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शनिवार, 15 नवंबर 2014

७.'क्या करना आवश्यक है ?' ८.' जीवन के खेल में हार-जीत ' ९ .'प्रारंभिक कार्य' ["मनःसंयोग " - लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

७. अत्यन्त आवश्यक कार्य  
अब हमलोगों ने समझ लिया है कि 'मनः संयोग' किये बिना किसी भी कार्य को समुचित तरीके से करना, या किसी विषय का सम्यक ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं है। और इसी तरह मनः संयोग के बिना  जीवन को  सुंदर तरीके से गठित करना और सार्थक करना भी सम्भव नहीं है।  हमने यह भी जान लिया कि यदि  मन को अपनी इच्छा या आकांक्षा के अनुरूप किसी कार्य में नियोजित करना सीख लें, तो ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो हम नहीं कर सकें। 
मन की शक्ति असीम है, किन्तु मन स्वभावतः चंचल है। इसीलिये वह अपने आप ही जगत के विभिन्न विषयों की ओर सर्वदा दौड़ता रहता है। इसी कारण हमलोग बहुधा स्वयं को असहाय सा महसूस करते हैं और बहुत से कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं। हमारी पसंद के ढेरों ज्ञातव्य विषय हमारे लिये अज्ञात बने  रह जाते हैं और हम अपने जीवन को सफल और सार्थक नहीं कर पाते। इस परिस्थिति में हमें  क्या करना चाहिए ?
अपनी इच्छा और प्रयत्न (उद्यम) के द्वारा केवल अपने प्रयोजनीय या वांछित विषय में मन को लगा सकने का कौशल सीखना चाहिये। यदि हम इस कौशल को सीख लें, तो चंचल मन को शांत कर, उसे विभिन्न विषयों से खींचकर अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्य या विषय पर एकाग्र रख सकते हैं। इसे ही 'मनः संयोग' कहते हैं, या सरल शब्दों में मनोयोग भी कहते हैं। इस कौशल को सीख लेने से,हम किसी भी कार्य को श्रेष्ठतर तरीके से कर सकेंगे, तथा इच्छित विषय का सम्यक ज्ञान भी प्राप्त कर सकेंगे। जो सीखेंगे उसे याद भी रख सकेंगे,फिर  उस ज्ञान को उपयोग में लाकर दूसरे कार्यों को भी  श्रेष्ठतर तरीके से कर सकेंगे, और अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर लेंगे।
                किसी स्थान में एक दीपक जलाने से जिस प्रकार प्रकाश की किरणें चारों ओर फ़ैल जाती हैं,  उसी प्रकार मन की शक्ति सर्वदा चारों ओर प्रसारित होती रहती है। और जिस विषय पर पड़ती हैं, उसको हमारे सामने स्पष्ट रूप से प्रकट कर देती है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश चारों ओर पड़ता है और सब कुछ को प्रकाशित कर उन्हें स्पष्ट रूप से प्रकट करता है। तुमलोगों ने उत्तल लेंस (Convex lens) के बारे में अवश्य सुना होगा अथवा देखा भी होगा। सूर्य की किरणों को जब इस लेंस से गुजारा जाता है, तो वे अपनी वक्रता के अनुसार नजदीक या दूर के किसी बिन्दु पर केन्द्रीभूत हो जाती हैं; इसके  फलस्वरूप उस बिन्दु पर जो कुछ रहता है वह अधिक प्रकाशित हो जाता है। चूँकि सूर्य के प्रकाश की किरणों में ताप (Heat) भी रहता है, इसलिये वहाँ गरमी भी उत्पन्न होने लगती है। अगर वहाँ कागज का टुकड़ा रख दिया जाय, तो उसमें से धुआँ उठने लगता है और फिर आग भी पकड़ लेता है। उसी प्रकार मन की शक्ति की रश्मियों को अगर मनःसंयोग के द्वारा किसी विषय पर एकाग्र किया जाय, तो वह विषय  मन के सामने अधिक प्रकाशित हो जाता है। उसका सम्पूर्ण रहस्य या सभी जानने योग्य बातें बिल्कुल सही और विशुद्ध रूप में ज्ञात हो जाती हैं। किसी भी कार्य के मामले में भी मन की शक्तियों को इसी प्रकार एकाग्र अथवा एकमुखी (unidirectional) करने से वह श्रेष्ठतर तरीके से सम्पन्न हो जाता है।
             मन की शक्ति की अदृश्य रश्मियों को अकारण चारों ओर बिखर कर नष्ट नहीं होने देकर, अर्थात विभिन्न विषयों में जाने से रोक कर (खींचकर-प्रत्याहार) उन्हें एकीकृत या संघटित करके आवश्यक विषय में नियोजित करना ही 'मनः संयोग' है। अर्थात मन की शक्ति का अपव्यय न करके उसके अधिकांश, हो सके तो सम्पूर्ण उर्जा-रश्मियों को एकाग्र तथा एकमुखी बनाकर ज्ञातव्य विषय या प्रयोजनीय कार्य मे नियोजित करने को 'मनः संयोग' कहते हैं। और हमें यही करना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मन की शक्तियाँ इधर-उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं।" (१:३९)




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[स्वामी विवेकानन्द कहते है- " बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सिखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसीकारण हममें से अधिकांश मनुष्य अपने मन की क्रिया-विधि का निरिक्षण करने की शक्ति को खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ऊपर उनका प्रयोग करना, तांकि वह स्वयं अपने ही स्वभाव को समझ सके, (अन्य वस्तुओं का विश्लेषण करने के बजाय) अपने आपको विश्लेषण करके देख सके- एक अत्यन्त कठिन कार्य है।...इसके लिए काफ़ी अभ्यास आवश्यक है। पर वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार मन के विषय में जानने के लिए अग्रसर होने का यही एकमात्र उपाय है। " (वि० सा० ख० १ :४०)] 
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८ ." जीवन के खेल में हार-जीत "
किसी भी खेल के अन्तिम क्षणों में जब हार-जीत का फैसला होना होता है तो उद्वेग और उत्तेजना अपने चरम पर होती है। फिर अन्त में विजयी होने पर मन उल्लास और आनन्द से भर उठता है। किन्तु जीत उसी की होती है जो खेलते समय मन को स्थिर करके अपना पूरा ध्यान खेल के ऊपर ही केंद्रित रख सकता है; जो बड़े धैर्य के साथ खेल में अनवरत लगा रहता है। अर्थात एकाग्रता से मन को लगाये रखता है, जो खेल के नियमों और जीतने के कौशल को अच्छी तरह से जानता है, तथा सही समय पर सही दाँव चलता है। जो विजयी होता है उसे खेल जीतने की तकनीक में महारत हासिल करने के लिये, बहुत लम्बे समय तक कठोर परिश्रम के साथ अभ्यास करना पड़ता है। निपुणता से खेल सकने एवं निशंक होकर खेल की तकनीक का प्रयोग करने के लिये भी उसे लगातार अभ्यास (Practice) भी करना पड़ता है। जो कुशल खिलाड़ी खेल में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर लोगों की वाहवाही लूटता है और लक्ष्य-स्तम्भ छूने के गर्व का अधिकारी बनता है, उसे खेल को जीतने की तकनीक तथा खेल-नियमों का अनुपालन अवश्य करना पड़ता है।
                    हमारा पूरा जीवन भी एक महान खेल की तरह ही है। इस खेल में हार-जीत के ऊपर ही  निर्भर करता है कि हमारा मनुष्य-जीवन सार्थक हुआ, या यूँ ही व्यर्थ  में  नष्ट हो गया। जीवन के इस खेल में विजयी होने से जिस आनन्द और गर्व की अनुभूति होती है, वैसा आनन्द क्या अन्यत्र कहीं उपलब्ध है ? लेकिन इस खेल में पराजित हो जाने पर जिस गहरी पीड़ा और निराशा की अनुभूति होती है, उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।  फ़िर भी हममें से अधिकांश  का जीवन व्यर्थ हो जाता है। 
                 किन्तु जो लोग इस जीवन-संग्राम में विजयी होते हैं, उन्हें ही मानव-जाति हमेशा-हमेशा के लए याद रखती है। उनके प्रति श्रद्धा रखती है, तथा उनको ही अपना नेता मानकर उनका अनुसरण करने की अभिलाषा रखती है। इसलिए इस बात का निर्णय हमें आज ही कर लेना होगा कि जीवन के खेल में पराजय हमें कदापि स्वीकार नहीं है। और जितनी कम उम्र में इस निर्णय पर पहुँचा जाय उतना ही श्रेयस्कर होगा, क्योंकि ऐसा होने से खेल अथवा जीवन-संग्राम के लिये पर्याप्त समय मिल जाता है। इस खेल में जीतने की तकनीक को कम उम्र में ही सीख लेने से इसमें विजय सुनिश्चित हो जाती है। यह निर्णय हमें स्वयं करना है कि क्या हम जीवन को व्यर्थ में (आहार,निद्रा,भय, मैथुन में) नष्ट होने देंगे ? बोलो - तुम क्या कहते हो?
                             लेकिन इस जीवन-संग्राम रूप खेल में विजयी होने का वास्तविक कौशल क्या है? इसका वास्तविक कौशल है- मन को अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार कार्य या विषय पर केन्द्रीभूत करने की पद्धति सीखना,उसे  संयमित और संघटित करके एकाग्र बनाने की तकनीक सीखना,और उस तकनीक का प्रयोग करके अपने मन को पूरी तरह से वशीभूत कर लेना। मनमाने ढंग से मन को इधर-उधर भागने न देकर पूरी तरह से अपने वश में रखने को ही मन का संयम (mortification) कहते हैं। मन की शक्ति इच्छानुसार (Ad lib) बहिर्मुखी होकर इन्द्रिय विषयों में बिखरी हुई है, मन को बच्चे जैसा समझा-बुझाकर उसको इन्द्रिय विषयों से खींचकर, उसे मन के ऊपर ही एकाग्र रखने की क्षमता को ही मन को संघटित करना या संयत करना कहते हैं। मन की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को एकोन्मुखी (Unidirectional)कर लेने को ही मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) कहते हैं। और इस प्रकार से एकाग्र मन को कुछ समय तक किसी एक ही विषय में संलग्न रख पाने को मनःसंयोग कहते हैं। इसे ही मनोयोग या मन को लगाना भी कहते हैं।
                    किसी भी प्रयास में सफलता या विजय इसी मनोनिवेश के परिमाण पर निर्भर करती है। हमें आजीवन कितने ही प्रयत्न या कार्य निरंतर करने पड़ते हैं। उन कार्यों को हर समय मनोयोग पूर्वक करते रहने में सक्षम होने से जीवन में विजय अवश्यम्भावी है। इसलिए हमें अपने मन को वश में लाना ही होगा। हम जानते हैं कि यह कार्य बहुत कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं है। मनुष्य के लिये कुछ भी करना असंभव  नहीं है, क्योंकि मनुष्य अनन्त शक्ति का अधिकारी है। और वह अनन्त शक्ति उसके इसी मन कि गहराई में छुपी हुई है। अतः  उस शक्ति को प्राप्त करके जीवन को सार्थक बनाने के लिये जितना भी जितना भी जोर लगाना पड़े, जितना भी परिश्रम करना पड़े, मैं करूँगा, तथा उत्साह और धैर्य का साथ कभी नहीं छोड़ूँगा !इस प्रकार मन को अपने वश में लाकर जीवन-संग्राम में अपनी विजय सुनिश्चित कर लूँगा, प्रशंषा या वाहवाही की लालसा नहीं रखूँगा। जब मनुष्य बनकर जन्म लिया है, तो विज्ञानी बनकर (जगत को कारण सहित जानकर) इस जीवन को अवश्य सार्थक करूँगा। कहिये, यह सब सोचते हुए भी कितना आनन्द मिलता है !
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए- अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश या परिस्थितियाँ उसको दबाये  रखने के लिए प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने के इस प्रयत्न (महान-खेल) का नाम ही जीवन है। " (विवेकानन्द-चरित पृष्ठ -१०८) "  
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त करने के लिये सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना, उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे उलट कर, अन्तर्मुखी करके आत्मा के ओर जाने वाले मार्ग में ही एकाग्र रखने का अभ्यास करना,  मनः संयोग है।"(१:११८) 
"आगे बढो ! सैकडों युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ ! ... मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिए।" (३:३४४) 
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 ९ .प्रारंभिक कार्य 
       आओ अब हम यह देखें कि मनःसंयोग किया कैसे जाता है ? हमने यह समझ लिया है कि मुख्य कार्य मन को संयमित करना है, अर्थात उसे अपना अर्दली (orderly) या अनुशासित आदेशपाल बना लेना है।  लेकिन यदि हमारे दैनिक जीवन में संयम नहीं हो, तो किसी भी उपाय से स्वभावतः चंचल मन को संयमित करना सम्भव नहीं है। इसलिये कार्य का प्रारंभ दैनंदिन जीवन को संयम में रखने की चेष्टा से ही करना होगा। जीवन में संयम रखने का तात्पर्य है कि हमारी सोच (thinking) वाणी (utterance) एवं कर्म (action) सभी पर हमारा नियंत्रण हो। 
           यदि हमारा जीवन ही असंयत (extravagant) हो, तो मन को अनुशासित (disciplined) बनाना या उस पर शासन करना अथवा मनःसंयोग या मन की एकाग्रता (कॉन्सनट्रेशन ऑफ़ माइंड) प्राप्त करना असम्भव है । जीवन को संयमित करने के लिये आवश्यक है -संकल्प, मन की दृढ़ता, उत्साह, धैर्य और कर्मठतापूर्वक किया जाने वाला प्रयास, उद्यम या अभ्यास। लेकिन यदि हम जीवन में कुछ नियमों का पालन नहीं करें, तो इन गुणों को अर्जित नहीं किया जा सकता। अतएव  मनःसंयोग सीखकर यदि जीवन को सुंदर और सार्थक करना चाहते हों, तो सबसे पहले हमें अपनी इच्छाओं के ऊपर लगाम लगाना सीखना होगा। विचार करते समय, बोलते समय और कुछ भी करते समय- हमेशा अनुशासित रहना होगा तथा कुछ नियमों का पालन भी करना होगा। तभी हम मनःसंयोग की वैज्ञानिक पद्धति सीखने में कामयाब हो सकते हैं। 
                 जीवन को संयमित और अनुशासित रखने के लिये कुछ गुणों (यम-नियम) को जानकर उन्हें सदैव याद रखना, तथा उन्हें अपने जीवन में धारण करने का अभ्यास निरंतर करते रहना आवश्यक है। जिन गुणों को धारण किये रहने का अभ्यास निरंतर करते रहना है, वे हैं - अहिंसा, सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह। मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्राणी को कभी कष्ट न पहुँचाना 'अहिंसा' कहलाती है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "मैं किसी भी व्यक्ति या जीव को विचार,वचन या कर्मों से आहत नहीं करूँगा ! एक बार इस प्रकार का दृढ़-मनोभाव बना लेने से ह्रदय में जिस आनन्द कि उपलब्धि होती है, उससे अधिक आनन्द अन्य किसी चीज़ से प्राप्त नहीं होती! "
              उसके बाद है 'सत्य' के ऊपर आरूढ़ रहना। जो सत्य है, सर्वदा वही बोलना। यह भी एक बड़ा गुण है। दूसरों की वस्तुओं को छुपाकर, बिना पूछे या बलपूर्वक ले लेना बहुत बुरी बात है।  ऐसा करना उचित नहीं है। दूसरे की वस्तु को चोरी करने की इस भावना का आभाव-'अस्तेय ' कहलाता है। एक अन्य  महत्वपूर्ण गुण है 'ब्रह्मचर्य'! मन, वचन और शरीर की शक्ति को किसी प्रकार से नष्ट नहीं होने देना 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है। अर्थात मन, वचन और शरीर से पवित्र रहने की चेष्टा को ही 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।  जिस प्रकार का चिन्तन करने, बोलने या कर्म करने के बाद मन में ग्लानी या अवसाद की भावना आती है,  उसे तत्काल विष के समान त्याग देना ही ब्रह्मचर्य का मुख्य सिद्धान्त है। दूसरों से कोई अच्छी वस्तु पाने की इच्छा, कहीं से कोई उपहार, भेंट या चढावा मिलते ही उसे उठा लेना- इन सबसे भी मन में दुर्बलता  और अपवित्रता आती है। मुफ्त में कुछ भी लेने से बचना -'अपरिग्रह' कहलाता है । ये पाँच सद्गुण मन को पवित्र बना देते हैं और इन्हें सम्मिलित रूप से 'यम' कहा जाता है। जीवन को संयमित और मन को पवित्र किये बिना 'मनः संयोग' ठीक-ठीक नहीं होता।
                          फिर कुछ 'नियम' भी हैं जिन्हें आदत में अवश्य शामिल कर लेना चाहिये! जीवन रूपी खेल में विजय को सुनिश्चित करने के लिये किसी कुशल खिलाड़ी की तरह नियम-पालन में महरात तो हासिल करनी ही होगी। ये पाँच नियम हैं- शौच, संतोष, तपः, स्वाध्याय और ईश्वर- प्रणिधान। 
              पहला है शौच यानि स्वच्छता।  शरीर और मन दोनों को स्वच्छ रखना होगा। इतना ही नहीं, अपने उपयोग में आने वाली हर वस्तु, निवास- स्थान, बिछावन, कपड़े, पढाई का टेबल, आलमीरा, खाने का स्थान और भोजन करते समय जूठन छोड़े बिना की थाली आदि  को सदैव स्वच्छ रखने की आदत डाल लेनी होगी। इसके साथ ही साथ मन को भी सर्वदा स्वच्छ,शुद्ध और पवित्र रखना होगा, अर्थात मन में केवल शुभ-संकल्प ही रखने की आदत डालनी होगी। 
                         दूसरा नियम है -संतोष या संतुष्टि का भाव। जो कुछ जितना मिला है, उतने से संतुष्ट नहीं रहकर मन में सर्वदा 'और चाहिये' 'और चाहिये' का विचार ही चलता रहे, तो उस मन को नियंत्रित करके किसी कार्य में नियोजित करना सम्भव नहीं होता। इसलिये मन को संयमित रखने के जीवन में संतोष रहना परमावश्यक है। तीसरा नियम है तपः। जीवन में सभी प्रकार के दुःख-कष्ट (शारीरिक और मानसिक)  को सहन करने की क्षमता भी होनी चाहिए। कुछ कठिनाई या दुःख-तकलीफ (Hardships) को तो जान-बूझकर उठाने की आदत रहनी चाहिये। जीवन-गठन करने में तो कई दुःख-कष्ट उठाने ही होंगे। इसीलिये सुकुमार बनने से, या हर समय बहुत सुख में रहने की इच्छा करने से जीवन में सार्थकता या सिद्धि प्राप्त करना कठिन हो जाता है। उत्तम वस्तु को प्राप्त करने के लिए, कुछ कष्ट तो उठाना ही पड़ता है। इसी को 'तप' कहते हैं। कहा भी गया है- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्" - अर्थात सुखार्थी विद्या कहाँ ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ ?
                        चौथा नियम है- 'स्वाध्याय' अर्थात नियमित रूप से विशेष अध्यन करना । हम पाठ्यक्रम की पढाई तो करते ही हैं, किन्तु जीवन-गठन का कौशल सीखने के लिये भी हमें निरन्तर विशेष-अध्यन करते रहना चाहिये। ऐसी पुस्तकों का अध्यन करना चाहिए, जिससे मनुष्य- जीवन को सुंदर ढंग से गढ़ने की प्रेरणा प्राप्त हो और उसका उपाय भी सीखा जा सके। जितना भी सम्भव हो सके -जीवन क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है, मनुष्य जीवन को सार्थक कैसे किया जाता है -इन विषयों के संबन्ध में अवश्य पढ़ना चाहिये।  इस तरह के अध्यन के लिए महापुरुषों द्वारा लिखित कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। कई महापुरुषों के जीवन और सन्देश पुस्तकालय या बाजार में मिलते हैं, लेकिन  युवाओं के लिए स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और वाणी का नियमित रूप से स्वाध्याय सर्वाधिक उपयोगी और लाभदायक है। जैसे हम प्रतिदिन बिना भोजन किये और बिना सोये नहीं रह सकते, उसी प्रकार स्वाध्याय किए बिना एक भी दिन नहीं रहना  चाहिए। 
इसके आलावा एक अन्य नियम ऐसा है जो मनःसंयोग में विशेष रूप में सहायक है,वह है -' ईश्वर-प्रणिधान' ब्रह्म या ईश्वर  में विश्वास रखते हुए ईश्वर-स्मरण करने से मन सहजता से शांत और संयत हो जाता है। किन्तु अधिकांश लोगों को ईश्वर (निराकार ब्रह्म) की सर्वव्यापकता का चिंतन करना कठिन मालूम पड़ता है, इसीलिये उनके अवतार या संदेशवाहक (दूत या पैगम्बर) जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, चैतन्य और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द में से किसी को भी अपना आदर्श मान कर चिन्तन-मनन या प्रणिधान करने से जीवन और मन का संयम सुगम हो जाता है। 
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[' ईश्वर-प्रणिधान '-***या सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता :जो विकार मन को अतिरिक्त चंचल बना देते हैं उन्हें षडरिपू कहा जाता है.वेप्रमुख शत्रु हैं- काम(Desire), लोभ और अहंकार, क्रोध, मोह, ईर्ष्या; इनको पहले नियन्त्रण में लाना अनिवार्य है. वरना ये हमें खा डालते हैं।  तात्पर्य यह कि जो भगवान का भक्त नहीं है,या किसी आदर्श के प्रति समर्पित नहीं है, उसमें महापुरुषों के जैसे गुण आ ही कहां से सकते हैं? वह तो तरह तरह के संकल्प करके निरंतर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है। अतः मन रूपी इस भूत को निश्चय ही वश में रखने का कौशल सीखना अनिवार्य  है।]
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सोमवार, 10 नवंबर 2014

५. मन का स्वाभाव / $$$$ ६.मन की स्वाभाविक चंचलता और द्रुत-गतिशीलता दोष नहीं गुण ! .["मनःसंयोग " - लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

५. मन का स्वाभाव  
मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है। मन की गति भी प्रचण्ड है। अभी हमारा मन यहाँ है तो दुसरे ही क्षण धरती के दूसरे छोर तक चला जाता है या सुदूर आकाश के किसी कोने में जा पहुँचता है। हमारा यह मन ध्वनि ही नहीं प्रकाश की गति से भी अधिक वेगवान है। सभी दिशाओं से असंख्य सूचनाएं और संवाद पंचेन्द्रिय के माध्यम से मन को हर क्षण प्राप्त होते रहते हैं, इसलिए यह सर्वदा विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओ या कल्पनाओं के उधेड़-बुन में डूबा ही रहता है। यहाँ तक की कि स्वप्न में भी हमारा मन कितने ही प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करता रहता है, देखता रहता है और आस्वादन भी करता है। 
               मन (चित्त)  की तुलना प्रायः किसी शान्त सरोवर से की जाती है। जैसे मंद गति के वायु प्रवाह से भी  जल की सतह पर छोटी-छोटी लहरें या उठती रहती हैं, उसी प्रकार जगत के नाना विषयों के संवादों से मन में भी सदैव विचार-तरंगें उठती रहती हैं। हमारे शांत चित्त-सरोवर में पंचेंद्रियों के विषय रूपी कंकड़  गिरते रहते हैं,इसीसे वह सदैव उद्वेलित और दोलायमान बना रहता है। इन्द्रियाँ मन को सदैव बाह्य विषयों की ओर खींचते रहती हैं। निरंतर ऐसा होते रहने से वह इसका अभ्यस्त हो जाता है, इसीलिये विभिन्न वस्तुओं या विषयों की ओर हमेशा दौड़ते रहना मन का स्वभाव बन जाता है। 
स्वामी विवेकानन्द ने मन के स्वभाव की व्याख्या बन्दर के एक रूपक के द्वारा समझाया है - " कहीं एक बन्दर था। वह स्वभावतः चंचल था, जैसे कि सभी बन्दर होते हैं। लेकिन उतने से संतुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफ़ी शराब पिला दी। इससे वह और भी चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया। तुम जानते हो, किसीको बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर-उधर कितना तड़पता रहता है। सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक ! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया। तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया। यह सब मिलकर, सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा। यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असंभव है। 
                   बस मनुष्य का मन उस बन्दर के ही सदृश्य है। मन तो स्वभावतः सतत चंचल है ही, फ़िर वह वासनारूप मदिरा से मत्त है।  इससे उसकी अथिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर इर्ष्या रूपी बिच्छू डंक मारता ही है, जिससे मन और तड़पने लगता है। (वह अतिरिक्त चंचल हो जाता है) उसके ऊपर भी जब अहंकार रूपी भूत मन पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है ! सोचो तो इसका संयम करना कितना कठिन है ! "(विवेकानन्द साहित्य ख ० -१: ८६)
मनुष्य का मन स्वभाव से ही चंचल बना रहता है। क्योंकि चित्त (Mind Stuff) में कई प्रकार के विषय-संवाद रूपी कंकड़ गिरते रहते हैं, जो उसे सर्वदा तरंगायित किये रहते हैं, और मन सदैव 'यह क्या है', 'वह क्या है' करता ही रहता है। फिर तरह- तरह की वस्तुओं को देख-सुनकर, नाना प्रकार के भोगों की कामना -वासना उसे  मदिरा की तरह नशे में धुत् किये रहता है। फिर दूसरों के सुख-ऐश्वर्य को सहन न कर पाने से अकारण ही वह सर्वदा ईर्ष्या-द्वेष रूपी बिच्छू के डंक से छटपट करता रहता है। और इन सबके उपर अहंकाररूपी भूत का क्या कहना, जो सर्वदा उस पर सवार रहता है। (मैं क्या कम हूँ? दिखा दूंगा) जरा विचार तो करो, इस प्रकार के मन वाले मनुष्य की दशा कैसी होती होगी ? और ऐसे मन को नियंत्रित करना कितना कठिन होगा ? 
             तथापि इसी मन की शक्ति से हमें समस्त कार्य करने होंगे और सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने होंगे। साधारण ढंग से जीवन- निर्वाह करने के लिये भी हमें मन की शक्ति की आवश्यकता होती है। फ़िर यदि अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर दूसरे मनुष्यों का कल्याण करना हमारा उद्देश्य हो, तब तो मन की शक्ति की आवश्यकता और अधिक बढ़ जाती है। जीवन को सुंदर ढंग से गठित करने के लिये ज्ञान अर्जित करना होगा तथा पारदर्शी विचार-क्षमता या विवेक-सामर्थ्य की सहायता से अच्छा-बुरा अर्थात शाश्वत -नश्वर का विवेक धारण कर अपना जीवन लक्ष्य निश्चित करना होगा।
                मन में केवल कल्याणकारी विचार (मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी विचार) भरने होंगे। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (अटलता) (3P -'Purity, Patience, Perseverance ) ये सभी मन के गुण हैं, और सर्वोपरि है- हृदय - विकसित या 'मातृहृदय-स्थित 'प्रेम' (Love) !  हम इन गुणों की उपेक्षा करके अपने जीवन को सार्थक नहीं कर सकते हैं। इन सदगुणों को धारण करने के लिये, पहले मन की अतिरिक्त चंचलता और अनुशासनहीनता (असंयम) को नियंत्रित करना अनिवार्य है। मन को शांत करना होगा,उसके ऊपर प्रभुत्व रखना होगा, उसको संयमित, धैर्यवान बनाकर लक्ष्य के ऊपर केन्द्रीभूत करना होगा, तभी हम अपने जीवन को सुंदर रूप से गठित कर अपने निर्धारित लक्ष्य -'मनुष्य बनो और बनाओ' (BE AND MAKE ) को पा सकेंगे। 
             किन्तु मन के स्वभाव के सम्बन्ध में जान लेने के बाद मन में थोड़ी हताशा उतपन्न हो जाती है कि जब मन का स्वभाव इतना चंचल है, तो हम उसे कैसे संयमित करेंगे ? और मनःसंयोग करके कैसे जीवन- लक्ष्य तक पहुँच पायेंगे? किन्तु हताश होने जैसी कोई बात नहीं है। कठिन होने पर भी मन को संयत करना सम्भव है। मन के सदैव चंचल बने रहने के कारणों को ठीक से समझ लेने पर, उसको पूरी तरह से अपने वश में रखने का उपाय भी सीखा जा सकता है। लेकिन मन के ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करने से जीवन को सार्थक करना सम्भव नहीं है। अतः मन को अपने वश में रखने की विधि - (मनः संयोग की पद्धति) को सीख कर उसका अभ्यास करने से ही, जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर अपने जीवन को सार्थक और आनंदमय बनाया जा सकता है।

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[मोहजनित मल : स्वर्ण-मृग (कामिनी -कांचन की घोर आसक्ति) के ऊपर विवेक-प्रयोग नहीं करने वाला 
भ्रमित या हिप्नोटाइज्ड मनुष्य दौड़ लगाते-लगाते अपने बहुमूल्य मानव-जीवन को नष्ट कर लेता है। सन्त  
तुलसी दास जी महाराज विनय पत्रिका (८२) में कहते
मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई।।
मोहसे उत्पन्न जो अनेक प्रकारका (पापरूपी कचरा ) मल लगा हुआ है, वह करोडों उपयोंसे भी नहीं छुटता। अनेक जन्मोंसे यह मन पापमें लगे रहनेका अभ्यासी हो रहा है, इसीलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है।।]
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$$$$$६. मन की स्वाभाविक चंचलता और द्रुत-गतिशीलता दोष नहीं गुण !        
मन को दोष देते हुए कहा जाता है कि, यह मन बन्दर के समान चंचल है, किन्तु मनुष्यों का मन यदि चंचल नहीं होता, सर्वदा स्थिर ही रहता, तो उसे भले और कुछ संज्ञा दी जा सकती थी पर उसे मन नहीं कहा जाता। जैसे कोई सोचे कि यदि पारा ठोस होता तो अच्छा होता, लेकिन तब थर्मामीटर और  बैरोमीटर जैसे  यन्त्र कैसे काम कर पाते ? पारा में यह गुण उसके आपेक्षिक गुरुत्व (Specific gravity) तथा सांद्रता या गाढ़ापन (viscosity) के कारण ही विद्यमान रहता है। पारा में इन गुणों के रहने के कारण ही उससे जो कार्य किए जाते हैं, वे किसी अन्य पदार्थ से नहीं किये जा सकते।
                 उसी प्रकार मन के भी कई स्वाभाविक गुण (चंचलता और तीव्र गतिमान आदि) हैं। और इन्हीं गुणों के रहने के कारण इतने महत्वपूर्ण कार्यों में (आविष्कार करने, ब्रह्म को भी जानने में) मन का ऐसा उपयोग हम कर पा रहे हैं। क्योंकि मन की संज्ञा वाला कोई बिल्कुल ठोस वस्तु यदि तुम्हारे सिर के किसी भाग में, या छाती के किसी कोने में प्रत्यारोपित कर दिया गया होता, तुम भी एक जड़ पदार्थ सदृश्य  ही होते। क्योंकि मन के चंचल नहीं होने से, तुम्हारे मन में कोई विचार ही नहीं उठता। तुम अशुभ तो क्या शुभ चिंतन भी नहीं कर पाते। मनुष्य का पूरा जीवन ही दूसरे प्रकार का (बनस्पति जगत के प्राणी जैसा) हो गया होता। तुम्हारे मन में न कोई प्रश्न उठता न ही तुम उन प्रश्नों के उत्तर पाने की चेष्टा करते। मन यदि सदा चंचल नहीं बना रहता तो, मन की शक्ति से जितने कार्य किये जाते हैं (प्राकृतिक नियमों का आविष्कार आदि कार्य), उन्हें करना भी सम्भव नहीं होता। मन कैसा-कैसा कार्य कर लेता है? वह चंचल है, तभी तो नित्य-नूतन वैज्ञानिक आविष्कार सम्भव हो रहे हैं। इतना ही नहीं यथोचित प्रयास करने पर वह, इसी के द्वारा अपने बनाने वाले अथवा -ब्रह्माण्ड के नियन्ता ब्रह्म को भी जानने का सामर्थ्य रखता है!
             किन्तु मन तो स्वभावतः चंचल है, यदि हम मन को नियंत्रित करना नहीं सीखें तो उसकी सहायता किया जाने वाला आवश्यक या प्रयोजनीय कार्य करना सम्भव नहीं होगा। अति-सामर्थ्यवान् किन्तु उदण्ड मन रूपी भूत यदि हमें ही खाने के लिये दौड़े, अर्थात जिस मन को हमें  शासित रखना चाहिये वह हमें ही शासित करने लगे, तब तो बिल्कुल विपरीत परिणाम होंगे। अतः मन-रूपी बंदर पर चढ़ा अहंकार का भूत हमें खा नहीं जाय,इसके लिये कोई अन्य शिक्षा लेने के पहले मन को अपने वश में करने  की विद्या अर्थात विवेक-दर्शन की पद्धति ***अवश्य सीखनी होगी। 
              क्योंकि मन का स्वाभाविक तौर से चंचल होना बहुत अच्छी बात है, परन्तु 'उभयतो-वाहिनी चित्त-नदी के प्रवाह' का अनियंत्रित होना चिन्तनीय हैअतः सिर्फ चंचल होने से मन को दुष्ट या शैतान नहीं समझना चाहिये। यदि वह हमारे द्वारा शासित नहीं है,तभी वह हमारे साथ शत्रुओं के जैसा व्यवहार करेगा। इसके विपरीत यदि वह हमारे द्वारा शासित है तब तो वह हमारा सबसे बड़ा मित्र भी है। (कहा गया है -मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥ मन ही मानव के बंध और मोक्षका कारण है, जो वह विषयासक्त हो तो बंधन कराता है और निर्विषय हो तो मुक्ति दिलाता है। (अर्थात सिंह-शावक को भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड कर देता है।   
                   मन के चंचल होने का या अहंकार के बढ़ जाने का मूल कारण है 'चित्त-नदी का उभयतो-वाहिनी प्रवाह। मन यदि दोलायमान नहीं हो पाता, तो इसमें किसी भी प्रकार के विचारों का उठना सम्भव ही नहीं था। मन के अनवरत दोलायमान रहने के फलस्वरूप ही मन में विचारों का अविच्छिन्न प्रवाह  चलता रहता है। किन्तु यदि मन अपनी इच्छानुसार मनमाने ढंग से दोलायमान या उद्वेलित होता रहे, तथा उसपर हमारा थोड़ा भी नियंत्रण नहीं हो, तो हमारी अवस्था भी उसी मदमस्त बन्दर के सामान हो जायेगी। और लगभग प्रत्येक व्यक्ति की वर्तमान अवस्था कमोबेश वैसी ही है। 
          चंचलता ही मन का धर्म है। मनःस्थिति कब कैसी है, यह समझ पाना हर समय सम्भव नहीं होता। फ़िर भी मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो मन कि समस्त चंचलता को शांत कर सकता है। जो मन को जीत सकता है-वही वीर है (माँ का भक्त या हीरो है),विश्वविजयी है ! वही यथार्थ 'मनुष्य' या 'मनुष्य' जैसा 'मनुष्य' या (Man with Capital 'M') है। ऐसे मनुष्य से ही समाज और देश कुछ आशा रख सकता है।  जिसने अपने मन को वशीभूत कर लिया है, वही समाज को सही नेतृत्व भी दे सकता है। सिर्फ़ मन ही क्यों, इस जगत में सब कुछ चंचल है। सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड ही असाधारण चंचलता की 'खुली खदान' (quarry) है; चंचलता से ही जगत की सृष्टि हुई है। इस असाधारण चंचलता के मध्य रहते हुए भी, मैं 'निर्वातनिष्कम्पमिव प्रदीपम्' - हवा से रहित स्थान में किसी 'निष्कंप प्रदीप' के समान अन्तःकरण का अधिकारी बन सकता हूँ। समस्त चंचलता के मध्य भी मैं (अपने यथार्थ स्वरुप को जान लेने के बाद) बिल्कुल शांत या स्थिर होकर रह सकता हूँ। यही मनुष्य की बहादुरी है ! यही मनुष्य की महिमा है ! इसी सामर्थ्य के कारण मनुष्य को 'मनुष्य' कहा जाता है। 
                 लेकिन जो लोग कहते हैं कि मन की चंचलता या मतवालेपन के साथ 'मैं भी मतवाला बन जाऊंगा', ऐसे उन्मादी लोगों को कुछ समय के लिये तो क्षणिक सुख प्राप्त हो सकता है, किन्तु थोड़े दिनों के बाद उन्हें असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ेगी। इसीलिये जो विद्वान् (विवेकी) जन हैं वे जगत के समस्त वस्तुओं की चंचलता या नर्तन देखकर स्वयं ही नहीं नाचने लगते। क्योंकि वे जानते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा? वे जानते हैं कि समस्त चंचलता के मध्य शांत और स्थिर कैसे रहा जा सकता है ! और जो लोग यह कर पाते हैं, उनके लिये वैसा कुछ भी शेष नहीं रहता जिसे वे नहीं कर सकते हों! अब यह पूरी तरह से हमारे विवेक पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों तरह की संभावनाओं (शाश्वतसुख -नश्वरसुख) में से हम 
किसका चयन करेंगे ? और भविष्य में हम कैसा मनुष्य बनेंगे; यह हमारे इसी विवेक-प्रयोग क्षमता पर निर्भर करता है। फिर विवेक-सामर्थ्य युक्त और चरित्रवान मनुष्यों की संख्या पर यह निर्भर करता है, कि भविष्य में हमारा परिवार, समाज अथवा राष्ट्र कैसा बनेगा ? (या भारत विश्वगुरु बनेगा या नहीं )? 
           सुख-प्राप्ति की इच्छा सभी मनुष्यों में पायी जाती है। मनुष्य धन कमाने के लिए जितनी भाग-दौड़ करता है, चेष्टा और श्रम करता है, उस सब के पीछे केवल सुख भोगने की इच्छा ही होती है। किन्तु मोहित या अचेत मनुष्य (हिप्नोटाइज्ड-भेंड़) विवेक-सामर्थ्य से रहित होने के कारण गलत जगह में सुख की खोज करता है।  और इन्द्रिय-विषयों से मिलने सुख के पीछे दौड़ते हुए अपने जीवन को ही व्यर्थ में गँवा देता है।  आज का मनुष्य संसार के भौतिक संसाधनों में सुख खोज रहा है, सुख की प्रत्याशा में ही वह कर्म करता है, तथा आशा करता है की उसे सुख अवश्य मिलेगा।  पर ऐसा होता नहीं है। 
              क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि आज भी हमारे देश में असंख्य ऐसे मनुष्य हैं, जिन्हें जी-तोड़ मेहनत करने पर भी दो जून की रोटी नसीब नहीं होती ? वे अज्ञान के अंधेरे में रहने को विवश हैं। यदि हम इन स्थितियों में परिवर्तन लाना चाहते हों, तो पाश्चात्य-भोगवादी संस्कृति प्रदत्त इस उन्मादी और चंचलतापूर्ण जीवन के मध्य भी स्वयं को स्थिर या अविचल रखने कि शिक्षा ग्रहण करनी होगी।'मनःसंयोग' अर्थात मन की एकाग्रता की विधि सीखनी होगी। फिर शांत और स्थिर मन से सबकुछ देखने पर सबका अर्थ समझ में आने लगेगा। देश की समस्त समस्याओं की जड़ और उन समस्त समस्याओं का समाधान सबकुछ स्पष्ट रूप से  
उद्भासित हो जाएगा। 
हम अच्छी तरह से जान जायेंगे कि आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, भयशून्यता, त्याग और सेवापरायणता ही हममें चारित्रिक दृढ़ता और वह शक्ति उत्पन्न करेंगे जिसके बल पर हम संकल्प ले सकेंगे कि स्वयं को मन की उन्मादी एवं पागल तरंगों में नहीं बहने देंगे, बिना विवेक-प्रयोग किए कोई भी कार्य नहीं करेंगे तथा मन की क्षणिक दुर्बलताओं के आवेग से स्वयं को मुक्त कर लेंगे। फिर अपनी अन्तर्निहित शक्ति (दिव्य-प्रेम) को प्रकट करेंगे और अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित कर उसे मनुष्य के कल्याण में न्योछावर कर देंगे। इस प्रकार स्वभावतः चंचल मन को अपने वश में लाकर, उसे उपयोगी कार्यों में नियोजित करने की पद्धति सीखने से ही स्वयं में एवं विश्व में वांछित परिवर्तन लाया जा सकता है। 

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 [ सुख की विभिन्न संभावनाओं*** आम विषयी लोग जिसे ( इन्द्रिय विषय भोगों को ) सुख समझते हैं, उसकी तुलना दाद-खाज से करते हुए आचार्य नरहरि ने कहा है-' कंडूयनेन यत कंडू सुखं तत किं भवेत सुखम । पाश्चादत्र महापीड़ा तथा वैषेयिकं सुखं ।।'अर्थात दाद-खाज खुजलाते समय जिस क्षणिक सुख का अनुभव होता है, क्या उसे सच्चा सुख समझना कोई बुद्धिमानी है ? खुजला देने के बाद वहाँ जिस प्रकार के तीव्र जलन का अनुभव होता है, इन्द्रिय-विषय भोगों से मिलने वाले सुख को भी वैसा ही समझना चाहिए.गीता (१८/३७-३९) में भगवान ने कहा है - " इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होने वाला सुख प्रारम्भ में तो अमृत के समान मालूम पड़ता है, किन्तु (कंडू सुखं की भाँति) उसका परिणाम में  विष के समान होता है. इस प्रकार से प्राप्त होने वाले सुख को राजसिक सुख कहा गया है. अतिभोगी और विलासी लोगों को विवेकहीन होने के कारण (शराबियों आदि को) जिस सुख का अनुभव होता है,वह भोगने के प्रारंभ एवं परिणाम में भी मनुष्य को मोहित (अचेत) कर देता है, उसे तामसिक सुख कहा गया है. एवं जो सुख प्रारम्भ में तो कष्टकर प्रतीत होता है (प्रत्याहार का अभ्यास और वैराग्य ), किन्तु परिणाम में (परिपक्व ज्ञान-वैराग्य) अमृत जैसा प्रीतिकर लगता हो, उसे सात्विक सुख कहा जाता है.श्रेय (Good) अर्थात शाश्वत,और प्रेय (Pleasant)अर्थात नश्वर?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, यह कहानी हिंदू, मुस्लमान, इसाई सभी धर्म के पुराणों में पायी जाती है। " सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है. मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से-यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है. मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं. देवताओं को भी ज्ञान-लाभ के लिए मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है. एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं. यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की. और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने सभी देवदूतों को बुलाकर मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने को कहा. इबलीस को छोड़ कर बाकि सब ने मनुष्य के आगे अपने सिर को झुकाया. अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया. इससे वह शैतान बन गया. " (१/५३) 
मन कैसे कैसे अद्भुत कार्य नहीं कर लेता ? ***श्रीमद्भागवत पुराण (११-९-२८) में इस बात के इस प्रकार वर्णन आता है- सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है...
 सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं
मुदमाप देव:॥

- अर्थात ब्रह्माण्ड की मूलभूत शक्ति ने (माँ जगदम्बा या महत् तत्व ने ) स्वयं को सृष्टि के रूप में क्रमविकसित किया ....और, इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप-रेंग कर चलने वाले, पशु, पक्षी, डंक मारने वाले कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु ,उस सृजन से विधाता को सन्तुष्टि नहीं हुई, क्योंकि उन प्राणियों में उस परमचैतन्य की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकी थी। अत: अन्त में विधाता ने मनुष्य का निर्माण किया, उसकी चेतना इतनी विकसित थी कि वह उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था;अर्थात जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता था !और अपने इस रचना को देखकर ब्रह्म अत्यन्त प्रसन्न हो गये! (पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवा !) मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! 

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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

$$$$$४. मन क्या है ?(3H) [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

४. मन क्या है ? 
अब तक हमने देखा कि श्रेष्ठ जीवन जीने के लिये अपने कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करना होगा तथा विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करना होगा  और इसके लिये 'मनः संयोग' की क्षमता अर्जित करनी होगी।   यदि हमलोग न केवल जीवित रहना चाहते हों वरन जीवन को सफल एवं सार्थक भी बनाना चाहते हों तो  इस जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करना आवश्यक होगा तथा इसके लिये भी ज्ञान अर्जित करना होगा और अनेक प्रयास करने होंगे। अर्थात श्रेष्ठ जीवन-गठन करने के लिये 'मनः संयोग' सीखना अनिवार्य है
                      अब प्रश्न यह है कि ' मन' से हमारा तात्पर्य क्या है ? उसे तो देखा नहीं जा सकता, उसे मुट्ठी में पकड़ा भी नहीं जा सकता तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि 'मन' है । 'मन' नहीं है  - ऐसा कोई नहीं कहता। 'यहाँ मेरा मन नहीं लग रहा है', मन घबरा रहा है', 'मन प्रसन्न है' अथवा  'दुःखी'  है- ऐसी कितनी ही बातें मन के विषय में हमलोग निरंतर कहते रहते हैं। अर्थात हम भली-भाँति जानते हैं कि मन है ; किन्तु ये मन है क्या चीज ? मन के बारे में इतना कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि 'मन' है।  
हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? बिना सोंचे-समझे अकस्मात् हमारे मन में विचार कौंध जाता है कि वह शरीर ही तो है। परन्तु अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते ? बहुधा हमलोग ऐसा भी कहते हैं कि आज 'मुझे' अच्छा नहीं लग रहा है- इस पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि मेरा मन उदास हो गया था। इस प्रकार ये शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अतः  हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है।  इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा (ब्रह्म) की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार विचार-विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य तीन अनिवार्य अवयवों -शरीर, मन और आत्मा का सम्मिलित रूप है, जिसे स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे। इनमें से आत्मा ही हमारी वास्तविक सत्ता है।
               इस स्थूल शरीर का निर्माण जगत के विभिन्न पदार्थों से हुआ है। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है। हमारा शरीर जगत की कई स्थूल जड़ पदार्थों (पंचभूतों) द्वारा निर्मित है, मन सूक्ष्म जड़ पदार्थ (matter) है और आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म। किन्तु आत्मा को शरीर अथवा मन के सदृश अन्य कोई  स्थूल या सूक्ष्म भौतिक वस्तु नहीं समझना चाहिये। सामान्यतः स्थूल भौतिक पदार्थ भी तीन प्रकार के होते हैं- ठोस, तरल और गैस।  ठोस पदार्थ को आसानी से देखा जा सकता है एवं तरल पदार्थों को सर्वदा देखते हुए भी आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता है।  पानी से पूरे भरे ग्लास को भी दूर से देख कर नहीं कहा जा सकता की वह भरा है कि खाली है?  वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। उसके अस्तित्व का ज्ञान हमें अन्य प्रकार से होता है। वृक्ष की पत्तियाँ या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। उसी प्रकार मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है । 
             किन्तु 'आत्मा ' (Heart) को इस प्रकार से किसी भी तरह समझा नहीं जा सकता। वह सर्वत्र व्याप्त है, और समस्त शक्तियाँ उसी की अभिव्यक्ति हैं। इस आत्मा को जानने का उपाय थोड़ा भिन्न है। जिस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा जगत के विभिन्न पदार्थों तथा मन को जाना जाता है, उस तरह से आत्मा को नहीं जाना जा सकता है। फिर भी उसको जानने का उपाय है! क्या हममें से किसी ने जगत के समस्त पदार्थ (ग्रह,नक्षत्र आदि) को प्रत्यक्ष देखा है ? फ़िर भी वैज्ञानिकों के वक्तव्य विश्वास कर उसे यथातथ्य सत्य मानते हैं। ठीक उसी तरह जो आत्मा के विषय में सम्यक ज्ञान रखते हैं, उन ऋषियों के वचनों पर विश्वास करने तथा उनके बताये गए मार्ग का अनुसरण करने से हम भी आत्मा के विषय में जान सकते हैं।जिस प्रकार वैज्ञानिकों के समस्त अनुसंधानों को उनके द्वारा बताये गए पद्धति का अनुसरण करके प्रमाणित किया जा सकता है, उसी प्रकार ऋषियों द्वारा आविष्कृत आत्मा को जानने की पद्धति (श्रुति /Revelation/ईश्वरोक्ति/ अवतार या नेता की वाणी- श्रवण-मनन-निदिध्यासन)  का अनुसरण करके उसे जाना जा सकता है।  
वास्तविकता यही है कि, हम ही आत्मा हैं। (युक्ति ( Logic) है, क्योंकि -'घट दृष्टा घटात् भिन्नः') हमारे समक्ष यह संसार है, और इन दोनों के मध्य मन एक सेतु के समान है। (जिसक एक पाया संसार में है और दूसरा आत्मा में ) मन के माध्यमसे ही हम समस्त जगत् को देख रहे हैं और व्यवहार कर रहे हैं। हमारी पाँचो इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं और उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने से,हमारा मन भी बहिर्मुखी हो गया है। मन को इन्द्रिय विषयों से खींच कर,उसे अन्तर्मुखी बना कर यदि अपने यथार्थ स्वरूप (आत्मा) पर केन्द्रीभूत कर लिया जाय,तभी हम जान सकते हैं कि हम 'आत्मा' हैं ! (अहं ब्रह्मास्मि !) 
                 जब तक हम स्वयं ही ' आत्म-साक्षात्कार ' करके (अपनी अनुभूति से)  इसे सिद्ध नहीं कर लेते, तब तक यह विश्वास करना चाहिए और स्मरण रखना चाहिए कि शरीर और मन के अतिरिक्त एक और सत्ता भी हमारे भीतर है जिसे आत्मा कहते हैं। और वह आत्मा वास्तव में हम स्वयं ही हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अजर, अमर और अविनाशी है तथा जिसे न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है। वास्तव में वह ऐसा है भी। [ऐसा विश्वास करना ही आत्मश्रद्धा (आस्तिक्य-बुद्धि) है, जिसे खो देने के कारण हमारे देश की ऐसी दुर्दशा हो गयी है !]  
अब हमलोग मन के सम्बन्ध में विस्तार से जानने की चेष्टा करेंगे। तथा यह समझने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार उसे सही ढंग से उपयोग में लाकर हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर सकता है। फिर उस सुगठित-जीवन का सदुपयोग करके (मातृभूमि की सेवा में न्योछावर करके) अपने जीवन को सार्थक कर सकता  है। आइये इन्ही सब बिन्दुओं पर गौर किया जाय। 
               यहाँ प्रश्न था कि मन क्या है ? उत्तर है - जिसकी सहायता से हमें सब कुछ उपलब्ध होता है, अनुभव करते हैं तथा किसी भी वस्तु या विषय को समझ सकते हैं, उसको ही मन कहते हैं। यदि हमारे पास मन नहीं रहे तो किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं हो सकती। हमलोग वाह्य जगत् को अपनी पंचेन्द्रिय- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा के माध्यम से ही जान पाते हैं। यह जगत् पंचेन्द्रिय ग्राह्य है। इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से हम-  रूप, रस (स्वाद), गंध, शब्द एवं स्पर्श आदि विषयों का अनुभव करते हैं। हमारी इन्द्रियाँ इन्हीं पाँचों विषयों का संवाद हम तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। लेकिन इन संवादों का विश्लेषण कर उस वस्तु या विषय को वर्गीकृत कर उनके बारे में स्पष्ट धारणा बनाने का कार्य केवल मन ही करता है। 
                     जिन स्थूल पदार्थों को इन्द्रियों के माध्यम से देखा,सुना या छुआ जा सकता  है, उन सबके विषय में धारणा करना सहज है, किन्तु इनके अतिरिक्त जो वस्तुऐं सूक्ष्म या अति सूक्ष्म हैं, या जो साधारण स्थूल पदार्थों की तरह इन्द्रियग्राह्य नहीं हैं अथवा इन्द्रियातीत हैं,  उन सबके विषय में धारणा करना थोड़ा कठिन है। इसीलिये जिसके माध्यम से समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध में धारणा की जाती है,अर्थात 'मन'- उसके सम्बन्ध में धारणा करना थोड़ा कठिन है। फिर भी थोडी देर के लिए यदि 'मन' को भी इन्द्रिय ग्राह्य वस्तु की तरह मान लें, और उसके समस्त कार्यों को भी इन्द्रिय ग्राह्य विषयों जैसा देखने का प्रयास करें, तो इस सूक्ष्म वस्तु- 'मन' के सम्बन्ध में भी धारणा बनाई जा सकती है। मन को समझने के लिए इसी प्रकार क्रमशः आगे बढ़ना होगा। क्योंकि स्थूल पदार्थों से भिन्न सूक्ष्म वस्तुओं की धारणा बनाने अथवा इन्द्रियातीत वस्तुओं के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने का यही एक मात्र पथ है।
                            जिस प्रकार वायु को न तो हम अपनी आँखों से देख सकते हैं न अपनी मुट्ठी से पकड़ ही सकते हैं, उसी प्रकार मन को भी न तो हम अपनी आँखों से देख सकते हैं, न अपनी मुट्ठी से पकड़ ही सकते हैं। फिर भी जैसे ' हवा है',  इस बात को उसकी विभिन्न गतिविधियों द्वारा जानते हैं। उसी प्रकार मन के विभिन्न क्रिया-कलापों को देख कर, हम यह जान सकते हैं कि 'मन' है।  
                          मन की तुलना हम किसी विशेष प्रकार के दर्पण या कैमरे की फिल्म से कर सकते हैं, जिसके ऊपर मानो बाह्य जगत् के समस्त दृश्य, शब्द, गंध, रस , स्पर्श आदि के प्रतिबिम्ब या छाप पड़ते रहते हैं। कुछ प्रतिबिम्ब या छाप तो तुरंत  मिट जाते हैं, किन्तु कुछ छाप  बहुत लम्बे समय तक स्थायी रह जाते हैं। फिर कुछ गहरे छाप ऐसे होते हैं, जो विलुप्त प्रतीत होने से भी, तत संबन्धी चिंतन करने से पुनः उभर आते हैं। उसको ही हम चित्त या स्मृति-कोष (Memory bank) कहते हैं। 
                       मन के विविध क्रियाकलाप निम्न प्रकार से दृष्टिगोचर होते हैं - इसके द्वारा ही हमलोग ज्ञानार्जन करते हैं, चिन्तन-मनन करते हैं, कल्पना करते हैं, पुरानी पड़ चुकी यादों (वृत्ति) को ताज़ा करते हैं, मन के द्वारा ही विभिन्न इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले संवादों का विश्लेषण करते हैं, उन्हें वर्गीकृत करके बुद्धि के द्वारा निर्णय लेते हैं, विवेक-प्रयोग के द्वारा श्रेय-प्रेय, भले-बुरे, सत्-असत्, शाश्वत-नश्वर  के बीच अंतर करते हैं, इच्छा या संकल्प करते हैं तथा सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। यदि इन समस्त कार्यों को सम्पादित करने वाला कोई ऐसा उपकरण (मन) हमारे पास नहीं होता तो इतने सारे कार्य किस प्रकार हो सकते थे ? फिर भी जिसकी सहायता से इतना सब कुछ हो रहा है, उसको हमलोग बाह्य पदार्थों जैसा नहीं जान पाते हैं, क्योंकि वह स्थूल नहीं एक सूक्ष्म पदार्थ है। 
                   जिस प्रकार हमलोग वाह्य सूक्ष्म पदार्थ (वायु आदि) को उनके कार्यों को देखकर जानने की चेष्टा करते हैं उसी प्रकार इस सूक्ष्म पदार्थ 'मन' को भी उसके कार्यों को देखकर जानने की चेष्टा करते हैं। जैसे हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते हैं कि मन की सहायता से ही हम विचार करते हैं, कल्पना करते हैं, बीती बातों का स्मरण करते हैं, विश्लेषण करते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं, संकल्प करते हैं-  उसी प्रकार हम इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि 'मन' है ! 
                 [फिर यह प्रश्न (संदीप ठाकुर-बरही ?) भी उठता है कि मन बनता कैसे है ? मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं। चित्त की तुलना हम किसी शान्त सरोवर से कर सकते हैं। जैसे किसी शान्त सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है। उसी प्रकार चित्त-सरोवर में पाँच विषयों -रूप,शब्द,गंध, रस आदि के ढेले पड़ने से वह तरंगायित होकर मन बन जाता है। 'मन' का कार्य है प्रश्न करना - क्या है, क्या है ?... वह कैसी आवाज ? कैसा रूप? कैसा गंध -? चित्त की गहराई में बसे उस गंध के स्मृति-कोष से विश्लेषण कर मन ने देखा, और बुद्धि ने तत्क्षण निर्णय कर लिया कि यह तो 'गुलाब' का गंध ही है ! 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है- और व्यक्ति कहता/ कहती है - मैं जान गया /गई कि यह गुलाब का गंध है। जिसको हम 'मन' कहते हैं वह हमारा 'अन्तःकरण' है, जिसके द्वारा हम कोई कार्य करते हैं या ज्ञान अर्जित करते हैं। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार। अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार (नेता /दैत्य का कार्य) करता है। किन्तु जब हिप्नोटाइज्ड अवस्था में किसी व्यक्ति का यह अहंकार बहुत बढ़ जाता है तब वही दैत्यराज शुम्भ-निशुम्भ बन जाता है, जिसका विध्वंश करने या मातृ-हृदय के सर्वव्यापी अहंकार में रूपांतरित करने के लिये माँ जगदम्बा को स्वयं अवतरित होना पड़ता है।  ]         
इस स्थूल शरीर और समग्र जगत् को जानने, समझने और देखने के लिए मन मानो एक दिव्य चक्षु है जिसे हमारी आत्मा के समक्ष रख दिया गया है। यह एक ऐसा अद्भुत 'लेंस' है, जो एक साथ दूरवीक्षण यंत्र (telescope) और अनुवीक्षण-यंत्र (Microscope-सूक्ष्मदर्शी) दोनों के सम्मिलित रूप जैसा कार्य करता है। यह एक ऐसा कम्प्यूटर है, जो केवल सूचनाओं और संवादों को एकत्र करता है, बल्कि कई प्रकार से उनका विश्लेषण भी करता है, उन्हें वर्गीकृत कर उनकी व्याख्या करता है और उनमें से सार अर्थ ढूंढ़ निकालता है।  फिर वही कल्पना करता है, इच्छा करता है, उद्यम भी करता है। वस्तुतः मन कि शक्ति के द्वारा ही हमलोग सबकुछ जानने और करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मन की शक्ति अनन्त है।इसलिये कहा जाता है कि - मन आत्मा का ' दिव्य चक्षु' है। (Mind is divine eye of soul) 
इसीलिए गीता ११/८ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है -
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
             दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।
 तू मुझ विश्वरूपधारी, विराट सर्वव्यापी परमेश्वर (माँ जगदम्बा) को अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देख सकने में तू निःसंदेह समर्थ नहीं है। इसलिये मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूँ। उससे तू मेरे ईश्वरीय योगमाया (योगशक्ति) को देख।
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[कदलीवत सूक्ष्म-सृष्टि सप्तलोक एवं १४ भुवन को देख, सिद्धियों की क्या जररूत है ? केवल 'ठाकुर-माँ -स्वामीजी को देख ! ]
महत् से 'यूनिवर्सल ईगोइज़म' अर्थात सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं-तत्व, माँ जगदम्बा की उत्पत्ति हुई है। उसी प्रकार यह सर्वव्यापी अहं-तत्व भी दो रूपों में परिवर्तित हो जाता है। यह 'अहंभाव' (egoism) इन्द्रिय एवं जड़ (तन्मात्राओं), इन दो भागों में विभक्त हो जाता है । इसका एक रूप इन्द्रियों में परिवर्तित हो जाता है। इन्द्रियाँ भी दो प्रकार की होती हैं - संवेदक इन्द्रियाँ (ओर्गन्स ऑफ़ सेंसेशन ) और प्रतिक्रिया करने वाली इन्द्रियाँ (ओर्गन्स ऑफ़ रिएक्शन) । ये आँख और कान नहीं हैं, बल्कि मस्तिष्क में अवस्थित इनके पृष्ठ भाग हैं, जिन्हें हम 'ब्रेन-सेंटर्स, एंड 'नर्व-सेंटर्स' अर्थात मस्तिष्क-केन्द्र और स्नायु-केन्द्र आदि कहते हैं। यह अहं तत्व या जड़ पदार्थ ही परिवर्तित हो जाता है, और इस पदार्थ से ब्रेन-सेंटर्स अथवा केन्द्र निर्मित होते हैं। इसी पदार्थ (अहं-तत्व) से अन्य प्रकारों -तन्मात्राओं का अर्थात पदार्थ के सूक्ष्म कणों का निर्माण होता है, जो 'ओर्गन्स ऑफ़ परसेप्शन' या प्रत्यक्ष करने वाली हमारी इन्द्रियों पर आघात करते हैं और संवेदना (सुगंध) उत्पन्न होती है। तुम उन्हें देख नहीं सकते, मात्र जानते हो कि वे हैं। तन्मात्राओं से स्थूल पदार्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और पवन तथा उन सब वस्तुओं का, जिन्हें हम देखते और अनुभव करते हैं, निर्माण होता है। इन्हीं पंच-तन्मात्राओं से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है।“ क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीरा।”– मानस – किषकिंधा काण्ड 11/2. 
अगर तुम से यह पूछा जाय कि हमलोग देखते कैसे हैं ? तो तुम कहोगे क्यों, हमलोग आंखों के द्वारा देखते हैं। परन्तु दर्शन क्रिया के लिए इतना ही काफी नहीं है। ये आँखें तो केवल एक बाह्य यन्त्र हैं, आँखे हमारी वास्तविक दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं। आँखें तो एक खिड़की के समान हैं, वास्तविक दर्शन इन्द्रिय या उसके स्नायु-केन्द्र जिसे Optic-nerve कहते हैं पीछे हमारे मस्तिष्क में स्थित हैं। उसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रियों के अलग-अलग स्नायुकेन्द्र (नर्व-सेंटर) मस्तिष्क में अवस्थित हैं, उनके वाह्य उपकरणों को ही इन्द्रिय नहीं समझना चाहिए । कोई-कोई मनुष्य आँखें खोल कर भी सोया रहता है। कैसे? आँखे ठीक हैं, रेटिना पर चित्र भी बनता है, जिसका संवाद मस्तिष्क में स्थित Optic-nerve तक पहुँच भी रहा है, किन्तु एक चीज मिसिंग है- वह है मन। जिसके आभाव में दर्शन क्रिया हो या अन्य कोई इन्द्रिय विषय हो उसकी उपलब्धि हमें नहीं हो सकती है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि किसी भी इन्द्रिय विषय को जानने के लिए स्थूल शरीर में अवस्थित 'नेत्र' और मस्तिष्क में स्थित उसका कौरेस्पोंडिंग 'स्नायु केन्द्र' (ऑप्टिक-नर्व) तथा  'मन' - इनतीनों के मिलने से ही दर्शन क्रिया संपन्न होती है।
 'नजरें बदली तो नज़ारे बदल गये'-  भगवान श्रीकृष्ण भी गीता (१५/१) में कहते हैं- ' इस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष का मूल उपर ब्रह्म में है और शाखाएँ नीचे की ओर हैं. इस अश्वत्थ को (मनुष्य सहित सृष्ट जगत को ) जो समूल जानता है वही 'वेदवित् ' -अर्थात ' ज्ञानी' है, और श्रीरामकृष्ण की भाषा में ' विज्ञानी ' है। " मनुष्य को ' समूल ' (3H ) जान लेना ही मुख्य बात है. 'मनुष्य' (3H) को या जगत (कार्य-सूर्योदय) को केवल उपरी तौर पर जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि इसको 'समूल' -अर्थात कारण-सहित जानना ही वास्तविक ज्ञान है।
अब एक उदहारण के द्वारा हम लोग मन की क्रिया- विधि को समझने का प्रयास करेंगे। तुमने ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम सुना होगा। वे बड़े गरीब किन्तु मेधावी छात्र थे, एग्जाम के समय फुटपाथ पर एक लैंप पोस्ट के नीचे बैठ कर पढने में तल्लीन थे। उनके सामने रोड से एक बारात गुजर गई , थोडी ही देर के बाद एक व्यक्ति आकर उनसे पूछता है, क्या आप बता सकते हैं कि अभी-अभी इधर से जो बारात गुजरा वह किस ओर मुड़ा था ? वे मानो नींद से चौंक कर उठे हों, कहते हैं- ' sorry, no ? ' वे बारात को क्यों नहीं देख सके ? आँखें खुलीं थीं, मस्तिष्क भी जाग्रत और क्रियाशील था किन्तु मन वहाँ नहीं था, तब उनका मन अध्यन में तल्लीन था ! इसीलिये पूरी बारात गुजर गई पर वे उसे देख नहीं सके।
 लंबी साधना (विवेक-प्रयोग सहित ५ अभ्यास की दीर्घ साधना) एवं चिंतन-मनन के उपरांत अथर्ववेद का एक उद्गाता ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि—" तस्मात् वै विद्वान् पुरुषमिदम् ब्रह्मेति मन्यते।"- इन्हीं सब कारणों से विद्वान व्यक्ति मानवमात्र को ब्रह्मस्वरूप ही जानते हैं. " विवेकानन्द और युवा आन्दोलन" के निबंध 'मनुष्य बनना पड़ता है !'

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बुधवार, 5 नवंबर 2014

२. कार्य क्या है ? ३. ज्ञान क्या है ? [" मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

२.कार्य क्या है ?
पिछले अध्याय में हमने देखा कि किसी भी काम को बेहतर ढंग से करने के लिए, 'मनः संयोग' कितना अनिवार्य है ! अब प्रश्न है कि 'कार्य' कहने से हम क्या समझते हैं ? आगे हम इसी बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की चेष्टा करेंगे अर्थात इसी विषय पर मनःसंयोग करेंगे।
इस जगत में सर्वत्र एवं सर्वदा वभिन्न प्रकार की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि- प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं, फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है।मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,चेष्टा, श्रम या प्रयत्न करता है।
             इनमे से कोई स्वेच्छा से कार्य कर रहा होता है, तो कोई दूसरे की इच्छा से प्रेरित हो कर। क्योंकि सबको जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है।  इसीलिये हमें अपनी या दूसरों की इच्छा से कार्य करना पड़ता है, किन्तु दोनों ही अवस्थाओं में जो कार्य कर रहा है, उसे पहले अपने मन में कार्य विषयक चिन्तन तो करना ही पड़ेगा। और जो कार्य करना है उसके विषय में योजना बनानी होगी, कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लेना होगा, फिर उसे पूर्ण करने के लिये चेष्टा, प्रयत्न या श्रम भी करना पड़ेगा। और इस चेष्टा तथा श्रम में  थोड़ी शक्ति भी खर्च करनी पड़ेगी। कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। 
अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि। इसी प्रकार मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! 
                             जो करने से किसी वस्तु में कोई रूपान्तरण, परिवर्तन या स्थानान्तरण हो जाता है, तथा जिसमें शक्ति भी खर्च करनी पड़ती है, और जिसे करने में मनुष्य का मन अनिवार्य रूप से लगा होता है, कार्य कहलाता है। मनुष्य के मन में ही वह कल्पना-शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी वस्तु का रूपांतरण या स्थानान्तरण होता है। मनुष्य का मन ही यह जनता है कि किस प्रकार किस प्रकार किसी वस्तु से सर्वाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है, फिर उसी लाभ को प्राप्त करने के लिये वह शक्ति की खोज करता है। चेष्टा, धैर्य, अध्यवसाय, उद्यम, निष्ठा आदि प्रवृत्तियाँ मनुष्य के मन से ही संबन्धित हैं। मन की इच्छा, संकल्प आदि को पूरा करने के लिये ही उसका शरीर चेष्टा, प्रयत्न या श्रम करता है और उसके मन की कल्पना को साकार रूप दे देता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला-  कि मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन मन ही है। 
इसी मन को यदि हम पूर्ण रूप से कार्य में नियोजित करने में सक्षम हो जायें, उसे शान्त और संयमित करके उसकी शक्ति को बढ़ा सकें,तथा मन केवल न्यायसंगत विचारों (शिव-संकल्प) से ही भरा रहे, कल्याणकारी कल्पना करने में सक्षम हो तो जो भी कार्य हम हाथ में लेंगे उसे बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न कर सकेंगे। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
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३. ज्ञान क्या है ?
किसी भी वस्तु या विषय के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने को ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है। किन्तु जो भी ज्ञान हम अर्जित करते है, वह मन की सहायता से ही करते हैं। मन के बिना हम कोई भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इस जगत में अनगिनत वस्तुएँ एवं विषय जानने योग्य हैं। सुदूर अपरिमेय आकाश (अंतरिक्ष) में खचित ग्रह-नक्षत्र से लेकर सूक्ष्म अणु-परमाणु तक। इनके मध्य असंख्य ज्ञातव्य वस्तुएँ बिखरी हुई हैं। उसी प्रकार अभिरुचि के अनुसार जानने योग्य सैकड़ों प्रकार के विषय भी हैं। इनमें से जिन विषयों एवं वस्तुओं के बारे में हमको जानकारी है, उसको ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है।
यह पृथ्वी, देश-विदेश, समुद्र-पर्वत, घर-बार, पशु-पक्षी, मानव-शरीर और उसका स्वास्थ्य, रोग-व्याधि, उसका निदान, मनुष्य का इतिहास, उसकी घृणा-प्रेम आदि वृत्तियाँ, मनुष्य जीवन और उसका सुख-दुःख तथा ऐसी ही कितनी ज्ञातव्य वस्तुयें और विषय हैं -इनका कोई अन्त नहीं है ? इन समस्त विषयों के सार अथवा मर्म को जानने की जिज्ञाषा मनुष्य को सदैव रहती है, और चेष्टा करके वह जितना जान पाता है , उसी को ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान अर्जन का एकमात्र साधन मनुष्य का मन ही है। जो मन जितना अधिक उन्नत होता है, वह उतना ही उत्कृष्ट कोटि का ज्ञान अर्जित करने में समर्थ होता है। पुनः मन को ज्ञातव्य विषय में जितने अच्छे तरीके से एकाग्र (संयुक्त) किया जाता है, उस विषय का ज्ञान उतने ही स्पष्ट रूप से मन में अंकित हो जाता है। 
अपनी आँखों से मैं जब कोई फूल, या कोई पक्षी,भूखे व्यक्ति, बिच्छू या बिल्ली को देखता हूँ; तो आसानी   पहचान लेता हूँ,किन्तु इन्हें पहचानने के लिये मुझे पहले से ही बहुत सारा ज्ञान एकत्रित करना पड़ा है,तथा उनकी स्पष्ट छवि भी हमारे मन में है। तथा एक विशिष्ठ मनोयोग (साहचर्य के नियमानुसार) उन्हें वगीकृत कर लेता हूँ । क्योंकि हमारा मन जाने पहचाने प्रत्येक वस्तु को धीरे-धीरे इसी प्रकार वर्गीकृत करना सीख लेता है और क्रमशः गहराई से विश्लेषण करके उन्हें और भी अच्छी तरह से जान लेता है; जिसके फलस्वरूप प्रत्येक मनुष्य के मन में संचित ज्ञान की परिधि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। 
साहचर्य के नियम के अनुसार न केवल प्राप्त जानकारी का वर्गीकरण होता है बल्कि इसके अतिरिक्त छोटे टुकड़ों में प्राप्त जानकारी या ज्ञान के विभिन्न अंशों के बीच एक सम्यक श्रृंखला भी विकसित हो जाती है। इससे न केवल जगत के विभिन्न वस्तुओं और विषयों का ज्ञान होता है तथा क्रमशः विकसित होता जाता है बल्कि वह ज्ञान सर्वव्यापी भी हो जाता है। मानो एक ही नज़र में विश्व की कई सूचनायें एक साथ प्राप्त करने की क्षमता मन में उत्पन्न हो जाती है। किन्तु लघु (पिण्ड) से क्रमशः बृहद (ब्रह्म) का ज्ञान भी मन की शक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। सारांशतः हम कह सकते हैं कि इस मन को जितना अधिक उन्नत और  शक्तिशाली बनाया जायगा तथा जितने परिमाण में किसी वस्तु या विषय पर एकाग्र किया जायगा उतनी ही मात्रा में हमलोग ज्ञान भी अर्जित कर सकेंगे। 
             हमलोग प्रत्येक कार्य किसी- न- किसी उद्देश्य से करते हैं। हम वैसा ही कार्य करते हैं जिससे हमें लाभ होता है। यदि उन कार्यों को हम यथोचित ज्ञान के साथ करते हैं तभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है और इन कार्यों के पीछे जो हमारा उद्देश्य या आकांक्षा होती है, वह पूरी हो पाती है। अतः किसी कार्य में सफलता के लिए ज्ञान नितान्त आवश्यक है। और हम पहले ही देख चुके हैं कि केवल मन की सहायता ही हम कार्य कर पाने में समर्थ होते हैं तथा ज्ञानपूर्वक (विवेक-विचार युक्त ) कार्य करने के लिये मन की एकाग्रता अथवा 'मनःसंयोग' अनिवार्य है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि जीवन को धारण करने के लिये, एवं उसे सार्थक करने के लिये 'मनः संयोग' कितना आवश्यक है ! अतएव अन्य किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के पहले 'मनःसंयोग' का ज्ञान प्राप्त करना ही सबसे ज्यादा जरुरी है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने 'मन की एकाग्रता' को ही शिक्षा की आधारभूत सामग्री कहा है। 
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" ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति।" तुमने बहुत से मनुष्यों को देखा है, और प्रत्येक ने तुम्हारे मन पर एक संस्कार (छाप) डाला है, और तुम जैसे ही इस मनुष्य को देखते हो, इसेअपने चित्त (या स्मृति के भंडार घर) से सम्बद्ध करते हो, और वहाँ तुमको इसी प्रकार के बहुत से चित्र दिखाई पड़तेहैं। और उनके साथ इस नए चित्र को भी रख देते हो। (तब पहचान जाते हो कि दो हाथ दो पैर वाला यह एलियन नहीं मनुष्य है ) साहचर्य की इसी अवस्था को ज्ञान कहते हैं।
तुम्हारा मन समारम्भ के लिये- एक ' अनुत्किर्ण फलक ' (Tabula Rasa या कोरा स्लेट) नहीं है।अपने पास पहले से ज्ञान का एक भण्डार होना चाहिये, जिसके साथ किसी नये संस्कार को सम्बद्ध किया जा सके।कोई नवजात शिशु (जन्म से) पहले एक ऐसी अवस्था में अवश्य रहा होगा, जब कि उसके पास ( संचित अनुभवोंका ) कोई ज्ञान-कोष था। इस प्रकार ज्ञान कि वृद्धि शाश्वत रूप से होती रहती है।..यह एक गणितीय तथ्य है।" ... (४:२०६)
" Knowledge is the ' recognition ' of the new- by means of associations already existing in the mind. Recognition - is finding associations with similar impressions that one already has. Nothing further is meant by Knowledge.Knowledge means finding the association; that is why a drunken man naturally gravitates to the lowest slums of the city. "(C.W.2:447,78 )
" किसी व्यक्ति के पास पहले से जो संस्कार हैं, उनके तुल्य संस्कारों कि साहचर्य- प्राप्ति ही प्रति-अभिज्ञा (Recognition या मान्यता) कहलाती है। ज्ञान का अर्थ है, साहचर्य-प्राप्ति । इससे भिन्न ज्ञान का कोई दूसरा अर्थ नहीं है। 
यह दृष्टिगोचर जगत् तभी जाना जा सकता है, जब हम इसके साह्चर्यों को पा सकने में सफल हो जायेंगे। इसकी सच्ची पहचान, प्रतिभिग्या (Recognition) तो हम तभी कर पायेंगे जब हम इस विश्व एवं चेतना के परे चले जायेंगे और तब विश्व हमे स्वतः व्याख्यात हो जाएगा।
हमारी वर्त्तमान चेतना से पृथक, विश्व का यह टुकड़ा हमारे लिये विस्मयकारी नूतन पदार्थ है, क्योंकि हम अभी तक इसके साह्चर्यों को न पा सके हैं। अतएव हम इससे संघर्ष कर रहे हैं, और इसे भयावह, दुष्ट तथा बुरा समझते हैं- हमारा विचार सदैव यही रहता है कि यह अपूर्ण है।...क्योंकि चेतना का यह साधारण स्तर हमे इसके एक ही स्तर (Dimension) का प्रत्यक्ष बोध प्रदान कर पाता है। यही बात ईश्वर के सम्बन्ध में हमारे विचारों के लिये है। ईश्वर का जो कुछ  हमे दिखाई पड़ता है, वह अंश मात्र है, उसी प्रकार जिस प्रकार हम विश्व का केवल एक अंश (नाम-रूप) देखते हैं और शेष (अस्ति, भाति, प्रिय) मानव बोध से परे है। यही कारण है कि ईश्वर हमें अपूर्ण दिखाई पड़ता है, और हम उसे समझ नहीं पाते। ' उसे ' तथा विश्व को समझने का एकमात्र उपाय यह है कि हम इस बुद्धि एवं चेतना के परे चले जायें।...जब हम इनके परे जाते हैं, तब हमें सामंजस्य की प्राप्ति होती है, इसके पूर्व नहीं।
..सूक्ष्म ब्रह्मांड (यापिण्ड -सूक्ष्म शरीर) के हम केवल एक अंश- मध्य भाग- को ही जानते हैं। अभी हम न अवचेतन को जानते हैं, न अतिचेतन को। हम केवल चेतन को ही जानते हैं। ' यदि कोई व्यक्ति कहता है, 'मैं पापी हूँ ', तो वह मिथ्या कथन करता है; क्योंकि वह अपने को नहीं जानता।' क्योंकि वह जिस भूमि पर है, उसका ज्ञान केवल उसके एक ही पक्ष को स्पर्श करता है। ... यही बात विश्व के सम्बन्ध में है, बुद्धि द्वारा इसके केवल एक अंश को जानना सम्भव है, सम्पूर्ण को नहीं; क्योंकि विश्व का निर्माण अवचेतन, चेतन, अतिचेतन अथवा व्यक्तिगत महत्, सार्वभौम महत्, तथा परवर्ती परिणामों से होता है।"(४:२०६-२०७)
" सापेक्ष-ज्ञान को- ' पूर्ण ज्ञान ' का एक छोटा सा अंश कहा जा सकता है। जिस प्रकार सोने की मुहर को भुना कर रुपया, आना, पैसा में बदला जा सकता है। उसी प्रकार इस पूर्ण ज्ञान की अवस्था (अतिचेतन) से सब प्रकार के ज्ञान में जाया जा सकता है।  इस अतिचेतन अवस्था को ज्ञानातीत या पूर्ण-ज्ञान की अवस्था कहते हैं- चेतन और अचेतन दोनों उसके अर्न्तगत आ जाते हैं। जो व्यक्ति इस पूर्ण ज्ञानावस्था को प्राप्त हो जाता है, उसमे यह सापेक्ष साधारण ज्ञान भी पूर्णरूप से विद्यमान रहता है। जब वह ज्ञान की दूसरी अवस्था - अर्थात हमारी परिचित सापेक्ष ज्ञानावस्था का अनुभव करना चाहता है, तो उसे एक सीढ़ी नीचे उतर आना पड़ता है। यह सापेक्ष ज्ञान तो एक निम्नतर अवस्था है- केवल माया (नाम-रूप या देश-काल-निमित्त) के भीतर ही इस प्रकार का ज्ञान हो सकता है। ( १०:३९७)
" जो ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, - जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न स्रष्टा - जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न 'मैं' है, न ' तुम ' और न ' वह ', जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण, जहाँ ' कौन किसको देखे '- वे पुरूष सबसे अतीत हो गये हैं, और वे वहाँ पहुँच गये हैं- ' जहाँ न वाणी पहुँच सकती है, न मन ' और श्रुति जिसे नेति,नेति कहकर पुकारती है।....जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिए न सृष्टि रही और न उसका कारण, रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त-तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ, त्योंही उनके सम्मुख जगत और कल्याणमय अनन्त-गुणागार ' जगदीश्वर ' प्रकाशित हो गये। "(४:१२)
" अद्वैतवादी कहते हैं, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? ' (४:३३)
" इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद....तुम में इर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा; तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्पथ पर चलाने के लिये फ़िर चाबुक कि आवश्यकता नहीं रह जायेगी। "(२:४१)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिसके ह्रदय में अथाह प्रेम है, और जो सभी अवस्थाओं में ' अद्वैत तत्त्व' का साक्षात्कार करता है, वही सच्चा ज्ञानी है। "(१०:३७४)
'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'! हमें परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करना चाहिए। यदि कर्म पूरे मन से किया गया होगा, तो उसका अच्छा फल मिलना निश्चित है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कर्म उत्कृष्ट हो।  " कपटधार्मिकः बकः– छद्म-धर्मी बगुला" (Pseudo-righteous Heron)  राम चलते चलते पंपा सरोवर पहुंचे। उन्होंने सरोवर में मंथर गति से चलते हुए बगुलों की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मण को कहा कि-“पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकोयं परमधार्मिकः। शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥” अर्थात लक्ष्मण, देख इस पम्पा सरोवर में बगुला कितना धार्मिक है। कहीं मेरे पांवों से जीवों का वधन न हो जाए, इसीलिए कैसा धीरे-धीरे पैर रखते हुए चल रहा है। यह बात सरोवर की मछलियों ने सुनी। उन्होंने कहा- "सहवासी विजानाति सहवासी विचेष्टितम्।बकोऽयं वर्ण्यते राय तेनाहं निष्कुलीकृतः॥ नहीं नहीं रामजी, आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं ? कोई सहचारी या संगत में रहने वाला ही सहचारी के व्यवहार को देखकर उसके चरित्र को ठीक ठीक पहचान सकता है। जिस बगुले की प्रशंसा की जा रही है। उसने हमारा कुल उजाड़ दिया, सारा कुल नष्ट कर दिया।
" मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नहीं है। ...वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे, जो जानेंगे कि ये ' शत्रु ' भी साक्षात् 'ब्रह्म' स्वरूप हैं। वे ही लोग अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से भी प्रेम करेंगे जो यह जान लेंगे कि इन महा दुष्टों (कपटधार्मिकः बकः) के पीछे भी वे ही प्रभु विराजमान हैं। जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, वे ही लोग जगत के प्रेरक (नेता ) हो सकते हैं। उनके लिये समग्र विश्व दिव्य भाव में रूपांतरित हो जाएगा। (२:४०)
" कोई भी चीज उन्हें बदला लेने के लिये प्रवृत्त नहीं कर सकती। वे सर्वदा अनन्त प्रेमस्वरूप हैं, और प्रेम की शक्ति से सर्व शक्तिमान हो गये हैं। ... योगी के अतिरिक्त अन्य सभी तो मानो गुलाम हैं। खाने-पीने के गुलाम, अपनी स्त्री के गुलाम, अपने लड़के-बच्चों के गुलाम, जलवायु परिवर्तन के गुलाम,इस संसार के हजारों विषयों के गुलाम। जो मनुष्य इन बन्धनों में से किसी में भी नहीं फंसे, वे ही यथार्थ मनुष्य हैं- यथार्थ योगी हैं। जिनका मन साम्य भाव में स्थित है, उन्होंने यहीं संसार पर जय प्राप्त कर ली है। ब्रह्म निर्दोष और सम्भावापन्न है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित हैं। " (१०:३९१) गिता ५/१९
स्वामी विवेकानन्द स्वयं प्रश्न उठाते हैं- " इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञानका सर्वोच्च पुरस्कार है ; दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह (आत्म-ज्ञान) हमारे समस्त दुखों का हरण  करेगा।...मृत्यु-भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता।...इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है, एकाग्रता। " (१:४०) ]
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