश की किरणों में ताप (Heat) भी रहता है, इसलिये वहाँ गरमी भी उत्पन्न होने लगती है। अगर वहाँ कागज का टुकड़ा रख दिया जाय, तो उसमें से धुआँ उठने लगता है और फिर आग भी पकड़ लेता है। उसी प्रकार मन की शक्ति की रश्मियों को अगर मनःसंयोग के द्वारा किसी विषय पर एकाग्र किया जाय, तो वह विषय  मन के सामने अधिक प्रकाशित हो जाता है। उसका सम्पूर्ण रहस्य या सभी जानने योग्य बातें बिल्कुल सही और विशुद्ध रूप में ज्ञात हो जाती हैं। किसी भी कार्य के मामले में भी मन की शक्तियों को इसी प्रकार एकाग्र अथवा एकमुखी (unidirectional) करने से वह श्रेष्ठतर तरीके से सम्पन्न हो जाता है।
             मन की शक्ति की अदृश्य रश्मियों को अकारण चारों ओर बिखर कर नष्ट नहीं होने देकर, अर्थात विभिन्न विषयों में जाने से रोक कर (खींचकर-प्रत्याहार) उन्हें एकीकृत या संघटित करके आवश्यक विषय में नियोजित करना ही 'मनः संयोग' है। अर्थात मन की शक्ति का अपव्यय न करके उसके अधिकांश, हो सके तो सम्पूर्ण उर्जा-रश्मियों को एकाग्र तथा एकमुखी बनाकर ज्ञातव्य विषय या प्रयोजनीय कार्य मे नियोजित करने को 'मनः संयोग' कहते हैं। और हमें यही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं।" (१:३९)




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[स्वामी विवेकानन्द कहते है- " बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सिखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसीकारण हममें से अधिकांश मनुष्य अपने मन की क्रिया-विधि का निरिक्षण करने की शक्ति को खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ऊपर उनका प्रयोग करना, तांकि वह स्वयं अपने ही स्वभाव को समझ सके, (अन्य वस्तुओं का विश्लेषण करने के बजाय) अपने आपको विश्लेषण करके देख सके- एक अत्यन्त कठिन कार्य है।...इसके लिए काफ़ी अभ्यास आवश्यक है। पर वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार मन के विषय में जानने के लिए अग्रसर होने का यही एकमात्र उपाय है। " (वि० सा० ख० १ :४०)] 
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८ ." जीवन के खेल में हार-जीत "
किसी भी खेल के अन्तिम क्षणों में जब हार-जीत का फैसला होना होता है तो उद्वेग और उत्तेजना अपने चरम पर होती है। फिर अन्त में विजयी होने पर मन उल्लास और आनन्द से भर उठता है। किन्तु जीत उसी की होती है जो खेलते समय मन को स्थिर करके अपना पूरा ध्यान खेल के ऊपर ही केंद्रित रख सकता है; जो बड़े धैर्य के साथ खेल में अनवरत लगा रहता है। अर्थात एकाग्रता से मन को लगाये रखता है, जो खेल के नियमों और जीतने के कौशल को अच्छी तरह से जानता है, तथा सही समय पर सही दाँव चलता है। जो विजयी होता है उसे खेल जीतने की तकनीक में महारत हासिल करने के लिये, बहुत लम्बे समय तक कठोर परिश्रम के साथ अभ्यास करना पड़ता है। निपुणता से खेल सकने एवं निशंक होकर खेल की तकनीक का प्रयोग करने के लिये भी उसे लगातार अभ्यास (Practice) भी करना पड़ता है। जो कुशल खिलाड़ी खेल में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर लोगों की वाहवाही लूटता है और लक्ष्य-स्तम्भ छूने के गर्व का अधिकारी बनता है, उसे खेल को जीतने की तकनीक तथा खेल-नियमों का अनुपालन अवश्य करना पड़ता है।
                    हमारा पूरा जीवन भी एक महान खेल की तरह ही है। इस खेल में हार-जीत के ऊपर ही  निर्भर करता है कि हमारा मनुष्य-जीवन सार्थक हुआ, या यूँ ही व्यर्थ  में  नष्ट हो गया। जीवन के इस खेल में विजयी होने से जिस आनन्द और गर्व की अनुभूति होती है, वैसा आनन्द क्या अन्यत्र कहीं उपलब्ध है ? लेकिन इस खेल में पराजित हो जाने पर जिस गहरी पीड़ा और निराशा की अनुभूति होती है, उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।  फ़िर भी हममें से अधिकांश  का जीवन व्यर्थ हो जाता है। 
                 किन्तु जो लोग इस जीवन-संग्राम में विजयी होते हैं, उन्हें ही मानव-जाति हमेशा-हमेशा के लए याद रखती है। उनके प्रति श्रद्धा रखती है, तथा उनको ही अपना नेता मानकर उनका अनुसरण करने की अभिलाषा रखती है। इसलिए इस बात का निर्णय हमें आज ही कर लेना होगा कि जीवन के खेल में पराजय हमें कदापि स्वीकार नहीं है। और जितनी कम उम्र में इस निर्णय पर पहुँचा जाय उतना ही श्रेयस्कर होगा, क्योंकि ऐसा होने से खेल अथवा जीवन-संग्राम के लिये पर्याप्त समय मिल जाता है। इस खेल में जीतने की तकनीक को कम उम्र में ही सीख लेने से इसमें विजय सुनिश्चित हो जाती है। यह निर्णय हमें स्वयं करना है कि क्या हम जीवन को व्यर्थ में (आहार,निद्रा,भय, मैथुन में) नष्ट होने देंगे ? बोलो - तुम क्या कहते हो?
                             लेकिन इस जीवन-संग्राम रूप खेल में विजयी होने का वास्तविक कौशल क्या है? इसका वास्तविक कौशल है- मन को अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार कार्य या विषय पर केन्द्रीभूत करने की पद्धति सीखना,उसे  संयमित और संघटित करके एकाग्र बनाने की तकनीक सीखना,और उस तकनीक का प्रयोग करके अपने मन को पूरी तरह से वशीभूत कर लेना। मनमाने ढंग से मन को इधर-उधर भागने न देकर पूरी तरह से अपने वश में रखने को ही मन का संयम (mortification) कहते हैं। मन की शक्ति इच्छानुसार (Ad lib) बहिर्मुखी होकर इन्द्रिय विषयों में बिखरी हुई है, मन को बच्चे जैसा समझा-बुझाकर उसको इन्द्रिय विषयों से खींचकर, उसे मन के ऊपर ही एकाग्र रखने की क्षमता को ही मन को संघटित करना या संयत करना कहते हैं। मन की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को एकोन्मुखी (Unidirectional)कर लेने को ही मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) कहते हैं। और इस प्रकार से एकाग्र मन को कुछ समय तक किसी एक ही विषय में संलग्न रख पाने को मनःसंयोग कहते हैं। इसे ही मनोयोग या मन को लगाना भी कहते हैं।
                    किसी भी प्रयास में सफलता या विजय इसी मनोनिवेश के परिमाण पर निर्भर करती है। हमें आजीवन कितने ही प्रयत्न या कार्य निरंतर करने पड़ते हैं। उन कार्यों को हर समय मनोयोग पूर्वक करते रहने में सक्षम होने से जीवन में विजय अवश्यम्भावी है। इसलिए हमें अपने मन को वश में लाना ही होगा। हम जानते हैं कि यह कार्य बहुत कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं है। मनुष्य के लिये कुछ भी करना असंभव  नहीं है, क्योंकि मनुष्य अनन्त शक्ति का अधिकारी है। और वह अनन्त शक्ति उसके इसी मन कि गहराई में छुपी हुई है। अतः  उस शक्ति को प्राप्त करके जीवन को सार्थक बनाने के लिये जितना भी जितना भी जोर लगाना पड़े, जितना भी परिश्रम करना पड़े, मैं करूँगा, तथा उत्साह और धैर्य का साथ कभी नहीं छोड़ूँगा !इस प्रकार मन को अपने वश में लाकर जीवन-संग्राम में अपनी विजय सुनिश्चित कर लूँगा, प्रशंषा या वाहवाही की लालसा नहीं रखूँगा। जब मनुष्य बनकर जन्म लिया है, तो विज्ञानी बनकर (जगत को कारण सहित जानकर) इस जीवन को अवश्य सार्थक करूँगा। कहिये, यह सब सोचते हुए भी कितना आनन्द मिलता है !
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए- अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश या परिस्थितियाँ उसको दबाये  रखने के लिए प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने के इस प्रयत्न (महान-खेल) का नाम ही जीवन है। " (विवेकानन्द-चरित पृष्ठ -१०८) "  
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त करने के लिये सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना, उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे उलट कर, अन्तर्मुखी करके आत्मा के ओर जाने वाले मार्ग में ही एकाग्र रखने का अभ्यास करना,  मनः संयोग है।"(१:११८) 
"आगे बढो ! सैकडों युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ ! ... मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिए।" (३:३४४) 
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 ९ .प्रारंभिक कार्य 
       आओ अब हम यह देखें कि मनःसंयोग किया कैसे जाता है ? हमने यह समझ लिया है कि मुख्य कार्य मन को संयमित करना है, अर्थात उसे अपना अर्दली (orderly) या अनुशासित आदेशपाल बना लेना है।  लेकिन यदि हमारे दैनिक जीवन में संयम नहीं हो, तो किसी भी उपाय से स्वभावतः चंचल मन को संयमित करना सम्भव नहीं है। इसलिये कार्य का प्रारंभ दैनंदिन जीवन को संयम में रखने की चेष्टा से ही करना होगा। जीवन में संयम रखने का तात्पर्य है कि हमारी सोच (thinking) वाणी (utterance) एवं कर्म (action) सभी पर हमारा नियंत्रण हो। 
           यदि हमारा जीवन ही असंयत (extravagant) हो, तो मन को अनुशासित (disciplined) बनाना या उस पर शासन करना अथवा मनःसंयोग या मन की एकाग्रता (कॉन्सनट्रेशन ऑफ़ माइंड) प्राप्त करना असम्भव है । जीवन को संयमित करने के लिये आवश्यक है -संकल्प, मन की दृढ़ता, उत्साह, धैर्य और कर्मठतापूर्वक किया जाने वाला प्रयास, उद्यम या अभ्यास। लेकिन यदि हम जीवन में कुछ नियमों का पालन नहीं करें, तो इन गुणों को अर्जित नहीं किया जा सकता। अतएव  मनःसंयोग सीखकर यदि जीवन को सुंदर और सार्थक करना चाहते हों, तो सबसे पहले हमें अपनी इच्छाओं के ऊपर लगाम लगाना सीखना होगा। विचार करते समय, बोलते समय और कुछ भी करते समय- हमेशा अनुशासित रहना होगा तथा कुछ नियमों का पालन भी करना होगा। तभी हम मनःसंयोग की वैज्ञानिक पद्धति सीखने में कामयाब हो सकते हैं। 
                 जीवन को संयमित और अनुशासित रखने के लिये कुछ गुणों (यम-नियम) को जानकर उन्हें सदैव याद रखना, तथा उन्हें अपने जीवन में धारण करने का अभ्यास निरंतर करते रहना आवश्यक है। जिन गुणों को धारण किये रहने का अभ्यास निरंतर करते रहना है, वे हैं - अहिंसा, सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह। मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्राणी को कभी कष्ट न पहुँचाना 'अहिंसा' कहलाती है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "मैं किसी भी व्यक्ति या जीव को विचार,वचन या कर्मों से आहत नहीं करूँगा ! एक बार इस प्रकार का दृढ़-मनोभाव बना लेने से ह्रदय में जिस आनन्द कि उपलब्धि होती है, उससे अधिक आनन्द अन्य किसी चीज़ से प्राप्त नहीं होती! "
              उसके बाद है 'सत्य' के ऊपर आरूढ़ रहना। जो सत्य है, सर्वदा वही बोलना। यह भी एक बड़ा गुण है। दूसरों की वस्तुओं को छुपाकर, बिना पूछे या बलपूर्वक ले लेना बहुत बुरी बात है।  ऐसा करना उचित नहीं है। दूसरे की वस्तु को चोरी करने की इस भावना का आभाव-'अस्तेय ' कहलाता है। एक अन्य  महत्वपूर्ण गुण है 'ब्रह्मचर्य'! मन, वचन और शरीर की शक्ति को किसी प्रकार से नष्ट नहीं होने देना 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है। अर्थात मन, वचन और शरीर से पवित्र रहने की चेष्टा को ही 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।  जिस प्रकार का चिन्तन करने, बोलने या कर्म करने के बाद मन में ग्लानी या अवसाद की भावना आती है,  उसे तत्काल विष के समान त्याग देना ही ब्रह्मचर्य का मुख्य सिद्धान्त है। दूसरों से कोई अच्छी वस्तु पाने की इच्छा, कहीं से कोई उपहार, भेंट या चढावा मिलते ही उसे उठा लेना- इन सबसे भी मन में दुर्बलता  और अपवित्रता आती है। मुफ्त में कुछ भी लेने से बचना -'अपरिग्रह' कहलाता है । ये पाँच सद्गुण मन को पवित्र बना देते हैं और इन्हें सम्मिलित रूप से 'यम' कहा जाता है। जीवन को संयमित और मन को पवित्र किये बिना 'मनः संयोग' ठीक-ठीक नहीं होता।
                          फिर कुछ 'नियम' भी हैं जिन्हें आदत में अवश्य शामिल कर लेना चाहिये! जीवन रूपी खेल में विजय को सुनिश्चित करने के लिये किसी कुशल खिलाड़ी की तरह नियम-पालन में महरात तो हासिल करनी ही होगी। ये पाँच नियम हैं- शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय और ईश्वर- प्रणिधान। 
              पहला है शौच यानि स्वच्छता।  शरीर और मन दोनों को स्वच्छ रखना होगा। इतना ही नहीं, अपने उपयोग में आने वाली हर वस्तु, निवास- स्थान, बिछावन, कपड़े, पढाई का टेबल, आलमीरा, खाने का स्थान और भोजन करते समय जूठन छोड़े बिना की थाली आदि  को सदैव स्वच्छ रखने की आदत डाल लेनी होगी। इसके साथ ही साथ मन को भी सर्वदा स्वच्छ,शुद्ध और पवित्र रखना होगा, अर्थात मन में केवल शुभ-संकल्प ही रखने की आदत डालनी होगी। 
                         दूसरा नियम है -संतोष या संतुष्टि का भाव। जो कुछ जितना मिला है, उतने से संतुष्ट नहीं रहकर मन में सर्वदा 'और चाहिये' 'और चाहिये' का विचार ही चलता रहे, तो उस मन को नियंत्रित करके किसी कार्य में नियोजित करना सम्भव नहीं होता। इसलिये मन को संयमित रखने के जीवन में संतोष रहना परमावश्यक है। तीसरा नियम है तपः। जीवन में सभी प्रकार के दुःख-कष्ट (शारीरिक और मानसिक)  को सहन करने की क्षमता भी होनी चाहिए। कुछ कठिनाई या दुःख-तकलीफ (Hardships) को तो जान-बूझकर उठाने की आदत रहनी चाहिये। जीवन-गठन करने में तो कई दुःख-कष्ट उठाने ही होंगे। इसीलिये सुकुमार बनने से, या हर समय बहुत सुख में रहने की इच्छा करने से जीवन में सार्थकता या सिद्धि प्राप्त करना कठिन हो जाता है। उत्तम वस्तु को प्राप्त करने के लिए, कुछ कष्ट तो उठाना ही पड़ता है। इसी को 'तप' कहते हैं। कहा भी गया है- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्" - अर्थात सुखार्थी विद्या कहाँ ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ ?
                        चौथा नियम है- 'स्वाध्याय' अर्थात नियमित रूप से विशेष अध्यन करना । हम पाठ्यक्रम की पढाई तो करते ही हैं, किन्तु जीवन-गठन का कौशल सीखने के लिये भी हमें निरन्तर विशेष-अध्यन करते रहना चाहिये। ऐसी पुस्तकों का अध्यन करना चाहिए, जिससे मनुष्य- जीवन को सुंदर ढंग से गढ़ने की प्रेरणा प्राप्त हो और उसका उपाय भी सीखा जा सके। जितना भी सम्भव हो सके -जीवन क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है, मनुष्य जीवन को सार्थक कैसे किया जाता है -इन विषयों के संबन्ध में अवश्य पढ़ना चाहिये।  इस तरह के अध्यन के लिए महापुरुषों द्वारा लिखित कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। कई महापुरुषों के जीवन और सन्देश पुस्तकालय या बाजार में मिलते हैं, लेकिन  युवाओं के लिए स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और वाणी का नियमित रूप से स्वाध्याय सर्वाधिक उपयोगी और लाभदायक है। जैसे हम प्रतिदिन बिना भोजन किये और बिना सोये नहीं रह सकते, उसी प्रकार स्वाध्याय किए बिना एक भी दिन नहीं रहना  चाहिए। 
इसके आलावा एक अन्य नियम ऐसा है जो मनःसंयोग में विशेष रूप में सहायक है,वह है -' ईश्वर-प्रणिधान' ब्रह्म या ईश्वर  में विश्वास रखते हुए ईश्वर-स्मरण करने से मन सहजता से शांत और संयत हो जाता है। किन्तु अधिकांश लोगों को ईश्वर (निराकार ब्रह्म) की सर्वव्यापकता का चिंतन करना कठिन मालूम पड़ता है, इसीलिये उनके अवतार या संदेशवाहक (दूत या पैगम्बर) जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, चैतन्य और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द में से किसी को भी अपना आदर्श मान कर चिन्तन-मनन या प्रणिधान करने से जीवन और मन का संयम सुगम हो जाता है। 
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[' ईश्वर-प्रणिधान '-***या सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता :जो विकार मन को अतिरिक्त चंचल बना देते हैं उन्हें षडरिपू कहा जाता है.वेप्रमुख शत्रु हैं- काम(Desire), लोभ और अहंकार, क्रोध, मोह, ईर्ष्या; इनको पहले नियन्त्रण में लाना अनिवार्य है. वरना ये हमें खा डालते हैं।  तात्पर्य यह कि जो भगवान का भक्त नहीं है,या किसी आदर्श के प्रति समर्पित नहीं है, उसमें महापुरुषों के जैसे गुण आ ही कहां से सकते हैं? वह तो तरह तरह के संकल्प करके निरंतर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है। अतः मन रूपी इस भूत को निश्चय ही वश में रखने का कौशल सीखना अनिवार्य  है।]
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