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गुरुवार, 6 मार्च 2014

चरित्र के गुण : ९-१० : स्वभावतो अग्निः ऊर्ध्वमेव प्रयाति

९.
' धैर्य'
 (Patience):
 यदि हम पहले गुण से लेकर अध्यवसाय तक के सभी गुणों को अपने चरित्र में शामिल कर लें तो हमें एक और गुण की भी परीक्षा देनी होगी। वह है- धैर्य। धैर्य का अर्थ है- तुरन्त हताश न होना। अब जैसे मैंने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का कार्य प्रारम्भ किया, तो मुझे उसमें थोड़ा कष्ट भी सहन करना पड़ेगा। किन्तु थोड़ी ही दूर चलकर  धैर्य खो देने, तुरन्त निराश हो जाने से तो कोई भी मूल्यवान वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। 'सहनशीलता' जैसा गुण पूर्णतः चरित्रगत होने में विलंब होना स्वाभाविक है, अतः जब तक इस प्रकार के गुण (जिसका मनांक शून्य हो) में  'A' का अंक नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक निष्ठा नहीं त्यागना ही धैर्य है। आलस्य और उद्दम के विषय में आपने जिस 'राजा-कवि' की उक्ति पहले पढ़ी वे ही धैर्य के विषय (ऩीतिशतकम् -७७) में क्या कहते हैं -
कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधश्शिखा याति कदाचिदेव।।
(यथा महता प्रयत्नेनापि अग्नेर्ज्वाला न नीचैः प्रसर्पति, स्वभावतो अग्निः ऊर्ध्वमेव प्रयाति, तथैव प्रकृत्या धीरस्य पुरुषस्य दुर्दशायामपि न धैर्यच्युतिः संभवति।)- जिस प्रकार अग्नि की शिखा को चाहे जितना भी अधोमुखी करने की चेष्टा क्यों न की जाय वह उसी क्षण उर्ध्वमुखी हो जाती है और जलती रहती है। दीप-शिखा स्वभावतः केवल उर्ध्वमुखी रहती है -उसी प्रकार धैर्यसम्पन्न व्यक्ति के धैर्य को नष्ट करने की चाहे जितनी भी चेष्टा क्यों न की जाय, उसका धैर्य कभी नष्ट नहीं होता।  हमलोगों में भी इसी प्रकार का धैर्य रहना चाहिये।
यदि कोई पहले स्पष्ट धारणा बनाये फिर सद् संकल्प ले तत्पश्चात उसपर दृढ़ रहते हुए अपने संकल्प को साकार करने के लिए बिना धैर्यहीन हुए उद्दम और निष्ठांपूर्वक अथक प्रयत्न करता रहे, तो वह सबकुछ प्राप्त कर सकता है।
यदि परिवेश के बन्धनों को अस्वीकार करते हुए सत शिक्षा एवं इन सद्गुणों के विषय में जान कर इन्हें आत्मसात कर लिया जाय तो किसी भी परिवेश में जन्मे व्यक्ति का जीवन स्वप्न कभी अपूर्ण नहीं रह सकता। परिवेश तथा  परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, मनुष्य को हर स्थिति में महान जीवन का ही स्वप्न देखना चाहिये। सत् शिक्षा के माध्यम से चरित्र को महान बना देने वाले गुणों को आत्मसात कर हम सभी अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
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१०.
 साधारण बोध  
(Common-Sense): 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- " मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है।" किन्तु, बहुत से लोग उनकी इस उक्ति पर विश्वास नहीं कर पाते। उनका तर्क होता है कि यदि मनुष्य चाहने मात्र से अपना भविष्य अच्छा बनाने में समर्थ होता तो आखिर इतने सारे मनुष्यों के भाग्य में इतना दुःख क्यों दिखाई देता है ? वर्तमान युग को हम चाहे कितना भी विज्ञान का युग, युक्तिवाद का युग क्यों न कहें,विज्ञान की सहायता से मनुष्य की समस्त समस्याओं को हल कर लेने का चाहे कितना भी दावा क्यो न करें,सच तो यह है कि मनुष्य अपने मन की दुर्बलताओं पर  अभी तक पूरी तरह विजय प्राप्त नहीं कर पाया है। यदि यह बात सत्य न होता तो आज भी लॉटरी का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार कैसे हो रहा है ? ज्योतिषियों तथा अंगूठीयों के लिये विभिन्न प्रकार के ग्रह निवारक पत्थरों, ताबीजों को बेचने वाले जौहरियों का बाजार आज भी इतना गरम क्यों है ? इन ज्योतिषियों और जौहरियों ने अपने विज्ञापन के लिये ' भाग्यम फलति सर्वत्र ' लिख कर हर दीवाल को रंग दिया गया है जिससे कि हम-आप उसे पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं।
वास्तविकता तो यह है कि यथार्थ 'वस्तु' की खोज कैसे की जाती है यह हम एकदम नहीं जानते, युक्ति-तर्क से हमारा कोई संबंध ही नहीं है और वैज्ञानिक मनोभाव का अधिकारी होना तो अभी हमारे लिये दूर की कौड़ी है। यदि हम युक्ति-तर्क को महत्व दें, वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यों का विश्लेषण करें और अपने ह्रदय में ही विद्द्यमान यथार्थ 'वस्तु' को पहचान लें, तो यह आसानी से समझ लेंगे कि वास्तव में हमलोग ही अपने भाग्य के निर्माता हैं। किन्तु, सच्चाई यह है कि हमारे अन्दर तो साधारण बोध (Common-Sense) का भी घोर आभाव है। हमलोग किसी भी विषय पर अपनी बुद्धि खर्च करना नहीं चाहते। केवल दूसरे लोगों की राय सुनना चाहते हैं और लोगों की सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास कर के बैठ जाते हैं। हम युक्ति-विचार कर के यह नहीं देखते कि ज्योतिषी लोग जो कहते हैं वो क्या हमेशा सही ही होता है ?  प्रायः भविष्य बताने का दावा करने वाले बाबा लोग सीधे-साधे लोगों को ठगने के लिये तरह-तरह कि मनगढ़ंत बातें कहते रहते हैं। क्या हम इतनी सी बात नहीं समझ सकते कि परिश्रम किए बिना धनोपार्जन नहीं किया जा सकता है ? तथा उपार्जन किए बिना हमारा आभाव दूर नहीं हो सकता है। बैठे रहने से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। परिश्रम करने के लिये जिस प्रकार शारीरिक शक्ति लगानी पड़ती है, उसी प्रकार बुद्धि का प्रयोग भी करना आवश्यक होता है। बुद्धि के साथ यदि थोड़ी विद्या भी रहे तो केवल शारीरिक परिश्रम से किये गये उपार्जन की तुलना में अधिक उपार्जन होता है तथा भविष्य बेहतर बन सकता है। यदि हमलोग समाज के लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध न रखें, सभी के साथ क्रमशः विवाद में उलझते रहें अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यदि दूसरो को क्षति पहुँचाएं, दूसरों को संकट में घिरा देख कर भी सहायता न करें तो क्या यह समझना बहुत कठिन है कि इन्ही सब कारणों से हमें भी अनेकों कष्ट भोगना पड़ेगा और भविष्य में सुख शान्ति भी नहीं प्राप्त होगी ? इसीलिए हम यदि भविष्य में सुख और शान्ति दोनों पाना चाहते हों तो हमे कठिन परिश्रम करना पड़ेगा तथा साथ ही साथ अपनी बुद्धि एवं विद्या का भी उपयोग करना होगा। फिर अपने व्यवहार को भी शालीन और सुन्दर  रखना होगा। यह सब तभी सम्भव है जब हमारे चरित्र में उपरोक्त सभी गुण समाहित हों, और केवल चाहने मात्र से कुछ नहीं होता, चरित्र के गुणों को भी आत्मसात करने का प्रयास करना पड़ता है। 

चरित्र कोई जन्म से ही प्राप्त या आकाश से टपकी हुई वस्तु नहीं है। इसे अनवरत कठिन परिश्रम से थोड़ा-थोड़ा करके गठित करना पड़ता है। चरित्र के गुणों को जो जितना अर्जित करता है, उसकी सहायता से वह वैसा ही भविष्य गढ़ सकता है। अब, प्रश्न उठ सकता है कि क्या अच्छे चरित्र के गुणों से विभूषित व्यक्ति के जीवन में दुःख नहीं आता है ? ऐसा दावा तो कोई नहीं कर सकता। न्यूनाधिक सभी को कष्ट भोगना पड़ता है। संसार की यही रीति है। भागवत (उद्धवगीता) में कहा गया है-  
" न देहिनां सुखं किञ्चित् विद्यते विदुषाम् अपि।"
 अर्थात ज्ञानीजनों को भी हर समय केवल सुख में ही नहीं पाया जा सकता। किन्तु, बुद्धिमान व्यक्ति हमेशा यही देखेगा कि अन्तिम परिणति कैसी होगी, जीवन का अन्तिम समय कैसे अच्छे ढंग से व्यतीत होगा। बहुत से निर्बोध लोग यह सोचते हैं कि अधिक चालाकी करके शीघ्र ही अधिक से अधिक सुखों को बटोर सकते हैं। किन्तु, प्रायः यह दिखाई देता है कि चालाकी द्वारा अर्जित सुख टिकाऊ नहीं होता है, तथा इसके बदले में थोड़े ही दिनों बाद अधिक परिमाण में दुःख भोगना पड़ता है। वैसे यह भी हो सकता है कि उस व्यक्ति को अपने जीवन में अधिकांश समय सुख-भोग प्राप्त होता रहे या जीवन भर के लिये सुख तो मिल जाय किन्तु, उसको जीवन में शान्ति कभी नहीं मिल सकती।
  हमें यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि, केवल सुख-सुविधा जुटा लेने से ही मनुष्य जीवन सफल नहीं हो जाता। बल्कि, थोड़े ही दिनों बाद मनुष्य का मन शान्ति प्राप्त करने के लिये छटपटाने लगता है। जिस प्रकार मनुष्य  सुख-सुविधा पूर्ण जीवन जीने कि इच्छा किए बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार जीवन में शान्ति न रहने पर  जीवन बोझ बन जाता है। यदि अपने जीवन में मिली प्रत्येक असफलता तथा दूसरों के जीवन के सुख-दुःख का ध्यानपूर्वक विश्लेष्ण किया जाय तो उसके कारणों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। साधारण बोध, सामान्य बुद्धि या common-sense का व्यवहारिक उपयोग- यही तो है। इस विश्लेषण से हम यही पायेंगे कि इन सब के मूल में उस व्यक्ति के चरित्र के विभिन्न गुण ही हैं। इन गुणों के रहने या न रहने पर ही हमारे जीवन की सफलता-विफलता, सुख-दुःख और शान्ति-अशान्ति निर्भर है। यदि ऐसा है तब तो कहा ही जा सकता है कि मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता या अपने भाग्य का निर्माता है ? अपने  तथा दूसरों के कर्मों एवं उनके फलों को देखने से यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाती है कि कर्म फल का नियम अटल है, उसे टाला नहीं जा सकता। कहा भी गया है- ' करम-गति टारे से नाहीं टरी'। इसीलिए, किस कर्म का कैसा फल प्राप्त होता है, इसको ठीक से समझ लेना चाहिये। लक्ष्मणजीने अध्यात्मरामायणमें निषादराज गुह से कहा है‒ 
                         सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

                                            परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।

                         अहं करोमीति वृथाभिमानः

                                           स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

                                                                          (२/६/६)

‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’ यही बात तुलसीकृत रामायणमें भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।

निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

                                                                  (मानस २/९२/२)
सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है‒यह खास सूत्र है ! अमुक व्यक्ति के कारण ही मुझे इतना दुःख उठाना पड़ा था, उसको तो मैं छोड़ूँगा नहीं ! ऐसा भ्रमयुक्त निर्णय जो देता है‒उसी को कुबुद्धि कहते हैं। यह कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःख दे दिया‒यह बात सिद्धान्तकी दृष्टि से भी गलत है । क्योकि एक बात तो यह है कि परमात्मा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं। ऐसे परमात्मा के रहते हुए, उनकी जानकारी में कोई भी किसीको दुःख दे सकता है क्या? दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख देता है तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही। कहीं जाओ, किसी भी योनि में जाओ दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।
हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं। सारी मनुष्य जाति अपने-अपने कर्मफलों से बंधी है। पातञ्जलयोगदर्शनमें लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मों के फलसे जन्म, आयु और भोग होता है । भोग नाम किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’ अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थितिका अनुभव हो जाय, उसमें अनुकूल-प्रतिकूलकी मान्यता हो जाय, इसका नाम ‘भोग’ है । अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और काम की है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मों की बात । अतः परिस्थिति को लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है। वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ? अतः इन बातों को ध्यान में रखते हुए सावधानीपूर्वक कर्म किया जाय तो अनेक कष्टों से बचा जा सकता है। 
सर्वदा सतर्क रहने वाली बुद्धि को ही सामान्य बोध (common sense) कहा जाता है। श्री रामकृष्ण देव सतर्क बुद्धि का उदाहरण देते हुए कहते हैं -'  एक हाँथ से ढेकी में चावल कूटती, दूसरे हाथ से पैला से धान डालते समय महिला का ध्यान सदा मूसल पर ही लगा रहता है।" किन्तु यह साधारण बोध सभी मनुष्यों में एक समान नहीं होता। जिस व्यक्ति में साधारण बोध कम मात्रा में रहता है, उसे अनेकों बार विफलता का मुख देखना पड़ता है या दुःख भोगना पड़ता है। "आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है " - यदि इस सामान्य ज्ञान को अपने अनुभव से या दूसरों के अनुभव से सीखकर सदा के लिए मन में न रखा जाय तो न जाने कितने लोगों को कितनी बार हाथ जलाना पड़े। अस-पास की घटनाओं को देख-सुनकर सीख लेने से जो बुद्धि प्राप्त होती है, उसी को साधारण बोध कहते हैं। इसीलिए किसी मनुष्य में जन्म के समय जितना साधारण बोध था जीवन भर उतना ही रहेगा, ऐसी बात नहीं है। आँख-कान खोलकर आस-पास घटित होने वाली घटनाओं को देखने-सुनने तथा अनुभव द्वारा कुछ-कुछ सीखते रहने की चेष्टा करते रहने से मनुष्य का साधारण बोध बढ़ जाता है।
'सामान्य-बोध ' में एक और आश्चर्यजनक क्षमता है। इसकी सहायता से हम किसी भी विषय या समस्या के तह तक भी जा सकते हैं। क्योंकि 'साधारण बोध' (प्रज्ञा) सारी जटिल वस्तुओं एवं परिस्थितियों को सहज भाव से समझने का प्रयास करता है। इसके फलस्वरूप ऐसा होता है कि किसी विषय में बहुत अधिक ज्ञान रखने वाले लोग भी जिस समस्या का हल ढूंढ पाने में असमर्थ हो जाते हैं, साधारण बोध अत्यन्त ही सहजता से उसका भी कोई न कोई हल अवश्य ढूंढ़ निकालता है।  उदहारण के लिये जब खण्डित मूर्ति की पूजा के विषय में बड़े-बड़े पंडित लोग कोई शास्त्र सम्मत निर्णय नहीं ले पा रहे थे, तब श्री रामकृष्ण ने अत्यन्त ही सरलता से उपाय सुझाते हुए एक प्रश्न किया- " यदि रानी रासमणि के दामाद का एक पैर टूट जाय तो क्या आप उन्हें भी गंगाजी में फेंकने की सलाह देंगे ?" इस तरह से तुरन्त ही समस्या का समाधान हो गया। 
इसीलिए चरित्र के अन्यान्य गुणों के साथ इसका गुणगत सादृश्य न रहने पर भी इसे चरित्र का एक गुण माना जा सकता है।  साधारण बोध का अधिकारी होने पर चरित्र के अन्य गुणों को बढाना सहज हो जाता है तथा सामान्य तौर पर जीवन में सफलता पाना भी सहजतर हो जाता है।

चरित्र के गुण : ३ से ८: जीवन-गठन के पाँच अभ्यास

 ३.
' आत्म संयम '
 (Self-Control):  
आज संयमहीनता, आधुनिकता का पर्याय बन गया है। आधुनिक मनुष्य ने प्रकृति की शक्तियों को संयमित या नियंत्रित करके उसका इच्छानुरूप प्रयोग कर सुखदायक यंत्रों का निर्माण कर लिया है। वाह्य प्रकृति के क्षेत्र 'संयम' जितना प्रयोजनीय है, उतना ही प्रयोजनीय अन्तः प्रकृति के क्षेत्र में भी है। 
मनुष्य अपनी आंतरिक शक्तियों को संयमित कर अनेक प्रकार के लाभ उठा सकता है, तथा कई प्रकार के अनावश्यक संघर्ष, क्षति और अप्रीतिकर परिस्थतियों में उलझने से भी बच सकता है। किसी मनुष्य की वाणी तथा व्यवहार संयम उसकी दुर्बलता की नहीं बल्कि उसकी आंतरिक शक्ति की ही अभिव्यक्ति है। उनपर तथा अन्य आन्तरिक शक्तियों पर अभ्यास के द्वारा 'संयम' रखा जा सकता है।
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४. 
'सहनशीलता'
 (Tolerance)
 व्यवहार या वाणी में 'संयम' का जो आभाव हमें अक्सर दिखाई देता है। उसका कारण हमारे चरित्र में एक अन्य गुण का आभाव ही है। वह गुण है- 'सहनशीलता'। बहुत सी बातें हमें क्षण भर में ही हमे असहनीय लगने लगतीं हैं, हम अधीर हो उठते हैं। उसपर धैर्यपूर्वक विवेक-विचार किए बिना हम क्षण भर में ही उत्तेजित होकर तीखी वाणी तथा अभद्र आचरण का प्रदर्शन करने लगते हैं। कभी कभी तो हम इतने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि कठोराघात करने पर भी उतारू हो जाते हैं जो कहीं से भी अच्छा नहीं दिखता। इसका परिणाम अधिकांशतः अच्छा नहीं ही होता है, इसे विस्तार से समझाने  की आवश्यकता नहीं है। मेरी पसंद या नापसंद किसी बात के सच या झूठ होने का पैमाना नहीं है। मेरी पसंद-नापसंद पर ही सभी बातों का मूल्यांकन हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मेरा विचार सही भी हो तथापि उसपर मेरी तात्क्षणिक कठोर प्रतिक्रिया दूसरों के आत्मसम्मान को चोट तो पहुँचा ही चुकी होगी।
बहुत से लोगों में यह शक्ति नहीं होती कि वे तत्क्षण प्रतिक्रिया दिखाने से स्वयं को रोक लें; यह शक्ति 'संयम' का अभ्यास करने से ही प्राप्त होती है। यदि हमारे चरित्र में सहनशीलता की शक्ति (गुण) हो तो हम दूसरों के विश्वास, मत, विचार या वक्तव्य को शांति से सुन-समझ सकते हैं। फिर धैर्यपूर्वक विवेक-विचार कर अपने मत से दूसरों के मत के न मिलने के बावजूद भी उसके मत की आंतरिक सच्चाई  को देखने का प्रयास कर सकते हैं।
यदि दुसरे के मत या वक्तव्य में सत्य का थोड़ा भी अंश न रहे तो भी जो सत्य है उसे धैर्यपूर्वक सबको समझाया जा सकता है। इसी गुण को ' सहनशीलता' कहते हैं। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। इसके समान महत्वपूर्ण गुण कम ही हैं। श्री रामकृष्ण देव कहते थे- "जो सहता है, वही रहता है; जो नहीं सहता उसका नाश हो जाता है "। (जे ना शोए तार नाश होये) वे कहा करते थे - " वर्णमाला में तीन प्रकार के 'स' हैं- श,ष,स मानो ये हमसे कह रहे हों कि सहना सीखो, सहना सीखो, सहना सीखो ! " सहनशील नहीं होने पर अन्ततोगत्वा नाश ही होता है।
एक पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक ने, सफलता के शीर्ष पर पहुँचे तथा जीवन के खेल में असफल सिद्ध हुए कुछ विख्यात व्यक्तियों के चारित्रिक गुणों का विश्लेषण किया था। इसका उद्देश्य उनकी सफलता और असफलता में चारित्रिक गुणों एवं अवगुणों की भूमिका का विश्लेषण करना था।  इसीलिये उसने उन लोगों के चरित्र में समाहित प्रत्येक गुण का मानांक निर्धारित कर उन सभी के चारित्रिक गुणों की एक तुलनात्मक तालिका बनाई थी। उसने पाया था कि इतिहास प्रसिद्द वीर योद्धा 'नेपोलियन बोनापार्ट' के चारित्रिक गुणों की तालिका में जीवन को अप्रतिम सफलता दिलाने वाले बहुत सारे मूल्यवान गुण थे। किंतु, एक अति महत्वपूर्ण गुण--सहनशीलता के आभाव के कारण उसे अपने जीवन के अन्त में घोर पराजय, अपमान और ग्लानी को झेलते हुए एक निर्वासित कैदी के रूप में ही प्राण त्यागना पड़ा था। उस मनोवैज्ञानिक ने बेचारे वीर योद्धा नेपोलियन को सहनशीलता में शुन्य अंक दिया था। 
इसीलिए महाभारत में बिल्कुल ठीक ही कहा गया है :-
      "अविजित्य यः आत्मानम् आमात्यान विजीगीषते।
         अमित्राण वाजितामात्य यःसोह्वशः परिहीयते।।"  
अर्थात, जो राजा पहले आत्मजय किए बिना ही (संयम की सहायता से अपने मन-इन्द्रियों को जीते बिना ही ) आमात्य वर्ग या मंत्रियों जीतने की अभिलाषा रखते हैं एवं आमात्य वर्ग को जीते बिना ही शत्रुओं को जीत लेने की अभिलाषा रखते हैं वे अवश्य ही शक्तिहीन और पारजित हो जाते हैं। 
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५. 
' स्पष्ट-धारणा' 
 (Clear thinking): 
 मनुष्य जन्म के समय शिशु रहता है, फिर नाना प्रकार की जानकारियों का संचय करते हुए धीरे- धीरे बड़ा बन जाता है। किसी-किसी के जीवन में बचपन से ही ढेर-सारे सपने होते हैं और कुछ लोगों का जीवन बचपन से ही इतना बोझिल होता है कि उनके लिये सुन्दर स्वप्न देखना भी एक प्रकार की विलासिता बन जाती है। किन्तु, प्रत्येक के जीवन में दो बातें समान रूप से घटित हो सकतीं हैं। एक तो यह कि वह दैवयोग से जिस परिवेश में रख दिया गया है, आजन्म उसी में पड़ा रहे; या फ़िर पुरुषार्थ कर यथार्थ शिक्षा प्राप्त कर ले। यदि यह मान भी लिया जाय कि परिवेश में परिवर्तन बहुत ही कष्टसाध्य होता है तब भी ऐसी शिक्षा की खोज तो की ही जा सकती है जो जीवन को रूपान्तरित करने में सहायक सिद्ध हो एवं उस शिक्षा से ऐसे भाव भी ग्रहण किए जा सकते हैं जो कि परिवेश के प्रभाव से हमारे जीवन की रक्षा करने वाला रक्षा-कवच बन जाय।
'जीवन-गठन' के विषय में गहराई से चिन्तन करना कितना आवश्यक है-- इस बात को हम सभी को भली-भाँति समझ लेना चाहिये। क्योंकि हमारा जीवन, नदी की धार में खर-पतवार जैसा बहते रहने की वस्तु नहीं है। जीवन की गति को इच्छानुसार मोड़ा जा सकता है, इसके प्रवाह की दिशा को निर्दिष्ट किया जा सकता है तथा जीवन को विशेष रूप में ढाला जा सकता है।
हमारे जीवन-गठन की गुणवत्ता के ऊपर ही यह निर्भर करेगा कि हमारा जीवन सार्थक होगा या यूँ ही व्यर्थ में नष्ट हो जाएगा। इसीलिए इसके विषय में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट रहनी चाहिये। क्योंकि किसी भी मनुष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य है --अपने जीवन को गठित कर लेना।  और किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिये यह आवश्यक है कि उस कार्य के विषय में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट हो--चाहे वह जीवन गठन का कार्य हो या अन्य कोई भी कार्य हो। चरित्र में स्पष्ट धारणा क्षमता के गुण को अर्जित करने का तात्पर्य- बुद्धि के निर्णय शक्ति को इतना तीक्ष्ण बना लेने से है या उस विचार-क्षमता से है, जिसके समक्ष ज्ञातव्य विषय का कोई भी पहलू छुपा न रह सके।
जिस प्रकार किसी सरोवर का जल अत्यन्त स्वच्छ होने से, उसकी तली तक साफ-साफ दिखलाई पड़ती है,ठीक  उसी प्रकार से किसी ज्ञातव्य विषय को साफ-साफ देखने के प्रयास में जितना कुछ सामने दिख रहा है, केवल उतना ही नहीं, जो आगे आ सकता है, जो बाद में घटित हो सकता है --यदि वह भी हमारे मनःचक्षु के समक्ष उदभासित हो उठे तो उसी को स्पष्ट धारणा की क्षमता कहेंगे। 'स्पष्ट धारणा' बनाकर चाहे कोई भी कार्य किया जाय उसमें सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है। 
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६.
दृढ संकल्प 
 (Determination)
 चाहे कोई भी कार्य सम्पन्न करना हो हमें पहले उसके प्रति दृढ़ संकल्पवान होना ही होगा। (इसलिये हमलोग सत्यनारायण की पूजा या किसी भी पूजा को करने के पहले हमलोग हाथ में जल लेकर पूजा का संकल्प करते हैं।) विशेषकर, यदि हम अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करना चाहते हों, तब तो इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारे चरित्र में दृढ़ संकल्प का गुण और भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि चाहे जिस भी कारण से हो मैंने जिस कार्य को पूरा करने का संकल्प ले लिया है अर्थात इस कार्य को तो करूँगा ही-ऐसा  सोचकर कार्य में उतरा हूँ, यदि कार्य में उतरने के बाद वह इच्छा या संकल्प ही मन से निकल जाये तो अन्ततः वह कार्य कभी पूर्ण न हो सकेगा। इसीलिये किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व उसके प्रति मन में दृढ़ संकल्प रहना चाहिये तभी तो सिद्धि प्राप्त होगी। 
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७. 
'उद्दम '
(Initiative):  
सभी उपलब्ध विकल्पों पर 'स्पष्ट धारणा क्षमता' की सहायता से अच्छी तरह से सोच-विचार कर लेने के बाद हमने जिस कार्य को पुरा करने का संकल्प लिया, उसको प्रारम्भ करने के लिये जिस गुण की आवश्यकता होती है --वह है 'उद्दम' या पहल करने की क्षमता। सीधे-सीधे कहा जाय तो 'उद्दम' का अर्थ है- जिस कार्य को करने का संकल्प लिया है उसे पूर्ण करने में कमर कस कर जुट जाना या प्रयासरत हो जाना।
आलस्य के ठीक विपरीत है --'उद्दम'। आलस्य का अर्थ होता है कार्य करने के प्रति अनिच्छा। उद्दम का अर्थ है- कार्य के प्रति अदम्य उत्साह। जिस व्यक्ति में पहल करने की क्षमता या उद्दम ही न हो उस व्यक्ति के द्वारा कुछ भी कर पाना संभव नहीं है। संस्कृत का एक अत्यन्त ही सुन्दर नीतिश्लोक है --
" आलस्यहि मनुष्याणाम शरीरस्थो महान रिपुः । 
नास्ति उद्दमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति॥ "
-अर्थात मनुष्यों के शरीर में रहने वाला ' आलस्य' ही उसका सबसे बड़ा  शत्रु है तथा उद्दम के समान परम मित्र अन्य कोई नहीं है। उद्दमी व्यक्ति को कभी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता।
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8. 
अध्यवसाय 
 (Perseverance):  
किसी कार्य में जुट जाने को उद्दम कहा जाता है। तथा सफलता मिलने तक निष्ठापूर्वक कार्यरत रहने को अध्यवसाय कहा जाता है। यदि हमने किसी कार्य का प्रारंभ तो उद्दम के साथ किया किन्तु दृढ़तापूर्वक उस कार्य में जुटे न रहे तो इसका यही अर्थ होगा कि उस कार्य के प्रति हमारी निष्ठा में कमी थी। निष्ठा में कमी रहने से हमारा कार्य कभी सफल नहीं हो सकता। जिस कार्य को करने का बीड़ा हमने उठाया है, यदि उसके प्रति प्रेम और अनुराग बना रहे तो निष्ठा भी बनी रहेगी। किन्तु, क्या हम प्रायः  यह नहीं देखते कि जो कार्य हमें करना पड़ रहा होता है, वह हमें अच्छा नहीं लगता है ? इसका कारण है- निष्ठा का अभाव। 
यदि हम यह जान लें कि निष्ठापूर्वक कार्य करते रहने के गुण को कैसे प्राप्त किया जा सकता है तब निष्ठापूर्वक कार्य करके किसी भी कार्य में सफलता पाई जा सकती है। किसी कार्य के फल या परिणाम पर विचार करने से ही निष्ठा आती है। साधारणतया कार्य करना सुखकर नहीं ही अनुभव होता है, क्योंकि उसके लिये परिश्रम करना  पड़ता है। निश्चित ही किसी भी कार्य को करने में थोड़ा कष्ट तो होता ही है। किन्तु, स्पष्ट-धारणा क्षमता की  सहायता से यदि यह बात पहले ही ज्ञात हो जाय कि मैं जिस कार्य में लगा हुआ हूँ उस कार्य का फल निश्चित ही अत्यन्त लाभकारी होगा। तब उस कार्य के प्रति स्वाभाविक अनुराग उत्पन्न हो जाता है तथा फिर उस कार्य में निष्ठापूर्वक लगे रहना मधुर हो जाता है। इसको ही अध्यवसाय कहा जाता है।
कृषि कार्य में हमारे किसान भाइयों को अत्यन्त ही कठिन परिश्रम करना पड़ता है, किन्तु उन कठिन क्षणों में उनके मुखमण्डल पर प्रसन्नता छाई रहती है, उनकी स्त्रियाँ भी फसल बुआई के समय खुशी के गीत गातीं हैं,क्योंकि उन्हें यह ज्ञात होता है कि उनके इसी कठिन परिश्रम से सोने जैसी फसल पैदा होगी। उसी प्रकार यदि हमें यह ज्ञात हो कि हम जो कार्य (जीवन-गठन) कर रहे हैं, उसका परिणाम अत्यन्त लाभ दायक होगा तो  निष्ठापूर्वक कार्य करना सरल हो जाता है। " मैंने अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का दृढ़ संकल्प कर लिया है, इसीलिए अब मैं प्रतिदिन प्रातः काल उठ कर सभी के मंगल की प्रार्थना करता हूँ, मनःसंयोग का अभ्यास करता हूँ, व्यायाम करता हूँ, स्वाध्याय करता हूँ, आत्मसमीक्षा या विवेक-प्रयोग करके  आत्म-मुल्यांकन तालिका में अपने चारित्रिक गुणों का मानंक बैठाता हूँ।" इन पाँच मे से एक भी काम कहीं एक दिन के लिए भी छूट न जाय- इसके प्रति सजग रहता हूँ तथा निष्ठा के साथ अपने लक्ष्य (यथार्थ मनुष्य बनना) को प्राप्त करने में लगा हुआ हूँ। क्योंकि मैंने यह राज जान लिया है कि, चरित्र-निर्माण द्वारा अपना सुन्दर ढंग से जीवन -गठन कर लेने पर ही मनुष्य-जीवन सार्थक हो सकता है। यदि मेरा यह जीवन (मानव-जन्म) सार्थक न हो सका, तो बाद में बहुत संताप होगा। यदि इस बात को ठीक से समझ लिया जाय तो निष्ठा का अभाव कभी भी नहीं होगा। " अमृत प्राप्त होने तक, समुद्र-मंथन में लगे रहने को ही- ' अध्यवसाय' कहते हैं।" 
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बुधवार, 5 मार्च 2014

चरित्र के गुण :२:शिष्टाचार (Courtesy)

'टेलर-मेड' सभ्यता --'यावत किंचित न भाषते'
हम लोग समाज में रहते हैं। समाज में रहने पर विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ सम्बन्ध भी पड़ता है। घर में - अपने माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबन्धियों, पास-पडोस या टोला-मुहल्ला के लोगों के साथ या इष्ट-मित्र, स्कूल-कॉलेज या कार्य-क्षेत्र के सहकर्मियों के साथ, हाट-बाजार,या राह चलते समय भी विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के साथ हमें मिलना-जुलना पड़ता है। हमलोगों का यह मेल-जोल प्रीतिकर या अप्रीतिकर दोनों तरह का हो सकता है। पुराने समय में यात्रा-क्रम में कहीं बाहर निकलने पर किसी अपरिचित व्यक्ति के साथ भी लोगों का व्यवहार शिष्टता पूर्ण ही होता था। किन्तु, आजकल यह इस शिष्टता का लगभग लोप ही हो गया है। आज वार्तालाप करते समय यदि कोई शिष्टता के साथ उत्तर देता है,तो हमें आश्चर्य होता है। क्योंकि, अब तो राह चलते, बस-ट्रेन से सफर करते समय प्रायः लोग एक दुसरे का स्वागत, कटु शब्दों, ओछी हरकतों या कभी-कभी तो थप्पड़-मुक्कों से करते हुए भी दिखाई पड़ जाते हैं। परस्पर व्यव्हार में ऐसा बदलाव क्यों दिख रहा है ? इसका कारण यही है कि अब हमारे संस्कार (चारित्रिक गुण) पहले जैसे नहीं रह गये हैं। यदि हमारे व्यवहार और वाणी में शिष्टता न हो तो हमें स्वयं को सुसंस्कृत मनुष्य क्यों समझना चाहिए ? फिर भी टाई-कोट पहन कर, आखों पर रंगीन चश्मा और हांथों में वी.आई.पी. बैग लेकर, हम यही दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम तो बड़े प्रगतिशील और सभ्य मनुष्य हैं। किन्तु ऐसी 'टेलर-मेड' सभ्यता (ब्राण्डेड सूट-पैन्ट) तभी तक टिकती है, जब तक कुछ बोलने के लिये हम अपना मुख नहीं खोलते- 'यावत किंचित न भाषते'। जैसे ही किसी के साथ हमें बात-चीत करना पड़ता है, वैसे ही हमारी सभ्यता और प्रगतिशीलता की सारी कलई खुल जाती है। प्राचीन कवि भर्तृहरी ने कहा है - 

केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हाराः न चंद्रोज्ज्वलाः,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृताः मूर्द्धजाः।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्

मनुष्य को स्वर्णालंकार बाजूबंद आदि सुशोभित नहीं करते, चंद्र की भांति उज्ज्वल कान्तिवाले हार भी शोभा नहीं बढ़ाते, न नहाने-धोने से,  न उबटन मलने से, न फूल टांकने या पुष्पमाला धारण करने से, न केश-विन्यास या जुल्फ़ी  संवारने-सजाने से ही उसकी मान और शोभा बढ़ती है।  अपितु जिस  वाणी को शिष्ट, सभ्य, शालीन और व्याकरण-सम्मत मानकर धारण किया जाता  है; एकमात्र वैसी वाणी ही पुरुष को सुशोभित करती है। बाहर के सब अलंकरण तो निश्चित ही घिस जाते हैं, या चमक खो बैठते हैं (किंतु) मधुरवाणी का अलंकरण हमेशा चमकने वाला आभूषण है। इसलिये मनुष्य कि वाणी ही उसका यथार्थ आभूषण है-'वाग़ भूषणम भूषणम'। अर्थात व्यवहार और वाणी में सज्जनता और शिष्टाचार ही चरित्र का वह गुण है जो उसे जीवन के हर क्षेत्र में विजय दिला सकती है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के मन में ही सारी समस्यायों का समाधान मिल सकता है। कोई भी कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता जिसे वह करना नहीं चाहता। अगर मनुष्य स्वयं अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा। सम्पूर्ण संविधान या संविधान के पण्डित भी मिलकर उसे अच्छा नहीं बना सकते। हम सब अच्छे (श्रेष्ठ) बनें, यही समस्या का हल है। " (४/१५७)
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मंगलवार, 4 मार्च 2014

चरित्र के गुण : १: 'निःस्वार्थपरता' (Unselfishness)

मनुष्य क्यों नहीं समझता कि 'चरित्र' ही हमारी जीवन रूपी नौका की पतवार है ?
[यही माया है ! ] व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में सुख-शान्ति तथा सौहार्दपूर्ण सामजिक सम्बन्ध, अथवा सम्पूर्ण समाज का अधिकांश भला-बुरा इसमें रहने वाले व्यक्तियों के चरित्र पर ही निर्भर करता है। यदि मेरे स्वयं का ही चरित्र सुन्दर ढंग से गठित न हुआ हो, तो मेरे व्यक्तिगत तथा पारिवारिक जीवन से सुख-शान्ति का छिन जाना अवश्यम्भावी है। समाज  के लोगों के साथ बात-व्यवहार करते समय यदि मेरा आचरण शिष्ट और विनम्रतापूर्ण न रहे, तो मुझे कई प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। तथा यदी समाज के अधिकांश व्यक्तियों  का चरित्र सुंदर ढंग से गठित न हुआ हो, तो निश्चित ही इसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा और नाना प्रकार की यंत्रणाओं को भुगतने के लिए बाध्य होना पड़ेगा ।
आये दिन हमारे समाज में जो अन्याय, अत्याचार, दुराचार या अनैतिक कार्य होते रहते हैं, उन सभी का एकमात्र कारण यही है कि हम में से अधिकांश (पढ़े-लिखे) मनुष्यों  का चरित्र  सुन्दर ढंग से गठित ही नहीं हुआ है। किसी भी व्यक्ति का चिन्तन  और व्यवहार उसके चरित्र के अनुरूप ही होता है। कोई  सच्चरित्र मनुष्य अनुचित या नीति विरुद्ध कार्य के विषय में सोच भी नहीं सकता ।  जब तक किसी मनुष्य के चरित्र में चट्टानी-दृढ़ता नहीं आती, तब तक  सामयिक समस्यायों का तात्कालिक हल ढूँढ़ने की चेष्टा  में या थोड़ा भी प्रलोभन मिलने से वह अक्सर सत्य के साथ समझौता कर लेता है, और अनुचित कार्य कर बैठता  है। हमलोग समाज में जितनी भी बुरी चीजें और अनैतिक कार्यों  (भ्रष्टाचार, नारी मर्यादा की अवमानना आदि) को देख रहे हैं, वे सब इसी प्रकार घटित होती  हैं। (भारतीय संस्कृति में हरिश्चन्द्र जैसे  राजा भी हुए हैं, जिन्होंने भारी से भारी विपत्तियों में पड़ने के बाद भी सत्य के साथ समझौता कभी नहीं किया था !) आज स्थिति यह है कि हमारे समाज के अधिकांश मनुष्यों का चरित्र गठित ही नहीं हुआ है। परिणामस्वरूप वे नितान्त  स्वार्थी हैं, केवल अपने निजी स्वार्थ के ही विषय में ही सोचते हैं तथा अपने लाभ के लिये दूसरों को हानी पहुँचाने, धोखा देने या प्रताड़ित करने में जरा भी संकोच का अनुभव नहीं करते हैं। ऐसा इसलिये है कि, वे लोग  जगत्, मानव जीवन का उद्देश्य, मनुष्य की मर्यादा, सच्चा सुख क्या है, आनन्द कैसे प्राप्त होता है आदि विषयों से पूरी तरह अनभीज्ञ हैं। वे अपने को केवल साढ़े तीन हाँथ का शरीर मानते हैं, और  इसको सुख पहुँचाने में सहायक लोगों  और विषयों के बारे में ही सोचते रहते हैं।
 दरअसल, उन्होंने इन बातों पर विचार करना सीखा ही नहीं होता है कि मानव जीवन को मूल्यवान  क्यों कहा जाता है, मानव जीवन सार्थक कैसे होता है, वास्तविक जीवन क्या है आदि।  वे इस पर तनिक भी विचार नहीं करते कि कहीं मेरा यह जीवन व्यर्थ ही नष्ट तो नहीं हो जायगा। और इस लापरवाही के परिणाम स्वरूप उनका अपना जीवन तो नष्ट होता ही है, वे सामाजिक जीवन को भी कलुषित करते हैं तथा दूसरों के जीवन के लिए भी दुःख के कारण बन जाते हैं। तब, प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के प्रति थोडी भी लापरवाही का ऐसा दुष्परिणाम होता है; तो फिर समाज में अधिकाँश मनुष्य अपने अमूल्य मानव जीवन को इसी तरह से व्यर्थ में क्यों नष्ट कर देते हैं ? इसको ही 'माया' कहा जाता है। यदि वीरता के साथ इस माया-जाल को काट कर, दृढ़तापूर्वक हमलोग अपना चरित्र सुंदर ढंग से गठित न करें, तो हमें भी इसी प्रकार जीवन भर असीम कष्ट भोगना होगा। यह जगत् अत्यन्त ही भयावह प्रतीत होगा और इस सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनी के प्रति हमारे मन में अश्रद्धा का भाव उदित हो जाएगा। चट्टानी-चरित्र के अभाव में जीवन विफल हो जाएगा, जीवन अर्थहीन लगने लगेगा, जिसके परिणाम स्वरूप समाज के दुःखों में वृद्धि होती ही रहेगी।
इसीलिए यदि किसी के मन में अपना तथा समाज का मंगल करने की तीब्र इच्छा हो तो उसका पहला  सर्वाधिक प्रयोजनीय कार्य है अपने चरित्र को सुंदर ढंग से गठित करने के लिए प्रयासरत रहना। क्योंकि 'चरित्र' ही हमारी जीवन रूपी नौका की पतवार है। यदि सुन्दर चरित्र रूपी पतवार जीवन-नौका के साथ जुड़ी हुई न रहे, तो अन्ततः वह जीवन-नौका लक्ष्यभ्रष्ट तथा दिशाहीन हो कर डूब जाने को बाध्य होगी। चरित्र रूपी पतवार के बिना मनुष्य-जीवन के 'लक्ष्य' को प्राप्त कर लेना कभी संभव नहीं है। यदि हम इस संसार-सागर  या जीवन-समुद्र को पार कर, दूसरे तट पर पहुँचना चाहते हों, जीवन के खेल में विजय हासिल करने की इच्छा रखते हों तो हमें जीवन का अर्थ, लक्ष्य तथा उसकी सार्थकता के विषय को अच्छी तरह से समझ लेना होगा। न केवल समझ लेना होगा बल्कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपने चरित्र को बहुत सुंदर ढंग से गठित भी कर लेना होगा। यदि हम अपना चरित्र सुन्दर ढंग से गठित कर लें, तो न केवल अपने जीवन से बल्कि समाज  से भी विभिन्न प्रकार के दोष एवं दुर्गुणों को दूर करने में समर्थ हो जायेंगे तथा हमारा समाज सुन्दर हो   जाएगा। इसीलिए समाज गठन का भी एकमात्र उपाय जीवन-गठन ही है।  
जीवन की संभावना को प्रस्फुटित कर लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इसी जन्म में पूर्णता को प्राप्त कर लेना मानव-जीवन का लक्ष्य है। जीवन की सार्थकता परार्थ में है। दूसरों के कल्याण के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर देने में है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में एक महान सम्भावना है - 'वह अपने बनाने वाले को अर्थात ब्रह्म को भी जान सकता है।' भागवत (स्कंध ११:उद्धवगीता ९. २८) में कहा गया है-
     सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून्खगदंशमत्स्यान्।
              तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥
- अर्थात स्रष्टा ब्रह्मा ने पहले स्थावर, जंगम, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, जलचर-नभचर आदि कई योनियों कि रचना की, किन्तु जब वे इनमें से किसी से भी संतुष्ट नहीं हो सके, तब सबसे अंत में उन्होंने मनुष्य की रचना की। अपनी इस अत्यन्त असाधारण सृष्टि को देखकर उन्हें बहुत आनंद हुआ, क्योंकि  मनुष्य का अन्तःकरण इतने उच्च कोटि का था, कि वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने या अपने सृष्टा को भी जान लेने में समर्थ था !" जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्पकार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था। तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य की रचना की जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।

स्वमी विवेकानन्द भी इसी असाधारण सामर्थ्य के कारण ही मनुष्य को पृथ्वी का श्रेष्ठतम प्राणी कहते हैं। वे ईसाई एवं मुसलमानों के पुराणों से इसीसे मिलती-जुलती कहानी सुनाया करते थे- "अपने द्वारा सृष्ट ज्ञानलाभ के एकमात्र अधिकारी मनुष्य नामक जीव का निर्माण करने के बाद ईश्वर आनंद से पुलकित हो उठे ! उन्होंने समस्त फरिस्तों या देवदूतों को बुला कर आदेश दिया कि तुमलोग इस मनुष्य को सलाम करो, अपना सीश झुका कर इनका अभिनन्दन करो।  इब्लीस को छोड़कर बाकी सभी फरिस्तों ने वैसा किया। अतेव, ईश्वर ने इब्लीस को अभिशाप दे दिया, जिससे वह शैतान बन गया। इस रूपक में यह महान सत्य नहित है कि मनुष्य ही अन्य समस्त योनियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। " भगवान श्रीकृष्ण गीता (१५/१) में कहते हैं-  'ऊर्ध्वमूलम् अध:शाखम्' इस संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष का मूल उपर ब्रह्म में है और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। इस अश्वत्थ को (मनुष्य सहित सृष्ट जगत को) जो व्यक्ति समूल--अर्थात कारण सहित जानता है, वही 'वेदवित्' अर्थात ज्ञानी है। और श्रीरामकृष्ण की भाषा में कहें तो 'विज्ञानी' है।  
मनुष्य को 'समूल' जान लेना ही मुख्य बात है। मनुष्य को या जगत को केवल उपरी तौर (M/F) पर जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि इसको 'समूल' -अर्थात कारण-सहित जानना होगा।  अर्थात यह जान लेना होगा कि 'वे' (माँ काली, ईश्वर या अल्ला) ही सबकुछ बने हुए हैं, " जीव ही शिव है !" जब तक अपने जीवन में ऐसा बोध घटित नहीं हो जाता, तब तक हमलोग मुख से भले ही कहें कि 'चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनी ही सर्वश्रेष्ठ है' किन्तु तब तक हमलोग 'मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति' ही बने रहेंगे। वैसे लोग धरती के बोझ ही बने रहेंगे, जिनकी संख्या हाल के दिनों में बढ़ती जा रही है। इसको (अपनी अनुभूति द्वारा) ठीक से समझ लेने के बाद ही मनुष्य की महिमा (जीवशिव वाद) को स्वीकार किया जा सकता है।
इसकी अनुभूति हो जाने के बाद, दुसरे मनुष्य को स्वयं से हीन या तुच्छ समझना असंभव हो जाएगा, दूसरों का अधिकार छीनने, शोषण करने या प्रताड़ित करने का विचार भी मन में नहीं उठेगा। तब घोटाला करने, घूस मांगने, अत्याचार करने या दूसरों को क्षति पहुँचाने की कल्पना के लिए भी मन में कोई स्थान नहीं रह जाएगा। सभी मनुष्यों को ईश्वर का रूप मान कर सम्मान करना, या मर्यादा देना सीख लेने के बाद  मनुष्य कभी स्वार्थी  नहीं हो सकता है। यह एक तथ्य है कि स्वार्थशून्य हुए बिना कोई भी व्यक्ति दूसरों का कल्याण नहीं कर सकता है। यदि कोई यह तर्क दे कि, सभी को अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु चेष्टा करनी चाहिये, क्योंकि इससे सभी का स्वार्थ पूरा हो जायगा, तो यह तर्क सुनने में चाहे जितना भी सच लगे, किन्तु है यह भ्रामक ही। क्योंकि किसी भी समाज या परिवार के प्रत्येक सदस्य का सामर्थ्य एक जैसा नहीं होता। सभी मनुष्य अपने साधारण स्वार्थ भी केवल अपने ही बल-बूते पर कभी सिद्ध नहीं कर सकते।
जो अधिक शक्तिशाली या चालाक हैं, वे कम शक्तिशाली भोले-भाले लोगों के हिस्से को मार कर ही अपने स्वार्थों की पूर्ति करते  हैं। इसको ही नाम 'शोषण' कहा जाता है, इसकी जड़ें स्वार्थपरता में ही निहित हैं। जबतक मनुष्य के चरित्र में निःस्वार्थपरता का गुण समाहित नहीं हो जाता तब तक समाज से शोषण को दूर नहीं किया जा सकता। स्वार्थपरता को कम करने के लिए श्रेय-प्रेय विवेक के द्वारा अपने स्वार्थ बोध पर प्रहार करना होगा साथ ही साथ अपने लालच  को भी कम करते जाना होगा। क्योंकि मनुष्यों की कामना-वासना या 'तृष्णा' एक ऐसी वस्तु है, जिसको जितना ही पूरा करने की चेष्टा की जाय, वह उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार आग में घी डालने से आग बुझने के बजाय और अधिक भड़क उठती है। राजा 'ययाति' का अनुभव इसका प्रमाण है। इसीलिए जब मन में किसी प्रकार का लालच या अतिरिक्त भोग करने की इच्छा उदित हो, तो पहले उसके परिणाम पर विवेक-विचार कर लेना चाहिए, तथा अपने लालच को क्रमशः सीमित करते जाने प्रयत्न करते रहना चाहिए। इच्छाओं के ऊपर विवेक का पहरा या संयम न रखने पर मनुष्य की सारी शक्ति या ऊर्जा उन व्यर्थ की इच्छाओं को पूर्ण करने में ही व्यय हो जाती है। और जब व्यक्ति कामनाओं को पूरा करने में असफल हो जाता है तथा मन में कामनाओं का वेग बना ही रहता है तो वह अपने हित-अहित के प्रति ज्ञान शून्य हो कर, उची-अनुचित का बोध भी खो देता है। अनैतिक व्यवहार तथा भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने लगता है। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि मनुष्य की  स्वार्थपरता एवं अतिरिक्त भोगाकांक्षाओं  में ही भ्रष्टाचार का बीज निहित है।
हमलोगों के मन में और एक भ्रांत धारणा यह घर कर गई है कि, शास्त्रों में केवल 'भगवान' तथा 'परलोक' की  ही चर्चा भरी हुई है, जबकि ये दिखाई नहीं देते, इसलिये इन चीजों को पढ़ने से क्या लाभ ? यह एक बिल्कुल गलत धारणा है।  सभी शास्त्रों का मुख्य उद्देश्य है 'इहलोक' या घर-परिवार और समाज के प्रति मनुष्य के  कर्तव्यबोध को जगा देना। श्रीमद् भागवत  में कहा गया है :-
 आत्म-जाया-सुतागार-पशु-द्रविण-बन्धुषु। 
निरूढ-मूल-हृदय आत्मानं बहु मन्यते।।६।। 
सन्दह्यमान-सर्वाङ्ग एषां उद्वहनाधिना
 करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः।।७।।
-अर्थात मूढ़ व्यक्ति स्वयं को तथा अपने स्त्री-पुत्र, गृह, पशु, धन-सम्पत्ति और बंधूवर्ग (मित्रों) को ही अपनी थाती समझ कर गर्व से फूला नहीं समाता। किंतु, बाद में इनका भरण-पोषण करने कि चेष्टा कि ज्वाला में स्वयं भी जल मरता है। तथा, अन्त  में वह मूर्ख हर प्रकार के दुष्कर्म करने में प्रवृत्त हो जाता है। 'महाभारत' में भी कहा गया है -
न तत् परस्य संदध्यात् प्रतिकूलं यतात्मन:।
संग्रहेणैष धर्म: स्यात् कामादन्य: प्रवर्तते।। 
-अर्थात स्वयं को जो अच्छा नहीं लगता हो, तुम दूसरों के साथ वैसा व्यव्हार कभी मत करना। संक्षेप में इसी को धर्म कहते हैं।" केवल कामनाओं के वेग से प्रताड़ित मनुष्य ही अन्य तरह का व्यवहार करता है, अर्थात दूसरों के प्रति प्रतिकूल आचरण करता है। इसीलिए भोगाकांक्षाओं का त्याग और निःस्वार्थपरता ही चरित्र का वह महान गुण है जो मनुष्य के जीवन को दूसरों के कल्याण के लिए न्योछावर करने के योग्य बना कर जीवन को सार्थक कर देता है। स्वामीजी कहते हैं- " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !" स्वार्थी मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं होता। और धर्म (महाभारत में कथित) वह वस्तु है, जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को ईश्वर में अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य में रूपान्तरित कर देता है। 

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

" महामण्डल शहर-कार्यालय के साथ गेस्ट हाउस निर्माण परियोजना-2014 "



अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 

Regd. Office:                                                                      City Office :
     BHUBAN BHAVAN,                                                                   6/1A, Justice Manmatha 
P.O. Balaram Dharma Sopan,                                                   Mukherjee Row,
Khardah, North 24-Parganas,                                                Kolkata – 700 009
                 Pin : 700 116.                                                                 Phone : 2350 6898. 
Ref. No. VYM/L & B/2013-14                                                               4 February 2014

 एक निवेदन 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आधिकारिक क्रिया-कालाप, विगत ४० वर्षों से भी अधिक समय से इसके पूर्व उपाध्यक्ष श्री तनु लाल पाल महाशय के निवास के भूतल से सम्पादित होते आ रहे हैं। यद्दपि उपलब्ध आवास पर्याप्त नहीं है, फिर भी हमने उस स्थान की अनुकूलता एवं किसी वैकल्पिक निवास स्थान की अनुपलब्धता को ध्यान में रखते हुए अपने आधिकारिक क्रिया-कलापों को निरन्तर उसी स्थान से आगे बढ़ाना जारी रखा है। हाल में ही हमने हमारे कार्यालय भवन / भूमि से सटे हुए हिस्से को उसके मालिकों से क्रय करने में सफलता पायी है, एवं हमारे वर्त्तमान मकान मालिक तथा उनके उत्तराधिकारि भी मौजूदा आवास को महामण्डल को ही दान कर देने पर सहमत हो गये हैं।  
हमने अपनी अवश्यकता के अनुसार मौजूदा ईमारत का  निर्माण/ नवीनीकरण करके कोलकाता में अपने शहर कार्यालय के साथ गेस्ट हाउस निर्माण की एक परियोजना शुरू करने का प्रस्ताव लिया है। उपरोक्त परियोजना पर लगभग एक करोड़ रुपए के आसपास खर्च होना अपरिहार्य है, जिसका वहन हमारे सदस्यों, शुभचिन्तकों और दरियादिल संगरक्षकों के आंशिक रूप से दान के द्वारा किया जायगा। इस भवन / भूमि के एक हिस्से को प्राप्त करने की दृष्टि से हम पहले ही लगभग २५ लाख रुपये व्यय कर चुके हैं। इस परियोजना पर होने वाले विशाल कुल खर्च को ध्यान में रखते हुए हम अपने मूल्यवान संरक्षकों और शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे हमें उदारता पूर्वक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये आगे आयें और इस परियोजना को पूर्ण करने में सहायक बनें। 
आपके किसी भी राशि के दान को कृतज्ञता पूर्वक स्वीकार किया जाएगा और वह राशि आयकर के अधिनियम; 1961 के u/s 80G के अनुसार आयकर से छूट प्राप्त होगी। अपने चेक / डीडी आदि अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल; 6/1A, न्यायमूर्ति मन्मथ मुखर्जी मार्ग, कोलकाता 700009 (AKHIL BHARAT VIVEKANANDA YUVA MAHAMANDAL; 6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata-700009.) के नाम पर भेजने की कृपा करें।  
आप अपना दान केन्द्रीय कम्प्यूटर से जुड़ी हुई बैंकिंग व्यवस्था के माध्यम से भारतीय स्टेट बैंक, 302, आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रोड, सियालदह शाखा, कोलकाता 700009 (IFSC NO. SBIN 0003084) {State Bank of India,302, Acharya Prafulla Chandra Raod, Sealdah Branch, Kolkata-700009} हमारे खाता नंबर १०४३३८३५१४९ (10433835149) में भी सीधा जमा कर सकते हैं। आपसे अनुरोध है कि आप अपने फोन नंबर के साथ पूरा डाक पता और ई-मेल पते की सूचना हमें भेजने का कष्ट करें, ताकि हम अविलम्ब मनी रसीद एवं आई.टी. छूट प्रमाणपत्र आपको भेज सकें।  
नवनीहरण मुखोपाध्याय
अध्यक्ष 
 (PRESIDENT)