४. मन क्या है ?
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।
अब तक हमने देखा कि श्रेष्ठ जीवन जीने के लिये अपने कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करना होगा तथा विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करना होगा और इसके लिये 'मनः संयोग' की क्षमता अर्जित करनी होगी। यदि हमलोग न केवल जीवित रहना चाहते हों वरन जीवन को सफल एवं सार्थक भी बनाना चाहते हों तो इस जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करना आवश्यक होगा तथा इसके लिये भी ज्ञान अर्जित करना होगा और अनेक प्रयास करने होंगे। अर्थात श्रेष्ठ जीवन-गठन करने के लिये 'मनः संयोग' सीखना अनिवार्य है।
अब प्रश्न यह है कि ' मन' से हमारा तात्पर्य क्या है ? उसे तो देखा नहीं जा सकता, उसे मुट्ठी में पकड़ा भी नहीं जा सकता तथापि मन के विषय में हर कोई जानता है कि 'मन' है । 'मन' नहीं है - ऐसा कोई नहीं कहता। 'यहाँ मेरा मन नहीं लग रहा है', मन घबरा रहा है', 'मन प्रसन्न है' अथवा 'दुःखी' है- ऐसी कितनी ही बातें मन के विषय में हमलोग निरंतर कहते रहते हैं। अर्थात हम भली-भाँति जानते हैं कि मन है ; किन्तु ये मन है क्या चीज ? मन के बारे में इतना कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि 'मन' है।
हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? बिना सोंचे-समझे अकस्मात् हमारे मन में विचार कौंध जाता है कि वह शरीर ही तो है। परन्तु अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते ? बहुधा हमलोग ऐसा भी कहते हैं कि आज 'मुझे' अच्छा नहीं लग रहा है- इस पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि मेरा मन उदास हो गया था। इस प्रकार ये शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अतः हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है। इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा (ब्रह्म) की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार विचार-विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य तीन अनिवार्य अवयवों -शरीर, मन और आत्मा का सम्मिलित रूप है, जिसे स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे। इनमें से आत्मा ही हमारी वास्तविक सत्ता है।
इस स्थूल शरीर का निर्माण जगत के विभिन्न पदार्थों से हुआ है। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है। हमारा शरीर जगत की कई स्थूल जड़ पदार्थों (पंचभूतों) द्वारा निर्मित है, मन सूक्ष्म जड़ पदार्थ (matter) है और आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म। किन्तु आत्मा को शरीर अथवा मन के सदृश अन्य कोई स्थूल या सूक्ष्म भौतिक वस्तु नहीं समझना चाहिये। सामान्यतः स्थूल भौतिक पदार्थ भी तीन प्रकार के होते हैं- ठोस, तरल और गैस। ठोस पदार्थ को आसानी से देखा जा सकता है एवं तरल पदार्थों को सर्वदा देखते हुए भी आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता है। पानी से पूरे भरे ग्लास को भी दूर से देख कर नहीं कहा जा सकता की वह भरा है कि खाली है? वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। उसके अस्तित्व का ज्ञान हमें अन्य प्रकार से होता है। वृक्ष की पत्तियाँ या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। उसी प्रकार मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है ।
किन्तु 'आत्मा ' (Heart) को इस प्रकार से किसी भी तरह समझा नहीं जा सकता। वह सर्वत्र व्याप्त है, और समस्त शक्तियाँ उसी की अभिव्यक्ति हैं। इस आत्मा को जानने का उपाय थोड़ा भिन्न है। जिस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा जगत के विभिन्न पदार्थों तथा मन को जाना जाता है, उस तरह से आत्मा को नहीं जाना जा सकता है। फिर भी उसको जानने का उपाय है! क्या हममें से किसी ने जगत के समस्त पदार्थ (ग्रह,नक्षत्र आदि) को प्रत्यक्ष देखा है ? फ़िर भी वैज्ञानिकों के वक्तव्य विश्वास कर उसे यथातथ्य सत्य मानते हैं। ठीक उसी तरह जो आत्मा के विषय में सम्यक ज्ञान रखते हैं, उन ऋषियों के वचनों पर विश्वास करने तथा उनके बताये गए मार्ग का अनुसरण करने से हम भी आत्मा के विषय में जान सकते हैं।जिस प्रकार वैज्ञानिकों के समस्त अनुसंधानों को उनके द्वारा बताये गए पद्धति का अनुसरण करके प्रमाणित किया जा सकता है, उसी प्रकार ऋषियों द्वारा आविष्कृत आत्मा को जानने की पद्धति (श्रुति /Revelation/ईश्वरोक्ति/ अवतार या नेता की वाणी- श्रवण-मनन-निदिध्यासन) का अनुसरण करके उसे जाना जा सकता है।
वास्तविकता यही है कि, हम ही आत्मा हैं। (युक्ति ( Logic) है, क्योंकि -'घट दृष्टा घटात् भिन्नः') हमारे समक्ष यह संसार है, और इन दोनों के मध्य मन एक सेतु के समान है। (जिसक एक पाया संसार में है और दूसरा आत्मा में ) मन के माध्यमसे ही हम समस्त जगत् को देख रहे हैं और व्यवहार कर रहे हैं। हमारी पाँचो इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं और उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेने से,हमारा मन भी बहिर्मुखी हो गया है। मन को इन्द्रिय विषयों से खींच कर,उसे अन्तर्मुखी बना कर यदि अपने यथार्थ स्वरूप (आत्मा) पर केन्द्रीभूत कर लिया जाय,तभी हम जान सकते हैं कि हम 'आत्मा' हैं ! (अहं ब्रह्मास्मि !)
जब तक हम स्वयं ही ' आत्म-साक्षात्कार ' करके (अपनी अनुभूति से) इसे सिद्ध नहीं कर लेते, तब तक यह विश्वास करना चाहिए और स्मरण रखना चाहिए कि शरीर और मन के अतिरिक्त एक और सत्ता भी हमारे भीतर है जिसे आत्मा कहते हैं। और वह आत्मा वास्तव में हम स्वयं ही हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अजर, अमर और अविनाशी है तथा जिसे न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है। वास्तव में वह ऐसा है भी। [ऐसा विश्वास करना ही आत्मश्रद्धा (आस्तिक्य-बुद्धि) है, जिसे खो देने के कारण हमारे देश की ऐसी दुर्दशा हो गयी है !]
अब हमलोग मन के सम्बन्ध में विस्तार से जानने की चेष्टा करेंगे। तथा यह समझने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार उसे सही ढंग से उपयोग में लाकर हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर सकता है। फिर उस सुगठित-जीवन का सदुपयोग करके (मातृभूमि की सेवा में न्योछावर करके) अपने जीवन को सार्थक कर सकता है। आइये इन्ही सब बिन्दुओं पर गौर किया जाय।
यहाँ प्रश्न था कि मन क्या है ? उत्तर है - जिसकी सहायता से हमें सब कुछ उपलब्ध होता है, अनुभव करते हैं तथा किसी भी वस्तु या विषय को समझ सकते हैं, उसको ही मन कहते हैं। यदि हमारे पास मन नहीं रहे तो किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं हो सकती। हमलोग वाह्य जगत् को अपनी पंचेन्द्रिय- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा के माध्यम से ही जान पाते हैं। यह जगत् पंचेन्द्रिय ग्राह्य है। इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से हम- रूप, रस (स्वाद), गंध, शब्द एवं स्पर्श आदि विषयों का अनुभव करते हैं। हमारी इन्द्रियाँ इन्हीं पाँचों विषयों का संवाद हम तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। लेकिन इन संवादों का विश्लेषण कर उस वस्तु या विषय को वर्गीकृत कर उनके बारे में स्पष्ट धारणा बनाने का कार्य केवल मन ही करता है।
जिन स्थूल पदार्थों को इन्द्रियों के माध्यम से देखा,सुना या छुआ जा सकता है, उन सबके विषय में धारणा करना सहज है, किन्तु इनके अतिरिक्त जो वस्तुऐं सूक्ष्म या अति सूक्ष्म हैं, या जो साधारण स्थूल पदार्थों की तरह इन्द्रियग्राह्य नहीं हैं अथवा इन्द्रियातीत हैं, उन सबके विषय में धारणा करना थोड़ा कठिन है। इसीलिये जिसके माध्यम से समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध में धारणा की जाती है,अर्थात 'मन'- उसके सम्बन्ध में धारणा करना थोड़ा कठिन है। फिर भी थोडी देर के लिए यदि 'मन' को भी इन्द्रिय ग्राह्य वस्तु की तरह मान लें, और उसके समस्त कार्यों को भी इन्द्रिय ग्राह्य विषयों जैसा देखने का प्रयास करें, तो इस सूक्ष्म वस्तु- 'मन' के सम्बन्ध में भी धारणा बनाई जा सकती है। मन को समझने के लिए इसी प्रकार क्रमशः आगे बढ़ना होगा। क्योंकि स्थूल पदार्थों से भिन्न सूक्ष्म वस्तुओं की धारणा बनाने अथवा इन्द्रियातीत वस्तुओं के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने का यही एक मात्र पथ है।
जिस प्रकार वायु को न तो हम अपनी आँखों से देख सकते हैं न अपनी मुट्ठी से पकड़ ही सकते हैं, उसी प्रकार मन को भी न तो हम अपनी आँखों से देख सकते हैं, न अपनी मुट्ठी से पकड़ ही सकते हैं। फिर भी जैसे ' हवा है', इस बात को उसकी विभिन्न गतिविधियों द्वारा जानते हैं। उसी प्रकार मन के विभिन्न क्रिया-कलापों को देख कर, हम यह जान सकते हैं कि 'मन' है।
मन की तुलना हम किसी विशेष प्रकार के दर्पण या कैमरे की फिल्म से कर सकते हैं, जिसके ऊपर मानो बाह्य जगत् के समस्त दृश्य, शब्द, गंध, रस , स्पर्श आदि के प्रतिबिम्ब या छाप पड़ते रहते हैं। कुछ प्रतिबिम्ब या छाप तो तुरंत मिट जाते हैं, किन्तु कुछ छाप बहुत लम्बे समय तक स्थायी रह जाते हैं। फिर कुछ गहरे छाप ऐसे होते हैं, जो विलुप्त प्रतीत होने से भी, तत संबन्धी चिंतन करने से पुनः उभर आते हैं। उसको ही हम चित्त या स्मृति-कोष (Memory bank) कहते हैं।
मन के विविध क्रियाकलाप निम्न प्रकार से दृष्टिगोचर होते हैं - इसके द्वारा ही हमलोग ज्ञानार्जन करते हैं, चिन्तन-मनन करते हैं, कल्पना करते हैं, पुरानी पड़ चुकी यादों (वृत्ति) को ताज़ा करते हैं, मन के द्वारा ही विभिन्न इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले संवादों का विश्लेषण करते हैं, उन्हें वर्गीकृत करके बुद्धि के द्वारा निर्णय लेते हैं, विवेक-प्रयोग के द्वारा श्रेय-प्रेय, भले-बुरे, सत्-असत्, शाश्वत-नश्वर के बीच अंतर करते हैं, इच्छा या संकल्प करते हैं तथा सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। यदि इन समस्त कार्यों को सम्पादित करने वाला कोई ऐसा उपकरण (मन) हमारे पास नहीं होता तो इतने सारे कार्य किस प्रकार हो सकते थे ? फिर भी जिसकी सहायता से इतना सब कुछ हो रहा है, उसको हमलोग बाह्य पदार्थों जैसा नहीं जान पाते हैं, क्योंकि वह स्थूल नहीं एक सूक्ष्म पदार्थ है।
जिस प्रकार हमलोग वाह्य सूक्ष्म पदार्थ (वायु आदि) को उनके कार्यों को देखकर जानने की चेष्टा करते हैं उसी प्रकार इस सूक्ष्म पदार्थ 'मन' को भी उसके कार्यों को देखकर जानने की चेष्टा करते हैं। जैसे हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते हैं कि मन की सहायता से ही हम विचार करते हैं, कल्पना करते हैं, बीती बातों का स्मरण करते हैं, विश्लेषण करते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं, संकल्प करते हैं- उसी प्रकार हम इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि 'मन' है !
[फिर यह प्रश्न (संदीप ठाकुर-बरही ?) भी उठता है कि मन बनता कैसे है ? मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं। चित्त की तुलना हम किसी शान्त सरोवर से कर सकते हैं। जैसे किसी शान्त सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है। उसी प्रकार चित्त-सरोवर में पाँच विषयों -रूप,शब्द,गंध, रस आदि के ढेले पड़ने से वह तरंगायित होकर मन बन जाता है। 'मन' का कार्य है प्रश्न करना - क्या है, क्या है ?... वह कैसी आवाज ? कैसा रूप? कैसा गंध -? चित्त की गहराई में बसे उस गंध के स्मृति-कोष से विश्लेषण कर मन ने देखा, और बुद्धि ने तत्क्षण निर्णय कर लिया कि यह तो 'गुलाब' का गंध ही है ! 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है- और व्यक्ति कहता/ कहती है - मैं जान गया /गई कि यह गुलाब का गंध है। जिसको हम 'मन' कहते हैं वह हमारा 'अन्तःकरण' है, जिसके द्वारा हम कोई कार्य करते हैं या ज्ञान अर्जित करते हैं। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार। अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार (नेता /दैत्य का कार्य) करता है। किन्तु जब हिप्नोटाइज्ड अवस्था में किसी व्यक्ति का यह अहंकार बहुत बढ़ जाता है तब वही दैत्यराज शुम्भ-निशुम्भ बन जाता है, जिसका विध्वंश करने या मातृ-हृदय के सर्वव्यापी अहंकार में रूपांतरित करने के लिये माँ जगदम्बा को स्वयं अवतरित होना पड़ता है। ]
इस स्थूल शरीर और समग्र जगत् को जानने, समझने और देखने के लिए मन मानो एक दिव्य चक्षु है जिसे हमारी आत्मा के समक्ष रख दिया गया है। यह एक ऐसा अद्भुत 'लेंस' है, जो एक साथ दूरवीक्षण यंत्र (telescope) और अनुवीक्षण-यंत्र (Microscope-सूक्ष्मदर्शी) दोनों के सम्मिलित रूप जैसा कार्य करता है। यह एक ऐसा कम्प्यूटर है, जो केवल सूचनाओं और संवादों को एकत्र करता है, बल्कि कई प्रकार से उनका विश्लेषण भी करता है, उन्हें वर्गीकृत कर उनकी व्याख्या करता है और उनमें से सार अर्थ ढूंढ़ निकालता है। फिर वही कल्पना करता है, इच्छा करता है, उद्यम भी करता है। वस्तुतः मन कि शक्ति के द्वारा ही हमलोग सबकुछ जानने और करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मन की शक्ति अनन्त है।इसलिये कहा जाता है कि - मन आत्मा का ' दिव्य चक्षु' है। (Mind is divine eye of soul)
इसीलिए गीता ११/८ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है -
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।
तू मुझ विश्वरूपधारी, विराट सर्वव्यापी परमेश्वर (माँ जगदम्बा) को अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देख सकने में तू निःसंदेह समर्थ नहीं है। इसलिये मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूँ। उससे तू मेरे ईश्वरीय योगमाया (योगशक्ति) को देख।
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[कदलीवत सूक्ष्म-सृष्टि सप्तलोक एवं १४ भुवन को देख, सिद्धियों की क्या जररूत है ? केवल 'ठाकुर-माँ -स्वामीजी को देख ! ]
महत् से 'यूनिवर्सल ईगोइज़म' अर्थात सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं-तत्व, माँ जगदम्बा की उत्पत्ति हुई है। उसी प्रकार यह सर्वव्यापी अहं-तत्व भी दो रूपों में परिवर्तित हो जाता है। यह 'अहंभाव' (egoism) इन्द्रिय एवं जड़ (तन्मात्राओं), इन दो भागों में विभक्त हो जाता है । इसका एक रूप इन्द्रियों में परिवर्तित हो जाता है। इन्द्रियाँ भी दो प्रकार की होती हैं - संवेदक इन्द्रियाँ (ओर्गन्स ऑफ़ सेंसेशन ) और प्रतिक्रिया करने वाली इन्द्रियाँ (ओर्गन्स ऑफ़ रिएक्शन) । ये आँख और कान नहीं हैं, बल्कि मस्तिष्क में अवस्थित इनके पृष्ठ भाग हैं, जिन्हें हम 'ब्रेन-सेंटर्स, एंड 'नर्व-सेंटर्स' अर्थात मस्तिष्क-केन्द्र और स्नायु-केन्द्र आदि कहते हैं। यह अहं तत्व या जड़ पदार्थ ही परिवर्तित हो जाता है, और इस पदार्थ से ब्रेन-सेंटर्स अथवा केन्द्र निर्मित होते हैं। इसी पदार्थ (अहं-तत्व) से अन्य प्रकारों -तन्मात्राओं का अर्थात पदार्थ के सूक्ष्म कणों का निर्माण होता है, जो 'ओर्गन्स ऑफ़ परसेप्शन' या प्रत्यक्ष करने वाली हमारी इन्द्रियों पर आघात करते हैं और संवेदना (सुगंध) उत्पन्न होती है। तुम उन्हें देख नहीं सकते, मात्र जानते हो कि वे हैं। तन्मात्राओं से स्थूल पदार्थ - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और पवन तथा उन सब वस्तुओं का, जिन्हें हम देखते और अनुभव करते हैं, निर्माण होता है। इन्हीं पंच-तन्मात्राओं से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है।“ क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीरा।”– मानस – किषकिंधा काण्ड 11/2.
अगर तुम से यह पूछा जाय कि हमलोग देखते कैसे हैं ? तो तुम कहोगे क्यों, हमलोग आंखों के द्वारा देखते हैं। परन्तु दर्शन क्रिया के लिए इतना ही काफी नहीं है। ये आँखें तो केवल एक बाह्य यन्त्र हैं, आँखे हमारी वास्तविक दर्शन-इन्द्रिय नहीं हैं। आँखें तो एक खिड़की के समान हैं, वास्तविक दर्शन इन्द्रिय या उसके स्नायु-केन्द्र जिसे Optic-nerve कहते हैं पीछे हमारे मस्तिष्क में स्थित हैं। उसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रियों के अलग-अलग स्नायुकेन्द्र (नर्व-सेंटर) मस्तिष्क में अवस्थित हैं, उनके वाह्य उपकरणों को ही इन्द्रिय नहीं समझना चाहिए । कोई-कोई मनुष्य आँखें खोल कर भी सोया रहता है। कैसे? आँखे ठीक हैं, रेटिना पर चित्र भी बनता है, जिसका संवाद मस्तिष्क में स्थित Optic-nerve तक पहुँच भी रहा है, किन्तु एक चीज मिसिंग है- वह है मन। जिसके आभाव में दर्शन क्रिया हो या अन्य कोई इन्द्रिय विषय हो उसकी उपलब्धि हमें नहीं हो सकती है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि किसी भी इन्द्रिय विषय को जानने के लिए स्थूल शरीर में अवस्थित 'नेत्र' और मस्तिष्क में स्थित उसका कौरेस्पोंडिंग 'स्नायु केन्द्र' (ऑप्टिक-नर्व) तथा 'मन' - इनतीनों के मिलने से ही दर्शन क्रिया संपन्न होती है।
'नजरें बदली तो नज़ारे बदल गये'- भगवान श्रीकृष्ण भी गीता (१५/१) में कहते हैं- ' इस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष का मूल उपर ब्रह्म में है और शाखाएँ नीचे की ओर हैं. इस अश्वत्थ को (मनुष्य सहित सृष्ट जगत को ) जो समूल जानता है वही 'वेदवित् ' -अर्थात ' ज्ञानी' है, और श्रीरामकृष्ण की भाषा में ' विज्ञानी ' है। " मनुष्य को ' समूल ' (3H ) जान लेना ही मुख्य बात है. 'मनुष्य' (3H) को या जगत (कार्य-सूर्योदय) को केवल उपरी तौर पर जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि इसको 'समूल' -अर्थात कारण-सहित जानना ही वास्तविक ज्ञान है।
अब एक उदहारण के द्वारा हम लोग मन की क्रिया- विधि को समझने का प्रयास करेंगे। तुमने ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम सुना होगा। वे बड़े गरीब किन्तु मेधावी छात्र थे, एग्जाम के समय फुटपाथ पर एक लैंप पोस्ट के नीचे बैठ कर पढने में तल्लीन थे। उनके सामने रोड से एक बारात गुजर गई , थोडी ही देर के बाद एक व्यक्ति आकर उनसे पूछता है, क्या आप बता सकते हैं कि अभी-अभी इधर से जो बारात गुजरा वह किस ओर मुड़ा था ? वे मानो नींद से चौंक कर उठे हों, कहते हैं- ' sorry, no ? ' वे बारात को क्यों नहीं देख सके ? आँखें खुलीं थीं, मस्तिष्क भी जाग्रत और क्रियाशील था किन्तु मन वहाँ नहीं था, तब उनका मन अध्यन में तल्लीन था ! इसीलिये पूरी बारात गुजर गई पर वे उसे देख नहीं सके।
लंबी साधना (विवेक-प्रयोग सहित ५ अभ्यास की दीर्घ साधना) एवं चिंतन-मनन के उपरांत अथर्ववेद का एक उद्गाता ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि—" तस्मात् वै विद्वान् पुरुषमिदम् ब्रह्मेति मन्यते।"- इन्हीं सब कारणों से विद्वान व्यक्ति मानवमात्र को ब्रह्मस्वरूप ही जानते हैं. " विवेकानन्द और युवा आन्दोलन" के निबंध 'मनुष्य बनना पड़ता है !'
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1 टिप्पणी:
Vivek Ananda ji ki tulna aur kisi bhi mahann sant se nahi hota. Unka jeevni hi hamara marg darsan hai.
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