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बुधवार, 4 जून 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (15)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 



 
श्री श्री माँ सारदा  



नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्
 
  ' विवेकानन्द - वचनामृत '
१५.
नाहमग्रे कदापि स्यामन्ये सन्तु पुरः सदा। 
त्यागेSस्मि प्रथमो नित्यं त्यागः श्रेयान् मतं ध्रुवम्॥  



1. * ' You have to put yourselves last, and others before you' always.
[THE NECESSITY OF RELIGION: Jnana-Yoga]


2. ** But when the question of sacrifice comes, say-'Myself first.' For ' sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come.'  

* " नीतिशास्त्र सदा कहता है, 'मैं नहीं, तू'। इसका उद्देश्य है--' स्व नहीं, निः-स्व '। हमारे शास्त्रों का कहना है, कि इंद्रियों के माध्यम से असीम सामर्थ्य अथवा असीम आनन्द को प्राप्त करने के क्रम में मनुष्य अपने जिस निरर्थक व्यक्तित्व (अहं M/F) की धारणा से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। 'You have to put yourself last, and others before you.' तुमको (जहाँ तुम्हारे त्याग से दूसरों का कल्याण होता हो-जैसे टिकट लेने के लिये लाईन में खड़ा होते समय) दूसरों को आगे करना पड़ेगा और स्वयं को पीछे।  
हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं- 'Myself first' ' अपने को आगे रखो ', पर नीतिशास्त्र कहता है- 'अपने को सबके अन्त में रखो।' इस तरह नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विधान (all codes of ethics) त्याग पर ही आधारित है। उसकी पहली मांग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व (M/F) का हनन करो, निर्माण नहीं। (दादा ने उपाय बताया था-खाली समय में सिग्नेचर करो और फाड़ कर डस्टबिन में फेंकते रहो) क्यों ? तुमतो स्वरूपतः असीम आत्मा हो, किन्तु भ्रम के कारण स्वयं को नाशवान शरीर मानकर असीम शक्ति को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हो, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती, ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है।     
अहंता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्त्र का आदर्श है। नैतिकता का समग्र क्षेत्र, ध्येय और विषय व्यक्ति ('काचा आमी' का ) उच्छेदन है, न की उसका निर्माण। किन्तु जब किसी व्यक्ति को यह कहा जाता है कि तुम अपने व्यक्तित्व की चिंता मत करो, उसका हनन करो - तो वह उसके विनष्ट होने के भय से काँप उठता है।"

२/१९१ धर्म की आवश्यकता 
 (लन्दन में दिया हुआ व्याख्यान) उसके कुछ प्रमुख अंश :-' what there is after the body is dissolved'  मनुष्य यह जानना चाहता है कि शरीर के विनष्ट हो जाने के बाद क्या होता है ? फिर वह प्रकृति की विशाल दृश्यावली के पीछे काम करने वाली शक्ति को भी समझना चाहता है। इसे देखकर यह सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य इन्द्रियों की सीमा से बाहर जाना चाहता है। इस व्याख्या को रहस्यात्मक रूप देने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे तो यह बिल्कुल स्वाभाविक लगता है कि धर्म की पहली झाँकी स्वप्न में मिली होगी। 
कैसी अद्भुत है स्वप्न की अवस्था ! स्वप्नावस्था में जब शरीर प्रायः मृत सा हो जाता है, तब भी मन के समस्त जटिल क्रिया-कलाप चलते रहते हैं। अतः इसमें क्या आश्चर्य यदि मनुष्य हठात यह निष्कर्ष निकाल ले कि इस शरीर के विनष्ट हो जाने पर भी इसकी क्रियाएँ जारी रहेंगी ? स्वप्नावस्था में मनुष्य का कोई नया अस्तित्व नहीं हो जाता, बल्कि वह जाग्रतावस्था के अनुभवों का ही स्मरण करता है। मनुष्य का मन कुछ खास क्षणों में इन्द्रियों की सीमाओं के ही नहीं, बुद्धि की शक्ति के भी परे पहुँच जाता है। उस अवस्था में वह उन तथ्यों का साक्षात्कार करता है, जिनका ज्ञान न कभी इन्द्रियों से हो सकता था और न चिन्तन से ही। ये तथ्य ही संसार के सभी धर्मों के आधार हैं। सभी वर्तमान धर्मों का दावा है कि मन को कुछ ऐसी अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त हैं, जिनसे वह इन्द्रिय तथा बौद्धिक अवस्था का अतिक्रमण कर जाता है। और उसकी इस शक्ति को वे एक अनिवार्य तथ्य के रूप में मानते हैं। 
हममें से किसी ने कभी एक 'आदर्श मानव' (Ideal Human Being) को देखा नहीं है, फिर भी हम से कहा जाता है, कि उसकी सत्ता में विश्वास करो। हममें से किसी ने अभी तक किसी ने 'आदर्शतः पूर्ण मानव' ( ideally perfect man) को देखा नहीं है, फिर भी उस आदर्श में विश्वास किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते।
 सभी धर्मों का यह निर्णय है कि एक कोई 'आदर्श अमूर्त सत्ता' (Ideal Unit Abstraction) अवश्य है जो किसी विधान या सत या सार-तत्व के रूप में अवतरित होता रहता है। प्रत्येक मनुष्य अपने लिये कोई न कोई अपरिमित शक्तिवाला आदर्श रखता ही है -चाहे उका रूप कैसा भी हो! प्रत्येक मनुष्य के सामने, वह जो भी हो, जहाँ भी हो-एक अपरिमित शक्तिवाला आदर्श रहता ही है। Every human being has an ideal of infinite pleasure. प्रत्येक मनुष्य के सामने सुख का प्रतिक कोई न कोई आदर्श (सुख-धाम) रहता ही है। हम निरंतर उस आदर्श तक अपने को उठाने का प्रयास करते रहते हैं। 
हमारे चारो ओर अनेकानेक कार्य हो रहे हैं, (प्रातः काल सूरज निकलता है, कमल खिल जाता है, वर्षा का पानी मिट्टी पर गिर कर सुख जाता है...) उनमें से अधिकांश कार्य असीम शक्ति अथवा असीम आनन्द के आदर्श तक पहुँचने के निमित्त ही किये जा रहे हैं। किन्तु कुछ सत्संगी, बहुत थोड़े से लोगों को (जो नियमित पाठचक्र में जाते रहते हैं) शीघ्र ही यह पता चल जाता है, कि अनन्त शक्ति लाभ (स्वर्ग का राजा इन्द्र बनने और असीम आनन्द का भोग करने) के निमित्त जो प्रयास अपनी इच्छा से वे कर रहे हैं, उनकी प्राप्ति इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में उन्हें इन्द्रियों की सीमा का ज्ञान हो जाता है। वे समझ जाते हैं कि ससीम शरीर-मन से असीम आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।  देर-सबेर मनुष्य को इस सत्य का ज्ञान हो ही जाता है, कि सीमित माध्यम से असीम की अभिव्यक्ति असम्भव है, और तब वह परिमित माध्यम से अनन्त को व्यक्त करने का प्रयास करना त्याग देता है। २/१९५ प्रयास का यह परित्याग ही, नैतिकता की पृष्ठभूमि है।
[ किसी को यह मालूम हो जाय कि खीर में छिपकिली गिर गयी है, तो क्या कोई उस खीर को खायेगा ? ठीक उसी प्रकार - विषयों से मिलने वाला विषय-सुख विष के ही समान है। विषय-सुख विष के ही समान है को सिद्ध करने के लिये, पाणिनि के एक सूत्र - शव्युवमघोनामतद्विते (तद्यथा श्वा= कुक्कुरो, युवा= युवको, मघवन= इन्द्र)  इमे त्रयः समानमेव विषय­लोलुपाः कामुकाः स्वार्थान्धाश्च। पा.सू. ६-४-१३३) का सन्त तुलसीदास ने अद्भुत प्रयोग किया हैपाणिनीय व्याकरण के अनुसार, श्वन, युवन और मघवन- ये तीनों समानरूप रूप से विषयलोलुप, कामी और स्वार्थी  हैं; व्याकरण में इन तीन शब्दों के रूप भी एक सरीखे होते हैं । हालांकि पाणिनि ने इन्द्र को श्व (कुत्ते ) की श्रेणी में रखने के इरादे से उनका सूत्र नहीं लिखा था पर तुलसीदास ने पाणिनि के ही मुख से इन्द्र का तिरस्कार कराकर अपने रचना चातुर्य का अद्भुत परिचय दिया है।-लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥ 
एक कवि राजमहल में प्रवेश करने पर देखता है, राजा के मालिन की युवा पुत्री  माला बनाने में इतनी बेसुध है कि काँच, मणि और स्वर्ण के दानों को एक ही धागे में पिरो रही है ! तीनों को अलग अलग श्रेणी में बाँट कर उसकी माला क्यों नहीं बनाती ? वह पूछता है - 
 काचं मणिं काञ्चनमेकसूत्रे ग्रथ्नासि बाले किमु चित्रमेतत्?  
 हे राजा के मालिन की बेटी, तुम इन काँच, मणि और स्वर्ण के दानों को एक ही सूत्र की विचित्र माला में क्यों पिरोती हो? उस मालिन की बेटी ने कहा -
अशेषवित्पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह॥
 क्योंकि कुत्ता, युवा या इंद्र कोई भी क्यों न हो, विषयों से मिलने वाला सुख तो बहुत बड़ो विपत्ति में डालने वाला ही होता है। मनुष्य को छप्पन भोग में जो सुख मिलता सूअर को विष्ठा खाने में वही सुख मिलता है।  मनुष्य को विषयों में जितना सुख मिलता है, उससे लाखों गुना तीव्र सुख इन्द्र को स्वर्ग में प्राप्त होता है, पर है तो विष के ही समान। यही सोच कर मैं इन तीनों- काँच, मणि और स्वर्ण को एक ही श्रेणी में रख कर माला बना रही हूँ!]
नीतिशास्त्र सदा कहता है, 'मैं नहीं, तू'। इसका उद्देश्य है--' स्व नहीं, निः-स्व '। हमारे शास्त्रों का कहना है, कि इंद्रियों के माध्यम से असीम सामर्थ्य अथवा असीम आनन्द को प्राप्त करने के क्रम में मनुष्य अपने जिस निरर्थक व्यक्तित्व (अहं M/F) की धारणा से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। 'You have to put yourself last, and others before you.' तुमको (टिकट लेने के लाईन में खड़ा होते समय) दूसरों को आगे करना पड़ेगा और स्वयं को पीछे। हमारी इन्द्रियाँ कहती हैं- 'Myself first' अपने को आगे रखो', पर नीतिशास्त्र कहता है- 'अपने को सबके अन्त में रखो।' इस तरह नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विधान (all codes of ethics) त्याग पर ही आधारित है। उसकी पहली मांग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व (M/F) का हनन करो, निर्माण नहीं। (दादा ने उपाय बताया था-खली समय में सिग्नेचर करो और फाड़ कर डस्टबिन में फेंकते रहो) क्यों ? तुमतो स्वरूपतः असीम आत्मा हो, किन्तु भ्रम के कारण स्वयं को नाशवान शरीर मानकर असीम शक्ति को व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हो, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती, ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है।     
अहंता का पूर्ण उच्छेदन ही नीतिशास्त्र का आदर्श है। नैतिकता का समग्र क्षेत्र, ध्येय और विषय व्यक्ति (काचा आमी) उच्छेदन है, न की उसका निर्माण। किन्तु जब किसी व्यक्ति को यह कहा जाता है कि तुम अपने व्यक्तित्व की चिंता मत करो, उसका हनन करो - तो वह उसके विनष्ट होने के भय से काँप उठता है। उपयोगितावादी (The Utilitarian) हमें 'असीम' -या अतीन्द्रिय लक्ष्य को पाने के प्रति किये जाने वाले प्रयत्नों को छोड़ देने की सलाह देते हैं, क्योंकि उनकी नजर में अतीन्द्रियता (अतिचेतन अवस्था में पहुँचने के लिये मनःसंयोग का अभ्यास करना) अव्यवहारिक है, निरर्थक है। पर साथ ही वे यह भी कहते हैं, कि नैतिक नियमों का पालन करो, समाज का कल्याण करो।  
आखिर क्यों हमें गरीब मेधावी-छात्रों या बीमार लोगों की मदत करनी चाहिये? Ethics itself is not the end, but the means to the end. समाज-सेवा या नीतिशास्त्र हमारा साध्य नहीं है, परन्तु साध्य को पाने का साधन है। यदि असीम सुख भोगना ही मानव जीवन का चरम उद्देश्य है, तो क्यों न मैं दूसरों को कष्ट पहुँचाकर भी स्वयं सुखी रहूँ ? हम क्यों दूसरों की भलाई करें ? क्यों हम दूसरों को नहीं सताएँ ?
 कुछ गार्जियन लोग ऐसा कहते हैं कि यदि मेरा बेटा अभी से ही आध्यात्मिक होने लगे या चरित्र-निर्माण करने लगे, तो बड़ा होकर उसे सांसार के व्यावहारिक सम्बन्धों को निभाने (दुनियादारी निभाने-टेबल के नीचे से पैसा कमाने ?) में कठिनाइयाँ हो सकती हैं। कन्फ़्यूशियस के जमाने में भी कहा जाता था, 
' पहले हम इस लोक की चिंता करें, जब इससे फुर्सत मिलेगी-तब दूसरे लोकों की चर्चा करेंगे।' पर यदि अधिक आध्यात्मिकता या चरित्र-निर्माण कर लेने से हमारी दुनियादारी बुद्धि कुन्द हो जाएगी, तो जरुरत से अधिक दुनियादारी पर ध्यान देने या अत्यधिक प्रैक्टिकल (चार्वाक-परस्त) बन जाने से इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ जायेंगे (इहलोक में भी जेल जाना पड़ेगा और परलोक में भी नरक भोग पहले मिलेगा। अत्यधिक दुनियादारी हमें पूर्णतः भौतिकवादी (चार्वाक-पन्थी) बना डालेगी। मनुष्य का उद्देश्य प्रकृति नहीं है, -वरन कुछ उससे उपर की वस्तु है। 
Man is man so long as he is struggling to rise above nature, and this nature is both internal and external. 'मनुष्य को तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से उपर उठने के लिये संग्राम करता है'; और यह प्रकृति बाह्य और आन्तरिक दोनों है। बाह्य प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है, कितना भव्य है। पर उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है अभ्यंतर प्रकृति पर विजय पाना। it is infinitely grander and better to know the laws that govern the passions, the feelings, the will, of mankind. ग्रहों और नक्षत्रों का नियंत्रण करने वाले नियमों (G=M/V) को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है; उससे अनन्त गुना अच्छा और भव्य है, उन नियमों (योग-सूत्र) को जानना, जिनसे मनुष्य के मनोवेग (passions), भावनायें और उत्कटेच्छायें नियंत्रित होती हैं। (इन नियमों को नहीं सिखाया जा रहा है, तभी तो दिल्ली की निर्भया और बदायूँ जैसी दिल दहला देने वाली घटनायें हो रही हैं।) इस आंतरिक मनुष्य (inner man-अनियंत्रित मन) पर विजय पाना, मानव मन की जटिल सूक्ष्म क्रिया-रहस्यों को समझना पूर्णतया धर्म के अन्तर्गत आता है। और जब भूमा या असीम की खोज करना, इन्द्रियातीत वस्तु को पाने के लिये उद्द्य्म करना, इन्द्रियों की सीमाओं से परे जाकर एक आध्यात्मिक मानव के रूप में विकसित होना--उसे उपयोगितावादी कितना भी अर्थहीन कहें; समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता ही किसी भी राष्ट्र की शक्ति का प्रधान श्रोत है। 
एक अध्यन के रूप में भी धर्म अत्यन्त आवश्यक है। 
इसमें कोई शक नहीं, कि केवल उपयोगिता के स्तर पर भी पूर्णतया स्वस्थ, नैतिक और अच्छे महापुरुष इस संसार में हुए हैं। किन्तु वैसे संसार को हिला देने वाले (world-movers) लोग, जो मानो विश्व में एक महान चुम्बकीय आकर्षण ला देते हैं, जिनकी आत्मा सैकड़ों और हजारों में क्रियाशील है, जिनका जीवन आध्यात्मिक अग्नि से दूसरों के हृदय को आलोकित कर देता है, ऐसे महामानव सदा आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि से ही आविर्भूत होते हैं। वह अन्तर्निहित अनन्त ऊर्जा, जिसकी अनुभूति करना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे अभिव्यक्त करने की प्रेक-शक्ति (motive power) का स्रोत सदा ही धर्म रहा है। 
 In building up character - चरित्र-निर्माण, शिव और महत् की प्राप्ति, स्वयं तथा विश्व को शांति प्रदान करने वाली सर्वोपरि प्रेरक शक्ति धर्म ही है। धर्म का अध्यन अब पहले की अपेक्षा अधिक व्यापक आधार पर होना चाहिये। सम्प्रदाय, जाति या राष्ट्र की भावना पर आधारित समस्त धर्मों का परित्याग करना होगा । हर जाति या राष्ट्र का अपना अपना अलग ईश्वर मानना और दूसरों को भ्रान्त कहना एक अन्धविश्वास है। उसे अतीत की वस्तु हो जाना चाहिये। वह समय तो आ ही गया है, (अच्छे दिन तो आ ही गए हैं !), जब कोई व्यक्ति पृथ्वी के किसी कोने (बनारस) में कोई बात कहे और सारे विश्व में वह गूँज उठे ! मात्र भौतिक संचार- साधनों से हमने सम्पूर्ण जगत को एक बना डाला है। इसलिये स्वभावतः ही आने वाले धर्म को विश्व-व्यापी (सर्वत्यागी काशी-विश्वनाथ) होना होगा ! 
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** But when the question of sacrifice comes, say-'Myself first.' For ' sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come.'  
किन्तु जब देश के लिये जीने-मरने का प्रश्न खड़ा हो, जहाँ अपने जीवन का बलिदान चढ़ा देने वालों की लाईन लगानी हो; वहाँ वीरों को कहना चाहिये-' मैं जहाँ खड़ा होता हूँ-लाईन वहीं से शुरू होती है!' 'Myself first.' 
क्योंकि-' जो बात मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ--वह यह कि अज्ञान (अविद्या) ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। Who will give the world light? जगत को ज्ञान (ब्रह्मविद्या- 'I am He' ) का प्रकाश कौन देगा ?
भूतकाल में अपने जीवन की बलि चढ़ा देना (sacrifice) ही नियम (Law धर्म) था, और दुःख है कि युगों तक ऐसा (पुष्प की अभिलाषा) ही रहेगा। पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं और वीरों को ' बहुजनहिताय, बहुजन सुखाय ' अपने जीवन की बलि चढ़ानी होगी ! (अर्थात जिन्हें स्वाधीनता-संग्राम में शहीद बनने का सौभाग्य नहीं मिला, उन्हें केवल देश के लिये जी कर दिखाना होगा।) असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों (ऋषियों या पैग़म्बरों) की आवश्यकता है।  
संसार के धर्म प्राणरहित उपहास ( हँसी ठठ्ठा - lifeless mockeries) के विषय बन चुके हैं; आज जगत को जिस चीज की आवश्यकता है--वह है चरित्र !! संसार को ऐसे 'मनुष्य' चाहिये जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम (burning LOVE) का मूर्त-विग्रह हो। मानवजाति के जिस मार्गदर्शक नेता या शिक्षक का जीवन-गठन, 'स्वार्थहीन प्रेम' का ज्वलंत उदहारण स्वरुप बन जायेगा; उसके मुख से निकले एक एक शब्द का प्रभाव श्रोताओं के उपर वज्र (thunderbolt) की तरह पड़ेगा। आज हमें ' निर्भीक शब्दों और दिलेर  कामों'  (बोल्ड वर्ड्स एंड बोलडर डीड्स)  की  आवश्यकता है। मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है --मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र उसे ('स्वार्थहीन प्रेम' का ज्वलंत उदहारणस्वरुप 'नेता' बनो और बनाओ!' ) प्रकट करने का उपाय बताना।
मुझे पूरा यकीन है, कि तुम्हारे मन से मौत का मिथ्याभय (देहाध्यास या superstition) निकल चूका है; और तुम्हारे भीतर वह शक्ति जाग्रत हो चुकी है- जो सम्पूर्ण जगत को झकझोर देगी ! और भविष्य में ऐसे दूसरे लोग भी (भी ऋषि बनेंगे) आयेँगे। Awake, awake, great ones! The world is burning with misery. Can you sleep? जागो ! जागो ! हे वीरों मोहनिद्रा से जागो; सारा जगत दुःख से जल रहा है- क्या तुम सो सकते हो ? 
हम बार-बार पुकारें जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अंतर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन को सार्थक करने के लिये,क्या इससे भी (Be and Make से भी ) कोई महान कार्य हो सकता है ? मैं जैसे ही ' बनो और बनाओ ' आन्दोलन को और अधिक तीव्रता से प्रसारित करने की बात सोचता हूँ, सारी कार्य-पद्धति मेरे समक्ष उजागर हो जाती है। मैं पहले से कोई योजना नहीं बनाता। योजनायें खुद बी खुद पैदा होती हैं, स्वतः यथार्थता में रूपान्तरित हो जाती हैं। मैं केवल कहता हूँ--जागो, जागो ! 
सस्नेह तुम्हारा, विवेकानन्द  
(७ जून १८९६, लन्दन से भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र )

  

मंगलवार, 3 जून 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (14)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 

 
श्री श्री माँ सारदा  


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||

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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

 ' विवेकानन्द - वचनामृत '
१४. 
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नूनमुभे तु कर्मणि । 
   प्रवृत्तिः स्वार्थ बुद्ध्याश्च निवृत्तिस्तद्विसर्जने ।।


' Both Pravritti and Nivritti are of the nature of work. 

The one is Pravritti,....the natural tendency of every human being; taking everything from everywhere and heaping it around one centre, that centre being man's own sweet self.....

Nivritti is the fundamental basis of all morality and all religion, and the very perfection of it is entire self-abnegation, readiness to sacrifice mind and body and everything for another being. ' (NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION)

३/५९ अनासक्ति ही पूर्ण आत्मत्याग है। 
यह सम्पूर्ण आत्मत्याग ही सारी नैतिकता की नींव है। 
एके सत्पुरुषाःपरार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज्य ये, 
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थविरोधेन ये।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, 
ये निघ्नंति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे॥ 
 (भर्तृहरि-विरचित नीतिशतकम्  – 75)

इस संसार में हमें कई प्रकार के मनुष्य मिलेंगे। कवि कहता है कि वह तीन प्रकार के लोगों का वर्ग-नामकरण सरलता से कर लेता है । प्रथम तो ‘सत्पुरुष’ या देव-मानव, जो पूर्ण आत्मत्यागी होते हैं, अपने जीवन की बाजी लगाकर दूसरों का भला करते हैं। ये सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे सौ मनुष्य भी हों, तो उस देश को फिर किसी बात की चिन्ता नहीं। परन्तु खेद है, ऐसे बहुत थोड़े होते हैं। दूसरे वे साधु-प्रकृति के मनुष्य ‘सामान्य जन' हैं, जो दूसरों की भलाई तब तक करते हैं, जब तक उनकी स्वयं की कोई हानि न हो। और तीसरे वे ‘मानुषराक्षस’ - अर्थात आसुरी प्रकृति के लोग हैं; जो अपनी भलाई के लिये दूसरों की हानि तक करने में नहीं हिचकते। भर्तृहरि ने चौथी श्रेणी भी बताई है। जिसको हम कोई नाम नहीं दे सकते। ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल अनिष्ट करने के लिये ही करते हैं। भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो । 
जिस प्रकार सर्वोच्च श्रेणी के मनुष्य -‘सत्पुरुष’ (या चरित्रवान मनुष्य) अपने स्वाभाव-वश, भला करने के लिये ही दूसरों का भला करते हैं, उसके पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं होता। उसी प्रकार सब्सर निम्न स्तर के ऐसे लोग भी हैं, जो केवल दूसरों का खेल बिगाड़ने के लिये,अपनी आदतों से मजबूर होकर केवल बुरा करने के लिये ही दूसरों का बुरा करते रहते हैं। ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता-यह तो उनकी प्रकृति ही है। कवि कहता है कि जिनकी प्रवृत्ति सदा परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है, उन्हें वह किस नाम से पुकारे ? --उसे नहीं मालूम। दुर्भाग्य से यह धरा ऐसे लोगों से मुक्त नहीं है, जिन्होंने चरित्र-निर्माण की पद्धति (आदत-रुझान-प्रवृत्ति) को सीखा ही नहीं है ।
संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति। जैसे पेण्डुलम वाले घड़ी में दोलन गति होती है- प्रवृत्ति का अर्थ है किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन (revolving towards) और निवृत्ति का अर्थ है प्रत्यागमन (revolving away)। किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन का अर्थ है, हमारा यह ("I and mine”) संसार -यह 'मैं' और 'मेरा'।  अर्थात इस 'मैं' रूपी केन्द्र में ही, जो कुछ मिले, धन-संपत्ति, नाम-यश, उसे संगृहीत करना-उसे पकड़े रहना या सदा बढ़ाने का यत्न करना। यह प्रवृत्ति ही मनुष्य मात्र का स्वाभाविक भाव है- चहुँ ओर से जो कुछ मिले, उसे लेना और सबको एक केन्द्र में एकत्र करते जाना। और वह केन्द्र है, उसका अपना मधुर 'अहं' । जब उसकी यह वृत्ति (रुझान या tendency) घटने लगती है, जब निवृत्ति का उदय होता है, तभी नैतिकता और धर्म का आरम्भ होता है। 'Both Pravritti and Nivritti are of the nature of work.' 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति', दोनों ही कर्म के रूप हैं। एक असत् कर्म (evil work) है और दूसरा सत् (good work)। निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की नींव है; और इसकी पराकाष्ठा ही सम्पूर्ण 'आत्मत्याग' है; जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिये अपना तन-मन-धन, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व निछावर कर देता है। जब कोई मनुष्य इस अवस्था में पहुँच जाता है, उसे कर्म-योग में सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सत्कर्मों ' Be and Make' से जुड़े रहने का यही सर्वोच्च फल है।  
ज्ञानी, कर्मी और भक्त, तीनो एक ही स्थान पर पहुँचते हैं, और वह स्थान है -आत्मत्याग ( self-
abnegation), जो व्यक्ति अपना जीवन दूसरों के लिये अर्पित करने को उद्द्त रहता है, उसके प्रति समग्र मानवता श्रद्धा और भक्ति से नत हो जाती है। एक भक्त अपने हृदय निरंतर साधु भाव रखते हुए, अन्त में उसी एक स्थान पर पहुँचता है, और कहता है-"Thy will be done,"-प्रभो, तेरी इच्छा ही पूर्ण हो ! यही भक्त का आत्मत्याग है। एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान (आत्मानुभूति) के द्वारा यह देखता है, कि उसका यह तथाकथित 'देहाध्यास'-या भासमान 'अहं' केवल और केवल एक भ्रम है; फिर वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी आत्मत्याग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अतएव हम देखते हैं कि कर्म, भक्ति और ज्ञान-तीनों यहाँ पर आकर मिल जाते हैं। भक्ति-मार्ग के आचार्य जब यह सिखाते हैं, कि ' ईश्वर' जगत से भिन्न है, 'जगत' से परे है' तो उनका वास्तविक मर्म यही रहता है। जगत एक चीज है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिल्कुल सत्य है। 'जगत' कहने से उनका तात्पर्य रहता है 'स्वार्थपरता'। "Unselfishness is God." - स्वार्थशून्यता ही ईश्वर है !
 गीता कहती है-'अपने जीवन में समस्त कार्य करते हुए भी किसी में आसक्त न होना। यह जान लो कि संसार में रहते हुए भी तुम संसार से नितान्त पृथक हो और यहाँ तुम जो भी कर रहे हो वह अपने लिये नहीं है- देश के लिये कर रहे हो । यदि कोई कार्य तुम अपने लिये करोगे, तो उसका फल भी तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। इसलिये कर्मयोग हमें यह शिक्षा देता है, ' संसार को मत छोड़ो, संसार में ही रहो; जितना चे संसारी भाव ग्रहण करो। परन्तु यदि वह अपने ही भोग के निमित्त हो, तो फिर तुम्हारा कर्म करना व्यर्थ है।' पहले अहं भाव को नष्ट कर डालो, और फिर समस्त संसार को आत्मस्वरूप देखो,-'उस बूढ़े आदमी को मरना ही चाहिये' "The old man must die." यहाँ 'बूढ़े आदमी' का अर्थ है, यह स्वार्थपर भाव कि यह संसार हमारे ही भोग के लिये बना है। 
यह सोचना कि कोई कोई मेरे उपर निर्भर है तथा मैं किसी का भला कर सकता हूँ, एक दुर्बलता का चिन्ह है। यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है, और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भली-भाँति समझा देना चाहिये कि इस संसार में कोई 'मेरे' ऊपर निर्भर नहीं है। एक भिखारी भी हमारे दान पर निर्भर नहीं है। किसी भी जीव को हमारी दया की आवश्यकता नहीं है, सबकी सहायता प्रकृति से होती है। दूसरों की सहायता करके हम जो स्वयं शिक्षा प्राप्त कर सक रहे हैं, यही तो हमारे तुम्हारे लिये परम सौभाग्य की बात है। जीवन में सीखने योग्य यही सबसे बड़ी बात है। ' हो सकता है, इसी साल तुम्हारे कई मित्रों का निधन हो गया हो। तो क्या भला संसार उनके फिर वापस आने के लिये रुक हुआ है ? अतएव अपने मन से यह विचार निकाल दो कि तुम्हें इस संसार के लिये कुछ करना है। किसी व्यक्ति के लिये अपने विषय में यह सोचना कि ' मैं तो संसार की सहायता के लिये पैदा हुआ हूँ।' यह केवल अहंकार है, निरी स्वार्थपरता है, जो धर्म की आड़ में हमारे सामने आती है। 
जनक एक बहुत बड़े राजा थे और 'विदेह' नाम से प्रसिद्द थे। 'विदेह' का अर्थ है, 'शरीर से पृथक'। यद्द्पि वे राजा थे, फिर भी उन्हें इस बात का तनिक भी अभिमान नहीं होता था कि वे एक 'शरीर' हैं। उन्हें तो सदा यही ध्यान रहता था कि वे आत्मा हैं। व्यासदेव के पुत्र बालक शुक का अपने पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी। जिस मनुष्य ने 'स्वयं' पर अर्थात मन (अहं) पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके उपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिये फिर किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। there is no more slavery for him. His mind has become free.' उसका मन स्वतंत्र हो जाता है- अर्थात इन्द्रिय-विषय उसे कभी अपनी ओर खींच नहीं सकते -उसका विषयाश्रित मन 'एस्केप वेलोसिटी' पार्थिव वस्तुओं के गुरुत्वाकर्षण से परे होकर निरंतर 'ब्रह्मनिष्ठ मन' ही बना रहता है।  
जिन लोगों ने अपने मन पर विजय नहीं प्राप्त की है, उनके लिये यह संसार या तो बुराइयों से भरा है, या अधिक से अधिक अच्छाइयों और बुराइयों का एक मिश्रण है। परन्तु यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लें, तो यही संसार सुखमय हो जाता है। ज्योंही इस कल्पित 'अहं' का नाश हो जायगा, त्योंही वही संसार जो पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था, अब स्वर्गरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा। यहाँ तक कि हवा भी बदलकर मधुमय हो जायेगी और प्रत्येक भक्ति भला प्रतीत होने लगेगा। यही है कर्मयोग की पूर्णता या सिद्धि।
 सारा रहस्य अभ्यास में ही है। पहले श्रवण करो, फिर मनन करो और फिर अभ्यास करो। यह बात प्रत्येक योग के सम्बन्ध में सत्य है। पहले तुम इसके बारे में सुनो और मनन करो- इस आदेश का मर्म क्या है ? यदि कुछ बातें आरम्भ में स्पष्ट न हों, तो निरंतर श्रवण एवं मनन से वे स्पष्ट होने लगती हैं। वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता, हममें से प्रत्येक को अपने आप को सिखाना होगा। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपक मात्र हैं, जो हमारे अन्तःस्थ गुरु (मन) को सब विषयों का मर्म समझने के लिये  उद्बोधित कर देते हैं। तब बहुत सी बातें हमारी स्वयं की विचार-शक्ति से स्पष्ट हो जाती है। और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं।
और यह अनुभूति ही हमारी प्रबल इच्छा-शक्ति में परिणत हो जाती है। पहले यह भावना होती है, फिर इच्छा, और उस इच्छा-शक्ति से कर्म करने की वह प्रचण्ड शक्ति पैदा होती है, जो तुम्हारी प्रत्येक नस, प्रत्येक शीरा और प्रत्येक पेशी में प्रवाहित होकर तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर को इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र बना देती हैं। और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग एवं परम निःस्वार्थपरता प्राप्त हो जाती है। यह उपलब्धि किसी प्रकार के मत, सिद्धान्त या विश्वास पर निर्भर नहीं है। प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थ हो ? यदि तुम हो, तो चाहे कोई शास्त्र नहीं पढ़ा हो, या मंदिर में न गए हो, फिर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे। हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है, क्योंकि उन सबका लक्ष्य एक ही है। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - सभी मोक्ष-लाभ के लिये सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं। सांख्ययोगौ पृथग् बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । गीता५/४ केवल अज्ञ ही कहते हैं कि कर्म और ज्ञान भिन्न भिन्न हैं, ज्ञानी नहीं। 

सोमवार, 2 जून 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (13)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 


 
श्री श्री माँ सारदा  

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
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हिन्दी अनुवाद की भूमिका 


यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (within quotes) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'Complete Works of Swami Vivekananda' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। और तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 

'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में सारे प्रसंग और सन्दर्भ मिल गये, किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'विवेकानन्द साहित्य' अभी तक नेट पर उपलब्ध नहीं है। इसका क्या कारण है, यह मुझे नहीं पता। इसीलिये मैंने स्वामी विवेकानन्द द्वारा अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय अपने सन्तोष के लिये विवेकानन्द साहित्य से लगभग पूरे निबंध को ही फिर लिख दिया है, और जहाँ आवश्यक लगा है, कुछ पन्नों को स्वयं भी अनुवादित किया है।

जिस प्रकार मॉडर्न फिजिक्स में,आजकल पहले तथ्यों को बड़े धैर्य के साथ प्रयोगात्मक पद्धति (एक्सपेरिमेंटल मेथड) के द्वारा परिक्षण करने के बाद, उससे उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर उसका विश्लेषण करके सिद्धान्त (theory) को सत्यापित किया जाता है। ठीक उसी प्रकार हम स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान ' मनोविज्ञान का महत्व ' को गहराई से अध्यन करके यह समझ सकते हैं कि 'मनोविज्ञान' या 'साइन्स अव साइकालजी' ही विज्ञानों का विज्ञान- (साइंस ऑफ़ साइंसेज) है! ठीक उसी प्रकार महामण्डल पुस्तिका 'मनःसंयोग' में वर्णित प्रयोगात्मक पद्धति के द्वारा परिक्षण करने और उससे प्राप्त तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके हम स्वयं इस सिद्धान्त को परख कर देख सकते हैं, कि ' अपने चित्त की गहन से गहन गहराई में यथार्थ मनुष्य है-आत्मा !' 
इसलिये इस सर्वश्रेष्ठ विज्ञान 'मनोविज्ञान' (साइकालजी) को भारत में 'मनःसंयम' (मेन्टल कंसंट्रेशन) या 'एकाग्रता का विज्ञान' कहते हैं। इस विज्ञान का अध्यन भी 'मॉडर्न फिजिक्स' के ही अनुरूप पहले प्रयोग (एक्सपेरिमेंट) करके उपलब्ध तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके बाद में सिद्धान्त (थ्योरी या महावाक्यों) को सत्यापित किया जाता है। अन्य पार्थिव विज्ञानों की ही तरह, जिस किसी जाति, धर्म या देश में जन्मा जो भी व्यक्ति महर्षि पतंजलि (मनोविज्ञान सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है इसलिये इसके सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक को महर्षि या ऋषि कहते हैं) द्वारा आविष्कृत 'पातंजल योग सूत्र' में दिये गये निर्देशों के अनुसार प्रयोग  करने की 'पात्रता' (एलिजिबिलिटी:यम-नियम का पालन) अर्जित कर लेगा, उसे मनःसंयोग (आसन,प्रत्याहार,धारणा) का अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करके, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करने से जो तथ्य और आँकड़े उपलब्ध होंगे, उसका परिणाम होगा -अपने सच्चे स्वरुप (ब्रह्मत्व) की उपलब्धि !
जिस प्रकार विश्व भर के भौतिक शास्त्री (Physicists) प्रायः एक ही परिणाम पर पहुँचते हैं, उन्हें जिन सामान्य प्राकृतिक नियमों (जनरल फैक्ट्स) का पता लगता है, और उनके अनुगामी बाद में उसी पद्धति से प्रयोग करके जिस निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं, उनके विषय में उनमें कोई मतभेद नहीं होता। उसी प्रकार मनःसंयोग के अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करने की पात्रता रखने वाले सभी संभावित मनोवैज्ञानिक भी एक ही निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं- जिन्हें भारत में महावाक्य या सार्वभौमिक तथ्य (यूनिवर्सल फैक्ट्स) कहा जाता है। वैदिक ऋषियों के द्वारा अविष्कृत चार प्रमुख  महावाक्य इस प्रकार हैं -
१. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उपनिषद ३/५/३)
ब्रह्म शुद्ध ज्ञान स्वरूप है
२. अहम् ब्रह्मास्मि (शतपथ ब्राह्मण ४/३/२/२१)
मै ब्रह्म हूँ
३. तत् त्वमसि (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
वह ब्रह्म तुम हो
४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद २)
यह आत्मा ब्रह्म है
ये महावाक्य ही ऐसे तथ्य तथा आँकड़े हैं, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ विज्ञान मनोविज्ञान के महान वैज्ञानिकों ने अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति द्वारा जाना है या प्रत्यक्ष दर्शन किया है, उनमें भी कोई मतभेद नहीं होता। इसलिये फिलासफी को भारत में दर्शन-शास्त्र कहा जाता है, एवं उसके आविष्कारक वैज्ञानिकों को दार्शनिक या तत्त्ववेत्ता-'महर्षि' (पैग़म्बर-मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेता') कहा जाता है।
वैसे विभिन्न समय में विभिन्न ऋषियों के द्वारा आविष्कृत सत्य के रूप में अन्य कई महावाक्य वेदों में संचित हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- जैसे - 'नेति नेति' (यह भी नही, यह भी नहीं), 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' ( जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है), 'वसुधैव कुटुंबकम' ( पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है) , ' मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव' (माता,पिता और अतिथि देवता समान होते हैं, स्वामीजी ने इसमें जोड़ दिया है -मूर्ख देवो भव, दरिद्र देवो भव), 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' (सत्य ही शिव है और सत्य ही सुंदर है; सत्, चित्त और आनन्द -'सच्चिदानन्द' का भी यही अभिप्राय है। इन सभी महावाक्यों (Theory) को कोई भी भावी मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला साधक, मनोवैज्ञानिक या दार्शनिक, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति के द्वारा सत्यापित कर सकता है।
उसी प्रकार महामण्डल के अध्यक्ष 'आचार्य श्रीनवनीहरण' ने विवेकानन्द साहित्य के दसों खण्ड में समाहित तथ्यों का गहन अध्यन और विश्लेषण करने के बाद, आधुनिक भारत के सबसे महान ऋषि विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत महावाक्यों को ' छोटे छोटे उद्धरणों ' के अन्दर, श्लोकों के रूप में पिरोकर प्रकार गागर में सागर भर दिया है।  इस महामण्डल पुस्तिका ' विवेकानन्द - दर्शनम् ' को 'विवेकानन्द-वचनामृत' के रूप में पान करके स्वयं अमर हो सकते हैं, और दूसरों को भी अमर बनने में सहायता कर सकते हैं !  


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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

 ' विवेकानन्द - वचनामृत '

१३. 
मनसश्चेन्द्रियग्रामसंयमात् तद्बलं लभेत्। 
आत्मबलं तदायाति यद्बलेन जगज्जयः ॥ 
1. * By controlling the mind and the senses that strength may be gained. Then only the power of the atman awakes, and with that power the world may be conquered. 
2.** ' Strength, therefore, is the one thing needful.' 
१. * आत्मा की शक्ति केवल तभी जाग्रत होती है, जब हम अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करने का विधिवत अभ्यास करना प्रारम्भ कर देते हैं। और उसी शक्ति के द्वारा जगत को जीता जा सकता है। 
२. **२/१८७-१९०  आत्मा की मुक्ति (५ नवम्बर,१८९६ को लन्दन में दिया गया भाषण) कुछ प्रमुख अंश -
" यदि यही सत्य है कि सभी शुद्धस्वरूप हैं, तो इसी क्षण सारे संसार को इसकी शिक्षा क्यों न दी जाय ? साधु-असाधु, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, छोटा-बड़ा, सिंहासनासीन राजा और रस्ते में झाड़ू लगाने वाले भंगी-सभी को डंके की चोट पर इसकी यह शिक्षा क्यों न दी जाय ? द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, आज हम नया प्रयोग क्यों न आरम्भ करें ? सम्भव है कि सभी मनुष्यों को इस अद्वैत-तत्व की धारणा करने में लाखों वर्ष लग जायें, पर इसी समय से क्यों न आरम्भ आरम्भ कर दें? यदि हम अपने जीवन में बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सके, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया। 
द्वैतवाद के कई प्रकारों से मुझे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु जो कोई उसके माध्यम से दुर्बलता की शिक्षा देता है (शनीचर-मन्दिर में भय से गिड़गिड़ाता है), उस पर मुझे विशेष आपत्ति है। स्त्री-पुरुष, बालक-
बालिका, जिस समय दैहिक, मानसिक या आध्यात्मिक शिक्षा पाते हैं, उस समय उनसे एक ही प्रश्न करता हूँ -" क्या तुम्हें इससे बल प्राप्त होता है ?" क्योंकि मैं जनता हूँ, एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है। मैं जानता हूँ, एक मात्र सत्य से ही जीवनी-शक्ति प्राप्त होती है। सत्य की ओर गए बिना हम किसी प्रकार बलवान या ओजस्वी नहीं हो सकते, और बलवान हुए बिना हम सत्य के समीप नहीं पहुँच सकते।
इसलिये जो शिक्षा-प्रणाली मन और मस्तिष्क को दुर्बल कर दे और मनुष्य को कुसंस्कार से भर दे, जिससे वह अंधकार में टटोलता रहे, खयाली पुलाव पकाता रहे, और सब प्रकार की अजीबोगरीब रहस्यमय और अन्धविश्वासपूर्ण बातों (शमी की लकड़ी, घोड़े की नाल और सूअर की पूँछ) में समस्याओं का हल ढूढ़ना सिखाता हो, उस मत या प्रणाली को मैं बिल्कुल पसन्द नहीं करता, क्योंकि मनुष्य पर उसका परिणाम बड़ा भयानक होता है। वह इतना दुर्बल हो जाता है, कि कुछ समय बाद वह अपने मन में सत्य की धारणा करने, और उसके अनुसार जीवन-गठन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है।
 ' Strength, therefore, is the one thing needful.' अतः बल ही एक आवश्यक बात है। बल ही भव-रोग (world's disease) की दवा है। धनिकों द्वारा रौंदे जाने वाले निर्धनों, चतुर विद्वानों द्वारा दबाये जानेवाले अशिक्षितों-हर वर्ग के शोषित-पीड़ित मनुष्यों के लिये बल ही एकमात्र दवा है। और अत्यन्त क्रूर पापियों द्वारा सताये जाने वाले अन्य पापियों के लिये भी वही एक मात्र दवा है। और अद्वैतवाद (monism) हमें जैसा बल देता है, वैसा कोई अन्य मतवाद नहीं दे सकता ! अद्वैतवाद हमें जिस प्रकार सदाचारी बनाता है, वैसा कोई और नहीं बनाता। जब सारा दायित्व हमारे कन्धों पर डाल दिया जाता है, उस समय हम जिस प्रकार 'परिश्रम की पराकाष्ठा' करके, जितनी अच्छी तरह से कार्य करते हैं, उतनी और किसी अवस्था में नहीं करते। 
यदि तुम पर उत्तरदायित्व डाल दिया जाय तो तुम्हारी सारी अपराधी-प्रवृत्तियाँ ( criminal ideas) दूर हो जायेंगी, तुम्हारा सारा चरित्र बदल जायेगा; तुम पशु-मानव से देव-मानव में रूपान्तरित हो जाओगे। जब हमारे सारे दोष और किसी के मत्थे नहीं मढ़े जाते, तब शैतान या भगवान किसी को भी हम अपने दोषों के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराते, तभी हम सर्वोच्च भाव में पहुँचते हैं। अपने भाग्य के लिये मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ। मैं स्वयं अपने शुभाशुभ दोनों का कर्ता हूँ ! मेरा स्वरुप शुद्ध और आनन्द मात्र है। इसके विपरीत जो भी विचार हमारे मन में उठें उन्हें तुरंत त्याग देना चाहिये। 
(मनो-बुध्दयहंकार-चित्तानिनाहं, न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न वै व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।
न वै प्राणसंज्ञा न वै पंचवायुः, न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः।
न वाक्पाणि पादौ न चोपस्थ-पायुः, चिदानन्दरूपःशिवोहं शिवोहम्।।
न मे रागद्वेषौ, न मे लोभमोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मों, न चार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानन्दरूपःशिवोहं शिवोहम्।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं, न मंत्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनम् नैव भोज्यं न भोक्ता,चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।)
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः, पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्यः, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।
अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो, विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न बन्धःचिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।
' मेरी मृत्यु नहीं है, शंका भी नहीं, मेरी कोई जाति नहीं है, न कोई मत ही; मेरे पिता या माता या भ्राता या मित्र या शत्रु भी नहीं है, क्योंकि मैं सच्चिदानन्दस्वरुप शिव हूँ। मैं पाप से या पुण्य से, सुख से या दुःख से बद्ध नहीं हूँ। तीर्थ, ग्रन्थ और नियम आदि मुझे बन्धन में नहीं डाल सकते। मैं भूख-प्यास से रहित हूँ। यह देह मेरी नहीं है, न कि मैं देह के अंतर्गत विकार और अन्धविश्वासों के अधीन ही हूँ। मैं तो सच्चिदानन्दस्वरुप हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ। '
वेदान्त कहता है कि केवल यही स्तवन हमारी प्रार्थना हो सकती है। स्वयं को विसम्मोहित करने और अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने यही एक मात्र उपाय है। अपने से और सभी से यही कहना कि हम ब्रह्मस्वरुप हैं। हम ज्यों ज्यों इसकी आवृत्ति करते हैं, त्यों त्यों हममें बल आता जाता है। 'शिवोहं' रूपी यह अभय वाणी क्रमशः अधिकाधिक गंभीर हो हमारे ह्रदय में, सभी विचारों में भिदती जाती है, और अन्त में हमारी नस नस में, प्रत्येक रक्त बिन्दु में समा जाती है। ज्ञान सूर्य की किरण जितनी उज्ज्वल होने लगती हैं, भ्रम-देहाध्यास उतना ही दूर भागता जाता है। अज्ञान समाप्त होने लगता है, और अन्त में एक समय आता है, जब सारा अज्ञान बिल्कुल लुप्त हो जाता है और केवल ज्ञान-सूर्य ही अवशिष्ट रह जाता है। 
 
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