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सोमवार, 2 जून 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (13)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
 [ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 


 
श्री श्री माँ सारदा  

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
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हिन्दी अनुवाद की भूमिका 


यह महामण्डल पुस्तिका मेरे हाथों में १९९३ के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में आई थी। तब से मैंने इसको अनगिनत बार पढ़ा है। किन्तु इस पुस्तिका में स्वामी जी द्वारा अंग्रेजी में कहे गये जिन उक्तियों को उद्धरण के भीतर (within quotes) रखा गया है, वहाँ इन उक्तियों को 'Complete Works of Swami Vivekananda' के किस खण्ड से लिया गया है, इस सन्दर्भ को सूचित नहीं किया गया है। और तत्वज्ञान से परिपूर्ण इस पुस्तिका का अनुवाद करने के लिये स्वामी जी ने किस प्रसंग में इन उक्तियों को कहा होगा, इसे समझना बहुत जरुरी था। 

'गूगल बाबा' के कृपा से नेट पर अंग्रेजी में सारे प्रसंग और सन्दर्भ मिल गये, किन्तु अद्वैत आश्रम, कोलकाता तथा मायावति से हिन्दी में प्रकाशित 'विवेकानन्द साहित्य' अभी तक नेट पर उपलब्ध नहीं है। इसका क्या कारण है, यह मुझे नहीं पता। इसीलिये मैंने स्वामी विवेकानन्द द्वारा अंग्रेजी में कथित उक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करते समय अपने सन्तोष के लिये विवेकानन्द साहित्य से लगभग पूरे निबंध को ही फिर लिख दिया है, और जहाँ आवश्यक लगा है, कुछ पन्नों को स्वयं भी अनुवादित किया है।

जिस प्रकार मॉडर्न फिजिक्स में,आजकल पहले तथ्यों को बड़े धैर्य के साथ प्रयोगात्मक पद्धति (एक्सपेरिमेंटल मेथड) के द्वारा परिक्षण करने के बाद, उससे उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर उसका विश्लेषण करके सिद्धान्त (theory) को सत्यापित किया जाता है। ठीक उसी प्रकार हम स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान ' मनोविज्ञान का महत्व ' को गहराई से अध्यन करके यह समझ सकते हैं कि 'मनोविज्ञान' या 'साइन्स अव साइकालजी' ही विज्ञानों का विज्ञान- (साइंस ऑफ़ साइंसेज) है! ठीक उसी प्रकार महामण्डल पुस्तिका 'मनःसंयोग' में वर्णित प्रयोगात्मक पद्धति के द्वारा परिक्षण करने और उससे प्राप्त तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके हम स्वयं इस सिद्धान्त को परख कर देख सकते हैं, कि ' अपने चित्त की गहन से गहन गहराई में यथार्थ मनुष्य है-आत्मा !' 
इसलिये इस सर्वश्रेष्ठ विज्ञान 'मनोविज्ञान' (साइकालजी) को भारत में 'मनःसंयम' (मेन्टल कंसंट्रेशन) या 'एकाग्रता का विज्ञान' कहते हैं। इस विज्ञान का अध्यन भी 'मॉडर्न फिजिक्स' के ही अनुरूप पहले प्रयोग (एक्सपेरिमेंट) करके उपलब्ध तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके बाद में सिद्धान्त (थ्योरी या महावाक्यों) को सत्यापित किया जाता है। अन्य पार्थिव विज्ञानों की ही तरह, जिस किसी जाति, धर्म या देश में जन्मा जो भी व्यक्ति महर्षि पतंजलि (मनोविज्ञान सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है इसलिये इसके सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक को महर्षि या ऋषि कहते हैं) द्वारा आविष्कृत 'पातंजल योग सूत्र' में दिये गये निर्देशों के अनुसार प्रयोग  करने की 'पात्रता' (एलिजिबिलिटी:यम-नियम का पालन) अर्जित कर लेगा, उसे मनःसंयोग (आसन,प्रत्याहार,धारणा) का अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करके, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करने से जो तथ्य और आँकड़े उपलब्ध होंगे, उसका परिणाम होगा -अपने सच्चे स्वरुप (ब्रह्मत्व) की उपलब्धि !
जिस प्रकार विश्व भर के भौतिक शास्त्री (Physicists) प्रायः एक ही परिणाम पर पहुँचते हैं, उन्हें जिन सामान्य प्राकृतिक नियमों (जनरल फैक्ट्स) का पता लगता है, और उनके अनुगामी बाद में उसी पद्धति से प्रयोग करके जिस निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं, उनके विषय में उनमें कोई मतभेद नहीं होता। उसी प्रकार मनःसंयोग के अभ्यास (एक्सपेरीमेन्ट) करने की पात्रता रखने वाले सभी संभावित मनोवैज्ञानिक भी एक ही निष्कर्ष (सिद्धान्त) पर पहुँचते हैं- जिन्हें भारत में महावाक्य या सार्वभौमिक तथ्य (यूनिवर्सल फैक्ट्स) कहा जाता है। वैदिक ऋषियों के द्वारा अविष्कृत चार प्रमुख  महावाक्य इस प्रकार हैं -
१. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उपनिषद ३/५/३)
ब्रह्म शुद्ध ज्ञान स्वरूप है
२. अहम् ब्रह्मास्मि (शतपथ ब्राह्मण ४/३/२/२१)
मै ब्रह्म हूँ
३. तत् त्वमसि (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७)
वह ब्रह्म तुम हो
४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्योपनिषद २)
यह आत्मा ब्रह्म है
ये महावाक्य ही ऐसे तथ्य तथा आँकड़े हैं, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ विज्ञान मनोविज्ञान के महान वैज्ञानिकों ने अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति द्वारा जाना है या प्रत्यक्ष दर्शन किया है, उनमें भी कोई मतभेद नहीं होता। इसलिये फिलासफी को भारत में दर्शन-शास्त्र कहा जाता है, एवं उसके आविष्कारक वैज्ञानिकों को दार्शनिक या तत्त्ववेत्ता-'महर्षि' (पैग़म्बर-मानवजाति के मार्गदर्शक 'नेता') कहा जाता है।
वैसे विभिन्न समय में विभिन्न ऋषियों के द्वारा आविष्कृत सत्य के रूप में अन्य कई महावाक्य वेदों में संचित हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- जैसे - 'नेति नेति' (यह भी नही, यह भी नहीं), 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' ( जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है), 'वसुधैव कुटुंबकम' ( पूरी दुनिया ही मेरा परिवार है) , ' मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अतिथि देवो भव' (माता,पिता और अतिथि देवता समान होते हैं, स्वामीजी ने इसमें जोड़ दिया है -मूर्ख देवो भव, दरिद्र देवो भव), 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' (सत्य ही शिव है और सत्य ही सुंदर है; सत्, चित्त और आनन्द -'सच्चिदानन्द' का भी यही अभिप्राय है। इन सभी महावाक्यों (Theory) को कोई भी भावी मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला साधक, मनोवैज्ञानिक या दार्शनिक, अपने मन का अध्यन और विश्लेषण करके, स्वानुभूति के द्वारा सत्यापित कर सकता है।
उसी प्रकार महामण्डल के अध्यक्ष 'आचार्य श्रीनवनीहरण' ने विवेकानन्द साहित्य के दसों खण्ड में समाहित तथ्यों का गहन अध्यन और विश्लेषण करने के बाद, आधुनिक भारत के सबसे महान ऋषि विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत महावाक्यों को ' छोटे छोटे उद्धरणों ' के अन्दर, श्लोकों के रूप में पिरोकर प्रकार गागर में सागर भर दिया है।  इस महामण्डल पुस्तिका ' विवेकानन्द - दर्शनम् ' को 'विवेकानन्द-वचनामृत' के रूप में पान करके स्वयं अमर हो सकते हैं, और दूसरों को भी अमर बनने में सहायता कर सकते हैं !  


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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्

 ' विवेकानन्द - वचनामृत '

१३. 
मनसश्चेन्द्रियग्रामसंयमात् तद्बलं लभेत्। 
आत्मबलं तदायाति यद्बलेन जगज्जयः ॥ 
1. * By controlling the mind and the senses that strength may be gained. Then only the power of the atman awakes, and with that power the world may be conquered. 
2.** ' Strength, therefore, is the one thing needful.' 
१. * आत्मा की शक्ति केवल तभी जाग्रत होती है, जब हम अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित करने का विधिवत अभ्यास करना प्रारम्भ कर देते हैं। और उसी शक्ति के द्वारा जगत को जीता जा सकता है। 
२. **२/१८७-१९०  आत्मा की मुक्ति (५ नवम्बर,१८९६ को लन्दन में दिया गया भाषण) कुछ प्रमुख अंश -
" यदि यही सत्य है कि सभी शुद्धस्वरूप हैं, तो इसी क्षण सारे संसार को इसकी शिक्षा क्यों न दी जाय ? साधु-असाधु, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिका, छोटा-बड़ा, सिंहासनासीन राजा और रस्ते में झाड़ू लगाने वाले भंगी-सभी को डंके की चोट पर इसकी यह शिक्षा क्यों न दी जाय ? द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, आज हम नया प्रयोग क्यों न आरम्भ करें ? सम्भव है कि सभी मनुष्यों को इस अद्वैत-तत्व की धारणा करने में लाखों वर्ष लग जायें, पर इसी समय से क्यों न आरम्भ आरम्भ कर दें? यदि हम अपने जीवन में बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सके, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया। 
द्वैतवाद के कई प्रकारों से मुझे कोई आपत्ति नहीं, किन्तु जो कोई उसके माध्यम से दुर्बलता की शिक्षा देता है (शनीचर-मन्दिर में भय से गिड़गिड़ाता है), उस पर मुझे विशेष आपत्ति है। स्त्री-पुरुष, बालक-
बालिका, जिस समय दैहिक, मानसिक या आध्यात्मिक शिक्षा पाते हैं, उस समय उनसे एक ही प्रश्न करता हूँ -" क्या तुम्हें इससे बल प्राप्त होता है ?" क्योंकि मैं जनता हूँ, एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है। मैं जानता हूँ, एक मात्र सत्य से ही जीवनी-शक्ति प्राप्त होती है। सत्य की ओर गए बिना हम किसी प्रकार बलवान या ओजस्वी नहीं हो सकते, और बलवान हुए बिना हम सत्य के समीप नहीं पहुँच सकते।
इसलिये जो शिक्षा-प्रणाली मन और मस्तिष्क को दुर्बल कर दे और मनुष्य को कुसंस्कार से भर दे, जिससे वह अंधकार में टटोलता रहे, खयाली पुलाव पकाता रहे, और सब प्रकार की अजीबोगरीब रहस्यमय और अन्धविश्वासपूर्ण बातों (शमी की लकड़ी, घोड़े की नाल और सूअर की पूँछ) में समस्याओं का हल ढूढ़ना सिखाता हो, उस मत या प्रणाली को मैं बिल्कुल पसन्द नहीं करता, क्योंकि मनुष्य पर उसका परिणाम बड़ा भयानक होता है। वह इतना दुर्बल हो जाता है, कि कुछ समय बाद वह अपने मन में सत्य की धारणा करने, और उसके अनुसार जीवन-गठन करने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है।
 ' Strength, therefore, is the one thing needful.' अतः बल ही एक आवश्यक बात है। बल ही भव-रोग (world's disease) की दवा है। धनिकों द्वारा रौंदे जाने वाले निर्धनों, चतुर विद्वानों द्वारा दबाये जानेवाले अशिक्षितों-हर वर्ग के शोषित-पीड़ित मनुष्यों के लिये बल ही एकमात्र दवा है। और अत्यन्त क्रूर पापियों द्वारा सताये जाने वाले अन्य पापियों के लिये भी वही एक मात्र दवा है। और अद्वैतवाद (monism) हमें जैसा बल देता है, वैसा कोई अन्य मतवाद नहीं दे सकता ! अद्वैतवाद हमें जिस प्रकार सदाचारी बनाता है, वैसा कोई और नहीं बनाता। जब सारा दायित्व हमारे कन्धों पर डाल दिया जाता है, उस समय हम जिस प्रकार 'परिश्रम की पराकाष्ठा' करके, जितनी अच्छी तरह से कार्य करते हैं, उतनी और किसी अवस्था में नहीं करते। 
यदि तुम पर उत्तरदायित्व डाल दिया जाय तो तुम्हारी सारी अपराधी-प्रवृत्तियाँ ( criminal ideas) दूर हो जायेंगी, तुम्हारा सारा चरित्र बदल जायेगा; तुम पशु-मानव से देव-मानव में रूपान्तरित हो जाओगे। जब हमारे सारे दोष और किसी के मत्थे नहीं मढ़े जाते, तब शैतान या भगवान किसी को भी हम अपने दोषों के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराते, तभी हम सर्वोच्च भाव में पहुँचते हैं। अपने भाग्य के लिये मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ। मैं स्वयं अपने शुभाशुभ दोनों का कर्ता हूँ ! मेरा स्वरुप शुद्ध और आनन्द मात्र है। इसके विपरीत जो भी विचार हमारे मन में उठें उन्हें तुरंत त्याग देना चाहिये। 
(मनो-बुध्दयहंकार-चित्तानिनाहं, न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न वै व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।
न वै प्राणसंज्ञा न वै पंचवायुः, न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः।
न वाक्पाणि पादौ न चोपस्थ-पायुः, चिदानन्दरूपःशिवोहं शिवोहम्।।
न मे रागद्वेषौ, न मे लोभमोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मों, न चार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानन्दरूपःशिवोहं शिवोहम्।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं, न मंत्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनम् नैव भोज्यं न भोक्ता,चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।)
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः, पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्यः, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।
अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो, विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न बन्धःचिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।
' मेरी मृत्यु नहीं है, शंका भी नहीं, मेरी कोई जाति नहीं है, न कोई मत ही; मेरे पिता या माता या भ्राता या मित्र या शत्रु भी नहीं है, क्योंकि मैं सच्चिदानन्दस्वरुप शिव हूँ। मैं पाप से या पुण्य से, सुख से या दुःख से बद्ध नहीं हूँ। तीर्थ, ग्रन्थ और नियम आदि मुझे बन्धन में नहीं डाल सकते। मैं भूख-प्यास से रहित हूँ। यह देह मेरी नहीं है, न कि मैं देह के अंतर्गत विकार और अन्धविश्वासों के अधीन ही हूँ। मैं तो सच्चिदानन्दस्वरुप हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ। '
वेदान्त कहता है कि केवल यही स्तवन हमारी प्रार्थना हो सकती है। स्वयं को विसम्मोहित करने और अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने यही एक मात्र उपाय है। अपने से और सभी से यही कहना कि हम ब्रह्मस्वरुप हैं। हम ज्यों ज्यों इसकी आवृत्ति करते हैं, त्यों त्यों हममें बल आता जाता है। 'शिवोहं' रूपी यह अभय वाणी क्रमशः अधिकाधिक गंभीर हो हमारे ह्रदय में, सभी विचारों में भिदती जाती है, और अन्त में हमारी नस नस में, प्रत्येक रक्त बिन्दु में समा जाती है। ज्ञान सूर्य की किरण जितनी उज्ज्वल होने लगती हैं, भ्रम-देहाध्यास उतना ही दूर भागता जाता है। अज्ञान समाप्त होने लगता है, और अन्त में एक समय आता है, जब सारा अज्ञान बिल्कुल लुप्त हो जाता है और केवल ज्ञान-सूर्य ही अवशिष्ट रह जाता है। 
 
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