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शनिवार, 9 नवंबर 2013

“ इन्द्रिय-उच्छृन्खलता का वर्तमान संकट ”

जब किसी समाज से आध्यात्मिक चेतना का ह्रास, बहुत बड़े पैमाने पर  होने लगता है, तो वह यौन उत्पीड़न की अराजकता (sexual anarchy) का भयंकर रूप धारण कर लेता है। वर्तमान समय में (दिल्ली की निर्भया आदि) सैंकड़ो दिल दहला देने वाली घटनाओं के रूप में वही अराजकता अपने देश में भी प्रत्यक्ष दे रही है। अवचेतन मन में संचित कामुक-विकार, जब इन्द्रिय-सुखभोग को संतुष्ट करने की उत्कट लालसा के रूप में प्रकटित होता है, तो वह सम्पूर्ण समाज के नैतिक-मूल्यों तथा  बौद्धिक उर्जा को भी नष्ट कर देता है।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के दिवंगत अध्यक्ष डॉ सोरोकिन [Pitirim Alexandrovich Sorokin (1889-1968) कहते हैं-  " सभ्यता का मूल है- ' परिवार-व्यवस्था' उनका टूटना; युवाओं का क्षीण शरीर और दुर्बल मन, तथा उनकी रचनात्मक शक्तियों में ह्रास - आदि लक्षण इस बलवे के किसी अन्य बगावत (या आतंकवाद) की अपेक्षा कम खतरनाक नहीं होने का प्रमाण है।”  
प्रारंभिक जीवन में डॉ सोरोकिन रूस के एक शैक्षिक और राजनीतिक ऐक्टिविस्ट थे, उन्होंने अपने जीवन के अनुभव से यह जाना था, कि “ कोई भी ‘ऐन्द्रिक संस्कृति’, (केवल इन्द्रिय सुख-भोग को ही सत्य समझकर जीने वाली संस्कृति) आदर्शवादी उत्कृष्ट सिद्धान्तों एवं संयम को त्याग देने के फलस्वरूप, उसी अनुपात में नैतिक रूप से दिवालिया भी हो जाती है। उसके उजड़े घरों और डावाँडोल पारिवारिक परिस्थितियों में पले बढ़े किशोर और युवा, अपनी अनियंत्रित इन्द्रिय लालसाओं को तृप्त करने की आत्म विनाशकारी प्रवृत्तियों से संचालित होकर, जघन्य से जघन्य अपराध करने पर भी उतारू हो जाते हैं।”  

सोरोकिन को साम्यवाद के विरुद्ध अभियान में शामिल समझकर, रूस की सरकार ने फाँसी की सजा घोषित करके, उन्हें १९१८ में ही कारागार में डाल दिया था। किन्तु बाद में लेनिन ने समाजशास्त्र में उनकी मास्टर डिग्री एवं शैक्षिक जगत में अति उच्च स्थान को देखते हुए,एक विशेष आदेश के द्वारा, उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया था।1923 में डॉ सोरोकिन रूस छोड़, संयुक्त राज्य अमेरिका में जाकर बस गये थे। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के तात्कालिक अध्यक्ष ने 1930 में व्यक्तिगत रूप से  सोरोकिन को  40 साल की उम्र में वहाँ एक पद स्वीकार करने का अनुरोध किया था। आगे चलकर उन्होंने ही हार्वर्ड-विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग की स्थापना की थी।
"टेलीविजन प्रसारण के घातक प्रभाव" के उपर चर्चा करते हुए अपनी पुस्तक ‘सेन सेक्स आर्डर’ डॉ सोरोकिन कहते हैं- “ दूर-संचार माध्यम के इस नए उपकरण (टेलीविजन) की अब तक की, लगभग एकमात्र महत्वपूर्ण उपलब्धि यही रही है, कि अश्लीलता एवं हत्याओं तथा सेक्स पर आधारित धारावाहिकों एवं  विज्ञापन के द्वारा, इसने हमारे लाखों घरों को - कामवासना और नाइट क्लबों के मादक माहौल से आवेशित (charged) कर दिया है। क्योंकि या तो ऐसे प्रसारणों के उपर कोई सेंसर ही नहीं है और यदि है भी, तो अपर्याप्त है।”
इसी पुस्तक में डॉ सोरोकिन आगे कहते हैं- “ जिस सभ्य समाज ने, यौन स्वतंत्रता या ‘sexual freedom‘  को बहुत कड़ाई के साथ परिसीमित कर लिया है, उसी समाज में उच्चतम संस्कृति विकसित हुई है। सम्पूर्ण मानव इतिहास में, ऐसा एक भी दृष्टान्त नहीं मिलता जिसमें किसी समाज ने, बहुत कड़ाई के साथ जन्म से ही अपनी स्त्रियों को 'सतीत्व-पालन' या एक ही पुरुष के प्रति वफादार रहने की शिक्षा दिए बिना,  तर्कबुद्धिपरक संस्कृति (Rationalistic Culture) की ओर अग्रसर होते रहने में सफलता पायी हो। इसके अतिरिक्त किसी ऐसे संप्रदाय का भी उदाहरण भी नहीं मिलता, जिसने  अपने समाज में पहले से चली आ रही कम कठोर ‘यौन व्यवहार’ की परम्परा को बाद में, अधिक कड़े नियमों के द्वारा परिसीमित किये बिना अपनी संस्कृति के ‘उत्कृष्ट स्तर ‘ को सर्वोच्च-स्थान पर बनाये रखने में सफलता पायी हो।”
पाश्चात्य जगत में व्याप्त भोगवादी- या ‘ऐन्द्रिक संस्कृति’, के परिणाम स्वरुप ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में हो रहे सामाजिक विघटन के चौंकाने वाले आंकड़ों को देखने से उपरोक्त दावे की सच्चाई, और अधिक स्पष्ट हो जाती है। आज के ब्रिटेन में  प्रति वर्ष १६ वर्ष से कम उम्र के एक लाख पचास हजार (१५०,०००) बच्चों का जीवन उनके माता-पिता के तलाक के कारण प्रभावित होते हैं। अविवाहित माताओं की संख्या ब्रिटेन में ईस्वी सन १९७१ से लेकर १९८९ के बीच, चार गुना बढ़ कर, तीन लाख साठ हजार (३६०,०००) हो गयी है। ब्रिटेन में विवाहित जोड़ों का शिशु जन्म दर, १९८० में १२ % से बढ़ कर, १९९० में २८ %, तथा २००० में ३० % हो गयी है। लगभग १९ % ब्रिटिश परिवारों में माता-पिता में से कोई एक ही अभिभावक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में,
" children bearing children " या ‘ बच्चों के द्वारा बच्चों का पालन ‘ एक वास्तविक महामारी का रूप ले चुकी है, यह एक ऐसा सार्वजानिक स्वास्थ्य का संकट है, जो आम लोगों के लिये किसी बर्ड-फ्लू या स्वाइन फ्लू (avian or swine flu) जैसी महामारी की अपेक्षा अधिक बड़े  खतरे की ओर संकेत कर रही है। अमेरिका में तलाक दर दो गुना से अधिक बढ़ चूका है ४० % से अधिक बच्चों को अपने बचपन या जवानी के किसी अंश में माता-पिता में से किसी एक ही अभिभावक के साथ रहना पड़ता है।”
भोगवाद-संस्कृति के इस ऐन्द्रिक-उच्छृन्खलता को संयमित करने, तथा मानवता कि उन्नति के लिये के लिये डॉ सोरोकिन ने  मन के  ‘अतिचेतन’ अवस्था (supraconscious ) की भूमिका को समझने और व्यवहार में लाने पर सर्वाधिक जोर दिया है। इसे नहीं समझ पाने के कारण ही आधुनिक विज्ञान ने, इस अवधारणा को अभी तक न केवल पूरी तरह से नजरअंदाज है, बल्कि असत्य भी घोषित कर दिया है। किन्तु समाज की वर्तमान पतनोन्मुख अवस्था, एवं नये नये वैज्ञानिक अन्वेषणों को (God-particle आदि) देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है, कि (इक्कीसवीं सदी में ही) आधुनिक विज्ञान को अपने इस मत को अवश्य परिवर्तित करना होगा।”

४ अप्रैल, १९५७ ई० को बोस्टन में आयोजित श्रीरामकृष्ण जयन्ती के उपलक्ष्य पर,भाषण देते हुए डॉ सोरोकिन कहते हैं- " मात्र एक मनुष्य के द्वारा ब्रह्मचर्य-पालन के अभ्यास से, इतना वृहत सामाजिक लाभ उत्पन्न होता है, कि उसके प्रभाव से समूची ऐन्द्रिक संस्कृति (sensate culture) ही नष्ट होना शुरू हो जाती है। इसी प्रकार के सशक्त ब्रह्मचर्य-अनुशीलन के सर्वोच्च आधुनिक उदहारण हैं - श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ! “ वर्तमान समय के मनुष्य-जगत में अग्रगति की जो दो बुनियादी प्रक्रिया ( Basic Processes ) चल रही है, उसके कई लक्षणों में से एक है पाश्चात्य जगत में श्रीरामकृष्ण एवं वेदान्त आन्दोलन का इतना सफल परिणाम ! इन परिवर्तनों में पहला है, मानव-जाति के रचनात्मक केन्द्र में युगान्तरकारी परिवर्तन, जो यूरोप से स्थानातरित होकर प्रशान्त महासागर और अन्ध महासागर (pacific-atlantic) के विशाल क्षेत्र में जा पहुंचा है, जबकि दूसरा ऐन्द्रिक-संस्कृति और समाज में निरंतर विघटन के साथ-साथ नयी बौद्धिक-संस्कृति और सामाजिक-व्यवस्था के आविर्भाव एवं विकास की अभिन्न दोहरी प्रक्रिया के रूप में परिलक्षित हो रहा है।” {‘World Thinkers on Ramakrishna-Vivekananda’ (Swami Lokeshwarananda, ed.Gol Park 1983. Quote from Prabuddha Bharata,Sept 1957}
 संक्षेप में कहें तो सोरोकिन, का यह मत था कि समस्त संस्कृतियाँ दो प्रकार की विचार-धाराओं ‘ऐन्द्रिक’ और ‘आध्यात्मिक’ के मध्य स्थित आदर्शवाद के परिक्रमण-काल की अवधि में सन्तुलन के साथ बँधी हुई हैं। ‘Sensate’ या ‘ऐन्द्रिक’ भाव-धारा (dominated by material concerns) के प्रभुत्व के समय, वहाँ की संस्कृति के ऊपर ‘भोगवादी विचारधारा’ हावी रहती है; और ’Ideational’ या ‘आध्यात्मिक’ भाव-धारा (dominated by spiritual concerns.) के प्रभुत्व के समय, संस्कृति के ऊपर ‘आदर्शवादी विचारधारा’ का प्रभुत्व रहता है।डॉ. सोरोकिन की दृष्टि में- “ पाश्चात्य जगत् में सदियों से ऐन्द्रिक-संस्कृति का प्रभुत्व चल रहा है, और अब वहाँ जो सामाजिक-विघटन दिखायी दे रहा है, वह इसके माध्यम से अपने खोये हुए पुनर्संतुलन को प्राप्त करने की ओर बढ़ रहा है।”
यदि हमलोग अपने शरीर और मन (Hand-Head) को स्वस्थ रूप में विकसित करना चाहते हैं, तो शरीर-मन की समष्टि (body-mind complex) के उच्च और आधारभूत आध्यात्मिक पहलू (higher and essential spiritual dimension)- ‘ ह्रदय ‘ (Heart) के विकास के ऊपर विशेष ध्यान देना होगा। क्योंकि ह्रदय के विस्तार को उपेक्षित रखने से हम महान भारतीय संस्कृति को विघटित होने से रोक नहीं सकते है। उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये मन पर पूर्ण नियंत्रण एवं दृढ़ संकल्प निरपवाद रूप से अनिवार्य होता है। यदि हम मनुष्य-जीवन को महिमा-मण्डित करना चाहते हों, तो हमलोगों को मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयवों - शरीर, मन और ह्रदय (3H) के सुसमन्वित विकास के लिये, एक श्रेष्ठ जीवन-पद्धति अपनानी होगी; जो कि नैतिकता के प्रति सच्ची निष्ठा के द्वारा ही नियंत्रित हो सकती है। मन को निम्नगामी बनाने वाले आवेग, और कुछ नहीं केवल, हमारे इन्द्रिय भोगों के प्रति प्रबल आग्रह को छुपाने वाले मुखौटे भर हैं। 
सबसे अधिक प्रसन्न-चित्त और समाज के लिये सर्वाधिक उपयोगी मनुष्य ( आदर्श-मानव) वही है, जिसके तीनों प्रमुख घटक, '3H' की गतिविधियों- बौद्धिक (Head-मन), नैतिक (Heart-ह्रदय, अनुभव शक्ति), और जैविक (Hand- इन्द्रिय-युक्त शरीर) का सुसमन्वित विकास हुआ हो। इन गतिविधियों की गुणवत्ता, और उनका परस्पर संतुलन, इस प्रकार के मनुष्यों (मार्गदर्शक-नेताओं) की श्रेष्ठता को स्वतः समाज में स्थापित कर देता है।”
शरीर के उपर मन का कितना प्रभाव पड़ता है; इसका वर्णन चिकित्सक डॉ. एलेक्सिस कैरेल ने अपनी पुस्तक- ‘मैन, द अननोन’ में बहुत विस्तारपूर्वक किया है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम 28 सितंबर 2013 को लखनऊ बुक फेस्टिवल, मोती महल लॉन में आयोजित 11वें पुस्तक मेले का उद्घाटन करने आए  आए थे। उन्होंने कहा कि अच्छी किताबें रचनात्मकता बढ़ाने का काम करती हैं। उन्होंने ‘Man,the unknown’ पुस्तक के विषय में कहा,  “ इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता, इसकी विरोधाभासी नियति यही है, कि उम्र बढ़ने के साथ साथ, यह और अधिक सम-सामयिक या प्रासंगिक होती जाती है।”
कलाम ने बताया कि ‘लाइट फ्रॉम मैनी लैंप’, पहली किताब है जिसे उन्होंने 15 वर्ष की उम्र में पढ़ा था। इस किताब में उन महान लोगों के बारे में लिखा है, जिन्होंने कभी हार नहीं मानी। दूसरी किताब उनकी मातृ भाषा (तमिल) में लिखी है, जिसकी कविताएं जीवन का मार्गदर्शन करती हैं। डॉ. एलेक्सिस लिखित ‘मैन, द अननोन’ तीसरी किताब है। कलाम बोले ये वो किताबें हैं, जिन्हें मैंने सेकंड हैंड खरीदकर पढ़ा। उन्होंने बताया कि ‘भगवद गीता’ और ‘कुरान’ से मिली शिक्षाओं को भी उसमें साझा किया गया है। उन्होंने अभिभावकों को सलाह दी कि घर में लाइब्रेरी बनाएं और कम से कम दस अच्छी किताबें जरूर रखें। इतना ही नहीं टीवी सीरियल देखने की जगह खाने की टेबिल पर या फैमिली मीटिंग में उन किताबों के कुछ पन्ने बच्चों को पढ़कर सुनाएं ताकि उनमें संस्कार और नैतिकता पैदा हो। 
पूर्व राष्ट्रपति और महान वैज्ञानिक डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने बताया कि सफलता हासिल करने के चार तरीके हैं। पहला जीवन में बड़ा लक्ष्य स्थापित करें। दूसरा लगातार ज्ञान अर्जित करते रहें, जो उत्कृष्ट पुस्तकों की सहायता से प्राप्त हो सकती है। तीसरा मंत्र कड़ी मेहनत और चौथा अध्यवसाय अर्थात सफलता न मिलने तक निरन्तर उसी निष्ठा के साथ मेहनत करते रहने से सफलता मिलनी तय है। उन्होंने कहा ये वे सूत्र हैं जिनको थॉमस एल्वा एडिशन, मैडम क्यूरी, सीवी रमन और राइट ब्रदर्स ने अपनाया था । कार्यक्रम में फेडरेशन ऑफ पब्लिशर्स एंड बुकसेलर्स एसोसिऐशन के अध्यक्ष एससी सेठी ने कहा कि कोलकाता की तरह लखनऊ पुस्तक मेला अगर देश के चुनिंदा पुस्तक मेलों में गिना जाता है तो इसे लोकप्रिय बनाने में मीडिया का अहम योगदान है। मेले के प्रबंधक मनोज सिंह चंदेल ने बताया कि प्रवेश नि:शुल्क है। सुबह 11 बजे से रात नौ बजे तक चलने वाले इस पुस्तक मेले में किताबों पर न्यूनतम 10 प्रतिशत तक छूट खरीदारों को मिलेगी]
नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. एलेक्सिस कैरेल अपनी पुस्तक ‘मैन, द अननोन’ (‘Man, the Unknown’, Dr. Alexis Carrel) कहते हैं- वैज्ञानिक मानसिकता रखने वाले मनुष्य दो अलग अलग श्रेणी के होते हैं- पहला ‘तार्किक’ (logical) और दूसरा ‘अंतर्ज्ञानी’ (Intuitive); क्योंकि अनुभव करना और जानना - दोनो  परस्पर पूर्णतया भिन्न मानसिक अवस्थायें हैं।’  संसार के जितने भी अध्यात्मिक गुरु (या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) हुए हैं, सभी महान पुरुष अन्तःप्रज्ञा (intuition) से संपन्न थे। वैसे महापुरुष बिना तथ्यों का विश्लेषण किए, बिना तर्क-वितर्क में पड़े, जो भी बातें उनके लिये आवश्यक और महत्वपूर्ण होती हैं, वह सब कुछ जान लेते हैं। क्योंकि वे सच को सीधा सकते थे ! (अर्थात आत्मसाक्षात्कार करने में समर्थ थे !)

 
Alexis Carrel (28 June 1873 – 5 November 1944)
[‘ मैन,द अननोन ’ के लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता चिकित्सक डॉ. एलेक्सिस कैरेल फ्रांस के एक सर्जन और जीवविज्ञानी थे। अग्रणी संवहनी 'टाँका तकनीक' (Pioneering Vascular Suturing Techniques.) का आविष्कार करने के लिए उन्हें 1912 में फिजियोलॉजी या चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने चार्ल्स ए लिन्डबर्ग के साथ मिलकर 'प्रथम छिड़काव पंप' (First Perfusion Pump) का आविष्कार करने के साथ ही साथ 'अंग प्रत्यारोपण' (Organ Transplantation) के लिए रास्ता भी खोल दिया था।]
वे आगे कहते हैं - "आज तक विश्व की मानवता, सदैव कुछ उन मुट्ठीभर असामान्य व्यक्तियों के जुनून के द्वारा ही प्रगति के पथ पर अग्रसर होती रही है, जिन्होंने अपनी बुद्धि की प्रखरता, विज्ञान के आदर्श, तथा ज्ञानदान और चारित्रिक सौंदर्य से इसे समृद्ध किया है। भीड़ के द्वारा किये जाने वाले प्रयासों से, मानवता को, कभी कुछ प्राप्त नहीं हुआ है। अत्यधिक सुसंस्कृत, सभ्य, या जीवन-मुक्त (स्थितप्रज्ञ intuitive) मनुष्यों के ‘ will and intelligence’ या ‘संकल्प और बुद्धिमत्ता ’ में कोई अन्तर नहीं होता। दोनों एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये कार्य करते हैं।" 
जब किसी मनुष्य की ‘ इच्छा-शक्ति और बुद्धिमत्ता अर्थात विवेक-प्रयोग क्षमता’ एक ही दिशा में कार्यरत रहती हैं, तब उस मनुष्य के चरित्र में समस्त गुण, सारे नैतिक मूल्य स्वतः उपस्थित हो जाते हैं। किन्तु ‘दायित्व-बोध ‘ की ऐसी विशिष्टता केवल कुछ (चुने हुए) मनुष्यों की एक छोटी सी संख्या में ही पाया जा सकती है। वैसा  मनुष्य  अपने स्वार्थ और ईर्ष्या-द्वेष से छुटकारा पाने के लिए, एक ही परिस्थिति में विवेक-प्रयोग करके, कई संभव कृत्यों के बीच, वह जिसे अच्छा समझता है उसका चयन करने में सक्षम होता है।  फिर दृढ़ इच्छा-शक्ति की सहायता से, उन नियमों या अनुशासनों को खुद पर लागू करने की नैतिक जिम्मेदारी उस व्यक्ति की अपनी इसी विवेकप्रयोग-क्षमता के समतुल्य ही होती है। यह क्षमता ही उसमें कर्तव्य-बोध, दायित्व की भावना को पैदा करता है।
 यह कर्तव्य-बोध ही हमें श्रेय-प्रेय (सही-गलत) को अलग-अलग पहचानने, फिर प्रेय (गलत) को वरीयता न देकर श्रेय (सही) चयन करने के लिए अनुप्रेरित करता है केवल एक व्याख्यान-माला को सुन लेने से ही, कोई व्यक्ति श्रेय को प्रेय से अलग करने, या अश्लीलता में भी सौन्दर्य को अलग करने वाली- ‘विवेक-दृष्टी‘ को प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिये छात्रों को व्याकरण, विज्ञान, गणित, और इतिहास की शिक्षा देने के साथ ही साथ, चरित्र-निर्माण, जीवन-गठन की कला, नैतिकता और धर्म (आध्यात्मिकता) आदि को, अनिवार्य विषय के रूप में सिखाया जाना अनिवार्य होना चाहिये।
महान चिकित्सक डॉ. एलेक्सिस कैरेल अपनी पुस्तक ‘ मैन, द अननोन ’ में  कहते हैं- “ किसी भी बीमारी की स्थिति में, मन एवं शरीर दोनों का इलाज एक साथ करना चाहिये, क्योंकि दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। आप एक का इलाज करते हुए दूसरे की उपेक्षा नहीं कर सकते। आधुनिक समाज में नैतिक भावना को लगभग पूरी तरह से नजर-अंदाज कर दिया गया है। विद्यार्थियों को मन को वश में रखने या मन को एकाग्र करने कि पद्धति से कुछ भी परिचय नहीं कराया जाता है। आज का युवा वर्ग यह देखता है कि आज के समाज में नेता या किसी अमीर अधिकारी को समस्त अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। वह बिना किसी हिचक के, अपने सगे-संबन्धियों या दोस्तों के नजर में गिरे बिना, - अपनी उम्र-दराज या प्रौढ़ पत्नी को त्याग सकता है, अपने बूढ़े माँ-बाप को गरीबी भोगने पर विवश कर सकता है, जो धन और पद उसे आम-जनता के कल्याण के लिये सौंपा गया था, उसका उपयोग वह उन्हीं लोगों को लूटने के लिये कर सकता है।
भोगवादी संस्कृति के दुष्प्रभाव के कारण स्त्री-पुरुष के यौवन सम्बन्धों में नैतिकता के लिये कोई स्थान नहीं बचा है। Minister या पादरी  ने धर्म के आध्यात्मिक स्वरुप को बिल्कुल नष्ट कर दिया है, और धर्म को युक्तिसंगत दुकानदारी में बदल दिया है। वैसे पाखण्डी धर्म-गुरु व्यर्थ के खोखली नैतिकता के उपदेश देकर भी, आधुनिक युवाओं  को अपनी ओर आकर्षित कर पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं, इसीलिये वहाँ के चर्च लगभग खाली ही रहते हैं। देश को लूटने वाले चोर-बदमाश निश्चिन्त होकर अपनी समृद्धि का आनंद ले रहे हैं। अपराधी लोग, नेताओं के द्वारा संरक्षित है; और न्यायाधीशों के द्वारा उनका सम्मान किया जाता है। सिनेमा-सीरियल आदि में उन्हीं की प्रशंसा होते देखकर, आज के बच्चे उन्हीं को अपना आदर्श-नायक मान कर, खेलने के दौरान उनकी ही नकल किया करते हैं। “
 डॉ. एलेक्सिस कैरेल कई असाध्य और साधारण रोगियों को प्रार्थना के माध्यम से पूर्णत: स्वस्थ कर चुके हैं। आयुष विज्ञान के अनुसार जप-ध्यान करके भी स्वस्थ रहा जा सकता है। उनके अनुसार प्रार्थना करने से बीमार व्यक्ति भी स्वस्थ हो जाता है। सुख, समृद्धि, विद्या, बुद्धि और एकाग्रता बढ़ जाती है। यही वजह है कि हमारे यहां हर कार्य के पहले ईश्वर से प्रार्थना की जाती है। अब तो आधुनिक वैज्ञानिक भी प्रार्थना के पक्ष में बोलने लगे हैं।अमेरिका के नेशनल इंस्टीटय़ूट ऑफ हेल्थ रिसर्च का दावा है कि मनःसंयोग और प्रार्थना करने वाले बच्चों, वयस्कों एवं बूढ़ों में निराशा, अवसाद और आत्महत्या की प्रवृति नहीं पनपती है तथा उन्हें हार्ट अटैक एवं उच्च रक्तचाप की बीमारी भी कम होती है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के प्रो. ग्रे जैकब ने तो अपने शोध में यह भी दावा किया है कि प्रार्थना करने से तनावकारी हार्मोस कम हो जाते हैं, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है और मन और मस्तिष्क रोग अधिकारों से मुक्त होने लगते हैं।
‘मैन, द अननोन’ के लेखक डॉ. एलेक्सिस कहते हैं - " साहचर्य के नियमानुसार - अपराधियों या मूर्खों की संगति में रहने वाला जीवन, क्रमशः आपराधि या एक मूर्ख ही बन जाता है। कुसंग का त्याग कर, अकेले रहते हुए ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने से ही मोक्ष की उम्मीद की जा सकती है। जो व्यक्ति (सत्यार्थी) उस परम-सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार या अवलोकन करना चाहता है, उसे पहले अपने मन की वृत्तियों को शान्त करना होगा। उसका मन बिल्कुल किसी शान्त सरोवर  के स्थिर जल के जैसा होना चाहिये।"
जीवन-गठन का सरल उपाय बतलाते हुए महान चिकित्सक डॉ. एलेक्सिस कैरेल अपनी पुस्तक ‘ मैन, द अननोन ’ में  कहते हैं- "जीवन को सुन्दर रूप में गठित करने के लिये,  इच्छा-शक्ति और बुद्धिमत्ता ( या संकल्प और विवेक-प्रयोग की क्षमता) को एक ही दिशा में कार्यरत रखना होगा। मन को किसी ऐसे सर्वोत्कृष्ट वस्तु या लक्ष्य पर एकाग्र रखने का अभ्यास करना होगा- जिससे समस्त शक्तियाँ निकलती है, जो समस्त शक्तियों का केन्द्र है; जो सभी वस्तुओं का उद्गम-स्थान है। और आध्यात्मिक गुरु जिसे भगवान या ब्रह्म कहते हैं। 'To progress again, man must remake himself'. -- फिर से उन्नत मनुष्य बनने के लिए, व्यक्ति को स्वयं का पुनर्निर्माण (रीमेक) करना चाहिये चाहिए, अर्थात अपने जीवन को नये सीरे से गढ़ना चाहिये ! हमलोग यह जानते हैं, कि बिना थोड़ा कष्ट उठाये हम अपने जीवन को सुन्दर ढंग से नहीं गढ़ सकते। क्योंकि मनुष्य स्वयं ही ‘संगमरमर’ और ‘मूर्तिकार’ दोनों है ! इसलिये यदि हमलोग अपने वास्तविक-चेहरे (यथार्थ-स्वरुप) को अनावृत करना चाहते हों, तो हमें अपने इन्द्रिय-जीवन से पाशविक-आसक्ति (देहाध्यास) को या ‘अहं’  को, अपने ही हथौड़े (निर्मम विवेक-प्रयोग) के भारी चोट से, चकनाचूर करना पड़ेगा।”
स्वामी विवेकानन्द लन्दन में दिए गये भाषण ‘ मनुष्य का यथार्थ स्वरुप ‘ में कहते हैं- “ मनुष्य इस पंचेन्द्रिय-ग्राह्य जगत से बहुत आसक्ति के साथ चिपके रहना चाहता है। यह आपात-प्रतीयमान व्यक्तित्व वास्तव में केवल एक भ्रम ही है ! इस भ्रमात्मक व्यक्तित्व में असक्त रहना अत्यन्त नीच कार्य है।…आत्मत्याग का अर्थ है, इस मिथ्या ‘ मैं ‘-पन या व्यक्तित्व का त्याग, मिथ्या अहं का त्याग, सब प्रकार के स्वार्थपरता का त्याग। यह अहंकार और ममता पूर्व जन्म के कुसंस्कारों के फल हैं, और जितना ही इस व्यक्तित्व का त्याग होता चला जाता है, उतनी ही आत्मा अपने नित्य स्वरुप में, अपनी पूर्ण महिमा में अभिव्यक्त होती है।
यह ‘ मैं और मेरा ‘ यथार्थ आत्मा नहीं है, किन्तु केवल एक सीमाबद्ध भ्रम है, यह जानकर हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व को त्याग देना चाहिये। हम देखते हैं, सब लोग सुख की खोज करते हैं; पर अधिकतर लोग नश्वर, मिथ्या वस्तुओं में उसको ढूंढ़ते फिरते हैं। इन्द्रियों में कभी किसी को सुख नहीं मिलता। सुख तो केवल आत्मा में है।” (२/१-१६)
ब्रह्मचर्य-पालन उस मानसिक और शारीरिक पवित्रता को सुनिश्चित कर देता है, जो मनुष्य-जीवन के आध्यात्मिक लक्ष्य को कार्यान्वित करने के लिये नितान्त आवश्यक है। मानसिक और शारीरिक रूप से दक्ष (proficient) व्यक्ति यदि अपने आध्यात्मिक लक्ष्य अनुसरण करना चाहते हों, तो उन्हें बहुत गम्भीरता के साथ जीवन के उपर अपने विचारों के प्रभाव (impact of thought evaluation) का मूल्यांकन करते हुए, अपनी काम-उर्जा को आध्यात्मिक उर्जा, या ओजस में रूपान्तरित (sublimate) कर देने का अंतिम निर्णय लेना ही होगा।
आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा है- हमारे विचार और चिन्तन ही हमारे जीवन को जबर्दस्त (आश्चर्यजनक) रूप से प्रभावित करते हैं। भोगवादी ऐन्द्रिक संस्कृति के साथ सम्बद्ध कामुक विचारों के प्रकोपों से ‘ मन, वचन, कर्म में निरन्तर पवित्रता ’ ही हमारी रक्षा करती है। यदि हम, ईश्वर की अनुभूति या साक्षात्कार करना चाहते हों, तो हमें अध्यात्मिक जीवन जीने की कला सीखनी होगी। और इसी एकमात्र आध्यात्मिक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये हमें अपनी मूल-शक्ति (कामशक्ति) का नियन्त्रण कर उसे पूर्णतया आध्यात्मिक उर्जा में रूपान्तरित कर देना होगा। 
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सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (6)

षष्ठ पाठ 
{प्रकाशकीय:  १८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
सुषुम्णा : सुषुम्णा का ध्यान करना अत्यन्त लाभदायक है। तुम इसका चित्र अपने भाव-चक्षुओं के सामने लाओ, यह सर्वोत्तम विधि है। इस लिये देर तक उसका ध्यान करो। “ It is a very fine, very brilliant thread, this living passage through the spinal cord, this way of salvation through which we have to make the Kundalini rise.” 
 सुषुम्णा एक अति महीन, अति तेजोमय तार जैसी है, जो मेरुदण्ड से होकर हुई एक प्राणवंत मार्ग है, जिसके द्वारा हम कुंडलिनी जाग्रत कर सकते हैं, मुक्ति का द्वार है।
 
योगियों की भाषा में सुषुम्णा के दोनों छोरों पर कमल हैं। निचे वाला कमल कुंडलिनी के त्रिकोण को आच्छादित किये हुए है, और उपर वाला ब्रह्मरंध्र या सहस्रार ( brain surrounding the pineal gland) को ढके हुए है। इन दोनों के बीच भी चार कमल हैं, जो इस मार्ग के विभिन्न सोपान हैं : 
षष्ठ --सहस्रार।
पञ्चम ---नेत्रों के मध्य --आज्ञाचक्र।
चतुर्थ--कण्ठ के नीचे --विशुद्ध।
तृतीय --ह्रदय के समीप --अनाहत।
द्वितीय--  नाभिदेश में --मणिपुर।
प्रथम ---मेरुदण्ड के नीचे --मूलाधार।
प्रथम कुंडलिनी को जगाना चाहिये, फिर उसे एक कमल से दूसरे कमल की ओर उपर लेते हुए अन्त में मस्तिष्क में पहुँचाना चाहिये। प्रत्येक सोपान मन का एक नूतन स्तर है।
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" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (5)


पंचम पाठ
{प्रकाशकीय:  १८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
प्रत्याहार और धारणा : भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, “चाहे जिस रास्ते से आओ, मुझ तक ही पहुंचोगे।”
“सभी को मुझ तक पहुंचना होगा !”
 मन को समस्त विषयों से हटाकर किसी अभीष्ट विषय में संगृहीत करने की चेष्टा का नाम प्रत्याहार है। इसका प्रथम सोपान है मन की गति को स्वछन्द कर देना : उस पर नजर रखो, देखो कि वह क्या चिन्तन करता है ? स्व्यं केवल साक्षी बनो। मन आत्मा नहीं है। वह केवल सूक्ष्मतर रूप लिये हुए जड़ (नाशवान) वस्तु ही है। हम उसके मालिक हैं, और स्नायविक शक्तियों के द्वारा इच्छानुसार इसका उपयोग करना सीख सकते हैं।
[The double presence of mind: मन स्वयं को दो भागों में विभक्त कर सकता है, “The body is the objective (वस्तुनिष्ठ-मन) view of what we call mind (subjective या व्यक्तिपरक मन).”]  शरीर मन (आन्तरिक) का बाह्य रूप है। [शरीर मन (आन्तरिक नश्वर मन) का बाह्य (नाशवान) रूप या आकृति है।] हम शरीर और मन दोनों (नाशवान वस्तुओं) से परे (अविनाशी) आत्मायें हैं। हम आत्मा हैं, नित्य, अनन्त, साक्षी। शरीर चिन्तन-शक्ति का स्थूल रूप है।
जब वाम रंध्र से श्वास-क्रिया हो, तब विश्राम करो और जब दक्षिण रंध्र से, तब कार्य करो। और जब दोनों से हो, तब ध्यान या एकाग्रता का अभ्यास करो। जब हम शान्त हों और दोनों नासिका-रंध्रों से समान रूप से श्वास ले रहे हों, तब समझना चाहिये कि हम मौन ध्यान की उपयुक्त स्थिति में हैं। (वीणा प्राण-वायु को सम किये ) पहले ही एकाग्रता के लिये संघर्ष करने से कोई लाभ नहीं होता। ‘Control of thought will come of itself.’  मन का निरोध अपने आप होगा।
अँगूठे और तर्जनी से नासिका-रंध्रों को बन्द करने का (अनुलोम-विलोम और कपाल-भाति) का पर्याप्त अभ्यास कर लेने के पश्चात् हम केवल अपनी संकल्प-शक्ति से ऐसा (निरोध - मन को विषयों में जाने से रोक सकते हैं) कर सकते हैं।
अब प्राणायाम को कुछ बदलना होगा। यदि साधक अपने ‘इष्ट’ (Chosen Ideal- वांछित आदर्श) का कोई नाम है, तो रेचक और पूरक के समय उसे ‘ॐ’ के बदले उस नाम का जप करना चाहिये और कुम्भक के समय ‘हुम्’ मंत्र का जप करना चाहिये।
अवरुद्ध श्वास को तेजी के साथ कुंडलिनी के सिर के उपर प्रत्येक ‘हुम्’ जपने के साथ निक्षिप्त करो, और कल्पना करो कि ऐसा करने से वह जाग रही है। अपने को ईश्वर (अपने इष्टदेव से या गुरु) से अभिन्न समझो। कुछ समय बाद विचार अपने आगमन की घोषणा करेंगे, और वे (मन-सरोवर की तली चित्त की स्मृतियों से) कैसे प्रारंभ होते हैं ---इस बात का हमें साक्षात् ज्ञान होगा। और हम जो कुछ भी सोचने जा रहे हैं, उसके प्रति सचेत हो जाएँगे, इस स्तर पर ठीक वैसे ही अनुभव होगा, जैसे कि हम साक्षात् किसी व्यक्ति को आते हुए देख रहे हों। इस सीढ़ी तक हम तभी पहुँच पाते हैं, जब कि हमने स्वयं को अपने मन से अलग करना सीख  लिया है,और निरंतर हम स्वयं को द्रष्टा के रूप में मन को एक अलग वस्तु (दृश्य) के रूप में देखते हैं। इन्द्रिय-विषयों से संबंधित विचार तुम्हें पकड़ने न पाये, हटकर खड़े हो जाओ, वे शान्त हो जायेंगे।
अब केवल पवित्र विचारों (इष्टदेव के नाम-रूप-लीला-धाम) का अनुसरण करो; “ when they melt away”-- you will find the feet of the Omnipotent God !! उनके साथ चलो और जब वे अन्तर्हित हो जायेंगे, तब तुम्हें सर्वशक्तिमान भगवान (सच्चिदानन्द श्रीरामकृष्ण या) के चरणों के दर्शन होंगे। यह स्थिति इन्द्रियातीत या अतिचेतन अवस्था है। “ This is the super-conscious state; when the idea melts, follow it and melt with it. जब विचार विलीन हो जाएँ, उसीका अनुसरण करो और उसीमें तन्मय हो जाओ। (जब सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी सब कुछ विलुप्त हो जाये तब तुम भी उसी में गलकर उसके साथ मिल जाओ; किन्तु यदि माँ पुनः शरीर में लौटा दे तब ?)
प्रभामण्डल (Haloes,aura) : “ Haloes are symbols of inner light and can be seen by the Yogi.” अन्तर्ज्योति ‘inner light’ के प्रतीक हैं, और योगी उनका दर्शन कर सकते हैं। कभी कभी हम कोई ऐसा मुख देखते हैं, जो मानो ऐसी ज्योति से मण्डित है, जिसमें हम उसके चरित्र की झलक पा सकते हैं, और उसके बारे में एक अचूक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। हम अपने इष्ट का आगमन एक दिव्य-दर्शन के रूप में देख सकते हैं, और उसी प्रतीक को आलम्बन बनाकर सरलतापूर्वक अपने मन को पूर्णरूपेण एकाग्र कर सकते हैं। 
यद्दपि हम सभी अपनी समस्त इंद्रियों के माध्यम से कल्पना कर सकते हैं, तथापि अधिकतर हम आँखों की सहायता लेते हैं. यहाँ तक कि कल्पना भी अर्ध-जड़ है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बिना एक प्रारंभिक चित्र के हम चिन्तन नहीं कर सकते। [“ we cannot think without a phantasm.” जैसे बिना एक प्रारंभिक-चित्र के हम गणेश भगवान का चिन्तन नहीं कर सकते हैं, जिसको कार्ल जुंग-archetype या आर्किटाइप या आद्यरूप ‘original’ मौलिक-रूप कहते हैं !)] चूँकि पशु भी चिन्तन करते से प्रतीत होते हैं, किन्तु वे किस बारे में सोच रहे हैं, उसे बताने के लिये उनके पास शब्द नहीं हैं, अतः यह सम्भव है कि चिन्तन और चित्रों के बीच में कोई अविभाज्य संबन्ध न भी हो। 
योग में कल्पना को बना रहने दो, पर ध्यान रखो कि वह शुद्ध और पवित्र रहे। कल्पना-शक्ति की प्रक्रिया की हमारी सबकी अपनी अपनी अलग विशिष्टतायें हैं। जो मार्ग तुम्हारे लिये सबसे अधिक स्वाभाविक हो, उसीका अनुसरण करो, वही सरलतम मार्ग होगा। 
"वह श्रीराम जो श्रीकृष्ण थे, अब श्रीरामकृष्ण हो गये हैं !"
 
  " He who was Rama was Krishna and is now Ramakrishna"
“ We are the results of all reincarnations through Karma: "One lamp lighted from another", says the Buddhist — different lamps, but the same light.” हम सभी लोगों का वर्तमान जीवन अनेक पूर्व जन्मों के कर्मो का फल है। बौद्ध लोग कहते हैं, “एक से दूसरा दीप जलाया गया। दीप भिन्न भिन्न हैं, पर (भिन्न भिन्न दीपों में वही एक ज्योति चली आ रही है) प्रकाश एक ही है। “
सदा प्रसन्न रहो, वीर बनो, (वीर हो तो धीर बनो !), नित्य स्नान करो और 3P - धैर्य, पवित्रता और अध्यवसाय बनाये रखो। तभी तुम यथार्थतः योगी बनोगे। शीघ्रता कदापि न करो और यदि उच्च शक्तियाँ अवतरित होती हैं, तो याद रखो कि वे तुम्हारे अपने मार्ग से भिन्न पगडंडियाँ हैं !! वे तुम्हें अपने मुख्य पथ से भ्रष्ट न कर पायें। उन्हें अलग छोड़ दो और अपने एकमात्र लक्ष्य पर अटल रहो -ईश्वर। केवल अनन्त की छह करो, जिसे पाकर हमें अनन्त शान्ति प्राप्त होगी। पूर्ण को प्राप्त करने पर फिर प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रहता। हम सदा के लिये मुक्ति और पूर्णता का लाभ कर लेते हैं--पूर्ण सत्, पूर्ण चित्, पूर्ण आनन्द ! 
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" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (4)

चतुर्थ पाठ

{प्रकाशकीय:  १८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
मन को वश में करने की शक्ति प्राप्त करने के पूर्व हमें उसका भली प्रकार अध्यन करना चाहिये। चंचल मन को संयत करके हमें उसे विषयों में जाने या बहिर्मुखी होने से रोकना होगा, उसे खींच कर, या अन्तर्मुखी बनाकर, उसे एक ही विचार में केन्द्रित करना होगा। इस अभ्यास को बार बार करना होगा। संकल्प-शक्ति अर्थात इच्छा-शक्ति या ‘power of will’ के द्वारा मन को वश में करके, उसे अन्य विषयों का चिन्तन करने से रोककर, केवल ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) की महिमा का चिन्तन करने में लगाना होगा। 
मन को स्थिर करने का सबसे सरल उपाय है, चुपचाप बैठ जाना और उसे देखते रहना। और उसे  कुछ क्षण के लिये वह जहाँ जाय, उसे जाने देना। दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो,"I am the witness watching my mind drifting.’- “ मैं मन नहीं हूँ; मैं मन को विचरण करते हुए देखने वाला साक्षी हूँ !“ Then see it think as if it were a thing entirely apart from yourself. इसके बाद, ऐसी कल्पना करो मानो मन सोच रहा हो कि वह तो, तुमसे (द्रष्टा या साक्षी) से बिल्कुल ही भिन्न है। अपने को ईश्वर (सच्चिदानन्द) से अभिन्न (स्वयं को ‘शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रिय रूपी रथ’ में बैठा हुआ ‘महारथी’)मानो, मन अथवा जड़ पदार्थ के साथ एक करके कदापि न सोचो।
  
सोचो कि ‘मन’ (दृश्य)तुम्हारे सामने एक विस्तृत, बिल्कुल तरंग-रहित, शान्त सरोवर की तरह है, और जो विचार इसमें आ-जा रहे हैं, वे मानो इस शान्त-निर्मल झील की तली में उठने वाले बुलबुले हैं, जिसे ‘तुम’ (द्रष्टा) बिल्कुल स्पष्ट रुप में देख पा रहे हो ! इन बुलबुलों को, या उठने-मिटने वाले विचारों को रोकने का प्रयास न करो, वरन उनको देखते चलो, वे जैसे जैसे विचरण कर रहे हैं, वैसे वैसे तुम भी उनका पीछा करते रहो। यह क्रिया धीरे धीरे मन-सरोवर के सतह पर उठने वाले तरंग-वृत्तों को सीमित कर देगी।
‘For the mind ranges over wide circles of thought and those circles widen out into ever-increasing circles, as in a pond when we throw a stone into it.’ कारण यह है कि ‘मन’ विचार-तरंगों की विस्तृत परिधि में घूमता है, और ये परिधियाँ विस्तृत होकर निरन्तर बढ़ने वाले वृत्तों का निर्माण करती रहती हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर होता है। (सरोवर में ढेला केवल बाहर से ही फेंका जा सकता है, किन्तु मन-सरोवर ऐसा है जिसमें इसकी तली या भीतर चित्त-भूमि में संचित स्मृतियाँ भी ढेला फेंकती हैं।) 
We want to reverse the process and starting with a huge circle make it narrower until at last we can fix the mind on one point and make it stay there.’
हम इस क्रिया को उलट देना चाहते हैं, और बड़े वृत्तों से प्रारंभ करके उन्हें छोटा छोटा बनाते चले जाते हैं, यहाँ तक कि अन्त में हम मन-सरोवर रूपी वृत्त के केन्द्र-बिन्दु पर स्थिर करके उसे वहीँ रोक सकें, निरुद्ध कर सकें या उसे तरंगायित ही न होने दें !! 
Hold to the idea, "I am not the mind, I see that I am thinking, I am watching my mind act", दृढ़तापूर्वक इस भाव का चिन्तन करो, “मैं मन नहीं हूँ, मैं देखता हूँ कि मैं सोच रहा हूँ अर्थात मेरा मन सोच रहा है। मैं द्रष्टा हूँ और मन दृश्य है। मैं अपने मन (दृश्य) तथा अपनी (द्रष्टा-अहं की) क्रिया का अवलोकन कर रहा हूँ। “ प्रतिदिन ऐसा अभ्यास करते रहने से मन और उसमें उठने वाले विचारों को अपने से अभिन्न समझने का भाव कम होता जायेगा, यहाँ तक कि अन्त में तुम अपने को मन से बिल्कुल कर सकोगे, और सचमुच इसे अपने से भिन्न जान सकोगे। 
इतनी सफलता प्राप्त करने के बाद मन तुम्हारा दास हो जायेगा, और उसके उपर इच्छानुसार शासन कर सकोगे। “The first stage of being a Yogi is to go beyond the senses. “ इन्द्रियों से परे हो जाना योगि की प्रथम अवस्था है। जब वह मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब सर्वोच्च स्थिति प्राप्त कर लेता है।
जितना सम्भव हो सके, एकान्त सेवन करो। तुम्हारा आसन सामान्य ऊँचाई का होना चाहिये। प्रथम कुशासन बिछाओ, फिर मृगचर्म और उसके उपर रेशमी कपड़ा। अच्छा होगा कि आसन के साथ पीठ टेकने का साधन न हो, और वह दृढ हो।
‘Thoughts being pictures, we should not create them.’चूँकि विचार एक प्रकार के चित्र हैं, अतः हमें उनकी रचना नहीं करनी चाहिये। हमें अपने मन से सारे विचार हटाकर रिक्त कर देना चाहिये। जितनी ही शीघ्रता से विचार आयें, उतनी ही तेजी से उन्हें दूर भगाना चाहिये। इसे कार्यरूप में परिणत करने के लिये, ‘we must transcend matter and go beyond our body.’  हमें जड़-जगत और शरीर (की आसक्ति) के परे जाना परमावश्यक है। वस्तुतः मनुष्य का समस्त जीवन ही इसको सिद्ध करने का प्रयास है।
प्रत्येक ध्वनि (मंत्र) का अपना अर्थ होता है, हमारी प्रकृति में इन दोनों का परस्पर संबन्ध है। हमारा उच्चतम आदर्श ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण) हैं। उनका ही चिन्तन (नाम-जप) करो। यही नहीं कि हम ज्ञाता को जान सकते हैं, अपितु हम तो वही हैं। अशुभ को देखना तो उसकी सृष्टि ही करना है। जो कुछ हम हैं, वही हम बाहर भी देखते हैं, क्योंकि यह जगत हमारा दर्पण है। यह छोटा सा शरीर हमारे द्वारा रचा हुआ एक छोटा सा दर्पण है। बल्कि समस्त विश्व हमारा शरीर है। इस बात का हमें सतत चिन्तन करना चाहिये, तब हमें ज्ञान होगा कि न तो हम मर सकते हैं और न दूसरों को मार सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक शरीर मेरा ही स्वरुप तो है ! हम अजन्मा हैं, और अमर हैं ! और हमारा एक मात्र कर्तव्य प्रेम करना है ! 
‘ यह समस्त विश्व हमारा शरीर है। समस्त स्वास्थ्य, समस्त सुख हमारा सुख है, क्योंकि यह सब विश्व के अन्तर्गत है।’ कहो, ‘ मैं विश्व हूँ !’ अन्त में हमें ज्ञात हो जाता है कि सारी क्रिया हमारे भीतर से इस दर्पण में प्रकट हो रही है।
यद्दपि हम छोटी छोटी लहरों के समान प्रतीत हो रहे हैं, तथापि समस्त समुद्र हमारा आधार है और हम उसके साथ एक हैं। समुद्र के बिना लहर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
यदि कल्पना का सदुपयोग करें, तो वह हमारी परम हितैषिणी है। वह युक्ति के परे जा सकती है। और वही एक ऐसी ज्योति है, जो हमें सर्वत्र ले जा सकती है।
अन्तःस्फुरण प्रदान करनेवाली शक्ति हमारे भीतर है। हमें स्व्यं अपनी उच्च मनःशक्तियों से प्रेरित होना होगा।
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" राजयोग पर छः पाठ " -तृतीय पाठ- स्वामी विवेकानन्द (3)


तृतीय पाठ 
(ओजस)
{प्रकाशकीय:  यह रचना स्वामी विवेकानन्द द्वारा 1895 ई. में अमेरिका में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर,  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘Be and Make वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा में आयोजित शिविर में  दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर  आधारित है। जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, 1913 ई.  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
कुंडलिनी : आत्मा का अनुभव जड़ के रूप न करो, बल्कि उसके यथार्थ स्वरुप को जानो। हम लोग आत्मा को देह समझते हैं, किन्तु हमारे लिये इसको इन्द्रिय और बुद्धि से अलग करके सोचना आवश्यक है। तभी हमें इस बात का ज्ञान होगा कि हम अमृतस्वरूप हैं। परिवर्तन से आशय है कार्य और कारण का द्वैत; ‘all that changes must be mortal.’और जो कुछ भी परिवर्तनशील है, उसका नश्वर होना अवश्यम्भावी है। इससे यह सिद्ध होता है कि न तो शरीर और न मन अविनाशी हो सकते हैं, क्योंकि दोनों में परिवर्तन हो रहा है। केवल जो अपरिवर्तनशील है, वही अविनाशी हो सकता है; क्योंकि उसे कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता।
हम लोग (ब्रह्म को या सत्य को जानने के बाद) सत्यस्वरूप हो नहीं जाते, बल्कि हम पहले से ही सत्यस्वरुप हैं।  किन्तु हमें सत्य को आवृत करने वाले अज्ञान के पर्दे को हटाना होगा। ‘ The body is objectified thought.’ देह विचार का ही रूप है। ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ शक्ति-प्रवाह शरीर के सभी अंगों में शक्ति-संचार करते हैं। अवशिष्ट अतिरिक्त शक्ति सुषुम्णा के अन्तर्गत विभिन्न चक्रों अथवा सामान्यतया विदित स्नायु-जाल (plexuses) में संचित रहती है। ये शक्ति-प्रवाह मृत देह में दृष्टिगत नहीं होते और केवल स्वस्थ शरीर में ही देखे जा सकते हैं। योगी को एक विशेष सुविधा रहती है, क्योंकि वह केवल इनका अनुभव ही नहीं करता, अपितु इन्हें प्रत्यक्ष देखता भी है। वे उसके जीवन में ज्योतिर्मय हो उठते हैं। ऐसे ही उसके महान स्नायु-केन्द्र (nerve centres) भी हैं।
कार्य,जाग्रत (conscious) तथा अचेतन मन (unconscious), दोनों दशाओं में होते हैं। योगियों की एक  दूसरी अवस्था भी होती है, वह है अतिचेतन अवस्था (super-conscious), जो सभी देशों और सभी युगों में समस्त समस्त धार्मिक ज्ञान का स्रोत रही है। ‘The super-conscious state makes no mistakes’ अतिचेतन या तुरीय अवस्था में कभी भूल नहीं होती, किन्तु जब जन्मजात-प्रवृत्ति (instinct) के द्वारा प्रेरित होकर कोई कार्य किया जाता है, तो वह कार्य पूर्णरूपेण यंत्रवत होता है, किन्तु पूर्ववर्ती अतिचेतन (इन्द्रियातीत) अवस्था, जाग्रत अवस्था (होश या चेतना consciousness) के परे की स्थिति होती है। इसे सहजानन्द (अन्तःप्रेरणा inspiration) कहते हैं, परन्तु योगी कहता है, “ यह शक्ति प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है और अन्ततोगत्वा सभी लोग इसका आनन्द प्राप्त करेंगे।”  
हमें ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ की गतियों को एक नये रास्ते से परिचालित करना होगा और उनके लिये
‘सुषुम्णा’ का मुख खोलकर एक नया रास्ता देना होगा। जब हम इस ‘सुषुम्णा’ से होकर शक्ति-प्रवाह को मस्तिष्क तक ले जाने में सफल हो जाते हैं, उस समय हम शरीर से बिल्कुल अलग हो जाते हैं। मेरुदण्ड के तले त्रिकास्थि (sacrum) के निकट स्थित मूलाधार चक्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यह स्थल काम-शक्ति (sexual energy) के प्रजनन-तत्व (generative substance) का निवास है, और योगी इसको एक त्रिकोण के भीतर छोटे से कुंडलीकृत सर्प के प्रतीक के रूप में मानते हैं। इस प्रसुप्त सर्प (sleeping serpent) को कुंडलिनी कहते हैं। इस कुंडलिनी को जाग्रत करना ही राजयोग का प्रमुख उद्देश्य है। 
महती कामशक्ति (sexual force) को पशु-सुलभ क्रिया से उन्नत करके मनुष्य शरीर के महान डाइनेमो मस्तिष्क (dynamo of the human system, the brain) में परिचालित करके वहाँ संचित करने पर ‘ओजस’ अर्थात महान आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है। समस्त सत चिन्तन, समस्त प्रार्थनायें उस पशु-सुलभ शक्ति (that animal energy) के एक अंश को ओजस में परिणत करने में सहायता करती हैं और हमें आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती हैं। 
यह ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इस शक्ति का संग्रह सम्भव है। “One in whom the whole animal sex force has been transformed into Ojas is a god. He speaks with power, and his words regenerate the world.”  जिसकी समस्त पशु-सुलभ काम-शक्ति ओजस में परिणत हो गयी है, वही देवता है। उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत को पुनरुज्जीवित करते हैं।
 योगी मन ही मन कल्पना करता है कि यह कुंडलिनी क्रमशः धीरे धीरे उपर उठकर सर्वोच्च स्तर अर्थात सहस्रार (pineal gland) में पहुँच रही है। जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति, काम-शक्ति (sexual energy) को ओजस में परिणत नहीं कर लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता।
“No force can be created; it can only be directed. Therefore we must learn to control the grand powers that are already in our hands and by will power make them spiritual instead of merely animal. Thus it is clearly seen that chastity is the corner-stone of all morality and of all religion.”
कोई शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती, उसे केवल एक दिशा में परिचालित या रूपान्तरित क्या जा सकता है। अतः हमें चाहिये कि हम अपनी महती शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति की सहायता से उन्हें पशुवत रखने के बजाय आध्यात्मिक बना दें। अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता ( ब्रह्मचर्य chastity) ही समस्त धर्म और नीति की आधारशिला है। विशेषतः राजयोग में मन-वचन-कर्म की पूर्ण पवित्रता अनिवार्य है। विवाहित हों या अविवाहित, सभी लोगों के लिये एक ही नियम लागु होता है। शरीर के इस सार अंश को वृथा नष्ट कर देने पर आध्यात्मिकता की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
इतिहास बताता है कि सभी युगों में बड़े बड़े द्रष्टा महापुरुष या तो तपस्वी और संन्यासी थे, या उम्र की एक अवस्था में आने के बाद विवाहित-जीवन का परित्याग कर देने वाले थे। पवित्रता ही सबसे महान शक्ति है। केवल पवित्रात्मा ही भगवत-साक्षात्कार कर सकते हैं। 
Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.
प्राणायाम से पूर्व इस त्रिकोण-मंडल को ध्यान में देखने की चेष्टा करो। आँखें बंद करके इसके चित्र की मन ही मन स्पष्ट कल्पना करो। सोचो कि इसके चारों ओर अग्निशिखा है और उसके बीच में कुंडलिनी सोयी पड़ी है। जब तुम्हें कुंडलिनी स्पष्ट रूप में दिखने लगे, अपनी कल्पना में इसे मूलाधार चक्र में स्थित करो और कुम्भक में श्वास को अवरुद्ध करके कुंडलिनी को जगाने हेतु श्वास के द्वारा उसके मस्तक पर आघात करो। जितनी ही शक्तिशाली कल्पना होगी, उतनी ही शीघ्रता से वास्तविक वास्तविक फल की प्राप्ति होगी और कुंडलिनी जाग्रत हो जायेगी। जब तक वह जाग्रत नहीं हुई है, तब तक यही सोचो कि वह जाग्रत हो गयी है, तथा शक्ति-प्रवाहों को अनुभव करने की चेष्टा करो और उन्हें सुषुम्णा पथ में परिचालित करने का प्रयास करो। इससे उनकी क्रिया में शीघ्रता होती है। 
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